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________________ [भाद्रपद, पीर निबस. न्याधात उत्पन नहीं करते । मुक्ति हो जानेके बाद पुनः के अभाव में उनके कर्म बन्ध नहीं होते, और कर्मका संसारमें लौटनेका उनके कोई कारण विद्यमान नहीं सम्बन्ध न होनेसे वे संसारमें पुनः लौटते भी नहीं। रहता, प्रतः सादि अनन्त स्थितिको वे प्राप्त होजाते हैं। शुद्धावस्थाको प्राप्त करने पर सब प्रात्माएं एक समान शान, दर्शन चारित्र और अनन्त शक्ति उनके व्यस्त है, हो जाती हैं, उनमें न तो कोई उत्तम है और न कोई अतः सारे विश्वके त्रिकाल विषयको वे जानते हैं। नीच अर्थात बड़े छोटे-पनका भी कोई तारतम्य नहीं विश्व प्रपंच दुःखका घर है, उसके एकान्ताभावके रहता । प्रत्येक प्रात्माको जीवादि पदार्थोंका स्वरूप जान कारण मुक्त जीव अनन्त सहज स्वाभाविक सुखका कर अाखवका त्यागकर संयम और तप रूप संवर-निर्जरा अनुभव करते है। जिस प्रकार व्याधि दुःख है और द्वारा कर्मों के बन्धनको तोड़ मुक्ति-शुद्धावस्था प्राप्त करने उमके नष्ट हो जानेसे मनुष्य सहज सुखका अनुभव का यत्न करना चाहिये, यही जैन दर्शनकी साधनाका करता है, उसी प्रकार कर्मजन्य दुःखके नितान्ताभावमें परम लक्ष्य है। परम सुख प्राप्त हो जाता है । इन्छा, वासना, आसक्ति प्राग्रह ति-रस पीना बारम्बार ॥ टेक ॥ तिक्त भाव से रिक्त करेगा, मानस का भण्डार। सिन्धु यही है साम्य-सुधा का, करना इससे प्यार ।। शान्तिरस पीना बारम्बार ॥१॥ घल जावेगा पाप-मैल सब, कर स्नान सम्हार । कीर्ति विश्व में विस्तृत होगी, होगा सत् सत्कार ॥ शान्तिरस पीना बारम्बार ॥२॥ सेवक बन मध्यस्थ भावका, राग-द्वेष परिहार । उभय परिग्रहसे चेतन तू, ममता भाव निवार ॥ शान्तिरस पीना बारम्बार ॥३॥ कल-मल-हरण विमल-पद-कारण, करन भवार्णव पार । नित्य नियम से साधन करना, पाना "प्रेम" सुधार । अ० प्रेमसागर पंचरत्न "प्रेम" रीठी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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