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वीरका जीवन-मार्ग
.-भी अबभगवान बैन, बी. ए. एस एल. बी. पकीय]
जीवनकी विकटता:
है, कितना वेदनासे भरा है। उसके लिये कैसे कैसे
आघात-प्रघात सहन करता है ! कैसी २ बाधाओं विपजीवन सुनहरी प्रभातके साथ उठता है, अरुण
दाओं से गुजरता है ! परन्तु यह सब हुछ होने पर भी सूर्यके साथ उभरता है, उसके तेजके साथ
सिद्धिका कहीं पता नहीं। यदि भाग्यवश कहीं सिद्धि खिलखिलाता है, उसकी गतिके साथ दौड़ता-भागता है,
हाथ भी आई तो वह कितनी दुःखदायी है। वह प्राप्तिउसकी संध्याकी छायाके साथ लम्बा हो जाता है और
कालमें श्राकुलतासे अनुरजित है, रक्षाकालमें चिन्तासे उसके अस्त होने पर निश्चेष्ट हो सो जाता है।
संयुक्त है और भोगकालमें क्षीणता और शोकसे प्रस्त सुबह होती है शाम होती है,
है। इसका प्रादि, मध्य और अन्त तीनों दुःख पूर्ण उम्र यों ही तमाम होती है।
हैं ! यह वास्तवमें सिद्धि नहीं, यह सिद्धिका आभासतो क्या श्रम और विश्राम ही जीवन है ! काम
मात्र है । इस सिद्धिमें सदा अपर्णता बसती है। यह और अर्थ ही उद्देश है ? साँझ-सवेर-वाला ही लोक
सब कुछ प्राप्त करने पर भी रङ्क है, रिक्त है, वाँछा
बदि यों ही श्रम और विश्रामका सिलसिला बना
यह ज़िन्दगी दो रंगी है । इसकी सुन्दरतामें कुरूरहता, यदि यों ही काम और अर्थका रंग जमा रहता
पता बसती है । इसके सुखमें दुःख रहता है। इसकी तो क्या ही अच्छा था । जीवन और जगत कमी प्रश्नके
हँसीमें रोना है। इसके लालित्यमें भयानकता है। विषय न बनते । परन्तु जीवन इतनी सीधी-साधी चीज
इसकी प्रासक्तिमें अरूचि है। इसके भोगमें रोग है, नहीं है। माना कि इसमें सुस्वप्न है, कामनायें है,
योगमें वियोग है, विकास में हास है, बहारमें खिजाँ है, प्राशायें हैं, पर अत्यन्त रोचक, अत्यन्त प्रेरक हैं। जी
यौवनमें जरा है । यहाँ हर फूल में शूल है, इतना ही चाहता है कि इनके पालोकमें सदा जीवित रहे, परन्तु
नहीं यह समस्त ललाम लीला, यह समस्त उमंगभरा इन ही के साथ कैसे कैसे दुःस्वप्न है, असफलतायें है,
जीवन, यह समस्त साँझ सवेर वाला लोक मृत्युसे निराशाय है, विषाद है। यह कितने कटु और पिना
व्यास है। बने। जी चाहता है कि इनके बालोकसे छुपकर जीवन के मूल प्रश्न:कोयला जाये।
यह देख दिल भयसे भर आता है, अनायास कितना खेद है कि जीवनको कामना मिली पर संकायें उठनी शुरू होती है। क्या यह ही लोक है जहाँ सिद्धि न मिली ! उस सिद्धि के लिये यह कितना पातुर कामना का तिरस्कार है, आशाका अनादर है, पुरुषार्थ