SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधवा-सम्बोधन [ विधवा कर्तव्य-सूत्र ] विधवा बहिन, समझ नहीं पड़ताक्यों उदास हो बैठी हो ! क्यों कर्तव्यविहीन हुई तुम, निजानन्द खो बैठी हो ! कहाँ गई वह कान्ति, लालिमा, खोई चंचलताई है ! सब प्रकार से निरुत्साहकी, छाया तुम पर छाई है !!१ गोपांग न विकल हुए कुछ, नमें रोग न व्यापा है; और शिथिलता लानेवाला आया नहीं बुढ़ापा हे ! मुरझाया पर वदन, न दिखती जीनेकी अभिलाषा है ! गहरी हें निकल रही हैं, मुँह से, घोर निराशा है !!२ हुआ हाल ऐसा क्यों ? भगिनी कौन विचार समाया है, जिसने करके विकल हृदयको, 'आप' आप भुलाया है ९ निज - परका नहिं ज्ञान, सदा अपध्यान हृदयमें छाया है, भय न भटकनेका भव-वनमें, क्या अन्धेर मचाया है !!३ शोकी होना स्वात्मक्षेत्र में, पाप - बीजका बोना है, जिसका फल अनेक दुःखोंका, संगम आगे होना है । शोक किये क्या लाभ १ व्यर्थ ही अकर्मण्य बन जाना है, आत्मलाभ से वंचित होकर, फिर पीछे पछताना है !! ४ योग अनिष्ट, वियोग इष्टका, घर दो फल लाता है; फल नहीं खाना वृक्ष जलाना, इह-परभव सुखदाता है। इससे पतिवियोगमें दुख कर, भला न पाप कमाना है, किन्तु - स्व-पर-हितसाधनमें ही, उत्तम योग लगाना है ॥ ५ आत्मोन्नति यत्न श्रेष्ठ है, जिस विधि हो उसको करना, उसके लिए लोकलज्जा अप मानादिकसे नहिं डरना । जो स्वतंत्रता- लाभ हुआ है, दैवयोग से सुखकारी, दुरुपयोग कर उसे न खोश्रो, खोने पर होगी ख्वारी !! ६ माना हमने, हुआ, हो रहा तुम पर अत्याचार बढ़ा, साथ तुम्हारे पंचजनोंका होता है व्यवहार कड़ा । पर तुमने इसके विरोधमें किया न जब प्रतिरोध खड़ा, तब क्या स्वत्व भुलाकर तुमने किया नहीं अपराध बड़ा ॥ ७
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy