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अनेकान्त
[भाद्रपद. वीर निर्वाणसं.२०१६
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शब्द कोई छोटी बात नहीं। 'विध्वस्तैकान्तपक्ष' गा? ऐमी अवस्था नृपतुंगनं एकान्त पक्षको का अर्थ 'एकान्तपक्ष' को समूल नष्ट करने वाला निर्मूल किया, इस प्राचाय वचन पर कैम है, 'एकान्तपक्ष' याने भागवत वैष्णव धर्म *। पर विश्वास कर सकते हैं ? इतिहासको एक तरफ़ यह नृगतुंपके किसी भी शासनम, उपके सम्बन्ध ढकलकर ही इसके कहे हुए वचन पर विश्वास में उसके समकालीन और कोई लिखे हुए लेखोंमे कर सकते हैं ? यदि विश्वास नहीं कर सकते
और उसके सम्बन्धमें जिनमन-गुणभद्रादि द्वारा हैं तो इम नतुंगको 'स्याद्वाद-न्यायवादी' यानं कहे हुए वचनोंसे, तथा उसके सम्बन्ध अब तक 'जैनधर्मी' प्रतिपादन करने वाली बात पर कैसे उपलब्ध इतिहाससे, मुगल बादशाह औरंगजेबके विश्वास कर सकते हैं ? हिन्दू धर्म और हिन्दु मन्दिरोंको विध्वंस करने अथवा इस आचाय का अभिप्राय वैमा नहीं(तथा सुनी होकर शियाओंकी मसजिदोंको बर्बाद याने नपतुंगनं एकान्त पक्षको या एकान्त पक्षकरने) के समान इस नृपतुंगने किया या करवाया सम्बन्धी धर्ममन्दिरोंको या एकान्तपक्ष वालों या प्रयत्न किया, इस बातको सिद्ध करने वाले को विध्वंस किया यह अथ नहीं; पर अपने में तब कोई प्रमाण हैं क्या? अपने 'कविराजमार्ग' काव्यमें तक रहे हुए एकान्त पक्षके विश्वास-श्रद्धाका भी किसी प्रकारका समयविरुद्ध कार्य नहीं करना निमल करके, अर्थात एकान्त स्वधर्मका त्याग चाहिये ( १,१०४) इस तरह मुक्त कंठसे कहने करके, धर्मान्तरका ग्रहण करकं आपस्याद्वादन्यायवाला यह धर्म-विध्वंमके कार्यमें क्या हाथ डाले- वादी' जैन हा, यह अर्थ यदि उम आचार्य__* 'एकान्तपर्व' अथवा 'एकान्तधर्म का अर्थ वचनम निकलता है तो उम पर विचार करें। 'महाभारत' के 'शान्तिपर्व' ( मोक्षधर्म ) के 'नारा- इम नृपतुंगने जिनसनकं उपदेशमं जैन परोपाख्यान' में तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' में कहा दीक्षा ली हो तो वह जिनमेनक मरणके पहिले दुमा पहिंसाप्रधान भागवत वैष्णव धर्म है, इसे पांच
ही होनी चाहिय-हमारे विचारमं ई०मब ८४८के मात्र' नाम भी है । (Vide Bhandarkar's
पहले होनी चाहिये, उसके पोछे नहीं । पर इसके "Vaishnavism, Saivism and other
शासनकालकं ५२ वें वर्ष ( ई० सन् ८६६) के minor religious systems"-Strassburg) पहिले दिये हुए शामन शिरोलेग्यमे यह हरिहरी इसके सम्बन्ध में 'गहापुराण' में (मध्याय १३१) भागवतमें वैष्णव धमके हरिहरों में भेद नहीं यह इस प्रकार कहा है :
बात शांतिपर्व' के उसी 'नारायणोपाख्यान'
(अभ्या. १६८ ) में कही है। "जो शकरको पूजा एकान्तेनासमो विष्णुर्यस्मादेषां परायणः ।
__महीं करते हुए मुझे पूजेंगे तो उनकी हानि होगी, वे तस्मादेकान्तिनः प्रोक्तास्तद्भागवतचेतसः।
मेरे निग्रहके पात्र हैं।हम दोनों में भेद नहीं" ("श्रीकृष्णमियायामपि सर्वेषां देवदेवस्य स प्रियः । राज-बाणीविलास) नामकी महाभारतकी · कर्णाटक भापत्स्वपि तदा यस्य भक्तिरम्यभिचारिणी ॥ टीका; शान्ति पर्वमें 'मोषधर्म' पृ० २१८)
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