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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक ।
परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।। सम्पादन स्थान–वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली पौष-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६६६
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वर्ष३
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जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः। बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥ .
-हरिवंशपुराणे, जिनसेनरिः श्रीसिद्धसेनाचार्यकी निर्दोष सूक्तियाँ जगत्प्रसिद्ध बोधस्वरूप भ० वृषभदेवकी सूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धिको बोध देती है-उसे विकसित करती हैं।
प्रवादि-करि-यथानां केशरी नय-केशरः। सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्प-निखराकरः ।।
'--प्रादिपुराणे, भीजिनसेनाचार्यः जो प्रवादिरूपी हाथिक समूह के लिये विकल्परूप नुकीले नखोसे युक्त और नयरूप केशरोंको धारण किये हुए केशरीसिंह है, वे भीसिद्धसेन कवि जयवन्त हों-अपने प्रवचनद्वारा मिथ्यावादियोंके मतीका निरसन करते हुए, सदा ही लोकनदयों में अपना सिका जमाए रखें।
मर्दुविकल्पमतिकां सिंगन्त:करणामृतेः। कायः सिंदसेनाद्या वर्धयदिस्थिताः॥
-यशोधरनारते, मुनि कल्पांकीति: हृदयमें स्थित हुए - भीसिद्धसेन जैसे कवि मेरी उक्तिरूपी छोटीसी कल्पलताको कथामवसे सींचते पर उसे वृद्धिंगत करें अर्थात् में सिद्धसेन-बसे महा प्रभावशाली कवियोंको अधिकाधिक-रूपसे हृदयमें धारण करके अपनी वाणीको उत्तरोतर पुष्ट और शक्ति सम्पत्र बनाने में समर्थ होऊं ।