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________________ १५ अनेकान्त (काल्गुन, वीरनिवाब सं०२४१६ स्थित ? कहीं भयंकर दुर्गम पर्वत ही पर्वत, कहीं करनेवाला और न नाश करनेवाला ही है। भले ही बन ही बन, कहीं पानी ही पानी, कहीं पानीका अन्धविश्वासी उसको वैसा मानते रहें। जोशाना बिलकुल अभाव-महस्थ जैसे स्थानोंमें, निर्जन वरणादि अष्ट कर्मों के बन्धन में हमेशाके लिये छूट स्थानों में जलप्रपात और सुन्दर झरनोंका बहना, गया है अर्थात कर्मों की गुलामीकी जंजीरोंको जिजहाँ ऊँची जमीन चाहिये वहां जमीनका नीचा सने काट फेंका है, जिसने समस्त कार्य कर लिये होना, जहाँ भूभागका नीचा शोभास्पद होता वहाँ हैं-कृतकृत्य होगया है और जिसने पूर्णता प्राप्त उसका ऊँचा होना, अकाल, महामारी, अनावृष्टि करली है, ज्ञान, सुख, वीर्य-श्रादिका धनी है जो अतिवृष्टि उल्कापात आदिका होना, डोम, मच्छर, मोक्ष पाने के बाद संसार में कभी न लौटता है और कीड़ा-मकोड़ा साप विच्छू सिंह व्याघ्रकी सृष्टि न संसारको झंझटोंमें फंसता है वही ईश्वर है। होना, मनुष्यमें एक धनवान् दूसरा निर्धन एक उसको महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु परमात्मा, खुदा गौड मालिक दूसरा नौकर, एक पुत्र-स्त्री-बाल बचे आदि (God) आदि भी कहते हैं। जैन दर्शनमें इसी के प्रभावसे दुखी, दूसरा इस सबके होते हुए भी प्रकारका ईश्वर-परमात्मा माना गया है और ऐमा दरिद्रताके कारण महान दुखी, एक पंडित दूसरा ईश्वर कोई एक विशेष व्यक्ति ही नहीं है। अब अक्कलका दुश्मन मूर्ख, चन्दनका पुष्प विहीन तक अनंत जीव परमात्मपद पा चुके हैं और होना, स्वर्णमें सुगन्धका न होना और गन्नामें भविष्यमें भी अगणित :जीव तरकी करते करते फलका न लगना इत्यादि ऐसे अनेक उदाहरण इस पदको पार करेंगे । अब तक जितने जीवोंने हैं जिनके कारण विश्वरचनाको कोई भी बुद्धिमान परमात्मपद प्राप्त किया है और भविष्यमें आत्मिक व्यस्थित और सुन्दर नहीं कह सकता । इस लिये उन्नति करते करते जितने जीव इस पदकी प्राप्ति बुद्धिमान ईश्वरको जगतका निर्माता वा व्यवस्था- करेंगे, वे सब परस्पर एक समान ज्ञान-सुख वीर्य पक कहना बिलकुल ही मारहीन मालूम होता है। आदि गुणोंक धारक होंगे। उनके गुणोंमें रंचइसीसे किसी कविने ऐसे ईश्वरकी बुद्धिका उप- मात्र भी तारतम्य न तो पाया जाता और न कभी हास करते हुए स्पष्ट ही लिखा है पाया जायगा। जिनसे पूज्य-पूजक भाव सदाके गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदंडे नाकारि पुष्पं किलचन्दनेषु लिये दूर होगया है और वे सभी मुमुक्षु जीवों विद्वान् नान्चो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिन- द्वारा समानरूपसे उपास्य हैं। इन मुक्त जीवोंसे बुद्धिदोऽभूत् ॥ भिन्न जगत् सृष्टा, जगत्पालक और जगत-विध्वंपाठक महानुभाव उपर्युक कथनसे संक्षेपमें सक त्रि-शक्ति सम्पन सदेश्वर नामका कोई भी यह तो समझ ही गये होंगे, कि ईश्वरको जगत व्यक्ति नहीं है। अतः ईश्वर (जगत का भादि फर्ता मानना युक्तिकी कसौटी पर किसी प्रकार रूपसे ) न माननेवाले दर्शनोंको नास्तिक दर्शन भी कसकर सिद्ध नहीं किया जा सकता और नहीं कहा जा सकता; इसलिये उपवुन दलीलसे वास्तव में बहन जगतका मनानेवाला, वा पालन जैनदर्शन भादिको नास्विकदर्शन कहना महान
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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