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श्रनेकान्त
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ज्ञानदर्शनरूप आत्मा के सत्यभाव पदार्थको अज्ञान और अदर्शनरूपी असन् वस्तुओंने घेर लिया है इसमें इतनी अधिक मिश्रता आगई है कि परीक्षा करना अत्यन्त ही दुर्लभ है । संसारके सुखों को आत्माकं अनंतबार भोगने पर भी उनमें से अभी भीमाका मोह नहीं छूटा, और आत्मान उन्हें उसके अमृतके तुल्य गिना, यह अविवेक है। कारण कि संसार वा है तथा यह कड़ वे विपाकको देता है । इसी तरह आत्माने कड़वे विपाककी औषधरूप वैराग्यको कड़वा गिना यह भी श्रविवेक है । ज्ञान दर्शन आदि गुणोंको अज्ञान दर्शन ने घेर कर जो मिश्रता कर डाली है, उसे पहचान कर भावगुरु-तुम लोग जो बात कहते हो उसका अमृत आने का नाम विवेक है। अब कहो कि कोई दृष्टान्त दो । विवेक यह कैसी वस्तु सिद्ध हुई ।
कड़व
लघु शिष्य - हम स्वयं कड़वेको कड़वा कहते हैं, मधरको मधुर कहते हैं, जहरको जहर और अमृतको अमृत कहते हैं।
लघुशिष्य - - अहो ! विवेक ही धर्मका मूल और धर्मका रक्षक कहलाता है, यह सत्य है । आत्मा स्वरूपको विवेक बिना नहीं पहचान सकते, यह भी सत्य है । ज्ञान, शील, धर्म, तत्व, और तप यह सब बिवेक बिना उदित नहीं होते, यह आपका कहना यथार्थ है। जो विवेकी नहीं,
गुरु - आयुष्मानों ! ये समस्त द्रव्य पदार्थ हैं। परन्तु आत्मामें क्या कडुवाम, क्या मिठास, क्या जहर और क्या अमृत है ? इन भाव पदार्थोंकी क्या इससे परीक्षा हो सकती हैं ? लघुशिष्य - लक्ष्य भी नहीं । गुरु -- इसलिये यही समझना चाहिये कि
वह अज्ञानी और मंद है । वही पुरुष मतभेद और प--भगवन् ! इस ओर तो हमारा मिथ्यादर्शन में लिपटा रहता है। आपकी विवेक संबन्धी शिक्षाका हम निरन्तर मनन करेंगे ।
- श्रीमद् राजचन्द्र
लघु शिष्य - भगवन आप हमें जगह जगह कहते आये हैं कि विवेक महान् श्रेयस्कर है। वित्रे अन्धकार में पड़ी हुई आत्माको पहिचानने के लिये दीपक है। विवेकसे धर्म टिकता है । जहाँ विवेक नहीं वहीं धर्म नहीं, तो विवेक किसे कहते हैं, यह हमें कहिये ।
गुरु — श्रायुष्मानों ! सत्यासत्यको स्वरूप से समझने का नाम विवेक है।
[वर्ष ३, किरण १
लघु शिष्य – सत्यको सत्य और असत्यको असत्य कहना तो सभी समझते हैं। तो महाराज ! क्या इन लोगोंने धर्मकं मूलको पालिया, यह कहा जा सकता है ?