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________________ वर्ष ३, किरण तामिन भाषाका जैनमाहित्य और वह नगर जल कर भस्म हो गया । मदुराकी आकांक्षाकं अनुमार उसने इस शील देवीके लिए देवीसे यह बात जान कर कि यह सब उसके एक मन्दिरका निर्माण कराना चाहा। इस उद्देश्यसे पूर्वोपार्जित कर्मोंका परिणाम है तथा यह सान्त्वना- वह अपने मन्त्रियों एवं सेनाओं के साथ हिमालय प्रद बात जान कर कि वह एक पक्ष में देवरूपमें की ओर गया ताकि वहाँसे एक चट्टान लाकर अपने पतिमे मिलेगी, करणकी मदुरा छोड़ कर करणकीकी मूर्ति बनवाए और उसे उसके नामसे पश्चिमकी ओर मलेन्दुकी ओर चली गई। बनवाए हुए मन्दिमें प्रतिष्ठिन करें। मार्गमें अनेक तिरुच्चेन्गुणरम नामक पर्वत पर चढ़कर वह आर्य नरेशोंने उसके साथ प्रति द्वंदिता की,जिनको वेनगै वृक्षकी छायामें चौदह दिन प्रतीक्षा करती चेर-नरेशने हराया और वे र राजधानीमें कैदीके रही तब एक दिन उसके पति कोवलनके देवरूपमें रूपमें लाये गये। घेर राजधानीमें उसने करणकीके दर्शन हुए, जो उसे अपने विमान में स्वर्ग ले गया, नाम पर एक मन्दिर बनवाया और प्रतिष्ठा जहां वह स्वयं देवोंके द्वारा पूजित था। इस प्रकार महोत्सव कराण, जिसके अनुसार शीलकी देवी मदुरेम्काँडम नामका दूसरा अध्याय पूर्ण होता है। करणकीकी मूर्ति पूजाके लिये मन्दिर में स्थापित की इसके अतन्तर तीमरे भागमें, जो वंजिक गई । इस बीचमें कोवलन एवं करणकीके माता काण्ड कहलाता है, चेरकी राजधानी वंजिका वर्णन पिता अपने बच्चोंके भाग्यका हाल सुककर सब है। जिन पहाड़ी लोगोंने करणकीको उमके पति सम्पत्ति छोड़कर साधु बन गए। जब चेर नरेश द्वारा दिव्य विमानमें बिठा कर ले जाए जानेके सेनगुट्टवनने शील देवताकी पूजा-निमित्त मन्दिर महान दृश्यको देखा, उनने अपनी झोपड़ियोंमे बनवाया, तब आर्यावर्तके अनेक नरेशों; मालवाके कुरवेकूट, नामक उमंग पूर्ण नतनक रूपमें इस नरेश और लंकाधीश गजवाहने, जो सब उस घटनाको मनाया । इसके अनन्तर इन व्याधोंने समय चेर-राजधानीमें थे, अपनी २ राजधानीमें अपने राजा संनगुटुवनका यह पाश्चय-जनक घटना इसी प्रकारके मन्दिर कणकीके लिये बनवाने का बतलाना चाहा और इसके लिये हर एकने राजाके निश्चय किया और यह चाहा इसी प्रकारसे उसकी लिये उपहार लेकर राजधानीकी ओर प्रस्थान पूजाकी प्रवृत्ति की जाय, ताकि वे भी शीलाके मषि किया । वहाँ वे चेर नरेशम मिले, जो कि उस देवताका आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। इस प्रकार समय अपनी महागनी ओर छोटे भाई के साथ करणकीकी पूजा प्रारम्भ हुई जिससे पूजकोंकी चतुरंग सेनाकं मध्यमे स्थित था। जब राजाने यह सर्वसम्पत्ति एवं समृद्धिकी प्राप्ति हुई । इस प्रकार कथा सुनी कि किस प्रकार कोवलन मदुरामें मारा शिलप्परिकारम्की कथा पूर्ण होती है । इसके तीन गया, किस प्रकार करणकोके शापस नगर भस्म महा खंड हैं और कुल अध्याय तीस हैं। इस प्रन्ध हो गया और किस प्रकार पांड्यनरेशका प्राणान्त पर प्रदियारकुनमार-रचित एक बड़े महत्वकी टीका हुमा, तब वह करणकीकी महत्ता और शीलसे विद्यमान है। इस टीकाकारके सम्बन्धी कुछ भी अत्यन्त प्रभावित हुमा । अपनी महारानीकी ज्ञात नहीं है । चूंकि नचिनारम्किनियर नामक
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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