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________________ अनेकांत {आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६ में बँटा था और आपकी युक्तियों में सर्वप्रधान यह भी लिखा था किपा, अब लेख के शेष तीन नम्बरों अथवा भागों “यहां पर एक बात और भी जान लेने की है को भी लीजिये, जिनका परिचय इस लेखके शुरू और वह यह है कि श्री पूज्यपाद आचार्य सर्वार्थमें-परीक्षारम्भ के पूर्व-विचारणा के लक्ष्यको सिद्धि में, प्रथम अध्यायके १६ वे सूत्र की व्याव्यक्त करते हुए, दिया जा नुका है। नं.१ ख्या में, "क्षिप्रानिःसृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःसृत' में तत्त्वार्थसूत्रों के कुछ पाठभेद का पाठभेदका उल्लेख करते हुए लिखते हैंराजवार्तिक में उल्लेख बता कर यह नतीजा “अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः । त एवं निकाला गया था कि 'अकलंक के सामने कोई वर्णन्ति-श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य दूसरा सूत्रपाठ अवश्य था जिसे अकलंक ने वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते।" स्वीकार नहीं किया' इस बात को अङ्गीकार करते जिस पाठभेद का यहां "अपरेषां” पदक हुए मैंने अपनी 'विचारणा' में लिखा था- प्रयोगके साथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' ___ "इसमें सन्देह नहीं कि अफलंकदेव के सामने कहे जाने वाले उक्त तत्त्वार्थभाष्य में नहीं है, तत्वार्थसूत्र का कोई दूसरा सूत्रपाठ जरूर था, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पूज्यपादके जिसकेकुछ पाठोंको उन्होंनेस्वीकृत नहीं किया। इससे सामने दूसरोंका कोई ऐसा सूत्रपाठ भी मौजूद अधिक और कुछ उन आवतरणों परसे उपलब्ध था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य के सूत्रनहीं होता जो लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये पाठ से भिन्न था। ऐसा ही कोई दूसरा सूत्रपाठ हैं। अर्थात् यह निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं अकलंकदेव के सामने उपस्थित जान पड़ता है, कहा जा सकता कि अकलंकदेव के सामने यही जिसमें “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुतत्त्वार्यभाष्य मौजूद था । यदि यही तत्त्वार्थभाष्य षस्य" ऐसा सूत्रपाठ होगा 'स्वभावमार्दव' की मौजूद होता तो उक्त न० १ कंघ' भागमें जिन दो जगह 'स्वभावमार्दवाजवं च' नहीं । इसी तरह सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप दिया है उनमें “बन्ने समाधिको पारिणामिकौ” सूत्रपाठ भी से दूसरा सूत्र ‘स्वभावमार्दवं च' के स्थान पर 'स्व- होगा,जिसके “समाधिकौ" पदकी आलोचना करते भावमार्दवार्जवं च' होता और दोनों सूत्रोंके एक हुए और उसे 'आर्षविरोधि वचन' होनेसे विद्वानों योगीकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिप्रहत्वं केद्वारा अग्राह्य बतलाते हुए "अपरेषां पाठः” लिखा स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्ये ते' दिया जाता; है- यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा सूत्रपाठ परन्तु ऐसा नहीं है।" मानते हैं। यहां “अपरेषां" पदका वेसा ही प्रयोग इसके अलावा अकलंक से पहले तत्वार्थसूत्र. है जैसा कि पूज्यपाद आचार्यने ऊपर उद्धृत के अनेक सूत्रपाठों के प्रचलित होने और उनपर किये हुए पाठभेद के साथ में किया है। परन्तु अनेक छोटी-बड़ी टीकाओं के लिख जाने की इस 'समाधिकौ' पाठभेद का सर्वार्थसिद्धिमें कोई बात को स्पष्ट करते हुए मैंने अपनी 'विचारण' में. उल्लेख नहीं, और इससे ऐसा ध्वनित होता है
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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