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श्रीपाल-चरिघ-साहित्यके सम्बन्धमें शेष ज्ञातव्य
ले-श्री अगरचन्द नाहटा, सम्पादक राजस्थानी']
घानेकान्त वर्ष २ की द्वितीय किरणमें "श्रीपाल विशेष ज्ञातव्य
चरित्र माहित्य" शीर्षक हमारा लेख प्रकाशित हुअा है । हममें श्रीपाल चरित्र सम्बन्धी ४६ श्वे और पूर्व लेखमें श्रीपालचरित्र सम्बन्धी सबसे प्राचीन १५ दि० कुल ६१ ग्रन्थों की सूची दी गई है छ । उसके
- ग्रंथ सं० १४२८ का बतलाया गया है पर मैनासुंदरी पश्चात् उन ग्रन्थों सम्बन्धी विशेष ज्ञातव्य एवं कुछ
का नाम निर्देश बारहवीं शताब्दीके खरतर गच्छीय
विद्वान् श्राचार्य जिनवल्लभसूरि (स्वर्ग सं०११६७) के नवीन साहित्यका पता चला है, उसीका सक्षिप्त परिचय
वृद्ध नवकार में भी मिलता है,अतः श्वेताम्बर समाजमें इस लेखमें दिया जा रहा है ।
भी १२वीं शताब्दीके पर्वका रचित कोई ग्रंथ अवश्य __ जैनममा जमे श्रीपालचरित्रका लोकादर दिनोंदिन
था यह सिद्ध है । पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीके पास बढ़ रहा है। अभी कई माम पूर्व कलकत्तम मैना सुन्दरी
दि० भडारोंकी जो प्राचीन सूचियाँ हैं उनमें भी पंडित नाटक भी खेला गया था व ग्रामोफोनमें 'मैनासुन्दरी'के
नरसेन कृत प्राकृत श्रीपाल चरित्रका उल्लेख है, अतः नामसे कई रेकार्ड भी निकल चुके है । कन्नड भाषाके
दि० विद्वानोंको खोजकर प्रकट करना चाहिये कि वह भी श्रीपाल चरित्रोका पता चला है।
कबका रचित है ? संभवतः वह प्राचीन होगा। * पूर्व लेखमें संख्या ४२।१६ सूचित की है पर दि० चरित्रोम से जिन ग्रन्थोंका केवल उल्लेख ही रत्नशेखर रचित चरित्रकी ४ टीकाओं के नम्बर बढ़ानेसे मिला था पर प्रतियोंका पता पहले मुझे नहीं मिला था १२ होते हैं, उनमें रै कविके चरित्रका उल्लेख दोबार उनमें से जिन जिनका पता चला है वे इस प्रकार हैं:हो गया है उसे देने पर संख्या होती हैं ।
१७. नेमिदत्त (सं.) भ. सकलकीत एवं पूर्व लेसमें मुद्रण दोषवश नीचे लिखी महत्वपूर्ण दौलतरामजी की भाषावचनिका की प्रतियाँ जयपुरके अशुद्धियाँ रह गई हैं पा०क उन्हें सुधार में । ताकि उस दि० भडारों में उपलब्ध हैं। के द्वारा और कोई फिर भूल न कर बैठे
___ कलकत्ते के बड़ दि० जैन मंदिर में सकलकीर्ति और अशुद्ध
परिमल्ल कवि रचित चरित्रोंकी प्रतियाँ भी मैंने स्वयं पृ० १५५ पंक्ति १३-२ वदी भंडार लींबदी भंडार
र देखी हैं उनके मम्बधम जो विशेष बाते ज्ञात हुई वे ये पृ.१६ पंक्ति -रत्नखान रस्नलाभ पृ० १६२ पंक्ति १६-मगदानन्द सागरानंद * 'मयणासुदरी' सणीपरे नवपय माण करंत । प. पंक्ति -सं.
सं० २५५१
(हमारे प्र० अभपरस्मसार पृ० १५७)