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________________ वर्ष ३, रिण ] पंडितप्रवर भाशाधर - - - गये हैं, उनसे इस कल्पनाको बहुत कुछ पुष्टि मिलती "व्याने वासवंशसरोजसकाव्यामृतोपरसपानसुत्सगात्रः है। और फिर यह अर्हदाम नाम भी विशेषण सारणस्य समयो नविश्वधराशायो जैमा ही मालूम होता है । सम्भव है उनका विजयता कविकालिदासः" ॥१॥ वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो। यह नाम इत्यदयसेनमुनिना कविसुहदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । तो एक तरहकी भावुकता और विनयशीलता ही "प्रज्ञापुंजोऽसी" ति च पोऽभिहितो प्रकट करता है। मदनकीर्तिपतिपतिना rut इस मम्बन्धमें एक बात और भी नोट करने म्लेच्छेशेन। सपादनाविषये मासे सुबत्तपतिलायक है कि बहदासजीकं प्रन्थों का प्रचार प्रायः त्रासाहिन्ध्यनरेन्बदोपरिमस्फूर्जस्त्रिवगौजसि । कर्णाटक प्रान्तमे ही रहा है जहां कि वे चतुर्विश- प्रासो मातवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् तिप्रबन्धकी कथा अनुसार सुमार्गसे पतित होकर यो धारामपठजिनममितिवारशास्त्र महावीरवः ॥२॥ रहने लगे थे। मत्पथपर पुनः लौटने पर उनका "माशावरत्वं ममि विद्धि सिद्ध निसर्गसौवर्षमजर्षमायें । वहीं रह जाना सम्भव भी जंचता है। सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपत्रः" ॥६॥ इतना सब लिख चकन बाद अब हम पं० इत्युपश्लोकितो विद्विहणेन कबीशिना । आशाधरजीके अन्तिम प्रन्थ अनगारधर्मामृत श्रीविण्यभूपतिमहासान्धिविप्रहिकेण यः ॥ ७॥ टीकाकी अन्त्य प्रशस्ति उद्धृत करके उसका श्रीमदर्जुनभुपालराज्ये श्रावकसंकुले । भावार्थ भी लिख देते है जिसके आधार पर जिनधर्मोदयाथै यो नलकछपुरेऽवसत् ॥८॥ पर्वोक्त सब बातें कही गई हैं। यह उनकी मुख्य यो दाख्याकरणाधिपारमनयच्छुषमाणात कान्, प्रशस्ति है, अन्य ग्रंथोंकी प्रशस्तियाँ इसीमें कुछ षटतीपरमासमाप्य न यतः प्रत्यर्षिनः केऽधिपन् । पा कम ज्यादा करके बनी हैं । उन न्यूनाधिक मूलाराधना-टीका ( शोलापुर ) जिस प्रति परसे पद्योंको भी हमने टिप्पणीमे दे दिया है और आगे प्रकाशित हुई है, उममें प्रशस्तिके ये चार ही पद्य मिले चलकर उनका भी अभिप्राय लिख दिया है। हैं और मम्पादक ५० जिनदाम शास्त्रीने प्रशस्तिको अपर्ण लिखा है । शायद आगेका पत्र गायब है। मुख्य प्रशस्ति त्रिषष्टिस्मतिशास्त्रकी प्रशस्ति में प्रारम्भके दो पद्यों श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्भरीभूषण- के बाद व्याघेरवाल' श्रादि पद्य न होकर 'म्लेच्छेशेन' स्तन श्रीरतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्ग महत्। आदि पाँचवाँ पद्य है । उसके बाद 'श्रीमदर्जुनभूपाल' भाररन्यामुदपादि तत्र विमलव्याघ्र रवालान्वया- आदि आठवाँ और फर 'योद्राग्व्याकरणाब्धि' आदि पीसलपणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधरः ॥॥ नवाँ पद्य दिया है। सरस्वस्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजन । म्लेच्छेशेन साहिबुदीनतुरुष्कराजेन ।-भव्यकुमुद. पः पुत्रं काहढं गुण्यं रंजितार्जुनभूपतिम् ॥२॥ चन्द्रिका टीका । -- --
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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