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________________ 090 अनेकान्त [आश्विन, वीरनिर्णय सं० २०६६ इस कथन में विरोध आाएगा जिसमें भाग्य, वृत्ति, ब्रावचन और अर्हस्यप्रवचनहृदय इन सबका एक लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य बतलाया गया है। अस्तु । ऊपरकी इन सब परीक्षाओं परसे स्पष्ट है कि प्रोफेसर साहब की समीक्षाओं में कुछ भी तथ्य अथवा सार नहीं है, और इसलिये वे चौथे भागके 'क' उपभाग में दी हुई अपनी प्रधान युक्ति का समर्थन करने और उस पर की गई सम्पादकीय विचारणाका कदर्थन करके उसे सस्य अथवा अयक ठहराने में बिल्कुल ही असमर्थ रहे हैं। 'ग' उपभागकी युक्ति अथवा मुद्दे पर जो विचारणा की गई थी उसकी कोई समीक्षा आपने की ही नहीं, और इसलिये उमे प्रकारान्तरसे मान लिया जान पड़ता है, जैसा कि पहले जाहिर किया जा चुका है। अब रही 'ख' उभाग के मुद्दे (युक्ति) की बात, प्रो० साहबने राजवार्तिकसे "कालोपसंख्यानमिति चेच यचय माणलचणत्वात् — स्थादेतत् कालोऽपि कमिदजीवपदार्थोऽस्ति यद्भाष्ये बहकृत्वः पद्द्रव्याणि इत्य ुकं, श्रवोऽस्योपसंख्यानं कर्तव्य इति ? तन, किकारचं वयमायल उणत्वात्, " इन अंशको उद्धृत करके यह प्रतिपादन किया था कि अकलकदेवने इसमें प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यका सष्ट उल्लेख किया है। इस पर श्रापत्ति करते हुए मैंने अपनी जो 'विचारणा' उपस्थित की थी वह निम्न प्रकार है: -- उल्लेखित किया है और उसे 'श्रहंत्पोक्त' 'अनादिनिधन' जैसे विशेषणोंसे विशेषित करते हुए यहाँ तक लिखा है कि वह संपूर्ण शानोंका श्राकर है-कल्प, व्याकरण, छंद और ज्योतिषादि समस्त विद्यानोंका प्रभव (उत्पाद) उसीसे है । जैसा कि नीचे के कुछ अवतरणोंसे प्रकट है "आईते हि प्रत्रचने ऽमादिनिधने ऽहंदादिभिः यथा का अभियानदर्शनातिशयप्रकाशैरवद्योतितार्थसारे रूढा एताः (धर्मादयः) संज्ञा शेषाः ।" ०१८ " तस्मिन् जनप्रवचने निर्दिष्टोऽहिंसादिलो धर्मइत्युच्यते ।” — पृ०२३१ "आता भगवता प्रेोके परमागमेप्रतिषिद्धः प्राणिबधः" "आर्हतस्य प्रवचनस्य परमागमस्वमसिद्धं तस्य पुरुषकृतित्वे सति प्रयुक्तेरिति तम्र, किं कारणं १ अतिशय ज्ञानाकरत्यात् ।" "स्वाम्मतसम्पत्रापि अतिशयज्ञानावि दृश्यन्ते पारद ज्योतिषादीनि ततोनैकान्तिकस्यात् नायं हेतुरिति । व । किं कारणं १ अत एव तेषां संभवात् । श्रार्हतमेव प्रवचनं तेषां प्रभवः ।” "आईसमेव प्रवचनं सर्वेषां प्रतिशयज्ञानानां प्रभव इति श्रद्धामाश्रमेतत् न युक्तिचममिति । तत्र ..... । तथा सर्वातिशयज्ञानविधानस्वात् जैनमेव प्रवचनं भाकर इत्यवगम्यते ।" -१०२३५ ऐसी हालत में कलंककी दृष्टिसे 'प्रवचन ' श्रथवा श्रातप्रवचनका वाक्य प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्य नहीं हो सकता । इन अवतरणों में श्राए हुए श्रईत्प्रवचन के उल्लेखों को भी प्रो० साहब यदि उक्त भाष्य के ही उल्लेख समझते हैं तो कहना होगा कि यह समझ ठीक नहीं है -- सदोष है । और यदि नहीं सम ते तो उनकी यह प्रतिज्ञा बाषित ठहरेगी अथवा उनके • "चौथे नम्बर के 'ख' भागमें राजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें प्रयुक्त हुए " यद्भाष्ये बहु कृत्यः षड्व्याणि इत्युक्त" इस वाक्यमें जिस भाष्य का उल्लेख है वह श्वेताम्बर सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस भाष्यमें बहुत बार तो क्या एक बार भी 'बढ्ङ्गव्याणि' ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता। इसमें तो स्पष्ट रूप से पाँच ही
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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