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________________ वर्ष ३, किरण ५] मनुष्य जातिके महान् उदारक तुम्हारे प्रखर ब्रह्मचर्यने यदि देवांगनामोंको जाने खगे-तुम्हारे द्वारा खोले गये मोद्वार भव फिर लाजित् किया तो तुम्हारे चरित्रकी पवित्रताकी और मुंदने लगे। मनुष्योंके हृदयोंमें फिर वही सकुचित कौनसी साहीकी आवश्यकता ? समकालीन दो महर्षि- चित्तता वास करने लगी प्रचार और विकाशका फिर योंमें केवल दुर्धर्ष तथा निष्कलंक तपस्या ही तुमको रन-वचिन मन्दिरों के बाहिर मानेमें शंकित होने लगा समवमरणमें आकाश भासन दिलानेको पर्याप्त थी। नारिजातिके प्रति तुम्हारी पवित्र और सम्मान भावना तुम्हारं पंच कल्याणकोंमें यदि देवी हर्ष न हो तो और का दुरुपयोग-काम-लिप्सा तृप्तिके रूपमें पुरुष और सी किन प्रान्माओं के आगमनमें आनन्द दुंदुभि निनादित समाजको न जाने किस बीहड पथकी भोर ले जा रहा की जावेगी। है। मनुष्यको मनुष्य माननेकी रसायन तुम्हींतक परि. ___तुम्हारे अहिमा और न्यागवतने यदि शेर बकरीको मित थी, प्रात्मवादको फिर अनावश्कता प्रतीत होने एक घाट पानी पिला दिया और समवशरणमें ग्विरने- लगी और द्रग्थवादका सिंहासन फिर दृढ़ होने लगा ! वाली वाणांका लाभ देकर उन्हें मोक्षोन्मुग्व बनाया तो जब कि अद्रव्यवान मनप्णा नेत्रोंये केवल जीवन-धारइसमें क्या प्राश्चर्य ? बाल-सुलभ लीलामे ही मदमत्त गार्थ भोजनों के लिये हाथ फैलाये सामने खड़े हुए हैं। कुंजको वशंवद किया और तत्वज्ञान सिंहनाद द्वारा अहिंसाका अमलीरूप फिर अनुकरणीय कहा जाने यदि अभयनाका संदेश प्राणिमात्रको तुमने भेजा नब लगा बुद्ध भगवान्की मनमांस-भक्षण मामामामें फिर वनराजके चिन्ह-द्वारा तुम्हारे मंकेकिन होने में क्या अनी मोहकना भाने लगी। चिन्य । तुम्हारे मिह गर्जनमे माँम-भोजी जीवका भक्षण महानिर्वाणके समय पावापुरामें छोड़ी गई तुम्हारी प्राप्त आनन्द लिप्पाका दम्भ नहीं, वहाँ प्राणियोंको प्रतिनिधि ज्योनि इस युगको आलोकिन न कर सकी । भयभीत करनेका घोर निनाद नहीं। तुमने वास्तव में तुम्हारे उपमर्गों पर आंसू बहा देनेवाले यदि माधारण सिंहके नाम पवित्रता लादी, जिसके बिना मिहक परिपदीय भागने का प्रयत्न करनेलगे ना तुम्हं आमन्त्रित रूप में मोहकता ही नहीं, उसके सामने हंमते२ अपनेको करनेका और कौन अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता है? मिटा देने की इच्छा ही नहीं हो सकता । तुम भले ही अतएव हे वानराग ! हे विश्वशानि, अहिंसा, धर्मके आदि संस्थापक न हो पर जिस अमर स्फूनिक भ्रातृत्व, और सत्यशोधमें अग्रणी नथा मामाजिक शांति तुम पिता हो. वह अमर स्फूर्ति तो तुम्हें श्रादि तीर्थकर के जनक मुक्तदेव दृत ! हे गरीबों और पनितोंकी भगवान ऋषभदेवकं पाम तक बरवस पहुँचा देना है। सम्पत्ति ? हे त्रिशला त्रामग्राना ! इस पुण्यभूमिको तुम्हारी तपस्या द्वारा दिलायेगये अधिकार दिनाये अपने पुनीत पदरज चूमनेका फिर अवसर दो।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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