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श्रभिद्रवाह स्वामी
[ लेखक - मुनि श्री चतुरविजयजी ] ( अनुवादक - पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
तत्त्वार्थरत्नौघविलोकनार्थं सिद्धान्तसौधान्तरहस्तदीपाः दोनोंकी उलझी हुई जीवन घटनाओंके सुलझाने के
लिये ही मेरा यह प्रयास है ।
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निर्युक्तयो येन कृताःकृतार्थस्तनोतु भद्राणि स भद्रबाहु : - मुनिरत्न, अममचरित्र
श्री भद्रबाहुस्वामी समर्थ तत्ववेत्ता हो गये हैं। इनकी साहित्य-सेवा जैन समाजको गौरवास्पद बनाती है, जैनागमों को अलंकृत करने वाली उनकी रची हुई नियुक्तियों को देखकर विद्वज्जन मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । ऐसे महापुरुष के जीवन - सम्बन्ध में दो शब्द लिखने का आज सुअवसर प्राप्त हुआ, और वह भी आसन्नोपकारी श्रीविजयानन्द सूरीश्वर जैसे पुनीत महात्मा के शताब्दीस्मारक ग्रन्थ* के लिये, यह बात मुझे अत्यन्त श्रानन्द प्रदान करती है ।
श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, सभी कोई श्रीभद्रबाहुको मानते हैं, और दोनों ही पक्षके अनेक विद्वानों द्वारा थोड़े-बहुत फेरफार के साथ लिखा • हुआ इनका जीवनचरित्र संख्याबद्ध प्रन्थोंमें देखने में आता हैं और जैनसमाजका अधिकांश भाग उससे परिचित होनेके कारण उसको यहाँ बतलाने की वश्यकता नहीं । परन्तु भद्रबाहु नामके दो व्यक्ति भिन्न भिन्न समयोंमें हो गये हैं, उन
● इसी 'जन्म शताब्दीस्मारक ग्रन्थ' में यह लेख गुजराती भाषा में मुद्रित हुआ है,और उसी परसे उसका यह अनुवाद किया गया है। - अनुवादक
आज तक उपलब्ध जैनवाङ्मयकी ओर दृष्टि दौड़ाने से किसी भी स्थल पर दूसरे भद्रबाहुका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । पूर्वकालीन
↑ यह कथन श्वेताम्बर जैन वाङ्मयकी दृष्टिसे जान पड़ता है; क्योंकि दिगम्बर जैन वाङ्मयमें बराबर दो भद्रबाहु का उल्लेख मिलता है। - अनुवादक
* वंदामि भद्दबाहुँ पाईणं चरमसयलसुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे ॥
दशात स्कंध चूर्णि पी० ४, १०० पंचकल्पभाष्य- संघदास गणि, पी०४, १०३ अनुयोगदायिनः सुधर्मस्वामिप्रभृतयो यावदस्य भगवतो. नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्वर्तुदशपूर्व घरस्याचार्यस्तान् सर्वानिति ।
- शीलांकाचार्य, आचारांगवृत्ति अरहंते वंदिता चउदसपुव्वी तहेव दसपुवी । एक्कारअंग सुत्तधार सव्वसाहू य ॥
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इस गाथा में दशपूर्वी वगैरहको नमस्कार करने से नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वी नहीं हैं, ऐसा मालूम होता है और इसीलिये टीकाकार शंका उठा