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________________ भनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं०२१६५ था, ऐसा मुनिपुण्यविजयजी सूचित करते हैं। ही समान बना जाना। मुनि पुण्यविजयजी १३ ____ 'प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी ऐतिहासिक ग्रन्थ वर्षकी अवस्थामें आपकं श्रीचरणोंमें आकर माला' भी आपके ही प्रभावमं चलती थी जिसमे दीक्षित हुए थे। और आज उन्हें करीब ३१ वर्ष मुनि श्री जिनविजयजीके द्वारा सम्पादित होकर आपकं मत्संग एवं अनुभवोंसे लाभ उठाते और विज्ञप्तित्रिवेणी, कृपारमकोश, प्राचीन जैनलेख- आपके साथ काम करते होगये हैं । आपने पुत्रकी संग्रह आदि कितने ही महत्वके ऐनिहामिक ग्रंथ तरह उनके पालन तथा शिक्षणादिका बड़ा ही प्रकाशित हुए हैं। ___ सत्प्रयत्न किया है, और यह सब उसीका सत्फल गायकवाड ओरियंटल मिरीजमें प्रकाशित है जो आज उनमें आपके प्रायः मभी गुण मूर्ति'मोह पराजय' का सम्पादन भी आपका ही किया मान तथा विकामत नजर आते हैं और वे आपके हुआ है। और भी कई ग्रन्थमालाओम आपन मच्चे उत्तराधिकारी हैं। अभिमान उन्हें छूकर प्रन्थ सम्पादनका कार्य किया है । श्राद्धगुण विव. नहीं गया, वही सेवाभावकी स्पिरिट उनके रोम रणका गुजराती अनुवाद भी आप कर गये हैं। रोममें बमी हुई है और वे दूमरे साहित्यमवियों अनेक विद्वानोंको साहित्य सेवा कार्योंमें आप को उनके कायम महयोग प्रदान करना अपना अच्छी सहायता दिया करते थे। आपके ही द्वारा बड़ा कर्तव्य समझत है। मुझे समय समय पर देश-विदेशक अनेक विद्वानोंको पाटनके भंडारोंके आपस अनक ग्रन्थोंकी सहायता प्राप्त होती रही अनक अलभ्य ग्रंथांका मिलना सुलभ है। अभी 'जेन लक्षणावली' के लिय कुछ ग्रन्थ हुआ है। आपके गुरु श्रीकान्तिविजयजीकं उपदेश कीमतसे भी कहीं नहीं मिल रहे थे, आपने से निर्मित हुए 'हेमचन्द्राचार्य-जैनज्ञानमन्दिर' का उन्हें भावनगर तथा बड़ौदाम भिजवाया और जो उद्घाटनोत्सव पाटनमे गत अप्रैल माममें लिया कि जब तक आपका कार्य पृग न हो जाय हुआ था और जिमका परिचय अनकान्तकी तब तक आप उन्हें खुशीमे रख सकते हैं। इम पिछली ७वी किरणमे दिया जा चुका है उसमे भी उदार व्यवहारकं लिय मैं उनका बहुत आभारी आपका प्रधान हाथ रहा है। हूँ। ऐसे मत्पात्रको अपने उत्तराधिकारमें दकर ___ इम तरह मुनि श्रीचतुविजयजीन अपनी स्व. मुनि श्रीचतुरविजयजीने बड़ी ही चतुराईका ५१ वर्षकी लम्बी प्रव्रज्या-पर्यायमे प्रन्यांक संशो- काम किया है और अपने मेवा कार्योंके धन, संरक्षण, सम्पादन और प्रकाशनादिकं द्वारा भव्य भवन पर सुवर्णकलश चढ़ा दिया है । और प्राचीन साहित्यक उद्धाररूपमें बहुत बड़ी माहित्य इलिये आपके अवमानमे साहित्य-ससारको सेवा की है । शरीरक निर्बल हो जानेपर भी जहां बहुत बड़ी क्षति पहुची है वहाँ आपकी इस आपने अपना यह मवाकार्य नहीं छोड़ा, आप प्रतिमूतिपूजाको देखकर सन्तोष होता है और युवकों जैसा उत्साह रखते थे और इमलिये जीवन भविष्यकं लिये बहुत कुछ आशा बधनी है। के प्रायः अन्त समय तक–अन्तिम एक सप्ताहको इस सत्प्रवृत्तिमय जीवनसे दिगम्बर जैनछोड़कर आप अपने उक्त कर्तव्यका पालन करते समाजके मुनिजन एवं दूसरे त्यागीजन यदि कुछ हुए और साथ ही संयमी जीवन का निर्वाह करते शिक्षा ग्रहण करें और दि० जैन साहित्यके उद्धार हुए परलोकवासी हुए हैं। का बीड़ा उठावें और उसे अपने जीवनका प्रधान इस सब संवाकार्यकं अतिरिक्त और भी लक्ष बनावें, तो कितना अच्छा हो ? जो बड़ा कार्य मापने अपने जीवनमें किया है वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०२०-१-१९४० वह अपने शिष्य मुनिपुण्यविजयजी को अपने
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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