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________________ भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निर्वावसं.२४१६ - अर्थात्-यदि आपका नन्हासा भतीजा आपके में एक निर्दयता ही बड़ा गुण है। न जाने कितने गलेमें बहिं डालकर लिपट जाय, यदि आपकी माता साधुअोंने अपने माता-पिनाकी दयाके कारण ही अपनी अपने केश और वस्त्रोंको फाड़ डाले और जिस छातीका आत्माको भुला दिया है। . तुमने दुग्धपान किया उमको वे पीट डाले, तथा यदि जैन शास्त्रोंमें जगह जगह पर महावीरके जमानेकी आपका पिता आपके समक्ष श्राकर ज़मीन पर गिर सामाजिक परिस्थितिका वर्णन करनेवाले दीक्षासम्बन्धी पड़े तो भी अपने पिताके शरीरको हटा दो और अश्रु अनेक उल्लेख आते हैं । इन सबका एक बहुत रोचक रहित नेत्रोंसे क्रॉसकी ओर दौड़े चले जाश्री । ऐसी दशा- इतिहास तैयार हो सकता है। भगवान महावीरके मुख्य गणधर का नाम तुमने बहुत बार सुना है । गौतमस्वामीके उपदेश किये हुए बहुतसे शिष्योंके केवलज्ञान पाने पर भी स्वयं गौतमको केवल ज्ञान नहीं हुआ, क्योंकि भगवान् महावीरके अंगोपांग, वर्ण, रूप इत्यादिके ऊपर अब भी गौतमको मोह था । निग्रन्थ प्रवचनका निष्पक्षपाती न्याय ऐमा है कि किसी भी वस्तुका राग दुःखदायक होता है । राग ही मोह है और मोह ही संसार है । गौतमके हृदयमे यह राग जबतक दूर नहीं हुआ तबतक उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई। श्रमण भगवान शातपुत्रने जब अनुपमेय सिद्धि पाई उस समय गौतम नगरमेंसे पा रहे थे । भगवान्के निर्वाण समाचार सुनकर उन्हें खेद हुआ। विरहसे गौतमने ये अनुरागपूर्ण वचन कहे "हे भगवान् महाबीर ! आपने मुझे साथ तो न रक्खा, परन्तु मुझे याद तक भी नहीं किया । मेरी प्रीतिके सामने आपने दृष्टि भी नहीं की, ऐसा आपको उचित न था।" ऐसे विकल्प होते होते गौतमका लक्ष फिर। और वे निराग-श्रेणी चढ़े । “मैं बहुत मूर्खता कर रहा हूँ। ये वीतराग निर्विकारी और रागहीन हैं वे मुझपर मोह कैसे रख सकते हैं ? उनकी शत्र और मित्रपर एक समान दृष्टि था । मैं इन रागहीनका मिथ्या मोह रखता हूँ। मोह संसारका प्रबल कारण है ।" ऐसे विचारते विचारते गौतम शोकको छोड़कर रागरहित हुए । तत्क्षण ही गौतमको अनन्त ज्ञान प्रकाशित हुआ और वे अन्तमें निर्वाण पधारे। गौतम मुनिका राग हमें बहुत सूक्ष्म उपदेश देता है। भगवानके ऊपरका मोह गौतम जैसे गणधरको भी दुःखदायक हुमा तो फिर संसारका और फिर उसमें भी पामर आत्माओंका मोह कैसा भनन्त दुःख देता होगा ! संसाररूपी गाडीके राग और द्वेष रूपी दो वैज़ हैं। यदि ये न हों, तो संसार भटक जाय । जहाँ राग नहीं, वहाँ द्वेष भी नहीं, यह माना हुमा सिद्धान्त है। राग तीन कर्मबंधका कारण है और इसके बरसे मात्मसिद्धि है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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