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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४१६] यापनीय साहित्यकी खोज पहला उदरण 'प्राचार-प्रणिधि' का है और यह और पाल्पाकारवाला पात्र मिलेगा, तो उसे प्राण प्राचार-प्रणिधि दशवैकालिक सूत्रके आठवें अध्ययनका करूंगा ।। नाम है । उसमें लिखा है कि पात्र और कम्बलकी इन उद्धरणोंको देकर पूछा है कि यदि वस्त्रप्रतिलेखना करना चाहिए, अर्थात् देख लेना पात्रादि ग्राह्य न हो तो फिर ये सूत्र कैसे लिये जाते चाहिए कि वे निर्जन्तुक हैं या नहीं। और फिर कहा है है कि प्रतिलेखना तो तभीकी जायगी जब पात्र कम्बलादि हमके श्रागे भावना (प्राचारांगसूत्रका २४ पाँ होंगे, उनके बिना वह कैसे होगी ? दूसरा उद्धरण अध्ययन ) का उद्धरण दिया है कि भगवान् महावीरने अाचारांगसूत्र का है उसके लोकविचय नामके दूसरे एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया और उसके बाद वे अध्ययनके पाँचवें उद्देश्यमें भी कहा है कि मिद अचेलक (निर्वस्त्र ) हो गये ।। पिच्छिका, र जोहरण, उग्गह और कटासन इनमेंसे कोई सूत्रकृतांगके पुण्डरीक अध्ययनमें कहा है कि साधु. उपाधि रक्खे । को किमो वस्त्रपात्रादिकी प्राप्ति के मतलबसे धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्रके दूसरे उद्देश्यमें इसके श्रागे वत्थेसणा (वस्त्रेपणा) और पाएषणा भी कहा है कि जो भिक्षु वस्त्र-यात्रोंको एक साथ ग्रहण ( पात्रषणा ) के तीन उद्धरण दिये हैं जिनका सारांश करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त लेना पड़ता है।' यह है कि जो साधु ह्रीमान या लज्जालु हो, वह एक शंकाकार कहता है कि इस तरह सूत्रोंमें जब वस्त्रवस्त्र धारण करे और दूसरा प्रतिलेखनाके लिए रखे, ग्रहणका निर्देश है, तब अचेलता कैसे बन सकती जिसका लिंग बेडौल जुगुप्माकर हो वह दो वस्त्र धारण है ? इसके समाधानमें टीकाकार कहते हैं कि अगममें करे और तीमरा प्रतिलेखनाके लिए रक्खे और जिसे अर्थात् प्राचारांगादि में आर्यिकाओंको वस्त्रकी अनुशा शीनादि परिषह सहन न हो वह तीन वस्त्र धारण करे है परन्तु भिक्षुश्रीको वह अनुशा कारणकी अपेदा है। और चौथा प्रतिलेखनाके लिए रखे५ । यदि मुझे तंबी जिम भिक्षु के शरीरावयव लज्जाकर हैं और जो परीषह लकड़ी या मिट्टीका अल्पप्राण, अल्पबीज, अल्पप्रसार, - पुनश्चौक्तं तत्रैव-माबाबुपतं वा दारुगपत्त-माचारमणिधौ भणितं । २-३-प्रतिलिखे. वा महिगपत्तं वा अप्पपाणं अपनी अप्प सरिदं तथा स्पात्रकम्बलं ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिष कथं प्रति. अप्पकारं पात्रनामे सति परिगहिस्समीति । लेखना ध्रुवं क्रियते । ४-माचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो वस्त्रपात्रे पदि नया कपमेतागि सूत्रावि लोकविचयो नाम, तस्य पथमे उद्देश एवमुक्तं । परिजे- नीयंते ? हणं पादपुषणं उम्गहं कडासणं अणदरं उपधि पावेज -परिसं चीवरपारि तेन परमोबके तुजिये। इति । ५-तथा वस्येसवाए कुत्तं तस्य एसेहिरिमणे सेगं बत्यं वा धारेज पडितहणं विदिगं, तस्य एसे बुग्गिये २- कहेज्जो धम्मक बत्तपत्ताविहेदुमिति । दुबे बरयावि-धारेजपडिलावंतिवियं । तत्थ एसे परिस्स ३-कसियाई बस्यकंचनाई जो मिक्यु परिग्गदिदिप्रापिहासस्स तगोवत्यावि-धारेज परिनेहल. पन्नादि मासिगं बहुगं इति। उत्थं। एवं एत्रनिदिने अवता इति ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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