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वर्ष ३, किरण ।
श्रीभद्रबाहु स्वामी
करता, इसलिये नियुक्तिकार भद्रगहुका समय वीर उपलब्ध होते हैं। उनमें अन्तका प्रन्थ खगोल निर्वाणसं १७० वर्ष बाद नहीं हो मकता । शास्त्रका व्यावहारिक ज्ञान कराने वाला 'पंचसिद्धाश्री संघतिलक सूरिकृत सम्यक्त्वमप्ततिका
न्तिका' है। उममें उसका रचनाकाल शक संबन वृत्तिक, श्री जिनप्रभसूरिकन 'उपसर्गहरं' स्तोत्र
४२७ बताया है। वृत्ति तथा मेरुतुंगाचार्यकृत प्रबन्ध चिन्तामणि
देखो, उमकी निम्न लिम्वित आर्यावगैरह श्वेताम्बरोय ग्रन्थोंमें भद्रबाहुका प्रखर
सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । ज्योतिषी वराहमिहरके भाई के तौर पर वर्णन किया
अर्धस्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥ है। वराहमिहरके रचे हुए चार प्रन्थ इस समय
वराहमिहरका समय ईस्वी सन्की छठी
शताब्दी है (५०५ से ५८५ तक)। इमसे भद्रबाहुका * तत्थ य च उदस विज्जाठाणपारगो छक्कम्म• समय भी छठी शताब्दी निर्विवाद सिद्ध होता है । मम्मविऊ 'पयईए' मद्दों 'भद्दबाहू' नाम 'माहणो श्री भद्रबाह स्वामी निर्यक्ति वगैरह किमी भी हत्था । तस्स य परमपिम्म सरिसीरुहमिहरो वराह- प्रथमें अपना रचनाकाल नहीं बताते हैं; मात्र मिहरो नाम सहोयरो।
कल्प सूत्रमें-संघति० सम्यक्त्व सप्त० वराहमिहरका जन्म उजैनके आस पास हुआ था। समयस्स भगवो महावीरस्स जाव सपदुक्खइसने गणितका काम ई. सन् ५०५ में करना प्रारम्भ पहीणस्स नववाससयाई विइकताई. दसमस्सय किया था और इसके एक टीकाकारके कथनानसार वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । उसका ई० स०५८७ में मरण हुअा था ।
* वायांतरे पुण अयं ते राउए संवच्छरे काले -प्रो० ए० मेक्डानल्ड-संस्कृत साहित्यका इतिहास ५६४ गच्छइ । (सूत्र १४८)
+ बहत्संहिता ( जो १८६४-१८६५ की इस वाक्यका अर्थ कल्पसूत्रके टीकाकार भिन्नBibiothicn Indiea में कर्नने प्रसिद्ध की है भिन्न रीतिमे उत्यक्ष करते हैं। परन्तु ठीक हकीकत तो और Journal of Asiatic Society की ऐमो मालूम होती है कि उस समय विक्रम सम्वत् ५१० चौथी पुस्तकमें इसका अनुवाद हुआ है। इसी चालू होगा, और उस विक्रमके राज्यारोहण दिवससे तथा ग्रन्थकी भट्टोत्पलनी टीका के साथकी नई श्रावृत्ति १८६५. सम्वत्सरको प्रवृत्तिदिवससे गणना सम्बन्धी मत भेद ९७ में एस० द्विवेदीने बनारसमें प्रसिद्ध की है)। होगा। श्री महावीर प्रभुके निर्वाणसे ४७० वर्ष में विक्रम होराशास्त्र (जिसका मद्रासके सी० आयरने १८८५ राजा गद्दी पर बैठा, उसके बाद १३ में वर्ष में सम्वत्सर में अनुवाद किया है)। लघुजातक (जिसके थोड़े प्रवर्तीया था, इसलिये विक्रम सम्वत्में ४७० जोड़नेसे वीर भागका वेबर और जेकोबीने १८७२ में भाषान्तर किया सं०९८० श्राता है और ४८३ जोड़नेस ३६३ वर्ष आता है) और पंचसिद्धान्तिकाको बनारसमें थोवो और एस. है। इस बातके समर्थन के लिए देखो, कालिकाचार्यकी द्विवेदीने १८८८ में प्रसिद्ध किया है और उसके मोटे परम्परामें होने वाले श्रीभावदेवसूरि द्वारा संचत कालिभाग का अनुवाद भी किया है।
काचार्यको कथाको निम्नलिखित गाथाएं