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________________ बनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण स०१६ = अन्तः शक्तियोंमें रहता है। उसके उद्देश्य बल, ज्ञान समान है जो प्रकृतिके सहारे छोड़ दी गई है। जिधर बल, पुरुषार्य बलमें रहता है। केवल इनकी गतिको मौज ले चली, चल पड़ी, जहां टकरा दिया टकरा गई, बदलनेकी जरूरत है। इनका उपयोग बाहिरसे हटा जहां डाल दिया, गिर गई। अन्दरकी ओर लगाना है । इन्हें बजाय अनात्म-उद्देश, यह तीनों ही मृत्युके ग्रास है, बार बार काल चक्र अनात्म दान, अनात्म पुरुषार्थ के शान, आत्म पुरुषार्थ से पीसे जाते हैं । इसलिये जीवनका सिद्धि-मार्ग त्रिमें तबदील करना है । फिर ये जीवनके बजाये इस गुणात्मक है, मलक्ष्य, सद्ज्ञान और सद्-पुरुषार्थ पारके उस पार ले जाने वाले हो जाते हैं । यह बजाय जो आत्म-लक्ष्यको लक्ष्य बनाकर मिथ्यात्वका अंत संसारके मोक्षका साधन बन जाते हैं, बजाय मृत्युलोकके करता है, जो अन्य ज्ञानसे उसे देखता जानता हुआ अमृतलोकका मार्ग बन जाते हैं। अविद्याका अत करता है, जो अात्माचार्यासे लक्ष्यको बाह्यमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता संसारकी रच- जीवन में उतारता हुआ मोहका अन्त करता है वह ही यिता है। अन्तःमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता मोक्ष निश्चय पर्वक धर्म है, धर्म-मार्ग है, धर्म-तीर्थ है । वह की रचयिता है। जैसे संसारमें किसी भी पदार्थकी सिद्धि ही साक्षात् धर्म-मूर्ति है, धर्म-अवतार है । केवल उसकी कामना करने से, केवल उसे जान लेने आत्मा में ही परमात्मा छुपा हुआ है । श्रात्मामें से नहीं होती, बल्कि उसकी सिद्धि कामना तथा ज्ञान ही उसे मिद्ध करनेकी वेदना और वांछा बनी है। श्राके साथ पुरुषार्थ जोड़नेसे होती है ऐसे ही परमात्म त्मामें ही उसे सिद्ध करनेकी शक्तियाँ मौजूद हैं। अतः स्वरूपकी सिद्धि केवल उसमें श्रद्धा रखनेसे, केवल उसे आत्मा ही साध्य है, साधक है, साधन है । श्रात्मा ही जान लेनेसे नहीं होती; बल्कि उसकी सिद्धि प्रात्म-श्रद्धा, इष्ट पद है पथिक है, पय है। श्रात्मा ही 'उम पार है, आत्म शानके साथ श्रात्म-पुरुषार्थ जोड़नेसे होती है । नाविक है और नाय है छ। जो केवल परमात्म पदकी श्रद्धा और भक्ति में अटक जो आत्मलक्षी है, आत्मज्ञानी है, आत्मनिष्ट है, निरकर रह जाता है, वह अग्नि विदग्ध नगरीमें पड़े हुये हकार-निर्ममत्व है, जिसके समस्त संशय, समस्त भ्रम उस आलसीके समान हैं जो सुखकी कामना करता हुआ दर हो गये हैं, समस्त ग्रन्थियाँ, समस्त सम्बन्ध शिथिल भी अपनी सहायता करने में असमर्थ है। हो गये हैं। समस्त प्राशायें-तृष्णायें शाँत हो गई हैं, ___ जो परमात्म-तत्त्व के रहस्यको जानकर केवल उमके समस्त उद्योग बन्द हो गये हैं, जिमने अपनी आशा शानमें मग्न हो अपनेको अहो भाग्य मानता है वह उस अपने ही में लगाली है, अपनी दुनिया अपने ही में सुस्वप्नि कुम्भकारके समान है जो अपने सुविचारसे सन्मतितर्क ३, ६८ अपनी दीनताको और अधिक दीन बना लेता है ।। भाव प्रामत ८३, योगसार ८३; तत्त्वानुशासन जो बिना आत्म श्रद्धा, बिना श्रात्म-ज्ञानके केवल पुरुषार्थी बना है, वह नाविक-हीन उम स्वच्छंद नावके ३२ द्रव्य संग्रह ४०, ४१; "I am the way, the truth and the व्याख्या प्रशति-1.बोध प्राभत २१ life.” Bible St. John 14.6. - - --
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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