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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६६]
वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि
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इन्द्रको जो व्यंतरोंका राजा है मूंगका आटा, और बड़े विधिमें भी लिखा है कि मंदिर के शिग्यरपरके कलशोंसे इन्द्रगजको बड़े और मूंगका श्राटा, रुद्रको जो व्यंतरों एक हाथ ऊँची ध्वजा श्रारोग्यता करती है, दो हाथ का राजा है गुड़ के गुलगुले, व्यंतरोंके राजा रुद्र जय ऊंची पुत्रादि सम्पत्ति देती है, तीन हाथ ऊँची धान्य को भी गुड़के गुलगुले, श्राप देवताको गुड़के गुलगुले, आदि मम्पत्ति, चार हाथ ऊंची राजाकी वृद्धि, पांच कमल और संख, पर्जन्यदेवको घी,जयंतदेवको लोणी, हाथ ऊँची सुभिक्ष और राज वृद्धि करती है, इत्यादि । यो अतरिक्षदेवको हलद और उड़दका चून, पुपनदेवको अन्य भी अद्भुत बातें इन प्रतिष्ठा पाटीमें लिग्बी हैं, मेवयाँका भात, विरुथदेवको कुट्ट अनाज, राक्षसदेवको जिनके द्वारा वीतराग भगवानकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की ऊंगठमध, गंधर्वदेवको कपर श्रादि सुगंध, भगराजदेवको गई हमारे मंदिरों में विराजमान हैं।
द्ध भात, मृपदेवको उड़द, दौवारिकदेवको चावलोंका प्राचीन श्राचार्योंके ग्रन्थों में तो यह निग्या मिलता श्राटा मुग्रीव देवको लड्डु. पुष्पदन्तदेवको फूल, अमुर- है कि जिनेन्द्रदेवके गुण गान करनेसे मब विघ्न दूर देवको लाल रंगका अन्न, शोपदेवको धुले हुए तिल हो जाते हैं,कोई भी भय नहीं रहता है,सब ही पाप दूर हो चावन्न, रोगदेवको कारिका, नागदेवको शक्कर मिली जाते हैं । दुष्ट देव किमी तरहकी कोई खराबी नहीं कर दुई ग्वील, मुख्यदेवको उत्तम वस्तु, भल्लाटदेवको गुड़ सकते हैं । सबही काम यथेष्ट रूपसे होते रहते हैं, परन्तु मिला हुअा भात, मृगदेवको गुड़के गुलगुले, अदिति इन प्रतिष्ठा पाठोंके द्वारा तो श्री अर्हत भगवानका पंच को लड्डु उदितिको उत्तम वस्तु, विचारदेवको नमकीन कल्याणक निर्विप्न ममाम होनेके वास्ते भी बुरे भले मब ग्वाना, पूतनादेवीको पिसे हुए तिल, पापराक्षमीको ही प्रकार के देवी देवताश्रो यहाँतक कि भूतों प्रेतों राक्षमों कुलथी अनाज, चारकी देवीको घी शक्कर । अादि मबही व्यंतगे और मोम,शनिश्चर,गहु, केतु श्रादि ___इतने ही मे पाटक समझ सकते हैं कि क्या इम मबही ग्रहोंको श्रष्ट द्रव्यसे पूजा जाता है, उनकी रुचिकी प्रकार दुनिया भरके सभी देवी देवताओंको पजनमे अलग२ बलि दी जाती हैं और यज्ञ भाग देकर विदा ही वह वीतरागरूप प्रतिमा मन्दिर में विराजमान किया जाता है। उनके मब परिवार और अनुचरों सहित करने योग्य हो सकती है, अन्यथा नहीं । या इम इमही तरह अाह्वान किया जानाहै जिम प्रकार श्रीश्रहंतों प्रकार इन रागीद्वेषी देवताओंको पजनेमे हमाग श्रद्धान का किया जाता है, मानों जैनधर्म ही बदल कर कुछका भ्रष्ट होता है और प्रतिमा पर भी ग्योटे ही संस्कार पड़ते कुछ होगया है। उदाहरण के तौर पर तिलोयपरणत्तिकी है । पं० श्राशाधरके प्रतिष्ठापाठ में और प्रायः अन्य मन्त्र एक गाथा १, ३० नीचे उद्धृतकी जाती है जो धवलमें ही प्रतिष्ठापाटोंमें यक्ष यक्षिणियों, क्षेत्रपाल अादिकी भी उद्धतकी गई है । जिनेन्द्र भगवान के स्मरण करनेके मृतियोंकी प्रतिष्ठाविधि भी लिखी है, जिनकी प्रतिष्ठा दिव्य प्रभाव के ऐमे २ कथन मबही प्राचीन शास्त्रोम भरे होनेके बाद मंदिर में विराजमान कर, नित्य पूजन करत पड़े हैं जिनको पढ़कर हमको अपने श्रद्धानको टीक गहनेकी हिदायत है। यक्षांकी प्रतिष्ठा पाँच स्थानोंके करना चाहिये और मिथ्यातमे भरे हुए. इन प्रतिष्ठा पाटोंके जलसे प्रतिबिम्बका अभिषेककर रात्रिमें करनी चाहिए। जाल में फंसकर अपने श्रद्धानको नहीं बिगाड़ना चाहिये । पं० श्राशाधरजीने मंदिर के शिखर पर ध्वजा चढ़ानेकी सासदि विन्ध भेददियं हो दुहासुराणबंधति ।