SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६२ अनेकान्त [पैसाख, वीर-निर्वाण सं० २४६६. अगर एक सांप मेरे बगीचेमें या घरमें घुस जाये, होते हुए भी उसमें जीवनको कृतार्थता नहीं है। तो मैं उसे मारूं या नहीं ? न तो उसने किसीको हिंसाको स्थान होते हुए भी उसका ममर्थन नहीं हो काटा है, न किसी पर आक्रमण किया है। तो सकता। Violence is the fuct of Life, भी लोग उसे मार डालते हैं और कहते हैं कि Non-Violence is the Law of Life. Vioशायद वह काट ले, शायद वह आक्रमण करे। lence sometimes makes for Life, Non यह बात तो ऐसी ही हुई कि हलवाईकी violence is the fulfilment of Life. दूकानके सामने जो बच्चे खड़े हैं, वे मिठाई उठा- (हिंसा जीवनकी एक वास्तविकता है, अहिंसा कर खा जायेंगे इतनी संभावनाके लिये उन्हें पकड़ जीवनका धर्म है। हिसा कभी कभी जीवनको कर कैदमें भिजवा दिया जाये ! आज इङ्गलेण्ड निवाहती है, अहिंसामें जीवनकी परिपूर्णता है।) और जर्मनी-दोनों-आत्म रक्षाके लिये लड़ रहे ऐसी हालतमें जिस प्रकार हम यह प्रार्थना हैं। जापान भी शायद चीनसे आत्म-रक्षा ही के करते हैं कि "हे प्रभो ! हमें असत मे सतका और लिये लड़ रहा है। अंधकारसे प्रकाशकी ओर और मृत्युस अमृतकी गांधीजी कहते हैं कि आत्म-रक्षाका प्रयत्न भी ओर ले जाओ", उसी तरह हमें यह भी प्रार्थना अहिंसक पद्धतिसे ही करना चाहिये । अपवादके करनी होगी कि "हे भगवन, हमें हिंसा से अहिंसा रूपमें उनका इतना ही कहना है कि कायर बनकर की ओर ले जाओ"। प्रारंभ तो हिंसामें ही है, भागजाना और मनसे हिंसा करते रहना ज्यादा उसपर विजय पाकर हमें अहिंसाकी ओर बुरा है । इसकी अपेक्षा निर्भय और बहादुर बढ़ना है। होकर हिंसा करना भी अच्छा है। क्योंकि उस अहिंसाका प्रथम उदय रास्ते किसी न किसी दिन मनुष्य अहिंसा तक पहुँच जायगा। जब मैं सोचता हूँ कि इतिहास-पूर्वकालमें, जब कि मनुष्य-प्राणी अग्नि सुलगाना भी नहीं जानता जीवनमें हिंसा और अहिंसाका स्थान था और जब हाथीस भी बड़ी छिपकली जब मैं अहिंसाका विचार करने लगता हूँ, दुनिया में घूमती थी और बड़े बड़े अजगर गाय, दो मुझे गीताका वह वचन याद आता है, जहाँ बैल जितने बड़े जानवरोंको खा जाते थे तब भगवानने कहा है कि यह दुनिया सत और मनुष्य अपनी रक्षा किस अहिंसास कर सकता असत्, दोनों, बच्चोंसे बनी हुई है। दोनों था? वहाँ जीनेके लिये हिंसा अपरिहार्य ही थी ? भगवान्की ही विभूतियाँ हैं। उसी तरह जीवन अहिंसाका खयाल तक लोगोंको नहीं था। उस में हिंसा और अहिंसा दोनोंको स्थान है। किन्तु जमानेमें दिन-रात एक ही बात हर एकके दिलमें दोनोंमें यह भेद है कि हिंसाको जीवनमें स्थान उठती थी कि हम अपनी जान कैसे बचायें ? हमें
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy