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________________ [भावण, वीर निर्माण सं०२४६६ भड़क पैदा हो उस ही के अनुसार करने लग जाते हैं, ही डरकर अपना खोटा भाग्य प्राया समझकर चुपके आगे पीछेकी कुछ सोच नहीं करते, नतीजेका कुछ भी से उसके गुलाम बन जाते हैं। खयाल नहीं करते । बेधड़क सब कुछ पाप करते हुए उसकी सब ज़िम्मेदारी दैव या भाभ्यके ही सिर धरते हमारा जरूरो कर्तब्य रहते हैं। अपनेको तो निर्दोष मानते रहते हैं परन्तु हमको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और बुद्धि दूसरे लोग छोटेसे छोटा भी जो दोष करै उसका दोषी लड़ाकर जांच लेना चाहिये कि हमारे संबंधमें तीन उन ही को ठहराते हैं । दूसरोंके दोषोंका जिक्र कर करके शक्तियां काम कर रही हैं, एक तो हमारे पहले कर्म या उनकी बुई सब करते हैं और बड़े बनते रहते हैं। हमारी आत्माके पहले भाव, जिनसे अब तक बुरा भला जिस प्रकार नशेकी तरंगमें नशेबाज या पागल हमारी आदत या स्वभाव बनता रहा है; जो मरने पर अपने पागलपनमें अपनेको सारी दुनियाका राजा समझ भी हमारे साथ जाता है और कर्म-बन्धन या हमारे बैठता है, हानि-लाभ समझाने वालेको मारने दौड़ता है, स्वभावका ढाँचा, या भाग्य कहलाता है । दूसरे हमारी इस ही प्रकार ये भाग्यको सब कुछ मानने वाले भी श्रात्माकी असली ताकत जो हमारे इन कर्मों या स्वभाव अपनेको सबसे बड़ा समझने लगते हैं और दूसरोंको या भाग्यके द्वारा नष्ट होनेसे बच रही है। तीसरे संसार अंपनेसे घटिया मानकर अपनी बड़ाई गाने और दूसरों भरके सब ही जीव और अजीव जो अपने २ स्वभावके को घटिया बताने में ही असीम आनन्द मानने लग जाते अनुसार इस ही संसारमें काम करते हैं, इस कारण हैं। यह ही एक मात्र उनके जीवनका आधार हो जाता उनसे हमारी मुठभेड़ होना लाजमी और जरूरी ही है। है। इस कारण जिस प्रकार नशेबाज़ नशेकी तरंगमें इस कारण हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने उस आपसमें एक दूसरे पर हकुमत जताते हुए, आपसमें श्रामिक शानके द्वारा जो हमारे कमोंने नष्ट नहीं कर खब लड़ते हैं और जूतमपैजार होते हैं, इस ही प्रकार दिया है हम अपने सचित कर्मों पर या स्वभावके ढाँचे ये भाग्य पर ही निर्भर रहने वाले भीअापसमें एक दूसरे वा भाग्य पर भी काबू रखें, उसको अपनी बुद्धि के पर हकमत जताकर और आपसमें लड़ भिड़कर ही अनुमार ही चलाते रहें और ससारके जीव अजीव अपना जी खुशकर लेते हैं। किन्तु जिस प्रकार नशियाला पदार्थोंसे तो मुठभेड़ होती रहती है या हो सकती है उन या पागल किसी होश वालेको देखकर अव्वलतो गीदड़ पर भी पूरी २ दृष्टि रखें। उनमें अपने प्रतिकुलको भभकी दिखाता है, किन्तु होश वालेकी तरफसे ज़रा भी मिलाते रहनेकी और प्रतिकलसे बचते रहने की कोशिश सख्ती होने पर तुरन्त ही उसके श्राधीन हो जाता है करते रहें । यही पुरुषार्थ है जिसकी मनुष्यको हर वक्त और गुलाम बन जाता है, इस ही प्रकार भाग्य पर ज़रूरत है। इस ज़रूरी पुरुषार्थ के बिना तो मनुष्य निर्भर रहने वाले भी बड़े बननेका दावा कर करके मनुष्य ही नहीं है किन्तु, एक निर्जीव घासका तिनका आपसमें तो खूब लड़ते हैं, किन्तु गैरकी शकल देखते है जो बेइस्नियार नदीमें बहा चला जाता है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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