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अनेकान्त
मालवद्वार - प्रधान १ राग और २ द्वेष
५ इन्द्रियाँ - कान, नाक, आँख, जिव्हा, शरीर के विषयोंकी इच्छा व श्रासक्ति -
४ कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ ( रोस, श्रहंकार, कपट, तृष्णा )
५ श्रव्रत -- प्राणी हिंसा, मिथ्या बोलना, चोरी करना, मैथुन- कामभोग, परिग्रह- मुवश वस्तुओं का संग्रह ३ योग - मन, वचन, कायका शुभाशुभ व्यापार' शुभ योगसे पुण्य बंध होता है उससे शुभ फलोंकी प्राप्ति होती है और अशुभ योगसे पाप बँधता है । २५ क्रियायै - परिताप, प्राणबध द्वेष श्रादिकी प्रवृत्तियों ( लेख विस्तारभय से सबका विवरण नहीं दिया जा सका । विशेष जानने वालोंकी इच्छा वालोंको कर्म-ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्रकी टीकाएँ और नवतत्व श्रादि ग्रन्थ देखने चाहियें ) संवर
३ गुप्ति - १ मनोगुप्ति दुष्ट संकल्प एवं अच्छे बुरे मिश्रित विचारोंका त्याग कर अच्छे अच्छे विचार रहना, ईश्वरका ध्यानादि ।
२ वचनगुप्ति - यद्वातद्वा न बोलकर मौन धारण करना । या सन्मार्गका उपदेश देना, प्रभुका भजन श्रादि ।
३ काय गुप्ति - पाप कर्मोंसे कायाकी प्रवृति हटाकर परोपकार रूप प्रवृत्तियें करना, चंचल इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का विरोध कर लेना अर्थात् उपर्युक्त तीनों योगोका निग्रह करना ।
५ समिति - १ ईर्यासमिति किसी भी जन्तुको क्लेश न होएतदर्थं सावधानता पूर्वक चलना । भाषासमिति सत्य हितकारी परिमित और संदेह रहित बोलना ।
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[ भाद्रपद, बीर निर्वाण सं० २४६६
एषणा समिति - जीवन-यात्रा में श्रावश्यक निर्दोष साधनों को जुटाने के लिये सावधानता पूर्वक प्रवृत्ति ।
श्रादान निक्षेप समिति - वस्तु मात्रको भलि भाँति देख व प्रमार्जित करके लेना या रखना ।
उत्सर्गसमिति--जहाँ जन्तु न हो ऐसे प्रदेशमें देख कर या प्रमार्जित करके ही मलादि श्रनुपयोगी वस्तुका डालना ।
गुप्ति में सत् क्रिया निषेध मुख्य है और समिति में सत्क्रियाका प्रवर्तन मुख्य है ।
१० धर्म- - क्षमा, मृदुता (नम्रता ) सरलता, निलमता सत्यता, संयम, तप त्याग, ममल त्याग, ब्रह्मचर्य ।
इससे संयम के सतरह प्रकार है -५ इन्द्रियोंका निपह ५ अवतका त्याग, ४ कषायोंका जप ३ योगोंका निग्रह ।
१२ भावनायें - श्रनुप्रेक्षा या गहरा चिन्तन
१ अनित्य १ अमरगा ३ संसार ४ एकत्व ५. श्रन्यत्व ६ अशुचि७ श्राश्रव ८ संवर १ निर्जरा १० लोक ११ बोधिदुर्लभ र १२ धर्म, ये बारह भावनायें हैं । २२ परिषका सहना
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५.
क्षुधा तृषा, शीत उष्ण, दशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषेध शय्या, आक्रोश; वध, याचना, श्रलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रक्षा श्रज्ञान, और प्रदर्शन, ये २२ परिषद हैं ।
४ चारित्र - १ सामायिक ( समभाव पूर्वक रहना )
२ छेदोपस्थापन (विशेष शुद्धि के लिये पुनः दीक्षा) ३ परिहार विशुद्धि ( विशेष तप प्रधान ) ४ सूक्ष्म संपराय ( क्रोधादि कषायका प्रभाव केवल सूक्ष्म लोभ रहना) ४यथाख्यात ( वीतराग भावकी प्राप्ति)