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Regd. No. L.4328
सुभाषित
ज्यों काहू विषधर डस, रुचि सों नीम चबाय ।
त्यों तुम ममतामें मढ़े, मगन विषय सुख पाय ।।
ज्यों सछिद्र नौका चढ़े, बढ़ई अंध अदेख ।
मल्यों तुम भव जलमे परे, विन विवेक घर भेखः ।।
तैसे ज्वरके जोर सो, भोजनकी रुचि जाय ।
। तैम कुकरमके उदै, धर्म वचन न सुहाई ॥
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जैसे पवन झकोर ने. जल में उठे तरंग।
'त्यों मनसा चंचल भई, परिगह के पर संग ॥
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ज्यो सुवास फल फलमें, दही दूध, घीय,
· पावक काठ पषाणमें, त्यों शरीर में जीय ।
चंतन पुद्गल यो मिले, ज्यों तिल में खलि तेल,
प्रकट एकसे दीखिए, यह अनादिको खेल ।।
वह चाके रसमें रमें. वह चासों लपटाय,
चम्बक कर लोहको, लोह लगे तिह धाय ।
कर्मचक्रकी नींद सो, मुषा स्वप्नकी दौर.
ज्ञान नककी ढनिमें, सजग भांति सब टौर ।।
-स्व० कविवर बनारमीदास -
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वीर रेस ऑफ इण्डिया, कनॉट, सर्कस स्य देहला ।