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वर्ष ३, किरण ११]
पत्रपरीक्षा और श्राप्तपरीक्षा प्रकरण अपने अपने विषय के बेजोड़ निबन्ध है। ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्द के अन्य ग्रंथ श्रागे बने हुए समस्त दि० श्वे० न्यायग्रंथोंके आधार भूत हैं। इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दि० श्वे० भ्यायग्रन्थों पर अपनी अमिट छाप लगाए हुए हैं । यदि जैनभ्याय के कोशागार से विद्यानन्दके ग्रन्थों को अलग कर दिया जाय तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा । उनकी यह सत्यशासनपरीचा ऐसा एक तेजोमय रत्न है जिससे जैनन्यायका आकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आए हुए पदार्थ फुटकररूपसे उनके सहसी आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नए प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, श्रन्यत्र मिलना सम्भव है ।
विद्यानन्द- कृत सत्यशासनपरीचा
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मैं आशा करता हूँ कि जैनसिद्धान्तभवनके सुयोग्य अध्यक्ष इसकी मूल प्रतिका पता लगाएँगे । अन्य भंडारोंमें भी इस ग्रन्थरत्नकी प्रतियाँ मिलेंगी। शास्त्ररसिकोंको हम श्रोर लक्ष्य अवश्य देना चाहिए . जब इसकी पूर्ण प्रति उपलब्ध हो जाय तब इसका सुन्दर सस्करण माणिकचन्द्रग्रन्थमाला या अन्य ग्रंथमालाओं को अवश्य ही प्रकाशित करना चाहिए। यदि दुर्भाग्यसे यह ग्रन्थ अभ्य भवडारोंमें अधूरा ही मिले तो समझ लेना चाहिए कि यह विद्यानन्दस्वामीकी अंतिम कृति है । पर मात्र मौजूदा प्रतिके भरोसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि इसमें बीचमें भी कई जगह पाठ छूटे हैं और सम्भव है कि अंतमें भी नकल अधूरी रह गई हो। यदि पूरा ग्रंथ न मिले तब उपलब्ध भाग ही प्रकाशित होना चाहिए, इससे अनेकों प्रमेयौका खुलासा परिशान किया जा सकेगा ।