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________________ प्रवलिया और पं०सदासुखजी कैप होना होगा ? उत्तरमें पंडितजीने कहा कि रूप प्रो कार्य पराबर चालू रहा है वह शायद ही भापकी कपास. सब हो जाता है। तब राजाने देखनको मिलता। बड़े. प्राग्रहसे कहा कि मामापको जो भारत हो सो मांगलें, मैं उसे पूरा कर दूंगा और चाजसे पंडितजीकी जीवन-घटनाओंका और कौटुभापको वेतन २०) रु० माहवार मिला करेगा। म्बिक जीवनका यद्यपि कोई परिचय उपलब्ध इतना सब होने पर भी परम संतोषी पण्डित नहीं है तो भी जो कुछ टीका पन्थोंमें दी गई सदासुखदासजीन कहा कि यदि आप मेरी प्रार्थना संक्षिप्त प्रशस्ति मादिसे जाना जाता है उससे पं० स्वीकार करें तो मैं निवेदन करूँ, इस समय मैं जीकी चित्तवृत्ति, उनकी सदाचारता, मात्म-निर्मरत्नकरण्ड श्रावकाचारको टोका लिख रहा हूँ, यता, अध्यात्मरसिकता, पिता और सची स्वयं अपनी इस अस्थायी पर्यायका कोई भरोसा धार्मिकता पद पद पर प्रकट होती है । आपका नहीं है और मुझे किसी चीजको कोई आकांक्षा जिनवाणीके प्रति बड़ा भारी स्नेह था, और उसकी नहीं है । अतः भाजस में पाठ घंटे के बजाय ६ देश देशान्तरोंमें प्रचार करनेकी आवश्यकताको घटे ही खजांचीका काय किया करूंगा और वेतन माप बहुत ही ज्यादा अनुभव किया करते थे। भी भाप मुझे ८) रु० की बजाय ६) २० मासिक इसलिये भापका अधिक समय शास्त्र स्वाध्याय, ही दे दिया करें। तब राजान कहा कि कलसे सामायिक, तत्त्ववितवन पठन-पाठन और प्रथोंके आप खजांचीका काय ६ घण्टे ही किया करें, अनुवादादि कार्योंमें ही व्यतीत होता था । रत्नपरन्तु वेतन यदि आप अधिक नही लेना चाहते करण्ड श्रावकाचारकी टीकाके अवलोकनस पापके तो वह ८) रु०स किसी तरह भी कम नहीं किया सैद्धान्तिक अनुभवका कितना ही पता चल जाता जा सकता। है और साथ ही भापकी विचार पद्धत्तिका भी बहुत कुछ ज्ञान हो जाता है। यद्यपि इस टोकामें यदि यह घटना सत्य हो; तो इससे पण्डित कहीं कहीं पर चरणानुयोगकं विषयको उसके जीकी संतोषवृत्तिका और धार्मिक साहित्यकं पात्रकी सोमास कुछ घटा बढ़ाकर लिखा गय है, निर्माणका कितना अधिक अनुराग प्रतीत होता जो प्रायः पण्डितजीकी उदामीन चित्तवृत्तिका है, इसे बतलाने की जरूरत नहीं रहती । यदि भट्टा परिणाम जान पड़ता है। फिर भी स्वामी समन्तरकीय प्रथाके खिलाफ तेरहपन्थ दि० जैनसमाज भद्रकं रत्नकरण्ड श्रावकाचारका यह महाभाष्य में स्थापित न होता और इस तरहसे खासकर पंडितजीके विशाल अध्ययन, विद्वता और कार्यजयपुर राज्यके विद्वान् दिगम्बर साहित्यको अनु- तत्परताकी ओर संकेत करता है । यदि भाज वादादिसे अलंकृत कर इसका प्रचार न करते तो दिगम्बर समाज के विद्वानोंमें जैनसाहित्य उद्धार दि० जैन समाजमें धार्मिक ग्रन्थों के पठन-पाठनावि एवं प्रचारको उन जैसी लगन हो जाय तो निस्सका और उनके ग्रंथोंके टीका-टिप्पणादिके निमोण- न्देह.कुछ वर्षों में ही बहुत कुछ ठोस साहित्यका
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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