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________________ [ आश्विन, वीर निर्वाणा सं० २०६६ १३ केल्हस--ये खण्डेलवालवंशके थे और इन्होंने जिन भगवानकी अनेक प्रतिष्ठायें कराके प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । सूक्तियों के अनुरागसे अर्थात सुन्दर कवित्वपूर्ण रचना होनेके कारण इन्होंने 'जिनयज्ञ- कल्प' का प्रचार किया था । यज्ञकल्पकी पहली प्रति भी इन्होंने लिखी थी। जो एक श्रेष्ठ मार्ग था, उसे छोड़कर मैं बहुत काल तक भटकता रहा, अन्तमं बहुत थक कर किसी तरह काललब्धिवश उसे फिर पाया । सो अब जिनवचनरूप क्षीरसागर से उद्धृत किये हुए धर्मामृत I ( आशाधर के धर्मामृनशास्त्र ? ) को सन्तोषपूर्वक पी पीकर और विगतश्रम होकर मैं अहं भगवानका दास होता हूँ ॥ ६४ ॥ १४ बीनाक -- ये भी खण्डे बाल थे। इनके पिता का नाम मह और माताका कमलश्री था । इन्होंने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की सबसे पहली प्रति लिखी थी। मिध्यात्व-कर्म-पटल से बहुत काल तक ढँकी हुई मेरी दोनों अांखें जो कुमार्ग में हो जाती थीं, आशाधर की उक्तियोंके विशिष्ट अंजनसे स्वच्छ ६ गई और इसलिए अब मैं सत्पथका आश्रय लेता हूँ ।। ६५ ।। इसी तरह पुरुदेवचम्पूके अन्त में अखिोंके बदले अपने मन के लिए कहा है— farerrari कलुषे मम मानसेऽस्मिन् आशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसत्रे । कवि ईददास - मुनिसुव्रत काव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यजनकंठाभरणके कर्ता हैं। पं० जिनदास शास्त्रीके खयाल से ये भी पण्डित आशाघर के शिष्य थे । परन्तु इसके प्रमाण में उन्होंने जो उक्त प्रन्थोंके पद्य उद्धृत किये हैं उनसे इतना ही मालूम होता है कि आशाधरकी सूफियोंसे और ग्रन्थोंसे उनकी दृष्टि निर्मल हो गई थी। वे उनके साक्षात शिष्य थे, या उनके सहवास में रहे थे, यह प्रकट नहीं होता । पण्डित आशाधरजीने भी उनका कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। अब उन पद्योंपर विचार कीजिए। देखिए मुनिसुव्रत काव्य के अन्त में कहा हैधावन्कापथसंभृते भववने सम्मार्गमेकं परम् त्यक्त्वा श्रतितरश्चिराय कथमध्यासाच कालादमुम् । सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः चीरोदधेरादरात्, अर्थात - मिध्यात्व की कीचड़ मे गँदले हुए मेरे इस मानममें जो कि अब आशाधरकी सूक्तियों की निर्मलीकं प्रयोगसं प्रसन्न या स्वच्छ हो गया है । भव्यकण्ठाभरणमें भी आशाधरसूरिकी इसी तरह प्रशंसा की है कि उनकी सूक्तियाँ भवभीरु गृहस्थों और मुनियोंके लिए सहायक हैं। इन पद्योंमें स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्ग्रन्थों का ही संकेत है जिनके द्वारा अद्दासजीको पायं पाथमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यर्हतः ॥ ६४॥ सन्मार्ग की प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिष्यत्वका नहीं । मिथ्यात्यकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशेः कुपथपाननिदानभूते । श्राशाधरोक्तिज्ञ सदंजनसंयोगे - हो, चतुर्विंशति-प्रबन्ध की कथाको पढ़ने के बाद हमारा यह कल्पना करनेको जो अवश्य होता है कि कहीं मदनकीर्ति ही तो कुमार्गमं ठोकरें खाते खाते अन्त में आशाधरकी सूक्तियों से अर्हद्दास न बन गये हों। पूर्वोक्त प्रन्थ में जो भाव व्यक्त किये ६१८ अनेकान्त रच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥ ६५ ॥ अर्थात- कुमार्गों से भरे हुए संसाररूपी बनमें
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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