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________________ Man [ड, पापड, पीर- विram निर्माण होकर संसारमें उसका प्रभर किया जा भनेक तमोत्तम प्रन्योंकी सुसम भाषा पनि सकता है। का की है, और अनेक नवीन ग्रंथ भी बनाएँ है, परन्तु अभी तक देशदेशान्तरोंमें उनका जैसा पण्डित सदासुखदासजीके एक प्रधान शिष्य प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं हुआ है। और थे। उनका नाम था पन्नासाखाजी संघी। आपका तुम इस कार्यके सर्वथा योग्य हो, तथा जैनधर्मके उक्त पंडितजीसे विक्रम सं० १९०१ से १९०७ के मर्मको भी अच्छी तरह समझ गये हो, पतएव मध्यवर्ती किसी समयमें साक्षात्कार हुआ था । गुरुदक्षिणामें मैं तुमसे केवल यही चाहता हूँ कि पपिडतजीके सदुपदेश एवं प्रभावसे संघीजीकी जैसे बने तैसे इन ग्रंथोंके प्रचारका प्रयत्न करो। विचवृत्ति पलट गई और जैनधर्मके प्रन्थोंके वर्तमान समयमें इसके समान पुरयका और धर्मअभ्यासको भोर उनका चित्त विशेषतया उत्कंठित की प्रभावनाका और कोई दूसरा कार्य नहीं है।" हो उठा। उन्होंने यह प्रविया की, कि मैं माजसे यह कहनेकी बावश्यकता नहीं, कि पण्डितजीके रात्रिको १० बजे प्रति दिन पंडितजीके मकान पर सुयोग्य शिष्य संघीनीने गुरु दक्षिणा देने में जरा पहुँच कर जैनधर्मके ग्रंथोंका अभ्यास एवं परि- भी माना कानी नहीं की । और आपने अपने शीखन किया फहँगा । जब संघीजी अपनी प्रतिज्ञा जीवनमें राजवार्तिक, उत्तर पुराण आदि पाठ के अनुसार रात्रिको १० बजे पंडितजीके मकान प्रन्यों पर भाषा वर्षानकाएँ लिखी हैं और पर पहुंचे तब पण्डितजीने कहा कि भाप बड़े घर २०००० हजार श्लोक प्रमाण विद्वज्जम बोधक' के हैं-सुखिया हैं-अतः आपसे ऐसे कठिन पण- नामक ग्रंथका निर्माण भी किया है । इसके सिवाय का निर्वाह कैसे हो सकेमा ? उत्तरमै संघीजीने सरस्वती पूजा भादि कुछ पुस्तकें पद्यमें लिखी हैं। उस समय अपने मुँहसे तो कुछ भी नहीं कहा अन्य साधर्मी भाइयोंकी सहायतामे आपने जयपुर किन्तु जब तक पंडित सदासुखजी जीवित रहे तब में एक "सरस्वती भवन" की स्थापना की थी तक आप बराबर नियम पूर्वक उसी समय उनके जिससे बाहरसं ग्रंथोंकी मांग माने पर प्रन्योंकी पास पहुँचते रहे । पंडितजीक सहयोगसे अाफ्ने प्रतिलिपि कराकर भेज देते थे । सस कार्यको कितने ही सिद्धान्त ग्रंथोंका अवलोकन किया और भाप पंडितजीकी अमानत समझने थे, और उस जैनधर्मके तत्वोंका मनन एवं परिशीलन किया। का जीवन पर्यंत तक निर्वाह करते रहे। · पंडित सदासुखदासजीने अन्त समवमें अपने यपि परिडत सदासुखदासजीके मरण-समय शिष्य संधीजीस कहा कि-"अवमें इस अस्थायी पर्यायको छोड़कर विदा होता हूँ। मैंने तथा मेरे 10 पाकासबी संदीका परिचय. 'विजय पूर्व पर्ती पंडित टोडरमलजी, मन्नालालजी और बोष मुनित प्रथमतगती मत्तानासे खिमा गया जयचन्द्रजी श्रादि विद्वानों ने असीम परिश्रम करके देखो-पृ. ३ . ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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