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प्रागम-वाङ्मय में गणधर शब्द मुख्यतः दो अर्थों में प्रयुक्त है।
तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थकर) द्वारा प्ररूपित तत्व-ज्ञान का द्वादशांगी के रूप में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गण के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं, गणधर कहे जाते हैं। अनुयोग-द्वार सूत्र में भाव-प्रमारण के अन्तर्गत ज्ञान गुरण के प्रागम' नामक प्रमारण-भेद में बताया गया है कि गणधरों के सूत्र प्रात्मगम्य होते हैं। दूसरे शब्दों में वे सूत्रों के कर्ता हैं ।
__ तीर्थंकरों के वर्णन-क्रम में उनकी अन्यान्य धर्म-संपदाओं के साथ-साथ उनके गणधरों का भी यथा प्रसंग उल्लेख हुमा है। तीर्थंकरों के सानिध्य में गणधरों की जैसी परंपरा वर्णित है, वह सार्वत्रिक नहीं है। तीर्थंकरों के पश्चात् अथवा दो तीर्थंकरों के अन्तर्वर्ती काल में गणधर नहीं होते । अतः उदाहरणार्थ गौतम, सुधर्मा आदि के लिए जो गणधर शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह गणधर के शाब्दिक या सामान्य अर्थ में अप्रयोज्य है।
गणधर का दूसरा अर्थ, जैसा कि स्थानांग' वत्ति में लिखा गया है, मार्यानों या साध्वियों को प्रतिजागृत रखने वाला अर्थात् उनके संयम-जीवन - के सम्यक निर्वहण में सदा प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं आध्यात्मिक सहयोग करने वाला श्रमरण गणधर कहा जाता है।
प्रार्या-प्रतिजागरक के अर्थ में प्रयुक्त गणधर शब्द से प्रकट होता है कि संघ में श्रमणी-वन्द की समीचीन व्यवस्था, विकास, अध्यात्म-साधना में उत्तरोत्तर प्रगति - इत्यादि पर पूरा ध्यान दिया जाता था। यही कारण है कि उनकी देख रेख और मार्गदर्शन के कार्य को इतना महत्वपूर्ण समझा गया कि एक विशिष्ट श्रमण का मनोनयन केवल इसी उद्देश्य से होता था। गरणावच्छेदक
इस पद का सम्बन्ध विशेषतः व्यवस्था से है। संघ के सदस्यों का संयम जीवि तव्य स्वस्थ एवं कुशल बना रहे, साधु-जीवन के निर्वाह-हेतु अपेक्षित उपकरण साधु-समुदाय को निरवद्य रूप में मिलते रहें इत्यादि संघीय आवश्यकताओं की पूर्ति का उत्तरदायित्व या कर्तव्य गणावच्छेदक का होता है । उनके संबंध में लिखा है -
जो संघ को सहारा देने, उसे सुदृढ़ बनाये रखने अथवा संघ के थमणों की संयम-यात्रा के सम्यक निर्वाह के लिए उपधि- श्रमण-जीवन के लिए यावश्यक साधन-सामग्री की गवेषणा करने के निमित्त विहार करते हैं -
पर्यटन करते हैं, प्रयत्नशील रहते हैं, वे गणावच्छेदक होते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और पागम - इन चार प्रमाणों का वहां वर्णन हुआ है । । प्राधिक प्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः । - स्थानांग मूत्र ४, ३, ३२३ वृत्ति ' यो हि तं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति
- स्थानांग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक ३ (वृत्ति) ( ७३ )
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