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नवयुवकोंको स्वामी विवेकानन्दके उपदेश
[अनु० डा० बी. एल. जैन पी. एच. डी.] मेरे युवक मित्रो ! अपना शरीर और आत्मा बलवान बनायो । निर्बल और निर्वीर्य शरीरसे धर्मशास्त्रका अभ्यास करनेकी अपेक्षा तो खेल-कूदसे बलिष्ट बनकर, तुम स्वर्गके विशेष समीप पहुँच सकोगे।
तुम्हारा शरीर मज़बूत होगा तब ही तुम शास्त्रोंको भली भांति समझ सकोगे । तुम्हारे शरीरका रुधिर ताज़ा, मज़बूत तथा अधिक तेजस्वी होगा, तब ही भगवानका अतुल बल और उनकी प्रबल प्रतिभा तुम अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे । जब तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों पर दृढ़तासे खड़ा रह सकेगा। तभी तुम अपने आपको भली भांति पहिचान सकोगे।
उठो, जागृत होओ और अपनी उन्नतिका काम अपने ही हाथमें लो । इतने अधिक समय तक यह कार्य, यह अत्यन्त महत्वका कर्तव्य तुमने प्रकृति को सौंप रखा था । परन्तु अब उसे तुम अपने हाथ में लो। और एक ही सपाटे में इस समग्र साक्षात समुद्रको कूद जाओ।
मानसिक निर्बलता ही अपने में प्रत्येक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को उत्पन्न करती है। दुर्बलता ही साक्षात् मरणरूप है।
निर्षल मनके विचारोंको त्याग दो । हे युवको ! तुम हृदय-बल प्राप्त करो ! शक्तिवान बनो ! तेजस्वी बनो ! बलवान बनो ! दुर्बलताकी गाड़ी पर से उठ कर खड़े हो जाओ तथा वीर्यवान और मज़बूत बनो ।
सुदृढ़ता ही जीवन और निर्बलता ही मृत्यु है । मनोबल ही सुख सर्वस्व तथा .. अमरत्व है, दुर्बलता ही रोग, दुःख तथा मृत्यु है। ___ बलवान बनो ! तेजस्वी बनो ! दुर्वबलताको दूर फेंक दो ! आत्मशक्ति तुम्हारे पूर्वजोंकी सम्पति है।