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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीरशासनकी विशेषता - के 'उत्तराध्ययन सूत्र' एवं बौद्धोंके 'धम्मपद' में पाई अहिंसाकी व्याख्या वीर शासन में जिस विशद रूपजाती है। लोगोंको यह सिद्धान्त बहुत संगत और में पाई जाती है, किसी भी दर्शनमें वैसी उपलब्ध नहीं सम्य प्रतीत हुआ, फलतः लोकसमूह-झुण्डके झुण्ड है। विश्वशान्तिके लिये इसकी कितनी अावश्यकता है महावीरके उपदेशोंको श्रवण करनेके लिये उमड पड़े। यह भगवान् महावीरने भली भान्ति सिद्ध कर दिखाया। उन्होंने अपना वास्तविक व्यक्तित्व-लाभ किया। वीर- कठोरम कठोर हृदय भी कोमल होगये और विश्वप्रेमकी शासनके दिव्य पालोकमे चिरकालीन अज्ञानमय भ्रान्त अखण्डधारा चारों ओर प्रवाहित हो चली। धारणा विलीन हो गई । विश्वने एक नई शिक्षा प्राप्त वीरशासनमें वर्णाश्रमवादको अनुपयुक्त घोषित की, जिसके कारण हजारों शूद्रों एवं लाखों स्त्रियोंने किया गया । मनुष्यके जीवनका कोई भरोसा नहीं। श्रामोद्वार किया। एक सदाचारी शूद्र निर्गुण ब्राह्मणसे हज़ारों प्राणी बाल्यकाल एवं यौवनावस्थामें मरणको लाखगुणा उच्च है अर्थात् उच्च नीचका माप जातिमे न प्राप्त हो जाते हैं, अतः आश्रमानुसार धर्म पालन उचित होकर गुण-सापेक्ष है । कहा भी है-.. नहीं कहा जा सकता। सब व्यक्तियोंका विकास भी 'गुणाः पजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः' एक समान नहीं होता। किसी प्रास्माको अपने पूर्व धार्मिक अधिकारों में जिस प्रकार सब प्राणी संस्कारों एवं साधनाके द्वारा बाल्यकालमें ही सहज समान हकदार हैं । उसी प्रकार प्राणीमात्र सुखाकांक्षी हैं, वैराग्य हो जाता है-धर्मकी ओर उसका विशेष झुकाव मय जानेके इच्छुक हैं; मरणमे सबको भय एवं कष्ट है, होता है; नव किसी जीवको वृद्ध होनेपर भी वैराग्य श्रतएव प्राणिमात्र पर दया रखना वीर शासनका मुख्य नहीं होता। इस परिस्थिनिमें वैराग्यवान बालकको सिद्धान्त है। इसके द्वारा, यज्ञयागादिमें असंख्यमूक गृहस्थाश्रम पालनके लिये मजबूर करना अहितकर है पशुश्रीका जो आये दिन संहार हुआ करता था, वह और वैराग्यहीन वृद्धका संन्यासग्रहण भी प्रसार है। सर्वथा रुक गया। लोगोंने इस सिद्धान्तकी सचाईका अतः पाश्रमव्यवस्थाके बदले धर्मपालन योग्यता पर अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कोई मारनेको कहता निर्भर करना चाहिये । हाँ, योग्यताकी परीक्षामें अमाहै तो हमें उस कथन मात्रसे कष्ट होता है उसी प्रकार वधानी करना उचित नहीं है। हम किसीको सताएंगे तो उसे अवश्य कष्ट होगा एवं इसी प्रकार ईश्वरवादके बदले वीरशासनमें कर्मपरपीडनमें कभी धर्म हो ही नहीं सकता । मूकपशु चाहे वाद पर जोर दिया गया है । जीव स्वयं कर्मका कर्ता मुग्वमे अपना दुख व्यक्त न कर सकें पर उनकी चेष्टाओं- है और वस्तुस्वभावानुमार स्वयं ही उसका फल भोगता द्वारा यह भली भांति ज्ञान होता है कि मारने पर उन्हें है। ईश्वर शुद्ध बुद्ध है, उसे मांसारिक झंझटोंसे कोई भी हमारी भान्ति कष्ट अवश्य होता है । इस निर्मल मतलब नहीं । वह किसीको तारनेमें भी समर्थ नहीं । उपदेशका जनसाधारणपर बहुन गहरा प्रभाव पड़ा और यदि लम्बी लम्बी प्रार्थनामे ही मुक्ति मिल जाती तो ब्राह्मणों के लाख विरोध करनेपर भी यज्ञयागादिकी हिंसा मंमारमें पाज अनन्त जीव शायद ही मिलने । जीव बन्द हो ही गई । इस सिद्ध न्नमे अनन्त जीवोंका रक्षण अपने भले बुरे कर्म करने में स्वयं स्वतन्त्र है। पौरुषके हुमा और असंख्य व्यकियोंका पापसे बचाव हुमा। बिना मुक्ति लाभ सम्भव नहीं। अतः प्रत्येक प्राणीको
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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