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३, किरण ३]
છે.
जैनधर्मकी विशेषता
व
देनेके लिये ललकारता है तो ये विद्वान लोग एकदम घबरा उठते हैं, सोचते हैं कि तक तो कर्तव्यहीन कर्मण्य, साहसहीन, और शिथिलाचारी होकर प्रमाद की नींद ले रहे थे, अनपढ़ पंचों और सेठ साहूकारोकी हमें हां मिलाकर, प्रचलित रूढ़ियां को ही जैनधर्म बताकर, बिना कुछ करे कराये ही वाहवाही ले रहे थे, इन सभी रीति रिवाजोंकी जांच कर किम प्रकार उन से किमीको जैनधर्म अनुकूल और किमीको प्रतिकुल मिद्ध करनेका भारी बोका उठावें, किस प्रकार जैनसिद्धान्तों के अनुसार उनके सब व्यवहार स्थिर करके कोई उचित नियम बनावें । इस कारण वह घबराकर इम हीमें अपनी बचत समझते हैं कि सुधारकी श्रावाज उठानेवालों को श्रद्धानी और शिथिलाचार फैलानेवाला Tare विचारहीन जनताको उनके विरुद्ध करदे और लोगोंकी मानी हुई प्रचलित रूढ़ियांको ही धर्म ठहराकर
(३) पं० अजितकुमारजी शात्री, मुलतान मिटी -
वीरशासनाङ्क' पर कुछ सम्मतियाँ
"अनेकान्ता वीर शासनाङ्क मिला । देखकर प्रमत्रता हुई । इसका सम्पादन अच्छे परिश्रमके साथ हुआ है, उसमें आपको अच्छी सफलता भी मिली है। इस श्रंक बा० जयभगवानजी वकीलका 'मत्य अनेकान्तात्मक है' शीर्षक लेख अच्छा पठनीय है। 'यापनीय' संघका साहित्य' लेख भी पके लिये उपयोगी है। 'जेननक्षणावलि' का प्रकाशन जैन साहित्यकी एक संग्रहणीय वस्तु है । और भी कई लेख पठनीय हैं। वृद्ध अवस्थामें भी आप युवकोंसे बढ़कर परिश्रम कर रहे हैं. यह नवयुवक साहित्य सेवियोंके लिये आदर्श है।"
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वाहवाही प्राप्त करलें ।
यह कोई नवीन बात नहीं है, सदासे ऐसा ही होता चला चाया है अकर्मण्य लोग सदा ऐना ही किया करते हैं जिससे सुधारकी प्रगति में बड़ी बाधा श्राती है । परन्तु जो सच्चे सुधारक हैं, वे इन सब चोटोंको सहकर मरते मरते अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ते हैं और एक न एक दिन कामयाब ही होते हैं और उन ही से यश पाते हैं जो उनको श्रधर्मी और महापापी कह कर बद नाम किया करते थे। प्रवाह में बहने वालोंका अपना कोई अस्तित्व तो होता ही नहीं है, प्रवाह पूर्वको चला तो वे भी पूर्वको बह गये और प्रवाह पश्चिमको चला तो
भी पश्चिम बहने लग गये, उधरके ही गीत गाने लग गये । इम प्रकार महा अकर्मण्य बने रहने से हो, प्रत्येक समय में और प्रत्येक दशामें वाहवाही लेते रहे ।
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( ५ ) श्री० भगवनस्वरूपजी जैन 'भगवान' -
"वीर शासन को देखकर मुग्ध होगया ! इतना अच्छा, महत्वपूर्ण विशेपाङ्क निकट भविष्य में शायद ही आँखोंके आगे आए। 'अनेकान्त' जैन समाजकी जहाँ त्रुटि पतिके रूपमें है, वहाँ हम atta foए गौरवकी चीज़ भी ! उसका सम्पादन, लेखचयन, प्रकाशन क़रीब क़रीब सब कलात्मक है ! वह जितना विद्वानोंको मननीय, और रिसर्चका मैटर देता है, उतना ही बाह्याकृति मुझ जैसोको लुभा भी लेता होगा, इसमें शायद भूल नहीं। इस के लिए समाजकी तीनों सफल शक्तियाँ- सम्पादक, संचालक और प्रकाशक - आदरकी पानी है।"