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द्रव्य-मन
( लेम्वक पं०इन्दचन्द्र जैन शास्त्री)
अनेकान्तकी ७वी तथा ध्वी किरणमें 'श्रुतज्ञान- बीचमें २-वायें प्राहक और शेपककोष्ठोंके बीच
"का आधार' शीर्षक लेखमें भावमनके ऊपर में, ३-फुफ्फुसीया धमनीमें, ४-वृहत धमनीमें। कुछ प्रकाश डाला गया है। किन्तु अभीतक द्रव्य. फुप्फुस रक्तको शुद्ध करनेवाले अंग हैं। इन मनके ऊपर प्रकाश नहीं डालागया है। द्रव्यमनका अंगोंमें रक्त शुद्ध होकर नालियों द्वारा (दो विषय प्रायः अन्धकारमें ही है। जैन सिद्धान्तमें शिरायें दाहिने फुप्फुससे प्रातो हैं, और दो इस विषय पर अलग कोई कथन नहीं मिलता है। वायेंसे) वायें ग्राहक कोष्ठमें लौट आता है। भर अभीतक लोगोंकी यह धारणा है कि मनका काम जानेपर कोष्ठ सिकुड़ने लगता है और रक्त उसमें हेयोपादेय का विचार करना है । परन्तु आजकल- से निकलकर वायें कोष्ट में प्रवेश करता है। रकके के विज्ञानवादी इस सिद्धान्तको नहीं मानते हैं। इस कोष्टमें पहुँचने पर कपाटके किवाड़ ऊपरको सभी डाक्टर और वैद्य भी आज इस बातको उठकर बन्द होने लगते हैं। और जब कोष्ठ सिद्ध करते हैं कि हृदयका काम हेयोपादेयका सिकुड़ता है, तो वे पूरे दौरसे बन्द हो जाते हैं, विचार करना नहीं है।
जिससे रक्त लौटकर ग्राहक कोष्ठमें नहीं जासकता
क्षेपककोष्ठकं सिकुड़ने से रक्त बृहत् धमनोग जावा माजकल के विज्ञानके अनुसार रक-परिचालक यंत्रको ही 'हृदय' कहते हैं। यह हृदय मांससे
है। बृहत् धमनीसे बहुतसी शाखोए' फूटती हैं, बनता है तथा दो फुफ्फुसों (फेफड़ों ) के बीचमें
जिनके द्वारा रक्त समस्त शरीरमें पहुँचता है। बक्षके भीतर रहता है। यह हृदय पूर्ण शरीरमें इस तरहसे रक्त हृदयसे चलकर शरीरभरमें रक्कका संचालन करते हुए दो महाशिराओं द्वारा घूमकर फिर वापिस हृदयेमें ही लौट आता है। दाहिने कोष्टमें वापिस प्राजाता है। ज्योंही इस इस परिभ्रमणमें १५ सेकण्डके लगभग लगते हैं। कोठरी में भर जाता है, वह सिकुड़ने लगती है, हृदय नियमानुसार सिकुड़ता और फैलता इसलिये रक उसमेंसे निकलकर क्षेपककोष्टमें रहता है । फेलने पर रक्त उसमें प्रवेशकरता है और
सिकुड़ने पर रक्त उसमें से बाहर निकलता है। जब पलाजावा है।
हृदय संकोच करता है, तो वह बढ़े वेगसे रुधिरको हरयमें चार कपाट होते हैं
धमनियोंमें धकेलवा है । हृदयके संकोच और १-दाहिने प्राहक और क्षेपक कोष्ठोंके प्रसारसे एक शब्द उत्पन्न होवा है, जो छातीके