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________________ अनेकान्त [मारिवन, वीर निर्वाण सं०२५५५ पानीकी तरह बहाना पड़ता है इससे व्यक्तियों का भी होता जारहा है, शिक्षित महिला-समाजमें फिजूलखी पतन होता है और उनसे बनने वाले समाजको भी के नये नये तरीके ईजाद होते जा रहे है। यह तो सच पति पहुंचती है। यदि मनुष्य अपने पैसेको अपने ही रही कि पुरानी चाल वाली माताओं व बहनोंमें कुछ निरर्वक और कुछ स्वार्थोंमें न खर्च करके समाज व देश ऐसे संस्कार पड़े हुए हैं कि वे पुरानी वालोंको चाहे के हितोंकी रक्षा के लिए उसका उपयोग करे तो फिर वे कितनी ही खर्चीली क्यों न हों और चाहे उनमें होने किसीकी धन-सम्पत्तिसे भापसमें जलन या ईयाके भाव वाले खाये उनके घर कितने ही तबाह क्यों न हो पैदा होनेका अवसर हीन भावे । अपव्ययसे समाजमें जाएँ पर यह उन्हें छोड़ने के लिए किसी भी तरह तैयार पाप और अन्यायका प्रसार होता है तथा दुर्गुणोंकी नहीं है; पर हमारी भाज कलकी बहनों में उनकी अपनी इदिहोती है। जो पैसा उपयोगी और उत्तम कार्यों में ही चर्या में ऐसे छोटे छोटे सैंकड़ों ही निरर्थक अपव्यय बगना चाहिए था वह वाहियात और व्यर्थकी शान- के मार्ग पैदा हो गये हैं जिनसे भलीसे भली और शौकतमें खर्च किया जाता है। इससे समाज कमजोर सम्पन्न से सम्पन्न गृहस्थीका भी चकनाचुर हुए बिना चौर पुम बना रहता है । जिस समाजमें वाहियात नहीं रह सकता । इन वाहियात खर्चामे पुरुषोंके गाड़े किसानों की जाती है वह दूसरे समाजोंके सामने- पसीनेसे कमाये हुए धमका ही नाश नहीं होता है मुकाबलेमें खड़ा नहीं रह सकता और हर बातमें उसको बल्कि हमारी गृह देवियोंका सुन्दर जीवन भी भोग बीचा देखना पड़ता है। उसका अपमान और तिर- विलास और फैशनके साँचे में इस तरह डान दिया स्कार करना दूसरेके लिए एक खेलसा हो जाता है। जाता है कि वह न तो उनके अपने मतलबका ही क्योंकि समाजकी उन्नतिके बहुतसे उपायों में एक मुख्य रहता है और न समाज व देशके अर्थका ही। माय उसमें रहने वाले व्यक्तियोंकी धन-सम्पत्ति और भाज कनकी बहनों में यदि पुरानी चालके गहनों उसका समुचित उपयोग भी है । एक अर्थ शास्त्रविधा का शौक कुछ कम हुआ तो नयी चालके गहनोंका विशारद पंडितने किसी जगह लिखा था कि किसी शौक उससे भी अधिक बढ़ गया । गोखरू बंगड़ीके समाज या देशकी शक्ति और बलको मापनेका यन्त्र स्थान पर सोनेकी चूड़ियां पहनी जाने लगीं। बाली उसमें रहने वाले व्यक्तियोंकी सम्पत्ति का उपयोग है। और कानके छल्लोंकी जगह नये नये इयरिंग काममें अगर उनकी सम्पत्तिका उपयोग उत्तम और समयो- लिये जाने लगे। सरमें पात व चौरकी जगह विविध पयोगी कार्योंमें होता है तो वह समाज भी उन्नत एवं रंगरंजित विज दिखाई देने लगी, जो रोज रोज या म्यवस्थित है और यदि उसका उपयोग अनुचित रूपसे तो टूटती रहें और यदि बदकिस्मतीमे साबुत रह जायें होता है तो उस समाजकी भीत भी बाल रेत पर खड़ी तो फैशन बदल जानेसे बेकार जायें । गले में सोनेकी है जो जब कभी धक्का देकर गिराई जा सकती है। कंठीके विना तो गलेकी शोभा ही नहीं । रिस्टवाच और इसी अपव्ययके अवगुणसे हमारी माधुनिक जीरोपावरके चश्मेका शौक तो ऐसा बड़ा है कि उसकी शिषित बहनें भी रहित नहीं है। यह देखनेमें माता कोई हद नहीं । पौर अफसोस तो यह है कि घदीसे है कि ज्यों ज्यों माधुनिक सम्पता और शिक्षाका प्रसार समयका सदुपयोग रत्तीभर नहीं किया जाता और
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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