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________________ अमेवात वेड, पापार, बीर निर्वाय वह इसमें कमी आत्मविश्वास धारण नहीं करता। कर लेता, इसमें संतुष्ट होकर रह जाता, इसमें कृत्कृत्य यह सवा कहता रहता है-“दुःख प्रात्मा नहीं, पात्म- हो अपना अन्त कर लेता । परन्तु यह जीवन इतना स्वभाव नहीं, यह अनिष्ट है, अनाम है, याने मय है, न मम भावनाओं के सहारे, भावी भाशाओंके न मैं इसका हूँ, न यह मैं हूँ, न मैं यात्।। - सहारे, इष्ट इष्ट के सहारे बराबर चला ,जा रहा है, ___ वह इसके रहते कभी संतुष्ट नहीं होन, .कभी बरावरं जिन्दा है। कत्यकृत्य नहीं होता । यह इसके रहते जीवनमें सदा महापरुषोंकी साक्षी:किसी कमीको महसूस करता रहता है, किसी पूर्तिके ____ यदि यह जानना हो कि वह अप इष्ट कौनसा है, लिये भविष्यको श्रोर लखाता रहता है, किसी इष्टको उसका स्वरूप कैसा है, वह कहाँ रहता है, उसे पानेका भाषमाकी भाता रहता है, इसलिये वह सदा इच्छाधान् क्या मार्ग है, तो इसके लिये अन्तरात्माको टटोलना पाशावान् बना है। होगा । यदि अन्तरात्माको टटोलना कष्टसाध्य दिखाई वह दुःखके रहते नित्य नये नये प्रयोग करता दे तो उन महापुरुषों के अनुभवोंको अध्ययन करना रहता है, नये नये सुधार करता रहता है, नये नवे होगा जिन्होंने तमावरणको फाड़कर अन्तरात्मा मार्ग प्रहण करता है, इसीलिये वह सदा उद्यमशील को टटोला है, जिन्होंने तृष्णाके उमड़ते प्रवाहको रोक बना है। कर अपना समस्त जीवन सत्य-दर्शनमें लगाया है, . यह कहना ही मूल है कि जीवन इस दुःखी जीवन जिन्होंने भयरहित हो आत्माको मन्थनी, दुःखोंको पेय के लिये बना है, इस दुःखी जीवन के लिये रहा है। चिन्तवनको बलोनी बनाकर संसार सागरको मथा है, यह न इसके लिये बना है, न इसके लिये रहता है। जिन्होंने मायाप्रपञ्चको फाँदकर सत्यकी गहराईमें गोता यह तो उस जीवन के लिये बना है, उस जीवन के लिये लगाया है, जिन्होंने रागद्वेषको मिटाकर मौत और टिका है जो इसकी भावनाओंमें बसा है, इसकी कार्म अमृतको अपने वश किया है, जिन्होंने शुद्ध-बुद्ध हो माओंमें रहता है, जो अदृष्ट है, अज्ञेय है। दिव्यताका सन्देश दिया है, जो परम पुरुष, दिव्यदूत, यदि जीवन इतना ही होता जितना कि यह दृष्टि- देव. भगवान् अर्हत, तीर्थकर, सिद्ध प्राप्त श्रादि नामों गत है तो यह क्यों जिज्ञासावान् होता है क्यों प्राप्तसे से विख्यात् है, जो संसारके पूजनीय है। इस क्षेत्रमें अप्राप्तकी अोर, नीचेसे ऊपरकी ओर, यहाँसे वहाँकी इन्हीका वचन प्रमाण है। ओर, सीमितसे विशालकी मोर, बुरेसे अच्छकी ओर - अनित्यसे नित्यकी भोर, अपूर्णसे पूर्णकी ओर बढ़ने में .(4) भातः खलु साँचाहतधर्मा पाटस्मार्चस्व सलग्न होता ? चियापविषया प्रयुक्त उपदेष्टा । -न्यापदर्शन-वात्सायन टीका ..... इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि यदि जीवन (पा) येनासं परमैश्वयं परागंबसुखात्पर्य । इतना ही होता, तो जीव इसे सर्वस्व मान कर विश्वास. बोधरूम भतार्थोऽसावीश्वर पटुमिः स्मृतः ॥ * संयुक्तनिकाय २१.. -मासस्वरूप ॥२॥
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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