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[वर्ष ३, किरण
परन्तु वह ग्रहण करना कारणसापेक्ष है और एक तरह प्राप्त हुआ था और श्रीनन्दिगणिके कहनेसे उन्होंने यह से अपवादरूप है । भगवान् महावीरकी वे उन सब टीका लिखी थी। वे श्रारातीय सरियोंमें श्रेष्ट थे। श्री भिन्न भिन्न कथाओंका उल्लेख करते हैं जो उनके कुछ विजय उनका दूसरा नाम था और शायद इसीसे इस काल तक वस्त्रधारी रहने के सम्बन्धमें श्वेताम्बर-सम्प्र- टीकाका तथा दशवकालिक टीकाका नाम श्रीविजयोदया दायमें प्रचलित है और दिगम्बर सम्प्रदायमें जिनका रखा गया है । कहीं जिक्र तक नहीं है।
दिगम्बरे-सम्प्रदायके किसी भी संघको गुर्वावली या विजयोदया टीकाका यह एक ही प्रसंग उसे याप. पट्टावलीमें यह गुरुपरम्परा नहीं मिलती, और यह आरानीय सिद्ध करनेके लिए काफी है और इसी लिए यह तीय पद भी विनयदत्त.श्रीदत्त,शिवदत्त और अर्हद्दत्त,इन खास तौरसे पाठकोंके सामने पेश किया गया है । और चार प्राचार्योंके सिवाय और किसी भी श्राचार्य के लिए भी कई प्रसंग और उद्धरण दिये जा सकते हैं परन्तु व्यवहृत नहीं किया गया है । सर्वार्थसिद्धि टोकाके अनु उनमें जो दिगम्बर-यापनीय भेद हैं वे इतने सूक्ष्म हैं कि सारभगवान्के साक्षात शिष्य गणधर औरश्रुतकेलियोंके उन्हें जल्दी नहीं समझाया जा सकता। और उन पर बाद जो प्राचार्य हुए हैं और जिन्होंन दशवैकालिकादि विवाद भी किया जा सकता है।
___ सत्र उपनिबद्ध किये हैं वे श्रारातीय कहलाते हैं । · अपराजितसूरिकी गुरुपरम्परा श्रीविजयोदया टीकाके अनुसार अपराजिनसरि
1-"चन्द्रनन्दिमहाप्रकृत्याचार्यः प्रशिष्येण
मारातीयसरिचलामणिना नागनन्दिगणिपादपभोपबलदेवसरिके शिष्य और चन्द्रनन्दि महाप्रकृत्याचार्यके
सेवाजातमतिलवेन बलदेवसरिशिष्येण जिनशासनोखप्रशिष्य थे । नागनन्दिगणिकी चरण-सेवासे उन्हें ज्ञान रणधीरेण लब्धयशः प्रसरेणापराजितसृरिणा श्रीनन्दि
इस विषयमें पापनीय संघकी तखना शुरूके गणिनावचोदितेन रचिता-" महारकोंसे की जासकती है। वे थे तो दिगम्बर सम्प्रदा- २ -पाशाधरने अपराजितको अपने ग्रन्थों में यकेही भनुयायी, श्रीकुन्दकुन्दकी नाम्नायके माननेवाले श्रोविजयाचार्यके नामसे भी लिखा है-" एतब श्रीऔर नग्नताके पोषक, परन्तु अनिवार्य पावश्यकता होने विजयाचार्यविरचितसंस्कृत मूलाराधनटीकायां सुस्थित पर वस्त्रका भी उपयोग कर लेते थे, यों वे अपने महोंमें सूत्रे विस्तरतः समर्पितं एव्यं ।" बस्त्र बोरकर नग्न ही रहते थे और भोजन के समय भी
-अनगारधर्मामृत टीका पृ० ०७३ मग्न होनाते थे। श्रीश्रुतसागरसरिने षट्पाहर टीकामें ३-विनयधर श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योहहत्तनामैते। इसे अपवादवेष कहा है पथा
भारातीयाः यतयस्ततो ऽभवन्नापूर्वधराः ॥ २४ । ____ "कली किन म्लेच्छादयो नग्न एटा उपद्रवं पतीनां
--श्रुतावतार कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे भी वसन्तकीर्तिना स्वामिना -त्रयो वक्तारः सर्वज्ञतीर्थकरः इतरो वा श्रुतचांदिवेलायां सहीसादरादिकेन शरीरमाच्छाच पुन रेवतीभारातीय रचेति । स्तम्मुम्बति इत्युपदेशःकृतः संयमिना, इस्पपवादवेषः ।" __-अनागार धर्मामृतटीका पृ०६७३ तत्वार्थटीकामें उन्होंने इसे वन्यजिंग कहा है यथा- भारातीय पुनराचार्यः कालदोषासंगितायुमति "दम्पखिजिना असमर्था महर्षयाशीतकाबादौ कम्बला- बशिष्यानुप्रहार्थवावकालिकायुपनिवदं. तत्प्रमाणमर्थदिवंगृहीत्वा न प्रमालयन्ते न सीम्यन्ति न प्रयत्नादिकं तस्तदेवेदमिति बीरार्थवजलं घटगृहीतमिव। . कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंनाति ।"
'-मासूत्र २०