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________________ वीरका बीवन-मार्ग की विफलता है ? क्या यह ही जीवन है जहां हजार बना है । जिन्हें सिद्ध करते करते यह इतना अभ्यस्त हो प्रयत्न करने पर भी सन्तुष्टिका लाभ नहीं, और हजार गया है कि वे जीवनके मार्ग, जीवनके उद्देश्य ही बन रोक थाम करने पर भी अनिष्ट अनिवार्य है? क्या यह ही गये हैं। इसीलिये यह आशायुक्त होते हुए भी पाशाउद्देश है कि सुखकी लालमा रखते हुये दुःखी बना रहे, हत है। पुरुषार्थ होते हुए भी विफल है। सिद्धि की चाह करते हुये वाञ्छासे जकड़ा रहे, जीवन इन भूल, अज्ञान और मोहके कारण यद्यपि की भावना भाते हुये मृत्युमें मिल जाये ? क्या इसीके जीवने अपने वास्तविक जीवनको भुला दिया,उसे बन्दी लिये चाह और तृष्णा है ? क्या इसीके लिये उद्यम और बना अन्धकूपमें डाल दिया, परन्तु उसने इसे कभी नहीं पुरुषार्थ है ? क्या इसीके लिये संघर्ष और प्राणाहुति भुलाया, वह सदा इसके साथ है। वह घनाच्छादित सूर्यके समान फूट २ कर अपना श्रालोक देता रहता इसपर एक छोटीसी आवाज़ बोल उठती है, नहीं! है। वह इसके सुस्वप्नोंमें बस कर, इसकी अाशात्रोंमें यह मन-चाहा जीवन नहीं, यह तो उस जीवनकी पुकार बैठकर, इसकी भावनाओंमें भरकर इसके जीवनको है, ढूंढ है, तलाश है, उस तक पहुंचनेका उद्यम है, सुन्दर और सरस बनाता रहता है। वह अन्तगुफामें उसे पाने का प्रयोग है। इसीलिये यह जीवन असन्तुष्ट बैठकर मृदुगिरासे आश्वासन देता रहता है । 'तू यह और अशान्त बना हैं; उद्यमी और कर्मशील बना है, नहीं, त और है, भिन्न है, तेरा उद्देश इतना मात्र नहीं, अस्थिर और गतिमान बना है। वह बहुत ऊँचा है,तेरा यह लोक नहीं,तेरा लोक दूर है, पुनः शंका आ डटती है। यदि ऐमा ही है तो परे है ।' जीवन अपने पुरुषार्य में मफल क्यों नहीं होता ? यह इस अन्तःप्रतीतिसे प्रेरित हुआ जीव बार बार पुरुषार्थ करते हुये भी विफल क्यों है ? अाशाहत क्यों प्राणोंकी श्राहूति देता है, बार २ मरता और जीता है, है ? खेद खिन्न क्यों है ? बार बार पुतलेको घड़ता है, बार बार इसे रक्तक्रान्ति इसका कारण पुरुषार्थकी कमी नहीं, बल्कि सद् वाले मादकरससे मरता है, बार बार इसके द्वारोंसे लक्ष्य, सद्शान, सदाचारकी कमी है । जीवनका समस्त बाहिर लखाता है। परन्तु बार २ इसी नाम रूप कर्मा. पुरुषार्थ भलभ्रान्तिसे ढका है, अज्ञानसे श्राच्छादित है, त्मक जगतको अपने सामने पाता है, जिससे यह चिरमोहसे ग्रस्त है । इसे पता नहीं कि जिस चीज़की इसमें परिचित है। बारर यह देखकर इसे विश्वास हो जाता भावना बसी है वह क्या है, कैसी है, कहाँ है । इसे है-निश्चय हो जाता है कि यही तो है जिसकी हमें पता नहीं कि उसे पानेका स्या साधन है । उसे सिख चाह है, यही है जो इसका उद्देश है। इसके अतिरिक्त करनेका क्या मार्ग है । यह पुरुषार्थ जीवनको उस और कोई जीवन नहीं, और कोई उद्देश नहीं, और मोर नहीं ले जारहा है जिस ओर या जाना चाहता कोई लोक नहीं । परन्तु ज्यों ही यह धारणा पारकर यह है । उस चीज़की प्राप्तिमें नहीं लगा है जिसे यह नाम-रूप कर्मात्मक जीवन में प्रवेश करता है फिर वहीं प्राप्त करना चाहता है। यह केवल परम्परागत मार्ग. विफलता, वही निराशा, वही अपूर्णता या उपस्थित का अनुयायी बना है, उन्हीं सदीक पदार्थोका साधन होती है। फिर वही भय फिर वही शंका,फिर वही प्रश्न,
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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