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अनेकान्त
(वर्ष ३, किरण १
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प्रत्येक जैनी जानता है कि संसारी जीव अस और स्था- सुलभ प्रवृत्ति अथका व्यापार मी पृथक्-पृथक होना वरके रूपमें दो तरहके हैं । त्रसमें दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, आवश्यक है । नारकियोंमें जन्म लेते ही जीव ताड़नचतुरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सम्मिलित हैं। पंचेन्द्रियोंमें मारन-छेदन-भेदन-रूप संक्लेशमय क्रियाको करने लगता पशुओं और मनुष्यों के अतिरिक्त देव और नारकी भी है और वह उसको श्रायुपर्यन्त कभी न तो मूलता है सम्मिलित हैं। एकेन्द्रियसे पंचेंद्रिय पशु तक तिर्यच कह- और न छोड़ता ही है । इसलिये नारकियोंका यह लाते हैं । तिर्योंके अतिरिक्त नारकियों, देवों और मनु- व्यापार उनका गोत्रजन्य आचरण है । उनकी यह प्योंका भी पृथक् अस्तित्व मिलता है । अब देखना यह प्रवृत्ति नियमित, जन्म-सुलभ और शाश्वत है-प्रत्येक है कि किन कारणोंसे जीव नारक पशु-देव और मनुष्य नारकीमें प्रत्येक समयमें वही प्रवृत्ति मिलेगी। इसी तरह भवोंमें उच्च नीच-गोत्री होता है । तत्वार्थाधिगम सूत्रमें तिर्यञ्चोंमें गोत्रजन्य व्यापार देखना चाहिये । उनका लिखा कि:
गोत्रजन्य व्यापार मी जन्म सुलभ,नियमित और जीवन'परास्मनिवापसे सदसद्गुणोछादनोभावने - पर्यन्त रहने वाला होना चाहिये । तिर्यञ्चोंमें क्षुधानीचेगोत्रस्य । तविपर्ययो नीचस्पनुस्सेको चोत्तरस्य।' निवृत्तिके लिये नाना प्रकारसे उद्योग करनेका भाव
अर्थात्-- 'परकी निंदा, अपनी प्रशंसा, परके और प्रवृत्ति सर्वोपरि होती है। अपनी खाद्य वस्तुको विद्यमान गुणोंका आच्छादन और अपने अविद्यमान खोजने, उसको संभालकर रखने और काममें लानेका गणोंका प्रकाशन, ये नीचगोत्रकर्मके श्रास्रवके कारण चातुर्य प्रत्येक पशुमें जन्मगत देखनेको मिलता हैहैं । इनसे विपरीत अर्थात् अपनी निंदा, परकी प्रशंसा, कोई उनको मिखाता नहीं । शेर, बिल्ली आदि खं ख्वार अपने गुण ढकना और दूसरोंके गुण प्रकाशित करना, जानवगेको शिकारकी घातमें रहनेकी चालाकी किसीने नम्रवृत्ति और निर
मिखाई नहीं है-..-बया चिडियाको खास तरहका घौमला कारण हैं।'
बनाना, शहदकी मक्खियोंको अपना छत्ता बनाना और इसमें शंका ही नहीं की जा सकती कि जैसा और चींटियोंको अपनी बिलें बनानेकी शिक्षा किसने दी कारण होता है उसीके अनुरूप कार्य होता है-कारण- है ? तिर्यञ्चोंकी यह सब प्रवृत्ति जन्मगत होनेसे उनका के विरुद्ध कार्य नहीं होता । अतएव उच्च-नीच गोत्रके कुल-परम्परीण अाचरण (व्यापार ) है । अतः यही कारणोका सम्बन्ध जिस प्रकार धर्माचरणसे नहीं है उनका गोत्रजन्य व्यापार-कार्य है । किन्तु प्रश्न यह है उसी तरह उसका कार्यरूप भी धर्माचरणसे संबंधित कि उनका यह व्यापार शुभ और प्रशंसनीय है अथवा नहीं किया जा सकता अर्थात् संतान-क्रमागत आचरण. नहीं ? नारकियोंकी प्रवृत्ति संक्लेशमयी रौद्रताको लिये का भाव सिद्धान्तग्रंथमें धर्माचरण अथवा अधर्माचरण हुये है, जो जीवके स्वभावसे प्रतिकुल और उसके नहीं है। बल्कि आचरणका भाव सामान्य प्रवृत्ति संसारको बढ़ने वाली है । इसी तरह तिर्यञ्चोंकी है और वह प्रवृत्ति नारकतिर्यज्ञादिमें कुल परम्परासे प्रवृत्ति मायावी और मूर्खाभावको लिये हुए है। एक-मी मिलना चाहिये । चूँकि भव-अपेक्षा तिर्यच- प्रात्माका धर्म प्रार्जव है-माया और मूर्खा उससे परेकी नारक-देव-मनुष्य पृथक-पृथक् है, इसलिये उनकी कुल- चीजें हैं । इसलिये नारक और तिर्यञ्चोंकी प्रवृत्तियाँ