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अर्चनार्चन
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श्रद्ध य युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म.सा.
की
अंतेवासिनो, काश्मीर-प्रचारिका, प्रवचन-शिरोमणि,
मालवज्योति अध्यात्मयोग-साधिका,
परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना'
की दीक्षा-स्वर्ण-जयन्ती
उपलक्ष्य में बहुमानार्थ समर्पित
ASHunt
अर्चनार्चन
व्यवस्थासमिति एवं प्राप्तिस्थान मुनि श्री हजारीमल-स्मृति-प्रकाशन
पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान)
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- आशीर्वचन
परमपूज्य राष्ट्रसंत आचार्यसम्राट् श्री आनन्दऋषिजी म. सा. परामर्श-मण्डल परमपूज्य उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म. सा. परमपूज्य युवाचार्य डॉ. शिवमुनिजी म. सा. अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. सा. 'कमल' कविवर मुनि श्री विनयकुमारजी म. सा. 'भीम'
परम तपस्विनी महासती श्री उम्मेदकुंवरजी म. सा. 0 प्रधान-सम्पादिका
आर्या (डॉ.) श्री सुप्रभाकुमारी 'सुधा', एम. ए., पी- एच. डी., साहित्यरत्न सम्पादक-मण्डल ज्ञानमहोदधि समाजगौरव पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, शास्त्री, न्यायतीर्थ डॉ. छगनलाल शास्त्री, एम. ए. (त्रय), पी-एच. डी. विद्यामहोदधि डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन, एम. ए., पी-एच. डी. डॉ. नरेन्द्र भानावत, एम. ए., पी-एच. डी. डॉ. प्रेमसुमन जैन, एम. ए., पी-एच. डी. साहित्यसेवी श्रीचन्द सुराना 'सरस'
सुश्री कमला जैन 'जीजी', एम. ए. ० प्रबन्ध-सम्पादक
डॉ. तेजसिंह गौड़, एम. ए., पी-एच. डी. - अवतरण
वि. सं. २०४५, भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, शनिवार
ई. सन् १९८८, सितम्बर २४ → प्राप्तिस्थान
मनि श्री हजारीमल-स्मति-प्रकाशन पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज०) ३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल प्रबन्धक, वैदिक यंत्रालय केसरगंज, अजमेर-३०५००१ मूल्य : १५१) रुपये
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समर्पण
जिनके जीवन में वैराग्य की अनुपम श्राभा परिदृश्यमान है, जिनका क्षण-क्षण अन्तश्चेतना के समाकलन में प्रयुज्यमान है, निश्छलता, निर्मलता एवं मृदुलता की भव्य छटा से जिनका व्यक्तित्व शतानुशत विभावित, विभासित एवं विभूषित है,
अनुप्रेक्षा, प्रतिसंलीनता, धारणा तथा ध्यान द्वारा समाधि के परमोच्च शिखर पर समारूढ होने के पावन लक्ष्य की दिशा में जिनके चरण उत्तरोत्तर गतिशील हैं,
करुणा, सेवा और समता जिनके सैद्धान्तिक, वैचारिक एवं कार्मिक जीवन में सर्वथा श्रोतप्रोत हैं,
जन-जागरण, अध्यात्म-प्रभावना विश्व - वात्सल्य तथा मानव-कल्याण का प्रशस्त पथ जिनके शतमुखी, सहस्रमुखी प्रयत्नों से उजागर है, मेरे विद्या- जीवितव्य तथा संयम- जीवितव्य के परिपोषण, परिवर्धन, संवर्धन और सर्वतोमुखी विकास में जिनकी अनन्य देन है, मेरा व्यक्तित्व, कृतित्व, मेरा सर्वस्व जिनके अनुग्रह के अमृतकणों से अनवरत आप्यायित है, सतत सिंचित है,
जिनके चरणों का आश्रय और वात्सल्य का वरदान प्राप्त कर मैं निःसन्देह धन्य हूँ, कृतपुण्य हूँ, अप्रतिम सौभाग्यशालिनी हूँ,
उन अनुपम महिमा मंडिता, श्रम, शम तथा सम पर आधृत श्रमण संस्कृति की प्रबल, सफल संदेशवाहिका, महायोगेश्वरी, परम श्रेयस्करी प्रबुद्ध मनीषिणी, काश्मीरप्रचारिका गुरुवर्या महासती
श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना'
के करकमलों में
सादर, सविनय, सभक्ति समर्पित
चरणकमलमधुकरी आर्या सुप्रभा
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ONE
कृपया
पजाया
अर्चनार्चन विमोचन के पश्चात पू. महासती श्री अर्चना जी को भेंट करते हुए श्रीमान कंवर लालजी बेताला, गुवाहाटी एवं श्रीमान सायर मल जी चौरड़िया, मद्रास ।
PawwwIMANIMAR
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961
2. पू.महासती श्री उमरावकुंवरजी म.सा. अर्चना से चर्चा करते हुए
माननीय भारतसिंह जी गृहमंत्री मध्य प्रदेश शासन.
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प्रकाशकीय
मानव में वास्तविक मानवता के विकास के लिए उत्तरदायी हैं सन्त जन । सन्तों का आदर्श जीवन और उनकी वरद वाणी ने मानव जाति को दिशाबोध कराया है और मानवता को सर्वांगसुन्दर बनाने का सदैव सत्प्रयत्न किया है। वे यह सब करते हैं मान-सम्मान, पूजाप्रतिष्ठा एवं अन्य प्रकार की लोकंषणा से निरपेक्ष होकर 'परंवेति-चरैवेति' यह उनका जीवनमंत्र होता है । वे अपनी साधना की सुरभि से प्राणिमात्र को सुरभित करके भी अपनी यश-कीर्ति या प्रशंसा की कामना नहीं करते। परोपकार मान कर सर्वथा निरभिमान रहते हैं।
किन्तु मनीषी जनों का भी यह परम कर्त्तव्य है कि वे जगत् के महान् उपकारक, मानव में मानवता की प्रतिष्ठा करने वाले और इस भूतल पर स्वर्ग की अवतारणा करने वाले सत्पथप्रदर्शक सन्तों के प्रति अपनी मान्तरिक कृतज्ञता प्रकट करें, अपनी श्रद्धा व्यक्त करें मौर उनके प्रदर्श जीवन के प्रति अपना प्रमोदभाव जतलाएँ । यद्यपि ऐसा करके भी उनके ऋण से हम मुक्त नहीं हो सकते तथापि अपने कर्तव्य पालन के लिए किंचित् सन्तुष्टि का अनुभव कर सकते हैं।
प्रस्तुत 'अर्चना दीक्षा स्वर्ण जयन्ती वन्दन अभिनन्दन ग्रन्थ' इसी उद्देश्य से प्रेरित एक सामान्य उपक्रम है, जो अध्यात्मयोगिनी परम विदुषी, प्रखर व्याख्यात्री श्री अर्चनाजी म० की श्राती दीक्षा के पचास वर्ष पूर्ण होने पर होने वाले समारोह को स्मरणीय बनाने के लिए
किया गया है।
महासती श्री उमरावकुंवरजी म० 'अर्चना' का समग्र जीवन व्यवहार, आचार, विचार और उनके कंठ से उद्भूत होने वाले उद्गार मनुष्यमात्र को दिशाबोध कराने वाले हैं। उनकी दिव्य भव्य बाह्यमुद्रा उनकी प्रान्तरिक शुचिता और पवित्रता को इंगित करती है। मानवजाति के लिए उनका व्यक्तित्त्व परम वरदान है । समाज के प्रति उनके असीम उपकार हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न मतों एवं विचारों वाले मनीषी विद्वानों के निबन्धों का संकलन किया गया है। उनमें अभिव्यक्त विचार उनके ही समझे जाएं। यह घावश्यक नहीं कि प्रकाशन समिति उनसे सहमत ही हो
ग्रन्थ- प्रकाशन में जिन महानुभावों का प्रार्थिक एवं बौद्धिक सहयोग प्राप्त हुआ है, उन सब के प्रति विनम्र कृतज्ञताज्ञापन करना हम अपना कर्तव्य मानते हैं।
विनम्र उत्तमचन्द मोदी,
मंत्री, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर
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सम्पादकीय
महाप्रजापति गौतमी को संसार से वैराग्य हुआ । उसने चाहा, जैसे अनेक शाक्य राजकुमारों ने, राजपुरुषों ने भिक्षु-जीवन स्वीकार किया है, वह भी करे । यह सोचकर सैकड़ों शाक्य महिलाओं से घिरी हुई गौतमी भगवान् बुद्ध के समक्ष उपस्थित हुई, निवेदन किया, भन्ते ! जैसे अनेक शाक्यकुमारों ने आपसे उपसंपदा प्राप्त की है, मैं भी चाहती हैं, मुझे उपसंपदा प्रदान करें। __बुद्ध ने कहा-गौतमी ! यह संभव नहीं है । नारी को मैं भिक्षु-जीवन स्वीकार करने का अधिकार नहीं देता।
गौतमी बड़ी दु:खित एवं खिन्न हुई। उसका मुख विवर्ण हो गया, आँखें भर पाई। आखिर क्या करती, निराश होकर लौट गई।
गौतमी का मानस वैराग्य से उद्वेलित था। वह राजप्रासाद में नहीं टिक सकी । कुछ समय बाद वह फिर बुद्ध की सेवा में उपस्थित हई और उसने पूर्ववत वैसा ही निवेदन कियाभन्ते ! मुझे उपसंपदा प्रदान करें।।
बुद्ध ने कहा---गौतमी ! ऐसा हो नहीं सकता, मैं नारी को भिक्षु-संघ में समाविष्ट होने की आज्ञा नहीं देता।
शोक-विह्वल गौतमी वापस उन्हीं पैरों लौट चली। राजप्रासाद में पाई। मन को टिकाने का प्रयत्न किया, टिका नहीं पाई। वह अपने को नहीं रोक सकी । उसने काषाय-वस्त्र धारण किये, अपने लम्बे कोमल के श नोच डाले। यों खिन्न एवं विवर्णमुख महाप्रजापति गौतमी शाक्य महिलाओं को साथ लिये भगवान् बुद्ध जहाँ विराजमान थे, पाई।
भगवान् बुद्ध के प्रमुख प्रन्तेवासी आयुष्मान् आनन्द भगवान् की सेवा में उपस्थित थे, जो महाप्रजापति गौतमी से उसका अभिप्राय जान चुके थे।
अानन्द ने तथागत से सविनय पूछा-भन्ते ! आप द्वारा निरूपित धर्म क्या किन्हीं विशिष्ट जनों के लिए है, या सबके लिए है ?
बुद्ध ने कहा---आयुष्मन् अानन्द ! मेरा धर्म सबके लिए है। इस पर प्रानन्द बोलाभन्ते ! महाप्रजापति गौतमी विरक्त हो उपसंपदा ग्रहण करना चाहती है। भन्ते ! जब आपके जन्म लेते ही आपकी माता का निधन हो गया, तब महाप्रजापति गौतमी ने ही प्रापका लालनपालन किया, स्तन्य-पान कराया, आपको बड़ा किया। प्राप पर, हम सब पर, भिक्षु-संघ पर महाप्रजापति गौतमी का बड़ा उपकार है। गौतमी विरक्त हो उपसंपदा ग्रहण करना चाहती है, पाप स्वीकार नहीं करते ?
तथागत ने कहा-आनन्द ! मैं नारी को भिक्षु-जीवन अपनाने की स्वीकृति नहीं देता। किन्तु तुम कहते हो, प्राग्रह करते हो, इसलिए मैं नारी को भिक्ष-संघ में लेना स्वीकार करता
आई घड़ी
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वंदन की
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनाचन / ८
हूँ, महाप्रजापति गौतमी को उपसंपदा प्रदान करता हूँ, किन्तु कतिपय विशेष प्रतिबन्धों या नियमों के साथ गौतमी को, उसका अनुवर्तन करनेवाली अन्य शाक्य महिलाओंों को, मागे होने वाली सभी भिक्षुणियों की इनका पालन करना होगा ।
बुद्ध ने फिर कहा-प्रानन्द ! तुम्हारे अनुरोध पर यह कर रहा हूँ, किन्तु इससे भिक्षुसंघ का विरस्थायित्व व्याहृत होगा ।
महाप्रजापति गौतमी बुद्ध के भिक्षु संघ में प्रब्रजित होने वाली पहली नारी थी। बौद्ध पिटक - वाङ्मय का यह एक प्रसंग है । इससे प्रकट है, बुद्ध भी नारी की परम शक्तिमत्ता में कुछ शंकित से, अनाश्वस्त से थे ।
दूसरी ओर वैदिक वाङमय में तो "स्त्रीशूद्रो नाधीयाताम्" के अनुसार नारी को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं दिया गया, संन्यास के लिए भी उसे अनाधिकारिणी माना गया। इसका फलित यह हैं; नारी की ऊर्जा में वहाँ विश्वास नहीं था ।
इस परिप्रेक्ष्य में जब हम जैनपरंपरा पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें एक सर्वथा भिन्न स्थिति प्राप्त होती है, जिसमें नारी की गरिमा, क्षमता एवं शक्तिमत्ता का निर्द्वन्द्व स्वीकार है । जैनपरंपरा के प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल में विभिन्न सन्दर्भों में नारी का ऊर्जस्वल व्यक्तित्व जिस रूप में निखरा है, उसकी आभा कभी धूमिल नहीं हो सकती ।
वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थ श्रारक पर जब हम विचार करते हैं तो प्राद्यतीर्थंकर और प्रथम राजा भगवान् ऋषभ के जीवन के साथ जुड़े तीन नारी पात्रों पर हमारा ध्यान जाता है। उनमें एक है भगवान् की माता श्री मरुदेवी तथा दूसरी दो हैं उनकी पुत्रियाँ ब्राह्मी एवं सुन्दरी चिन्तन की सघनता एवं सूक्ष्मता में नारी कितनी गहराई तक डूब सकती है, उसकी अन्तःशक्ति कितनी प्रकृष्ट एवं उत्कृष्ट है, यह माँ मरुदेवी के जीवन से स्पष्ट है मां-बेटे के संबंध, मोह, ममता और अहंकार की तरंगों पर उतराती माँ जब व्यक्तित्व के सत्यमूलक मूल्यांकन पर टिकती है, सभी श्रौपचारिक, लौकिक सम्बन्धों से वह ऊँची उठ जाती है, बहिर्जगत से नाता टूटने लगता है, अन्तर्जगत से जुड़ने लगता है, जिसकी फल निष्पत्ति परमात्मभाव की स्वायत्तता है भावों का उद्रेक, विकास इस सीमा तक बढ़ जाता है, जहाँ व्यष्टि, समष्टि का भेद उपरत हो जाता है । शुद्ध चैतन्य, परम आनन्द, समाधि, वीतरागता के निर्विकार भाव, शुभ, अशुभ जो भी बहिर्गत हैं, सबको लील जाते हैं, मां मरुदेवी मुहर्त भर में वह सब पा लेती है, जिसे पाने के लिए साधक जन्म-जन्मान्तर तक पचते हैं। माँ कैवल्य का साक्षात्कार कर लेती है, विमुक्त हो जाती है। यह मावियुगीन नारी के विराट् शक्तिस्फोट का एक अद्भुत उदाहरण है ।
श्राद्यतीर्थंकर भगवान् ऋषभ जब संसारावस्था में थे, उन्होंने प्रथम राजा - शासक या समाज प्रतिष्ठापक के रूप में वे सब व्यवस्थाएं एवं विधिक्रम सुप्रतिष्ठित किये, जिनका अवलम्बन कर समाज सुख से, शान्ति से, धर्मिष्ठता से जी सके, अपना विकास कर सके । कृषि, पशु-पालन, वाणिज्य आदि का सूत्रपात किया, जिससे लोग जीवनोपयोगी साधन उत्पन्न कर सकें। भगवान् के इस व्यवस्थाक्रम में, सर्जन में उनकी दो पुत्रियों-ब्राह्मी तथा सुन्दरी का जो योगदान रहा, वह विश्व-स्थिति, संस्कृति एवं लोक-जीवन के विकास के
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अर्चनार्चन / ९
इतिहास में कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। लिपि-लेखनकला, चित्रकला, काव्यकला, संगीतकला आदि तदुपजीवी अनेकानेक साधन-सामग्री, विधि-विधान आदि का प्राविष्करण इन राजकन्यानों ने किया, जिससे आर्य-संस्कृति का ललित पक्ष बड़े समीचीन रूप में उजागर हुआ । उसके उत्तरोत्तर प्रगत होते संवर्धन का जो विराट रूप आज हमें प्राप्त है, उसके मूल में इन दो सत्यशीलवती लालित्यवती सन्नारियों की ऊर्जा है।
इन दोनों भाग्यशालिनी बहिनों का एक और बहत बड़ा कार्य है, जो अध्यात्म-साधना के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
भगवान् ऋषभ के द्वितीय पुत्र बाहुबलि, जो न केवल बाहुबल-भुजबल या दैहिक बल के धनी थे, वरन् जो महान् आत्मबली भी थे, खडगासन में दीर्घकाल से ध्यानलीन थे, महामात्य चामुण्डराय द्वारा निर्मापित, संस्थापित श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) स्थित बाहुबलि की विशाल प्रतिमा जिनका स्थूल प्रतीक है।
बाहुबलि जिस घोर तप:क्रम को अपनाये थे, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। एक बड़ी लम्बी अवधि व्यतीत हो जाती है, न भोजन, न पानी, अनवरत प्रात्मोपासना, आत्माराधना का अनवच्छिन्न क्रम। यह सब था, चल रहा था, पर महान् बाहुबलि कैवल्य को आत्मसात् नहीं कर सके । एक ग्रन्थि थी, रज्ज-ग्रन्थि नहीं, प्रात्मा के परिणामों की ग्रन्थि, जो वैषम्य-संश्लिष्ट थी। वैषम्य अनात्मभाव है। उसके रहते समता, साम्य सधता नहीं है। उसके सधे बिना ज्ञान को प्रावृत करने वाली कर्मों की पर्ते हटती नहीं, मिटती नहीं।
भरत और बाहुबलि के अतिरिक्त भगवान् ऋषभ के सभी पुत्र अपने पूज्य पिता के पास दीक्षित हो चुके थे। बाहुबलि उनके पश्चात् संयम-पथ पर आरूढ हुए। वे इस प्राशंका से अपने पिता भगवान् ऋषभ के पास नहीं गये कि वहाँ जाने पर उन्हें अपने छोटे भाइयों को दीक्षा-ज्येष्ठ होने के नाते वन्दन करना होगा। आयु, बल, पद, प्रतिष्ठा सबमें उनसे बड़े होने के कारण वे वैसा कैसे कर पायेंगे । यही कारण था, वे स्वयं सहजभाव से तपश्चरण एवं ध्यान में संलग्न हो गये, सतत संलग्न रहे किन्तु पूर्वोक्त ग्रन्थि, जो अहंकार-प्रसूत थी, के रहते उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ।
बहिनों ने देखा, भाई महान् तपस्वी हैं, पर द्वन्द्वातीत नहीं हैं। छोटे-बड़े का, उच्चअनुच्च का, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट का भेद, द्वैध, द्वन्द्व उनके मस्तिष्क में अब भी घर किये हैं। इसे अपगत किये बिना वे अपना साध्य नहीं साध पायेंगे ।
ब्राह्मी और सुन्दरी अपने तप-निरत महान् भाई के समक्ष उपस्थित हुईं। बाहुबलि को सम्बोधित कर बड़े मृदुल, कोमल, स्नेहल शब्दों में कहा-भैया ! हाथी पर बैठे हो, कैवल्य कैसे प्राप्त कर सकोगे ? ऐसे तो नहीं प्राप्त होगा कैवल्य ।
बहिनों का मधुर, आत्मीयतापूर्ण स्वर ज्यों ही कर्णकुहरों में पड़ा, बाहुबलि सहसा चौंक उठे-कहाँ हूँ मैं हाथी पर प्रारूढ, मैं तो ध्यानस्थ खड़ा हूँ। चिन्तनक्रम आगे बढ़ा। शब्दव्यंजना से जुड़े भावों की गहराई में बाहुबलि मानो डूब गये। उन्हें अन्तःप्रतीति होने लगी, उफ ! बहिनें ठीक कहती हैं, मैं तो वास्तव में अहं के हाथी पर प्रारूढ है। कर्म-क्षय कैसे होगा । कैवल्य कैसे प्राप्त होगा। ज्यों-ज्यों चिन्तन की गहराई में लीन होने लगे, अहंकार की
आई घड़ी आभनदन का चरण कमल के वंदन की
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अर्चना १०
द्वैध की ग्रन्थि, जो गहरी घुली थी, खुलने लगी। परिणामों के प्रोज्ज्वल्य की सत्वर गति उज्ज्वलता का वह क्रम किसी नियमित धनुपात पर तीव्रतम गति पर प्रारूढ होती है, कर्म - मल इतनी जिसके फलस्वरूप क्षणों में वह सध जाता है, जो वर्षों
गाणितिक पद्धति से नहीं नापी जाती। नहीं चलता । भावधारा जब शुद्धि की शीघ्रता से, तीव्रता से झड़ता जाता है, ही नहीं वरन् युगों तक नहीं सध पाता ।
उक्त बहिनों के एक छोटे से प्रेरणा वचन से एक महान् साधक को जो दिशा-बोध प्राप्त हुआ, उसने उसके जीवन को तत्क्षण ऐसा मोड़ दिया, जिसकी चामत्कारिक फलनिष्पत्ति से साधक सचमुच निहाल हो गया, साध्य सध गया, प्राप्य प्राप्त हो गया । नारी की उर्वर विचार-शक्ति का यह एक अनुपम उदाहरण है। निश्चय ही नारी शक्तिपुंज है। नारी को जो अबला कहा गया है, क्या वह पुरुष प्रधान समाज का व्यंग्य नहीं है? जब तक भगवान् बाहुबलि की स्मृति रहेगी, क्या ब्राह्मी और सुन्दरी विस्मृत की जा सकेंगी।
घटनाएँ बहुत हैं, लम्बे-लम्बे इतिवृत्त हैं, जिनमें नारी की गरिमा सर्वत्र निखरी है । सम्भव नहीं है, उन्हें प्रस्तुत किया जा सके। प्रतीक के रूप में केवल कुछ एक का संकेतमात्र किया जा सकता है ।
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बाईसवें तीर्थंकर भगवान् श्ररिष्टनेमि के काल का प्रसंग है, जहाँ हम एक नारी पात्र का ओजस्वी व्यक्तित्व देखकर दंग रह जाते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के २२ अध्ययन में दो घटनाक्रम वर्णित है। पहला घटनाक्रम अरिष्टनेमि के विवाह का है अरिष्टनेमि यदुवंशीय राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। वे वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे । राजीमती भोजकुल के राजन्य अग्रसेन की कन्या थी । श्ररिष्टनेमि और राजीमती का विवाह निश्चित हुआ । एक विचित्र घटना घटी । श्ररिष्टनेमि विशाल बरात के साथ विवाह मंडप के समीप पहुँचे। उन्हें पास हो बाड़े में, पिजरों में बंधे पशुपक्षियों का चीत्कार करुण क्रन्दन सुनाई पड़ा। पूछने पर पता चला कि ये पशु-पक्षी उनके बरातियों के लिए आमिष भोजन तैयार करने हेतु हैं। यह सुनते ही हिंसा का विकरालरूप अरिष्टनेमि के समक्ष नाच उठा। उनका हृदय दहल गया। उन्होंने तत्काल निर्णय लिया कि किसी भी हालत में वे विवाह नहीं करेंगे। उन्हें बहुत कुछ सुझाया बुझाया गया, पर वे अपने निश्चय पर अडिग रहे ।
।
वह मन ही मन कहने लगी,
अब जरा राजीमती की दृष्टि से चिन्तन करें। राजीमती, जिसके मानस में विपुल भोगसंकुल स्वप्निल संसार का सागर लहरा रहा था. सहसा स्तब्ध हो गई। सुखमय स्वप्न के तार टूटने लगे, वह व्याकुल, व्यथित और विन होने लगी। किन्तु तत्काल उस महिमामयी नारी ने अपने को सम्हाला । उसकी प्राभ्यन्तर ऊर्जा जाग उठी अरिष्टनेमि जिस भोगमय संसार को परिय जान छोड़ चुके हैं, यह दुर्बलहृदया क्यों बने उसे क्यों स्वीकारे । अन्य यादवकुमारों में से किसी एक के साथ परिणयसूत्र में आबद्ध होने का प्रस्ताव उसने ठुकरा दिया। उसने उसी पथ का अनुसरण किया, जिस पर अरिष्टनेमि आगे बढ़े जा रहे थे। राजीमती ने वादववंशीय राजकुलवधू के स्थान पर त्याग तपोमयी, व्रतपरायणा श्रमणी के रूप में अपने को परिणत कर डाला । नारी की अपराजेय शक्ति का यह दिव्य रूप था ।
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अर्थ/११
दूसरा प्रसंग और भी मार्मिक है। अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि भी अपने बड़े भाई की ज्यों संयम पथ पर धारू हो चुके थे। एक ऐसा संयोग बना भगवान् परिष्टनेमिक प्रारूढ । पर्वत पर विराजित थे । राजीमती अपनी सहवर्तनी साध्वियों को साथ लिये उनके दर्शन हेतु चली। मार्ग में अचानक पाये भीषण तूफान, वर्षा, तज्जन्य अन्धकार से साध्वियों भटक गईं। उनका साथ छूट गया । राजीमती के वस्त्र पानी से तर थे। पास ही एक गुफा नजर आई । वह अपने भीगे कपड़े निचोड़ने, सुखाने हेतु उसमें प्रविष्ट हुई । कपड़े उतारे, उन्हें निचोड़ा, एक विचित्र संयोग था, रथनेमि उसी गुफा में साधनारत थे। अब तक वहाँ होने का ध्यान नहीं था। अचानक रथनेमि की दृष्टि राजीमती की वे स्तब्ध रह गये । परम सौन्दर्यमयी एकाकिनी नारी की उपस्थिति ने कोर डाला ठीक ही कहा है- "कन्दर्पदर्पदलने बिरला मनुष्याः ।" राज वैभव का परित्याग कर संयम पथ के धवलम्बी राजपुत्र के समक्ष भोगवासनामय संसार दुर्बलता उभर पाई। रथनेमि राजीमती से काम
सुखाने हेतु फैलाया । दोनों को एक दूसरे के अनावृत्त देह पर पड़ी। रथनेमि के मानस को
का काल्पनिक दृश्य उपस्थित हो गया याचना करने लगा ।
राजीमती एक बार तो भयभीत हुई किन्तु भट उसने अपने को सम्हाल। । उसके मानस में प्रध्यात्म का उज्ज्वल श्रोज हिलोरें ले रहा था। उसे अपना कर्तव्य निश्चित करते देर नहीं लगी । संयम - पराङ, मुख रथनेमि को प्रात्मस्थ करने हेतु जो प्रतिबोध वाक्य उसने कहे, वे त्याग - वैराग्य और संयम साधना के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे । राजीमती अपनी प्रोजस्वी वाणी में कहने लगी
गन्धन कुल में उत्पन्न सर्प (refer मान्त्रिक द्वारा छोड़ती, उद्दीप्त, भयावह, दुःसह अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, हुम्रा विष पुनः निगलने को कभी तैयार नहीं होते ।
नियन्त्रित होकर भी ) धुम्र किन्तु वमन किया हुआ, उगला
।
अपयश चाहने वाले पुरुष ! तुम्हें धिक्कार है। तुम भोगों को वमन की ज्यों त्याग चुके हो फिर तुम में भोगमय जीवन अपनाने का लोभ उभरा है। ग्राश्चर्य है, तुम त्यागे हुए भोगों को फिर स्वीकार करना चाहते हो। इससे कहीं अच्छा तो यह हो, तुम मर जाश्रो। तुम जैसे व्यक्ति जीवित रहने योग्य नहीं होते ।
क्यों भूल जाते हो, मैं भोजराज की पौत्री है, तुम धन्धकवृष्णि के पौत्र हो हम उत्तमकुलीन हैं। हम अपने कुल में गन्धनजाति के सर्प के सदृश न बनें, (जो अपना उगला हुआ विष गारुड, मात्रिक के भय से पुनः निगल जाता है ।)
तुम शान्त, सुस्थिर भाव से संयम पर टल रहो ।
यदि तुम किसी स्त्री को देखते ही यों लोलुप बन उठोगे तो तुम उस वृक्ष की तरह, जिसकी जड़ जमीन में नहीं है, संयम से उखड़ जाओगे, विचलित हो जायोगे ।
जैसे गोपालक दूसरों की गायें चराने वाला ग्वाला गायों का स्वामी नहीं होता, वेतनभोगी भण्डपाल- रक्षक भण्डार का स्वामी नहीं होता, इसी प्रकार अपने आप पर काबू नहीं रख सकने वाले तुम धामण्य पवित्र श्रमण जीवन के स्वामी नहीं होगे ।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अर्चनार्चन / १२ क्रोध, मान, माया और लोभ को सर्वथा नियन्त्रित कर, इन्द्रियों को वश में कर अपने आपका उपसंहरण-संवरण करो, दूषित पाचरण से बचो।'
वचन क्या थे, हृदय को वेध डालने वाले अमोघ वाण थे। उनका तत्काल प्रभाव हुमा । लिखा है--
संयममयी राजीमती के सुभाषित-सुन्दर, उत्तम वचन सुनकर रथनेमि उसी प्रकार संयम में स्थिर हो गये, जैसे अंकूश द्वारा हाथी नियन्त्रित हो जाता है।
यह नारी की अद्भुत महिमा का एक अति सुन्दर उदाहरण है। एक पतनोन्मुख पुरुष को, जो लगभग पतन के कगार पर था, अपनी तपःपूत वाणी द्वारा अभिप्रेरित कर, उद्बोधित कर एक परमपावन नारी ने बचा लिया ।
नारी के उत्कर्ष, गौरव और माहात्म्य का यह स्रोत कभी सूखा नहीं, उसके त्यागतितिक्षामय अमृत जल से प्राप्लावित जो होता रहा।
अब हम जरा भगवान् महावीर के युग का विहंगावलोकन करें। भगवान ने साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप में चतुर्विध धर्मसंघ की प्रतिष्ठापना की। संघ के अन्तर्गत समग्र साध्वीवृन्द की अधिनायकता चन्दनबाला पर थी। प्रभु महावीर द्वारा प्रवजित यह साध्वी संयम-साधनामय जीवन की वह उद्दीप्त दीपशिखा थी, जिसके ज्योतिकणों से सारा युग पालोकित था। चन्दनबाला, मां धारिणी और रथिक का इतिवृत्त जैन वाङमय का वह प्रसंग है, जहाँ नारी का व्यक्तित्व एक अबला के रूप में नहीं वरन् परम सबला, शक्तिमती, तेजस्विनी, प्रोजस्विनी के रूप में निखरा है। शील-रक्षा के लिए धारिणी द्वारा स्वयं प्राणों का विसर्जन एक ऐसा बलिदान है, जो नारी के अमल, धवल चरित्र को सदा उजागर करता रहेगा।
१. पक्खंदे जलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं ।
नेच्छन्ति बंतयं भोत्तं कुले जाया अगंधणे ॥ धिरत्थ तेऽजसोकामी ! जो तं जीवियकारणा। वन्तं इच्छसि आवेळ सेयं ते मरणं भवे ।। अहं च भोयरायस्स तं च सि अन्धगवण्हिणो। मा कुले गन्धणा होमो संजमं निहुप्रो चर ।। जइ तं काहि सि भावं जा जा दिच्छसि नारियो । वायाविद्धो ब्व हडो अट्रिअप्पा भविस्ससि ।। गोवालो भण्डवालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि ।। कोहं माणं निगिहित्ता मायं लोभं च सव्वसो । इन्दियाइं वसे काउं अप्पाणं उवसंहरे ॥
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २२, गाथा ४२-४७ २. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो।।
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २२, गाथा ४८
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अर्चनार्चन /१३
भगवान महावीर की समसामयिक नारी उपासिकानों में अनेक ऐसी थीं, जिनका जीवन धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से बड़ा आदर्श था। उनमें से केवल दो का यहां उल्लेख किया जा रहा है।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के बारहवें शतक के द्वितीय उद्देशक में हम एक नारी पात्र के संपर्क में आते हैं। वह है जयन्ती, जो कोशाम्बी के राजा सहस्रानीक की पुत्री, शतानीक की बहिन एवं उदयन की बुना थी । वह बड़ी धर्मनिष्ठ थी। भगवान् महावीर के पथानुगामी श्रमण-श्रमणियों को उपयुक्त, समीचीन आवास देने वालों में उसका प्रथम स्थान था।
जयन्ती की सबसे बड़ी विशेषता थी तत्त्वाभिरुचि, तत्त्वज्ञान अधिगत करने का तीव्र उत्साह, प्रयत्न ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति में उल्लेख है, पादविहार करते-करते भगवान् महावीर कोशाम्बी पधारे । लोग दर्शन हेतु उमड़ पड़े । श्रमणोपासिका जयन्ती ने जब प्रभु महावीर के आगमन का समाचार सुना, बड़ी हर्षित हुई। सपरिवार भगवान् के दर्शन किये, पर्युपासना की। भगवान् की धर्मदेशना सुनी, उसे अवधृत किया, बड़ी परितुष्ट हुई। जिज्ञासावश उसने फिर भगवान् से कुछ प्रश्न किये, जो बड़े मार्मिक हैं। प्रभु महावीर ने उनका समाधान दिया। जयन्ती बड़ी प्रसन्न हुई। उसके निमित्त से प्राप्त समाधान अन्यान्य जिज्ञासु पुरुषों एवं नारियों के लिए भी बड़े श्रेयस्कर सिद्ध हुए।
जयन्ती के प्रश्न भवसिद्धिक जीवों की स्वाभाविकता, पारिणामिकता, लोक के शून्य होने की आशंका, जीवों की सुप्तता, जागरितता, सबलता, दुर्बलता, दक्षता, अमलता, इन्द्रियवशातता, बन्धादि दुष्परिणाम जैसे विषयों से सम्बद्ध थे। इन गहन-गम्भीर विषयों को देखते प्रतीत होता है, जयन्ती को बड़ा गहरा तात्त्विक ज्ञान था, जिसे वह और परिमार्जित, परिष्कृत करना चाहती थी।
जयन्ती के प्रति हमें प्राभारी होना चाहिए, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वह तात्त्विक प्रसंग हमें आज ज्यों का त्यों प्राप्त है, जिससे न जाने कितने जिज्ञासु लाभान्वित हुए हैं, होते हैं होते रहेंगे ।
जयन्ती केवल तत्त्वज्ञानिनी ही नहीं थी, उसने प्राप्त तत्त्वज्ञान को कर्म में परिणत किया, प्रव्रज्या स्वीकार की, उदग्र साधना की, सर्व दुःखों का क्षय किया, अपरिसीम आध्यात्मिक प्रानन्द प्राप्त किया। वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त पदारूढ हुई।
स्थानांगसूत्र स्थान नौ, उद्देशक तीन में, आवश्यक नियुक्ति गाथा १२८४ में अत्यन्त धर्मपरायणा, भगवान महावीर की अनन्य उपासिका सुलसा का इतिवृत्त है । वह राजगह-निवासिनी थी। उसके पति का नाम नाग था। वह राजा श्रेणिक की चतुरंगिनि सेना में रथ-सेना का नायक था, अत: राजगृह में नागरथिक के नाम से प्रसिद्ध था। सुलसा अपने पति के साथ सुख से रहती थी। उसका इतिवृत्त बहुत लम्बा है, संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त हो गा, उसकी रग-रग में धर्म-भावना व्याप्त थी। भगवान महावीर में उसका अडिग विश्वास था। उन द्वारा निरूपित धर्म-तत्त्व उसके लिए प्रादेय थे। धर्म ही उसके लिए सर्वस्व था, जिससे उसे कोई विचलित नहीं कर सकता था।
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अर्चनार्चन | १४ भगवान महावीर स्वयं श्रमणोपासिका सुलसा की धर्मनिष्ठता, आत्मनिष्ठता से प्रभावित थे । एक बार का प्रसंग है, श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में धर्मदेशना दे रहे थे। सहस्रों नर-नारी उनके अमृत वचनों का श्रवण कर रहे थे। श्रोताओं में राजगह निवासी अम्बड नामक श्रमणोपासक भी था। अम्बड संन्यासी के वेष में रहता था, पर श्रावक-व्रतों का भलीभांति पालन करता था। उसे अनेक विद्याएँ सिद्ध थीं।
भगवान महावीर का उपदेश सुन अम्बड बहुत हर्षित हुआ। उसने भगवान् से निवेदन किया-प्रभुवर मैं ! राजगह जा रहा हूँ। वहाँ योग्य कोई संदेश हो तो कहने का अनुग्रह करें।
भगवान् ने कहा-अम्बड ! राजगृह में सुलसा नामक श्रमणोपासिका है । वह बड़ी दृढधर्मा है, व्रतों एवं नियमों के पालन में बड़ी कठोर है, सुलसा जैसे उपासक-उपासिकाएँ बहुत कम होंगे। मेरा सुलसा से धर्म-संदेश कहना ।
इस कथानक को हम यहीं छोड़ देते हैं। यहाँ जानने की मूल बात यह है, जरा विचारिए, जिस नारी को भगवान महावीर स्वयं धर्म-संदेश भेजते है, वह कितनी महान् रही होगी।
जैनपरम्परा में तो नारी की गरिमा को सहर्ष स्वीकारा ही है, उसे उजागर किया ही है, किन्तु वैदिक परम्परा में भी, जहाँ नारी पुरुष की ज्यों उच्च पथ एवं पद की अधिकारिणी नहीं मानी गई, उसे स्वातन्त्र्य से वंचित रखा गया, नारी के शक्ति-विस्फोट को नहीं रोका जा सका । संन्यास लेने को समुद्यत कात्यायनी और मैत्रेयी नामक अपनी दो पत्नियों में अपनी सारी सम्पत्ति का विभाजन करने को उत्सुक याज्ञवल्क्य जब मैत्रेयी को उसका भाग देने को तत्पर हुआ, तब मैत्रेयी ने उसको "किमहं तेन कुर्याम, येन नाहममृता स्याम्" इस औपनिषदिक शब्दों में जो मार्मिक उत्तर दिया, वह उस महान नारी के सत्य-शील-दीप्त नैसगिक प्रोजमय व्यक्तित्व का परिचायक है।
मैत्रेयी की शब्दावली कितनी सतोल और वजनदार है। वह कहती है, धन-वैभव का आप स्वयं तो परित्याग करना चाहते हैं। अपने भाग के नाम से उसे मुझे देना चाहते हैं। यदि यह धन, लौकिक वैभव सदा संग्राह्य और स्वीकार्य होता तो आप इस प्रकार उसे कैसे छोड़ देते। मैं उस सबका क्या करूंगी, जिससे मुझे अमरत्व का लाभ न हो। मैं अमरत्व चाहती हूँ, अजर-अमर होना चाहती हैं, फिर धन के मोह में क्यों बंधूं ?
महाकवि जयशंकरप्रसाद ने कामायनी में नारी के सम्बन्ध में बड़े अन्तःस्पर्शी उद्गार व्यक्त किए हैं। लिखा है
नारी! तू केवल श्रद्धा है विश्वास रजत-नग पग-तल में।
पीयूष-स्रोतसी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ॥ सचमुच नारी श्रद्धा की प्रतिमूर्ति है। श्रद्धा जीवन का हृदय-पक्ष है । लक्ष्य के लिए समर्पण, उद्दिष्ट में परिव्यापन, आस्था के क्रियान्वयन में श्रद्धा की प्रेरक शक्ति का जीवन में अनन्य स्थान है। उपर्युक्त रूप में नारी के सत्यनिष्ठ, ध्येयनिष्ठ, सत्कर्मनिष्ठ प्रसाधारण व्यक्तित्व का जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है, उसका मूल स्रोत श्रद्धा में सन्निविष्ट है। न केवल गुणात्मक दष्टि से नारी उत्कर्ष की परकाष्ठा तक पहुंची, संख्यात्मक दृष्टि से भी साधना में समर्पित नारी जाति का जो बाहुल्य रहा है, वास्तव में वह उसके हृदय के पावित्र्य का अभिव्यंजक है।
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अर्चनार्चन | १५
वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर से अन्तिम तीर्थंकर पर्यन्त चतुर्विध धर्म संघ में महावताराधना के सन्दर्भ में संख्याक्रम की दृष्टि से नारियों का जो स्थान रहा है, निःसन्देह आश्चर्य कर है। वह इस प्रकार है
शासन-काल
साधु-संख्या साध्वी-संख्या
३०००००
प्रथम तीथंकर दूसरे तीर्थंकर तीसरे तीर्थंकर चौथे तीर्थंकर पांचवें तीर्थंकर छठे तीर्थंकर सातवें तीर्थंकर आठवें तीर्थंकर नौवें तीर्थंकर दसवें तीर्थंकर
८४००० १००००० २००००० ३००००० ३२०००० ३३०००० ३००००० २५०००० २००००० १०००००
३३६००० ६३०००० ५३०००० ४२०००० ४३०००० ३८००००
१२००० १००००६
५० लाख क्रोड सागरो. ३० लाख क्रोड साग. १० लाख क्रोड साग. ९ लाख क्रोड साग. ९० हजार कोड साग. ९ हजार कोड सागरो. ९०० करोड सागरोपम ९० क्रोड साग. ९ क्रोड सागरोपम एक क्रोड सागर में सौ सागर ६६ लाख २६ हजार वर्ष कम । ५४ सागर ३० सागर नौ सागर ४ सागर ३ सागर में पौन पल्योपम कम अर्द्ध पल्योपम पाव पल्योपम में एक हजार वर्ष कम एक हजार करोड वर्ष ५४ लाख वर्ष ६ लाख वर्ष ५ लाख वर्ष २२३०० वर्ष उणा ८४००० वर्ष ८४००० वर्ष २१ हजार वर्ष
ग्यारहवें तीर्थंकर बारहवें तीर्थंकर तेरहवें तीर्थंकर चौदहवें तीर्थंकर पन्द्रहवें तीर्थंकर सोलहवें तीर्थंकर सतरहवें तीर्थंकर अठारहवें तीर्थंकर उन्नीसवें तीर्थंकर बीसवें तीर्थंकर इक्कीसवें तीर्थंकर बाईसवें तीर्थंकर तेबीसवें तीर्थंकर चौबीसवें तीर्थकर
८४००० ७२००० ६८००० ६६००० ६४००० ६२०००
१०३००० १००००० १००८०० ६२००० ६२४०० ८९००० ६०६०० ६०००० ५५००० ५०००० ४१००० ४०००० ३८००० ३६०००
५०००० ४००००
०
२०००० १८००० १६००० १४०००
उत्तरवर्ती काल में भी धर्म-संघ में साध्वियों का बड़ा उत्कृष्ट स्थान रहा है। कतिपय ऐसी साध्वियां भी हुई हैं, जिन्होंने अपने तत्त्वनिष्ठ, साधनानिष्ठ व्यक्तित्व की धर्म-संघ पर अमिट छाप छोड़ी। ऐसी महिमामंडित साध्वियों में प्रातःस्मरणीया याकिनी महत्तरा का नामोल्लेख करते हुए वास्तव में बड़े गर्व का अनुभव होता है । जैन जगत् को हरिभद्र जैसे ।
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महान् योगनिष्ठ, तत्त्वनिष्ठ प्राचार्य प्राप्त हुए, जिन्होंने विद्या, साधना तथा विपुल साहित्यसर्जन द्वारा भारतीय चिन्तनधारा, संस्कृति, साहित्य एवं दर्शन को अप्रतिम योगदान किया, इसका श्रेय महामहिमान्विता याकिनी महत्तरा को है। जैन-शासन की अनन्य प्रभाविका इसी महान नारी ने प्राचार्य हरिभद्र को जैन तत्त्वज्ञान एवं प्राचार विधा की ओर प्रेरित किया। प्रेरित भी ऐसा किया कि उन्होंने सर्वतोभावेन अपना जीवन जैन संस्कृति एवं धर्म के पुनरुत्थान, विकास, उन्नयन एवं संवर्धन में लगा दिया।
प्राचार्य हरिभद्र ने इस महाकल्याणी, तपःपूत महनीय साधिका के उपकार से अपने को कृतकृत्य माना। उन्होंने उसे धर्ममाता के रूप में स्वीकार किया। हरिभद्र की प्रत्येक कृति में रचनाकार के रूप में उल्लिखित उनके नाम के साथ "याकिनी-महत्तरा-सूनु" विशेषण उनके महान् कृतज्ञभाव को गौरवपूर्वक उजागर करता है।
साध्वी याकिनी का तत्कालीन समाज में, धर्म-संघ में कितना बड़ा महत्त्व था, यह उनके नाम के साथ संलग्न 'महत्तरा' पद से स्पष्ट है। महत्तरा का विरुद केवल उन गरिमामण्डित साध्वियों को प्राप्त था, जो तत्त्वज्ञान, शुद्धचर्या तथा धर्मप्रभावना के विराट् अभियान में समर्पित थीं।
साध्वीवृन्द के उत्कर्ष का यह क्रम सदा ज्वलन्त रहा, कभी धूमिल नहीं हुआ। जैन परम्परा की जिस शाखा से हम सम्बद्ध हैं, यदि उसके परम यशस्वी इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ऐसी अनेक तपोमयी, वैराग्यमयी, धर्मोन्नतिकरी, संघोन्नतिकरी साध्वियों के परिचय में आते हैं, जो अध्यात्म, संयम, साधना और सेवा के लिए सर्वात्मना समर्पित रहीं। ऐसे साध्वीवृन्द में महासती श्री फतेहकुंवरजी, महासती श्री चंपाकुंवरजी महासती श्री रायकुंवरजी, महासती श्री चौथांजी एवं महासती श्री सरदारकुंवरजी का स्थान अत्यन्त गरिमामंडित रहा है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' सूत्र उनके जीवन में सर्वथा फलित रहा। तत्त्व-ज्ञान में वे स्वभावतः रुचिशीला थीं। उस दिशा में प्रयत्नशीला थीं। शास्त्रानुशीलन मानो उनका व्यसन था, जिसके बिना वे रह ही नहीं सकती थीं। वे हलुककर्मा थीं। उनकी वृत्ति पापभीरुतामय थी। शास्त्रानुमोदित चारित्य के अनुसरण, सम्यक् परिपालन, उत्तम क्रियाओं के सदनुष्ठान में वे सतत जागरूक थीं । वास्तव में उनका जीवन धार्मिक जगत् के लिए आदर्श था।
महासतीजी श्री फतेहकुवरजी महासती अखुजी की पुत्री एवं शिष्या थीं। आप स्वाध्यायप्रिय, आगमानुशीलनरत पुण्यात्मा थीं। उनकी लेखन-कला एवं लेखन-शक्ति अद्भुत थी। . उन्होंने एक ही कलम से बत्तीसों आगमों का दो बार लेखन किया । उस महान साधनाशील नारी की कर्मठता, मन:स्थिरता, अपरिश्रान्त उद्यमशीलता की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है । लेखन का समय सं० १८५१-५७ का रहा।
महासती श्रीचंपाकुंवरजी एक महान् धर्मप्रभाविका श्रमणी थीं। जिन-धर्म को जन-जन तक पहुंचाने में योग्यतम साध्वियां तैयार करने में उन्होंने जो किया, वह सर्वथा स्तुत्य है, स्तुत्य रहेगा।
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महासती श्रीचंपाकुंवरजी ने जिन अत्युत्तम, सुयोग्य पात्रों का निर्माण किया, महासतीजी श्रीरायकुंवरजी का उनमें महत्त्वपूर्ण स्थान था। श्रीरायकुंवरजी महासती श्रीचंपाकुंवरजी की अन्तेवासिनी थीं, उत्तराधिकारिणी थीं । तपश्चरण, योगानुष्ठान एवं पाराधना में तन्मयता उनके जीवन के प्रमुख अंग थे । उन्हें विचित्र दिव्य दैविक शक्तियां, विभूतियाँ प्राप्त थीं। उन्होंने अनेक भव्यात्मानों को प्रतिबोधित किया जिन्होंने आत्म-कल्याण के साथ-साथ लोक-कल्याण के वे कार्य किये, जो उन्हें सदा अजर, अमर बनाये रखेंगे ।
महासती श्रीरायकंवरजी के व्यक्तित्व की गरिमा को उनकी अन्तेवासिनी महासती श्रीचौथांजी ने न केवल सहेजा ही, प्रत्युत उसे स्वाध्याय, साधना एवं प्रभावना द्वारा उत्तरोत्तर प्रसत वृद्धिंगत किया । पाप द्वारा प्रतिबोधित स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. मा., पूज्य कानमल जी म. सा., श्री स्वामीजी श्री हजारीमल म. सा., जिन्होंने जिन शासन का प्रखर उद्योत किया।
महासती श्री चौथांजी ग्रागम-निष्णात थीं । आगमों के गूढ़ रहस्यों की इतनी मर्मज्ञा थीं कि न केवल अनेकानेक साध्वियों को ही वरन अनेक साधनों को भी उन्होंने आगमों का अध्ययन कराया।
महासती श्रीचौथांजी की अन्तेवासिनियों में महासती श्रीसरदारकुंवरजी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिन्होंने अपनी पूजनीया गुरुणीजी से उत्तराधिकार में प्राप्त श्रतचारिख्यमय अभियान को अधिकाधिक वद्धिगत किया, विकसित किया। सन्तरत्न, धर्मशासन के महान सेवी स्वामी जी श्रीब्रजलालजी म. बहश्रुत पण्डितरत्न, विद्वद्वरेण्य, महान् ज्ञानयोगी युवाचार्यप्रवर श्री मिश्रीमलजी म. "मधुकर", साधकवर्य, आत्मार्थी मुनिश्री मांगीलालजी म. जैसी महान् आत्मा प्रों को उद्बोधित, उत्प्रेरित करने का श्रेय महासती श्री सरदारकुंवरजी म. को है । साथ ही साथ महासती श्री सरदारकुंवरजी म. ने न केवल जगत् को, वरन् समग्र अध्यात्म-जगत् को पूज्य गुरुवर्या महासती जी श्री उमरावकुंवरजी "अर्चना" के रूप में एक ऐसा परम-भास्वर, उज्ज्वल, अखण्ड दीप्तिमय रत्न दिया, जिसके दिव्य आलोक से श्रमणसंस्कृति, साधना का विराक्षेत्र निःसन्देह विभासित है, प्रकाशित है।
पूज्य गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. ने जहां एक ओर प्रागैतिहासिककालीन परम गौरवास्पद अध्यात्म-जगत् की ज्योतिर्मय नक्षत्र-स्वरूपा मां मरुदेवी, महासती राजीमती, महासती चन्दना तथा वर्तमानयुगीन गरिमामय श्रमणी महत्तरा याकिनी, स्वपरंपरोद्भासिनी महासती श्री चंपाकुंवरजी, श्री रायकुंवरजी, श्री चौथांजी तथा श्री सरदारकुंवरजी जैसी तप:पूत, त्यागवैराग्यालंकृत, धर्मप्रभावनानुरत महान् आत्माओं की गौरवमयी विरासत को सहेजा, वहाँ दूसरी ओर उन्होंने महामहिम, प्रातः स्मरणीय, शक्तिपुंज मुनिश्री जोरावरमलजी, म. मुनिश्री हजारीमलजी म., स्वामीजी ब्रजलालजी म. तथा युवाचार्यप्रवर 'श्रीमिश्रीमलजी म. के ज्ञानमय, साधनामय, सेवामय, धर्मोत्कर्षमय जीवन के सारतत्त्व को मोत्साह स्वायत्त किया। जैसाकि अापकी दीक्षा से पूर्व प्रापकी गुरुणीजी महासती श्री सरदारकुंवरजी को रत्न-प्राप्ति का स्वप्नाभास हुअा था, वह निश्चय ही पूज्या गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी म. "अर्चना' की उपलब्धि के रूप में शत-प्रतिशत सार्थक सिद्ध हुआ ।
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अर्चनार्चन / १८
पूज्य गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी का व्यक्तित्व वास्तव में शतमुखी ज्योतिर्मयता लिये है वे परम वैराग्यवती हैं, जो बाल्यावस्था में ही पति वियोग-जनित शोक को संयममय श्लोक में बदल डालने के उनके अद्भुत पराक्रम से प्रकट है ।
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आगमों का पुनः पुनः अनुशीलन, गहन शास्त्राध्ययन, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन में उनकी सहज रस है। बाल्यावस्था से ही उनके यह क्रम अनवरत गतिशील है, जिसकी फल निष्पति उनके प्रखर वैदुष्य में अभिव्यक्त है, जो बहुमुखी साहित्य सर्जन के वटवृक्ष के रूप में अनेक शाखा प्रशाखात्रों में प्रस्फुटित हुआ है ।
अध्यात्मयोग के पावन संस्कार उनको जन्म-जन्मान्तर से प्राप्त हैं, जो उनके तपोमय, संयममय साधनामय जीवन में उत्तरोतर पल्लवित पुष्पित और सुफलित होते गये, जिन्होंने
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उनको एक महान् योगेश्वरी का शाब्दिक नहीं, तात्त्विक विरुद प्रदान किया ।
साधनामय जीवन के दो पहलू हैं-धात्मकल्याणार्थ सतत उचत, पराक्रमशील रहना साथ ही साथ जितना जैसा सध सके, लोककल्याणार्थ प्रयत्न करना । स्व श्रेयस् - उपक्रम, सम्यक् व्रताराधन, संयमानुशीलन -- ये साधक जीवन के प्रथम पहलू के अन्तर्गत हैं, जिनका प्रत्येक साधक, साधिका द्वारा अनिवार्यतः सम्पूर्णरूपेण पालन किया जाना वांछनीय है। लोककल्याणमूलक दूसरा पहलू साधक के लिए अनिवार्य तो नहीं है, किन्तु यदि उसे भो साध लिया जाए तो सोने में सुगन्धवत् है । अपनी बहुमूल्य उपलब्धियों द्वारा जन-जन को अनुप्राणित करना, प्रेरित करना, जिस धाध्यात्मिक आनन्द की प्राणी को जन्म-जन्मान्तर से चाह है, उसे उपलब्ध करने का उसे मार्ग दिखाना यह महान् उपकार का कार्य है। श्रमणजीवन का “तिन्नाणं तारयाणं" मूलक वैशिष्ट्य इसीसे साधित होता है ।
पूज्य गुरुवर्या महासतीजी श्री अर्चनाजी के जीवन के दोनों पक्ष सर्वथा परिपूर्ण और फल- निष्पन्न हैं। उनके जीवन का क्षण-क्षण आत्मोपासना के पावन कृत्यों से जुड़ा रहा है. आज भी जुड़ा है । उनका योग से, साधना से तादात्म्य सघ गया है, उन्होंने अनाहत नाद की स्थिति प्राप्त करली है, जहाँ सब सहजरूप में चलता है, सोते-जागते, उठते-बैठते कुछ अवरोध नहीं प्राता । यह निश्चयनयानुगत है । व्यावहारिक दृष्टि से जन-जन के कल्याणार्थ उनका दिव्य प्रेरणा-स्रोत प्रवचन, विवेचन, शिक्षण, देशना, चर्चा आदि के रूप में सदा प्रवहणशील रहता है । केवल किसी स्थान विशेष पर नहीं, वरन् स्थान-स्थान पर । महासतीजी भारतवर्ष के अर्धाधिक भाग को अपनी पद-यात्राओं द्वारा पवित्र किया है। हिमाचल एवं काश्मीर की पार्टियों को उन्होंने अध्यात्म के मुखर घोष से निनादित किया है। सचमुच वे धन्य हैं, अतिधन्य हैं। जो कुछ उन्होंने अब तक किया है, कर रही हैं, उससे एक ऐसा प्रेरणास्पद इतिहास सर्जित हुआ है, जो युग-युग तक साधना-पथ के पथिक पथिकाश्रों को प्रगति का नव संदेश देता रहेगा ।
एवं प्रेम से धापूर्ण
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पूज्य गुरुवर्या हम ग्रन्तेवासिनियों के लिए तो प्राध्यात्मिक ममता साक्षात् मातृस्वरूपा हैं। माँ जैसे अपनी नन्हीं-नन्हीं बालिकाओं का अपनी स्नेहमयी वात्सल्य मयी छत्र-छाया में लालन-पालन करती है, महासतीजी ठीक उसी प्रकार हम सबका दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से परिपालन, परिपोषण, परिवर्धन करती हुई हमें
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अर्चनार्चन / १९
जीवन-पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होते रहने की शक्ति प्रदान करती हैं। जो कुछ हम हैं, उसमें हमारा कुछ नहीं है, सब कुछ परमश्रद्धास्पदा, समादरणीया श्रीगुरुणी म. सा. की देन है।
पूजनीया गुरुणीजी म. के कितने उपकार हम पर हैं, हमने उनसे कितना प्राप्त किया है, शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। उन उपकारों का हम अपना जीवन देकर भी बदला नहीं चुका सकतीं। यह तो मैंने अपनी तथा अपनी सहवर्तिनी साध्वियों की व्यक्तिगत चर्चा की, पूज्य गुरुणीजी म. सा. के हम पर तो अगणित उपकार हैं ही, देश के, प्रान्त-प्रान्त के उन लाखों भाई-बहिनों पर भी, जो उनके सम्पर्क में आये, जिन्होंने उनसे मार्ग-दर्शन प्राप्त किया, लाम उपकार नहीं हैं । मन में विचारोद्वेलन होता रहा इस समय, जबकि पूज्य गुरुणीजी म. के संयममय जीवन की अर्ध-शताब्दी पूर्ण हो रही है, उनकी दीक्षा-स्वर्णजयन्ती का मंगलमय अवसर है, कितना अच्छा हो, ऐसी परोपकारी महान् प्रात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापनार्थ, उनके अभिनन्दनार्थ एक ग्रन्थ प्रकाशित हो । हम जानती हैं, और भी सब जानते हैं, गुरुणोजी म. एक महान् अध्यात्मयोगिनी हैं, वे नाम-श्रुति, यशस्विता, प्रशस्ति तथा लोकेषणा से सर्वथा विरत हैं। ऐसा कुछ हो, उनकी पसंद की बात नहीं है, किन्तु हमारा कर्तव्य तो है। साथ ही साथ एक और विचार मन में कौंध गया, कृतज्ञता-ज्ञापन तक ही हमारा कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता, ज्ञानियों के, गुणियों के गुणों का प्रकाशन, समादर, अभिनन्दन गुणग्राही जनों का एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका मुख्य प्राशय जन-जन को गुणों की पोर प्रेरित करना, आकृष्ट करना एवं अग्रसर करना है। यही कारण है शास्त्रों में ज्ञानीजनों का सत्कार, सम्मान, गुण-कीर्तन ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय का हेतु माना गया है। वस्तुत: वह सम्मान, अभिनन्दन व्यक्ति का न होकर आत्मा के सदगुणों का है।
साहस नहीं हुआ, इसे छोटे मुंह कहीं बड़ी बात न मान लिया जाए, इस आशंका से उन्मुक्त रूप में मैं अपने भाव व्यक्त नहीं कर सकी। किन्तु एक शुभ संयोग बना। पूज्य गुरुवर्या इन्दौर में विराजित थीं। उनकी सेवा में हम सब साध्वियाँ बैठी थीं । डॉ. तेजसिंह जी गोड़, जो महासतीजी के प्रति बड़े श्रद्धालु हैं, आये हुए थे। सुझाव के रूप में वे बोलेमहासतीजी म. ने आपको, हमको, समाज को, मानवजाति को बहुत दिया है, हमें चाहिए, उनके अभिनन्दन में ग्रन्थ निकालें । मैं तो यह चाहती हो थी, सहसा ज्योंही ये विचार प्राये, मैं हर्षोत्फल्ल हो उठी। मैंने समर्थन ही नहीं किया, इसे अति आवश्यक बताया और अपनी अन्तर्भावना भी व्यक्त की, जिसे मैं अपने मन में संजोये थी। मेरी सहतिनी सभी साध्वीबहिनों ने इसका मोल्लाम, मोत्माह अनुमोदन किया।
वयोवृद्ध विद्वान्, समाजगौरव श्रीमान् पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, संग्रेजी आदि भाषायों तथा भारतीय दर्शनों के राष्ट्रविश्रुत मनीषी डॉ० छगनलालजी शास्त्री ग्रादि को जब इन विचारों से अवगत कराया गया तो वे बहत प्रसन्न हए और उन्होंने इस विचार को बड़ा बल दिया।
श्रीमान् मायरमलजी चोरडिया (मद्रास), श्रीमान जेठमलजी सा० चोरडिया, बंगलौर (नोखा), श्रीमान् घीसूलालजी सा० बम्ब (वेंगकांग), श्रीमान् पारसमली बाफना (धूलिया), श्रोमान् कृष्णचन्दजी सा० चोरडिया, मद्रास (नोखा) आदि श्रावकवृन्द भी इस सम्बन्ध में जान भार बड़े हषित हए, यह कार्य शीघ्रातिशीघ्र मोत्साह सम्पन्न हो, ऐसी भावना प्रकट की।
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ज्यों-ज्यों यह भावना श्रद्धालु जनों तक पहुंची, प्रायः सभी की ओर से बड़े सुन्दर, उत्साहप्रद विचार प्राप्त होते गये ।
परिणामतः अभिनन्दनग्रन्थ-प्रणयन का निश्चय किया गया। श्रीमान् डॉ. छगनलालजी शास्त्री तथा डॉ. तेजसिंहजी गौड़ के सहयोग से अभिनन्दन-ग्रन्थ की रूपरेखा तैयार की गई । उमे संतों, साध्वियों, विद्वानों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों, चिन्तकों, समाजसेवियों, कार्यकर्तायों तथा श्रद्धालु उपासकों को भेजा गया। मुझे यह लिखते अत्यन्त प्रसन्नता होती है, सभी ने ग्रन्थप्रणयन, प्रकाशन की योजना को समीचीन माना तथा अपनी-अपनी ओर से यथासमय लेख, कविता, संस्मरण, शुभकामना-संदेश प्रादि सामग्री प्रेषित की। उसी का यह परिणाम है, अभिनन्दन-ग्रन्थ प्राज तैयार है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में पांच खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में प्राशीर्वचन, श्रद्धार्चन, शुभाभिशंसन एवं अभिनन्दन से सम्बद्ध सामग्री है।
द्वितीय खण्ड में महासतीजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व विविध सन्दर्भो में व्याख्यात हुआ है।
तृतीय खण्ड में महासतीजी की साहित्य-साधना एवं प्रवचन सम्बन्धी सामग्री है। चतुर्थ खण्ड में जैनसंस्कृति के विविध आयाम-दर्शन, साहित्य आदि विवेचित हुए हैं। पंचम खण्ड में योग, जो महासतीजी का प्रिय विषय है, के सम्बन्ध में मननीय सामग्री है।
मुझे यह प्रकट करते हार्दिक प्रसन्नता होती है कि लेखनी के धनी विद्वान संतों, सतियों, लेखकों, कवियों तथा साहित्यकारों ने बड़ी रुचि के साथ ग्रन्थ के लिए अपनी रचनाएं प्रेषित की। जैसी कि कल्पना थी, जिज्ञासुनों, साधकों तथा तत्त्वानुशीलकों के उपयोग की दृष्टि से ग्रन्थ बहुत उपादेय बन सका है, जिससे प्राशा है, वे सब लाभान्वित होंगे।
धर्म-संघ के महान अधिनायक परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म० सा० ने ग्रन्थ के लिए अपना शुभाशीर्वचन प्रदान कर हमें उत्साहित किया, उनके इस अपरिसीम अनुग्रह के लिए हम शत-शत श्रद्धाभिनत हैं। किन शब्दों में प्राभार व्यक्त करें।
अनुयोगप्रवर्तक पण्डितरत्न मुनिश्री कन्हैयालालजी म. सा. "कमल", साहित्य-वाचस्पति श्री देवेन्द्रमुनिजी म. सा०, डॉ० शिवमुनिजी म० सा० एम० ए०, पी-एच० डी०, कविवर मुनिश्री विनयकुमारजी म० सा० "भीम' तथा परम तपस्विनी महासतीजी श्री उम्मेदकंवरजो म० सा० का ग्रन्थ के सन्दर्भ में जो सत्परामर्श प्राप्त रहा, उससे हमें बड़ा दिशा-दर्शन मिलता रहा, जो कार्य की प्रगति में बड़ा प्रेरक सिद्ध हुमा ।
सम्पादकमंडल के सम्मानास्पद सदस्य ज्ञानमहोदधि पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ; संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं तथा भारतीय दर्शनों के राष्ट्रविश्रत मनीषी प्राच्याविद्याचार्य डॉ० छगनलालजी शास्त्री एम० ए० (त्रय), पी-एच० डी०, काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि ; प्रबन्धसंपादक श्रीयुक्त डॉ. तेजसिंहजी गौड़ एम० ए०, पी-एच० डी०; सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ० हरीन्द्रभूषणजी जैन एम० ए०, पी-एच० डी० आदि का इस ग्रन्थ के प्रणयन एवं सम्पादन में जो महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, वह सर्वथा स्तुत्य है। डॉ० छगन
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अर्चनार्चन / २१
लालजी शास्त्री ग्रन्थ के कार्य को आगे बढ़ाने हेतु दो बार मद्रास जैसे दूरवर्ती स्थान से खाचरौद आये, यथेष्ट समय दिया ।
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उपयुक्त व अन्य विद्वानों ने भी इस कार्य को गति प्रदान करने में उदारतापूर्वक अपना समय एवं श्रम प्रदान किया। मैं इन सबका हृदय से प्राभार व्यक्त करती हूँ। इन सभी विद्वानों का पूजनीया गुरुणीजी म० के प्रति हार्दिक श्रद्धाभाव समादर एवं प्रात्मीयत्व है। महासतीजी के तत्वावधान में गतिशील सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं साहित्यिक कार्यों में इनका सदैव सहयोग प्राप्त रहता है। यह लिखते मुझे बड़ा हर्ष होता है कि ये विद्वान एक प्रकार से महासतीजी म० के आध्यात्मिक परिवार के अनन्य सदस्य हैं।
ग्रन्थ के प्रकाशन में प्रमुख समाजसेवी सौम्यचेता, उदारमना श्रीमान् जेठमलजी सा० चोरड़िया, उदारचेता श्रावकवर्य श्रीमान् घीसूलालजी सा० बम्ब, श्रीमान् पारसमलजी सा० बाफना, श्रीमान् कंवरलालजी सा० बेताला आदि ने जो उत्साह दिखाया, सुव्यवस्था की, वह सत्साहित्य सर्जन एवं प्रसार के महनीय कार्य में उनकी अनन्य अभिरुचि का द्योतक है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के रूप में जो कुछ उपस्थापित किया जा सका है, इसमें मेरा कुछ भी कृतित्व नहीं है। जो कुछ मैं हूँ, वह सब परम पूज्या गुरुणी म० सा० की कृपा, शुभदृष्टि एवं अनुग्रह का फल है । उनकी कृपा मेरे लिए तथा मेरी सभी सहवर्तनी साध्वी बहिनों के लिए एक अमर निधि है । हमें सदैव वह प्राप्त रहे, यही हमारी प्रन्तर्भावना एवं सदभिकांक्षा है ।
प्रस्तुत कार्य में मेरी सहवर्तनी साध्वी बहिनों का भी कम सहभागित्व नहीं रहा। उन्होंने मुझे बड़ा बल प्रदान किया। उनके प्रति आभार व्यक्त कर मैं उनकी गरिमा को कम करना नहीं चाहती, क्योंकि परम समादरणीया, श्रद्धास्पदा गुरुणी म० सा० के साथ मेरा जो तादात्म्य है, वह उनका भी है। जो मेरी स्थिति है, वही उनकी है । अतः मुझमें तथा उनमें मैं कोई द्वैध नहीं मानती। वैसी स्थिति में आभार केवल उपचार बन जाता है ।
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मेरा विश्वास है, महान् श्रात्मा के गुणोत्कीर्तन, व्यक्तित्व-विश्लेषण, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक यौगिक चिन्तन आदि के सन्दर्भ में अत्यन्त विचारपरक उद्बोधप्रद सामग्री से प्रापूर्ण प्रस्तुत ग्रन्थ उपासकों, साधकों, जिज्ञासुत्रों, अध्ययनाथियों एवं शोधार्थियों के लिए उनके अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार निःसन्देह उपयोगी सिद्ध होगा। आशा है, ये सब इससे लाभान्वित होंगे।
आर्या सुप्रभा एम. ए.
खाचरोद (मध्य प्रदेश ) वंशाख शुक्ला नरसिंह चतुर्दशी आचार्य जयमल पुण्य तिथि
बुद्धजयन्ती
विक्रमाब्द २०४४
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आभार
मालवा की हृदयस्थली सांस्कृतिक नगरी उज्जयिनी के लिए वर्ष १९८५ सौभाग्यशाली रहा । कारण इस वर्ष यहाँ काश्मीर-प्रचारिका अध्यात्म-योग साधिका, प्रवचन शिरोमणि परम विदुषी महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना' का ठाणा दस से चातुर्मास था। अापका यह यशस्वी चातुर्मास जिस ठाट-बाट से प्रारम्भ हुअा, उसी धूमधाम से इसका समापन भी हुप्रा । लगभग पूरे चातुर्मास की अवधि में कुछ न कुछ कार्यक्रम होते ही रहे । मैं यद्यपि उज्जैन से बाहर कर्त्तव्यस्थ हैं किंतु फिर भी महावीर भवन, नमकमण्डी, उज्जैन इस अवधि में बरावर अापके दर्शनार्थ एवं कार्यक्रमों में जाता रहा। इस अवधि में साहित्यिक दृष्टि से भी बहुत उपयोगी कार्य हुए।
अभी चातुर्मास समाप्त नहीं हुआ था। लगभग दस बारह दिन शेष थे। पूजनीया महानतीजी की एक पुस्तक मेरे हाथ में थी। मैं उसका अध्ययन करना चाहता था। प्रारम्भिक कृष्ठ पलटे और एकाएक अापकी दीक्षातिथि पर दृष्टि स्थिर हो गई। अनायास गणना करने नगा और पाया कि संवत् २०४४ में आपके साधनामय जीवन के पचास वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। अगला वर्ष अर्थात् वि. सं. २०४५ आपकी दीक्षा-स्वर्णजयन्ती वर्ष है, इस जानकारी ने मन में एक नई स्फूर्ति उत्पन्न कर दी। इस अवसर पर अवश्य ही कुछ न कुछ विशिष्ट प्रायोजन होना चाहिये, जिससे स्थायी स्मृति बनी रहे। उनके बहुमानार्थ एक विशिष्ट अभिनन्दनग्रन्थ का भी प्रकाशन कर उनकी सेवामें समर्पित किया जा सकता है । वे कोरम-कोर कोई साधारण नारी नहीं हैं । वे साधना के उच्चतम शिखर पर विराजित, ज्ञानगरिमा से मंडित एक ऐसी योगसाधिका हैं जिनके चरणों का पावन स्पर्श पाकर धरती का कण-कण पुलकित है और जिनकी साधना की सौरभ दिग-दिगन्त को अपनी सुगन्ध से महका रही है। यदि ऐसे महिमानय व्यक्तित्व का वंदन-अभिनंदन करने से हम चूक गए तो इससे बढ़कर कृतघ्नता हमारे लिये और क्या होगी। यह अभिनन्दन किसी नारी का नहीं है, यह अभिनन्दन है मातृशक्ति का, जिसने अपने साधनामय जीवन के पचास वर्ष पूरे कर लिये हैं और इन पचास वर्षों में उन्होंने जो पाया है, वह अपने भक्तों में बिना किसी भेदभाव के नि:संकोत्र मतत बांटती चली या
ऐसे विचारों के पाते ही मैं अपनी बात के लिये महावीर भवन, नमकमंडी, उज्जैन के लिये चल देता हूँ । वहाँ जाकर देखा तो ऐसा लगा कि अाज किसी से बात करने का अवसर नहीं मिलने वाला है, क्योंकि आज दर्शनार्थियों की भीड़ अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक ही थी।
पूजनीया महासतीजी की सेवामें वन्दना करने के पश्चात् मैं वहीं अवसर की तलाश में बैठा रहा। इसी बीच वहीं विराजित पार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. सा. 'सुधा' ने कोई एक पुस्तक अवलोकनार्थ मेरी पोर बढ़ा दी। मैं कुछ देर उस पुस्तक को देखता रहा। इसी बीच दर्शनार्थियों की भीड़ कम हुई और मुझे कुछ अवसर मिला। मैंने प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी
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म. सा. के निकट पहुँच कर प्राग्रहपूर्वक निवेदन किया कि यदि आपको थोड़ा अवकाश हो तो मेरी एक विनती सुन लें। प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारी जी म. सा. ने अपना काम बंद कर कहा"बोलिये आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि प्रापकी बात सुनने के लिये समय नहीं है, आपको जो भी कहना है विस्तार से धैर्यपूर्वक कहिये। जल्दी करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" प्रापके इतना कहने पर मैंने निवेदन किया -"अगला वर्ष पूजनीया महासतीजी की दीक्षास्वर्ण-जयन्ती वर्ष है । इस अवसर पर स्थायी प्रवत्ति का कुछ न कुछ कार्य होना चाहिये।"
"आपने अच्छा याद दिलाया। क्या करना चाहिए। यह पाप भी विचार कर बतावें. प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. सा. ने कहा ।
"पाप लोग क्या व्यर्थ की बातें कर रहे हैं ?" पूजनीया महासतीजी का स्वर सुनाई दिया । सम्भवत: आपने हमारी बात सुन ली थी और उसका अर्थ भी जान लिया था।
प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. मा. ने फिर आपको वह सब जानकारी दी जो हमारे बीच बातचीत के माध्यम से हुई थी। इस पर आपने पूर्णतः निलिप्त भाव से उस समय कहा था, "इस हेतु कोई कार्यक्रम मत बना लेना । ऐसा प्रचार कार्य मुझे कतई पसंद नहीं है।"
उस दिन इससे अधिक और कोई चर्चा नहीं हो पाई । एक दो दिन मैं नहीं जा सका। फिर एक दिन और इस विषय पर चर्चा हुई और वर्षावास समाप्त हो गया तथा इसके साथ ही उज्जैन से प्रापका विहार भी हो गया। मैं अपने इस प्रस्ताव पर स्वयं ही विचार करने लगा। पूजनीया महासतीजी की साहित्य के प्रति अभिरुचि और योग के प्रति विशिष्ट भावों को ध्यान में रख कर मैंने एक अभिनंदन-ग्रंथ के प्रकाशन का प्रस्ताव मन ही मन तैयार कर लिया था। इस प्रकार के ग्रंथ की प्रस्तावित रूपरेखा भी तैयार कर ली।
पूजनीया महासतीजी म. सा. अपनी शिष्याओं के साथ इन्दौर पहुँच गए। उसके पश्चात एक दिन मैं अभिनंदन-ग्रंथ की प्रस्तावित रूपरेखा लेकर सेवा में जा पहँचा । वंदनादि करने के पश्चात मैंने अापके सान्निध्य में आपकी समस्त शिष्याओं के सम्मुख पुन: अपना प्रस्ताव दोहराया और प्रस्तावित रूपरेखा भी पढ़कर सुना दी। पूजनीया महासतीजी म. सा. की ओर से तो मुझे एक प्रकार से निराशा ही मिल रही थी, किंतु आपकी शिष्याओं की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन मिला । मेरे लिये यही बहुत था। मैंने आगे विचार करने के लिये वह रूपरेखा आर्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. सा. 'सुधा' को सौंप दी।
एक बार जो चर्चा चल जाती है, वह फिर चलती रहती है और उस पर कुछ निर्णय होकर ही रहता है । इन्दौर, उज्जैन के श्रावकों को भी इस प्रस्ताव का पता चला, आपस में विचार-विमर्श होने लगा। इसी बीच मद्रास से कुछ श्रावक एवं विद्ववर्य डॉ. छगनलालजी शास्त्री का भी इन्दौर आगमन हुआ। जब डॉ. शास्त्रीजी को यह जानकारी मिली तो वे प्रसन्न । हो उठे और उन्होंने प्रस्तावित रूपरेखा में कुछ संशोधन कर उसे गति प्रदान की। प्रमुख श्रावकों तक भी प्रस्ताव पहुँच गया और रूपरेखा ब्यावर कार्यालय को भेज दी गई । ब्यावर से विद्यावारिधि पं. श्री शोभाचंद्रजी भारिल्ल का अनुकल उत्तर मिला, जिससे हमारे मन में उत्साह का संचार हुप्रा ।
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अंततोगत्वा रूपरेखा छपकर पागई। ज्ञान यज्ञ के लिये कार्य प्रारम्भ हुआ। सामग्री एकत्र करने का भार मुझ पर छोड़ा गया । इस गुरुतर कार्य का निर्वाह किस प्रकार होगा? सहयोग मिलेगा अथवा नहीं ? अपेक्षित सामग्री उपलब्ध हो भी सकेगी या नहीं ? आदि ऐसे ही अनेक प्रश्न उस समय मेरे मानसपटल पर मंडराने लगे, किंतु कहा गया है कि पवित्र कार्य पूर्ण लगन, निष्ठा एवं धैर्य के साथ किया जाता है तो उसमें सफलता निश्चित ही मिलती है। इमी मुल-मंत्र को ध्यान में रखते हुए मैंने सर्वप्रथम विद्वानों के पतों की सूची तैयार कर प्रस्तावित रूपरेखा इस अाग्रह के साथ प्रेषित की कि वे अपना चितनपरक शोधपरक ग्रालेख भेजने का कष्ट करें । मेरे प्राग्रह के उत्तर में मुझे आश्वासन मिलने लगे और कुछ स्थानों से सामग्री भी। ५-६ माह की अल्पावधि में ही अपेक्षा से अधिक मामग्री एकत्रित हो गयी। इसे मैं पूजनीया महासतीजी की साधना का ही सुपरिणाम मानता हूँ।
प्राप्त सामग्री ग्रंथ की प्रधान संपादक प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. मा 'सुधा' की सेवा में प्रस्तुत कर दी गई। अाफ्ने समस्त मामग्री का अवलोकन कर आवश्यक संशोधन/परिवर्द्धन किये और फिर सारी सामग्री ब्यावर पं. शोभाचंद्रजी भारिल्ल के पास भिजवा दी।
इस ग्रंथ के लिये मुझे सती-मण्डल की ओर से जो प्रेरणा और सहयोग मिला, उसके लिए मैं उनके प्रति अपनी हादिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । वास्तव में यदि मती-मण्डल की ओर से प्रोत्साहन नहीं मिलता तो शायद यह ग्रंथ मूर्तरूप ही नहीं ले पाता।
श्रद्धेय पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने समस्त सामग्री का प्राद्योपांत अवलोकन, संशोधन, परिवर्द्धन किया और मुद्रण के समय भी समुचित मार्ग-दर्शन प्रदान किया तथा सतत क्रियाशील रहे, इसके लिये मैं उनके प्रति हृदय से आभारी हैं । डॉ. हरीन्द्रभूषणजी जैन ने अंग्रेजी विभाग के सम्पादन का दायित्व निभाकर हमारे कार्य को गति प्रदान की, डॉ. नरेन्द्र भानावत ने महत्त्वपूर्ण विषयों पर लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों के लेख भिजवाये ही नहीं, वरन् सम्पादित करके भेजे, डॉ. छगनलालजी शास्त्री ने दो बार सामग्री का अवलोकन किया, सम्पादन में सहयोग किया और अंत में समस्त सामग्री को विभाग वार जमा कर प्रेस हेतु तैयार किया, डॉ. प्रेमसुमन जैन, सुश्री कमला जैन 'जीजी' एवं सरदार श्री नरेन्द्रसिंहजी की मोर से भी यथोचित सहयोग मिला। इसके लिये मैं सम्पादक-मण्डल के सभी सदस्यों का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। इस ज्ञानयज्ञ में यदि देश भर के विद्वानों का सहयोग नहीं मिला होता तो यह ग्रंथ अपने इस रूप में प्रकाशित नहीं हो पाता। मुझे विद्वानों का भरपूर सहयोग तो मिला ही, साथ ही उनकी ओर से उपयोगी मार्गदर्शन भी मिला है । यहाँ मैं उन सबके नाम गिनाने की स्थिति में नहीं हैं, कारण की ऐसे नामों कि सुची लम्बी है। अतः मैं बिना नामोल्लेख किये ही उन समस्त विद्वानों के प्रति हृदय से आभार प्रकट करता हूँ, जिनका मुझे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है। चाहते हुए भी हम सभी सहयोगी विद्वानों की रचनायें इस ग्रंथ में सम्मिलित नहीं कर पाये हैं। जिनकी रचनायें हम प्रकाशित नहीं कर पाये हैं, उनसे क्षमायाचना करते हुए निवेदन करते हैं कि वे इसे अन्यथा न लेते हुए अपना स्नेह/सहयोगभाव यथावत् बनाये रखें।
ग्रंथ को मूर्तरूप प्रदान करने में धर्मप्रेमी गुरुभक्तों ने उदार हृदय से स्व-अजित धन का सदुपयोग कर हमें सहयोग प्रदान किया है, उनके प्रति भी मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
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permansurta
श्री पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल एवं श्री देवकुमारजी जैन ने ग्रंथ के प्रूफ संशोधन का भार वहन कर शुद्ध मुद्रण हो सके ऐसा प्रयास किया है। इसलिये मैं इनके प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ।
प्रस्तुत ग्रंथ के मुद्रण में अनावश्यक विलम्ब हुआ है। इसके लिये कारण तो अनेक हैं किंतु उनकी चर्चा न करते हुए सीधे-सीधे यह स्वीकार करता हूँ कि विलम्ब हुआ है। विषम परिस्थितियों में वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर के व्यवस्थापक श्री सतीशचन्द्रजी शुक्ल तथा वहाँ के अन्य कार्यकर्ताओं ने ग्रंथ के मुद्रण कार्य को सम्पन्न किया, इसके लिये वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
यहाँ मैं एक बात यह कहना प्रासंगिक ही समझता हूँ कि श्वेताम्बर स्थानकवासी जैनसमाज में किसी महासतीजी के सम्मान में अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकाशित कर उनके पावन चरणों में समर्पित करने का सर्वप्रथम विचार हमारे मस्तिष्क में ही उत्पन्न हुप्रा । भले ही उसे समपित करने में हम पिछड़ गए हों। जब हमने अपने प्रस्तावित ग्रंथ की रूपरेखा प्रसारित कर दी तभी कुछ अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार के अभिनन्दन-ग्रंथ के प्रकाशन की योजनायें सामने आई। यह भी हमारे लिये प्रसन्नता की बात है।
इस ग्रंथ में जो कुछ अच्छा बन पड़ा, उसका श्रेय पूजनीया महासतीजी के साधनामय व्यक्तित्व, उनके शिष्य परिवार और सम्पादक-मण्डल को है। जो कुछ कमी और त्रुटियां रही हैं उसका उत्तरदायित्व मैं अपने ऊपर लेता हूँ।
___ अंत में मेरी यही अपेक्षा है कि जिस प्रकार का स्नेह, सहयोग इस अवसर पर सभी ओर से मिला, वही स्नेह, सहयोगभाव भविष्य के लिये भी बना रहे। इन्हीं अपेक्षाओं के साथ
विनीत
तेजसिंह गौड़ उज्जैन (म० प्र०) भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी, सं० २०४५ दिनांक २४ सितम्बर, १९८८
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गुरुणी म. के गुणगान
0 साध्वी उम्मेवकुब रजी
[तर्ज—थांरि मुरली मनड़ो : यो"] थारो दर्शन मनड़ो मोह्यो गुरणी सा,
बलि बलि जावां थांरा दर्शन री ॥टेर।। मां अनुपा की कोख उजाली,
उत्तराखण्ड पंजाब हिमाचल, तातेड़ों की गोत पुजाली ।
काश्मीर मरुधर के अंचल । जन जन के मन भाया ।।
धर्म का रंग चढ़ाया ।। गुरणी सा ॥१॥
गुरणी सा ॥५॥ मांगीलालजी तात कहाया;
दुर्लभ दर्शन थांरो पायो, संग ले संयम तनको ताया।
निरख-निरख मन मोद भरायो । सद गुण सभी सराह्या ।। सुरुतरु प्रांगण छाया ।। गुरणी सा ॥२॥
सा ॥६॥ जन्मभूमि है गांव दादिया,
उमरावकुंवर महीमा मही मण्डन बन कुल वधु दोराई आया।
उपनाम 'अर्चना' पातक खण्डन । हींगड़ कुल चमकाया ।।
साधना में जीवन रमाया ।। गुरणी सा ॥३॥
गुरणी सा ।।७।। सरदारकुंवरजी की चरण शरण में, गुण अनेक पर जीभ एक है, शान्ति मिली मन के कण कण में ।
पार उतारो यही टेक है। हृदय कमल विकसाया ।। श्वास श्वास में बसाया ।। गुरणी सा ।।४।।
गुरणी सा ।।८।।
दोय हजार सत्ताइस पाया, विजयनगर चौमासा ठाया। सती उम्मेद, हरष गुण गाया।।
गुरणी सा ॥९॥
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ज्ञानमहोदधि पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल
डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
सम्पादक मण्डल
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आर्या डॉ. सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
श्रीमती कमला जैन 'जीजी'
डॉ. छगनलाल शास्त्री
डॉ. तेजसिंह गौड़
डॉ. नरेन्द्र भानावत, डॉ. प्रेमसुमन जैन एवं श्रीचन्द सुराना 'सरस'.
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अर्चनार्चन अनुक्रमणिका
अभिनव संवत्सर संप्रवेश
युवाचार्यप्रवर मधुकर मुनिजी म. सा.
प्रथम खण्ड
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आशीर्वचन शुभकामना अभिनन्दन-दीप अभिनन्दनीय व्यक्तित्व आशीर्वचन महासती के नाम को सार्थक किया कीर्तिमान की स्थापना शुभकामना Massage संदेश साधुवाद शुभकामना सन्देश शुभकामना शुभकामनाएं शुभकामना अभिनन्दन शुभकामना के दीप शुभ-कामना आशीर्वचन अभिनन्दन भावभरा हार्दिक अभिनन्दन अदम्य उत्साह की धनी--श्री अर्चनाजी जीवन-अन्तर्यात्रा की सजग पथिका स्वणिम साधिका अर्चनाजी
आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषिजी म. १ उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. युवाचार्य डॉ. शिवमुनिजी प्राचार्य श्री जयन्तसेन सूरिजी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. मुनि कन्हैयालाल 'कमल' प्राचार्य सुशीलकुमार प्रधानमन्त्री के उपसचिव-पुलक चटर्जी । K. M. Chandy, Governor (M.P.) मोतीलाल वोरा भारतसिंह सर्वश्री महेश जोशी, जकिया इनाम छोगाराम बाकोलिया सर्वश्री सुन्दरलाल पटवा, महेन्द्रकुमार रघुबीर सिंह श्री भण्डारी पदमचन्दजी म. गणेशमुनि शास्त्री मुनि जीवण पं. प्रवर श्री हीरामुनिजी म. श्री सुदर्शन मुनिजी म. मुनि विनयकुमार 'भीम' गुजरात-केसरी श्री गिरीश मुनिजी मुनि राजेन्द्रकुमार 'रत्नेश' श्री उदय मुनि 'जैनसिद्धान्ताचार्य' १८
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| आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
सत्कामनाएं
समाजरी जागती जोत
कोटि-कोटि मंगल कामनाएं मनोबल की धनी --- महासतीजी जियो हजारों साल
मंगल कामना
सम्मानांजलि
उदारहृदया महासती श्री एक विरल साधिका
भगवती स्वरूपा 'अर्चनाजी'
,
वन्दना भी अभिनन्दन भी शत-शत अभिनन्दन
नाम स्मरण की महिमा
अर्चना अभिनन्दन
यथानाम तथागुण अभिनन्दन की वेला में वंदन साधना के सफल पचास वर्ष
शत-शत नमन
दैविक गुणों से युक्त साधिका
अर्चनाभिनन्दन
मानवता के प्रकाशदीप का अभिनन्दन
शुभाभिशंसन
मंगल कामना
विरल विभूति
पर - कल्याण के लिये समर्पित व्यक्तित्व
महान साधिका
मंगलकामना
गुणरत्नों की खान—महासती श्री अर्चनाजी
शुभकामना
शुभकामना
शत-शत अभिनन्दन
साध्वीरत्न श्री झणकारकुंवरजी म. साध्वी जयमाला
श्रमणी चेतनप्रभा 'चैत्य'
साध्वी चन्द्रप्रभा
साध्वी श्रानन्दप्रभा 'साहित्यरत्न'
कंवरलाल बेताला
मंगलकामना
कोटि-कोटि अभिनन्दन
शुभकामना
जेठमल चोरडिया हस्तीमल मुणोत
श्रीचन्द सुराणा सरस
गोविन्दप्रसाद कुकरेती
डॉ० तेजसिंह गौड़
साध्वी मनोहर कंवर
रामजीवन मिर्धा
साध्वी बिन्दुप्रभा 'विमला'
साध्वी तरुणप्रभा
कमला माताजी
वन्दन शत बार
चन्दनमल 'चांद'
अनासक्त साधक ही संसार को सुवासित करता है हरसुख शास्त्री, साहित्याचार्य
विमलकुमार चौधरी
कनकमल जैन
३०
३१
३१
३२
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३४
फकीरचन्द मेहता व सी. पारसरानी मेहता ३५
३६
जवाहरलाल मुणोत
जतनराज मेहता
३७
कोकिला भारतीय
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४०
४०
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४३
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૪૪
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अमरचन्द मोदी
सौभाग्यमल श्रीश्रीमाल
अभयकुमार सुराना श्रीमती रेखा सुराना
शान्तिलाल जैन
हिम्मतमल नारेलिया
न्यायमूर्ति मुरारीलाल तिवारी
अभयकुमार एडवोकेट
अमृतलाल जैन
मांगीलाल जैन कन्हैयालाल गौड़
रामचन्द्र श्रीमाल
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२०
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उमराव-गुणाष्टकम्
भावणा- मज्झ
अर्चनार्चन
श्रद्धान-पुष्प
अर्चना अभिनन्दन - पच्चीसी
आई घड़ी अभिनन्दन की
नवां सवेरा
मंगल अभिनन्दन
भाव - सुमन
मंगलाष्टक
काव्यमय अभिनन्दन
साध्वी सुप्रभाकुमारी
१
पं. रत्न श्री उमेश मुनिजी म.
३
पं. प्रवर श्री हीरामुनिजी म.
५
कविरत्न श्री चन्दनमुनिजी म. सा. पंजाबी ६ जैनार्या सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
८
साध्वी सेवावन्ती म. सा. 'पंजाबी'
महासतीजी का तप, त्याग और शौर्य
प्रसीदामि
गुण-गौरव गुणवन्त का शासन - चन्द्रिका अर्चनाजी
धन्य-धन्य - प्रति धन्य सद्गुरुवर्या के सादर चरणों में
अर्चना मुक्तक अर्चनाष्टकम् अर्चना की अर्चना
वन्दना चरणों में शत बार गौरव-गान
वन्दना के स्वर
जहाँ जन्मीं गुरुणी महान
धन्य राजस्थान
मैं गुरुवर्या की परछाईं
जयउ एसा महाभागा
शत शत वन्दन
श्रीमदुमराव कुंवराख्यानाम् यशोराशिसमुच्चय
श्रद्धा-सुमन
काण - समत्य - साहिया
प्रवर्तक कविमनीषी मुनि रजत रमेशमुनि शास्त्री
गणेशमुनि शास्त्री
महेन्द्रमुनि 'कमल'
श्री सुकनमुनिजी म. सा. सुव्रतमुनि 'सत्यार्थी'
वाणीभूषण श्री सुरेश मुनि जिनेन्द्रमुनि 'काव्यतीर्थ' जैनसाध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
सन्तरत्न उदयमुनि म. सा. साध्वी उदितप्रभा 'उषा'
साध्वी उदितप्रभा 'उषा' साध्वी चन्दन साहित्य रत्न जैन साध्वी मधुबाला 'सुमन' शास्त्री
साध्वी हेमप्रभा, साहित्यरत्न
साध्वी विजयप्रभा
साध्वीश्री वनिता बाई म. सा.
जैनसाध्वी सुशीला 'शशि' साहित्यरत्न
पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल
श्रार्या प्रतिभाकुमारी म. सा.
पं. रमाशंकर शास्त्री
जीतमल चौपड़ा
डॉ. उदयचन्द्र जैन
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अभिनन्दन-गीत
डॉ. शोभनाथ पाठक अभिनन्दन-द्वादशी
एस. जयसिंह छाजेड़ 'रत्नेश' अर्चनीय से पहचान पुरानी है
कमला जैन 'जीजी' महिमामयी महासती के महिमा-कण खुर्शीद 'अजेय' वन्दन-अभिनन्दन
प्रो. संजीव प्रचंडिया ‘सोमेन्द्र' कोटि-कोटि अभिनन्दन
विज्ञान भारिल्ल भावाभिनन्दन
डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय प्रेमांजलि
श्रीमती प्रेम मेहता मेरा शत-शत वन्दन हो
श्रीमती माया जैन सत्य-अहिंसा की गंगा
गोविन्द गुरु कल्याणी से कल्याण की कामना
सौ. सीतादेवी शर्मा अभिनन्दन शत बार करें
शशिकर 'खटका' राजस्थानी दीक्षा-स्वर्णजयन्ती आई
डॉ. नरेन्द्रसिंह पारदर्शी-काव्यांजलि
आशुकविरत्न छन्दराज 'पारदर्शी' श्रद्धोद्गार
शिरोमणिचन्द्र जैन करुगास्रोत स्विनी
मोती काका काव्य-सुमन
कुलदीपप्रकाश 'जैन' महासती अर्चनाजी का वन्दन-अभिनन्दन है। हास्यकवि हजारीलाल जैन 'काका' अभिनन्दन है, नत वन्दन है
फतेलाल संघवी सहस्रायुर्मय जीवन की सत्कामना
महेन्द्रकुमार पाठक भावोद्गार
भीमसेन शर्मा किया निरन्तर उत्थान
चन्द्रकला पोरवाल वन्दों मन बहुभाव
डाड़मचन्द भावसार वन्दना
शान्ता धर्मावत महासती श्री 'अर्चना' जी
चन्दनमल बनवट मानवता की देवी 'अर्चना' तुम्हें नमन नवरत्नमल नाहर अर्चना-अर्चन
खुर्शीद 'अजेय'
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८
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अर्चनार्चन
द्वितीय खण्ड व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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प्रात्माभिव्यक्ति
साध्वी उमरावकुंवरजी अर्चना ज्योतिर्धर प्राचार्य : संक्षिप्त जीवन-रेखा संकलित जय-परम्परा के पांच पुष्प
संकलित बहुआयामी व्यक्तित्व
अजितमुनि 'निर्मल' श्रमणीरत्न
मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी प्रार्या सुप्रभाकुमारी 'सुधा' महासती की प्रेरणा से स्थापित संस्थाएँ साध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा' म. सा. अर्चनाजी का शिष्या-परिवार डॉ. तेजसिह गौड़ संघर्ष के तूफान में एक जलती दीपशिखा मुनि विनयकुमार 'भीम' मेरी आस्था की प्रेरणास्रोत
महासती श्री उम्मेदकुंवरजी म. सा. ग्रह भविष्य बताते हैं
राजज्योतिषी पं. जगन्नारायण शर्मा ऐसा था बचपन
डॉ. नरेन्द्रसिंह महासती श्री 'अर्चनाजी' की काव्य-साधना महामहोपाध्याय डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन श्री मधुकर मुनिजी म. सा. का योगदान प्राचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री शत-शत अभिनन्दन
जैनार्या महासती श्री चंपाकुंवरजी म.
जैनसिद्धान्ताचार्य निर्मल मन्दाकिनी महासती श्री अर्चनाजी साध्वी उदितप्रभा 'उषा' एक महान् नारी
साध्वी कंचनकंवर श्रमणी-आकाश के उज्ज्वल नक्षत्र
साध्वी हेमप्रभा साहित्यरत्न दिव्य विभूति श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' कन्हैयालाल गौड़ साधना की परमोज्ज्वल दीपशिखा
प्राचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा.'अर्चना' एस. कृष्णचन्द चोरडिया अभिनमन-अभिवन्दन-अभिनन्दन
मानव मुनि योगेश्वरी महासती श्री अर्चनाजी
प्राचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री एक अनोखा व्यक्तित्व---अर्चनीय श्री अर्चनाजी श्रीमती महिमा वासल्ल, एम. ए. चमके सुयशचन्द्रिका
साध्वी सेवावन्ती जी मांगलिक-कल्पवृक्ष
साध्वी सुशीलाकुमारी
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के तंदन की
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परमोपकारी गुरुणीजी महाराज साधवो दीनवत्सला:. मांगलिक का माहात्म्य नागराज का आगमन राग और कलह से छुटकारा प्रेरणा का प्रताप बाधा हट गई विषमुक्त हुआ लकवा ठीक हो गया दामाद स्वस्थ हो गया नागराज का नमन सफेद दाग से छुटकारा पागलपन का पलायन कुंडलिनी शांत हो गई नाम की महिमा महासतीजी का अभिज्ञान चरण-रज का रहस्य मांगलिक के चमत्कार ने चकित किया मैंने स्वास्थ्यलाभ लिया पेट दर्द जाता रहा संस्मरण सुखद दिव्य जीवन की चमत्कारिक घटना नाम का प्रभाव दिव्य सौरभ समता की कसौटी पर खरी ध्यान...."निजी अनुभव अचानक बरसा अमृत फैले कीर्ति चतुर्दिक वाणी का वैभव अनुकम्पा की मूर्ति असीम है आस्था आत्मसाधना का अनूठा आनन्द अज्ञात से अनूठे संकेत दिशा-बोध स्थूल से सूक्ष्म की ओर
प्रार्या कंचनकुंवर म. सा. प्रार्या प्रतिभाकुमारी म. सा. चमनलाल कुलभूषणलाल जवरीमल घोड़ावत गोपीचन्द लोढा
१३४ सोहनलाल कटारिया
१३५ राधेश्याम शर्मा
१३६ सहजराम शर्मा
१३७ गोवर्धनलाल दर्जी
१३८ रामचन्द्र सेवक श्रीमती मुकनराज मेहता श्रीमती मुकनचन्द मेहता उदित प्रकाश कोठारी
१४१ उमेश जैन
१४२ तरसेन कुमार जैन इन्द्रजीत
१४३ महावीर सुराणा
१४५ हरकचन्द बेताला
१४६ श्रीमती सुशीला बेताला
१४७ इन्दरमल
१४९ सौभाग्यकुंवर हिंगड़
१५० पुखराज एवं इचरजकुंवर बाई विनायक्या १५३ राजकुमार विनायक्या हर्षदभाई-जयाबेन जैन ।
१५५ रिखबराज कर्णावत एडवोकेट १५६ श्रीमती इन्द्रकुंवर भण्डारी
१५६ बी. एल. नागर
१५९ जगदीश शर्मा श्रीमती सावित्रीदेवी पाराशर १६१ दिनेशकुमार शर्मा राजेशकुमार बागरेचा
१६३ कमलादेवी रुनवाल
१६३ चतरसिंह जैन
१६४ गोविन्दराम सिंधी
१६५ डॉ. जे. पी. गुप्ता
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स्वप्न में सन्देश क्रोध से अक्रोध मांगलिक का अद्भुत चमत्कार घर आई ज्ञान-गंगा सहायता की दिव्यलोक के देव ने दिव्य विभूतियाँ सत्य को समझने की सत्प्रेरणा रोम-रोम ऋणी परदुःखकातर 'अर्चना' जी अन्तस्तल पर अमृतवर्षा प्रेतात्माओं से मुक्ति वरदहस्त चरणधूलि ने काम किया अमृत का कैसे जाना मैंने अभूतपूर्व संथारा आलोक उलझन सुलझ गयी ज्ञान रो दीवलो अदृश्य प्रावाज पर जगी आस्था दिव्य ज्योति-अर्चनाजी मीठी महिमा चमत्कार की मूर्ति-म. सा. उमरावकुंवरजी हृदयस्पर्शी अनुभूतियां अर्चना की अर्चना साधना के श्रेष्ठ स्रोत---श्री अर्चनाजी कुलउद्धारक गुरुणीजी प्रेरणास्रोत-पूज्या दादी सा. म. सा. स्वतःश्रद्धा जगी प्रेतबाधा से मुक्ति प्रेतबाधा से मुक्ति स्वानुभव देवकृत भविष्यवाणी शत-शत प्रणाम मेरे जीवन की पथप्रदर्शिका रूठी नींद लौट प्राई
कुमारी मन्जु भण्डारी राजेन्द्रकुमार श्रीश्रीमाल कुमारी गरिमा श्रीश्रीमाल मनोहरलाल लोढ़ा श्रीमती कंचनदेवी बहिन विनयवती श्रीमती त्रिशलादेवी जैन सुमन जैन देवेन्द्रकुमार जैन. रविरानी जैन सन्त मृगारामजी ठाकुर अचलसिंह एवं भंवरकुंवर पारसमल चोरडिया आदर्शलता दफ्तरी कुंवर हरिसिंह (जोगी) इन्दरमल चण्डालिया लादूलाल बिराणी जालिमबाबू कुंबर हरिसिंह योगी प्रकाशचन्द खवास अमृतलाल जैन कुंवर हरिसिंह अभयकुमार जैन एडवोकेट राजेन्द्रसिंह कपूर खुर्शीद 'अजेय' राजमाता नोखा (चांदावतां). बुद्धसिंह बंब घीसालाल बंब मांगीलाल धर्मावत श्रीमती दाखाबाई रांका ठाकुर मदनसिंह उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' साध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा' डॉ. शालिनी धारीवाल एन. एम. भण्डारी . मोहनदेवी छाजेड़
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
धर्मामृत का पान किया किश्ती को किनारा
तप का तेज निखरा
विरासत में मिली श्रद्धा
श्रद्धानत सिर
सुयोग से स्वास्थ्य लाभ
मुझे मेरा सम्बल मिला सोते को जगाये
धर्म-आराधना का फल
स्तोत्रपाठ का अतुलनीय प्रभाव
नवकार मन्त्र का फलित
काटे के बन्धन
मैंने भी सुना मांगलिक
घनूठी प्राभा
आँखों देखा सत्य
सुना जैसा पाया
बाबजी की कृपा प्रकपनीय है पू. म. श्री उमरावकुंवरजी म. सा. के वर्षावास
श्रीमती सूरज लोढा
नवरतनमल चोरडिया
निर्मलादेवी कामड
दुलीचन्द चौरडिया
तेजराज चौरडिया
कमलादेवी नाहर
मिश्रीलाल तेली
श्रीमती कंचनदेवी मेहता
कोमल जैन
एम. के. जैन
विमला जैन
फतहलाल जैन कु. निर्मला सुराणा
उगमकुंवर मेहता
शिखरचन्द बाफना
श्रीमती सुधा जैन श्रीमती पदमकुंवर
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अर्चनार्चन
तृतीय खण्ड प्रवचन-पीयूष
प्रात्म-निवेदन अर्चनार्चन
साध्वी उमरावकवर 'अर्चना' डॉ. श्यामकुमार निगम
अर्चना-प्रवचन : स.---कमला जैन 'जीजी' भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले सत्साहित्य का अनुशीलन संत और पंथ तुफानों से टक्कर लेने वाला प्रास्था का दीपक सम्पूर्ण संस्कृतियों की सिरमौर भारतीय संस्कृति दीर्घजीवन या दिव्यजीवन दहेजरूपी विषधर को निविष बनायो विचार एवं प्राचार
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आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनार्चन
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चतुर्थ खण्ड जैन संस्कृति के विविध आयाम
भगवान् महावीर की नीति
उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. कर्म-स्वरूप-प्रस्तुति
प्रवर्तक श्री रमेशमुनि म. कर्मवाद के अाधारभूत सिद्धान्त
युवाचार्य डॉ. शिवमुनि जैन अनुमान की उपलब्धियां
डॉ. दरबारीलाल कोठिया जैन तात्त्विक परम्परामों में मोक्षरूप-स्वरूप राजीव प्रचंडिया एकात्मकता के साये में पली-पुसी हमारी संस्कृति डॉ. भागचन्द भास्कर जैन समाज-दर्शन
प्रो. संगमलाल पाण्डेय जैनदर्शन के आलोक में पुद्गल द्रव्य
श्री सुकनमुनि म. 'शील' जीवन की सुन्दर उपासना है श्रीमती अलका प्रचण्डिया 'दीति'
आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग-उपासना कमला जैन 'जीजी' स्याद्वाद की लोकमंगल दृष्टि एवं कथनशैली शान्ताकुमारी धर्मावत
तराग और स्थितप्रज्ञ--एक विश्लेषण धर्मचन्द जैन पालंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययन सूत्र : एक चिन्तन
मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णता डॉ. सारगमल जैन । प्राचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय डॉ. दामोदर शास्त्री जैनधर्म में श्रमणियों की गौरवमयी परम्परा विदर्भकेशरी वाणीभूषण श्री रतनमुनि १४३ श्रमण का स्थल-जल-व्योम विहार
अनुयोगप्रवर्तक मुनि कन्हैयालाल 'कमल' १४९ आगम का व्याख्यासाहित्य
डॉ. उदयचन्द्र जैन
१६० जैनधर्म में ईश्वर की अवधारणा
सौभाग्यमल जैन
१७० जैन और बौद्ध परम्पराओं में नारी का स्थान मुनि नेमिचन्द्र, (शिखरजी)
१७५ जैनदर्शन में तत्त्व-चिन्तन
सुभाषमुनि 'सुमन'
१९४ आज के युग में महावीर की प्रासंगिकता रिखबराज कर्णावट एडवोकेट २०१ वर्तमान समय में जैन सिद्धान्तों की उपादेयता मुनिश्री विनयकुमार 'भीम'
२०४ राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन डॉ. नरेन्द्र भानावत
२०७
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धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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अर्चनार्चन
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवियित्रियों का योगदान
डॉ. शान्ता भानावत मेवाड़ में संस्कृत साहित्य की जैनपरम्परा डॉ. प्रेमसुमन जैन कर्माशय एवं उनका योग
म. म. डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी धार्मिक रहस्यवाद में दिक-काल-बोध डॉ. वीरेन्द्रसिंह प्राकृत बोलियों की सार्थकता
डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ध्येय-प्राप्ति का हेतु 'भावना'
डा. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' मन-एक चिन्तन-विश्लेषण
लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' संस्कृत-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल साधना की सप्राणता-कायोत्सर्ग
रमेशमुनि शास्त्री श्रमण-साधना
डॉ. शोभनाथ पाठक जैनधर्म में ईश्वरविषयक मान्यता
डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया जैनधर्म में प्रात्म-विज्ञान
जशकरण डागा प्राचार्य हरिभद्रसूरि का गृहस्थाचार
डॉ. पुष्पलता जैन अंधविश्वास एवं मिथ्या-मान्यताओं के । निवारण में नारी की भूमिका
माया जैन जैनधर्म में अहिंसा
डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव आज के जीवन में अपरिग्रह का महत्त्व डॉ. हुकुमचन्द जैन धर्म की दिशा
डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक-विवरण डॉ. तेजसिंह गौड़ जैनधर्म में समतावादी समाज-रचना के प्रेरक तत्व डॉ. निजामउद्दीन तत्वचिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम
प्राचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री The Jain Mathematical Philosophy Prof. L. C. Jain. Definition of the living in Jain Cannons : An Evaluation
N. L. Jain. Op Geometry of Jambūdvipa
Dr. S. S. Lishk
३०० ३०७
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३३९ 348
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड योग-साधना
महासती श्री उमरावकुंवर 'अर्चना'
पंचविध ध्यान-पद्धति : स्वरूप, विश्लेषण पातंजल-योग और जैनयोग-एक तुलनात्मक
विवेचन वीतरागयोग जैनसाधना-पद्धति में ध्यान ध्याता, ध्यान और ध्येय ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप जैनदर्शन और योगसाधना योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण आचार्य हरिभद्रसूरि और उनका योग-विज्ञान प्रेक्षाध्यान और शक्ति-जागरण जैन परम्परा में ध्यान ज्ञानार्णव-एक विश्लेषण धर्म-साधना में चेतनाकेन्द्रों का महत्त्व योग : स्वरूप और साधना-एक विवेचन हठयोग-एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण योग और परामनोविज्ञान महर्षि अरविन्द की सर्वांगयोगसाधना योग और उसकी प्रासगिकता योग का विज्ञानीय स्वरूप योग-आसनों की प्रासंगिकता : विशिष्टता 'तान्त्रिकयोग'-स्वरूप एवं मीमांसा मसीही योग योग और आयुर्वेद योग क्यों? योग के षट्कर्म एवं रोगनिवारण वर्तमान युग में योग का नारी पर प्रभाव
डॉ. लालचन्द्र जैन कन्हैयालाल लोढा कन्हैयालाल गौड़ आर्या सुप्रभाकुमारी 'सुधा' डॉ. प्रेमसुमन जैन कमला माताजी प्राचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन युवाचार्य महाप्रज्ञ धर्मीचन्द चोपड़ा आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' साध्वी मुक्तिप्रभा डॉ. श्यामसुन्दर निगम प्रह्लादनारायण वाजपेयी ब्रजनारायण शर्मा डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय डॉ. वीरेन्द्र शेखावत शान्तिलाल सुराना डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी डॉ. एलरिक बारलो शिवाजी प्राचार्य राजकुमार जैन डॉ. नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम' डॉ. बी. के. बान्द्रे डॉ. श्रीमती मायारानी आर्य
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धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है __
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योग तथा नारी रोग जैन-योग और उसका वैशिष्ट्य योग और संधि पीड़ा अष्टांगयोग : एक परिचय योगानुभूतियाँ जैन-पागमों में योगदृष्टि क्या मोटापा योग से कम होता है Yoga and Health Tantra : Ecstasy Through Rituals Therapeutic Application of Yoga
Techniques Yoga and Ayurveda V.pash yana and Preksha Guide to a fuller life Concept of Asana'-Is it an Abhyasa' or an 'Anusthana'?
डॉ. के. सी. खरे डॉ. राममूति त्रिपाठी डॉ. रतनचन्द्र वर्मा प्रा. अरुण जोशी चन्द्रशेखर आजाद डॉ. सुभाष कोठारी डॉ. बी. के. बान्द्रे Dr. M. L. Gharote Dr. Kalidas S. Joshi
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Dr. M. L. Bhole Dr. R. V. Ranade
Dr. J. R. Joshi Dr. Jayadeva Yogendra
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Dr. B. R. Sharma
Mr. T. P. Sreekumaran and Dr. M. V. Bhole Smt. Sitadevi Yogendra
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Excercising the Trunk
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परिशिष्ट अर्थसहयोगी महानुभावों का संक्षिप्त परिचय
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आई घड़ी भिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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• परम विदुषी साध्वी श्री उमवाय कुंजीम. अर्चना
•पनम महास्पद प्रबुद्ध ज्ञानयोगी
युवाचार्यप्रवर श्री मधुकर मुनि जी म.सा की ओर से शुभाशीर्वचन
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॥अहम॥ ||णमो तस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स|| जयतु धर्भशासनम्॥
सफलम भवतु जीवनम् ।। बहुत पंडित रत्न, प्रबुद्ध, ज्ञानयोगी, परमाराध्य, युधायाः एचर भी मिलोसल जी म. सा. “मधुकर फी ओर से सानुग्रह अपनी अलेवासिनी परम-विधी साध्वी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. अर्चना के जन्मदिवस की स्थानिक लापर
(ग) शुभाशीःAla
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सत्कामना / :वदापना - । परम्परोपमा जो ... निमय सुदीर्घञ्च , ज्ञान-विज्ञान - भूषितम् । भवन्तु यो निष्णात -भुमराव स्व जीवनम् ।। साधना व शुक्षा, स्वानुभूति परायशः । साधयेदात्मलस्यं स्य, निर्मलादध्यात्म योगिनी।।
जन्म सब लेते हैं, भ संसार में आते हैं, पर जन्म लेना उनका साकि है, जो मानव जीवन की महता तथा पा देयता को समझकर जीवन के ऐसा मोड़ देते है, जो गनजन के लिये प्रेरणा मय संबल बन जाता है। __"मुझे यह प्रकट हुए ढार्दिक परिव और हर्ष का अनुभव होता है कि हमारी अन्तेवासिनी परम विदुध साध्वी # उमरावकुंवर जी 'अर्धजा' का जन्म, जो भाद्रपद की कृष्णा अष्टमी के साथ संयुक्त है, उनके अध्यात्म परिपूर
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व्यक्तित्व के उदाभ से वंगमन को एक उत्कान्स कहानी कह रहा है।
साध्वी श्री उमरायक्वरजी निश्चयही एक उच्च संस्का खती सन्तरी है, बाल वैधव्य का अभिशाप उन्हें मिला किन्तु इस तेजस्विनी मारी ने ग्य, तितिक्षा एवं मुभुक्षा के उरात भाटों द्वारा उसे राम के रूप में बदल डाला | भोग लिप्सा के सा पर विरक्ति तथा विमुक्ति की भव्य भावना उनके अनार म में संप्रतिष्ठ हो गई । उन्होंने बाल व्यभरा जैन जमणी का जीवन स्वीकार किया।
गवती दीक्षा सेप्रारंभ कर साधना के दुर्गम पध-पर अन्त: पराक्रम तथा सत्साह के साथ गतिशील उनका जीवन एक ऐसा महाकाध्य है, जिसके प्रत्यक सर्ग से स्वधर्भ का घोष मुखरित है।
___ साध्वी भी उमरावकवरजी जैन आम, या crer प्राध्यात्मिक साहित्य का पुष्कल अययन किया। अपने अध्ययन को उन्होंने बानी बधा रखनी का ही सीमित नहीं रखकर यधाव: जीधन में उतारा जो उनके साधनासिक्त , गंभोर व्यक्तित्व से झलकण है
अमा- जीवन के दो प? - स्वकल्याण तथा परकल्याण था लोक कल्याण | साध्वीजी ने दोनों को साधा। आत्मसाधिष्का तो
ही राजस्थान से कारमीर तक की दुर्गम, दुष्कर पद यात्रा उन द्वारा किए जाते लोक कल्याण मय कार्यों का एक उदाहरण है जो उनकी इस दिशा में सतत अागामिण का सूचक है। EE वासी जन साध्वीश्रृंद मः संभवत: काश्मीर की
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या पटली पद यात्रा थी।
भी उमरावकुंवरजी आज श्री यद्यपि पौड़ावस्था में है, . दैथिक दृष्टि में पूर्णत: स्वस्थ भी नहीं है, पर युवो चिल उत्साए, लगन एवं तत्परतासे धर्म की, संगकी, जन-जन की सेवा कर रही है। अपनी अन्तवासिनी अमणीन्द का जीवन. निर्माण करने में जो जागरुकता प्रयान शीला उनमें रखा हूँ तब मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। शायद ये बड़ी तेजीसे। अपनी आन्तासिनियों को अपना समय अर्जित देशना चाहती हैं जिससे उन द्वारा पालित , फेखिल ज्ञान और साधना की निधि उत्तरोतर शिष्यानुक्रमें अक्षा रहती रहे।
में साध्वी श्री उमरावकुंवरजी को उनके जन्मदिवस पर अनेकानेक शुभाशिर्वाद संप्रेफिक करना है, उनके स्वस्थ र्धायुमय जीबन की सत्कामना करण हूँ, उन्ट वकिल करता हूँ।" .
मधमा मुनि
जधानी बंगला पंचवटी जासिक (महाराष्ट्र)
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आशावचन
GUIDE
भन्दार्चन
tantraSEERED REDIBEEEEEEE. RBIRREEMBERDA TILLIRMIRRIOD MEIIIIIIIANDE IUIIIIIIIIII. +ITHILDILIRIRAT
TIONSIDESI BIRBEL.INERBE
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शभाभिरीव्सन
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परम विदुषी महासती श्री उमरावकुखरजीम सा अर्चना
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आशीर्वचन
- आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषिजी म. भारतीय संस्कृति में नारी को अत्यन्त गरिमामय स्थान प्राप्त है। कहा भी है-'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ॥'
देवाधिदेव श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने शासन में स्त्री-वर्ग को सन्माननीय स्थान प्रदान किया है। शास्त्रकार कहते हैं
इक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स।
संसारसागराओ तारेइ नरं व ना नारि वा ॥ भगवान की नजर में नर और नारी तो क्या, लोकाकाश में रहे हए समस्त जीव समान हैं । 'सवि जीव करू शासनरसी' इस सर्वोत्कृष्ट भावना की चरमसीमा प्राप्त कर वे तीर्थकर बने थे। उनके शासन में वर्ण-भेद, जाति-भेद या लिंग-भेद नहीं है । समता भाव जिनशासन का प्राण है। इसीलिए परमात्मा के तीर्थ में साधु के साथ साध्वी तथा श्रावक के साथ श्राविका पद को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका को लेकर ही चतुर्विध संघ बना है। प्रवर्तिनी साध्वी चन्दनबाला छत्तीस हजार साध्वियों में प्रमुख थी।
जिनशासन के संवर्धन में समय-समय पर साध्वी-वर्ग ने भी अपूर्व योगदान दिया है। सच तो यह है कि साध्वी-वर्ग के अभाव में चतुर्विध संघ ही अपूर्ण हो जाता है। साध्वियों ने कई बार संयम-भ्रष्ट होते हुए जीवों को संयम मार्ग में स्थिर किया है। साध्वियां ही नहीं, धर्मशीला श्रविकाओं ने भी मार्ग भूले श्रमणों को धर्म-मार्ग में स्थिर किया है। राजीमती ने रथनेमि को और रूपकोशा ने सिंह गुफावासी मुनि को अपनी चतुराई से संयम धर्म में स्थिर करके सम्यग्दर्शन के स्थिरीकरण अंग को सार्थक किया था।
वर्तमान में भी अनेक साध्वी रत्न विद्यमान हैं; जो अपने निर्मल चारित्र से संसार को आलोकित कर रहे हैं। महासती उमरावकुंवरजी भी संयममार्ग का पालन करते हुए अपने पंच महाव्रतों में निखार ला रही हैं और भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर उन्हें धर्ममार्ग में स्थिर कर रही हैं। उत्तर में काशमीर प्रदेश में भी विहार करके उन्होंने जिज्ञासुनों को धर्मामृत पिलाया है।
परमात्मा के शासन के प्रति वफ़ादार रहते हुए संयममार्ग में आगे कदम बढ़ाने वाली साध्वी की दीक्षापर्याय का यदि अभिनन्दन और गुणानुवाद किया जाता है, तो यह सर्वथा उचित ही है।
हम साध्वी उमरावकुंवरजी के आत्मिक विकास की मंगल-कामना करते हैं और आपके शुभ प्रयास की भी सफलता चाहते हैं ।
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शुभकामना 0 उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म.
अभिनन्दनग्रन्थ साहित्य की एक ऐसी विलक्षण विधा है, जिसमें अभिनन्दनीय व्यक्ति के ऊर्जस्वल व्यक्तित्व और तेजस्वी कृतित्व तो उभर कर पाता ही है, साथ ही धर्म-दर्शन-साहित्य- . संस्कृति-इतिहास-भूगोल-ध्यान-योग व कला से सम्बन्धित मूर्धन्य मनीषियों के विचारों का निथरा हुमा स्वरूप भी आता है। उस मौलिक गहन व गम्भीर चिन्तन से सामान्य मानव ही नहीं अपितु विशिष्ट चिन्तक भी लाभान्वित होते हैं। वे इस प्रकार के उपक्रम की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। अभिनन्दनग्रन्थ में व्यक्ति विशेष की प्रशस्ति और प्रशंसा ही नहीं होती, अपितु व्यक्ति को माध्यम बनाकर चिन्तन की ऐसी सामग्री दी जाती है, जो तरो-ताजा और कालजयी होती है।
जो व्यक्ति साहित्यिक नहीं हैं, पर साहित्यिक होने का दावा करते हैं, ऐसे साहित्यमहारथी अभिनन्दन ग्रन्थ की परम्परा को हेय बताते हैं और वे यह मानते हैं कि यह अर्थ का दुरुपयोग है। समय-समय पर वे बोलकर और लिखकर अपने विचार भी प्रस्तुत करते हैं । उनकी आलोचना-प्रत्यालोचना घटिया स्तर के अभिनन्दनग्रन्थों के लिए तो कुछ ठीक है, पर जहाँ तक उत्कृष्ट अभिनन्दनग्रन्थों का प्रश्न है, बिल्कुल ठीक नहीं है। उन्हें यह परिज्ञात होना चाहिए कि मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, मरुधर केशरी मिश्रीमल अभिनन्दनग्रन्थ, प्राचार्य आनन्दऋषि अभिनन्दनग्रन्थ, उपाध्याय पुष्कर मुनि अभिनन्दनग्रन्थ प्रभृति कुछ ऐसे विशिष्ट अभिनन्दनग्रन्थ हैं जिनकी विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। उन ग्रन्थों में साहित्य की ऐसी उत्कृष्ट सामग्री निबद्ध की गई है, जो कभी पुरानी नहीं होती। अनेक विद्वान् अपने लेखों में उन ग्रन्थों के अवतरण बड़े हो गौरव के साथ देते हैं।
जैनसमाज में अनेक ज्योतिर्धर आचार्यों के, महामनीषी मुनिप्रवरों के अनेक अभिनन्दनग्रन्थ निकले हैं, पर विदुषी साध्वियों का अभिनन्दनग्रन्थ नहीं निकला।
महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' एक प्रतिभासम्पन्न विदुषी साध्वी हैं, जिन्होंने राजस्थान की वीर-भूमि पर जन्म लिया। वहीं पर उनका बाल्यकाल बीता। युवावस्था में उन्होंने संयम-साधना के महामार्ग पर वीरांगना की तरह कदम बढ़ाये, बिना रुके, बिना थके, प्रतिपल-प्रतिक्षण आगे बढ़ती रहीं। आगे बढ़ते रहना ही जिनके जीवन का परम लक्ष्य रहा है, जो आगे बढ़ता है, वही जीवन जन-जन के प्राकर्षण का केन्द्र बनता है।
साध्वी श्री उमरावकवरजी आगे बढ़ीं इसलिए वे वन्दनीय और अर्चनीय बन सकीं। जो जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़ता है वही पूजनीय होता है।
महासती उमरावकंवरजी के जीवन में अनेक विशेषताएँ हैं, वे स्वभाव से सरल हैं, उनके जीवन के कण-कण में सरलता का साम्राज्य है। सरलता का साम्राज्य होने से धर्म उनके जीवन में मुखरित है। उस धर्ममूर्ति का यह अभिनन्दनग्रन्थ सभी के लिए प्रेरणा-स्रोत बनेगा । यही शुभ-कामना है।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन/२
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अभिनन्दन - दीप
[] युवाचार्य डॉ. शिवमुनि, एम. ए., पी-एच. डी.
जैन साहित्य एवं जैन सिद्धान्तों में पारंगत अनेक मूर्धन्य विद्वानों के सहयोग से संपादित परम वन्दनीय कश्मीर-प्रचारिका, प्रवचन शिरोमणि, मालवज्योति, श्रद्धेय युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिजी म. सा. की अन्तेवासिनी अध्यात्मजगत् की परमसाधिका महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" के व्यक्तित्व कृतित्व से युक्त तथा विद्वत्तापूर्ण उपयोगी अनेक प्रकार के लेखों से परिपूर्ण सुसज्जित अभिनन्दन ग्रन्थ के समर्पण से केवल जैन समाज ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय समाज धर्म एवं ध्यान के प्रति जाग्रत होगा । उसमें धर्माचरण के प्रति उत्साहवर्धन होगा ।
किसी भी महापुरुष के जीवन-दर्शन के अवलोकन से — अध्ययन से प्राध्यात्मिक संस्कार जितने अधिक सुपुष्ट होते हैं, वे आध्यात्मिक संस्कार अन्य किसी उपाय से उतने सुपुष्ट नहीं होते । समाज के सामान्य नर-नारी महान् विभूतियों के जीवनचरित्र से प्रेरणा पाकर ही सुन्दर रीति से धर्म एवं व्यवहार का समन्वय करते हुए अपना दुर्लभ मानव जीवन सार्थक कर लेते हैं ।
परम विदुषी, अध्यात्मसाधिका, महासतीजी का जीवन तपस्यामय, समता से युक्त एवं साधना से ओतप्रोत है ।
आप जैसी विशिष्ट साध्वीरत्न श्रमणसंघ के लिए गौरव हैं। हमारे लिए प्रेरणास्पद हैं। अभिनन्दन ग्रन्थ समारोह के शुभ अवसर पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें।
अभिनन्दनीय व्यक्तित्व
आचार्य श्री जयन्तसेनसूरि
श्रमण संस्कृति के प्रवाह में महासती साध्वीजी श्री अर्चनाजी के त्यागमय जीवन का अभिनंदन सच में त्यागमार्ग का अभिनंदन है । अपने कृतित्व के कारण ही व्यक्ति का व्यक्तित्व उभरता है, निखरता है और उसी प्रवाह में महासतीजी के अभिनंदनीय व्यक्तित्व का सम्मान समाज द्वारा किया जाता है, वह अपने प्राप में महत्वपूर्ण है ।
प्रथम खण्ड / ३
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आशीर्वचन 0 उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म.
जैन संस्कृति में श्रमणियों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है, वे स्नेह, सद्भावना-त्याग-वैराग्य और संयम की जाज्वल्यमान प्रतीक रही हैं । जैन इतिहास के स्वर्णपृष्ठ इस बात के साक्षी हैं कि अनेक श्रमणियों ने अपने तपःपूत प्राचरण से भूले-भटके जीवन-राहियों को मार्गदर्शन दिया। ऋषभदेव-युग में अहंकार गजराज पर आरूढ बाहुबली जी को विनय का पाठ पढ़ाया ब्राह्मी और सुन्दरी श्रमणी ने। भगवान अरिष्टनेमि के युग में रथने मि, जो साधना से विचलित हो रहे थे, उन्हें सन्मार्ग पर आरूढ किया साध्वीप्रमुखा राजमती ने। महावीर शासन में प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी आचार्य हरिभद्र को जो हिंसा की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहे थे, उन्हें श्रमणधर्म का सही परिज्ञान कराया साध्वीरत्न याकिनी महत्तरा ने। इस प्रकार अगणित साध्वियों ने श्रमणों को भी मार्गदर्शन दिया। उन्हें त्याग और वैराग्य के पथ पर बढ़ने को उत्प्रेरित किया। जैन संस्कृति में हजारों ऐसी साध्वियां हुई हैं जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता थी, साथ ही हजारों ऐसी भी साध्वियां हुई हैं जो सिंहनी की भांति तप के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ती रहीं। उन्होंने तप के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किया वह अद्भुत है, अनठा है । अन्तकृत्दशांगसूत्र में उन साध्वियों के नामोल्लेख हैं जो कालजयी हैं। जैन श्रमणियों ने अपनी अनूठी विशेषतानों से यह सिद्ध कर दिया कि आध्यात्मिक समूत्कर्ष के क्षेत्र में श्रमणों से श्रमणियां पीछे नही हैं । हर तीर्थंकर के शासन में श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या अधिक रही है। . साध्वीरत्न उमरावकुंवर जी "अर्चना" श्रमणसंघ की एक विदुषी साध्वी हैं, जिन्होंने राजस्थान की पावनपुण्य धरा में जन्म लिया । वहीं पर जिनका बाल्यकाल बीता और वहीं पर जिन्होंने साधना के पथ पर कदम बढ़ाये। राजस्थानी आन-बान और शान के साथ आप श्रमणधर्म को स्वीकार कर प्रतिपल-प्रतिक्षण आगे बढ़ती रहीं। आपने अपने तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व से राजस्थानी सतियों के नाम में चार चांद लगाये हैं। इसीलिए श्रद्धालुगण पापको अभिनन्दनग्रन्थ समर्पित कर अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव कर रहे हैं ।
मैंने अनेकों बार महासतीजी को देखा है। उनसे विचार-चर्चाएँ भी हुई हैं। मैंने विचार-चर्चा में यह पाया कि उनमें सहज जिज्ञासा है। तत्त्व को जानने की गहन रुचि है। जप-ध्यान आदि में गहराई से पैठने की प्रबल भावना है। ऐसी विदषी साध्वियों पर समाज को नाज है, गौरव है। मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि महासतीजी ज्ञान-दर्शन-चारित्र में दिन दूना रात चौगुना विकास करें, पूर्ण स्वस्थ व प्रसन्न रहकर जिन-शासन की शोभा-श्री में वद्धि करती रहें।
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अर्चनार्चन /४
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महासती के नाम को सार्थक किया
0 मुनि कन्हैयालाल 'कमल'
महासती श्री उमरावकंवरजी की आत्मा ने कितने भव पूर्व सम्यक्त्व प्राप्त किया, कितने भव पूर्व देश विरत और सर्वविरत जीवन पाया ?
___ यह जानना अतीन्द्रियज्ञान का विषय है। हमारे सामने सतीजो का केवल वर्तमान भव है। अनुमान के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आपकी प्रात्मसाधना अनेक भवों से चल रही है, इसीलिए इस भव में प्रापने बाल्यावस्था में सर्व विरत होकर अपना नाम सार्थक किया है।
नाम है -"उमराव" कुवर उ= उत्तर अर्थात् अन्तिम, म= मरण,
रा=राग,
व= वमन, वाक्यसंयोजन
"राग का वमन करके अन्तिम मरण करू" इस संकल्प बल से आप अभी संयमसाधना कर रही हैं। प्रापका यह संकल्प सफल हो-यही एक शुभकामना है।
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कीर्तिमान की स्थापना
- आचार्य सुशीलकुमार योगानुसन्धान तथा अभ्यास की कसौटी पर योग की साधनाओं को जितना उमरावकुंवरजी ने अनुभूति के धरातल पर उतारा है, वैसा दूसरा उदाहरण कठिनता से ही मिलेगा। ___ मैं उनकी दीक्षा-स्वर्णजयंती के अवसर पर अपनी शुभकामनाओं को प्रेषित कर रहा हूँ। ___ उनका मंगलमय जीवन समाज के सामने नये उज्ज्वल कीर्तिमान स्थापित करे, इसी भावना के साथ ।
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प्रथम खण्ड/५
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प्रधानमंत्री कार्यालय नई दिल्ली-110011
पुलक चटर्जी उप सचिव
PRIME MINISTER'S OFFICE
NEW DELHI-110011
न. ४/११/८७-PMP--१११
९ जून १९८७
प्रिय महोदय,
प्रधानमंत्री जी को सम्बोधित अापका २५-५-८७ का पत्र मिला।
उनको खुशी है कि महासती श्री उमरावकुंवरजी अपने संयममय जीवन की अर्धशताब्दी पूर्ण कर रही हैं और इस अवसर पर उनकी सेवा में एक अभिनन्दनग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है। प्रधानमंत्रीजी इस अवसर पर अपनी शुभकामनाएँ भेजते हैं ।
भवदीय पुलक चटर्जी
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अर्चनार्चन /६
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GOVERNOR
MADHYA PRADESH
MESSAGE
I am happy to learn that Shri Umrao Kunwarji Maharaj is completing fifty years of renounced spiritual life and that an Abhinandan-granth is being presented to her to commemorate the occasion.
प्रथम खण्ड / ७
RAJ BHAVAN
BHOPAL 462003 March 19, 1987
Let me also join her devotees to offer my hearty felicitations and good wishes.
K. M. Chandy
Governor, Madhya Pradesh
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मध्य प्रदेश शासन भोपाल-४६२००४ दि. २२ जनवरी, ८७
मुख्यमंत्री
संदेश
प्रसन्नता का विषय है कि अध्यात्म-जगत की परम साधिका महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना' के संयमी जीवन की अर्धशताब्दी के अवसर पर उनकी अर्चना, दीक्षा, स्वर्णजयंती मनायी जा रही है। ___ मुझे आशा है कि इस अवसर पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रन्थ में महासतीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व, जैन संस्कृति के विभिन्न आयामों तथा योगसाधना से सम्बन्धित विषयों पर संकलित सामग्री जैन समाज के लिए उत्प्रेरक एवं संग्रहणीय बनेगी। अभिनंदन ग्रन्थ के प्रकाशन के लिये शुभकामनाएँ।
मोतीलाल वोरा
साधुवाद
आपका पत्र मिला, प्रवचनशिरोमणि अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" जी के जीवनवृत्त पर माप उनकी दीक्षा की ५० वीं जयन्ती के अवसर पर एक बहत अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहे हैं। प्रकाशनवेला पर साधुवाद ।
महासतीजी का पूरा जीवन अहिंसा की वीणा पर चेतना का सरगम है, आवश्यकता है सुरों को समझने की। पाइये, हम प्रयास करें कि उनकी वाणी को जीवन में समझ सकें।
-भारतसिंह भोपाल
मंत्री, वाणिज्य एवं उद्योग, २३ अक्टूबर '८७
खनिज संसाधन, श्रम (म. प्र.)
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शुभकामना - सन्देश
जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि महासती जी उमरावकुंवरजी महाराज साहब" प्रर्चना " का ५० व दीक्षा-स्वर्णजयन्ती महोत्सव समारोह प्रायोजित किया जा रहा है।
आदरणीय महाराज साहब की समाज एवं देश के प्रति अमूल्य सेवा रही है। इस अवसर पर प्रकाशित अभिनन्दनग्रन्थ एवं समारोह की सफलता एवं प्रादरणीय महाराज साहब के स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन की प्रभु से कामना करता हूँ।
भोपाल
१४ मई' ८७
मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई है कि अध्यात्म-साधिका योगनिष्ठ साध्वी श्री उमराव कुंवरजी " श्रर्चना " का अभिनन्दन करने के लिये एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। साध्वी श्री धनाजी राजस्थान की एक विशिष्ट विभूति हैं, जिन्होंने बाल्यकाल में हो तपोमय जीवन स्वीकार करके जनता को और विशेषतः नारी जाति को सदाचार, अहिंसा और सत्य का पथ प्रशस्त किया है ।
मैं इस प्रकाशन की सफलता की हृदय से कामना करती हूँ । आशा है यह ग्रन्थ हमारी संस्कृति और सभ्यता तथा राष्ट्रीय एकता का वातावरण निर्माण करने में सहायक सिद्ध होगा ।
जयपुर २९ मई ८७
- महेश जोशी
राज्यमंत्री आवास एवं पर्यावरण, म. प्र.
मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता है कि अध्यात्म - साधिका योगनिष्ठ साध्वी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' का अभिनन्दन करने के लिये एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है।
जयपुर
३० मई' ८७
मैं इस प्रकाशन की सफलता की कामना करता हूँ एवं प्राशा हमारी संस्कृति और सभ्यता एवं राष्ट्रीय भावना का वातावरण निर्माण होगा ।
प्रथम खण्ड / ९
किया इनाम राज्य मंत्री,
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, राजस्थान
करता हूँ कि यह ग्रन्थ करने में सहायक सिद्ध
-छोगाराम बकोलिया, मंत्री खाद्य एवं आपूर्ति, कृषि, ग्रामीण विकास एवं 'पंचायतराज, राजस्थान
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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शुभकामनाएँ
महासती श्री उमरावकुंवरजी महाराज सा. अर्चना के संयम जीवन की अर्धशताब्दी पूर्ण होने के शुभ अवसर पर उनके बहुमानार्थ उनकी सेवा में समर्पित करने हेतु अभिनन्दनग्रन्थ के प्रकाशन के आयोजन का प्रयास स्तुत्य एवं सराहनीय है।
वास्तव में तो ऐसे महान व्यक्तियों के बहुमान और अभिनन्दन के निमित्त से हम स्वयं उनके आदर्श जीवन और सिद्धांतों से परिचित एवं लाभान्वित होते हैं, हमें सत्य का साक्षात्कार और सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। जिनका बहुमान एवं अभिनन्दन होन। है वे तो यशः कीर्ति अथवा निन्दा-स्तुति से निरपेक्ष स्थिति को धारण करने वाले हैं।
मैं महासती श्री उमरावकंवरजी महाराज सा. के स्वस्थ, सुदीर्घ एवं यशस्वी जीवन की कामना करते हुए इस प्रयास की सफलता के लिये अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
-सुन्दरलाल पटवा भोपाल
सभापति, लोक लेखा समिति, ३० अक्टूबर '८७
म. प्र. विधानसभा
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमराव कुंवरजी म. सा. अर्चना अपने साधनामय दिव्य जीवन के पचास वर्ष पूर्ण कर रही हैं व इस स्वर्णिम अवसर पर उनकी सेवानों के उपलक्ष में एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी समर्पित किया जा रहा है।
____ महासतीजी म. सा. अर्चना का अर्धशताब्दी का संयममय जीवन निश्चय ही ज्योतिर्मय प्रकाशस्तम्भ है। मुझे विश्वास है प्रस्तावित अभिनन्दन ग्रन्थ अध्यात्म-जगत में साधक साधिकारों को प्रात्मोत्कर्ष की दिशा में सदैव प्रेरित करते हुए जन-जन को प्रभावित करेगा। प्रकाशन की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।
-महेन्द्रकुमार भील जयपुर
राज्यमंत्री, नागरिक खेलकूद, सुरक्षा, गहरक्षा एवं ३० मई १९८७
खादी एवं ग्रामोद्योग विभाग, राजस्थान
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. अर्चनाजी की दीक्षास्वर्णजयन्ती पर 'वन्दन-अभिनन्दन' ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। ऐसे सिद्ध साधकों के वंदन और अभिनन्दन से भक्त तथा साधकगणों का मनोबल बढ़ता है और उन्हें भविष्य में भी प्रेरणा मिलती रहेगी । अतः इस प्रायोजन के पूर्णरूपेण सफल होने की कामना करता हैं और प्राशा करता है कि इससे साधकों के लिये भविष्य में भी निरन्तर प्रेरणा का मार्ग खल जावेगा।
-रघुबीरसिंह
निदेशक श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ (मालवा)
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन / १०
lain Education Internationa
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अभिनन्दन श्री भण्डारी पद्मचंदजी म.
जैन परम्परा में नारी समाज को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त है। जैन धर्मप्रवर्तकों ने नारी को समान अधिकार देकर जहाँ समाज में उसका गौरव ऊँचा उठाया है वहीं उसे आध्यात्मिक विकास का भी पूर्ण अवसर प्रदान किया है। इससे नारीजीवन की अमोघशक्ति से समाज बहुत लाभान्वित हुया है। जैन समाज में अतीत में ऐसी अनेक महान् साधिकाएँ हुई हैं और अब भी हैं, जिन्होंने समाज को बहुत कुछ दिया है। उन्हीं में से एक हैं-साध्वीरत्न, महान विदूषी महासती श्री उमरावकुंवरजी महाराज, जो पचास वर्षों से निरन्तर समाज के उत्थान एवं नव निर्माण के लिए प्रयत्नशील हैं और इसकी अनेक उपलब्धियाँ भी हैं।
इसी से प्रभावित होकर समाज उनके 'दीक्षा स्वर्णजयन्ती' के अवसर पर अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहा है। यह नितान्त आनन्दप्रद कार्य है। साध्वीजी महाराज के मंगलमय समुज्ज्वल सुदीर्घ जीवन के लिए हमारी अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ ।
शुभकामना के दीप...
महासती अर्चना जी का नाम जैनजगत में किसी से छिपा नहीं है। साध्वी जीवन की विगत अर्धशताब्दी में किये गये आपके सत्कार्यों में तप व साधना का मणिकांचन योग है।
आपकी ध्यानसाधना, योगभावना वर्तमान युग में तो प्रेरणास्पद है ही, भविष्य में भी मार्गदर्शक रहेगी। अनेक भाषाओं के साथ ध्यानयोग, लेखन, निर्देशन में आपकी गहन रुचि है। इन आत्मीय गुणों के कारण ही तो समाज ने आपको वर्तमान युग की सफल साधिकाओं की श्रेणी में-"मालवज्योति" के पद से अलंकृत कर खड़ा कर दिया है। अर्चना जी जैसा व्यक्तित्व आज बहुत कम देखने को मिलता है।
ग्रन्थ के रूप में बहुकोणीय अभिनन्दन देखा जाये तो अर्चना जी के माध्यम से पवित्रात्मानों की गुण-स्तवना है, जो जैन समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
हजारों-हजार दिगभ्रमित प्रात्मानों को सत्य प्रकाश व अमरता की राह पर लाने में महासतीजी की विशेष भूमिका रही है। गरिमामण्डित अध्यात्मपथ की ऐसी अमर साधिका हेतु अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन का पवित्र कार्य प्रशंसनीय है।
मैं शासनदेव से पवित्र भाव लिए यह प्रार्थना करता हूँ कि वह महासती के जीवन में नये तेज का स्फुरण करें। जिस शक्ति व तेजोदीप्त गुणों के माध्यम से जैन जगत् के साथ सम्पूर्ण मानवता की जो आपने मूल्यवान सेवा की है और कर रही हैं, वह क्रम अविकल रूप से चलता रहे।
वर्तमान के प्रति प्राशान्वित एवं भविष्य के प्रति शुभकामनामों के दीप संजोये मैं आपके सूदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ।
-गणेशमुनि शास्त्री
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड | ११
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शुभ-कामना
मुनि जीवन
परम् विदुषी आर्यारत्न श्री उमरावकुंवरजी म. 'अर्चना' के बहमानार्थ दीक्षा स्वर्ण जयंती पर अभिनन्दनग्रन्थ के प्रकाशन का निश्चय जानकर महती प्रसन्नता हुई।
जिनशासन की उन्नति एवं उसकी महिमाविस्तार में श्रमण समुदाय के साथ श्रमणी समुदाय का योगदान भी अतीव प्रशंसनीय एवं स्मरणीय है। प्रभ महावीर के समय में साध्वीप्रमुखा महासती श्री चन्दन बालाजी ने ३६,००० साध्वी समुदाय का नेतृत्त्व किया था। प्रात्मसाधना के साथ-साथ महासती चन्दनाजी अध्यात्म जगत् की शासक भी रही हैं। क्या महासती चन्दनाजी का यह योगदान कम स्मरणीय है ? जैनधर्म के इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे जिनसे हमें यह अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है कि साध्वीसमुदाय एवं श्राविकासमुदाय का जैनशासन की उन्नति में गरिमामय योगदान रहा है।
महासतीजी श्री अर्चनाजी के निमित्त से श्रमणी-जगत् के सम्मान का जो स्तुत्य प्रयास किया जा रहा है वह बहुत ही प्रशंसनीय है। मैं भी अपनी ओर से यही शुभकामना अभिव्यक्त करता हूँ कि महासती श्री अर्चना जी अपने दीर्घ यशस्वी एवं गौरवमयी संयमी जीवन में जिनशासन की उन्नति करते रहें एवं मुमुक्ष जीवों को सद्बोध देती रहें।
आशीर्वचन 0 पं० प्रवर श्री हीरामुनिजी म., समदड़ी
महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. हमारे श्रमण संघ में चमकती हुई नक्षत्र के रूप में समुपस्थित हैं। स्वर्गीय पूज्य श्रीब्रजलालजी म., युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. "मधुकर" का अनुशासन व मार्गदर्शन प्राप्त किया है । गुरु पाशीर्वचन प्राप्त महासतीजी ने भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर जिनशासन की गौरव-गरिमा में अभिवद्धि करने के साथ भारी अनुभव प्राप्त किया है। कहा भी है
देश फिरा नहीं विदेश फिरा नहीं, भिक्षा करी नहीं भाव की । कूआ केरी मेण्डकी क्या जाने, लहर दरियाव की ॥
महासतीजी ने अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय के बल से देश-विदेश समाज में अमर नाम किया है। आशा है, गुरुणी सा. के पद-चिह्नों पर चलकर उनकी शिष्याएँ भी श्रमण संघ में प्रसिद्धि प्राप्त करेंगी। यही हादिक भावना!
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | १२
Jan Education Interational
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अभिनन्दन 0 श्री सुदर्शनमुनिजी म.
परम श्रद्धेय विद्वद्वर्य स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज एक महिमामण्डित उच्च साधक और जैनत्व के साथ-साथ विविध मत-मतान्तरों के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका संयमनिष्ठ जीवन समाज के लिए आदर्श रहा है। उन्होंने समाज को अनेक प्रकार की देन दी है । जैन आगमों का आधुनिक परिवेश में सम्पादन एवं प्रकाशन उनकी अनूठी देन ही है, इसके अतिरिक्त उनका कथा-साहित्यिक अवदान भी अनुपम है, साथ ही उन्होंने विद्वान, चरित्रनिष्ठ एवं शासन-प्रभावक साधु-साध्वियां भी तैयार किये हैं। उन्हीं में से एक है परमविदुषी योगनिष्ठ महासती श्री उमरावकुंवर "अर्चना" जी महाराज जिन्होंने अपनी गौरवशाली साधना में जीवन के ५० वर्षों में समाज को विविध उपकारों से उपकृत किया है इसलिए समाज उनके प्रति कृतज्ञ होने के कारण उनके अभिनन्दन स्वरूप उनकी दीक्षा-स्वर्णजयन्ती मना रहा है। यह जानकर अतीव प्रसन्नता हई है। साध्वीजी स्वस्थ दीर्घजीवन व्यतीत करें यही मंगल मनीषा है।
भाव भरा हार्दिक अभिनन्दन
मुनि विनयकुमार 'भीम' श्री-वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी परम अवतार अहिंसा, सत्य, अनेकान्त के प्रर्वतक तीर्थकर प्रभु महावीर स्वामी ने चार संघों की स्थापना की। उन चार संघों में, तीर्थों में साध्वी समाज का भी प्रमुख स्थान है। चरम तीर्थंकरने श्राविका समाज की बागडोर चन्दनबाला को सौंपी थी, हमारा प्यारा भारतवर्ष नारियों के उज्ज्वल इतिहास, प्रेरणामयी तेज गाथाओं से भरा पड़ा है। नारियों की शौर्यमयी बलिदान की परम्परा हर प्रान्त में प्रेरणा का स्रोत है। नारियों की तारीफ करते हुए हमारे प्राचीन कवियों ने कहा
नारी गुणों की खान है, नारियों के दिल में करुणा का सागर है। नारी से भीम जैसे योद्धा पैदा हुए । प्रसिद्ध लेखक जयशंकर प्रसाद ने लिखा 'नारी तुम श्रद्धा हो।' महासतीजी के नाम का प्रत्येक अक्षर ज्ञान और तप का इतिहास है।
-र कहते हैं दिल को, इसी शब्द को उर्दू में जिगर कहते हैं, अंग्रेजी में इसी शब्द को हार्ट कहा गया है । 'अपने दिल को दर्पण के समान स्वच्छ, निर्मल, सुन्दर रखो' यह भारतीय ऋषियों, मुनियों का पावन पैग़ाम है। जैन दर्शन में महावीर ने कहा-जिसका दिल पाक है, वहीं धर्म का निवास है। कहावत है-'दिल सुन्दर सब काम सुन्दर, दिल खराब सब काम बेकार', इसलिये तो ज़िगर को पाक बनाना एक बेजोड़ कला है, हर शख्स को इस कला पर अमल करना चाहिये।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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म-न-वचन-काया इन तीनों को योगियों ने योग बताया। साधना सिद्धि के लिये इन तीनों योगों पर ज्ञानियों ने जोर दिया और कहा मन, वचन और काया को जीतना बड़ा कठिन कार्य है, टेढ़ी खीर है। जिन-जिन योगियों ने, महापुरुषों ने तीनों पर काबू पा लिया उन सबकी मिसाल समाज में मौजूद है।
रा–हें अनेकों हैं। जिन राहों में जीवन का कल्याण है, उन राहों पर ही चलना चाहिए। मंजिल तक पहुंचने के लिये निरन्तर चलना होगा। अपने कदम आगे बढ़ाने होंगे। प्रबुद्ध विचारकों का कहना है कि ठहरे हुए पांव कभी भी अपने उद्देश्य तक जा नहीं पाते ।
व-न कहते हैं जंगल को। यह संसार भी एक भयंकर जंगल है। इस संसार के जंगल में अनादिकाल से हमारी प्रात्मा यत्र-तत्र-सर्वत्र घूम रही है। अब सभी को इस जंगल रूपी चक्रव्यूह से बचना है। सही सलामत बाहर निकलना है। पूरी सावधानी की जरूरत है। हमारी प्रात्मा अनन्त शक्तियों का खजाना है, भण्डार है, स्रोत है। १८ प्रकार के दुश्मन पीछे लगे हैं। ऐसे मनमोहक खजाने को लूटना चाहते हैं। यह विवेक खो दिया तो माल चला जायेगा । पश्चात्ताप के अलावा पास में हमारे कुछ नहीं रह पायेगा। चिन्तन, मनन के साथ सोचें कि इस भयवाली नागिन से कैसे बच पायें।
क-दन की चमक जगत में विख्यात है। कुन्दन कहते हैं सोने को। सोने की अग्नि में परीक्षा होती है, अग्नि के ताप से सोने में निखार आता है, असली सोना कभी भी काला नहीं पड़ता। नीति में समय को भी सोना कहा गया है। वैसे सोना सोना नहीं । हर पल सचेत-सावधान रहना । यह समय कीमती है।
व-रदान व अभिशाप दो शब्द संसार में चलते हैं। महान व्यक्तियों का संसर्ग हमेशा वरदान स्वरूप सिद्ध होता है । वरदान को पाने के लिये संत पुरुषों की संगत करना होगी। पारस की संगत से लोहा भी सोना बन जाता है। संत पारस के बराबर हैं। इनका संसर्ग किया तो हमारी प्रात्मा भी सोने के मानिन्द बन जायेगी।
र-ग-रग में अपने मजहब के प्रति यकीन, श्रद्धा, विश्वास होना चाहिये । धर्म प्रात्मा का लक्षण है। धर्म से ही प्रात्मा का उत्थान है। अण-प्रण में धर्म के लिये अर्पण के भाव होने चाहिये । जो इन्सान सच्चे दिल से समर्पित है, उसको देवता भी नमस्कार करते हैं। तो हम ऐसी योग्यता हासिल करें कि पूर्ण रूप से धर्म के प्रति अर्पित हों, प्रास्था व विश्वास के साथ धर्म अपनायेंगे तो निश्चित हमारा कल्याण धर्म करेगा।
जी-रहे हैं पर अभी तक जीने की कला नहीं पाई। संसार में अच्छे इंसान बनकर जीना, यह सबसे बड़ी एक कला है। सारे विश्व में अच्छे इंसानों की कद्र है । वर्तमान समय में इन्सान तो बहत हैं, पर इंसानियत वाले इंसान कम दिखाई देंगे। पुरानी कहावत चल रही है कि
मनुष्य-मनुष्य में अन्तर, कोई हीरा कोई पत्थर....
आई घड़ी
वही मानव प्रादर पाता है, जिसके पास इन्सानियत है। इंसान की कोई कीमत नहीं । कीमत होगी इंसानियत के नाते ।
चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | १४
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म-न एक वीणा है। विचार इसके तार हैं। वीणा की आवाज बड़ी मधुर होती है। जब वीणा की आवाज निकलती है तो सभी के मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। सुनने वाले श्रोता ये कहेंगे एक बार वीणा की तान फिर से सुनायो। मधुर बोलने वाले लोकप्रिय बनते हैं । यह लोकप्रिय बनने का सबसे अच्छा तरीका है।
हा-र कमजोरी का सूचक है । हार कर बैठ जाना असफलता है। विपत्तियों का डट के मुकाबला करो जिससे सफलता मिलेगी। सफलता जायेगी कहाँ, अपने आप पास में पाजायेगी। हार एक बादल है, जो साहस के सूर्य को ढक देती है। साहस पाया और असफलता के बादल छंटकर दूर हो गये । धैर्य व साहस के चमकते ही सूर्य दिखाई देने लग जायेगा, साहस को कायम रखते हुए आगे बढ़ चलो।
राह पर चले वह राहगीर । यात्रा करे वो यात्री। मुसाफिरी करे वो मुसाफिर । व्यापार करे वो व्यापारी । शिक्षा दे वो शिक्षक । शिक्षा ग्रहण करे वो शिक्षार्थी । अच्छाइयों को लेकर चलो, फल अच्छा ही मिलेगा। अच्छे को ग्रहण करना ये काम है आँखों का । संसार के बगीचे में फल व शूल दोनों ही दृष्टिगोचर होते हैं। फूल लेना या शूल, यह निर्णय तो आँखें करेंगी । फूल है यश, शूल है अपयश, सौरभमय सुगंधित फूलों को चुनकर हम लोग एक बेमिसाल माला बनायें, जिसके माध्यम से यह जीवन सुरभित हो जाएगा। जरा हम अपने नयनों को फलों की ओर ले जायें।
ज-ब-जब धरती पर पापाचार बढ़े तब-तब महापुरुषों ने जन्म लिया। अपने उपदेशों के द्वारा सही रास्ता बताया। उन महान ज्ञानियों के उपदेशों में जीवन को बदलने का करिश्मा है. ताकत है। हम लगन व निष्ठा के साथ उपदेश श्रवण करें । अमल करें। उपदेश में किसी प्रकार की कोई गड़बड़ नहीं । कमी हमारे अन्दर है कि हम सही तरीके से सुन नहीं पाते । जिस दिन तल्लीनता के साथ सुनना प्रारंभ कर लेंगे, उसी दिन अपनी शक्ति को पहचान लेंगे।
सा-फ-सुथरा घर का प्रांगन कितना सुन्दर लगता है। एकदम घर में प्रवेश करते ही मन मोह लेता है। घर में कड़ा करकट अच्छा नहीं लगता । ये मन भी अपना एक प्रांगन है । क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, घृणा, नफरत का गहरा कचरा भरा है। ज्ञान, विवेक व चातुर्य का झाड़ लेकर इस कचरे को दूर करें। हृदय-भवन सुन्दर बन जायेगा। सफाई ऐसी की जाये कि पुनः कचरा प्रा न पाये।
ह-र घड़ी हर पल प्रभु की भक्ति ही जीवन को सुखी बना सकती है। प्रभु की की गई भक्ति कभी भी निष्फल नहीं जाती। मन साफ होगा, तब भक्ति भी साफ होगी । भक्ति एक दीपक है, उसमें सत्य, अहिंसा का तेल व बाती दो तो दीपक फिर बुझने वाला नहीं। तेज लगी लो लुप्त होने वाली नहीं । जीवन के भवन में ऐसे दीप को जलाने की अत्यन्त अावश्यकता है । ऐसा प्रकाश ही हमारे जीवन को सुखद बनायेगा।
ब-रतन पर धूल जमने पर चमक में थोड़ी कमी आ जाती है। चमक को रखने के लिये दुकान का मालिक बराबर ध्यान रखता है कि बर्तनों पर रज (धूल) कहीं अधिक जम न जाये। सभी बरतनों की बार-बार देख-रेख करता है । पूरा-पूरा ध्यान रखता है।
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अर्चना - कितना प्यारा शब्द है । श्रर्चना का अर्थ है पूजा सेवा भाव और भक्ति । कुल मिलाकर यह कहना होगा कि काश्मीर-प्रचारिका, प्रकाण्ड पंडिता, विद्या, विनय, विवेक की मंगल मूर्ति, मालवज्योति, प्रवचन शिरोमणि, अध्यात्म योगिनी, परम विदुषी, श्रमणीरत्न, श्री उमराव कुंवरजी म. प्रर्चना भी सफल साधिका हैं। खादी के परिधानों में प्रथम बार दर्शक का मन मोह लेती हैं । दर्शक बार-बार दर्शन करने की तमन्ना रखता । गुरुदेव की साध्वी समाज में श्राप श्री का गौरवपूर्ण स्थान है । प्रापके प्रवचन में सभी के हृदयों को आकर्षित करने का एक जादू है । श्रापने कश्मीर तक पैदल यात्रा की एवं धर्म का प्रचार-प्रसार किया । अपने उपदेशों से अनेक व्यक्तियों के जीवन को बदला ।
आपके प्रवचन रोचक एवं सारगर्भित होते हैं । शब्दों में किसी प्रकार का कोई प्राडम्बर नहीं । सुन्दर व रोचक शिक्षाप्रद प्रबोधन मन को छू जाता है । सतीजी म. के जीवन में अनेक विशेषताएँ हैं, जो सभी जानते हैं । आपके संयमी जीवन से सभी परिचित हैं । हम शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि प्रापका कुशल नेतृत्व श्रमण संघ, समाज, देश व राष्ट्र को मिलता रहे । आप अपने प्रवचन - पीयूष धारा से प्रशांत जनमानस को शांति का मार्ग प्रदान करें। मैं सतीजी म. सा का दिल की अनन्त अनंत गहराइयों के साथ भाव भरा अभिनंदन करता हूँ ।
अदम्य उत्साह के धनी : श्री अर्चनाजी गुजरात-केसरी श्री गिरीशमुनिजी
प्रसन्नता की बात कि कश्मीर-प्रचारिका, पंडिता श्री श्री उमरावकुंवरजी "अर्चना " महाराज संयम जीवन की अर्धशताब्दी सफल कर चुकी हैं ।
मेरा सतीजी से व्यक्तिगत परिचय नहीं है किन्तु उनके साहित्य से अवश्य परिचित हूँ ।
मानवजीवन की अनमोल सम्पत्ति संयम साधना है । जो व्यक्ति अध्यात्मजीवन के कई शिखरों को पार कर लेता है उस गुणसम्पदा - विभूषित पुण्यात्मा की गुणस्तवना करना एक कर्तव्य बन जाता है ।
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श्री अर्चनाजी के अध्यात्मयोग सम्पुष्ट जीवन के बहुमानार्थ मैं गुजरातवासी क्या
लिखूं ?
अध्यात्मजगत् की परम साधिका महासतीजी का जीवन सुषमित सुरभित शतदलीय है । उसके पत्र-पत्र पर संयम साधना की ऋजुता का दर्शन होता है जो सहजानुभूतिपरक है । उनकी त्रियोगी साधना स्वरूप संवरता योगानुभूति परक है जो अनुकरणीय है ।
प्रापकी ज्ञान-दर्शन- चारित्र की रमणता दिव्यानुभूतिपरक है जो प्राचरणीय है । प्रवचन शिरमणि मालवज्योति के दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के सुअवसर पर श्रान्तर की बधाई के साथ अभिनन्दन करते हैं ।
सतीजी तुम जियो वर्ष हजार । लोकोपकार के दिन हों दश हजार ॥
अर्चनार्चन / १६
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ध्यान योग साधिका महासती श्री उमरावकुवंरजी म. सा. 'अर्चना'
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जन्म
दीक्षा अगहन कृष्णा ११ वि० सं० १९९४
भाद्रपद सप्तमी वि० सं० १९७९
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जीवन - अन्तर्यात्रा को सजग पथिका मुनि राजेन्द्रकुमार 'रत्नेश'
जीवन एक महायात्रा है, जिसमें कई उतार-चढ़ाव, आरोह-अवरोह प्राते हैं । प्रत्येक मोड़ पर पूर्ण जागृत । श्रप्रमत्त होकर - प्रगर पथिक कदम बढ़ाता है तो उसे प्राप्त होती है उसकी मनसंकल्पित मंजिल । इस महायात्रा में कदम बढ़ाने के साथ यह आवश्यक है कि पथिक को लक्ष्यबोध, दिशाबोध हो । अन्यथा फिर एक अन्तहीन भटकाव से उसे घिर जाना होगा । उसकी जिन्दगी यायावर बन जायेगी ।
जीवन अन्तर्यात्रा का सजग-पविक विषमताओं विभावों-विजातीय वृतियों के कंटकों से परे, "सुभाश्रो नियट्टणं सुभाओ पयट्टणं" को जीवनसूत्र बनाकर जीवन में निहित परम श्रेय को समुपलब्ध कर लेता है ।
मैंने देखा है इस सूत्र को रूपायित होते अध्यात्मयोगिनी महाश्रमणी अर्चनाजी म. में । वे प्रतिस्रोत की ओर उन्मुख जागृत चेतना है, जिसने ध्यान के अतल का स्पर्श किया है। उनके भीतर एक समग्र चेतना है जो ध्यान के द्वारा ऊर्जारोहण की ओर अग्रसर है। उनका अंत गहरा है, बहुत गहरा जहाँ से एक शून्य निनाद मौन विहित संगीत गूंजता रहता है जिसे "कायोत्सर्ग" अवस्था में जीकर हम सुन सकते हैं ।
I
समादरणीया महाश्रमणी जी का जीवन स्वयं एक दर्शन है जो अपने करीब आने वाली प्रत्येक चेतना को एक दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। मैंने उनका सान्निध्य पाया है, उनमें देखा है एक अलौकिक तेजोवलय जो उनके भीतर छिपे विराट का प्रतिविम्ब है। उनके भीतर पैदा हुआ यह विराट रूपान्तरण की प्रक्रिया है।
इस विराट, उत्कान्त चेतना के जीवन का यह वैशिष्ट्य है। उनमें साधुख के दर्शन हुए हैं, प्रदर्शन नहीं ।
साधुता, साधना के इस दर्शन की जीती जागती मिसाल महाश्रमणी अर्चनाजी म. सा. के साधना की अर्धशताब्दी के उपलक्ष्य में हृदय की असीम ग्रास्था के साथ श्रात्मवन्दन ।
प्रथम खण्ड / १७
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
स्वर्णिम साधिका अर्चनाजी [ श्री उदय मुनि 'जैन सिद्धान्ताचार्य'
भारतीय संस्कृति युगों से विविधता से परिपूर्ण रही है। लम्बे समय से यहाँ पर भिन्नभिन्न धर्म, मत-मतान्तर, त्यौहार एवं रीति-रिवाज प्रचलित रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में पुरुष वर्ग के साथ-साथ नारी का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । कोई भी धर्म या क्षेत्र रहा हो, नारी ने अपनी महिमा के अनुरूप गरिमा प्रदान की है। जैनधर्म भी इस ममतामयी नारी से गौरवान्वित हुआ है। चन्दना, ब्राह्मी सुन्दरी, मैनासुन्दरी धादि अनेक सतियों ने सात्विक संयमी जीवन अपनाकर मुमुक्षुत्रों के लिये मार्ग प्रशस्त किया है। श्राज वर्तमान में भी अनेक नारियां धर्मध्वजा को थामे भगवती दीक्षा को अंगीकार करके अपने आत्मकल्याण के साथसाथ भ. महावीर के अमर संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के महान् कार्य को सम्पादित कर रही हैं। इसी श्रृंखला में उदारमना अध्यात्मयोगिनी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' भी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। वि. सं. १९७९ भाद्रपद सप्तमी को दादिया ग्राम (किशनगढ़) में पिता श्री मांगीलालजी एवं माता श्रीमती अनुपा देवी तातेड़ के घर जन्मी इस महासती को बचपन से ही घर में धर्ममय वातावरण मिला। आपके पिताश्री ने भी भगवती दीक्षा अंगीकार की थी। मात्र पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में ही सांसारिकता का १९९४ अमन वदी ११ को महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. ने कुंवरजी म. सा. के पावन श्रीचरणों में संयमी जीवन अंगीकार कर लिया था । दीक्षा धारण करके आप अपना समय अध्ययन, चिन्तन, मनन, ज्ञानार्जन में व्यतीत करने लगीं अल्प समय में ही धाप जैन धागम, दर्शन एवं अन्य साहित्यिक क्षेत्रों के ज्ञाता होने के साथ-साथ संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा में भी पारंगत हो गई।
महासती 'अर्चना' बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। जहाँ एक ओर आप जैन दर्शन की अच्छी ज्ञाता हैं वहीं दूसरी ओर एक मधुर एवं प्रभावी प्रवचनकार भी हैं। आप अपनी स्पष्ट एवं निर्मीक प्रवचनशैली, दृढ़ मनोबल, सुलेखन तथा सरल मानस के कारण अपनी एक विशिष्ट ही पहचान रखती हैं । श्रापने अपने संयमी जीवन में राजस्थान, पंजाब, कश्मीर, हिमाचल दुर्गम क्षेत्रों में पैदल बिहार कर
मुमुक्षुद्धों को सम्मार्ग का दर्शन
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प्रदेश उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश भादि अनेक दूरस्थ एवं महावीर के पावन धर्मसन्देश को जन-जन तक पहुंचाया।
कराया ।
मोह छोड़कर वि. सं.
महासती श्री सरदार
आज आप अपने संयमी जीवन के स्वर्ण जयन्ती वर्ष में प्रवेश करने जा रही हैं। इस शुभ अवसर पर यही कामना है कि महासती दीर्घ समय तक धर्मीजनों का मार्ग प्रशस्त करती रहें. धर्म ध्वजा फहराती रहें।
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सत्कामनाएँ
0 साध्वीरत्न श्री झणकारकुवरजी म. सा.
जैनधर्म में गुणोत्कीर्तन तथा गुणोजनों के सम्मान-सत्कार का बहुत बड़ा महत्त्व है। इससे मन पवित्र बनता है, भावना में उत्कर्ष का संचार होता है, हृदय में ऋजुता एवं मृदूता का उद्भास होता है । यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि जैन-जगत् की अनुपम निधि, साधना को दिव्यमूर्ति महिमामयी महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का साधुसाध्वोवृन्द तथा श्रावक-श्राविका-समाज की ओर से उनके श्रमणी-जीवन की अर्धशताब्दी की सुन्दरतम सम्पन्नता की स्वर्णिम वेला में अभिनन्दन किया जा रहा है । वास्तव में महासतीजी गुणों में हिमाद्रि की ज्यों अत्यन्त उच्च हैं। उनका अभिनन्दन ज्ञान, साधना, संयम और सेवा का अभिनन्दन है।
विक्रम संवत २०३७ का प्रसंग है। परमाराध्य गुरुदेव यूवाचार्यप्रवर पंडितरत्न श्री मिश्रीमलजी म. सा. "मधुकर" का मेड़ता सिटी में चातुर्मासिक प्रवास था । निःसंदेह यह मेरा परम सौभाग्य था-~-तब मुझे भी उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। उस चातुर्मास में भाइयों तथा बहिनों में तपस्याएं बहुत हुईं। एक भाई ने ७१ दिन का उपवास किया तथा एक बहिन ने ३१ दिन का । उनका वहाँ श्रावकसमाज की ओर से बड़े ठाटबाट के साथ अभिनन्दन हुअा, जिसे देखकर मैं मन ही मन बड़ी प्रसन्न हुई।
कुछ देर बाद मैं गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुई । मैंने उनके समक्ष अपनी जिज्ञासा उपस्थित की-"गुरुवर ! अभिनन्दन किनका किया जाना चाहिए ?" यह सुनकर गुरु महाराज पहले तो कुछ मुस्कराये, फिर कहने लगे--साध्वीजी ने अच्छा प्रश्न किया है। इस बात की जिज्ञासा बहुत लोगों के मन में थी, जो साध्वीजी द्वारा प्रकट हो रही है।
इस सम्बन्ध में तथ्य यह है-अपने यहाँ आगमों में वर्णन प्राता है कि अभिनन्दन उनका किया जाए, जो धीर, वीर, गंभीर, त्यागी एवं वैरागी हों। वैसे व्यक्ति ही वास्तव में अभिनन्दनीय होते हैं।
गुरुदेव द्वारा उक्त प्रसंग पर प्रकट किये गये उद्गार मुझे आज बहुत स्मरण हो रहे हैं । महासतीजी श्रीउमरावकंवरजी महाराज में धीरता, वीरता, गंभीरता, त्याग एवं वैराग्य आदि अनेकानेक उत्तमोत्तम गुण हैं। आप गुणरूप परमोत्कृष्ट माला के एक बहमुल्य मनके सदृश हैं। अापका अभिनंदन निश्चय ही नारी के उस चरमोत्कर्ष का अभिनंदन है, जिसकी उच्चता की अट्टालिका प्राध्यात्मिक साधना की पृष्ठभूमि पर खड़ी है, जिसमें शील, सच्चारित्य, समाधि और ध्यान की पाषाण-पट्टिकाएँ तथा ईंटें लगी हैं। इस गौरव-गरिमामयी महान् नारी की महनीयता, दिव्यता, सफलता, चारित्यवत्ता उन्नति के उच्चतम शिखर का संस्पर्श करे, इसी भावना के साथ मैं हृदय से इनका अभिनंदन, सम्मान और समादर करती हूँ।
तह।
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जीवन की सार्थकता रत्नत्रय से है जिससे प्रतिपल नवीन ज्योति उत्कीर्थ होती है
समाजरी जागती जोत 0 शा. चं. श्री झणकारकंवरजी म. सा. की सुशिष्या साध्वी जयमाला
परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. तो बस उमरावकुंवरजी ही है। प्रापरी होड़ कुण कर सके। आप सीधा सरल, आचरणमा निर्मला, वाणीमां मधुरता एवं साध्वी समाजमां जागती जोत हो।
सबहू पहला म्हारी दीक्षा ऊपर आप घणी महरवानी कर आसोप पधारिया । उण रे बाद मा भी नरी दाण प्रापरे साथे रेवण रो काम पड्यो, म्हारी वणां रे प्रति जो ऊंची धारणा है वणी मां कदी फरक नी प्रायो अरु न पावेला।
"साधु सोहिता अमृत वाणी" या भली उक्ति म. सा. श्री उमरावकुंवरजी सूं हमेशा प्रगट मिली। हर समय मुलकतो, हँसतो चेहरो, मीठी मीठी बातां री मनुहार, ध्यान-साधना में मगन और सुन्दर व सरस विचार या खास विशेषता म्हारे ध्यान में प्राई।
प्रापरो व्यवहार उत्तम और वचन मधुर, ए दोनों बातां तूं पराया ने आपणो बणांवता पाप रे देर नी लागे । पाप तो बड़ा ही, स्वाध्यायी ग्रन्थकार हो, चोखा वक्ता हो, पछे किण बात री खामी।
चारित्र पर्याय रा पचास वर्ष निरन्तर आध्यात्मिक उन्नति मा बीत्या या बडी हर्ष और प्रमोद री बात है। समाज अापरो अणी प्रोसर पर अभिनन्दन करे यो ठीक ही है। मुं भी हिवड़ा सं सात्विक अभिनन्दन करती थकी आशा करू के श्री श्री १००८ श्री उमरावकुंवरजी म. सा. घणा वरसां तकी जीवन संयम का पहरी बणने जैन समाज प्रवर श्रमण संघ रो मार्गदर्शन करे । आ ही म्हारी हिवडा री कामना अवर मना रा वन्दन है, अभिनन्दन है आपरां चरणां मा, याने स्वीकारो।
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कोटि कोटि मंगल कामनाएं
श्रमणी चेतनप्रभा "चैत्य", बी. ए. जगत् में अनेक प्रकार की कलाएँ हैं जिनके सहारे व्यक्ति अपनी बुद्धि द्वारा अनेकानेक विशिष्ट कार्य करता है। वैसे शास्त्रों में बहत्तर कलानों का उल्लेख है। उन बहत्तर कलायों में जैसा कि निम्नांकित पद्य से प्रकट है, दो कलाएँ सबसे प्रमुख हैं, श्रेष्ठ हैं
"कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार ।
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥" सांसारिक व्यक्ति को जीवन चलाने के लिए कुछ न कुछ करना ही होता है। अपने करणीय को वह जितनी सुन्दरता से, आकर्षक रूप में कर पाता है, वह अपनी जीविका उतनी ही सुविधापूर्वक, मनोज्ञतापूर्वक चला पाने में सक्षम होता है। प्रत्येक कार्य कलापूर्ण हो सकता है। कलापूर्णता कार्य में निःसन्देह सुन्दरता उत्पन्न करती है। किन्तु केवल इस सांसारिक जीवन का निर्वाह मात्र ही तो मानव-जीवन का लक्ष्य नहीं है। अपने जीवन का निर्वाह तो पशु-पक्षी भी किसी न किसी प्रकार करते हैं। जीवन का यथार्थ लक्ष्य प्रात्मा का उद्धार है ।
आवागमन से, जन्म-मरण से विमुक्त होना है। धन्य हैं वे सत्पुरुष, वे सन्नारियां, जो जीवन के सही लक्ष्य का अंकन करते हैं तथा उस दिशा में अग्रसर होते हैं । परम श्रद्धे या महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. एक ऐसी ही महान प्रात्मा हैं जिन्होंने अपने जीवन का सही लक्ष्य समझा । उन्होंने विक्रम संवत् १९९४ मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी को छोटी सी उम्र में अपने को साधनामय जीवन में समर्पित कर दिया । वे महान संयम-साधिका, त्यागमूर्ति महासती जी श्री सरदारकंवरजी म. की सेवा में उनकी अन्तेवासिनी के रूप में संयम की उदग्र साधना में संलग्न हो गईं। विद्याराधना और चरित्राराधना ही उनके जीवन का क्रम बन गया। परम श्रद्धास्पद, जैन शासन के महान् प्रभावक मुनिश्री हजारीमलजी म. सा., महान् स्वाध्यायी, प्रात्मसंलीन ध्यानयोगी मुनिश्री ब्रजलालजी म. सा. तथा बहुश्रुत पंडितरत्न युवाचार्यप्रवर श्री मिश्रीमलजी म. सा. "मधुकर" जैसे महापुरुषों की छत्रछाया पापको चिरकाल तक प्राप्त रही, यह आपका सौभाग्य था। इन महान् संतों एवं महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा. की सत्प्रेरणा तथा सदुद्यम से आपके जीवन में अध्यात्म की एक अद्भुत आभा प्रस्फुटित हुई।
सुयोग शिल्पी के हाथ में पाने पर जैसे एक अनगढ़ पाषाण सुन्दरतम प्रतिमा का रूप ले लेता है, वैसे ही आपका जीवन अध्यात्म के इन महान् शिल्पियों के सत्प्रयास से आध्यात्मिक सौंदर्य और सुषमा से खिल उठा । ग्राप साधना के पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होती गईं। आपका जीवन अधिकाधिक उद्दीप्त होती आत्म-ज्योत्स्ना से कोहनर हीरे की ज्यों चमक उठा।
पुण्यात्माओं के पुण्यमय जीवन की यह विशेषता होती है, जहाँ भी उनके चरण टिकते हैं, सफलता उनके आगे-आगे चलती है। साधना और लोक-कल्याण के पथ पर आप अथक रूप में चलती रहीं, आज भी चल रही हैं। अपने अध्ययन और अनुभतियों के प्राकट्य के ।
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रूप में आप द्वारा जो साहित्यिक सर्जन हुआ, वह आध्यात्मिक वाङमय की एक अमूल्य निधि है। आप वास्तव में हमारे श्रमण-संघ में श्रमणीरत्न के रूप में एक महान् विभूति हैं। आपके स्वभाव में जो मधुरता, सरलता और मृदुता विद्यमान है, वह आपका असाधारण गुण है। सन् १९८१ में नोखा चांदावतां में चार दिन आपके सान्निध्य में रहने का जो मुझे सौभाग्य मिला, मैं उसे कभी भूल नहीं सकती। उस छोटी-सी अवधि में मुझे आपसे बहुत कुछ सीखने का सुअवसर प्राप्त हुआ, अन्तःप्रेरणा प्राप्त हुई।।
महासतीजी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। वे महान लेखिका हैं और साथ ही साथ अत्यन्त प्रभावक प्रवचनकार भी। आपकी वाणी में विद्याजन्य परिष्कार और साधनागम्य पोज है, अतएव जो भी श्रवण करते हैं, मंत्रमुग्ध की ज्यों हो जाते हैं, उनका जीवन धर्मोन्मुखता के रूप में एक नया मोड़ लेता है।
आपके जीवन का क्षण-क्षण चिन्तन, मनन तथा ध्यान में व्यतीत होता है, जो श्रमण जीवन की वास्तविक शोभा है । आपके गुण एवं संयम की दिव्य ज्योति का वर्णन करना मुझ जैसी सामान्य साध्वी के लिये कदापि शक्य नहीं है। केवल यह सोचते हुए कि महान् पुरुषों के गुणगान से प्रात्मा निर्मल बनती है, मैंने अपनी यथाशक्ति अपने भाव प्रकट करने का किचित् प्रयास किया है।
परमादरणीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" की दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के शुभ अवसर पर मैं अपनी कोटि कोटि मंगलकामनाएं व्यक्त करती हैं। महासतीजी म. सा. का जीवन दिन-प्रतिदिन साधना के प्रशस्त पथ पर उत्कर्ष, महोत्कर्ष की अोर प्रगति करता जाए, मेरी यही अन्तर्भावना है ।
मनोबल से दुविधा की बेड़ियां कट जाती हैं मनोबल की धनी : महासती श्री उमरावकंवरजी
0 साध्वी चन्द्रप्रभा
भारतीय संस्कृति संतों की संस्कृति है। इस धरा पर भले ही शासन किसी का रहा हो, पर महत्त्व सन्तों का ही रहा है। सन्त एवं महासतियों की परम्परा आज भी अक्षुण्ण है। इन महान विभूतियों की दिव्य परम्परा में पूज्या महासती श्री उमरावकुंवर जी 'अर्चना' म. सा. के जीवन का भी अपना अनूठा स्थान है। इस भारत भूमि की प्राप दिव्य सती-रत्न हैं ।
पू. महासतीजी बाल्यावस्था से ही बड़ी भाग्यशालिनी और होनहार प्रतीत होती थीं। प्राप बचपन से ही धर्म संस्कारों से अोतप्रोत थीं। यौवनवय प्राप्त होने पर माता-पिता ने आपश्री को परिणय के बन्धन में बाँध दिया। विवाह के बाद आपने पतिव्रत धर्म, शान्त स्वभाव, कार्य कुशलता और सेवाभाव से ससुराल के सारे कुटुम्ब को थोड़े ही समय में अपने अनुकूल बना लिया। कुछ समय के पश्चात् क्रूर काल ने आपके पतिदेव को ग्रस लिया। आपको सारा संसार सूना दिखाई देने लगा। कौटुम्बिक सम्बन्ध प्रापको बन्धन रूप प्रतीत होने लगे।
आई घड़ी ।
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आपने दीक्षा लेने का संकल्प किया। संयोगवश पू. महा. परमसाधिका श्री सरदारकंवरजी म. सा.का सहयोग मिला। गुरुणी सा. की अमृतमयी वाणी ने आपके जीवन में नया स्वर फूंका। आपने पारिवारिक सदस्यों से दीक्षा की अनुमति मांगी। परिजनों को आपके वैराग्यमय जीवन से तसल्ली हो गई थी कि आपमें सच्चा वैराग्य है, अत: आपको आज्ञा मिल गई । ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूपी धर्म के पौधे को आपने सदैव आत्मसाधना से सींचा । जैनसमाज में आज आप एक आदर्श साध्वी रत्न कहलाती हैं। आप संयमपथ पर दिनोंदिन बढ़ते हुए जिनशासन की प्रभावना बढ़ा रहे हैं। प्रापका मनोबल अकथनीय है।
दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के इस शुभ अवसर पर मैं सश्रद्धा सभक्ति वन्दन एवं अभिनन्दन करती हूँ
तेरे चरणों में नित नत है, वैभव के अति ऊँचे क्षितिधर । "अर्चना" सतीवर चरणों में, अर्पित श्रद्धापुष्प प्रवर ॥ "अर्चना" नाम तथा गुण "अर्चना", कलिमय पंक विजित है। "अर्चना" सती चरणों में मेरा, शत-शत वन्दन समर्पित है।
महासती "अर्चनाजी' की अद्वितीय प्रतिमा, विनयशीलता, मधुर वाणी आदि
गुणों के समक्ष भावपूर्ण अभिव्यक्ति
जिओ हजारों साल
सरलहृदया शा० चं० गुरुणी सा. श्री झनकारकंवरजी म. सा. की प्रेरणा से
साध्वी आनन्दप्रभा 'साहित्यरत्न'
भारत की पावन धरती को अनेक संतों ने अपनी तपश्चर्या से सुशोभित किया है। ऐसे संत इतिहास के अभिन्न अंग हैं। भगवान महावीर स्वामी के तत्त्वदर्शन को अपने जीवन में चरितार्थ करने वाले साधु, साध्वियों की दीर्घकालीन परम्परा है। जैन सम्प्रदाय की प्रादर्श शृखला में परमविदुषी अध्यात्मयोगिनी, आदर्श त्यागी, अनुपम प्रवचनकार श्रमणी-रत्न श्रद्धेया श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' का जीवन भी विशिष्ट उपलब्धि है। आपका व्यक्तित्व चम्बक की तरह प्रभावशाली है । यही कारण है कि आपके पास पाने वाले सहज ही श्रद्धानत हो जाते हैं। आप में प्राणीमात्र के प्रति समभावी वात्सल्य की भावना है। मैं आपकी अद्वितीय प्रतिभा, विनयशीलता, सेवापरायणता, सुमधुर वाणी आदि गुणों से विशेष रूप से प्रभावित है।
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आपके दर्शन के साथ प्रवचन सुनने का सुखवसर भी मुझे कई बार मिला है। ग्रापके प्रवचन सरल, सुबोध एवं सरल भाषा में होते हैं । ग्रपनी पीयूष वाणी से जहाँ आप श्रोताओं को मुग्ध कर देती हैं, वहाँ आपकी शिष्याएँ भी प्रतिभासम्पन्न एवं सेवाभावी हैं, जिससे जैनशासन में श्रीवृद्धि हो रही है।
आप सागर के समान शांत एवं गंभीर हैं, जिस पर परिस्थितियों के ज्वारभाटे का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और जो कभी भी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता। सागर में इतनी विशालता होती है कि उसमें अनेक नदियों का पानी समाहित हो जाता है, वैसे ही आपके प्रवचनों में अनेक धर्मों के सद्गुण समाहित हैं। यही कारण है कि जैन-अर्जन सभी आपके विचारों से प्रभावित होते हैं।
श्राप दीक्षा के स्वर्णजयन्ती वर्ष में प्रवेश कर रहे है। समय के साथ-साथ आपका चिन्तन-मनन अधिक परिपक्व हो गया है और प्रापकी तपस्या भी प्रखरतर होती जा रही है। श्रापका पावन एवं यशस्वी जीवन संघ और समाज के लिए प्रेरणा का प्रक्षय स्रोत है ।
अंत में महासती 'अर्चनाजी' के विषय में इतना ही कहूँगी कि उनके महान गुणों को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, सौरभ की तरह केवल अनुभूत किया जा सकता है । मैं आपका अभिनन्दन करती हुई शासनदेव से प्रार्थना करती हूँ कि आप दीर्घायु हों और प्रापका भाशीर्वाद सभी के हृदय में ध्यान घोर तपश्चर्या का संचार करता रहे। पुनः
आप
जीओ हजारों साल, साल के दिन हो पचास हजार ॥
मंगल कामना कंवरलाल बेताला, गोहाटी
यह संसार परिवर्तनशील है। अनादिकाल से पदार्थों का स्वरूप बदलता रहता है। वहीं व्यक्ति बुद्धिमान् है, जो संसार की बदलती हुई स्थिति में अपने बाप को बदले और ऐसा बदले कि फिर बार-बार बदलने की जरूरत ही न पड़े। ऐसी महान साधना महान् आत्मायें ही कर सकती हैं।
समय-समय पर इस धरा धाम पर पुण्यात्माओं का प्रादुर्भाव होता रहा और वे अपने तपःपूत जीवन से जगत् के अज्ञानान्धकार में भटकते हुए प्राणियों को सुमार्ग बताते रहे हैं। उन्हीं की श्रृंखला में हमारे द्वेय पूज्य सद्गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" का नाम गौरव के साथ लिया जाता है ।
पूज्य गुरुदेव स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. एवं श्रमण संघीय युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. "मधुकर" के स्वर्गवास के पश्चात् हमें महासतीजी द्वारा जो दिशाबोध मिलता है, उससे हम पूज्य गुरुदेव के अपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने में सफलता की ओर अग्रसर
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हो रहे हैं। पूज्य गुरुणीजी म. सा. की प्राज्ञा एवं सुश्रावकों के प्राग्रह से आगम-प्रकाशन समिति एवं मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन समिति के अध्यक्ष पद पर आपके निर्देशन में ही कार्यरत हूँ। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपकी शुभ छत्र-छाया में हम प्रगतिपथ पर अग्रसर होते रहेंगे और आत्म-विकास, समाज-सुधार, साहित्य-सर्जन एवं मानव-सेवा आदि पुण्य एवं निर्जरा के उत्तम कार्य करते रहेंगे।
मुझे समय-समय पर एवं मीटिंगों के अवसर पर महासतीजी म. की सेवा में उपस्थित होने का अवसर मिलता रहता है। उनके साध्वाचार से तथा सरलता, विनम्रता, सहज, शुद्ध एवं मधुर व्यवहार से मैं बहुत ही प्रभावित हूँ। जब जब मैं सेवा में उपस्थित होता रहा हूँ, स्थानीय लोगों द्वारा उनके साधनामय जीवन की चमत्कारपूर्ण चर्चाएँ सुनता रहता हूँ। उनकी बातों पर विश्वास तो होता ही है किन्तु स्वयं का अनुभव विश्वास को और भी दृढ़ कर देता है।
१९८७ मार्च में मैं गुरुणीजी म. सा. के दर्शन हेतु नागदा पहुँचा । भावना सिर्फ एक ही दिन रहने की थी, किन्तु पूज्य गुरुणीजी म. सा. ने फरमाया, पाप ३० मार्च की टिकिट ही करवाइये । मेरी पत्नी भी साथ में थी। इतने समय मैं किसी साधु-संत के पास नहीं रहा। मुझे इन्कार करने में न जाने क्यों संकोच लगा। मैंने कहा-अच्छा, मैं २८ मार्च की टिकिट करवा लेता हूँ। मैंने अपने साथ वाले भाई श्री नरेशजी को टिकिट के लिए चित्तौड़ कार लेकर रवाना होने का कहा । वे खाचरौद स्टेशन होते हुए जा रहे थे । वहाँ (खाचरौद स्टेशन पर) तलाश करने पर ३० मार्च का टिकिट उपलब्ध था और अंत में हम ३० मार्च को ही रवाना हो सके।
सप्ताह भर विहार में भी साथ रहे । तब जो आध्यात्मिक प्रानन्द हमें प्राप्त हुआ, वह जीवनभर स्मरण रहेगा। ___ मैं अपने हृदय से यह चाहता हूँ कि मुझे पूज्य महासतीजी म. सा. के दर्शनों के साथ-साथ सेवा का लाभ भी मिलता रहे । परम श्रद्धेया महासतीजी म. सदा जन-जन द्वारा वन्दनीय एवं अभिनन्दनीय बनी रहें। आपकी साधना समीचीन रूप से चलती रहे, उत्तरोत्तर विकसित, समुन्नत एवं संवर्धित होती जाए। आप जन-जन को प्रतिबोधित करते हुए दीर्घकाल तक भारत की इस पुण्य धरा पर भगवान् महावीर का सन्देश दिग-दिगन्त तक प्रसारित करते रहें । मेरी, मेरे सभी पारिवारिक जनों की यही मंगल-कामना है।
सम्मानांजलि जेठमल चोरड़िया, बेंगलौर (नोखा)
इस विश्व रूपी बगीचे में नाना प्रकार के पेड़ पौधे उगते रहते हैं। कई फलवान होते हैं, कई फलवान होते हैं और कइयों पर शूल भी होते हैं। वे यथासमय विकसित होकर विनाश को भी प्राप्त हो जाते हैं। वस्तुओं का बनना और बिगड़ना यह अनादिकालीन रीति है।
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मानव की भी यही स्थिति है। वह सद्गुणों के सुन्दर फल-फूलों से युक्त भी होता है तो दुर्गुणों के शूल भी दूसरों को चुभाता रहता है । हम देखते हैं, वर्तमान में दोनों ही प्रकार के व्यक्ति हमें मिलते हैं। किन्तु सोचना यह है, हमारे लिए आदरणीय, वंदनीय, अर्चनीय, अभिनन्दनीय कौन हो सकते हैं ? इसका स्पष्ट उत्तर यही होगा कि जो हमें सद्गुणों की सौरभ लुटाते हैं, आत्मज्ञान का रसास्वादन कराते हैं ।
ऐसे ही प्रादर्श गुणों के धारकों में हमारे पूज्य गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. . "अर्चना" आते हैं। आपकी विशेषताओं के संबंध में बहुत कुछ जानते हुए भी उनका वर्णन करने में अपने प्रापको असमर्थ पाता है। केवल सिन्ध में बिन्द मात्र ही व्यक्त कर सकूँगा।
मेरे प्रति स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव शासनसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. एवं श्रमणसंघीय युवाचार्य, बहुश्रुत, पण्डितरत्न, मनीषिप्रवर श्री मिश्रीमलजी म. सा. की 'ब्रजमधुकर' की अत्यधिक कृपा थी। जब मर्जी होती, मैं सेवा में पहुँच जाया करता था। दुर्भाग्य से स्वामीजी म. सा. का धलिया में, युवाचार्यप्रवर का नासिक में आकस्मिक निधन हो जाने से मेरी स्थिति पर-कटे पक्षी जैसी हो गई । मैं मकान के ऊपर से नीचे तक पाने में भी अपने को असमर्थ पाता था। लेकिन पूज्य गुरुणीजी म. सा. की सेवा में मेरे बड़े भाई सा. श्री सायरमलजी लेकर आये । गुरुणीजी ने बड़ो आत्मीयता के साथ मुझे संसार की यथार्थ स्थिति समझाई और अपना मंगलपाठ सूनाया। मैं अपने आप में बहुत ही हलकापन महसूस करने लगा। अब मैं जिस प्रकार गुरु म. सा. की सेवा में पहुँचा करता था, उसी प्रकार समयसमय पर गुरुणीजी म. सा. की सेवा में पहुँच जाता है।
सन् १९८५ दिसम्बर में महासतीजी म. सा. इन्दौर स्नेहलतागंज में विराज रहे थे । उस समय मैं म. सा. के दर्शनार्थ पहँचा। मेरे से पहले ही माननीय पंडित शोभाचंद्रजी भारिल्ल, श्रीयुत डॉ. छगनलालजी शास्त्री एवं डॉ. तेजसिंहजी गौड़ वहाँ उपस्थित थे। प्रसंग चल रहा था साहित्य-प्रकाशन का। उसमें महाराज सा. श्री की विहार-यात्रा की पूर्व प्रकाशित पुस्तक "हिम और प्रातप" के दूसरे संस्करण के प्रकाशन की चर्चा थी। श्रीमान् डॉ. तेजसिंहजी गौड़ ने कहा कि इसके अतिरिक्त हम पूज्य महासतीजी म. सा. का अभिनन्दनग्रंथ भी क्यों न प्रकाशित करें। मैं तो पहले से ही चाहता था, लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। जैसे ही गौड़ सा. के विचार सुने तो वहाँ पर उपस्थित पंडितवर्ग, सतीमंडल-सभी ने एक ही स्वर में प्रसन्नतापूर्वक समर्थन दिया। भाई सा. श्रीमान् सायरमलजी, जो पूज्य गुरुदेव की एवं पूज्य गुरुणीजी म. सा. की अपूर्व सेवा करते रहे हैं और साध्वीजी श्री हेमप्रभाजी म. के संसारपक्षीय बड़े भ्राता भाई प्रेमचन्द ने भी पूरा समर्थन दिया। तभी से इस कार्य का शुभारंभ हुआ । मुझे हार्दिक संतोष एवं प्रसन्नता है कि विद्वद्वर्ग ने, सतीवन्द ने इस कार्य को प्रचुर बल दिया तथा श्रावकगण ने इस कार्य में तन-मन-धन से पूर्ण सहयोग किया।
मेरी यही हार्दिक आकांक्षा है, मंगल-कामना है, परम समादरणीया गुरुणीजी म. सा. की कृपा, शुभ दृष्टि एवं सात्त्विक स्नेह सदैव मुझे प्राप्त रहे, मेरे लिए दिशादीपक रहे ।
मुझे इस बात की और भी अधिक प्रसन्नता है कि पूज्य महासतीजी म. सा. की दीक्षा अपने पूज्य पिताश्री मांगीलालजी म. सा. के साथ मेरी जन्मभूमि नोखा चांदावतां में
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प्रातःस्मरणीय परमपूज्य स्वामोजी श्री हजारीमलजी म. सा. के करकमलों द्वारा महासतीजी श्रीसरदारकुंवरजी म. सा. के नेश्राय में संपन्न हुई।
महासतीजी म. सा. के गुण, विशेषताएं अपरिमित हैं, मैं उनका कहां तक वर्णन कर सकता हूँ। __मैं पूज्य महासतीजी म. सा. का शत-शत वन्दन, अभिनन्दन करता हया उनके दीर्घ जीवन की मंगल-कामना करता हूँ।
उदारहदया महासतीश्री
। हस्तीमल मुणोत यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के तितिक्षामय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण होने पर उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है।
मुझे आपके दर्शन करने का अनेकों बार मौका मिला है। मैंने आपको सदैव विनयशील एवं प्रसन्नचित्त पाया है। उदारता तो आपमें इतनी है जो अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिली। उदारता के इस जबर्दस्त गुण के कारण आप हर परिस्थिति में हर एक व्यक्ति की श्रद्धा का केन्द्र बन जाती हैं और जो एक बार आपके सम्पर्क में आता है वह जीवन भर आपका भक्त बनकर रह जाता है।
मैंने सुना और पढ़ा भी है कि जब समुद्रमंथन हुआ था तब विष निकला था और जनकल्याण को ध्यान में रखकर शिव ने वह गरल पान किया किंतु वर्तमान में मैंने स्वयं देखा है कि विगत कुछ वर्षों में इतनी विषम परिस्थितियां रहीं जिनका विवरण यहाँ देना विषयेतर होगा। इन कठिन परिस्थितियों में भी आप निश्चल, विनयी बनी रहीं, धैर्य धारण किये रहीं और सभी प्रकार की वाणी के प्रहारों को उदारतापूर्वक सुनती रहीं। इससे बढ़कर विषपान प्राधुनिक युग में और क्या हो सकता है। आपने भी जो जहर पीया है वह भी जनकल्याण की भावना को दृष्टिगत रखते हुए पीया है । उदारता की ऐसी महिमामय साध्वीरत्न हैं आप।
सभी जानते हैं कि मैं सदा घूमता रहता हूँ, सभी साधु साध्वियों की सेवा में जाता रहता हूँ। मैं जब भी आपकी सेवा में आता हूँ तो मुझे अनन्य शांति मिलती है। जो शांति मुझे आपके सान्निध्य में प्राप्त होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। एक बार आपकी सेवा में आने
के बाद फिर जाने की इच्छा नहीं होती, किन्तु यह संसारचक्र है, कई कार्य हमें मजबूर होकर . भी करने पड़ते हैं । बस, तो मुझे भी न चाहते हुए भी आपके पास से जाना ही पड़ता है।
इस अवसर पर मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ और आपके सुदीर्घ जीवन की कामना करता हूँ।
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एक विरल साधिका...
0 श्रीचन्द सुराना 'सरस'
"योगविद्या; जो कभी आत्मा को परमात्मा से मिलाने की साधना थी, वह आज ख्याति और सम्पत्ति बटोरने का व्यापार बन रही है, जो विद्या पत्थर को पारस बनाने की मनोरासायनिक प्रक्रिया सिखाती थी वह प्राज केवल पत्थर पर पालिश करने की कारीगरी के रूप प्रयुक्त हो रही है। यदि हमारी अध्यात्मिकता का, श्रेष्ठ विद्याओं का इसी प्रकार दुरुपयोग होता रहा तो एक दिन हम शून्य हो जायेंगे, आध्यात्मिकता खोखली हो जायेगी"-ये वेदना भरे विचार व्यक्त करती हैं-अध्यात्मसाधिका जैनसाध्वी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना'।
साध्वी श्री उमरावकंवर जी का सान्निध्य, सत्संग जोर विचारचर्चा ज्योति-स्पर्श जैसा है । जैसे गैस सिलेंडर खोलकर माचिस का हलका स्पर्श देते ही अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, ज्योति फैल जाती है, उसी प्रकार जब-जब पूज्य महासतीजी की वाणी मुखर होती है, अनुभूतियों की धारा उत्प्रवाहित होती है, तो ऐसा ही अनुभव होता है, कोई पालोक जगमगा रहा है, अनबुझे अजात रहस्य की परतें भेदकर साधना की सहज-उपलब्धियां रूपायित हो रही हैं।
__महासतीजी की तेजोदीप्त मुखमुद्रा ही यह साफ साफ विश्वास करा देती है कि यहाँ, इस मृण्मय देह में चिन्मय ज्योति जगमगा रही है, आलोक बाहर आने को ललक रहा है, साधना की विरल उपलब्धियाँ जैसे आँखों के झरोखों से बाहर झांक-झांक रही हैं-कुछ देने को, अन्तर-सागर में उच्छ्वसित उमियाँ किनारे खड़े दर्शक को अपनी शीतलता से प्राप्लावित कर देना चाहती हैं।
वे बहुत ही अल्प बोलती हैं, यं ऐसे साधकों को बोलने की जरूरत भी कम रहती है, उनका मौन ही प्रवचन है, समाधान है
गुरोस्तु मौनं व्याख्यातं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः । और जब भी बोलती हैं-शिष्ट , मिष्ट, इष्ट । उनका एक-एक शब्द बहुमोला मोती है जिसमें सुदीर्घ-साधना एवं योगाभ्यास जनित विशिष्ट उपलब्धियों की आभा चमकती रहती है।
मैं लगभग दो दशक से महासती जी के निकट संपर्क में हूँ । प्रारम्भ में उनको एक 'ज्ञानयोगी प्रात्मा' के रूप में ही जानता था। स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी की सेवा में जब-ज्ञब भी उपस्थित होता, प्राय: कुछ क्षणभर का उनका सत्संग भी उपलब्ध होता। युवाचार्य श्री जी का मुझपर अत्यन्त आत्मीय भाव था, इसलिए महासती जी का वात्सल्य भी सहज प्राप्त था। धीरे-धीरे उनका आत्मिक-नकट्य बढ़ता गया, महसूस होता गया। इस ज्ञानयोगी आत्मा में एक सिद्ध ध्यानयोगी प्रात्मा का भी स्वरूप निखरा हुमा है। उनकी साधना प्रचार से बहुत दूर है, आडम्बरों से मुक्त है । प्रदर्शन नाम से ही उन्हें भय है। फिर भी जो सम्पर्क में आता है, वह इस तेजस्विता का आभास पाये बिना कैसे रहेगा? क्या अग्निपंज के समीप पहँचकर
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उसकी उष्मा का और हिमालय के निकट पहुँचकर उसकी शीतलता का अनुभव किये बिना रह सकता है कोई ? अनेक साधक उनसे मार्गदर्शन लेने आते हैं, अनेक अपनी अनुभूतियाँ जताते हैं, उलझनों का समाधान लेते हैं, साधना की सहज विधि का अभ्यास भी करते हैं, किन्तु सब कुछ बहुत सहज ! बहुत ही स्वाभाविक ।
वर्तमान जैन समाज में, साधु वर्ग में भी ऐसे साधक बहुत कम मिलेंगे, पर साध्वी वर्ग में तो कोई दूसरी साधिका श्रमणी अभी तक मैंने नहीं देखी जिसमें ज्ञान एवं साधना का, श्रत एवं समाधि का इतना सूक्ष्म, गहन और समाजित संगम हया है। ऐसी विरल साधिका का युग युग तक वरद हस्त मिलता रहे यही मंगल भावना ।
भगवतीस्वरूपा 'अर्चना' जी
- गोविन्द प्रसाद कुकरेती, उज्जैन
श्रद्धेय महासती उमरावकंवरजी म. सा. का चातुर्मास गतवर्ष उज्जैन में था और इस समय मुझे उनके दर्शनलाभ का शुभ अवसर प्राप्त हुआ था। मेरी साधना से मुझे ऐसे संकेत मिले कि महासतीजी भगवती के स्वरूप हैं और मुझे मेरी साधना में शक्ति एवं पाशीर्वाद सदैव दे रही है । गत वर्ष मेरी नवरात्रि की कठिन साधना में मैंने इन्हीं माँ का आशीर्वाद लेकर साधना प्रारंभ की थी और साधना के अंतिम दिन मैंने इनका ही आशीर्वाद प्राप्त कर अपनी साधना पूर्ण की थी। यह महासतीजी मेरी साधना में मां भगवती की तरह मेरे साथ रहकर मुझे प्रेरणा एवं आशीर्वाद देती रहती हैं। इनकी साधना से मैं बहुत ही प्रभावित हुअा हूँ और मुझे बार-बार मेरे ध्यान में इनके संकेत आज भी प्राप्त होते रहते हैं। महासतीजी स्वयं में महान साधिका एवं उच्चकोटि की अध्यात्मयोगिनी हैं। विविध साधक इनकी अध्यात्म साधना के बारे में अलग-अलग प्रकार के जो अनुभव एवं मान्याताएँ सुनाते हैं उन सब के बारे में मैं अपने ध्यान योग के आधार पर यह कहने की स्थिति में हैं कि वे सब बातें पूर्णरूपेण सत्य हैं । महासतीजी की साधना हिमालय की तरह उच्च एवं गंगा की तरह पवित्र व करुणामय है और उनसे मैं स्वयं ही उपकृत हुया हूँ। महासतीजी की ५० वर्ष की घोर तपस्या अध्ययन एवं भ्रमण सम्पूर्ण मानवजाति के लिए एक धरोहर है। आप द्वारा लिखे गये ग्रन्थ सचमुच में स्वयं की साधना के विभिन्न रंगों एवं सुगन्धों के पुष्प हैं। इनका सादा जीवन एवं उच्च विचार तथा सतत साधना न सिर्फ गहस्थों के लिए बल्कि योगियों व साधकों के लिए भी अनुकरणीय है । जैन साधुसंतों की दिनचर्या एवं प्राचार-विचार ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया है और अब मेरी यह मान्यता दृढ हो गयी है कि अध्यात्मसाधना इस प्रकार के जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुषों की ही सफल हो सकती है। यह कांटों भरा रास्ता हर किसी के लिए सुगम्य नहीं है ।
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मैं धन्य हूँ कि मुझे ऐसी महान् अध्यात्मिक योगिनी के दर्शन का लाभ उज्जैन जैसे पुण्य क्षेत्र में मिला और इनके आशीर्वाद से मेरी साधना सफल व फलफल रही है। मैं
आपका अत्यंत ऋणी हूं और मेरे इष्ट भगवान् विक्रांत बाबा से यही बार-बार प्रार्थना करता हूँ कि महासतीजी का जीवन मेरे लिए तथा जनता जर्नादन के लिए हमेशा-हमेशा प्रेरणा दायक रहे।
पुनः महासतीजी को साष्टांग वंदना के साथ उनका शिष्य ।
वन्दना भी अभिनन्दन भी
। डॉ० तेजसिंह गौड़
सन १९८३ के माह मई का अंतिम सप्ताह था। उस समय (स्व.) युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. अपने शिष्य समुदाय के साथ रतलाम में विराजमान थे। एक दिन मैं उनके दर्शनार्थ रतलाम पहंचा और वहीं मैंने काश्मीरप्रचारिका अध्यात्मयोग-साधिका परमविदुषी, प्रवचनशिरोमणि, सरलहृदया, दया, क्षमा, करुणा, विनय की साक्षात् प्रतिमूर्ति महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना' के प्रथम बार दर्शन किये। आपके नाम से तो मैं परिचित था, प्रत्यक्ष दर्शन पाकर मैं अभिभूत हो उठा।
इसके पश्चात तो सम्पर्क का सिलसिला अनवरत बना हुआ है। आप स्वभाव से बहुत ही सहज एवं सरल हैं, विनय गुण तो आप में कट-कूट कर भरा हुअा है और वाणी संयम पर तो आपका पूर्ण अधिकार है। साधना की इस ऊँचाई पर और ज्ञान को इतनी गहराई तक पहुँचने पर भी मैंने आपके मुख से कभी ऐसे शब्द नहीं सुने जिन्हें गर्व की सीमा में रखा जा सके। आप अपने भक्तों की समस्याओं का सहज ही समाधान कर देती हैं और फिर उसका श्रेय अपने गुरु भावंतों को दे देती हैं।
एक समुदायविशेष की अनुयायी होते हुए भी आप किसी प्रकार के कदाग्रहों/पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं है। गुण/अच्छाई जहाँ से भी प्राप्त हो पाप ग्रहण कर लेती हैं, यही कारण है कि आप में समन्वय का एक और गुण भी विद्यमान है।
आपके साधनामय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। इस अवसर पर आपके परम पावन चरणों में अपनी कोटि-कोटि वन्दना प्रेषित करते हुए हार्दिक अभिनन्दन करता है और यही कामना करता हूँ कि आपकी कृपा सदैव बनी रहे।
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शत-शत अभिनन्दन
C. साध्वी मनोहर कंवर
परम सौभाग्य की बात है कि हमारे श्रमणसंघीय उ. प्र. शासनसेवी पूज्य स्वामी स्व. श्री श्री १००८ श्री ब्रजलालजी म. सा. बहश्रत पण्डितरत्न स्व. यूवाचार्य श्री श्री १००८ श्री मिश्रीमल जी म. सा. की अन्तेवासिनी सुशिष्या महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म. सा. के आध्यात्मिक जीवन के सम्मानार्थ जो अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है, वह जैनसमाज के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक विकासशील समाज के लिए गौरव का प्रतीक है।
'अर्चनाजी' की साधना और सेवा ऐसी उच्च है जिस पर कोई भी समाज गर्व कर सकता है। आपके जीवन का प्रत्येक पृष्ठ उतना उज्ज्वल है कि जो भी व्यक्ति आपके सम्पर्क में प्राता है आपके प्रति श्रद्धा से विनत हो उठता है। ___आप बोलते हैं तो मुस्कराते हुए ही बोलते हैं। आपके सामने आने वाला व्यक्ति भले ही क्रूर हो किन्तु अापके प्रवचन सुनते ही वह क्रूरता छोड़कर कोमल माखन की तरह बन जाता है । आपने अल्प समय में प्रागमों और अन्य ग्रन्थों का सम्पादन किया है और नवीन ज्ञान प्राप्ति में सतत यत्नशील रहती हैं। आप रत्नत्रय में अभिवृद्धि करते रहें और अपने विशुद्ध संयम जीवन से जनमानस को प्रभावित करते रहें यही मेरी शुभकामना है ।
इस अवसर पर मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करती हुई वीर प्रभु तथा पूज्य गुरुदेव शासनसेवी स्वर्गीय स्वामीजी श्री श्री ब्रजलाल जी म. सा., बहुश्रुत पण्डितरत्न आगम महारथी स्वर्गीय यूवाचार्य श्री श्री मिश्रीमलजी म. सा. (मधुकर) से यही कामना करती हैं कि आप अर्चनाजी म. सा. को आध्यात्मिकता का अमृत रस पान कराते हुए अमरत्व की ओर निरन्तर बढ़ते रहें।
'सजग प्रहरी हो शासन के तुम
स्वीकृत हो विधिवत् वंदन हषित मन से हम सब करते
आज आपका अभिनन्दन ।
नाम-स्मरण की महिमा
रामजीवन मिर्धा, कुचेरा
मृदुभाषी, सरलहृदया महासती श्री उमरावकं करजी म. सा. के दर्शन करने की बारबार इच्छा होती है। आपकी अमृतवाणी सुनने को सदैव लालसा बनी रहती है। ग्राप परमदयालु और कृपालु हैं। आपकी सेवा में आने पर प्रशांत मन भी शांति का अनुभव करने लगता है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि जब-जब भी मैं बेचैनी का अनुभव करता हूँ
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तब-तब ही मैं आपके नाम का स्मरण करने बैठ जाता है और थोड़ी ही देर में मुझे अपूर्व शांति और संतोष का अनुभव हो जाता है ।
आपने एक बार अपने भक्तों को चर्चा के समय बताया था कि पूरी श्रद्धा से पूज्य श्री जयमल जी म. सा. के नाम की माला फेरने से संकट दूर होते हैं, मन को शांति और संतोष मिलता है । यह मैंने आपके मुंह से सुना था। मैंने इस बात का परीक्षण करके देखा है। पूज्य जयमलजी म. सा. की माला फेरने से वास्तव में अपूर्व शांति का अनुभव तो होता ही है, मन में सदैव संतोष बना रहता है। अब मैं प्रतिदिन पूज्य श्री जयमलजी म. सा. के नाम की दो मालाएँ फेरता हूँ।
आपका हृदय करुणा, दया, उदारता प्रादि अनेक गुणों से भरा हुआ है। मैं तो एक अल्पबुद्धि व्यक्ति हूँ । प्रापके अनन्त गुणों को प्रकट करने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है। मैं और मेरा सम्पूर्ण परिवार यही कामना करता है कि आपका वरद हस्त सदैव हमारे ऊपर बना रहे और आपकी कृपा मिलती रहे। आप सदैव स्वस्थ रहकर सबका मार्गदर्शन करते रहें।
अर्चना अभिनन्दन 0 साध्वी बिन्दुप्रभा "विमला"
उमराव यशस्वी आप हो अहो अर्चना गुरुराज, धन्य दुवा पाकर तुम्हें सारा जनसमाज । अमर रहो अविचल रहो, बढ़े चलो अविराम, वंदन चरणों में सदा, स्वीकृत हो गुणधाम ॥
समय की शिला पर कुछ चित्र बराबर अपनी महत्त्वपूर्ण भूमि निर्वाहित करते हैं। जीवन के इन खट्टे-मीठे, चटपटे स्वाद भरे जीवन में कई क्षण ऐसे भी प्राते हैं जो युगों तक हमें कुछ न कुछ नया प्रेरक एवं वरेण्य तत्त्व दे जाते हैं।
परम पूज्या "अर्चना" जी स्वनिर्मित महानमात्मा है। आप श्री को किस नाम से अलंकृत करू ? ब्रह्मा कहूँ, पतितपावन कहूँ, ईश्वरीय संदेशवाहिका कहूँ, दैवी गुणों का विधान कहूँ, सत्य का पैगाम कहूँ, या साक्षात् धर्मावतार कहूँ।
सच में पाप श्री का जीवन अनुपम है। आप श्री ज्ञान दर्शन चारित्र की सच्ची पाराधिका हैं । आप जहाँ भी विराजती हैं, वहाँ पाप के चाहुँ ओर आनन्द प्रमोद के फव्वारे उड़ा करते हैं, आप अपने देह का कण-कण और जीवन का क्षण-क्षण जन-जन के श्रेय के लिए समपित कर रहे हैं, आपके ऐसे स्वार्पणमय महान् जीवन को देखकर अगरबत्ती व मोमबत्ती का स्मरण हो जाता है, जो कि अपने देह के कवर को जलाकर वातावरण को सुगंधित व सुरभित करती है, लगता है कवि की ये पंक्तियाँ आपको ही संकेत कर रही हो
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तुम जीवन की दीप शिखा हो,
जिसने केवल जलना जाना। तुम जलते दीपक की लौ हो,
जिसने जलने में सुख माना। आपका पवित्र जीवन त्याग तप का दिव्य भण्डार है । आपके अध्यात्म जीवन को यदि चन्दन वृक्ष की उपमा दें तो यह उचित प्रतीत होता है। जैसे चन्दन अपनी सुगन्ध बिखेरता है और पास में बैठने वालों को, हाथ में लेने वालों को सुगन्धित बना देता है ऐसे ही आप श्री के पवित्र चरणों में जो बैठता है, पापका सान्निध्य प्राप्त करता है, वह आपकी गुण-सम्पदा के सौरभ से सुरभित हो जाता है ।
हे अर्चनाश्री ! आपका आशीर्वाद व सान्निध्य हमेशा प्राप्त होता रहे, आप दीर्घायु हो, मार्ग-दर्शन देते रहें, इन्हीं मञ्जुल भावनागों के साथ........
यथा नाम तथा गुण
0 साध्वी तरुणप्रभा
चारों ओर फैले घने अन्धकार में जब कोई दीपक जल उठता है, तब अन्धकार दबे पाँव भागने लगता है और आलोक में प्रत्येक वर्ण और प्राकार स्पष्ट दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार से व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर जब कोई सन्त साधना-पथ पर चलने का निश्चय करता है तब अज्ञानरूपी अन्धकार दूर हो जाता है। पाँच दशक पूर्व एक युवा साध्वी श्री उमरावकंवरजी 'अर्जना' म. सा. ने भगवती दीक्षा अंगीकार कर संयम-पथ पर पाँव रखा था। आज वह इस पथ पर अनेक कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं। वस्तुतः अभिनन्दन से उनकी गरिमा इतनी नहीं बढ़ रही है जितनी गरिमा उनसे अभिनन्दन की बढ़ रही है।
आप पर 'यथा नाम तथा गुण' वाली कहावत चरितार्थ होती है। अर्चना शब्द का अर्थ है पूजा। आपश्री का जीवन पूजा के समान ही पवित्र, अलौकिक एवं जीवात्माओं को सहज आकर्षित करने वाला है। मैंने आपश्री का सर्वप्रथम दर्शन सम्वत् २०३४ में चांदावतों का नोखा ग्राम में किया था। आपके सान्निध्य में मैंने दिव्य-गुणों की सौरभ अनुभव की । प्रापका हृदय स्नेह और सद्भावना से ओतप्रोत है। आपके समक्ष बालक, युवक, वृद्ध सभी श्रद्धावश नतमस्तक हो जाते हैं। आप युवकों के लिए प्रेरणा, बच्चों के लिए वात्सल्य और वद्धों के लिए अपनत्व की प्रतिमूर्ति हैं। आप गूढ़ से गूढ़ दार्शनिक रहस्यों को भी जिस सरल ढंग से समझाती हैं वह प्रशंसनीय है।
मुझे आपके रूप में शील, क्षमा, सन्तोष और सेवाभाव की निर्मलज्योति का अभिनंदन करते हुए गर्व की अनुभूति हो रही है
वन्दनीय है साधना, वन्दनीय है ज्ञान । आत्म साधना से सदा मानव बना महान ॥
0
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अभिनन्दन की वेला में वंदन
0 कमला माता इन्दौर,
मैंने क्या पाया ?
सरलता ! सहजता ! स्नेहशीलता !
जहाँ वणं शुभ्र है तो हृदय में भी शुभ्रता है। ऐसे महान व्यक्तित्व श्रमणीरत्न महासतीजी उमरावकंवरजी 'अर्चना' म. सा. के दर्शनों का लाभ मुझे ब्यावर में प्राप्त हुआ। प्रथम दर्शनों की झलक ने मुझे इतना आनन्दित कर दिया कि समय की गति का भी ध्यान नहीं रहा । जिसके हृदय में करुणा का स्रोत्र बह रहा हो वहाँ अहिंसा की चर्चाओं को सहज स्थान मिल जाना कोई प्राश्चर्य नहीं। मैंने अपने अनुभव के आधार पर पू. महासतीजी के सम्मुख ऐसे व्यक्ति का उदाहरण रखा कि जिसका जीवन ही हिंसात्मक कार्यों में संलग्न था। कुसंगतियों के कारण मानव, दानव का रूप ले लेता है । पुनः दानव से मानव कैसे बने ये लोग, संक्षिप्त में पू. म. श्री को बताया । आपश्री ने बहुत ही प्रमोद भरी भावना व्यक्त की 'सच में मनुष्य धूल भरा हीरा है'। पू. महासतीजी से चर्चा करते हुए ऐसा अनुभव हो रहा था कि वर्षों से मुझे इस सान्निध्यता का लाभ मिल रहा है। आपकी सहज मुस्कान आगन्तुक को आकर्षित करे बगैर रहती ही नहीं। इतना विद्वत्ता भरा जीवन ! कई उक्तियों से भरी वक्तृत्वकला, तो साथ ही लेखनकला भी । गद्य पद्य में आपके द्वारा लिखित साहित्य भी प्राप्त होता है। विद्वत्ता के साथ-साथ आपकी साधना भी अविरत गति से चलती है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप चारों का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जहाँ तप है तो ज्ञान नहीं, और ज्ञान है तो चारित्र नहीं, लेकिन यहाँ तो चारों का समन्वय है। ध्यानसाधना भी आपकी अनुपम है। अापका दृढसंकल्पी जीवन है, इसकी झांकी हमें 'अग्निपथ' में देखने को मिलती है। इन्हें संकटों के प्रहार भी अपने कर्तव्यपथ से नहीं डिगा सके।
मैंने सोचा भी नहीं था कि इस महान विभूति के सान्निध्य में चर्चा के लिए इतना समय मिल पायेगा लेकिन यह क्या ! मुझे तो प्रथम दर्शन ही आत्मीयता भरे प्राप्त हुए। बहुत आनन्द प्राया, आपश्री के सान्निध्य में । जहाँ जीवन में सहजता है, वहाँ ही गुणों की झांकियां भी प्राप्त होती हैं।
___इस महान विभूति को साधना मार्ग पर चलते हुए अर्द्ध शताब्दी पूर्ण होने जा रही है। साधना का पालोक स्वयं को तो प्रकाशित करता ही है, लेकिन अनेक भव्य-प्रात्मानों के जीवन को भी प्रकाशित करता है।
इस अानन्दमयी अभिनन्दन की शुभ वेला पर शत-शत वन्दन; अभिनन्दन!
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साधना के सफल पचास वर्ष । फकीरचन्द मेहता, सौ० पारसरानी मेहता
जब साधना की डगर पर साधक अपने चरण बढ़ा देता है, दढ़ संकल्प, असीम प्रास्था और तपश्चर्या रूपी उत्सर्ग के प्रति गहन निष्ठा से वैराग्य की ओर उन्मुख होता है। उस दीक्षा को वरण करता है, जिसे सिद्ध पुरुषों ने, तीर्थंकरों ने, त्यागियों ने अपनाया। उसी दिन क्या ! उसी क्षण से ही वह व्यक्ति, वह मानस चाहे वह महिला हो, चाहे पुरुष, जन-२ के लिए प्रेरणास्रोत बन जाता है और संसार के लिए वंदनीय, पूज्यनीय एवं अभिनन्दनीय हो जाता है।
इस प्रकार महासती श्री उमरावकंवरजी की साधना के सुदीर्घ पचास वर्ष की सार्थकता को शब्दों में बाँधना संभव नहीं है।
मध्यात्मयोगिनी महासती उमरावकंवरजी 'अर्चना' परम विदुषी तो हैं ही, अनेक ग्रन्थों की रचना करके, अपने सारगभित व्याख्यानों द्वारा लोगों के मानस में सद्विचार और सदगुणों के दीप भी जलाये हैं। अभी-२ अपने उज्जैन वर्षावास के दौरान लगभग दोसौ बाल उपयोगी निबन्ध व कहानियां लिखी हैं। जो छोटे हों या बड़े, सबके लिये समान रूप से उपयोगी हैं।
परन्तु उनकी सबसे अधिक विशेषता जिसने प्रभावित किया है, वह यह कि उनकी सौम्यता और शालीनता कभी खंडित होते नहीं देखी। वे स्वयं उच्च कोटि की साधिका तो हैं ही परन्तु अन्य साधकगण चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के हों, वे सम्पूर्ण आदरभाव से उनसे चर्चा के लिए तत्पर रहती हैं। उनकी यह जिज्ञासु और सत्यशोधक वृत्ति उनके हृदय की उदारता और विशालता का दिग्दर्शन कराती है। जो भी उनके सान्निध्य में, सत्संग में निकट पाता है, उनकी छाप गहरी होती जाती है ।
जिस प्रकार ब्राह्मी और सुन्दरी दो नाम साथ-साथ ही जिह्वा पर पाते हैं, वैसे ही घोर तपस्विनी, शांतस्वभावो महासती श्री उम्मेदकुंवरजी आपकी ऐसी प्रतिछाया हैं कि 'अर्चनाजी' के स्मरण के साथ उनका स्मरण अवश्य ही आता है। श्री उमरावकंवरजी म. का वात्सल्यपूर्ण प्रभामण्डल अपनी शिष्या परिवार को आच्छादित किये रहता है और उस आभा से प्रकाश पाकर साध्वी सुप्रभाजी व अन्य सतीमंडल अपनी शिक्षा और साधना में उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है।
महासतीजी के अपरोक्ष प्रभाव का एक चित्रण है, कि इन्दौर नगर में आपका चातुर्मास तय हुआ।
इन्दौर नगर के अब तक के इतिहास में 'महावीर भवन' में ठहरकर किसी भी साध्वी समुदाय का चातुर्मास नहीं हुआ था। परन्तु इसे एक अद्भुत योग कहेंगे कि वह दुविधापूर्ण
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प्रकरण इस सहजता से सम्पन्न हुना कि वर्षावास में अपनी शिष्या परिवार सहित आप वहाँ विराजीं। दिवंगत युवाचार्य श्री मधुकर मुनि श्री मिश्रीलालजी म. की प्रमुख शिष्या हैं ।
आपके गुणों की सौरभ काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के हर प्रदेश को सुवासित कर रही है।
हम दम्पत्ति की शत-शत भावांजलि व नमन आपके चरणों में स्वीकृत हो ।
शत-शत नमन । जवाहरलाल मुणोत, अमरावती
जिन सम्यक्-त्रयी की मूर्तिमान प्रतीक प्रखर-तपःपूत श्रमणी महासतीजी की महिमा की गरिमा से समस्त जैनजगत और भारत का प्राध्यात्मिक विश्व प्रकाशित है-उनकी लोककल्याणमयी दीक्षा के स्वर्णजयन्ती के पावन अवसर पर वन्दन और अभिनन्दन के अभियोजन को शत-शत नमन और अभिवादन !
ऐसी यूग संवाहक श्रमण-श्रमणी के सम्मान के क्षण स्वयं हम श्राविकाओं और श्रावकों के कर्म-क्षारण का सफल पल होता है, क्योंकि इस प्रयोजन से हम अपनी निष्ठा, आचरण और अनवरत अभ्यास से निरन्तर धर्मसाधना को सुगठित करते हैं। इसलिये, यह प्रायोजन श्रावकश्राविका संघ और उनके सीमित संसार के लिये बहुत मूल्यवान प्रेरणा और अत्यन्त उपयोगी अध्यवसाय है।
शायद सतही तौर पर यह महसूस हो कि उत्तम श्रमण अथवा श्रमणी की साधना की चरम अनुभूति आत्म-कल्याण का वातायन अनावृत कर रहा है। परन्तु सचाई यही है कि ऐसे अध्यात्मजीवी सन्तों महासतियों के लिये प्रात्म-कल्याण समग्र लोक-कल्याण का पर्याय बन जाता है। इसलिये जैनधर्म एकाकी, संकीर्ण अथवा प्रात्म-केन्द्रित नहीं, यह तो समस्त जीव-जगत और उसके सिरमौर मानव के आध्यात्मिक कल्याण का सर्वोत्तम सोपान है।
प्रार्थना है कि यह ग्रन्थ, केवल शोभा की वस्तु न रह कर सतत लोक-जागरण, प्रेरणा और आत्म-शुद्धि के स्वाध्याय तप का उपादान बने और अपनी प्रतिभा से चतुर्विध संघ को परिप्लावित करे ! शुभ कामनाओं के साथ
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दैविक गुणों से युक्त साधिका
0जतनराज मेहता
जैनजगत की यशस्वी सतियों में महासतीजी श्री उमरावकंवरजी अर्चना का स्थान प्रथम कोटि की सतियों में आता है।
आपश्री का गम्भीर ज्ञान, अगाध श्रद्धा, गहन साधना, प्रभुभक्ति में तन्मयता, शान्त व सौम्य मुद्रा, एक चित्ताकर्षक व्यक्तित्व का अनूठा संगम है ।
जो भी धर्म प्रिय जिज्ञासु बन्धु प्रापश्री के सान्निध्य में आता है, विभोर हो उठता है, समर्पित हो जाता है एक दैविक व्यक्तित्व को । ___ गुणों के धाम, आत्माभिराम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र-रत्नत्रय का संगम, साधनाशील व्यक्तित्व सभी कुछ तो मिल जाता है प्रापश्री के व्यक्तित्व में ।
ध्यान के अभिनव प्रयोग, नित नतन प्रकाशमणियों का गुम्फन, अन्तराल में छिपे मणिमुक्तारूपी नवचिन्तन की कणिकाएं आपके व्यक्तित्त्व को विराट बना देती हैं ।
साथ ही वाग्देवी सरस्वती के आशीर्वाद से उत्तम शब्दरचना, आकर्षक व्याख्यानशैली, प्रोजस्वी व मृदुवाणी सुन कर श्रोता प्रात्मविभोर हो उठते हैं।
ऐसे दैविक गुणों से युक्त, प्रात्मपथ की पथिका, अध्यात्मसाधिका-शत-शत चिरायु हों।
अर्चनाभिनन्दन ] कोकिला भारतीय
विश्व के प्रांगण में कभी-कभी ऐसे व्यक्तित्व का उदय होता है जिसका जीवन अनेकों के लिए प्रेरणादायी होता है। जिनकी वाणी में धर्म और दर्शन आकार लेते हैं, जिनकी कथनी और करनी में समानता होती है एवं जिनका जीवन ज्ञान, साधना एवं कर्म की एक प्रयोगशाला होती है, ऐसे कषाय-विजेता व्यक्तित्वों की सतत प्रात्म-लक्षी जीवनसाधना एवं प्रतिपादित मूल्यों के द्वारा ही मानवता तथा नैतिकता ने, आध्यात्मिकता तथा साधना ने जीवन प्राप्त किया है।
इसी परम्परा की मणिमुक्ता की एक दिव्य कड़ी हैं-महासती श्री उमरावकंवरजी । - 'अर्चना' । जिनके दर्शनाभिनन्दन का सौभाग्य मुझे प्रापश्री के खाचरौद चातुर्मास में मिला ।
ऐसा लगा जैसे परिचय प्रथम नहीं वरन अत्यन्त पुराना है, प्रगाढ़ है। ज्यों-ज्यों सम्पर्क के | आई घड़ी अवसर बढ़े, एक बहुमुखी व्यक्तित्व की छवि प्रतिपल स्मृतिपटल पर अंकित होने लगी।
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जिस कोण से दृष्टिपात किया-नया आयाम उभरा-कोण बदला-पायाम की छवि बदली। यही तो विशेषता होती है 'बहमुखी' व्यक्तित्व की। प्रत्येक दिशा में भिन्न छवि का प्रायाम प्रक्षेपित होता है। यही नहीं कोणीय बिन्दु का घुमाव वत्तीय होता है । न कोणों की गणना हो सकती है न ही आयामों को संख्या में बांधा जा सकता है। श्रद्धेय महासतीजी 'अर्चना' का मान्य-गम्य एवं गण्य व्यक्तित्व श्री-साधना की धुरी पर स्थिर होकर इन्द्रधनुषी रंगों की छटा बिखेर रहा है, अनेकानेक आयामों का निर्माण कर रहा है। प्रतिपल की। कर्मठता उनकी चर्या है, आध्यात्मिकता एवं साधना-उनकी अर्चना है, लोक-कल्याण उनकी नीति है, सर्व का शुभ-चिन्तन उनका संस्कार है तथा प्रात्मोत्थान उनके हृदय की झंकार है। उनके जीवन से प्रणीत यह सफलता शिखर ! जैन-गगन में कितनी ऊँचाई तक उन्नत होगा? कोई नहीं जानता, किन्तु यह तो सर्वविदित है कि आगामी पीढ़ियाँ इसके मूल्यांकन की शब्द पंक्तियां रंजित करेंगी। कहीं पढ़ा था
सब की पीड़ा के साथ व्यथा, जो अपने मन की जोड़ सके। मुड़ सके जहाँ तक समय उसे, निर्दिष्ट दिशा तक मोड़ सके । युग पुरुष वही सारे समाज का, विहित धर्मगुरु होता है।
सबके मन का जो अन्धकार, अपने प्रकाश से धोता है। पूज्य महासतीजी भी एक ज्योतिर्पज हैं-जिनके जीवन का अवलोकन और व्यक्तित्व का विश्लेषण अपने आप में युग की कहानी का सृजन है। सरल हृदय, सादगीपूर्ण जीवन, जैन संस्कृति द्वारा उपदिष्ट पंच-महाव्रतों का सम्पूर्ण पालन, निष्कपट सेवाबोध, मृदु व्यवहार एवं साधना-निष्ठता प्रापकी 'व्यक्तिगत विशिष्टताएँ हैं। दोनों के लिए अनुकम्पाभाव, निराश उदासीन जीवन के लिए प्राशा-किरण, युवाओं को सदैव संरत-सक्रिय रहने का परामर्श, संघ-+-समाज+राष्ट्र की विकासशील प्रतिश्रुतियों से सुसज्जता, संस्थागत प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन तथा संगठन+सम्प+सहयोग के स्वर्णसूत्र का संचरण आपके 'सामाजिक व्यक्तित्त्व के रजत गुण है। शिष्या-समुदाय को आत्मविकास का मार्ग-दर्शन, भव्यात्मानों की शक्तियों का उत्तम विनियोजन (पारखी जौहरी की तरह), संवेगवर्धक प्रवचनों का प्रस्फुरण, मानवीय मूल्यों का निरपेक्ष स्थापन तथा अलौकिक साधनारतता आपके 'आध्यात्मिक' व्यक्तित्त्व की सफलताएँ हैं । राष्ट्रहित को सर्वोपरिता धर्मनिरपेक्षता (जैन अजैन सभी को उद्बोधन देना) योग के लिए उपदेश, सिलाई केन्द्र, वृद्ध सहायता केन्द्र, विधवा सहायता केन्द्र, अस्पताल आदि का निर्माण एवं प्रेरणा तथा निर्धनों के प्रति विशिष्ट अनुरागभाव एवं स्नेहसिंचन आपके व्यक्तित्व के 'राष्ट्रीयस्वरूप' को उजागर करते हैं। आपश्री शब्द हैं, शब्द की प्रयोजिका शिल्पी हैं, अपनी अभिव्यञ्जनाओं को गद्य-पद्य तथा साहित्य की अन्य विधानों में ढालने में सिद्धहस्त हैइसीलिए तो 'अर्चना' हैं । जैन आगम साहित्य के प्रकाशन की बागडोर को सम्हाल कर अमूल्य साहित्यिक योगदान आपश्री के 'साहित्यिक व्यक्तित्व' का साकार प्रतिबिम्ब है। यही नहीं व्यवहार की कुशलता तथा स्वभाव की परिपक्वता आपश्री के जीवन की सम्पूर्णता है।
ऐसे सर्व दिशाई क्षमतामों से समृद्ध विराट व्यक्तित्व का मन का हर कण इन शब्दों में अभिनन्दन करता है
आई घडी
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"शाश्वत सुख की महाप्रणेता,
__ महासती 'उमराव' तुम्हें। प्राणिमात्र की ज्योतिपुज,
हे धीर, वीर, गम्भीर तुम्हें । तप जप संयम की सूत्रकार,
हे करुणा की दीप तुम्हें। मन के, तन के हर कण से,
शत-शत वन्दन शत अभिनन्दन । प्रापश्री के चारित्र जीवन के अर्द्धशताब्दी वर्ष के अवसर पर हार्दिक शुभ-कामना करती हैं कि प्रापश्री का स्वस्थ, सफल एवं सुदीर्घजीवन जैन-समुदाय एवं मानव-समुदाय को सदैव प्रेरणापुञ्ज बनकर ऊर्जाएँ प्रदान करता रहेगा।
मानवता के आकाशदीप का अभिनन्दन
0 अमरचन्द मोदी (ब्यावर) भारत विविध संस्कृतियों की निर्माण भूमि है। संस्कृति यानी मानवीय चेतना के ऊर्वीकरण का दुन्दुभिनाद करने का गौरव इसी भूमि को प्राप्त है। फिर भी भारतीय संस्कृति के वैदिक भेद ने वर्ण, जाति, लिंग, वेष आदि प्रकारों की परिधि में स्वयं को परिपुष्टित करके मानव-मानव में अनेक अनचाही विषमताओं को जन्म दिया। प्रात्मोत्कर्ष के अवसरों को व्यक्तिविशेषों तक सीमित कर दिया। बौद्धपरम्परा को भी कुछ इसी तरह की मर्यादा है। उसमें भी वर्ण-जातिकृत विशेषताएँ नहीं हैं। जन्म के बजाय कर्म को प्रधानता देकर व्यक्ति-विकास के अवसर दिये हैं लेकिन पुरुष और स्त्री का भेद करके पुरुष-वर्ग तक ही उसका क्षेत्र है। लेकिन जैनधारा ने इन सबको उपेक्षणीय और हेय बताकर स्त्री-पुरुष को समान रूप से भौतिक, प्राध्यात्मिक स्वोदय करने की उद्घोषणा की। यही कारण है कि जैन धारा के इतिहासपृष्ठों में अध्यात्मसाधक स्त्रियों की श्रमणी साध्वी के रूप में गौरव गाथायें अंकित हैं ।
सुदूर अतीतकाल में महासती चन्दनबाला से प्रारम्भ हुई माध्वी-परम्परा प्रवहमान है। अत्यन्त प्रोजस्वी, तेजस्वी, यशस्वी, वचस्वी विदुषी साध्वियों की गाथायें हमारी मन-मंजूषाओं में सुरक्षित हैं । जिनका स्मरण कर हम हर्ष-विभोर हो जाते हैं ।
ऐसा ही एक पुण्यावसर आज हमें प्राप्त है और इसकी केन्द्र है अध्यात्मयोगिनी, विदुषी साध्वीरत्न उमरावकंवरजी 'अर्चना' ।
हम आपकी दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती जैसे महनीय प्रसंग पर शत-शत वन्दन अभिनन्दन करते हैं। आपकी विश्रत साधना, आराधना मानवमात्र के लिए आकाशदीप की तरह पथ-प्रदर्शक, प्रभावक हो । इस भावना के साथ पुनः पुनः श्रद्धावनत हो अपने को गौरवशाली मानते हैं।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड | ३९
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
शुभाभिशंसन सौभाग्यमलजी श्रीश्रीमाल ( जयपुर )
परम श्रद्धास्पद महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म. सा. की सेवा में उपस्थित होने और उनके अमृतोपम वचन श्रवण करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका, पर त्यागी महापुरुषों के परिवार में जन्म लेने वाली महिमामयी साक्षात् देवीरूपा सतीजी का अप्रत्यक्ष प्रभाव मुझ पर पड़ा है । उनके दोर्घकालीन संयमित जीवन की श्रद्धं शताब्दी के पूर्ण होने के अवसर पर उनके द्वारा किये गये प्रेरणादायी उपकारों, प्रवचनों एवं प्राणीमात्र के उद्धार के लिए किये गये सत्प्रयत्नों का स्मरण किया जाना हमारे जीवन को सही दिशा देने में बहुत महत्त्व रखता है। आदर्श स्वागियों का जीवन सबको सदैव प्रेरणा देता रहा है।
दर्शन, साहित्य एवं विभिन्न भाषाओं का गंभीर अध्ययन, योगाभ्यास व यम-नियम का कठोर पालन एवं इसके अतिरिक्त त्यागी - जीवन की कठिनाइयों को झेलते हुए दूर-दूर स्थानों पर पैदल यात्रा करके पहुँचना और इस प्रकार धर्म का संदेश घर पर पहुँचाने का काम इन जैसी विभूतियों के द्वारा ही संभव हो सका है।
मन की सरलता, करुणा भावना, दृढ़ और अडिग मनोबल और अप्रतिम साहस और निडरता इनकी अनोखी देन है। जिनका सदैव स्मरण कर अनुपालन करने का प्रयत्न करना चाहिए । ऐसी महान् ग्रात्मा की धनी, श्रद्धास्पद महासतीजी को मैं शत शत नमन करता हूँ और उनके अभिनन्दन के अवसर पर अपने श्रद्धा सुमन प्रेषित करने में अपने को भाग्यशाली मानता हूँ ।
उनका प्रतापी जीवन लोक-कल्याण के मार्ग पर सदैव अग्रसर होता रहे और जन-जन के जीवन को अनुप्राणित एवं क्रियाशील बनाता रहे, इस पुनीत भावना के साथ मेरा
सादर वन्दन ।
वंदन शत बार [] चंदनमल 'चांद'
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि महासती श्री उमरावकुंवरजी "अर्चना" की दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के अवसर पर उनके व्यक्तित्व एवं साधना पर आधारित अभिनन्दन ग्रन्य प्रकाशित किया जा रहा है । महासतीजी से निकट सम्पर्क कम रहा है किन्तु जब कभी उनके दर्शन करने के अवसर मिले उनका वात्सल्य एवम् स्नेह हृदय को प्रेरणा देनेवाला सिद्ध हुआ । साधना की उपलब्धि सरलता एवम् विनम्रता में है। ज्ञान का प्रालोक तभी शोभा देता है जब उसमें अहंकार की कालिमा नहीं रहे महासतीजी जितनी विदुषी हैं उससे अधिक विनम्र और जितनी महान साधिका हैं उतनी ही सरल और विनम्र हैं।
दीक्षा - स्वर्णजयन्ती के अभिनन्दनग्रन्थ में अपनी भावपूर्ण वन्दना और अभिवन्दना अर्पित करता हूँ।
अर्चनार्चन / ४०
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अनासक्त साधक ही संसार को सुवासित
करता है 10 हरसुख शास्त्री, साहित्याचार्य (जोधपुर)
साधु-साध्वी समुदाय किसी एक राष्ट्र, एक प्रान्त, एक जाति की सम्पत्ति नहीं अपितु वह विश्व की अमूल्य सम्पदा होता है। वैसे श्रद्धया साध्वी 'अर्चनाजी' जैनजगत की अद्वितीय साध्वीरत्न हैं परन्तु आपका मौलिक चिन्तन और सौम्य व्यवहार विराटरूपेण सबके लिए समभाव से अनुकरणीय है। अापके व्यक्तित्व में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का मूर्तिमान् स्वरूप निखर उठा है।
आपकी पीयूषवर्षिणी वाणी में तथा आपके साहित्य में प्रात्मवत्सर्वभूतेषु की भावना साकार दृष्टिगोचर होती है। आपके पावन जीवन में 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की उदात्त-भावना सार्थक हुई है। जो भी अापके सम्पर्क में आता है, वह आपके प्रति श्रद्धाभाव रखकर गौरव का अनुभव करता है।
चिरकाल से प्रापसे मेरा आध्यात्मिक सम्बन्ध है । मैंने आपके व्यक्तिव में विराटप के ही पावन दर्शन किये हैं। प्रापकी वाणी सहज ही हृदयस्पशिनी है और व्यवहार में अतिशय दक्षता है, साधु-जीवन की आदर्श मर्यादाएँ हैं, अपनी शिष्यानों के साथ स्नेहिल गुरुता वस्तुतः प्रशंसनीय है।
आपके जीवन के प्रादर्श क्रिया-कलाप से मदीय अन्तर्जगत को असीम प्रेरणा प्राप्त होती रही है। यह सत्य है कि अन्तर्मुखी विकास के पथ पर प्रारूढ भव्य-विभूतियां, साधना के चरम लक्ष्य को उपलब्ध कर अपने जीवन को सफल करती हैं पर उनका सान्निध्य प्राप्त करने वाले सज्जन भी उनके जीवन से महती प्रेरणा लेकर धन्य हो जाते हैं। आपकी सुसङ्गति पानेवाले भी आत्मतत्त्व के सुपात्र हो जाते हैं । आपका जीवन सदा सर्वभूतहिताय रहा है । 'सर्वभूतहितः साधुः' सब प्राणियों के हितकारी होना साधु-जीवन की विशेषता है।
भारतीयदर्शन के अनुसार चतुर्वर्ग की प्राप्ति के लिए मानव जन्म मिला है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-ये चतुर्वर्ग हैं पर प्राज का अधिकांश मानव धर्म-मोक्षरूपी (ग्रादि अन्त) पुरुषार्थ भूलकर अर्थ-काम की क्षुधा बढ़ाने में संलग्न है। उसके लिए आपकी अपरिग्रह की विवेचना धर्म-मोक्ष की ओर उन्मुख करनेवाली होती है। धर्म के प्राचरण के बिना मोक्ष कदापि संभव नहीं है। अर्थ-काम भी धर्म से अोतप्रोत बनें, यही हमारे भारतीय ऋषि-मुनियों का उद्घोष था । आज के इस भौतिक युग में धर्म की महत्ता समझने की नितान्त आवश्यकता है।
पाप प्रवचनों के माध्यम से सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन, सम्यकचारित्र की विस्तृत विवेचना करके जनमानस में धर्म की भावना जगाने का भरसक प्रयास करती हैं, अतः प्रापका एतद्विषयक प्रयास स्तुत्य है ।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / ४१
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
विशेषणा, लोकंषणा प्रादि समस्त एषणाओं के कर्दम से मुक्त होना ही मुक्ति पथ है । जिसकी आप प्रसङ्गानुसार स्पष्ट व्याख्या करती हैं। आपकी प्रवचनशैली प्रभावोत्पादक और हृदयंगम है । जिसने एक बार भी आपकी पीयूषवाणी श्रवण की, वह तो श्रापके वचनामृत - पान करना ही चाहेगा - यही व्याख्यानपद्धति की विशेषता है। किसी भी गंभीर विषय को रोचक बनाकर जन-मानस तक पहुँचाने की कला, आपके प्रवचन शैली की अद्वितीय विशेषता है । कि बहुना ! आपने साधनामय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण किये हैं, लोक जागरण का शंखनाद करके भारतीय जनता को सत्पथ पर प्रारूढ करने का श्रेय प्राप्त किया है। यह सीम प्रमोदास्पद वृत्त है।
मैं परमविदुषी साध्वी उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चनाजी' का हार्दिक अभिनन्दन करता हे कि वे मानव-धर्म का प्रचार व प्रसार करने में सदा सक्षम रहें और प्रापके जीवनकमल के शतदल विकसित हों, जिससे सभी जन समाज सुवासित हो-यही मेरी परमप्रभु से प्रार्थना है।
O
मंगल कामना
विमलकुमार चौधरी, खाचरौद
२५०० वर्ष पूर्व महावीर ने एक सार्थक व सामयिक संघर्ष का नेतृत्व किया था । धर्म को कर्मकाण्ड, प्रन्याय और असहिष्णुता की कारा से मुक्त कराकर जनोन्मुखी ब व्यवस्थोन्मुखी बनाने के लिये महावीर को प्राशातीत सफलता मिली- श्राज फिर २०वीं शताब्दी का समापनकाल धर्म के विद्रोही मिजाज और असहिष्णु स्वरूप से सहमा हुआ महावीर की क्रान्ति के बीज ढूंढ रहा है-शताब्दियों से यह खोज जारी है। इसी खोज ने धरती पर अनेक रत्न बिखेरे हैं, जिनमें परम विदुषी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. भी हैं, जिन्होंने धर्म को मनुष्य के उज्ज्वल प्राचरण का अंग माना है— राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना की पृष्ठभूमि पर उन्होंने जैन- चिन्तन को बड़ी सहज, सरल और प्रभावपूर्ण वाणी से नये आयाम दिये हैं ।
श्राधी सदी की कठोर साधना कसौटी पर टिकी-सजी उनकी दीक्षा स्वर्णजयन्ति लोककल्याणकारी हो—यही मंगल कामना है।
अर्चना / ४२
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विरल विभूति
महासती श्री उमरावकंवरजो 'अर्चना' के बारे में अाज तक सैकड़ों विद्वान् इतना कुछ कह व लिख चुके हैं कि आपके बारे में कुछ कहना या लिखना मेरे शब्दों या भाषा की सीमा से बाहर का काम है। तथापि मेरे मत में आपकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि और विशिष्टता ALL IN ONE होने की है। जनसाधुनों का इतिहास ऐसी महान् विभूतियों से भरा-पूरा है जो त्याग, तपस्या, संयम, योग एवं ज्ञान-साधना, साहित्यसृजन, उपदेश (प्रवचन), श्रावकों से तर्क, धर्म व ज्ञान की त्रिवेणी पर आधारित चर्चा एवं वार्तालाप, साधु-संस्थानों की संगठन व नेतृत्व क्षमता, दुःखी एवं पीड़ित जीव मात्र के प्रति असीम दया भावना, अपने शिष्य-शिष्याओं के प्रति समभाव और उनको आत्मोन्नति के मार्ग पर निरन्तर बढ़ाते रहने की प्रयत्नशीलता, ध्यान, धर्म एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार की सक्रिय उत्कंठा, मिलनसारितापूर्ण मधुर एवं प्रानन्दपूर्ण व्यवहार-कूशलता, आदि अनेक संस्थागत गुणों में से एक या एकाधिक गुणों के धारक रहे हैं। किन्तु ऐसे सन्त-सतियांजी विरले ही हए हैं और होंगे जो प्रायः इन सब गुणों को एक साथ प्रात्मसात किये हए हों। संपूर्ण जैन समाज को इस बात का गर्व होना स्वाभाविक ही है कि आप ऐसी विरल विभूतियों में से एक हैं।
-कनकमन जैन, जावरा
पर-कल्याण के लिये समर्पित व्यक्तित्व
फूलों-सा माधुर्य, फलों-सी मिठास, हिमालय-सी ऊंचाई, समुद्र-सी गहराई, धरती-सी सहनशीलता, यह सब प्रत्येक मानव में पाना महादुर्लभ है। परन्तु इस धरा पर जिन-शासन की शृगार, जियो और जीने दो को प्रचारिका, श्रद्धया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. में यह सब एक स्थान पर ही पाया जाता है और जब यह सभी गुण एक स्थान पर केन्द्रित होकर अपना प्रादुर्भाव प्रकट करते हैं तो वह मनुष्य मनुष्यत्व ही नहीं देवत्व को पा लेता है, फिर वह किसी एक पराधि का, किसी एक उपाधि का, किसी एक समाज और सम्प्रदाय का नहीं बल्कि वह सम्पूर्ण सृष्टि का हो जाता है । मनुष्य तो मनुष्य, पशु और पक्षी भी उस पर अपना अधिकार मानते हैं। आज यही कारण है कि "पूज्याश्री" भारत के भूमण्डल की होकर रह गई हैं। प्रापका विहार क्षेत्र अति विस्तृत रहा है।
जिस प्रोर भी आपके चरण-कमलों ने धरती माता को छुया, माटी धन्य हो गई, धरा प्रफुल्लित हो उठी कि मेरी ही तरह सहनशीलता, क्षमा की प्रतिमूर्ति मेरी बेटी धर्म • के चारप्र में अपने आपको समर्पित कर विश्व-वन्दनीय महावीर की वाणी के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई है।
-अभयकुमार सुराणा, जावरा प्रथम खण्ड / ४३
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महान साधिका
साधक की साधना जब बलवती हो उठती है तब वह स्वयं के लिये नहीं, पर के कल्याण के लिये समर्पित हो जाती है। आज दूरदराज प्रान्तों के दर्शनार्थियों का जब सैलाब आपके प्रत्येक चातुर्मास में उमड़ पड़ता है तो ऐसा लगता है, मानो छोटा-मोटा भारत तो प्रत्येक क्षण आपके इर्द-गिर्द है और यह आपकी उच्चकोटि की साधना का ही परिणाम है, प्राज प्रत्येक जन प्रापश्री के श्रीचरणों में अपने दुःख को विसर्जित कर सुख प्राशीर्वाद के रूप में समेट कर ले जा रहा है।
ऐसी महान साधिका को कोटि-कोटि वन्दन करते हुए जिनेश्वर प्रभु से कामना करते हैं कि हमें आपकी दीक्षा की शतायु जयन्ती मनाने का अवसर मिले।
-श्रीमती रेखा सुराना, जावरा
मंगलकामना
प्रसन्नता का विषय है कि कश्मीर-प्रचारिका, प्रवचनशिरोमणि, मालवज्योति श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज साहब की अन्तेवासिनी, अध्यात्म-जगत की परम साधिका परम वन्दनीया महासती श्री उमरावकंवरजी महाराज साहब 'अर्चना' के संयममय जीवन (दीक्षा) की अर्धशताब्दी पूर्ण होने के स्वणिम अवसर पर उनकी सेवा में एक अभिनन्दनग्रन्थ समर्पित होने जा रहा है।
परम विदुषी महिमामयी अध्यात्मयोगिनी महासतीजी द्वारा धार्मिक आध्यात्मिक योग-साधना तथा जन-जन के कल्याण हेतु प्रदत्त प्रशंसनीय कार्यों के प्रति यह एक पावन प्रयास है।
मैं इस अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता की मंगलकामना करता हूँ।
- शान्तिलाल जैन मुख्य नगरपालिका अधिकारी,
जावरा (म० प्र०)
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अर्चनार्चन / ४४
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गुणरत्नों की खान : महासती श्री अर्चनाजी
त्यागी, तपस्वी, काश्मीर-धर्मप्रचारिका, अध्यात्मयोगिनी, परम पंडिता, शास्त्रविज्ञ अनेक भाषाओं के ज्ञाता, कवितासृजनहार, सरस, मधुर गायनकंठी काव्यविनोदी, अनेक पुस्तकों के रचयिता, पीयूषवर्षणी श्री श्री १००७ पर मध्यानी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चनाजी' म. सा. श्रमणी-संघ की देदीप्यमान ज्योति, श्रमणीरत्न हैं। यह संघ का परम सौभाग्य है।
पू. अर्चनाजी म. सा. का भव्य ललाट, तेजोमय नेत्र, दिव्यदृष्टि, दिव्यमुद्रा, प्रसन्नवदन निर्मल मन, कोमल दयालु हृदय, क्षमा के सागर, दुखियों के दुःख से पीड़ित हो द्रवित होने वाला नवनीत सदश भाव, करुणा के भण्डार, असहायों के सहाय, शान्ति के सागर, सरसता सौम्यता की मूर्ति, सहिष्णता के प्रागार, ज्ञान के निधि, अध्यात्म-ध्यान में निरन्तर विचरण करने वाले ऐसे महान महिमानों से विभूषित महाराजरत्न के पावन चरणों में अापके दीक्षा स्वर्णजयन्ती समारोह के मंगल प्रसंग पर शत-शत वंदन कर यह मंगल कामना है कि गुरुणीजी महाराज साहब की मातृवत् छत्रछाया सदैव बनी रहे और आपकी अमृतमयी रसीली वाणी का सदैव श्रीसंघ व जन जन को लाभ मिलता रहे।
--हिम्मतमल आत्मज आनन्द मल नारेलिया
आजाद चौक, शाजापुर (म० प्र०)
शुभकामना
विगत चार पांच वर्षों से मैं परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के दर्शन करता आया हूँ। समारोहों के अवसर पर आपके प्रवचन-श्रवण का लाभ भी मिला । आप एक परम विदूषी और चिन्तनशीला साध्वीरत्न हैं। इसके अतिरिक्त पाप ध्यानयोग की भी महान साधिका हैं।।
यह जानकर हादिक प्रसन्नता हई कि इन अध्यात्मयोगिनी महासतीजी की दीक्षास्वर्ण-जयन्ती के अवसर पर एक अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। मैं इस अवसर पर पू. महासतीजी के उज्ज्वलतम भविष्य की कामना करते हुए अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता की हादिक शुभकामना प्रेषित करता हूँ।
-न्यायमूति मुरारीलाल तिवारी अध्यक्ष, म. प्र. औद्योगिक न्यायालय, इन्दौर
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प्रथम खण्ड /४५
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शुभ कामना
भारत की माटी की यह विशेषता है कि यहाँ का मानव प्रारम्भ से ही जीवन पौर जगत् के विषय में चिन्तन करता म्राया है। साधारण से साधारण रष्टिगोचर होने वाला प्राणी भी 'आत्मा' 'परमात्मा' 'लोक' 'परलोक' 'कर्म' तथा 'पुनर्जन्म' की बातें करता है । जीवन की गति प्रगति का रहस्य ज्ञात करने को लालायित रहता है। चिन्तन की यह उत्सुकता, लालसा प्राणी को ज्ञान-विज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ाती है।
भारतीय सन्त चिन्तनशील, मननशील तो रहे हैं पर साथ ही आत्मदृष्टा भी रहे हैं । गुणवत्ता उनका मुख्य आधार रहा है ।
उसी सन्तपरम्परा का निर्वाह महासती परमविदुषी साध्वी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' कर रही हैं। आपमें वे सभी गुण समाहित हैं । श्राप चिन्तनशील, मननशील तो हैं ही साथ ही आपको अन्य धर्मों का भी विशेष ज्ञान है ।
माप बहुभाषाविद भी हैं। आपकी गम्भीरता, की विशेषता के कारण आपने काश्मीर जाकर जैनधर्म में उल्लेखनीय रहेगा ।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के अर्चना / ४६ वंदन की
यह भी एक हर्ष का विषय है— आपको दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण होने पर दीक्षा-स्वर्णजयन्ती अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है। इस मंगल अवसर पर मैं यह शुभकामना करते हुए हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ कि आप चिरायु रह कर देश और समाज का मार्गदर्शन करते रहें ।
साहस घतुलनीय है और इसी साहस का प्रचार किया, जो धर्म के इतिहास
- अभयकुमार जैन
एडवोकेट उज्जैन
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शत-शत अभिनन्दन
प्रवचन-शिरोमणि, परमविदुषी महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा., 'अर्चना' एक उच्चकोटि की साध्वी हैं। आप उच्च विचारक तथा लेखिका भी हैं । हृदय से बड़ी सरल, प्रतिमृदुभाषी और अपने गुरु, धर्म के प्रति अटल श्रद्धा, भक्ति रखने वाली प्रसन्नमुख और प्राकर्षक व्यक्तित्व की 'साध्वीरत्न' हैं। ये सभी गूण बिरले साध/साध्वियों में ही पाये जाते हैं । हम बड़े भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसी धर्मरत्न साध्वी मिलीं।
प्रसन्नता का विषय है कि दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण हो गए हैं । आप शतायु प्राप्त करें, यही वीर प्रभ से विनती करते हुए शत-शत अभिनन्दन करता हूँ।
-अमृतलाल जैन चार्टर्ड अकाउण्टेण्टस्
उज्जैन
मंगलकामना
महासती परमविदुषी पूज्या साध्वी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के जीवन का प्रारम्भ से ही धर्मप्रेम, उदारता, राष्ट्रभक्ति एवं मानव सेवा मुख्य उद्देश्य रहा है । आपने जैनधर्म, दर्शन, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, गीता, रामायण प्रादि धर्मग्रन्थों एवं भाषाओं का गहन अध्ययन किया है। अापकी प्रवचनशैली बडी रोचक. शिक्षाप्रद, ज्ञानप्रद और समन्वयात्मक है।
मुझे बड़ा हर्ष है कि आपकी दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण हो गये हैं । अाप युग-युग तक धर्मपताका फहराती रहें, यही मंगलकामना करता हूँ।
-मांगीलाल जैन
उज्जैन
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / ४७
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कोटि-कोटि अभिनन्दन
सम्माननीया परमविदुषी महासती पूज्य श्री उमरावकंवरजी म. सा. अर्चना अपने जीवन में सद्विचार को नित्य गति देकर, पावन दृष्टि से जीवन की उलझी हुई गुत्थियों को धर्माचरण के द्वारा सुलझाने का सप्रयत्न करती रहती हैं। आपका हृदय विशाल है जिसमें कभी आवेग अथवा क्रोध का तूफान नहीं पाता है। जीवन दिव्यप्रकाशयुक्त है और जगत् को नूतन सन्देश देता है। आपके स्वभाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आपके सम्मुख पाने पर या दर्शन पाकर क्रोधी व्यक्ति भी प्रसन्नमुख हो जाता है। इस स्वभाव में सागर-सी गहराई है जिसे निहार कर मानवता प्रसन्नता व्यक्त करती है।
आपकी वाणी गागर में सागर भरने की क्षमता रखती है और ऐसी विदुषियों के कारण जैनसंस्कृति ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति अमर है। भारत का मुख उज्ज्वल है। दीक्षा के पांच दशक पूर्ण हो जाने पर वन्दनीय भारतीय संस्कृति की रक्षिका का इस पावन अवसर पर कोटि-कोटि अभिनन्दन! शत-शत वन्दना !
- कन्हैयालाल गौड़ कवि एवं लेखक
उज्जैन
शुभकामना
मुझे यह जान कर प्रत्यन्त प्रसन्नता हो रही है कि महासती परमविदुषी साध्वी श्री उमरावकंवरजी म. सा. अर्चना की दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण होने पर दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित होगा। मेरी दृष्टि में यह अभिनन्दनग्रन्थ साहित्य की अमूल्य निधि होकर जैसी म. सा. ज्ञानवान, गुणवान, धर्मशील एवं महिमामण्डिता हैं, उसी अनुरूप होगा।
इस पावन अवसर पर मैं दीर्घायु की मंगलकामना करते हुए हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।
-रामचन्द्र श्रीमाल
प्रधान सम्पादक दैनिक ब्रिगेडियर, उज्जैन
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन /४८
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काव्यमय अभिनंदन
यह संसार असार जानकर जग से मोह हटाया, दुनिया का कोई आकर्षण जिन्हें बाँध नहीं पाया। धर्म हेतु कर दिया समर्पित जिनने तन मन धन है, महासती उमरावकुंवर का शत-शत अभिनन्दन है ।।
-हास्यकवि हजारीलाल जैन 'काका
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उमराव गुणाष्टकम्
साध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
उपजातिवृत्तम्
यशस्विनी या हि सितैर्यशोभिः, शान्ता सुशीला सुखदा च रम्या । मान्या भवतीह लोके, महासती श्री 'उमरावजी ' सा ॥१॥
कथन्न
शार्दूलविक्रीडितम्
या शीतांशु मुखप्रकाशसुभगा विद्याविशाला-प्रिया, शुद्धश्वतसुवेश- दिव्यचरितं कान्तं च यस्या वपुः 1 भालं भव्यतमं प्रदीप्तमतुलं मुग्धच यस्या मनः, साध्वी सा उमरावजी वरसती जीयाज्जगत्यां सदा ||२||
वसन्ततिलकावृत्तम्
पत्युर्वियोगभिगम्य निजं सुयोगं, वैराग्यरङ्ग - रसपूरित-भावनाभिः । जग्राह संयममहो किल या हि देवी, साध्वी सदा विजयता 'मुमरावजी ' सा ॥३॥
मालिनीवृत्तम्
सकलजनमनोज्ञा सर्वदा शान्तिमूत्तिः,
सरसवचनरम्या मूर्तरूपा सुधा या । स्मितवदनसुभव्या माननीया जगत्यां,
जयतु जयतु 'उमा' स्नेहशीला सती सा ॥४॥
तविलंबितवृत्तम्
मधुरकण्ठसुगीतिपरावशा,
विविधवाङ्मयवाचनतत्परा विजयामिह भारत-भारती, प्रियतरा 'उमराव' महासती ||५||
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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त्रोटकवृत्तम् सततं सुखदा सुतरां मुदिता,
सकला सरला विदुषी विदिता । विनता मधुरा यशसां सरिता, 'उमराव' सती नितरां प्रमिता ।।६।।
मन्दाक्रान्तावृत्तम् सौम्याकारा प्रकटितगुणा वन्दनीया बुधैर्या,
धर्माधारा शशिसममुखाश्लाघनीया सुसभ्या । शक्त्यागारा मधुरवचना शोभनीया च या हि, 'उमा' साध्वी जगति महिता राजते सौम्यभावा ।।७।।
शिखरिणीवृत्तम् क्षमा-शीलोपेता विततसुगुणा प्रीतिसहिता,
कलानामाधारा जनितसुकृता दिव्यचरिता । प्रशस्या धर्मिष्ठा हतमदबला या च मधुरा, सती साध्वी 'उमा' विनयसहिता भाति खलु सा ।।८।।
अनुष्टुपवृ त्तम् उमरावसतीस्तोत्र-मष्टश्लोकसमन्वितम, श्रद्धयेदं पठेत् यो हि, स सौख्यमधिगच्छति ।।९।।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन /२
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भावणा-मज्म
पं० रत्न, शास्त्रज्ञ, प्रखरवक्ता श्री उमेश मुनिजी म.
सिद्ध-झांति देवि, पुट्टिकरंति सुधम्भ-मग्गस्स ।
दलृ हियअ-पमोमो, जामो संघे गुणाकिट्ठो ।। १ ।। सिद्ध-परमात्मा का ध्यान करती हुई और उत्तम धर्म-मार्ग की पुष्टि करती हई देवी (साध्वीजी) को देखकर, श्री संघ (के अनुयायी वर्ग) के हृदय में गुणों से आकृष्ट प्रमोद हुमा।
मरुम्मि दादिया-गामे, निहि-रिसंक-भूमिए ।
भद्दवए वरा बाला, जाया सत्तिव्व सा परा-॥ २ ॥ वह (साध्वी) मरुदेश (के एक हिस्से) के दादिया ग्राम में वि. सं. १९७२ के भाद्रपद मास में (सप्तमी को) श्रेष्ठ बालिका के रूप में 'पराशक्ति' के समान जन्म पायी।
अनुपा जणणी धण्णा, मांगीलालो पिया पियो ।
तेसिमंके ठिया बाला, जोण्हागा विव सोहिया । ३ ।। माता अनुपादेवी और प्रिय पिता श्री मांगीलालजी धन्य हैं, कि जिनकी गोदी में स्थित वह बालिका चन्द्रिका के समान सुशोभित हुई।
पालिया चंपवेलिव्व, जा लालिया सुकोमला।
पत्ता जुव्वण-दारम्मि, संवेग-भाव-वासिया।। ४ ।। जिस सुकोमल (बाला) का चम्पा की लता के समान पालन किया गया, लाड प्यार किया गया, वह यौवन के द्वार में प्रवेश करते ही संवेगभाव से वासित (हदयवाली) हो गयी।
पत्ता सा सरदारत्ति, दारं समसरस्स वा।
गरुणी मोक्खमग्गम्मि. पेरगा धम्मरक्खिया ।।५।। उस (बाला) ने शम-सर-द्वार-प्रशमभावरूपी सरोवर के द्वार के समान श्री सरदार कुंवर जी गुरुणी पायी, जो मोक्षमार्ग की प्रेरिका और धर्म रक्षिका थी ।
वेअंक-निहि-भू-अद्दे, मग्गसीसेऽसियंसए।
एक्कारसीइ गिण्हेइ, पवज्जं भाणए दिणे ।।६।। विक्रम सं. १९९४ था। मार्गशीर्ष मास में कृष्णपक्षरूप विभाग चल रहा था। उसकी ग्यारस तिथि और रविवार के दिन (वह बाला) प्रव्रज्या ग्रहण कर लेती है।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/३
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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जयमल्ल गणे
सरे ।
सोमरावजि- अच्चणा ।। ७ ।।
मारवाड-पदेसस्स, हंसीव साहुणी खाया, ( इस प्रकार ) वह मारवाड प्रदेश के श्रीमज्जय मल्लजी महाराज के गणरूपी सरोवर में हंसिनी के समान साध्वी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' ( नाम से ) प्रख्यात है ।
सा
समण संघमि सत्थंबुजे कीलेइ,
महि सोहिया । जोगरया जसंसिणी ॥ ८ ॥
वह ( साध्वी रूप हंसिनी) युवाचार्य श्रीमान् मिश्रीमलजी 'मधुकर' के द्वारा शोधित ( सुसंस्कारित) होकर अथवा ( भक्तरूपी) मधुकरों (भौंरों) से शोभित होती हुई, योग में लीन होकर वह यशस्विनी शास्त्र रूपी कमलों (के वन) में क्रीडा कर रही है, श्रमण संघ ( रूपी महा सरोवर ) में ।
लच्छित्ता अणेगा खु, जाए जिण-पाय-विलीणा सा, मत्ता
चरण - किंकरा ।
अन्नेस हैं, वह
अनेक लक्ष्मीपुत्र जिसके सचमुच ही चरण - सेवक चरण ( -कमलों) में लीन बनकर ( गुण- पराग के भक्ति रूप पान में ) निरुपद्रव अचल स्थान का अन्वेषण करती है ।
सिवं ॥ ९ ॥
जा पिया वरो जोगी धम्मपत्तो सए रम्रो । तस्स कण्णा सुमग्गम्मि, धीरा गच्छइ जोइणी ॥ १० ॥
( साध्वी ) जिनेश्वरदेव के
मत्त बनकर, शिव
जिसके पिता धर्म पाकर अपने - प्रात्म भाव ) में लीन श्रेष्ठ योगी हो गये हैं, उसकी योगिनी धैर्यवती कन्या सुमार्ग - मोक्षमार्ग में चल रही है ।
( जब ) वह मधुर स्वर से भारती - सरस्वती के समान लोगों के अपने हृदय में अद्भुत सुख होता है ।
महु-सरेण वक्खाणं, वाएइ भारईव सा । लोयाण हियए सोक्खं, अप्पणी होइ अब्भुजं ।। ११ ।। व्याख्यान देती है, ( तब )
सोहइ सिस्सणी - संधे, जहा कुमोयणी- विंदे, (अपनी ) शिष्याओं के समूह में वह ध्यान मुद्रा में [ स्थित ऐसी ] सुशोभित होती है, जैसे कुमुदनियों के वृन्द में उतर कर चन्द्रमा स्थिर हो गया हो ।
काण - मुद्दाइ सा वरा | श्रोयरिश्रो ससी थिरो ।। १२ ।।
पयंबुजेहि जाए हु, हिट्ठा भारह - मेइणी |
मंगल- दंसिणी देवी, सा पियकारिणी सुभा ।। १३ ।। ताए सुह-पवज्जाए, सयद्वे समुट्ठिए । हिट्ठो जणाणविदो हि, करेइ अभिनंदणं ॥ १४॥
अर्चनार्चन / ४
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जिसके चरण कमलों [के स्पर्श ] से भारत-भूमि प्रसन्न हुई है और वह मंगलदर्शिनी ( सब जीवों के लिये मंगलदृष्टि वाली), प्रियकारिणी ( जीवों के लिये प्रिय करने वाली ) और शुभा ( शुभभाव वाली अथवा सावद्ययोग से विरत ) है,
उसकी शुभ प्रव्रज्या का अर्द्ध शताब्द ( पचासवाँ वर्ष ) उपस्थित होने पर मनुष्यों का वृन्द अभिनन्दन करता है
जिणवणे अणुरत्ता, धम्मस्स सुपभावणं किच्चा |
अज्जे ! भवं तरेज्जा, इइ समये भावणा मज्झ ।। १५ ।।
'हे आयें ! (आप) जिन - वचनों में अनुरक्त बनी हुई धर्म की उत्तम प्रभावना करके, भव (सागर) से पार हो जायें-' इस समय ऐसी मेरी भावना है ।
अवार्चन-पुष्प
पण्डितप्रवर श्री हीरामुनिजी म.
( द्रुतविलम्बित ) अरचना भगती नित कीजिए । मनुज हो मुगती फल लीजिए । अरचनाज सती उमरावजी । भजन में
गुण में मन भावती ॥ १ ॥
प्रथम खण्ड / ५
जगत में जय गच्छ महान है । चमकती उसमें सति श्राप हैं ।। सरलता मृदुता मन भावती । अगम आगम बोध विभावती ॥२॥
युग-गणी मिसरीमुनि बोधिता । श्रमण संघज में सति शोभिता ।। "हिमकरो" नित ही उठ वीनवे । अमर हो उमराव सभी नवे || ३ ||
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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श्री "अर्चनाजी" म.सा. के उत्क्रान्त चरण जीवन की दुर्गम, दुर्वह घाटियों में अनवरत गतिशील रहते हए कंटकाकीर्ण पथ को साधना द्वारा सुगम, समुदित, सुरभित बनाते जा रहे हैं, जो भारतीय संस्कृति के उन्नयन में त्याग तपोमयी सन्नारियों के अब तक रहे गौरवपूर्ण योगदान के निश्चय ही
संस्मारक हैं।
अर्चना-अभिनन्दन-पच्चीसी - कविरत्न श्रीचन्दनमुनिजी म. सा. पंजाबी
विश्वविदित उपकार जिन्हों के, दया धर्म के मंगल धाम । महासती उमरावकुंवरजी, मधुर "अर्चना"सा उपनाम ।।१।। मांगिलाल तातेड़ पिताजी, अनुपा देवी माता थी। जैन धर्म की ज्ञाता ध्याता, बहुत-बहुत विख्याता थी ।।३।। भाग्यवती अति निर्मल मति जो, ऐसी शिष्या पाई थी। गुरुणी श्रीसरदारकुंवरजी, फूली नहीं समाई थी।।५।। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, इंग्लिश, विद्याएं यों पढ़ीं अनेक । लोग चकित थे बुद्धि आपकी, अद्भुत और विलक्षण देख ॥७॥ जैनधर्म का मर्म अहिंसा, अनेकान्त में छुपा परम । भ्रात ! भगिनियों! आत्मशुद्धि ही लक्ष्य बनायो अपना चरम ।।९।। दूर द्वेष से कलह क्लेश से, भागो-भागो-भागो जी ! कहती रहती वैरभाव को, त्यागो-त्यागो-त्यागो जी ।।११।।
उन्नीसौ उन्नासी भादव, जन्म आपने पाया था। ग्राम "दादिया" क्षेत्र किशनगढ, फूला नहीं समाया था ।।२।। बचपन में वैराग्यभाव की, जाग गई चिनगारी थी। उन्नीसौ चौरानव अगहन, "नोखा" दीक्षा धारी थी ।।४।। युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिवरजी से पाया ज्ञान महान् । ध्यान-योग की अमर साधिका, कवि, वक्ता, लेखक गुण-खान ।।६।। प्रागमज्ञाता, शिक्षादाता, अमृत जैसी वाणी से। पाप आप टकराव बतातीं, प्राणी का हर प्राणी से ।।८।। भोगवाद में स्वाद नहीं कुछ, जीवन-हीरा है बरबाद । तरने को भव-सागर कहतीं, त्यागवाद को रक्खो याद ॥१०॥ जैन-अजनो! भाई बहिनो ! सुनलो मेरा कहना साफ । बड़ा लोभ से क्षोभ नहीं है, और नहीं है कोई पाप ।।१२।।
अर्चनार्चन /६
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अगर आपको सचमुच प्यारी,
निन्दा करना, चुगली खाना, मानव-जीवन की हो जीत ।
माना अोछे जन का काम । सती अर्चना का है कहना,
सती अर्चना कहती इनका रहना बनकर बहुत विनीत।।१३।।
कभी नहीं अच्छा परिणाम ।।१४।। परम अहिंसा धर्माराधन,
सच्चा अर्चन अरिहन्तों का, अर्चन है अरिहन्तों का।
आप सदा सिखलाती हैं । कहा आपने सहज न पाना,
अतः "अर्चनासती" सभी से, साध्य सिद्ध भगवन्तों का ।।१५।।
सादर सदा कहाती हैं ।।१६।। खूब जगाई जग की जनता
स्वाभिमान तो रखती हैं कुछ, गहन नींद में सोई है।
कुछ पर रखतीं मान नहीं । अथक प्रचारक अथक सुधारक
कभी कहीं प्रायः जा पाता, अन्य प्राप-सी कोई है ।।१७।।
धर्मध्यान बिन ध्यान नहीं।।१८।। जैनधर्म को उन्नत करने,
खाना-पीना मिले भले न, किये आपने कितने काम ।
फिर भी चले गुजारा जी ! श्रमण संघ की सतियों में है,
जैनागम स्वाध्याय किन्तु है, अतः आपका उज्ज्वल नाम ।।१९।।
प्राणों से भी प्यारा जी ॥२०॥ राजस्थान, पंजाब, हिमाचल,
दुर्गम देख घाटियाँ जिसकी, उत्तर-मध्य प्रदेश विराट् ।
जाता कोई जैन फकीर । घूम-घूमकर धर्मसाधना
जहाँ क्यारियाँ केसर की हैं, की दरसाई सक्रिय बाट ।।२१।।
देखा जाकर के कश्मीर ।।२२।। पूज्यप्रवर आनन्दऋषीश्वर,
दीर्घ आयु हो बहुत प्रापकी, श्रेष्ठ संघ संचालक हैं।
जीयें पूरे वर्ष हजार। आप उन्हों की सही अर्थ में,
जिससे जग पर और अभी भी अभिनत आज्ञापालक हैं ॥२३॥
बहुत आप से हों उपकार ।।२४॥ दीक्षा की स्वर्ण-जयन्ती पर, करता पंजाबी मुनि चन्दन । महासती उमरावकुंवर के, संयत जीवन का अभिनंदन ।।२५।।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड /७
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प्राई घड़ी अभिनन्दन की
0 जनार्या सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
आई घड़ी अभिनन्दन की, चरण कमल के वन्दन की ।।टेर।। हर्ष हृदय में भारी है, यश गावे नर नारी है । चन्दन से शीतल मन की, आई घड़ी अभिनन्दन की। ।।१।। माँ अनपा ने जन्म दिया, मांगीलाल कुल दीप्त किया । जैसे कोकिल ही मधुवन की, आई घड़ी अभिनन्दन की ।।२।। महिमामयी जग जहारी हो, भक्तों के भयहारी हो । रक्षक हो संयम धन को, आई घड़ी अभिनन्दन की ॥३॥ वाणी में अमृत झरता, सूखे दिलों में रस भरता। प्यास मिटाते तन मन की, आई घड़ी अभिनन्दन की ।।४।। जो भी शरण में आता है, श्रद्धानत हो जाता है । दाता हो सुख-साधन की, आई घड़ी अभिनन्दन की ।।५।। जन्म-जन्म रहे संग तेरा, वर चाहे मानस मेरा । 'सुधा' भावना अर्पण की, आई घड़ी अभिनन्दन की ॥६॥
नवां सवेरा । साध्वी सेवावन्ती म.सा. "पंजाबी"
राह दे पत्थर वांग सी जीवन मेरा, तुसां उसने प्यार दे तराशया। टूट गइयां सी दीवारां जिस धर दिया, उसनूं तुसी मुड़ के सवारया ।। जिन्दगी कागज दे फूल वांग सी मेरी, तुसां उसनें महकना सिखाया। मैं थक गयी सी धुप बिच चलदे-चलदे, तुसां थापड़ मैंनूं छांवे सुवाया । हुवा मैं नाल तुवाडे हर पल रहनी हां, रोज इक नवां सवेरा, पूरब बिचों जा मेरे दिल बिच उजाला करदा है ।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
00 अर्चनार्चन /
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महासतीजी का तप, त्याग और शौर्य
प्रशस्तिगान - प्रवर्तक कविमनीषी मुनि रजत
सवैया छन्द महामेधावर महाविद्याधर, महासती गतिरूप धराये । योगकला शुभपातमचिन्तन, दृढ़ मनोबल साहस पाये ।। तेजमहातप-ताप-सुनायक, देशप्रदेश विहार कराये । महातितिक्षुक भव्यस्वरूप सोहे उमरावजी धन्य कहाये ॥१॥ महासती मतिसागर साधिका, अध्यातम जग की सब जानी। जैन समाज का गौरव पावन, साहित्यसाधन की परमानी । अतिमान महा हमको सुखदा श्रद्धार्चना जगताप नशानी। अद्भुत शिक्षण-कौशल उत्तम काहे लिखे नहीं जाय बखानी ।। २ ।। जैन का गौरव ज्ञान की मूरति, सो उमरावजी है सती सोई। साधन को सदसाधक सुदृढ, आतमशोधक दीपित जोई। भव्यसुभाव आलौकिक दर्शन, है महिमामयी दिव्य सुहोई। कीति विश्वविख्यात रही सद्-भव्यदिदार को जानत कोई ।। ३ ।।
प्रसीदामि रमेश मुनि शास्त्री
आर्यावृत्तम् (पथ्यार्या) उमरावकुंवरजीति नाम्नी याऽत्रार्चनेति विख्याता । साऽऽर्येति चिन्तयित्वा पथ्यार्यया लिख्यते किञ्चित् ।। १॥ वाते वाति प्रबले याति समुद्रेऽपि विक्रियां महतीम् । इयं न भजते तामपि पुरतो विषमस्थितो सत्याम् ।। २ ।। सद्रत्नत्रयभूषा मिथ्यात्वध्वान्त
नाशने पृषा। ज्ञान-ध्यान-निलीना सा भव्याया॑र्चना धन्या ।। ३ ।। जिनशासनचन्द्रस्य ज्योत्स्ना साक्षात समस्ति सा साध्वी। साऽभ्यर्चनीय-वत्ता केन न वन्द्याऽभिनन्द्या वा ।।४।। इत्थं विचार्य भव्यैर्भक्त्यामितया समर्प्यते जैनैः ।
अभिनन्दनग्रन्थोऽस्यै, तदहं ज्ञात्वा प्रसीदामि ॥५॥ प्रथम खण्ड |९
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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मंगलमय अभिनन्दन
0 गणेशमुनि शास्त्री
कारुण्य की प्रतिमूर्ति हो, तुम स्नेह की हो अमल धारा. सरलता व मधुरता का तुम लिए हो चषक प्यारा । खो दिया साहस जिन्होंने, तुमने उन्हें सम्बल दिया, मालव-ज्योति ! कर रहे सब, आज अभिनन्दन तुम्हारा ।। मरुस्थल से चल के गंगा, हिमशिखर पर चढ़ गई, कश्मीर से कन्याकुमारी, कीर्ति उज्ज्वल गढ़ गई। उन्नीस सौ चौरानवै, अगहन बदी ग्यारस रवि, दादिया ने दिव्य ज्योति, वीर पथ पर बढ़ गई। दादिया ने जो दिया वह दीप, हर पल जल रहा है, अज्ञान का घन तिमिर जिसकी, रश्मियों से टल रहा है । लेखिनी कर छु तुम्हारे, धन्य खुद को मानती है, हर मसी की बूद में, विश्वास ही तो पल रहा है। स्पष्ट है वाणी तुम्हारी, भाव भी निर्भीक हैं, माधुर्य की उस में तरंगें, उठ रही सश्रीक हैं। वर्ष पंचाशत में पाया, ज्ञान जो इस लोक में, साधना से विशद जाना, दूर क्या नजदीक है। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती पर, मुमंगलमय अभिनन्दन करते, अंगारों से बोझिल जो पल, मुस्कानों से चन्दन करते । धन्य-धन्य हे सती अर्चना, तुम हो योग्य इसी के, "मुनि गणेश" अरु सब तारक गण, कोटि कोटि वर्धापन करते।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के तंदन की
अर्चनार्चन /१०
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भाव-सुमन
0 महेन्द्रमुनि 'कमल'
धन्य हुए वे क्षण, जव दादिया की पावन भूमि ने नव आलोक हेतु एक 'दिया' दुनिया को दिया। देख उसके भावों को जन-मानस औचक ही चौंका, गद्गद होकर बाग-बाग हो गई ग्राम्य भूमि नोखा ।। दिशात्रों ने देखा तुम्हें अल्पवय में लेते हुए दीक्षा, चन्दनबाला की तरह मांगते हुए भिक्षा । तुम्हें देख ऐश्वर्य के पांव जड़ हो गये, माया की मुस्कान भी फीकी लगने लगी, हिंसा के पांवों में बंध गये पत्थर, धर्म की ध्वजा लहराने लगी। दादिया का ज्योतिपुंज जगती में 'अर्चना' बनकर चलने लगा कोटि-कोटि अंतर को आलोकित करने हेतु सती के स्वरूप में सतत जलने लगा।। वीर के पथ पर चलते हुए देख दुनिया स्वर्णजयंती मना रही है, वन्दन अभिनंदन की स्वर्णिम वेला में भावों के सुमन चढ़ा रही है, मेरे भी कुछ भाव समर्पित हैं, महासति उमरावकुंवरजी ! स्वीकार करो, युग-युग पर्यन्त आलोकित रह जन-जन का उद्धार करो !!
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/ ११
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
मंगलाष्टक
दिव्य योग की साधिका, महासती उमराव । गुणसंपूजित अर्चना, जग संमानित भाव ॥ १ ॥ विलसित मन अध्यात्म में, भव्य साधना साथ । शुभ्र 'कीर्ति शोभित मही, सकल नमावत माथ ||२॥ मुनि हजारिमल दीक्षिता, सति सरदार- निदेश | अमर कीर्ति जिनकी जगत्, अचित भाव विशेष || ३॥
जयमल कीर्ति सुहावनी, युवाचार्य-गुणजोत । दीपित धर्मवसुंधरा, जगमगात गुणजोत ||४||
अनुपम अनुपा मात अरु पितु मांगी तातेड़ । हुए यशस्वी मात-पितु वसे दादिया खेड़ ।।५।।
मरुधरकेसरि गुरु करें, दिग्दिगन्त प्रचित रहे, हैं
अमरयशा उमराव | ग्राशिष के भाव || ६ ||
सतियों में उमरावसी, हो उमराव महान । जग गावे गुणसंपदा, चर्चित मान जहान ||७|
" सुकन" भाव शोभित रहे, विकसित हो दिनरात । गंगधार जिमि सोहती, विमलवाणि सरसात ||८||
- श्रमण सूर्य मरुधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म० सा० के शिष्य - मरुधराभूषण उपप्रवर्तक श्रीसुकनमलजी म० सा०
अर्चनार्चन / १२
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महासती के सुदीर्घ एवं मंगलमय जीवन की कामना सभी के मन की भावना है
गुण गौरव गुणवन्त का 0 सुव्रतमुनि "सत्यार्थी", शास्त्री, एम. ए. (हिन्दी-संस्कृत)
गुण गौरव गुणवन्त का, गाता है संसार । गुण-कीर्तन से गुण बढ़ें, कहते सन्त पुकार ।।
धार्मिकता है गौरव गुण का। तप संयम है भूषण उनका ।।१।। जिस जीवन में ये आ जाएं। पूज्य वही सबका बन जाए ।।२।। उमरावकुंवरजी महत्तरा । अध्यात्मभाव में अनुत्तरा ॥३॥ ये हैं अति ही ज्ञानी ध्यानी। महिमा इनकी जानी मानी ।।४।। संयममय जीवन सरसाया । मातृपितकुल हरषाया ।।५।। श्रीसरदारकुंवरजी गुरुणी। जिनकी महिमा जाय न वरणी ।।६।। शिष्या उनकी ये महनीया । गुणगण में अनुपम गणनीया ।।७।। जन-जन में है कीति पाई। शिष्या भी हैं बहुत बनाई ।।८।। बहुतेरे हैं लोग सुधारे। तपमय अर्धशताब्द गुजारे ।।६।। दीक्षा स्वर्णजयन्ती आई । सुनकर मानवता हरषाई ।।१०।। जैन संघ में श्रद्धा अनुपम । अभिनन्दन प्रायोजन उत्तम ।।११।। वर्धापित करता "मुनि सुव्रत” । उज्ज्वल यश फैले गुण-आवृत ।।१२।।
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प्रथम खण्ड / १३
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महासतीजी म. के अनुपम व्यक्तित्व से प्रभावित कविहृदय मुनिवयं के भाव-स्पन्दन शासनचन्द्रिका : अर्चनाजी
वाणीभूषण श्री सुरेशमुनि
वीर प्रभु का शासन प्यारा, चार तीर्थ जिसमें सुखकार । साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका, तीर्थराज यही प्रियकार ।। १ ॥ चन्दनबाला श्रमणी-प्रमुखा, शिरोमणि साध्वी-सिरताज । श्रमणीवृन्द के साथ संघ को, जिन पर होता है अति नाज ॥ २ ॥ जैन संघ की दिव्य दीपिका, एक-एक है हीर कणी। सती संघ की शान-पान है, सती संघ की दिव्य मणी ।। ३ ।। उसी वर्ग की दिव्य साधिका, सरल सौम्य शुभ संयमवान । महासती उमरावकुंवरजी, परम गुणी जिनशासन शान ।। ४ ।। मंजुल आभा मरु वसुधा की, मालव-ज्योति बनी महान् । युवाचार्य मधुकर की शिष्या, ध्यान योग में प्रखर सुजान ।। ५ ।। श्रमण-संघ को भव्य चन्द्रिका, काश्मीर में किया प्रचार । जैन धर्म-दर्शन की वेत्ता, महा साधिका शोभाकार ।। ६ ।। प्रवचनकर्वी सती अर्चना, युग-युग धर्म प्रसार करे । इनको सत् शिक्षाएँ पाकर, भविजन गुण पल-पल निखरे ।। ७ ।। दीक्षा स्वर्ण-जयंती पर शुभ, अभिनन्दन कर लें स्वीकार । मंगल भाव भरा शब्दों का ग्रहण करें यह नव उपहार ॥ ८ ॥
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन / १४
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धन्य : धन्य : अतिधन्य
0 जिनेन्द्रमुनि "काव्यतीर्थ"
धन्य सती श्री अर्चना, धन्य दादिया ग्राम । धन्य आपकी साधना, धन्य आपके काम ।। लघुवय में दीक्षा ग्रही, विधिवत् पाया ज्ञान । जैन जगत में आपको, मिला बहुत सम्मान ।। प्रान्त-प्रान्त में घूमकर, करते धर्म प्रचार । मधुर मधुरतम आपका, अमृतमय व्यवहार ।। दया अहिंसा प्रेम की, सदा बहाते गंग । ध्यान-योग है अापके, जीवन का मुख अंग ।। निर्मल चिन्तन में सदा, निरत आपका चित्त । जिनवाणी-संगान है, श्लाध्य आपका वित्त ।। मुनि मधुकर से आपने, पाया ज्ञान विशेष । वही ज्ञान-गुण प्रापसे, पाते रहें हमेश ।। अभिनन्दन चाहा नहीं, लेकिन हो हकदार । "मुनि जिनेन्द्र" के कीजिए, भाव-सुमन स्वीकार ।।
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प्रथमखण्ड / १५
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जिनकी तपस्या के समक्ष हिमालय मौन है उन्हीं सद्गुरुवर्या के सादर चरणों में
जैन साध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
आज भी वो राहें याद करती हैं जहाँ आपके ज्ञान-दर्शन-चारित्र की त्रिवेणी प्रवाहित हुई थी। श्वेत हिम की शाल ओढ़े काश्मीर की घाटियाँ आज भी आपकी बाट जोहती हैं । सोचती हैंवह श्वेताम्बर कहाँ है ? जिसके पाने से सन्तप्त-मानस मधुवन के गीत गुन-गुनाने लगा था। जिसकी चरणगति के समक्ष पहाड़ी झरने रुक गये थे, जिसके सुदर्शनार्थ हिमाच्छादित शृखलाएँ नमित हो गयी थीं। झील में तैरते हिमखण्डों ने ज्ञान के सूर्य से बात को थी
आज भी हिमखण्ड सोचते हैंज्ञान का वह सूर्य कब लौट कर आएगा? जो हमें ऊष्म कर विहार कर गया था। अापके दिव्य रूप को देख परिन्दे उस वर्ष शीत को छोड़ मैदानों को नहीं गये थे, वह आश्चर्यचकित थे हमसे भी निर्मुक्त-निर्बन्ध श्वेत पंख फैलाए संयम की मुंहपत्ति बांधे त्याग का मुक्तहार पहने यह कौन दिव्या गगन से उतरी है ?
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वदन की
अर्चनार्चन / १६
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आज भी आपको बाट जोहते हैं देवदारु । जो भीष्म प्रांधियों में टूटते नहीं झुक अवश्य जाते हैं, प्रांधियाँ चली जाती हैं औ' वह यथावत् हो जाते हैं । वही देवदारु चकित थे यह अन्य देवदारु कौन है ? जो विछोह-मृत्यु-सन्ताप-उत्पीड़न-अंधड़ों में न झुका, न रुका, न टूटा । अंधड़ स्वयं खण्ड-खण्ड हो टूट गये, हार गये, लौट गये ।।
अर्चना मुक्तक । संतरत्न पंडितप्रवर उदयमुनि म. सा.
नारी ने जग में भारतीय संस्कृति को रोशन किया है, प्रेम, त्याग, संयम, वात्सल्य का अमर संदेश दिया है। जैनधर्म भी है बड़भागी नारी ने इसे दिपाया "उदय", कभी चन्द ना कभी "अर्चना" बन संयम अंगीकार किया है ।।
दीक्षा-स्वर्णजयन्ती पर शुभ कामना करता हूँ, महासती को अपने शब्द-सुमन समर्पित करता हूँ। उमरावकुंवरजी धर्म में बने रहें उमराव "उदय", इस सुअवसर पर हृदयगत ये भाव प्रकट करता हूँ।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / १७
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अर्चनाष्टकम्
[] साध्वी उदितप्रभा 'उषा'
प्रसन्नवदनां शान्तां सर्वदात्महिते रताम् । वन्देऽहमर्चनामच्य सर्वशास्त्रविशारदाम् ॥ १॥
पीयूषवर्षिणीं वाचा, ख्यातां भारत कोकिलाम् । ज्ञानध्यान- तपोमग्नां सतीं संघशिरोमणिम् ||२||
साध्वी - निष्ठगुणैः पूज्यां, देशनामृतवर्षिणीम् । हितदां सर्वलोकानां वन्दे सर्वगुणान्विताम् ||३॥
देशनामेघवर्षेण, लोके क्रान्तिविधायिनीम् । ख्यापिकां जैन धर्मस्य, वन्दे साक्षात् सरस्वतीम् ||४||
स्वयमाचीर्ण साध्वाचारयुतां
चारित्रामन्येभ्यश्चोपदेशिनीम् । वन्दे, सुगुरुमर्चनाह्वयाम् ॥५॥
संयमे विभ्रती निष्ठां, योग ध्यान परायणाम् । भजते यो सदा भक्या, स याति परमां गतिम् || ६ ||
मनुष्यजन्मनो लाभो, लब्धो यस्याः प्रभावतः । गुरु
कृपा हि सा जीवेत्, समुखं शरदां शतम् ॥७॥
महासत्या इदं स्तोत्र - मुदितप्रभया कृतं । प्रभाते यः पठेन्नित्यं सर्वदा सः सुखी भवेत् ||८||
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अर्चनार्चन / १८
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अर्चना की अर्चना D साध्वी उदितप्रभा 'उषा'
धन्य घड़ी वह दिव्य सुपावन,
" माँ ने जन्म दिया। व्याप्त हुआ आलोक जगत् में,
__ सबका हर्षित हुआ हिया ।।१।। चरण-सेविनी शिष्या मैं हूँ,
शत-शत वन्दन अर्पित करती। गुरुवर्या के श्रीचरणों में,
भाव-कुसुम मैं हर्षित धरती ॥२॥ जो हितैषिणी वाणी द्वारा,
जन-जन को उद्बोधित करतीं। पीड़ित, दुःखित, प्राकुल मन की,
शोक, वेदना सहसा हरतीं ।।३।। मैं उनके हूँ पद-सरोज में,
विनत भाव से संतत अभिनत । मेरी जीवन-बगिया की,
संरचना की है जिनने शाश्वत ।।४।। विश्वविभूति, तपःपूता जो,
भाव-सुधामय जल से निर्मल । अर्चन, पूजन, अभिवन्दन जो,
आत्मदेव का करती उज्ज्व ल ।।५।। शब्दों में अमृत का निर्भर,
झरता रहता जिनके प्रतिपल । पुण्य प्रभा आलोकित आनन,
विकसाता आशा के शतदल ।।६।। गुरुवर्या की सदर्चना की,
महत्तरा की तपःसमंचित । सन्निधि में मैं हूँ आह्लादित,
हर्षित, प्रमुदित होकर प्राश्रित ॥७॥
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/१९
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गगन थाल में सज्जित करके,
दीपक तारों के उज्ज्वलतम। आराध्या की करू आरती,
स्मरण करू मैं गुणगण हरदम ।।८।। अभिरत, संरत, तन्मय निशदिन,
जो है उच्च योग-साधन में । आत्मज्ञान संयममय शोभित,
दिव्य चेतना जिनके मन में ॥९॥
नत मस्तक हूँ भक्ति-समर्पित,
आर्जव विनयांचित हर्षित मन । करती भावोल्लास-विकस्वर.
उनको कोटि कोटि मैं प्रणमन ॥१०॥
शासनचन्द्रिका महासती श्री झणकारकंवरजी म. सा. की प्रेरणा से
वन्दना चरणों में शत बार
। साध्वी चन्दन "साहित्यरत्न"
परम यशस्वी प्राप हो, अहो ! अर्चना सतीराज । धन्य हुग्रा पाकर तुम्हें, सारा जैन-समाज ॥ अमर रहो अविचल रहो, बढ़े चलो अविराम, वन्दन चरणों में स्वीकृत हो, सरलवृत्ति गुणधाम ।।१।। प्राणों के मधुमास तुम्हें, शत-शत वन्दन । जन-जन की परम श्रद्धा, तुम्हारा अभिनन्दन । जिनशासन की शान तुम्हें, नत-नत वन्दन । ओ ! गुणों की खान तुम्हारा, अभिनन्दन ।।२।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन / २०
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त्यागतपोमयी, समत्वयोगसंवाहिका, सत्योपदेशिनी महासतीजी म. के प्रति हृदय के
उद्गारों की सरल अभिव्यंजना
गौरव-गान - जैन साध्वी मधुबाला 'सुमन' शास्त्री, साहित्यरत्न
ऋषभदेव से महावीर तक, बह सतियाँ बड़भागी। मुक्ति-मार्ग पर निकल पड़ीं वे, घरद्वार की ममता त्यागी । भारत भू की जनता को है, इन सतियों पर गर्व महान् । जितना कहूँ, वही है थोड़ा, कह नहीं सकती एक जबान ।। जब जब धरती कांपी अघ से, साहस लेकर अड़ी रहीं। पावनता दी भूमण्डल को, संयम-बल से खड़ी रहीं। उसी श्रेणी में सती "अर्चना", सम्मान्या सत्करणीया। तपःपूत तेजोमय दिव्या, योगसाधना वरणीया ।। मधुकर थे गुरुवर गुणगौरव, उच्च शील संयम के धारी। उनसे शिक्षा ज्ञान गुणानुग, पाई जीवन में अति भारी ।। उन ही के आशीर्वादों से, पल-पल करती रहीं विकास । ध्यान-योग की उच्च साधिका, समुदित जिससे दिव्य प्रकाश ।। दर्शन कर मन मेरा हर्षित, वाणी से बरसे रस धार । वत्सलता से भरा छलाछल, दिया मुझे है प्यार अपार ।। लिखू विविध गुण मैं चुन चुनकर, बन जाता है गुणमय हार । वन्दन करती चरण-कमल में, स्मृतिपथ में ला तव उपकार ।। स्वस्थ शतायुर्मय जीवन हो, कीति-वल्लरी सदा बढ़े। योग-मार्ग पर चलते चलते, कदम सिद्धि-सोपान चढ़ें।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / २१
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
वन्दना के स्वर
D साध्वी हेमप्रभा, साहित्यरत्न
अर्चनाजी जैसे दुर्लभ ही मिल पाते हैं सन्त, भूले भटके जीवों को सही दिखाते पन्थ । प्रसन्नता है अत्यन्त हृदय ए रोम-रोम मेंदीक्षा स्वर्ण जयंती पर प्रकट हो रहा अभिनंदन ग्रन्थ ॥ माँ अनुपा की कोख से दादिया में जन्म लिया, तातेड़ और हींगड दोनों कुलों को उज्ज्वल किया । चार चाँद लगा दिये पिता मांगीलालजी की कीर्ति में संयम लेकर नोखा में सबको गौरवान्वित किया |
संयम पथ दिखलाकर मेरी जीवन वाटिका को सरसाया, जो कुछ थोड़ा ज्ञान है, वह सब ग्राप ही से पाया । आपका आपको समर्पित कर करती हूँ यह कामना, इस लघु शिष्या पर सदैव बनी रहे आपकी छत्र-छाया ॥ असहाय दुःखी जनों के मानो ये तो प्राण हैं, क्या करूं इनका बखान, ये तो पूरे गुणवान हैं । सागर सा विशाल हृदय धर्ममार्ग बतलाने वाले, गुरुवर्या श्री अर्चनाजी, सती-समाज की शान हैं || आपकी ध्यान मौन साधना बहुत ही निराली है, रहता नहीं कभी, कोई क्षण उससे खाली है । क्या वर्णन करूं आपके विषय में सचमुच हम सुकुमार पौधों के ग्राप सच्चे माली हैं ! | ग्रहण कर लेते हैं जो असार में से सार, मिलता जिनसे है मुझे हर पल माँ सा प्यार । ऐसे गुरुणीसा के चरणों में अभ्यर्थना है कोटि बार बाल अज्ञानी शिष्या की कर देना नैया पार ||
ज्ञानाभ्यास,
नित्य करती रहूँ गुरुवर्या रहती है पल पल ऐसी मन में पूरी आस । बदलेंगी नहीं आशा को निराशा में ऐसा, अल्पमति " हेमप्रभा " को है पूरा विश्वास ॥
अर्चनार्चन | २२
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नहीं है मुझ में तप, वैयावृत्त्य, सेवा के गुण, पर उत्कंठा है, इनमें होना चाहती हूँ निपुण । आपके आशीर्वाद एवं सत्कृपा से ही निश्चय, टलेंगे समस्त दुर्गुण, समाविष्ट होंगे सद्गुण || किन-किन की महिमा करू इनमें गुण अनेक हैं, करना बेड़ा पार शिष्या का यही "मेरी" टेक है । "परम" सौभाग्य का विषय है कि हम गुरुणी शिष्या केपितृ- नाम एक है और दीक्षा स्थल एक है ||
छोड़ दिया जिन्होंने सांसारिक मोह का बंधन, करते हैं जन-कल्याण, हरते दुखियों का क्रंदन । ऐसी गुरुवर्या के श्रीचरणों में श्रद्धापूर्वक - कर रही है ' हेमप्रभा' वन्दन अभिनन्दन ||
कितना सुन्दर है दादिया ग्राम
जहाँ जन्मे गुरुणीजी महान जन्म लेकर माँ अनुपा के अंक से
जहाँ जन्मीं गुरूणी महान
श्री गुरुणीजी म. सा. का. प्र. अध्यात्मयोगिनी परम श्रद्धेय उमराव कुंवरजी अर्चनाजी म. सा. की सुशिष्या विजयप्रभा
हम क्यों न हों उन पर कुर्बान
प्रथम खण्ड / २३
सुशोभित किया धरा के सुकुमार अंक को
दिया आपने भूली भटकी दुनियाँ को ज्ञान
आप
कितना सुन्दर है दादिया ग्राम ||१||
मेरे जीवन को भी किया छविमान
कितना सुन्दर है दादिया ग्राम ||२|| दुखों से आहत ग्रापके चरणों में झुक जाए
श्राप उन्हें अपनाएँ जिन्हें जग ठुकराए श्रमणी संव की शान
हैं
जहाँ जन्में गुरुणीजी महान ।
अनवरत भरती हैं आप ज्योतिर्मय चिन्तन
कितना सुन्दर है दादिया ग्राम
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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च
धन्य राजस्थान
1 साध्वी श्री वनिता बाई म. सा. भाइयो रे....सुवर्ण जयंति प्राजे रे उजवाय
धन्य राजस्थान, धन्य कहेवाय कल्याण याय, महोत्सव कराय
धन्य राजस्थान........ जन्मभूमि, मेरवाडामां दादिया गाम मोजार पिता मांगीलालजी, माता अनोपाबाई, जेमनी कुक्षी मोजार बहेनो रे....पुत्री-रत्न पामो, हैयारो हरखाय....
धन्य राजस्थान........ । जन्म साथे, सात दिवसमां, मातानो वियोग थाय पिता सुखे पण, वचित रहेतां, पराये दोर पडाय भाइयो रे....लधुवयमां, संसार सगपणे जोडाय
धन्य राजस्थान........ । मेरवाडामां दोराइ गामे, चंपकभाई साथे लग्न संबधो जोडी करीने, संसार सुखे राचे बहेनो रे...अल्पकाळमां सौभाग्य, खंडित थइ जाय ।
धन्य राजस्थान........ उमादेवी, सुख-दुःख जोतां, वैराग्य रंगे झूले पिता पुत्री, अकज रस्ते, करवा साधना साथे भाइयो रे.... नोखा गामे, दीक्षा महोत्सव कराय
धन्य राजस्थान........! दीक्षा गुरु, हजारीमलजी, जयमल गुरु परिवार सरदारकुंवरजी, गुरुणी आपना, संयम पंथ मोजार बहेनो रे....प्रोगणीसो चोराणुमां, वीरनो मार्ग लेवाय
धन्य राजस्थान........ सती अर्चनाजी, ध्यानमां झूमता, तप-जप करतां साथे यात्म-रमणमां, झूलता-झूलता, शिष्य मंडली साथे भाइयो रे.... अनेक जीवोने तार्या संसार मोजार
धन्य राजस्थान........ ।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | २४
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साहित्य-काव्यनी, रचना करतां, उपदेश अनेरो देता गुरुदेवनां, अधूरा कार्या ने, पूर्ण हर्षे करतां भाइयो रे.... देश-विदेशे लाभ प्रापे छे अपार
धन्य राजस्थान........ युग-युग जीवो, गुरुणी मारा, साधना सिद्ध करतां कल्याणकारी, मार्ग दीपावी, शासक रोशन करतां, बहेनो रे.... सती वनिता मांगे, आशिष अपार
धन्य राजस्थान........ । भाइयो रे.... सुवर्ण जयंति प्राजे रे उजवाय,
___ धन्य राजस्थान, धन्य कहेवाय । 00
मैं गुरूवर्या की परछाई 1 जनसाध्वी सुशीला 'शशि' साहित्यरत्न
प्रतीत होता थाजीवन-स्नायुओं में जंग लग गया है, प्रवाहित होती प्राणवायु, कितनी दूषित हो गई है,
का दर मोड दिग्भ्रांत करता था। आधे पाँव गर्त में धंसकर बार बार एक ही बिन्दु पर लौट आते थे । हर संबल बासी लगता था। अबलगता है, एक उजाला चारों ओर से मेरे समीप पा रहा है, ज्ञान-कुसुम हर सुबह अपनी पंखुरियाँ फैला मुझ से बातें करते हैं । श्रद्धा की पुरवाई मुझे कोई अांचलिक गीत सुना जाती है । तपोमयो शशि-ज्योत्स्ना मुझ से अाँखमिचौनी खेलती है। अब मैं"मैं" नहीं, परमोपास्या, परमज्योतिर्मयी गुरुवर्या की मात्र परछाई हूँ।
आई घडी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / २५
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जयउ एसा महाभागा
। शोभाचन्द्र भारिल्ल
सज्झायरया सज्झाणरया,
सिवसाहणत्थसज्जोगरया । कम्मक्खवणट्ठ तवे निरया,
समभाव-सुधारसपाणरया। वेरग्गरंगरंजियहियया,
पुहवीव सया खमया कलिया। विसया विरया संवर-सुरया,
'उमराव सती' नरविंदनुता ॥
मायाहीना वि मायेव वच्छल्लसमन्निया । सिस्सावग्गसमग्गस्स रक्खणे परिपालणे । न केवलं 'दया पालो' इइ संदेसदाइणी। सयं सक्खं दयारूवा भगवई एस भासइ । कंठो पीऊसपवहो, हिययं पीऊसवारिही । जीहा वरिसति पीऊसं, जरा-मरणनासयं ।। अज्जा अच्चणा एसा अच्चणिज्जा मणीसिहिं । सद्धासंजुयं जीए, दसणं सन्तिदायगं ।। समणीसत्तमाए ख माहप्पं किंपि अभयं । चंदाणणा वि दिप्पेइ तेयसा सविता इव ।। पुढवि सग्गं विधातुं या सग्गामो समागया । जयउ एसा महा भागा, सयवासं जसंसिणी ।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन / २६
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शत-शत वंदन 1 आर्या प्रतिभाकुमारी म. सा.
आपकी छाया में दीक्षित हो लगा, जैसे दूर से थके हारे आये प्राणी को, मिली हो घने वट वृक्ष की छाया । आपके ज्ञान-लोक में आ ऐसा लगा, जैसे दूर से उड़कर आये प्यासे पंछी को, मिल जाये शीतल जल का झरना । आपके पदचिह्नों पर चलकर ऐसा लगा, जैसे अनावृष्टि से सूखी सरिता को, मिल गया हो सागर का किनारा । बस एक हो कामना है, जपती रहूं आठों याम अपनी श्रद्धया गुरुणीजी म.सा. का नाम, जिनका मुझ निरावलम्ब को मिल गया सहारा ।। दीक्षा-स्वर्णजयंती का पावन दिवस आया । मन हरषाया, मंगल गीत गाया ।। इस शुभ अवसर पर, हे जैनजगत की श्रमणीरत्न ! चरणों में करती अर्पित श्रद्धासुमन । हे ध्यानयोग की परम साधिका ! प्रतिभा करती वंदन शत-शत वंदन/अभिनंदन !
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / २७
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यशस्विनीनां महासतीनां श्रीमदुमरावकुंवराख्यानाम् यशोराशिसमुच्चयः
0 पं० रमाशंकर शास्त्री
वन्देऽहं प्रथमं मुनीशयुवकं मिश्रीमलाख्यं मुनिम्, नाम्नाऽन्येन सदा पुनर्मधुकरं यावज्जनं संस्तुतम् । तस्यैवेयमहो सती गुणवती शिष्याऽस्ति या प्रस्तुता, कीर्तेः पात्रमतो भवेदतिनताऽप्यन्ते वसन्ती स्वयम् ॥१॥ वैराग्यातिशयेन वा सदुचिताभ्यासस्य वृत्या सती, दिव्याभा प्रतिभाविलाससुगुणैरभ्यस्तशास्त्ररियम् । साध्वीष्वेव न सत्स्वपि स्वयमहो जैनेषु संराजते, नाम्नोस्रावकुमारिकाऽस्ति सुयशा वासोभिरत्युज्ज्वलैः ।।२।। स्वाध्यायप्रकरोद्यतोन्नतिचयैर्योगादियत्नैरियम, स्वात्मानं सततं प्रदीप्तगतिभिनिर्वाणसं सिद्धये । दोषाऽहं यतते प्रसन्नहृदया साध्वीषु तत्त्वोन्मुखा, नेदं मे मननं परन्तु विदुषां सारोन्नतानामपि ।।३।। एतास्वेव सतीषु नित्यमधिकं सत्त्वं सदा वर्द्धते, पापोधो विगलन् स्वयं क्षरति यत् दुःखास्पदं विद्यते । तस्मादेव नमन्ति पुण्यमनसः पूतात्मरूपार्चनाम्, लोका लोकसुखं विहाय मनसा त्यागस्य मार्ग ययुः ।।४।। यस्या दर्शनमात्रतो हि विकल: शान्तेः सुखं भावयन्, चिन्ताचित्तपरायणोऽपि मनुजो धैर्यं सदाऽलम्बते । प्रौदा-दिगुणप्रसादविभवोद्भूतां श्रियं श्रेयसे, दीव्यन्तोयमहो सती सदसतो व्यार्चना विद्यते ।।५।। कि स्यामेवमहो कथं कथयितुं पूर्णामिमां साध्वसम्, साध्वी भाग्यमपीह मे विफलितं दृष्टं मया सर्वथा । आशेयं बहुशोऽस्ति साम्प्रतमयो सत्या महत्याः कृपा, दध्यादेव विशेषमङ्गलकरं काव्यं मदीयं स्वतः ।।६।। जानेऽहं शुभरूपतः प्रथमतः शिक्षावबोधादिमाम, दृष्ट्वैवं चकितो भवन् पुनरहं पापृछयमानोऽभवम् । श्रीपुष्पाकुसुमादि नामभिरितोऽप्यार्याभिरन्ते स्वयम्, अस्या एव सखीभिरद्य जगति ख्याताभिरुद्बोधितः ।।७।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | २८
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सैवेयं प्रथिताद्य शोभनमतिर्योगादिविद्यावती, काश्मीरप्रकृतिप्रधानगुणितां भूमि विहुत्याप्यहो । प्रख्याताऽस्ति गुणरनेकसुगमैः श्रेष्ठश्च भावोज्ज्वलैः, सत्यं शीलविशेषसंगममयं रत्नत्रयं शोभते ।।८।। व्याख्यात्री निखिलागमस्य सरसैक्यिामृतनिझरा, तत्त्वोद्बोधकसागरस्स सुकृतेः शब्दार्थमन्दाकिनी । बोद्धी योगवियोगमूलसरणेभक्तासु या चन्दना, सैवेयं भववन्दना भगवती साध्वीषु नामार्चना ।।९।। केऽप्येवं कथयेयुरित्यलमिदं सत्या: प्रशंसात्मकम्, अस्याः केवलमस्ति वर्णनमहो तेषां कृते सादरम् । वच्म्येवोत्तरमस्तु मे समुचितं सत्यं सती वर्तते। हस्ते त्वामलकी स्थितां न हि पुनर्जल्पेत जम्बूफलम् ।।१०।। आर्यायाः शुभशीलपूतमनसः साक्षाद्विवेकात्मनः, तथ्यस्यन्दि विशेषभावभरितं साहित्यमुद्योतकम् । धृत्वा हृद्यमिदं स्वतो भविजनः स्वात्मानमुज्जृम्भते, कस्तूर्याः परिचायको हि विमलो गन्ध : स्वयं राजते ।।११।। श्रद्धाराद्धगुरुप्रभावमहिमा स्वान्तं नितान्तं सदा, शिष्यस्य क्षतकर्ममूलरजसो ज्योतिविशेषं दधत् । सज्ज्ञानेन विज़म्भितं सुविमलं कुर्वन् परं सारवित्, कत्तु स प्रभवेदनन्यपुरुषं सिद्ध यथेमां सतीम् ।।१२।। गाम्भीर्य मृदुभाषणेन सहसा मन्दोऽनुमातुं प्रभुः, जायेताऽपि, गुणी कथन हि पुनः सत्या महिम्नः पदम् । अस्यास्तेजस एव रूपमितरां ख्याति वदेत् योगिनः, दृष्वेमां सुतरां सती सुगृहिणो निश्चेतुकामा न ते ।।१३।। तस्मादेव वदन्ति पूतमनसो भक्ता: किमप्यद्भुतम् , तेजोऽस्याः, समये च केऽपि मुनय स्तिष्ठन्ति वाचंयमाः । अस्मिन्नेव हि मेऽस्ति वर्णनमिदं शृण्वन्तु सर्वे पुनः, साध्वीयं जगदुत्तमा गुणवती धन्या वदान्याऽप्यतः ।।१४।। विद्यामूत्तिरियं हिताय जगतो जीवोद्धृतेर्बोधिका, मिथ्याज्ञानविरोधिनीव सततं सदज्ञानवारानिधिः । शिष्यामिः सकलाधिसाधकगुणज्ञानोत्तराभिः समम्, संसारे विषये विवेकसरितो धारेव संशोभते ।।१५।। जैनस्येयमहो प्रमाणमतुलं धर्मस्य दृष्टं जनैः, सामान्या विधवाऽपि वीरसुमुनेर्दीक्षादिपञ्चव्रतः । लब्धं याति परं पदं प्रतिपदं सत्यस्य संसेवनात, आश्चर्यं किमुताधिकं यदि पुनः प्राप्नोति मुक्त : पदम् ।।१६।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / २९
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रूपं किं सुमनोहरं सुघटितं वैराग्यवृत्तेः पुरा, दीक्षायाः परिपालनात् पुनरहो जाने विलीनं स्वतः । मन्येऽहं सकलं तदेव सततं चारित्र्यसिद्धया समम्, योगादिक्रिययाऽथवा परिणतं स्वान्ते स्वयं शोभते ।।१७।। तस्मादेव विशेषरूपघटिता शक्तिः समालोच्यते, नान्यो हेतुरिहास्ति कोऽपि मनसा जानेऽनुमानेऽप्यरे । भद्र! त्वं न हि विद्यसे प्रतिदिनं सत्या यशोऽस्याः स्वयम् वृद्धिं याति निरन्तरं परिगतं व्योमेव सिद्ध : पदम् ।।१८।। सांनिध्यं नितरामभीप्सिततमं प्रेक्षावतां श्रीमताम्, भक्तानामपि दृश्यते प्रतिदिनं सत्याः समीपेऽधिकम् । अस्या एव विशेषतां समुचितां व्यक्तीकरोत्येव तत्, वैशिष्ट्य जगदुत्तमं प्रतिदिनं वन्द्येत भक्त जनैः ।।१९।। सत्योऽन्याः शतशो हि सन्ति भुवने सत्यैर्गुणैः शोभिताः, ता सर्वा अपि वन्दनीयचरणा: पूज्याः सदा सादराः । किन्त्वस्या गुणगौरवं किमिव यत् सत्याः परं दृश्यते, तद् वक्त न हि शक्यते किमु मया नान्यैर्गुणाराधकैः ।।२०।। यत्सत्यं जगतीतले किमपि तद् वर्तेत मान्यं सदा, स्थाने वाऽवसरेऽथवाऽपि विषमे तस्यैव पूज्यं पदम् । कृत्वैवं परिचिन्तनं समुचितं मन्येऽहमेवं पुनः, वन्द्याः सन्त्यभिनन्दनीयपुरुषा लोकेऽभिनन्द्याः समे ।।२१।। माहात्म्यं परमं भवेदभिमतं कस्यापि तत्सम्भवेत्, साधो, यदि वा भवेदनुपमं सत्या महत्या अपि । तद् वन्द्यं त्वभिनन्दनं सुविदुषामस्त्येव लेखाञ्जलिः, प्रस्तूयेत विचारधीरधिषणविद्वद्भिरत्यद्भुतः ।।२२।। मुग्धोऽयं मनसोऽनुकूलमपि तं पद्यप्रसूनाञ्जलिम्, निर्मायव सुखेन सम्प्रति पुरो धृत्वा नमत्यादरात् । वारेण त्रितयेन पृच्छति पुनः शान्तेः कथां श्रद्धया, भक्ता किं कथयेदशक्तषुरुषः सत्याः पुरो वन्दनात् ॥२३॥ नाहं ते गुणराशिमेव वदितुं शक्नोमि सत्यं पुनः, तस्मादेव करोमि किञ्चिदधिकं शब्दैः सहाऽदम्बरम् । अज्ञः किंकथयेत्तथाऽपि बहुशो भक्तया करोत्यर्चनम्, ज्ञात्वैवं सकलं क्षमेत गुणिनां शोभामयी मण्डली ॥२४॥ केयं दिव्यसती महागुणवती योगिन्यनन्योपमा, क्राहं यो नितरामबोधपुरुषो रात्रिन्दिवं यापकः । ज्ञातुं तां परमार्थतः प्रभुरहं जायेय यत्नैः कथम्, तस्मादेव मुधा मुदा कथयितुं मग्नः सतीमर्चनाम् ।।२५।।
अर्चनार्चन | ३०
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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किञ्चातः कथयेयुरर्चनपदात् विद्वांस उद्बोधकाः, अस्या दिव्यगुणावतंसमनसो नाम्नाऽर्चनायाः पुरः । तस्मादेव करोमि शब्दकुसुमैः प्रत्यक्षमेवार्चनम्, मुग्धोऽन्धोऽनुकरोति तावदधिकं देहेन भावं स्फुटम् ।।२६।। साहित्येन शुभेन मानवहितं माङ्गल्यमूलं परम्, तन्वन्ती सदृशी मया गुणवती भूमौ न दृष्टाऽधुना । धन्येयं वसुधातले विजयते नाम्ना सतीत्यर्चना, वन्देऽहं समयेऽर्चने सनमनं तामेव पद्यैः समम् ।।२७।। आख्येयं किमतोऽधिकं गुणगणं सत्या महत्याः पुरः, अस्या योगसुधानिमग्नमनसो हंस्या न मन्ये पुनः । मन्दस्यास्य कवेरनु कथं स्वप्नेऽपि शक्तः परम् , वयं वर्तत एव साम्प्रतमहो मौनं वरं श्रेयसे ।।२८।। वाग्मी ना नाऽहमतो यथातथमिदं पद्यैः शुभैरर्चनम्, सत्याः कर्तुमशक्त एव भुवनेऽभूवं न चित्रं पुनः । वाचालस्य जनस्य वृत्तिरथवा मुग्धस्य वाचो गतिः, क्षम्यैषाऽस्ति मनस्विभिः सुकविभिर्विद्वद्भिरेवानिशम् ।।२९।।
अविदितरससारं मादृशं कोऽपि लोके, कविमपि सहसेमं वक्त महेंदधन्यम् । तदपि पदसमूहं योजयन्नर्चनाय, मनसि न पुनरेवं शङ्कतेऽयं विचित्रम् ।।३०॥ किमपि यदि लिखेयं त्वर्चनाया हि सत्याः, झटिति पदसमूहः प्रेरयत्येव चित्तम् । पुनरति किमु शोचे मन्यतेऽस्याः प्रभावात्, द्रुतमपि रचयेयं शङ्करोऽहं रमायाः ।।३१।। किमहमधिकतो वर्णयेयं चरित्रम् शुभतममपि हृद्यं विद्यतेऽस्यास्तु सत्या: । परमगुणनिधेरन्ततः पारमेतुम्, किमु गतिरहितोऽहं शक्त एवं भवेयम् ॥३२।। सरलमपि सदेकं वस्तुजातस्य भारम्, वहति न पुनरेक: शक्तिहीनो मनुष्यः । सुगममपि चरित्रं वर्णयेत् कोऽप्यशक्तः, कथमपि पदहीनो भावदीनो यथाऽहम् ।।३३।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड | ३१
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भवतु किमपि किञ्चित् वर्णयाम्येव काव्यम्, सुरसमसुरसं वा शब्दचित्रं रचयेयम् । इह हि रचितमस्या योगवत्या महत्याः, सरसमपि यतः स्यादर्चनाया: कृपायाः ।।३४।। यदपि रचितमेतद् भावपूर्ण सुकाव्यम्, परमपि कथनीयं दोषदग्ध त्वमस्मिन् । भवति यदि सदोषं काव्यमेतत् कृपाया:, अणुरपि रमणीयो मे सहायः कवीनाम् ।।३५।। अहं कविर्वा न च पण्डितोऽस्म्यहो ! परन्तु विद्ये विदुषां वशम्वदः । करोमि काव्यं मनसोऽभिरञ्जकम्, गुरोः कृपात: कुशलोऽपि शिक्षणे ।।
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अद्धा-सुमन 0 जीतमल चौपड़ा, अजमेर
महावीर शासन दिपे, श्रमणी संघ प्रभाव, हार हुई हिवड़ा तणी, महासती "उमराव" । सत संयम की राह चल, जूझी संघर्ष मांय, तिल भी पीछे ना हटी, लीनो सत्यश पाय । उगन्ते माता गई, परणत गए पति देव, महाव्रत दे गुरुणी गई, भगवत राखी टेव । राव रंक के साथ में, सदा सरस व्यवहार, वचनामृत पी प्रेम से, केइ हुआ भव पार । कंटक कर्म निवारवा, तप जप कियो धरधीर, वसुन्धरा पावन करी, जा पहुँची कश्मीर । रमणीरत्न सुहावणी, अध्यात्मयोगिनी जान, जीवन सेवा में दिया, कंठ कोकिला मान । कोति चहुं दिश है घणी "श्री अर्चना" नाम, जन जन के मन में बसी, जगबल्लभ गूणधाम । यह ही प्रभु से प्रार्थना शत-शत वर्ष मंझार, हो दीर्घायु "जीतमल", शासन की सिणगार ।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन / ३२
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झारण-समत्थ-साहिआ - डॉ. उदयचन्द्र, जैन एम, ए., पी-एच. डी.
भवतम-णिण्णासणस्य जो जिणिंद विव रिसहणाहो खलु । तं पणमामि सया हं पवित्त-गुण-सामिद्ध-हेउं ।।
कसाय-दोस-हारी वि जय जिणराय-अजियं महिय-डंभं ।
सुक्क-झाण-झाइयं वि जय-त्तय-सोक्ख-कारि-संभवं ।। सुह-परम-णाण-जुत्तं जय णाण-चक्खु-अहिणंदणं जिणं । सयलजिणेसराणं वि पणमामि सुद्ध-सिद्धीए हि ।।
जिणझणी पयासिया जिण-वयणधणी गोयमो है मुणी।
सव्वे जिण-पह-गामी जय प्राइरिय-उवज्झ-साहूण ।। अणुक्कम-सम्म-णाणी पाइरिय-वाणी लोय-पहाणी वि। ते दितु विसाल-मई हजारीमलधम्माइरियो ।
तस्स अण्णाणुवट्टी सिरीउमरावकुंवर-महासई ।
सत्थथेहि सोहिया सायर-सम-जस-रिद्धि-जुत्ता ।। झाण-समत्थ-साहिआ
णिम्मल-गुण-गणहारी जिण-वयणी-मण-संसय-सय-हरणी। झाण-समत्थ-साहिया सिरि-सील-णिकेय-सिहरिधया ।।
णिच्च-णिरंजण-सु-जण-हिय- णाणदिवायर - गुणरयणायरं ।
सयल-तिमिर-खय-करणं सविणय-भाव-धम्मधुरंधरं ।। पसम-विणय-कित्ती-धी जीवाणुकंपावरतर-पुण्णसिरी।
सव्वेसि जीवाणं कप्पव्व वराणंद-दायिणी । सिद्ध-हत्थ-लेहिगा
गुरु-भत्तीए एसा आगमत्थ-धम्म-सारं विजाणइ ।
सुणिम्मल-रयण-मणिव्व सत्थ-समुद्द-तरण-तरणी वि ।। पाणंदिय-समणी सा सत्थ-सारं स-लेहणीए लिहइ । जण-मण-णयणाणंदा सिद्ध-हत्थ-लेहिगा सया ॥
जिणवरवयण-पवीणा परम-सोम्म-सरल-हियय-महासई । विज्जाए वररत्ता गंगा-सम-संपत्त-पवित्ता ।।
आई घड़ी अभिनंदन का चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/३३
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अभिनन्दन-गीत
डॉ० शोभनाथ पाठक एम. ए. [हिन्दी, संस्कृत] पी-एच. डी. साहित्यरत्न
दीक्षा स्वर्णजयन्ती पर, अभिनन्दन भरा प्रणाम है। महासती उमरावकुंवर का, अमर हो गया नाम है ।। जन्मस्थल से ग्राम दादिया, वन्दनीय अभिराम हुआ। उन्निस सौ उन्नीसी संवत्, मंगल वैभववान् हुआ । तिथि सप्तमी हुलस उठी पा, ऐसी अद्भुत थाती को । भरत भूमि भी धन्य हो गई, अर्पित नमन प्रभाती को ।। धरती माँ की गोद भर गई, धन्य हुआ यह धाम है। महासती उमरावकुंवर का, अमर हो गया नाम है । मांगीलाल महान पिता से, महामुनीश्वर कहलाये । माँ अनुपादेवी महिमा से, सचर-अचर सब हर्षाये ।। श्रमण धर्म को मिली साधिका, अतुलनीय आलोक हुप्रा । पांचों व्रत अब निखर उठेंगे, अति हर्षित भूलोक हुा ।। सतत समर्पित जैन जागरण-की सेवा निष्काम है। दीक्षा स्वर्णजयन्ती पर, अभिनन्दन भरा प्रणाम है ।। परम पूज्य सरदारकुंवर से, दीक्षाविधि सम्पन्न हुई । नोखा वसुधा इसी कृपा से, परम पावनी धन्य हुई ।। प्रवचन भ्रमण सतत जनसेवा, चिंतन मनन गहन शिक्षा । दर्शन-धर्म-समाज संवारक, मिली अनेकों को दीक्षा ।। इस वरीयता की विभूति में, चिंतन आठों धाम है । महासती उमरावकुंवर का, अमर हो गया नाम है ।। अभिनन्दन यह ग्रन्थ समर्पित, सती अर्चना का प्रादर्श । ज्ञान-ध्यान उपमान नहीं, धन्य हो गया भारतवर्ष ।।
आलोकित अध्यात्म हो गया, सबको सतत संवार मिला। निखर उठी नैतिकताएँ अति, युग को नया उभार मिला ।। महासतीजी की महिमा से, यह युग अति अभिराम है। दीक्षा स्वर्णजयन्ती पर, अभिनन्दन भरा प्रणाम है ।।
आई घडी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन / ३४
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मालवज्योति, साध्वीरत्न श्रीउमरावकुंवरजी म. सा.
अभिनन्दन-डादशी - एस. जयसिंह छाजेड़ 'रत्नेश' बी. ए. 'जैन सिद्धान्तप्रभाकर'
परम विदुषी सती-शिरोमणि, मालव-ज्योति विख्याता है। अध्यात्म-जगत् की परम साधिका, उमरावकुंवर प्रख्याता है ।।१।। गौरवमय अजमेर क्षेत्र को, लेकर जन्म किया पावन । छाई खुशियाँ जन-जन में ज्यों, हरा भरा आया सावन ।।२।। मांगीलालजी पिता आपके, अनुपादेवी थी माता । जन्म हुआ जब आपश्री का घर-घर मंगल सुखसाता ॥३॥ वाल्यकाल बीता सुख से अति, यौवन की घड़ियाँ पाई। झूठे हैं सब जग के सपने त्याग-भावना लहराई ॥४॥ उन्नीसौ चौरानवें सम्वत्, अगहनवदि ग्यारस रविवार । नोखा में दीक्षा गृहीत कर, छोड़ा यह संसार असार ॥५॥ पूज्य प्रवर्तक हजारिमल की, आज्ञानुगता सरदारकुंवर । उनके कर-कमलों से उत्तम, संयम अपनाया श्रेयस्कर ।।६।। भूले भटके भव-पथिकों को तुमने राह दिखाई है। दया-धर्म और स्नेह-भाव की, मन्दाकिनी बहाई है ॥७।। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, इंगलिश-भाषाओं पर है अधिकार । न्याय, व्याकरण, काव्यमाधुरी, ज्ञान भरा है अपरम्पार ।।८।। जिनवाणी का सिंहनाद कर, सोई सृष्टि जगाती हैं। जिनवर प्रतिबोधित शासन में, धर्म-ध्वजा फहराती हैं ।।९।। गुण अनन्त हैं महासती के, कैसे मैं संगान करू ? सागर को गागर में भरने का, मैं क्यों अभिमान करू ॥१०॥ श्रमण-संघ की मुकुटमणि हो, मानवता की ज्योति विनिर्मल । ध्यानयोग की श्रेष्ठ साधिका, मुक्तिमार्ग में अभिरत अविचल ।।११।। सत्य क्षमा की दिव्य मूर्ति हो, यश गाता सारा संसार । "रत्नेश" अतिभक्तिभाव से, करता अभिनन्दन शत वार ।।१२।।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / ३५
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अर्चनीय से पहचान पुरानी है
- कमला जैन 'जोजो'
महासती उमरावकुंवर की जग ने सुनी कहानी है । पर मेरी उन 'अर्चनीय' से अति पहचान पुरानी है। संघर्षों से घिरा हुआ था बहुत पूर्व मेरा जीवन, अटका-भटका उलझावों से परिपूरित था मेरा मन । खोजे नहीं मिल रहा था जब कोई मुझे सुदृढ़ संबल, दिव्य-विभूति 'अर्चना' जी ने समझी थी मेरी उलझन । अपने अनुपम गूढ़ ज्ञान से मुझे सहज समझाया था। जीवन और जगत के रंगों का भी भान कराया था। उनका दैवी शक्ति-रूप सान्निध्य मुझे अति भाया था। क्योंकि उन्हीं ने सच्चे जीवन-पथ पर मुझे बढ़ाया था । सीमातीत निष्कपट ममता सौख्य भाव भी सदा दिया, जन्म-जन्म के नाते का बंधन हो ऐसा मान लिया । उस अभिन्न स्थिति में दिन महिने और वर्ष कितने बीते ? हुई न गणना औ हिसाब बस पंख लगाकर समय गया। उनके उपकारों का प्रतिफल कहाँ दिया जा सकता है क्या उनके सौजन्य, स्नेह का मूल्य किया जा सकता है ? कछ पंखडियां गाढ-भक्ति की, मात्र समर्पित करनी हैं। चरणों में श्रद्धापूर्वक यह तुच्छ भेंट ही रखनी है। मानस-पूजा और अर्चना तो अब भी अनजानी है। महासती उमरावकुंवर की जग ने सुनी कहानी है। जन-जन की आस्था पाकर भी, निरभिमान जो रहीं सदा, श्रमण-संघ का अनुपम 'श्रमणी-रत्न' सभी ने उन्हें कहा । दप-दप करता अन्तर-बाहर द्विगुणित ज्योतिर्मय संगम, जिसने देखा औ' जाना विस्मय-विजड़ित-सा वही रहा । सरस्वती ने स्वयं वास कर ज्ञान विभूषित इन्हें किया, आगम-विज्ञ 'स्वयं-सिद्धा' बनने का शुभ वरदान दिया। पवन-वेगवत् आत्म-साधना के पथ पर गतिमान रहीं, प्रतिपल प्रतिभा प्रखर हुई जन-मानस जिनने जीत लिया।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | ३६
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धरती-सी क्षमता है इनमें कमलनाल - सी मृदुता है । अन्तर में करुणा का सागर, गंगा-सी पावनता है । मुख-मंडल पर अकथ सौम्यता शिशु के सदृश सरलता है । किन्तु नियम, यम, संयम में तो वज्र सरीखी दृढ़ता है । जीवन मधुर मधुर वचनामृत, उद्बोधन द्वारा भरता । मंत्र-मुग्ध श्रोताओं का मन-मानस आप्लावित करता । विविध- प्रदेशी भाषाओं का निर्भर निराबाध बहता । धर्म, पंथ श्री सम्प्रदाय के विष से सदा परे रहता ।
मनुज-धर्म को विश्ववन्द्य करने की महासती उमरावकुंवर की जग ने
जिसने
सुनी
साधक थे । उपासक थे ।
शासनसेवी व्रजमुनि सच्चे संत और दृढ़ युवाचार्य मुनि 'मधुकर' ज्ञानागार महान गुरुवर्यो का अग्रगण्य शिष्यत्व आपने प्राप्त किया । उनका मस्तक गर्वोन्नत कर अनुपम प्रतिफल उन्हें दिया । नगर-नगर श्री ग्राम-ग्राम में जाकर अलख जगाई है । काश्मीर के चप्पे-चप्पे तक सौरभ पहुँचाई है । परीषहों, उपसर्गों ने पग-पग पर पथ अवरुद्ध किया, महाकाल ने समय-समय पर निष्फल ही पर झाँक लिया ।
ठानी है ।
कहानी है ।
कदम थके ना रुके कभी, गिरि, घाटी, गहन - गुफाओं में । बढ़े निरंतर बीहड़ श्री हिंसक पशुओं के सायों में । उनके ही पहरों में जब-तब निर्भय हो विश्राम किया । अन्तर कभी न माना फणिधर नागदेव या गायों में । जहाँ जाति के जैन-जनों का मद्यमांस ही खाना था । धर्म नाम के हौवे को जिनने न कभी पहचाना था । प्रथम 'अर्चना' जी से ही जैनत्व जिन्होंने जाना था । नव-जीवनदायिनि को प्रति उपकृत होकर गुरु माना था ।
उनकी दिव्य, विलक्षण प्रतिभा सबकी जानी-मानी है । महासती उमरावकुंवर की जग ने सुनी कहानी है । लिया ।
किया ।
प्रथम खण्ड / ३७
पाई ।
परम पुनीतात्मा ने जब धरती पर प्राकर जन्म मात्र सात दिन में जननी ने स्वर्ग लोक प्रस्थान जाना नहिं मातृत्व और माँ की पहचान न हो कभी न माँ का आँचल प्रोढ़ा, कभी न लोरी सुन पाई । शैशव गया बाल्यवय में ही परिणय का वरसूत्र बंधा । चंद मास में ही 'साथी' को काल ले गया हो अंधा ।
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सारहीन नाते मिटते देखे ज्यों दिनकर नित्य ढले, शाश्वत सुख पाने को संयम-पथ पर दृढ़तर चरण चले । ज्ञान, क्रिया, तप, त्याग सभी का अद्भुत संगम हुआ तभी, द्रुततर आत्मोन्नति करने की लगन बढ़ी ना घटी कभी। योग-साधना के बल पर परमात्मा से नाता जोड़ा, उस अपूर्व 'वर' ज्योतिपुंज को मनुज देखते रहे सभी । अर्ध-शतक दीक्षा-जयंती का शुभ अवसर अब आया है, शत-शत अभिनंदन देने को मेरा मन उमगाया है। जिएँ सहस्रों साल निरंतर जिन-शासन को दीप्त करें, फैले प्रतिपल नील-गगन में यश-वितान जो छाया है। महामहिम उन-सी वे ही हैं और न कोई सानी है, महासती उमरावकुंवर की जग ने सुनी कहानी है।
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महिमामयी महासती के महिमा-कण
D खुर्शीद 'अजेय'
उ उर उल्कित, उल्लासित करता उद्बोधन-उच्चार ! म मरुस्थल में मधुवन मुसकाता, बरसे मेघ-मल्हार !! रा राउर रसना रसवन्ती, रसवादी, रसल-रसार ! व वचस्कारिणी, वीतरागिनी! विकसित विमल विचार !! कु कुंदन-सम, कुलवन्ती, कोमल कादम्बिनी-समान ! व वत्सलता ऋजुता मृदुतामय, विनयशील-विद्वान् !! र रत्न-दीपिका, रत्नमंजरी, ऋद्धि-सिद्धि-रविजात !
राउरे आशीर्वाद से लाए, खुर्शीद "अजेय" प्रभात !!
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन/३८
Jal.. Education International
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भयावह सन्नाटे के बीच जागता मुस्काता है एक दीप वंदन-अभिनन्दन प्रो० संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र'
घोर कलुषित झंझावात और सन्नाटा चारों ओर निपट काली निशा प्राची के हिस्से में फैली कोई घाटी घिसी-पिटी आदतों की परिपाटी साँय-सांय करते हुए कालजयी घेरे बोझिल-सी सांसें जैसे मानव-कंकाल के चिह्न तराशता-तलाशता-सा "समय" भटक गया हो। कोई गतिहीन निराश्रित पहिया अपने जिस्म के हिस्से से कटकर कहीं ठहर गया हो। तभी कहीं "मैं" की बूझती-सी एक अद्भुत दिव्य ज्योति फैल जाती है उस संदिग्ध घाटी के रन्ध्र-रन्ध्र में और मेट-समेट देती है समूची सड़ांध भरी काली कलुषित निशा को और प्यास का विकल्प जैसे छंट कर तिर जाता है। मेरा विश्वास मेरी आत्मा पर बोझ नहीं है
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/३९
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आई घड़ी अभिनंदन की | चरण कमल के वंदन की
अज्ञता की पर्तों को मैंने " मानक" नहीं दिया है और पहिचाना है अपने को 1 अपनों से मिलकर
अपनों में जिया है ।
अर्ध शतदलों के मध्य
मैंने अपने को तराशा है / तलाशा है ।
साधनाओं के कठोर कड़वे पथ पर आत्मोत्कर्ष के शिखर पर
सीढ़ी-दर-सीढ़ी
ज्यों-ज्यों चढ़ना हुआ
त्यों-त्यों घाटियाँ भी सिमट कर समतल में तबदील हो गयीं ।
नम्रता और उदारता
उत्साह का घना घेरा सभी कुछ
जैसे उनके भीतर के
गहरे सागर में समा गया हो । ऐसी महामूर्ति,
योगानुभूति,
त्यागमयी,
महासती,
उमराव कुंवरजी, "अर्चना" जी को
निवेदित है
शत-शत वन्दन !
अभिनन्दन ! !
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अर्चनार्चन / ४०
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प्रथम खण्ड / ४१
कोटि-कोटि प्रभिनन्दन
विज्ञान 'भारिल्ल ' बी-कॉम. सी. ए., साहित्यरत्न
शत-शत वन्दन, कोटि-कोटि अभिनन्दन ! रवि किरणों-सीज्योतिपुञ्ज,
हो तपोमूर्ति तुमक्षमाशील धरती-सी ! पावन गंगा की लहरों-सी,
उज्ज्वल
मानसरोवर की -
हंसिनी के पंखों-सी।
अष्ट सिद्धि
नव निधि
जगत में
छाया रूप तुम्हारी,
आर्तजनों की -
करुणा हो तुम - त्यागमयी कल्याणी ।
चरण कमल में
देवि ! तुम्हारे -
बारम्बार नमन !
शत-शत वन्दन !
कोटि-कोटि अभिनन्दन ! वीणापाणी के मन्दिर की
प्रतिमा -
ज्ञानमयी हो;
शारद माँ की—
स्वरलहरी हो,
महावीर के हिमशिखरों सेझरती जिनवाणी हो !
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आई घड़ी अभिनंदन को चरण कमल के वंदन की
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जिनशासन कीदीपशिखा-सीविरल तापसी तुम हो, कठिन साधनाध्यानयोग कीदीप्ति रूप आभा हो! उन्हीं "अर्चना" कोभावों केअनगिन सुमन समर्पण ! शत-शत वन्दन ! कोटि-कोटि अभिनन्दन !!
भावांभिनन्दन डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय, खाचरौद
लक्ष्मी हो या दुर्गा हो तुम सरस्वती कल्याणी, शाश्वत-सुख की महाप्रणेता ओ 'अर्चना' सयानी ! गौरवर्ण, चन्दा-सी प्राभा आलोकित है मुखमण्डल, अनुपम, अदभत रूप तुम्हारा ज्ञानाभामय ज्योति कमल । प्रथम दर्श में हुई समर्पित मैं सारी की सारी, शाशत सुख की महाप्रणेता, प्रो अर्चना सयानी ! जीवन मृणाल पर हैं सुरभित शुभ सूगुण राशि के दलशत, झरता अजस्र जीवन प्रपात, तव यूं लगे कि कोई परिजात । हे करुणामयी काव्यरसिक, तव प्रवचनशैली न्यारी । शाश्वत सुख की महाप्रणेता, ओ अर्चना सयानी ! सूरज की कान्ति सी प्रखर, ओ पंच महाव्रतधारी, दया, क्षमा, शम, दम, संयम से संवारक तुम भारी, परमयोगिनी, ध्यानी, ज्ञानी, निर्गुणोपासिका मानी, शाश्वत सुख की महाप्रणेता, ओ अर्चना सयानी ! महाविश्व के पान्थालय में अनन्तप्रवासी पाते, तुझसा एक पथिक पाकर पथ भी पावन हो जाते, विनयानत अर्पित प्रणाम, दीर्घायु हो भो भवानी, शाश्वत सुख की महाप्रणेता, प्रो अर्चना सयानी !
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन /४२
Jam Education International
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बुझे हए उदास दीपों को ज्योति देने वाली महासती "अर्चना"जी की सेवामें प्रेमांजलि श्रीमती प्रेम मेहता
कश्मीर से कन्याकुमारी तक पैदल घूम-घूम कर अज्ञान के अन्धकार में भटक रहे मानव-समाज को ज्ञान का प्रकाश प्रदान करने हेतु कृत-संकल्पा, एक सन्नारी! जिसकी अध्यात्म-साधना, ध्यान-योग एवं तपश्चरण से विश्वाकाश आलोकित है। ऐसी राजस्थान-कुल-किरीटिनी कश्मीर-प्रचारिका सहज, मधुर, सरल स्वभाव करुणा की साक्षात् मूर्ति परमविदुषी, सौम्यहृदया प्रवचन-शिरोमणि महासती श्रीउमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" के संयममय जीवन की अर्धशताब्दी दीक्षा-स्वर्णजयन्ती पर कोटि-कोटि वन्दन ! अभिनंदन !!
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आई घडी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / ४३
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
मेरा शत शत वंदन हो
श्रीमती माया जैन एम. ए. (अर्थशास्त्र, हिन्दी )
सत्यशील की अमर कहानी, चंदन-वन में फैली थी,
सुरभि बही, चतुर्दिक् महकी, कर्म-योग से
सागर की लहरें ज्योति पुंज के पास पड़ीं । आगम का निर्भर फूटा जब, सरस्वती पुत्र क्या पुत्री भी अविचल नयनों से अवलोकित करती सिद्धान्त - सूत्र की अमर निधि सहज-सुगम सुधोपम वारी मानुष - मन को चीर पड़ी । अनुपम प्रोज और साहसमय ध्यान - ज्ञान की नई कड़ी, समता के श्राचरण हेतु बहती सुर-सरी में उमरावकुंवर श्रमणीवर्या उत्कृष्ट भाव से कूद पड़ी ।
मुनिवरेन्द्र हजारीमल से, श्रुत-सरिता गतिशीला थी, मधुकर मन के रागी जन मधुकरी क्रिया में लीन हुए । ज्ञान-ध्यान और सूत्र - साधना श्रमणी संघ की सहज रुचि, हर - अंचल की बाला बाला इस प्रांगण की ओर बढ़ी ।
दीक्षा के पचास वर्ष लिख सकी स्वर्ण - वर्णों में जो
उस अमर - साधिका उमरावकुंवर को
मेरा नित शत शत वंदन हो । 00
अर्चनार्चन / ४४
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सत्य-अहिंसा की गंगा । गोविन्द गुरु, एम. ए., खाचरौद
उज्ज्वल मन साकार सत्य,
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। म :- मन मस्तिष्क वाणी-विकास,
तम निश्चल अविरल अरुण प्रकाश। तुम ज्योति हो सत्य अहिंसा की ।
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। रा:- राग, द्वेष, मद, मोह, लोभ को
जीत लिया करके प्रतिकार । तुम सत्यम्, शिवम् सुन्दरम्, तुम महावीर का पावन प्यार। तुम सशक्त निर्भय वाणी हो, सत्य अहिंसा की ।
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। व :- वर्ण में श्वेत वसन हैं,
चरण में नील कमल हैं। चन्दन है स्वेद, कुन्दन हैं केश । विस्तृत है भव्य ललाट, झुक जाते तेरे सम्मुख, चक्रवर्ती सम्राट् ! तुम प्रशस्त पगडंडी हो, सत्य अहिंसा की
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। कु:- कला-प्रखर,
कुल-भूषण तुम, सरिता को कलकल लहर हो तुम । कोयल-सी कूक,
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड | ४५
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व :
पपीहे-सी हूक तुम शक्ति हो सजन की, तुम भक्ति हो, सत्य अहिंसा की।
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। वन्दनीय वरप्रदायक, विश्व विजयी महान्, तुम भारत का भाल-तिलक हो । तुम हो सिन्धु समान, तुम आबूगढ़ तुम गिरनार, तुम पावागढ़ तुम हरिद्वार, तुम अरिहन्त, तुम नवकार मंत्र, तुम गीता हो कृष्ण कन्हैया की। तुम गंगा हो सत्य अहिंसा की।
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। तुम रश्मि हो रवि की, तुम लेखिनी हो कवि की, तुम से ही है, शब्द सार, तुम से ही है, जग का उद्धार । तुम भावना हो, सत्य अहिंसा की। तुम साधना हो सत्य अहिंसा की।
तुम मूरत हो सत्य अहिंसा की। सादर प्रणाम, शत शत अभिनन्दन ! तुम अर्चा हो सत्य अहिंसा की। तुम पूजा हो सत्य अहिंसा की। तुम मूरत हो । 00
सा:
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन ( ४६
Jan Education Interational
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महासतीजी म. के नाम का प्रत्येक अक्षर कभी भी क्षर न होने वाले ज्ञान और साधना के इतिहास को अपने आप में समेटे है । कल्याणी से कल्याण की याचना
1 सौ. सीतादेवी शर्मा
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:- उदय हुई हो चिन्मय गगन में,
बुद्धि की रश्मियों सहित भानु के समान । :- मधुर वाणी से किया ज्ञान का प्रसार,
दया करके दिया है उपदेश का दान ।। राग-द्वेष से रहित परम-हंस-जीवन, की है आपने पावन पात्रों की पहचान । वन्दनीया हो पूज्या हो भगवती। कराया है हमें वचनामृत का पान ।। कुकर्मों को किया आपने चूर चूर, कठिन साधना में सफल हुई किया परम गुरु का ध्यान । वर्णन कैसे करू गुण के सागर का, ज्ञान की थाह कैसे पाऊँ जो है गहरा और महान् ।। रग-रग में मानव कल्याण का रंग, दिव्य ज्योति जलाकर किया है प्रकाशमान । जीवन में उच्च विचार भव्य भाव भरे हैं,
कहीं नहीं दिया आपने अवगुण को स्थान ।। सी :
सीधा-सा मार्ग दिखा दो मुझे, दया करके कल्याणी ! तारण-तरण आप हैं, परम पवित्र वरदानी ! दे दो मुझे ज्ञान की भिक्षा, मैं तो लेनदार हूँ, बीस विस्वा सुपात्र हूँ और निर्विकार हैं।
शरीर तो अशक्त है, आत्म-बल दे दो मुझे। ___ शर्मा कहे अयि भगवती! अमर फल दे दो मुझे ।।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/४७
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मौन सिसकती मानवता को वाणी देने वाली महिमामयी महासती के प्रति श्रद्धा-सुमन
अभिनन्दन रात बार करें
. शशिकर 'खटका' राजस्थानी
मानवता आँसू में डूबी पल पल सिसक रही थी, सच्चाई की प्राचीरों से ईंटें खिसक रही थीं, महाज्वाल में सड़कों के संग गलियाँ धधक रही थीं, अंधियारे में दीपक की जब बाती भभक रही थी, महानिराशा की वेला में तब खुशियाँ पड़ीं दिखाई, लेकर नव संदेश वीर का सती अर्चना आई। जग जिनसे आलोकित है, प्रकट आज आभार करें, दीक्षा-स्वर्णजयन्ती पर अभिनन्दन शत बार करें।
आँसू देख दिशात्रों के जब ठहरे पैर तुम्हारे, नैया है मझधार मनुज की कैसे लगे किनारे, अपने अन्तर् में भावों की तुमने ज्योति जलाई, जग वालों के लिए अर्चना आप स्वयं कहलाई। महावीर के पथ को तुमने लघुवय में स्वीकारा, महानगर से झोपड़ियों तक बट गया नेह तुम्हारा । लेकर तुमसे सीख स्वयं सब सात्विक पथ स्वीकार करें,
दीक्षा-स्वर्णजयन्ती पर अभिनन्दन शत बार करें। हे महामूर्ति ! समता का जीवन तेरा एक कहानी है, त्याग और वैराग्य भाव की जलती ज्योति सुहानी है। दिग्भ्रमित हुई मानवता को तुमसे राह मिली है, मरुथल में वाणी की गंगा बनकर सदा चली है। धोरों की धरती तेरे गुणगान सदा ही गाती, तुमको मीठे मोरों की वाणी सुनने ललचाती। काश्मीर की घाटी "शशिकर" आज जय-जयकार करे । दीक्षा-स्वर्णजयन्ती पर अभिनन्दन शत बार करे ।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वदन की
अर्चनार्चन/४८
Jan Education International
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दीक्षा-स्वर्गजयन्ती आई ____ डॉ० नरेन्द्रसिंह
0 डॉ० नरेन्द्रसिंह
दीक्षा की स्वर्णजयन्ती आई, तप औ' त्याग की खुशियाँ लाई ।
दादिया गांव में जन्मी ज्योति, माँ अनुपा की अनुपमा बेटी । घर-घर में है जागति लाई,
दीक्षा की स्वर्णजयन्ती आई ।। हर द्वार पर 'अर्चना' दीप जले हैं, मन में श्रद्धा के पुष्प खिले हैं। प्राची से इक नई सुबह आई, दीक्षा की स्वर्णजयन्ती आई ।।
काश्मीर की सुषमा कहती, वह कण-कण में यहाँ रहती। अहिंसा औं' शांति का संदेशा लाई,
दीक्षा की स्वर्णजयन्ती पाई ।। ज्ञान के गहने वह पहने, दर्शन और चारित्र्य जिसकी बहनें। मालवज्योति बन कर लहराई, दीक्षा की स्वर्णजयन्ती आई ।।
सहज सरल औ' कारुण्य मूर्ति, साहस औ' मनोबल की प्रति । योग की नव शैली है लाई, दीक्षा की स्वर्णजयन्ती पाई ।।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/४९
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पारदर्शी-काव्यांजलि - आशुकविरत्न छंदराज 'पारदर्शी'
मनहर कवित्त भारत में राजस्थानी, धरती है बलिदानी,
आन-बान-शान न्यारी, मानता संसार है। दिये कई हैं विद्वान्, संत-सती ज्ञानवान्,
त्याग-तप-शौर्य की तो, गाथाएं अपार हैं। संत-सतियाँ हमारे, जैन-शासन दुलारे,
ज्ञान का सुदान दिया, मेटे अंधकार हैं। उमरावकुंवरजी, "अर्चना" के चरणों में
___ “पारदर्शी' काव्यांजलि, अर्पित साभार है। किशनगढ़ के पास, गाँव "दादिया" है खास,
यहीं लिया जन्म सती, "अर्चना" कहाई है। संवत् उन्नीसौ साल, उन्नासी का भाद्रमास,
सप्तमी मगंलवार, शुभ घड़ी आई है । पिता "मांगीलाल" माता "अनूपादेवी" दुलारी,
"उमरावकुंवरजी',, महासती पाई है। पूत पग पालने दिखे हैं सारा जग जाने,
_ “पारदर्शी" ज्ञानियों ने बात समझाई है। संवत् उन्नीसौ साल, चौराणु में दीक्षा धार,
अगहन मास वदी, ग्यारस सुहाई है । गुरु पाई महासती, “सरदारकंवरजी"
रविवार "नोखा" गाँव, दीक्षा दिलवाई है। ज्ञान लिया ध्यान किया, तन को तपाय लिया,
प्रवचन-शिरोमणि, साधिका कहाई है । "पारदर्शी" हिन्दी, उर्दू, प्राकृत व गुजराती,
पंजाबी, अंग्रेजी सीखी, ज्ञान-ज्योति पाई है। गाँव-गाँव घर-घर, पैदल ही घूमकर
ज्ञान का ही दान दिया, विद्वेष मिटाया है। राजस्थान, हिमाचल, पंजाब, कश्मीर प्रांत,
उत्तर-मध्यप्रदेश, प्रांत दर्श पाया है।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन/ ५०
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करुणा की मूर्ति प्राप, करें नवकार जाप,
___ अदम्य उत्साह दृढ मनोबल आया है। कश्मीर प्रचारिका है, मालवज्योति कहाई,
___ अध्यात्मयोगिनी हो, योग विकसाया है ।। जागती ये जोत जले, करें सदा काम भले,
__जैन जगत दुलारी, महावीर पंथ है। सरलता समभाव, मेटे छल-बल-दाव,
___ दया-धर्म अवतार, सती गुणवन्त है। युवाचार्य "मधुकर", अन्तेवासिनी "अर्चना"
जीयें कोटि-कोटि वर्ष, प्रार्थना यह भव्य है । दो हजार चवालिस, दीक्षा-स्वर्णजयंती को,
अर्पित करता “पारदर्शी" काव्य अभिनव्य है ।।
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अवोद्गार
7 शिरोमणिचन्द्र जैन
दुखभंजन भव-भय-हरण, सती उमराव मान । चरण-कमल में भक्तियुत, बारंबार प्रणाम ।। आठ पहर चौसठ घड़ी, करू सती का ध्यान । भाग्य बड़े जो ये मिले, साचे संत सुजान ।। सति-दर्शन पाकर सदा, मन निर्मल हो जात । हँसरूप बन नामके, मोती चुग-चुग खात ।। ज्ञानराशि-राजित सती, ध्यान-साधना-लग्न । आत्ममहोदधि मध्य नित, रहती सदा निमग्न ।।
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आई घडी आभनंदन की चाण कमल के बदन की
प्रथम खण्ड | ५१
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करुणा-स्रोतस्विनी - मोती काका, खाचरौद
तेरी आँखों के सागर में, करुणा के मोती ढलते हैं। अयि पीड़ा की तू रखवालिन, तेरा हर ढंग निराला है। विपदाओं के चौराहे पर, अपने को खूब संभाला है ।। तेरे सम्मुख जब तूफानों ने, किया प्रदर्शन यौवन का, तूने धीरज का दीप जला, पग-पग पर किया उजाला है। तेरी किरणों के कण-कण का, श्रद्धा-अभिवादन करते हैं । तेरी आँखों के सागर में, करुणा के मोती ढलते हैं ।। तेरी रसना से जिनवाणी के, जब जब शब्द निकलते हैं। तब तब जनमानस के भीतर, श्रद्धा के भाव उमड़ते हैं ।। अध्यात्मयोगिनी ! आगम का, जब विश्लेषण तू करती है। लगता है तेरे अधरों से, अमृत के सत्कण झरते हैं ।। तेरी मधुमिश्रित वाणी से, हम सब रीता घट भरते हैं । तेरी आँखों के सागर में, करुणा के मोती ढलते हैं।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | ५२
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दीन दुःखों का दर्द बटा, उर का अनुराग लुटाती हो। व्याकुल नैनों को धीर बंधा, हर आँसू को पी जाती हो । जब तेरी दृष्टि ने देखा, बेबस गिरते इंसानों को। पालंबन का संबल देकर, धीरे से उन्हें उठाती हो ।। तेरी पलकों से दया-भाव के, निर्मल झरने झरते हैं । तेरी आँखों के सागर में, करुणा के मोती ढलते हैं ।।
काव्य-सुमन 0 कुलदीपप्रकाश जैन
महासती उमरावकुंवरजी जन्म दादिया पाया, मातृपितृकुल धन्य हुआ, जन-जन का मन सरसाया । संयम-पथ की बनी साधिका, रोम-रोम हरषाया, स्वयं हलाहल पीते रहकर मधु अमृत बरसाया ।। दीक्षा स्वर्णजयन्ती पर हम करते हैं अभिवन्दन, जिनकी वाणी से सिंचित है धर्मकल्पतरु नन्दन । दिव्य ज्योतिकिरणों से दीपित भामंडल है जिनका, धार्मिक जन सभक्ति संपादित अभिनन्दन है उनका ।।
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड / ५३
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महासती अर्चनाजी का वंदन-अभिनंदन है
हास्यकवि हजारीलाल जैन 'काका'
जिनके तप की स्वर्णजयन्ती को युग करे नमन है, महासती अर्चनाजी का वन्दन अभिनन्दन है।
उन्निससौ उन्नासी में भादों की सातम आई, श्रीमती अनुपादेवी ने यह महान् निधि पाई। श्रीयुत मांगीलाल जन्म पुत्री का सुन मुस्काये, नगर बुलौना देकर के फिर होने लगे बधाये । फिर तो ढोलक की थापों से गूंजा घर आँगन है, महासती अर्चनाजी का वन्दन अभिनन्दन है ।
जिनके तप की स्वर्णजयन्ती को युग करे नमन है ।। उन्निससौ चौरानव में अगहन वदि ग्यारस आई, महासती सरदारकुंवरजी के ढिग दीक्षा पाई। अपने पूज्य पिता के पद-चिह्नों पर कदम बढ़ाये, धर्मसाधिका बनकर के जग को उपदेश सुनाये । सौ सुत से वर एक सुता जो करे मार्ग-दर्शन है, महासती अर्चनाजी का वन्दन अभिनन्दन है। जिनके तप को स्वर्णजयन्ती को युग करे नमन है ।।
काश्मीर पंजाब हिमाचल में जा अलख जगाया, मध्य और उत्तर प्रदेश में घर घर बिगुल बजाया। जिनके उपदेशों से गूंजी अरावली की घाटी, धर्म-ध्यान से कंचन करली नश्वर तन की माटी। ऐसे साध्वीरत्न का 'काका' बार-बार अर्चन है, महासती अर्चनाजी का वन्दन अभिनन्दन है। जिनके तप की स्वर्णजयन्ती को युग करे नमन है ।।
आई घड़ी भिनंदन की पकमलका चंदन की
अर्चनार्चन | ५४
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अभिनंदन हैं, नत वंदन है !!
फतेलाल संघवी, जावरा
अभिनन्दन है, नत वंदन है, यह सहज सुवासित चंदन है । शिव, सुन्दर, सत्य स्पंदन है, तप, शील, क्षमा अभिष्यन्दन है || १॥ जहाँ कहीं है अविरल क्रंदन, समता साधन ही आलम्बन । सत् चित् ध्यानी पूजा अर्चन, स्वतः प्रकाशित अभिनव सर्जन || २ || अर्हत् सिद्धशरण चित्रंजन, धर्मसरित् ही भवदुःखभंजन | प्रशस्त उत्तम शुभ यह नन्दन, मिथ्यामय भव-मोह निकंदन ||३|| महासती अनुपम कल्याणी, उमराव 'अर्चना' है जगजानी । संयम, त्याग, तितिक्षा सानी, वाचन - रसमय श्रमृत-वाणी ||४||
सहस्रायुर्मय जीवन की सत्कामना
D श्री महेन्द्रकुमार 'पाठक'
महासती उमरावजी, ध्यान-योग- निष्णात । वाणी मृत स्रोत है, पाठक शीश झुकात ॥ १ ॥ ग्राम-ग्राम पैदल विचर, धर्मतत्त्व दरसाय | भूले भटके मानवी सत्पथ लें अपनाय ||२||
दीक्षा - अर्धशताब्द बिच किये बहूत्तम काम | जीएँ वर्ष हजार ये, परम यशोमय नाम ||३||
प्रथम खण्ड / ५५
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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भावोद्गार 0 भीमसेन शर्मा
श्री महासतीजी को मेरा नमस्कार है। आपकी वाणी में भरा चमत्कार है।।
मधुर वाणी आपकी, अमृत पिला दिया, हर्ष के आलोक से हृदय-कमल खिला दिया। उजड़े हुए उद्यान को हरा बना दिया,
खोटे की खोट दूर कर खरा बना दिया । हजारों को बनाया शुचि निर्विकार है। श्री महासतीजी को मेरा नमस्कार है। आपकी वाणी में भरा चमत्कार है ।।
थल थल में सुप्रवाहित की ज्ञान-सुरसरी, सिंचित हो जीवन-वाटिका बनी हरीभरी । बजाया आपने अहिंसा धर्म का डंका,
हिंसा के दानवों की अब जल गई लंका ।। श्रोतृजन में भर दिए पवित्र संस्कार हैं। श्री महासतीजी को मेरा नमस्कार है। आपकी वाणी में भरा चमत्कार है ।।
ज्योति जला ज्ञान की सत्पथ बता दिया, मंजिल तक पहुँचने का विधिक्रम जता दिया। भटक गया था भीमसेन भाग्य खुल गया,
उमरावकुंवरजी से मुझे सन्मार्ग मिल गया ।। चारों दिशाएँ बोल रही जय जयकार हैं। श्री महासतीजी को मेरा नमस्कार है। प्रापकी वाणी में भरा चमत्कार है।
भगवती उमरावजी साध्वियों में शिरोमणि, मणियों में श्रेष्ठ होती है ज्यों पारसमणि । लोहे को स्वर्ण में बदला, अरु शूल फूल में ।
संचय किया श्रुत-पुंज का जीवन-दुकूल में ।। वन्दनीया पूजनीया कोटि बार है। श्री महासतीजी को मेरा नमस्कार है। आपकी वाणी में भरा चमत्कार है ।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन /५६
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किया निरंतर उत्थान
चन्द्रकला पोरवाल, एम. ए.
अग्निपथ-गामिनी, सफल हुई साधना में । सच्ची लगन से जुट गईं ईश्वर की आराधना में ।
सागर समान गंभीर, धरती सम धैर्यवान ।
गगन-सी विस्तृत, रवि-सा तेज, शीतल हो शशि समान ।। अध्यात्मयोगिनी भगवती, परम विदुषी कल्याणी । महासती महान् विभूति, मितभाषी हो वरदानी ।।
उमा, अर्चना, उमरावकुंवर जी, तीनों नाम सुखदाई।
तीनों ताप मिटे नाम से, ये नाम सदा वरदाई ।। भूले भटके मानव को, मानवता का पाठ पढ़ाया। पतितों को पावन बनाकर, गौरव के गिरि पर चढ़ाया ।।
असंभव को संभव बनाया, दुर्गम पथ पर चल कर।
काश्मीर यात्रा करके दिखा दी, अपने प्रात्मबल पर ।। भूख प्यास की नहीं की चिन्ता, सहन करली सर्दी और वर्षा । अहिंसा का प्रचार करके मन महासती जी का हर्षा ।।
अल्प समय में उजड़ा सुहाग, विधि का यही विधान था।
लिखा भाग्य में वैराग्य त्याग, समय और सम्मान था । सदाचारिणी, ब्रह्मचारिणी श्री उमा ने, दोनों कुल को तारा। धन्य-धन्य जीवन इनका, झुकता है जग सारा ।।
दानवीय प्रकृति वाले, जो मानव थे मांसाहारी ।
अपनी सुधा-रस वाणी से, उन्हें बनाया शाकाहारी ।। दल-बल सहित बढ़ते रहे, किया निरन्तर प्रस्थान । पतन पथ पर चलने वाले का किया निरन्तर उत्थान ।।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/५७
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वंदों मन बहुभाव
डाड़मचन्द भावसार
महासती श्री अर्चना, वंदों मन बहुभाव । भक्तवृन्द अर्चे जिन्हें, होय मुक्ति-पद चाव ।।१।। भाद्रमास मंगल-दिवस, सर्वलोक-हितकार । महनीया उमरावजी, लीन्हो जग अवतार ।।।।२ निरख अथिर संसार को, गृह कुटुम्ब सब छोड़। भागवती दीक्षा गही, जीवन का नव मोड़ ॥३॥ मरुधर हरियाना हरित, पंचसरित हिमदेश । गिरिभव भू कश्मीर में, फैलाया संदेश ॥४॥ सत्य अहिंसा ध्यान युत, सेवा करुणा-पूर । संयम - उद्दीपन - करण, मोह-कामना - दूर ॥५॥ दीक्षा स्वर्ण-जयन्ति का, जन-जन हर्ष-विभोर । मुदमय मंगलमय महा, सुख छाया चहुँ ओर ॥६॥ वन्दन अभिवन्दन करें, जीएँ वर्ष हजार । महासती का धवल यश, फैले अपरंपार ॥॥७
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वंदना
शांता धर्मावत महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' के पावन चरणों में
हमारी बार-बार वन्दना । जिनके चरण-कमल वन्दन से मिटती है
जन-जन की क्रन्दना ॥१॥ संयम-पथ पर चलते चलते
बीत गए हैं वर्ष पचास । दीक्षा-स्वर्ण-जयन्ती पर, सबके मन में
इसलिए छाया है उल्लास ।।२।। इस शुभावसर पर हम सबको,
___सादर देते हैं आज बधाई । करते सदैव यही शुभ इच्छा
करें सभी जन पुण्यकमाई ॥३॥
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
५८ अर्चनार्चन
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अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना'
- चन्दनमल बनवट, आष्टा
गुणानुवाद
आपने अनेक श्रावक श्राविका निर्माण कर, श्रमणोपासक धर्म का कर दिया संचार है। सुधारे अनेक संघ-संगठन सूत्र दे के, बुझा के कषाय लाय कर दिया उद्धार है। कई भव्य आत्माएँ, बनी मार्ग अनुसारी, पिलाया अध्यात्म अमृत मिटा कर्मक्षार है। 'चंदन' के बंधन भी काट देव कृपा कर, प्राष्टा पधारें पाप विनती बार बार है ।
मध्यभारत अंचल में छह वर्षावास कर, किया ऐतिहासिक जिन धर्म का प्रचार है। भीड़ सी लगी है भव्य भक्तों की मालवा में, मालवा के वासियों का हुअा उपकार है। दीक्षाएँ, तपस्याएँ हुई इन चौमासों में, पागम साहित्य का प्रकाशन अपार है। धर्म नगरी मालव की सिद्धसेन दिवाकर की, उज्जैन चौमासा हुआ दूसरी बार है ।
[३] मरुधरा हीरक प्रकाशपुंज पूज्यवर, जयमल्लाचार्यजी की ज्योत्स्ना की धार हैं। महामुनि बृजलाल "वज्र तप" साधना, आराधना की मोहक, छवि मनोहार हैं। युवाचार्य, बहुश्रुत पंडित मधुकरजी की, मिश्री सी माधुरी व प्यार की बहार हैं। अध्यात्मयोगिनी, अवन्ती चौसठ योगिनीसी, प्रवचन गंजते ज्यों वीणा की झंकार हैं।
उग्र तपस्विनी "उम्मेद" की गूरुणी पूज्य, तपोधनी 'उमराव' श्रमण संघाधार हैं। साहित्य सुधानिधि के शुभ्रतम फेन वत्, कल्पवृक्षबेलि, कामधेनु दुग्धधार हैं। राजस्थान, दिल्ली, हरयाणा व पंजाब घम, कश्मीर में केसर सा लुटाया खुब प्यार है। हिमालय हिमखण्ड शिखर सी स्वच्छ श्वेत, 'अर्चना' हिमवान सुता गंगा की धार है।
मानवता की देवी 'अर्चना' तुम्हें नमन
0 नवरत्नमल नाहर, उज्जैन साक्षात प्रतिमूर्ति 'अर्चना' चन्दनबाला सा स्वरूप, महावीर की प्रचारिका अहिंसा-सत्य की तस्वीर (१) शत-शत नमन जिनेन्द्र दूत तुम्हें तुम शांति-प्रेम-करुणा की देवी, मानो गंगा यमुना और कावेरी, जन-गण-मन की आशा 'अर्चना' (२) तुम सूर्य की तरह तेजस्वी, तुम गगन की तरह विशाल । जियो और जीने दो 'अर्चना' कहती श्रावक और श्राविका से आज (३) मंगलमय दीक्षा दिवस पर शत-शत वन्दन और नमन। दीर्घायु की करते कामना मानवता की देवी 'अर्चना' तुम्हें नमन (४)
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अर्चना-अर्चन - खुर्शीद 'अजय'
सत्य-अहिंसा, तपस-त्याग से जीवन बना तुम्हारा !
शत-शत अर्चना करता हूं मैं हे अर्चना तुम्हारा !! मेरा तो संसार तुम्ही हो,
महायोगिनी, महामनीषी तुम ही मेरी माता
श्वेताम्बरी की जय हो सदा तुम्हारे सुमिरण से
और तुम्हारे तपश्चरण से मैं जीवन सुखी बनाता,
ज्ञान का सूर्योदय हो तनुज धरम का हंसते-हंसते
बस ऐसे ही मने जनमदिन जब से बना तुम्हारा !
जैसा मना तुम्हारा ! शत शत अर्चना करता हूं मैं,
शत शत अर्चन करता हूं मैं. हे अर्चना तुम्हारा
हे अर्चना तुम्हारा वीणावादिनी, हंसवाहिनी
मुसकानों से तुम अंगना की हो तुम अवतारी
में फूल खिलाने वाली शांति मार्ग की अग्रगामिनी
धर्म से उन्मुख पथभ्रष्टों मोहक छवि तुम्हारी
को पथ दर्शाने वाली मेरे मस्तक आशीषों का
मोहक है मीठी भाषा में अांचल धना तुम्हारा !
ललकारना तुम्हारा ! शत शत अर्चन करता हूं मैं,
शत शत अर्चन करता हूं मैं, हे अर्चना तुम्हारा
हे अर्चना तुम्हारा
मात ! तुम्हारे पद-पंकज में स्वर्ग छुपा है मेरा मैं खुर्शीद अजेय हूं मुझको तुमने दिया उजेरा या लगता है-जनम जनम से सेवक बना तुम्हारा ! शत शत अर्चन करता हूं मैं, हे अर्चना तुम्हारा !
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
अर्चनार्चन | ६०
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ट्रितीय खण्ड
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. व्यक्तित्व एवं कृतित्व. का
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Noooooo0000000000000007
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जनका
णमो अरिहंताण णमा सिद्धाण, णमोआयरियाण
मो उवज्झायाण, णमोलोए सब्यसाहूण
सच
प्रवचनका
कृपया
समायणणाराणीय
शाब्तरहिये
गरलेशनमियोमामालपरसेल नगर Arjstemaleram पुरलगायाभीमामा Recenture
बोकी
स्दननारम्बारपणामक मनि मोम
|
परम विदुषी महासती श्री उमराव कुंवरजी म.सा. 'अर्चना अपनी शिष्याओं के साथ
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आत्माभिव्यक्ति 0 साध्वी उमरावकुवर "अर्चना"
अात्मस्वरूपाधिगत बन्धुगण, भगिनीवृन्द !
मेरे प्रति अभिवन्दन, अभिनन्दन, अभिशंसन के रूप में जो श्रद्धा-संपृक्त, भक्ति-विभावित, सात्त्विक, स्नेहांचित हृदयोद्गार आप सब ने व्यक्त किये हैं, इससे मुझे मन ही मन बड़े संकोच एवं आत्मत्रपा की अनुभूति हो रही है। मैं अपने आपको इस योग्य नहीं पाती। आत्माभिमुख होकर मैं अन्तनिरीक्षण करती हूँ तो मुझे अपने में अगणित त्रुटियाँ एवं दुर्बलताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। जब अर्चन-वंदन, अभिनन्दन का प्रसंग चला, मैंने अन्तःकरण से इसके प्रकाशन का विरोध किया और इसकी संयोजिका, संपादिका साध्वी सुप्रभाजी 'सुधा' को भी बहुत कुछ कहा । उनके एवं उनकी सहवर्तिनी साध्वीवृन्द के अपने श्रद्धाप्रसूत भाव थे, जिनमें वे अपनी दृष्टि से उपादेयत्व मानती थीं। सुप्रभाजी अपने विचारों पर, जिनमें भक्ति का उद्रेक था, अडिग रहीं। मैं और अधिक क्या करती ? ____ मैं साधना-पथ की पथिका हूँ। अपनी अन्तःशक्ति संजोए गन्तव्य की ओर गतिशील हूँ, अग्रसर हूँ। परम श्रद्धास्पद पूज्य गुरुदेव एवं सद्गुरुवर्या की सशिक्षा को अात्मसात करने की दिशा में मेरा सतत प्रयत्न है, फिर भी अवस्था तो छद्मस्थ ही है, अत: जीवन में भूलें होना स्वाभाविक है। ___ प्रात्मावगाहन करती हूँ तो प्रतीत होता है, परम पूज्य प्रातःस्मरणीय स्व. गुरुदेव स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा. के मुखारविन्द द्वारा मेरी जीवन-निर्मात्री परमपूज्या सद्गुरुवर्या महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा. के सान्निध्य में जब से मैंने दीक्षा ग्रहण की, तब से लेकर अब तक जीवन में प्रमादवश. असावधानीवश भूलें भी हुई हैं। अपनी गुणग्राहिणी अन्तर्वृत्ति के कारण आप लोगों ने उन भूलों को दृष्टिगोचर न कर मेरे सम्बन्ध में अपने-अपने भावों के अनुरूप गुणस्तवन, यशःकीर्तन एवं वन्दन-अर्चन आदि के रूप में अनेक विधाओं में अपने हृदयोद्गार अभिव्यक्त किये हैं । मैं अन्तःकरण से इसे अपना अभिनन्दन, अभिवन्दन न समझ शासनेश महाश्रमण परमप्रभु महावीर द्वारा निर्दिष्ट तप, संयमस्वरूप साधना का ही अभिनन्दन समझती हूँ। .. अन्त में मैं हृदय की गहराई से यह मंगल-कामना करती हूँ, मेरी आस्था के अमृत-सिन्धु, परम पूज्य श्रद्धय गुरुदेव एवं गुरुणीजी म. सा. की अज्ञात रूप से ही सही पर कृपा और आप लोगों की शुभाभिवांछा से मेरा साधना-पथ निरन्तर उजागर रहे, प्रशस्त बना रहे, मैं उस पर अनवरत अपरिश्रान्त रूप से अग्रसर होती रहूँ।
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ज्योतिर्धर आचार्य: संक्षिप्त जीवन-रेखा
भारतीय इतिहास की सोलहवीं शताब्दी धार्मिक जागरण और वैचारिक उद्बोधन की दृष्टि से अत्यन्त क्रांतिकारी शताब्दी रही है । साधना एवं आराधना के क्षेत्र में इस शताब्दी में अनेक क्रांतिकारी विचारों का प्रवर्तन हुआ है। भक्ति, उपासना की दृष्टि से इस शताब्दी में निर्गुण उपासना का स्वर मुखरित हुआ। गुरु नानक, संत कबीर, संत रविदास, तारण स्वामी इसी शताब्दी की उपलब्धियाँ हैं और धर्मवीर लोकाशाह की धर्म-क्रांति भी इसी शताब्दी का ऐतिहासिक उद्घोष है। ___जैनपरम्परा के श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय ने एक क्रांतिकारी धर्मपरम्परा के रूप में जो विकास किया, साधना, आराधना एवं धर्माचरण की विधियों में जो सुधार तथा परिवर्तन किये वे इसी क्रांतिकारी शताब्दी की देन हैं और यह देन है धर्मवीर लोंकाशाह की।
लोकाशाह एक तटस्थ चिंतक और समत्वभावना-निष्ठ विचारक थे। वे अपने युग के क्रांतिकारी धर्म-सुधारक, सत्य के निर्भीक खोजी और स्पष्टवक्ता थे। जैनधर्म में चैतन्य पूजक विचारों का अवरुद्ध प्रवाह लोंकाशाह के दृढ प्रयत्नों से पुन: प्रवाहित हुआ था। इसलिए स्थानकवासी जैनपरम्परा के विचार-पुरुष के रूप में लोकाशाह का नाम इतिहास का अविस्मरणीय अध्याय है और है हमारी वर्णमाला का प्रथम स्वर ।
लोकाशाह की विचार-जागति एवं धर्मक्रांति को प्राणवान् बनाने वाले स्थानकवासी परम्परा के प्रादिपुरुषों में थे-श्री धर्मदासजी महाराज साहब । श्री धर्मदासजी म. सा. अपने युग के समर्थ विद्वान एवं तेजस्वी धर्मप्रचारक संत थे। वि. सं. १७७२ के उनका स्वर्गवास हो गया।
प्राचार्य श्री धर्मदासजी म. सा. की शिष्यपरम्परा अति विशाल थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में ही अपने शिष्यों का विभाजन कर दिया था, जो बाईसटोला के नाम से विख्यात है। आपके तीसरे पट्ट पर प्राचार्यश्री भूधरजी म. हुए । आज भी उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। वे बड़े निर्भीक, तेजस्वी एवं कठोर साधक थे। गृहस्थ जीवन में वे जोधपुर नरेश श्री अजीतसिंहजी के फौजी अधिकारी थे। वे सोजत के कोतवाल भी रहे। इनका साहस और समझदारी उल्लेखनीय मानी जाती थी। जब वे संसार से विरक्त हो आचार्यश्री धनराजजी म. के पास दीक्षित हुए तो अनेक लोगों को आश्चर्य हुआ कि एक वीर फौजी
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ज्योतिर्धर आचार्य : संक्षिप्त जीवन-रेखा | ३
अधिकारी जैनधर्म का अहिंसाव्रती मुनि कैसे बन गया ? इससे जनता पर जैनधर्म के त्याग एवं वैराग्य की गहरी छाप पड़ी । वास्तव में देखा जाय तो जैनधर्म तो वीरों का ही धर्म है।
आचार्य श्री भूधरजी म. सा. के शिष्यों में कुछ शिष्य बड़े ही मेधावी, तेजस्वी और चारित्रसम्पन्न थे। पू. श्री रघुनाथजी म. पू. श्री जयमल्लजी म. सा. तथा पू. श्री कुशलोजी म. सा. आदि के नाम जैन जगत में श्रद्धा और गौरव के साथ स्मरण किए जाते हैं। वस्तुतः अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं उन्नीसवीं शताब्दी का आदिकाल स्थानकवासी परम्परा का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। इस समय में प्रभावशाली प्राचार्य और प्रतिभासम्पन्न संतों का उदय हुआ है। पू. आचार्य श्री जयमल्लजी म. सा. एवं उनके उत्तरवर्ती प्राचार्यों की संक्षिप्त जीवन रेखा ही हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । इसका मूल कारण यह है कि इन प्राचार्यों का परिचय अनेक ग्रंथों में प्रकाशित हो चुका है। वह सब वैसा का वैसा ही देकर पुनरावृत्ति ही करना है । अस्तु वैसा करना उचित नहीं लगता। प्राणवान व्यक्तित्व : पूज्य श्री जयमल्लजी
जन्मतिथि–भादवा सुदी त्रयोदशी, वि. सं. १७६५ माता-श्रीमती महिमादेवी पिता-श्री मोहनलालजी मेहता (समदड़िया) जन्मस्थान-ग्राम लांबिया, विवाह-सं. १७८७ पत्नी-श्रीमती लक्ष्मीदेवी वैराग्य का कारण-मेड़ता में पू. प्रा. श्री भूधरजी म. सा. का प्रवचन सुनकर
वैराग्य उत्पन्न हुआ। दीक्षा-मृगसर कृष्णा द्वितीया, सं. १७८७ दीक्षास्थान-मेड़ता दीक्षागुरु-पू. प्राचार्यश्री भूधरजी म. सा. प्राचार्य पद- सं० १८०५, अक्षय तृतीया स्वर्गवास--वैशाख शुक्ला चतुर्दशी (नृसिंह चौदस), सं. १८५३ स्वर्गवासस्थान-नागौर
विशेषताएँ-कुशल प्रवचनकार एवं धर्मप्रचारक, कठोर तपस्वी, प्रखर स्मरण‘शक्ति के धनी, संकल्प में वज्र के समान कठोर एवं उच्चकोटि के साहित्यकार,
आपके द्वारा रचित ७०-७५ ग्रंथ उपलब्ध हैं। आपके ५१ शिष्य बताये जाते हैं। विवरण नहीं मिलता।
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द्वितीय खण्ड /४
) २. आचार्य श्री रायचन्द्रजी म. सा.
जन्मतिथि-पासौज शुक्ला एकादशी, सं. १७९६ माता-श्रीमती नंदादेवी पिता-श्री विजयराजजी धाड़ीवाल जन्मस्थान-जोधपुर, वैराग्य-विवाहपूर्व प्रायोजित वन्दोलों में जीमण
जीमते हुए वैराग्योत्पत्ति । दीक्षातिथि-आषाढ शुक्ला एकादशी, सं. १८१४ दीक्षास्थान-पीपाड़ शहर, दीक्षागुरु-स्वामी श्री गोवर्धनदासजी म. आचार्यपद-नागौर में ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया, सं. १८५३ स्वर्गगमन-माघ कृष्णा चतुर्दशी, सं. १८६८ जोधपुर
आप कुशल प्रवचनकार, सफल कवि एवं अत्यंत ज्ञानवान संतरत्न थे ।
शिष्यपरिवार-आपने सात शिष्यों को दीक्षा प्रदान की थी, किन्तु अधिकृत रूप से पांच शिष्यों की जानकारी मिलती है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-१. श्री आसकरणजी २. श्री दीपचंदजी ३. श्री गुमानचन्द्रजी ४. श्री कुशालचंद्रजी और ५. श्री धनरूपजी। ३. आचार्य श्री आसकरणजी म. सा.
जन्मतिथि-मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया, संवत् १८१२ माता-श्रीमती गीगांदे पिता-श्री रूपचन्दजी बोथर जन्मस्थान-जोधपुर परगनान्तर्गत ग्राम तिवरी (तिमरपुर) । वैराग्य–सगाई के समय वैराग्योत्पत्ति दीक्षातिथि-वैशाख कृष्णा पंचमी, सं. १८३० दीक्षास्थान–ग्राम तिवरी दीक्षागुरु-पू. प्राचार्य श्री जयमल्लजी म. सा. युवाचार्यपद-आषाढ़ कृष्णा पंचमी, संवत् १८५७ प्राचार्यपद-माघ शुक्ला पूर्णिमा, संवत् १८६८ मेड़ता शहर में स्वर्गवास-कार्तिक कृष्णा पंचमी, संवत् १८८२
शिष्यपरिवार-आपके दस शिष्य हुए-१. श्री सबलदासजी म. २. श्री हीराचन्दजी म. ३. श्री ताराचन्दजी म. ४. श्री कपूरचन्दजी म. ५. श्री बुधमलजी म. ६. श्री नगराजजी म. ७. श्री सूरतरामजी म. ८. श्री शिवबक्षजी म. ९. श्री बच्छराजजी म. और १०. श्री टीकमचन्दजी म.।
आचार्य श्री प्रासकरणजी म. अपने समय में एक अच्छे कवि माने जाते थे। ४. प्राचार्य श्री सबलदासजी म. सा.
जन्मतिथि-भाद्रपद शुक्ला द्वादशी, संवत् १८२८
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ज्योतिर्धर आचार्य : संक्षिप्त जीवन-रेखा / ५
माता-श्रीमती सुन्दरदेवी पिता-श्री आनन्दराजजी लूणिया जन्मस्थान-पोकरण दीक्षातिथि--मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया, सं. १८४२ दीक्षास्थान-बुचकला दीक्षागुरु-प्राचार्यश्री आसकरणजी म. सा. युवाचार्यपद-चैत्र शुक्ला पंचमी, संवत् १८८१ प्राचार्यपद-माघ शुक्ला त्रयोदशी, सं. १८८२ जोधपुर में स्वर्गवास-वैशाख शुक्ला नवमी, संवत् १९०३ आप छन्दशास्त्र के ज्ञाता, पागम-साहित्य के जानकार एवं सफल कवि थे ।
आपके पाँच शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं-१. श्री बिरदीचन्दजी म. २. श्री पृथ्वीचन्दजी म. ३. श्री कर्मचन्दजी म. ४. श्री हिम्मतमलजी म. और ५ नाम उपलब्ध नहीं है। ५. आचार्य श्री हीराचन्दजी म. सा.
जन्मतिथि-भाद्रपद शुक्ला पंचमी, संवत् १८५४ माता-श्रीमती गुमानदेवी पिता---श्री नरसिंहजी कांकरिया जन्मस्थान-बिराई ग्राम (राजस्थान) दीक्षातिथि-पाश्विन कृष्णा तृतीया, संवत् १८६४ दीक्षास्थान—सोजत शहर दीक्षागुरु-प्राचार्यश्री आसकरण जी म. सा. प्राचार्यपद-आषाढ़ शुक्ला नवमी, सं १९०३, जोधपुर में स्वर्गवास–फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, संवत् १९२०
आप एक अच्छे कवि थे। अापकी रचनात्रों में शब्द-सौन्दर्य, छन्दो-नियम प्रादि का विशे
शिष्य-१. श्री किशनाजी म. २. श्री कल्याणजी म. ३. किस्तूरचन्दजी म. ४. श्री मूलचन्दजी म. और ५. श्री भीकमचन्दजी म. ।
६. आचार्य श्री किस्तूरचन्दजी म. सा.
जन्मतिथि–फाल्गुन कृष्णा तृतीया, संवत् १८९८ माता-श्रीमती कुन्दनादेवी पिता-श्री नरसिंहजी मुणोत जन्मस्थान-बिसलपुर दीक्षातिथि-संवत् १९०७ दीक्षास्थान-पाली
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द्वितीय खण्ड /६ दीक्षागुरु-प्राचार्य श्री हीराचन्दजी म. सा. आचार्यपद-फाल्गुन शुक्ला पंचमी, संवत् १९२० स्वर्गवास-भाद्रपद शुक्ला पंचमी, संवत् १९६०
शिष्यपरिवार-१ श्री प्रतापमलजी म. २. श्री सोहनलालजी म. ३. श्री मूलचन्दजी म. ४. श्री भीकमचन्दजी म. ।
आपकी जन्म, दीक्षा एवं मृत्यु तिथियों में मतभेद मिलते हैं । ७. आचार्य श्री भीकमचन्दजी म. सा. जन्मतिथि-अज्ञात । फिर भी संवत् १९०४ में आपका जन्म माना जा
सकता है। माता-श्रीमती जीवादेवी या जीवनदे पिता-श्री रतनचन्दजी बरलोटा (मूथा) जन्मस्थान-ग्राम चौपड़ा दीक्षातिथि-अप्राप्त दीक्षागुरु-प्राचार्यश्री किस्तूरचन्दजी म. सा. प्राचार्यपद-भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा, संवत् १९६० जोधपुर में स्वर्गवास-वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १६६५ इस समय आपकी आयु ६१ वर्ष ६ माह होने का उल्लेख मिलता है ।
शिष्यपरिवार-१. श्री कानमलजी म. एवं २. श्री मनसुखजी म. ८. आचार्य श्री कानमलजी म. सा.
जन्मतिथि-माघ शुक्ला पूर्णिमा, सं. १९४८ माता-श्रीमती तीजादेवी पिता-श्री अंगराजजी पारिख जन्मस्थान-ग्राम धवा दीक्षातिथि-कार्तिक शुक्ला अष्टमी, संवत् १९६२ दीक्षागुरु-प्राचार्यश्री भीकमचन्दजी म. सा. दीक्षास्थान-महामन्दिर (जोधपुर)
आचार्यपद-ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी, सं. १९६५ कुचेरा में स्वर्गवास-माघ कृष्णा पंचमी, संवत् १९८५ आपकी चारित्रिक निष्ठा एवं अनुशासन-दक्षता की विशेष ख्याति थी।
आपका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। पाप असाधारण प्रतिभा के स्वामी थे।
शिष्य-मुनि श्री चैनमलजी म. सा. ९. आचार्य श्री जसवन्तमलजी म. सा., पद प्राप्ति एवं विसर्जन
वि. सं. १९८५ में आचार्यश्री कानमलजी म. सा. के स्वर्गवास होने के तीन
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ज्योतिर्धर आचार्य : संक्षिप्त जीवन-रेखा / ७
वर्ष पश्चात् वि. सं. १९८९ पाली में छह सम्प्रदायों का एक मुनि- सम्मेलन आयोजित हुआ । उसमें सम्प्रदाय की सुव्यवस्था के लिए मुनिश्री हजारीमलजी म. सा. को प्रवर्तक एवं मुनि श्री चौथमलजी म. को मन्त्री पद पर नियुक्त किया गया । इस व्यवस्था के मध्य कुछ विचारशील सज्जनों ने यह विचार किया कि जब सम्प्रदाय में विद्वान् एवं योग्य मुनिराज विद्यमान हैं, तो फिर आचार्य पद रिक्त क्यों रखा जाय ? सबकी दृष्टि मुनि श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' की प्रोर गई और उनसे प्राचार्य पद सुशोभित करने के लिये आग्रह किया जाने लगा । आपकी ज्ञानगरिमा को ध्यान में रखकर नागौर में वि.सं. २००४ के शुभ दिन समारोह पूर्वक आपको प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया और श्रापको प्राचार्य जसवन्तमलजी म. सा. के नाम से अभिहित किया गया । आपने आचार्यपद ग्रहण अवश्य किया किन्तु आपका अन्तःकरण फिर भी एकान्त साधना एवं शान्ति के लिए लालायित बना रहा ।
कुछ समय पश्चात् ही अपने अपनी शान्तिप्रिय साधनाशील प्रकृति के कारण प्राचार्यपद पर नहीं रहने का निर्णय कर लिया । मुनिराजों एवं श्रावकों की आग्रह भरी विनतियाँ आपकी आत्मा की आवाज को दबा नहीं सकीं। वि. सं. २००९ में सादड़ी के अखिल भारतीय स्थानकवासी मुनियों के बृहद् साधुसम्मेलन में जब अखिल भारतीय संगठन के लिए आह्वान हुआ तो इस सम्प्रदाय ने श्रमण-संघ में अपना विलय करके एकता के लिए महान् त्याग का प्रदर्श प्रस्तुत किया । इस प्रकार आपने आचार्यपद का त्याग कर दिया और पुनः मुनि श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' बन गए। यह त्याग का अद्भुत उदाहरण है । ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं । आपका विस्तृत परिचय आगे दिया जा रहा है ।
यहाँ पर उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि आचार्य श्री जयमल्लजी म. सा. के पश्चात् जितने भी आचार्य हुए, वे सभी अविवाहित थे ।
(संकलित )
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जय-परम्पर के पाँच पुष्प
विचार एवं प्राचार की दृष्टि से स्थानकवासी परम्परा एक धर्मक्रांति की उपज है । इस धर्मपरम्परा ने विचार के क्षेत्र में उदारता, सहिष्णुता एवं समन्वयवत्ति के साथ-साथ स्वधर्मनिष्ठा एवं धर्म पर बलिदान होने की प्रेरणाएँ दी हैं. तो आचार के क्षेत्र में पवित्रता, निश्छलता, सद्भाव एवं चारित्रिक विकास का द्वार उन्मुक्त किया है । स्थानकवासी परम्परा में आचार्यश्री जयमल्लजी महाराज की परम्परा अपने गौरवमय आदर्शों के प्रति सदा जागरूक एवं गतिशील रही है । जयगच्छ के मुनियों ने आचार-निष्ठा के साथ-साथ सरस्वती के ज्ञानमंदिर में श्रद्धा और भक्ति के पद्यपुष्पों की मालाएँ अत्यन्त विनीत भाव से समर्पित की हैं। भक्ति, सद्भाव एवं काव्यकला-जैसे उन मुनियों की पैतृक विरासत रही है, साथ ही हस्तलेख की सुघड़ता एवं दक्षता में वे मुनि अपनी प्राचीन संस्कृति के संरक्षक के रूप में सतत जागरूक रहे हैं । इस परम्परा में अनेक विद्वान्, प्रवचनकार, कवि, प्रचारक एवं लोकप्रिय मुनियों का प्रादुर्भाव हुआ है, उन सबका परिचय काफी विस्तार चाहता है। हम वह सब न देकर केवल पाँच मुनिराजों का परिचय, वह भी संक्षेप में दे
स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज
__ मेड़ता के पास गोठन स्टेशन है। इसी गोठन स्टेशन के अति निकट एक छोटा-सा गांव है सिहू । वर्तमान समय में तो यहाँ केवल चारण जाति के लोग ही निवास करते हैं किन्तु पहले कुछ घर प्रोसवालों के भी थे। उनमें एक परिवार श्री रिद्धकरणजी बोथरा का भी था। श्री रिद्धकरणजी बोथरा की धर्मपरायणा पतिपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती मगनकुंवरबाई की पावन कुक्षि से अक्षय तृतीया वि. सं. १९३६ के शुभ दिन एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ, जिसका नाम जोरावरमल रखा गया।
जोरावरमलजी के बाल्यकाल में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। पति के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् श्रीमती मगनकुंवरबाई ने तो दीक्षाव्रत स्वीकार किया ही, अपने पुत्ररत्न जोरावरमल को भी दीक्षा दिलवाकर श्रमण संघ को एक अमूल्य रत्न भेंट किया। दीक्षा का यह दिन था अक्षय तृतीया, वि. सं. १९४४ । अर्थात आपका जन्मदिन और दीक्षादिन दोनों ही अक्षय तृतीया हैं । अापकी दीक्षा नागौर में स्वामीजी श्री फकीरचन्दजी म. सा. के हाथों सम्पन्न हुई थी। स्वामीजी के १७ शिष्यों में आप सबसे छोटे थे।
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आचार्य श्री जयमल जी महाराज
श्रीरायचन्दजी महाराज
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For Private & Persand Use Only
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सरल स्वभावी एवं महान् भद्र सन्त प्रान्त-मन्त्री श्री १००८ श्री हजारीमलजी महाराज
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माघ सुद ५ Jivan Education. वि० सं० १९४३
दीक्षा
स्वर्गवास ज्येष्ठ बद १०
चैत्र बद १० वि० सं०२९५४ & Personal use only वि० सं०२०१८
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जयपरम्परा के पांच पुष्प / ९
बचपन से हो आपमें सर्वतोमुखी प्रतिभा थी । अतः ग्रापका अध्ययन भी उच्चतम रहा । आपने संस्कृत, प्राकृत, ग्रागम, चूर्णी, टीका, भाष्य, काव्य, छन्द:शास्त्र व ज्योतिष आदि का गम्भीर अध्ययन किया । अपने समय में वे आगमों के तलस्पर्शी विचक्षण विद्वान् माने जाते थे । वे उग्रक्रियावादी नहीं थे तो कोरे ज्ञानवादी भी नहीं थे । उनमें ज्ञान-क्रिया का सुन्दरतम समन्वय था ।
स्वामी श्री जोरावरमलजी म. का विचरण राजस्थान में ही हुआ था, फिर भी उनका वर्चस्व जैन व जैनेतर समाज में सर्वत्र छाया हुआ था । स्वामीजी सही बात को ही पकड़ते थे, उनकी पकड़ बहुत सुदृढ़ होती थी । आगम के आधार पर तर्क की कसौटी पर कसकर वे विरोधियों को ऐसा करारा जवाब देते थे कि विरोधी व्यक्ति स्वयंमेव उपशांत हो जाते ।
स्वामीजी सुधारवादी भी थे । अनेक स्थानों पर उन्होंने परम्परा से प्रचलित अनेक कुप्रथाओं का निवारण किया । बारात में रात्रि भोजन, ढोल पर कुलीन स्त्रियों का नाचना, विवाह आदि अवसरों पर औरतों का गन्दे गीत गाना आदि कुप्रथाएँ स्वामीजी को बहुत अखरती थीं । अछूत जाति के प्रति भी स्वामीजी की बड़ी हमदर्दी थी । हरिजनों को उच्छिष्ट भोजन देने का भी वे सख्त विरोध करते थे । हरिजनों के कल्याण के लिए स्वामीजी ने कुचेरा- डेह - नागौर आदि क्षेत्रों में अथक प्रयास किए थे।
साधु समाज में क्रिया की ढिलाई स्वामी जी को बिलकुल नहीं सुहाती थी । चाहे अपनी सम्प्रदाय के ही साधु क्यों न हों, जिनमें वे क्रिया की ढिलाई देखते तो उनसे वे अपना सम्पर्क कभी नहीं रखते थे । इस बात को लेकर स्वामी जी साधुसमाज में कुछ कठोर प्रकृतिवाले माने जाते थे ।
स्वामीजी में एक खास विशेषता यह थी कि यदि प्रवृत्तियों को देखकर श्रावकसमाज में उन साधुयों के प्रति बन जाता तो वे समाज में पुनः उनकी जाजम जमाने में भी कभी नहीं चूकते थे ।
साधुसमाज की गलत श्रद्धा का वातावरण
सम्प्रदायों में पारस्परिक प्रेम, सद्भाव एवं समन्वय के लिए किये गए प्रयत्नों में आपका नाम सदा गौरव के साथ लिया जायेगा । वि. सं. १९८६ ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी के दिन भुवाल में आपका स्वर्गवास हो गया ।
स्वामीजी के तीन शिष्य हुए-१ स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. २. उपप्रवर्तक स्वामी श्री ब्रजलालजी म एवं ३ युवाचार्य पंडितरत्न श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' मुनिजी ।
२. मुनिवर श्री हजारीमलजी महाराज
स्वामी श्री हजारीमलजी म. वास्तव में एक सतयुगी संत थे । उनका अंत:करण शिशु के समान सरल तरल था, तो मन ओलिया फकीर जैसा वासना, कषाय आदि से विरक्त ।
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द्वितीय खण्ड/१० आपका जन्म वि. सं. १९४३ में वसंत पंचमी के दिन डाँसरिया ग्राम (मेवाड़) निवासी श्रीमान् मोतीलाल जी मुणोत (मोतीजी) की धर्मशीला तेजस्विनी धर्मपत्नी श्री नन्दबाई की पावन कक्षि से इना था। माता की सत्प्रेरणा के कारण ही आपने बचपन में विद्याभ्यास किया, साधु-संतों की संगति में पहुँचे और धीरे-धीरे पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर एक दिन गुरु-चरणों में प्रवजित हो गए ।
आपने ज्येष्ठ कृष्णा दशमी वि. सं. १९५४ के दिन नागौर में पूज्य स्वामी श्री जोरावरमल जी म. सा. के श्रीचरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की।
यह एक अद्भुत संयोग की बात है कि आपके गुरुदेव श्री जोरावरमल जी म. की दीक्षा भी नागौर में स्वामी श्री फकीरचन्दजी म. के कर कमलों द्वारा नागौर में ही सम्पन्न हुई थी और स्वामी श्री फकीरचन्दजी म. की दीक्षा भी नागौर में ही मुनि श्री बुधमल जी म. के हाथों सम्पन्न हुई थी।
__ आपकी प्रतिभा बड़ी सुतीक्ष्ण और ग्रहणशील थी। किसी भी विषय को बड़ी सरलता से व समग्र रूप से ग्रहण करने में आप दक्ष थे। सर्वप्रथम आपने थोकड़ों का अध्ययन किया। फिर आगमों का अध्ययन करने के लिए प्राकृतभाषा का अध्ययन किया। अनेक सूत्र कंठस्थ किए । सिद्धान्तचन्द्रिका व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर संस्कृत-प्राकृतभाषा के अधिकारी विज्ञ बन गए । जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थ, टीकाएँ आदि का आपने पूर्ण मनोयोग से अध्ययन किया।
शिक्षाक्रम पूर्ण करके भी आप अपने आप में संतुष्ट नहीं हुए। अपने लघु गुरुभ्राता श्री मधुकर मुनिजी के अध्ययन-अध्यापन में भी आप बड़ी गहरी रुचि रखते थे।
श्रमणसंघ के संगठन में तो आपका योगदान अनन्यतम कहा जा सकता है । आपकी सझबझ. उदारता व प्रतिष्ठा की भावना से निलिप्तता और सभी मुनिवरों के साथ मिलनसारिता ने श्रमणसंघ की ऐतिहासिक एकता का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
आपके जीवन की अनेक विशेषताएं हैं। यदि उन सबका यहाँ विवरण दिया जावे तो एक अच्छी पुस्तक तैयार हो सकती है । अतः वह विवरण न देकर केवल उन गुणों में से कुछ के नाम गिना देना ही पर्याप्त होगा। आप उदार एवं समय को पहचानने वाले थे, तभी तो आपने सं. २०१४ में स्थानक भवन में हरिजनों को प्रवेश कराया था । उत्कृट सहिष्णुता आपका इष्ट गुण था। आप बोलने में एकदम खरे थे किन्तु खारे नहीं थे। पीड़ा सहने में आप वज्र के समान कठोर थे किन्तु उनका हृदय फूल के समान कोमल था-"वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि । दूसरों के दुःखों को देखकर उनका हृदय फूल के समान कोमल हो जाता था। सत्य की साधना से वे अभय हो गये थे। अहिंसा की साधना में इतने गहरे उतर गए थे कि जीवन के प्रति कोई ममत्व उनमें नहीं रहा था। आप एक महान् त्यागी मुनिराज भी थे । आपके त्याग का उदाहरण वि. सं. १९९६ में देश में पड़े दुष्काल
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जयपरम्परा के पांच पुष्प / ११ की घटनाओं में देखने को मिलता है। आप एक उच्च कोटि के साहित्यकार भी थे।
वि. सं. २०१८ का वर्षावास आपने कुचेरा में सम्पन्न किया था। चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् नागौर के श्री संघ ने आगामी (वि. सं. २०१९ के) चातुर्मास के लिए अपनी भावभीनी विनती की। आपने फरमाया-"सुख-समाधे काया ने साथ दिया तो आगामी चातुर्मास नागौर में करने के भाव हैं।" ___ इस घोषणा में छिपे अनिश्चय को उस समय किसी ने नहीं समझा । पर आप स्वयं जैसे अपने अन्तिम समय को अनुभव करने लग गए थे। चैत्रमास में आप, स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. एवं श्री मधुकर मुनिजी म. तीनों ही चांदावतों का नोखा पधारे । कुछ अस्वस्थता के बाद आपको अनुभूति हो गई थी-अब यह माटी की देह माटी में मिलने वाली है। आपने पंचमहाव्रतों का आरोपण किया, अंत:करण को शुद्ध, शांत, प्रसन्न व निर्मल-भावों में भावित करते हुए चैत्र कृष्णा दशमी वि. सं. २०१८ की रात्रि में समाधिपूर्वक देह-त्याग किया।
समता, सत्य-निष्ठा, सहिष्णुता का एक जीवन्त प्रतीक इस धरा से उठ गया ।
वर्तमान में आपके शिष्यों में तपस्वी श्री मोहनलाल जी म. सा. जैन धर्म की अच्छी प्रभावना कर रहे हैं। ३. समतायोगी उपप्रवर्तक स्वामी श्री ब्रजलालजी म.
जन्मतिथि-वि. सं. १९५८ माघ शुक्ला पंचमी (वसंत पंचमी) जन्मस्थान-तिवरी (राजस्थान) पालनपोषण-गढ़ाई पंढरिया (म. प्र.) माता-श्रीमती चम्पाबाई (बाद में श्रमणी दीक्षा) पिता-श्री अमोलकचन्दजी श्रीश्रीमाल दीक्षातिथि–वैशाख शुक्ला त्रयोदशी वि. सं. १९७१ दीक्षागुरु-स्वामी श्री जोरावरमल जी म. सा. दीक्षास्थान-ब्यावर (राजस्थान) स्वर्गवास-आषाढ़ कृष्णा अष्टमी वि. सं. २०४०, दिनांक २ जुलाई १९८३, धुलिया (महाराष्ट्र)
विशिष्टता-निष्काम सेवाभावना, वृद्ध, रुग्ण, असहाय की सेवा के लिए तन-मन से सर्वात्मना समर्पित रहे हैं, नाम व यश की भावना से सर्वथा दूर, सरलतापूर्वक साधना के पथ पर अडिगता से डटना, हस्तलिपि की अद्भुत कला, जैनागमों का सुन्दर शुद्धलिपि में विशिष्ट हस्तलेखन,
ठोस अनुभव की धरती पर पल्लवित ज्योतिषविद्या का गहन अध्ययन । स्वाध्याय के विशिष्ट अभ्यासी, मधुर स्वर, निश्छल व्यवहार, मधुर गायन । पूज्य स्वामीजी श्री हजारीमल
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द्वितीय खण्ड / १२
जी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् श्री मधुकर मुनिजी की साहित्य-साधना में
आप अनन्यतम सहयोगी व प्रेरक रहे। आपका पिता तुल्य वात्सल्य, सही संतुलित निर्णय और साथी जैसा सम्पूर्ण सहयोग युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज के लिए सदा स्पृहणीय एवं समादरणीय रहा । ४. यवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. 'मधुकर'
जिस संत को लोगों की असीम श्रद्धा-भक्ति प्राप्त हो और वह उससे बिल्कुल ही निस्पृह तथा सीधा-सरल भावयुक्त रहे तो यह एक ऐसी बात होगी कि गुलाब का फूल तो है, सुगन्ध और सौन्दर्य भी है, मगर उसमें कांटा नहीं है । ।
विद्या के साथ विनय, अधिकार के साथ विवेक, प्रतिष्ठा और लोकश्रद्धा के साथ सरलता आदि ऐसी अद्भुत बातें हैं जो किसी बिरले में ही पायी जाती हैं। मुनि श्री मिश्रीमलजी म. में ये विरल विशेषताएँ देखकर मन श्रद्धा और
आश्चर्य से पुलक-पुलक हो जाता है । उनके जीवन में गहरे पैठकर देखने पर भी कहीं कटुता, विषमता, छल-छिद्र, अहंकार आदि के काँटे नहीं मिलेंगे । वे बहुत ही सरल (पर, चतुर) बहुत ही विनम्र (पर, स्वाभिमानी), बहुत ही मधुर (पर, निश्छल) और अनुशासित (पर, कोमल हृदय) श्रमण थे। ___गौरवपूर्ण भव्य तेजस्वी ललाट, चमकदार बड़ी आँखें, मुख पर स्मित की खिलती आभा और स्नेह तथा सौजन्य वर्षाती कोमल वाणी, प्रथम परिचय में ही अपना अमिट प्रभाव डाल देती थी। उनसे बातचीत करते तो वे ध्यानपूर्वक, मंदस्मित के साथ सुनते रहते थे। फिर नपे-तुले शब्दों में ऐसा सटीक उत्तर देते कि प्रश्नकर्ता निरुत्तर नहीं, संतुष्ट हो जाता । प्रात्मा से प्रात्मा का स्पर्श होने जैसी अनुभूति उनके कुछ ही क्षणों के सहवास में होने लगती थी।
उनके जीवन में आध्यात्मिक तेज निखरा हुया था, पर वह तेज सूर्य-सा प्रचंड न होकर चन्द्र-सा शीतल था।
मुनिश्री विनम्र तो इतने थे कि बातचीत में यह अनुभव नहीं होता कि वे किसी उच्चपद के अधिकारी थे। गुरुजनों के प्रति वही अगाध श्रद्धा भरे वचन, श्रावकों के प्रति स्नेहसिक्त आदरपूर्ण कोमलवाणी । बुद्धि में अनाग्रह के साथ आस्था के दृढ़ स्वर थे ।
विक्रम संवत् १९७० मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी, दिनांक १२ दिसम्बर १९१६ को जोधपुर के निकटवर्ती नगर तिवरी में एक शिशु का जन्म हुआ था। माता-पिता ने जिसका नाम रखा 'मिश्रीमल'।
बालक मिश्रीमल के पिता का नाम श्री जमनालालजी धाड़ीवाल (कोठारी) और माता का नाम श्रीमती तुलसीबाई था। श्री जमनालालजी सरल स्वभाव के थे, पर तुलसीबाई बड़ी चतुर, धर्मपरायण थीं और महिला-समाज में अच्छा प्रभाव रखती थीं।
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उप प्रवर्तक स्वामी श्री ब्रजलालजी म. सा.
जन्म
दीक्षा
स्वर्गवास
माघ शुक्ला ५ वि० सं० १९५८
वैशाख शुक्ला १२ वि० सं० १९७१
आषाढ़ कृष्णा८ वि० सं० २०४०
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युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर'
जन्म
स्वर्गवास २६ नवम्बर १९८३
मार्ग शीर्ष शुक्ला १४
वि० सं० १९७०
दीक्षा वैशाख शुक्ला १०
वि० सं० १९८०
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जयपरम्परा के पांच पुरुष / १३
तिवरी का जैनसमाज अधिकतर स्थानकवासी आम्नाय में आस्था रखता परम्परा का यहाँ प्रभाव था । कभीस्वामी श्री जोरावरमल जी म. का
था । पूज्य आचार्यश्री जयमल्ल जी म. की कभी स्वामी श्री शोभाचन्द्रजी म एवं श्रागमन तिवरी में होता रहता था ।
बालक मिश्रीमल में बचपन से ही धर्मगुरुत्रों के प्रति श्रद्धा और प्रेम का आकर्षण था । जब कभी स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. तिवरी पधारते तो उनके साथ स्वामी श्री हजारीमलजी म. भी होते । बालक मिश्रीमल श्री हजारीमलजी म. के पास बड़े चाव से बैठता, उनके मुंह से मीठी कहानियाँ और मधुर भजन सुनता। कहानी और संगीत के प्राकर्षण ने उनको इतना अभिभूत कर लिया कि माँ तुलसीबाई मिश्रीमल को बुलाती रहती, पर वह स्वामी श्री हजारीमलजी म. का पल्ला पकड़े बैठा ही रहता । उसे घर से स्थानक अच्छा लगता, माँ से अधिक गुरुजी का स्नेह उसे खींचता रहता ।
ऐसे ही एक बार स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. स्थानक में व्याख्यान फरमा रहे थे । स्थानक के बाहर कुछ बालक खेल रहे थे। मिश्रीमल उस समय छह सात वर्ष की आयु का होगा । वह उन बालकों का नेता बन गया और बालकों से 'कहा कि श्रन्दर महाराज बखाण दे रहे हैं, बाहर मैं तुम्हें बखाण सुनाता हूँ । और इस प्रकार उनका खेल भी मुनि जीवन से जुड़ गया । माँ के माध्यम से बात गुरुजी तक पहुँची । उन्होंने अपनी अनुभवी और पारदर्शी आँखों से बालक में भावी संस्कारों की प्रतिच्छवि देखी और मुस्करा कर रह गए ।
बालक मिश्रीमल के संस्कार धीरे-धीरे दीक्षा लेने की तैयारी में रंग गये । माता-पिता ने बहुत ही समझाया किन्तु कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दीक्षा में बाधायें भी आईं किन्तु अंततः वैशाख शुक्ला दशमी वि. सं. १९८० दिनांक १६ अप्रेल १९२३ के शुभ दिन स्वामीजी श्री जोरावरमल जी म. सा. के हाथों आपने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। आपको दीक्षा भिणाय गांव में सम्पन्न हुई थी ।
दीक्षा के बाद मुनिश्री मिश्रीमलजी अध्ययन की दिशा में दत्तचित्त होकर बढ़ने लगे । संस्कृत-प्राकृत के अनेक विद्वानों को मुनिश्री के ग्रध्यापन के लिए बुलाया गया । उनकी देखरेख में बाल मुनि श्री मिश्रीमल जी का अध्ययन गतिमान हुआ । संस्कृत व्याकरण, कोश आदि के साथ ही प्राकृत व्याकरण, जैनश्रागम, उनकी टीकाएँ, न्यायदर्शन आदि का प्रौढ़ ज्ञान भी मुनिश्री प्राप्त करने लगे । अनेक मैथिल विद्वान् ( व्याकरण व नव्य न्याय के लिए) तथा प्रसिद्ध विद्वान पं बेवरदासजी, दोशी, डॉ. इन्द्रचन्द्रजी शास्त्री, पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल आदि की देखरेख में लगभग दस-बारह वर्ष की अवधि तक मुनिश्री ने कठोर परिश्रम, दृढ़ अध्यवसाय और एकाग्रचित्त के साथ ज्ञानार्जन किया । इस एकनिष्ठ ज्ञानोपासना के कारण मुनिश्री ने अध्ययन, भाषण और लेखन तीनों विषयों में प्रौढ़ता प्राप्त कर ली । व्याकरण आदि के बुनियादी ज्ञान के साथ ही अपने सर्वसामान्य लोकज्ञान, लोक-साहित्य, प्रवचन - साहित्य तथा विविध विषयों का
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द्वितीय खण्ड / १४
सर्वांगीण अनुशीलन भी किया । इस प्रकार लगभग ३० वर्ष की आयु में मुनि श्री मिश्रीमलजी म. स्थानकवासी जैन समाज के एक विद्वान् श्रमण के रूप में प्रतिष्ठित हुए ।
आचार्य पद : प्राप्ति एवं त्याग
प्राचार्य श्री कानमल जी म. सा. का स्वर्गवास वि. सं. १९८५ में हो गया । उनके स्वर्गवास के पश्चात् जयगच्छ की सम्पूर्ण व्यवस्था स्वामी श्री जोरावरमल जी म. सा. देखते रहे । उनके स्वर्गवास के बाद यह व्यवस्था स्वामी श्री हजारीमल जी म. ने सम्हाली । वि. सं. १९८९ में पाली में छह सम्प्रदायों का एक मुनिसम्मेलन हुआ । सम्प्रदाय की सुव्यवस्था के लिए स्वामी श्री हजारीमलजी म. प्रवर्तक और मुनिश्री चौथमलजी म. को मंत्री का दायित्व सौंपा गया ।
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इधर मुनि श्री मिश्रीमल जी म एक योग्य विद्वान् आगमज्ञ के रूप में समाज के सामने आये तो सम्पूर्ण समाज ने उन्हें आचार्यपद ग्रहण करने के लिए विवश कर दिया । वे स्वभावत: निस्पृह, लोक-संग्रह से दूर एकांत-प्रेमी एवं शांतिप्रिय थे । प्राचार्य पद ग्रहण करना उनके स्वभाव के प्रतिकूल बात थी फिर भी भारी दबाव को देखते हुए आपने प्राचार्य पद स्वीकार किया और वि. सं. २००४ में नागौर में समारोह पूर्वक आपको जयगच्छ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया और अब आप आचार्य जसवंतमल हो गए। प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद आप अपने अन्तर्मन में एक बेचैनी अनुभव करने लगे। मन में उथलपुथल भी मचने लगी तो आप आचार्य पद त्याग करने का विचार करने लगे । इसी बीच श्रमण संघ की एकता व संगठन के प्रयास होने लगे । वि. सं. २००९ में सादड़ी में श्रमण संघ का अभूतपूर्व संगठन हुआ । संगठन की इस एकता के अवसर पर आपने आचार्य पद का त्याग कर महान् प्रादर्श प्रस्तुत किया ।
आचार्य पद से मुक्त होने के पश्चात् श्रापका अध्ययन, लेखन अबाध गति से चल निकला । वि. सं. २०१८ में गुरुभ्राता स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा का स्वर्गवास हो जाने से गच्छ की जिम्मेदारियां पुनः प्राप पर आ गईं ।
अपने गुरुभ्राता की स्मृति में आपने " मुनिश्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ " का प्रकाशन करवाया जो एक अनुपम एवं संग्रहणीय ग्रन्थ है । फिर मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन नामक संस्था की स्थापना की जो श्राज उत्तरोतर उन्नति की ओर अग्रसर है । वि. सं. २०३६ में अपने गुरुदेव (स्व.) श्री जोरावरमलजी म.सा. की स्मृति में प्रागम- बत्तीसी के अनुवाद सहित प्रकाशन की घोषणा की । आज अधिकांश आगम ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । एक दो बचे हैं, उनके प्रकाशन के साथ ही प्रापकी यह घोषणा पूर्ण हो जावेगी । आपके मार्गदर्शन में प्रकाशित इन आगमों का विद्वत् जगत में अच्छा स्वागत हुआ है ।
जो पदों से दूर भागता है, पद उसका पीछा नहीं छोड़ते । श्रमण संघ बनने के पश्चात् श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य श्री आनंदऋषिजी म. सा. ने मुनिश्री
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जयपरम्परा के पांच पुष्प / १५ मिश्रीमलजी 'मधुकर' को युवाचार्य घोषित किया। यह घोषणा आचार्य जी ने श्रावण शुक्ला प्रतिपदा वि. सं. २०३६, दि. २५ जुलाई १९७९ को हैदराबाद में की थी। उस समय मुनिश्री मिश्रीमल जी म. सा. 'मधुकर' चातुर्मासार्थ जोधपुर में विराजमान थे। बाद में फिर एक समारोह में विशाल जन-मेदनी के बीच जोधपुर में आपको यवाचार्य की चादर प्रोढाई गई थी। तभी से आप युवाचार्यश्री के नाम से अभिहित किये जाने लगे थे ।
युवाचार्य पद पर आसीन होने के पश्चात् आपने संगठन की ओर भी अपनी सेवायें दीं । वर्ष १९८३ ई. का आपका चातुर्मास नासिक में प्राचार्य श्री आनन्दऋषिजी के साथ हुआ। चातुर्मास सानंद संपन्न हुआ और अचान कदि. २६-११-१९८३ को यह जाज्वल्यमान नक्षत्र हमसे बिछुड़ गया । जयगच्छ में ही नहीं सम्पूर्ण श्रमण संघ में आपके स्वर्गवास से एक सन्नाटा छा गया। एक बड़ी रिक्तता आ गई, जिसकी पूर्ति आज तक नहीं हो पाई है ।
आप एक उच्चकोटि के प्रवचनकार, उपन्यासकार, कथाकार एवं सम्पादकव्याख्याकार थे । आपके प्रकाशित साहित्य की नामावली इस प्रकार हैप्रवचन, संग्रह
१. अन्तर की ओर, भाग १ व २ २. साधना के सूत्र ३. पर्युषणपर्व प्रवचन ४. अनेकांतदर्शन ५. जैन-कर्मसिद्धांत ६. जैन-तत्त्वदर्शन ७. जैन संस्कृति : एक विश्लेषण ८. गृहस्थधर्म ९. अपरिग्रह दर्शन १०. अहिंसा दर्शन ११. तप : एक विश्लेषण
१२. आध्यात्मिक विकास की भूमिका : गुणस्थान : एक विवेचन कथा साहित्य
जैन कथामाला, भाग १ से ५१
उपन्यास
१. पिंजरे का पंछी २. अहिंसा की विजय ३. तलाश ४. छाया
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५. आन पर बलिदान
अन्य
१. आगम परिचय
२. जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ
३. जियो तो ऐसे जियो
शिष्य :- प्रापके दो शिष्य हैं, जिनकी परिचय रेखा इस प्रकार है
१. मुनिश्री विनयकुमारजी 'भीम'
जन्मतिथि - वि. सं. २०१२ ज्येष्ठ शुक्ला १५, दि. ५ जून १९५५
जन्मस्थान -- गाजू (कुचेरा), जि. नागौर (राजस्थान )
पिता - श्री रामचन्द्रजी रावणा राजपूत
माता - श्रीमती सजनीबाई
दीक्षा - वि. सं. २०३८ माघ शुक्ला ११ बुधवार, २६ जनवरी १९७२ नोखा चांदावतों का (नागौर)
द्वितीय खण्ड / १६
गुरुदेव -- उपप्रवर्तक स्वामी श्री ब्रजलालजी म. एवं युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. 'मधुकर'
अध्ययन - हिन्दी, जैन सूत्र व काव्य आदि
विशेष रुचि -स्वर मधुर गायन का शौक, कविता में रुचि, सेवाभावी,
उत्तम कथाकार ।
२. मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी 'दिनकर'
जन्मतिथि - वि.सं. २०१६ पौष कृष्णा ३०, ब्यावर
पिता - श्री माणकचन्द जी डोसी
माता - श्रीमती पद्माबाई
दीक्षा - वि. सं. २०३१ मार्गशीर्ष कृष्णा ११, दि. ९-९-१९७४ महामंदिर, जोधपुर गुरुदेव – उपप्रवर्तक स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म एवं युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर'
अध्ययन - संस्कृत, हिन्दी ( चल रहा है )
विशेष - गुरु सेवा में विशेष लगन, मौन साधना की रुचि, कविता, मुक्तक आदि लिखने में रुचि ।
साध्वी समुदाय
उपप्रवर्तक स्वामी श्री ब्रजलालजी म. सा. एवं युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. सा. 'मधुकर' की आज्ञानुवर्तिनी महासतियाँ जी के संघाड़े
(१) महासती श्री कानकुंवरजी म. का संघाड़ा
(२) महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म. का संघाड़ा (३) महासती श्री झणकारकुंवरजी म. का संघाड़ा (४) महासती श्री उगमकुंवरजी म. का संघाड़ा (५) महासती श्री सोहनकंवरजी म. का संघाड़ा
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मुनि श्री मांगीलाल जी म०
दीक्षा स्वावा १९९४ २०१३
१९४०
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जयं परम्परा के पांच पुष्प / १७
(५) महासती श्री गवराजी का संघाड़ा (६) महासती श्री सोहन कुंवरजी का संघाड़ा
तपस्वी मुनि श्री मांगीलालजी म. सा. जन्म एवं माता पिता
तपस्वी मुनि श्री मांगीलालजी म. सा. का जन्म वि. सं. १९४० भाद्रपद दशमी को राजस्थान की किशनगढ़ स्टेट के ग्राम दादिया निवासी श्रीमान् हजारीमलजी तातेड़ की धर्मपत्नी श्रीमती पुष्पादेवी के उदर से हुआ । आप तीन भाई थे - (१) श्री जवाहिरसिंहजी (२) श्री मोतीलालजी और ( ३ ) श्री रघुनाथसिंहजी । श्राप सबसे छोटे थे । जन्म से कुछ दिन बाद आपको मांगीलाल के नाम से पुकारा जाने लगा और अन्त तक आप इसी नाम से प्रसिद्ध रहे । संयम स्वीकार करने के बाद भी आपका नाम मुनि श्री मांगीलालजी महाराज ही रहा ।
बाल्यकाल
बाल्यकाल जीवन का सुखद एवं सुहावना समय होता है । यह जीवन का स्वर्णिम काल होता है । इस समय मनुष्य दुनिया की समस्त चिन्ताओं एवं परेशानियों से मुक्त होता है, और विषय विकारों से भी कोसों दूर होता है । परन्तु इस सुहावने समय में आपको अपने पूज्य पिताश्री का बियोग सहना पड़ा । यह सौभाग्य की बात है कि माता के प्रगाध स्नेह एवं दुलार में आपका जीवन विकसित होता रहा । ३४ वर्ष की अवस्था तक आपको माताश्री का सान्निध्य बना रहा । प्यार दुलार मिलता रहा ।
आपका ननिहाल नसीराबाद छावनी के निकट केबाण्या गांव में था । वहीं के प्रसिद्ध व्यापारी श्री हजारीमलजी की पुत्री अनुपम कुमारी के साथ आपका विवाह सम्पन्न हुआ और जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ ।
आपका जीवन प्रारम्भ से ही सुसंस्कारित था । आप प्रायः साधु-संन्यासियों के सम्पर्क में आते रहते थे । इसका ही यह मधुर परिणाम था कि आगे चलकर आप एक महान् साधक बने और आपने अपने जीवन को सही दिशा की ओर अग्रसर किया । आपके जीवन में अनेकानेक सद्गुण विद्यमान थे । सरलता, स्नेहशीलता, उदारता, दयालुता एवं न्यायप्रियता आपके जीवन के कण-कण में समाहित थी । आपके जीवन की यह विशेषता थी कि आप कभी किसी का दुःख देख नहीं सकते थे । सदा-सर्वदा दूसरे के दुःख को दूर करने के लिये प्रयत्नशील रहते थे ।
सेवानिष्ठ जीवन
विक्रम सम्वत्, १९७४ में प्लेग की भयंकर बीमारी फैल गयी । जन-मानस आतंक की उत्ताल तरंगों से आन्दोलित एवं विचलित हो उठा। देखते ही देखते सब के स्वजन - परिजन काल के गाल में समाने लगे और बचे हुए लोग अपने प्राण बचाने का प्रयत्न करने लगे । गाँव खाली होने लगा और घरों में लाशों के ढेर
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द्वितीय खण्ड / १८
लगने लगे। उन्हें श्मशानभूमि पर ले जाकर दाहसंस्कार करने वाले मिलने कठिन हो रहे थे। चारों तरफ त्राहि-त्राहि की करुण पुकार से हृदय विदीर्ण होने लगा। आपके परिवार के सदस्य भी महामारी की चपेट में आ गये। आठ दिन में तेईस सदस्य कालकवलित हो गए। चारों तरफ कुहराम मच रहा था । ऐसे विकट एवं दुखद समय में भी आपके धैर्य का बाँध नहीं टूटा। आप दिन रात जनसेवा में लगे रहे। लोगों के लिये दवा की व्यवस्था करना और जिस परिवार में मृतव्यक्ति को कोई कंधा देने वाला नहीं रहता उस लाश को उठा श्मशान में जाकर दाहसंस्कार करना, इस तरह आपने हृदय से बीमारों की सेवा की और साहस के साथ महामारी का सामना किया।
प्लेग के कारण बहुत से लोग मर गये और बहुत से लोग अपने जीवन को बचाने के लिये गाँव छोडकर जंगलों में चले गये और वहीं झोपडियाँ बनाकर रहने लगे। परन्तु परिवार में सदस्यों की कमी हो जाने तथा बीमारी के कारण शक्ति क्षीण हो जाने से उनमें खेती करने का सामर्थ्य कम रह गया और अर्थाभाव भी उनके सामने मुंह फाड़े खड़ा था। अन्न की समस्या विकट हो रही थी। लोग वृक्षों की छालें पीस कर इसकी रोटियाँ बनाकर खाते या झाड़ियों के बेर खाकर संतोष करते । अन्त में विवश होकर लोग राजा के पास पहुंचे और उनसे सहायता मांगी। उस समय मांगीलालजी राजदरबार में कामदार के पद पर काम कर रहे थे। उन्होंने जनता का साथ दिया और राजा से अन्न-संकट दूर करने की प्रार्थना की। किन्तु जनता की प्रार्थना राजा के कानकुहरों से टकराकर अनन्त आकाश में विलीन हो गयी । दुर्भाग्य से वह राजा के हृदय तक नहीं पहुँच पायी। उस करुण दृश्य को देखकर भी राजा का वज्रहृदय नहीं पसीजा और स्पष्ट शब्दों में सहायता देने से इन्कार कर दिया। जनमन भय से काँप उठा। लोगों की आँखों में अविरल अश्रधारा बहने लगी। इस समय आप शांत नहीं रह सके । आवेश में उठ खड़े हए और राजा से दो हाथ करने को तैयार हो गये। इस समय जनता का सहयोग उन्हें प्राप्त था । परिणाम यह हुआ कि राजा को सिंहासन से हटा दिया गया और उसके पुत्र को राजगद्दी पर बैठा दिया। परन्तु उन्हें इतने मात्र से संतोष नहीं हुआ । वे स्वयं भी कुछ करना चाहते थे। अतः वहाँ से घर पहुँचते ही उन्होंने अपनी जमीन और जेवर बेचकर जनता के अन्न-संकट को दूर करने का प्रयत्न किया। उनकी सेवानिष्ठा एवं सत्प्रयत्नों के फलस्वरूप जनता की स्थिति में सुधार हुआ। लोग अपना कार्य एवं जीवननिर्वाह करने में समर्थ हो गए और महामारी भी समाप्त हो गयी। चारों ओर शान्ति की सरिता प्रवहमान होने लगी। परन्तु राजा के दुर्व्यवहार से आपके मन में राजदरबार के प्रति घृणा हो गयी। अत: आपने इस राज्य में काम नहीं करने की प्रतिज्ञा करली। जीवन का नया मोड़
आपके ज्येष्ठ भ्राता उन दिनों इन्दौर में रहते थे। सरकारी कार्यकर्ता होने के कारण सारा परिवार सनातन वैदिक धर्म में विश्वास रखता था । जैनधर्म से
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जय परम्परा के पांच पुष्प / १९ उनका कोई परिचय नहीं था। उन दिनों इन्दौर में जैन सन्तों का चातुर्मास था। उनमें से एक मुनिजी ने चार महीने की तपश्चर्या सिर्फ गर्म पानी के आधार पर ही की । आपके अग्रज उनकी सेवा में पहुँचे और जैन मुनियों के त्यागनिष्ठ जीवन से प्रभावित हुए। उन्होंने एक दिन मुनिजी को आहार के लिए निमंत्रण दिया क्योंकि वे जैनमुनियों के आचार-विचार से परिचित नहीं थे। अतः मुनिजी ने यही कहा कि यथा समय जैसा द्रव्य क्षेत्र काल भाव होगा देखा जायेगा। सौभाग्य से सन्त घूमते-घूमते उसी गली में जा पहुंचे और उनके घर में प्रविष्ट हो गये । जब बड़े भाई ने मुनिजी को अपने घर में प्रविष्ट होते देखा तो उनका रोम-रोम हर्ष से विकसित हो उठा। उनका मन प्रसन्नता से नाच उठा। वे अपने आसन से उठे और संतों के सामने आ पहुँचे । उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दन किया। मुनिजी के चरण भोजनशाला की ओर बढ़े। मुनिजी ने निर्दोष आहार ग्रहण किया, उस समय रसोई घर में केसर ही केसर बिखर गई। इस दृश्य को देखकर उनके मन में जैन धर्म एवं जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई और सारा परिवार जैन बन गया। उन दिनों श्री मांगीलालजी किशनगढ़ रहते थे। जब वे अपने बड़े भाई से मिलने इन्दौर गये और वहां जाकर यह सुना कि इन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया है, उन्हें आवेश आ गया और वे अपने बड़े भाई को खरी-खोटी सुनाने लगे। परन्तु बड़े भाई शान्त स्वभाव के थे। उन्होंने उन्हें शान्त करने का प्रयत्न किया। उन्हें जैनधर्म और जैन-मुनियों की विशेषता का परिचय दिया । परन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे स्वयं चमत्कार देखना चाहते थे । अतः सन्तों के सम्पर्क में आते रहे और नवकार मन्त्र की साधना करते रहे। उनके जीवन में यह एक विशेषता थी कि वे श्रद्धा के पक्के थे। उन्हें कोई भी व्यक्ति अपने पथ से. ध्येय से विचलित नहीं कर सकता था। वे जब साधना में संलग्न होते तब और सब कुछ भूल जाते थे । यहाँ तक कि उन्हें अपने शरीर की भी चिन्ता नहीं रहती थी। एक दिन उन्होंने अपने रुई के गोदाम में आग लगा दी और स्वयं वहीं ध्यान में मस्त हो गये। चारों ओर हल्ला मच गया। परन्तु वे विचलित नहीं हुए। जब लोग वहाँ पहुँचे तो देखा कि आग उनके शरीर को छू ही नहीं पाई। उनके निकट की पांच-पाँच गज तक की रुई सुरक्षित थी। इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। अब वे जैन धर्म पर पूरा विश्वास रखने लगे। श्रद्धा में दृढ़ता आ गई।
आप श्रद्धानिष्ठ एवं साहसी व्यक्ति थे । घोर संकट के समय भी घबराते नहीं थे। एक बार आप किसी कार्यवश ऊँट पर जा रहे थे। जंगल में चलते-चलते ऊँट विक्षिप्त हो गया और आपके प्राण संकट में पड़ गये । इस समय भी आप घबराये नहीं। आपने साहस के साथ एक वृक्ष की टहनी को पकड़ा और उस पर चढ़ गये। ऊँट भी उस वृक्ष के चारों ओर चक्कर काटता रहा। परन्तु उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका। उन्हें निरन्तर छ: दिन तक वृक्ष पर ही रहना पड़ा क्योंकि भयानक जंगल होने के कारण उस रास्ते से लोगों का आवागमन कम था। फिर भी आपने नवकार मन्त्र का स्मरण किया और साहसपूर्वक वृक्ष से नीचे उतरे और
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द्वितीय खण्ड / २० ऊँट पर काबू पाया। इस प्रकार आपको धर्म पर अटूट श्रद्धा निष्ठा थी । समय परिवर्तनशील है । वह सदा सर्वदा एकसा नहीं रहता ।
परिस्थितियों में परिवर्तन
प्लेग के समय बहुत सो पूंजी जन सेवा में खर्च हो गई थी । घर का जेवर एवं जमीन आदि भी बेच दिया गया था । इससे उनकी भाभीजी नाराज रहती थीं तथा अपनी देवरानी ( महासती श्री उमरावकुंवरजी की माताजी) पर ताने एवं व्यंग्य कसती रहती थी। आपकी पत्नी शांत स्वभाव की भद्र नारी थीं । सब कुछ सहन कर लेती । वह अपने पति के उग्र स्वभाव से परिचित थी अतः उन्होंने इस बात का कभी भी जिक्र नहीं किया । परन्तु एक दिन पड़ोसिन ने सारी घटना कह सुनाई । यह सुनते ही आप आवेश में आ गये और अपनी पत्नी को लेकर घर से चल पड़े । घर से कोई भी वस्तु साथ नहीं ली और किसी तरह अहमदाबाद पहुँच गये । वहाँ एक परिचित छींपा- कपड़े छापने वाला मिल गया । उससे चार आने उधार लिए और दाल - सेव का खोमचा लगा कर काम शुरू किया। उसके बाद एक अस्पताल में कम्पाउण्डर का काम करने लगे । दिन में अस्पताल का काम करते । शाम को दाल - सेव बेचते और रात को एक स्थान पर पहरा देते । इस तरह रात दिन कठोर परिश्रम करके उन्होंने एक साल में ग्यारह हजार रुपये कमाये ।
परन्तु दुर्भाग्य ने अभी भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। एक दिन पहरा देते समय सावधानी के कारण वे खान में गिर पड़े और अपने हाथ की नंगी तलवार से उनके पैर में घाव पड़ गया। उन्हें अस्पताल में दाखिल कर दिया गया । उस समय उनकी पत्नी गर्भवती थी अतः उन्हें किशनगढ़ भेज दिया और दस बारह दिन बाद एक कन्या - रत्न का जन्म हुआ । कन्या के जन्म के सात दिन के बाद ही माता का देहान्त हो गया । वही कन्या आज सम्पूर्ण भारत में अध्यात्मयोगिनी, काश्मीर-धर्मप्रचारिका परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवर "अर्चना " के नाम से प्रख्यात है । अभी तक श्री माँगीलालजी के अपने एवं भाइयों के तेईस पुत्रों के वियोग सू सूख ही नहीं पाये थे कि उन पर यह वज्रपात हो गया उस समय चार व्यक्ति उन्हें अहमदाबाद के अस्पताल से लेकर घर पर आये, वहाँ पर आते ही देखा तो घर का ताला टूटा हुआ था और रात-दिन खून-पसीना एक करके जो पैसा कमाया था वह सब चोर ले गये थे । उनके पास कुछ भी नहीं बचा था । खैर एक व्यक्ति से पचास रु. उधार लेकर वे किशनगढ़ पहुँचे, तब तक उनकी धर्मपत्नी का अन्तिम संस्कार हो चुका था ।
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संतोषी जीवन
धर्मपत्नी के देहान्त के बाद परिजनों ने उन्हें दूसरा विवाह करने के लिए बहुत जोर दिया परन्तु वे अपने पुनर्विवाह के पक्ष में नहीं थे, वे अपना जीवन शांति एवं स्वतन्त्रतापूर्वक बिताना चाहते थे । अतः उन्होंने दूसरा विवाह करने से इन्कार कर दिया। साथ में दूध, दही, घी, तेल, मिष्ठान्न, नमक और सब्जी आदि
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जय परम्परा के पाँच पुरुष / २१
त्याग कर दिये । अतः सात वर्ष तक बिना नमक मिर्च के उर्द की दाल और जौं की रूखी रोटी ही लेते थे ।
अपूर्व साहस
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एक बार अपनी छः वर्षीय पुत्री को लेकर अपने ससुराल जाने वाले थे । अतः रात को जल्दी उठकर चल पड़े। अपनी पुत्री को गोद में उठाये वे तेजी से कदम उठा रहे थे। पहाड़ी रास्ता था और पगडण्डी के रास्ते से चल रहे थे। दुर्भाग्यवश रास्ता भूल गये और घने जंगल में भटक गये फिर भी वे साहस करके बढ़ रहे थे कि एक झाड़ी में से शेर निकल प्राये । शेरों को देखते ही उन्होंने अपनी पुत्री को घास के गट्ठर की तरह जमीन पर एक ओर फेंक दिया और म्यान में से तलवार निकाल कर शेरों पर टूट पड़े। काफी समय तक शेरों के साथ संघर्ष होता रहा । अन्त उन्होंने शेरों पर विजय प्राप्त की। लेकिन आपका शरीर भी काफी क्षत-विक्षत हो गया । फिर भी उसकी परवाह किये बिना अपने अपनी पुत्री को उठाया और रास्ता खोजते हुए आगे बढ़ गये । भाग्यवश सही रास्ता मिल गया और सूर्योदय से एक दो घंटे पहिले ही अपने गंतव्य पर पहुँच गये । अभी तक घर का द्वार नहीं खुला था अतः खुलवाया । उनके घावों से खून बह रहा था और वे बुरी तरह से थक चुके थे ।
इसलिए वे न तो ठीक तरह से खड़े ही रह सके और न ही किसी से बात ही कर पाये । एकदम चारपाई पर गिर पड़े। उनकी यह दशा देखकर घर वाले घबरा गये । आपकी पुत्री ने सारी घटना कह सुनाई। उन्होंने आपको नसीराबाद के अस्पताल में दाखिल करवाया। वहाँ कई महीने उपचार होता रहा। और डॉक्टरों के सत्प्रयत्नों से पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गये । स्नेह और प्रतिज्ञा
अपनी पुत्री का विवाह आपने खूब आपको सबके साथ भोजन करना पड़ा। हार्दिक स्नेह भरे ग्रह को टाल नहीं सके मनुष्य को विवश कर देता है ।
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निर्भयता
धूमधाम से किया । उसी अवसर पर क्योंकि अपने समधी एवं संबंधियों के वस्तुतः हार्दिक स्नेह और सच्चा प्यार
एक बार आप अपने निकट संबंधी के विवाह में सम्मिलित होने जा रहे थे । आपकी दूसरी पुत्री उमा भी आपके साथ थी । सब बैलगाड़ी से जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ती थी । उसे पार करते समय बैलों के पैर उखड़ गये । गाड़ीवान भी उन्हें नहीं सम्भाल पाया। इस संकट के समय भी वे घबराये नहीं । डरना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था । वे साहस के साथ गाड़ी से कूद पड़े और बैलों की रस्सी पकड़ कर गाड़ी को नदी से पार कर दिया । परन्तु यह क्या ? एक सफेद रंग का सर्प उनके पैरों से चिपटा हुआ था । सर्प पर दृष्टि पड़ते ही आपकी पुत्री
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द्वितीय खण्ड/ २२
चीख उठी । परन्तु आप विचलित नहीं हुए और न ही डरे । उन्होंने निर्द्वन्द्व भाव से सर्प को हाथ से खींचा और पानी में फेंक दिया। वज्राघात
आपने अपनी दूसरी पुत्री उमा का विवाह भी साढ़े ग्यारह वर्ष की आयु में ही . कर दिया। विवाह के पश्चात् अभी गौना भी नहीं हुआ था कि अचानक समाचार मिला कि आपके छोटे दामाद का देहावसान हो गया । अपनी लाडली पुत्री के वैधव्य के समाचारों से आपके मन पर बहत आघात लगा । अापने-अपने जीवन में अनेक वियोग सहे, परन्तु इस वियोग का वज्राघात सबसे भारी था । आप भरे घर को खुला छोड़कर आये थे, पुनः वापिस नहीं गये, अतः अपनी पुत्री के पास ही रहने लगे। साधना के पथ पर
अपने दामाद की मृत्यु के दस या ग्यारह दिन बाद परम श्रद्धय महासती श्री सरदार कुंवर जी. म. सा. का अजमेर पधारना हुआ। और उमा की अंतरवेदना से उनका हृदय भर आया। उन्होंने मांगलिक सुनाया, सांत्वना दी और विहार कर दिया । एक वर्ष बाद पुनः अजमेर (दोराई) पधारे तब आपकी आग्रह भरी विनती स्वीकार कर महासती जी उमा को दर्शन देने दादिया गांव पधारी । यहीं से उमा के मन में महासती जी के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय हुआ। ___इसके पश्चात् आप अपनी पुत्री को साथ लेकर महासतीजी के दर्शनार्थ नोखा गाँव पहुँचे । यहीं पर उमा ने दीक्षा लेने के अपने भाव आपके सामने रखे । यहाँ से आप अपनी पुत्री को लेकर कुचेरा पहुँचे, उस समय कुचेरा में स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा. विराजमान थे। पाप स्वामीजी की से
सीजी की सेवा में पहुँचे और दर्शन किये । तब आपके मन में भी दीक्षा लेने के भाव जाग्रत हो उठे।
वि. सम्वत् १९९४ मृगसिर कृष्णा एकादशी को प्रातः ८ बजे परम श्रद्धय स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. के करकमलों से उमा और मांगीलालजी की दीक्षा सम्पन्न हुई। आप मनि श्री मांगीलालजी महाराज के रूप में स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. के शिष्य बने । और उमा श्री उमरावकुंवरजी महाराज के रूप में महासती श्री सरदार कुंवरजी महाराज की शिष्या बनी। साधना का प्रारम्भ
दीक्षा के समय आपकी आयु ५३ वर्ष की थी और अध्ययन बहुत गहरा नहीं था। परन्तु गृहस्थजीवन में ही ध्यान एवं प्रात्मचिंतन की ओर आपका मन लगा रहता था। उसी भावना को विकसित करने के लिये आप प्रायः मौन रखते थे और ध्यान, जप एवं प्रात्मचितन में संलग्न रहते थे। इसके साथ-२ उन्होंने तपसाधना भी प्रारम्भ कर दी। वे सारे दिन में एक बार ही प्राहार करते थे और वह भी एक पात्र में।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी आपको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । अनेक परिषह सहने पड़े। अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल समस्याएँ आपके
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जय परम्परा के पांच पुष्प / २३ सामने आयी। परन्तु आप सदा अपने साधनापथ पर अडिग रहे, विचलित नहीं हुए। वे समस्याओं को दुःख का, पतन का कारण नहीं मानते बल्कि जीवनविकास का कारण मानते थे। अतः शांत भाव से उन्हें सुलझाते रहते । स्थविरवास
कुछ वर्षों में आपकी शारीरिक शक्ति काफी क्षीण हो गयी, फिर भी आप विहार करते रहे । जब तक पैरों में चलने की शक्ति रही तब तक अपने परम श्रद्धय गुरुदेव के साथ विचरण करते रहे । जब पैर चलते-२ लड़खड़ाने लगे तब पू. गुरुदेव की आज्ञा से आपका स्थविरवास कुन्दनभवन ब्यावर में हो गया। मुनि श्री भानुऋषिजी म. सा. आपकी सेवा में रहे । दयालु हृदय
आप लगभग अठारह वर्ष आठ महीने श्रमणसाधना में संलग्न रहे । इस साधनाकाल में आपके जीवन में अनेक घटनायें घटित हुई । परन्तु आप सदा शांत भाव से सहते रहे । आपमें अपने कष्टों एवं दुःखों को सहने की हिम्मत थी, परन्तु वे दूसरों का दुःख नहीं देख सकते थे । आपके अर्न्तमन में दया एवं करुणा का सागर लहरा रहा था। स्वर्गवास के एक वर्ष पहले की बात है-आप एक दिन शौच के लिये पधारे, वहाँ घास की कमी के कारण दुर्बल एवं भूखी गायों को देखकर आपका हृदय रो उठा और आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसी दिन से दूध का त्याग कर दिया। वे पर-वेदना को सहने में बहुत कमजोर थे । सादा-जीवन
आपका जीवन सादा और सरल था। आप यथासंभव अल्प से अल्प मूल्य के वस्त्र ग्रहण करते और वह भी मर्यादा से कम ही रखते थे। सर्दियों के दिनों में आप टाट प्रोढ़कर रात बिता देते, आपकी आवश्यकतायें भी बहुत सीमित थीं। समाधि-मरण
आप तीन-२ घंटे की निद्रा लेते थे। रात का शेष समय ध्यान एवं जप में व्यतीत करते । इसी कारण उन्हें अपना भविष्य भी स्पष्ट दिखाई देने लगा । आपने अपने महाप्रयाण के छः माह पूर्व ही अपने देह-त्याग के सम्बन्ध में बता दिया था। अपने स्वर्ग गमन के तीन दिन पूर्व भी आपने इस प्रकार का संकेत दे दिया था।
आप अपनी आत्मा में सजग थे। अत: आत्म-अालोचना करके शुद्धि की और क्षमापना की । स्वर्गवास के दिन करीब एक बजे तक अपने भक्तों के घर जाकर उन्हें दर्शन देते रहे। सबसे शुद्ध हृदय से क्षमत-क्षमापना करके आप उस स्थानक में पधारे जहाँ महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. विराज रहे थे। सतीजी ने जब उनसे कहा कि आपके घुटनों में दर्द है फिर आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। तब आपने शांत स्वर में कहा कि जीवन में दर्द तो चलता ही रहता है जब तक
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द्वितीय खण | २४ आत्मा के साथ शरीर है तब तक वेदनाएं तो लगी ही रहती हैं और अपना सम्बन्ध तो सिर्फ आज का ही और है । कल तो केवल स्मृतिमात्र ही रह जायेगी इसलिए तुमसे भी क्षमत-क्षमापना करने को आ गया।
उस समय उनका स्वास्थ्य अच्छा था। शरीर पर ऐसे कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहे थे जिससे ऐसी कल्पना की जा सके कि ये महापुरुष सबको छोड़कर आज ही चले जायेगें। रात को पौने बारह बजे संथारा किया और पौने चार बजे स्वर्गवासी हुए । केवल आपके द्वारा कहे अंतिम शब्द सभी को याद आने लगे ।
इस प्रकार वे विक्रम सम्वत् २०१३-श्रावण कृष्णा दशमी की रात को अनन्त की गोद में सदा के लिये सो गये । आज उनका भौतिक शरीर हमारे बीच नहीं है, परन्तु उनकी साधना, सरलता, सौजन्य एवं दयालुता आज भी हमारे सामने हैं । उनके गुण आज भी जीवित हैं । वे मरे नहीं बल्कि मरकर भी जीवित हैं और सदा सर्वदा जीवित रहेंगे।
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COCCOLE
Kमधरा मंत्री पू. श्री हजारीमल जी म.सा,प्रवर्तक भी ब्रजलाल जी म.सा.
एवं श्रमण संघीय यवाचार्य श्री मिश्रीलाल जी मधुकर एवं तपोधनी मौन सेवी मुनि श्री मांगीलाल जी मसा. | एक दुर्लभ चित्र, ब्यावर सं. १९९४
MS
जैन स्थानक किशनगढ़ के ताले खुलने के पश्चात् प्रसन्नचित आविकाओं के बीच महासतीजी सं.०२५
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बहुआयामी व्यक्तित्व
। अजित मुनि 'निर्मल'
सहज एवं सारल्य जो है, प्रथम परिचय में ही स्नेह तथा सौजन्य वर्षाती कोमलवाणी अपना अमिट प्रभाव स्थापित कर देती है । परिचित तो क्या अपरिचित को भी जो कभी ऐसा अहसास नहीं होने देती कि वह उनके प्रथम बार ही दर्शन कर रहा है। काश्मीर में जिन्होंने जैनधर्म की पताका को फहराया और अनेकानेक जैन-जनेतरों को अपना ही नहीं जैनधर्म का परम श्रद्धालु बनाया ऐसी साध्वीरत्न, ध्यानयोग की परमाराधिका, प्रवचन शिरोमणि उच्चकोटि की साधिका महासती श्री उमरावकुंवरजी म. स. 'अर्चना' के नाम से आज जैनसमाज तो क्या अजैन समाज भी अपरिचित नहीं है । ___आपके जीवन की कुछ विशिष्टतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं। जिन्हें विशिष्टगुणों की संज्ञा भी दी जा सकती है। यथा-विनम्रता, सरलता, उदारता, दृढता, सहिष्णुता, समन्वयवादिता, समता-वात्सल्यता, धैर्य, निर्भीकता, साहस, दया, क्षमा, करुणा एवं अध्ययन-अध्यापन-दक्षता आदि-आदि । क्रोध आपके पास फटकता नहीं और लोभ, माया, मोह से आप कोसों दूर रहती हैं ! ऐसा प्रतीत होता है जैसे आपने कषायों पर विजय प्राप्त कर ली है। आपके आन्तरिक एवं बाह्यजीवन में कोई अन्तर नहीं मिलता है। माया, दंभ, प्रपंच, ढोंग एवं बहुरूपिया की भाँति दुहरा जीवन जीना आपको बिल्कुल सुहाता नहीं है।
वक्तृत्व कला आपका सहज स्वभाव है। आपको वाणी में मधुरता और सहज सुन्दरता के साथ कुछ ऐसा आकर्षण पाया जाता है कि श्रोता उस ओर खिचा चला पाता है और आपके प्रवचन-पीयूष का पान कर झूम उठता है । आप इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हैं कि किस समय क्या बोलना है, कैसे बोलना और कितना बोलना ! आपकी वाणी में प्रोज, तेज, शान्ति और प्रवाह है । उस दृष्टि से देखा जाय तो हम आपको वाणी की जादूगर भी कह सकते हैं। ___आपका विहारक्षेत्र अति विस्तृत है। उल्लेखनीय बात यह है कि जहाँ भी आप पधारती हैं अपनी अमिट छाप छोड़ जाती हैं। विदाई के क्षणों में ग्राम नगरवासियों की एक ही चाह होती है-"काश कुछ दिन और आप ठहर जातीं।" किन्तु साधुजीवन की भी कुछ मर्यादायें हैं। निश्चित समय से अधिक अकारण एक स्थान पर नहीं ठहरा जा सकता। इस तथ्य को भी सभी जानते हैं, और तभी तो अश्रुपूरित नेत्रों से आपको विदाई देते हैं।
आपके चतुर्मास जिस भी ग्राम या नगर में हुये वे अविस्मरणीय हो जाते हैं।। आपकी साधना का कुछ ऐसा प्रभाव परिलक्षित होता है कि वह घटना एक
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द्वितीय खण्ड २६ चमत्कार बन जाती है। यदि आपके सम्पूर्ण तितिक्षामय जीवन को देखा जाये और इस प्रकार की घटनाओं का संकलन कर लिपिबद्ध किया जाय तो संस्मरणों की एक अच्छी पुस्तक तैयार हो सकती है। संस्मरणों में साधकजीवन का प्रतिबिम्ब होता है । उसमें साधक की महत्ता प्रकट होती है और साधक के अनुयायीवर्ग को नित नवीन प्रेरणा मिलती है। इसलिये आपके अनुयायीवर्ग से यही अपेक्षा है कि वे उस दिशा में प्रयास कर आपसे उस प्रकार के संस्मरण प्राप्त कर उनका प्रकाशन विशेषरूप से करने की व्यवस्था करें।
महासती श्रीउमराव कुवंरजी म. सा. 'अर्चना' व्यक्ति नहीं एक संस्था हैं। मानवसेवा आपका स्वभाव है। उस कार्य को गति प्रदान करने के लिये आपने अनेक संस्थाओं की स्थापना भी की है। उन संस्थाओं के माध्यम से आपके द्वारा दीन-दुखियों और जरूरतमन्दों की अच्छी सेवा की जा रही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आप कितनी पर-दुःखकातर हैं।
आप एक श्रेष्ठ संगठक भी हैं । आप अनुशासनप्रिय हैं । अवज्ञा और प्राचार में शिथिलता आपको असह्य है। किन्तु कोमलहृदय होने के कारण आप अपनी शिष्याओं को कष्टमय भी नहीं देख सकती हैं। जब कभी भी ऐसा कोई प्रसंग देखने में आया आप विह्वल हो उठती हैं। जब तक अपनी शिष्या स्वस्थ नहीं हो जाती तब तक आप बेचैन रहती हैं। और उनकी सेवाशुश्रूषा में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देती हैं । इसके अतिरिक्त आप अपनी शिष्याओं के अध्ययनअध्यापन पर भी विशेषरूप से ध्यान देती हैं। उसीका यह परिणाम है कि आपकी सभी शिष्याएं विदुषी हैं।
आपकी दीक्षा के पचास वर्ष पूर्ण होने पर आपके सम्मान में एक अभिनन्दनग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है । यह प्रयास स्तुत्य है । मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि यह अभिनन्दन ग्रन्थ अपने आप में एक उच्चकोटि का ग्रन्थ हो और आपके समग्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तो प्रकाश डाले ही, साथ ही आपके साधनामयजीवन के विशिष्ट संस्मरणों का विशेषरूप से प्रकाशन करे । यदि ग्रन्थ में आपकी रुचि के विषयों से सम्बन्धित सामग्री के प्रकाशन को प्राथमिकता दी जावेगी तो निश्चय ही यह ग्रन्थ-समर्पण सार्थक होगा।
अन्त में यही शुभकामना है कि आप सदैव स्वस्थ रहते हुए अपनी वाणी से अमृत-वर्षा करती रहें और समाज का मार्गदर्शन करती रहें। ___ एक बार पुनः ध्यानयोग की महान आराधिका के यशस्वी जीवन के प्रति मैं अपनी हार्दिक मंगलकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
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मालवकेसरो श्री सौभाग्यमलजी म. सा. की पावन दृष्टि में ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्रिवेणीसंगम महासती श्रीअर्चनाजी
श्रमणीरत्न - मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय'
--वि० सं०-२०४० -ज्येष्ठ मास
पूज्य गुरुदेव मालवकेसरी जैनसुधाकर, प्रसिद्ध वक्ता, सन्तरत्न, शांति के अग्रदूत, परमश्रद्धय पूज्यपाद स्व. श्री सौभाग्यमलजी म. सा. उन दिनों रतलाम (म. प्र.) में विराजमान थे।
पूज्य श्रद्धेय ध्यानयोगी, बहुश्रुत, विद्वद्वर्य युवाचार्य प्रवर स्व. श्री मिश्रीमलजी म. सा. उस वर्ष पूज्यप्रवर आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. सा. की सेवा में मारवाड की ओर से विहार करते हए नासिक पधारते समय रतलाम भी पधारे थे। उन्हीं दिनों में काश्मीरप्रचारिका, अध्यात्मयोगिनी, विदुषी विद्वद्वर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी म. 'अर्चनाजी' का अपनी शिष्यमण्डली के साथ रतलाम पदार्पण हुआ।
पूज्य गुरुदेव मालवकेसरीजी म. सा. के दर्शनार्थ जब महासती श्री "अर्चनाजी" श्रीधर्मदास जैन मित्रमण्डल में पधारे और दर्शन लाभ लिया, उस समय पूज्य गुरुदेव श्री ने श्रीअर्चनाजी के रतलाम पदार्पण पर महती प्रसन्नता व्यक्त की एवं विहार आदि की सुख-शाता पृच्छा की। ___ एक दिन पूज्य गुरुदेव श्री के पास में बैठा था। पूज्य गुरुदेव श्री श्रमणश्रमणी के महिमामय जीवन-प्रसंगों पर अपने विचार फरमा रहे थे। इसी प्रसंग में पूज्य गुरुदेव श्री ने महा. श्री अर्चनाजी के गौरवमय जीवन प्रसंग पर भी कुछ कहा था। जो याद रहा वह इस प्रकार है
श्रमणजीवन तपस्यामय होता है । उनके चरण सदा गतिशील रहते हैं । उनका मन शुभभावों में सर्वदा रमण करता रहता है। उनके वचन शुभभावों को पुष्ट करने वाले एवं स्व-पर कल्याणकारी होते हैं। श्रमणजीवन की आराधना करने वाला साधक अपना तो कल्याण करता ही है किन्तु विहारचर्या करते समय समागत जिज्ञासु एवं मुमुक्षु भविजीवों को भी वह वीतराग-वाणी का पान कराकर उन्हें शुद्ध प्रात्मधर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देकर कल्याणकारी मार्ग बताता है।
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द्वितीय खण्ड / २८ श्रमण की विहारचर्या की अपेक्षा श्रमणियों को विहारचर्या में परीषह-उपसर्गादि अधिक आने की संभावना रहती है क्योंकि एक तो नारीजीवन, दूसरा श्रमण वेष, फिर भी जिनेन्द्रदेव के विशाल-शासन में पूर्वकाल से ही अनेक श्रमणियों ने सुदीर्घ प्रान्तों में लम्बी-लम्बी विहार यात्रा करके वीतराग-वाणी का प्रसार किया है। वीतरागवाणी के प्रसार में उनका स्थान भी महत्त्वपूर्ण है, वे इस कार्य में प्राण-प्रण से जुटी रही । आने वाले परिषहों की उन्होंने कभी भी चिन्ता नहीं की।
- देखो, महासती श्री अर्चना को। कितना सौम्य है इनका मुख-मंडल ? अद्भुत विद्वत्ता है इनमें। जैन धर्म व दर्शन के साथ ही भारतीय दर्शन का भी इनको बहुत गहरा ज्ञान है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की ये त्रिवेणी संगम हैं और साथ ही वीतरागीवाणी का प्रसार करने की भावना भी इनमें बहुत है। इसी भावना के वश इन्होंने भारतवर्ष के उत्तरीप्रान्तों में जिन-शासन की प्रभावना करते हुए, काश्मीर तक की सुदीर्घ विहार-यात्रा की है। वीतराग-वाणी का जो ज्ञान प्राप्त किया है उसे जन-जन में फैलाते हए जिन-शासन की सेवा एवं प्रभावना कर रही हैं। कहाँ मारवाड़ प्रदेश और कहाँ काश्मीर ? लेकिन महासतीजी के मन में उमंग थी कि महावीर-वाणी का प्रचार किया जाये और ऐसे सुदीर्घ लम्बे विहार में परिषह कष्टादि आते ही हैं, आये भी होंगे किन्तु दृढ़ निश्चय के सामने वे सब परिषहादि गौण हो जाते हैं। ___मैंने गुरुदेव से पूछा-'गुरुदेव ! आपने भी तो दक्षिण भारत (आंध्र और कर्नाटक तक) की विहार-यात्रा की थी। वीतरागवाणी का प्रसार किया था और स्थानकवासी जैन श्रमणों में सबसे पहले आपने ही उन प्रान्तों की ओर गमन किया था । वे प्रान्त भी तो मालवप्रदेश से हजारों मील की दूरी पर स्थित हैं। आपको भी मार्ग में बाधाएँ तो आई होंगी?
गुरुदेव अपनी सहजमुद्रा में मुस्कराते हुए बोले-'भैया ! संतजीवन ही परिषह से युक्त है किन्तु श्रमणी का जीवन, संतजीवन की अपेक्षा कोमल होता है फिर भी श्रमणी-समुदाय ने भी समागत परिषह से घबराकर अपना कदम पीछे नहीं लौटाया। बड़ा भारी योगदान रहा है महावीर संघ को आगे बढ़ाने में श्रमणियों का भी और बड़ी बात तो यह है कि प्रभु महावीर के श्रीसंघ में संतसती, श्रावक-श्राविका दोनों का समान महत्त्व है। जब समान महत्त्व है तो उत्तरदायित्व भी समान है । अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही श्रमणियों ने भी अपना अप्रतिम योगदान दिया है, महावीर संघ की धवल कीर्तिध्वजा को फहराने में....'श्रमणीजीवन और उनकी विशालमहिमा के बारे में क्या कहूँ ज्यादा ? जो भी कहा जाय, वह कम ही है।'
महासती श्रीअर्चनाजी का जीवन भी बड़ा त्यागमय रहा है । उनकी जीवनकथा 'अग्निपथ' नामक पुस्तक में वर्णित है। उनकी जीवन-कथा ही उनके अद्भुत, साहस, धैर्य, विद्वत्ता, कर्मठता आदि गुणों का परिचय करा देती है और इसीके बल पर वे काश्मीर की घाटियों में वीतरागवाणी की गूंज को रख
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श्रमणीरत्न | २९
पाये हैं और अब इस मालवप्रदेश की धर्म-पिपासु व जिज्ञासु जनता को उनके मुखारविन्द से वीतरागवाणी को सुनने का अवसर मिला है। मालव की धर्मपिपासु जनता का यह सौभाग्य है कि उन्हें ऐसी विद्वद्वर्या एवं विदुषी महासती के दर्शन-प्रवचन का अनमोल किन्तु सहज ही लाभ मिल गया है ।
सच. इस प्रकार सभी संत-सतियाँ केवल वीतराग-वाणी-प्रसार की भावना को लेकर चल पड़ें तो सारे भारतवर्ष में महावीर-वाणी व्याप्त हो जाये फिर चहुँ ओर शान्ति और सुख का साम्राज्य हो जायेगा।
इस प्रकार पूज्य गुरुदेव श्री ने श्रमण-श्रमणी के महिमामय जीवन को बताते हुए महासती श्रीअर्चनाजी म. सा. के बारे में दो शब्द कहे थे जो उन्हीं के भावनामय शब्दों में प्रस्तुत किये हैं। मैं उनके सूखद और दीर्घजीवन की मंगल कामना करता हूँ।
CD
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मानवजीवन रूपी राजमहल में जब-जब मिथ्यात्व का कोहरा छा जाता है तब-तब किसी पथप्रदर्शक के व्यक्तित्व का दिनकर ही उसे दूर करता है।
परम उपकारमयी, गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी
0 आर्या सुप्रभा कुमारी 'सुधा'
चारों ओर घना अन्धकार फैला हो, कहीं कुछ दिखाई न देता हो, ऐसे में कोई नन्हा-सा दीप जल उठे, वह अपने उजाले के बल पर सहज ही दूर तक फैले अन्धेरे को दूर कर देता है । जहाँ कुछ नहीं दिखाई देता है वहाँ धीरे-धीरे सभी आकार स्पष्ट होने लगते हैं। दूर तक फैला रेगिस्तान हो, तपन ही तपन हो, इतने में आकाश में बादल छा जाएँ और वर्षा की बूंदें आकाश से उतर कर तपती रेत को शीतल करने लगें, तब देखते ही देखते चारों ओर शीतलता का साम्राज्य छा जाता है। कहीं भयावह जंगल हो, रास्ता दिखाई न देता हो, ऐसे में एक पगडंडी दिखाई दे जाय, तब रास्ता स्वतः ही दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार अध्यात्म के बिना यह संसार अन्धकार है, रेगिस्तान और भयावह जंगल की तरह है। संख्यातीत प्राणी प्रतिक्षण इस धरती पर जन्म लेते हैं। झाड़-झंखाड़ की तरह बड़े होते हैं और मृत्यु की गहरी खाई में खो जाते हैं। ऐसे में कोई महान् आत्मा जन्म लेती है जो दीपक बनकर अज्ञानता के अन्धकार को दूर कर देती है, संतापों के रेगिस्तान की तपन को दूर कर देती है और अपने पदचिह्नों के द्वारा जंगल में एक सहज पगडण्डी भी तैयार कर देती है।
अध्यात्म-जगत् की परम साधिका पूज्य गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का जन्म अध्यात्म-जगत् की एक ऐतिहासिक घटना है । आपका जन्म विक्रम सम्वत १९७९ भाद्रपद सप्तमी मंगलवार को किशनगढ़ के समीप दादिया ग्राम में हुआ था। जन्म के समय ऐसा प्रतीत हुआ जैसे आप एक ज्योति हैं, जिसका उजाला दादिया गांव से लेकर सुदूर काश्मीर तक विकीर्ण होगा। आपने अभी ठीक से आँखें भी नहीं खोली थी, वात्सल्यमयी जननी आपका नामकरण भी नहीं कर पाई थी कि वह इस संसार से प्रयाण कर गयी। तब आप सिर्फ सात दिन की ही थी। यद्यपि प्रापको पिताजी, बड़े पिताजी, बड़े भ्राताजी का
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परम उपकारमयी, गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी / ३१
अपार स्नेह मिला लेकिन जननी का वात्सल्य न मिल सका । कहा जाता है कि माँ के कदमों के नीचे जन्नत (स्वर्ग) होती है, लेकिन नियति को प्रापको यह सुख देना स्वीकार न था।
प्रश्न उठता है कि जीवन क्या है ? इस रहस्य को विविध दार्शनिकों ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है । वैदिक परम्परा में जिसे ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिपुटी कहा गया है, बौद्धपरम्परा में प्रज्ञा, शील और समाधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है, जैनदर्शन में उसीको श्रद्धा, ज्ञान और आचरण कहा गया है । वस्तुतः जीवन ज्ञान, श्रद्धा और आचरण का समन्वित रूप है। इन तीनों तत्त्वों के बिना जीवन उस कागज के फल की भाँति है, जिसमें सुगन्ध नहीं है, उस देवालय की भाँति है जिसमें ईश्वर की प्रतिमा नहीं। जीवन को परिभाषित करने का प्रयास कुछ मनीषियों ने भी किया है। महात्मा गांधी ने कहा था"जीवन का उद्देश्य प्रात्मदर्शन है और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एकमात्र उपाय परमार्थभाव से प्राणीमात्र की सेवा करना है।"
नोबल पुरस्कार प्राप्तकर्ता विश्वविख्यात टॉलस्टाय ने जीवन के सम्बन्ध में कहा था-"मनुष्य का सच्चा जीवन तब प्रारम्भ होता है जब वह अनुभव करता है कि शारीरिक जीवन व्यर्थ है।"
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में-"जीवन सागर-तट पर पत्र पर पड़े हुए उन अोसबिंदुओं की भाँति है जो धीमे-धीमे नृत्य करते हों।"
सुकरात के अनुसार जीवन का उद्देश्य ईश्वर की भाँति होना चाहिए । ईश्वर का अनुकरण करती आत्मा ईश्वरतुल्य हो जायगी। प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. ब्राउनी ने जीवन का सम्बन्ध युद्ध के साथ जोड़ते हुए कहा-"जब मनुष्य का युद्ध अपने आप के साथ होता है, तब उसका कुछ मूल्य होता है।" वस्तुत: मेरी पूज्य गुरुवर्या का जीवन सुषुप्त नहीं जागृत है । एक ऐसी धूप है, जो भारत के सुदूर प्रांतों तक फैली है । पचास वर्ष अनवरत साधना करते हुए आपने जिस दिव्य ज्योति से साक्षात्कार किया है, वह सहजता, सरलता एवं असीम प्रशान्ति प्रदान करने वाली है।
आपका जीवन स्वामी विवेकानन्द के इस कथन के अनुरूप है-"जीवन का रहस्य भोग में नहीं त्याग में है।"
पूज्य गुरुवर्या का ध्येय जीवन-मंथन से अमृत पाना है। उन्हें ऐसा जीवन अभीष्ट है जो मरणशील न हो, उन्मुक्त हो, आभ्यन्तर हो, लयात्मक हो, सचेत हो
और ज्योतिष्मान जाज्वल्यमान हो, जिसमें जड़ता और अंधकार न हो। इस अद्भुत और अलौकिक जीवन को पाने के लिए आप सतत यत्नशील हैं । यह जीवन आँखों से देखा नहीं जा सकता, हाथ से छुपा नहीं जा सकता, उस तक साधना के अनवरत जलते हुए दीप के आलोक से पहुँचा जा सकता है। यह उजाला कहता है—'मैं अजर हूँ, अमर हूँ, तैजस हूँ और ज्योतिष्मान हूँ।'
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द्वितीय खण्ड / ३२
साढ़े ग्यारह वर्ष की अवस्था में पाप परिणयसूत्र में आबद्ध कर दी गई। आपका ससुराल अजमेर के पास दोराई गांव में था। आपके ससुर श्री सुवालालजी हिंगड गांव के सर्वाधिक प्रतिठिष्त व्यक्ति थे। उन्होंने ग्यारह लाख रुपये व्यय करके पाँच गांव बसाये। आज भी दोराई 'हिंगड़ों' की कहलाती है। आपके पाठ देवर-जेठ और एक ननद थी। पीहर और ससुराल दोनों जगह जीवन सुखमय था। दो वर्ष हँसी खुशी में ऐसे बीत गये जैसे दो दिन । परन्तु कर्म के सामने हम कितने विवश होते हैं-विधि की विडम्बना ! कि मृत्यु के एक ही झोंके ने आपकी मांग का सिंदूर पौंछ दिया।
संयोगवश बालब्रह्मचारिणी महासती श्री सरदारकुंवरजी म. सा. के आपको दर्शन प्राप्त हुए और लगा जैसे पतिवियोग का अंधेरा क्रमशः दूर होता जा रहा है और उसके स्थान पर वैराग्य के उजाले की किरणें फैल रही हैं। आपको लगा"प्रच्छन्न रोग है प्रकट भोग में' और मन का सन्ताप दूर होने लगा । आपने त्यागपथ पर चलने का निश्चय कर लिया। आपके निश्चय को अपने पिताजी द्वारा भी अनुपम बल मिला। वि. स. १९९४ अगहन बदी ग्यारस रविवार को नोखा ग्राम में पूज्य प्रवर्तक श्रद्धेय श्री हजारीमलजी म. सा. के कर-कमलों द्वारा मरुधरा की प्रख्यात प्रागमज्ञ यशस्वी महासती श्री पूज्य सरदारकुंवरजी म. सा. की नेश्राय में आपने दीक्षा ली। दीक्षा से एक घण्टे पूर्व आपको पिताजी का आशीर्वाद मिला "तेरे कदम साधना के शिखर की ओर बढ़ते रहें।" तबसे आपके कदम अनवरत साधना के शिखर की ओर बढ़ रहे हैं। आपके संकल्प के समक्ष बाधाओं ने घुटने टेक दिये
तुम मेरी श्रद्धा मत आजमाओ, मेरे विश्वासों की हार न होगी। मुझे बतलाओ मंजिल से राही कब-कब हारा, बढ़ने वालों ने क्या पीछे की ओर कभी निहारा? उठे कदम जब मानव के तो, झुक गया हिमालय भी, मोड़ ले गयी युग-युग से उलटी बहती धारा भी।
तम अपने ध्वंसों को समझाओ......." मूचालों ने धरा हिला दी, मानव उर न हिला, दुभिक्षों, अंगारों में भी, मानव सुमन खिला। कितनी बार प्रलय ने जिसके साहस को तोला, उसको ऊंचा उठा सकी है, अब तक कौन तुला ।
__ "ओ पतझड़ ! वापिस जाओ,
__मेरे मधुमासों की हार न होगी॥........" आपके रास्ते में कभी तूफान आया और कभी आँधी, कभी तीन-तीन, चारचार दिन तक आहार पानी भी नहीं मिला। कभी मौसम ने तेवर दिखाए तो कभी मनुष्य ने... लेकिन वह कदम और होंगे जो पथ की बाधाओं से हार गये । आपने तो यही किया सार्थक है
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परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन को सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी | ३३
"जिस हाल में जीना मुश्किल है,
उस हाल में जीना लाजिम है।" आपकी अभिरुचि दर्शन में प्रारम्भ से ही थी। आपने जैन, बौद्ध, वैदिक, द्वैत, अद्वैत आदि विभिन्न दर्शनों का न केवल अध्ययन ही किया अपितु उन पर विभिन्न कोणों से चिंतन करते हुए नवीन आयाम स्थापित किए। दर्शन के अध्ययन ने अापके प्रवचन को तर्कसिद्ध बनाने में योगदान दिया। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी श्रादि विभिन्न भाषाओं का ज्ञान भी अपने प्राप्त किया। सन्त जिस रास्ते से गुजरता है, वहाँ की मिट्टी की महक, भाषा और संस्कृति को साथ ले चलता है । पूज्य गुरुवर्या गत पचास वर्षों से विभिन्न प्रांतों में विहार कर रहे हैं। उनकी वाणी में विभिन्न भाषाओं के शब्दों का आ जाना सहज ही है।
जैनसाधु प्रकृति से यायावर होता है । पूज्य गुरुणीजी म. सा. भी गत पचास वर्षों से अनवरत विहार कर रही हैं, गांव-गाँव, शहर-शहर में वह अपने दिव्यचरणों की छाप छोड़ चुकी हैं। कभी तपते रेगिस्तान की गर्म हवाओं और कभी हिम की ठण्डी हवाओं के बीच आपने विहार किया है। घुमक्कड़ी की इस प्रकृति ने आपके व्यक्तित्व को तराशा है एवं ज्ञानवृद्धि की है। मार्ग की बाधाओं के समक्ष आप कभी नहीं झुकीं अपितु बाधाएँ ही नतमस्तक हो गयीं।
_ वि. सं. १९४४ मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी रविवार को प्रात: ८ बजे जोधपुर जिले के नोखा गाँव में दीक्षा लेकर आप साधनापथ पर चल पड़ीं, तब से अब तक घुमक्कड़ी के अनेक अनुभव आपके साथ जुड़ चुके हैं।
आपने मार्ग में कहीं हरे-भरे लहलहाते खेत देखे तो कहीं दुष्काल के कारण धरती का फटता हुआ कलेजा देखा । वि.सं. १९९६ में मरुधर देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अन्नाभाव से सैकड़ों मनुष्य मर गये थे। आपने जब डेह से विहार किया तो जंगल में अनेक पशु-पक्षियों के शव सड़ रहे थे। रास्ते में जगहजगह हड्डियों के ढेर परिलक्षित होते थे। काश्मीर में विहार के समय आपने अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य का साक्षात्कार किया । वहाँ प्रत्येक पत्ती के हिलने में लय थी। हवाओं में संगीत था और झरनों में नाद था। आपने कहीं गाँव की अमराइयाँ देखीं तो कहीं महानगरों को गगनचुम्बी इमारतें देखीं, जिनके नीचे खड़ा हुआ आदमी कितना छोटा दिखाई देता है। कहीं रास्ते में कोई डोली ले जाते हुए कहार देखे तो कहीं मुर्दे को ले जाते हुए रोते बिलखते उसके परिजन । आपने किसी द्वार पर दीपावली के दीप देखे तो कहीं मुर्दे के पास उनके दीप देखे । आपने कहीं जंगल का भयावह सन्नाटा देखा तो कहीं शोर का कभी न रुकने वाला सागर । आपको कहीं मार्ग में मनुष्य के वेष में सर्प मिले तो कहीं सर्प के रूप में भक्त । वि. सं. १९९८ में आसोप से वर्षावास समाप्त होने पर विहार किया तो रास्ते में कुण्डली लगाए सर्प मिला । म. सा. समीप पहुँचे तो उसने अपने शरीर को फैला दिया और फन को बार-बार जमीन पर झुकाकर मानो नमन करने लगा । सांप
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द्वितीय खण्ड | ३४
जैसे विषाक्त जन्तु में भी प्रेम एवं श्रद्धा का यह रूप चमत्कृत करने वाला था।
आपकी साधना के मधुमास के समक्ष विपत्तियों का पतझड़ कभी पनप नहीं पाया। वह कोई और होंगे जिनके पांव रास्ते का एक छोटा-सा कंटक चीर देता है । आपने काँटों में भी फूलों की कोमलता अनुभव की है । आपके पाँव से जहाँ-जहाँ. कंटक चुभने से रक्त की बूंद गिरी है, वहीं प्रेम और सद्भावना के पुष्प खिले हैं।
_ विहार के दौरान आपने जीवन को इतने निकट से देखा है कि उसके सूक्ष्म से सक्ष्म तंत को प्राप तरन्त पहचान लेती हैं। वस्ततः घमक्कड को जीवन की जितनी परख होती है उतनी अन्य किसी को नहीं होती। आपके लिए सारी धरती प्रापका घर है, इसके सभी प्राणी आपके अपने हैं ।
आपके विहार के क्षेत्र मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश रहे हैं। मैं गत १७ साल से गुरुणीजी म. सा. के सान्निध्य में कुछ सीखने का प्रयास कर रही हूँ। आपकी मुझ पर महती कृपा है और मुझमें भी आपके प्रति अन्तःकरण से अटूट श्रद्धा, विश्वास एवं प्रास्था है। आपके आशीर्वाद और प्रेरणा से मैं आप ही के पदचिह्नों पर चलने की कामना करती हूँ। मैं आपके बहुमुखी व्यक्तित्व से प्रभावित हुई हूँ। यद्यपि आपके व्यक्तित्व के विषय में लिखना मुझ जैसी अल्पज्ञा के लिए संभव नहीं है किन्तु आपके पाशीर्वाद के प्रताप से मैं दिव्य व्यक्तित्व को शब्दबद्ध करने का प्रयास कर रही हूँ।
जैनपरम्परा में ध्यान और स्वाध्याय का विशेष महत्त्व है। ध्यान और स्वाध्याय के प्रति पूज्य गुरुणीजी म. सा. के मन में प्रारम्भ से ही आकर्षण रहा है ।
आप नित्य ध्यान और स्वाध्याय करती हैं। इन दोनों को आपने जैसे अपना मित्र बना लिया है । ध्यान तभी लग सकता है जब चित्त में एकाग्रता हो। आप जब भी ध्यान करती हैं, आपका मन उसी पल केन्द्रित हो जाता है । कहीं कोई अन्य विचार आपके मन में नहीं आते। ध्यान करते समय आपके चेहरे पर असीम शान्ति प्रा जाती है । आपका चेहरा शांत और आलोक-निमज्जित दिखाई देता है।
__ बाहर की दुनिया जितनी छल, कपट और प्रवंचना से भरी हुई है, मन की दुनिया उतनी ही शांत, निर्मल और सहज है । योगदर्शन में आपकी विशेष रुचि है । प्राप नियमित रूप से ध्यान करती हैं । चित्त को निर्विचार छोड़ देना ही ध्यान है । ध्यान प्रक्रिया है कोई क्रिया नहीं। ध्यान का अर्थ है जो निरन्तर चल रहा है, उसे चित्त में विराम देना । आप जब-जब ध्यान में लीन होते हैं तो केवल दर्शन और ज्ञान से साक्षात्कार करते हैं। एक अद्भुत शांत आलोक में डूब जाते हैं। आप प्राय: कहते हैं-ध्यानमुद्रा में शरीर शिथिल छोड़ देना चाहिए। इससे देहबोध विलीन हो जाता है । परिणामतः सारे तनाव दूर हो जाते हैं । भीतर एक रिक्त स्थान रह जाता है जहाँ न कोई विचार होता है, न कोई रूप है, न कोई प्राकृति, न कोई ग्रंथ और न कोई ध्वनि रह जाती है । इसी अकेलेपन में ही उस 'स्व' का अनुभव होता है, जिसे भगवान् महावीर ने आत्मा कहा है, जिसको शंकर ने ब्रह्म कहा है । आपने ध्यानयोग की शिक्षा देकर अन्यान्य व्यक्तियों के तनावग्रस्त मन को शांति का
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परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन को सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी | ३५ मार्ग सुझाया है । स्वाध्याय में भी आपकी विशेष अभिरुचि है । बत्तीस आगमों का आपने बड़ी गहनता से अध्ययन किया है। स्वाध्याय पर आप विद्वानों से विचारविमर्श भी करती हैं । आपके उत्तर सुनकर विद्वान, लत्त्ववेत्ता दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं । आत्मा और शरीर का क्या संबंध है ? इसपर पूज्य गुरुणीजी म. सा. स्पष्ट करते हैं- "अात्मा और शरीर दोनों सजातीय नहीं हैं। प्रात्मा चेतन है और अरूप है। शरीर जड़ है तथा रूपवान है । प्रश्न है कि चेतन और जड़ का, अरूप और रूपवान का, जो बिल्कुल ही विरोधी हैं उनका परस्पर सम्बन्ध कैसे हो सकता है !" जैनदर्शन के अनुसार पूज्य गुरुणीजी म. सा. समाधान की भाषा में फरमाते हैं- "संसार में जितनी भी आत्माएँ हैं, वे सूक्ष्म और स्थूल इन दोनों प्रकार के शरीरों से वेष्टित हैं। एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर नहीं रहता पर सूक्ष्म शरीर बना रहता है । सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा स्थूल शरीर धारण करता है और सूक्ष्म शरीर एवं आत्मा का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी है । अपश्चानुपूर्वी का तात्पर्य है जहाँ पर पहले और पीछे का कोई विभाग न हो, पौर्वापर्य न हो । संसार दशा में जीव और पुद्गल का कथंचित् सादश्य होता है। अतः उनका सम्बन्ध होना संभव है। आत्मा का अमूर्तरूप विदेह दशा में प्रकट होता है। अमूर्त बनने के पश्चात् फिर उसका मूर्त द्रव्य के साथ कोई सबध नहीं।" आप सम्पर्क में आने वाले जिज्ञासूत्रों को भी ध्यानसाधना और स्वाध्याय की प्रेरणा देती हैं। हजारों-हजार जिज्ञासजन आपकी प्रेरणा से ध्यान एवं स्वाध्याय के मित्र बन गये हैं।। ___मुझे आपके सान्निध्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त है। मैं देखती एवं अनुभव करती रहती हूँ-अनेकानेक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति प्रायः आपकी सेवा में आते रहते हैं। यह देखकर मैं विस्मित रह जाती हैं कि आप अत्यधिक सरल एवं सहज ढंग से उनकी समस्याओं का समाधान कर देती हैं। उदास चेहरों पर प्रसन्नता छा जाती है । वे लोग सदा के लिए आपके भक्तों की पंक्ति में अंकित हो जाते हैं।
सप्तशक्तियों में तीसरी शक्ति है 'वाणी' । स्पष्ट है कि मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न एक वाणी प्राप्त है। अन्य प्राणियों की वाणी इतनी स्फुट और स्पष्ट नहीं है जितनी मनुष्य की है । वाणी के उपयोग की एक मर्यादा यह है कि वाणी से सदैव सत्य का उच्चारण हो। दूसरी मर्यादा यह है कि वाणी से मितभाषण होना चाहिये।
आपने पहला प्रवचन वि सं. १९९६ के वर्षावास में डेह में धनतेरस के दिन दिया। आप तब शास्त्रों का वाचन कर रही थीं। व्याख्यान देने का अभ्यास नहीं था। इस संदर्भ में आपने हिम और आतप में लिखा है-"मेरा यह पहला प्रवचन (Maiden speech) था । मेरा हृदय काँप रहा था, हाथ कांप रहे थे, सारा शरीर ऐसे काँप रहा था जैसे पौष की सर्दी में ठिठुरता हो । फिर भी साहस करके मैंने शास्त्र की गाथा का उच्चारण किया, उसका अर्थ सुनाया टूटी-फूटी भाषा में, व्याख्या भी की। लोगों ने मेरे टूटे-फूटे शब्दों को पसन्द किया और मुझे बोलने के
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द्वितीय खण्ड / ३६
लिए उत्साह दिया । मेरा डर दूर हो गया, संकोच हट गया । फिर तो मैं प्रतिदिन भाषण देने लगी ।" तबसे आपने पीछे मुड़कर नहीं देखा और इस कला को अपनी प्रतिभा और अध्ययन से परिष्कृत किया ।
प्रवचन सभा में श्राप अपनी वाणी से श्रोताओं को सम्मोहित कर लेती हैं । सभी मंत्रमुग्ध होकर पीयूषवर्षी वाणी का अमृतपान करते हैं ।
आप प्रवचन के माध्यम से जीवन की अतल गहराइयों को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि श्रोतागण चिन्तन की चाँदनी में भाव-विभोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें नवीन दिशा मिलती है । प्रापके विचार कभी नीरस नहीं होते । रोचकता के लिए अनेक उदाहरण भी प्रस्तुत करती हैं, हम जिस दुनिया में जीते हैं वह अजीब है, विचित्र है, यहाँ सत्य का अनुभव करना तो दूर, सत्य को स्पष्ट कहना भी बहुत कठिन है । इस संदर्भ में प्राप प्रायः एक उदाहरण देती हैं- महाराजा श्रेणिक ने एक बूढ़ा हाथी गांववालों को सौंपते हुए कहा- इस हाथी को ले जाओ, इसकी सालसंभाल करना । स्वास्थ्य के समाचार प्रतिदिन देते रहना किन्तु इसके मरने की बात कभी न कहना । जो कोई ऐसा कहेगा, उसे कड़ा दंड दिया जाएगा । गाँव वाले असमंजस में पड़ गये । हाथी एकदम बूढ़ा था । मरियल था । दस दिन बीते कि हाथी की मृत्यु हो गई । अब समस्या यह कि राजा को क्या कहा जाय ? इस गाँव में रोहक नाम का बुद्धिमान नटपुत्र रहता था । उसने कहा- चिन्ता की कोई बात नहीं है । समस्या का समाधान हो जाएगा । एक आदमी को समझा-बुझाकर राजा के पास भेजा । राजा ने पूछा- कैसे आए ? उसने कहा- आपने जो हाथी भेजा था, वह न खाता है, न पीता है, न साँस ही लेता है । 'तो क्या वह मर गया ?' "यह तो आप कह सकते हैं ।" ऐसे ही हैं दुनियवी लोग जो सत्य को शब्दों के द्वारा कह देते हैं किन्तु जीवन में नहीं उतारते हैं । कुछ स्वरूप समझते हुए भी सत्य कथन नहीं कर सकते हैं ।
आप एक निर्भीक और स्पष्टवादी वक्ता हैं । यदि मैं कहूँ कि श्रोता श्रापकी वाणी से प्रभावित होकर जीवन की समस्याओं और मानसिक क्लेशों से दूर हो जाते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रापके प्रवचन कभी भी एक वर्ग विशेष के लिए नहीं होते हैं । यही कारण है कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी श्राप के प्रवचन सुनने के लिए आते हैं और ज्ञान का असीम भंडार लेकर जाते हैं । संतोषी के विषय प्रापका कथन है
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"संतोषी व्यक्ति सुखी होकर प्रसन्न रहता है, उसका सर्वत्र प्रभावशाली असर पड़ता है । संतोष आंतरिक गुण है । धैर्य और विवेक के अवलम्बन पर ही इसका विकास होता है । अपरिग्रह पर यह बढ़ता है। त्याग से वह फलता है और साधना से यह फूलता है । वह भोग से हटकर रोग को पराङ्गमुख करता है । संतोषी व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर समष्टि बन जाता है । उसकी जीवन- सरिता मानव जाति के विराट सागर में मिल जाती है ।"
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परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी / ३७
आपके मुखमण्डल पर सदैव मुस्कान और शांति विराजमान रहती है। कैसा भी प्रपंचबुद्धि और क्रोधी व्यक्ति भी आपके सम्पर्क में प्राकर शांत और विनत हो जाता है। अापके सामने प्राकर कोई कितनी भी कठोर वाणी बोले. अापकी सहजभाव-मद्रा में कोई अन्तर नहीं पाता । अापके हदय की क्षमा और सहिष्णता कभी भंग नहीं होती । आपकी प्रकृति की इसी विशेषता के कारण विरोधी और अपरिचित भी आपका भक्त बन जाता है।
सेवा की भावना तो आपमें कूट-कूटकर भरी है। छोटी-बड़ी साध्वियों के प्रति आपका व्यवहार सदा मातृवत रहता है। हमारा स्वास्थ्य ठीक न होने पर आपने कई बार सेवा-शुश्रूषा का भार अपने ऊपर लिया है। आपकी गोद में हमें माँ की ममता, पिता के दायित्व और मित्र के अपनेपन की अनुभूति हुई है।
पूज्य गुरुवर्या एक उच्चकोटि के साहित्यकार हैं । आपने जब-जब ज्ञान का मंथन किया है, तब-तब प्राध्यात्मिक मणियाँ निकालकर उन्हें शब्दबद्ध कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है । मैं तो यही कहूँगी
"सच तो यह है कि आपका जीवन ही एक ग्रंथ है। विकट परिस्थिति में शांत रहे तो संत बन जाओगे। उच्चादों पर चले आप तो एक पंथ बन जाओगे। अर्चना के अनुभवों को यदि बांटते चले।
पढ़ने के लिए हमारे आप एक ग्रंथ बन जाओगे ॥" आधुनिक युग में अधिकांश साहित्यकार केवल आत्मसंतुष्टि के लिए रचना करते हैं, किन्तु आपका साहित्य लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। आपकी निम्नलिखित रचनाएँ आपकी विद्वत्ता का प्रमाण हैं-'आम्रमंजरी', 'अर्चना के फूल', 'अर्चना और आलोक', 'जैनयोग ग्रन्थचतुष्टय', 'जीवन सन्ध्या की साधना', 'हिम और प्रातप' आदि ।
आपकी मान्यता है कि नश्वर के लिए देह के स्थान पर अनश्वर आत्मा का शृगार और परिष्कार करना चाहिए । वस्तुतः आध्यात्मिक जीवन अन्तःकरण में ही हो सकता है, वही स्वर्गराज्य है जो किसी बाह्यसूत्र पर निर्भर नहीं करता। आन्तरिक जीवन का अत्यधिक प्राध्यात्मिक महत्त्व है और बाह्यमूल्य वहीं तक है जहाँ तक वह आन्तरिक स्थिति को अभिव्यक्त करता है।
आप पागमसूत्रों के कुशल व्याख्याता भी हैं । कठिन से कठिन सूत्र को भी सरल भाषा में व्याख्यात कर देते हैं, जिसे श्रावक सहज ही प्रात्मसात कर लेता है। ____समाजसुधारक के गुण भी आप में हैं । समाज में फैली धार्मिक, सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों को दूर करने को भी आप सतत प्रयत्नशील रहती हैं । समय-समय पर मैंने आपके प्रवचन सुनते हुए, आपके द्वारा रचित पुस्तकें पढ़ते हुए ऐसा अनुभव किया है कि आप समाज को जो दिशा प्रदान कर रहे हैं, वह एक उपलब्धि है। मृत्युभोज को आप एक महारोग मानते हैं। आपका कथन है,
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द्वितीय खण्ड / ३८ जीवित व्यक्तियों का जीवन जर्जरित है, वह भूख और प्यास से व्याकुल हैं। ऐसे में मृत्युभोज करना मृतात्मा को शांति प्रदान करना नहीं अपितु और अधिक कष्ट पहुँचाना है ।
दहेज की ज्वाला में जलती हुई सुकुमारियों को देखकर आपका मन ग्राहत होता है । ग्राप सदैव युवापीढ़ी को इस सामाजिक बुराई के विरुद्ध जागरूक एवं संगठित होने को प्रेरित करते हैं । आपका मानना है कि यह कुरीति तभी समाप्त होगी जब युवापीढ़ी इसके विरुद्ध दृढ़ संकल्प करे । बाल-विवाह, सती-प्रथा प्रादि के विरुद्ध भी आपने सदैव प्रावाज उठाई है
"बाढ़ आने पर नदी के किनारे टूट जाते हैं, मुसीबत में अच्छे अच्छों के छक्के छूट जाते हैं ॥ दहेज की बात में जरा मतभेद होने पर, बीन्द और बीन्दनी कुवारे भी उठ जाते हैं ।"
परमार्थ कार्य के लिए आप सदैव तत्पर रहती हैं । शिक्षण संस्थाओं, अनाथालयों, ध्यान योग केन्द्रों, पुस्तकालयों आदि के लिए आपका पथप्रदर्शन सराहनीय है । समय-समय पर आपकी प्रेरणा से विविध नेत्रशिविर भी लगते हैं । आपका कथन है कि किसी बीमार की सेवा करना, वृद्ध को श्राश्रय देना, भूखे को रोटी खिलाना बहुत बड़ा धर्म है । प्रापके जीवन का मुख्य उद्देश्य जाति-धर्म, सम्प्रदाय और रंगभेद की विषमताओं से जीवात्माओं को मुक्ति दिलाना है । आपने सदा दलित, शोषित वर्ग का पक्ष लिया है । आपका कथन है कि मनुष्य, समाज के विभाजन की भावना त्यागकर अपने रूप को पहचाने और अन्तःकरण में छिपी जनकल्याण प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित करें ।
आपका कथन है कि यदि मनुष्य को व्यावहारिक ज्ञान दिया जाय तो उसकी आत्मा की बंद खिड़कियाँ खुल जाती हैं और प्रेम, सत्य तथा दया की रोशनी अन्दर आती है ।
आपके सान्निध्य में जो भी आता है, आपके स्वभाव से तुरन्त प्रभावित हो जाता है । आपका स्वभाव अत्यधिक सौम्य है । आप आभायुक्त मुस्कान से शरण में आनेवाले क्लान्त प्राणियों को यही संदेश देती हैं
" हँसे खिले जो सर्वदा वही फूल है, ठोकर खाकर न बदले वही धूल है ॥ उदास रहने से कभी गम दूर नहीं होते, उदास रहना जीवन की बड़ी भूल है ।। "
यह जीवन वरदान है । इसे उदास रहकर नहीं, मुस्कराते हुए, अध्यात्म को अपनाते हुए जीयो । जो लोग जीवन की किसी एक असफलता से दुःखी होकर हिम्मत हार जाते हैं, रोने लगते हैं, उन्हें आपने यही कहा है
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परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी | ३९
एक सपना टटू गया तो दूसरा बनाइये।
जिन्दगी को जिन्दगी की तरह बिताइये। आपका जीवन अमृत-निर्भर है। आप जिस मार्ग से गुजरती हैं, अमृत-कणों की वर्षा से लोगों का हृदय अभिसिक्त कर देती हैं । अमृत का निवास कहाँ ? इस विषय पर किसी कवि ने अत्यन्त हृदयग्राही समाधान किया है, जो निम्नांकित श्लोक में प्रस्तुत है
अब्धौ विधौ वधुमुखे फणिनां निवासे । स्वर्गे सुधा वसति वै विबुधा वदन्ति । क्षारात्क्षयात्पतिमृतात् गरलात्पतत्वात् ।
कण्ठे सुधा वसति वै भगवज्जनानाम् ।। विद्वानों ने विविध स्थलों पर अमृत की संभावनाएँ प्रस्तुत की हैं। किसी ने कहा-अमत का निवास समद में है. किसी ने चन्द्रमा को सधाकर बताया, किसी कवि को वधूमुख में अमृत की आशंका थी तो किसी को नागलोक में । अधिकतर लोगों की मान्यता तो यह है कि अमृत का निवास स्वर्ग में ही है । निम्न कारणों से कवि ने पाँच स्थलों पर अमृत की संभावना का निषेध किया है । कवि की मान्यता है कि यदि समुद्र में अमृत होता तो उसका जल खारा क्यों होता ? यदि चन्द्रमा में अमृत का निवास होता तो उसकी कलाओं का क्षय क्यों होता ? वधूमुख में अमृत रहता तो उसे कभी भी विधवा नहीं होना चाहिए। नागलोक में अमृत का अधिष्ठान होता तो नागों में विष कैसे होता ? और यदि स्वर्गलोक में अमृत की संभावना होती तो देवगण स्वर्ग से च्युत कैसे होते ? अतः उपर्युक्त कारणों से यह निर्विवाद सत्य है कि इन स्थलों में तो अमृत का निवास नहीं है। यदि अमृत के निवास की संभावना है तो वह मात्र भगवत्-उपासकों के कण्ठ में । भगवत-उपासकों के कण्ठ से जो वाणी निःसृत होती है, वही सुनने वालों को अमरत्व की प्रतीति करा देती है।
_ अतः यह तो स्वयंसिद्ध है कि अमृत का निवास भगवत्-उपासकों के कण्ठ में है और जो स्वयं भगवान् बनने जा रहा हो उसके कण्ठ को सुधाधारा की सरसता का तो कहना ही क्या ?
अन्त में आपके विचारों के बीजमन्त्र प्रस्तुत करती हूँमन को समझाने का एक तरीका है
"मन रे तू काहे न धीर धरे ? उतना ही उपकार समझ ले, जितना कोई संग निभा दे,
कोई संग न जीये, कोई न संग मरे ॥" जिन परिस्थितियों में इंसान टूट जाता है, उनमें भी आप हंसने की सलाह देते हैं।
आप जिन्दगी के हर 'मूड' और हर पहल पर सीधे-सीधे शब्दों में अपनी बात
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द्वितीय खण्ड / ४० कह लेते हैं । आपके जीवन में कोई दिखावा नही, अपितु प्रापके हर शब्दों में हृदय के तारों को झकझोर देने की शक्ति है । आपका कहना है -
जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है, मरो तो ऐसे मरो
जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं ॥
आपकी जीवनयात्रा में दु:ख, प्रभाव, कष्ट, संकट, घुटन सदा साये की तरह साथ रहे। फिर भी आपका पैगाम है
चाहे कोई खुश हो, चाहे गालियाँ हजार दे । मस्तराम बनके जिन्दगी के दिन गुजार दे ॥
आपमें जिन्दगी के हर पक्ष की अनुभूतियों को गीतों के माध्यम से व्यक्त करने की अद्भुत सामर्थ्य है ।
वह सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सिर से जब रात का आँचल ढलकेगा, जब दुःख के बादल पिघलेंगे,
जब सुख का सागर छलकेगा ॥
आप शान्तिप्रिय स्वभाव के हैं । "जीयो और जीने दो" के सिद्धांत को मानते हैं। लोग कहते ही हैं किन्तु आप उसे व्यवहार में भी लाते हैं। संसार में प्राय: प्रत्येक को किसी न किसी से, कोई न कोई शिकायत रहती है किन्तु ग्राप शिकायत न करके सब्र कर लेने में विश्वास रखते हैं । जो जीवन में जितना कर दे, उसे एहसान मानते हैं।
युग-दर्शन के नये स्रोत, पूज्य गुरुवर्या हमारी सनातन संत परम्परा की तप:प्राण कड़ी हैं । आपकी तपस्या ने हमारी आस्था के प्रायामों को नया आयुर्बल दिया है और हमारी चेतना को वास्तविक संजीवनी ।
अन्त में मैं यही कहूँगी कि अध्यात्मजगत् की परमसाधिका पूज्य गुरुवर्या श्रमण संघ के लिए गौरव एवं प्रेरणा के प्रतीक हैं ।
आपकी दीक्षा - स्वर्णजयन्ती पर मैं प्रभु महावीर से प्रार्थना करती हूँ कि हमें आपका मार्गदर्शन युग-युग पर्यन्त मिलता रहे । आपकी छाया में साधनापथ की बाधाओं पर मैं सहज ही विजय पा सकू एवं आपके श्री चरणों पर मैं सदैव विनत रहूँ ।
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आपकी प्रेरणा से चल रही विविध संस्थाएँ आपश्री के आध्यात्मिक समाजसुधारक
और साहित्यकार तिमंजिले व्यक्तित्व का प्रमाण हैं महासती की प्रेरणा से स्थापित संस्थाएँ
. साध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा'
वैसे तो संस्थाओं की स्थापना कई साधु-साध्वियों, व्यक्तियों अथवा समाज के द्वारा होती आ रही है। अधिकांश संस्थानों का लक्ष्य समाज-सुधार, धार्मिक जागति, साहित्य प्रचार, आर्थिक व्यवस्था और आत्मविकास आदि ही होता है। किन्तु कुछ संस्थाएँ ऐसी भी होती हैं जिनका कार्य निम्न वर्ग की सहायता की आड़ में अपने निर्माताओं का किसी विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रचार करना होता है । बहुत ही कम संस्थाएँ ऐसी होती हैं जो अपने मूल उद्देश्य को लक्ष्य कर अपना कार्य सम्पादन करती हों, ऐसी संस्थाएँ अपने स्थापनाकर्ता के प्रति समर्पित तो रहती ही हैं किन्तु उनकी प्रशंसा, प्रचार और आत्मश्लाघा से दूर रहकर निलिप्त, निस्वार्थ भाव से अपना काम करती रहती हैं । ऐसी संस्थानों के सुचारु रूप से चलते रहने का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनके ईमानदार, निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ता हैं।
पूजनीया गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' को जब भी अवसर मिला, जहाँ भी संघ की भावना देखी वहाँ संस्था की स्थापना करने में अपना मार्गदर्शन प्रदान किया है। वैसे मूलत: पापका प्रिय विषय योग-साधना है और इसकी जानकारी के लिये साधकों से मिलते रहना, उनसे नवीन तथ्य, पद्धतियाँ प्राप्त करना आपके स्वभाव का एक अंग बन गया है। साधना की ऊँचाई पर पहुँच कर भी आप अपने विनम्र स्वभाव के कारण अभी भी अपने आपको उस श्रेणी में नहीं मानती हैं।
पू. गुरुणीजी म. सा. की रुचि दीन-हीन जरूरतमंदों की सहायता करना, अध्ययन-अध्यापन और साहित्य-सृजन में है। अपनी साधना के समय के अतिरिक्त समय का उपयोग आप अध्ययन-अध्यापन एवं साहित्य-सृजन में करती हैं। आपकी सेवा में दर्शनाथियों का भी निरन्तर अावागमन बना रहता है। आप दर्शनार्थियों को भी कभी निराश नहीं करतीं और उनकी जिज्ञासानों का समुचित समाधान देती हैं तथा उन्हें स्व-अजित धन का सदुपयोग करने के लिये भी प्रेरणा देती रहती हैं
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द्वितीय खण्ड / ४२ आपके सम-सामयिक उपदेशों से प्रभावित होकर प्रेरणा प्राप्तकर आपके मार्गदर्शन में कई स्थानों पर संस्थाएँ स्थापित हुई हैं, जो आज सभी अपने-अपने लक्ष्यों के अनुरूप निरन्तर विकास की ओर अग्रसर हैं । आपके मार्गदर्शन में स्थापित कुछ ऐसी संस्थाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैस्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि स्मृति सेवा ट्रस्ट [मद्रास]
इस संस्था का मुख्य उद्देश्य उनके शिष्य-शिष्याओं की तथा विरक्त भाईबहनों की शिक्षा के अतिरिक्त आवश्यकतानुसार उपचार आदि की व्यवस्था करना भी है । अपने उद्देश्य के अनुरूप यह संस्था समुचितरूप से सेवाकार्य कर रही है । स्वधर्मी एवं मानव सेवा समितियाँ
१. मुनि श्री मांगीलाल स्मृति सहयोग समिति (मद्रास) २. स्वधर्मी सहयोग समिति तबीजी (अजमेर) ३. स्वधर्मी सहयोग समिति (दादिया) ४. स्वधर्मी सहयोग समिति (किशनगढ़) ५. महावीर सेवा समिति (जोधपुर) ६. स्वधर्मी सहयोग समिति (महामन्दिर) ७. स्वधर्मी सेवा समिति (उदयपुर) ८. मानव सेवा समिति (नागौर) ९. पार्श्वनाथ सहयोग समिति (खाचरौद) १०. स्वधर्मी सहयोग समिति (अजमेर)।
उपरोक्त सभी समितियों का उद्देश्य बिना किसी जाति एवं धर्म के भेदभाव के साधनहीन लोगों की, अर्थात् जरूरतमंदों की सहायता करनी है और आज दिन तक उद्देश्यानुसार सहयोग देती आ रही हैं।
___ अजमेर सेवा समिति स्वधर्मी एवं मानव सेवा के अतिरिक्त अन्य सेवा कार्य भी कर रही है, जैसे-आयंबिल खाता, भूखों को भोजन, पशु आदि के लिये भी घास रोटी की व्यवस्था करती है। सुसंस्कार हेतु धार्मिक मण्डलों का गठन
१. श्री मल्ली भगवती महिला मंडल (अलवर) २. धार्मिक पाठशाला (महामंदिर) ३. श्री ब्राह्मी महिला मंडल (जम्मू) ४. श्री चन्दना महिला मंडल ५. श्री अर्चना किशोर मण्डल (जानकीनगर–इन्दौर) ६. श्री बालवाडी (उज्जैन) ७. श्री पार्श्वनाथ स्वाध्याय मण्डल ८. श्री पार्श्वनाथ किशोरी स्वाध्याय मंडल (खाचरौद) । और भी अनेक पुस्तकालय खुले हुए हैं।
प्रस्तुत मंडलों के गठन का उद्देश्य बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, महिलाओं में धार्मिक सुसंस्कार उत्पन्न करना, चारित्रिक गुणों का विकास करना है। उद्देश्य के अनुरूप सभी स्थानों में धार्मिक जागृति का कार्य बराबर चल रहा है। प्रतिवर्ष प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जाता है। ___ इस प्रकार हमने देखा कि पूजनीया गुरुवर्या श्री अध्यात्मयोगिनी काश्मीर-प्रचारिका, परम विदुषी महासतीजी श्री 'उमरावकुंवरजी' म. सा. 'अर्चना' ने जितनी भी संस्थानों की स्थापना हेतु प्रेरणा दी है, वे सभी धार्मिक अध्ययन
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..."स्थापित संस्थाएँ| ४३
अध्यापन या मानव सेवा के कार्य को ध्यान में रखकर स्थापित हुई हैं । उनका कहीं भी यह उद्देश्य दृष्टिगत नहीं होता है कि उनके माध्यम से अपनी ! जन्मदात्री महासतीजी का गुणानुवाद करते हुए उनका प्रचार-प्रसार करें और न ही महासती जी श्री के द्वारा प्रकाशित, अप्रकाशित साहित्य का प्रचार करें।
मूलतः ये सभी संस्थाएँ मानव सेवा और धार्मिक सेवा के लिये समर्पित हैं । सभी संस्थाएँ अपने मूल उद्देश्य के अनुरूप आज प्रशंसनीय सेवाकार्य कर रही
इन संस्थानों की स्थापना के अतिरिक्त मानव सेवार्थ आपश्री के उपदेशों से अनेक स्थानों पर चिकित्सा शिविर और नेत्र चिकित्सा शिविरों का भी आयोजन हुआ है। जिनमें लोगोंको निःशुल्क चिकित्सा सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। उन सबका विवरण यहाँ दे पाना सम्भव नहीं है । जैसे-जानकीनगर संघ ने महासतीजी श्री उम्मेदकुंवरजी म. सा. के ४० की उग्र तपस्या के उपलक्ष्य में यह संकल्प किया कि प्रतिवर्ष नेत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन किया जायेगा । तीन साल से बराबर शिविर का आयोजन हो रहा है, जिसमें अनेक लोगों ने निःशुल्क चिकित्सा प्राप्त की है। स्थानक भवन निर्माण
आपश्री के प्रभाव से अनेक स्थानों के स्थानक भवनों के निर्माण में आंशिक योगदान तो हुआ ही है, उन सबका विवरण देना तो असम्भव है, किन्तु निम्नांकित स्थानों के स्थानक भवन आपश्री की प्रेरणा से हुए आर्थिक योगदान से हो निर्मित हुए हैं
१. जैन भवन (जगाधरी) २. मुनि श्री मांगीलाल स्मृति भवन (दादिया, राज.) ३. वर्द्धमान जैन स्थानक (दौराई) ४. ब्रज मधुकर स्मृति भवन (ब्यावर) ५. जैन भवन अजमेर का विशाल प्रवचन हाल ६. जैन स्थानक (देहरादून) ७. पू. जयमल स्मृति भवन (महामंदिर)
वर्तमान में पूज्यप्रवर स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' के द्वारा स्थापित की हुई संस्थाएँ, जैसे-पागम प्रकाशन समिति, हजारीमल स्मृति प्रकाशन, बुक बैंक, वर्धमान ज्ञानपीठ छात्रावास आदि आपके निर्देशन में ही कार्यरत हैं।
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परम श्रद्धेया महासतीजी श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना'
का शिष्या-परिवार
0 डॉ० तेजसिंह गौड़
१. तपस्विनी महासती श्री उम्मेदकुवरजी म. सा०
आपका जन्म ब्यावर निवासी सेठ श्री मिश्रीमल जी सा० मुणोत की धर्मपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती मिश्रीबाई की पावन कुक्षि से संवत् १९७८,
मृगशिर शुक्ला पंचमी को हुआ । आपका नाम सुरमाबाई रखा गया। सेठ श्री मिश्रीमल जी मुणोत स्थानकवासी समाज के श्रेष्ठ रत्न, दानवीर, धर्मनिष्ठ एवं सुयोग्य श्रावक थे । सुरमाबाई की दीक्षा २००६ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को किशनगढ़ में पंजाब के प्रसिद्ध सन्त श्री विमलमुनिजी द्वारा हुई । प्रारम्भ से ही आपका जीवन तपोमय रहा । वर्षीतप से लगाकर ४० उपवास तक की तपस्या की।
संवत् २०३४ से आपने घी, तेल एवं
अन्नाहार का त्याग कर दिया। आपने रत्न-रश्मियां, श्री मूलमुक्तावली, स्वाध्याय-सुमन, विकास के सोपान, सिद्धि के सोपान आदि पुस्तकों का संकलन एवं संपादन किया एवं स्वरचित अन्तर्नाद में आपके बने पैसठिये यंत्र और उन पर ही स्तुतियाँ रची हैं । २. साध्वी श्री कंचनकुंवरजी म. सा. __आपका जन्म वि० सं० १९९९ की शिवरात्रि के दिन ब्यावर निवासी श्रीमान् माणकचन्दजी सा० डोसी ओसवाल की धर्मपत्नी श्रीमती इचरजबाई की पावन
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परम श्रद्धया महासतीजी श्री उमरावकूवरजी म. सा. 'अर्चना' का शिष्या-परिवार | ४५
कुक्षि से हुआ। परिवार से मिले धार्मिक संस्कारों के कारण अापका मन धर्म में रंग गया। जिसके परिणामस्वरूप मृगशिर शुक्ला त्रयोदशी वि० सं० २०१३ में वासंती वय में उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी म० सा० के मुखारविंद से ब्यावर में संयम अंगीकार किया।
आप अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमरावकंवरजी महाराज सा. 'अर्चना' की शिष्या बनीं । आप स्वभाव से सरल एवं सदैव प्रसन्नचित्त रहती हैं। आपने पाथर्डी बोर्ड से प्राचार्य
प्रथम खण्ड की परीक्षा दी। थोकड़े आदि का ज्ञान भी प्राप्त किया। संस्कृत प्रथमा की परीक्षा दी।
३. साध्वी श्री सेवावंतीजी म. सा.
आपका सांसारिक नाम शान्तिदेवी था। मुकेरिया निवासी श्रीमान् उत्तमचन्द जी सा० गादिया आपके पिता और धर्म-स्वरूपा श्रीमती धर्मदेवी आपकी माता का नाम है। चैत कृष्णा तृतीया के दिन कूपकला ( श्रमण नगर ) में श्री ज्ञानमुनिजी से आपने दीक्षा ली। आप स्वभाव से सरल एवं स्पष्टवादी हैं । आप सदैव स्तवन आदि का पाठ करती रहती हैं।
४. आर्या श्री सुप्रभाकुमारीजी 'सुधा'
आपका जन्म राजस्थान की वीर प्रसवा भूमि सुरम्य-स्थली, झीलों की नगरी। मेवाड़ की राजधानी उदयपुर के प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ श्रीमान भेरूलाल जी सा०
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द्वितीय खण्ड / ४६
धर्मावत की द्वितीय धर्मपत्नी श्रीमती बाबुबाई की पावन कुक्षि से हुआ।
दिनांक ९ दिसम्बर १९७४ मृगसर कृष्णा एकादशी विक्रम संवत् २०३० सोमवार के . शुभ दिन आप सहित चार भागवती दीक्षायें पूज्य शासनसेवी सन्तरत्न स्व० स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. एवं स्व० युवाचार्य श्री पूज्य मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर', श्री मरुधरकेसरीजी म. सा० आदि ने हजारों जनमेदनी के समक्ष महामंदिर (जोधपुर) के
प्रांगण में प्रदान की। दीक्षाव्रत अंगीकार करने के पश्चात् आपने अध्ययन और वैय्यावृत्य की ओर विशेष ध्यान दिया। इसके परिणामस्वरूप आप एक विदुषी महासती के रूप में शीघ्र ही विख्यात हो गईं।
आपने 'सदियों की एक और सुबह' नामक उपन्यास भी लिखा है। जिसका प्रकाशन मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर से हो चुका है और पाठक वर्ग ने इस उपन्यास का भरपूर स्वागत किया है । इसका द्वितीय संस्करण भी निकल चुका है। इस उपन्यास के पढ़ने से विदित होता है कि आपके अन्दर अद्भुत प्रतिभा छिपी हुई है । अभी अध्ययन, स्वाध्याय एवं शोधकार्य में व्यस्त होने से आप इस प्रकार का लेखन नहीं कर पा रही हैं, किंतु विश्वास है कि आपकी लेखनी का स्पर्श पाकर अनेक कथानक सजीव हो उठेगे।
आपने आगम समिति, ब्यावर के तत्त्वावधान में प्रकाश्य "अावश्यकसूत्र" एवं पत्राकार में 'दशवैकालिकसूत्र' का बड़े ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से सम्पादन किया है । इससे आपके आगम ज्ञान एवं तात्त्विक ज्ञान गरिमा का पता चलता है।
"सुधा-मंजरी'', "सुधा-सिन्धु", "सुधा-संचय" एवं "अमृतवेला में" इन चारों पुस्तकों का संकलन-संपादन भी आपने बड़े सुचारु ढंग से किया है।
आपने प्रयाग विद्यापीठ से हिन्दी एवं संस्कृत में “साहित्यरत्न" की परीक्षाएँ तथा देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर से एम. ए. (संस्कृत में) विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। धार्मिक अध्ययन में आपने प्रथम श्रेणी से सिद्धान्ताचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की है।
___ इस समय आप "जैन आगमों में भारतीय दर्शन के तत्त्व" (वैदिक एवं बौद्ध चिन्तन धाराओं के विशेष संदर्भ में) विषय पर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर से पी-एच. डी. के लिये शोध कार्य कर रही हैं। अपने अध्ययन में व्यस्त रहते हुए भी आपने इस दीक्षा स्वर्णजयन्ती-अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन भी पूर्ण लगन एवं निष्ठा के साथ सम्पन्न किया है ।
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परम श्रद्धया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का शिष्या-परिवार / ४७
आप स्वभाव से गम्भीर, मितभाषी, मृदुभाषी, अध्ययनशीला, सेवाभावी एवं कर्मठ अध्यवसायी हैं । आप बुजुर्ग एवं युवापीढ़ी के मध्य एक कढ़ी के स्वरूप हैं। आपसे समाज को भविष्य में बड़ी आशाएँ हैं । ५. साध्वी श्री प्रतिभाजी म. सा.
प्रापका जन्म राजस्थान के नागौर जिले में गोगोलाव निवासी श्रीमान् घेवरचन्दजी सा. कांकरिया की धर्म-परायणा धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी की
पावन कुक्षि से कार्तिक कृष्णा एकादशी वि. सं. २०१० को हुआ।
आपने वि० सं० २०३० मिगसर कृष्णा एकादशी दिनांक ९ दिसम्बर १९७४ सोमवार पू० स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. से जैन भागवती दीक्षा महामन्दिर जोधपुर के प्रांगण में साध्वी श्री सुप्रभाजी के साथ अंगीकार की। संयम-ग्रहण करने के पश्चात् आपने साहित्यरत्न एवं सिद्धान्ताचार्य प्रथम खण्ड की परीक्षा उत्तीर्ण की। आप सदैव अध्ययनरत रहती हैं।
६. साध्वी श्री सुशीलाकुवरजी म. सा.
___ आपका जन्म वि० सं० २०१६ माघ शुक्ला द्वादशी के दिन हुआ । विजयनगर निवासी श्रीमान् जंवरीलालजी सा. बुरड़ आपके पिताजी एवं श्रीमती रतनबाई आपकी माताजी, दोनों ही धर्मनिष्ठ हैं । आपकी दीक्षा वि० सं० २०३५ मिगसर शुक्ला अष्टमी के दिन स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' के मुखारविंद से हुई। ___ आपने साहित्यरत्न एवं प्रभाकर की परीक्षाएं उत्तीर्ण की हैं।
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द्वितीय खण्ड / ४८ ७. साध्वी श्री उदितप्रभाजी म. सा. (उषा)
आपका जन्म कलकत्ता में दिनांक २-११-१९६० को श्रीमान् बालचन्दजी वेदमूथा की धर्मपत्नी श्रीमती रुकमाबाई की पावन कुक्षि से हुआ। माघ कृष्णा पंचमी वि० सं० २०३७ दिनांक २५-१-८१ को डेह ग्राम में श्रमणसंघीय उपप्रवर्तक स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. ने आपको दीक्षामंत्र प्रदान कर आपका नाम उदितप्रभा घोषित किया। __ आपने साहित्यरत्न एवं पाथर्डी बोर्ड से आचार्य प्रथम खण्ड की परीक्षा उत्तीर्ण की।
थोकड़े एवं आगमों का अच्छा ज्ञान है। आपने सुखविपाकसूत्र का सम्पादन किया।
८. साध्वी श्री विजयप्रभाजी म. सा.
आपका जन्म ब्यावर (राजस्थान) में श्रीमान् माणकचन्दजी सा. डोसी की धर्मपत्नी पद्मा देवी की पावन कुक्षि से श्रावण कृष्णा दशमी को हुअा था ! ____ आपने वि० सं० २०३८ चैत्र शुक्ला सप्तमी के शुभ दिन युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' से ब्यावर में दीक्षा व्रत अंगीकार किया।
आपने सिद्धान्तविशारद एवं साहित्यरत्न प्रथम खण्ड की परीक्षा उत्तीर्ण की।
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९. साध्वी श्री हेमप्रभाजी म. सा.
आपका जन्म श्रीमान् मांगीलालजी चौरड़िया को धर्म परायणा धर्मपत्नी श्रीमती मनोहरदेवी की पावन कुक्षि से दिनांक ५-२-१९६६ को हुप्रा। - आपकी दीक्षा माघ कृष्णा पंचमी वि० सं० २०३९ के शुभ दिन नोखा चांदावतों में स्व. स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. के मुखारविंद से
.
आपको दशवैकालिक उत्तराध्ययनसूत्र, सुखविपाक, नन्दी आदि के अतिरिक्त १०० थोकडे,
ढालें व स्तवन कण्ठस्थ हैं।
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• अपनी सुशिष्याओं के साथ HElaichi Jalala bad it H. RH1.
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परम श्रद्धे या महासतीजी श्री उमरावकुवरजी म. सा. 'अर्चना' का शिष्या-परिवार / ४९
आपने संस्कृत साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की। महासती श्री गुलाबकुवरजी म. सा.
आपका जन्म लाम्बा में हुआ। आपके पिता का नाम श्रीमान् बालचन्दजी सुराणा था। आपने वि० सं० २००८ मिगसर कृष्णा एकादशी को संयम नोखा में ग्रहण किया। महासती श्री रतनकुंवरजी म. सा.
वि० सं० २०१० आषाढ़ शुक्ला पंचमी के शुभ दिन किशनगढ़ में स्व. स्वामी जी श्री हजारीमल म. सा. ने आपको दीक्षामंत्र प्रदान किया। आपको अनेक स्तवन, थोकड़े और ढालें कण्ठस्थ हैं।
___ महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' अपनी शिष्याओं को आत्मसाधना पथ की महत्ता बताते हुए सदैव उनकी आस्था को दृढ़तर बनाती हैं। आपके दिव्यगुणों का प्रतिबिम्ब आपकी शिष्यानों में स्पष्ट ही देखा जा सकता है। पाप और आपका शिष्या परिवार विश्व-मानवता की धरोहर
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संघर्षों के तूफान के बीच आत्मसाधना की ओट में मुस्कराती
___ दीप-शिखा की कहानी संघर्ष के तूफान में : एक जलती
दीप-शिखा 0 मुनि विनयकुमार 'भीम'
घटना बहुत पुरानी है । मेरे गुरुदेव जैनभूषण उपप्रवर्तक शासनसेवी श्री ब्रजलालजी म. बहश्रत पूज्य गुरुदेव श्री मिश्रीमलजी म. 'मधूकर' का चातुर्मास पाली मारवाड़ में था। उस समय मैं वैरागी था । परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म, 'अर्चना' श्री उम्मेदकुंवरजी म. श्री कंचन कंवरजी म. श्री सेवावन्तीजी म. का चातुर्मास नाथद्वारा में था। गुरुदेव की आज्ञा थी कि नाथद्वारा जाना और सतीजी म. को दीक्षा पर पधारने की विनती करना।
१२ घंटे की लम्बी यात्रा के बाद मैं व संघ के प्रमुख सदस्य नाथद्वारा पहुँचे । प्रवचन समाप्त हो चुका था। यह मेरी सतीजी म. से पहली मुलाकात थी। पहली बार सतीजी म. को देखा । दीक्षा पर पधारने का आमंत्रण दिया । मेरी तथा संघ की विनती एवं गुरुदेव श्री का आदेश स्वीकार किया। मैं छोटा था। चंचल था। सतीजी ने कहा 'अाज समाज एवं संघ आपका अभिनन्दन करना चाहता है।' मैंने कहा-'नहीं, हमें जल्दी जाना है।' उस समय सतीजी म. ने मीठा उलाहना दिया। विवश होकर रुकना पड़ा । इस ग्रन्थ की प्रधान सम्पादिका साध्वी श्री सुप्रभा कमारीजी म. 'सधा' भी वैरागिन थीं, जिनका नाम उस समय सन्दरजी था। मुझे याद है मेरे हाथ सुन्दरजी ने मेहन्दी से मांड़े थे । श्री 'अर्चना' जी म. सा. को जैसा मैंने देखा, समझा, पाया वैसा ही लिख रहा हूँ । सतीजी म० के जीवन में संघर्ष के बादल छा गए ! तूफान आए । पर विशेषता यह वह दीपशिखा नहीं जो तूफान से बुझ जाये । सतीजी म. के दिल में संवर्षों का सामना करने की क्षमता है । आपका मानना है कि संघष से ही जीवन में निखार आता है।
बाधाओं में मुस्कराकर चलना ये इनके जीवन की मुख्य विशेषता है । इसी बीच अनेक संघर्ष-तूफान-उतार-चढाव आए। जो हमारे सिर पर गुरुवर का साया था वह भी उठ गया । जोवन का यह दीप तूफान से घिर गया किन्तु साधना को प्रोट ने इसे बुझने नहीं दिया । सतीजी म० का चिंतन अत्यधिक स्पष्ट है कि कुन्दन को जितना अग्नि में तपायेंगे उतना ही उसमें तेज निखार पायेगा । जब मैने सतीजी म. से दिल खोलकर अनेक प्रसंगों पर चर्चा की तब मुझे उन्होंने अपने जीवन के प्रिय-अप्रिय, मीठ व कडवे अनुभव सुनाये, जिन्हें सुनकर हृदय कांपने लगा,
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संघर्ष के तूफान में एक जलती दीप शिखा / ५१
रोंगटे खड़े हो गए । वास्तव में सारे अनुभव दिल को दहलाने वाले थे । श्रापकी गाथा सुनने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि जिन्दगी में सुख कम और दुःख ज्यादा हैं । वार्ता के दौरान मैंने सतीजी म० से पूछा- इतने संघर्ष, तूफान, कष्ट, CTET को झेलने की ताकत प्राप में कहाँ से आई, किनके जीवन से आपने यह शिक्षा सीखी........? सतीजी म० ने कहा मेरे पूज्य पिताजी जिन्होंने दीक्षा ली थी, उनका जीवन मेरे लिए एक प्रेरणा की धारा बनी । मेरे पिताजी बड़े ही सरल प्रकृति के थे । उन्होंने ही ये सब सिखाया । वे समय-समय पर मुझे कहते ही रहते 'बेटी ! विघ्नों से घबराना नहीं । आगे रखा पैर पीछे हटाना नहीं, ये वीरों का काम है । जो प्रतिपल - हर क्षण घबराता नहीं वो ही मंजिल तक पहुँच पाता है ।' ये सब पूज्य पिताजी की मेहरबानी का सुफल है । जब कभी ऐसी परिस्थिति मेरे सामने आती है तो सहज हो पूज्य पिताजी का स्मरण हो आता | सेवा, तपस्या ही उनके जीवन का प्रमुख अंग था । मैंने बिलकुल करीब से देखा सतीजी म० विद्या, विनय, विवेक की मंगल मूर्ति हैं। वह जिस नये क्षेत्र में जाती हैं वहाँ सबसे पहले यही खोज करती हैं कि इस नगर में कोई साधक है ? किस विषय की साधना करते हैं ? मैंने अचानक सतीजी म० से पूछ लिया इनको आप याद क्यों करती हैं ? इनसे आपको क्या मिलता है ? सतीजी म० ने कहा 'मुनिजी' संसार में अनेक व्यक्ति हैं, अनेक गुण हैं, अपने को हमेशा गुण की तरफ देखना चाहिए | साधना का क्षेत्र होने के नाते साधकों से नई-नई जानकारियाँ मिलती हैं । ऐसे साधक मिल जायें जब उनसे चर्चा करती हूँ तब मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है । देखो मुनिजी ! मैंने अनेक परिस्थितियों का सामना किया लेकिन कभी भी हताश नहीं हुई, मैंने यही विचार किया कि यह दिन भी नहीं रहेंगे। जब तक हवा नहीं चलेगी तब तक बादल सूर्य को घेरे रहेंगे, जैसे ही हवा चलेगी बस बादल हट जायेंगे, आशा व विश्वास का सूर्य चमकने लगेगा | संघर्ष का काम है आना और अपना काम है उन सब का डटकर मुकाबला करना । ये जीवन एक लम्बी यात्रा पर चल रहा है । रुकना नहीं थमना नहीं, चलते चलोये भी विश्वास रखो कि आज नहीं तो कल सफलता निश्चित चरण चूमेगी । निराशा, अविश्वास, कमजोरी, हतोत्साहता ये भी अपने श्राप दूर हो जायेंगे पर हमें एक बात का ध्यान रखना है कि हमारा संबल मजबूत हो। हमारी भावना सुन्दर हो तो मेरा विश्वास है कि जीवन के खुले आकाश में नयी उम्मीदों के फूल अवश्य खिलेंगे । जीवन का उद्यान सद्गुणों के फूलों से महक उठेगा । सतीजी म० का जीवन भिन्न-भिन्न रंगों के खिले हुए फूलों के समान है । प्रत्येक मनुष्य के लिए आपका जीवन सुरम्य गुलदस्ता है । चलते-चलते मैंने प्रश्न किया - मानव को अपने जीवन का भव्यभवन बनाने के लिए क्या करना चाहिए। सतीजी म० ने बड़ी तन्मयता के साथ घड़ी की तरफ देखा, हंसकर कहा अभी समय है सुन्दर बात पूछी । देखिये हमारे जीवन का मूल मंत्र है विश्वास । मनुष्य अपने जीवन का मकान बनाना चाहता है तो सबसे पहले मनुष्य को अपनी श्रद्धा की नींव सुदृढ़ बनानी होगी । मनुष्य के हृदय भवन की नींव श्रद्धा ही है । यह मजबूत होगी तो जीवन
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द्वितीय खण्ड | ५२
का आलीशान भवन बन जायगा । अाजकल मैं देखती हूँ मनुष्य को श्रद्धा कमजोर नजर आ रही है। आप ही बताइये लड़खड़ाने वाला व्यक्ति कभी मंजिल पर पहुँचा? मैंने कहा-नहीं मजबूत पैर वाला ही अपने गन्तव्यस्थल तक पहुँच पाता है ।
आपका कहना बिलकुल ठीक है।' बात का सिलसिला समाप्त हो गया। सतीजी म० ध्यान में बैठ गए । मैं अपने स्थान की ओर रवाना हो गया।
दिनांक २८ नवम्बर १९८६ की बात । मैं सतीजी म. से मिलने गया ! सतीजी म. कहीं दर्शन देने गए थे। मैं बैठ गया साध्वी श्री सुभाजो म० लेखनकार्य में मग्न थी। मैंने कहा क्या समय मिलेगा? सतीजी ने कहा पाप के लिए समय हो समय है फरमाइये क्या प्राज्ञा है ? मैंने कहा सुधाजी म०, प्रश्न तैयार किये हैं । इनका समाधान चाहिए। सुधाजी ने कहा आप स्वयं मिल लीजिये ! मैंने कहा साहस नहीं कैसे मिलूं? छोटे मुंह बड़ी बात होगी। वे (साध्वी श्री अर्चनाजी म०) मनमें क्या सोचेंगी? बरा न मान लें ? सधाजी ने कहा डरने से काम नहीं चलेगा । मुझे विश्वास है गुरुणीजी म. जरूर आपसे बात करेंगी ! सुधाजी इतना कहकर पुनः लेखन कार्य में दत्तचित्त हो गई। सुधाजी के शब्दों ने रामबाण का काम किया । मैं सतीजी म. के समीप पहुँचा। देखता हूँ आप व्यस्त हैं। चारों तरफ पुस्तकें बिखरी पड़ी है। आपको आध्यत्मिक विषय अत्यन्त प्रिय है इसलिए लोग अध्यात्मयोगिनी कहते हैं । काश्मीर तक पैदल भ्रमण किया । धर्म का प्रचार-प्रसार किया इसलिए आपको लोग काश्मीर प्रचारिका कहते हैं । इन्दौर उज्जैन, खाचरौद में ऐतिहासिक शानदार चातुर्मास किये इस कारण से मालवज्योतिजी कहकर लोग पुकारते हैं। प्रागमों के आधार पर आपका प्रवचन बड़ा ही रोचक एवं सरस व सरल होता है इसलिए लोग प्रवचनशिरोमणि भी कहते हैं।
विद्या, विनय, विवेक, जय-तप ध्यान, स्वाध्याय का यहाँ संगम है । पहली मुलाकात में दर्शक इनका भक्त बन जाता है। साधना, संयम व मधुरता की यहाँ त्रिवेणी बहती है । ये सब विशेषता है "मालवज्योति, कश्मीर प्रचारिका, प्रकाण्डपण्डिता, परमविदुषी श्रमणीरत्न, जिनशासन चन्द्रिका, महासतीजी श्री उमराव कुंवरजी म. 'अर्चना' में ।
___ बड़ा ही प्रमोद का विषय है कि दीक्षा स्वर्ण जयंती के सुखद अवसर पर 'अर्चना अभिनन्दन ग्रन्थ' प्रकाशित हो रहा है। जिनके सम्पादन का पूरा कार्य साध्वीरत्न श्री सुप्रभा कुमारीजी म. 'सुधा' ने अपने हाथों में लिया। सुधाजी म० इस कार्य को सफल करने में जुटी हैं । सतीजी म० का जीवन साधनाप्रिय है। जहाँ सतीजी म० विराजमान थे वहां मैं पहुँचा। साध्वीजी म. खड़े हुए । मैने बैठने का इशारा किया सतीजी म. बैठ गए। मैं भी बैठ गया। चेहरे पर सौम्यता है, आँखों में मुस्कान है, बोली में मधुरता है। सारे समाज में सतीजी म० का वर्चस्व है । माधुर्य का झरना बहता हुआ प्रतीत होता है । दर्शनार्थियों का तांता लगा हुआ है । लोग प्रा-जा-रहे हैं । कैसे बातचीत कर ? जरा फुरसत तो मिले ? मैने
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संघर्ष के तूफान में : एक जलती दीप-शिखा / ५३ स्वास्थ्य संबंधी पूछा सतीजी म० ने मधुर मुस्कान के साथ कहा स्वास्थ्य पहले जैसा तो नहीं, ठीक ही चल रहा है । ___ बात-चीत का दौर शुरू होता है । मैंने कहा आपके जीवन की जो विशेषताएँ हैं उन पर ग्रन्थ निकल रहा है । जो एक ऐतिहासिक घटना होगी ऐसा हमारा विश्वास है । यह ग्रन्थ सभी ग्रन्थों में एक होगा। इस ग्रन्थ में हमारे प्रिय पाठक नई जानकारी प्राप्त करेंगे । इसी सन्दर्भ में हम आपसे कुछ जानकारी चाहते हैं ।
सतीजी म. के मुख पर चिन्तन की रेखा उभरने लगी। चश्मा उतार कर ग्लास को पौंछने लगी। चश्मा लगाकर गला साफ किया और बोली ये सब क्या है ? मैं क्या बताऊँ ? अाप क्या पूछना चाहते हैं ? चेहरा ऊपर किया, इधर उधर नजर घुमा कर देखा मुझे ऐसा लगा शायद किसी को बुलाना चाहती हों।
__ जो मेरे पास प्रश्न थे वो उनके सामने रखे। धीमे व मन्द आवाज में बोली क्या आप भी मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं ? मैंने बात को बीच में रोककर कहा ये बताइये जो प्रश्न आपके सामने हैं वे उचित है या अनुचित ? फिर वही मुस्कान चश्मे को रुमाल से पौंछ कर कहा आपके सभी प्रश्न चिन्तन प्रधान हैं। कुछ समय के लिए सन्नाटा। मौन तोड़ा मैंने कहा इन छोटे-छोटे प्रश्नों को चिन्तन प्रधान बताया । आपकी नजर पैनी है । बुराई में भी अच्छाई ढूंढ़ लेती हैं । ___मैंने अापके प्रवचन अनेक बार सुने । उन प्रवचनों में आपने बताया"अच्छाइयों को ग्रहण करने से व्यक्ति महान् बन जाता है । आप ने सुना होगा। (सतीजी म० का संकेत मेरी तरफ था) बून्द-बून्द से घट भर जाता है । इसलिए हमें हमेशा गुणों की तरफ निगाहें रखनी चाहिए।
प्रिय पाठको! आपने सतीजी म० के प्रवचन भी सुने हैं। समय-समय पर दर्शन भी किये हैं । सतीजी म० का ज्ञान विपुल है । सभी को साथ में लेकर चलने की बेजोड़ कला है । यह कला अन्य स्थानों पर देखने को कम मिलेगी।
सामाज में, देश में, राष्ट्र में कुछ परिवर्तन हो, सुधार हो ऐसी सतीजी म० के दिल में तड़प है, लगन है, और निष्ठा है। सतीजी म० के बहुरंगी व्यक्तित्व को शब्दों की सीमा में बांधना मुश्किल है।
सम्पूर्ण स्थानकवासी जैन समाज में श्री अर्चना जी म० विख्यात साध्वी हैं। यत्र-तत्र-सर्वत्र जिनकी मंगलगरिमा व्याप्त है । प्रत्येक जिज्ञासु को आपके ज्ञान
से लाभ उठाना ही चाहिए। मैंने भी ऐसा ही किया । साहस को बटोर कर . मैंने सतीजी म. के सन्मूख पहला प्रश्न कर डाला।।
___ जो महासतीजी म० ने जवाब दिये उन सबका अंश मैं यहाँ दे रहा हूँ। यह चर्चा का दौर मुझे तो बेहद पसन्द आया। मेरी यही उम्मीद है कि हमारे पाठकों को भी रुचिकर लगेगा । सभी प्रश्नों के समाधान चिन्तन प्रधान व सारभित हैं। मेरा पहला प्रश्न यह था
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१. वर्तमान में चारों ओर हिंसा का तांडव हो रहा है। मानव के मन में भय __ परिव्याप्त है। वह निर्भय केसे हो सकता है ? इस विषय में आपको क्या राय है ?
वर्तमान समय में हिंसा का जो यह ताण्डव नृत्य दिखाई देता है, उसके पीछे सबसे प्रमुख तत्व में व्यक्तिगत स्वार्थपरता है। नैतिकता विहीन विश्व राजनीति भी हिंसा का प्रमुख कारण है अंध विकास की इस घुड़-दौड में प्रत्येक देश दूसरे देश को पीछे छोड़ना चाहता है। आज व्यक्तिगत ईा इस कदर बढ़ गई है: कि कोई भी किसी को उन्नतशील देखना नहीं चाहता है। ईर्ष्या-द्वेष छलछद्म की इन्हीं तच्छ मनोवत्तियों का परिणाम हिंसा की परिणति होता है। २. महाप्रभु महावीर ने मानव को जीवन विकास और आत्म-उत्थान का प्रशस्तपथ
बताया। अनेकों ने उस पथ पर चल कर अपना विकास एवं उत्थान भी किया पर आज का मानव उनके सिद्धान्तों को उपेक्षा क्यों करता हैं ?
भगवान महावीर ने जीने का जो मूल मंत्र दिया है उसके तहत सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिगृह हैं । इन मूल मन्त्रों में से यदि एक को भी हम अपने जीवन में अपनालें तो जीवन चिर सुन्दर बन सकता है । निश्चित ही इन्हें अपना कर सन्मार्ग पर पांव रख सकता है । किन्तु आज के आथिक युग में मनुष्य धन कमाने एवं आरामतलब जीवन बिताने में ही व्यस्त है । अतः वह ईश्वर से विमुख होता चला जा रहा है। विज्ञान ने भी धार्मिक मूल्यों को प्रभावित किया है अस्त्रों के इस युग में हो मनुष्य महावीर के सिद्धान्तों से विमुख होता चला जा रहा है। आज का मानव अधिकतर भौतिकता के आकर्षणों में इतना भटक गया है कि उसे अध्यात्म की सुधबुध नहीं रही है । भौतिकता की चकाचौंध से शीघ्र ही अंधता अनुभव कर वह अध्यात्म की ओर लौटेगा। ३. वर्तमान में समाज को विषम परिस्थितियों को देखते हुए भविष्य अंधकारमय दृष्टिगोचर हो रहा है। इस सम्बन्ध में आप क्या कहना चाहेंगी?
आज हमारे समाज की जो यह दयनीय स्थिति दिखाई दे रही है निश्चित ही उसका भविष्य अन्धकारमय हैं । कार्य और कारण का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इस दृष्टि से भी यदि हम देखें तो मैं यह मानती हूँ कि इसके पीछे मानव मन की कुण्ठाएं स्वार्थ परता, दम्भ, लोभ, सभी कार्य कर रहे हैं । अाज पुत्र पिता का कहना नहीं मानता है। राजनीति भी व्यक्तिवादी हो गई है। भ्रष्टाचार चरम स्थिति पर पहुँच गया है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध मात्र दिखावा रह गया है। निश्चित्त ही इन विभीषिकाओं से समाज का भविष्य उस अंधकार के गर्त में पहुंच गया है जहाँ से लौट पाना सहज नहीं है। ४. लोग कहते हैं आज के युवावर्ग में धर्म के प्रति निष्ठा व लगाव नहीं है।
क्या यह सत्य है ? मेरो अपनी मान्यता है कि जिस तरह हाथों की पाँचों अंगुलियाँ समान
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संघर्ष के तूफान में : एक जलती दीप-शिखा | ५५ नहीं होती हैं, उसी प्रकार सभी युवावर्ग धर्म पर विश्वास न करते हों ऐसा मैं नहीं मानती । मैंने जहाँ-जहाँ भी चातुर्मास किये वहाँ-वहाँ कुछ ऐसे उत्साही नवयुवक देखने को आये जिनमें वृद्धों से भी अधिक धर्म के प्रति आस्था है । अत: में निश्चितरूप से कह सकती हूँ कि कुछ युवकों में धर्म के प्रति अधिक आस्था है और कुछ में कम और कुछ दिशाहीन होने से धर्म से विमुख हो गये हैं किन्तु धर्मावलम्बी प्रयत्न करें तो उन्हें भी धर्म का मार्ग दिखा सकते हैं। ५. देश एवं समाज में जो कुप्रथायें घर कर गई हैं, क्या वे समूल नष्ट हो सकेंगी? जैसे कि मौसर (मत्यभोज) सतीप्रथा आदि ।
आज जिस वैज्ञानिक युग में, संक्रमण काल में हमारा देश गुजर रहा है इसलिए निश्चित ही जो रूढियाँ हमारे देश की जड़ों में बद्धमूल हो गई हैं उन्हें दर करने में तो समय लगेगा किन्त विज्ञान के नवोन्मेष में ऐसो रूढियाँ जो पूर्णतय जडों तक नहीं पहुँच पाई हैं वे नष्ट हो रही हैं मेरी ऐसी मान्यता है कि समाज का बुद्धिजीवी वर्ग धर्म के अधिष्ठाता से मिलकर प्रयत्न करे तो इस दिशा में उन्हें निश्चितरूप से सफलता मिलेगी। ६. समाज-सुधार में किन-किन बातों को आवश्यकता है ? इस पर जरा
प्रकाश डालिये?
सबसे बडी आवश्यकता प्रामाणिकता अर्थात् ईमानदारी को है । जब तक व्यक्ति सच्चाई का सहारा नहीं लेगा तब तक वह समाज का कायाकल्प नहीं कर सकेगा। अतः सत्साहित्य का निर्माण किया जाए एवं भ्रान्तियों को सत्ज्ञान और सत् विवेक के द्वारा दूर किया जाए । जहाँ तक हो सके जीवन में सादगी और सेवाधर्म को अपनाया जाए और अतीत एवं वर्तमान के विचारकों के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन करके सही दृष्टिकोण से सोचकर उपयुक्त कार्य किया जाए। ७. मानव मन में भेदभाव की जो खाइयाँ खुद रही हैं क्या वे भर सकेंगी?
समस्त मानवसमाज के लिए तो नहीं कहा जा सकता है फिर भी जो प्रात्मा ईश्वर, कर्म और लोक में विश्वास रखने वाले हैं वे चाहें तो सन्त महात्माओं के उपदेश एवं प्रादेशों से भेदभाव को खाइयाँ पाट सकते हैं । यदि सच्चे अर्थों में आनन्द और सुख से जीने की अभिलाषा हो ऐसा तभी सम्भव है। ८. मैं मानता हूँ आपने अब तक का सारा जीवन संघर्षों में व्यतीत किया। क्या संघर्ष ही जीवन है ?
मेरे जीवन का तो यही अनुभव रहा है । जन्म लेते ही माता का वियोग । थोडी समझ पाते ही बड़ी माताजी स यह सुनने को मिलता था कि यदि तुम घर का काम नहीं सीखोगी तो ससुराल वाले कहेंगे "माँ तो थी नहीं काम कौन सिखाता" अतः छोटी उम्र में ही बहुत कुछ सीख लिया था। ससुराल में दो वर्ष बाद ही
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पति वियोग देखना पड़ा । सास-ससुर के प्रभाव में वहाँ पर भी बहुत सावधानी से समय बिताया । दीक्षा के कुछ समय बाद गुरुणीजी का वियोग हो गया अतः प्रतिक्षण मन में यह ख्याल रहता कि कहीं पीहर ससुराल और गुरु-गुरुणी के नाम पर मेरे द्वारा कोई लांछन न लग जाय । अपने मन में ऐसी इच्छा को पनपने नहीं दिया जिसकी पूर्ति के लिए संत मर्यादा के विरुद्ध प्राचरण किया जाए। हमेशा अनुशासन ही प्रिय रहा है। हजारों संघर्षों के सहते हुए मैंने धैर्य और विवेक का सम्बल नहीं छोड़ा क्योंकि पिताश्री, गुरुदेव और गुरुणीजी की यही शिक्षा रही कि जो संघर्षों से गुजर जाता है वही सम्मान का पात्र बनता है । संघर्ष व्यक्ति को तोड़ते नहीं, तराशते हैं। ताजमहल को ही देखिये इस स्थिति तक पहुँचने के लिए न जाने कितनी नुकीली छेनियों के प्रहार सहे हैं ।
९. जैन समाज में विघटन को स्थिति पैदा करने वाले कारण क्या हैं ? जरा बताइये ।
सबसे पहला कारण समाज के कर्णधार श्रावक एवं सन्तों के मन में पक्षपात की भावना | जिसके कारण सम्प्रदायवाद पनपता जा रहा है । अपनों का समर्थन और दूसरों का खुलकर विरोध किया जा रहा है। यहाँ तक कि पत्र-पत्रिकाओं में भी बिना जानकारी के गलत समाचार प्रकाशित किये जा रहे हैं । परिणामस्वरूप मेल-मिलाप के स्थान पर बिखराव हो रहा है । यह समाज में विघटन के कारण हैं ।
१०. जैन धर्म में जो क्रान्ति लोकाशाह ने की, वह तो विश्वविख्यात है । भविष्य में ऐसी क्रान्ति आपको सम्भावित लगती है ?
ऐसी क्रान्ति के चिह्न नहीं हैं। वर्तमान में धर्म अनेक सम्प्रदायों में बँट चुका है । निकट भविष्य में भी संभव नहीं लगता फिर कोई दैविक चमत्कार ही हो जाय तो बात अलग है |
११. जीवन के उत्थान के लिए कौन सा मार्ग समीचीन हैं ?
प्रेम, सत्य और अहिंसा का मार्ग, यदि इस पर पूर्ण निष्ठा के साथ चला जाये तो सहज ही गन्तव्य स्थान तक पहुँचा जा सकता है ।
१२. श्रापके जीवन के कौन से प्रसंग श्रावकों को दिशा दे सकते हैं ?
(१) मेरे सामने किसी व्यक्ति ने उत्तेजना एवं कटु शब्दों का प्रयोग किया तो मैंने तत्काल कभी किसी को जवाब नहीं दिया ।
(२) बड़ों की बात का कभी विरोध नहीं किया । यदि कोई बात समझ में नहीं आई तो विनयपूर्वक समाधान करने का अनुरोध किया ।
(३) अपने मन की व्यथा किसी के सामने प्रकट करके झूठी सहानुभूति लेने का प्रयास नहीं किया ।
(४) यदि परिवार में या अपने समूह में कभी अगम्य वातावरण पैदा भी हो
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संघर्ष के तूफान में : एक जलती दीप-शिखा / ५७ गया तो अन्य किसी को भेद नही बताया और प्रेम के साथ सामंजस्य स्थापित। करने का पूरा प्रयत्न किया । यह मेरे जीवन का बहुत बड़ा अनुभव है।
(५) प्रियजनों के वियोग से मन-मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ने की स्थिति भी प्रायी किन्तु उस समय निरन्तर इष्टदेव का जाप मन में चलता रहा है और अभी भी चलता रहता है।
(६) छोटों का भी कभी अनादर नहीं किया । यहाँ तक की नौकरों के साथ भी भाई-बहिन का व्यवहार किया है।
(७) दूसरों के धर्म का कभी विरोध एवं निन्दा नहीं की । जहाँ से जो अच्छाई मिली उसे ग्रहण करने का प्रयास किया।
(८) मन में कभी बदले की भावना नहीं जगी। (९) प्रेम की अपेक्षा कर्त्तव्य को अधिक महत्त्व दिया ।
(१०) व्यर्थ की बातों में एवं दूसरों की आलोचना में कभी समय बरबाद नहीं किया । इससे मेरे जीवन में बहुत बड़े रहस्य का उद्घाटन हुआ है।
यदि कोई मेरे सामने किसी की बुराई करता है और मैं रुचि से झूठी पालोचना सुनती हूँ तो मेरे हाथों की दसों ही अंगुलियों में तेज दर्द होने लगता
कुल मिलाकर प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह अपने जीवन में शांति और प्रानन्द पाने के लिये ऐसा ही करें ।। १३. समाज में आप क्या-२ सुधार चाहती हैं ?
समाज-सुधार के लिये बहुत सारी बातें हैं, जैसे कि(१) सन्तों के स्थान पर बहिनें सादे वस्त्रों से आयें । (२) सन्तों से खुले मुंह बात न करें। (३) व्यर्थ का अपव्यय नहीं करें। (४) प्रतिदिन प्रार्थना एवं धर्म आराधना करें। (५) अधिक से अधिक स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ायें। (६) यथाशक्ति रात्रिभोजन, अभक्ष्य का भी त्याग करें। (७) सन्त भी अपने प्रवचन में विवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हुए श्रोतामों
__ की अच्छाइयों को अधिक उजागर करें। (८) सदाचार और संयम का प्रचार प्रसार हो । (९) खान-पान का विवेक रखा जाय । (१०) परस्पर सद्व्यवहार और सात्विक स्नेह का पूर्ण ध्यान रखा जाय । (११) दूसरों की त्रुटियों को उजागर करने की अपेक्षा उनको सुधारने का
प्रयत्न करें।
Pro
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द्वितीय खण्ड / ५८ (१२) जरूरतमंदों का ख्याल रखें । अन्य भी ऐसे अनेक शुभ कार्य और निष्काम तपस्या करें। ... (१३) दहेज न लेना न देना ।
(१४) मृत्यु-भोज, बाल-विवाह, अनमेल विवाह आदि कुरीतियों को दूर . किया जाए।
(१५) संग्रहवृत्ति से बचें।
(१६) व्यक्ति सामाजिक प्रगति-पथ पर चलते हुए अन्य लोगों की प्रगति में ही अपनी प्रगति समझे। (१७) आत्मकेन्द्रित न होकर लोक-कल्याण की ओर उन्मुख हों--
व्यक्ति जब प्रात्मकेन्द्रित होता है तब समस्या बन जाता है ।। पैसे को बाँट दो वरदान बन जाएगा
प्यार को बाँट दो भगवान बन जाओगे ।। १४. हमारे युवावर्ग को अपने सन्देश में क्या कहना चाहेंगी? - आध्यात्मिक जीवन के लिए महावीर के सिद्धान्तों को अपनाना चाहिये एवं अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क एवं जागरूक रहना चाहिए। अध्यात्म एवं धर्म के स्वरूप को समझते हुए सन्मार्ग पर चलना चाहिए। अपने माता-पिता एवं बड़ों को आदर देते हुए अपने अधिकारों के साथ कर्तव्य का बोध भी करना चाहिए । युवा पीढ़ी यदि ज्ञान और क्रिया में सामंजस्य स्थापित करना सीख जाये तो भविष्य उज्ज्वल होगा। १५. प्राचीन जमाने में भी दहेज चलता था और अभी भी चलता है। दोनों __ में क्या अन्तर है ? विस्तार पूर्वक चितन दें।
पहले दहेज उपहार का रूप था, उसके साथ विवशता नहीं थी। प्रत्येक पिता अपनी बेटी को विदा के समय अपनी समर्थता के अनुसार कतिपय बस्तुएँ दे देता था। आज स्थिति विषम है। दहेज ने विवाह जैसे पवित्र बंधन को व्यापार बना दिया है। यही कारण है कि नारी जीवन के सुख-स्वप्न दहेज की ज्वाला में जल रहे हैं। उसकी माँग में सिन्दूर के स्थान पर दुर्भाग्य की राख भर रही है। नारी जीवन की परख उसके गुणों की कसौटी पर नहीं, धन के आधार पर की जा रही है। युवा पीढी इस दिशा में दढ संकल्प लेते हए इस दानव का विरोध करे अन्यथा हर प्रांगन में हरी-भरी फसलें झुलसेंगी। १६. आपने अपनी संयम की दीर्घ यात्रा में अनेक बड़े-२ संतों एवं आचार्यों के
दर्शन किये, उनके जीवन का आप पर क्या प्रभाव पड़ा ?
सच ही है मैंने अपने जीवन में अनेक सन्त महात्माओं के दर्शन किये। उनमें से सबसे अधिक प्रभाव मेरे पूज्य पिता श्री मांगीलाल जी म. सा. का रहा है। वे स्वभाव से अत्यधिक सरल, उदारचेता और दयालु प्रकृति के थे। साथ ही में
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संघर्ष के तूफान में : एक जलती दीप-शिखा / ५९
गम्भीर और गौरवशाली भी थे। तत्पश्चात् पूज्य गुरुदेव श्री हजारीमलजी म. सा. का यह आशीर्वाद रहा कि "मुझे वन्दन करके अध्ययन करने बैठ जाया करो, मार्ग स्वतः ही मिल जाएगा।" आज भी वैसा ही होता है। स्वामीजी श्री ब्रजलाल जी म. सा. से मुझे अपने सिद्धान्त पर दृढ रहने की शिक्षा मिली। पूज्य युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. "मधुकर' से प्रत्येक व्यक्ति में से बराई को छोड़कर अच्छाई को ग्रहण करने की प्रेरणा ली। - श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य श्री आत्माराम जी म. सा. से अपनी गल्तियों को सहज ही स्वीकार कर लेने की और पूज्य फूलचन्दजी म. सा. तथा पंजाब केसरी पूज्य प्रेमचन्दजी म. सा. से निःसंकोच प्रवचन देने की प्रेरणा मिली। मेरठ वाले श्री फूलचन्द जी म. सा. से ध्यान योग की कुछ जानकारी मिली। १७. किन-किन बातों से मानव लोकप्रिय बनता है ? में लोकप्रिय बनने की प्रत्येक व्यक्ति की कामना रहती है। उसके लिये जीवन में चार सद्गुणों की तो परमावश्यकता है। (१) हृदय में दयालुता (२) वाणी में मधुरता (३) हाथों में उदारता (४) कर्म में परहित । इनके अलावा और भी अनेक अच्छाइयाँ हैं, जिन्हें मनुष्य को अपनाना चाहिए। १८. समाज में बालविवाह होते हैं, आये दिन देखते हैं। क्या ये उचित हैं ? ___ बालविवाह एक सामाजिक बुराई है। इसे अवश्य ही दूर करना चाहिए। बालविवाह का अर्थ शारीरिक और मानसिक यंत्रणा है। १६. सन्तों के नाम पर अनेक सम्प्रदायों का निर्माण हुआ है ? यहाँ तक तो
ठीक है लेकिन सम्प्रदायवाद कहाँ तक ठीक है ?
जहाँ तक सम्प्रदाय का सवाल है यह साधकों के लिये व्यवस्था है। अर्थात् साधना की आधारशिला है किन्तु बाद जहाँ पाता है वहाँ व्यक्ति में हठग्राहिता या जाती है। इस वाद के कारण ही परस्पर संघर्ष होते हैं और विघटनकारी स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। गहस्थों में मनोमालिन्य पैदा हो जाता है। सम्प्रदायवाद को लेकर ही समाज ने अनेक हानियाँ एवं बदनामियाँ उठाई हैं। २०. आपको नजरों में सर्वश्रेष्ठ लोककल्याण की भावना क्या है ?
अपने नहीं दूसरों के सुख के लिए प्रयत्न करें । हमारी आँख से निकलने वाला वह अश्रु मोती है जो दूसरे के दु:ख के कारण जन्म लेता है । २१. प्राचीन कवियों में से आपको अधिक प्रिय कौन से कवियों की रचनाएँ हैं ?
मुझे निर्गणी कवियों की रचनायें अधिक प्रिय हैं, जैसे प्रानन्दघन, कबीर, धर्मदास, भूधर आदि । वैसे पूज्य श्री जयमल्लजी म. सा., पू. श्री रायचन्दजी म. सा., पूज्य श्री आसकरणजी म. सा., पूज्य रतनचन्दजी म. सा. की रचनायें भी मुझे बहुत प्रिय लगती हैं। बड़ी रुचि से मैं उनका पाठ करती हूँ क्योंकि इनकी सभी रचनायें आगमों पर आधारित हैं।
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द्वितीय खण्ड | ६० २२. विज्ञान ने मनुष्य को मौत के सामने खड़ा कर दिया। क्या विज्ञान की
प्रगति ठीक है ?
वैज्ञानिक आविष्कारों का लोकहित में प्रयोग किया जाये तभी इसकी उपयोगिता है अन्यथा नहीं। २३. धर्मनीति और राजनीति में क्या अंतर है ?
राजनीति दण्ड पर आधारित है और धर्मनीति को आधारशिला प्रायश्चित्त है । द्वितीय ही अधिक उपयुक्त है । २४, परदोष देखना बुरा है ऐसा कहते हैं। फिर भी परदोष देखते हैं
ऐसा क्यों है ? __ मिथ्यात्व के उदय से । जैसे- किसी को साँप काट खाय । विषग्रसित व्यक्ति को नीम के पत्ते चबाने के लिये दिये जाएँ। वह जानता है कि नीम कड़वा है, फिर भी खाता है । उस वक्त उसे मीठा लगता है । २५. अपने ही धर्म के प्रति लोगों के दिलों में अश्रद्धा क्यों है ?
धर्म का सच्चा स्वरूप बताने वाले गुरुओं के अभाव से ।
अध्यात्मयोगिनी सती श्री 'अर्चनाजी' ने मेरे प्रश्नों के उत्तर निर्भीकता से सारगभित शब्दों में दिये । प्रत्येक उत्तर आपके मानस-मंथन से जन्मा । आपके कथन में स्पष्टता है । कहीं आपने अपने भावों को शब्दजाल में उलझाने का प्रयास नहीं किया। आपके उत्तर सुनकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि आप उच्चकोटि की अध्यात्मयोगिनी एवं प्रवचनकी ही नहीं अपितु महान दार्शनिक भी हैं। आपने जिस पथ पर भी चरण रखे हैं वह पथ अध्यात्म-ग्रन्थ का स्वणिम पृष्ठ बन गया है।
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सहयात्रिणी साध्वी द्वारा गुरुणी सा० के ज्ञानालोक में
निमज्जित व्यक्तित्व का उद्घाटन मेरी आस्था की प्रेरणास्त्रोत
1 महासती श्री उम्मेदकुवरजी म० सा०
ग्राप मेरी आस्था की प्रेरणास्रोत हैं। आपके विषय में लिखने के लिए लेखिनी उठाई है तो अब मन में अनंत भावोमियाँ मचल उठी हैं, उनकी अभिव्यक्ति के लिए मेरे पास शब्दों का अभाव है। आपके अनमोल गुण तो गुलाब की महक की तरह हैं जिसे अनुभव तो किया जा सकता है लेकिन लिखा नहीं जा सकता है, कि वह कैसी है ? मैं गत सैंतीस वर्षों से आपके साथ ऐसे हूँ जैसे काया के साथ छाया रहती है । इन वर्षों में मैंने प्रतिपल आपके ज्ञानालोक में डूबे महान् व्यक्तित्व को देखा है। आपके विषय में कुछ कह पाना वैसे ही कठिन है जैसे गूंगा कोई मिठाई खाये और उसके प्रास्वाद को ग्रहण करे, लेकिन किसी को बता न सके कि यह प्रास्वाद कैसा है । मेरी दृष्टि में आप अनुपमा हैं
मैंने देखा है चहुँ ओर, तुझसा मिला न कोई और । गुरुणीसा कहूं मैं पुकार-पुकार,
आपसे होगा मेरा बेड़ा पार ।। आपका जीवन उस स्वर्ण के समान है जो परिस्थितियों की प्राग में तपकर कुन्दन हो गया है । वे लोग और ही होते होंगे जो विपरीत परिस्थितियों की प्रांधी में उखड़ जाते होंगे । आपने प्रतिपल विपरीत परिस्थितियों का सामना किया लेकिन कभी उनके सामने झुके नहीं अपितु उन्हें भी अपनी साधना के संगीत में ढाल लिया। नियति ने जन्म से ही आपकी परीक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी थी। एक शिशु के लिए उसकी माता का अांचल सुखस्थली होता है। उसकी छाया में वह दुःख की धूप से मुक्ति पा लेता है । माँ की गोद उसके लिये स्वर्ग होती है । माँ के हृदय की धड़कनों में स्वर्गीय संगीत होता है, लेकिन आपका दुर्भाग्य ! अभी पाप सात दिन की ही थीं कि माता का देहान्त हो गया। ममता का आँचल चिता की अग्नि में जल गया। किशोरावस्था की दहलीज पर पाँव रखते-रखते अापका विवाह दौराई • (अजमेर ) गांव के श्री चम्पालाल के साथ हुया । लेकिन दुर्भाग्य पीछा करने में
आगे था । आपकी मांग का सिन्दूर भी चिताग्नि में जल गया । इस संसार के आकर्षणों और माया-मोह के बन्धनों के प्रति आपके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया।
सम्वत् १९९४ अगहन ११ वारे रविवार नोखा में आपने पूज्य गुरुदेव श्री हजारीमलजी म. सा० से दीक्षा ग्रहण की और लोक-कल्याण हेतु साधना के
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द्वितीय खण्ड | ६२
अग्निपथ पर चल पड़ों और तब से अब तक दीक्षा के पचास वसन्त आज चिरस्थायी कर चुकी हैं । इस संदर्भ में मुझे एक कविता की यह पंक्ति याद आती हैं--
यथा चतुभिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणच्छेदनतापताड़नैः, ? ? तथा चतुभिः पुरुषः परीक्ष्यते,
त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।। अर्थात् जैसे चीरने, काटने, तपाने और कूटने से स्वर्ण की परीक्षा होती है। उसी प्रकार त्याग, शील, गुण एवं कार्य से मनुष्य की परीक्षा होती है । मेरी गुरुणी महासती उमरावकंवरजी 'अर्चना' म. सा. इस कसौटी पर खरी उतरी हैं। विपत्तियों की पाठशाला में अापने साधना की परीक्षा उत्तीर्ण की है।
आपके मनोमंथन से जो उज्ज्वल मणियाँ जन्मी हैं, उनसे अनेकों का उद्धार हो चुका है। आप जहाँ भी जाती हैं अपनी मधुर और प्रभावशाली वाणी से सभी को आकर्षित कर लेती हैं । न जाने कितनी दुःखी आत्माओं को आपने सन्मार्ग दिखाया है। प्रवचनकला में आप निपुण हैं। वचन, शब्द में जब प्र. उपसर्ग लगाकर प्रवचन बन जाता है, तब उसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है । म० सा० के प्रवचन सूर्य की उन किरणों के समान हैं जो रोशनी के साथ-साथ स्फूर्ति भी देती हैं । जैसे सूर्य की किरणों के आते ही हम नींद से जाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके प्रवचन मोह-निद्रा से जगाने वाले होते हैं । धर्म की आवश्यकता क्यों है ? इस विन्दु को स्पष्ट करते हुए 'अर्चना और आलोक' में आपका कथन है--"धर्म की शक्ति अचिन्त्य है, अपरिमित है । यही मानव को महामानव बना सकती है और पतित से पतित व्यक्ति को भी सन्त महात्मा के पद पर आसीन कर सकती है । धर्माराधन करके ही नर नारायण बनता है, प्रात्मा परमात्मा पद को प्राप्त होता है। इसलिए जीवन को धर्ममय बनाना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। "धर्मेण हीना पशुभि समाना:" ये वचन भी धर्म की आवश्यकता को सिद्ध करते हैं। धर्मरहित मनुष्यों को पशु तुल्य ही समझना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों का जीवन पशुओं से ऊँचा नहीं होता, जो कि अपनी उदरपूर्ति और शारीरिक सुख-सुविधा के साधनों को जुटाने में ही मृत्यु-पर्यन्त लगे रहते हैं और इन्हें अधिक से अधिक प्राप्त करके सुख का अनुभव करते हैं । वे भूल जाते हैं कि सुख पैसा नहीं मांगता, सुख संग्रह नहीं मांगता, सिर्फ सन्तोष मांगता है।"
गुरुणीजी सा० के प्रवचन मधुर होते हैं । श्रोता उनके प्रवचन सुनते हुए ऐसा अनुभव करता है जैसे सन्तप्त मन पर जलद छा गये हों और नन्हीं नन्हीं रसकणिकानों से मन अभिषिक्त हो गया हो । आपकी वाणी तो मधुर है ही, आप कभी भी ऐसे कटुशब्दों का प्रयोग नहीं करतीं जिनसे कोई आहत हो जाए। आप सदैव रोचक बात हंसते हुए कहती हैं, यही आपकी विशिष्ट शैली है । हँसते हुए किसी के मन का मैल हटा देना और उसे स्वस्थ चिन्तन प्रदान करना कोई सहज कार्य नहीं है । अपने कथन को रोचक बनाने के लिए आप कहीं स्वयं संत कवियों के उद्धरण
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मेरी आस्था की प्रेरणास्रोत / ६३ प्रस्तुत करती हैं तो कहीं राजस्थान के लोक गीतों को उद्धृत करती हैं । हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी आदि विद्वानों के मत देकर अपने कथन को पुष्ट करने में भी प्रापको दक्षता प्राप्त है। अंग्रेजी की प्रसिद्ध कहावत है Stile is a man herself, इस कसौटी पर यदि आपकी प्रवचन शैली की समीक्षा की जाय तो स्पष्ट होता है कि अापका व्यक्तित्व अत्यन्त हँसमुख, उदार और विद्वत्तापूर्ण है । कथन के प्रमाण में निम्नलिखित पंक्तियां प्रस्तुत हैं---
"मनुष्य के लिए मित्र जितने आवश्यक हैं इन्हें ढूढना अति कठिन है। बहुधा ऐसा होता है कि हम उसकी तड़क-भड़क पर मुग्ध हो जाते हैं। सुन्दर मुख, कलापूर्ण बातचीत करने का ढंग तथा विनोदप्रिय प्रकृति प्रादि हमें किसी साथी को मित्र समझने में पर्याप्त कारण बन जाता है। परन्तु आपत्ति की कसौटी पर कसे बिना मित्र की भी पहचान नहीं होती। कवि रहीम ने कहा है
कहे रहीम सम्पति सगे बनत बहुत बहु रीत ।।
विपति कसौटी पे कसे, ते ही सांचे मीत ।। ऐसा मित्र सबसे निकृष्ट होता है जो अच्छे दिनों में पास रहता है और मुसीबतों के दिनों में मुंह फेर लेता है- The worst friend is he who frequents you in prosperity and deserts you in misfortunes
वस्तुतः अपनी प्रवचन शक्ति का चमत्कार तो वही बता सकते हैं जिनका इसके द्वारा कायाकल्प हुआ है। ___ आपके प्रवचन व्यक्तिविशेष के लिए न होकर सर्वजनहिताय होते हैं। प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक आयु के श्रोता को उनसे कुछ न कुछ अवश्य मिलता है । बालक उपदेशपरक कहानियाँ, नवयुवक अनुकरणीय आदर्श, विद्वान आगमचर्चा एवं बहनों को चरित्र कथा जो वे चाव से श्रवण करती हैं। गत पचास वर्षों में आपके प्रवचनों में उत्तरोत्तर निखार पाया है।
' आपके मन में करुणा की पावन भागोरथी प्रवाहित होती है । सत्पुरुष वही होता है जो चारों ओर से दुःखों से घिरा रहकर भी घबराता नहीं है, धैर्य की अग्नि में विपत्तियों के झाड़-झंझाड़ जलाकर राख कर देता है । लेकिन दूसरे का दुःख उससे एक पल भी नहीं देखा जा सकता है। महासती 'अर्चना' जी भी अपने जीवन में भले ही अत्यन्त दुःख सहकर हिमालय के समान अडिग रही हों लेकिन दूसरों को दुःखी देखकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है। आपमें करुणा ठीक उसी तरह व्याप्त है जैसे पर्वतों के अंक में झरने मचलते हैं । मुझे इस संदर्भ में आपके बचपन की एक घटना याद आती है । आप तब पाँच वर्ष की थीं। द्वार पर कोई भी गरीब पाता, पाप करुणा से द्रवित हो जाती और घर से घी, गेहूँ, कपास आदि दे देतीं। एक बार एक भिखारी आपके द्वार पर आया जो कई दिनों से भूखा था। जिसका पेट पीठ से चिपका हुआ था। आपने उसे घर से लड्डू खाने के लिये दिये और दया आँखों से उसे लड्डू खाते हुए देखने लगीं । तभी परिवार के किसी सदस्य ने आकर आपको डाँटा और भविष्य में भिखारी को कुछ
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द्वितीय खण्ड | ६४ न देने को कहा । आपने उसी दिन से लड्डू को त्याग दिया और आज तक नहीं खाया।
'न धर्मों धार्मिकैविना' अर्थात् धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रहता। आपने भी जैन धर्म के मर्म को जन-जन तक पहुँचाया है । जैन-दर्शन का तात्त्विक विवेचन करते हुए आप श्रावकों को सहज ढंग से समझाने की क्षमता रखती हैं। आपने अनेक स्थलों पर धर्म के नाम पर जब भी लोगों में परस्पर मनमुटाव, खींचातानी और संघर्ष देखा तो शीघ्र ही आपने उसे त्याग, तप, वचन और व्यक्तित्व के प्रभाव से शांत कर दिया। किशनगढ़ में स्थानक अनेक वर्षों से बन्द थे और द्वेष का कारण बने हुए थे आपने अपने प्रभाव से लोगों के मतभेद को दूर किया और बन्द ताले खुलवाए।
आप समाज-सुधारक की भूमिका निभाने में भी सदैव अग्रणी रही हैं। शिक्षाकेन्द्रों, औषधालयों, अनाथालयों एवं वृद्धाश्रमों को योगदान देने के लिए आप सतत यत्नशील रही हैं । आपको मान्यता है किसी भूखे, बीमार या अनाथ की मदद करना सबसे बड़ा धर्म है। . समाज में वही परिवर्तन ला सकता है जो तूफानों का सामना करता है
"तूफानों में जो पलते जा रहे हैं,
वही दुनियाँ बदलते जा रहे हैं।" आपने बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, दहेज-प्रथा, मृत्युभोज आदि कुप्रथानों को समाप्त करने के लिए विशेष प्रयत्न किया है।
धैर्य और गाम्भीर्य आपके व्यक्तित्व की अप्रतिम विशेषता है । आपको देखकर मुझे समुद्र की याद आती है जिसमें अथाह गम्भीरता होती है लेकिन वह कभी इसका प्रदर्शन नहीं करता। मौन रहता हुअा तैराकों को मणियाँ और रत्न देता है। आपमें भी ज्ञान की असीम गम्भीरता है। आपके समक्ष जो भी श्रद्धा और आस्था से शीश झुकाता है, ज्ञानचर्चा का अमृतपान करता है, उसका जीवन ही नई दिशा प्राप्त कर लेता है। आपके मत का कोई भले ही खंडन कर दे अथवा कट भाषा का प्रयोग करे परन्तु आपके चेहरे पर मुस्कान यथावत् रहती है। प्राप उसे तुरन्त उत्तर न देकर चिन्तन के लिये प्रेरणा देती हैं। परिणामतः जब उस व्यक्ति को सचाई अनुभव होती है तो वह आपका भक्त बन जाता है। ___ आपने जैन धर्म की उदारता को विशेष रूप से अपनाया है । यही कारण है कि जैनेतर भी आपकी शरण में आकर सुख और शान्ति प्राप्त करते हैं। आपके इन्दौर चातुर्मास में जैनियों के अतिरिक्त पंजाबियों ने भी बडी संख्या में आपके दर्शनों का लाभ प्राप्त किया। काश्मीर विहार के दौरान भी बड़ी संख्या में मुस्लिम, पंजाबी और सिन्धी अापके भक्त बने । आपके उपदेश उस ठंडी बयार के समान हैं जो बिना किसी भेद-भाव के सबको शीतलता प्रदान करती है। आपका समझाने का ढंग भी इतना सरल है कि आपकी शरण में आने वालों की कुण्ठाएँ
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मेरी आस्था की प्रेरणास्रोत / ६५
और संत्रास स्वतः हो शान्त होकर समाप्त हो जाते हैं। आप हमेशा यही कहते हैं कि धर्म का अर्थ अच्छे गुणों को धारण करना है, किसी लकीर को पीटते रहना नहीं है। जो भी जैनधर्म की अच्छाइयों-जैसे अहिंसा, प्रेम और करुणा को धारण कर लेता है वही सच्चा जैनी है । ऐसा व्यक्ति जो जैन परिवार में जन्म तो लेता है लेकिन जैनधर्म की अच्छाइयों को अंगीकार नहीं करता वह अजैन है । आप जहाँ भी गये हैं यही कहा है-'जैनधर्म एक जीवन-पद्धति है, इसे अपनायो और सुखी जीवन की राह पर चल पड़ो।' यह जीवन-पद्धति मोहम्मद पैगम्बर ने भी बताई, गुरु नानक और ईसा मसीह के ज्ञान का सार भी तो यही था कि सभी से प्रेम करो। किसी का दिल न दुखायो । पैगम्बर मोहम्मद सन् ५७० ई० में अरब के सुविख्यात शहर मक्का में कुरैश के संभ्रांत परिवार में पैदा हुए थे । चालीस वर्ष की आयु में उन पर नाज़िल (देवी ज्ञान) हई । उस समय वह युग हिसा, अन्धविश्वास एवं नशाखोरी के अंधेरे में डबा हना था। ऐसे में उन्होंने ज्ञानालोक प्रदान किया। उन्होंने सत्य पर आचरण किया और लोग उन्हें अमीन अर्थात् सत्यनिष्ठ कहने लगे । सत्य का यही मार्ग भगवान् महावीर स्वामी ने दिखाया। महासती 'अर्चनाजी म० सा० ने सदैव ज्ञान के व्यावहारिक रूप को अंगीकार करने का उपदेश दिया है । इस संदर्भ में मुझे मुनिश्री महेन्द्र कुमार 'कमल' की निम्नलिखित पंक्तियाँ याद आती हैं
"पूजने के लिए नहीं शास्त्र पढ़ने के लिए हैं, पूजने के लिए नहीं सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए हैं, पूजने के लिए नहीं फोटो मढ़ने के लिए है,
पूजने के लिए नहीं जीवन बढ़ने के लिए है।" जब मैं बहुत छोटी थी तब परम श्रद्धया गुरुवर्या के गुणों से प्रभावित हुई और उनके सम्पर्क में आती रही । मैं गत सैंतीस वर्षों से दीक्षित होकर आपके साथ ऐसी हूँ जैसी काया के साथ छाया। मेरी यही कामना है:
आँसुओं के साथ आरम्भ हुई अन्तर व्यथा आपकी छाया में अन्तिम सफर करे जीवन की कथा ।
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माह भविष्य बताते हैं 0 राजज्योतिषी पं० जगन्नारायण शर्मा
[ग्रह नक्षत्रों की अपनी-अपनी विशेषता है और प्रत्येक व्यक्ति इनसे प्रभावित होता है। जन्म के समय जिस व्यक्ति के ग्रह जैसे होते हैं उसके अनुरूप ही उसका जीवन व्यतीत होता है। किन्तु इन ग्रहों की भाषा को प्रत्येक व्यक्ति पढ़ नहीं सकता, इनका विशेषज्ञ ही इनकी गति और परिणाम को समझ सकता है। राजज्योतिषी पं. श्री जगन्नारायण शर्मा ने पू. महासती श्री उमराव कुंवरजी म. सा. 'अर्चना' की जन्म एवं दीक्षा कुण्डलियों के आधार पर कुछ भविष्य कथन किया था। उसका कुछ अंश हम यहाँ दे रहे हैं। इससे एक बात और भी प्रमाणित होती है कि व्यक्ति जन्म से ही महान होते हैं ।
-सम्पादक स्वस्ति श्री मन्नृप विक्रमार्क राज्य समयातीत संवत् १९७९ तमे वर्षे तथा च श्री मद् भूपति शालिवाहन कृत साके १८४४ प्रवर्त्तमाने दक्षिणायने गते श्री सूर्ये उत्तर गोलावलम्बिते श्री गगन चक्र चूडामणौ वर्षा ऋतौ सन्माङ्गल्य प्रदे मासोत्तमे मासे भाद्रपद कृष्ण पक्षे ७ तिथौ १९ घट्यः ३ पलानि परं ८ जन्म तिथौ भोमवासरे भरणी नक्षत्रे वृद्धि योगे घट्यः ४१ पलानि ३५ परं ध्र व जन्म योगे तात्कालिके कौलव करणे वृषभ राशि स्थिते चन्द्र राशिनवमांशे मकर द्य मकराख्ये शनि राशि पतौ मेष योनौ दानव गणे वैश्य वर्णे चतुष्पाद वश्ये गरुड वर्गे पूर्व भागयुजायां भूमि हंसके अन्त्य नाड़ी स्थिते श्री फणीश्वर चक्रे कर्क सक्रान्तेर्गतांशाः २९ क. १४ वि० ३ समये श्री सूर्याद्ध बिम्बोदयादिष्ट घट्य: ५५ पलानि २० समये कर्क लग्न वह मानायां शुभवेलायां ओसवाल ज्ञातौ श्री ५ श्रीमान् मांगीलाल जी सा. गहे सौ. अनुपादेवी वाम कुक्षौ कन्या रत्न जन्म तदभिधानं कृत्तिका नक्षत्रस्य २ चरणानुगतं इ अक्षरोपरि इ स्वरोपरि वषभ राश्या च ईश्वर बाई इति नाम प्रतिष्ठितम ।।
परं मातापित्रोरुल्लापने यथा रुचि ॥ धाताख्याम् मार्गशीर्ष मासः ५-१०-१५ तिथयः शनिवारः हस्तनक्षत्रं सुकर्मा योगः शकुनि करणम् ४ प्रहरः अष्टम चन्द्रमा ।।
इति शुभं भवतु ।। कल्याणमस्तु ।। १. जन्म दिनांक-१५ अगस्त १९२२
जन्म समय-४ बजकर १५ मिनिट प्रात:
जन्म स्थान-दादिया (किशनगढ) (राज.) ४. उत्तर अक्षांश-२६०-३५' रेखान्तर-३० मिनिट ३६ सैकण्ड ५. पूर्व रेखांश-७४-५१ ६. श्री चित्रा पक्ष अयनांशा-२२-४६'-३५"
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ग्रह भविष्य बताते हैं | ६७
R. A. M. C. ईष्ट साम्पातिक काल॥ अथजन्माङ्गचक्रमिदम् ॥
॥अथेन्दुचक्रमिदम् ॥ पुध/ प्लूटी /
/ /
केतू
६
नप.
X२चन्द्र सूर्य
46X २चन्द >
/
नेपन
बुध
हीन
X१०
१२
शत
मंगल
गुमराह
अथदीक्षाचक्रमिदम् AU शुक्रक/
अथेन्दुचक्रमिदम्
/
नेपचून
y
बुध
सूर्य
चन्द्र
राह
र्य सहज
१२
2AXशनि /
₹०
काल
हर्षल १. दीक्षा दिनांक-२८ नवम्बर १९३७ २. दीक्षा स्थान-नोखा (चांदावतों का) (राज.) ३. दीक्षा समय-८ बजकर ८ मिनिट ४. Latitude-२६०-१९' ५. Longitude-७३°-५९ ६. Diff-३५०-४'
संक्षिप्त फलादेश लग्न में श्रेष्ठ लग्न कर्क लग्न होता है, जो विशेष करके समाज के कार्य के लिए अपना सब कुछ प्रदान करके व्यक्ति स्वयं को दूसरों के लिए समर्पित कर • देता है।
कर्क लग्न के गुण विशेष करके कठिन समय में धैर्य आश्चर्यजनक निखरता है। प्रकृति भी उसे पूर्णरूपेण मानसिक नहीं किन्तु आत्मिक शुभसंयोग पूर्णरूपेण प्रदान करती रहती है।
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द्वितीय खण्ड / ६८
अंशात्मक भाग्येश एवं केन्द्र की युति चतुर्थ स्थान में राजयोग प्रदान करती है। आपको शश-योग नाम का राजयोग हुआ है।
वृहस्पति के साथ में शनि चतुर्थ स्थान में प्रव्रज्या योग के साथ धार्मिक गूढ़ता प्रदान करता है, क्योंकि अष्टमेश शनि अंशात्मक उच्च के हैं, तथा साथ में मुमुक्षुपति भी है । वृहस्पति की युति चरराशि में हुई है।
द्वितीय स्थान में अंशात्मक सूर्य-बुध की युति और द्वितीय स्थान के मध्याकाश में उच्चस्थ चन्द्र वाणी पर अपना पूर्ण वर्चस्व देता है ।
तृतीय स्थान में शुभ ग्रही राहु अपनी राशि को यात्रा में सफलता प्रदान करता है, और पराक्रम दृढ़ एवं धैर्यशील बनाता है ।
अंशात्मक मंगल छठे स्थान में अपने कारक स्थान में बैठकर लग्न को निहारते हैं, साथ में कारक भी हैं। कर्मेश एवं पंचमेश भी हैं। त्रिकोणाधिपति एवं केन्द्रश भी हैं। अपने कारक स्थान षष्ठ स्थान में विराजमान है अतः शत्रयों का मानमर्दन करने वाला आपका मानस दृढता के साथ बाद में उसे जीत लेता है।
कर्मस्थान में फोन है अतः आपके कार्य की दृढ़ता प्रणाली अनन्य प्रकार की उत्तम है।
चन्द्र लग्नेश लाभ स्थान में उच्च का होकर यश प्रदान करता है, लेकिन 0° का होने से शरीर में कुछ व्याधि रहती है ।
__ नवांश में गुरु उच्च के श्रेष्ठ फलदायी हुए हैं, वह भी लग्न की राशि है, जो मरणोत्तर मोक्ष प्रदान करता है।
अष्टमेश शनि नवमांश में निचस्थ होकर आयुष्य के लिए श्रेष्ठ बन गए हैं तथा कई प्रकार की योगिक गूढ़ताएँ प्रदान करता है। शनि ही एक ऐसा ग्रह है जो अष्टमेश हो तो उस व्यक्ति पर मुसीबतें लाद कर उसे तपाकर सोने की तरह पवित्र कर देते हैं। चन्द्र भी शनि के क्षेत्र के हैं, अतः प्रव्रज्या योग में विशेष साथ देने वाले यही लग्नाधिपति रहे हैं।
बुध द्वितीय स्थान में मार्केश होने से परिवार की तरफ से बहुत परेशानी उठानी पड़ी।
नवांश में सूर्य वृहस्पति के क्षेत्र का धर्म धैर्य और धर्म के उच्च प्रकार का तत्त्व-चिन्तन प्रदान करता है, क्योंकि वृहस्पति और सूर्य नैसर्गिक देवग्रह हैं और दोनों नवांश में श्रेष्ठ क्षेत्र पाये हुए हैं।
स्वनाम धन्य पूज्य महासतीजी श्री उमरावकुवरजी म. सा. 'अर्चना' का शुभ ग्रहयोग है। दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के मंगल अवसर पर आपके चरण-कमलों में आस्था के साथ कोटिशः वन्दन करता हुआ सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि आपका वरद हस्त चिरकाल तक हमारे मस्तक पर रहे। इसी मंगल कामना के साथ विराम लेता हूँ।
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ऐसा था बचपन
[ डॉ० नरेन्द्रसिंह
।
यदि कोई नन्ही
समझिए की वह
।
यदि कोई नन्ही
लगे, किसी की
बचपन की घटनाओं से समग्र जीवन व्यंजित होता है बालिका खिलौनों, फलों तथा रंग-बिरंगे वस्त्रों से मोह रखे तो बड़ी होकर मन के आँचल को सांसारिक रंग में रंगना चाहती है बालिका बचपन से ही किसी दुःखी या बीमार को देखकर सोचने मृत्यु देखकर उसके चिन्तन की वीणा के तार झंकृत हो उठें तो इससे यह व्यंजित होता है कि वह परम्परा की लीक पर चलने के लिए नहीं जन्मी है । उसके जीवन का लक्ष्य उन लोगों के लिए एक इमारत बनाना है, जिनकी लाशों को कफन तक भी नहीं मिल पाता है । ऐसी दिव्य बालिका उन लोगों के करुण - क्रन्दन का कारण जानना चाहती है, जिनकी मन की जलती धरती पर आजीवन अश्रु बरसते हैं लेकिन तपन फिर भी दूर नहीं होती ।
श्रद्धय अध्यात्मज्योति महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० आज साधना के जिस उत्तुंग शिखर पर बिहार कर रही हैं, इसके बीज उनके बचपन में ही छिपे हुए थे ।
आपका बचपन घरौंदों व खिलोनों की दुनिया तक सीमित नहीं था । श्रापके बचपन में इस कामना के बीज थे- 'मुझे अन्धकार प्रकाश की ओर ले जाओ, मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाओ, मुझे मृत से अमरत्व की ओर ले जाओ ।' प्राज बचपन की कामना का यह बीज अंकुरित होकर फलदार वृक्ष में परिणित हो चुका है, जिसकी छाया - साया में अनेक संतप्त जीवात्मा सुख और शांति प्राप्त कर रही हैं। उनके बचपन की कतिपय घटना उल्लेखनीय हैं, जिन पर भविष्य की तपश्चर्या का प्रासाद निर्मित हुआ है ।
माँ के आहार और विचारों का गर्भस्थ शिशु पर बहुत प्रभाव पड़ता है । आपकी माता श्रीमती अनुपादेवी अत्यधिक धार्मिक एवं सरल स्वभाव की महिला थीं । उन्होंने गर्भावस्था के नौ महिने में अत्यधिक सात्त्विक आहार ग्रहण किया था, दूध, आम का रस, ताम्बूल और सिके हुए गेहूँ के अतिरिक्त इस अवधि में उन्होंने कुछ नहीं ग्रहण किया । समय-समय पर उपवास भी किये, अष्टमी और चतुर्दशी का उपवास तो करना कभी नहीं भूलतीं । प्रायः धर्मचर्चा में भाग लेतीं । गर्भस्थ शिशु जैसे इन संस्कारों को ग्रहण कर रहा था ।
वि० सं० १९७९ भाद्रपद माह की सप्तमी को अज्ञान के तिमिर को दूर करने वाले अर्चनादीप को जन्म देकर आपकी माताश्री ने संसार को उपकृत किया । यह वह समय था जब कन्या के जन्म लेते ही सबके चेहरे से खुशी गायब हो जाती
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द्वितीय खण्ड /
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है । तासे वाले, नगाड़े वाले और याचक, यह सुनते ही कि कन्या हुई है, चुपचाप सिर झुकाये चले जाते थे । लेकिन आपका जन्म प्राध्यात्मिक जगत की एक ऐतिहासिक घटना थी । आपको जन्म देकर माता श्रीमती अनुपादेवी खुशी से फूली न समाई और कहा भले ही मेरे पुत्री हुई है परन्तु उसके हाथ-पैरों से लगता है कि वह सौ पुत्रों से कम नहीं होगी । धर्मप्रवण माँ ने सप्तमी को जन्म देकर अष्टमी, दसमी और चौदस के तीन उपवास किये । माँ श्रीमती अनुपादेवी की जब भी अपनी अनुपम बेटी को देखती तो हृदय में ममता का सागर उमड़ पड़ता । वह अपनी पुत्री को हृदय से ऐसे लगातीं जैसे दोनों की देह भिन्न होकर भी प्राण एक हों । परन्तु नियति को तो कुछ और ही मंजूर था । जन्म देने के सात दिन बाद भादवा सुदी तीज का दिन था। माँ अनुपा ने उपवास रखा था । उसी दिन उनके जीवन की डोर टूट गयी । श्वासों के मोती बिखर गये और प्राणों का पंछी उड गया | नन्ही सात दिन की बालिका का ममतामय प्रांचल चिता की अग्नि
जल गया, जैसे धूप में थककर आया पथिक वृक्ष की छाया में बैठा ही था कि नियति ने वृक्ष काट दिया । भाग्य ने एक नन्ही शिखा को तेज प्रधियों के बीच में छोड़ दिया । जब आपकी माता का देहान्त हुआ तो पिताश्री मांगीलालजी तातेड़ कार्यवश अहमदाबाद गये हुए थे । उन्हें तार देकर बुलाया गया । यह उनके लिए भी संकट का समय था । जिस जीवनसंगिनी ने सात जन्म तक साथ निभाने का वायदा किया था वह बीच में ही साथ छोड़कर चली गई। उनका कलेजा दो टूक हो गया । उधर उनके पुनर्विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे । उनका मन तो घर से विमुख हो गया था अतः पुनर्विवाह का प्रस्ताव कैसे स्वीकार करते ? वे संतप्त मन लिये बिना किसी को कुछ कहे किसी अज्ञात दिशा की ओर निकल गये । पिता की अनुपस्थिति में आपको बड़े पिताजी तथा बड़े माताजी ने बड़े लाड-प्यार से पाला | बड़े माताजी तो गोदी से नीचे उतारती ही न थीं । दो धाय माताएँ भी आपकी सेवा में रहती थीं ।
आपके जन्म के समय ज्योतिषियों ने यह भविष्यवाणी की थी कि आपका जीवन महान् होगा । किशनगढ़ दरवार के राजज्योतिषी श्री जगतनारायणसिंह ने तो यह कहा था कि यह बालिका अपने तपस्वी जीवन से माता-पिता का उद्धार करेगी ।
महासती उमराव कुंवरजी के बचपन की एक विशेषता यह रही कि तीन वर्ष की अवस्था तक आप कभी रोई नहीं। परिवार वालों का कहना है कि लगभग पौने तीन वर्ष की अवस्था में आप तीसरी मंजिल से नीचे गिरीं । सिर पर गढ्ढ़ा पड़ गया परन्तु फिर भी रोई नहीं । इस प्रकृति के द्वारा आपने जैसे यह संकेत किया था कि, यह संसार रोने वालों के लिए नहीं है । विपरीत परिस्थितियों में भी आँसू न बहाकर आत्मबल का परिचय देना चाहिए। रोना दुर्बलता की निशानी है । तीन वर्ष की अवस्था में अचानक दृष्टिदोष के कारण आप बीमार हो गये । श्रनेक उपचार किये गये, लेकिन आप ठीक न हो सकीं ।
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ऐसा था बचपन / ७१
श्वासें उखड़ने लगीं। मृतक घोषित कर दिया । बारह घण्टे तक शरीर निर्जीव रहा । इस बीच एक अद्भुत घटना हुई कि आपके पिताजी जो तीन वर्ष पहले किसी अज्ञात दिशा की ओर चले गये थे अचानक घर के पिछले द्वार से आये और आपकी निर्जीव देह को उठाकर उसी रास्ते से ले गये । गाँव में उस दिन जोगियों की जमात आई हुई थी। तालाब जल से भरा हुआ था। पर जहाँ जोगियों के आसन लगे थे वहाँ एक बूंद भी जल नहीं गिरा था। पिता जी ने योगिराज के सम्मुख आपकी देह रख दी। योगिराज ने कहा 'तु कोई लाश लाया हैं।' पिता जी ने कहा-'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इसे तो दीर्घजीवन जीना है, आपकी कृपा हो तो यह जीवित हो जायेगी।' योगिराज ने राख की चिंउटी भरकर पुडिया में बन्दकर ताबीज की तरह गले में बांध दी। योगी की कृपा से चमत्कार हुना। चेतना लौट आयी। पिताजी उसी द्वार से घर में आये और आपको छोड़कर वापस चले गये। इस अद्भुत घटना से दादिया निवासी हैरान थे । ग्रामवासियों ने पिताश्री मांगीलाल जी का पीछा किया लेकिन उनका कुछ भी पता न लगा । वस्तुतः पिताजी कैसे पाये ? योगिराज की दी हुई राख से आप कैसे पुनः जीवित हो गईं ? यह आज भी रहस्य बना हुआ है।
आपका छः वर्ष तक का जीवन दादिया में ही व्यतीत हुआ। एक दिन आप घर के पिछवाड़े बच्चों के साथ खेल रही थीं। पिताजी आये और आपको उठाकर केब्बाण्या गांव ले गये । जाते हुए बच्चों से कह दिया कि घर पर सूचित कर दें। तब आपका नाम अलोलकंवर रखा गया था। केब्बाण्यां गांव अजमेर जिले में नसीराबाद के पास है। वहीं आपकी बड़ी बहन सौभाग्यकुंवर की शादी निश्चित की गई थी । केव्बाण्यां आपका ननिहाल भी था।
अाप बाल्यावस्था से ही करुणामयी थीं। जब भी किसी गरीब भूखे या बेहाल को देखतीं तो आंखों में आंसू आ जाते और नन्हीं अलोलकंवर घण्टों बैठे सोचा करती यह भूखा क्यों है, इसके कपड़े फटे क्यों हैं, इस बीमार व असहाय से चला क्यों नहीं जाता ?......"और वह अपनी क्षमता और सूझ-बूझ के अनुसार सहायता करने के लिए तत्पर हो जाती। किसी गरीब को देखकर कहती 'जरा रुकना भैया' और घर से लाकर किसी को घी, गेहूँ तो किसी को कपास लाकर दे देती । पाँच वर्ष की आयु में किसी भिखारी को लड्डू देते समय जब आपको डांट दिया गया तो आपका मन पाहत हो गया, वह भिखारी चुपचाप लड्ड रख कर चला गया। आपने उसे जब जाते हए देखा तो मन रो उठा । आपने उसी दिन संकल्प कर लिया कि कभी लड्डू नहीं खाऊँगी। तब से आज तक आपने कभी लड्डू को हाथ तक नहीं लगाया । ___ बचपन में एक ऐसी घटना घटित हो गई कि आपने कभी नारियल की गिरी भी न खाई । आपके घर पर एक नाइन पाती थी जो आठ नौ वर्ष की आयु में विधवा हो गई थी, उसने बड़ी सात्विकता से अपना वैधव्य गुजारा । लेकिन एक दिन एक युवक ने नारियल की गिरी खिला दी और वह उसके साथ चल दी।
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द्वितीय खण्ड | ७२ आपके मन पर इस घटना का ऐसा प्रभाव पड़ा कि आपने कभी नारियल की गिरी नहीं खाई । आपकी बड़ी बहन श्री सौभाग्यकंवरजी का विवाह अजमेर के गांव दौराई में हुआ था । जब कभी आप अपनी बहन के साथ उसके ससुराल जातीं, बहन के देवर श्री चम्पालालजो के साथ वार्तालाप में आपका मन बहुत लगता। घंटों बैठे किसी विषय पर चर्चा करते रहते। श्री चम्पालालजी कभी कभी तो निरुत्तरित हो जाते। कभी-कभी दोनों में बालसुलभ कहा-सुनी भी हो जाती, किन्तु दूसरे ही पल एक दूसरे को मना लेते और खाने के लिए जो भी मिलता बाँट कर खाने लगते । कालान्तर में आप दोनों प्रतिज्ञाबद्ध हुए और पति रूप में श्री चम्पालालजी कुछ कदम चलकर साथ छोड़ गये। अभी आपके हाथों पर विवाह के मेंहदी के फूल फीके भी न पड़े थे कि पति की मृत्यु हो गई । चिता-अग्नि में मांग का सिन्दूर जल गया। कोमल कलाइयों की चूडियाँ टूट गईं। माथे की बिन्दिया अंगारे में बदल गई।
बचपन में ही आप किसी जीव का वध देखतीं तो मन व्याकुल हो जाता। सोचने लगतीं भोले व निर्दोष पशु ने किसी का क्या बिगाड़ा है। आपके मन में हरी-भरी वनस्पतियों के प्रति भी दया थी। कभी कोई हरी सब्जी टूट जाती तो आप पुनः उसे जोड़ने की चेष्टा करतीं।
बचपन की इन्हीं संघर्षमयी व दिव्य घटनाओं की क्रोड़ से जन्म हुआ अध्यात्मज्योति, काश्मीर-प्रचारिका, मालवज्योति, श्रद्धेय श्री उमरावकुंवर जी 'अर्चना' म. सा. का, जो गत पचास वर्षों से अनवरत साधनापथ पर अर्चनादीप की तरह प्रज्ज्वलित हैं, जो घायल मानवता के चरणों के अनुलेप सदृश है, जिनके जीवन से यही आवाज आती है 'नियति जिसे बहुत दुःख देती है, उजाला भी उसे मिलता है ।' आपकी दीक्षा की स्वर्ण जयन्ती से जन-जन का मानस तप और त्याग की खुशियों से भर गया है।
-राजकीय महाविद्यालय, ब्यावर (राज.)
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महासती श्री 'अर्चना' जी की काव्य-साधना
महामहोपाध्याय डॉ. हरोन्द्रभूषण जैन
१. परिचय एवं वैदुष्य
सतीश्रेष्ठ, परम विदुषी, उमरावकुंवरजी 'अर्चना' ने अपने प्रशस्त साध्वी-जीवन के पचास वर्ष अतिशय पवित्रता एवं गरिमा के साथ पूर्ण किए हैं। पन्द्रह वर्ष की लघुवय में भागवती-दीक्षा अंगीकार कर 'अर्चना' जी अाज जिस दृढ़ता और सफलता के साथ प्रात्मकल्याण के मार्ग पर बढ़ी-चली जा रही हैं वह अन्य आध्यात्मिक जनों के लिए आदर्श एवं स्पृहणीय है। ___ मुनि प्रवर महाराज मिश्रीमल जी 'मधुकर' ने सती-शिरोमणि 'अर्चना'जी के अभिनन्दन में जो 'गुणाष्टकम्' लिखा है उसका यह पद्य सतीजी के मधुर-व्यक्तित्व को अपनी सम्पूर्ण आभा के साथ उच्छलित करता है
"या शीतांश-मुख-प्रकाश-सुभगा विद्या-विशाला प्रिया शुद्ध-श्वेत-सुवेश-दिव्य-चरितं कान्तं च यस्या वपुः। भालं भव्यतमं प्रदीप्तमतुलं मुग्धं च यस्या मनः साध्वी सा उमरावजी-वरसती जीयाज्जगत्यां सदा ॥
-(सुधामञ्जरी-पृ. १००) अर्थात् चन्द्र जैसे मुख के आभा-मण्डित प्रकाश से सुन्दर, विद्या से विशाल, सबकी प्रिय, जिनका शरीर शुद्ध, श्वेतवर्ण, सुन्दर वेश-भूषा से दिव्य प्रभावाला एवं मनोहारी प्रतीत होता है; जिनका भव्य ललाट ज्ञान की गरिमा से प्रदीप्त है, एवं जिनका मन अनुपम भोलेपन से सर्वजन-मुग्धकारी है, ऐसी सती-साध्वी उमरावकुंवरजी इस पृथ्वी पर सदैव जयवंत हों।
'अर्चना' जी ने जैनदर्शन एवं भारतीय-साहित्य तथा संस्कृति का प्रगाढ अध्ययन किया है । वे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, राजस्थानी एवं अंग्रेजी इन आठ भाषाओं की परिज्ञात्री हैं।
'अर्चना' जी का 'अर्चना' यह उपनाम अत्यन्त सार्थक प्रतीत होता है क्योंकि • उनका समग्र जीवन मोक्षमार्ग की अर्चना अर्थात् साधना के लिए समर्पित है। २. काव्य साधना
___ 'अर्चना' जी की काव्य-साधना, वस्तुतः मोक्ष-साधना का ही एक अंग है। इसीलिए उन्होंने जो कुछ भी लिखा है उसमें सर्वत्र गुरुभक्ति, गुरु-गुणगान-विलास
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है
२ हा
द्वितीय खण्ड/७४ वैभव का त्याग, इन्द्रिय-सुख का दमन, संयमपालन और मुक्ति से नाता जोड़ने की बात कही गई है। ___'अर्चना' जी ने गद्य एवं पद्य दोनों में काव्य-रचना की है। उनके गीतों एवं भजनों की संख्या लगभग दो सौ हैं। इनमें से कुछ प्रकाशित हैं, कुछ . अप्रकाशित हैं और कुछ अनुपलब्ध भी हैं। ३. प्रकाशित एवं अप्रकाशित गीत ___ 'अर्चना' जी के उपलब्ध गीतों में कुछ तो प्रकाशित है और कुछ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। प्रकाशित गीत 'अर्चनांजलि' एवं 'सुधामञ्जरी' में संग्रहीत हैं ।
(क) अर्चनांजलि चौसठ-पृष्ठों की यह पुस्तिका सन् १९७२ में, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर से प्रकाशित हुई थी। इसमें 'अर्चना' जी के सत्तावन गीतों-भजनों का इस प्रकार संकलन है--
१-विविधगायन-४ गीत, २-दीक्षार्थी को उद्बोधन- २२ गीत, ३-दीक्षार्थिनी को उद्बोधन-१४ गीत तथा ४-अर्चना-उद्गार-१७ गीत
विविधगायन-इसके चार गीत मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं । इनमें भगवान पार्श्वनाथ एवं महावीर की स्तुति के साथ गुरु गणिवर पूज्य जयलमजी, स्व. स्वामीजी श्री ब्रजलालजी एवं युवाचार्यश्री मधुकर मुनिजी महाराज के गुणों का गायन किया गया है।
चारों गीतों में भक्ति एवं समर्पण की भावना के साथ आत्मकल्याण एवं निर्वाण-प्राप्ति की भावना अभिव्यक्त की गई है
"ओ ! म्हाने आत्मा रो ज्ञान करामो गुरु सा.। ओ! म्हाने शिवपुर की सैर कराओ गुरु सा. ॥"
-(अर्चनांजलि 'गुरुगुणगान' पृ० ४) दीक्षार्थी को उद्बोधन- इसके बाईस गीतों में आत्मोद्धार के लिए प्रयत दीक्षार्थी को 'सम्हल सम्हल पग धरना रे', 'माता की चेतावनी', 'विरक्ति के भाव' आदि शीर्षकों के अन्तर्गत प्राध्यात्मिक उद्बोधन दिया गया है।
'मां की चेतावनी' गीत में साधना-मार्ग को नंगी तलवार पर चलना निरूपित किया गया है- “साधना रो मारग..........नागी तलवारयाँ ऊपर चालणो।"
'दीक्षार्थी को शिक्षा' गीत में नर से नारायण बनने के लिए तत्पर दीक्षार्थी को कहा गया है कि वह पालस्य तजकर गुरु की आज्ञा को जीवन का श्रेष्ठ धन माने ।
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महासती श्री 'अर्चना' जी की काव्य-साधना | ७५
'पुत्र-माँ संवाद' गीत की "मोह मत करो माता नाता सब झूठा है" आदि वैराग्यप्रद भावनाएँ अत्यन्त मार्मिक एवं प्रभावक हैं।
दीक्षार्थिनी को उद्बोधन - इसके चौदह गीतों में 'धन्यवाद,' 'बधाई,' 'दीक्षार्थिनी से, आदि शीर्षकों के अन्तर्गत फूल-सी सुकुमारी, माता-पिता की लाड़ली, वैरागण-दीक्षार्थिनी को 'अर्चना' जी ने बहन के रूप में संबोधन एवं उपदेश दिए हैं"यू कहे 'अर्चना' बहन मान ले कहणो ए।"
-(अर्चनांजलि'-दीक्षार्थिनी से' पृ० ३०) 'दीक्षार्थिनी' का यह पद (पृ० ३७)
"पा बाबा सा की लाड़ली बेरागण बन गई रे।
जिस पन्थ चली चन्दन बाला, उस पथ पर बढ़ गई रे ॥ अत्यन्त हृदयस्पर्शी है।
इसी प्रकार 'माता पुत्रो का संवाद' (पृ० ४०) गीत का यह पद"माता-खेली कदी धम मचाई, आंगणिया में जाई।
एक पलक में प्रेम तोड़कर, केवे नहीं रेवां।" मानव-भावना को उद्वेलित करने वाला है । इन गीतों की सुन्दर समाप्ति शिवपुर-प्राप्ति की कामना से हुई है
"सफल साधना कर संयम की शिवपुर सुख वर ल।
आशीर्वाद 'अर्चना' चाऊ, गुरुवर दे दीजो ॥" अर्चना-उद्गार--इसके सत्रह गीतों में 'स्वागतगान' 'बिदाईगान', 'राजस्थानी गीत' आदि शीर्षकों के अन्तर्गत 'अर्चना' जी की आध्यात्मिक एवं मानवीयभावनाओं का सुन्दर स्फुरण हुआ है।
'सन्देश गुरु महाराज को' (पृ० ५६)-गीत में दूत-काव्य-परम्परा का अनुकरण करते हुए एक शुक से शीघ्र उपवन से उड़कर गुरु का संदेश लेकर वापस आने की बात कही गई है
"सुवा वांगा सू उड़ जाजे रे, म्हारा गुरु सा० की खबर लेय तू,
बेगो आजे रे।" 'बिदाई गान' (पृ० ५७) में गुरु के आध्यात्मिक स्वरूप का सही चित्रण किया गया है
"कंचन कंकर एक बराबर, दोष नहीं लवलेश । शत्र-मित्र पर समता सागर, मन रा मिटाया सारा क्लेश।"
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द्वितीय खण्ड | ७६
(ख) सुधामंजरी महासती सुप्रभाकुमारी 'सुधा' द्वारा सम्पादित, १९८४ में इन्दौर से प्रकाशित 'सुधामञ्जरी' में 'अर्चना' जी के तीस गीत संकलित किए गए हैं। 'चौबीसी', 'गणधर', 'बोधसूत्र' आदि शीर्षकों-वाले ये गीत 'अर्चना' जी की । काव्यप्रतिभा का सुस्पष्ट प्रतिनिधित्व करते हैं।
'सती' गीत (पृ० ४९) में भगवान नेमिनाथ और राजमती की पौराणिक गाथा को वाणी देने का प्रयत्न किया गया है
"अमर कंवर कहे धन्य राजमती अविचल प्रेम निभाया जी। ___ चौपन दिन पहले प्रभु के शिवपुर नगर सिधाया जी॥" _ 'बोधसूत्र' (पृ० १७१) की वे पक्तियाँ हृदय को बहुत दूर तक स्पर्श करती हैं
"मना तेरे जीवन के दिन थोड़े। विमल ज्ञान-उद्यान विचर तूं, सद्गुण फूल क्यों न तोड़े। 'अर्चना' पाना यदि अमर पद साहस के चढ़ घोड़े ॥"
(ग) अप्रकाशित गीत 'भारत मां के लाल' 'कोटि कोटि अभिवंदन' आदि शीर्षकों के लगभग साठ मधुरगीत अभी तक अप्रकाशित हैं।
'भारत मां के लाल' गीत से 'अर्चना' जी के जीवन के एक महत्त्वपूर्ण अंग पर प्रकाश पड़ता है; वह है-उनकी राष्ट्रीय-भावना। इस गीत में गांधीजी का गुणगान करते हुए भारत मां की परतन्त्रता की बेड़ियां टूट जाने पर समस्त संसार में उनके यश के फैलने की बात कही गई है--
"हाँ हाँ अहिंसा वालो झण्डों बापू जग में फहरावे ।
हाँ हाँ भारत की टूटी बेड़ी जद सुयश जग छावे ॥" ४. गद्य काव्य ___ 'अर्चना'जी ने, 'कायापूर पढ़न का पत्र' शीर्षक से एक बहत सन्दर आध्यात्मिक गद्य-काव्य लिखा है । संवत् २०२४ में आठ पृष्ठों की इस लघुपुस्तिका का प्रकाशन हरमाड़ा (अजमेर) राजस्थान से किया गया है।
यह एक बहुत सुन्दर रूपक है। इसमें एक पत्र अक्षयपुर नगर स्थित परम पुरुष परमात्मा के नाम लिखा गया है। पत्र लिखने का प्रयोजन अपने इस अभिप्राय को पहुंचाना है कि पत्र लेखक अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए राज्य करने आया था। उसने राज्य करने के लिए सब प्रकार का प्रबन्ध भी कर लिया था।
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महासतीश्री अर्चना' जी की काव्य-साधना | ७७ किन्तु वह यहाँ प्राकर कुसंगति में फंस गया और राज्य करने का उद्देश्य भूल गया।
इसी प्रकार सेक्रेटरी विवेकचन्द्र, प्राइममिनिस्टर सम्यग्दर्शन, कोतवाल सद्विचारचन्द्र भी राज्य के उद्देश्य को भूल गए। अतः शत्रुओं ने कायापुर पट्टन पर अधिकार करना प्रारंभ कर दिया। शत्रु मण्डली के नायक का नाम मोहराजा है । मिथ्यादर्शन उसका प्रधान सचिव है और अविवेक उसका कोतवाल है । यहाँ लोभ, काम, राग, द्वेष, मान आदि पुरुष पात्र हैं तथा कुमति, तृष्णा, विकथा, परनिन्दा, रसना आदि स्त्री-पात्र हैं।
मोहराजा ने इस प्रकार कायानगर में पूर्णरूप से अधिकार जमा लिया है। मोहराजा के दूत जरासिन्धु ने हिम्मतगढ़ नामक मजबूत किले को खोखला कर दिया है । शत्रुओं ने, लोचनपुरा, कर्णपुरा, नासिकापुरा, हस्तपुरा आदि उपनगरों को भी बरबाद कर दिया है।
पत्रलेखक की अभिलाषा है कि उसे कायापुर पट्टन के राज्य की आवश्यकता नहीं है । वह तो केवल यह चाहता है कि उसका हिम्मतगढ का किला मजबूत हो जाय । सल्लेखना और अनशन, इन दोनों परम मित्रों पर उसका दृढ विश्वास बना रहे जिनकी सहायता से वह अक्षयपुर नगर पहुँच सके।
यहाँ कायापुर पट्टन इस शरीर का प्रतीक है जिसकी सेवा में सारा संसार दिनरात लगा रहता है । सारा रूपक इस बात का निरूपण करता है कि यह संसारी आत्मा, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का अवलम्बन कर मुक्ति के मार्ग पर निर्बाध चलती हुई निर्वाण प्राप्त करे । ५. काव्य की भाषा
'अर्चना' जी के काव्य की भाषा प्रधान रूप से राजस्थानी है। कवि की मातृभाषा राजस्थानी होने से राजस्थानी भाषा में अत्यन्त स्वाभाविकता और माधुर्य के दर्शन होते हैं।
कुछ गीत एवं गद्य हिन्दी में भी लिखे गए हैं। हिन्दी-गद्य में विशुद्ध संस्कृत शब्दों का मिश्रण है । जैसे 'कायापुर पट्टन का पत्र' में (पृ० १) स्वस्ति, प्रणम्य, परमेष्ट, जगदानन्द, जगज्ज्योति, ज्ञानगम्य, गुणरत्नाकर, क्षमासागर, कुमतिकुठार, समस्तदूषणापहं, (पृ० २) पूर्णरूपेण, चैतन्यचन्द्र, प्रकृत्यनुकूल, (पृ० ८) पतितपावन, अधमोद्धारण आदि ।
हिन्दी में लिखे गद्य एवं पद्य- दोनों में उर्दू भाषा के शब्द भी पाए जाते हैं । जैसे-'महावीर-स्तुति' (अर्चनांजलि पृ० २) में, दुनियां से नफरत है, महावीर से मोहब्बत है, मंजिल की दूरी है, मन की मजबूरी है। 'दीक्षार्थी उद्बोधन' (अर्चनांजलि पृ० ७) में, यौवन की मदमस्त उमंगें, ऐशो अशरत ठोकर मार ।
'कायापुर पट्टन का पत्र' के गद्य में उर्दू-शब्दों का प्रयोग बहुलता के साथ है। जैसे-(पृ० १) गरीबनवाज़, गरीब परवर, परवरदीगार, सदाहुक्मी,
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द्वितीय खण्ड | ७८ गुलाम, कमतरीन, (पृ० २) फौजवक्षी, कामदार, मुद्देमुसाहिब, बेदरकारी, लापरवाही, (पृ० ३) बजीर, खुदगर्जीप्रसाद, पोद्दार, छड़ीदार, चोपदार, भिश्ती, (१०४) खजाने, गुलजार, तुर्रा, (१०५) मुखसदाबाद की घाटी, जागीरदार, भोमिए, मरम्मत, तलब, कीमत, (पृ० ६) गैरहाजिर, (पृ० ७) कर्जा, जर्दपने, काफूर, खरदरा, सुर्खाब के पर (पृ० ८) सल्तनत दरकार है, जरूरत, हांसिल, खास मुद्दा, गरज आदि।
इतना ही नहीं, 'अर्चना' जी के गद्य में अंग्रेजी भाषा के शब्द (कहीं कहीं पर रोमन-लिपि के साथ) भी यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। जैसे 'कायापुर पट्टन' (पृ० १ में) 'Almighty' 'Your most Obedient Servant', (पृ० २ में) प्रिंस
ऑफ वेल्स, (पृ० ३ में) प्राइममिनिस्टर, जाइन्ट कोतवाल, कलक्टर, बैरिस्टर, सोलीसिटर, इंसपेक्टर, एडीटर, इंस्ट्रक्टर, (पृ० ४ में) पब्लिक, (पृ० ५ में) मीटर फ्यूज, मशीनरी, (पृ०७ में) बाईकाट, (पृ० ८ में) प्राइवेट सेक्रेटरी।
लोकोक्तियों को प्रचुरता-'अर्चना' जी की भाषा में लोकोक्तियों, मुहावरों एवं पारम्परिकताओं की प्रचुरता के कारण उनके गीतों तथा गद्य में अत्यन्त सरसता, स्वाभाविकता, सरलता एवं मधुरता के दर्शन होते हैं । उदाहरण के लिए देखिए(सुधामञ्जरी पृ० १०४)-पाज प्रांगणिए सुरतरु फलियो,
शरद पूनम का चांद ज्यूं चमके। (कायापुर पट्टन....) पृ० २-कुए में ही भांग पड़ गई,
पृ० ६-छक्के छूट गए, पृ० ७-न घर का न घाट का,
पृ० ७-सुर्खाब के पर सटक सीताराम हो गए। ६. गीतों की संगीतात्मकता _ 'अर्चना' जी के सभी गीत संगीतात्मकता से ओतप्रोत हैं । प्रत्येक गीत, किसी न किसी पारम्परिक या आधुनिक गीत की तर्ज पर बनाया गया है। गीत के प्रारंभ में वह तर्ज लिख दी गई है। जैसे 'अर्चनाञ्जलि' के 'गुरुगुणगान' (पृ० ३) की तर्ज है—'थारी मुरली मनेडो मोह'। ७. संपादन और संयोजन
स्वतंत्र काव्य-रचना के अतिरिक्त 'अर्चना' जी ने अनेक ग्रन्थों का सुन्दर सम्पादन-संयोजन भी किया है । ऐसे ग्रन्थों में प्रमुख हैं-मुनिश्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ प्रकाशन, ब्यावर (राजस्थान) द्वारा, हिन्दी अनुवाद के साथ १९६२ में प्रकाशित आचार्य हेमचन्द्र रचित 'योगशास्त्र' तथा १९७२ में प्रकाशित प्राचार्य हरिभद्र सूरि का 'जैनयोगग्रन्थ चतुष्टय'।
इन ग्रन्थों के प्रारंभ में 'अर्चना' जी ने अपने वक्तव्य भी लिखे हैं जिनमें अपनी योग के प्रति अभिरुचि एवं योग के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। अन्य
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महासती श्री अर्चना' जी की काव्य-साधना / ७९ सम्पादित पुस्तिकाओं के नाम हैं-पंचामृत, श्रद्धासुमन, समाधिमरण-भावना (जीवन-संध्या की साधना) आदि ।
इस प्रकार 'अर्चना' जी ने, अपने श्रमण-जीवन के महनीय पचास वर्षों में अध्यात्मसाधना के साथ जो काव्यसाधना की है, वह प्रशंसनीय तो है ही, उससे निःसंदेह, उनका अध्यात्म-मार्ग भी प्रशस्त हुआ है।
मैं सती-प्रवर उमरावकुंवरजी 'अर्चना' महाराज की दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के अवसर पर भगवान् जिनेन्द्रदेव से उनके काव्यसाधना एवं अध्यात्मसाधना के निर्बाध प्रवर्तन-प्रवर्धन के साथ उनके कल्याणमय शतायु-जीवन की कामना करता हूँ।
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महासती श्री "अर्चनाजी" के व्यक्तित्व-निर्माण में युवाचार्यप्रवर
श्री मधुकर मनिजी म. का
योगदान
। आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री एम. ए. (त्रय) पी-एच. डी, काव्यतीर्थ विद्यामहोदधि
भारतीय साहित्य में "बहुश्रुत'' एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्द है। यह समस्त पद है । बहुब्रीहि समास हैं । “बहु श्रुतं येन सः बहुश्रुतः-जिसने बहुत सुना हो, ज्ञानी जनों के मुख से तत्त्व-श्रवण करने का अनेक बार अवसर प्राप्त किया हो, वह बहुश्रुत कहा जाता है ।" यह इसका व्युत्पत्तिगम्य अर्थ है। विशिष्टज्ञान-सम्पन्न, चिन्तन-सम्पन्न व्यक्ति को बहुश्रुत ही कहा जाता है, बहुपठित या बहुअधीत नहीं । बहुपठित व बहुश्रुत में बड़ा अन्तर है । यद्यपि पठन का भी अपना महत्त्व है, किन्तु श्रवण का महत्त्व वास्तव में अनन्यसाधारण है। जिन महापुरुषों से श्रवण किया जाता है, उनके जीवन में एक तपोमय, त्यागमय, संयममय, साधनामय वैशिष्ट्य होता है। उनसे जो सुनने को मिलता है, वह अनुभव की कसौटी पर कसा हा सत्य का वह शुद्ध स्वरूप होता है, जिससे श्रोता अपने जीवन में, अपने आप में चेतनामय स्फूर्ति का अनुभव करता है।
अतएव इस जगत् में जिन किन्हीं ने परम पवित्र, परमोच्च आध्यात्मिक विभूति प्राप्त की, उन्होंने केवल शास्त्राध्ययन द्वारा ही ऐसा नहीं किया, वरन् महापुरुषों के सान्निध्य, सत्संग, उद्गार-श्रवण का उन्हें विशेष अवसर प्राप्त होता रहा।
महासतीजी उमरावकंवरजी म. के व्यक्तित्व-विश्लेषण के सन्दर्भ में यह एक प्रकट तथ्य है कि उन्हें ज्ञान, साधना, धर्म, सेवा आदि की दष्टि से बडे-बडे सात्त्विकचेता महापुरुषों का, महान् नारियों का मार्गदर्शन प्राप्त रहा, उस ओर महासतीजी का सहजरूप में प्रयत्न रहता रहा। महासतीजी के व्यक्तित्व-निर्माण में अपने युग के परमोबुद्धचेता मनीषी, महान् ज्ञानयोगी, बहुश्रुत साधक, पण्डितरत्न युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. का बहुत बड़ा योगदान रहा । श्री जयमलगच्छ से सम्बद्ध होने के नाते दोनों में परस्पर सहज आत्मीयता का भाव तो सदा रहा ही, युवाचार्यश्री महासतीजी के आदर्श, उत्कृष्ट व्यक्तित्व में बहुमुखी सात्त्विक, समुन्नतिप्रवण भावनाओं का दर्शन करते थे, अतः वे सदा उनके लिए एक परम पावन प्रेरणा-पंज के रूप में कार्यशील रहे । उनका यह अंकन था कि यह साधिका अध्यात्म के क्षेत्र में निःसन्देह अपनी साधना द्वारा एक कीर्तिमान स्थापित करेगी,
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युवाचार्यप्रवर श्रीमधुकरमुनिजी म० का योगदान / ८१
प्रतएव वे उन्हें सद्गुणों के अर्जन में सतत प्रयत्नशील रहने का संदेश देते रहे । महासतीजी भी उनके प्रेरक संदेशों के अक्षर-अक्षर को अनमोल रत्नों की ज्यों अपने जीवन में संजोती रहीं । उसी का परिणाम था कि वे प्रज्ञा, साधना, शक्ति-संचय और लोक-कल्याण के क्षेत्र में उत्तरोत्तर आगे बढ़ती गईं। यही कारण है कि आज श्रमण संस्कृति के विशाल क्षेत्र में उनका अपना अनुपम स्थान है ।
महासती श्री उमरावकुंवरजी म. को अपने ग्यारह चातुर्मास्य परम श्रद्धास्पद युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की सन्निधि में करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनमें वे उनसे लाभान्वित होते रहने का अनवरत प्रयत्न करती रहीं । वे चातुर्मास्य निम्नांकित हैं
वि० सं०
१९९५
१९९७
२०००
२००६
२०१०
२०१३
२०१४
२०२०
२०२१
२०३३
२०३८
स्थान
ब्यावर
पाली
ब्यावर
तिवरी
अजमेर
ब्यावर
जोधपुर
महामंदिर
रायपुर
नागौर
नोखा
अपने दीक्षित जीवन के प्रारम्भ से ही विद्याध्ययन, शास्त्राध्ययन की दिशा में महासतीजी को युवाचार्यश्रीजी का प्रेरणादान, योगदान उपलब्ध रहा । उसे उन्होंने अपने अभ्यासक्रम में एक अमूल्य सूत्र के रूप में संजोया । युवाचार्यश्रीजी से प्रज्ञापनासूत्र आदि के अध्ययन का भी उन्होंने रायपुर चातुर्मास्य में सुअवसर प्राप्त किया । युवाचार्यश्री के मार्गदर्शन में वे अपने को विद्या के क्षेत्र में उत्तरोत्तर अधिकाधिक अग्रसर करती रहीं ।
सम्मिलित चातुर्मास्यों के समय तथा किसी एक ग्राम या नगर में एक साथ हुए प्रवास के समय महासतीजी प्रायः प्रतिदिन अपनी श्रमणी अन्तेवासिनियों के साथ उनकी सेवा में उपस्थित होती, उनसे उनके बहुमूल्य, अनुभूत सत्यों का श्रवण करतीं । वह ज्ञान-संचय का क्रम सदा अकुण्ठित व अबाधित रहा ।
वाचार्यश्री बड़े गुणग्राहक थे, अत्यन्त सहिष्णु थे, हर किसी स्थिति में अपने को संतुलित बनाये रखने में सर्वथा सक्षम थे । छोटे से छोटे गुणसंपन्न व्यक्ति का वे सम्मान करते थे । ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में सदा निरत रहते थे । युवाचार्यश्रीजी
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HURRENain
द्वितीय खण्ड / ८२ के ये सभी गुण महासतीजी को मानो विरासत में मिले हों. क्योंकि युवाचार्यश्री उन्हें इस दिशा में सदैव उद्बोधित करते रहते थे।
उद्बोधन दो प्रकार का होता है-एक, तपःपूत, साधनानिष्ठ, पावन जीवन से सहज रूप में प्राप्त होता है। वैसा जीवन ही अपने आप में प्रेरणा-स्वरूप होता है। दूसरे, समय-समय पर ऐसे उच्च कोटि के पुरुषों द्वारा उद्गीर्ण वाणो सान्निध्यसेवी में, उपासक में, श्रद्धालु में प्रेरणा जगाती है । ये दोनों ही उद्बोधन महासतीजी म. को युवाचार्य प्रवर से अनवरत प्राप्त रहे।
जिनके जीवन में समता तथा सौमनस्य का भाव परिव्याप्त होता है, वे किसी की अवज्ञा नहीं करते, किसी की न्यूनताएँ देख उसकी अवहेलना नहीं करते, उसे जीवन में सात्त्विकता और पवित्रता संजोने का संकेत देते हैं । गुणाधिकों के प्रति उनमें स्वभावतः समादर की भावना होती है, गुणों को देख वे प्रमुदित होते हैं। महासतीजी में यह सब है । जिनके विकास में जहाँ एक ओर उनकी अन्तःप्रेरणा कार्यशील रही, दूसरी और उनके आराध्यचरण गुरुवर्य द्वारा प्रदत्त स्फुरणा।
मानव में अनेक दुर्बलताएँ हैं। उन दुर्बलताओं में अपने वैयक्तिक सम्बन्ध, ममत्व आदि कुछ ऐसे हैं, जिनके उभर आने पर व्यक्ति सत्य पक्ष से विचलित हो जाता है, असत्य पक्ष को स्वीकार कर लेता है, उसे बल देता है किन्तु सच्चे साधक, सन्त, तितिक्षु, मुमुक्षुजन ऐसा कभी नहीं करते । निश्चय ही ऐसे व्यक्ति अभिनन्दनीय, सम्मानीय और सत्करणीय होते हैं । महासतीश्री अर्चनाजी के जीवन का यह पक्ष बहत उजागर है, उबुद्ध है । इन दुर्बलताओं से वे सर्वथा विमुक्त हैं। उनके धर्मनायक गुरुवर्य का जीवन इन विशेषताओं से बड़े सुन्दर रूप के सम्पृक्त था, जिनकी अवतारणा महासतीजी के जीवन में अक्षुण्ण रूप में हुई।
___ संघीय जीवन समष्टि-सापेक्ष होता है । विविध व्यष्टियों का सामष्टिक रूप अपने अस्तित्व-निर्वाह के लिए कुछ व्यवस्थाक्रम, विधिक्रम चाहता है। उनमें अनशासन का प्रमख स्थान है। अनुशासन के बिना क्या धार्मिक, क्या राजनैतिक, क्या सामाजिक कोई भी जीवन भली भाँति चल नहीं सकता। शास्त्रों में "अणुसासिनो ण कुप्पेजा"-अनुशासित होने पर व्यक्ति कोधित न हो
जो कहा गया है, बहुत मार्मिक है। अनुशासन संगठन का प्राण है । ज्यों ही अनुशासन की शृखला टूट जाती है, संगठन चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, ध्वस्त-विध्वस्त हो जाता है। महासती श्री अर्चनाजो श्रमण-परम्परा के जिस
आम्नाय से सम्बद्ध हैं, उसमें परम श्रद्धास्पद, अप्रतिम ओजस्वी, मनस्वी, श्रमण रत्न मुनि श्री जोरावरमलजी म. जैसे उत्कृष्ट कोटि के संत हुए हैं, जिनका अनुशासन सर्वत्र विश्रुत था । अनुशासन की वह सुन्दर शृखला परम्परानुगत रूप में महासतीजी को महान सन्त, सौम्यचेता मुनि श्री हजारीमलजी महाराज, धर्मशासन के महान् सेवी स्वामीजी श्री ब्रजलालजी महाराज, परमाराध्य युवाचार्य प्रवर निविकारचेता, परमोदारमना श्रीमधुकरमुनिजी महाराज से विशेष रूप से प्राप्त हुई। आप स्वयं अनुशासन में रहना जानती हैं और अपनी अन्तेवासिनियों को स्नेह
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युवाचार्यप्रवर श्रीमधुकरमुनिजी म. का योगदान / ८३
और वात्सल्य के साथ अनुशासन में रखना भी । यह उचित और उपयुक्त भी है, जो स्वयं अपने आपको अनुशासन में रखने में समर्थ होते हैं, वे ही औरों को अनुशासन में रख पाने में समर्थ होते हैं । जो धर्म संघ अनुशासित होता है, वह सदा उन्नतिपथ पर अग्रसर होता जाता है । यही कारण है, आपकी अन्तेवासिनियाँ ज्ञान में, साधना में जन-कल्याणमूलक कार्यों में सर्वथा निरत रहती हैं, अग्रसर रहती हैं ।
हमारे देश में पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था का प्रारम्भ से ही बड़ा जोर रहा है । इसलिए नारी को जीवन के अनेक क्षेत्रों में विकास की दिशा में आगे बढ़ने से रोका जाता रहा है । इसके पोछे पुरुष की स्वप्राधान्यमूलक भावना, जो स्वार्थ प्रेरित निम्नवृत्ति है, काम करती रही है । यद्यपि श्रमण संस्कृति में नारी को विकास का पर्याप्त अवसर प्रदान किया गया, किन्तु वह पुरुष - प्राधान्य से सर्वथा विमुक्त नहीं रह सकी । उदाहरणार्थ - जैन परम्परा में विशेषतः श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में साधु शैक्षिक विकास की दृष्टि से विभिन्न परीक्षाओं में सम्मिलित होते रहे हैं, किन्तु साध्वियों के लिए वैसा करने में कुछ-कुछ निषेध सा रहा है । युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म० एक क्रान्तिकारी महापुरुष थे । उन्होंने इस निषेध को पोषण नहीं दिया, साध्वियों को परीक्षाओंों में सम्मिलित होने की स्वीकृति प्रदान की । फलतः महासतीजी ने पाथर्डी बोर्ड की जैन सिद्धांताचार्य तक की परीक्षाएँ उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण कीं । वे अपनी अन्तेवासिनियों को भी इस दिशा में सदा प्रेरित करती रहीं । फलतः उनकी शिष्यात्रों ने जैन सिद्धांताचार्य, साहित्यरत्न, एम० ए० प्रादि उच्च परीक्षाओं में सफलता प्राप्त की। आज भी वे उत्तरोत्तर अध्ययनरत हैं। यह हर्ष का विषय है कि उनकी प्रमुख शिष्या आर्या सुप्रभाजी पी-एच० डी० कर रही हैं, जिनका शोध ग्रन्थ लगभग सम्पन्नता पर है ।
महापुरुषों की प्रेरणा से कितना बड़ा लाभ प्राप्त होता है, व्यक्तित्व के सन्निर्माण में कितना बड़ा सहारा मिलता है, यह सब महासतीजी श्री अर्चनाजी के जीवन से स्पष्ट प्रतीयमान है । श्रीश्रर्चनाजी ने एक उच्च संस्कारनिष्ठ परिवार में जन्म प्राप्त किया। जब वे साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट हुई तो उन्हें महान् साधकसाधिकाओं के श्रीचरणों की सन्निधि का सुअवसर प्राप्त हुआ । विद्वत्न युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी जैसे धर्मनायक का तत्त्वावधान, मार्गदर्शन और निर्देशन मिला, इन्हीं का यह परिणाम है कि वे आज प्रर्हत जगत् में अपने व्यक्तित्व की जो आध्यात्मिक छटा विकीर्ण कर रही हैं, साधनामयी, परम योगनिष्ठ सन्नारी के सौमनस्य और सौजन्य के पावन प्रतीक, अधिनेता स्व० युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी को विशेष श्रेय है । यद्यपि वे महापुरुष हमारे बीच आज सदेह विद्यमान नहीं हैं, किन्तु उनकी अमूर्त, अव्यक्त सूक्ष्म प्रेरणा अपनी इस माहात्म्यशीला अन्तेवासिनी को सतत प्राप्त है जिसे वे जीवन की अध्यात्म यात्रा में एक परमोत्कृष्ट सम्बल के रूप में स्वीकार करती हैं ।
अनुपम है, अद्भुत है । इस महान् व्यक्तित्व-निर्माण में संयम, सारल्य, श्रुतमहोदधि, धर्मशासन के यशस्वी
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द्वितीय खण्ड / ८४ यह महायोगेश्वरी, साधना की दिव्य मूर्ति, गौरव-गरिमामण्डिता सन्नारी अपने अध्यात्म-अधिनायक, कुशल जीवन-शिल्पी गुरुवर्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज की कितनी अनुग्रह-भाजन थीं, यह इसीसे प्रकट है, वे इन्हें अपनी बाई भूजा समझते थे, जिसे वे अनेक प्रसंगों पर सहर्ष व्यक्त करते थे। उन महापुरुष . का अपनी इस माहात्म्यशीला, उनकी कल्पना के अनुरूप अध्यात्म, योग, साधना, विद्या, सेवा एवं करुणा की परम दिव्य संपदा से समाप्लुता अन्तेवासिनी के प्रति असीम अनुग्रह तो था ही, बड़ा आदर भी था। वे संघ-संगठन, जन-जागरण आदि से सम्बद्ध कार्यों में महासतीजी का ससम्मान परामर्श लेते, उनके विचारों को बड़ा आदर देते, उनकी सूझबूझ की प्रशंसा करते। युवाचार्यप्रवर महासतीजी को धर्मसंघ का बड़ा संबल मानते थे । वे उन द्वारा उपहृत, उपस्कृत धर्मोपायन सादर सहर्ष स्वीकार करते। धर्मसंघ के महान अधिनेता, करुणा के सागर ऐसे महान गुरु का वियोग निश्चय ही महासतीजी के लिए एक वज्रोपम आघात है, वे मन ही मन कितनी उद्वेजित हैं, यह शब्दों का विषय नहीं है। किन्तु वे एक महान् गुरु की महान् अन्तेवासिनी हैं। अपने गुरुवर्य की गौरवमयी आध्यात्मिक विरासत आत्म-बल के सहारे सहेजती हुई विधिवैपरीत्य के हलाहल का हँसते-हँसते पान करती हुई अपने परमाराध्य गुरुवर्य के चरण-चिह्नों पर चलती हुई अपने विराट व्यक्तित्व से एक ऐसे इतिहास का सर्जन कर रही हैं, जो सदा अविस्मृत, उज्जीवित तथा अजर-अमर रहेगा।
महान् साधनामयी महासती के स्वस्थ एवं शतायुर्मय जीवन की कोटि-कोटि मंगल-कामनाएँ।
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प्रेरणास्रोतस्विनी महासती श्री अर्चनाजी
शत शत अभिनन्दन " जैन आर्या महासती श्री चंपाकुवरजी म० जैनसिद्धान्ताचार्य
"जीवन कितना दीर्घ है, यह है व्यर्थ विचार।
जीवन कितना स्वच्छ है, सोचो बारम्बार ॥" कौन कितना दीर्घायु है, कितने लम्बे काल तक जीता है, यह चिन्तन वास्तव में कोई महत्त्व नहीं रखता । मनुष्य को हर समय बार बार यह सोचना चाहिए कि उसका जीवन कितना पवित्र है, उज्ज्वल है, धर्मानुगत है। वह अल्पकालिक जीवन भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है, जिसमें धर्म, शील, सदाचार और जन कल्याण के कार्य जुड़े रहते हैं । ऐसे व्यक्ति के जीवन का एक क्षण भी बहुत मूल्यवान् होता है । वह दीर्घ जीवन, लम्बी जिन्दगी किस काम की, जिसमें मनुष्य पापाचरण, दुराचरण से अपने को मलिन बनाता रहता है । वैसा जीवन व्यर्थ है, मानवता का कलंक है । जीते सभी हैं, किन्तु जीने का सच्चा विज्ञान, सच्ची कला जीवन के पारखी एवं कलाकार ही जानते हैं । वे जीने का यथार्थ सार समझते हैं, इसलिए उसका सदैव सदुपयोग करते हैं।
जीवन शब्द में तीन वर्ण हैं-जी, व, तथा न ।
जी-यह जीने की ओर इंगित करता है। जीना वैसा हो, जिससे अपना कल्याण सधे, जहाँ तक शक्य हो, परकल्याण भी सधे । "जी" वर्ण जीतने की ओर भी इंगित करता है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया तथा लोभ, ये आत्मा के अखूट खजाने को लूटने वाले डाकू हैं । प्रत्येक सत्त्वनिष्ठ व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह इन डाकुओं को जीते, पराभूत करे। वास्तव में इन पर विजय प्राप्त करना ही सच्ची विजय है , जिसके लिए बहुत बड़े आत्मबल की आवश्यकता है।।
व-"व" वर्ण विनय, विनम्रता तथा वमन का द्योतक है। जीवन में विनय का बड़ा ऊँचा स्थान है । धर्म को विनयमूल कहा गया है । जिसमें विनय नहीं होता वह सही माने में धर्म का आचरण नहीं कर सकता। विनय जीवन में पवित्रता, शालीनता, शुचिता एवं मृदुता आदि अनेक गुणों का संचार करता है।
वमन का अर्थ उलटी है । जो व्यक्ति उलटी कर उसी को खाने लगता है, वह कितना घिनौना व गंदा होता है, यह कोई कहने की बात नहीं। जिसमें जरा भी विवेक होता है, वह कभी भी वैसा नहीं करता । आध्यात्मिक दृष्टि से इसका तात्पर्य यह है कि जीव चौरासी लाख योनियों में अनन्त बार परिभ्रमण कर चुका । परिभ्रमण कर उनको छोड़ता गया। एक प्रकार से यह सभी योनियाँ उसके वमन
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द्वितीय खण्ड / ८६
के सदृश है । पुनः उनमें जाते रहना अपने ही वमन किए पदार्थ को खाने के समान अति निम्न कोटि का कार्य है । इसलिए मानव को चाहिए कि वह ऐसा प्रयत्न करे, ऐसा जीवन अपनाए, ऐसा पवित्र, धर्मानुमोदित आचरण करे, जिससे उसे बार बार इन परिभुक्तवमित योनियों में न जाना पड़े। वह ऐसी साधना करे, जिससे जन्म एवं मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छुटकारा प्राप्त हो सके ।
न
न - "न" वर्ण नहीं का द्योतक है। वह इंगित करता है प्रकार के पापकृत्यों से बचे, दुर्भावना, दुश्चिन्तन व दुष्प्रयत्न से वह हर समय यह चिन्तन करता रहे कि मैं ऐसे कार्य कभी लाख जीवयोनियों में ढकेलने वाले हैं । ऐसे कार्यों से मैं सदा जगत् में जो भी परिय और परित्याज्य है, उसे में अपने जीवन में हूँ ।
कि मनुष्य अठारह अपने को दूर रखे । करू जो चौरासी
अपने को दूर रखूं । कभी भी स्थान
इस संक्षिप्त से विवेचन में जोवन का सारा जाता है । विवेकशील व्यक्ति इसका मर्म समझते हैं और वे इसके अनुरूप जीवन पद्धति स्वीकार करते हैं । वैसे व्यक्तियों का जीवन आत्मकल्याणपरक तो होता ही है, साथ ही ताथ जन-जन के लिए एक वरदान बन जाता है । मुझे उल्लेख करते अपार हर्ष का अनुभव होता है। कि हमारे धर्म-संघ की परम माननीया, प्रखर विदुषी, महान् अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमराव कुंरजी म. सा. 'प्रर्चना' का जीवन इन विशेषताओं से संपूर्णतया परिव्याप्त है । उनके जीवन का क्षण-क्षण राग, द्वेष आदि आत्म-शत्रुओं के विजय तथा आध्यात्मिक प्रानन्द, जो भौतिक पदार्थों से सर्वथा निरपेक्ष है की उपलब्धि के प्रयास में व्यतीत होता रहा है, आज भी हो रहा है ।
जीवन जगत् के लिए या जागतिक पदार्थों के लिए नहीं है वरन् जगत् या जागतिक पदार्थ विवेक के साथ जीवन के सच्चे लक्ष्य की पूर्ति में निमित्त के रूप में यथोचिततया प्रयोजनीय हैं। उदाहरण के लिए हम भोजन के लिए नहीं हैं, भोजन देह चलाने के लिए वांछित है । साधनाकाल में देह एक निमित्त के रूप में अपेक्षित है । तब तक भोजन और उस जैसी अन्य अनिवार्य भौतिक वस्तुएँ अपनी-अपनी उपयोगिता लिए रहती हैं । ऐसा चिन्तन लिये चलने वाला व्यक्ति देह में, खानपान में, स्थान में, व्यक्तियों में आसक्त नहीं होता । जहाँ जीवन में अनासक्तता श्रा जाती है, वहाँ व्यक्ति साधना के सत्पथ पर अनवरत श्रागे बढ़ता जाता है । महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. के जीवन में यह सत्य सर्वथा विकस्वर है, देदीप्यमान है । सचमुच वे साधना की जीवन्त प्रतिमा हैं। उनके जीवन का हर कार्य अध्यात्म से है । उनकी सन्निधि में आने वाला व्यक्ति अपने को धन्य मानता है ।
महासतीजी ने जीवन में साधना द्वारा जो उपलब्ध किया, उपलब्ध किए जा रही हैं, वह वस्तुतः श्रद्भुत है । महासती जी म. की यह अपनी विशेषता है वे अपनी उपलब्धियों को केवल अपने तक समेटे रखना नहीं चाहतीं । वे जन-जन में उन्हें विकीर्ण करती जाती हैं । मुमुक्ष, बोधिसत्व की ज्यों उनकी यह अन्तः कामना है कि इस शोक-संकुल जगत् का प्रत्येक प्राणी प्राध्यात्मिक प्रहलाद से प्रापूर्ण हो ।
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शत शत अभिनन्दन / ८७
हूँ
महासतीजी म. की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर मैं श्रद्धापूर्ण, सुभक्तिपूर्ण हृदय से उनका शत-शत अभिनन्दन करती और यह कामना करती हूँ, वे अपने लक्ष्य के साफल्य की दिशा में उत्तरोत्तर, प्रविश्रान्त रूप में बढ़ती जाएं । उनके साधना संपृक्त जीवन की प्राध्यात्मिक मधुर सुरभि हम सब तक, जन-जन तक पहुंचे, सबके जीवन को आध्यात्मिक प्रेरणा से श्रोतप्रोत बनाए । इस ऐतिहासिक वेला पर मैं उनका भूरि-भूरि अभिनन्दन करती हूँ । उनके स्वस्थ, सुदीर्घ जीवन की सत्कामना करती हूँ । निश्चय ही महासती हम सबके लिए अध्यात्मयोग एवं साधना की प्रेरणास्रोतस्विनी हैं, जिनकी भावोद्वेलनमयी तरंगे हमें साधना की दिशा में अग्रसर होने में सदैव संबल प्रदान करती हैं ।
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योग, संयम, साधना, सेवा तथा करुणा की सतत प्रवहणशीला
निर्मल मन्दाकिनी महासती श्री अर्चनाजी
साध्वी उदितप्रभा "उषा"
भारतवर्ष सदा से संस्कृति-प्रधान देश रहा है। यहाँ पर वैदिक, बौद्ध एवं जैन संस्कृति की त्रिधाराएं सतत गतिशील रही हैं । ये तीनों ही अपने अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं।
विश्व की अन्याय संस्कृतियों में जैन संस्कृति का एक विशिष्ट एवं गौरवपूर्ण स्थान ही नहीं, अपितु भारत की महिमा गरिमा में यह प्राण-शक्ति के समान है। यह अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है । यम, नियम, व्रत, संयम, स्वाध्याय की संस्कृति है। प्रस्तुत संस्कृति का यह शाश्वत ध्येय रहा है कि जीवन का लक्ष्य भोग नहों योग है, संग्रह नहीं त्याग है, राग नहीं विराग है, अंधकार नहीं प्रकाश है, मृत्यु नहीं . अमरता है।
जैन संस्कृति ने आध्यात्मिक जागरण और सामाजिक क्रान्ति के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य मनीषियों, ऋषियों के चिन्तन और मनन की अन्तःसलिलाओं द्वारा भारतीय मानस को सदैव उर्वर और प्रकाशपूर्ण बना कर चिरन्तन एवं सनातन सत्यों का उद्घाटन किया है। उसी संस्कृति के उद्गाता, सजग प्रहरी, अनन्त आस्था के आयाम, अन्तर के तेज से दीप्तिमान् मुखमण्डल, उन्नत और प्रशस्त भाल, अन्तरभेदिनी दृष्टियुक्त उज्ज्वल नयन कमल, जन मंगल का उपदेश देती मुखरित प्रज्ञा, प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व से विभूषित श्रद्धया गुरुवर्या श्री श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" हैं। आप अपने साधनामय जीवन के पचास वर्ष पूर्ण कर रही हैं। यह लम्बी अवधि शास्त्रानुशीलन, स्वाध्याय, लोक जागरण, धर्म-प्रभावना, सेवा एवं ध्यान-योग की दृष्टि से अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। इस अवसर पर आपके बहुमान हेतु एक विराट अभिनन्दन ग्रंथ समर्पित किया जा रहा है। यह साधनासम्पन्न साधकों का अभिनन्दन है। साधक साधना का सम्मान करता है और संसारी साधक का अभिनन्दन । साधना परम तत्त्व मोक्ष की उपासना है। परम साधना का उदात्त संकल्प, समुद्यम आप जैसे विरलतम व्यक्तित्व में ही पाया जा सकता है।
व्यापक, विराट्, ऊर्जस्वल व्यक्तित्व के परिचय, प्रशस्ति को शब्द-शृखला की कड़ियों में आबद्ध करना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश है । आपके गुणों का
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निर्मल मन्दाकिनी : महासती श्री अर्चनाजी / ८९
विश्लेषण करना वस्तुतः नन्हीं नन्हीं भुजाओं से अपार समुद्र को पार करने जैसा संभव कार्य है ।
इस अवसर पर मैं कुछ ऐसी ही स्थिति अनुभव कर रही हूँ, कि एक तुच्छ किरण अपने सूरज के सम्बन्ध में क्या प्रकाश डाले, एक बूंद अपने सागर के लिए क्या कहे ? मूक मन ग्राह्लादित कर देने वाली अनन्त सुरभि के लिए क्या बतलाए ? फिर भी मैं अपनी समग्र शक्ति को सहेजती हुई कुछ साहस बटोरती हूँ, अपनी आराध्या पर कुछ लिखने के लिए ।
जहाँ महाराणा प्रताप जैसे वीर पैदा हुए, प्राचार्य हरिभद्र जैसे ज्ञानी जन्मे, जहाँ प्रेमदीवानी मीरां के गीतों ने वायुमण्डल को पवित्र बनाया, योगी श्रानन्दघन की साधना फली, उसी राजस्थान के दादिया गाँव में पिताश्री मांगीलालजी एवं माताश्री अनूपादेवी की कुक्षि से वि. सं. १९७९ को जन्माष्टमी के दिन आपका जन्म हुआ | आपके जन्म पर श्रानन्द की उमियां तरंगित हुईं । किन्तु कालगति को कौन जानता है, सात दिन के पश्चात् ही माता का वियोग हो गया । अब तो मातृवात्सल्य से वंचित उमा के लिए पिता का स्नेह ही जीवन का सम्बल रहा ।
आपने बचपन में ही उज्ज्वल, निर्मल संस्कार आपने पिताजी एवं बड़े पिताजी श्रीमान् लक्ष्मणसिंहजी, बड़ी माताजी उगमकंवरबाईजी से प्राप्त किये, जो आपके लिए जीवन में पावन पाथेय के सदृश सिद्ध हुए और जो आपको संघर्ष के बीहड़ वन भी आगे बढ़ने की सदा प्रेरणा देते रहे
जीवन के बारहवें वर्ष में प्रवेश करते ही ग्रापश्री को परिणय सूत्र में श्राबद्ध कर दिया गया ।
विधि की कैसी विडम्बना रही कि विवाह के दो वर्ष बाद ही आपके पति श्रीमान् चम्पालालजी ने इस संसार के महाप्रयाण कर दिया। हंसी खुशी, आँखों की चमक और मन का रोमानी उत्साह पलक झपकते समाप्त हो गया। फूल - सी कोमल बालिका यह सब कुछ समझ भी न सकी और जीवन एक मोड़ पर आकर खड़ा हो गया ।
संक्षिप्त जीवन की विपदाओं के बीच ग्रापके चिन्तन ने एक अभिनव मोड़ लिया । पुनः आशा की किरण चमकने लगी । आपके अन्तस्तल में संयमी जीवन अपनाने की भावना जाग्रत हुई और पिता-पुत्री संयम मार्ग पर अग्रसर होने को तत्पर हुए । 'जहाँ चाह वहाँ राह' की उक्ति के अनुसार आपके पिताश्री ने मारवाड़प्रवर्तक स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा. के पास एवं आपने महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा. की शिष्या के रूप में श्रमण दीक्षा अंगीकार की । - श्रापश्री का नाम उमा से महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. रखा गया ।
संयम ग्रहण करने के पश्चात् श्रपश्री विनय को जीवन का मूलमन्त्र, गुरुआज्ञा को धर्म की श्राधारशिला, जिज्ञासा को संयम की दीपशिखा के रूप में उत्तरोत्तर विकसित करती गईं । आपने गुरुवर्या के विधि-निषेधपरक संकेत-सूत्रों
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द्वितीय खण्ड / ९० में अपना सारा चिन्तन केन्द्रित कर दिया । कुशाग्र बुद्धि एवं लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठा के बल पर ज्ञान-ज्योति का विस्तार होने लगा और अतिशीघ्र ही आपने जैन आगमों एवं शास्त्रों का गहन परिशीलन कर दर्शन, साहित्य, वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, महाभारत, कुरान, बाइबिल आदि ग्रन्थों का पारायण कर अध्ययन . में बड़ी प्रौढ़ता प्राप्त की।
यह बड़े महत्त्व की बात है, विपुल ज्ञान होने पर भी आपमें जरा भी अहंकार नहीं है । यही आपके जीवन की समुन्नति का मूल मंत्र रहा । मैंने बहुत ही निकटता से देखा है, अनुभव किया है आपकी सौम्यता सहृदयता, स्नेहशीलता, सरलता, सहजता और सदा प्रमुदित रहने वालो भव्य मुख-मुद्रा हर किसी को प्रभावित किये बिना नहीं रहती, जो आपके संपर्क में आता है।
अापका बाह्य व्यक्तित्व जितना समज्ज्वल, आकर्षक तथा शान्त है. आपका अन्तरंग भी उतना ही निश्छल, निर्लेप एवं दर्षण की तरह साफ-सुथरा है । आपका हृदय शिशु के समान सरल एवं निर्मल है । आपके व्यवहार में बनावट/सजावट प्रदर्शन नाममात्र को नहीं है । “जहा अन्तो तहा बहि" के अनुसार आपका भीतरबाहर समान है, न दुराव, न छिपाव, न छल, न प्रपंच ।
आपकी वाणी में माधुर्य, गाम्भीर्य, सारल्य, सारस्य समन्वय एवं अनेकान्त के तार झंकृत होते हैं। आपश्री की तर्कणा-शक्ति अदभत है। प्रश्नकर्ता जिस रुख में प्रश्न पूछता है, उसी मुद्रा में पाप उत्तर देते हैं।
अापकी प्रवचन शैली बड़ी मधुर एवं प्रभावपूर्ण है। आपके प्रवचन सदा मौलिकतायुक्त एवं हृदयस्पर्शी होते हैं। आपके प्रवचनों में गम्भीर आध्यात्मिक विषयों पर, योग साधना पर विस्तृत व्याख्याएं एवं तात्त्विक उपदेशों का प्राधान्य होने पर भी श्रोता कभी ऊबते नहीं हैं । आपकी यह विशेषता है कि गूढ से गूढ तात्त्विक विषय को भी आप बड़ा रोचक, सरल, आकर्षक एवं मोहक बना
देते हैं।
आपश्री किसी भी जाति से अनुबंधित नहीं हैं । अत: आपके प्रवचन सर्वजनहिताय, सर्वजन सुखाय होते हैं । आपश्री के प्रेरक उपदेशों से प्रभावित होकर सहस्रों लोगों ने माँस, मदिरा, द्यूत, आखेट आदि सप्त-कुव्यसनों का त्यागकर सात्त्विक जीवन जीने का संकल्प किया।
आपके मन में सभी धर्मों के प्रति समन्वयात्मक दृष्टिकोण विद्यमान है। इसलिए आप अपने प्रवचनों में सभी धर्मों की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं का यथावसर प्रतिपादन करते रहते हैं । आपके अनुसार यह संसार अनेक धर्मरूपी फूलों की वाटिका है । जिस प्रकार एक वाटिका में तरह-तरह के फूल एक साथ अपनी-अपनी रंग-विरंगी छटाओं से वाटिका की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार विश्वरूपी वाटिका में भिन्न-भिन्न धर्म भी अपने-अपने सिद्धांतों द्वारा अनुपम प्राध्यात्मिक आनन्द का मार्ग बताते हैं।
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निर्मल मन्दाकिनी : महासती श्री अर्चनाजी / ९१
आपके मन में दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य गुरु की कृपा से ही परमात्मा को पा सकता है। आपका मन इस बात से बड़ा पीड़ित है कि आज के विद्यार्थियों के मन में अपने गुरु के प्रति तनिक भी श्रद्धा, भक्ति व प्रेम नहीं रहा । आज छात्रों को विनय, शिष्टता, अनुशासन, कर्तव्यपालन और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसलिए अाज चारों ओर उच्छृखलता और अनुशासनहीनता का वातावरण व्याप्त हो रहा है। भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए आपके हृदय में तड़प है, पीड़ा है । बालक-बालिकाओं को सुसंस्कारित करने हेतु आपने "नैतिक शिक्षा और नई पीढ़ी" पर २०१ निबन्धों के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है, छात्र-छात्राओं के नैतिक निर्माण में वे उपयोगी सिद्ध होंगे।
आपश्री के विचारों में सूक्ष्म, गहन चिन्तन तथा मानवीय दृष्टिकोण सन्निहित है। आपकी यह स्पष्ट धारणा है कि हम स्वर्ग और मोक्ष की चर्चा करने से पूर्व अपने-आपको मानव बनाने का प्रयास करें। विश्व के समग्र प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव, अहिंसा तथा परोपकार मानवता के पवित्र सोपान हैं।
धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध में आये दिन विभिन्न विचार सामने आते हैं परन्तु आपश्री का स्पष्ट मत है कि विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं । विज्ञान को धर्म और नीति के अंकुश की आवश्यकता है। अहिंसा की जंजीर बांधकर धर्म के निर्देश पर यदि विज्ञान का उपयोग किया जाय तो विश्व में स्थायी शान्ति स्थापित की जा सकती है।
आपश्री श्रुताराधना एवं साहित्यसाधना द्वारा अज्ञानान्धकार में भटक रहे जनजीवन को ज्ञान का दिव्य प्रकाश प्रदान कर रही हैं । आपके साहित्य में प्रतिभा की प्रौढ़ता, कल्पना की सूक्ष्मता, अनुभव की गहनता, अभिव्यक्ति की स्पष्टता, भावों की यथार्थता एवं रमणीयता, आदर्श की स्थापना तथा शिवत्व की भावना निहित है।
सचमुच आपका बेमिसाल साहित्य मानव मूल्यों का एक ऐसा अद्वितीय दस्तावेज है, जो जीवन-पथ के पथिकों का अपनी गन्तव्य दिशा में अग्रसर होने में सदा पथ-प्रदर्शन करता रहेगा।
आपका जीवन सर्व जन-हिताय, सर्व जन-सुखाय के पवित्र उद्देश्य के प्रति सर्वथा समर्पित है । प्रात्मकल्याण के साथ ही संसार के प्राणिमात्र को कल्याण की मंगल-भावना आपके अन्तरतम में सदैव हिलोरे लेती रहती है। आपने अपने शिष्यासमुदाय के साथ देश के विभिन्न प्रान्तों में बड़ी लम्बी-लम्बी पद-यात्राएं की, जिनमें राष्ट्र के जन-जीवन को निकट से देखने और उन्हें सदुपदेश देने के महत्त्वपूर्ण अवसर प्राप्त हुए। इन पद-यात्राओं के बीच आपने जन-जन को धर्म का वास्तविक स्वरूप हृदयंगम कराया और दिशाहीन एवं विभ्रान्त लोक-मानस का मार्ग प्रशस्त किया। आप अपने साधानामय जीवन की आध्यात्मिक सौरभ विकीर्ण करते हुए
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द्वितीय खण्ड / ९२ जहाँ भी पधारते हैं, वहाँ जन-जन के मस्तिष्क में अपने, अमल, धवल व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ जाते हैं ।
दया की साकार प्रतिमा श्रद्ध या गुरुवर्या के हृदय में दीन दुःखी जनों के प्रति करुणा को निर्मल मन्दाकिनी सदा प्रवाहित रहती है। वस्तुतः संत का जीवन पारमार्थिक जीवन है । स्वयं कष्ट सहन कर दूसरों के जीवन का निर्माण करना उनका लक्ष्य होता है । वे अपने दुःख से नहीं अपितु जगत् के प्राणियों को अन्तर्वेदना से आकुल-पर्याकुल देखकर सिहर उठते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है
सन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कविन्ह पै कहे न जाना।
निज परिताप द्रवइ नवनीता परदु.ख द्रवहिं संत सुपुनीता ।। संत का कोमल हृदय औरों के वेदनाजनित परिताप से नवनीत की भांति पिघल उठता है । "साधवो दीनवत्सला:" के अनुसार संत दीन जनों के प्रति वत्सल, दयालु होते हैं । केवल इतना ही नहीं वे पाप, ताप, प्राधि-व्याधि, उपाधि से भी छुटकारा दिलवाते हैं । कहा है
गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुर्यथा।
पापं तापं च दैन्यं च, ध्नन्ति सन्तो महाशयाः॥ अर्थात् गंगा पाप का, चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता का नाश करता है किन्तु महामना संत पाप, ताप और दैन्य-तीनों से छुटकारा दिला देते हैं । आपश्री में यह सब साक्षात् परिदृश्यमान है।
आपश्री ने दीन-दुःखी- वात्सल्य हेतु अनेक स्थानों पर पारमार्थिक संस्थाएं स्थापित की, जो निरन्तर अपनी सेवाएं दे रही हैं । उदाहरणार्थ-जोधपुर, नागौर तबीजी, अजमेर, उदयपुर, खाचरौद (म० प्र०) दौराई, मद्रास प्रभृति अनेक स्थानों में ये संस्थाएं स्वधर्मी-सहयोग सेवा समिति के नाम से प्रशंसनीय कार्य कर रही हैं।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में लब्धियों का वर्णन पाता है । अहिंसा, संयम, तप, जप आदि की साधना से विशिष्ट विस्मयकारी लब्धियाँ-शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। आपश्री को कौनसी शक्ति-लब्धि प्राप्त है, यह तो विशेषज्ञ ही बता सकते हैं, पर इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि आपकी साधना ने सिद्धि का संस्पर्श कर लिया है। तभी तो हजारों व्यक्ति परिताप से ग्रस्त रोते-बिलखते आते हैं और प्रापश्री के दर्शन कर एवं मांगलिक श्रवणकर परिताप-मुक्त होकर अकथनीय प्रात्मशान्ति प्राप्त करते हैं. प्रसन्न-मद्रा में प्रस्थान करते हैं।
भयंकर से भयंकर बीमारियों से कष्ट पाते सहस्रों जनों को हमने स्वस्थ एवं प्रसन्न होते देखा है।
आपश्री त्रस्त एवं पीड़ित व्यक्तियों को पूज्य श्रीजयमलजी म. सा० का एवं महामंत्र नवकार का जाप बताते हुए यही फरमाते है कि दिव्य महान् आत्मा के
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निर्मल मन्दाकिनी : महासती श्री अर्चनाजी / ९३
प्रति अपनी श्रद्धा का कल-कल करता निर्भर यदि पूरे वेग से प्रवाहित होगा तो विकट से विकट और भारी से भारी बाधा की चट्टान भी ध्वस्त हो जायेगी | आवश्यकता है, एकाग्रता के साथ प्रभु का, इष्ट का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाए ।
जीवन एक प्रयोगशाला की भाँति है, जहाँ सुख, दुःख, उत्थान, पतन, हर्ष, विषाद सागर के ज्वार भाटे की तरह आते जाते रहते हैं । आपके जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आये किन्तु आप उन झंझावातों, संघर्षों के वात्याचक्र में सुमेरु की तरह अडिग, अटल, अचल रहे और सभी विघ्न बाधाओं को आत्मबल द्वारा पार करते हुए, "चरैवेति चरैवेति" के अनुसार उत्तरोत्तर अनवरत प्रागे बढ़ते रहे । आपने अपने जीवन में अनेकों बार अमृत के स्थान पर गरल पान किया, जिसे यदि शायर रघुपतिसहाय फिराक के शब्दों में कहा जाय तो यों होगा -
" शिव का विषपान तो सुना होगा । मैं भी ऐ दोस्त पी गया आँसू ||
आपश्री ने संघ में, समाज में, धर्म की प्रभावना / विकास हेतु अपनी साधना को चरम लक्ष्य तक पहुँचाने हेतु एवं शिष्याओं के जीवन को उज्ज्वल - परमोज्ज्वल बनाने हेतु अपनी पूर्ण चेतना एवं शक्ति लगाई, चाहे कितने की संघर्षो को झेलना पड़ा हो ।
आपश्री ने अमृत और विष दोनों को समान रूप से स्वीकार किया । फूलों के स्थान पर शूलों का वरण किया । कष्ट एवं विपत्ति के समय में भी आपके मुखमण्डल पर म्लान छाया का जरा भी आभास दृष्टिगोचर नहीं होता । घोर मुसीबतों के अवसर पर भी प्राप प्रफुल्लित गुलाब की तरह मुस्कराते रहते हैं । संकट की घड़ियों में भी आप धैर्य नहीं खोते और अपने साहस, धैर्य एवं शौर्य से दूसरों को भी प्रेरणा देते हैं ।
वास्तव में संघर्ष की क्रूरता को मुस्कान की सुरम्यता में परिवर्तित करने की विचित्र, द्वितीय कला आपश्री में है । आपश्री ने संघर्षों के कंटकाकीर्ण मार्ग पर
बढ़ते हुए भी जगत् को मृत ही लुटाया है, संयम, योग, साधना की सुरभि बिखेरी।
जैसाकि एक शायर ने कहा है
मेरी कथा तो विषपान की कथा है जदीम ।
मैं जहर पीकर जमाने को दे सका अमृत ||
जीवन में आने वाली मुसीबतों के साथ-साथ दुनियाँ द्वारा आलोचना, टीकाटिप्पणी, निन्दा-बुराई अथवा इसके विपरीत प्रशस्तिगान, यशोगाथा - गान अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभाव से सहन करने की प्रापश्री में अद्भुत क्षमता है । संत कवि सुन्दरदास के शब्दों में आप संत का वास्तविक जीवन जी रहे हैं
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द्वितीय खण्ड / ९४
कोउक निन्दत कोउक वन्दत, कोउक भाव सों देत है लच्छन, कोउक कहत ये मूरख दीसत, कोउ कहत ये चतुर विचच्छन । कोउक आय लगावत चन्दन, कोउक डारत है तन-तच्छन,
सुन्दर काहू पे राग न रोष सो, ये सब जानिये सन्त के लच्छन । मानव घर से, परिवारों से, अपने तन से, कांचन-कामिनी से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है, उनसे अपना ममत्व मिटा सकता है परन्तु यश, सम्मान और प्रतिष्ठा से ममत्व तोड़ पाना बहुत कठिन है। किन्तु यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आप लोकषणा को सर्वथा जीत चकी हैं। अापको ख्याति, प्रशस्ति और कीर्ति की जरा भी चाह नहीं है।
यदि कभी कोई साधु, साध्वी भाई-बहिन आपके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो आपका एक ही उत्तर होता है
"शब्दजालं महारण्यं, चित्तभ्रमणकारणम् ।" अर्थात् यह प्रशंसात्मक शब्दों का जाल वह बीहड़ वन है, जो चित्त को भटका देता है।
वास्तव में आपकी यह असाधारण विशेषता है।
योग एवं ध्यान आपश्री के जीवन में सहज रूप में व्याप्त है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा, निःसन्देह आपने ध्यान-सिद्धि प्राप्त की है। उसी का यह परिणाम है कि आपके मुख पर सात्त्विकता, पवित्रता, निर्मलता एवं दिव्यता की उज्ज्वल आभा साक्षात् परिलक्षित होती है। आपने ध्यान-साधनामूलक प्रेरणा द्वारा अनेकानेक साधक-साधिकाओं का साधना-पथ प्रशस्त किया है, उन्हें मार्ग-दर्शन दिया है, जिसका अवलम्बन कर आज वे अपने लक्ष्य की ओर सतत गतिशील हैं।
आप धन्य हैं, आपका जीवन धन्य है, आपकी साधना धन्य है। आपकी छत्रछाया हमें चिरकाल-पर्यन्त प्राप्त रहे, यही हमारी हार्दिक आकांक्षा है।
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अगाध धैर्य, साहस एवं आत्मबल की प्रतिमूर्ति, श्रमण-संस्कृति को समुन्नायिका
एक महान नारी
. साध्वी कंचनकंवर
जगद्-गुरु भारतवर्ष सदा से ऋषि-मुनियों की कर्म-भूमि रहा है। इस पावन धरा पर अनेकानेक महापुरुषों का, सन्नारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने अपने त्यागमय, तपोमय, शौर्यमय जीवन द्वारा राष्ट्र का, धर्म का, समाज का मुख उज्ज्वल किया। महासतीजी श्रीउमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" उन महान् आत्माओं की स्वर्णिम शृखला की वह देदीप्यमान कड़ी हैं, जिसकी उज्ज्वल आभा से आध्यात्मिक जगत् विभासित है।
राजस्थान के मेरवाड़ा जनपद के अन्तर्गत दादिया नामक ग्राम है, जिसे परम श्रद्ध या महासतीजी को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक छोटे से ग्राम की पुण्य-भूमि में प्रादुर्भूत इस रत्न ने दिगदिगन्त में जो अपनी दिव्य-ज्योति विकीर्ण की, उसका अपना एक गौरवमय इतिहास है।
इस संसार में अनेक प्राणी आते हैं, चले जाते हैं। जन्म लेना उन्हीं का सार्थक है, जो अपने ज्ञान तथा साधना द्वारा स्वयं का कल्याण तो करते ही हैं, जन-जन को ज्ञानामत का पान करा धर्म के पावन-पथ पर अग्रसर होने को प्रेरित भी करते हैं। पूजनीया गुरुणी म. सा. का जीवन एक ऐसा ही पवित्र, उत्तम जीवन है, जो धार्मिक जगत् में एक प्रकाश-स्तंभ के रूप में सुशोभित है। __ परम पूज्या, गुरुणी म. सा. ने राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हिमाचलप्रदेश, काश्मीर, मध्यप्रदेश ग्रादि अनेक प्रान्तों में पाद-विहार करते हए भारत के लगभग अर्धाधिक भाग को अपनी धर्म-देशना द्वारा लाभान्वित किया है, जन-जन के हृदय में धर्म का बीज-वपन किया है।
महासतीजी म. का प्रात्मबल असीम है । वे धैर्य एवं सत्साहस की प्रतिमूर्ति हैं। संकटों, कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करने में उन्हें आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त होता है, जो उनके प्रबल, प्रखर व्यक्तित्व का द्योतक है। यही कारण है, जिन दुर्गम क्षेत्रों में जाने से साधुवन्द भी हिचकिचाते थे, आपश्री ने लोक-कल्याण की भावना लिये अपनी शिष्याओं सहित सोत्साह वैसे स्थानों में विहरण किया । समय-समय पर स्थान-स्थान पर अनेक कठिनाइयाँ पाईं, किन्तु आपने उनका धीरता, वीरता और गंभीरता के साथ सामना किया। जो आत्मबल के धनी होते हैं, उनके समक्ष विघ्न एवं संकट कहाँ टिक पाते हैं ! सबके सब पराभूत हो जाते हैं।
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द्वितीय खण्ड / ९६ किसी कवि ने ठीक ही कहा है
तूफानों के भय से जिसके साहस में बाधा आई है, ऐसे कमहिम्मत राही ने अपनी मंजिल कब पाई है। जो मंजिल का मतवाला है संकट से कब घबराता है,
छोटा सा निर्झर बहने को चट्टानों से टकराता है । सहिष्णुता, समता, सरलता और सौम्यता आपके जीवन में कूट-कूट कर भरी है। किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में पाप विचलित नहीं होती। आपके मन में स्व, पर का भेद नहीं है। समता की उदार भावना अापकी रग-रग में व्याप्त है। आपका हृदय शिशु की ज्यों सरल, सुकोमल और सौम्य है। प्रवंचना, विडम्बना और प्रदर्शन आपको छू तक नहीं गये हैं। हम सभी अन्तेवासिनी साध्वियाँ वास्तव में परम सौभाग्यशालिनी हैं, जिन्हें ऐसी दिव्यगुणालंकृता महिमामंडिता गुरुवर्या प्राप्त हुई।
हमारे प्रातःस्मरणीय गुरुदेव, बहुश्रुत पण्डितरत्न युवाचार्यप्रवर श्रीमधुकरमुनि जी म. सा. आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को सदैव बड़ा सम्मान प्रदान करते रहे । वे तो आपको अपनी एक भुजा मानते थे। वास्तव में आपकी गरिमा वर्णनातीत है।
मैं अपनी प्रातःस्मरणीया, परम पूजनीया गुरुणी महाराज के प्रति अगाध श्रद्धा, आदर एवं सम्मान की उदात्त भावना लिए सर्वथा, सर्वदा उनके श्रीचरणों में समर्पित हूँ। उनकी अहेतुकी कृपा सदा मुझ पर बनी रहे। वे युग-युग तक धर्मशासन को उद्दोप्त करती रहें, जन-जन को सत्पथ दिखाती रहें, प्राणीमात्र का कल्याण करती रहें।
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श्रमणी - आकाश के उज्ज्वल नक्षत्र गुरुणीजी म. सा.
साध्वी हेमप्रभा, साहित्यरत्न
मुझे हार्दिक प्रह्लाद है, प्रसन्नता है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साकार प्रतिमा, ज्ञान- सागर में डुबकी लगाने वाले, करुणा की प्रतिमूर्ति, प्रवचन- शिरोमणि, काश्मीरप्रचारिका परम पूज्या गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. " अर्चना " की 'दीक्षा - स्वर्णजयन्ती' के पावन प्रसंग पर एक शानदार "अभिनन्दन ग्रन्थ " प्रकाशित होने जा रहा है । इस सुन्दर अवसर पर हृदय के निर्मल भावों की एक लघु भेंट आपके श्रीचरणों में समर्पित करती हुई मैं अपने आपको सौभाग्यशाली अनुभव कर रही हूँ ।
श्रद्धया गुरुणीजी म. सा. एक ऐसे रत्न की भांति हैं, जिनसे ज्ञान, प्रेम, दया करुणा, योग, तप आदि की प्रतिपल प्रतिक्षण कान्ति बिखरती रहती है । इस कान्ति की प्रभा में मुझे भी जीवन का सही अर्थ पहचानने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
आपके नाम का प्रत्येक वर्ण जीवनदर्शन को आत्मसात् किये हुए है । ऐसा प्रतीत होता है कि आपका नाम संख्यातीत सद्गुणों की खान है । जैसे हम पुष्प को देखते हैं लेकिन उसकी सुरभि को केवल अनुभव करते हैं, इसी प्रकार आपके गुणों की महक से मैं आपके नाम का निम्नलिखित अर्थ अनुभव करती हूँ ।
मन को प्रसन्न करने वाली आपश्री की मांगलिक एवं ध्यान साधना में एक अलौकिक शक्ति है । इस अलौकिक शक्ति का प्रभाव मैंने स्वयं अपनी आँखों से अनेकों बार देखा है । प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि जो लोग रोते बिलखते आते हैं, गुरुणीजी म. सा. का मांगलिक श्रवण कर हँसते-मुस्कराते हुए विदा होते हैं । मैं भी जब सिर दर्द एवं चक्कर से छटपटाती हूँ, तब मात्र म० सा० श्री का मांगलिक ही मेरा उपचार करता है ।
हाथों से आशीर्वादरूपी दान देकर तथा वृद्ध, अपाहिज रोगी आदि की सेवा कर, आपश्री, इसकी सार्थकता को सिद्ध करते हैं । जो व्यक्ति आपश्री से केवल आशीर्वादरूपी दान प्राप्त कर लेता हैं, वह निहाल हो जाता है और अपने आपको धन्य समझता है । इसके अतिरिक्त आप अपने हाथों से सेवा करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो। हमने कई बार अनुभव किया है कि जब कभी हम छोटों के कोई दर्द हो जाय तो आप शीघ्र ही सेवा के लिए तैयार हो जाते हैं । आपकी एक और विशेषता यह है कि आप श्राजानुबाहु हैं। यह
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द्वितीय खण्ड / ९८ विलक्षणता महात्मानों में विशेषरूप में दृष्टिगत होती है। महात्मा गांधी आजानुबाहु थे।
सरलता अापके व्यक्तित्व को विलक्षण विशेषता है। सामने खडा व्यक्ति भले ही कटु वाणी में कुछ कहे, लेकिन आप उसे चुपचाप सुन लेते हैं, तुरन्त उसे कुछ नहीं कहते हैं । यह सरलता आपको सभी के निकट ले जाती है। हम देखते हैं कि किसी कार्य के लिए कोई साध्वी या अन्य कोई व्यक्ति आकर पूछे-"क्या फलां काम ऐसा कर लिया जाय ?" तो आप सहज में उत्तर देते 'हाँ' कर लो'। कुछ क्षण बाद दूसरी साध्वी या व्यक्ति पाकर पूछ लेवें कि क्या फलां काम वैसा न करके ऐसा कर लिया जाय ? तो भी आपका प्रत्युत्तर स्वीकृति में ही होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि आपमें इतनी सरलता है कि हर कोई अपनी बात के लिए आपको सन्तुष्ट कर लेता है ।
Nothing is more simple than greatness
Indeed to be simple is to be great - "Emerson" तीक्ष्ण वाणी कहकर दूसरों के मन को मत दुखायो-यह आपका सदैव उपदेश एवं शिक्षा रही है। आप कभी भी किसी को भी चुभती बात या जिसे सुनने से किसी का मन दुःखी एवं अशांत हो जाय, ऐसी वाणी नहीं फरमाते हैं । आप एक उर्दू कवि के कथन को सदैव दोहराते रहते हैं
"फितरत को नापसंद है सख्ती जबान में।
पैदा हुई ना इसलिए हड्डी जबान में ॥ अर्थात्-"कुदरत को जबान की सख्ती यानि कठोरता पसंद नहीं है, अतः उसने जबान में हड्डी का निर्माण नहीं किया ।" इस का मूक संकेत यही है कि जबान स्वयं जैसी कोमल है, वैसी वह कोमल शब्दों का उच्चारण भी करे ।
श्रा का अर्थ है चमक । प्रापश्री की तपस्या एवं योग-साधना में सूर्य की सी चमक है । जिस प्रकार सूर्योदय के पूर्व चारों ओर अंधकार की चादर बिछी हुई होती है, और ज्यों ही सूर्य की प्रथम किरण उत्कीर्ण होती है, चारों ओर फैला अंधकार भाग जाता है, उसी प्रकार आपकी ध्यान-साधना, जप, तप के समक्ष अज्ञान एवं अवगुण रूपी अंधकार स्वयं ही तिरोहित हो जाता है।
उर अर्थात् हृदय प्रापका सागर सा विशाल एवं करुणा, दया, सहिष्णुता, प्रेम आदि से ओत-प्रोत है । आप किसी दीन-हीन गरीब व्यक्ति की दयनीय स्थिति अथवा किसी प्राणी को भूख-प्यास या अन्य किसी कारण से तड़पते तरसते नहीं देख पाते हैं । एकदम आपका मन दयार्द्र हो जाता है । लोक-कल्याण की भावना से जहाँ-जहाँ आप विचरण करते हैं, वहाँ आप गरीबों, अनाथों आदि का ध्यान रखते हुए, ऐसी संस्थायें खुलवाते हैं, जिनसे उन्हें कुछ न कुछ सहायता मिलती रहे । आज भी राजस्थान के जोधपुर, नागौर, अजमेर, अलवर आदि क्षेत्रों में तथा मध्यप्रदेश के खाचरौद आदि नगरों में ये संस्थायें चल रही हैं।
"A good heart is worth gold." - "Shakespear".
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GANPaniran
श्रमणी-आकाश के उज्ज्वल नक्षत्र गुरुणीजी म. सा० / ९९
मधुरता का गुण पाना, एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । आपमें मधुरता उसी तरह विद्यमान है, जिस तरह तिल में तेल, ईख में रस, दही में मक्खन, फूलों में सुगन्ध समाहित होती है । कठोर से कठोर शब्द कहने वाले, उग्र से उग्र स्वभाव वाले को आप अपने माधुर्यपूर्ण शब्दों से शान्त कर देते हैं। "Calm appears when stroms are past, love will have it's hour at last."
राग आपकी इतनी सुरीली एवं मीठो है कि हर कोई आपके श्रीमुख से भजन अथवा गीत सुनकर आकर्षित हो जाता है । जब पाप भजन अथवा गीत फरमाते हैं, तब ऐसा लगता है मानों माँ सरस्वती आपके कंठ में ही विराजमान हो । अापकी कोयल-सी मधुरवाणी को सुनकर मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षो भी भावविभोर हो जाते हैं। आपको हर तरह के गीत, लोकगीत, निर्गुणी भजन प्रादि कण्ठस्थ हैं । जो कोई श्रोता अापके श्रीमुख से भजन अथवा गीत एक बार सुन लेता हैं, उसके कर्ण पुन: उस वाणी को सुनने के लिए पिपासु बने रहते हैं। आज भी कई बार गाँवों में रात तक ग्रामीण जनता आपके भजन सुना करती है।
तचन-सिद्धि तो आपमें पर्णतया परिलक्षित होती है। आप जो सहज, सरल एवं निर्मल भाव से कह देते हैं वह अक्सर होता ही है। आपके श्रीमुख से अचानक निकले हुए शब्दों का साकार रूप लेते हुए प्रत्यक्ष रूप से देखा है । एक वर्ष पूर्व की ही बात हैं। हमारा चातुर्मास उज्जैन के महावीर भवन में था । अनेक दर्शनार्थी आये, उनमें एक थे नोखा निवासी श्रीमान् भंवरलालजी सा० चोरडिया । वे अपने परिवार सहित कार में सुबह ९ बजे करीब आये और १२ बजे करीब उन्होंने पुनः रवाना होने के लिए म० सा० श्री से मांगलिक माँगी। म० सा० श्री के मुंह से अचानक निकला कि-श्रावकजी ! आप आज मत जानो, आपका आज, इस समय जाना उचित नहीं है, लेकिन होनहार को नमस्कार है, वे राजस्थान के लिए रवाना हो गये। राजस्थान तो दूर ही रह गया और उनका बीच मार्ग में ही कार एक्सीडेण्ट हो गया । ऐसी दुर्घटना हुई कि परिवार सहित वे वहीं के वहीं समाप्त हो गये । पाठको ! काल के गाल से कोई किसी को नहीं बचा सकता है, लेकिन महापुरुषों की वाणी भी असत्य नहीं जाती है।
कूदन के समान आपका चेहरा सदैव चमकता दमकता रहा है । आप प्रत्येक परिस्थिति में, चाहे वह अनुकल हो या कि प्रतिकल, एक रूप बने रहते हैं। आपके जीवन में ऐसी विकट परिस्थितियों को आपने हँसते, मुस्कराते हुए समभाव से सहन किया जैसे नदी की लहरें विशाल शिलाखण्ड से टकराकर लौट जाती हैं वैसे ही विषम परिस्थितियाँ आपके समक्ष से विवश होकर लौट जाती हैं।
"He who foresees calamities suffers them twice over." --"'Porteus"
वन हो चाहे भवन, सब जगह आप एक समान पाये जाते हैं। यह नहीं कि, शहरों नगरों में तो खुश नजर आते हों और गाँवों अथवा जंगलों में सुस्त । आपके प्रवचन का ही विषय है-"वन में रहो चाहे भवन में, पर मन में रहना सीखो" आप अक्सर फरमाते भी हैं कि ध्यान मौन-साधना जितनी अच्छी जंगल
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द्वितीय खण्ड / १००
अर्थात् एकान्त में होती है, उतनी किसी, शहर, नगर या हलचल युक्त स्थानों में नहीं हो सकती । इसके अलावा आपको जितनी खुशी एवं प्रसन्नता साधकों से मिलकर होती है, उतनी नेतागणों से नहीं ।
रणभूमि में जिस प्रकार वीर योद्धा, वीरतापूर्वक लड़ते हुए शत्रुत्रों का सामना करता है, उसी प्रकार आप सदैव कठिनाइयों को प्यार से निमंत्रण देते हैं तथा साहस एवं धैर्य से सामना करते हैं । प्राप प्रत्येक परिस्थिति को उच्च शिखरों वाले पर्वत के समान धीर, वीर, गंभीर, अचल, अटल एवं अडिग रहते हुए शान्त एवं समभाव से सहन करते हैं। आपके जीवन का यह आलोक-सूत्र रहा है--- “Strength is life, weakness is death fear is the root of sin."
जीवन सारा संघर्षो से गुजरा है, और आप प्रारम्भ से अब तक संघर्षों से जूझते रहे हैं । श्री का संपूर्ण जीवन संघर्षों की कहानी है। कॉन्फ्र ेन्स के कार्याध्यक्ष तपस्वी श्रीमान् हस्तीमलजी सा० मुणोत के शब्दों में "केवल सुना है कि शिव ने विषपान कर उसे गले में अटकाये रखा, उसे न तो नीचे उतारा और न ही बाहिर थूका । लेकिन प्रत्यक्ष रूप से महासतीजी ( अर्चनाजी) को देखा है, जिन्होंने संघर्षरूपी विष को बाहर न थूककर अर्थात् किसी के सामने अभिव्यक्त न कर, अपने पेट में उतार लिया और उसे पचा लिया । " इस प्रकार इस युग में जनकल्याण हेतु आप सचमुच “शिवा” बन गईं ।
अन्त में, अपनी लेखनी को विराम देती हुई इस शुभ अवसर पर चरणार्पित होने वाली पुष्पाजंलि में मेरा एक कुसुम जो अन्तःकरण की सम्पूर्ण श्रद्धा सत् कामना द्वारा प्रसूत है, समर्पित करती हुई मंगलकामना करती हूँ कि आप चिरायु एवं पूर्ण स्वस्थ रहकर, दीर्घ काल तक स्नेह की सरस वर्षा करते रहें और मैं आपकी छत्रछाया में, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अभिवृद्धि करती हुई अपने जीवन को अधिकाधिक चमका सकूं ।
इसी शुभ कामना के साथ
करुणामूर्ति ! दया के सागर ! काटो भव के बन्धन, सारा जग हर्षित प्रमुदित हो करता नत अभिनन्दन । दीक्षा - स्वर्णजयन्ती के अवसर पर आनन्दित मन, "हेमप्रभा " कर रही श्रापका भूरि-भूरि अभिवन्दन ॥
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सन्तसंसर्ग के बिना जीवन उस कागज के फूल की भांति है सुन्दर रंग तो हैं पर सुगंध नहीं.
जिसमें
दिव्यविभूति श्री उमराव कुंवरजी 'अर्चना'
कन्हैयालाल गौड़, उज्जैन
व्यक्तित्व की महिमा और महत्ता प्रकाश के ही समान पावन एवं उज्ज्वल होती है, उसकी महानता सर्वव्यापी होते हुए भी लौकिक चक्षुत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होती । वह तो प्रकाश और पवन सदृश सर्वव्यापी होते हुए प्रत्येक स्थान को आलोकित और प्राणमय करती रहती है । उसकी एक ही झलक प्रातःकालीन सूर्य की प्रथम तेजोमय रश्मि की भाँति नवीन सृष्टि और आलोक विकीर्ण कर देती है, ऐसे व्यक्तित्व में जीवन के आदर्श यथार्थ बन जाते हैं ।
अध्यात्मयोगिनी दिव्यविभूति महासती श्री उमरावकुंवरजी अर्चना एक उच्चकोटि की साध्वी वक्ता हैं, भक्ति की धारा में डुबकियाँ लगाने वाली उच्च विचारक, उच्च कोटि की विद्वान् तथा लेखिका हैं । हृदय से बड़ी सरल, सबका हित चाहने वाली, अत्यन्त मृदुभाषी तथा देव-गुरु-धर्म के प्रति अटल श्रद्धा-भक्ति रखने वाली प्रसन्नमुख और आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी साध्वीरत्न हैं । जिनके निकट एक बार आने वाला बार-बार उनसे मिलना चाहता है, बोलना चाहता है, सुनना चाहता है रसमय मधुर वाणी और पाना चाहता है उनका आशीर्वाद ।
मुखाकृति पर अपार तेज, हँसमुख चिन्तनवृत्ति और मौन -साधक । आप वक्तृत्व कला में बड़ी निपुण हैं । आपके प्रवचनों में सरलता एवं सजगता के अतिरिक्त व्यक्ति की मर्यादाओं का समाज और लोकदर्शन के साथ समन्वय भारतीय संस्कृति के विभिन्न धर्मों और दर्शनों की बाह्य विविधता के भीतर जो साम्य और एकरूपता है, जो मानवीय मर्यादायें हैं, निष्पक्ष और निःसंकोच भाव से परिलक्षित होती हैं ।
व्यक्तित्व बहुमुखी है । वे नवनीत से कोमल, फूलों सी सौरभमय हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी ने सन्त / साध्वी हृदय की परिभाषा देते हुए लिखा हैसन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कविन पर कह्या न जाना । निज दुख द्रवहि सदा नवनीता, पर दुख द्रवहि सन्त पुनीता ॥ श्री 'अर्चनाजी' मानव स्वभाव की मर्मज्ञ एवं तत्वदर्शी साध्वी हैं । उन्होंने संसार को हस्तामलकवत् देखा और सत्य को अपनी विलक्षण शैली में प्रस्तुत किया । इनकी वाणी में जीवन की एक दृष्टि है तथा कल्याण की दिशा देने का अमोघ मन्त्र है । संयम में स्थिर आन्तरिक और बाह्य परिग्रहों से मुक्त छह काया
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द्वितीय खण्ड | १०२
के रक्षक पंच-महाव्रतधारी इस दिव्य-विभूति में मनुस्मृति के समस्त लक्षण, बौद्ध धर्म की समस्त पारमिताएँ और ईसा के समस्त आदेश दृश्यमान हैं। लोक कल्याण की भूमिका में जो जीवन और चरित्र रहा करते हैं व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण के भीतर जो जीवनदर्शन पीठिका के रूप में स्थित रहता है-वही व्यक्तित्व, जीवनचरित्र और दर्शन इनका है। श्री मद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस्तत् तदेवेतरो जनः ।
सो यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ अर्थात् देव आत्माओं का अनुकरण लोकहित का साधन है। ऐसे महान् साधु साध्वी को, व्यक्तित्व को कोटि-कोटि मेरी वन्दनाएँ हैं ।
इनका जन्म भाद्रपद सप्तमी वि० सं० १९७९ को दादिया ग्राम (किशनगढ़) में हुआ । साढ़े ग्यारह वर्ष की आयु में इनका विवाह कर दिया गया किन्तु दाम्पत्य-जीवन अधिक समय तक न रह सका । दो वर्ष पश्चात् ही उसका अन्त हो गय।। ऐसी संकट की घड़ी में भी इन्होंने साहस और धैर्य नहीं छोड़ा। जिसके भाग्य में आध्यात्मिक सुख लिखे हों वह सांसारिक सुखों को तुच्छ समझता है । आध्यात्मिक सुखों से आत्मा को परम शान्ति प्राप्त होती है, उसे भौतिक सुख तो क्या संसार की उत्तम वस्तु भी बाँध नहीं सकती और हुआ भी यही । साधु साध्वी भूले भटके राहियों का मार्ग प्रदर्शन करते हैं। ऐसी ही महासती श्री सरदारकुंवरजी म० सा० इन्हें मांगालिक सुनाने आईं । इनकी अतवेदना देखकर समझकर उनका हृदय भी द्रवित हो गया। धीरे-धीरे इनका हृदय साधना-पथ की ओर अग्रसर होता गया और अन्त में पन्द्रह वर्ष की वय में साधना का कठोर मार्ग अपनाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
दीक्षित होने के पश्चात् मन को एकाग्र कर प्राकृत, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी आदि भाषाओं का सतत अध्ययन किया और निकल पड़ी आत्मविश्वास के साथ समाज के कल्याणार्थ साधना के कठोर पथ पर ।
__ पचास (५०) वर्ष की संयम साधना में इनके तीन प्रवचनसंकलन प्रकाशित हुये हैं, जो इस प्रकार हैं--(१) आम्र मंजरी, (२) अर्चना और आलोक और (३) अर्चना के फूल । इन तीनों प्रवचन-संकलनों का मैंने सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया है। इनके प्रवचन में पांडित्य प्रदर्शन का आभास नहीं होता है वरन् व्यक्ति की मर्यादाओं का समाज और लोकदर्शन के साथ समन्वय देखा जा सकता है और भारतीय-संस्कृति के विभिन्न धर्मों और दर्शनों की बाह्य विविधता के भीतर जो साम्य और एकरूपता है, जो मानवीय मर्यादाएँ हैं उन्हें ही निष्पक्ष और निःसंकोच भाव से, बिलकुल सीधी मन की गहराई को छूने वाले सरल शब्दों में अपने मन की बात कह दी। इनके प्रवचन मानव समाज ही नहीं वरन् समूचे राष्ट्र को, विभिन्न धर्मों को एक सूत्र में बाँधने की प्रेरणा देते हैं ।
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'दिव्यविभूति श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' | १०३
मानव जीवन का परम लक्ष्य परमात्मा में मिलना है, परमात्मा के चरणों में अपने आपको समर्पित करना है । वास्तव में निष्कपट होकर परमात्मा के चरणों में अपने आपको समर्पित कर देना ही परमात्मा की अर्चना है।
प्रभु तक अर्चना के फूल ले जाने की साधक को सुदीर्घ यात्रा उभयमुखी होती है, एक बाह्य-मुखी और दूसरी अन्र्तमुखी । 'अर्चना के फूल' लोक-यात्रा और अन्तर्यात्रा दो भागों में विभक्त हैं तथा दो भागों में विभक्त करके दोनों ही प्रकार की यात्राओं में आने वाले विघ्नों, प्रलोभनों आदि से यात्री को सावधान किया गया है। प्रत्येक प्रवचन परमात्मा की अर्चना के लिये एक-एक फल है, जिसको लेकर जीवन यात्री बड़ी सावधानी से प्रभु तक पहुँचता है। 'अाम्रमंजरी' में संकलित प्रवचन तीन भागों में विभक्त हैं—(१) अध्यात्म और साधना, (२) मानव दिशायें और बिन्दु, (३) मनुष्य और समाज । ___ 'पाम्रमंजरी', 'अर्चना के फूल' तथा 'अर्चना और आलोक' के द्वितीय, तृतीय संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसी से इनकी लोकप्रियता व उपयोगिता प्रमाणित होती है। __भारतीय-संस्कृति के समस्त विचारकों-तन्वचिन्तकों एवं मननशील ऋषि मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। योग एक आध्यात्मिक साधना है । प्रात्म-विकास की एक प्रक्रिया है। विश्व का प्रत्येक प्राणी अपना आत्म-विकास करने के लिये पूर्णत: स्वतन्त्र है । दुनिया की कोई भी क्रिया क्यों न हो, उसे करने के लिए पहले ज्ञान आवश्यक है। आत्म-साधना करने के लिये भी क्रिया के पूर्व ज्ञान का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना है । ज्ञानपूर्वक किया गया आचरण ही योग है, साधना है। प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृत योगग्रन्थचतुष्टय का हिन्दी रूपान्तर इनके मार्गदर्शन, संयोजन में हुआ है, जिसमें योग के अधिकारी का उल्लेख किया है। जो जीव चरमावर्त में रहता है अर्थात् जिसका काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यातत्व-ग्रन्थि का भेदन कर लिया है और जो शुक्ल-पक्षी है, वह योग-साधना का अधिकारी है। वह योग-साधना के द्वारा अनादिकाल से चले आ रहे अपरिमित संसार या भव-भ्रमण का अन्त कर देता है।
सम्पादन-कला में भी ये सिद्धहस्त हैं। 'जीवन संध्या की साधना' इनके द्वारा सम्पादित पुस्तक है । जिसमें आत्मोत्थान की उत्तमोत्तम सामग्री का संकलन है। जैसे
विश्व शांति में भंग डालने का यदि जाल रचाया हो, राष्ट्रों और समाजों को यदि फूट डाल भड़काया हो। पर को लड़ा भिड़ा कर मैंने यदि निज स्वार्थ बनाया हो, निज ललाट पर देशद्रोह का, काला तिलक लगाया हो । हो पापों की निर्जरा, प्राप्त होय सद्ज्ञान , निजानन्द पद पाय के, करूं आत्म-कल्याण ॥
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द्वितीय खण्ड / १०४
ये एक सफल कवयित्री व गायन कला में भी निपुण हैं । लोकभाषा में लोकधुन पर स्वरचित गीत 'अर्चनांजलि' के नाम से संग्रहीत हैं, जो दीक्षार्थियों को उद्बोधन, वैराग्य से परिपूर्ण श्रद्धा और प्रेम, स्वागत, विदाई गीत व प्रात्म-बोध से ओतप्रोत हैं।
__ 'अर्चनांजलि' में संग्रहीत गीतों में जिन गीतों ने मेरे मन को सबसे अधिक प्रभावित किया, उनके अंश यहाँ प्रस्तुत हैं-गीत में आराध्य के प्रति मन के भावविचार व्यक्त करते हुये वन्दना की गई है कि
काल जो धड़के धक, धक,
म्हाने चरणा में लो रख । __ म्हाने डरपणी लागे सा,
भव वन में॥ गीत की पंक्तियां स्वयं ही व्यक्त करती हैं कि चरणों में रखने के लिये क्यों विनती, वन्दना की जा रही है। ____ इस पुस्तक का अन्तिम राजस्थानी गीत है, जिसमें बुहारी के (झाडू) के चार रूपों का चार प्रकार से उल्लेख है-(१) ब्राह्मण, (२) क्षत्री, (३) वैश्य और (४) शूद्र ।
बुहारी को मुंह से बोलने के लिये प्रेरित किया जा रहा है-इस गीत में इनका पूरा व्यक्तित्व एवं कवित्व उभर कर सामने आता है । मूल्यांकन की दृष्टि से पुस्तक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है । देखिये गीत इस प्रकार है
म्हारे मन मोवणी ए, सुरंगी सोवणी ए। बुहारी म्हांसू मूडे बोल, बुहारी घुघट रा पट खोल
बुहारी जीवन रो रस घोल ॥ सभी धर्मों के प्रति आपकी विचारधारा अनेकान्त में एकात्मकता की है । दृष्टि उदार व पावन है। इनका कथन है कि जो लोग धर्म की आलोचना करते हैं वे अपने आप की आलोचना करते हैं, धर्म कोई भी बुरा नहीं है, बल्कि धर्म-मोक्ष मार्ग की साधन है।
अभी तक किसी भी जैन-साध्वी ने काश्मीर की ओर विहार नहीं किया था। आप ही एक ऐसी साध्वी हैं, जिन्होंने काश्मीर श्रीनगर एवं आसपास के बीहड़ क्षेत्रों तथा दुर्गम-मार्ग पर चल कर वहाँ के निवासियों को भगवान् महावीर के दिव्य सन्देश से अनुप्राणित किया । 'हिम और प्रातप' काश्मीर-श्रीनगर यात्रा के संस्मरणों की अद्भुत पुस्तक है।
कमला जैन 'जीजी' ने, जो काश्मीर यात्रा में इनके साथ थीं, 'अग्निपथ' पुस्तक में लार्कपुर गाँव के मुसलमानों की जिज्ञासा के विषय में लिखा है-मुसलमान होने पर भी उन लोगों को साधु-सन्तों के दर्शनों की उत्कण्ठा तथा उपदेश सुनने की व्यग्रता देखकर अर्चना कुमारी विस्मित हो गईं। यशस्विनी अर्चनाकुमारी ने श्रीनगर से
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विषय विभूति श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' | १०५
प्रस्थान करके जम्मू, अमृतसर, लुधियाना, पटियाला, जगाधारी, सहारनपुर, देहरादून, मसूरी आदि सभी छोटे बड़े शहरों में विचरण करते हुये जैनत्व का, जैन धर्म का पूर्व प्रचार व प्रसार किया। उनके धुंआधार प्रवचनों को सुनने के लिये और प्रोजस्वी तथा मधुमयी वाणी का रसास्वादन करने के लिये जन- मेदिनी बाढ़ के समान उमड़ती रही। उनके जादुई शब्दों के प्रभाव से लाखों प्राणियों ने कुव्यसनों का त्याग किया तथा व्रत पचक्खाणों को अंगीकार कर लिया। जहाँ-जहाँ भी उन्होंने वर्षावास किये और जहाँ पर वे अल्पकाल के लिये ठहरीं, नर-नारी बावलों की भाँति उन्हें और अधिक ठहरने के लिये प्राग्रह करते, प्रार्थना करते और फिर भी न रुकने पर मार्ग में लेट जाते ।
श्राप के हृदय में विद्यार्थियों के गिरते नैतिक स्तर को देखकर एक दर्द उठता है । इनका कथन है आज का विद्यार्थी कल का नागरिक होकर राष्ट्रप्रहरी होगा । यदि उन्होंने अभी अपने चरित्र को उज्ज्वल नहीं बनाया तो वे राष्ट्र रक्षा कैसे कर सकेंगे ? विद्वान् मनीषियों ने आपके प्रवचनों का गहराई से अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि ये प्रवचन पाठ के रूप में पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिये जायें तो विद्यार्थियों का नैतिक स्तर सुधर सकता है। यदि प्रवचन सम्मिलित कर लिये जाते तो देश व समाज के लिये गौरव की बात होती ।
आत्मा के यथार्थ दर्शन हो जाने पर सघन मोहांधकार सहज ही विलीन हो जाता है और प्राणी-योगी बन जाता है । योगी होना परम कल्याण का जनक है । महासतीजी म० सा० को भी अध्यात्मयोगिनी के अभिधान का गौरव मिला हुआ है । वे शील और ज्ञान संपदा से समन्वित एक असाधारण साध्वीरत्न हैं । भारत की वसुन्धरा उन जैसी विभूति उत्पन्न करने पर सदैव गौरवान्वित रहेगी ।
१७, लाला लाजपतराय मार्ग, उज्जैन म० प्र०-४५६००१
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साधना की परमोज्ज्वल दीपशिखा : विभूतिमयीमहिमामण्डित योगसाधिका महासतीजी श्री उमरावकंवरजी म. सा.
'अर्चना 0 आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री
एम. ए. (त्रय) पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन तथा जैनदर्शन में जैनयोग मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है। जैनयोग के सन्दर्भ में मैंने उन सभी ग्रन्थों का पारायण किया है, जो मुझे उपलब्ध हो सके। मैं इस सम्बन्ध में प्राचार्य हरिभद्र से अत्यधिक प्रभावित हूँ। उन्होंने जो भी लिखा है, वह मौलिक है, गहन अध्ययन, चिन्तन पर आधृत है।
पिछले कुछ वर्षों से मेरे मन में यह भाव था कि प्राचार्य हरिभद्र के इन चारों योगग्रन्थों पर मैं कार्य करू । हिन्दी-जगत् को अधनातन शैली में सुसम्पादित तथा अनूदित रूप में ये ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं। अच्छा हो, इस कमी की पूर्ति हो सके । इसके लिए मुझे उत्तम मार्ग-दर्शन तथा संयोजन चाहिए था। किसके समक्ष यह प्रस्ताव रखू, यह सूझ नहीं पड़ रहा था। क्योंकि आज अध्यात्म तथा योग के नाम पर जो कार्य चल रहे हैं, वे यथार्थमूलक कम तथा प्रशस्ति एवं प्रचारमूलक अधिक हैं। उन तथाकथिक योग-प्रवर्तकों को, प्राचार्यों को अपना-अपना नाम चाहिए, विश्रुति चाहिए, प्रचार चाहिए, जो उनके लिए प्राथमिक है । खैर, जैसी भी स्थिति है, कौन क्या कर सकता है । अतः इनके झंझट में न पड़कर जितनी जिसको शक्ति हो, अपना कार्य करते रहना चाहिए।
इस सम्बन्ध में मैं एक प्रसंग उपस्थित करना चाहूंगा, जो लगभग ६ वर्ष पूर्व का है। तब वर्धमान श्रमण-संघ के परम यशस्वी युवाचार्य प्रबुद्ध ज्ञानयोगी, पंडितरत्न मुनिश्री मिश्रीमलजी म. सा० 'मधुकर' विद्यमान थे, जिनके साथ मेरा तब से पूर्व पाँच-छ: वर्षों से घनिष्ठ सम्बन्ध था। सुयोग्य विद्वान्, प्रबुद्ध आगम-वेत्ता तथा प्रौढलेखक होने के साथ साथ उनके व्यक्तित्व की बहुत बड़ी विशेषता थी-उनकी सहज ऋजूता, कोमलता तथा मधुरता। न उन्हें अपने ज्ञान का दंभ था, न पद का अभिमान । उनके स्वभाव में जो अनिर्वचनीय सरलता का दर्शन होता था, वह उनके व्यक्तित्व का सर्वाधिक आकर्षक गुण था। वे स्वयं विद्वान् थे, अतएव विद्या को गरिमा जानते थे, विद्या का और विद्वान् का सम्मान करते थे, उन्हें स्नेह देते थे। यही कारण है, ज्यों ज्यों समय बीतता गया, उनके प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता गया । उनके सान्निध्य में चल रहे आगम-संपादन के कार्य में भी मेरा भाग था, उनके साहित्यिक कार्य में भी मेरा यत् किंचित् साहचर्य था। इसे मैं उन्हीं के स्नेह तथा
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महासतीजी श्री उमरावकुवरजी म० सा० / १०७ प्रेरणा का परिणाम मानता हूँ कि उपासकदशांग, औपपातिक तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इन तीन आगमों का संपादन, अनुवाद एवं विवेचन-विश्लेषण मैंने परिसंपन्न किया ।
अस्तु-तब मैं एक साहित्यिक कार्य के सन्दर्भ में उनसे भेंट करने गया । वे नागौर में विराजित थे। उनसे भेंट हुई, अपेक्षित-वांछित चर्चा भी । अगले दिन प्रातः उन्होंने नागौर से प्रस्थान किया। अगला पड़ाव एक छोटे से गांव में था। मैं भी पैदल ही उनके साथ गया। दिन भर मैं उनकी सन्निधि में रहा। अपराह्न में जब युवाचार्यश्री से वापस लौटने की अनुमति लेने लगा तो उन्होंने विशेषरूप से कहा कि नागौर में महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी से मिलियेगा। मैं शाम को नागौर लौट आया । नृसिंह सरोवर पर रुका था, रात्रि-प्रवास वहीं किया। महासतीजी से भेंट करने के सम्बन्ध में प्रातः सोच ही रहा था, मैं नहीं जानता, ऐसा क्यों हुआ, पर हुआ~योग वाङमय के अपने अध्ययन के सन्दर्भ में प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के उस संस्करण की ओर सहसा मेरा ध्यान गया, जिसे मैंने पढ़ा था, जिसके सम्पादन, प्रकाशन आदि में महासतीजी श्रीउमराकुंवरजी म. सा० का सबसे बड़ा योगदान रहा था । महासतीजी के जीवन का अध्यात्म-संपृक्त योग-पक्ष सहसा मेरे अन्तर्नेत्रों से गुजर गया, जिसमें मुझे साधना की दिव्यता दृष्टिगोचर हुई । महासतीजी का मैं पहली बार दर्शन करने नहीं जा रहा था। तब से तीन चार वर्ष पूर्व जब मेड़ता गया था तो अपने स्नेही मित्र श्रीयुक्त जतनराजजी मेहता के साथ पहले पहल दर्शन करने तथा उनसे ज्ञान चर्चा करने का प्रसंग प्राप्त हुआ था। उसके बाद भी सौभाग्यवश कई बार वैसा अवसर मिलता रहा। उन सबका एक समवेत प्रभाव मेरे मानस पर यह था कि जैन योग में पूजनीया महासतीजी की अनन्य अभिरुचि है तथा असाधारण अधिकार भी। मैंने मन ही मन निश्चय किया कि उनकी सेवा में अपनी भावना उपस्थित करू। तदनुसार वहाँ पहुँचा और यह अनुरोध किया है कि यदि उनका मार्गदर्शन तथा संयोजन प्राप्त होता रहे तो प्रकाण्ड विद्वान्, महान् योगी प्राचार्य हरिभद्र के योग-सम्बन्धी चारों ग्रन्थ हिन्दी जगत् की सेवा में प्रस्तुत किये जा सकें । उत्तर में महासतीजी के जो प्रेरक उद्गार मुझे प्राप्त हुए, मैं हर्ष-विभोर हो गया। उनकी स्वीकृति प्राप्त कर मैंने अपने को धन्य माना । एक परमोत्तम संयमशील पवित्रात्मा की सत्प्रेरणा का संबल लेकर मैं अपने स्थान-सरदारशहर लौट आया तथा अपने को सर्वतोभावेन इस कार्य में लगा दिया। इस बीच कार्य उत्तरोत्तर गति पकड़ता गया। उस सन्दर्भ में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु महासतीजी महाराज की सेवा में उपस्थित होने के अवसर मिलते रहे । ज्यों-ज्यों मैं उनकी आध्यात्मिक सन्निधि में प्राता गया, मुझे उनके व्यक्तित्व की वे असाधारण विशेषताएँ अधिगत होने लगीं, जिन्हें साधारण चर्म. चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता।
आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि समुच्चय में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी तथा निष्पन्नयोगी के रूप में योग-साधकों के जो चार भेद किये हैं, परम श्रद्धया महासतीजी की गणना मैं कुलयोगियों में करता हूं। प्राचार्य हरिभद्र के अनुसार कुलयोगी वे होते हैं, जिन्हें जन्म से ही योग के संस्कार प्राप्त होते हैं, जो समय
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द्वितीय खण्ड / १०८
पाकर स्वयं उबुद्ध हो जाते हैं, व्यक्ति योग-साधना में सहज रस की अनुभूति करने लगता है। जो योगी अपने पिछले जन्म में अपनी योग-साधना सम्पूर्ण नहीं कर पाते, बीच में ही आयुष्य पूरा कर जाते हैं, आगे वे उन संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं । अतएव उनमें स्वयं योग-चेतना जागरित हो जाती है। कुलयोगी शब्द यहाँ कुल-परम्परा या वंश-परम्परा के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। क्योंकि योगियों का वैसा कोई कुल या वंश वहीं होता पर महासतीजी के साथ इस शब्द से नहीं निकलने वाला यह तथ्य भी घटित हो जाता है, ऐसा एक विचित्र संयोग उनके साथ है। महासतीजी के पूज्य पितृचरण भी एक संस्कारनिष्ठ योगी थे। घर में रहते हुए भी वे आसक्ति और वासना से ऊपर उठकर साधनारत रहते थे। यों आनुवंशिक या पैतृकदृष्टि से भी महासतीजी को योग प्राप्त रहा। इस प्रकार कुलयोगी का प्रायः अन्यत्र अघटमान अर्थ भी पूजनीया महासतीजी के जीवन में सर्वथा घटित होता है। ऐसे व्यक्तित्व के संदर्शन तथा सान्निध्य से सत्त्वोन्मुख अन्तःप्रेरणा जागरित हो, यह स्वाभाविक ही है। न यह अतिरंजन है और न प्रशस्ति ही, जब भी मैं महासतीजी के दर्शन करता हूं, कुछ ऐसा अध्यात्म-संपृक्त पवित्र वात्सल्य प्राप्त करता हूं, जिससे मुझे अपने जीवन की रिक्तता में आपूर्ति का अनुभव होता है। मैं इसे अपना पुण्योदय ही मानता हूं कि मुझे इस साहित्यिक कार्य के निमित्त से समादरणीया महासतीजी का इतना नैकट्य प्राप्त हो सका।
महासतीजी के जीवन के सम्बन्ध में गहराई से परिशीलन कर जैसा मैंने पाया, निश्चय ही वह पवित्र उत्क्रान्तिमय जीवन रहा है । एक सम्पन्न, सम्भ्रान्त परिवार में उन्होंने जन्म पाया। केवल वे सात दिन की थीं, तभी मातृवियोग हो गया। देवदुर्लभ मातृ-वात्सल्य से विधि ने उन्हें सदा के लिए वंचित कर दिया। पिता की स्नेहमयी गोद में उनका लालन-पालन हुआ । मातृत्व एवं पितत्व के दुहरे स्नेह का केन्द्र केवल उनके पितृचरण थे, जिन्होंने अपने अन्तरतम की स्निग्धता से उसे फलवत्ता देने में कोई कसर नहीं रखी। पिता की छत्रछाया में परिपोषण, संवर्धन प्राप्त करते हए ज्यों ही उन्होंने अपना ग्यारहवाँ वर्ष पूरा कर बारहवें में प्रवेश किया, केवल थोड़े से समय में बाद (साढ़े ग्यारह वर्ष की अवस्था में) वे परिणय-सूत्र में आबद्ध कर दी गईं। विधि की कैसी विडम्बना थी, अभी गौना भी नहीं हो पाया था, मात्र दो वर्ष बाद उनके पतिदेव दिवंगत हो गये। वह एक ऐसा भीषण दुःसह वज्रपात था, जिसकी कोई कल्पना तक नहीं की जा सकती। पर विधि-विधान के आगे किसका क्या वश ! फूल सी कोमल बालिका यह समझ तक न सकी, क्या से क्या हो गया । सारे परिवार में अपरिसीम शोक व्याप्त हो गया। हिमाद्रि जैसे सुदढ़ एवं सबल हृदय के धनी पिता भी सहसा विचलित से हो गये।
यह वर स्थिति थी. जिसमें जीवन भर रोने-बिलखने के अतिरिक्त और कछ बाकी रह नहीं पाता । पर यह सामान्य जनों की बात है। महासतीजी तो विपुल सत्त्वसंभृत संस्कारवत्ता के साथ जन्मी थीं, उनके चिन्तन ने एक नया मोड़ लिया, जो उन जैसी बोधि-निष्पन्न आत्माओं को लेना ही होता है । उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी । उनके मन में निर्वेद का जो बीज सुषुप्तावस्था में था,
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महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० / १०९
अंकुरित हो उठा और थोड़े ही समय में वह पल्लवित एवं पुष्पित पादप के रूप में विकसित हो गया । जैसा मैंने ऊपर उल्लेख किया है, महासतीजी के पितृचरण एक दिव्य संस्कारी वीर पुरुष थे । उनका लौकिक जीवन साहस, शौर्य और पराक्रम का जीवित प्रतीक था । क्षयोपमवश कुछ ऐसी दिव्यता उन्हें जन्म से ही प्राप्त थी कि साधारण उदरंभरि और भोगोपभोगी मनुष्य के रूप में वे जीवन की इतिश्री कर देना नहीं चाहते थे । बाह्य अध्ययन विशेष न होते हुए भी उनकी प्राभ्यन्तर चेतना उद्बुद्ध थी, जो जन्म के साथ ही श्राती है। पिता और पुत्री के परम पवित्र अन्तर्भाव की फलनिष्पत्ति श्रमण- प्रव्रज्या में हुई । उद्बुद्धचेता, सात्त्विक जन, जब अन्तरात्मा जाग उठती है, तब फिर विलम्ब क्यों करें । उक्त विषम, दुःखद घटना के लगभग वर्ष भर बाद उन्होंने ( पिता पुत्री ने ) परम पूज्य स्व. श्राचार्य श्री जयमल्लजी म० सा० के प्राम्नायानुगत तत्कालीन श्रमण संघीय मारवाड़ प्रान्त मंत्री पूज्य स्वामीजी श्री हजारीमलजी म० सा० तथा बालब्रह्मचारिणी महासती श्री सरदारकुंवरजी म० सा० की सन्निधि में श्रमणदीक्षा स्वीकार कर ली ।
बड़ा आश्चर्य है, इस भोगसंकुल जीवन में यह कैसे सध जाता है, जहाँ मौत की अन्तिम सांसें गिनता हुआ मनुष्य भी मन से भोगों को नहीं छोड़ पाता । मृत्यु मस्तक पर मंडराती है पर उस समय भी क्षुद्र सांसारिक सुखमय, वासनामय मनः स्थिति में आबद्ध रहता है । कितनी दयनीय स्थिति है यह ! वह जीना चाहता है, फिर छककर भोगों को भोग लेना चाहता है । इन स्थितियों के साथ-साथ है तो विरल, पर एक और स्थिति भी है, जहाँ भोग विषवत् त्याज्य प्रतीत होने लगते हैं | क्या कारण है, यह स्थिति सब में नहीं आती, किन्हीं किन्हीं बहुत थोड़े से, लाखों में एक दो व्यक्तियों में प्रस्फुटित होती है । संस्कारवत्ता तो है ही, मनोविज्ञान एक और समाधान देता है । उसके अनुसार काम, वासना, भोग आदि मनुष्यों की निसर्गज वृत्तियाँ हैं, जिनमें वह अनुपम सुख की मान्यता लिये रहता है । इसलिए तीव्रतम उत्कण्ठा के रूप में उसकी निष्ठा उनसे जुड़ी रहती है । पर यह अपरिवर्त्य नहीं है । कुछ थोड़े से व्यक्तियों के जीवन में किसी घटना - विशेष से या विशिष्ट ज्ञान के उद्भव से इसके विपरीत भी कुछ घटित होता है । इच्छा की तीव्रता तो नहीं मिटती पर इच्छा जिस पर टिकी होती है, वह लक्ष्य बदल जाता है, भोग के स्थान पर वैराग्य, साधना, ज्ञान, कला या साहित्य संप्रतिष्ठ हो जाता है । परम उदग्र इच्छाशक्ति इनमें किसी के साथ जुड़ जाती है । निश्चय ही तब फलनिष्पत्ति में एक चमत्कार आता है । मनोविज्ञान की भाषा में यह दिक्- परिष्कार ( Sublimation ) कहा जाता है । वैसे व्यक्ति बहुत बड़े साधक, प्रखरज्ञानी, महान् साहित्यकार आदि होते हैं । अन्तर्वृत्ति में यों परिवर्तन हो जाने पर व्यक्ति को अपने स्वीकार्य और गन्तव्य पथ से कोई चलित नहीं कर सकता ।
इस मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर यदि चिन्तन करें तो लगता है, पिता एवं पुत्री के साथ जो घटित हुआ, जिस दिव्य दिशा की ओर उनके कदम बढ़ चले, उनसे यही संभावित था । साधना की इस यात्रा में आगे जो कुछ हुआ, वह साक्ष्य है इस बात का ( जो पहले चर्चित हुई है) । तीव्रतम इच्छाशक्ति का परिणाम शक्ति
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द्वितीय खण्ड / ११० स्फोट में आता है, जो जीवन को असाधारण वैशिष्ट्य से समायुक्त कर देता है । पिता श्री मांगीलालजी, जो तब मुनि श्री मांगीलालजी थे, सर्वतोभावेन प्राणपण से अध्यात्म-साधना में जुट गये । योगी के जीवन में सहजरूप में जो विभूतियाँ प्राकट्य पा लेती हैं, उनमें भी कुछ वैसी निष्पत्तियाँ हुईं । तभी तो यह संभव हो सका उन्होंने छः महीने पर्व ही अपने मरण का समय बता दिया था. जो ठीक उसी रूप में घटित हुग्रा।
ऐसे महान् पिता की पुत्री और महान् गुरु की शिष्या महासतीजी ने प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने के बाद जहाँ एक ओर अपने को श्रुतोपासना में लगाया, दूसरी ओर योग-साधना का वरेण्य क्रम भी उनके जीवन में चलता रहा । अनेक ज्ञानियों, साधको तथा महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने, उनसे सीखने, समझने का उन्हें सौभाग्य रहा, जिसका उन्होंने तन्मयता तथा लगन के साथ उपयोग किया, जो उनके वैदुष्य और साधना-प्रवण जीवन में साक्षात् परिदृश्यमान है।
महासतीजी एक जैन श्रमणी हैं, पाद-विहार, धर्म-प्रसार जिनके जीवन का अपरिहार्य भाग होता है । उन्होंने राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश आदि क्षेत्रों की पद-यात्राएँ की, जन-जन को भगवान महावीर के दिव्य सन्देश से अनुप्राणित किया, आज भी कर रही हैं। उनकी दृढ़ता, साहस, उत्साह तथा निर्भीकता निःसन्देह स्तुत्य हैं, उन्होंने काश्मीर जैसे दुर्गम प्रदेश की भी यात्रा की, जो वास्तव में उनकी ऐतिहासिक यात्रा थी। शताब्दियों में संभवतः यह प्रथम अवसर था, जब एक जैनसाध्वी ने काश्मीर-श्रीनगर तक की पद-यात्रा की हो । महासतीजी द्वारा अपने जीवन के संस्मरणों के रूप में लिखित "हिम और आतप" नामक पुस्तक मैंने देखी । पुस्तक इतनी रोचक लगी कि मैंने एक ही बैठक में उसे आद्योपान्त पढ़ डाला। पुस्तक में उनकी काश्मीर-यात्रा के घटनाक्रम, संस्मरण भी उनकी लेखिनी द्वारा शब्दबद्ध हुए हैं, जो निःसन्देह बहुत ही प्रेरणाप्रद हैं । दुर्गम, विषम, संकड़े पहाड़ी मार्ग, तन्निकटवर्ती काल सा मुंह बाये सैकड़ों फुट गहरे खड्ड', नुकीली चट्टानें, उफनती नदियाँ, पिघलते ग्लेशियर, ( glacier ) छनते बादल-अपरिसीम, अद्भुत प्राकृतिक सुषमा पर साथ ही साथ एक पदयात्री के लिए भीषण, विकराल, संकट परम्परा-महासतीजी ने यह सब देखा, अनुभूत किया । जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य ने उनके साहित्यिक हृदय को सात्त्विक भावों का दिव्य पाथेय दिया, वहाँ संकटापन्न, प्राणघातक परिस्थितियों ने उनके राजस्थानीवीर-नारी-सुलभ शौर्य को और अधिक प्रज्वलित तथा उद्दीप्त किया। किसी भी भयावह स्थिति में उनका धीरज विचलित नहीं हुआ। जिन्होंने गृही जीवन में शेरों तक को पछाड़ डाला तथा संन्यस्त जीवन में उसी अनुपात में प्रात्मशक्ति की विराट-ज्योति स्वायत्त की, ऐसे महान् पिता की महान् पुत्री को भय कहाँ से होता ? उन्होंने सानन्द, सोत्साह सोल्लास अपनी काश्मीर-यात्रा संपन्न की। वह प्रदेश, जो वर्तमान में भगवान महावीर के आध्यात्मिक सन्देश के परिचय में कम पा पाया था, उन्हीं भगवान् महावीर के पद-चिह्नों पर चलने वाली उन्हीं की परमो
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महासतीजी श्री उमरावकुवरजी म. सा० / १११ पासिका एक महिमामयी भारतीय नारी की योग-परिष्कृत कण्ठ-ध्वनि से निःसृत निनाद द्वारा पुनः मुखरित हो उठा ।
अस्तु ! परम समादरणीया महासतीजी म० के सानुग्रह मार्गदर्शन एवं संयोजन में प्रातःस्मरणीय, महामहिम आचार्य श्रीहरिभद्र सूरि के चारों योग ग्रन्थयोगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु दो संस्कृत में तथा योगशतक और योगविंशिका दो प्राकृत में, जैनयोग ग्रन्थ चतुष्टय के रूप में प्रकाशित हुए, जिनका विद्वज्जगत् में तथा साधकवृन्द में सर्वत्र सम्मान एवं समादर हुआ, सभी ने इस प्रकाशन को बड़ा उपयोगी और महत्त्वपूर्ण माना।
परम पूजनीया महासतीजी म. सा. के साथ मेरा आध्यात्मिक संबंध उत्तरोत्तर संवर्धनशील रहा। उनकी नैसर्गिक पवित्रता, निर्मलता और सहजता मेरे लिए सदा प्रेरणास्पद रही, आज भी है। ___ योगसूत्र के साधनपाद एवं विभूतिपाद में योग-विभूतियों का वर्णन है। चमत्कार-प्रदर्शन योग-साधना में समादृत नहीं है । सच्चा योगी वैसा कुछ चाहता भी नहीं, किन्तु ज्यों-ज्यों योग सधता जाता है, उसके मूल फल चैतसिक उज्ज्वलता । एवं पवित्रता के साथ साथ आनुषंगिक रूप में यौगिक विभूतियाँ भी अधिगत होती जाती हैं, जिन्हें जैन परंपरा में लब्धियाँ कहा जाता है ।
महासतीजी निःसन्देह यौगिक विभूति समवेत महान साधिका हैं। उन्हें चमस्कार में कोई रुचि नहीं है । न कभी उन्होंने चमत्कार-प्रदर्शन की इच्छा ही की, कोई उपक्रम ही किया किन्तु कभी कभी स्वयं वैसा कुछ सद्य जाता है, जिससे यह स्पष्ट है, निःसन्देह उनमें अद्भुत शक्तियाँ हैं । अभी को एक सद्यःअनुभूत ताजी घटना मैं यहाँ उल्लिखित करना चाहूंगा। मैं मद्रास के लिए सरदारशहर से दिनांक १४ जनवरी को रवाना हुया । महासतीजी महाराज की दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के अवसर पर उनके परमोच्च प्राध्यात्मिक जीवन के अभिनन्दन में एक ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है, जिसमें सम्पादक-मण्डल में मेरा भी भाग है। महासतीजी का मुझ पर अनुग्रह है, अत: उनकी भावना थी, उस सन्दर्भ में मैं एक बार अभी खाचरौद में उनके दर्शन करू। मेरे स्नेही साथी श्रीकृष्णचन्दजी चोरडिया ने इस विषय में मद्रास से मुझे लिखा, और विशेषरूप से अनुरोध किया कि मैं भोपाल में यात्रा स्थगित कर कुछ समय के लिए पूज्य महासतीजी म० की सेवा में खाचरौद जा सकू, तो बडा उत्तम हो। लम्बी यात्रा, अारक्षण-सुविधा प्रादि देखते मेरा मानस इसके लिए तैयार नहीं हग्रा । मद्रास तक के शायिका-प्रारक्षण की समीचीन व्यवस्था हो
चुकी थी। सरदारशहर में दिल्ली से सत्सम्बन्धी संवाद, बोगी संख्या, शायिका संख्या - आदि सब आ चुके थे। अतः इस व्यवस्था को छोड़ने का मेरा मानस नहीं था, किन्तु दिल्ली आने के बाद एक विचित्र घटना घटित हुई । सूची में कहीं भी मेरा व मेरे सहयोगी का नाम नहीं । हमने काफी दौड़ धूप की, निष्फल रही। ट्रेन में चढ़ने के बाद ट्रेन सुपरिण्टेण्डेट प्रादि से संपर्क साधा, कॉम्प्लेन लिखा, सब कुछ किया, किन्तु न कहीं नाम मिला, न कोई और व्यवस्था ही हो सकी । अन्ततः बाध्य होकर दिल्ली से
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द्वितीय खण्ड / ११२
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भोपाल तक हम ट्रेन गैलरी में दमघोटू भीड़ के बीच बैठे आये। वह रात बड़ी कष्टप्रद रही। मैंने सोचा, इस प्रकार मद्रास पहंच पाना शक्य नहीं होगा। भोपाल में यात्रा स्थगित कर देनी चाहिए। यात्रा स्थगित कर दी। भोपाल से खाचरौद पाये । महासतीजी म. के दर्शन किये। उन्होंने कहा कि हमने तो अभी कल ही सोचा था, आप एक दो दिन में पहुंचने चाहिए । हुआ भी वैसा ही। आप आ गये, बहुत उत्तम हुआ।
पूजनीया महासतीजी म० तथा उनकी अन्तेवासिनी साध्वीवृन्द के दर्शन से अत्यधिक प्रसन्नता हुई । अभिनन्दन ग्रन्थ की सामग्री का पर्यवलोकन किया, चयन किया। संपादक-मंडल के अन्तर्गत होने के अपने दायित्व का चाहे अल्प ही सही, निर्वाह किया जा सका, इससे मुझे आत्मपरितोष हुा । अपने खाचरौद-प्रवास काल में श्री राजेन्द्रजी श्रीश्रीमाल तथा उनकी विदुषी बहिन आयुष्मती अनिता एवं उनके पारिवारिक जनों का जो स्नेह एवं सौहार्दपूर्ण आतिथ्य प्राप्त हुआ, वह निःसन्देह उनकी शालीनता एवं संस्कारवत्ता का सूचक है।
अति अल्पकालीन किन्तु अत्यन्त प्रेरक इस यात्रा-प्रसंग को परिसंपन्न कर मैं अपने सहयोगी के साथ भोपाल आया। उसी दिन ट्रेन में आरक्षण मिल पायेगा, मन बड़ा संशयाकुल था, चिन्ता थी, किन्तु पूजनीया महासतीजी महाराज की शक्तियाँ तो असीमित हैं। उनके पुण्य-प्रभाव से भोपाल में आरक्षण आदि से सम्बद्ध समस्त व्यवस्थाएं सम्यक् संपन्न हो गईं । मन निश्चिन्त हुआ । मद्रास तक की यात्रा बड़ी सुखद रही। श्रीकृष्णचन्दजी चोरडिया आदि मद्रास के साथी खाचरौद यात्राक्रम से बड़े परितुष्ट एवं हर्षित हुए।
मेरी ही तरह अनेक भाई-बहिनों के ऐसे बहुत से संस्मरण हैं, जो परम पूजनीया महासतीजी महाराज के जीवन की परम शक्तिमत्ता, प्रभावकता एवं दिव्य ओजस्कता के परिचायक हैं । महासतीजी महाराज वास्तव में साधना की परमोज्ज्वल दीप-शिखा एवं विभूतिमयी महिमा-मण्डित योगसाधिका हैं। ___ उनकी दीक्षा-स्वर्ण जयन्ती के स्वर्णिम अवसर पर उनका कोटि-कोटि अभिवन्दन, अभिवन्दन एवं अभिनमन करता हुआ मैं यह कामना करता हूँ कि अध्यात्म की यह पुण्य, पावन, सौम्य, शक्तिसंभृत लौ सदा प्रज्वलित रहे, इसकी दिव्य आभा पथभूले राहियों को सच्चा पथ दिखाए, जो मंगल, श्रेयस्, शान्ति एवं सुख का अपरिसीम निधान अपने में समेटे हो, जो पवित्रता में हिमाद्रिवत् समुन्नत हो, गंभीरता में सागरवत् गहन हो।
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अध्यात्म, संयम, साधना एवं ज्ञान की दिव्य ज्योति
महासती श्री उमरावकुंवरजी म.
'अर्चना
। एस० कृष्णचन्द चोरडिया
मेरे परिवार का व्यवसाय लम्बे समय से अहमदनगर (महाराष्ट्र) में था। मेरे प्रात:स्मरणीय पूज्य पिताश्री सुगनचन्दजो चोरड़िया ने कारणवश अपना व्यापारक्षेत्र परिवर्तित किया । उन्होंने तमिलनाडु में उलन्दरपेट नामक स्थान को अपना व्यावसायिक केन्द्र बनाया। दक्षिण में जो भी राजस्थानी विशेषतः नागौर, जोधपुर, बाड़मेर, जालोर, सिरोही आदि क्षेत्रों से गये हुए व्यापारी प्रायः सपरिवार वहाँ बस गये, किसी विशेष प्रसंग को छोडकर राजस्थान पाने का अवसर उन्हें अपेक्षाकृत कम ही प्राप्त होता है। बार-बार राजस्थान न आने के, निरन्तर दक्षिण में प्रवास करने के कम से कम दो लाभ तो राजस्थानी समाज को अवश्य ही प्राप्त हुए । व्यापार के साथ उनका सतत तारतम्य जुड़ा रहा और तमिलसमाज से उनका स्नेहात्मक संबंध भी बढ़ता गया। साथ ही साथ एक ओर बड़ा लाभ यह भी हा, तमिलभाषा पर उनका आधिपत्य होता गया। अाज तमिल प्रदेश में प्रवास करने वाले लाखों ऐसे राजस्थानी व्यापारी हैं, जो तमिल को मातृभाषा की ज्यों धाराप्रवाह बोल सकते हैं। ___मेरा जन्म सन् १९४७ के सितम्बर मास में उलन्दरपेट में हुआ । सभी संस्कार वहीं सम्पन्न हुए । मैं जब केवल छह महीने का था, तब अपने कुलदेवताओं के यहाँ झडूला उतारने के लिए राजस्थान पाने का प्रसंग बना जो बुजुर्गों के कहने से मैं जानता हूँ। उसके बाद पहले पहल सन् १९७० में जब मैं २३ वर्ष का युवा था, राजस्थान पाया। तब अपने राजस्थान-प्रवास के अन्तर्गत जिन महान् आत्माओं के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनमें परम विदुषी, श्रमणीरत्न महान् योगसाधिका महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का नाम मैं बड़े आदर एवं श्रद्धा के साथ स्मरण करता हूँ। प्रथम दर्शन में ही उनके आध्यात्मिक ओजमय व्यक्तित्व की मेरे मन पर अमिट छाप पडी। वैसे मेरे श्रद्धय पिताश्री मुझे तमिलनाड में कभी-कभी प्रसंग आने पर बतलाते रहे थे कि श्री उमरावकुंवरजी म० ने अपनी किशोरावस्था में ही पति-वियोग के अनन्तर श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। उनकी प्रव्रज्या हमारे ग्राम नोखाचांदावतां में हुई। इसे मैं अपने परिवार का सौभाग्य मानता हूँ कि ग्रामोपकण्ठवर्ती हमारे ही भू-खण्ड में एक विशाल नीम के वृक्ष के इर्द-गिर्द बने दीक्षा-मण्डप में उनका दीक्षा समारोह संपन्न हुआ। पूज्य पिताजी से महासतीजी म० के विद्यामय, साधनामय एवं संघर्षशील जीवन के विषय में सुनता रहा था । फलतः उनके प्रति मेरे मन में एक सहज श्रद्धापूर्ण आकर्षण था ।
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द्वितीय खण्ड / ११४
मैं उन द्वारा लिखित 'अग्निपथ' नामक पुस्तक भी पढ़ चुका था, जिसमें उनके संघर्षमय, तितिक्षामय, करुणाकलित व्यक्तित्व की झलक मिलती है । जब मैंने उनके पहले पहल दर्शन किए तो मेरे द्वारा उक्त पुस्तक में पढ़े गये विषय अपने प्रभामय रूप में मेरे सम्मुख मूर्तिमान् से हो उठे । मेरा मस्तक सहसा झुक गया उस महान् नारी के समक्ष, जिसने कुसुमवत् कोमल किशोरावस्था में अपने प्रचुर, प्रबल, प्रवर आत्मबल द्वारा उस वज्रोपम विषम दुःखाघात को, जो उनके पतिदेव के समय में ही कालकवलित हो जाने से प्रादुर्भूत हुआ, अध्यात्म की ग्राह्लादानुभूति में बदल
। बहुत तो नहीं किन्तु जो थोड़ा बहुत सुग्रवसर मुझे तब महासतीजी की सेवा में बैठने का प्राप्त हुआ, मैंने अनुभव किया, निःसन्देह उनके जीवन में जैनत्व की अद्भुत दिव्यता परिव्याप्त है, जो एक अनिर्वचनीय प्रभा लिए है ।
महासतीजी के दर्शन का दूसरा अवसर सन् १९७३ में प्राप्त हुआ, जब महान् अध्यात्मसाधक, परम स्वाध्यायरत, धर्मशासन के अनन्यसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलाल
० सा०, प्रखर मनीषी, उद्बुद्धज्ञानयोगी बहुश्रुत पण्डितरत्न युवाचार्य - प्रवर मुनिश्री मिश्रीलालजी म० सा० 'मधुकर' का चातुर्मास नोखा में था तथा महासती श्री उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चना' का चातुर्मास बिलाड़ा में था ।
नोखा में महापुरुषद्वय की प्राध्यात्मिक सन्निधि का लाभ लेने के अतिरिक्त बिलाड़ा में महासतीजी म० की सत्संगति एवं सेवा का भी सुप्रवसर प्राप्त हुआ । दोनों ही हमारे लिए बड़े प्रेरक एवं उद्बोधप्रद थे । प्रस्तुत निबन्ध महासतीजी म० व्यक्तित्व, कृतित्व से सम्बद्ध है, अतः उनके विषय में कुछ विशेष अभिव्यक्ति करने का सोचता हूँ, तो सहसा प्रतीत होता है, वास्तव में उनकी प्रज्ञा एवं अभिव्यंजना बड़ी प्रद्भुत है । वे गंभीरातिगंभीर विषयों को भी न्यूनतम, सरलतम शब्दों में प्रकट करने में नितान्त कुशल हैं। मैंने उनकी निरूपण-पद्धति में एक असामान्य विशेषता देखी । वे अपना निरूप्य इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं, जिससे श्रोता को वह सहसा हृदयंगम हो जाये, इतने मधुर शब्दों में वे बात रखती हैं, श्रोता प्रतिकूल भी यदि वह हो तो उसका दिल नहीं दुखता और उसे वह हृद्य प्रतीत होती है ।
मेरा, हमारे सभी पारिवारिक जनों का यह सौभाग्य है कि महासतीजी म० सा० के दर्शन का सुअवसर हमें उत्तरोत्तर मिलता रहा । सन् १९७५ में तथा सन् १९७७ में भी उनके दर्शन किये ।
सन् १९७७ में नोखा में अक्षयतृतीया का अवसर था, वर्षीतप के पारणे थे । स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म० सा०, युवाचार्यप्रवर श्री मधुकरमुनिजी म. सा०, महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० प्रभृति साधु-साध्वीगण वहाँ विराजित थे । तब युवाचार्य-प्रवर ने मेरी साहित्यिक अभिरुचि के सम्बन्ध में महासतीजी म० को विशेष रूप से परिचय कराया। महासतीजी, जिनके जीवन का विद्यापक्ष- साहित्यिक पक्ष प्रारम्भ से ही बड़ा उर्वर एवं उन्नत रहा है, ने इस पर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की । जैसा मुझे विदित हुआ, वे न केवल यह मानती रही हैं, वरन् समाज के बालक
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महासती श्री उमरावकुंवरजी म० 'अर्चना' / ११५
बालिकाओं को प्रेरित भी करती रही हैं कि विद्या एवं साहित्य किसी भी समाज के चिरन्तन अस्तित्व के अनन्य उपादान हैं, सांस्कृतिक अभिव्यंजना के दिव्य स्रोत हैं ।
मेरे परिवार को, विशेषतः महिलाओं को, बालक-बालिकाओं को, हमारे राजस्थान - प्रवास के अवसरों पर जो प्राय: साथ रहे हैं, अपने जीवन में धार्मिक संस्कार संजोने की पूजनीया महासतीजी म० से बड़ी प्रेरणा प्राप्त होती रही है । उनके शुभ, समुज्ज्वल अध्यात्मसंपृक्त व्यक्तित्व का एक ऐसा पवित्र प्राकर्षण है कि जब भी उनके सान्निध्य का सुश्रवसर मिलता है, परिवार के बालक-बालिकाएं उन्हें घेरे रहते हैं । महासतीजी म० उन्हें जो आध्यात्मिक स्नेह देती रहती हैं, वह उनके जीवन के लिए निःसन्देह एक वरदान है । मुझे स्मरण करते बड़ा हर्ष होता है, मेरी पुत्री जयन्ती और कला से श्रद्धास्पदा महासतीजी म० के पास ही भक्तामर का अध्ययन प्रारंभ किया, जो आगे विकसित होता गया । महासतीजी म० की यह अपनी अप्रतिम विशेषता है, वे बालक-बालिकाओं में बड़ी रुचि लेती हैं और उन्हें मातृवत् आध्यात्मिक वात्सल्य से अनुप्राणित करती रहती हैं ।
जैन संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के अभ्युदय तथा विकास का आधार चतुविध धर्मसंघ है, जो श्रमण-श्रमणी श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका के रूप में चार सबल, सुन्दर स्तंभों पर टिका है। श्रमण जीवन संयम एवं साधना के समग्र परिवेश में प्रतिष्ठित होने के कारण परम पवित्र है । जो अपनी दुर्बलताओं के कारण श्रमणजीवन स्वीकार करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं, वे श्रमण श्रमणियों की उपासना, सान्निध्य तथा सत्संगति से प्रेरित, प्रभावित एवं ग्रनुप्राणित होते हैं और यथाशक्ति व्रतमय जीवन अंगीकार करते हैं । श्रमणोपासक और श्रमणोपासका शब्दों की यह सार्थकता है । श्रमण श्रमणी तथा श्रमणोपासक - श्रमणोपासिका - इनका पारस्परिक संबंध गुरु-शिष्य का पवित्र संबंध है, जिससे गृही वर्ग को धार्मिक जीवन जीने में स्फूर्ति और शक्ति प्राप्त होती रहती है । पूजनीया महासतीजी म० का और हमारा यही शाश्वत संबंध है, जिसके मूल में अध्यात्मचेतना तथा संयमनिष्ठ प्रास्था की प्राणप्रतिष्ठा । इस अर्थ में गुरुवर्या महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" हम सब के लिए प्राध्यात्मिक प्रेरणा की निश्चय ही पावन स्रोतस्विनी हैं । हमें अपने धार्मिक जीवन में सदैव उनसे संबल प्राप्त होता रहता है । हमारा यह गुरु-शिष्यात्मक सात्त्विक संबंध उत्तरोत्तर वृद्धिशील है, जिसे मैं और मेरे पारिवारिक जन अपना सद्भाग्य समझते हैं ।
यहाँ एक बात का विशेषरूप से उल्लेख करना चाहूँगा । जब मैं मद्रास में जैनोलॉजी के कार्य में प्रवृत्त हुआ, तब पूजनीया महासतीजी म० से मुझे जो प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं आशीर्वाद मिला, वह मेरे लिए अत्यन्त स्फूर्तिप्रद सिद्ध हुआ । उन्होंने इस बात पर हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की कि उनका एक उपासक जैन- विद्या, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के प्रसार तथा प्रभ्युदय के पुनीत कार्य में जुटा है । महासतीजी म० सा० की दृष्टि में किसी भी धर्म और संस्कृति की चिरजीविता उसके दर्शन या तत्त्वज्ञान के समुज्जीवन, संवर्धन और सम्प्रसार में है ।
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द्वितीय खण्ड / ११६ ज्यों-ज्यों जैनोलॉजी का कार्य अग्रसर होता गया, मैं उनकी सेवा में वस्तुस्थिति निवेदित करता रहता। उनके आशीर्वाद मुझे मिलते रहे, आज भी मिल रहे हैं। साथ ही साथ वे हमारे जैन विद्या के महनीय अभियान के अनन्य सहयोगी तथा मार्गदर्शक देश के परम प्रख्यात विद्वान् श्रीयुत डॉ० छगनलालजी शास्त्री, जो परम श्रद्धास्पद प्रातः स्मरणीय युवाचार्यप्रवर श्री मधुकर मुनिजी म. सा० तथा पूजनीया महासतीजी म. सा. के साहित्यिक कार्यों में सम्प्रेरक एवं सहभागी रहे हैं, को भी वे समय-समय पर विशेषरूप से प्रेरित करती रहीं कि वे इस कार्य को सर्वाधिक प्राथमिकता दें और अपनी विद्या द्वारा इसके ज्ञानपक्ष, अध्ययनपक्ष, अनुसंधानपक्ष को समुन्नत बनाने में अपना महत्त्वपूर्ण निर्देशन प्रदान करते रहें। यह प्रकट करते मुझे अत्यन्त हर्षोल्लास होता है कि महासतीजी म० की प्रेरणाएं मेरे लिए, जैनोलॉजी के कार्य के लिए निःसन्देह वरदान सिद्ध हो रही हैं।
योग महासतीजी म. के जीवन का मुख्य विषय है । न केवल उन्होंने पातंजलयोग, जैनयोग आदि का अध्ययन ही किया है, वरन् उन्होंने जीवन में अध्यात्मयोग की यथार्थ क्रियान्विति भी की है। शास्त्रीय बोध तथा अनुभूतिजनित उपलब्धियों द्वारा उनके जीवन में योग का वह अवदात रूप प्रस्फुटित हुआ है, जिसके साथ अनेकानेक यौगिक विभूतियाँ संपृक्त हैं। महासतीजी म० के पावन, सात्त्विक जीवन से हम सबको अधिकाधिक प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए।
__ यह बड़े सौभाग्य की बात है कि महासतीजी म० का साध्वी-शिष्या-समूह भी उनके उदात्त जीवन का सम्यक् अनुसरण करते हुए ज्ञानाराधना और संयम-साधना में सतत संलग्न है । महासतीजी म० कुशल आध्यात्मिक प्रशिक्षिका होने के साथसाथ, अनुशासन एवं प्रशासन, जो संयमी जीवन के प्रमुख अंग हैं, के निर्वाह में सर्वथा निपुण एवं प्रवीण हैं । यही कारण है, उनका साध्वीसमुदाय संयमीजीवन के एक आदर्श प्रतीक के रूप में विभासित होता है।
__ आचारनिष्ठता, योगानुरक्ति, निःस्वार्थवत्ति तथा परमकारुणिकता महासतीजी म० के जीवन के वे विशिष्ट गुण हैं, जो उनके साधनानुस्यूत जीवन का सार्थक्य प्रकट करते हैं।
अनवरत जागरूकता, प्रमादशून्यता महासतीजी म. में आकण्ठ व्याप्त है। उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत है, लाखों व्यक्तियों से उनका आध्यात्मिक, धार्मिक संबंध है, जो समय-समय पर उनके संपर्क में आते रहते हैं । जीवन-शुद्धि के सन्दर्भ में विविध विषयों पर वार्तालाप होता है । आश्चर्य है, महासतीजी म० की स्मरणशक्ति इतनी तीव्र है कि वह सब उनकी स्मृति में संस्थित रहता है। हमारा अपना अनुभव है, एक-दो वर्ष बाद जब भी हम उनकी सेवा में उपस्थित होते हैं. वे हमारे साथ पिछले वार्ता-प्रसंग का सन्दर्भ देते हुए वर्तमान वार्तालाप को आगे बढ़ाती हैं । यह पूर्व पुण्यप्रसूत एक महनीय संस्कार-निष्पन्न गुण है, जो विरले ही व्यक्तियों में होता है ।
___ अपरिसीम श्रद्धा, आदर, तथा सम्मानपूर्वक अपनी ओर से, अपने सभी पारिवारिक जनों की ओर से महासतीजी म० का कोटि-कोटि अभिनन्दन करता हूँ।
-प्रधान सचिव, जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, मद्रास-७९
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अभिनमन : अभिवन्दन : अभिनन्दन
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__ भारतीय संस्कृति में ऋषियों, मुनियों एवं सन्तों का सर्वाधिक महत्त्व स्वीकार किया गया है । उनका जीवन शील, सदाचार, साधना, सेवा एवं सहृदयता का सजीव प्रतीक होता है । इन सद्गुणों के सतत, सहज आचरण द्वारा उनके व्यक्तित्व में एक ऐसी दिव्य प्राभा प्रस्फुटित होती है, जिससे उनके संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर उनका अमोघ प्रभाव पड़ता है। ____ इतिहास साक्षी है, समय-समय पर सत्पुरुषों तथा सन्नारियों के रूप में सन्तजीवन का अवतरण होता रहा है, जिनसे तत्कालीन समाज बहुत-बहुत उपकृत हुआ। इतना ही नहीं, उनकी जीवन-गाथाओं की स्मृति आज भी जन-जन में अन्तःस्फति उद्भासित करती है।
कौन नहीं जानता, भारतीय संस्कृति के निर्माण, विकास तथा संवर्धन में त्यागतपोनिष्ठा, साधनानुरता, सेवापरायणा, विद्याविभूषिता महिमामयी सन्नारियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उनके दिव्य-जीवन की गौरवगाथाएँ इतिहास के पष्ठों पर सत्त्वोन्मुखी प्रेरणा की अमत-स्रोतस्विनियों के रूप में आज भी अक्षुण्णतया विद्यमान हैं। जब तक इस जगत् में सत्य, शील, सच्चारित्र्य, त्याग, भक्ति एवं सेवा का किसी न किसी रूप में अस्तित्व रहेगा, वे कभी धूमिल नहीं होंगी, सदा ऊर्जस्वल बनी रहेंगी। गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, पद्मिनी, ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दनबाला, याकिनी महत्तरा, महाप्रजापति गौतमी, सुजाता एवं विशाखा आदि सन्नारियाँ, जो भारतीय संस्कृति की ब्राह्मण एवं श्रमण-दोनों परम्पराओं से सम्बद्ध हैं, इसी गुणरत्नमयी माला की अमूल्य मणियाँ थीं। निश्चय ही श्रद्धा, समर्पण, बलिदान, तितिक्षा आदि उत्कृष्ट गुणों की दृष्टि से नारी की महिमा अपार है । महाकवि प्रसाद ने
"नारी ! तू केवल श्रद्धा है, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ॥" इन शब्दों में नारी के जिस श्रद्धा-संसिक्त रूप का आख्यान किया है, वह निःसंदेह उसकी दिव्यता एवं पावनता का द्योतक है।
यदि प्रत्येक युग के इतिहास का आकलन करें तो यह तथ्य स्पष्टतया प्रकट होगा कि नारी की विभिन्न रूपों में उस "युग" के उन्नयन में बहुत बड़ी देन रही है । आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सभी क्षेत्रों में सन्नारियों द्वारा सम्पादित उत्तमोत्तम कार्यों की एक स्पृहणीय परम्परा हमें प्राप्त है।
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द्वितीय खण्ड | ११८
न यह कोई अतिशयोक्ति है तथा न अनपेक्षित स्तुति ही, महासती श्री उमराव- कुंवरजी म. "अर्चना" भारत के अध्यात्म-जगत् की उन परम गौरवास्पद,
सम्मानास्पद साधिकाओं में से हैं, जिन्होंने अध्यात्म की गरिमा को अपने साधनानिष्णात जीवन द्वारा समुन्नत किया । मुझे प्रत्यक्षतः उनके साधनामय जीवन के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है । मैंने स्वयं यह अनुभव किया है कि उनका जीवन बाह्य प्रपंचों से सर्वथा विमुक्त है, अात्मचिन्तन में तथा ध्यान-योग में सतत संलग्न है । जैसी कि योग के महान् साधकों एवं साधिकानों के जीवन से अध्यात्म की एक दिव्य आभा प्रस्फुटित होती है, महासतीजी म० के जीवन में भी इस प्रकार की यौगिक दिव्यता की साक्षात् अनुभूति होती है ।
साधना के मुख्य रूप में दो अंग हैं-ज्ञान तथा चर्या । महासतीजी इन दोनों ही अपेक्षाओं से अपनी अनुपम विशेषता लिए हए हैं। धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्मयोग उनके जीवन के मुख्य विषय हैं, जिनका उन्होंने गहन अध्ययन किया है और अपने दैनन्दिन जीवन में उन्हें क्रियान्वित किया है । योग महासतीजी के जीवन का प्रिय विषय है। योग वाङमय में उन्हें सहज अभिरुचि है। तत्संबंधी साहित्य का अधिकाधिक प्रसार हो, उनकी यह हार्दिक कामना है, जो उनको प्रेरणा तथा मार्गदर्शन में देश के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० श्री छगनलालजी शास्त्री एम० ए० "त्रय", पी-एच० डी० द्वारा संपादित एवं अनूदित जैन-योगग्रन्थ-चतुष्टय नामक ग्रन्थ के अवलोकन से प्रतीत हुआ। इसके अन्तर्गत स्वनामधन्य, प्रातः स्मरणीय महामहिम आचार्य श्री हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित योगदृष्टिसमुच्चय योगबिन्दु, योगशतक तथा योगविशिका नामक चार कृतियाँ हैं। प्राचार्य हरिभद्र जैसे महान् मनीषी, महान् सन्त के ये चारों ग्रन्थ अब तक हिन्दी-जगत् को उपलब्ध नहीं थे। महासतीजी म० की प्रेरणा से पहली बार इनका हिन्दी अनुवाद से साथ प्रकाशन हुआ। उनके मन में यह भावना है, जैन प्राचार्यों द्वारा योग पर रचित अन्यान्य ग्रन्थ भी, जो अब तक हिन्दी-जगत् को प्राप्त नहीं हो सके हैं, प्राप्त हों।
शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ महासतीजी म. ने अपनी दीर्घकालीन योग-साधना द्वारा, आत्मानुभूति द्वारा, ध्यान, आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि के सन्दर्भ में जो उपलब्धियां की हैं, वे अपने आप में निराली हैं। अपनी सन्निधि में आने वाले साधकों और साधिकाओं को वे उनका अभ्यास कराती हैं, जिससे साधकसाधिकाओं को अब तक बहत लाभ हुआ है तथा हो रहा है । मालव संभाग का यह सौभाग्य रहा है कि पिछले दो-तीन वर्षों से मालव-भूमि महासतीजी म० के चरणस्पर्श से पवित्र हो रही है। अपने मालव-प्रवास के मध्य महासतीजी म० ने जिज्ञासु और मुमुक्षु जनों को अपनी यौगिक उपलब्धियों से जो लाभान्वित किया है, वह उनका निश्चय ही मालववासियों पर बड़ा उपकार है । मुझे उनके मालवप्रवास में अनेक बार उनके सान्निध्य का लाभ लेने का सुअवसर प्राप्त होता रहा है । जब भी मैं उनके दर्शन करता हूँ, उनके साथ धर्म-चर्चा, ज्ञान-चर्चा करता हूँ, मुझे अनुपम शान्ति का अनुभव होता है।
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अभिनमन : अभिवंदन : अमिनन्दन / ११९
महासतीजी म० के जीवनवृत्त पर जब हम चिन्तन करते हैं तो बड़े प्रेरक तथ्य हमें अधिगत होते हैं । शैशवावस्था में मातृ-वियोग तथा विवाह के केवल दो वर्ष बाद पति-वियोग-ये दो ऐसी घटनाएँ उनके जीवन में घटीं, जिनका धैर्य के साथ सामना करना बहुत कठिन कार्य था । ऐसी घटनाएँ व्यक्ति को तोड़ डालती हैं, किन्तु इन गरिमामयी सन्नारी ने इन भीषण आघातों को उन्नतिमय सोपानों के रूप में बदल डाला । भौतिक सुखों के विरह एवं प्रभाव की इस अंधकारमयी निशा को उन्होंने आत्मोत्कर्ष की ज्योतिर्मयी उषा के रूप में परिणत कर डाला। अत्यधिक धैर्य तथा साहस के धनी अपने श्रद्धय पिताश्री मांगीलालजी के साथ उन्होंने जैन भागवती दीक्षा स्वीकार की। अपने युग के महान् मनीषी, जैन-शासन के परम उन्नायक मुनिश्री हजारीमलजी म० की छत्रछाया तथा उद्बुद्ध अध्यात्म-साधिका महासतीजी सरदारकुंवरजी म० के अन्तेवासीत्व में यह महान् सन्नारी ज्ञान तथा चारित्र की आराधना में प्राणपण से जुट पड़ी। स्वाध्याय उनके जीवन का पाथेय बना, चारित्र्य की प्रकृष्ट साधना जीवन का ध्येय । जहाँ आत्मरस, लगन तथा कर्म का समवाय सध जाता है, वहाँ निश्चय ही परमोत्तम फल-निष्पत्ति होती है। ये उत्तरोत्तर प्रात्मोन्नति के प्रशस्त-पथ पर अग्रसर होती रहीं। प्रबुद्ध ज्ञानयोगी, बहश्रुत पण्डितरत्न युवाचार्य-प्रवर श्रीमधुकर मुनिजी म० का मार्गदर्शन इन्हें प्रारंभ से ही प्राप्त रहा, जो इनके विद्यामय, चारित्रमय, साधनामय, प्रभावनामय जीवन के सर्वतोमुखी विकास में अनन्य सहायक सिद्ध हुआ । इन महान् नारी की आध्यात्मिक-साधना की ५० बर्षों की संपूर्ति इनके अध्यात्मयोगनिष्ठ जीवन का वह साकार निदर्शन है, जिससे साधनारत भाई-बहिन अन्तःस्फूर्ति और प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। प्राज महामहिम मनिश्री हजारीमलजी म. सा.. प्रात:स्मरणीया मद्रा सतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा० एवं परम श्रद्धास्पद युवाचार्यप्रवर श्री मधुकर मुनिजी म. सा. हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उन तीनों की सद्गुण-संपत्ति को एक
आध्यात्मिक धरोहर के रूप में महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० अपने आप में संजोए हैं।
संत जीवन के दो लक्ष्य होते हैं सबसे पहले स्वयं अपने कल्याण में अभिरत रहना, उत्तरोत्तर गतिशील रहना तथा दूसरे लोककल्याण हेतु प्रयत्नशील होना । महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० ने आत्मकल्याण को तो अपना मुख्य ध्येय माना ही, उसमें उत्तरोत्तर विकास किया ही, साथ ही साथ अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों से जन-जन को लाभान्वित करने का भी उन्होंने सतत प्रयास किया। भारत के अनेक प्रदेशों में उन्होंने अपने साध्वी-समूदाय के साथ पद-यात्राएँ कीं। वे प्रथम
जैन साध्वी हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम काश्मीर की पर्वतीय भूमि की पद-यात्रा की । इन . पद-यात्रामों में उन्होंने जाति, वर्ग तथा वर्ण भेद के बिना जन-जन को सत्यमय,
सदाचारमय, नीतिमय जीवन को ओर प्रेरित किया, अग्रसर किया। लाखों व्यक्ति उनसे प्रेरित हुए, धर्मोन्मुख बने।
विद्या तथा साधना में अति उच्च स्थान प्राप्त करने पर भी उनके जीवन में एक शिशु की सी सरलता, सहजता एवं भद्रता है, जो वास्तव में मानव का एक
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द्वितीय खण्ड / १२०
दुर्लभ गुण है। उनका हृदय आध्यात्मिक स्नेह और सौहार्द से सदा छलछलाता रहता है। जो भी उनके सम्पर्क में आता है, उनके विराट व्यक्तित्व से न केवल प्रभावित होता है, वरन् वह सहज ही धर्मोपदिष्ट भी होता है। वाक्प्रयोग के बिना भी महासतीजी म० का व्यक्तित्व अनक्षरी भाषा में कुछ ऐसा बोल जाता है, जिसकी . आने वाले व्यक्तियों के मानस पर अमिट छाप पड़ती है। पिछले अर्धशताब्द से यह महान् नारी अथक रूप में अपने ध्येय की ओर बढ़ती ही जा रही है। न इन्हें प्रतिकूल परिस्थितियाँ रोक पाती हैं और न बाधाएँ ही कोई व्यवधान पैदा कर पाती हैं । इनके साधनामय जीवन के ये ५० वर्ष अध्यात्मोत्कर्ष की वह अमर कहानी है, जिसका प्रत्येक शब्द, प्रत्येक अक्षर ज्ञान और चारित्र्य की दिव्यता से ओतप्रोत है । मानवता की उपासना में अनन्य आस्थावान् मैं मानवीय उत्कर्षों की पुण्यपुंज-स्वरूपा इन महान् नारी का इनके दीक्षा-स्वर्णजयन्ती के पावन अवसर पर हृदय से अभिनन्दन करता हूँ और यह सत्कामना करता हूँ, इनकी गौरवमयी धर्मयात्रा, जीवनयात्रा निष्कण्टक, निर्द्वन्द्व रूप से गतिशील रहे और कोटि-कोटि मानवों के लिए श्रेयस्कर, कल्याणकर सिद्ध हो । पुनः अभिनमन, अभिवंदन, अभिनन्दन ।
-संयोजक अ०भा० संत सेवक समुद्यम परिषद्
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श्री बी.एल.नागर एवं संघ अध्यक्ष श्री उमवाव मलजी ठड्डा सेयोग विषय पर चर्चा करते हुए महासतीजी
हरिओमकेन्द्र इन्दौर के साघकों मे योग साधना (d के लिय मार्गदर्शन देते हुए .
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योगेश्वरी महासती श्री अर्चनाजी
- आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री एम. ए. (त्रय), पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
न यह कोई अतिरंजना है और न प्रशस्तिपूर्ण अलंकृति ही, महासती श्री अर्चनाजी का जीवन निःसन्देह अपने आप में अध्यात्मयोग का एक जाज्वल्यमान प्रतीक है। ध्यान उनके जीवन का अनन्य अंग है, जिसकी परिपुष्टि में उनकी साधना का शतदल उत्तरोत्तर विकसित होता गया। वह विकासक्रम आज इस स्थिति में पहुँच गया है, जिसकी स्वाध्याय, अभ्यास एवं अनुभूति प्रसूत दिव्य रश्मियाँ जन-जन में, जो उनकी सन्निधि का सौभाग्य प्राप्त करते हैं, नवजीवन का संचार करती हैं। ___महामहिम, अध्यात्मयोग के हिमाद्रि प्राचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि समुच्चय में जो कुलयोगियों की चर्चा की है, जिस ओर मैंने एक अन्य निबन्ध में भी संकेत किया है, महासतीजी पर पूर्णरूप से घटित होती है । उन्हें योग संस्कार से प्राप्त है । शैशव से ही ध्यान, चिन्तन, मनन की ओर उनका एक विचित्र स्थान रहा है । संयममय जीवन अंगीकार करने के पश्चात् इस दिशा में उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्वायत्त करने की ओर उनका जो सदुद्यम रहा है, वह अध्यात्मसाधना के इतिहास का एक उज्ज्वल अध्याय है। ज्ञास्त्राध्ययन के अन्तर्गत उन्होंने योगविषयक ग्रन्थों के परिशीलन में विशेष रस लिया। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के साथ प्राचार्य हरिभद्र, प्राचार्य हेमचन्द्र, प्राचार्य शुभचन्द्र, उपाध्यय यशोविजय आदि के संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों का पारायण किया। राजस्थानी आदि लोक-भाषाओं में रचित योग सम्बन्धी कृतियों का भी अनुशीलन किया।
__अध्यात्म, साधना एवं योग-ये ऐसे विषय हैं, जो वर्गबद्धता, व्यक्तिबद्धता या संप्रदायबद्धता से सर्वथा विमुक्त हैं। संप्रदाय को आज हम संकीर्ण वर्ग या समुदाय के अर्थ में लेते हैं, जो ठीक नहीं है । “सम्प्रदायो गुरुक्रमः"-कोशकार ने उसका जो गुरु-परम्परा-मूलक अर्थ किया है, वह बड़ा सारभित है, व्यापक एवं असंकीर्ण है। गुरुक्रम के अनुसार विभिन्न परम्परा एवं परिवेश परिगत योगाभ्यास के पद्धतिक्रम कुछ भिन्न हो सकते हैं, किन्तु नैश्चयिक दृष्टि से वह भिन्नता केवल बहिर्गत होती है, अन्तर्गत नहीं। महासती श्री अर्चनाजी इस चिन्तनधारा में परम आस्थावती हैं। यही कारण है, जैन परंपरा के साधक-साधिकाओं के अतिरिक्त अन्यान्य परंपराओं के साधक-साधिकारों के साथ भी उनका घनिष्ठ आध्यात्मिक स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहा है, आज भी है, जो पारस्परिक आदान-प्रदानात्मक आत्मोत्कर्ष के उभयस्पर्शी उपक्रम के रूप में प्रतिफलित है।
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द्वितीय खण्ड | १२२
राजस्थान में निराकार ब्रह्मोपासक रामस्नेही संप्रदाय का कभी बड़ा प्रसार था। आज भी जोधपूर, नागौर आदि जनपदों में उसका यत्किचित अस्तित्व है। मेड़ता मंडल की भूमि अतीत से ही साधना की दृष्टि से बड़ी पावन एवं दिव्य रही है । एक ओर भक्ति-निष्णात महिमामयी मीराबाई के भक्ति-गीतों से जहाँ यह मुखरित रही, वहाँ दूसरी ओर महान जैनयोगी आनन्दघन जैसे पुण्यपुरुषों की साधना-स्थली होने का भी इसे गौरव प्राप्त है। रामस्नेही परंपरा के अनेक सिद्ध पुरुष यहाँ हुए हैं । वह परम्परा सर्वथा विलुप्त नहीं हुई है, छोटे-छोटे गांवों में, एकान्त वनभूमि में यत्र-तत्र आज भी कतिपय ऐसे साधक हैं, जो लोकैषणा से अस्पृष्ट हैं, साधना में अभिरत हैं। न केवल संत ही, वरन् गृही वर्ग में अनेक सत्पुरुष एवं सन्नारियां विद्यमान हैं, जिन्हें ध्यान-सिद्धि प्राप्त है, जो समाधि-दशा की अनुभूति में सक्षम हैं।
महासतीजी का इस साधक-परम्परा के साथ बड़ा नैकट्य रहा है । स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गहि-लिंग-सिद्ध जैसे शाश्वत, सार्वजनीन आदर्शों से अनुप्राणित महासतीजी म० का साधना की दृष्टि से सम्पर्क-क्षेत्र बहुत व्यापक रहा है। प्रत्येक क्रिया की अपनी प्रतिक्रिया होती है। महासतीजी म. के उदात्त व्यक्तित्व की छाप सर्वत्र पड़ी है। उनसे जैन स्त्री-पुरुष जितने प्रभावित हैं, अजैन उनसे कम नहीं हैं, प्रत्युत अधिक कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। गांव-गांव की ठकुरानियाँ, बहुएं, बहिनें, बेटियां, वृद्ध, युवक सभी गांववासी, नगरवासी बिना किसी भेद एवं दुराव के उनके सान्निध्य से सोत्साह लाभान्वित होते हैं ।
यह लोक-संपर्क जहाँ एक ओर शाश्वत धर्म की व्यापक प्रभावना के रूप में प्रस्फुटित हुआ, वहाँ दूसरी ओर महासतीजी के जीवन में, जो शास्त्रानुशीलन, स्वाध्याय एवं ध्यानमय साधना की अलौकिकता लिये है, नव, अभिनव, अनुभूतियों के संचय में भी बड़ा साहाय्यप्रद सिद्ध हुआ।
श्रमण-परम्परा से सम्बद्ध होने के नाते महासतीजी म० के जीवन का व्यावहारिक पक्ष यद्यपि समाज के परिष्कार, सुधार और उन्नयन से सम्बद्ध है, किन्तु उस में वे अपने को खो नहीं देतीं। सामाजिक चेतना और समुन्नति की प्रेरयित्री होते हुए भी वे जल में निलिप्त कमल की ज्यो उससे अस्पृष्ट और असंपृक्त रहती हैं । फलतः उनके जीवन का अान्तरिक साधनापक्ष अनवरत उन्नत, उत्कृष्ट और उद्वधित होता गया, जिसका मूर्त प्राकट्य एक महनीया योगेश्वरी के रूप में हमें उपलब्ध है। ___ धर्मसंघीय उत्तरदायित्व का सम्यक् निर्वाह करते हुए भी प्रात्म-तृप्ति का जहाँ प्रसंग है, वहाँ महासतीजी सर्वात्मना योग एवं ध्यान में समर्पित हैं ।
महासतीजी म. केवल वाचिक धर्मोपदेशिका नहीं हैं, वरन् वे सही माने में एक कुशल प्रवचनकार हैं। भारतीय वाङमय में प्रवचन शब्द अपने आप में बड़ा महत्त्व लिये है । वचन के साथ जुड़ा "प्र' उपसर्ग प्रकर्ष या उत्कर्ष का द्योतक है । वचन का उत्कर्ष यथार्थतः तब सधता है, जब वचन-प्रयोक्ता की जीवन-सरणि
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योगेश्वरी महासती श्री अर्चनाजी / १२३
वचन का अनुसरण करती हो। उससे कथन एवं कृतित्व अन्तराल-व्याप्त नहीं । होता । महासतीजी म. सा० का जीवन इस कसौटी पर सौ टंच खरा उतरता उनकी वाणी सचमुच दिव्य-भावों की स्रोतस्विनी है। उनके वाक्प्रयोग का लक्ष्य वाग्मिता-प्रकाशन नहीं है, वरन् आत्मकल्याण है, विश्व-वात्सल्य है।
महासतीजी की सर्वातिशायी, सर्वोत्कृष्ट देन उन द्वारा निरूपित अनुभूतिप्रसूत ध्यान-पद्धति है, जिससे उनके संपर्क में आने वाला विपुल नर-नारी समुदाय लाभान्वित हुआ है, हो रहा है, सदा होता रहेगा।
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एक अनोखा व्यक्तित्व : अर्चनीय श्री अर्चनाजी
0 श्रीमती महिमा वासल्ल, एम. ए.
सामान्य व्यक्ति कहाँ और किस समय जन्म लेता है, उसका लालन-पालन व पोषण किस प्रकार होता है, यह किसी को जिज्ञासा नहीं होती। किन्तु जब व्यक्ति व्यष्टि की सीमा को लांघकर समष्टिमय बनता है, उसका कार्य और उसकी विचारधारा 'सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय' होती है तो उसके जीवन को जानने की भावना जनमानस में जागत होती है। उसके कार्यकलाप, मानसिक व्यापार तथा बौद्धिक चिन्तन की सहस्र रश्मियां जन-जन के मानस में बिखरती हैं और उनमें नव-जीवन फूंकती हुई सुषुप्त भावनाओं को जाग्रत करती हैं। वह सबके लिए आदर्श बन जाता है।
जिनका जीवन महान् है, गौरवशाली रहा है और जीवन का प्रत्येक पायाम देदीप्यमान है, ऐसे व्यक्तियों को शब्दों की परिधि में परिवेष्टित करना बहुत कठिन है और जितना परिवेष्टित कर सकेंगे, उससे भी अधिक अछूता रह जाता है । शब्दों की सीमित शक्ति असीम को अपने में समाविष्ट करने में सक्षम भी तो नहीं है। फिर भी परिचय के लिए कुछ न कुछ शाब्दिक प्रयोग अपेक्षित होता है, अतएव अब ऐसे ही एक महनीय व्यक्तित्व के परिचय के लिए यत्किचित शाब्दिक रूपरेखा प्रस्तुत कर रही हूँ, वे हैं अध्यात्मयोगिनी साध्वीसत्तमा श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना'।
महासतीजी की प्राकृति मंगलमयी है और प्रकृति प्रशस्त है, वे असाधारण प्रतिभासम्पन्न हैं. अमित प्रात्मबली और साथ ही कुशल अनुशासिका हैं । महासतीजी एक सेवाभावी, सतत जागरूक साध्वी रही हैं और आज भी हैं, पर आप उनसे मिलिए, उनकी सहज सरल और निर्मेल आंखों में झांकिये, मंद मुस्कान से युक्त उनकी मुखमुद्रा को पढिए, उनके स्वाभाविक रहन-सहन व बोलचाल का निरीक्षण कीजिए, कहीं भी अधिकार की गंध नहीं आयेगी। गर्व की एक रेखा भी दिखाई नहीं देगी। उनकी कृति से, उनकी प्राकृति से, प्रकृति से सहजता टपकती है। उनके व्यवहार की प्रत्येक करवट सहिष्णुता, सेवा और सचाई की छवि लिए हुए है। कहना होगा
करते हैं कर्तव्य किन्तु जरा अभिमान नहीं है, फूल खिला है, पर खिलने का भाव नहीं है। सब कुछ किया समर्पण जिसने निज जीवन का, उनकी महिमा का होता कुछ अनुमान नहीं है ।
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एक अनोखा व्यक्तित्व : अर्चनीय श्री अर्चनाजी / १२५
A
मनुष्य की कर्त्तव्यविधि का विश्लेषण करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है
अट्ठकरे णामं एगे णो माणकरे । माणकरे णामं एगे णो अट्ठकरे। एगे अट्ठकरे वि माणकरेवि ।
एगे णो अट्ठकरे, णो माणकरे। कुछ व्यक्ति सेवा प्रादि कर्त्तव्य करते हैं किन्तु उसका अभिमान नहीं करते। कुछ अभिमान तो बहुत करते हैं किन्तु कार्य कुछ नहीं करते। कुछ कार्य भी करते हैं और उसका अहंकार भी करते हैं। कुछ न कार्य करते हैं और न अहंकार ही करते हैं । इनमें प्रथम श्रेणी का कर्तव्य-साधक सर्वश्रेष्ठ है । वह बहुमूल्य हीरा है, मूल्यवान मणि है, जो कभी अपना मूल्य अपने मुंह से नहीं बताता-"हीरा मुख से ना कहे लाख हमारा मोल" ।
वह साधक ऐसा सुन्दर सुमन है जो अपनी सौरभ बिखेरता है और मकरंद लुटाता रहता है किन्तु यशोलिप्सा नहीं है, मानसम्मानप्राप्ति की आकांक्षा, उत्सुकता नहीं है, चाहना नहीं है।
वह कर्तव्यनिष्ठ पुरुष अंधकार से निरन्तर संघर्ष करते रहने वाला दीपक है जो प्रतिक्षण दिव्य ज्योति-किरणें फैलाता रहता है ।
परम तपस्विनी महासती श्री उमरावकुंवरजी भी इसी कोटि की एक साधिका हैं जो निरन्तर साधना करते हुए एवं कर्तव्य की कठोर असिधारा पर चलते हुए भी अहंकार से अछूती हैं।
महासतीजी हमेशा से सिद्धान्तवादी रही हैं । सिद्धान्त के लिए किसी के सामने झुकना उन्हें पसन्द नहीं है । जीवन में नम्रता व कोमलता होने पर भी सिद्धान्तों की रक्षा में वज्र से भी अधिक कठोर हैं। उनके सिद्धान्तवादी दृष्टिकोण को शायर के शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं
राहे खुद्दारी से मरकर भी भटक सकते नहीं।
टूट तो सकते हैं हम, लेकिन लचक सकते नहीं। महासतीजी जब आनन्दघनजी, विनयचन्दजी, देवचन्दजी, यशोविजयजी, पूज्य जयमलजी, प्राचार्य रायचन्दजी आदि के त्याग वैराग्य से छलछलाते हुए भजन गाती हैं तब श्रोता आध्यात्मिक अनुभूतियों में निमग्न हो जाते हैं । वे प्राचीन जैनलिपि व जैनग्रन्थों की सुदक्ष ज्ञात्री हैं, मोती के दाने के समान उनके सुन्दर अक्षर हैं।
प्रस्तुत अभिनन्दनग्रंथ महासतीजी का नहीं अपितु उनमें निवास करने वाले सद्गुणों का है । उनका जीवन सद्गुणों का गुलदस्ता है, उसको मधुर महक हमें सुदीर्घ काल तक प्राप्त होती रहे--यही मंगल-कामना और भव्य-भावना है।
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आस्था के उजाले में श्रद्धासिक्त संस्मरण
[प्रांगन के गीले सीमेंट पर जैसे कोई पांव रखकर चला जाता है और फिर वे अंकित चिह्न कभी नहीं मिटते, वैसे ही सन्तों का जीवात्माओं के मन पर अमिट प्रभाव होता है । श्रमणीरत्न, अध्यात्मयोगिनी, काश्मीर-प्रचारिका, मालवज्योति श्री उमरावकुंवरजी म० सा० गत पचास वर्षों से साधनापथ की शोभा बढ़ा रही हैं। इस अन्तराल में संख्यातीत जीवात्माओं को प्रापने दिशा-बोध दिया है। प्रास्था के उजाले से उनके मन के अंधेरे को दूर किया है। उन्हें शीलाचार, आत्मनिग्रह और एकाग्र संयम का महत्त्व समझाया है । उनके जीवन को सर्वतोमुखी, उच्च, गम्भीर, सूक्ष्मतर, सुन्दरतर और समृद्धतर बनाया है । काश्मीर की बर्फीली घाटियों से लेकर मरुधरा के तपते हुए रेगिस्तान तक आपके अनेक भक्त हैं, जो आपकी कभी भी विस्मृत नहीं कर सकते, क्योंकि आपने उनकी आत्मा का शृंगार किया है, उन्हें ज्ञान, तप, संयम और योग के आभूषणों से सुसज्जित किया है। उनके लिए गुरुवर्या ऐसी हैं जैसे बर्फ से ढके किसी पहाड़ से प्रातः का सूर्य अपनी रश्मियों के रथ पर आ रहा हो । आपके दिव्य-जीवन ने अनेक व्यक्तियों को प्रभावित किया है और वह आजीवन प्रापकी छाया की सुखद अनुभूतियों को भुला नहीं पायेंगे ।
इस अध्याय में कतिपय संस्मरण प्रस्तुत हैं। पाठक इस तथ्य का ध्यान रखें कि यह संस्मरण प्रतिष्ठित साहित्यकारों के नहीं अपितु श्रद्धासिक्त भक्त श्रावकों आदि के हैं। अत: उनमें शिल्पगत प्रांजलता भले ही उच्चकोटि की न हो लेकिन अनुभूतिजन्य सच्चाई है, जिन्हें उन्होंने सरल ढंग से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। -सम्पादक ]
सब भाँति सदा सुखदायक हो, दुख दुग्ण नासनहारे हो चमके सुयशचन्द्रिका
0 साध्वी सेवावन्तीजी
यह पूर्वजन्म के पुण्यों का फल है कि मैं गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के साथ साधनापथ पर चल रही हूँ। मुझे आपके साथ रहते हुए प्रतिपल अलौकिक सुख की अनुभूति होती है । आपका सम्वत् २०१६ का चातुमसि लुधियाना में था। मैंने जब म० सा० के प्रथम बार दर्शन किये तो मुझे प्रतीत
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मांगलिक कल्पवृक्ष | १२७ हुना कि आपके साथ मेरा ऐसा ही रिश्ता है जैसा वीणा के तारों का संगीत-लहरी के साथ होता है । मैं नियमित रूप से आपके दर्शनार्थ जाने लगी । आपके प्रवचन सुनती और किसी अनागत सुख के चिन्तन में खो जाती ।
मुझे गत बीस पच्चीस वर्षों से दौरे पड़ते थे। जब भी दौरा पड़ता मेरे दाँत भिंच जाते. मैं छटपटाने लगती और कभी-कभी तो मच्छित हो जाती। मुझे गुरुणी जी म० की सेवा का अवसर मिला और मेरी बीमारी सदा-सदा के लिए दूर हो गयी। मेरा हृदय श्रद्धासिक्त हो गया और घर की दीवारों में मेरा मन नहीं लगा। मैं तो साधना के आकाश में उन्मुक्त पक्षी के समान उड़ने का स्वप्न देखने लगी । मेरे परिवार में पति, दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं लेकिन फिर भी मन तो जैसे सारी सृष्टि को अपना घर बनाने की कामना करने लगा। विरोध का बन्धन मुझे जकड़ नहीं सका और मैंने दीक्षा का संकल्प ले लिया। डेढ़ वर्ष तक वैराग्यावस्था में मैंने जैनदर्शन की विधिवत् शिक्षा ली और पूज्य गुरुदेव पण्डितरत्न ज्ञानमुनिजी द्वारा कुबकलां में दीक्षा अंगीकार कर, गुरुवर्या के साथ संयम पथ पर चल पड़ी। तब से अब तक आपके श्रीचरणों पर चलते हुए प्रतिपल मैं असीम सुख और सन्तुष्टि अनुभव कर रही हूँ । मैं आपके दीर्घायु जीवन की मंगल कामना करती हूँ। आपके सुयश की चन्द्रिका सदैव चमकती रहे।
मांगलिक-कल्पवृक्ष । साध्वी सुशीला कुमारी
श्रद्धय गुरुवर्या अध्यात्मयोगिनी, काश्मीर-प्रचारिका, मालवज्योति श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० की शिष्या बनकर मैं लोक और परलोक दोनों को सार्थक करने का प्रयत्न कर रही हूँ। मुझे उनके अलौकिक जीवन से प्रभावित कतिपय अद्भुत घटनाएँ याद आ रही हैं। मैंने सबसे पहला चमत्कार गुलाबपुरा में देखा । मेरी दीक्षा के उपरान्त विजयनगर से पूज्य श्रमणसंघीय यूवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. सा० और गुरुणीजी के साथ हम साध्वियाँ बड़ी दीक्षा के लिए गुलाबपुरा आये। जैसे ही हम स्थानक में पहुँचे, भूरा नामक एक लुहार बदहवास-सा अपने लगभग ९-१० वर्ष के पुत्र को लेकर आया। उसके हाथ में एक पत्र था। उसने कहा कि आज मेरे घर कोई बड़ा सेठ पाया था जो यह पत्र दे गया। इसमें लिखा हुआ है कि तेरे बेटे को जिसे भयंकर मिरगी का रोग है उसे महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. जब गुलाबपुरा पधारें तब उनके दर्शनलाभ लेना और मांगलिक सुनाना, वह ठीक हो जाएगा। म० सा० ने पत्र पढ़ा बिना
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द्वितीय खण्ड / १२८
कामा मात्रा के लिखे हुए अक्षर अच्छी तरह से पढ़े भी नहीं जा रहे थे । बच्चे की गम्भीर हालत देखकर म० सा० ने कहा किसी डॉक्टर को दिखलायो । लुहार ने रोते हुए कहा--'इसकी माँ जन्म के डेढ़ माह बाद ही चल बसी, इसे कुछ हो गया तो मेरा घर उजड़ जायेगा, आपका ही सहारा है; इसे ठीक कर दो।' म० सा० ने माँगलिक सुनाया तो वह लड़का ठीक हो गया। जब तक हम गुलाबपुरा रहे तब तक वह नित्य आता और उसकी आँखें खुशी के मारे छलछलाती रहीं।
गुलाबपुरा निवासी श्रीमती सज्जनबाई बोरदिया का मानसिक क्लेश भी महासतीजी की कृपा से ही दूर हया। सज्जनबाई को लगभग छत्तीस वर्ष पहले ढाई तीन महीने का गर्भपात हया था। ३६ वर्षों के बाद उस बालक का जीव इनके शरीर में व्यंतरदेव के रूप में आने लगा। इस कारण वह मानसिक रूप से परेशान रहने लगी। इच्छा न होते हुए भी उन्हें मीरादातार व मेंहदीपुर बालाजी आदि कई स्थानों पर ले जाया गया, पर उन्हें इस बाधा से मुक्ति नहीं मिली । विजयनगर चातुर्मास समाप्त कर गुरुणीजी गुलाबपुरा पधारे। जब म० सा० बाहर जाने के लिए तैयार थे कि श्रीमती सज्जनबाई ६-७ औरतों के साथ सीढ़ियों पर मिल गईं । उस समय श्रीमती सज्जनबाई की तबियत बहुत खराब थी, अत्यधिक व्याकुलता के कारण पैर जमीन से उठ रहे थे और आँखें जैसे बाहर पा रही थीं, उनकी स्थिति अधर में झूलने वाले व्यक्ति की सी थी। पूजनीया गुरुवर्या 'अर्चनाजी' म० सा० ने उन्हें पार्श्वनाथस्तोत्र सुनाया और वह ५-७ मिनट में ही बिल्कुल स्वस्थ हो गई। तब से उन्हें दैविक बाधा आज तक नहीं हुई।
परमोपकारी गुरुणीजी महाराज
। आर्या कंचनकुवर म० सा०
जब मेरी आयु सात वर्ष की थी, उस समय ब्यावर में मैंने अपनी दादीजी श्री रूपकंवरबाई के साथ आपकी सेवा में उपस्थित होकर पहली बार आपके दर्शन किये थे। मेरी दादीजी से मुझे भी धार्मिक संस्कार मिले और बाल्यावस्था से ही मैं धर्म के रंग में रंग गई थी। यह मेरा सौभाग्य ही था कि उस समय मुझे आपके दर्शनों का लाभ मिला । उन दिनों मुझे स्वप्न में विकरालरूप-धारिणी एक स्त्री दिखाई दिया करती थी। मैं इस कारण भयभीत और सहमी-सहमी रहा करती थी। आपके दर्शन करने और मांगलिक सुनने के पश्चात् मुझे फिर कभी भी वह डरावनी सूरत वाली स्त्री दिखाई नहीं दी और शनैः शनैः मैं भी पूर्ण रूप से भय
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क्षणिक विश्नाम के क्षण (गुलमर्ग)
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'साधवी दीनवत्सलाः/१२९
मुक्त हो गई । सदा-सदा के लिये मैं उस विपत्ति से मुक्त हो गई। यह प्रापश्री की साधना का ही प्रभाव था ।
धर्म का रंग तो मुझ पर जम ही रहा था, उस पर प्रापश्रा का सान्निध्य मिल गया, सोने में सुहागे वाली कहावत चरितार्थ हो गई। मेरे हृदय में संयमव्रत अंगीकार करने की भावना प्रबल वेग से उठने लगी। मैंने अपनी भावना परिवार वालों के सामने व्यक्त की तो एक प्रकार से तुफान ही पा गया। न केवल परिवार वाले वरन् समाज के अनेक प्रमुख श्रावक मेरी दीक्षा के विरुद्ध आवाज उठाने लगे। ये सब दीक्षा के विरुद्ध नहीं थे, उनका विरोध तो बाल-दीक्षा से था। खिलाफत की स्थिति यहाँ तक आ गई कि समाज में विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसी विषम परिस्थिति में पूजनीया गूरुणीजी श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना' के अमृत वचनों का समाज के लोगों पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। जहाँ विरोध मुखर हो रहा था, अब वहाँ एकदम शांति थी और फिर मेरी दीक्षा हर्षोल्लासमय वातावरण में निर्विघ्न सम्पन्न हो गई।
आज आपश्री के सान्निध्य में रहते हुए मुझे तीस वर्ष व्यतीत हो गए हैं। मैंने इस अवधि में आपके साथ रहते हुए अनेक विषम परिस्थितियाँ देखीं किन्तु मैंने पापको हर परिस्थिति में अकम्प, अडिग और निर्भय पाया। अपनी वाणी के प्रभाव से और विनयी स्वभाव से विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लिया।
पूजनीया गुरुणीजी म. सा० की दीक्षा स्वर्णजयन्ती के अवसर पर उनके बहुमानार्थ एक अभिनन्दनग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा है, यह जानकर हृदय पुलकित है। वीतराग भगवान् से यही कामना है कि आप दीर्घायु हों और आप हमारा व समाज का मार्गदर्शन करते हए जैनधर्म की कीर्तिपताका चहुंयोर फहराती रहें।
साधवो दीनवत्सलाः . आर्या प्रतिभाकुमारी म० सा०
पुण्यादि जब प्रबल होते हैं तब कार्यसिद्धि के लिये सभी प्रतिकूल परिस्थितियां भी अनुकूल हो जाती हैं । ऐसा ही मेरे जीवन में भी घटित हुआ। परम आराध्य गुरुवर्य युवाचार्य श्री भगवान् ने मुझे सही राह बतला दी। एक बार मैंने संयम लेने
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द्वितीय खण्ड / १३०
के अपने भाव गुरुदेव के सम्मुख प्रकट किये तो गुरुदेव ने फरमाया-हमारे साध्वी'' रत्न, प्रकाण्ड पण्डिता, ध्यानयोग की परम साधिका श्री उमरावकुंवरजी म. सा.
'अर्चना' हैं । तुम उनके पास जानो। उनके दर्शनमात्र से ही तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जायेगा । परमसाधक समतायोग की साधना में सदैव रमण करने वाले पंडितरत्न गुरुदेव का वचन कैसे खाली जा सकता था। गुरुदेव के कथनानुसार ही मेरे जीवन में भी घटित हुआ। ____ मैं अपनी छोटी बहन को साथ लेकर पूजनीया गुरुणीजी म. सा० के दर्शनार्थ मन में दृढ़ संकल्प को लेकर पहुँची । मैं जैसे ही आपकी सेवा में पहुँची वैसे ही अप्रत्यक्ष रूप से पूजनीया गुरुणीजी म. सा. ने मेरे अंतर्मन के भावों को स्वतः प्रकट कर दिया। आपने मेरे जीवन में घटित घटना को भी स्पष्ट कर दिया और मेरे मन में जो गत्थियाँ थीं. वे सब भी उन्होंने प्रकट कर दीं। अापके मुखारविंद से यह सब सुनकर मुझे अत्यधिक आश्चर्य हुआ और मेरा हृदय आपके प्रति अगाध श्रद्धा से भर गया। मन गदगद हो उठा । अपनी बातों का समापन करते हए आपने उस समय कहा था-"जो उदय होता है, वह अस्त भी होता है। इसलिये जो बीत गया उसे भूल जाप्रो और आगे सतर्कतापूर्वक कदम बढ़ा देना चाहिये।"
आपके मधुर वचनों से मेरे मन की समस्त अाशंकाएँ कपूर की भांति हवा में उड गई । मैंने संयमपथ पर बढ़ने का दढ संकल्प कर लिया। साथ ही यह भी संकल्प लिया कि दीक्षा प्रापकी पावन निश्रा में ही लेनी है। ____ मेरी दीक्षा में कुछ बाधा अवश्य आई । यह बाधा सकारण थी। बाधा का कारण ससुराल पक्ष का तेरापंथी होना था। किंतु यह बाधा भी कुछ ही दिनों में दूर हो गई। मेरे दीक्षा लेने के संकल्प का लगभग सभी को पता चल गया था। श्री जतनराजजी मेहता ने मेरे श्वसुरजी को केवल इतना कहा--"आप एक बार महासतीजी के दर्शन कर लीजिये। फिर आगे की बातों पर विचार करेंगे।" इस समय महासती जी मेड़ता विराजमान थे। दूसरे दिन मेरे श्वसुरजी महासतीजी के दर्शनार्थ मेड़ता पधारे। उनके मन में बहत अधिक आक्रोश था, किंतु जैसे ही उन्होंने महासतीजी के दर्शन किये/सम्पर्क हुग्रा/महासतीजी की सौम्य मुद्रा देखी, अमृतमय-वाणी सुनी वैसे ही उनका समस्त क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया। उनका हृदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने महासती श्रोजो से विनती की---"महावीर जयंती के अवसर पर आप हमारे नगर बड़ी पादू अवश्य ही पधारने की कृपा करें। यह मेरी विनती है और आपको अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ेगी।"
उस समय महासतीजी ने साधु भाषा में यथोचित उत्तर दे दिया किंतु जब आपने मेड़ता से विहार किया तो चक्कर खाकर भी आप यथासमय बड़ी पादु पधारे । पादु निवासियों के लिये महावीरजयंती मनाने का यह पहला ही अवसर था । खूब धूमधाम से बड़े ही हर्षोल्लासमय वातावरण में महावीरजयंती मनाई गई। इस अवसर पर आसपास के गाँवों के अनेक व्यक्तियों ने भी इस उत्सव में सम्मिलित होकर हर्ष मनाया। इसके पश्चात् आपका विहार हो गया । मैं साथ
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साधवो दोनवत्सला / १३१
ही जाना चाहती थी किंतु घर वालों ने साथ भेजने से इंकार कर दिया। मुझे अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये जाने लगे। धन-सम्पत्ति का लालच दिया गया। किसी लडके को गोद लेने को कहा गया और यह कहा गया कि यह सब करने की आपको अनुमति है । बस, आप संयम लेने की बात न करें । किंतु जब मन में संयम की ज्योति जाग्रत हो जाती है तो फिर किसी भी प्रकार का प्रलोभन उसे अपने पथ से विचलित नहीं कर सकता है । मेरे साथ भी यही हुआ। मैंने संयमपथ पर चलने के लिये दृढ़ संकल्प ले लिया था। मैंने इतना ही कहा-"आप यह सब कर दीजिये । किंतु इससे क्या होने वाला है। यह जो कुछ भी है वह क्षणिक सुख है। सब कुछ नश्वर है। मैं शाश्वत सुख के मार्ग पर चलने की इच्छुक हूँ।" परिवार वालों ने मेरी दृढ़ इच्छा को देखा और ब्रजमधुकर-जयंती पर मुझे ब्यावर लाये
और महासतीजी के सान्निध्य में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। कालांतर में मेरी दीक्षा भी सम्पन्न हो गई।
दीक्षित होकर मैंने पूजनीया गुरुणीजी म. सा. के सानिध्य में संयम-साधना हेतु प्रवेश किया ही था कि कर्मों की विडम्बना देखिये । असातावेदनीय कर्म का उदय हुमा । संयम ग्रहण करने के दो माह पश्चात् अचानक स्वास्थ्य बिगड़ गया । बड़ी विचित्र स्थिति थी। कभी गाना, कभी रोना, कभी हंसना, कभी गुमसुम हो जाना । गरुणीजी म. सा. दिन-रात मेरे पास बैठे रहते । वैद्य बलाये डाक्टरों को भी दिखाया किंतु कोई लाभ नहीं हुआ । सारी चिकित्सा व्यर्थ गई । तंत्र-मंत्र वादियों का भी सहारा लिया गया। उन्होंने अपने ढंग से कार्य किया किंतु किसी के भी उपचार या झाड़-फूंक से मेरे स्वास्थ्य में कोई लाभ नहीं हुआ । उस समय मेरी स्वास्थ्यपृच्छा के लिये परिवार के भी सदस्य आये। वे भी मेरी स्थिति को देख कर और पूछताछ कर वापस अपनी राह पर चले जाते । उस समय केवल गुरुणीजी म. सा० ही मेरे सबसे अधिक निकट रहते। मुझे भोजन भी आप ही कराते । मधुर मधुर वचन सुनाते, छन्द सुनाते । आपके मुख से निसृत छन्दों को सुनकर कुछ समय के लिये ऐसा लगता मानो मैं एकदम स्वस्थ हैं। कुछ समय पश्चात् फिर वही अस्वस्थावस्था । मेरी ऐसी स्थिति दो वर्ष तक रही। सभी वरिष्ठ परेशान हो गये । युवाचार्य भगवन् भी पधारते । शास्त्र सुनाते, मांगलिक सुनाते । इस अवधि में थोड़ा स्वास्थ्य ठीक रहता और पुनः वही स्थिति हो जाती ।
__ श्री युवाचार्य भगवन् के साथ ही गुरुणीजी म. सा. का चातुर्मास नागौर में था । नागौर में गुरुणी जी म. सा० ने अट्ठाई की तपस्या की। यह तपस्या बड़ी मुश्किल से हुई। पारणे के दिन मेरा स्वास्थ्य फिर बिगड़ा । गुरुणी जी म. सा. ने एक घंटे तक मुझे अपने पास सुलाये रखा और अनवरत छन्द सुनाते रहे । आपका यह क्रम चलता रहा और इसी बीच आपने संकल्प कर लिया कि आज तो इन्हें ठीक करके ही कुछ ग्रहण करना है । आपकी साधना का चमत्कार देखिये कि काफी देर तक आप छन्द सुनाते रहे और मेरा स्वास्थ्य ठीक हो गया। मैं भी अपने आपको सहज अनुभव करने लगी। फिर कभी-कभी थोड़ी अस्वस्थता हो जाती थी
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द्वितीय खण्ड | १३२
तो आप तुरन्त स्थिति को सम्भाल लेते थे। इस प्रकार मुझे आपके सान्निध्य में पुनर्जीवन मिला।
गुरुणीजी म० सा० बड़ी ही दयालु और कृपालु हैं। हमारे साध्वी-वर्ग में किसी को भी जब कभी कोई व्याधि हो जाती है तो आपकी मांगलिक से तत्काल स्वास्थ्य लाभ हो जाता है । ऐसे अनेक चमत्कार मैंने आपकी सेवा में रहते देखे हैं स्वयं मेरे जीवन में भी अनेक ऐसे प्रसंग आये हैं। आपकी कृपा से सब ठीक हो जाता है ।
जो परदुःखकातर है वह स्वयं अपने स्वास्थ्य की कभी कोई चिंता नहीं करता । यही स्थिति पूजनीय गुरुणीजी म० की भी है। आपको अनेक व्याधियां हैं जिनके लिये आप कभी भी चिंतित दिखाई नहीं दी और समभाव से सब कुछ सहन करते हुए भी आपका जीवन सेवा में ही लगा रहता है । सेवा करने का उपदेश तो बहुत देते हैं, प्रचार-प्रसार भी बहुत करते हैं किंतु आप इन सब से दूर रहकर सेवा के प्रति पूर्णत: समर्पित हैं। आपको मौन सेवी की संज्ञा से अभिहित किया जावे तो अतिशयोक्ति नही है।
दीन-दुखियों, असहाय एवं विधवा बहनों के लिये आर्थिक दृष्टि से सहयोग करने के लिये भी आपने संस्थाओं की स्थापना की है। यह भी आपकी सेवा-भावना का प्रतीक ही है। आपका हृदय करुणा का स्रोत है। आप किसी के दुःख को देख नहीं पाती हैं । आपके मांगलिक का प्रभाव यह है कि जो रोता हुआ प्राता है वह अापके मांगलिक वचन सुनकर हंसता हुअा जाता है।
दुख और रोगों के लिए मांगलिक औषधि है.
मांगलिक का माहात्म्य 0 चमनलाल कुलभूषणलाल, जम्मूतवी (काश्मीर)
वर्ष वि० सं० २०१७ । यह हमारा सौभाग्य ही कहा जा सकता है कि इस वर्ष हमारे नगर जम्मू में परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा० 'अर्चना' ठाणा चार का चातुर्मास हुा । मैं प्रतिदिन आपके दर्शन करने एवं प्रवचन सुनने के लिए जाया करता था। आपका और आपके प्रवचनों का मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी बीच एक बार मैं अचानक अस्वस्थ हो गया । उपचार कर रहे डॉक्टर ने मुझे अपने बिस्तर से भी उठने के लिए मना कर दिया । हृदयाघात होने से मुझे पूर्ण विश्राम करने के लिए कहा गया। मुझे कमजोरी इतनी अधिक हो गई थी कि मैं बोलने की स्थिति में भी नहीं था। एक दिन मैंने संकेत से एवं बहुत ही धीमे स्वर में अपनी चाची श्रीमती सरस्वतीदेवी से कहा कि मेरी भावना
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नागराज का आगमन / १३३
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पूजनीया महासतीजी के मंगल वचन सुनने की है । मुझे उनसे मांगलिक सुनवावें । चार-पाँच दिन के पश्चात् पूजनीया महासतीजी म. सा. मेरे यहाँ पधारे। जैसे ही मेरी दृष्टि महासतीजी पर पड़ी मैं एकदम अपने बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया । मुझे पता ही नहीं चला कि इन क्षणों में मेरी कमजोरी और दर्द कहाँ गायब हो गया। आपके मंगल वचन सुनने के पश्चात् मैं आपके साथ ही प्रवचनस्थल तक
। परिवार के सभी सदस्य आश्चर्यचकित थे। सभी की आँखों में हर्ष के
र रहे थे। वे लोग भी जो मेरी बीमारी एवं मेरी स्थिति से परिचित थे, आश्चर्य कर रहे थे। अब मैं स्वस्थ था। इस घटना के पश्चात् मेरा अधिकांश समय पूजनीया महासतीजी की सेवा में ही व्यतीत होने लगा और आपके प्रति मेरा हृदय श्रद्धापूरित हो गया।
मेरे साथ घटी इस घटना के कुछ ही दिन बाद एक घटना और घटी। मेरे बड़े बुबा सा० के पेट में एक बड़ी गठान हो गई थी। बुना सा० को उपचार के लिए दिल्ली ले जाना था । मेरा दढ़ विश्वास था कि दिल्ली जाने से पूर्व पृ० महासतीजी म. सा० से मांगलिक सून लिया जावे। मांगलिक सूनने से सभी कार्य सरलता से सम्पन्न हो जावेंगे। परिवार के सभी सदस्य बुना सा० को लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हए। आपको सब कुछ बताकर मांगलिक सुनने की अपनी भावना व्यक्त की। आपने हमारी बात सुनने के पश्चात् फरमाया कि पूज्य श्री जयमलजी म. सा. की माला का जाप करो, सब ठीक होगा। इसके पश्चात् आपने हमें मांगलिक सुनाया। मांगलिक सुनने के पश्चात् हम सब अपने आवास की ओर चल दिये । हम सबको यह जानकर अपार हर्ष और आश्चर्य हुआ कि स्थानक भवन से नीचे उतरते-उतरते बुना सा० की गांठ गायब हो गई है। इससे आपके श्रीचरणों में हमारा विश्वास और श्रद्धा द्विगुणित हो गयी। आज भी मैं समय-समय पर आपके दर्शनलाभ प्राप्त करने के लिए आपकी सेवा में जाता रहता हूँ । इन दो अनुभव के अतिरिक्त और भी सुखद अनुभव मुझे हुए हैं। उन सबको फिर कभी लिपिबद्ध करने का प्रयास करूंगा । अभी इतना ही पर्याप्त है।
एक सर्प जो निसरणी स्तोत्र सुनकर भक्त बन नतमस्तक हो गया.
नागराज का आगमन - जवरीमल घोड़ावत, डेह (नागौर)
प्रात:स्मरणीया, परम पूजनीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० आदि ठाणा उन दिनों डेह (नागौर-राजस्थान) में विराजमान थे। रविवार की बात है । स्थानक में उपस्थित कुछ बहनों ने महासती श्री उमरावकुंवर जी म०
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द्वितीय खण्ड / १३४
सा० 'अर्चना' से भगवान पार्श्वनाथ की निसरणी नामक स्तोत्र सनाने का प्राग्रह किया । बहनों के अत्यधिक प्राग्रह करने पर आपने स्तोत्रपाठ प्रारम्भ कर दिया । उस समय मेरी धर्मपत्नी श्रीमती धापुकुंवर भी वहीं स्थानक में उपस्थित थी। महासतीजी स्तोत्रपाठ कर रही थीं और उपस्थित बहनें सुन रही थीं कि अचानक न जाने कहाँ से एक विशालकाय काला सर्प पाकर कुंडली डालकर महासती जी के घुटने के पास बैठ गया। अपना फन उठाकर वह भी तन्मय हो कर स्तोत्र का पाठ सुन रहा था। बहनों की दृष्टि जैसे ही उस सर्प पर पड़ी, वे सभी साँप-साँप चिल्लाते हुए नीचे की ओर भाग चलीं। महासतीजी अविचलित भाव से वहीं खड़ी हो गयीं।
कुछ बहनों ने देखा कि आपके खड़े होते हो वह सर्प भी खड़ा हो गया। सर्प के स्थानक में महासतीजी के पास होने की बात बाहर बैठे हम लोगों ने जैसे ही सुनी दौड़कर स्थानक में जा पहुँचे। किन्तु जब तक हम लोग वहाँ पहुँचे तब तक नागराज अदृश्य हो चुके थे। लगभग दस पन्द्रह मिनिट तक नागराज वहाँ रहे । इस अवधि में महासतीजी पूर्णतः निडर और अविचलित रहे। बाद में गुरुणीजी म. सा. श्री उमरावकंवरजी म. सा० ने चर्चा के दौरान बताया कि रविवार और मंगलवार को इस स्तोत्र का पाठ नहीं किया जाता है। जिन बहनों ने स्तोत्र पाठ सुनाने का अत्यधिक आग्रह किया था, उन्होंने क्षमायाचना की और संकल्प किया कि भविष्य में वे कभी इस प्रकार का आग्रह नहीं करेंगी। इस घटना के पश्चात् महासतीजी के प्रति हमारी श्रद्धा और अधिक बढ़ गई।
सन्तों का आशीर्वाद कलह और सन्तापों से मुक्ति दिलवाता है. रोग और कलह से छुटकारा
0 गोपीचन्द लोढा, थारा (अजमेर)
मैं लगभग १६-१७ वर्ष से बीमार था। अनेक डॉक्टरों, हकीमों आदि से उपचार करवाया किन्तु कोई लाभ नहीं हुअा । परिवार के लोगों ने अन्त में यह निष्कर्ष निकाला कि मेरे शरीर में कोई प्रेतबाधा है। अस्वस्थता के मुझे दौरे पड़ने लगे । तीन-तीन चार-चार दिन तक मेरी बत्तीसी जुड़ी रहती थी। कई दिनों तक कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रहती थी। ऐसी स्थिति में मैं अपने जीवन से हताश और निराश हो चुका था।
__ यह मेरा सौभाग्य ही है कि पूजनीया महासतीजी उमरावकवरजी 'अर्चना' महाराज सा० का चातुर्मास अजमेर स्थित लाखन कोठरी में हुया । मुझे जब
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प्रेरणा का प्रताप / १३५
आपके इस चातुर्मास की जानकारी मिली तब मैं नियमित रूप से आपके दर्शन करने व प्रवचन सुनने जाने लगा। इसी अवधि में मैं एक बार फिर से गम्भीर रूप से अस्वस्थ हो गया। परिवार वालों ने मेरे जीवन की उम्मीद ही छोड़ दी थी। मेरी धर्मपत्नी उसी समय लाखन कोठरी गई और पूजनीय महासतीजी को बुलाकर ले आई । महासतीजी ने मुझे कुछ मंगलपाठ सुनाये। आपके उस मंगलपाठ को सुनकर मेरी पीड़ा कम हुई और मैं शीघ्र ही स्वस्थ हो गया। उसके बाद में कभी फिर अस्वस्थ नहीं हुअा। इतना ही नहीं अापके मंगलपाठ सुनने के पश्चात् मेरे परिवार में जो भयंकर कलह था वह भी दूर हो गया। इस प्रकार
आपके व आपके मंगलपाठ के प्रभाव से मैं शारीरिक रूप से तो स्वस्थ हुअा ही किन्तु पूरे परिवार में भी शान्ति और हर्ष व्याप्त हो गया। यह महाराज श्री की कृपा है कि आज हम सब सुखमय जीवन जी रहे हैं। शासनदेव से यही प्रार्थना है कि आपकी कृपा सदैव हम पर बनी रहे ।
मांगलिक के प्रभाव से मनुष्य सुप्तावस्था से जागृतावस्था की ओर उन्मुख होता है.
प्रेरणा का प्रताप - सोहनलाल कटारिया, महामन्दिर
मैं एकबार ज्वरग्रस्त हुआ और उसी में मुझे टाइफाइड हो गया । पर्याप्त उपचार कराने के उपरान्त भी मेरी स्थिति में सुधार नहीं हुअा वरन् मेरी हालत दिन प्रतिदिन गिरती गई और स्थिति यहाँ तक आ गई कि मेरा बिस्तर से उठना भी कठिन हो गया। अपनी इस अस्वस्थता से मैं स्वयं भी चिंतित हो उठा और सोचता रहता था कि अब क्या होगा?
रात्रि का समय था। अपने बिस्तर पर पड़ा था, मैं लगभग निद्रावस्था में था। मुझे लगा कि कमरे में अचानक प्रकाश हा जिससे सारा कमरा जगमगा उठा, तभी एकाएक परमश्रद्धय प्राचार्य भगवंत श्री जयमलजी म. सा० प्रकट हुए । आचार्यश्री के दर्शन करने से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा । मैंने वंदना के लिए उठने का प्रयास किया तो मुझे संकेत मिला कि ऐसे ही बैठे रहो। फिर प्राचार्यश्री ने फरमाया-"कल तुम महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० 'अर्चना' से मांगलिक सुन लेना, ठीक हो जाओगे।" इसके पश्चात् मैं पूर्ण जागृतावस्था में आ गया। मैंने यह बात अपनी पत्नी को बताई, वह श्रद्धावनत हो उठी । ___ उन दिनों महासतीजी उम्मेदकुंवरजी म. सा. के पैर में तकलीफ थी और वे उपचारार्थ गांधी अस्पताल में विराज रहे थे। प्रातःकाल ही मेरी धर्मपत्नी
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द्वितीय खण्ड / १३६
गांधी अस्पताल गई और पूजनीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चना' को सारा वृत्तांत कह सुनाया और घर पधार कर मांगलिक सुनाने का नुरोध किया | महासतीजी करुणासागर हैं, पर दुःखकातर हैं । मेरी धर्मपत्नी के साथ उसी समय चल दीं। गांधी अस्पताल से महामंदिर लगभग ५-६ किलोमीटर दूर है, महासतीजी इस दूरी को पार कर मेरे यहाँ पधारे और मुझे भगवान् पार्श्वनाथ का स्तोत्र सुनाया । उस समय मैंने अपने आप में एक प्रद्भुत शांति का अनुभव किया और कुछ शक्ति का अनुभव भी हुआ। इससे मुझे विश्वास हो गया कि अब मैं एकदम स्वस्थ हो जाऊँगा । पूजनीय महासतीजी तो मांगलिक सुनाकर गांधी अस्पताल चले गये और इधर मैं बिस्तर पर पड़ा-पड़ा उनकी कृपा और दयालुता पर विचार करता रहा। दस वजते-बजते मेरा ज्वर उतर गया और मैंने अपने शरीर में स्फूर्ति का भी अनुभव किया। कुछ ही दिनों में मैं एकदम स्वस्थ हो गया । इसके पश्चात् फिर कभी ऐसी बीमारी आज तक नहीं आई । मैं तो इस करुणावस्था में अपने जीवन से लगभग निराश ही हो चुका था । किन्तु पू० श्रीजयमलजी म० सा० के द्वारा बताये मार्ग एवं पूजनीया महासतीजी श्री उमराव कुंवरजी म० सा० 'अर्चना' की मंगलवाणी सुनकर मुझे नया जीवन मिला । आज भी मैं प्रतिवर्ष जहाँ कहीं भी आप विराजित रहते हैं, आपके दर्शनों का लाभ प्राप्त करने पहुँच जाता हूँ। मैं हृदय से यही मंगल कामना करता हूँ कि महासतीजी सदैव स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें और जनकल्याण का कार्य करते हुए भगवान् महावीर का शासन दिपावें ।
मांगलिक नौका बाधारूपी सागर से पार उतारती है.
बाधा हट गई
[] राधेश्याम शर्मा (हरियाणा)
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मैं हरियाणा के एक गांव का रहने वाला हूँ और मैं वर्षों से जानकीनगर इन्दौर स्थित प्रकाश दाल मिल्स में काम कर रहा हूँ। मेरी पत्नी पाँच वर्षों से अस्वस्थ है | मैंने सभी प्रकार के उपचार करवाये किन्तु वह स्वस्थ न हुई । कुछ जानकर लोगों ने प्रेत-बाधा बताई | मैंने उसके अनुरूप झाड़-फूंक भी करवाया किन्तु फिर भी मेरी पत्नी प्रेतबाधा से मुक्त नहीं हुई । पत्नी की इस अस्वस्थता के कारण मेरी आर्थिक स्थिति भी बिगड़ गई थी। एक दिन मुझे प्रकाश दाल मिल के मालिक श्री बादलचन्द साहब मेहता ने कहा कि तुम अपनी पत्नी को पूजनीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० 'अर्चना' की सेवा में ले जाओ और
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2008
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M काश्मीर की दुर्गम घाटी गुलमर्ग पार करते हुए
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भाव विभोर स्नेह-सिक्त तपस्विनियों के बीच, जम्म(काश्मीर)
सं.२०१७
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विषमुक्त हुआ | १३७ उनसे मांगलिक सुनवायो। मेरा विश्वास है कि तुम्हारी पत्नी स्वस्थ हो जायेगी। पू० महासतीजी का नाम मैंने सुन रखा था। उनके दर्शन भी किये थे । मैंने अपनी पत्नी को जानकीनगर बुलाया। लगभग डेढ़ महीने तक उसे जानकीनगर रखा और प्रतिदिन पूजनीया महासतीजी से मांगलिक सुनवाया। महासतीजी है के मंगलवचन सुनने का प्रभाव यह हुआ कि मेरी पत्नी बाधा-मुक्त हो गई और पुनः पूर्ण स्वस्थ हो गई। पूजनीय महासतीजी ने जो उपकार मुझ पर किया है उसे मैं जीवनपर्यंत नहीं भूल सकूँगा । परमपिता परमात्मा से मैं तो यही विनती करता हूँ कि वह पू० महासतीजी को दीर्घायु प्रदान करें, जिससे वे दुखियों के दुःख दूर करते रहें।
'ओ यारी वाणी अमृत वाणी गुरुणी सा०.
विषमुक्त हुआ 0 सहजराम शर्मा, लाम्बा (जिला नागौर)
मैं अपने घर में अस्वस्थावस्था में चारपाई पर पड़ा था कि मेरे कानों में दूर से आते हुए कुछ शब्द पड़े। वाणी में माधुर्य था और वह मुझे बहुत ही सुखद लगो । मैंने घरवालों से पूछा तो बताया गया कि पास के स्थानक में परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के प्रवचन हो रहे हैं। मैंने प्रवचनस्थल तक जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की और तीन व्यक्तियों का सहारा लेकर मैं वहाँ पहुँच गया । महाराजश्री के दर्शन करके मैंने अपूर्व प्रानन्द का अनुभव किया। मेरी अवस्था बैठने योग्य नहीं थी किन्तु फिर भी मैं बैठा ही रहा। प्रवचन समाप्त होने पर पू० महासतीजी ने मेरी दयनीय दशा देखी तो पछताछ की। मैंने बताया कि आज से लगभग दस ग्यारह महीने पूर्व मैं तालाब पर स्नान करने गया था, वहाँ पानी में प्रवेश करते ही किसी जीव ने काट लिया और तभी से मेरे पूरे शरीर पर सूजन आ गयी है । शरीर पर फफोले भी पड़ गये हैं। सभी प्रकार का उपचार करवा लिया, नागौर, जोधपुर जाकर भी दिखा दिया किन्तु कहीं से कोई लाभ नहीं हुआ । अब मैं अपने जीवन के शेष दिन बीतने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मेरी बातें सुनने के पश्चात् महासतीजी ने बड़े ही आत्मविश्वास और आत्मीयता के साथ फरमाया कि चिन्ता की कोई बात नहीं है, निराश नहीं होना चाहिये। विश्वास बड़ी बात है। साहस और धैर्य रखो, स्वस्थ हो जाओगे। इतना कहकर आपने मांगलिक सुनाया, । जिसका प्रभाव यह हुआ कि मैं तत्काल खड़ा हो गया और लकड़ी के सहारे अकेला ही घर
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द्वितीय खण्ड / १३८
चला गया । मुझमें अब एक एक नये विश्वास ने जन्म लिया, स्फूर्ति का संचार हुआ। घर में भी खुशियाँ छाने लगीं । श्रापके मांगलिक श्रवण से मेरा शरीर विषमुक्त हो गया और शरीर के फफोले भी ठीक हो गये ।
समय-समय पर मैं महासतीजी के दर्शनार्थ जाता रहता हूँ । प्रापको प्रेरणा पाकर मैंने कई नियम भी ग्रहण किये हैं । मेरा कार्य केवल सेवा करना और भजनकीर्तन करना है, वह मैं बराबर करता रहता हूँ । आपके नोखा चातुर्मास में भी मैंने सेवा का पूरा लाभ लिया । भगवान् से यही प्रार्थना है कि ऐसे महासतीजी की मुझ जैसे किचन प्राणी पर सदा कृपा बनी रहे और वे दीन-दरिद्रों का दुःख दूर करती रहें ।
महासतीजी की कृपा से लकवा जैसा असाध्य रोग ठीक हो गया.
लकवा ठीक हो गया
→ गोवर्धनलाल दर्जी, खाचरौद
मुझे लकवा हो गया था, मुंह टेढ़ा हो गया था तथा गला अवरुद्ध हो गया था । इस कारण मेरा बोलना भी बन्द हो गया था । सौभाग्य की बात है कि इसी वर्ष हमारे यहाँ जैनसाध्वी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चना' का चातुमसि हुआ। महाराजश्री के विषय में मैंने बहुत कुछ सुना भी था । लकवाग्रस्त हुना तो मुझे खाचरौद के श्री मोती काका ने महासतीजी से मांगलिक सुनने की सलाह दी । मैं महासतीजी की सेवा में जा पहुंचा । आपने मेरी स्थिति देखकर मुझे मांगलिक सुनाया । आपके श्रीमुख से निःसृत मंगलवचन सुनकर मैंने अपूर्व सुख का अनुभव किया । मुझे विश्वास होने लगा कि मैं ठीक हो जाऊंगा । मैं नियमित रूप से आपकी सेवा में उपस्थित होकर मांगलिक सुनने लगा । ५-६ दिन में मेरा गला ठीक होने लगा और उसके दो-तीन दिन बाद मैं लकवे से मुक्त हो गया, वीमारी से मुक्त हो गया । श्राज मैं पूजनीया महासतीजी की परम कृपा से एकदम स्वस्थ हूँ, अन्यथा इस बीमारी का उपचार करवाने में मैं असमर्थ था । किन्तु महासतीजी का कहना है कि यह सब शासन देव की कृपा का फल है। ऐसी महान् पर- दुःखकातर महा सतीजी के परम पावन चरणों में मैं कोटि-कोटि वन्दन करता हूँ ।
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नागराज का नमन | १३९
आस्था से सभी रोग और विकार दूर हो जाते हैं.
दामाद स्वस्थ हुआ रामचन्द्र सेवक, उदयपुर
मेरे दामाद को जिनकी बाधा आ गई थी । बहुत उपचार करवाया, बाधा, दूर करने के झाड़-फूंक के उपाय भी किये, प्रोभात्रों से भी मंत्रोच्चार करवाया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। हम परिवार के सभी सदस्य बहुत परेशान हो गये। अभी मेरी पुत्री का विवाह हुए डेढ़ वर्ष ही हुआ था कि यह स्थिति आ गई।
महासतीजी उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चना' ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए उदयपुर की ओर पधार रहे थे। इसी क्रम में आपका पधारना मेरी पुत्री के ससुराल बागली में हुआ । मेरे दामाद बागली के ठाकुर साहब के यहाँ सर्विस कर रहे थे । महासतीजी का मुकाम उस दिन ठाकुर सा० के मकान में हुआ। वहीं आपने मेरे दामाद को देखा । म० सा० ने मेरे दामाद की रुग्णावस्था को जान लिया और उन्हें वहीं मांगलिक के रूप के स्तोत्र सुनाया । महाराजश्री के मांगलिक को सुनकर मेरे दामाद स्वस्थ हो गये । जिन्न की बाधा दूर हो गयी । इस उपकार के लिये हम महाराजश्री के बहुत-बहुत आभारी हैं। महाराजश्री की दीर्घायु होने की कामना करते हैं और चाहते हैं कि वे स्वस्थ और प्रसन्न रहते हुए परोपकार करते रहें ।
जब नागराज श्री चरणों में नत हुआ.
नागराज का नमन D श्रीमती मुकनराज मेहता
यह हमारा पुण्योदय ही था कि प्रातःस्मरणीया अध्यात्मयोग साधिका परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी हमारे गाँव कड़लू में पधारे । प्रापश्री के द्वारा बताये गये इष्ट-मंत्र और परम श्रद्धय प्राचार्यप्रवर श्री जयमलजी म० सा० के प्रति हमारी अपार श्रद्धा है ।
एक बार रात्रि के लगभग आठ बजे हम कुछ बहिनें स्थानक में महासतीजी से कुछ धार्मिक भजन आदि सुन रहे थे । इसी तारतम्य में महासतीजी ने भगवान् पार्श्वनाथ का स्तोत्र भी सुनाना प्रारम्भ कर दिया। महासतीजी अभी यह स्तोत्र
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द्वितीय खण्ड | १४०
सुना ही रही थीं कि न मालूम कहाँ से एक बड़ा भारी काला नागराज पाकर सबके बीच में बैठ गया। उस नागराज की उपस्थिति से बहिनों से हडकम्प मच गया किन्तु महासतीजी अविचलित भाव से स्तोत्र-पाठ करते रहे और नागराज भी स्तोत्र सुनते रहे । उस नागराज के सिर पर मणि के स्थान पर बिच्छु भी था । स्थानक में शोरगुल सुनकर कुछ भाई दौड़ पड़े। वे स्थानक भी आये किन्तु किसी का साहस नागराज को पकड़ने का नहीं हुआ । स्तोत्र पाठ की समाप्ति पर वह नागराज स्वयं ही धीरे-धीरे चलकर अदृश्य हो गये। कडलू वालों को वह दृश्य प्राज भी अच्छी तरह से याद है। ____ महासतीजी द्वारा किये गये स्तोत्रपाठ की अवधि में नागराज का आना, स्तोत्र सुनना और फिर चुपचाप चला जाना भी अपने आप में एक चमत्कार ही है ।
परदुखःकातर महासतीजी की साधना अमंगल दूर करने वाली है. सफेद दाग से छुटकारा
0 श्रीमती मुकनचन्द मेहता
बात मेरी जन्मभूमि भवार की है। उस वर्ष परम विदुषी महासती श्रो उमरावकंवर जी म. सा० का चातुर्मास भवार में था। उस समय में बाल्यावस्था में थी। मेरे शरीर पर सफेद दाग हो गये थे। इससे मेरे पिताश्री सुगनचंदजो जामड़ाएवं माताजी बहुत अधिक चिन्तित रहते थे। इसका कारण यह था कि मैं तीन भाईयों के बीच एक ही बहन हूँ, इसलिये मेरे प्रति उनकी ममता अधिक ही है। सफेद दाग का उपचार भी करवाया, किन्तु कोई भी लाभ नहीं हुआ। चातुर्मास की अवधि में मैं प्रतिदिन महासतीजी का मंगलपाठ श्रवण करती और आपके द्वारा बताये अनुसार शुक्लपक्ष की एकादशी को आयंबिल व्रत करके श्री जयमलजी म० सा० का जाप करती । ऐसा करने से धीरे-धीरे मेरे शरीर के सफेद दाग ठीक हो गये।
पूजनीया महासतीजी के प्रति मेरी जो श्रद्धा-भक्ति थी वह द्विगुणित हो गई । आस्था दृढ़ से दृढ़तर हो गई। आजकल हम लोग इन्दौर में जानकी नगर में रह रहे हैं। यह भी सौभाग्य की ही बात है कि विगत दो तीन वर्षों से महासतीजी की सेवा का अवसर भी मिला। अाजकल महासतीजी इन्दौर-उज्जैन के सभी क्षेत्रों को अपनी चरणरज से पावन कर रहे हैं।
अब भी कभी-कभी मेरे कंधों में अथवा शरीर में कहीं दर्द आदि होता है तो मैं महासतीजी से मांगलिक सुनती हूँ और इससे मुझे तत्काल राहत मिल जाती
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पागलपन का पलायन / १४१
है । मैं तो यही प्रार्थना करती हूँ कि शासन देव ऐसी परोपकारी, पर-दुःखकातर महासतीजी की कृपा हम पर सदा बनाये रखे।
'मन म्हारो चरणां बसे रे ज्यूं चकरी में डोर.' पागलपन का पलायन
- उदितप्रकाश कोठारी, इन्दौर
मेरे माता-पिता और मैं मूर्तिपूजक जैन समाज के हैं। अपने माता-पिता का मैं इकलौता पुत्र हूँ, मेरे एक बहिन और है। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ गया और पागलपन की स्थिति में मैं घर से निकल गया। मुझे खाने-पीने की भी सुध नहीं रही । मैं कौन हूँ, कहाँ का रहने वाला हूँ ?
आदि किसी भी काम का मुझे भान नहीं रहा । मैं महीनों घर से बाहर रहकर इधर-उधर भूखा-प्यासा भटकता रहता । मेरी इस स्थिति से माता-पिता अत्यन्त दुःखी रहते । उनका दुःखी रहना भी स्वाभाविक था। मेरा उपचार भी करवाया गया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ, "उल्टे मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की" वाली कहावत चरितार्थ होने लगी।
यह मेरा भाग्योदय ही था कि परम विदुषी महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चनाजी' का इन्दौर पदार्पण हुआ। कुछ सजातीय बंधुओं के मुख से महासतीजी की महिमा सुनने की मिली तो मेरे माताजी एवं पिताजी मुझे साथ लेकर महासतीजी की सेवा में जानकीनगर में उपस्थित हुए। महासतीजी के प्रथम बार दर्शन करते ही मेरा मन परम शांति का अनुभव करने लगा। महासतीजी ने बहुत ही प्रेमपूर्वक आत्मीयता से मुझसे बातचीत की और मंगलपाठ सुनाकर कहा कि तुम सदैव मांगलिक सुनने आया करो। मैं भी अधिक से अधिक समय महासतीजी के सानिध्य में व्यतीत करने की भावना रखने लगा । उसके पश्चात् मैं दिन में चार पाँच बार जब भी इच्छा होती महासतीजी की सेवा में उपस्थित हो जाता और मांगलिक सुनता, बातें करता । धीरे-धीरे मेरा पागलपन एकदम दूर हो गया । आज मैं अपने आपको पूर्ण स्वस्थ अनुभव करता हूँ। मुझे अब किसी भी प्रकार का कोई भी रोग नहीं है। अब मैं एक अच्छी सी नौकरी भी करता हूँ। महासतीजी के पावन सान्निध्य से न केवल मुझे स्वास्थ्य लाभ हुआ वरन् आर्थिक लाभ भी हुअा (नौकरी जो करने लगा)। इन सबसे बढ़कर मुझे प्राध्यात्मिक लाभ हुआ।
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द्वितीय खण्ड / १४२
अब मैं पूजनीया महासतीजी द्वारा बताये अनुसार नियमित रूप से श्री नवकार महामंत्र, श्री पार्श्वनाथ और प्राचार्य श्री जयमलजी म. सा. के नाम का जप करता हूँ और यथा समय महासतीजी के दर्शनों का लाभ लेता रहता हूँ। शासन देव से यही विनती है कि ऐसी परम साधिका महासतीजी का वरदहस्त हम सब पर बनाये रखे।
कुंडलिनी शांत हो गई
0 उमेश जैन, इन्दौर
मैं दिगम्बर जैनसमाज का है। श्री बसंतकुमार जोशी के सान्निध्य में मैं गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानंदजी के आश्रम में ध्यान-साधना सीखने जाया करता था। मेरे अतिरिक्त और भी कई व्यक्ति वहाँ ध्यान-साधना के लिये जाते थे।
एक बार मेरी कुंडलिनी जागृत हो गई। जिसके परिणामस्वरूप मेरे सम्पूर्ण शरीर में आग की लपटें जैसे उठने लगीं। मुझे शरीर में भंयकर जलन का अनुभव होने लगा। इसके कारण मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ गया। मेरी भूख-प्यास गायब हो गई। हाथी हो अथवा कुत्ता, जो भी मेरे सामने प्राता मैं उसका गला पकड़कर झूम जाता । मेरी हालत दिन प्रतिदिन गिरती गई । एक दिन मेरी गर्दन लटक गई । घरवालों ने मेरे जीवन की प्राशा ही छोड़ दो। इसी अवधि में एक दिन घरवालों को किसी ने बताया कि महावीर भवन इमली बाजार में विराजित तेजस्वी महासतीजी उमरावकंवरजी के पास इन्हें ले जाओ। विश्वास है कि वहाँ से इनका स्वास्थ्य ठीक हो जावेगा। मेरी बड़ी बहिन मुझे लेकर उसी समय महासतीजी की सेवा में उपस्थित हुई । महासतीजी दोपहर को ध्यान से उठे ही थे। बहिन ने मुझसे सम्बन्धित सभी बातें महासतीजी को बतलाईं। महासतीजी ने उसी समय मुझे मंगलपाठ सुनाया, उनका मंगलपाठ सुनते हुए ही मैं तीन बार ज़मीन से उछला, उसके बाद एकदम शांत हो गया। उसके पश्चात् महासतीजी जब तक इन्दौर में विराजित रहे, मैं उनका मंगलपाठ सुनने नियमित रूप से जाता रहा।
मैं अब पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं प्रसन्न हूँ तथा अपना व्यवसाय करता हूँ। यह सब परमयोग-साधिका महासतीजी की कृपा का ही फल है, अन्यथा मेरी स्थिति क्या होती कुछ कह नहीं सकता। महासतीजी के गुणानुवाद करने के लिये मेरे पास न तो शब्द हैं और न इतनी बुद्धि-सामर्थ्य । मैं अपने हृदय की गहराई से उनके प्रति मंगलकामना करते हुए श्रद्धायुक्त वन्दन करता हूँ।
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महासतीजी का अभिज्ञान / १४३
राम नाम रस पीज मनुवा राम नाम रस पीज तज कुसंग बैठ साधु संग ढिक हरिचरचा सुन लीज ।
नाम की महिमा तरसेनकुमार जैन, जम्मू तवी
दिल्ली के जिस मकान में हम रहते थे उस मकान के मालिक का लड़का बहुत ही उद्दण्ड था । वह मेरी बहिन के प्रति आसक्त था। मेरे द्वारा उसे अनेक बार चेतावनी देने के उपरांत भी उसकी शरारतों में कमी नहीं हुई । मेरी बहिन ने भी उसे कई बार प्रताड़ित किया था फिर भी वह उसके पीछे पड़ा रहता था। उसने हमें कई बार धमकाया भी था । उस लड़के की शरारतों से हम सब परेशान हो चुके थे। इस बीच विदित हुआ कि चांदनी चौक स्थित धर्मशाला में परम पूजनीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० अर्चना' विराजित हैं । मैं सपरिवार महासती जी के दर्शन करने गया और वहीं उन्हें अपनी यह कहानी भी सुनाई । महासतीजी ने पूज्य आचार्य भगवंत श्री जयमलजी का नाम और अपने इष्ट की प्रेरणा देते हुए मंगलपाठ सुनाया। मांगलिक सुनकर हम अपने घर लौट आये । उसी दिन से मेरी बहिन को रोशनदान में से महासतीजी के हाथ की तर्जनी पर चक्र घूमता हुआ निरन्तर तीन दिन तक दिखाई दिया। चौथे दिन वह लड़का किधर गायब हुआ इसका पता भी नहीं चला । हमने शांति की सांस ली। हम सब उस लड़के के कारण परेशान थे। नाम की महिमा इतनी गुणवती होती है, यह अपने जीवन में मैंने पहिली बार अनुभव किया।
महासतीजी का अभिज्ञान
0 इन्द्रजीत
पूजनीया महासतीजी ने दिल्ली से आगरा की अोर विहार किया। मैं भी • महासतीजी की विहार-यात्रा में साथ ही था। मैंने महासतीजी के साथ आगरा तक
पैदल ही जाने का संकल्प किया था। हम अपनी इस यात्रा में अभी मथरा तक ही पहंचे थे, मथरा के एक मकान में प्रवेश किया ही था। न ही मैंने कुछ खाया-पीया था और न ही महासतीजी का आहार-पानी ही पाया था। थकान भी बहुत थी। तभी पूजनीया महासतीजो श्री उमरावकुंवरजी ने तेज आवाज में आदेश दिया कि
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द्वितीय खण्ड / १४४
इन्द्रजीतजी आप मांगलिक सुनकर तत्काल दिल्ली के लिये रवाना हो जावें। मैं महासतीजी के इस आदेश को सुनकर अवाक रह गया। मैंने आगरा तक साथ चलने का संकल्प दोहराया। इस पर महासतीजी ने कहा कि आपको वही करना है जो कहा गया है । इसके आगे मुझे कुछ भी कहने का साहस नहीं हुआ और मांगलिक सुनकर तत्काल दिल्ली के लिये रवाना हो गया । मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बस में चुपचाप बैठा मैं बाहर की ओर देखे जा रहा था । बस अपनी गति से आगे बढ़ती चली जा रही थी। तभी अचानक सड़क पर एक ओर मुझे महासती जी खड़े दिखाई दिये । मैंने तत्काल बस रुकवाई और नीचे उतर गया। मेरे नीचे उतरने के बाद बस चल दो। मैं उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ मुझे महासतीजी दिखाई दिये थे । किन्तु यह क्या ! वहाँ तो कोई भी नहीं था। मुझे पश्चाताप होने लगा । उतरते समय मुझे ड्राईवर ने भी मना किया था किन्तु उस समय मैंने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था। लेकिन अब क्या हो सकता है ? जहाँ मैं उतरा था वहाँ से थोड़ी देर बाद दूसरी बस पर सवार होकर सदर बाजार दिल्ली पहुंचा। सदर बाजार दिल्ली में ही मेरी दूकान थी । अपनी दूकान पर पहुंच कर मैंने देखा कि दूकान के ताले पर दूसरा ताला लगा हुआ है। यह देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया। पड़ोसी व्यापारी भाइयों से पूछने पर जानकारी मिली कि मेरे जीजाजी ने यह ताला लगवाया है और दस-बारह गुण्डों को लेकर मेरे घर गये हैं। पहले जीजाजी और हमारे बीच व्यापारिक सम्बन्ध था। बीच में कुछ वर्षों से परस्पर अनबन चल रही थी। जिसने आज यह रूप धारण कर लिया था। मैं रात भर दुकान पर ही रहा, प्रातः होने पर घर गया। सारी स्थिति का पता चला! मैंने तत्काल निर्णय कर लिया कि क्या करना है । मैंने जीजाजी को समझौते के समाचार भेजे। उन्होंने जितना जो माँगा देकर समझौता कर लिया और फिर पत्नी और बच्चों को लेकर तीसरे दिन महासतीजी के दर्शन करने आगरा जा पहुँचा। मैंने तीन दिन में कुछ भी खाया पीया नहीं था। महासतीजी के दर्शन कर संतोष किया। महासतीजी मेरी स्थिति देखकर तनिक मुस्करा भर दिये । कुछ पूछा नहीं। मैंने ही उन्हें सारी स्थिति बताई और बताया कि किस प्रकार खतरे से बचा। उस दिन बस से उतर कर मैं सदर बाजार न पहुँचता और कमलानगर अपने आवास पर पहुँच जाता तो न जाने क्या होता । महासतीजी की कृपा से ही मैं बच पाया। ऐसा मैं मानता हूँ। आपने तो केवल यही कहा कि जब व्यक्ति के अपने पुण्य प्रबल होते हैं और गुरुदेव की कृपा होती है, तो सभी प्रकार के संकट टल जाते हैं और आनन्द छा जाता है । ऐसे प्रसंगों से सहज ही जीवन में श्रद्धा की सुरसरिता प्रवहमान हो जाती है।
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सन्त-चरणरज चन्दन के समान होती है.
चरण-रज का रहस्य - महावीर सुराणा, नांदला (अजमेर)
मेरी माताजी श्रीमती झनकारकुंवरबाई की पूजनीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. के प्रति अत्यधिक श्रद्धा है। थोड़ी-सी कोई समस्या आई कि वे महासतीजी के सेवा में जा पहुँचती हैं और सहज ही समस्या का समाधान भी महासतीजी के द्वारा हो जाता है, यह हमारे परिवार पर महासतीजी की विशेष कृपा दृष्टि ही कही जा सकती है।
हमारे कुएं का पानी खारा था। यह बात गांव के सभी लोग जानते थे । हम भी चिंतित थे कि इतना श्रम और रुपया लगाने के पश्चात् भी कुएं में पानी खारा निकला, किन्तु प्रकृति के सम्मुख क्या किया जा सकता था !
एक बार माताजी महासतीजी के दर्शनार्थ गयीं । वापस अपने गांव लौटते समय माताजी महासतीजी के पांव के नीचे की रज (मुट्ठीभर रेत) अपने साथ लेती आईं और उसमें से थोड़ी सी रेत कुएं में डाल दी । यह महासतीजी का साधना का फल था कि आपकी चरणरज के कुएं में गिरने से कुएं का पानी मीठा हो गया। हमें तो आश्चर्य था ही, किन्तु जब गांव वालों ने सुना तो उन्होंने कुएं का पानी पी-पी कर आश्चर्य प्रकट किया।
इसी प्रकार वह रेत हमारे खेत में बिखेर दी, जिसमें निरन्तर तीन वर्षों से फसल नहीं हो पा रही थी। रेत बिखेरने के पश्चात् हमारा वह खेत लहलहा उठा। उस खेत में इतनी भरपूर फसल हुई कि मैंने पिछले तीस वर्षों में ऐसी फसल नहीं देखी। यह भी महासतीजी का प्रभाव है।
मेरी माताजी महासतीजी की चरणरज को जल में मिलाकर रखती हैं। गांव के अनेक बीमार दुःखी लोग उसे ले जाते हैं और उसके प्राचमन से उनका रोगनिवारण हो जाता है।
वर्ष १९७९ ई० में महासतीजी का अपनी शिष्याओं के साथ पदार्पण हुआ। जब आपके आगमन का समाचार गांव के लोगों को मिला तो सारा ही गांव आपके दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। लोगों ने आपके दर्शन किये और अपने-अपने अनुभव भी सुनाये । यह सब कुछ सुनकर महासतीजी ने यही फरमाया कि श्रद्धा के साथ देव, गुरु का भजन करने और धर्म पर श्रद्धा रखने से सब कुछ अच्छा ही होता है।
हम भी प्रतिदिन महासतीजी के आदेशानुसार धर्मसाधना करते हैं, जिससे हमारे जीवन में परम शांति व्याप्त है ।
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गुरु कृपाल परम दयाल, शिवसुख के दातार.
मांगलिक के चमत्कार ने चकित किया
- हरकचन्द बेताला, जानकीनगर (इन्दौर)
हम मूलतः डेह, जिला नागौर (राजस्थान) के रहने वाले हैं । व्यापार-व्यवसाय के सिलसिले में इन्दौर आकर रहने लगे। सन् १९८३ में प्रातःस्मरणीया परम विदुषी महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का चातुर्मास इन्दौर हुआ तो हमारे प्रानन्द की सीमा नहीं रही।
__ चातुर्मास-काल में हम प्रायः जानकीनगर से महावीर भवन इमली बाजार जाते रहते थे।
मेरे पौत्र चिंटू (महेन्द्र) के हृदय में एक बड़ी गाँठ हो गई थी। चिंटू की आयु अभी चार वर्ष ही थी । अनेक प्रकार से उपचार करवाया गया, किन्तु कोई लाभ नहीं मिल पा रहा था । अन्ततः डॉक्टरों आदि सभी की यही राय हुई कि बच्चे को बम्बई ले जाया जावे और वहीं इसका आपरेशन करवाया जावे। आपरेशन के अतिरिक्त अब इसका कोई अन्य उपचार नहीं है। ऐसा निश्चित होने पर हमने बम्बई जाने की तैयारी कर ली और बम्बई जाने के पूर्व हम चिंटू को लेकर महासतीजी की सेवा में महावीर भवन पहुँचे ताकि जाने से पूर्व मंगलवचन का श्रवण कर लें। यह महाराजश्री के प्रति हमारा श्रद्धाभाव और विश्वास है। चिंटू इस समय अचेतावस्था में था। हम महासतीजी की सेवा में पहुँचे, अपनी बात कहकर मांगलिक फरमाने का निवेदन किया । महासतीजी ने जैसे ही मंगलपाठ सूनाया वैसे ही चिट को झटके के साथ वमन हया और वहाँ उपस्थित सभी ने देखा कि वमन के साथ ही एक गांठ भी निकल पड़ी। हमने उस दिन बम्बई जाना स्थगित रखा। हम सब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि शाम को चिंटू हम उम्र बच्चों के साथ खेलने लगा। फिर तो चिंटू प्रतिदिन महासतीजी के दर्शन करने जाने लगा । यदि घर वालों को फुरसत नहीं होती तो वह स्वयं ड्राईवर को लेकर महासती जी की सेवा में पहुँच जाता।
आज वह पूर्ण स्वस्थ है और प्रसन्न रहता है । महासतीजी के प्रति उसे अटूट श्रद्धा है और अब तो स्थिति यह है कि यदि मिल में किसी मजदूर को ज्वर पा जावे या अन्य कोई तकलीफ हो तो चिंटू स्वयं उसे अपने साथ लेकर महासतीजी की सेवा में उपस्थित हो जाता है और मंगलपाठ सुनवाता है। वह कहा करता है कि महाराज सा० के मांगलिक से सब कुछ ठीक हो जाता है।
महावीर भवन, इन्दौर का चातुर्मास सम्पन्न कर महासतीजी राजमोहल्ला स्थित स्थानक में पधारे । हम लोग आपके दर्श न करने के लिये घर से रवाना होने
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मैंने स्वास्थ्य लाभ लिया | १४७
लगे कि एकाएक मेरी पत्नी मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। उसे ब्रेन हेमरेज हो चुका था। हम उसे तत्काल हो टी-चोइथराम अस्पताल ले गये । उसे उपचारार्थ अस्पताल में भरती कर दिया । इसके पश्चात् हम महासतीजी की सेवा में पहुँचे। प्रवचन समाप्त होने के पश्चात् हमने आपबीती बताई। साथ ही मंगलवचन सुनाने का आग्रह भी किया। महासतीजी पर-दुःखकातर हैं। आप तत्काल ही टीचोइथराम अस्पताल के लिये रवाना हो गईं, लगभग पाँच, छः किलोमीटर चलकर आपने मेरी पत्नी को दर्शन देने की कृपा की। किसी को भी उनके बचने की आशा नहीं थी। डॉक्टरों का कथन था कि यदि ये बच भी गईं तो पूर्व की अवस्था में आना कठिन है । डॉक्टरों के अथक प्रयास से मेरी पत्नी का जीवन तो बच गया किन्तु वह अपने जीवन की पूर्वावस्था को प्राप्त नहीं कर पाई। उसे दवाई आदि कुछ भी दिया जाता तो यही कहकर देते कि महाराजश्री ने भेजा है। तभी वह लेती, अन्यथा नहीं । वह उस समय यह भी कहती-"तब तो ले लूंगी।" उसकी ऐसी स्थिति काफी समय तक चलती रही । महासतीजी से निवेदन किया कि ऐसा कब तक चलता रहेगा । उसे जब कोई वस्तु आपका नाम लेकर देते हैं तो ले लेती है, अन्यथा नहीं लेती है। हमारे इतना बताने पर महासतीजी जानकीनगर से टीचोइथराम अस्पताल पहुंचे। मेरी पत्नी ने जैसे ही महासतीजी के दर्शन किये, उसकी मूर्छा दूर हो गयी अब वह पूर्ण चेतनावस्था में आ गई। उसने महासतीजी को वन्दन किया और परिवार के सभी सदस्यों को आपके मंगलवचन सुनने की प्रेरणा दी। इसके साथ ही उसने एक लाख ग्यारह हजार रुपये गरीबों के उपचार के लिये दिये । महासतीजी की उपस्थिति में ही हमने एक शिविर भी लगवाया था। आज मेरी पत्नी पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं प्रसन्न है। हम समय-समय पर महासतीजी के दर्शन करने के लिये उनकी सेवा में उपस्थित होते रहते हैं । शासनदेव से प्रार्थना है कि महासतीजो म० सा० जिनधर्म की प्रभावना करते रहें एवं भूले-भटके दुखियों को सन्मार्ग दिखाते रहें तथा हम उनके आदेशानुसार श्रावकधर्म का पालन करते रहें।
साध बड़े परमारथी घन ज्यों बरसे आय । तपन बुझावे और की अपनो पारस लाय ॥ मैंने स्वास्थ्य लाभ लिया श्रीमती सुशीला बेताला, जानकीनगर इन्दौर
प्रातःस्मरणीय, परमश्रद्धय, अध्यात्मयोगिनी, परमविदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के मुझ पर जो उपकार हैं, उन्हें मैं अपने जीवन की अन्तिम साँस तक नहीं भूल सकती हूँ।
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द्वितीय खण्ड / १४८
बात मेरे प्रथम प्रसव के समय की है । उस समय मुझे कुछ ऊपरी बाधा हो गई थी । मैं बहुत ही घुटन महसूस करती । अनेक बार इस घुटन से मेरी चीख तक निकल जाती। कंधों और शरीर में असह्य वेदना होती। इसे मैं अपना परम सौभाग्य ही मानती हूँ कि सन् १९८४ के वर्ष में जानकीनगर, इन्दौर में महासतीजी . का चातुर्मास हा । मैंने महासतीजी के विषय में वहत कुछ सूना था। मेरी सास व मेरा भतीजा महासतीजी के मांगलिक का चमत्कारी प्रभाव देख चुके थे। इस कारण महासतीजी के प्रति मेरे मन में पर्याप्त श्रद्धा-भाव उत्पन्न हो गये थे। जब आप 'जैन भवन', जानकीनगर में चातुर्मासार्थ पधारे तब से मैं नियमित रूप से आपके दर्शन करने जाने लगी। आपका मांगलिक भी सुनने लगी। आपके मंगलवचन सुनने से मुझे आराम मिलने लगा। इसके बावजूद जो मूल शिकायत थी वह कभी-कभी उभर आती थी । इसी बीच चातुर्मास समाप्त हो गया और महासतीजी का बिहार भी हो गया।
यह भी संयोग ही कहा जायेगा कि महासतीजी वर्ष १९८५ का चातुर्मास सम्पन्न कर पुनः इन्दौर पधारे और यह हमारे सौभाग्य की बात थी कि इस बार महासतीजी का मुकाम हमारे बंगले में ही रहा। इसका कारण यह था कि जैन भवन में तपस्विनी श्री श्री उम्मेदकंवरजी म. सा. की तपस्या के उपलक्ष में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला नेत्र-शिविर चल रहा था।
घर बैठे गंगावतरण हो गया है । घर के कार्य से निवृत होकर अधिकाधिक समय महासतीजी की सेवा में व्यतीत करने लगी। आपकी सेवा में रहते मैं आपसे स्तोत्र सुनती रहती । आपके स्तोत्रपाठ से मेरी यह ऊपरी बाधा एकदम दूर हो गई और जो मैं घुटन का अनुभव करती थी, वह भी समाप्त हो गई। मैं बाधामुक्त होकर स्वस्थ हो गई।
मेरे जीवन की दूसरी घटना उस समय घटित हुई जब महासतीजी ने खाचरौद चातुर्मास के लिये इन्दौर से बिहार कर दिया।
उस दिन परिवार के सभी सदस्य घर से बाहर गये हुए थे । घर पर मैं और एक नौकर दो ही प्राणी थे । नौकर को एकाएक न जाने क्या सूझा कि उसने मुझे मारने के इरादे से मुझ पर प्रहार किया । मुझे न जाने कहाँ से एकाएक घर से बाहर भागने की प्रेरणा मिली । मैं कमरे से बाहर की ओर भागी और 'बचाओ बचायो !' जोर-जोर से चिल्लाने लगी। नौकर मुझे बराबर मारे जा रहा था व मेरे सिर से खून की धारा बह रही थी। उसने झपट्टा मारकर मेरे गले की सोने की चैन खींचने का प्रयास किया। इसी बीच मैं नीचे गिर पड़ी। उसने मेरा गला भी दबाने का प्रयास किया। चेन टी नहीं क्योंकि उसमें महासतीजी का चित्र था।
मेरे पति श्री सागरमलजी बेताला उस समय कार्यवश बम्बई गये थे। मेरे चिल्लाने की आवाज सुनकर पासपड़ौस के व्यक्ति एकत्रित हो गये । नौकर घबरा कर भाग गया। थोड़ा स्वास्थ्य ठीक होते ही मैं महासतीजी की सेवा में खाचरौद पहुँची और उन्हें सारा किस्सा बताते हुए कहा कि यदि उस दिन चेन में आपकी
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पेटदर्द जाता रहा / १४९
तस्वीर नहीं लगी होती तो मेरी जीवनलीला ही समाप्त हो गई होती। महासतीजी ने फरमाया "जिसका आयुष्यबल प्रबल होता है उसे कोई नहीं मार सकता है। व्यक्ति को हमेशा अपने इष्ट का स्मरण करते रहना चाहिये।"
मैं हृदय से पूजनीय गुरुणीजी म. सा. के पावन चरणों में श्रद्धावनत हूँ।
मुझ पर आपके बहत उपकार हैं। शासनदेव आपको स्वस्थ व प्रसन्न रखें और इसी तरह आप लोगों के हृदय में धर्म के प्रति श्रद्धाभाव जागृत करते हुए उपकार करते रहें।
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पर-पीड़ा हरना ही आपके जीवन का लक्ष्य है. पेटदर्द जाता रहा
0 इन्दरमल, उज्जैन
__मेरे पेट में असह्य दर्द होता था । इसके लिये मैंने बहुत उपचार कराया, दूसरे अन्य उपाय भी किये परन्तु मेरा पेट दर्द बन्द नहीं हुआ।
यह मेरा सौभाग्य ही था कि सन् १९८५ में उज्जैन नमकमण्डी में परमविदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' आदि ठाणा दस का चातुर्मास हुआ। मैं आपके दर्शन करने, प्रवचन सुनने जाने लगा । मैंने अवसर पाकर आपको अपने पेट दर्द की बात भी कही। आपने मौन रहकर तटस्थ भाव से मेरी कहानी सुनी। मेरे आग्रह करने पर आपने मांगलिक भी सुनाई । आपके मंगलपाठ सुनने से मेरे पेट का दर्द सदा-सदा के लिये ठीक हो गया। मैं पहले एक उपवास रखने में भी असमर्थ था किन्तु अब महासतीजी की कृपा से मैंने एकान्तर की तपस्या भी कर ली । अब मैं पूर्णरूप से स्वस्थ पोर प्रसन्न हूँ। अब समय-समय पर मैं आपके दर्शनों का लाभ लेता रहता हूँ। ____ मैंने देखा कि उज्जैन चातुर्मास काल में आपके मांगलिक वचन सुनकर कई लोगों की बीमारियाँ दूर हुई हैं । इस सम्बन्ध में महासतीजी का कहना है कि यह सब नवकार महामंत्र और पूज्य आचार्य भगवंत श्री जयमलजी महाराज सा० को कृपा है।
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"एक अर्ज " अर्चना " गुरु चरना, हम कैसे भी हैं पर निभा लेना. " संस्मरण सुखद
सौभाग्यकुंवर हिंगड़, दौराई ( अजमेर)
महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० " अर्चना " संसारपक्ष में मेरी लघु भगिनी हैं। इस बात का मुझे बहुत बड़ा गर्व है । इनके जीवन से संबंधित कतिपय अनुभव मैं बताना चाहूँगी
सबसे पहिले जब ये माताजी के गर्भ में थे तो माताजी ने नौ ही महीने तक दूध, ग्राम का फल, पान एवं सिके हुए गेहूँ की गुंघरी इन चार चीजों के और पानी के अतिरिक्त और कुछ भी ग्रहण नहीं किया । माताजी की धार्मिक भावना इतनी प्रबल थी कि आपके जन्म के दूसरे दिन भी उपवास किया, ( महाराज श्री का जन्म सम्वत् १९७९ भादवा कृष्ण सप्तमी को हुआ था), दशमी का भी उपवास किया, चौदस को भी उपवास था । भादवा सुदी तीज को माताजी का देहावसान हुआ, उसके एक दिन पहिले भी उपवास ही था । विशेष मुझे कुछ याद नहीं है लेकिन माताजी ने इनको ( महाराज सा० को ) देखकर बहुत बार कहा कि इनके हाथ-पैर कितने बड़े-बड़े और सुन्दर हैं। जब आप तीन बरस के हुए तो दृष्टि दोष के कारण अचानक बीमार हो गए, किसी भी तरह का उपचार कारगर नहीं हुआ । अन्त में वह दिन आया कि बालिका को मृत घोषित कर दिया गया । घर में मातम छा गया, श्मशानघाट ले जाने के लिये लोग इकट्ठे होने लगे । इतने में पीछे के रास्ते से पिताश्री मांगीलालजी जो बहुत समय से अज्ञातवास में थे, आ पहुँचे और वस्त्र से ढ़के हुए शव को उठाकर ऊपर से नीचे की ओर कूद पड़े । गाँव के बाहर जोगियों की एक जमात प्रायी हुई थी, उस जमात के मुखिया महन्त की साधना से ग्रामवासी बहुत प्रभावित थे। क्योंकि जहाँ पर उनकी जमात का पड़ाव था, वहाँ का स्थल एकदम सूखा था, जबकि उनके चारों ओर पानी ही पानी था । पिताश्री शव को लेकर उसके पास आ पहुँचे और शव को रख कर बैठ गये, महन्त ने कहा बहुत देर हो चुकी है, इसे ले जाओ। लेकिन वे वहाँ से हटे नहीं, दृढ़ विश्वास के साथ बोले, यह मर नहीं सकती, मुझे राजज्योतिषी हरिनारायणजी ने इसके महान भविष्य के बारे में बताया और इसको मेरे आत्मकल्याण का निमित्त भी कहा है । महन्त ने चिमटी राख ली और कागज की पुड़िया में सूत के धागे से बालिका के गले में बांध दी। उसी समय चेतना लौट आई और आँखें खुल गई। पिताश्री को खोई हुईं निधि पुनः मिल गई । तत्काल ही वह पुन: पीछे के रास्ते से ऊपर आये और बालिका को यथास्थान पर छोड़ गये और उसी और वापिस लौट गये । तब से हमारे घरवाले एवं गाँव वाले यही कहते हैं, बाई सा० मरकर वापिस जीवित हुए हैं । सन् १९८५ में सखवास
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संस्मरण सुखद / १५१
ठाकुर श्री मानसिंहजी के कुंवर श्री हरिसिंह जी ने इस रहस्य को उजागर किया। इस संबंध में वह स्वयं ही लिखेंगे।
२०२५ में तपस्विनीजी श्री महासतीजी श्री उम्मेदकंवर जी महाराज सा० का विक्टोरिया हॉस्पिटल में डॉ टी० सी० जैन द्वारा पेट के अलसर का ऑपरेशन हुआ। महाराजश्री को करीबन ढाई तीन महीने हॉस्पिटल रहना पड़ा। मैं भी सेवा में ही रही। हॉस्पिटल में ही काम करने वाली हरिजन महिला भंवरीबाई के लड़के के पेट का करीबन आठ दफे ऑपरेशन हो चुका, किन्तु उसकी हालत दिन-प्रतिदिन गिरती गई। मात्र उसके जीवन का एक ही सहारा है, वह अत्यन्त दु:खी थी। मैंने सहज भाव में कहा, यदि तुम्हें श्रद्धा हो तो महाराजश्री इधर से निकलें, उनके पैरों के नीचे की रेत लेकर पानी में घोलकर पिला देना । उसने मेरे कहे अनुसार ही किया और वह बिल्कुल ठीक हो गया। भंवरीबाई आज भी जब मुझे मिलती है तो पूज्य महाराजश्री का बहुत उपकार मानती है ।
जिस जगह हम रहते हैं, पड़ोस में ही मंगला नाम का एक जाट का लड़का रहता है । स्वभाव का बहुत ही उद्दण्ड है। कुछ न कुछ गड़बड़ करता ही रहता है । पू० महासतोजी श्री उमरावकुंवरजी महाराज के दर्शन किया करता है। धीरे-२ स्वभाव में भी बहत अन्तर पाता जा रहा है। एकदिन मेरे से महाराजश्री का फोटो ले गया. उसी दिन अपराध के कारण गिरफ्तार भी हो गया। जब उसकी तलाशी ली गई, पुलिस ने जेब में सन्त का चित्र देखा और मुक्त कर दिया। उसके बाद उसने कोई गलती नहीं की।
हमारे गाँव दौराई में मुसलमानों के करीबन साढ़े तीन सौ घर हैं। उन सभो से हमारे बहुत अच्छे ताल्लुकात हैं। हुसैन बाबूजी का लड़का कादर, जिसको महाराजश्री ने गृहस्थपन से ही अपने छोटे भाई की तरह समझा, मेरे देवर श्रीमान् चम्पालालजी (महाराजश्री के पति) का भी उस पर बहुत अधिक स्नेह था। वह बहत बड़े धनाढ्य का लड़का है। अजमेर में इनके पिताजी का बड़ा नाम है। महाराजश्री ने जब दीक्षा ले ली, इनके उपदेश से उसने यह प्रतिज्ञा की कि मैं जिन्दगी भर निरामिष रहँगा। शादी भी वैसी लड़की के साथ करूगा जो मेरी तरह शाकाहारी हो । देश विभाजन के समय वे लोग पाकिस्तान चले गये। समय-समय पर कादरजी आ ही जाते हैं । ३५ वर्ष की उम्र हुई, तब उसने अपनी इच्छानुसार शाकाहारी परिवार की लड़की से ही शादी की। आज भी उसके मन में महाराजश्री के प्रति अत्यधिक श्रद्धा है और जीवन की कई चमत्कारपूर्ण बातें बताता रहता है। यहाँ तक कि कई लोगों से मांस मदिरा का त्याग करवाया है।
सन १९८५ का महासतीजीश्री का चौमासा उज्जैन था । उस समय की घटना है, पर्युषण पर्व के दूसरे दिन संभवत: चौदस के दिन मेरा उपवास था। रात को २ बजे उठकर मैं नवकार मंत्र का जाप कर रही थी, साथ ही महाराजश्री की बहुत स्मृति भी पा रही थी। उस समय मेरे घर में किराएदार की स्त्री के पास एक व्यक्ति प्राया जाया करता था। उसका व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगा। उसे आने
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द्वितीय खण्ड / १५२
के लिए मना कर दिया। रात को वह छुरा लेकर मकान में घुस आया और मेरी गर्दन पर निरंतर प्रहार करता रहा । लेकिन छरा धार की तरफ से न लग कर उल्टा लगता रहा । मेरे थोड़ी बहुत चोट आयी, लेकिन वह जिस इरादे से पाया था वह पूरा नहीं हुआ । मैंने महाराजश्री का नाम लेकर जोर से बाहर आवाज लगायी-'कमबख्त छुरे की धार भी काम नहीं कर रही है" यह कहते हुए वह भाग खड़ा हुआ । मुझे लगा, मेरे पास में सहायता के लिये कोई खड़ा है, वह महाराजश्री हो सकते हैं।
आज भी मैं महाराजश्री के पैरों नीचे की रेत अपने पास रखती हूँ, छोटी-मोटी बीमारी वाले लोग आते हैं, उन्हें वह पानी में डालकर दे देती हूँ। जिन्हें विश्वास है, उनके ठीक भी हो जाता है। ___ मेरे मन को यह विश्वास है कि अधिकतर महाराजश्री की सेवा में मेरे स्वर्गीय देवरजी श्रीयुत चम्पालालजी सा० रहते हैं । क्योंकि उनका जीवन बहुत ही सात्विक एवं त्यागमय था और महाराजश्री के प्रति जब वे गृहस्थपन में थे, अत्यधिक स्नेह था। देहावसान के बाद भी वे जब महाराजश्री गहस्थपन में थे समयसमय पर दिखाई देते थे और सन्देश भी दे जाते थे। उनके द्वारा दी गयी सूचना शतप्रतिशत सत्य होती थी। दीक्षा में भी उनका अज्ञात रूप से काफी सहयोग रहा । दीक्षा के एक दिन पूर्व की घटना है- स्व० श्रद्धय पूज्य श्री गुरुणीजी श्री सरदारकुंवरजी महाराज सा० ने उन लोगों को बताई और श्रीमान् रतनचन्दजी चौरड़ियाजी के माताजी ने बताई । जब आप (श्रीमहासती पूज्य उमरावकुंवरजी 'अर्चना') चौरड़ियाजी के यहाँ से भोजन करके स्थानक की और पा रहे थे। साथ में बहत से भाई भी थे, रास्ते में खड़ा एक युवक योगो के भेष में मिला, उसने ऐसी-ऐसी बातें बताईं जिनको सुनकर सभी को आश्चर्य हो रहा था जैसे कि वह महाराजश्री के जनम से ही साथ रहा हो । उसने अपने अंगूठे को दबाकर दूध की धारा बहाई। वह पानी के नाले की तरह बहुत दूर तक चली गई । पास में पड़े बड़े पत्थर को उठाकर अपनी हथेली में सुपारी के रूप में दिखाया। इस प्रकार के चमत्कार देखकर वहाँ पर खड़े लोग चकित थे । उस समय रतनचन्दजी के माताजी ने कहा, बाई सा० कल चारित्र धर्म स्वीकार कर रहे हैं इनका भविष्य कैसा रहे गा । उसने तत्काल कहा--"यह छः महीने भी साधुवेश में नहीं रह सकेगी, भयंकर कष्ट का सामना करना पड़ेगा। अच्छा है यह साध्वी न बने । इसीमें इसका भला है ।" यह जोगी की भविष्यवाणी सुनकर उपस्थित सभी लोग विचार में पड़ गये-बाई सा० अभी कुछ नहीं बिगड़ा है । सिद्ध पुरुष की सभी बातें सच निकली तो इस बात पर भी विश्वास करना चाहिए। उस समय आपका रूप एकदम बदल गया, आँखों में रक्त उतर आया मानो दुर्गा का ही रूप हो । जोगी को इस प्रकार ललकारा की वह तत्काल यह कहते हुए अदृश्य हो गया कि मैंने सिर्फ परीक्षा ली थी। मुझे लगता है मेरे देवरजी ही उस रूप में आये होंगे।
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दिव्य जीवन की चमत्कारिक घटना / १५३
मेड़ता में घटित एक घटना के संबंध में भी श्रद्धय श्री सरदारकुंवरजी महाराज एवं महाराजश्रीजी की बड़ी गुरुबहिन श्री झनकुजी महाराज सा० ने मुझे बताया कि पूज्य गुरुदेव स्वर्गीय श्री हजारोमलजी महाराज आदि ठाणा ४ से मेड़ता विराज रहे थे और उनके प्रवचन में हम तीनों ही गये। वापस आये तो स्थानक में कोठरी का दरवाजा अन्दर से बन्द हो गया । मोहल्ले वालों ने जी जान से ग्यारह-बारह बजे तक दरवाजा खोलने की कोशिश की लेकिन प्रयास निष्फल हुआ । मन में कुछ पढ़कर जैसे ही अमरू ने हाथ लगाया कि तत्काल किवाड़ खुल गया। महाराजश्री को गुरुणीजी महाराज और झनकुकुंवरजी अमरू के नाम से पुकारते थे क्योंकि हमारे घर में भी कभी इनको किसी ने लड़की के नाम से नहीं पुकारा । किवाड़ खुलने का रहस्य कुछ और भी हो सकता है किन्तु उस दिन जो बात बनो वह इस प्रकार है
उसी रात्रि को आपने स्वप्न में मेरे देवरजी स्व० श्री चम्पालालजी को स्वर्ग में देखा और प्रातः गुरुणीजी महाराज को बताया तो हंसते हुए गुरुणोजी महाराज ने कहा तेरे अन्तर्मन में उनके प्रति अनुराग है इसलिए समय-समय पर दिखाई दे जाते हैं । बड़ी के सामने जवाब तो देना नहीं था, किन्तु मन में जरूर खेद हुआ कि उनके मन में किसी भी प्रकार का कोई राग-भाव नहीं है । व्याख्यान के बाद यह सब कुछ घटा। कमरे का सारा सामान अस्त-व्यस्त था। गुरुणीजी महाराज ने कहा तुम्हारे कथन की सच्चाई मैं स्वीकार करती हूँ । इस प्रकार अनेक बार नाना रूपों में वे दिखाई देते रहे हैं। यह तो निश्चित है कि मेरे देवरजी की गति बहुत ऊँची है । वे कौन से स्वर्ग में हैं, यह तो मैं नहीं जानती पर उनका सहयोग महाराजश्री को जरूर मिलता होगा। इस संबंध में विशेष चिन्तन तो अनुभवी लोग ही कर सकते हैं। मुझे हादिक प्रसन्नता एवं गर्व है कि इस पथ पर बढ़कर हमारे कुल को और अपने जीवन को गौरवान्वित किया है। इनके पीछे ही हम लोगों की पहचान होती है। हृदय की यह कामना है कि मेरी आयु भी आपको लग जाये और कल्याण करते हुए संयम पथ पर अविराम गति से बढ़ते रहें।
दिव्य जीवन की चमत्कारिक घटना
- पुखराज एवं इचरजकुंवरबाई विनायक्या, तबीजी
पूज्य महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी "अर्चना" की ५० वीं दीक्षा-स्वर्णजयंती मनायी जा रही है और अनेक भक्त एवं विद्वान् अपने भावपूर्ण लेख और निबन्ध, कविताएँ आदि देंगे। हमें तो सिर्फ इनसे जो कुछ पाया वह सत्य बात हो लिखनी है।
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द्वितीय खण्ड / १५४
संवत् २०२५ का आपका चातुर्मास किशनगढ़ शहर में था। हम लोग दर्शन के लिये जाना चाह रहे थे । मैं और मेरे माताजी अजमेर आये थे। मेरी धर्मपत्नी इचरजकुंवर और बच्चे घर पर ही थे। उस समय घर पर ही काम करने वाले आदमी से, जो जाति का ठाकुर है, लेन-देन के मामले के कारण परस्पर वैमनस्य हो गया था । वह तलवार लेकर मुझे मारने घर पर आ गया, मैं अजमेर था, मेरी पत्नी से उसने कहा काका सा० कहाँ हैं ? आज मैं उनको खत्म करके ही दम लंगा। मेरी पत्नी ने बहुत ही प्रेम से कहा--बना, शाम को मैं तुम्हारा फैसला करवा दूंगी, ऐसा मत करना । लेकिन वह यह कहते हुए नीचे उतर गया कि वह जहाँ भी मिलेंगे खत्म कर दूंगा। मेरी पत्नी बुरी तरह से घबराई हुई, कमरे के अन्दर किसी को आवाज देने के लिये झरोखे में गई तभी वह तलवार लेकर वापिस कमरे में आ गया । निरन्तर उसने तलवार के छः वार किये, (हमारे मन में धरम के प्रति हमेशा से श्रद्धा रही है और महाराज श्री के प्रति तो विशेष ही है) मेरी पत्नी की एक आँख निकलकर बाहर आ गई, हाथ कट गया, सिर और गर्दन में गहरे घाव हो गये, किन्तु निरन्तर महाराजश्री का नाम पुकारती रही। उसी समय उसको गजसूकमाल मुनि के सर पर रखे अंगारे दिखाई दिये, वह ज्यों की त्यों खड़ी रही, सारा कमरा खून से रंग गया, वह व्यक्ति हाथ में तलवार लेकर वहाँ से भाग गया। बाजार में सभी लोगों ने देखा पर पकड़ने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई । मेरे नौकर एवं भतीजे की बहू के शोर मचाने पर पूरा घर भर गया, तत्काल एम्बुलेंस के द्वारा अजमेर के हास्पिटल में एडमिट करवाया गया। मेरे जीवन का यह प्रसंग बहुत ही दर्द भरा और मन को मथने वाला था। डॉक्टरों के प्रयास से प्राण तो बच गए किन्तु मन मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया और वह निरन्तर महाराज श्री को स्मरण करती रही । चातुर्मास समाप्त होते ही महाराजश्री किशनगढ़ से अजमेर पधार गये। अजमेर और तबीजी में महाराजश्री करीबन दो-ढाई महिने विराजे और मेरी पत्नी दिन-रात महाराजश्री की सेवा में रही। अाँख तो नहीं बच सकी किन्तु तन और मन से पूर्ण स्वस्थ्य है। कभी तनिक भी मानसिक या शारीरिक अस्वस्थता महसूस होती है तो हम महाराजश्री की सेवा में पहुँच जाते हैं । मैं महाराजश्री का संसार पक्षीय देवर हूँ। हमारे घर में समय-समय पर अनेक प्रभाविक दृश्य उपस्थित होते रहते हैं । मैं अपनी जिह्वा से उनके सम्बन्ध में जितना भी कहूँ, वह कम पड़ता है।
नाम का प्रभाव 0 राजकुमार विनायक्या, तबीजी
महाराजश्री संसार पक्ष में मेरे ताईजी हैं, जब बाईजी के तकलीफ थी तो आपको तबीजी हमारे प्राग्रह से विराजना पड़ा। मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई
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दिव्य सौरभ | १५५
चल रही थी, मुझे परीक्षा देने के लिये हदंडी जाना था, जैसे ही काम से बाहर निकला कि साइकिल पंचर हो गई। मझे ठीक समय पर पहंचना था। महाराज श्री के बताये अनुसार मैंने पूज्य जयमलजी महाराज का नाम लिया, तीन कि० मी० मैं उसी साइकिल से परीक्षा के ठीक समय पर पहुँच गया ।
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आराध्य चरण में वन्दन हो, कोटि-कोटि अभिनन्दन हो.
दिव्य सौरभ हर्षदभाई जैन-जयाबेन, इन्दौर
महासतीजी उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" जी के प्रति हमारे मन में जब से उनके दर्शन किये तभी से श्रद्धा तो थी ही, लेकिन हमारे घर से कालेज नजदीक होने के कारण छोटी सतियों को परीक्षा दिलवाने के लिए हमारी आग्रह भरी विनती मानकर हमारे बंगले पर पधारे। जिस कमरे में म० सा० श्री जी ध्यान करते थे अाज भी उस कमरे में अलौकिक सुगंध आती है। हमारे मुहल्ले के लोग बहुत पूछते रहते हैं कि आप के बंगले से यह कैसी सौरभ पाती है ? लेकिन आश्चर्य की बात है दो तीन बार उसी कमरे में दूसरे साध्वीजी विराजे तो वह सुगन्ध गायब हो गई। जैसे ही उन लोगों ने विहार किया फिर से हमने म० सा० श्री को विनती की, चार पाँच बार कृपा करके हमारे यहाँ पधारे। इस सुगन्ध के साथ और भी कई अनुभव होते रहते हैं । जब भी हम म० सा० श्री के सामने बैठते हैं, चाहे प्रवचन में या ऐसे ही, तो मेरा एकदम ध्यान लग जाता है और अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है । कई प्रकार के दृश्य नजर आते हैं । हमारे हृदय की श्रद्धा अमिट है।
हम अपने हृदय से हार्दिक शुभ कामना भेंट करते हुए म० सा० श्री के दीर्घजीवन की मंगल कामना करते हैं ।
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सन्तों का हृदय हर्ष-विषाद की सतह से ऊपर उठ जाता है. समता की कसौटी पर खरी
0 रिखबराज कर्णावट एडवोकेट, जोधपुर
महासती श्री उमरावकुंवरजी महाराज "अर्चनाजी" में ज्ञान व क्रिया का अद्भुत सामञ्जस्य है । सौम्यता, मिठास व समता उनके स्वाभाविक गुण हैं अथवा उन्होंने अपनी साधना व अभ्यास से इन गुणों को प्राप्त किया है ।
मुझे स्मरण है, उनकी कुछ डायरियां जिनमें आपके स्वाध्याय व चिन्तन के संक्षिप्त भाव लिखे थे, कहीं रास्ते में गिर गये। एक अजैन को वह डायरियां मिलीं । जैनधर्म की बातें देखकर उस व्यक्ति ने वे डायरियां मेरे सुपुर्द कर दीं। मैंने कुछ समय बाद जैन स्थानकों में इसकी सूचना करा दी। जो सूचना महासतीजी अर्चनाजी को भी मिल गई। मुझे सन्देश मिला कि अर्चनाजी की नेश्राय की वे डायरियां हैं। मैं उनको लेकर सतीजी के पास काफी दिन बाद पहँचा और सतीजी को डायरियां समर्पित की। मुझे लगा कि सतीजी ने अपनी अथक लगन से जो डायरियाँ तैयार की, उनके खो जाने का न तो कोई शोक था न उनके मिलने का हर्ष । उन्होंने उन डायरियों को बिना किसी ऊहापोह के ग्रहण किया । मुझे लगा कि सतीजी मोह की कुण्ठा से ग्रस्त नहीं थीं। अपनी प्रिय वस्तु के वियोग ने और पनः संयोग ने उनको उद्वेलित नहीं किया। राग अवस्था की निर्बलता देखकर मेरे मन में सतीजी के प्रति श्रद्धा के भाव और भी सुदृढ़ हो गये । मुझे लगा कि कभी न कभी गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के लक्षणों से सम्पन्न होंगी और अपने जीवन से जन-जन की प्रेरणास्रोत बनेंगी। मैं उन की दीर्घायु की कामना करता हूँ।
महासतीजी के अपार्थिव स्वरूप से सम्बन्धित अनुभवों को लेखिका ने प्रस्तुत किया है.
ध्यान....निजी अनुभव
। श्रीमती इन्द्रकुवर भण्डारी
मेरे हृदय-मन्दिर में हर समय रहने वाली अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा० 'अर्चनाजी' जो मेरी पूजनीया गुरुणीजी हैं, जिनका
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ध्यान निजी अनुभव | १५७ विशेष सम्पर्क सन् १९७१ से शुरू हुआ जबकि महासतीजी का चतुर्मास महामन्दिर (जोधपुर) में था। उन दिनों मेरी भावना दीक्षा लेने की बनी परन्तु स्वीकृति न मिलने से मेरे मन पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मैं प्रतिदिन आवश्यक गृहस्थ कार्य शीघ्र ही सम्पन्न कर वाकी रात-दिन का अधिकांश समय एकान्त में शास्त्र अध्ययन और चिन्तन में व्यतीत करती । चिन्तन के समय महासतीजी का चित्र मेरे सामने रहता और चिन्तन की धारा अधिकांशतः विलापमय ही होती । इनके साथ-साथ मेरे आराध्यदेव दादागुरु प्राचार्य श्री जयमल्लजी म. सा. की आकृति भी मेरे सामने रहती। इस प्रकार एकान्त में विलापमिश्रित चिन्तन करते हुए अनेक माह व्यतीत हो गये। संयोगवश इस क्रम में मुझे कुछ आभास होने लगा कि इन गुरुदेवों का वरदहस्त मेरे सिर पर है और मन को कुछ विशेष आनन्द का अनुभव होने लगा । ___महासतीजी के हमारे क्षेत्र महामन्दिर से विहार करने के पश्चात् हम हर महीने दो महीने में दर्शन करने हेतु जाते और मैं दो-तीन दिन महासतीजी की सेवा में रहती। अपने चिन्तन के अनुभव (संकेत) के बारे में चर्चा कर संतोष प्राप्त करती। अपने कार्यक्रम के अनुसार मैं हर प्रातः करीब साढ़े तीन बजे जाग जाती और सामायिक ले लेती और सूर्योदय तक शास्त्रीय बोल, जाप माला
आदि का क्रम चलता और इसी क्रम के बीच अब मैंने पूज्य श्री अर्चनाजी के संकेत के आधार पर 'ध्यान' करना शुरू कर दिया और गुरुदेव के आशीर्वाद से मेरा ध्यान कुछ दिनों में लगने लगा और मुझे विशेष खुशी का अनुभव होने लगा।
चतुर्मास समाप्ति के पश्चात् गुरुणीजी म. सा. नागौर की ओर पद-यात्रा कर रहे थे और रास्ते में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। मैं घर पर थी और रात को अनायास नींद टूटी और महासतीजी को बीमार समझ कर रोने लगी और चिन्तन में लीन हो गयी। इसी बीच प्रकाश हुआ और गुरुणीजी म. सा० के दर्शन हुए, उन्होंने कहा “अब मैं ठीक हूँ, तुम्हें क्या चाहिए ?" मैंने कहा, जब मैं चाहूँ तब आपके दर्शन हो जाने चाहिए, बस इसके सिवाय और कुछ नहीं चाहिए। उस दिन से आवश्यकता पड़ने पर मेरी प्रार्थना स्वीकार हो जाती है। यह गुरुणीजी म. सा० की ओर से पहला चमत्कार था ।
ध्यान की प्रक्रिया में शुरू-शुरू में प्रकाशीय रंग दिखाई देने लगे, करीबकरीब आधा घण्टा ध्यान लगने लगा और ध्यान करने में मेरी रुचि बढ़ने लगी। प्रात:, दोपहर और संध्या यानि तीनों समय, ध्यान करने लगी। इस विषय के संदर्भ में यह लिखना आवश्यक समझती हूँ कि मेरे घर में शान्त वातावरण, शुद्ध खानपान, कुछ वर्षों से शीलव्रत एवं संयमीजीवन, एकान्तर तप, बिना बिस्तर सोना, सामाजिक उत्सवों से अलगाव आदि का दृढ़ता से पालन और मुख्यता महासती गुरुणीजी म. सा० की विशेष कृपा से ध्यान में उनके संदेश का सुनना और इसी क्रम में आगे 'ध्यान' में अन्य संकेतों एवं घटनाओं का स्मृति-पटल पर चित्रण
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द्वितीय खण्ड / १५८
होने लगा । अधिकांश चित्र-संकेतों का अर्थ मैं समझ नहीं पाती, अत: उनका समाधान महासतीजी के मिलने के बाद ही होता । आपकी असीम कृपा एवं प्रेरणा से मैं ध्यान की ओर विशेष प्रभावित होती गई । ध्यान शुरू करने के पूर्व प्रश्न सोचती और उनमें से अनेक के उत्तर मुझे चित्रित होते और सम्बंधित व्यक्तियों मैं बता भी देती, परन्तु अब इस प्रकार की जानकारी देने में मेरी रुचि नहीं है।
करीब सात वर्ष पूर्व मैं अस्वस्थ थी और काफी नाजुक स्थिति होने पर भी मैं प्रातःकाल ध्यान में अवश्य बैठती। एक रात ध्यान के समय गुरुणीजी महाराज के दर्शन होते हैं और वार्तालाप होता है, वे मेरे हाथ में एक केपस्यूल और दवा देते हैं । मैं ध्यान में ही उनसे निवेदन करती हूँ कि मुझे दवा नहीं, आपकी दयादृष्टि ही चाहिए और उसीसे ठीक होना चाहती हूँ । आपने आशीर्वाद की मुद्रा में कहा- ठीक है, यह दवा फेंक दो । बस उस दिन से ग्रापकी कृपा से जीवन भर के लिए दवा छूट गई । इस प्रकार गुरुणीजी म० सा० के अनेक चमत्कार मैंने अनुभव किये हैं। एक बार मेरे घुटने की ढकनी उतर गई, हिलना डुलना बन्द हो गया, चढवे ने २० पट्टे बांधने का बताया, मैंने उन्हें फोस दे कर विदा किया। मैं बहुत परेशान थी दर्द के कारण, महासतीजी उन दिनों में अजमेर विराज रहीं थीं । मेरी प्रार्थना उन्होंने सुनी और अर्द्ध रात्रि के बाद जब मैं ध्यान में बैठी हुई थी तब प्रकाश हुआ, गुरुणीजी म० सा० के दर्शन हुए, घुटने पर झटका दिया और दर्द गायब । प्रातः ठीक तौर से चलने फिरने लगी । यह लोकोक्ति 'भक्त के भगवान' सार्थक हुई । गत वर्ष चैत्र - बैसाख में हम २५ दिन तक पालीतणा ( शत्रुंजय तीर्थ) में ठहरे हुए थे। वहाँ से एक दिन 'गिरनार' यात्रा हेतु प्रस्थान कर सायंकाल वहाँ पहुँचे, मुझे बुखार था, रात को और तेज हो गया, मैंने सोते समय प्रार्थना की कि मेरी यात्रा पूरी होनी चाहिए, उसी रात ध्यान में मुझे मेरे भगवान के दर्शन हुए और कहा 'चढ जाना, सब ठीक होगा' फिर तो मैं सब के साथ उपवास होते हुए गिरनार तीर्थ की पाँच हजार सीढ़ियाँ चढ़ गईं और सायं तक उतर आई । थर्मामीटर से बुखार देखा तो ज्ञात हुआ संकेत १०४ डिग्री पर है । कुल मिलाकर वह यात्रा ग्रानन्दमय और स्मरणीय रही । मैं अपने को धन्य मानती हूँ और गद्गद हो जाती हूँ जब मुझे माँ स्वरूप गुरुणीजी श्रीजी के दर्शन हो जाते हैं, मेरी कामना सफल हो जाती है । इससे ज्यादा मुझे कुछ चाहिए ही नहीं, बस गुरु दर्शन ही मेरी चाह है ।
ध्यान की प्रक्रिया में प्रकाशीय रंग प्रभा, प्रकाशपुञ्ज, ज्योतिशिखा, धूम्र रहित ज्वाला, केशर के छींटे, सिंह, श्वेत हाथी, गुरुजन एवं महापुरुषों के दर्शन आदि दृष्टिगत हुए हैं । इस के विपरीत ध्यान में अनेक बार दुर्घटनायें, बीमारी देहान्त, मारकाट, आग आदि दृश्यों के चित्र संकेत मिले हैं जो बाद में सही देखने में आये हैं । ध्यान तो दैनिक ( दो-तीन बार ) कार्यक्रम है और हर समय कोई न कोई चित्रण तो होता ही है, जिनका उल्लेख करना उपयुक्त नहीं । ध्यान के क्रम में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी घटित हुए हैं ।
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अचानक बरसा अमृत / १५९
इन वर्षों में महासतीजी हमारे क्षेत्र से बहुत दूर हैं फिर भी समय-समय पर आपके दर्शन किये बिना जी नहीं भरता, महासतीजी साक्षात देवीस्वरूप हैं, हर समय शान्त व प्रसन्नचित्त रहती हैं। बातचीत के समय अथवा प्रवचन के दौरान
आपके श्रीमुख से ज्ञान रूपी प्रभाव युक्त शीतल धारा उपस्थित लोगों को भावविभोर कर देती है। इनकी मैं क्या महिमा करूँ, मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं। युग के प्रमुख सन्तों ने, राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों ने आपके व्यक्तित्व के बारे में काफी कुछ लिखा है। जो लोग आपके सम्पर्क में आते हैं वे अपने को धन्य मानते हैं । मैं उन अनेकों में से एक हैं जिन्होंने आपकी कृपा से ध्यानयोग के क्षेत्र में कुछ प्राप्त किया है तथा अनेक विशिष्ट महानुभावों के सम्पर्क में आकर 'ध्यान' के विषय में विचार-विनिमय करने का अवसर प्राप्त हुआ है।
अन्त में महासतीजी श्री श्रद्ध या अर्चनाजी के प्रति मंगल कामनायें करती हुई शत-शत अभिनन्दन करती हूँ ।
"कबीरा बादल प्रेम का हम पर वरण्या आई, अन्तर भीगी आत्मा हरी भरी बइ वनराई।" अचानक बरसा अमृत
0 श्री बी० एल० नागर, पुलिस इन्सपेक्टर, श्रीनगर (अजमेर)
मैंने करीब छत्तोस वर्ष तक अपने ध्येय को पाने के लिये समर्थ गुरु की खोज की। देश-विदेशों में, पर्वत-कन्दराओं में खूब भटका किन्तु सफलता नहीं मिल सकी। जब मेरी नियुक्ति किशनगढ़ हुई, मैं बिलकुल निराश हो चुका था। साधु सन्यासियों से मेरा मन एकदम हट चुका था। सौभाग्य से एक दिन कुर्सी पर बैठे सामने की पहाड़ी का मनोहर दृश्य देख रहा था। अचानक मेरी निगाह पहाड़ी से उतरते हुए कृशकाय सन्त पर गई । पूर्व संस्कारों के कारण मैं सन्त तक पहुँच गया और प्रार्थना करके अपने घर ले आया। लेकिन उनके व्यवहार से मैं बहुत हैरान था। क्योंकि प्रत्येक हरकत में बचपन और असभ्यता की झलक थी। मैं सोच रहा था कि ये कितनी जल्दी घर से बाहर जायें, लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हई। मेरा इशारा पाकर मेरी पत्नी चाय का कप लेकर आई। महात्माजी ने दो घुट चाय पी और फिर मुझे देते हुए कहा “तू पी ले" यह सुनकर मेरे शरीर का तो खून ही जम गया । लेकिन पीये बिना कोई चारा भी नहीं था। मैंने विष की तरह बची हुई चाय को गले उतार लिया। तत्पश्चात् मैंने कहा भगवन् ! अब आप पधारो रास्ता बता दूं ? उन्होंने कहा, तुम म्हारे को का रास्ता बतायेगो, मैं तो
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द्वितीय खण्ड / १६०
को ही ढूँढत आ गया हूँ" इतना कह कर वे आकाश मार्ग से उड़ चले । मैंने श्राश्चर्य से ऊपर की ओर देखा तो लगा जैसे असंख्य सूर्यो का प्रकाश हो । क्षण भर में अदृश्य हो गये । यह देखकर मैं घण्टों पश्चाताप में डूबा रहा और रोता रहा । वह कौन शक्ति थी जिन्हें मैं पहचान न सका । हमेशा मैं प्रतीक्षा और प्रार्थना करता रहा लेकिन मुझे कभी दर्शन नहीं हुए। वर्षों बीत गये, पूर्व पुण्यों के उदय से राजस्थानरश्मि प्रवचनशिरोमणि, श्रद्धया गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० "अर्चना " जिनको मैं उमराव बाईसा के नाम से पुकारता हूँ, वे सन् १९७५ में हमारे अजमेर पधारे । उनका परिचय मुझे पुष्कर घाट पर किशनगढ़ स्टेशन मास्टर श्री जालिम बाबू ( सोमदेव पुरोहित) ने विस्तार से बताया। लेकिन मुझे कभी उस अज्ञात शक्ति के दर्शन होने के बाद किसी भी साधु सन्त के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि मुझे उस दिन से अनन्त शान्ति और अनन्त आनन्द का अनुभव होता है । अनेक साधु-संन्यासी एवं साधक मेरा सान्निध्य प्राप्त करते रहते हैं । परन्तु जैसे ही मैंने जालिम बाबू से उमराव बाईसा का नाम सुना, मेरे मन में अन्तर्प्रेरणा जगी और उसी दिन मैं आपकी सेवा में पहुँच गया । वह क्षण मेरे लिये पूर्व था, खुलकर बातचीत हुई । प्रायः में समय-समय पर बिना संकोच के बाईसा की सेवा में पहुँच ही जाता। वर्षों बाद पुनः मुझे रात्रि में उसी शक्ति के उसी रूप में दर्शन हुए। मेरे पूछने पर कहा, “तुम सही स्थान पर पहुँच गये हो । इससे बढ़कर के और क्या चाहिये” यह संकेत बाईसा (श्री उमरावकुंवरजी म. सा. ) के लिये था । मैं अवर्णनीय सुख का और आनन्द का अनुभव आज भी कर रहा हूँ। एक बार मुझे बाईसा म० सा० के साथ पूर्वजन्म के सम्बन्ध का भी श्राभास मिला। जब-जब अवसर मिलता है मैं सान्निध्य प्राप्त कर ही लेता हूँ । उस आत्मसुख के सम्बन्ध में अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । बस इतना ही कि मैं इस आत्मिक सुख से कभी भी वंचित नहीं होऊँ और बाईसा म० सा० की प्राध्यात्मिक साधना प्रगति पर रहे, यही कामना करता हूँ ।
-रूपी जल में जब-जब मनुष्य डूबने लगता है तब गुरुकृपा के सहारे ही किनारे लगता है.
फैले कीर्ति चतुर्दिक्
[ जगदीश शर्मा, खाचरौद
भवसागर के
दुख
हमारे लिए वह दिन अत्यधिक सौभाग्य का था जब अध्यात्मयोगिनी काश्मीरप्रचारिका श्री उमराव कुंवर जी 'अर्चना' ने अपनी शिष्यानों के साथ चातुर्मास हेतु
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वाणी का वैभव | १६१
खाचरौद में पदार्पण किया। जैसे पुष्प जहाँ भी खिलता है उसकी महक चारों ओर फैल जाती है वैसे ही श्री अर्चना जी म. सा. जहाँ-जहाँ जाते हैं उनकी कीर्ति चतुर्दिक फैल जाती है । मैंने अनेक भक्तों से उनकी यशोगाथा सुनी थी। प्रथम दर्शनलाभ से ही मैं उनका भक्त बन गया। महासतीजी से मुझे जो आत्मीयता मिली उसकी अभिव्यक्ति शब्दातीत है । गत कई वर्षों से मैं अनेक चिन्तायों से ग्रस्त था, आपने मेरे दुःख की कहानी मित्रवत् सुनी और मेरे निराश हृदय में आशा का संचार किया। मुझे लगा जैसे मैं अन्धकार से निकलकर उजाले में आ गया हूँ। आपके आदेशानुसार मैंने पूज्य श्री जयमलजी म. सा० के नाम की माला का जाप प्रारम्भ कर दिया, परिणामतः प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी अनुकूल होने लगीं। अब मैं सुखी एवं सन्तुष्ट हूँ, मेरी कामना है मैं उस पथ की रज बनूं जहाँ आपके दिव्यचरण पडें ।
महासती जी के प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक अजैन भी जैन-जीवनपद्धति
को धारण कर चुके हैं. वाणी का वैभव श्रीमती सावित्रीदेवी पाराशर, धनोप
अमीरों की तो सभी सहायता करते हैं पर जो दुखी और गरीब की सहायता करे वह महान होता है। महासती श्री उमरावकुंवर 'अर्चना' जी म. सा० का हृदय परदुख से तुरन्त द्रवित हो जाता है। उनका मुझ पर बड़ा उपकार है। मेरे पति के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर आपने मुझे और मेरे बच्चों को जो अपनत्व दिया उससे हमारे कष्ट और प्रभाव दूर हो गये।
मेरे श्वसुर श्री माधवप्रसाद 'जैन प्रकाश' और 'तरुण जैन' आदि पत्र-पत्रिकाओं के प्रचारक थे। वह महासतीजी के जीवन से सम्बन्धित अनेक अनुभूत दिव्य घटनायें सुनाते थे। उनके द्वारा श्रुत एक घटना इस प्रकार है-अनन्तनाग और पहलगांव के बीच जनकपुर नाम का एक गांव है जहाँ अधिकांश घर मुस्लिमों के हैं । जब हमारी बस पहलगांव जा रही थी तो एक मस्जिद के बाहर मैंने लगभग ७०-८० व्यक्तियों को मुखपत्ती बाँधे नमाज पढ़ते हुए देखा विस्मित होकर मैं बस से यह सोचकर उतर गया कि एक मस्जिद के पास इतने जैन संत ! वहाँ जाकर देखा तो ज्ञात हुआ यह सभी इस्लामधर्म को मानने वाले हैं। चार दिन पूर्व ही जैन साध्वी श्री उमरावकुंवरजी अपनी शिष्याओं के साथ यहाँ ठहरी थीं और ज्ञानोपदेश में खुदा की इबादत करते समय मुख पर कपड़ा रखने का रहस्य बतलाया था।
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द्वितीय खण्ड | १६२
महासती जी का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने न केवल इबादत के समय मुखपत्ती का उपभोग करना प्रारम्भ कर दिया, अपितु सदा के लिए मांस-मदिरा का त्याग भी कर दिया। इस प्रकार मेरे श्वसुर काश्मीर में म० सा० के द्वारा होने वाले अनेक उपकारों की चर्चा करते थे। यह घटना आपकी वाणी एवं प्राचरण के अनन्य प्रभाव का प्रमाण है।
उन्माद के कारण अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा था लेकिन म. सा. की साधना और आशीर्वाद के बल पर पुनः स्वास्थ्यलाभ प्राप्त कर लिया.
अनुकम्पा की मूर्ति
- दिनेशकुमार शर्मा, ब्यावर
युवाचार्यप्रवर बहुश्रुत श्री मिश्रीमलजी म. मधुकर के सान्निध्य में चार वर्ष तक टाइपिस्ट का कार्य करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनकी छाया में मुझे जो सुख मिलता था, वह अन्यत्र दुर्लभ था। नियति को जैसे यह सुख सहन नहीं हया। यूवाचार्य श्री जी का अचानक हदयगति रुक जाने से २६ नवम्बर १९८३ को स्वर्गवास हो गया। यह प्राघात मैं सहन नहीं कर सका
और मेरे मन मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया। मैं पागलों की तरह भटकता हुमा महासतीजी श्री उमरावकवरजी 'अर्चना की सेवा में इन्दौर पहुँचा। मैं जैसे अपनी सुधबुध खो बैठा था। जब मेरा मानसिक संतुलन लौटा तो मुझे ज्ञात हुआ कि ऐसा महासतीजी की अनुकम्पा से सम्भव हो सका है। मुझे बताया गया कि गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानन्द जी के नाम से आपने बहुत कुछ उगलवाना चाहा। मैं प्रकाश दालमिल में ठहरा हुआ था। अपने ही हाथों मैंने चाकू तथा पत्तियों से अपने शरीर पर अनेक घाव कर लिये, दीवारों से सिर टकरा कर लहूलुहान कर लिया। मेरा व्यवहार अत्यधिक अनर्गल रहा । मेरे कहने पर मद्रास से श्रीमान सायरमल जी एवं श्री जेठमल जी सा० को प्लेन द्रार इन्दौर बुलाया गया । मेरे प्रत्येक व्यवहार और कथन में कोई तारतम्य नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे ऊपर कोई ऊपरी प्रभाव था। मैं कभी अर्द्ध रात्रि में उठकर श्मशान भूमि में चला जाता। शरीर पर श्मशान की राख लगाकर नाचने लगता तो कभी कीमती सामान जला देता, कभी अपना ही लह बहाकर अद्रहास करता तो कभी ३-३ ४-४ दिन तक अन्न ग्रहण नहीं करता। कभी अत्यधिक भयाक्रान्त होकर किसी वस्तु का स्पर्श तक भी न करता था। इस अवस्था में महासतीजी श्री अर्चनाजी मुझे निरन्तर स्तोत्र पाठ आदि सुनाते रहे। जैसे
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आत्मसाधना का अनूठा आनन्द | १६३ माँ अपने शिशु को दुखी नहीं देख सकती उसी प्रकार आपने मेरे कष्ट के बन्धन को काटने का जैसे संकल्प कर लिया था। परिणामतः लगभग १४-१५ दिन में मैं स्वस्थ हो गया। जब मेरा व्यवहार पूर्णतयाः सामान्य हो गया तो आपने मुझे किसी बन्धु के साथ ब्यावर भेज दिया। यदि महासतीजी की मुझ पर कृपा न होती तो मैं आज भी विक्षिप्तावस्था में कहीं दीवारों से सिर टकराता होता। लोग मुझ पर हँसते और पत्थर मारते। मेरी यही कामना है कि ईश्वरतुल्य महासती श्री अर्चनाजी युग-युगों तक मुझ जैसे दुखियों के बंधन काटती रहें।
जब स्वप्नदर्शन के माध्यम से श्रावक की विविध ज्वालाएँ शांत हो गयीं.
असीम है आस्था - राजेशकुमार बागरेचा, खाचरौद
मूर्तिपूजक परिवार से सम्बन्ध रखने पर भी जब मैं महासतीजी श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना' के दर्शनार्थ स्थानक में गया तो अापके प्रवचन सुनकर श्रद्धानत हो गया, आपके व्यवहार में अत्यधिक सरलता व असीम स्नेह है । मेरी माताश्री कंचनदेवी भी ध्यानयोग सीखने के लिए आपके पास नियमित रूप से जाती रही हैं। आपने अनेक बार स्वप्न के द्वारा मेरी समस्या का समाधान किया है । मैं जब-जब आपके श्रीचरणों में नतमस्तक होता हूँ तो मुझे लगता है कि जैसे श्रीचरणों से प्रेम और करुणा की निर्मल व पावन धारायें प्रवाहित हो
श्राविका का महासतीजी की आत्मसाधना से संबंधित संस्मरण.
आत्मसाधना का अनूठा आनन्द
। कमलादेवी रूनवाल, जयपुर
कभी-कभी जीवन में घटित एक घटना समस्त जीवनचक्र को प्रभावित कर देती है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। महासती श्री झमकुजी म. सा. को पैंतालीस दिन का संथारा पाया था। संथारा के साथ अनेक अलौकिक
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द्वितीय खण्ड / १६४
चमत्कार जुड़े हैं । हम लोग उनकी शवयात्रा से लौट रहे थे कि किसी दैविक शक्ति का मेरे शरीर में प्रवेश हो गया। वर्षों तक इस शक्ति का मुझ पर प्रभाव रहा । इसकी प्रेरणा से मुझे होने वाली घटनाओं का पूर्व आभास हो जाता था एवं मेरी अनेक मनोकामनाएँ भी पूर्ण हुईं। सभी लोग आश्चर्यचकित थे । मुझे महासतीजी उमरावकुंवरजी म० सा० से संबंधित एक प्रसंग याद आ रहा है । मैं अपने पिताश्री मनोहरसिंह चण्डालिया के साथ कार में सफर कर रही थी कि अचानक देवी ने महासती श्री 'अर्चना' जी के उदयपुर चलकर दर्शन करने के लिए प्रेरित किया । पिताजी ने समयाभाव कहकर बात टाल दी । तभी एक अनहोनी हुई और कार वहीं रुक गई। पिताजी ने देवी से क्षमा मांगी और उदयपुर महासतीजी के दर्शन करने का निर्णय किया ही था कि कार चल पड़ी । कार जंगल में दो घण्टे तक रुकी रही लेकिन फिर भी समय से पूर्व उदयपुर पहुँच गयी । हम महासतीजी के दर्शन कर प्रत्यधिक प्रानन्दित हुए । दैविक शक्ति से प्रेरित होकर महासतीजी के साथ मैंने घण्टों आत्म-साधना के संदर्भ में विचारविमर्श किया । महासतीजी के जीवन का तप और त्याग अनुकरणीय है, मैं भगवान महावीर से प्रार्थना करती हूँ कि आप साधना पथ को बुलंदियों को स्पर्श करें ।
तपस्या निश्चेतन में नयी चेतना जगाती है जिससे अधिक सूक्ष्म नया और श्र ेष्ठतर स्पन्दन बाहर आता है.
अज्ञात से अनूठे संकेत
[ चतरसिंह जैन, खाचरौद
जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों और मार्गदर्शन के प्रभाव के कारण मैं नास्तिक बन गया था। जैन परिवार में जन्म लेने पर भी मैं जैन-जीवन पद्धति से दूर था। मैंने न कभी उपवास किया था और न ही कभी स्थानक में पाँव ही रखा था, लेकिन जब अध्यात्मयोगिनी काश्मीरप्रचारिका श्री उमराव कुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के दर्शन किये तो मेरे शुष्क हृदय में धर्म का अंकुर फूट पड़ा । आपके प्रवचन सुनकर मन का सारा कलुष बाहर आने के लिए बेचैन होने लगा । महासतीजी की कृपा से मैंने (४९) उनपचास दिन की तपस्या की । उस तपस्या से मन स्वच्छ एवं निर्मल हो गया । इस अवधि में मुझे कुछ दिव्य अनुभव भी हुए । तपस्या के सैंतालीसवें दिन अन्तःकरण से आवाज आई कि महासतीजी के चरणचिह्न लेकर अपने पास रखो ! बड़ी प्रार्थना के बाद मुझे केसर अंकित चरणचिह्न मिल सके । चालीस वर्षों से त्रिविध ज्वालाओं से संतप्त मेरा मन शीतल हो गया ।
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दिशाबोध / १६५
२८ नवम्बर १९८६ को मैं महासतीजी की सेवा में बैठा हुआ था। तत्त्वचर्चा करते हुए मेरी आँखें दो मिनट के लिए बन्द हुईं और अन्तःअनुभूति हुई कि पिसी हुई मिश्री और शक्कर बिछा दो, उस पर म. सा. के चरण रखवाकर उपयोग करो। मैंने ऐसा ही किया तो मन में असीम शान्ति का संचार हुआ। महासतीजी की अनुकम्पा और तपस्या का यह प्रतिफल हुआ कि मुझे प्रायः अन्तःकरण से ऐसे अनूठे संकेत मिलते रहते हैं जो मुझे असीम सुख प्रदान करते हुए दूसरों का दु:ख बाँटने की प्रेरणा देते रहते हैं।
मेरा विश्वास है जीवन में जिसे पथप्रदर्शक के रूप में महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० मिले हों उसका कल्याण असंदिग्ध है।
धर्म का सम्बल हो तो पहाड़ जितना दुःख भी तिनके जितना रह जाता है.
दिशाबोध गोविन्दराम सिंधी, दौराई (अजमेर)
मेरा जीवन परिस्थितियों के अन्धड़ में किसी सूखे पत्ते की तरह भटक रहा था, तभी महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० से मेरा परिचय हुआ और मुझे एक नयी दिशा मिली । मैं बहुत छोटा था तब मेरे माता-पिता मुझे रोताबिलखता छोड़कर चले गये। भाइयों ने भी मुझे सदा दुत्कारा । मैं मन ही मन हमेशा घटता रहता। महासतीजी के दर्शन हए तो उन्होंने असीम स्नेह से मुझे आशीर्वाद देते हुए मेरी व्यथा-गाथा सुनी । जब भी कोई मुझ पर हाथ उठाता है तो मैं म० सा० को याद कर लेता हूँ और उठे हुए हाथ उठे ही रह जाते हैं। आपके प्रभाव से हमारे परिवार ने मांस-मदिरा का परित्याग कर दिया है और सभी सुख शान्ति से रहते हैं । मेरे हृदय की कामना है ऐसी कृपा हमेशा बनी रहे।
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सन्तों का जीवन उस वृक्ष की भांति होता है जिसकी छाया में दूर से थक कर आए
पथिक को विश्रांति मिलती है.
से
स्थूल
सूक्ष्म
डॉ. जे. पी. गुप्ता
प्राचार्य श्री प्राज्ञ महाविद्यालय, विजयनगर
की ओर
पूजनीय गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० की प्रेरणा से मैं गत वर्षों से योगसाधना में प्रवृत्त हूँ । मुझे आज भी वह दिन याद आ रहा है जब पूज्य प्रवर्तक श्री पन्नालालजी म० सा० की जन्मजयन्ती के अवसर पर मैं विजयनगर के स्थानक में गया था । महासतीजी का प्रवचन चल रहा था - 'हमारे अन्तर् में एक आध्यात्मिक जीवन हो सकता है, एक स्वर्ग राज्य हो सकता है जो किसी बाह्य सत्ता के साधन या सूत्र पर निर्भर नहीं करता, आन्तरिक जीवन का आध्यात्मिक महत्त्व है और बाह्य का मूल्य वहीं तक है, जहाँ तक वह आन्तरिक स्थिति को व्यक्त करता है।' उनके प्रवचन का एक-एक शब्द मेरे अन्तर की गहराइयों में उतरता जा रहा था । मुझे लगा जैसे मैं अन्धकार में प्रकाशमान किसी अर्चनादीप को देख रहा हूँ । उस दिन के बाद मैं प्रवचन सुनने के लिए नियमित रूप से जाने लगा । मुझ जैसे नास्तिक को अध्यात्मोन्मुख देखकर सभी विस्मित थे । आज मुझे पच्चीस वर्ष पहले की एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी याद आती है जिसने मेरी जन्मकुण्डली देखकर कहा था कि आपका परिचय अमुक वर्ष में एक जैन साध्वी से होगा जो आपकी आत्मा का परिष्कार करेगी ।
महासतीजी की प्रेरणा से ही ध्यानयोग में मेरी अभिरुचि हुई । मैं नित्य ध्यानयोग करता हूँ जिसमें मुझे असीम शान्ति अनुभव होती है । समय-समय पर मुझे ग्रात्मानुभूतियाँ भी होती हैं । ध्यानयोग की अवस्था में मेरे मस्तिष्क में सहस्रदल कमल भी खिल जाता है और मैं एक अद्भुत शांति में डूब जाता हूँ, इस स्थिति में अनिर्वचनीय श्रानन्द की अनुभूति होती है । मैं महासतीजी के दर्शन पाने के लिए सदैव लालायित रहता हूँ। मेरी ईश्वर से यही कामना है कि मुझे हमेशा म० सा० श्री का आशीर्वाद मिलता रहे और मैं निरन्तर आत्म-कल्याण के मार्ग पर बढ़ता रहूँ ।
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गुरुजाप के बिना जीवन उस पुष्प के समान है जिसमें सुगंध नहीं है.
स्वप्न में सन्देश । कुमारी मंजु भण्डारी, खाचरौद
पूजनीया गुरुणी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के दिव्य व्यक्तित्व ने मेरे जीवन को इतना अधिक प्रभावित किया है कि मैं जब तक आपके नाम का जाप न कर ल मेरा किसी कार्य में मन नहीं लगता है। मझे आज भी वह स्वप्न याद है जब गुरुणी सा० ने दर्शन देकर ध्यान की विधि बतलाई । मैं प्रातः आपकी सेवा में पहुँची और स्वप्न की बात बतलाई । म० सा० श्री ने पुनः मुझे स्वप्न के अनुरूप ध्यान की पद्धति के विषय में समझाया और मैं नियमित रूप से इसमें रुचि लेने लगी। मुझे अटल विश्वास है कि मैं आपके आशीर्वाद से योगध्यान के मार्ग पर आगे बढुंगी।
भाई राजेन्द्र जी महासतीजी की कृपा से अनेक विघ्न-बाधाओं से बच गये.
क्रोध से अक्रोध । राजेन्द्रकुमार श्रीश्रीमाल, (केराफ) खाचरौद
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संत का जीवन उस वक्ष की भांति होता है जो अपने फल स्वयं न खाकर अन्य को देता है, उस सरिता के समान होता है जो दूसरों के लिए जल का संचय करती है । मैं स्वयं को परम सौभाग्यशाली मानता हूँ कि सन् १९८६ में हमारे नगर में मालवज्योति प्रवचनशिरोमणि श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० का चातुर्मास हुआ । मैं पहले संत महात्माओं के पास जाने के लिए कभी इच्छुक नहीं रहता था। पूर्वजन्म के पुण्योदय से मैं इन्दौर निवासी भाई देवेन्द्रजी के साथ महासतीजी के दर्शनार्थ गया। प्रथम दर्शनलाभ से ही मैं इतना आह्लादित हुआ कि प्रतिदिन स्थानक जाने लगा, मेरे मन में उत्पन्न जटिल से जटिल प्रश्नों का समाधान आप सरल ढंग से कर देतीं। आपके प्रति श्रद्धा बलवती होती रही। अनेक बार अापने स्वप्न में दर्शन देकर मेरी समस्याओं का हल किया। एक बार मैंने स्वप्न में महाराजश्री से अनुरोध किया कि मैं 'अग्निपथ' तो पढ़ चुका हूँ, मुझे कोई अन्य पुस्तक दीजिये । प्रातः दर्शन के लिए गया तो मैं हैरान हो गया, आपने मुझे 'यात्मविश्वास' नामक पुस्तक देते हए कहा कि इसे पढ़ना। . मैं उग्र और क्रोधी स्वभाव का था। एक दिन आपने मुझे क्रोध का दुष्प्रभाव समझाते हुए कहा कि "हम क्रोध किसी पर नहीं, अपने ऊपर ही करते हैं । क्रोध से हमारा चेहरा राक्षस की भांति भयानक हो जाता है, नसें खिंच जाती हैं और हमारा लहू जलने लगता है । जिस क्रोध से किसी को लाभ नहीं होता, उसका परित्याग ही कर देना चाहिए।"
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आपके प्रभाव से मेरे स्वभाव की उग्रता शांत हो गयी और अब कोई अपशब्द भी कह दे तब भी क्रोध नहीं आता है । मेरी यही कामना है कि मुझे सदैव आपका मार्गदर्शन मिलता रहे।
दवा से अधिक दुआ का प्रभाव होता है. मांगलिक का अद्भुत चमत्कार
0 कुमारी गरिमा श्रीश्रीमाल, खाचरौद
महासती अध्यात्मयोगिनी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के आशीर्वाद में असीम शक्ति है। मेरे बडे भाई राजेन्द्रकुमार को धर्मपत्नी श्रीमती जयश्री चार वर्षों से अस्वस्थ थी। हजारों रुपये उपचार में खर्च करने पर भी लाभ नहीं हो सका था। वह म० सा० श्री के चार पाँच मांगलिक सुनने से ही स्वस्थ हो गई।
मैंने एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में म० सा० श्री के साक्षात् दर्शन किये और उन्होंने मुझे माला का तीन बार जाप करने के लिए कहा । मैं ये जाप नित्य करती हूँ, इससे मेरा मन असीम शान्ति अनुभव करता है। मैं शासनेश भगवान् महावीर से प्रार्थना करती हूँ कि म० सा० का वरदहस्त मुझे दिशाबोध देता रहे। मैं आपके सुदीर्घ जीवन की ईश्वर से इल्तजाह करती हूँ ।
महासतीजी की आत्मसाधना ने मिथ्यात्वी देवों को भी प्रतिबोध दिया है
घर आई ज्ञान-गंगा । मनोहरलाल लोढा, खाचरौद
जब से म० सा० श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' खाचरौद पधारे हैं जैसे यहाँ ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो गयी है । मैं बराबर दिन में दो बार आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ। मेरे शरीर में कई वर्षों से रतन महाराज नामक देवता जो कि मेरे दादाजी ही थे, आते हैं । उनको पूछने के लिए बरसों तक हजारों लोग आते रहे । अब डेढ़-दो साल से वह सिर्फ धार्मिक चर्चा ही करते हैं । संघ का आमन्त्रण
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खाचरौद निवासी श्री छतरसिंह जैन श्री अर्चना जी को ४९, उपक्रमों की तपस्या पर वंदन करते हुए। सं २०४३
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• महासती जी को ३१ दिन की तपस्या पर वन्दन करते नागदा निवासी श्री पारसमल चोरडिया। सं. २०४३
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सहायता की विध्यलोक के देव ने / १६९
हो तो घण्टों प्रवचन भी देते हैं। मुझे परम प्रसन्नता है कि रतनदेव समय-समय पर महासतीजी 'श्री अर्चना' की सेवा में उपस्थित होते रहते हैं और अध्यात्म विषय पर घण्टों चर्चा करते हैं। म० सा० के ध्यानोपदेश से हमारी धर्म के प्रति
आस्था अधिक दृढ हुई है। आपके चरणों में बैठकर अनन्त सुख मिलता है। मनुष्य तो क्या देवों को भी तत्त्वबोध देने वाले म. सा. के श्रीचरणों में मैं शतशत वन्दन करता हूँ।
मन ज्ञान की गंगा में न्हाता है तो पापों की तपन स्वतः ही बुझ जाती है. सहायता की दिव्य लोक के देव ने
। श्रीमती कंचनदेवी मेहता, ब्यावर
पूजनीया गुरुणी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म. सा. के प्रति मेरे हृदय में उनकी आत्मसाधना के प्रबल प्रभाव स्वरूप अनन्त श्रद्धा है। जब म. सा. कश्मीर से पधारे तब मैं सदैव उनकी सेवा में जाने लगी। उनके दिव्य व्यक्तित्व एवं अनुकरणीय ज्ञान-ध्यान की साधना से मेरा हृदय बहुत परिवर्तित हो गया। दिन हो या रात में अधिक समय आपके ही सान्निध्य में व्यतीत करने की इच्छा रखती थी। मेरी श्रद्धा पर परिवार वालों ने यह सोचकर प्रश्नचिह्न लगा दिया कि कहीं मैं दो छोटे बच्चों को छोड़कर साध्वी न बन जाऊँ। मैंने विरोध की चिन्ता नहीं की । मेरा श्रीचरणों में आना जाना एक दिन के लिए कम नहीं हुआ । मैं विहार में भी प्रायः म० सा० के साथ रही।
जब मेरे अनज चाँदमल पालरेचा कार दुर्घटनाग्रस्त हुए उस समय म० सा० कचेरा विराज रहे थे, उसी समय अन्तःअनुभूति से उन्हें दुर्घटना का पता चल गया । म० सा० ने इसके विषय में अन्य साध्वियों को बता भी दिया कि उन्होंने चाँदमलजी को देखा है, वह यह कहकर गये हैं कि मैं जा रहा हूँ, मेरी बहिन का ध्यान रखना। तीसरे दिन यह खबर समाचार पत्र में पढ़कर सभी सतियों को आश्चर्य हुआ ।
मेरे भाई के निधन के थोड़े दिन के बाद ही अद्भुत घटनायें घटित होने लगीं, जैसे बन्द तिजोरी से गहनों का गायब हो जाना, सूखे कपड़ों का गीला हो जाना। मैं प्रशान्त मन से म. सा. के पास गई। आपने मेरी मनोव्यथा ध्यानपूर्वक सुनी और आश्वस्त रहने के लिए कहा ! भाग्योदय से म० सा० कुचेरा से विहार करके ब्यावर पहुँचे । मेरी भाभीजी को मांगलिक सुनाने के लिए घर पर पधारे । मांगलिक सुनते ही हमें यह देखकर हर्ष के साथ विस्मय भी
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द्वितीय खण्ड | १७०
हुआ कि अब तक जो प्रतिकूल हो रहा था अनुकूल होने लगा। नाना प्रकार की वस्तुएँ अज्ञातरूप से घर में आने लगीं, साथ में लिखे हुए पत्र भी आने लगे। मेरे भतीजे मूलचन्द को एक पत्र से अादेश मिला कि म० सा० के पास जाकर मांगलिक सुना करो। वह प्रतिदिन म० सा० की सेवा में जाने लगा। सबसे बड़ा . आश्चर्य तो तब हुआ जब उसने एक डेढ़ घण्टे में पूरा प्रतिक्रमण सीख लिया। शेष पत्र तो छोटे-छोटे आते थे परन्तु एक दिन बहुत बड़ा पत्र महाराजश्री के नाम आया जिसमें उनके प्रति श्रद्धा के भाव निहित थे। एक दिन जमीन पर लिखा हुआ मिला कि म० सा० के पत्र के अलावा शेष पत्रों को जला दो । मेरे ग्यारह वर्षीय भतीजे ने भूल से अन्य पत्रों के साथ म० सा० के पत्र को भी आग लगा दी । लेकिन हैरानी का विषय तो यह हुआ कि अन्य पत्र तो जल गये लेकिन वह पत्र यथावत् रहा । महासतीजी से जब इस घटना का रहस्य पूछा गया तो वह केवल मुस्करा दी। __सन् १९८२ का चातुर्मास अजमेर में निश्चित हुआ। मैं विहार में म० सा० के साथ ही थी । रास्ता लम्बा होने कारण हम एक मकान में ठहर गये । वहाँ से २ कि० मी० की दूरी पर लामाना नामक एक छोटा सा गांव था वहाँ २-३ व्यक्ति संदेहास्पद स्थिति में घूम रहे थे। सुप्रभा म० सा० ने शंका व्यक्त को कि इनकी प्रवृति अच्छी नहीं लगती। संध्या प्रतिक्रमण अभी समाप्त हुआ ही था कि ५-७ व्यक्ति वहाँ आकर अनर्गल प्रश्न पूछने लगे। म० सा० ने समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन वह अधिक दूर नहीं गये। रात के ढ़ाई-तीन बजे तक उन्होंने हमारे पास आने का बहुत प्रयास किया परन्तु सफल नहीं हो सके । उस समय अचानक तेज प्रकाश हुआ और मेरे शरीर में विचित्र से स्पन्दन होने लगे । मैं म० सा. के निकट थी। न जाने कौन-सी दिव्यशक्ति ने मेरे शरीर में प्रवेश किया। उनमें से दो व्यक्ति तो मूच्छित होकर गिर गये, शेष भाग गये। उन्होंने लामाना ग्राम में जाकर ३-४ घरों में चोरियाँ की तो वहाँ पकड़े गये। पूजनीया गुरुणीजी म० सा० ऐसे अवसरों पर प्राय: यही कहती हैं कि ये भगवान् पार्श्वनाथ व जयमलजी म० सा० के नाम का ही प्रभाव है।
सन् १९७८ ई० में म० सा० का चातुर्मास अपनी जन्मभूमि दादिया ग्राम में था । मेरी भतीजी का ससुराल दादिया से ८ मील की दूरी पर झाडोल में है। उसने अठाई की तपस्या की। पच्चखाण म. सा. के मखारविन्द से दादिया जाकर लिये । जैसे ही वापस गांव जाने के लिए रवाना हुए, बहुत तेज वर्षा शुरू हो गई । उनकी गाडी बराबर चल रही थी। विस्मय की बात है कि उन पर पानी की एक बूंद भी नहीं गिरी। मेरी भतीजी पूरे रास्ते श्री अर्चना जी म. सा० का नाम लेती रही। इसे पढ़ने वाले चाहे असंभव मानें परन्तु यह मेरी भतीजी का अनुभूत सत्य है । मेरी गुरुणी सा० के चरणों में यही प्रार्थना है कि वह मुझे जीवन के संघर्षों से जूझने के लिए बल प्रदान करें।
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निस-दिन म्हारे मन बसोजी ज्यू फूलों में बास. दिव्य अनुभूतियाँ
बहिन विनयवती, इन्दौर
पूजनीया गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० का सन् १९८३ में चातुर्मास महावीर भवन में हया था। इन्दौर के इतिहास में यह ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि इसके पूर्व इस भवन में किसी भी जैन साध्वी का चातुर्मास नहीं हुआ था अतः म० सा० श्री के चातुर्मास से संघ में बहुत उत्साह था। अन्य श्रावक और श्राविकाओं की भाँति मैं भी आपके प्रवचन सुनने नियमित रूप से जाने लगी। आपसे प्रेरणा पाकर मैंने ध्यान लगाना भी शुरू कर दिया। मैं जैसे ही सामायिक लेकर बैठती, मेरी आँखें बन्द हो जाती और नाना प्रकार के दृश्य दिखाई देने लगते । कभी कोई देवी दही का कटोरा लेकर म. सा. श्री के चरणों में चढा रही होती, कभी केसर की वर्षा होने लगती। कभी धुंघरुषों की आवाज सुनाई देने लगती तो कभी लगता कि कोई दिव्य पुरुष प्राकाशमण्डल से उतर कर म. सा. श्री के पीछे खड़ा है। कभी आपके ललाट से सूर्य और चन्द्र की ज्योति फूटती हुई दिखाई देती । ऐसे अन्यान्य दृश्य दो क्षण के लिए मेरी आँखों के समक्ष पाते और मैं हैरान हो जाती । इससे पूर्व मैंने अनेक संतों के प्रवचन सुने किन्तु ऐसा कभी नहीं हुया । मैंने जब-जब इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा प्रकट की, 'गुरुणी सा० ने यही कहा–'तुम्हारे मन में धर्म के प्रति श्रद्धा है, स्वभाव में सरलता है इसीलिए ऐसा होता होगा।' यह रहस्य आज भी यथावत् है । मेरी अन्तरात्मा कहती है कि यह महासतीजी की दिव्यसाधना का ही सुफल है । मैं जब-जब आपके नाम का जाप करती हूँ, श्रद्धा से मेरा हृदय भर जाता है और मस्तक झुक जाता है।
'जब एक सर्प बालक की भांति म० सा० की आज्ञा का पालन करने लगा'
इस घटना पर आधारित एक श्राविका का संस्मरण. सत्य को समझने की सत्प्रेरणा
श्रीमती त्रिशलादेवी जैन, इन्दौर
अध्यात्मयोगिनी, मालवज्योति, श्रमणीरत्न श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के १९८३ के महावीर भवन इन्दौर में हुए चातुर्मास ने अन्यान्य लोगों के हृदय में धर्म के प्रति आस्था को प्रबल किया। भारी संख्या में जैन और अजैन
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द्वितीय खण्ड / १७२
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आपके दर्शन कर प्रवचन का लाभ लेते रहे । में भी प्रायः आपके प्रवचन सुनने जाती । चातुर्मास के १५ दिन शेष रह गये थे । कार्तिक बदि १४ को हम २४-२५ बहनों ने पौषध किया ! म० सा० भगवान् पार्श्वनाथ स्तोत्र सुना रहे थे । भगवान् पार्श्वनाथ की महिमा का गान करते हुए आप अपने अनुभव बता रहे थे कि भगवान् की सेवा में धरणेन्द्र और पद्मावती देवी हाजिर रहते हैं । प्रद्भुत अनुभवों के विषय में सुनकर २-३ बहिनों ने शंका व्यक्त की कि यह असंभव है । बहिनों की प्रतिक्रिया सुनकर म० सा० श्री मौन हो गये । दो मिनिट बाद महावीर भवन की तीसरी मंजिल से साध्वी हेमप्रभाजी दौड़ते हुए प्राये और महासती अर्चनाजी से उन्होंने कहा - 'ऊपर नागदेवता बैठे हुए हैं और उन्हें मेरे हाथ का स्पर्श भी हो गया है । उसी क्षण म० सा० और सभी बहिनें तीसरी मंजिल पहुँचीं । रोश की दीवार पर नागदेवता बिल्कुल स्थिर बैठे हुए थे । उनका वर्ण सोने के समान दमक रहा था और प्रांखों में हीरक कण जैसी चमक थी । चारों ओर शोर मच गया था, लेकिन म० सा० बिल्कुल शान्त थे । वह लगभग पौने घण्टे तक भगवान् पार्श्वनाथ स्तोत्र सुनाते रहे और नागदेवता बड़ी मस्ती से सुनते रहे । नीचे रहने वाले चौकीदार को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने श्रीमान् फकीरचन्दजी सा० को इसकी सूचना दी। थोड़ी देर में महावीर भवन का चौक लोगों से भर गया । रतलाम वाले बापूलालजी सा० बोथरा भी आ गये, तुरन्त सपेरों को भी बुलाया गया । परन्तु सपेरे भी नागदेवता का मनमोहक रूप देखकर विस्मित होकर कहने लगे 'यह कोई देव है, हम इसे नहीं पकड़ सकते ।' सभी की आँखें टंगी की टंगी रह गईं। कुछ देर बाद म० सा० ने कहा - " मैंने आपको पार्श्वनाथ स्तोत्र सुना दिया है, मुझसे अब खड़ा नहीं रहा जा रहा, आप अपने स्थान पर दया पालो ।' इतना सुनते ही नागराज नीचे की ओर जाने लगे तो चौक में खड़े लोग भयभीत हो गये । म० सा० ने कहा'नहीं, उधर नहीं, प्रापका रास्ता सीधा है।' नागराज ने सीधा रास्ता लिया और थोडी दूर जाकर अदृश्य हो गया । सर्प का आज्ञाकारी बालक की तरह कहना मानना और अदृश्य हो जाना हमारे लिए कौतूहल का विषय था । शंका व्यक्त करने वाली बहनों ने म० सा० से क्षमायाचना की । दूसरे दिन यह समाचार सर्वत्र फैल गया और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुआ ।
हमारे परिवार पर म० सा० श्री का वरदहस्त है । आपके आशीर्वाद से हम संकट की घड़ियों से सुरक्षित बच निकले हैं । हमारी भगवान् से यही प्रार्थना है कि आप जीवन पथ को साधना से आलोकित करते रहें ।
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- महासतीजी की कृपा से भोपाल त्रासदी से बचे एक श्रावक का संस्मरण
रोम-रोम ऋणी Dसुमन जैन, इन्दौर
अपनी माता श्रीमती त्रिशलादेवी की म. सा. के प्रति असीम श्रद्धा को देखकर मैं भी महासतीजी के दर्शनार्थ स्थानक में गया और आपकी प्रेरणा से मेरी धर्म के प्रति रुचि बढ़ने लगी। एक दिन मैंने दर्शन-लाभ लेने के बाद कहा कि मुझे व्यवसाय के सम्बन्ध में बंगलौर जाना है । म० सा० ने रोकते हुए कहा'अभी तुम ८ दिन और मत जाओ ।' मैं स्वभाव से जिद्दी हूँ, लेकिन धर्मप्रभाव के कारण उस दिन म० सा० को प्राज्ञा की अवहेलना न कर सका और जाते-जाते रुक गया। जिस गाड़ी से मुझे बंगलौर जाना था, वह वाया भोपाल होती हई जाती है। उसी दिन भोपाल गैस त्रासदी हई जिसमें हजारों लोग असमय ही काल के ग्रास बन गये। यदि मैं उस दिन उस गाड़ी से भोपाल पहुँचता तो मेरी मृत्यु निश्चित थी क्योंकि मेरा कार्यक्रम उस दिन भोपाल रुकने का था। हमारे परिवार ने शान्ति की सांस ली और हम उसी समय म० सा० श्री की सेवा में पहुँच गये । जब मैंने भावविह्वल वाणी में कहा-म० सा० मैं आपकी कृपा से बच गया । तब आपने अत्यन्त सहज भाव से कहा-'जब अपना पुण्य प्रबल और आयु लम्बी होती है तो मनुष्य किसी न किसी निमित्त से बच ही जाता है ।' आपके प्रति हमारी आस्था इतनी प्रबल है कि आपके आदेश के बिना हम कोई नया काम प्रारम्भ नहीं करते । हम नियमित रूप से म० सा० के निर्देशानुसार जप-तप और प्रत्याख्यान करते हैं। हमारे जीवन का रोम-रोम सदैव आपका ऋणी रहेगा।
महासती जी के दिव्य प्रताप एवं योगविद्या के प्रभाव से जिनका घर-आंगन खुशियों से महक उठा, उन्हों के शब्दों में प्रस्तुत है यह संस्मरण
परदुखःकातर 'अर्चना' जी श्री देवेन्द्रकुमार जैन एवं श्रीमती रविरानी जैन, इन्दौर
मेरा पूज्य श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' महासतीजी से प्रथम परिचय नव. ८३ को महावीर भवन इमली बाजार इन्दौर में हुआ जब आप चातुर्मास की समाप्ति पर विहार करने ही वाले थे। उसका भी कारण यह बना कि उस दिन हमारे माताजी के पैर में चोट लगी हुई थी और उन्होंने मुझसे महासती 'अर्चना' जी के दर्शन करने के लिए कहा।
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द्वितीय खण्ड / १७४
माताजी ने मुझे दो तीन बार पहले भी दर्शन करने के लिए कहा था, क्योंकि मेरो रुचि "योग" की तरफ थी और महासती श्री भी योग के अच्छे जानकार हैं, लेकिन मैं हर बार टाल जाता था। महासतीजी ने एक बार माताजी से बात-बात में कहा था कि उसे एक बार लामो, हो सकता है कि बाद में शायद फिर वह स्वयं ही चला आया करे । यह मुलाकात सिर्फ दो मिनिट की ही हुई थी लेकिन आपको देखने के बाद मन में प्रसन्नता और बाद में फिर मिलने की इच्छा हुई। उसके बाद आपके दर्शन राजमोहल्ला उपाश्रय में युवाचार्य श्री मधुकर मुनि के देवलोक होने के दिन हुए । उसी दिन मेरी धर्मपत्नी चढ़ाव से फिसलकर गिर पड़ी थी एवं उसकी तबीयत दिन-प्रतिदिन बिगड़ने लगे थी। उस समय वह गर्भवती भी थी। तीसरी बार आपके दर्शन जानकीनगर उपाश्वय में अपनी बीमार पत्नी के साथ किये एवं मांगलिक सुना । मैंने पत्नी का बहुत इलाज कराया लेकिन उसकी हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही थी। खाना-पीना छूट चुका था। उसे जो कुछ भी खाने को देते, सब वमन हो जाता। उसके लिए खड़ा रहना भी मुश्किल हो गया था। इस प्रकार एक महीना बीत गया। उसके बाद महासतीजी ने कहा कि
आप इसे मत लाया कीजिए, क्योंकि इसका स्वास्थ्य गिर रहा है। मैंने आपकी बात मान ली । मेरा स्वयं का आना एवं मांगलिक सुनने का क्रम चलता रहा। इस अन्तराल में दो बार गर्भ गिराने का प्रसंग महासतीजी के सामने चला लेकिन आपने हर बार मना किया और कहा कि "धैर्य रखो, धर्म पर श्रद्धा रखो", सब ठीक होगा। १५ दिन और बीत गये। इलाज चलता रहा पर तबीयत बिगड़ती चली जा रही थी। शरीर में कमजोरी इस कदर आ गई थी कि वह स्वयं का हाथ ऊपर उठाने में भी कष्ट अनुभव करती थी। ऐसी परिस्थिति में १६ वें दिन आपरेशन का निर्णय डाक्टरों ने लिया । आपरेशन में “एपेडिक्स” सड़ा हुआ निकला। डाक्टरी रिपोर्ट के मुताबिक अगर १-२ दिन आपरेशन और नहीं होता तो बचना मुश्किल था । इसके बाद धीरे-धीरे स्वास्थ्य में सुधार होता गया। समय पर लड़का हुआ। लड़के की जन्मकुण्डली बनवाने पर पता चला कि लाखों में कोई एक लड़का ऐसा होता है, जिसकी माँ उसके जन्म के बाद बचती है। इस घटना से महासतीजी के प्रति मेरे मन में अटूट श्रद्धा उत्पन्न हो गयी । तब से आज तक लगातार आपके संसर्ग में हूँ। इस अल्प लेकिन बहुमूल्य समय में आपमें जो देखा, जाना, पाया उसके आधार पर कह सकता हूँ कि आप धैर्य, कोमलता, समता, आत्मानुशासन, प्रसिद्धि से बचने की कोशिश करना, अक्रोध, अपनापन, किसी बात को समझाने का सरल तरीका आदि अनेक अर्चना के योग्य अनेक गुणों की धनी हैं ।
इस अन्तराल में मेरा केन्द्र में (हरि ॐ योग केन्द्र राजवाड़ा ब्रांच-इन्दौर) नियमित रूप से आना जाना बना हया था। एक दिन मैंने केन्द्र के प्रशिक्षक श्री चन्द्रशेखरजी आजाद से कहा कि हमारे महासतीजी भी योग में रुचि रखते हैं व आपसे मिलना चाहते हैं । (महासतीजी ने चर्चा के दौरान एक बार कहा था कि आजकल योग के संबंध में लोग बहुत रुचि ले रहे हैं। इस रुचि का दुरुपयोग करते हुए कुछ लोग दूसरों को गुमराह कर रहे हैं। इसलिए तुम्हारे जो प्रशिक्षक
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परदुःखकातर 'अर्चना' जी / १७५
हैं वह आ सकें तो मैं उनसे मिलना चाहूँगी ।) वह उसके लिए सहर्ष तैयार हो ये क्योंकि वह भी साधु-सन्त लोगों से, विशेष कर योग में रुचि रखने वालों से मिलना बहुत पसंद करते हैं। इसके पश्चात् हम दूसरे दिन महासतीजी से मिले । महासतीजी एवं श्री चन्द्रशेखरजी की आपस में चर्चा काफी देर तक चलती रही । श्री चन्द्रशेखरजी आपसे प्रथम चर्चा में ही काफी प्रभावित हुए एवं उन्होंने उस दिन के पश्चात् लगभग हर रोज आपसे मुलाकात एवं चर्चा की। एक दिन मैंने श्री चन्द्रशेखरजी से कहा कि क्यों न सभी विद्यार्थियों को महा० सा० के पास लेकर चला जाय । हमने इस विषय में महासतीजी से चर्चा भी की तो आपने बड़े ही विनम्र शब्दों में कहा - 'मुझे इस विषय में ज्यादा जानकारी नहीं है, फिर भी आप लोग आना चाहें तो बड़ी खुशी होगी ।'
कक्षा के हम लगभग ३०-३५ भाई-बहिन जून १९८४ के एक रविवार को आपके पास आये | आपने उस दिन विशेष रूप से "ध्यानयोग" पर व्याख्यान दिया जिसे सबने बड़ी तन्मयता से सुना । इसके पश्चात् कुछ भाई-बहिनों ने विनती की कि आप प्रति रविवार इस विषय में हमारा मार्गदर्शन करें तो आपकी बहुत कृपा होगी । आपने सभी का उत्साह देखते हुए स्वीकृति प्रदान कर दी । विनती करने वालों में श्री चन्द्रशेखरजी आजाद, श्री बालकृष्ण, श्री प्रकाश फणसे, श्री रसिकभाई तुरखिया, कुमारी विजया खडीकर, कुमारी शुंभागी खडीकर, कुमारी शोभा दम्माणी, कुमारी सरिता खण्डेलवाल, श्रीमती मृदुला खेर एवं अन्य भाई बहिन भी थे। आप के पास प्रति रविवार आने का क्रम शुरू हो गया । लगभग ५ सप्ताह तक आपने " ध्यानयोग" की व्याख्या की । व्याख्यान में आपने ध्यान की जिन पाँच पद्धतियों का विश्लेषरण किया, उनके नाम इस प्रकार हैं
१. प्रार्थनामुद्रा २. योगमुद्रा ३. दीपकमुद्रा ४. वीतरागमुद्रा ५. श्रानन्द
अवस्था ।
ध्यानयोग में भाई- बह्नों का उत्साह देखते हुए आपने प्रायोगिक प्रशिक्षण भी देना आरम्भ कर दिया । यह आपके अद्भुत प्रभाव का ही फल था कि वर्षा धी और तूफान की भी चिन्ता न करते हुए जिज्ञासु विद्यार्थी निरन्तर आते रहे । भविष्य में भी आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा, हम ऐसी प्राशा करते हैं ।
अन्ततः हम यही कहेंगे कि आपने हमें जीवन का उद्देश्य समझाया । हमारी यही प्रार्थना है कि आप अपने गन्तव्य स्थल की ओर प्रबाधगति से बढ़ते हुए हम जैसे दिशाहीन प्राणियों का मार्ग प्रशस्त करते रहें ।
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धर्मचर्चा और अन्तःप्रेरणा परम शांति का मार्ग सुझाती है.
अन्तस्तल पर अमृतवर्षा - सन्त मृगारामजी, बिलाड़ा-बाणगंगा
यद्यपि मैंने गुरुदेव गुलाबदासजी म. सा. एवं अन्य प्रतिष्ठित लोगों से महासती श्री उमरावकुंवरजी अर्चना म. सा. के विषय में कई बार सुना था। लेकिन आपके दर्शन का सौभाग्य लाखन कोठरी अजमेर के चातुर्मास में ही प्राप्त हुआ । उनके व्यक्तित्व की मुझ पर अमिट छाप पड़ी।
मैं बहुत छोटी उम्र में ही संन्यासी बन गया था । यद्यपि मेरी साधना गुरु महाराज की कृपा से अच्छी चल रही थी, लेकिन पापकर्म के उदय से मैं तीन महीनों तक बहुत विचलित रहा । मन में कई प्रकार की विकृतियाँ उभर आयीं और मैं बुरी तरह से घबरा गया । जब मैं नोखा माजी साहब के पास गया तो उन्होंने मुझे राय दी कि अजमेर श्री अर्चनाजी महाराजसाहब के पास जाऊँ । अन्तर्रेरणा ने भी साथ दिया और मैं तत्काल अजमेर के लिये रवाना हो गया। मैं लाखन कोठरी पहुँचा तब महासतीजी के प्रवचन हो रहे थे। मैं चुपचाप जाकर बैठ गया और एकाग्रता से प्रवचन सुनने लगा । आपके प्रवचन का एक-एक शब्द अमृत वर्षा कर रहा था। मुझे परम शांति की अनुभूति हुई । प्रवचन के बाद महासतीजी ने मेरा परिचय जानना चाहा। परिचय के मध्य मैंने अपनी व्यथा सामने रखी। उन्होंने बहत ही आत्मीयता के साथ समझाते हुए मेरी शंकाओं का समाधान किया । उस दिन के बाद मैं पूर्णरूप से अपनी साधना में स्थिर हूँ। समय-समय पर उनकी शिक्षाप्रद बातें एवं साधना सम्बन्धी चिन्तन मेरे मन-मस्तिष्क में सदैव गूंजता रहता है। श्री चरणों में मैं नतमस्तक हूँ। ईश्वर आपको साधना के नये क्षितिज तक पहुँचाये, यही मेरी मंगल कामना है।
प्रेतात्माओं से मुक्ति 0 ठाकुर अचलसिंह एवं भंवरकुवर
यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी अर्चनाजी म० सा० का अभिनन्दनग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है, उसमें कई श्रद्धालु भक्तों ने लिखित अनुभव भिजवाये हैं । मुझे मेरे मामा ससुर ठाकुर हरिसिंहजी द्वारा ज्ञात हुया और अपना अनुभव लिखने की अन्तःप्रेरणा मिली । मेरे घर से ठकुरानी श्रीमती भवरकुंवरजी सन् १९८६ में सावन के महीने में जब अपने पीहर बहिन का जापा
Jain Educatio! Mternational
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महासती श्नी अर्चनाजी आशीर्वचन
मुद्रा में
महासतीजी के साथ कुंवर श्रीहरिसिंह जी । प.अपने परिवार के साथ ध्यानमग्न.
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वरदहस्त | १७७ करवाने गई तो उसे भयंकर तकलीफ हो गई। चार पुरुष और कुछ स्त्रियों, कुल दस प्रेतात्माओं ने उसके शरीर में प्रवेश कर लिया जिससे हम सभी परिवार के लोग अत्यन्त परेशानी में पड़ गये। इतना उपद्रव हुआ कि हमने उनके जीवन की आशा छोड़ दी। जब वह मृत्यु से संघर्ष कर रही थी, अचानक म० सा० श्री अर्चनाजी को । हाथ में रजोहरण (ौघा) लेकर आते हुए देखा । म० सा० ने मांगलिक सुनाया, तत्काल महीनों से उपद्रव करने वाली प्रतात्माओं ने उनका शरीर छोड़ दिया और भंवरकुंवर ने नवकार मंत्र का जाप करते हुये अपने आपको पूर्णरूप से स्वस्थ, सूखी एवं प्रसन्न पाया। यह चमत्कार हमने प्रत्यक्ष देखा जबकि म० सा० से हमारा न परिचय था और न ही उनका नाम सूना था। इस अज्ञात कृपा से एवं चमत्कार से हमारे पूरे परिवार पर जैनधर्म का एवं नवकार मंत्र का अमिट प्रभाव पड़ा।
स्वस्थ होते ही मेरी मामी ससुर हरिसिंहजी के साथ म. सा. श्री के दर्शन लाभ प्राप्त करने गयी । पन्द्रह दिन सेवा में रहने के पश्चात् जो-जो चमत्कार व दृश्य दिखाई दिये मुझे पाकर बताए । मैं सुनकर विस्मित हो गया । श्री अर्चनाजी की कृपा से ही भंवरकुंवर मौत के मुंह से बच सकी ।
मैंने अभी तक महासती अर्चनाजी का साक्षात रूप नहीं देखा है लेकिन यह सब भंवरकुंवर और हरिसिंहजी के माध्यम से जान सका हूँ और समय मिलते ही म० सा० श्री की सेवा में उपस्थित होने की भावना रखता हूँ। ____ मैं महासतीजी के दीर्घजीवन की हृदय से मंगल कामना करते हुये उन्हें शतशत प्रणाम व वन्दना करता है।
महासतीजी को अनुकम्पा से आंख की रोशनी लौट आई.
वरदहस्त पारसमल चौरड़िया, उज्जैन
पूज्य महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० का सन् १९८५ का चातुर्मास धर्मस्थली उज्जैन में हुआ । मैंने म० सा० श्री की साधना के सम्बन्ध में चमत्कारपूर्ण बातें सुनी थी, लेकिन अटल विश्वास तब हुआ जब आपकी कृपा से मेरे पुत्र विमलकुमार एवं मेरी पुत्री को स्वास्थ्य लाभ हुआ। मेरे पुत्र की दुकान पर बैठे-बैठे अचानक एक आँख की रोशनी गायब हो गई, हम सब घबरा गये। बच्चे की चौबीस वर्ष की उम्र में रोशनी का चला जाना कितना परेशानी का कारण बना, यह हम ही जानते हैं । हम उसे लेकर इन्दौर, मद्रास तक के विशेषज्ञ चिकित्सकों को दिखा पाये किन्तु लाभ कुछ नहीं हुआ। म० सा० श्री का विहार तब तक उज्जैन से इन्दौर की ओर हो चुका था और वह तुकोगंज, हर्षदभाई गुजराती के बंगले पर विराज रहे थे। मेरी पत्नी को एक रात्रि अज्ञात शक्ति द्वारा
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द्वितीय खण्ड | १७८ संकेत मिला और मैं तत्काल इन्दौर म० सा० की सेवा में पहुँच गया। म० सा० श्री को जाकर सारी घटना सुना दी। म० सा० ने नवकार मंत्र व जयमल्ल जी म० सा० का जाप करने की विधि बताई और तत्पश्चात मंगल पाठ सुनकर मैं उज्जैन आ गया। विमल बाबू की आँख की रोशनी पुनः लौट आयी। म० सा० श्री के प्रति हमारे हृदय में जो अगाध श्रद्धा है उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
मेरी पत्री भी अस्वस्थ रहती थी। प्रसिद्ध डॉक्टरों के उपचार से भी उसे स्वास्थ्य लाभ न मिला। सौभाग्य से वह अब बिल्कुल स्वस्थ एवं प्रसन्न है। उसकी स्वस्थता का कारण यह बना कि एक रात्रि उसने स्वप्न में म. सा. श्री का वरदहस्त अपने सिर पर रखे देखा तो वह तत्काल उठकर बोली, पापा अब मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ। तब से अब तक कोई बीमारी नहीं हुई । आप अपनी साधना से लोककल्याण करते रहें यही हमारी मंगल-कामना है ।
सन्तों की चरणरज अनेक व्याधियों को दूर कर देती है. चरण धूलि ने काम किया अमृत का
आदर्शलता दफ्तरी, सुभाषनगर अजमेर
पूज्य श्री उमरावकुंवरजी अर्चनाजी म. सा. की हमारे पूरे परिवार के प्रति बड़ी कृपा है । मेरा जीवन अनेक कठिनाइयों से गुजरा। मैं अपने मन की व्यथा पूज्य गुरुणीजी म. सा. के अलावा किसी से नहीं कह सकती थी। मेरी दर्द कहानी सुनते ही म. सा. द्रवित हो जाते थे और जब कभी भी मुसीबत आती है मुझे म. सा. के द्वारा बताया गया नाम ही संबल देता है। इस संदर्भ में मुझे एक घटना याद आ रही है।
एक बार सन् १९७९ में मैं बहुत बीमार हो गई। मेरा शरीर पूरा शून्य हो गया और मुह पीछे घूम गया । मेरे शरीर में असाध्य वेदना थी। डा. को कुछ भी समझ में नहीं पा रहा था। अचानक मेरे अन्तर् में प्रेरणा जगी और म. सा. की बड़ी बहन श्री सौभागकुंवर बाई से मैंने म. सा. के पैरों के नीचे की धूल मँगाई व पानी में डालकर ग्रहण की तत्काल मेरा मुह सीधा हो गया और शरीर कि कई बीमारियाँ खत्म हो गईं। इसके अतिरिक्त घर की, छोटी-बड़ी परेशानियों से भी मुक्ति मिली । म. सा. श्री हमेशा पूज्य जयमल्ल जी म. सा. व नवकार मंत्र का जाप करवाते । परम पिता परमात्मा से मैं प्रार्थना करती हूँ कि म. सा श्री का वरदहस्त हमेशा मेरे सिर पर बना रहे । आप अपनी साधना से लोक-कल्याण करते रहें यही हमारी मंगल कामना है।
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महासतीजी को अपनी पूर्व जन्म की बहिन मानने वाले भाई के उद्गार
कैसे जाना मैंने कुवर हरिसिंह (जोगी), सखवास
यद्यपि म० सा० श्री उमरावकुंवरजी बाई सा० के मुझे प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ १९८६ में मिला, किन्तु सन् १९८४ में महावीर जयन्ती की रात्रि में अचानक सूक्ष्मदर्शन हो गये थे। स्वप्न में ही आत्मा परमात्मा सम्बन्धी बहुत चर्चा हुई। उस दिन से मैंने भोजन करना बन्द कर दिया। करीब डेढ साल तक पानी में थोडा सा दूध मिलाकर पीता रहा। मेरे शरीर में विचित्र अनुभूतियाँ होती रहती थीं और दिन-रात मैं अपनी ही धुन में मस्त रहता था। जब हाथ में कलम लेकर बैठता तो लिखता ही चला जाता । मुझे ऐसा लगता था मेरे दाहिने बाजू के पास पीठ की तरफ बाईसा श्री अर्चना जी मुस्कराते हुए खड़े हैं। ____ कुल मिलाकर मैंने १२०० के लगभग भजन लिखे हैं । लिखने के बाद मुझे कुछ भी याद नहीं रहता । घर वाले बहुत परेशान थे। गांव में अनेक प्रकार की चर्चायें चल रही थीं। आखिर मुझसे रहा नहीं गया । जो कुछ मेरे जीवन में घटित हो रहा था वह अपनी बड़ी बहिन गागुड़ा ठुकरानी जो श्री पदमश्रीजी बाई सा से कहा। उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, वह तो मेरे गुरुणी म० सा० हैं।
हम दोनों भाई-बहिन जानकी नगर इन्दौर म. सा. श्री की सेवा में पहुंचे। उस समय मैं एकान्तर की तपस्या कर रहा था । करीब डेढ़ महीने सेवा में रहा । मेरे जीवन को अनेक शंकाओं का समाधान मिला और परमानन्द की अनुभूति हुई, जो न मैं शब्दों से व्यक्त कर सकता हूँ और न ही लिखित रूप में।
जब भी मेरी इच्छा होतो है मैं १५-२० दिन के लिए 'म० सा० श्री की सेवा में पहुँच जाता हूँ। अब मेरा लिखना बोलना प्रायः समाप्त हो गया है, अधिक समय मेरा ध्यान में ही निकलता है । यह सारा श्रेय पूज्य बाई सा श्री अर्चना जी म. सा. को जाता है।
मुझे अनेक दृश्य तो दिखाई देते हैं लेकिन पूर्वजन्म व अगले जन्म का आभास भी मिल जाता है । इन आभासों में से एक यह भी है कि मैं और बाईसा इस जन्म से पूर्व भाई-बहिन थे । हमारी साधना अपूर्ण रह गई थी इसलिए जन्म लेना पड़ा।
मैं अब अधिक क्या लिखं, जीवन के अनुभव शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते । सिर्फ सिन्धु में बिन्दु जितना ही मैं इस ग्रन्थ के लिए लिख सका हूँ। - मैं म. सा. के लिये कौनसी कामना करूं समझ में नहीं आता। बस इतनी ही प्रार्थना है कि वह जन्म-मरण के दुःख से छुटकारा पावें और मोक्षगति प्राप्त करें।
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श्रीमती थांवरबाई का ९६ दिन का संथारा विज्ञान जगत के लिए चुनौती था.
अभूतपूर्व सांथारा । इन्दरमल चण्डालिया, खाचरौद
पूज्य महासतीजी श्री उमरावकुंवर अर्चनाजी म. सा. का सन् १९८६ का चातुर्मास प्रबल पूण्योदय से हमारे संघ को मिला।। ___खाचरौद के इतिहास में यह अभूतपूर्व चातुर्मास माना गया । जैन, जैनेतर सभी ने इनका बहुत लाभ लिया । साथ ही हमारे संघ में म० सा० की प्रेरणा से चन्दना किशोरी मंडल, पार्श्वनाथ स्वाध्याय मण्डल, स्वधर्मी सहयोग समिति की स्थापना भी हुई और नानाविधि तपस्यायें भी हुई। चातुर्मास में अनेक लोगों ने मुझे अपने दिव्य अनुभव बतायें किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ। दि० १०-११-८६ को रात्रि में मुझे म० सा० के दर्शन हुए। मैंने वन्दना के पश्चात् कहा बाई (माताजी) की तबीयत ठीक नहीं है, म. सा० ने फरमाया, अब आप धर्मध्यान सुनाते रहना। यह सुनते ही मेरी नींद खुल गई और प्रातः मैंने यह स्वप्न म० सा० को बता दिया । म० सा० ने वही बात कही कि धर्मध्यान सुनाते रहना । संयोग की बात एक-दो दिन बाद ही माताजी की तबीयत ज्यादा खराब हो गई । डॉ० ने जवाब दे दिया। दि० १७-११-८६ को म. सा० का विहार भी हो गया। दो दिन बाद ही पुनः पधारना पड़ा। उसी दिन हम लोगों की विनती और माताजी की गम्भीर हालत देखकर म० सा० ने माताजी को संथारा के प्रत्याख्यान करवाये । जबकि डॉ० ने घण्टे दो घण्टे की बात कही, वहीं माताजी का संथारा ९६ दिन तक चला और करीबन ३० साल से चले आ रहे असाध्य रोग चार-पाँच दिन में ही समाप्त हो गये। चौथे दिन माताजी को पूज्य श्री जयमल्ल जी म. सा० के दर्शन हए। उसी दिन से उनका हकलाना, मुड़ा हुआ हाथ जिसका कि इलाज बम्बई के डॉ. ने भी मना कर दिया था, ठीक हो गया। ये सारा श्रेय पूज्य म० सा० को है ऐसा माताजी हमेशा कहा करती थी और प्रतिदिन दौ-दो घण्टे म० सा० माताजी को धर्मध्यान सुनाया करते थे। संथारे के अन्तराल में करीबन ७२-७३ साधुसाध्वियों ने दर्शन दिये । लेकिन आखरी समय तक माताजी की हार्दिक श्रद्धा एवं स्नेह म. सा. के प्रति अपूर्व रहा और माताजी ने यह वचन भी दिया कि मैं जरूर आपको सहयोग दूंगी। मैं अपने आपको भाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे थाँवरबाई जैसी माँ मिली और म. सा. श्री अर्चनाजी की असीम कृपा !
गुरु महाराज से यह प्रार्थना है कि मैं और मेरा परिवार हमेशा धर्मध्यान में अग्रणी रहकर अपनी आत्मा का भी कल्याण करे। हमारे ऊपर पूज्य महासती जी की कृपा हमेशा बनी रहे, साथ ही मैं उनके दीर्घजीवन की मंगल-कामना करते हुए शत-शत वन्दन करता हूँ।
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सन्तों का नि:स्पृह जीवन गृहस्थों के लिए प्रेरणा का विषय होता है.
आलोक
0 लादूलाल बिराणी, विजयनगर
परम श्रद्धया पूज्यश्री उमरावकुंवरजी अर्चनाजी म. सा. के दो चौमासे हमारे विजयनगर में हुए । मुझ पर म. सा. की असीम कृपा रही है । मैंने आपके दिव्यगुणों को बहुत निकट से देखा है। आपमें अहं, माया, छल, कपट एवं यश की कामना लेशमात्र भी नहीं है। मुझे लिखने में गर्व का अनुभव होता है कि मेरी दो पुत्रियाँ-पुष्पादेवी एवं मंजुदेवी ने म० सा० श्री के सामने दीक्षा के विचार रखे और समय-समय पर अपनी भावना पत्रों में भी व्यक्त करती रहीं किन्तु म० सा० श्री ने स्पष्ट कहा कि पहले अपने पापको इस योग्य बनायो और अपने माता-पिता के विश्वास को जीतो। जब-जब मैं म. सा. की सेवा में पहँचा म० सा० ने मेरी पुत्रियों द्वारा प्रेषित पत्र मुझे दिखाये और कहा कि अभी उनमें साधना-पथ पर चल पाने की परिपक्वता नहीं है। ___जयपुर में मेरे तीन चार बड़े-बड़े आपरेशन हुए। मेरे मन में निरंतर म० सा० श्री का ही ध्यान रहा जिससे मेरे कष्ट के बन्धन सुगमता से कट गये । आपका ध्यान मुझे बहुत सम्बल प्रदान करता है और आपके दर्शनों से मुझे परम शांति का अनुभव होता है । वास्तव में आप वंदनीय एवं अभिनन्दनीय हैं। अनेक श्रद्धालुओं के साथ कोटि-कोटि वन्दन-अभिनन्दन करता हूँ। आप शतायु हों और ज्ञान के आलोक से जीवों का हृदय आलोकित करते रहें और मुझ जैसे अकिंचन पर दया-दृष्टि बनाये रखें।
जब गाँव के मुस्लिम भाइयों ने महासती 'अर्चनाजी' के चातुर्मास के लिए सत्याग्रह किया.
उलझन सुलझ गयी... [] जालिम बाबू, स्टेशन मास्टर, किशनगढ़
मेरे हृदय में महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' के प्रति अपार श्रद्धा है । उन्हें मैं अपनी बड़ी बहन एवं सत्पथप्रदर्शिका के रूप में मानता हूँ। वैसे तो मैं शिवजी का भक्त हूँ लेकिन म० सा० श्री के सान्निध्य से जैनधर्म में भी विश्वास
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द्वितीय खण्ड | १८२ है। किशनगढ़ में दस वर्ष तक जनसमाज में भारी संघर्ष रहा। उसे सुलझाने के लिये जैनाचार्यों ने और मुनिराजों ने बहुत प्रयास किये किन्तु वह और अधिक उलझता ही गया। अन्त में पूज्य महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' को आग्रह करके किशनगढ़ लाया गया और पाँच-सात दिनों में ही सारी उलझन सुलझ गई । कोर्ट-केस भी समाप्त हो गया। यह मेरी श्रद्धा का निमित्त बना।
अन्त में मैंने और गांव के मुस्लिम भाईयों ने सत्याग्रह करके (जैन-संघ तो प्रमुख था ही) किशनगढ़ चातुर्मास करवा ही लिया । वह समय हमारे लिए अपूर्व आनन्ददायक रहा । तब से अब तक मैं समय-समय पर दर्शन का लाभ लेता रहता हूँ। ईश्वर से प्रार्थना है कि हमें अापका मार्गदर्शन सदैव मिलता रहे।
'योगीड़ो तो छोटो भाई, सेवक चरणा राखो रे.' योगी महासतीजी को बड़ी बहन मानते हैं और उनके दिव्यदर्शन सदैव अपने हृदय में ही कर लेते हैं.
ज्ञान रो दीवलो
0 कुवर हरिसिंह योगी टेरः-अमर लोक सू आया बाईसा, उमरावकुवरजी नाम ।
चहुं दिश पापाचार फैलियो, दुखिया करी पुकार । क्यूं शरीर धारण करिया
बाईसा करुणा री मूरत, धरियो आप शरीर रे। आप शरीर धारण कर ने पधारिया जद कांई हुयो
दुखियां की ज्वाला बुझी रे, अरु हर्षियो संत समाज ।
कोई एक हरिजन आविया रे, जे साहिब अवतार । कांई काम पधारिया
हंसा लेयने आया बाईसा, संग हंसा ही जावे रे । नाम अमोलक मोती देवे, मोतिया रो चुगो चुगावे रे ॥३॥ खण्ड ब्रह्माण्ड रो भेद बतावे, जे कोई शरणां प्रावे रे। मीठो बोली बोले बाईसा, ज्यू मिसरी की डलियाँ रे ॥४॥ पंखापंखी ने तोड़े बाईसा, मार्ग आगम रो बतावे रे। भांत भांत सू जीवां ने बोधे, समता पाठ पढ़ावे रे ॥५॥ हास मुस्कान होठां पर खेले, क्रोध न नेडो आवे रे। दर्शन करियां दुख मिट जावे, आनन्द हुवे अपारो रे ॥६॥ आप बाईसा अन्तर्यामी, घट घट री सब जाणो रे । योगीड़ो तो छोटो भाई, सेवक चरणां राखो रे ॥७॥
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ज्ञान से दीवलो / १८३
प्रातःस्मरणीय बाईसा राज श्री १००८ श्री श्री उमरावकुंवरजी म० सा० के चरण-कमलों में योगी री बारम्बार वन्दना स्वीकार हुवे । आपरा बारा में haणों सूरज रे सामी दिवलो जोवणो है । आपरो ज्ञान र ध्यान सागर ज्यूं गहरो है जरी कोई थाह नी ले सके । मारे मायने तो अतरी बुद्धि कठे क आपरी शक्ति
थाह ले सकूं । प्रापरी महमा अधिक है किण शब्दां में वर्णन करूं । क्यूं के महिमा अधिक शब्द कम और लोग भी समझे चापलसी, वा मने स्वीकार कोनी और आपरा मुख पर ज्यादा शोभा म्हारा सूं करिजे भी नहीं ।
कांई करू बाई सा०, पागल जो हूँ । आपने पेले भी लिख्यो क आप पारब्रह्म सुं हंसने चेतावण वास्ते शरीर धारण करने पधारिया हो सा । पारब्रह्म सूं जो कोई आवे जन्म-मृत्यु नहीं होवे सा । दुखियाँ री पुकार सुण र संत आ जावे व हंसा ने चेता र वापस आपणी मर्जी सूं सुधाम पधार जावे । अबे म्हारी आत्मा इतरी तो निर्मल बेगी क प्रापरा श्रात्मस्वरूप रा दर्शन म्हे प्रठे ही कर सकूं । अबे भी मारी आत्मा पर केई तरह रां आवरण पड़या है सो दूर होवतां होवतां होवेला । आपांरी जल्दी सूं होवे कोनी |
आप जको लक्ष लेइने शरीर धारण करियो बिने पूरी लगण सूं निभा रहिया हो सा । ना खावण री चिन्ता, ना प्राराम री । सारा दिन श्रावण जावण वाला i हँस हँस ने समभावता रहवो सा । कदई प्रापरा मुख पर क्रोध री झलक कोनी देखी । यो सर नी तो आयो और न भावी में प्राविजे । वा, हिज सदा सहेली मुस्कान सूं मुस्कराता प्रत्यक्ष देख रहियो हूँ सा । प्रा सब आपरे ऊपरां गुरुदेव री ही कृपा है सा । आपतो ज्ञान प्रकाश रो दीवलो हो । दीवला ने देख ने अंधेरा में भटक्योड़ो मारग पा जावे मंजिल पर नी पहुँचे तो सुमारग तो मिले।
पर दीवलो तो आगम सोचे कि मारे नीचे कित्तो अंधेरो है । सोच-सोच ने निश्वास छोडे क्योंकि वो आपणे उजास के साथ श्रापणी परछाई भी देखे । उजास ही यदि देखतो वे तो अहं या जावे । इण कारण सूं परछाई ने भी देखे और काँपे म्हारे में कमी है । मैं दूसरां ने मारग दिखाऊँ, उजास देवूं और म्हारा नीचे ही अंधेरो ।
तो बाईसा दिया वाली कथा आपरी ही है सा । श्रा परछाई तो सामने परे । परे समान ही कोई संत महापुरुष प्रावे तो विण रा दर्शन सूं दूर हो सके क्यूं क दिवलो दिवलां ने जला सके । उण री परछाई भी उणरा उजास सूं भाग जावे ।
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अदृश्य आवाज पर जगी आस्था
[D] प्रकाशचन्द खवास, पीपाड़ (राजस्थान )
मुझे दिनांक ३०-३-८७ को खाचरौद में पूज्य महासतीजी श्री उमरावकुंवर जी म० स० 'अर्चना' के साक्षात् दर्शन का सौभाग्य मिला । इसके पीछे बहुत बड़ा निमित्त बना । वह यह है कि करीबन सत्तरह अठारह साल से मेरा कोर्ट केस चल रहा था । मैं बहुत परेशान था । पैसे से भी पूरी तरह बर्बाद हो चुका था। सुप्रीम कोर्ट से मुझे सजा सुना दी गई। वह रात मेरे लिये कयामत की रात की तरह बीती । पूरी रात नींद नहीं आई। सुबह लगभग साढे चार-पाँच बजे थोड़ी झपकी लगी और मैंने मेरी माँ को अपने सामने खड़े देखा, जिनका निधन चौदह वर्ष पूर्व हो चुका था । उन्होंने कहा “बेटा ! चिन्ता मत करो। खाचरौद जाकर महासती श्री उमराव कुंवरजी म० सा० 'अर्चना' का मंगलपाठ सुनो, सब ठीक हो जायेगा ।"
मैं उठते ही रवाना हो गया और पूछते-पूछते खाचरौद वृद्धाश्रम में महासती जी म० सा० की सेवा में पहुँच गया । दस-पन्द्रह भाई सेवा में खड़े थे। मैंने जाकर सारी बात बताई । महासतीजी म० ने अत्यन्त कृपाकर मुझे मंगलपाठ सुनाया । परम पूज्य श्राचार्यवर श्री जयमल्लजी म० के जाप का उपदेश दिया और साथ में माला भी दी । फलतः ऐसा शुभ संयोग बना, मेरी सजा माफ हो गई। मेरे पास शब्द नहीं हैं, जिन द्वारा मैं अपने कृतज्ञभाव व्यक्त कर सकूं ।
महासतीजी म० वास्तव में अद्भुत शक्तिपुंज हैं ।
सुगन्ध
बताने की जरूरत नहीं, यह तो उसकी सहज प्रवृत्ति है. दिव्यज्योति : अर्चनाजी
→ अमृतलाल जैन, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट, उज्जैन
गुलाब को अपनी
किसी महापुरुष के दर्शन और सत्संग का योग वास्तव में पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही संभव है। ऐसा एक पुनीत योग मेरे जीवन में जिस अध्यात्मयोगिनी और विदुषी जैन महासतीजी का आया, वह मेरे लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गया है । आज भी कुछ ऐसे क्षण हैं जो बरबस याद आते ही रहते हैं ।
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दिव्यज्योति : अर्चनाजी / १८५
आपको अध्यात्मयोगिनी, काश्मीर-प्रचारिका, प्रवचन-शिरोमणि आदिआदि उपाधियों से विभूषित किया गया है, यह सचमुच में इन महासतीजी के लिए न सिर्फ शतप्रतिशत सही है, बल्कि अपर्याप्त भी है । उनमें एक ऐसी दिव्यज्योति विद्यमान है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। यह मात्र एक अनुभूति की ही बात है, जिसे एक साधारण व्यक्ति भी आत्मसात कर पाता है और हम जैसे लोगों को वह एक चमत्कार सा ही प्रतीत होता है। जैन साधु-साध्वी विशेषकर स्थानकवासी प्रचार-प्रसार से दर ही रहते पाये हैं। क्योंकि इस पथ पर संयम, त्याग और साधना सतत करनी रहती है और साधना का मार्ग भी बहुत ही कंटकाकीर्ण रहता है।
___ महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. ने अपने जीवन की ५० वर्ष की सफल साधना में देश के दूरस्थ एवं अगम्य स्थानों पर विहार कर देश व समाज को बहुत पास से देखा है और समझा है । आपने प्रत्येक क्षेत्र व धर्म का गहन अध्ययन कर उसका जैनधर्म से समन्वय कर महावीर के अनेकान्त को सही अर्थों में समझ कर अन्यों को भी समझाया है । सभी धर्म मूल रूप से सत् कार्य करने की शिक्षा देते हैं और बुरे कार्यों से दूर रहने को कहते हैं । आपको अनेक क्षेत्रों व धर्मों की सुन्दर उक्तियाँ भी सस्वर कण्ठस्थ हैं। इन सबके साथ-साथ आपने अपनी अंतरसाधना को भी सतत बढ़ाया है और उसकी आभा आज हम सबके सामने है।
जो भी व्यक्ति आपके संपर्क में एक बार आ जाता है वह जीवनपर्यन्त इन अविस्मरणीय क्षणों को भूल नहीं सकता है। आपकी साधना व प्रेरक जीवन ने न सिर्फ जैनियों को प्रभावित एवं उत्प्रेरित किया है बल्कि अन्य धर्मों के लोगों व हजारों ग्रामवासियों को प्रभावित कर उनके जीवन को सन्मार्ग पर लाकर प्रेरित किया है। ऐसे लोगों की संख्या जैनियों से कहीं अधिक है और उनकी श्रद्धा भी उनसे ज्यादा है । आपने अपने अनुभव के आधार पर देश और समाज को नयी दिशा ही नहीं दी बल्कि एक रास्ता भी बताया, जिससे व्यक्ति की धर्म के प्रति रुचि एवं आस्था जागृत हुई। आपने धर्म की भी बड़ी प्रभावना की है। आपका प्रकाशित साहित्य जीवन के हर पहल पर गद्य-पद्य में प्रकाशित है और जो भी व्यक्ति बिना आपके संपर्क में आये इस साहित्य के किसी भी एक छोर को पढ़ लेता है, वह उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है ।
आपके जीवन के ऐसे कई अविस्मरणीय क्षण हैं जो आज भी लोगों के जीवन में प्रकाशस्तम्भ के समान मार्गदर्शन करते हैं और आपके प्रति अटूट श्रद्धा भी प्रकट करते हैं ।
ऐसे ही कुछ क्षण मेरे संक्षिप्त संपर्क में देखने को मिले हैं
श्री प्रकाशचंदजी सेठी, भूतपूर्व गृहमंत्री भारत शासन, उज्जैन में महासतीजी के सन १९८५ के चातर्मास के समय पाये थे। उनसे सहज चर्चा में मैंने यह कह दिया कि मैं अब जैन महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चनाजी" के दर्शन केलिए जा रहा हूँ, उस समय श्री सेठीजी सपत्नीक थे । उसी समय श्रीमती सेठी के आश्चर्य
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द्वितीय खण्ड / १८६ और तीव्र अभिलाषा की सहज अभिव्यक्ति यही थी कि उन्होंने महासतीजी के विषय में दिल्ली में बहुत कुछ सुन रखा था और तभी से वे ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में थीं कि उनके दर्शन हो सकें, उन्होंने उसी समय मेरे साथ जाकर उनके दर्शन का लाभ लिया । दूसरे दिन प्रातः श्री सेठीजी के साथ दर्शन कर चर्चा की । उस समय श्री सेठीजी का बहुत ही व्यस्त कार्यक्रम था। श्री सेठीजी चर्चा में उनसे बहुत ही प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी साधना में उनके बताये मार्ग पर चलने का प्रयत्न भी किया है।
दूसरा प्रसंग उज्जैन के मूक साधक एवं भैरवभक्त श्री गोविन्दप्रसादजी कुकरेती "डबराल बाबा" का है, जिनकी अहिंसक साधना से उज्जैन व देश के प्रायः सभी भागों के लोग अत्यन्त प्रभावित हैं और श्रद्धा रखते हैं एवम् जिनके सम्बन्ध में विशिष्ट समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में इनकी साधना एवम् सिद्धि का चमत्कारी वर्णन आता ही रहता है।
जब इस अदभत साधक ने महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. के दर्शन किये तो सहज ही यह अभिव्यक्ति प्रकट की कि यह भगवती माँ महान् साधक है और मेरी साधना में "माँ भगवती" की तरह ही हमेशा से मुझे आशीर्वाद प्रदान कर रही है। सभी लोग इस बात से आश्चर्यचकित हैं और आज-कल ३ वर्ष से लगातार यह मूक व विनम्र साधक आज भी उन पर "माँ भगवती" की तरह श्रद्धा रखता है। जिस व्यक्ति को हर जगह का व्यक्ति हर समय साष्टांग प्रणाम करता है, वही व्यक्ति किस प्रकार माँ-स्वरूपा इस भगवती देवी से आशीर्वाद मांगे यह सचमुच में हम जैसे साधारण लोगों की समझ के बाहर ही है । उपरोक्त भक्त ने अपने गत वर्ष की नवरात्रि के प्रथम दिन विशिष्ट रूप से इस भगवती माँ का आशीर्वाद प्राप्त किया था और साधना के अन्तिम दिन भी सफलतापूर्वक साधना पूर्ण होने पर अपनी कृतज्ञता दर्शन कर प्रकट की थी। यह संतसंयोग अन्वेषणा का विषय है और इसमें कुछ भी आगे कहने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ। पाठक स्वयं ही निर्णय करें कि इस माँ भगवती की साधना क्या वास्तव में इतनी उच्चतम है ? अवश्य है।
तीसरा प्रसंग मेरी पत्नी से सम्बन्ध रखता है । वह उस समय यानि सन् १९८५ में महासतीजी के चातुर्मास के समय केन्सर से पीड़ित थी और उस समय उसे महासतीजी के दर्शन-लाभ का योग मिला। पीड़ा के स्थान पर जैसे ही महासतीजी ने अपना हाथ छुया वैसे ही एक विद्युतकंपन सा उसे लगा और पर्याप्त राहत का अनुभव हुआ । यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि बाद में वह बच न सकी, लेकिन उस प्रसंग को उसने कई लोगों के सामने कहा, जिसे भूल पाना असंभव है। __ऐसे अनेक प्रसंग महासतीजी के सुनने को मिलते हैं और इस सम्बन्ध में १-२ लोगों का यह कुतर्क भी सुनने को मिलता है कि एक साधक को अपनी साधना का आभास इस प्रकार नहीं देना चाहिए। इस सम्बन्ध में एक संत की यह बात कि गुलाब को अपनी सुगंध को बताने की जरूरत नहीं रहती है, यह तो उसकी एक सहज प्रकृति रहती है, जो भी उसके संपर्क में आयेगा वह बिना किसी भेद-भाव के
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मीठी महिमा / १८७ उसे यह सुगंध प्रदान करेगा। महासतीजी ने कभी भी अपने मुख से इस बाबत अपनी अनुशंसा नहीं की और मौन स्वीकृति से ही निष्कर्ष निकलता है।
यही बात महासतीजी की साधना में है जो अनुभूति से ही ज्ञात होती है। लोग संपर्क में आएँ और अनुभव प्राप्त करें, इससे मैं कुछ अधिक नहीं कहूँगा और न ही कहना चाहता हूँ, क्योंकि यह अनुभव की चीज है, जो इसका अनुभव करेगा उसे ही इसकी अनुभूति प्राप्त होगी।
इस शुभ-अवसर पर-महासतीजी की कठोर साधना के ५० वर्ष पूर्ण होने के इस अवसर पर-मैं जिनदेव से यही मंगल-कामना करता हूँ कि आप चिरायु और स्वस्थ रहें और आपकी साधना की ज्योति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाए और उसके प्रकाश से अधिकतम जन-कल्याण हो।
मीठी महिमा । कुघर हरिसिंह, संखवास (राज.)
मैंने अपने जीवन में बाईसा म० सा० श्री उमरावकुंवरजी से बहुत कुछ पाया है और पा रहा हूँ। जब कभी मैं कुछ कहता है, तो बाईसा म० सा० नाराज हो जाते हैं और कहते हैं, यह अब भगवान की कृपा है। मेरी शोभा (प्रशंसा) मत किया करो। लेकिन जब मैं अनेक अद्भुत प्रेरक चमत्कार अनुभव करता हूँ तो गुणीजनों के गुणगान किये बगैर रहा नहीं जाता।
१९८७ में खाचरौद चातुर्मास के बाद महासतीजी श्री 'अर्चना' जी म. सा० के दर्शन कराने हेतु मैं मेरी भाणेज भंवरकुंवर को ले गया। उस समय मैं बाईसा के पैरों के नीचे की धूल ले आया था। किसी के दुःख, तकलीफ होती है तो पानी में डालकर दे देता हूँ । कष्ट दूर हो जाता है ।
हमारे गाँव में एक जाट का लड़का, जिसका नाम सांवतराम है, दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था, उसे जिन्न (प्रेत) को बाधा थी। उसकी बड़ी विचित्र विक्षिप्त स्थिति थी। वह अपने परम्परागत धर्म के विपरीत ऐसी धार्मिक क्रियाएँ करता. जिनका उससे, उसके परिवार से कोई लगाव नहीं था। दूसरी अचरज की बात यह थी, वह एक संप्रदाय विशेष, जाति विशेष के व्यक्ति के घर का ही खाना खाता, पानी पीता, जो उसके परिवार में सर्वथा अस्वीकृत है। अपने पिता का वह इकलौता पुत्र है । सभी तरह के उपचार करवाये, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। जोधपुर ले गये । डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया। उसे रस्सियों से बांधकर कमरे में
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द्वितीय खण्ड / १८८
बन्द रखना पड़ता था । मैं जब खाचरौद से संखवास गया, उसके पिता ने अपने पुत्र की स्थिति बतलाते हुए मुझे कहा कि मैं दो साल से बड़ा दुःखी हूँ। मैंने बाईसा के बताए हुए नवकार मंत्र का जाप किया और चरणों की धूल उसको दी। उसने जोधपुर जाकर अपने पुत्र सांवतराम को मेरे कथनानुसार महाराज सा० के चरणों की धूल पानी में घोलकर पिलाई। पिलाने भर की देर थी कि लड़का एकदम ठीक हो गया । अपने पिता से कहा- पापा ! कल मुझे स्कूल जाना है और परीक्षा देनी है । बिना पढ़ाई किए उसने दसवीं की परीक्षा भी दे दी। अब वह पूर्णतः स्वस्थ है | सावंत और उसका पूरा परिवार बाईसा म० सा० का हृदय से श्राभार एवं उपकार मानता है ।
मेरे जीवन में तो ऐसी कई चमत्कारपूर्ण घटनाएं घटित होती रहती हैं । यदि बताने लगूं तो एक पुस्तक ही तैयार हो जाय । फिर भी एक-दो प्रसंग तो लिख ही देता हूँ, जिनसे दूसरों को भी प्रेरणा प्राप्त हो । मेरे बड़े बाईसा (बहिन ) की लड़की, जिसका नाम राजकुमारी है, जो कुचामण गाँव के ठाकुर की पुत्री है, को कई वर्षों से विचित्र अनुभव होते रहते थे । घण्टों मूर्च्छित अवस्था में रहती । घर वालों ने बीमार समझकर बहुत उपचार करवाए, पर सब व्यर्थ गया । एक रात को उसे स्वप्न में श्री बाईसा म० सा० 'अर्चना' जी के दर्शन हुए। उसने परिचय पूछा तो कहा - मेरा नाम उमरावकुंवर है । उसके बाद में बाई को घर वाले बिलकुल परे - शान नहीं करते हैं । उसके शरीर से इतनी सौरभ निकलती है कि आसपास का वातावरण सुगंधित हो उठता है । पूरा शरीर प्रकाशित है । और भी कई विचित्र बातें होती रहती हैं। अब वे म० सा० श्री के चरणों में आने के लिये उत्कंठित हैं ।
इसी प्रकार मेरी सात वर्षीय पुत्री इचरचकुंवर को भी बाईसा म० सा० के बताये हु नवकार मंत्र पर बहुत श्रद्धा है । जब कभी घर में किसी को बुखार आ जाए या कोई बीमार हो जाए, यहाँ तक की गाय-भैंस तक को भी नवकार मंत्र सुना देती है, म० सा० का आया हुआ पत्र फिरा देती है तो सब कुछ ठीक हो जाता है ।
भगवान् से में यही प्रार्थना करता हूँ कि ऐसे सन्तों की कृपा मेरे जैसे अकिंचन पर, दीन-दु:खियों पर सदा बनी रहे। वे तन-मन से स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हुए भगवान् की भक्ति के साथ दूसरे जीवों का भी कल्याण करते रहें ।
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चमत्कार की मूर्ति महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना'
अभयकुमार जैन, एडवोकेट
१. अध्यात्म-जगत् की परम साधिका, काश्मीर-प्रचारिका, प्रवचनशिरोमणि
मालवज्योति परमश्रद्धया महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' के दर्शन का व प्रवचन सनने का सअवसर पहली बार मिला, जब महासती श्री उज्जैन होते हुये सन् १९८३ में इन्दौर चातुर्मासार्थ पधारी थीं। पावन सलिला गंगा के लिये कहा जाता है "दर्शन, मज्जन, पान, त्रिविध भय दूर मिटावत" उसी तरह यदि महासती श्रीजी के लिये कहा जाय कि "दर्शन, वन्दन, श्रवण-त्रिविध भय दूर मिटावत" तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जिस श्रद्धालु को शुभ सान्निध्य मिला है, उसने यह अनुभूत किया है। ३. महासती श्री की श्रुति व स्मृति असोम है। आपकी सरलता व सरसता हृदय
को छ लेती है। आपकी साधना उत्कृष्ट कोटि की है। उसके कुछ विशेष संस्मरण में इस दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती के शुभ अवसर पर पाठकों के सम्मुख
रखंगा। ४. दिनांक १६-७-८३ को मुझे उज्जैन से सेंधवा वहाँ के वर्ग २ के व्यवहार
न्यायाधीश महोदय के सम्मुख प्रकरण ४१ए : ८२ मूलवादी गुलाम अब्बास --वि-सैफुद्दीन में सैफुद्दीन की ओर से पक्ष समर्थन करने को जाना था। वादी गुलाम अब्बास ने एकपक्षीय अस्थायी निषेधाज्ञा सैफुद्दीन के विरुद्ध ले रखी थी, दिनांक १६-७-८३ को सैफुद्दीन की ओर से एकपक्षीय दी गई अस्थायी निषेधाज्ञा को निरस्त करवाना था। वैसे कठिन था, उस केस में विरुद्ध पक्ष की ओर से इन्दौर के प्रसिद्ध अधिवक्ता भी सेंधवा न्यायालय में तर्क के हेतु आने वाले थे। मैं अपने पक्षकार सैफुद्दीन व अपने एक सहयोगी श्री प्रभाकर निगुड़कर के साथ सेंधवा के लिये उज्जैन से रवाना हया । जैसे ही हमारी कार सूबह ७।। बजे इन्दौर जानकी नगर जैनभवन के पास पहुँची. मैंने ड्राइवर से कार रुकवाई व अपने सहयोगी श्री निगुड़कर से कहा कि मैं महासती श्री के दर्शन करके आता हूँ, तो श्री निगुड़कर बोले कि मैं भी चलं तो मैंने उत्तर दिया-सहर्ष । महाराजश्री तीसरी मंजिल पर विराजमान थे। मैंने तिखुत्तो के पाठ से वन्दना अर्ज की। तत्पश्चात् मांगलिक सुनाने के लिये निवेदन किया। मांगलिक सुनी और मैं तथा मेरे साथी सेंधवा रवाना होने के लिये नीचे आ गये । नीचे वराण्डा में एक अत्यन्त वृद्ध व अशक्त व्यक्ति
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मिले । उन्होंने मुझसे पूछा कि बापजी के दर्शन कर लिये तो मैंने कहा हाँ। किसी कार्य से जा रहे हो, मैंने कहा-मैं वकील हूँ। अपने पक्षकार सैफुद्दीन, जो नीचे खडे थे, उनको बताकर के कहा कि इनके मकदमे में पक्ष-समर्थन करने सेंधवा जा रहा है। इस पर वद्ध महाशय बोले-तो सुनो, आज तुम्हारा काम सोलह आने हो जावेगा, और वह भी बिना किसी मेहनत के । मैंने सुनाअनसुना कर दिया, वृद्ध महाशय के कहने पर ध्यान नहीं दिया। इस पर वृद्ध महाशय बोले, “मेरा कहा यदि गलत निकले तो आप मेरे मुख पर थूक देना, मेरा पता........है, और मेरा नाम........है। कृपया पाठकगण मुझे क्षमा करें, मैं उन महाशय का नाम व पता सेंधवा पहुँचने के पूर्व ही भूल चुका था, क्योंकि मैंने उस वक्त ध्यान ही नहीं दिया था। वह नाम व पता मुझे कभी याद नहीं आया, और न उन महाशय के कभी दर्शन ही हए। मैंने उन वृद्ध महाशय के उपर्युक्त रूप में कहने पर भी उनकी पूर्ण उपेक्षा की, पर उनकी जो बापजी के प्रति श्रद्धा थी, उसकी सराहना अवश्य की । सेंधवा पहुँचे, बिना किसी व्यवधान के । न्यायालय में पुकार हुई, मैं और मेरे साथी श्री निगुड़कर व पक्षकार सैफुद्दीन न्यायालय के कक्ष में खड़े हो गये, मेरे साथी श्री प्रभाकर निगुड़कर, मैं जो बड़ा-सा बस्ता किताबों का ले गया था, उसे खोलने के लिये उतारू हुए। मैंने कहा ठहरो, विरुद्ध पक्ष को प्रा जाने दो। हमारे विरोध में श्री गुलाम अब्बास व उनके स्थानीय अभिभाषक न्यायालय से बाहर खुले मैदान में जहाँ "पुकार" पहुँच रही थी, खड़े थे। वे न्यायालय में नहीं पाये । एक घण्टे के अन्तराल में चार-पाँच बार पुकार हुई, पर श्री गुलाम अब्बास व उनके स्थानीय अभिभाषक पुकार सुनते रहे, न्यायालय के कक्ष में नहीं आए। न्यायाधीश महोदय ने लगभग एक घण्टे तक श्री गुलाम अब्बास व उनके अभिभाषक की प्रतीक्षा की एवं अन्त में उनके अनुपस्थित रहने पर प्रकरण उनकी अनुपस्थिति में निरस्त कर दिया व एकपक्षीय पूर्व में दी गई अस्थायी निषेधाज्ञा भी निरस्त कर दी। प्रकरण का व्यय भी हमारे पक्षकार सैफुद्दीन को दिलाया गया। इतना हो चुकने के बाद मेरे और मेरे साथी श्री निगुड़कर के मुख से निकला कि यह तो बापजी का चमत्कार है । बाद में मैंने उन महाशय को, जिन्होंने भविष्यवाणी की थी, बहुत ढूंढा पर वे नहीं मिले व उनका नाम व पता भी याद नहीं रहा। क्योंकि उन महाशय के कथन को हमने पूर्ण उपेक्षा की थी। यह घटना दिनांक १६-७-८३ की है। उस दिन हमारा काफी समय बच गया, इस पर हम वापसी में जुलवानिया आये और जुलवानिया से एक प्राचीन जैन तीर्थ "ऊन” गये, प्राचीन मन्दिरों में स्थित भव्यमूर्तियों के दर्शन किये। दूसरा अवसर है मेरे कुटुम्बियों के दो प्रकरणों का। मेरे कुटुम्बियों ने उज्जैन में खड़े हनुमान के पास स्थित एक मकान क्रय किया था। इस मकान के सम्बन्ध में श्री नरेन्द्रकुमार, जो मकान पर काबिज थे, ने दो प्रकरण उच्च न्यायालय इन्दौर में मेरे कुटुम्बियों के अन्तरणकर्ताओं के विरुद्ध प्रस्तुत किये
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थे। एक प्रकरण २३४:८३ विविध अपील नरेन्द्रकुमार-वि-जयाबाई आदि था व एक प्रकरण २६१:८३ विविध दीवानी नरेन्द्रकुमार-वि-जयाबाई आदि थे । इन प्रकरणों में जब मेरे वरिष्ठ अधिवक्ता श्री शंभुदयालजी सांघी को जानकारी मिली तो मेरे कुटुम्बियों का हित होने के कारण उन्होंने मुझे पक्ष-समर्थन नहीं करने और स्वयं मेरी अोर से पक्ष-समर्थन करने की तत्परता बताई, प्रकरण में दिनांक २३-११-८३ लगी थी। २२-११-८३ को मैं श्री सांधीजी के पास प्रकरण की तैयारी कराने के हेतु गया । तैयारी के मध्य श्री सांधीजी ने यह कहा कि नरेन्द्रकुमार ने एक विलेख-विशेष छिपाया है, उसे प्रस्तुत नहीं किया है । उसको प्रस्तुत कराने के लिये आवेदन-पत्र देना उचित होगा। मैंने सुझाव दिया कि आवेदन-पत्र देने से प्रकरण में विलम्ब होगा और वैसे भी अपना प्रकरण सबल है, तत्पश्चात् श्री सांघीजी ने मुझे प्रातः आठ बजे दिनांक २३-११-८३ को, जिस दिन सुनवाई होना थी, मिलने को कहा । मैं दिनांक २३-११-८३ को सुबह ७.३० बजे ही उज्जैन से इन्दौर पहुँच गया। जब मैंने सर सेठ हुकुमचन्दजी के स्टेच्यू के पास पार्क की ओर घड़ी देखी तो ७.३० बजे थे । मुझे ख्याल आया कि सांधी सा. ने तो आठ बजे बुलाया है, आध घण्टे पहले उनके पास बैठने में उन्हें असुविधा होगी, तत्काल ध्यान आया कि बापजी महावीर भवन इन्दौर में विराजे हुये हैं, आध घण्टे में उनके दर्शन करके पाऊँ। इतना विचार आते ही मैं महाराज श्री के दर्शनार्थ महावीरभवन इन्दौर पहुँच गया। पहुँचने पर दूसरी मंजिल में महासती श्री सुप्रभाजी के दर्शन हुये । मैंने उनसे मांगलिक सुनाने का निवेदन किया और साथ ही बापजी के बारे में भी पूछा, तो सुप्रभाजी महाराजश्री ने यह बताया कि बापजी अभी ध्यान में हैं, लगभग १० मिनिट में उनका ध्यान पूरा हो जावेगा, मैं उनसे ही मांगलिक सुनें और तब तक के लिये प्रतीक्षा करूं । मैं खड़ा रहा । लगभग १०-१५ मिनिट के बाद बापजी ऊपर से पधारे । मैंने वन्दना की व मांगलिक सुनाने का निवेदन किया, तो बापजी ने श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित "उवसग्गहरं पासं" का पाठ सुनाया और आशीर्वादी मुद्रा में हाथ खड़ा कर दिया। मैंने मंत्रमुग्ध हो पूरा छंद सुना, मेरे लिये यह पहला मौका था इस छंद को इस तरह सुनने का। मेरे मन में भाव जागृत हुआ कि आज सुने जाने वाले दोनों प्रकरण अपने हित में आज ही निर्णीत हो जावेंगे । किन्तु तर्क मेरे मन में यह भी था कि श्री सांघीजी आवेदन पत्र देंगे, विरोधीपक्ष को उत्तर देने के लिये समय लेने का अधिकार है और वे समय निश्चित माँगेंगे और ऐसी स्थिति में तर्क यह कहता था कि आज कुछ नहीं होगा, तारीख बढ़ेगी, किन्तु मन में प्रबल रूप से यह बैठ चुका था कि आज प्रकरण निर्णीत होंगे और पक्ष में होंगे । मेरे मन में जब तक प्रकरणों की सुनवाई का अवसर नहीं पाया, तब तक श्रद्धा व तर्क दोनों में द्वन्द्व चलता रहा । अन्त में जब उच्च न्यायालय में सुनवाई का क्रम आने ही वाला था कि पाँच मिनिट पूर्व श्री नरेन्द्रकुमार के अधिवक्ता श्री बाघमारेजी ने श्री सांधीजी
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कहा कि यदि उनके पक्षकार को दुकान रिक्त करने के लिये एक वर्ष का समय दे दिया जावे तो वे उपर्युक्त दोनों प्रकरण निरस्त कराने को तत्पर हैं । इस पर श्री सांधीजी ने मुझसे पूछा, मैंने तुरन्त हाँ कह दी । परिणाम में मेरे कुटुम्बियों के उपरोक्त दोनों प्रकरण अप्रत्याशित रूप से अविलम्ब समाप्त हो गये । श्रद्धा की तर्क पर विजय हुई और मेरी श्रद्धा प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती गई ।
६.
मैं लाला अमरनाथजी खत्री के एक प्रारबीट्र ेशन केस में अहमदाबाद जाता था । केस अमरनाथ काशीराम - वि - एन. डी. डी. बी. के मध्य था । मुझे दिन के १० बजे से २ बजे तक और फिर ३ बजे से ५ बजे तक उस केस में एक दिन अहमदाबाद में लगातार तर्क करना पड़ा । तर्क के अन्त में में पूर्णरूप से थक गया और इतना था कि गर्दन उँची करना भी मेरे लिये कठिन हो गया । इतनी भयंकर थकावट देख मैं अपने रूम में आया, जहाँ में ठहरा था और बिस्तर पर लेट गया । पर चैन नहीं मिला। फिर बैठा हुआ, मैंने नवकार मंत्र गुना, उवसग्गहरं का पाठ पूरा दोहराया व साथ ही बापजी का स्मरण किया और फिर लेट गया । लगभग आधा घण्टे में मुझे चैन मिल गया, थकावट दूर हो गई, फिर मैंने खाना भी खा लिया और फिर सो गया। मुझे नींद भी आ गई । सुबह उठा, ख्याल आया कि कहीं कोई हृदय से सम्बन्धित व्याधि मुझे नहीं हो, यह ख्याल आने पर मैंने अपने पक्षकार को भेजकर वहाँ के एक प्रसिद्ध कार्डियोलाजिस्ट को बुलवाया । डा. महाशय ने मेरी क्लिनिकल टेस्ट की, कार्डियोग्राम लिया और इसके बाद मुझे प्राश्वस्त किया कि मुझे जुकाम
अतिरिक्त कुछ नहीं है, फिर भी मैं दिन भर विश्राम करता रहा। शाम को साबरमती एक्सप्रेस से रिजर्वेशन करवा कर उज्जैन के लिये रवाना हो गया । प्रातः ६ बजे उज्जैन पहुँचा । नित्यकर्म से निवृत्त हो में महावीर भवन, उज्जैन पहुँचा, जहाँ महासती श्री अपनी अन्य साध्वियों के साथ चातुर्मासार्थ विराजी हुई थीं। जैसे ही मैं बापजी के सम्मुख पहुँचा तो बापजी ने पूछा “अब तुम्हारी तबीयत कैसी है" मुझे यह सुन महद् आश्चर्य हुआ कि बापजी को यह सब कैसे मालूम हुआ । फिर मैंने सारा घटनाक्रम बतलाया व निवेदन किया कि सब बापजी की कृपा है । किन्तु बापजी का उत्तर था कि जो मेरी अपनी श्रद्धा अपने इष्ट के प्रति अर्थात् नवकार मंत्र के प्रति है, उसीके फलस्वरूप पुण्योदय है । बापजी ने कहा मैं तो कुछ नहीं हूँ ।
७.
एक अन्य प्रसंग है, ग्राम बावड़ी का, जो जोधपुर व भोपालगढ़ के मध्य है । मेरे एक मित्र हैं श्री नेमीचन्दजी बम्ब जो अभी विक्रय कर विभाग में उपायुक्त के पद पर इन्दौर में पदासीन हैं। उनके रिश्तेदार श्री बी० एल० जैन हैं, जो अभी षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश इन्दौर के पद पर पदस्थ हैं । श्री नेमीचन्दजी बम्ब की पत्नी, पुत्री व एक पुत्र तथा श्री बी० एल० जैन के पुत्र एवं उनकी माता माउण्ट आबू से आबू स्टेशन तक टैक्सी में आ रहे थे ।
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उनकी टैक्सी से राजस्थान राज्य परिवहन की एक बस टकराई, भयंकर दुर्घटना हुई, श्री बम के पुत्र का दुर्घटना के फलस्वरूप निधन हुप्रा और बाकी के गंभीर व साधारण चोटें आईं । टेक्सी का चालक भी दुर्घटना में मृत हमा । मोटर व्हेईकल एक्ट के अधीन कम्पेनसेशन के पांच क्लेम जे चले । उनमें न्यायाधिकरण के अवार्ड हुए और पांचों अवार्डों की पाँच अपीलें राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर में चलीं। पेशी संभवतया २०-८-८५ को थी। पेशी के एक दिन पूर्व मैंने, श्री नेमिचन्दजी बम्ब व श्री बी० एल० जैन ने जोधपुर में चातुर्मासार्थ विराजित तपस्वीराज श्री चम्पालालजी महाराज के दर्शन किये, दूसरे दिन अर्थात् दिनांक २०-८-८५ को जोधपुर उच्च न्यायालय में पांचों अपीलों में तर्क किये, पांचों अपोलें हमारे हित में निर्णीत हुईं केवल एक अपील में कुछ कम्पेनसेशन की राशि कम हुई। दिनांक २०-८-८५ की संध्या को हमने यह तय किया कि भोपालगढ़ में विराजित प्राचार्य श्री हस्तिमलजी महाराज के दर्शन के हेतु सुबह जाया जावे। तलाश करने पर पता चला कि भोपालगढ़ के लिये घण्टे-घण्टे के अन्तराल से बसें मिलती हैं, और इसलिये टेक्सी एंगेज करके दर्शनार्थ जाने का कोई औचित्य नहीं। हम दिनांक २१-८-८५ को प्रातः ७ बजे बस से भोपालगढ़ के लिये रवाना हुवे, १० बजे पहुँचे। प्राचार्यदेव के दर्शन किये, मांगलिक सुनी और तत्काल वापस लौटने के लिये बस स्टेण्ड के लिये रवाना होने लगे। वहाँ के श्री संघ के उपस्थित व्यक्तियों ने हमें भोजन करने के लिए बड़ा आग्रह किया किन्तु हमें तो वापस जोधपुर पहुँचने को जल्दी थी, हम बस स्टेण्ड पर आ गये किन्तु लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी कोई बस हमें जोधपुर के लिये बस स्टेण्ड पर नहीं मिली। दो घण्टे बाद हमें बावड़ी होते हुए जोधपुर के लिये एक बस मिली, जिसे बावड़ी में रुक जाना था और बावड़ी के बाद दूसरे किसी कन्वेयन्स की व्यवस्था अथवा बस की व्यवस्था का प्रश्न हमारे सामने था। उस बस से हम बावड़ी पहुँच गये । वहीं एक होटल में मैं और मेरे दोनों साथी चाय पी रहे थे, चाय पीते-पीते मुझे मेरे एक अधिवक्ता साथी का कथन स्मरण आया। उन्होंने एक बार कहा था कि वे पुटपूर्ति सत्य साई बाबा के दर्शनार्थ गये थे। लौटने में उन्हें सही मार्ग नहीं मिला और कोई कन्वेयन्स भी नहीं मिला। थोड़ी प्रतीक्षा के बाद उन्होंने बाबा का स्मरण किया था और उन्हें तत्काल कन्वेयन्स मिल गया था। यह बात मैंने अपने साथियों से कही और साथ ही यह भी कहा कि मैं यदि मेरे महाराजश्री को स्मरण करू तो क्या मुझे कन्वेयन्स नहीं मिलेगा, बस इतना बोलने की देर थी कि हमारे सामने एक मेटाडोर आकर खड़ी हो गई । मेटाडोर में दो महाशय बैठे थे। मेटाडोर रुकी थी। मैंने अपने साथी श्री नेमिचन्दजी से कहा कि इनसे पूछो, क्या ये अपने को जोधपुर ले चलेंगे, तो उन्होंने प्रसन्न होकर के श्री नेमिचन्दजी को उत्तर दिया कि आप सब सहर्ष हमारे साथ चल सकते हैं । हमारे हर्ष की सीमा नहीं थी और बापजी की कृपा के लिये हम अत्यन्त आभारी थे। मैं और मेरे साथी
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इस घटना पर आश्चर्यचकित रहे । मेरे एक मित्र हैं श्री छगनलालजी बरड़िया। उनकी एक पेशी खाचरौद न्यायालय में थी। दुकान व निवासीय मकान के खाली कराने का मुकद्दमा उनके विरुद्ध था, मैं उन्हें सन् १९६० से वैधानिक सहयोग देता आ रहा था। सन् १९८५ के चातुर्मास काल में उनकी एक पेशी आई। वे मुझे लिवा लेने खाचरौद से उज्जैन पाये। मैं दिल्ली गया हुआ था। मेरे मित्र श्री पुरुषोत्तमजी सुगंधी व मेरे एक अन्य साथी अधिवक्ता श्री किशनस्वरूपजी शर्मा ने श्री छगनलालजी को कहा कि वे खाचरौद चलकर ठीक वैसा ही कार्य करने को तत्पर हैं, जैसा कि मैं करता था, पर छगनलालजी ने पेशी बढ़ाने पर बल दिया और वे मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को ले जाने को तत्पर नहीं हुए। इसी टेंशन में श्री छगनलालजी बीमार हो गये और उन्हें सिविल हास्पिटल उज्जैन में भरती होना पड़ा। डॉक्टर से प्रमाण-पत्र लेकर उनके पुत्र खाचरौद गये । न्यायालय से अर्जी देकर समय मांगा किन्तु पेशी दूसरे दिन की ही लगी। इस पेशी की पूर्वसंध्या को मैं दिल्ली से उज्जैन पहुँच गया था। मेरे से छगनलालजी और उनके पुत्र दोनों मिले। उनका एक मुकद्दमा इन्दौर उच्च न्यायालय में भी था। मैंने श्री छगनलालजी को इन्दौर के लिये रवाना किया
और उनके पुत्र को लेकर मैं दूसरे दिन की लगी पेशी के लिये प्रातः कार से खचरौद के लिये रवाना होने लगा। रवाना होते समय मैंने श्री छगनलालजी के पुत्र से यह कहा कि हम पहले महावीर भवन, उज्जैन चलें जहाँ बापजी विराजे हए हैं। उनके दर्शन करें, उनसे मांगलिक सुनें और इसके बाद जैसा छगनलालजी कहेंगे वैसा कुछ हो जाएगा । यदि तारीख बढाने का अवसर या जरूरत है तो जज साहब स्वयं छुट्टी ले लेंगे और किसी तरह की कठिनाई नहीं होगी। इसके पश्चात् मैं तथा छगनलालजी का पुत्र कार से खाचरौद के लिये रवाना हुए । खाचरौद न्यायालय के दरवाजे में प्रवेश होते ही पता लगा कि जज साहब ने आज आकस्मिक अवकाश लिया है और वे बाहर गये हैं । जिसने भी इस प्रसंग को सुना, आश्चर्यचकित रह गया। ९. मेरे साथ ऐसे अनेक प्रसंग आये, जिनमें से कुछ का मैंने वर्णन किया है।
औरों ने भी मुझे कुछ प्रसंग ऐसे बताये किन्तु दूसरों से सुने कोई प्रसंग मैं यहाँ नहीं लिख रहा हूँ। मैं तथा मेरा सारा कुटुम्ब बापजी से.अत्यन्त प्रभावित है। उनकी हम पर अत्यन्त कृपा है । हम उन्हें श्रद्धा से अपने इष्टदेव की भाँति प्रतिदिन स्मरण करते हैं और अपने में पयाप्त शक्ति एव साहस अनुभव
करते हैं। १०. एक विशेषता महासती श्री में और है। वे किसी भी श्रद्धालु को, वह चाहे
जैन हो या अजैन, यह कभी नहीं कहती “माम् एकम् शरणम् ब्रज" किन्तु योगीराज की तरह उनकी भावना प्रत्येक श्रद्धालू को अपने अपने इष्ट की ओर आकर्षित रहने में बल प्रदान करती है ।
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हृदयस्पर्शी अनुभूतियां | १९५
कहने का प्राशय यह है कि आप समान रूप से जैन व अजैन, जो भी आपके सम्पर्क में आता है, के लिए श्रद्धा की केन्द्र बनी हुई हैं। ११. मैं परमपवित्र, आर्यारत्न महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के
दीर्घ जीवन की इष्टदेव से प्रार्थना करता हूँ। उनके अपार ज्ञान की, उनके जीवन में व्याप्त सरलता की तथा उनके द्वारा समाज पर किये जा रहे उपकारों की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।
हृदयस्पर्शी अनुभूतियां । राजेन्द्रसिंह कपूर, ६७ रावला, खाचरौद
महासती श्री उमरावकुंवरजी महाराज साहब के शुभ एवं मंगलमय दर्शन का लाभ प्राप्त कर मैं अपने आपको धन्य सः
हमारे सुपरिचित परमस्नेही श्री बादलचन्दजी मेहता इन्दौर निवासी,जो महासतीजी के परमभक्त हैं, जिनके हृदय में महाराज साहब के प्रति अटूट श्रद्धा है और जिनका पूरा परिवार ही महाराज साहब के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक है, ऐसे सज्जन मेहता साहब का परिवार हमारे निवासस्थान पर ठहरा । दिनांक १-१-८७ को श्री मेहता साहब मुझे प्रातः ही महाराज साहब के दर्शन करवाने हेतु साथ ले गये । मेहता साहब एवं अन्य श्रद्धालू-जन महाराज साहब से चर्चा करने लगे तथा अन्य सज्जनों का आना जाना लगा रहा, मैं बैठा बैठा विचार कर दंग रह गया कि कितने लोग आ-जा रहे हैं और सभी प्रसन्नचित्त हैं कारण महासतीजी सबको आशीर्वाद दे रही हैं, उनके लिए मंगल-कामना कर रही हैं ।
___ मेरा परिचय भी महासतीजी ने लिया । उनका सरल स्वभाव व बात करने का ढंग देखकर मैं गद्गद हो गया। उन्होंने जब मेरे विषय में यह जाना कि मुझे हृदयरोग हो गया था तथा कमजोरी है व थोड़ी मधुमेह भी है। यह जानकर उन्हें अति वेदना हुई और उन्होंने स्वयं ही मेरे दुःख को अपना स्वयं का दुःख माना। यह उनके कारुण्यमूर्तिरूप को तथा परदुःख को अपना दुःख समझने की भावना को दर्शाता है।
उसी क्षण उन्होंने मुझसे कहा कि आप स्वस्थ हो जावेंगे। अपने डॉक्टर की सलाह, दवाई बराबर लेते रहें और नियमित नियंत्रित आहार लें । यह कहना उनके कुशल मार्गदर्शन-स्वभाव को दर्शाता है। मुझे उन्होंने इस प्रकार कुशल मार्गदर्शन दिया तथा रोजाना मुझे अपना बहुमूल्य समय निकाल कर मांगलिक सुनाई।
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द्वितीय खण्ड | १९६
मैं भी महासतीजी के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हुमा। कारण दर्शन करने पर __ मैंने अनुभव किया कि महासतीजी उपकारमयी हैं, उनके परम सौम्य व सरल हृदय से कोई भी मनुष्य प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
उन्होंने अपना अभी तक का जीवन कठिन तप करके, साधनामय होकर, अध्ययन करके व्यतीत किया है, जो उनके तेज स्वरूप से परिलक्षित होता है। ऐसे गुरुजनों के दर्शन भाग्य से ही मिलते हैं । मैं भी अपने आपको परम सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझ तुच्छप्राणी को भी महासतीजी ने अपना आशीर्वाद दिया। मैं दिनांक १-१-८७ से प्रतिदिन महाराज उमरावकुँवरजी से मांगलिक सुनता रहा हूँ और यह क्रम लगभग एक माह बराबर चलता रहा।
मैं रोजाना सायं साढ़े पांच बजे महाराज साहब से मांगलिक सुनता था, उनके सती-परिवार शिष्या-परिवार को देखकर अत्यन्त आनन्द होता है। ऐसा लगता है, मानो गोकुल, वन्दावन, मथुरा, काशी सभी तीर्थ एकत्र हो गये हैं। पुरा सती परिवार, शिष्या-परिवार अध्ययन व सेवा कार्य में मग्न रहता है। उनके मध्य बैठ कर अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। धन्य है खाचरौद तथा खाचरौद के निवासी जिन्हें ऐसी दिव्यमूर्ति के दर्शनों का, सत्संग का लाभ मिल रहा है।
जब कभी भी मैं महाराज साहब के दर्शन करने गया, उन्होंने हमेशा मेरे स्वास्थ्य व परिवार वालों तथा अन्य मित्रों के बारे में पूछताछ की। कितना ध्यान है उन्हें दूसरों का। ऐसी गुरुजनों के समीप बैठकर, उनके आशीर्वाद लेकर कौन अपने आपको गौरवान्वित महसूस नहीं करेगा । मैंने भी उनके आशीर्वाद प्राप्त कर अपने अन्दर अजीब-सी शक्ति, चेतना प्राप्त की है। मेरे अन्दर नया विश्वास जागा है। महासतीजी का यह उपदेश कि अपना कर्म करते रहो व फल की इच्छा मत करो, वही उपदेश है जो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। महाराज साहब की सौम्य मूर्ति के दर्शन करने की तीव्र लालसा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है। यदि किसी रोज महासतीजी के दर्शन न हो पाते हैं तो दिल में अजीब-सी बेचैनी होती है।।
मेरे हृदय-रोग में अपूर्व सुधार एवं मधुमेह-नियन्त्रण महासतीजी के आशीर्वाद तथा उनकी सुनाई मांगलिक से ही हुअा है । महासतीजी के चरणों में वन्दना करता रहूँ, यही प्रभु से प्रार्थना करता हूँ । महासतीजी का स्वभाव अत्यन्त सरल है, उनका हृदय करुणा, दया से परिपूर्ण है । दूसरों के दुःखों को उन्होंने सहज अनुभव किया है और अपने ऊपर लिया है। महासतीजी के सयममय जीवन, त्यागभावना एवं मार्गदर्शन ने मुझे स्वस्थ तथा नीरोग बनाने में अत्यधिक मदद दी है । महासती उमरावकुंवरजी महाराज साहब के दर्शन करने देश के दूर दूर से लोग आते हैं। यह सब इसलिए कि उन्होंने हमेशा दूसरों को उचित परामर्श, सलाह व उचित कार्य करने की सलाह दी है । महासती श्री उमरावकुंवरजी के चरणों में बैठकर व शीश नवाकर मैं अपने आपको परम सौभाग्यशाली समझता हूँ तथा उनके सतीपरिवार, शिष्या-परिवार में बैठकर ऐसा लगता है जैसे किसी तीर्थस्थान पर बैठे हैं और पूर्ण शान्ति प्राप्त होती है।
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'अर्चना' की अर्चना | १९७
आज दिनांक १५-५-८७ को महासतीजी तथा उनके सतीपरिवार, शिष्यापरिवार ने विहार प्रारम्भ किया है। स्टेशन रोड स्थित उपयुक्त स्थान पर आप विराजमान हैं। मेरे साथ हमारी जाति के गणेशीलालजी कपूर पाए हैं। वे अस्वस्थ हैं । महासतीजी के दर्शन करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे। उन्हें महासतीजी के दर्शनलाभ हुए हैं। साथ में उनके दो पुत्र भी हैं। महाराज साहब से मांगलिक सुनकर जा रहे हैं । मैंने उनसे पूछा, आपको महाराज साहब के दर्शन करके कैसा अनुभव हुआ । उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं है। वे बहुत ही प्रसन्न होकर घर जा रहे हैं । उनके हृदय में अपूर्व विश्वास जागा है। प्रसन्नता की लहरों में डूब कर जा रहे है । ऐसा क्यों? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि परम आदरणीया, परमपूज्या महासतीजी उमरावकंवरजी ने अपने जीवन को तप, साधना, संयम एवं ध्यान में व्यतीत किया है, जिसका अपना असाधारण प्रभाव है । ऐसे गुरुजनों के प्रति मैं नत मस्तक हूं। उनके चरणों में यह हृदय लगा रहे, एक बार पुनः महासतीजी के चरणों में नत-मस्तक होते हुए यही ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ।
तपस्विनी साध्वी केवल जैन समाज की ही धरोहर नहीं हैं, जैनेतर भी उनके प्रभाव की उजली चादर ओढ़ जीवन की विषमताओं से मैत्री कर लेते हैं.
वह मानवमात्र की परमनिधि हैं. 'अर्चना' की अर्चना
O खुर्शीद 'अजेय', अमरपुरा (उज्जैन)
"अापका नाराज़ होना उचित है दादा ! मैं वचन का पालन नहीं कर सका।" दैनिक ब्रिगेडियर के प्रधान सम्पादक श्रद्धय श्री रामचन्द्रजी श्रीमाल से आँखें चुराते हुए मैंने उत्तर दिया-इसीलिये मैं आप से नज़रें मिलाकर बात नहीं कर सकता।
"मैंने वहाँ आपकी बहुत प्रतीक्षा की थी।" श्रीमालजी ने एक गहरी दृष्टि मुझ पर डाली।
"दादा, पापका आदेश सर अाँखों पर!'' मैंने लजाते हुए स्पष्ट किया-'आपके आदेश की मैंने कभी अवहेलना नहीं की, किन्तु एक विशेष स्थान पर, विशेष जनसमुदाय में, विशेष विभूतियों के मध्य यों अनायास ही अकेले पहुँचने में बड़ा संकोच होता है। मैं ठीक समय पर पहुँचने के लिये अन्तिम क्षणों तक यह निर्णय नहीं ले सका कि मैं अकेला वहाँ कैसे जाऊँ ।' ___"आप अजीब बात करते हैं !" वह मुस्कराते हुए बोले- वहाँ आपको अवश्य पाना था।
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द्वितीय खण्ड / १९८ "दर असल बात यह है दादा, कि मेरे सर पर टोपी जालीदार, शरीर पर कुर्ता बंगाली और टांगों पर पायजामा भोपाली होने के कारण कहीं मैं वहाँ विद्यमान समस्त अपरिचित दृष्टियों में उपहास का पात्र न बन जाऊँ । यह सोच कर ही एक पग घर-द्वार के बाहर और एक पग घर-द्वार के भीतर रह गया ।"
___ "हर स्थान पर हर समय, हर समुदाय में, प्रत्येक विद्वान से उसके सद्विचारों का लाभ उठाने के लिये किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है, न अपनी दीन-हीनता पर विचार करना चाहिये न वेश-भूषा पर ।" श्रीमालजी गम्भीर हो उठे। “निकट भविष्य में आपको वहाँ चलना है और एक महान् त्यागिनी, तपस्विनी साध्वी के सुदर्शन को तैयार रहना है।"
"तो फिर सुनिये दादा ! अाम चौराहे या सार्वजनिक मंच पर यदि किसी भी प्रकार का आयोजन-प्रयोजन होता है तो निःसंकोच किसी भी वर्ग विशेष का, किसी भी धर्म का अनुयायी, अमीर हो या फ़कीर, वह श्रोता या दर्शक के रूप में खड़ा रह सकता है । किन्तु किसी भी धर्म के पवित्र स्थल पर जाने के और बैठने के नियम विशेष होते हैं, और मैं ठहरा फक्कड़राम । मैं क्या जानूं नियम ? मैं चलता कहीं हूँ, पैर उठते कहीं हैं। मैं नरक में बैठता हूँ, विचार स्वर्ग की सैर करते हैं । कान सुनते पूरब की हैं, और आँखें भटकती पश्चिम में हैं। क्या कहूँ कि कितनी चिन्ताएँ कितने रोग पाल रखे हैं मैंने ! ....."हाँ....."पाप मुझे अपने साथ ले चलें तो मैं इसी समय चलने को तैयार हूँ।"
"उनके प्रवचन प्रतिदिन प्रातः ९ बजे से प्रारम्भ होते हैं। कल प्रातः ९ बजे के लगभग मैं स्वयं आपके निवासस्थान पर आपको लेने आ रहा हूँ। आप मेरी प्रतीक्षा करेंगे और कहीं जाएंगे नहीं ।.....श्रीमालजी ने आगे कहा-खुर्शीदजी ! मैंने आपकी उनसे बहुत प्रशंसा की है और वह भी आपसे मिलने को बहुत उत्सुक
श्रीमालजी के उक्त कथन पर मैं अवाक रह गया । मुझे मेरी सासें अपने कण्ठ में उलझती सी प्रतीत हुईं। मैं अपलक उन्हें निहारने लगा। कहाँ मैं एक अनाड़ी कलमकार और कहाँ अर्चनारूपी अवतार ! कहाँ मैं समुद्र-तट पर हिचकोले खाता तिनके के समान और कहाँ अनुभवों का असीमित सिन्धु महान् ! कहाँ मैं जडमति, मतिहीन, कहाँ वह मतिमान ? भारत देश की एक पूजनीय, सम्माननीय, माननीय, प्रातःस्मरणीय, जैनविभूति अर्चनीय अर्चनाजी मुझसे मिलने को उत्सुक हैं। असम्भव-सर्वथा असम्भव ! अविश्वसनीय ! मुझ जैसे गंवार-दुनियादार अनुभवहीन, साधनहीन, अर्ध विक्षिप्त, नश्वर-इच्छामों में लिप्त साधारण व्यक्ति की प्रशंसा में रामचन्द्रजी श्रीमाल ने किन शब्दों या वाक्यों का......"उपयोग किया होगा, जिनसे प्रभावित होकर सांसारिक बन्धनों से विमुक्त, माया-मोह से विमुख तपस्विनी उमरावकुंवरजी अर्चना महाराज ने मुझे बुलाया है ?
मैं सोचने लगा--पिता के समान मुझ पर स्नेह रखने वाले, अनाथ के मस्तक पर वरदहस्त रखने वाले, मेरे हितैषी, मेरे शुभचिन्तक"""श्रीमालजी भावुकतावश
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'अर्चना' की अर्चना | १९९
मुझ साधारणजन के विषय में कुछ तो भी अतिश्योक्तिपूर्ण बोल गये होंगे।....... चलो....."कल सारा भेद खुल जाएगा, दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाएगा। भरम टूट जाएगा कि मैं रसातल में समाया हुअा एक अदृश्य कण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।
"क्या सोचने लगे?"
मैं चौंक पड़ा । विचारों की शृखला टूट गई । “कुछ नहीं दादा, मैं चलूंगा। कल प्रातः ६ बजे घर रह कर ही मैं आपकी प्रतीक्षा करूंगा।" ___ठीक ९-१५ पर हम दोनों नमकमंडी स्थित जैन-स्थानक धर्मशाला जा पहुँचे । अर्चनाजी का प्रवचन प्रारम्भ हो चुका था । वह उच्च आसन पर विराजमान थीं, अपनी शिष्याओं के मध्य, उपस्थित जन-समुदाय को सम्बोधित कर रही थीं। धर्मशाला के मध्य विशाल सभा कक्ष में धार्मिक प्रवृत्ति के जैन मतावलम्बी तन्मय उनकी अमृत-वाणी का रसपान कर रहे थे। श्रीमालजी ने करबद्ध हो उन्हें अभिवादन किया और मैंने भी उनका अनुसरण किया। श्रीमालजी के निकट ही अन्तिम पंक्ति में बैठते हुए मैंने एक सरसरी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई। मुझे आश्चर्य हुआ कि उज्जैन में जैनधर्म के अनुयायियों के मान से उपस्थिति अधिक नहीं थी। त्याग-अहिंसा का बहता हुआ दरिया स्वयं अवन्तिका नगरी तक पाकर ठहरा हुआ था और तृषित जन सांसारिक माया-जल से अपनी पिपासा शान्त करने हेतु यहाँ-वहाँ भटक रहे थे । मैंने अपने मन-मस्तिष्क को बाह्य वातावरण से खींच कर प्रवचन पर केन्द्रित किया । अाँखें मूदे, गर्दन झुकाए लगभग एक घंटे तक अपने कानों से सुधा-रस पीता रहा । मन का मैल धोता रहा। भाव-विभोर हो रोता रहा । मेरी आत्मा माँ सरस्वती के पद-पंकज की चेरी है ना। बड़ी भावुक है, अन्तस्थल में उतरने वाले मधुर शब्दों के कोमल बाण प्राय: मुझे रुला देते हैं। बरबस ही आंखों से आँसू बहने लगते हैं । कण्ठ रुध जाता है, शरीर कम्पित हो उठता है और हृदय के हरे घावों में मीठी-मीठी पीर जागने लगती है। प्रवचन का विषय था-जैनधर्म क्या कहता है ?
मेरे मन से बार-बार चीख-चीख कर कोई कहने लगा-जैनधर्म वही कहता है, जो मैं कहता हूँ । त्याग, अहिंसा, सत्य, सहयोग, सहानुभूति, शान्ति, दया, प्रेम
और श्रद्धा ही धर्म की मूल हैं। संसार नश्वर है, अनश्वर ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है।
मुझे लगा-मानो मेरे अन्तर की ध्वनि ही, किसी पर्वतीय वादी से टकरा कर प्रतिध्वनित हो रही है। अजेय-वाणी में अर्चना-वाणी और अर्चना-वाणी में अजेय-वाणी समा गई है।
प्रश्न यही है कि वर्तमान युग को क्या हो गया है ? मानव-मानव के रक्त का प्यासा क्यों है ? संसार बारूद के ढेर पर क्यों बैठा है ? हम प्राण दे नहीं सकते तो प्राण लेने का अधिकार कहाँ से मिल गया ? किसने हमें यह अधिकार दिया ? जिस
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द्वितीय खण्ड / २००
प्राणी ने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही । जीवन देने और लेने वाली एक अदृश्य शक्ति है, जिसे हम प्रादिकाल से महसूस कर रहे हैं । जो कभी न कभी अपनी मौत स्वयं मरेगा, हम उसे मारने वाले कौन ? सर्वनाश की लीला हम क्यों रचाएँ ?
मैं अनायास ही गर्दन उठाई। सर्वप्रथम अग्रिम पंक्ति में अर्धनग्नावस्था में कुछ मानव-मूर्तिमाएँ स्तब्ध थीं । मेरे आसपास और पीछे भी कुछ प्रौढ़ कुछ युवा प्राणी मूल्यवान वस्त्रों में लिपटे यदा कदा खांस खंखार रहे थे ।
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मेरे कानों में व्यंग-बाण मारता हुआ एक पवन झकोरा प्राकर निकल गयामनुष्य नग्नावस्था में आया है और नग्नावस्था में ही अन्तिम यात्रा पर जाएगा । नजीर की यह पंक्ति मेरे होठों से फिसल कर हवा में विलीन हो गई - 'सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बनजारा !'
भगवान् महावीर का अनुयायी यदि वैभवशाली है, यदि उसका शरीर सोने-चाँदी के भार से झुका है, यदि वह नोटों के गद्दे पर तिजोरी के तकिये से टेक लगाए बैठा है । यदि वह भोग-विलास में लिप्त है, यदि वह व्यापारी अपने ग्राहक से एक का चार गुना अनुचित लाभ उठाता है, यदि उसके विचारों में खोट है, यदि वह निर्धन, विवश और संकटग्रस्त जन साधारण का रक्त जोंक की भांति चूसता है, तो क्या वह सच्चा जैनी है ?
जैन शब्द जिन से बना है। जिन का अर्थ है इन्द्री । जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजयश्री प्राप्त की है, वही जैनी है । वही जैनधर्म का महान् पथिक है । वही महावीर है जिसने माया-मोह से साहसपूर्ण संघर्ष किया है, जिसने क्षणिक आनन्ददायिनी इच्छाओं को दृढ निश्चय और सम्बल से कुचल दिया हो । जिसने हिंसा परमधर्म की कथनी-करनी का अन्तर समझा हो । हिन्दू या मुसलमान के घर जन्मा नवजात शिशु किसी भी धर्म का अनुयायी नहीं होता । यह तो उसके भविष्य और आचरण पर निर्भर है कि वह क्या बनेगा ?
फिर विचारों की प्रबल धारा में मुझे खींच कर किनारे पर ले आया । के संचालनकर्ता की वाणी मेरे कानों भाई भी यहाँ उपस्थित हैं। मैं उनसे प्रकट करें ।
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तीव्रगति से बहते हुए अकस्मात ही कोई मेरा विचार स्वप्न भग्न हो गया । कार्यक्रम टकराई - हर्ष का विषय है कि खुर्शीद अनुरोध करूँगा कि वे भी अपने विचार
मन्थरगति से धड़कता मेरा मन इतनी तीव्रगति से स्पन्दित हो उठा मानो मुँह के रास्ते या वक्षस्थल चीर कर बाहर आ जाएगा । इस अनायास श्राक्रमण को झेलने की क्षमता में कहाँ से अर्जित कर पाता ? इस तैयारी से मैं प्राया नहीं था । मैं तो श्रोता के रूप में उपस्थित हुआ था । फिर पता नहीं, क्या बोला मैं ? किन्तु जो भी बोला - कम शब्दों में बोला, सीमित बोला, नपा-तुला बोला, कम समय में बोला, जो भी बोला, उसका सार यही था - मैं माँ सरस्वती का मूक साधक हूँ ।
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'अर्चना' को अर्चना / २०१
मुझे बोलना नहीं प्राता । बोलती है मेरी क़लम । मैं बोलता इसलिये नहीं कि मुझे अपने भाषण पर विश्वास नहीं। मुझे विश्वास है कर्म पर । कर्म ही मेरा धर्म है । धर्म कहते हैं कर्त्तव्य को, कर्त्तव्य ही जीवन है । सच्चा सुन्दर जीवन वही है जो कर्तव्य पर अडिग रहे । कर्त्तव्य वही है जो धर्म को निभाए। धर्म से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्रोत्थान होता है। राष्ट्रोत्थान से सम्मान मिलता है और सम्मान ही अमरता प्रदान करता है ।
फिर मैंने वर्तमान ज्वलन्त परिवेश से प्रभावित एक गीत प्रस्तुत किया । कार्यक्रम के समापन पर अर्चनाजी ने रामचन्द्रजी श्रीमाल को मेरी ओर संकेत करते हुए निर्देश दिया - इन्हें ऊपर ले आइये ।
उपस्थित जैन-बन्धुनों से सम्भाषण के पश्चात् मैं अर्चनाजी के विश्रामकक्ष में गया। प्रथम बार मैंने उन्हें मन की आँखों से निहारा- प्रायु लगभग ७२ वर्ष, रंग कुसुमित, रूप आकर्षक । मैं अचम्भित था, इस प्रायु में भी प्रौढ़ता के सम्पूर्ण चिह्न लक्षित नहीं थे । सम्भवत: यह संयमित जीवन का सुपरिणाम है ।
पहली बार हम दोनों की दृष्टि टकराई। उनके मुखमण्डल से प्रस्फुटित तेज को में सहन न कर पाया। मेरी आँखें चौंधिया गईं। बरबस ही मेरी पलकों ने मेरी आँखों को छुपा लिया । केवल इतना ही याद रहा कि मुझे देखते ही उनके होठों पर मृदु मुस्कान नृत्य करने लगी थी और उनका मुख कमल की भांति मुखरित हो उठा था । जैसे एक वियोगिनी माता एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् अपने बिछुड़े पुत्र को देख कर खिल उठती है । साक्षात् वीणावादिनी, हंसवाहिनी, पदमवासिनी के दिव्यदर्शन करके मैं धन्य हो गया । प्रथम बार के सान्निध्य से ही मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि हम दोनों जन्म-जन्म से परस्पर चिर परिचित हैं । जैसे हर जनम में जननी और तनुज का रक्तिम नाता रहा हो ।
"महाराज ! यह ब्रिगेडियर परिवार के ही हैं और मैं तो मानता हूँ कि यह आधुनिक रसखान । ऐसे तो मैं पहले ही इनका परिचय दे चुका हूँ ।"
श्रीमालजी ने उनसे कहा और मैं लाज से पानी-पानी हो गया । मेरी आँखें विश्रामकक्ष के पक्के फर्श में धंस गईं।
बातचीत के दौरान श्रात्मीयता बढ़ती गई। उन्होंने मुझे "अग्नि-पथ" नामक एक उपन्यास सस्नेह प्रदान किया और मैं उन्हें अभिवन्दन कर वहाँ से उठ आया । चार सौ पृष्ठ का वह उपन्यास मैंने अर्धनिशा तक की अवधि में पढ़ डाला | कमला जीजी लिखित कहने को उपन्यास है किन्तु वह तो अर्चनाजी के अतीत के जीवन का चमत्कारी - महत्त्वकारी अग्नि पथ है । केवल समाचार पत्रों में ही उनके प्रवचनों का सारांश पढ़ता रहा था, परन्तु यह तो मुझे अग्नि पथ के चिन्तन-मनन- अध्ययन से ही ज्ञात हुआ कि अर्चनाजी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी और
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द्वितीय खण्ड | २०२ अंग्रेजी भाषा की मर्मज्ञ ज्ञानी-ध्यानी हैं । सरल-तरल-मधुरिम स्वरों की कवियित्री, अदम्य साहसी, अपार आत्मविश्वासी, दृढ निश्चयी तथा सहज प्रकृति की तेजस्विनी, तपस्विनी विदुषी साध्वी हैं। मेरे मन में नींद से बोझल कवि को जैसे किसी ने चुटकी भर ली हो । उनकी निद्रा भंग हो गई, वह अंगड़ाई लेकर जाग उठा । मैं कलम उठा कर काग़ज़ पर झुक गया और उमरावकुंवर "अर्चना" की प्रशंसा में एक कविता का सृजन करने लगा। उनके नाम के हर अक्षर से प्रारम्भ होकर एक पंक्ति काग़ज पर उतरती चली गई
उर उल्कित, उल्लासित करता उद्बोधन, उच्चार । मरुथल में मधुवन मुसकाता, बरसे मेघ-मलार ।। राउर रसना, रसवन्ती, रसवादी-रसल-रसार । वचस्कारिणी, वीतरागिनी, विकसित विमल विचार ।। कुंदन सम, कुलवन्ती, कोमल, कादम्बरी समान । वनिता, वत्सला, वानप्रस्थिनी, विनयशील, विद्वान ।। रत्न दीपिका, रत्न मञ्जरी, रिद्धि-सिद्धि-रविजात ।
आपके आशिष से लाये खर्शीद अजेय प्रभात ।।
भोर की प्रथम किरण के धरती पर उतरने से पूर्व ही मैंने उसे कार्ड पेपर पर संवार-सजा लिया। लगभग १० बजे श्रीमालजी के निवासस्थल पर इस उद्देश्य से कविता लेकर जा पहुँचा कि उनके निर्देशानुसार अर्चनाजी को समर्पित कर सकूँ । परन्तु उनकी अनुपस्थिति में वह कविता उनके परिवार को दे पाया।
फिर तीसरे दिन मुझ पर अप्रत्यक्ष रूप से एक बड़ा भारी जुल्म हुआआदरणीय श्रीमालजी ने स्वयं अकेले जाकर, श्रद्धालुओं के समक्ष प्रवचन के अवसर पर बड़ी तन्मयतापूर्वक वाचन कर उक्त कविता अर्चनाजी को भेंट कर दी।
पता नहीं-मेरी मनोभावनाओं ने क्या प्रभाव डाला कि अर्चनाजी का सम्पूर्ण वात्सल्य, स्नेह मुझ पर न्यौछावर हो गया। फिर बार-बार उनका सन्देश मिलने लगा। मैं भी व्यस्तता को तज कर अनेक बार उनसे मिला। हम निकट से निकटतम होते गये ।
सप्ताह भर बाद ही श्रीमालजी पुनः मुझे उनके दर्शनार्थ ले गये ।....प्रवचन हो रहा था। मेरे आगमन पर अर्चनाजी को अपार प्रसन्नता हुई और वह प्रवचन को अर्द्ध विराम देते हुए बीच में ही बोल उठी-बड़ी खुशी है कि खुर्शीदजी भी आ गये हैं।
जहाँ तक मुझे याद आ रहा है शायद उस दिन का विषय था—“मानव और मानवता" । अर्चनाजी धारा-प्रवाह बोल रही थीं। मेरी ओर निहारते हुए उन्होंने कुरान पाक की आयत का हवाला दिया, हज़रत मोहम्मद सा० के उपदेश सुनाए । फिर एन्जिल का अंश उद्ध त किया। ज़बूर-तौरीत और गीता
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साधना के श्रेष्ठ स्रोत : श्री अर्चनाजी | २०३
की गहराई में जा उतरीं । संसार के पांच पवित्र ग्रन्थों में समा जाना कोई साधारण बात नहीं। इसके पूर्व मैंने कभी किसी नारी को धाराप्रवाह बोलते हुए न सुना था न देखा था। ___मैं सोचने लगा-सरस्वती किसी जाति विशेष की नहीं, अपितु अखिल विश्व की, मानव जाति की है। सरस्वती किसी भाषा विशेष में बंधी हई नहीं हैं। वह तो हर भाषा समझती हैं । उसकी आराधना किसी भी भाषा में की जाए, वह सबकी सुनती हैं, वह सबको यथायोग्य ज्ञान प्रदान करती हैं । उसको पुकारने की शर्त एक ही है-दुनिया को किसी भी भाषा के साथ हृदय की भाषा का मिश्रण अावश्यक है।
उस दिन अर्चनाजी से मेरी अन्तिम भेंट थी। क्योंकि उनका चातुर्मास पूर्ण हो रहा था। उनके इन्दौर की ओर प्रस्थित होने की पूर्व तैयारियाँ विगत कुछ दिनों से हो रही थीं। मैं हृदय से अर्चनाजी की अर्चना करने लगा था और मैंने सोचा भी था कि उन्हें "अलविदा" कहने के लिये नगर के बाहर तक उनके पीछेपीछे जाऊँगा, उनके पद-पंकज में श्रद्धावनत हो जाऊँगा। उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से विदा करूँगा। किन्तु विधाता को यह स्वीकार नहीं था। उनके गमन के अवसर पर मैं एक साहित्यिक आयोजन में भाग लेने पहले ही दूर जा चुका था। (शायद बीना) परन्तु कल्पना के पंखों पर मैं पावन-शीतल सलिला शिप्रा की त्रिवेणी तक उनके साथ था।
साधना के श्रेष्ठ स्रोत : श्री अर्चनाजी
० राजमाता, नोखा (चांदावतां)
मेरे हृदय में सीमातीत खशी है कि हमारे गाँव में दीक्षित परम पूज्य महासती जी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" का श्रद्धालु भक्तों द्वारा वन्दन-अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि जिस समय आपकी दीक्षा हुई आप बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं थे। शरीर की सुन्दरता एवं चंचलता के कारण मन में संशय था कि “यह बाई इस असिधारा व्रत को कैसे निभा सकेगी" मेरे बड़े सुपुत्र ठाकुर फतेहसिंह ने भी आशंका व्यक्त की थी कि इतनी छोटी आयु में तथा परिवार वालों का प्रबल विरोध होते हुए भी कैसे अपने विचारों पर दृढ़ है । जबकि संयम के स्वरूप का तो अभी तक पता ही नहीं है। जिस समय आपकी भागवती दीक्षा हमारे गाँव में सम्पन्न हुई, उस समय हजारों लोगों में अपार उत्साह था । पांच, छ: गाँवों के ठाकुरों ने भी शिकार न करने का संकल्प किया
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द्वितीय खण्ड | २०४ था। किन्तु साथ में कई लोगों के दिल में आपकी संयम-साधना के प्रति सन्देह भी था।
पर आज आपको जब देखते हैं तो श्रद्धा से मन अभिभूत हो उठता है । मेरी अनेकों बार योग तथा साधना के विषय पर चर्चा होती रहती है। गूढ से गूढ योग के विषय को भी आप सरल ढंग से समझा देते हैं। दीक्षा के पश्चात् आपके नोखा में दो चातुर्मास हए। मैंने अपने परिवार के साथ आपकी सेवा का लाभ लिया। आसपास के गाँव जैसे गागूडा, दधवाडा, औलादन, हरसोलाव, संखवास आदि के ठाकुर ठकरानियों पर भी आपका अमिट प्रभाव है और वे जब भी समय मिलता है, पूज्य महासतीजी म. सा० की सेवा में पहुँच जाते हैं । आपके बताये हुये योगमार्ग पर बढते हुए प्रात्मानन्द की प्राप्ति का पूर्ण प्रयास करते हैं।
मेरे गुरुदेव श्री गुलाबदासजी म. सा. जो मारवाड़ के अजैन राजवाड़ों और ठिकानों के राजगुरु थे, वे भी बहुत प्रभावित रहे। वर्तमान में उनके शिष्य श्री पांचारामजी, श्यामजी आदि संत आपकी प्रेरणा से जैन-पद्धति से अपनी साधना करते हैं।
आपके प्रति मैं जितना आभार व्यक्त करूं कम ही है। मैं अपनी तथा अपने ग्रामवासियों की ओर से आपके दीर्घजीवन की मंगलकामना करती हूँ। आप सदेव भगवत प्रेमियों को भक्ति का रहस्य समझाते हुए सन्मागं पर बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करते रहें, ऐसी मेरी हृदय की असीम श्रद्धा के साथ नम्र प्रार्थना है।
कुल उद्धारक : गुरुणीजी
बुद्धसिंह बंब, दादिया
मेरा हृदय हर्ष की उत्ताल तरंगों से तरंगित हो रहा है। क्योंकि मेरे संसार पक्ष के भुवासा काश्मीर-प्रचारिका गुरुणी श्री अर्चनाजी म० की ५०वीं दीक्षा-स्वर्णजयन्ती पर अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है।
वास्तव में अभिनन्दन-वन्दन-अर्चन-उन्हों महान् आत्मानों का होता है, जिनका जीवन सदाचरण में ढला हो। ऐसा ही जीवन पूज्य गुरुणीजी श्री अर्चनाजी म० सा० श्री का है । मैं समय-समय पर सेवा एवं दर्शनों का लाभ लेता रहता हूँ। मुझे देख-देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि कोई दिन खाली जाता होगा, जिस दिन कोई दुखी एवं चिन्ताग्रस्त व्यक्ति प्रापश्री का मंगलपाठ सुनने को एवं दर्शन करने को नहीं आता है । उन लोगों को आपके द्वारा बताये हुए नमोकार
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प्रेरणास्रोत : पूज्या बादीसा० म० सा० / २०५ मंत्र से एवं वीतराग के स्मरण से अचिन्तनीय लाभ होता है। कई बार तो लोग । रोते एवं बिलखते हुए पाते हैं और परम संतुष्ट होकर हँसते हए चले जाते हैं।
मेरे और मेरे परिवार के प्रति पूज्य गुरुणीजी म. सा. श्री की असीम कृपा रही है। हमारे परिवार को हमेशा नैतिकता, प्रामाणिकता एवं अध्यात्म जीवन जीने का सद्बोध प्रापश्री से मिलता रहता है। यही कारण है कि हमारे बच्चे विदेशों में रहते हुए भी सात्त्विक प्रवृत्ति को ग्रहण किये हुए हैं।
कई ज्ञानी-पुरुषों से सुना है, जिस घर में सन्त का जन्म हुआ हो, उस घर की कई पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है। म० सा० श्री के प्रति शुभ-भावना, और दीर्घआयु की मंगल कामना करते हुए चरणों में वन्दन करता हूँ और मैं जन्म-जन्मान्तर प्रापश्री के उपकारों का कृत
प्रेरणास्रोत : पूज्या दादीसा0 म0 सा0
D घोसालाल बंब, बैंकॉक
जीवन एक संग्राम-स्थली है । इसमें सैनिक को कभी जय तो कभी पराजय मिलती ही है । लेकिन आत्म-विश्वासी और साहसी उन दोनों के बीच अपने आप को धैर्य के साथ सुस्थिर रखते हुए भी अपने जीवन को ज्योतिर्मान बनाता है। वह कभी हताश, उदास एवं निराश नहीं होता है। सच्चे अर्थों में यही जीवन का कलाकार होता है।
ऐसा ही जीवन जी रहे हैं-मेरे संसार पक्ष में दादीसा. पूज्या गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" । स्वयं तो जी रहे हैं, किन्तु मुझे भी समयसमय पर उत्साहित एवं प्रेरित करते रहते हैं । मैंने अपने जीवन में अनेक बार संघर्षों का सामना किया है । कई बार आर्थिक संकट से भी गुजरा हूँ। लेकिन पूज्य म० सा० श्री का सद्बोध मिलते रहने से मैं आज परम प्रसन्न एवं सम्पन्न हूँ। मैं भारत में रहूँ, चाहे बाहर विदेशों में, आपके द्वारा बताया हुआ (नित्य नियम) नियमित रूप से करता हूँ। अनेकों बार मैंने ऐसे अकथनीय चमत्कार देखे हैं जिससे मेरी श्रद्धा धर्म के प्रति दिन-प्रतिदिन सुदृढ होती जा रही है । यह सारा श्रेय परमपूज्या गुरुणीजी म० सा० श्री को ही जाता है।
आपकी संयमयात्रा के अर्ध-शताब्दी के स्वर्ण अवसर पर प्रात्मा की अनन्त अास्था के साथ चरण-वन्दन एवं अभिवन्दन ।
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स्वतः श्रद्धा जगी मांगीलाल धर्मावत, उदयपुर
मेरे जीवन में मैंने कभी साधु-सन्तों की संगत नहीं की, धर्म-स्थानक में जाने की मुझे बहुत हिचकिचाहट होती थी। इसका कारण यह बना कि जब मैं छोटा था, तब माताजी के साथ स्थानक गया। मेरे हाथ से वहाँ पर स्याही की दवात उल्टी हो गयी । सन्त ने मुझे बहुत बुरी तरह से डाँटा, तभी से मुझे चिढ़ पड़ गयी । अत: मैंने उसी दिन से स्थानक में जाना छोड दिया। लेकिन सौभाग्य से पू. महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" सं. २०२८ में हमारे उदयपुर पधारे और मेरी छोटी बहिन (सुन्दर) को वैराग्य हुआ जो वर्तमान में सुप्रभाजी हैं, लगभग ४ वर्ष वैराग्यावस्था में रही। मेरे पिता श्री भैरुलालजी सा. का आग्रह था कि दीक्षा उदयपुर में ही हो । लेकिन श्री उमेदकुंवरजी म. सा. के पैर में कक्चर हो जाने के कारण हमारी भावना साकार नहीं हो सकी। दीक्षा का सारा कार्यक्रम हमने उदयपुर किया और एक दिन पूर्व बहिन सुन्दर को महामन्दिर जोधपुर ले गये। उसी दिन मुझे पू. महासतीजी म. सा. के दर्शन हुए और उनकी आत्मीयतापूर्वक बातचीत से बहुत प्रभावित हुआ। अधिक प्रभावित होने का दसरा कारण बहिन म. सा. सुप्रभाजी के भयंकर असाध्य बीमारी में पू. महासतीजी के सहयोग एवं आत्मीय भाव, अग्लानपने से की जाने वाली सेवा एवं अध्ययन की ओर उत्साह बढ़ाना आदि अनेक बातें देखकर मेरे मन की श्रद्धा स्वतः ही जग गयी। तब से नियमित रूप में दर्शनों का लाभ लेता रहता हूँ।
प्रेतबाधा से मुक्ति । श्रीमती दाखाबाई, धर्मपत्नी स्व. बाबूलाल रांका जावरा-चौपाटी (म० प्र०)
[१] जब तक वेदनीय कर्म का अशुभ उदय होता है, जीवन में शुभ संयोग भी नहीं मिल सकता है।
मेरे जीवन की दर्द कहानी भी कुछ इसी प्रकार की है। मेरे विवाह को चालीस वर्ष से भी अधिक समय हो गया । जिस दिन ससुराल आई, उसी दिन से
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प्रेतबाधा से मुक्ति / २०७ मेरे साथ प्रेत-बाधा लगी हुई थी। नाना प्रकार के कष्ट भोगे, जिनको गिना पाना संभव नहीं है । हर समय शरीर टूटना, सिर भारी रहना और मुंह के दाँत भी सब निकलवाने पड़े, जिससे खाना भी सुख से नहीं खा सकती हूँ। प्रायः शरीर में प्रेत का प्रभाव रहता था, परिणामस्वरूप कहीं पर जाना-पाना भी नहीं हो सकता था। किसी भी प्रकार का इलाज करवाने में भी कमी नहीं रखी गई किन्तु लाभ की बजाय हानि ही उठानी पड़ी।
मेरे प्रबल पुण्य के उदय से इस वर्ष पूज्य गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० "अर्चना" का हमारे चौपाटी के स्वाध्याय भवन में पधारना हुआ, उस समय मेरे शरीर में आने वाली प्रेतात्मा ने कहा- "मुझे गुरुणीजी के दर्शन करायो । मैं महाराज श्री की सेवा में पहुंची और वह तत्काल प्रा गई। खूब देर तक महाराज श्री के साथ चर्चा हुई, पूर्व भव के मेरे साथ बैर की बात बताई। सब सुनने के बाद पूज्य गुरुणीजी म. सा० ने उसे समझाया और उससे वचन लेकर विदा किया। मेरे ऊपर जो गुरुणीजी म० ने उपकार किया है, वह मैं और मेरे पारिवारिक-जन जिन्दगी भर नहीं भूलेंगे । ऐसी परोपकारी आत्माओं का इनके नहीं चाहने पर भी श्रद्धालु इनका अभिनन्दन करते हैं। मेरा भी परिवार के साथ वन्दन और अभिनन्दन है।
[२] 0 ठाकुर मदनसिंह, भालखा (राजस्थान) मैं प्रारंभ से वैष्णव धर्मावलम्बी था। मेरी जैनधर्म एवं जैनदर्शन के प्रति अटूट श्रद्धा उत्पन्न होने का कारण मेरा बड़ा पुत्र रणवीरसिंह बना । घटना कुछ इस प्रकार बनी
मेरा पुत्र रणवीरसिंह जो जोधपुर पढ़ाई सम्पन्न करके सर्विस के लिए बम्बई गया हुआ था, वहाँ इसे अच्छी पोस्ट भी मिल गई, किन्तु, पापकर्म का उदय समझिए । बम्बई से पुन: भालखा ग्राम में पाया, हम सभी उसकी प्रतीक्षा में ही थे और प्रसन्नता भी। लेकिन देखते ही देखते हमारी प्रसन्नता भयंकर चिन्ता में बदल गई। क्योंकि आते ही उसने पक्के मकान को हाथों से एक घण्टे में तोड़ गिराया ।
उसके ये हालात देखकर हम ही क्या, पूरे गांव वाले हैरान-परेशान रह गए। फिर क्या ! बड़े से बड़े डाक्टरों से इलाज करवाया, इलाज में हजारों रुपये खर्च कर दिए. लेकिन हालत बिगडती गई। फिर मन्त्रवादियों के द्वार खटखटाये. देवीदेवताओं की मनौती की, सब व्यर्थ ।
दिन-रात कोट के ऊपर घूमना, ट्रेन से तेज दौड़ना आदि तथा मनों दूध पी जाना, घर में बनाया हुआ सभी भोजन अकेले ही खा जाना। किसी मन्त्रवादी से
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द्वितीय खण्ड / २०८
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ताबीज करवाते तो उसे तोड़कर ऐसा उछालता कि चाहे कितनी ही दूरी हो वह सीधा जाकर तालाब में गिरता। इस प्रकार की अनेकानेक विचित्र हरकतों से पूरा परिवार दुःखी था।
एक बार मेरी पुत्री जो संखवास में ब्याही हुई है, उसने कुंवर हरिसिंहजी से चर्चा की, उन्होंने महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का मांगलिक सुनाने को कहा । पर मुझे विश्वास नहीं हुआ तो घर से ठकुरानीजी, हरिसिंहजी और मेरी पुत्री इसे बड़ी मुश्किल से जावरा चतुर्मासार्थ विराजित महासतीजी के दर्शनार्थ ले गये । महासतीजी महाराज ने इसका विकराल रूप देखा। अपने भगवान का नाम लेकर मंगलपाठ सुनाया । सात दिन ये लोग वहाँ रहे । पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्न होकर रणवीर सिंह घर लौटा।
७-८ वर्ष की भयंकर व्याधि से छुटकारा मिला देखकर मेरा मन एवं मस्तिष्क स्वतः ही महाराज के श्रीचरणों में झुक गया और मैं स्वयं पुनः इसे और इसकी माँ को लेकर दर्शनार्थ जावरा पहुँचा । ५-६ दिन सेवा में रहकर हम असीम संतोष और खुशी के साथ अपने गांव लौटे। अब किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं है। मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं जो पूज्य महासतीजी के सम्बन्ध में कहूँ एवं लिख ही सकू।
बस हृदय की शुभ कामना है कि आपकी आयु लम्बी हो और दुःखियों के दुःख निवारण करते रहें।
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पू. महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना'
के स्वानुभव
प्राणपखेरू
मेरी जन्मभूमि दादियां गाँव (किशनगढ़) में, उस समय मेरी उम्र ७-८ वर्ष के करीब की रही होगी । जिस बहिन ने मेरा पालन किया, वह मुझे कन्धे पर लेकर चारों दिशाओं के रास्ते झाडू से बुहारा (साफ) किया करती और उसने मेरी दीर्घार्य होने की शभकामना से एक श्रीनाथजी का चबूतरा भी बनाया, जो आज भी विद्यमान है। हाँ, तो जब मैं बीमार हुई, मामूली सा बुखार ही था । न जाने किसने मेरे मुह से कहलवाया कि "अब इसका अन्त समय बहुत ही नजदीक है।" ऐसा सुनकर वहाँ पर खड़ी औरतें मेरे पर बरस पड़ी। मैं वहाँ से मारे भय के अपने घर की ओर बढ़ी। जैसे ही मैंने उनके घर के बाहर पाँव रखा और उनके प्राणपखेरू उड़ गये । इस सम्बन्ध में भी गाँव में बहुत चर्चा हुई ! इस बच्ची को कौन सी शक्ति सहयोग देती है। गाय माता
__ सात दिन की उम्र में माता का वियोग हो जाने के कारण बड़े पिताजी ने ४-५ गायें मेरे ही निमित्त रखी थीं। एक सफेद गाय का मेरे प्रति मातृवत् स्नेह था। रात भर जिस खटिया पर मैं सोती, उसे उसी के पास बाँधा जाता था। वह रात में प्रायः अपनी जीभ से सहलाया करती थी। मुझे नींद आने पर ही बैठती थी। मुझे दूध पिलाये बिना अपने बछड़े को भी पास में नहीं फटकने देती थी। जब भी मुझे भूख लगती उस गाय का दूध ही पिलाया जाता था। जब तक वह जीवित रही मुझसे कभी दूर न रही। पिता का एक और रूप
एक बार मेरी बडी माताजी ने मुझे कहा-"भोजन का समय हो गया है। अपने पिताजी को बुला लायो।" मेरे पिताजी अखाड़े में ध्यान, व्यायाम, आसन आदि किया करते थे। मैं और मेरी धाई माता की पुत्री कु० दाखबाई, दोनों पिताजी को बुलाने के लिए अखाड़े में पहुँच गईं। बाहर बैठे हुए एक व्यक्ति को मैंने पूछा, 'बाबाजी कहाँ हैं ?' वह अर्धनिद्रावस्था में था। उसने सस्नेह एक बन्द कोठरी की ओर इशारा कर दिया। मैंने कपाट के छोटे से छिद्र से अन्दर झाँका । देखकर मेरा कलेजा दहल गया। ऐसा लगा शरीर का खून ही जम गया है । पिताजी की जगह मैंने नौ फुटे शेर को देखा, जिसकी आँखे हजारों पावर के
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द्वितीय खण्ड | २१०
लटू की तरह जल रही थीं। हम दोनों उल्टे पैरों द्वार की ओर भाग चलीं। घर पहुँचने तक मुझे तेज बुखार हो गया था। थोड़ी देर बाद बेहोशी की हालत हुई। पिताजी घर पर आए तब अपनी भाभी को (बड़ी माताजी) को बहुत डाँटा । कहा,
आपने इसे वहाँ क्यों भेजा । यदि इसकी जगह कोई दूसरा होता तो वहीं पर खत्म हो जाता। इसके बाद मैं अपने पिताजी को बुलाने वहाँ कभी नहीं गई । जब प्राण लौट आए
मेरे जन्म के बाद पिताजी अज्ञात दिशा की ओर चले गये । जब मैं ढ़ाई तीन साल की थी, तो किसी दष्टिदोष के कारण बीमार हो गई। उपचार के बाद भी हालत गिरती ही गई । वह दिन भी आ गया जब मुझे मृत घोषित कर दिया गया। घर के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई । शोक का वातावरण छा गया। उसी समय न जाने कैसे पिताजी घर के पीछे की ओर से छलांग लगाकर ऊपर आ गये और मृतक शरीर को अपने कन्धे पर उठाकर ऊपर से ही कूद गए। उस समय गाँव के बाहर जोगियों की जमात आई हुई थी। जमात का महन्त बहुत ही पहुंचा हुआ साधक था। मुझे उसके पास ले जाया गया। कुछ क्षणों की चर्चा के बाद उसने अपनी धूनी से राख की चिमटी कागज की पुड़िया में कच्चे धागे से मेरे गले में बाँध दी। उसी समय मेरी आँख खुल गई और मुझे उसी पीछे के रास्ते से पुनः लाकर सुला दिया गया। पिताजी किस ओर गए पता नहीं लग सका । वह ताबीज मेरे गले में १२, १३ बरस तक रहा ! यदि एक मिनट भी खोल दिया जाता तो फिर से वही हालत हो जाती। इस घटना को आज भी लोग बढ़ा-चढ़ा कर याद करते हैं । यह रहस्य छ: महीने पहले ही एक साधक ने उजागर किया था, जिससे कभी पहले साक्षात्कार ही नहीं हुआ था। वह साधक हैं, मारवाड़ में सखवास नामक गाँव के ठाकुर मानसिंहजी के कुंवर हरीसिंहजी, जिनकी धर्मध्यान में बहुत रुचि है। नाग
एक बार गर्मी के समय बहुत सारे बाल बच्चे एवं घर वाले छत पर सोए हुए थे। उस समय बहुत बड़ा भयंकर काला नाग मेरे पेट पर रेंगता हुआ बड़ी शान्ति से बिना सताये न जाने कहाँ चला गया। बहुत ढूंढ़ने पर भी नहीं मिला । मेरे सोने का बिस्तरा ऐसा हो गया था जैसे किसी ने पानी में भिगोया हो । यह रहस्य अभी भी बना हुआ है।
एक बार कैबाण्या गाँव प्राते हुए मार्ग में भयानक पानी का प्रवाह आ गया। लोग जिस गाड़ी में बैठे हुए थे, वह गाड़ी बैलों सहित बहने लगी। मेरी आँखें बन्द हो गईं । कुछ भी ध्यान नहीं रहा । पिताजी गाड़ी से नीचे कूद पड़े और बैलोंसहित गाड़ी को खींचकर किनारेकर आए। तब मुझे होश आया । अाँखें खुली तो देखा कि पिताजी के पैर में बहुत बड़ा साँप लिपटा हुआ है । मेरा कलेजा धक से रह गया। देखते-देखते पिताजी ने उसे हाथ से पकड़ कर दूर फेंक दिया। हम नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए कैबाण्या पहुँच गये।
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· देवकृत भविष्यवाणी | २११
जिन्दगी का अनुभव
तब मैं करीबन ७-८ बरस की थी। अपने ननिहाल के गाँव केबाण्या । (नसीराबाद) में एक कुएँ पर चली गई। वहाँ खडी-खडी पानी भरने वालों को देख रही थी। करीबन एक फर्लाग के फासले पर बहुत बड़ा तालाब था । उस समय बड़ी भयंकर आँधी आई । साथ में वर्तुलाकार पवन भी, जिसे मारवाड़ में बतुलिया कहते हैं। उसके बीच में मैं आ गई और मेरे पैर जमीन से ऊपर उठ गये । मैं उस बतुली के साथ ही उड़ चली। वहाँ पर खड़े हुए लोग शोर मचाने लगे, परन्तु मुझे बचा नहीं सके । तालाब से मुश्किल से १-२ हाथ का फासला रहा होगा कि मानो किसी ने मुझे अपनी बाहों में पकड़ लिया और मेरे पैर जमीन पर टिक गये । लोगों ने सन्तोष की साँस ली । सूचना मिलने पर घरवाले वहाँ पहुँच गये । मुझे सुरक्षित देखकर पिताजी ने गले से लगा लिया और उनकी आँखों से हर्ष के आँसू बहने लगे। इस घटना से गाँव में अनेक तरह की चचाय भाइ, जिसमें अज्ञात शक्ति का सहयोग है, यह चर्चा प्रमुख थी।
उसी गाँव में एक बार लड़ते हुए गायों और भैंसों के बीच में से भी सुरक्षित बच गई । जबकि लोग भयभीत होकर इधर उधर भाग चुके थे।
मेरे पिताजी मोतीपुरा नामक गाँव में जो कि ३-४ मील के फासले पर था, दूकान करते थे। दोपहर के समय मुझे पिताजी की बहुत याद आई और मैं रोने लगी। अनायास ही मेरे कदम मोतीपुरा की ओर बढ़ गए। मैं अपने पिताजी के पास कैसे पहुँची, रास्ता कैसे तय किया; यह मुझे ध्यान नहीं। पिताजी ने अकेले आने का कारण पूछा, परन्तु मैं बिल्कुल अनभिज्ञ थी।
देवकृत भविष्यवाणी D साध्वी सुप्रभाकुमारी 'सुधा' एम. ए., पी-एच० डी.
जन-जन की आस्था के आयाम, परम श्रद्ध या पूज्य गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के दादा गुरु, मारवाड़ क्षेत्र के महानतम सन्त, समाजसुधारक स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. सा० ने आठ वर्ष की लघु वय में अपनी पूज्य मातुश्री मगनादेवीजी के साथ संवत् १९४४ वैशाख शुक्ला तृतीया को जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की। आपके पूज्य गुरुदेव का नाम पूज्य श्री फकीरचन्दजी म० सा० था। आगम-शास्त्र की विलक्षण ज्ञाता, अनेक युवाजगत् को अध्यात्म की ओर बढ़ाने की दिशा में प्रेरणाप्रद उपदेश प्रदात्री महासती श्री चौथांजी म० सा० के शुभ-सान्निध्य में आपकी मातुश्री ने दीक्षा-व्रत ग्रहण किया।
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द्वितीय खण्ड / २१२
एक बार ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए महासतीजी श्री चौथांजी म० सा० एवं श्री मगनाजी म. सा. आदि ठाणा का अजमेर के निकट दौराई ग्राम में भव्य आगमन हुआ। अपनी उत्तमोत्तम संयम-साधना के माध्यम से भव्यजनों को आत्मोत्थान की प्रेरणा प्रदान की। दौराई ग्राम हींगड़ों का ग्राम कहलाता है तथा इसी ग्राम में पूज्य गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का सांसारिक ससुराल है । जब इसी गाँव से महासतीजी श्री चौथांजी विहार कर रहे थे, साथ में उनकी सभी शिष्याएं थीं और वे पूर्णरूपेण सूस्वस्थ थीं। जैसे ही पूज्य गुरुवर्या के सांसारिक ससुराल की दुकान के सामने से निकले कि अचानक महासतीजी श्री मगनाजी महाराज का निधन हो गया।
श्री चौथांजी महाराज इस हृदयाघात आकस्मिक दुर्घटना से अत्यन्त दुःखी हुए, उसी वक्त उपस्थित जन-समुदाय के सामने खुले शब्दों में कहा-मैंने आज अपना एक अमूल्य होरा खो दिया।
उन्होंने ये शब्द कहे कि यकायक एक चामत्कारिक घटना हुई–महासतीजी श्री चौथांजी महाराज के भौतिक शरीर में छः पीढ़ी पूर्व के स्वर्गस्थ महासती श्री चम्पाकुंवरजी म. सा० की आत्मा ने प्रवेश किया और उपस्थित व्यथित जनसमुदाय के बीच निश्चयात्मक शब्दों में घोषणा की कि-दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ आपको लग रहा है कि एक अमूल्य हीरा खो दिया, वहीं आपको एक दिव्यरत्न की प्राप्ति होगी। आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि इसी भूमि पर हींगड़ परिवार से आपको एक दिव्यरत्न की प्राप्ति होगी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि महासतीजी श्री चम्पाकुंवरजी म. सा० का देहावसान वि० सं० १९१८ में हुआ था। वे भी अपने समय की महानतम प्रख्यात साधिका रही हैं।
संयम साधना के उत्कृष्ट पथ पर चलने वाले साधक एवं साधिका की हर-पल हर-क्षण देव या देवी सेवा करते हैं । उसी क्रम में महासतीजी श्री चम्पाकुंवरजी महाराज जैसी दिव्यसाधिका के साथ हर समय नाग-देवता सेवा में रहता था।
देव द्वारा की गई भविष्यवाणी कब साकार रूप ले लेगी ? इसी प्रतीक्षा में समय बीतता जा रहा था। समय-समय पर वह दिव्यशक्ति सन्देश देती रही। महासतियों की परम्परा भी साधना, शक्ति से भव्य प्राणियों का पथ आलोकित करती रही । उसी परम्परा में ख्याति प्राप्त महासतीजी श्री चौथांजी महाराज की सुशिष्या श्री सरदारकुंवरजी महाराज का नाम समादरणीय है। जिनको भी देवशक्ति के द्वारा सन्देश मिलता रहता था।
वि० सं० १९९३ कार्तिक सुदी द्वितीया को किशनगढ़ शहर में सभी को आश्चर्यविभोर कर देने वाली एक चामत्कारिक घटना घटित हुई। वही शक्ति अर्थात् श्री चम्पाजी महाराज की आत्मा ने महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी महाराज की भौतिक देह में प्रवेश कर, इस प्रकार भविष्यवाणी की-आज से
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' शत-शत प्रणाम / २१३
ठीक चौदह माह के पश्चात् तुम्हारे घर में सभी प्रकार का आनन्द होगा अर्थात् मृगसिर सुदी द्वितीया को । परिणामस्वरूप पूज्य गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' की बड़ी दीक्षा मृगसिर सुदी द्वितीया को चौदह माह बाद सम्पन्न
वास्तव में यही अमूल्य एवं दिव्यरत्न है जिन्होंने राजस्थान, पंजाब, काश्मीर, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश आदि अनेक प्रान्तों में भ. महावीर के अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया व विचरण किया और ऐसे पूज्य गुरुवर्या परम विदुषी, महिमामयी, अध्यात्मयोगिनी, सौम्यहृदया मालवज्योति श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का जीवन निसन्देह अध्यात्म के पावन मानसरोवर का वह सुषमित, सुरभित शतदल है, जिसके पत्र-पत्र पर सहजानुभूति, योगानुभूति एवं दिव्यानुभूति के प्रेरक लेख उत्कीर्ण हैं।
पूज्य गुरुवर्या अपने संयममय जीवन की अर्ध शताब्दी पूर्ण कर रही हैं । आपका यह पचास वर्षीय दीर्घ साधनामय जीवन अध्यात्मजगत के लिए निश्चय ही एक दिव्य ज्योतिर्मय प्रकाशस्तम्भ है, जो साधक-साधिकाओं को प्रात्मोत्कर्ष की दिशा में सदैव प्रेरित करता रहा है, और करता रहेगा।
शत-शत प्रणाम - डॉ० शालिनी धारीवाल
श्री म. सा. के प्रति अपने मन की भावनाओं को कैसे शब्द दूं-समझ नहीं पाती । स्नेह, ममता की साक्षात् प्रतिमूर्ति और ललाट पर चमकता हुआ प्रोज जिसके समक्ष स्वतः ही शीश नत-विनत हो जाता है। अपार श्रद्धा से ओतप्रोत मन उनके चरणों में शीश नवाकर अपने परम गुरु का आशीर्वाद लेने की प्रेरणा देता है-लगता है उनका वरदहस्त सदैव सिर पर है और यह भावना कष्ट, परेशानी के समय प्रात्मा को बहुत ढाढस बंधाती है, ऐसा लगता है वे हमेशा हमारे आसपास रहते हुए हमारी प्रत्येक गतिविधि को देख रही हैं, राह भटकने पर गलती करने से हमें रोक रही हैं एवम सन्मार्ग की ओर अग्रसर कर रही हैं-वाकई ऐसा हुआ भी है। परेशानी से व्याकुल मन ने जब उन्हें स्मरण किया है, उन्होंने रास्ता दिखाया है और कुछ ऐसा घटनाक्रम होता है कि गलत मार्ग पर चलता व्यक्ति स्वयं ही ठिठक जाता है और अपनी गलती का अहसास करता है और दुबारा वैसी गलती न करने के लिये मन ही मन वचनबद्ध हो जाता है, सुधार का यही सही तरीका भी है । मन पर थोपी हुई, सौगन्ध दिलाई हुई बन्दिशें शायद उतनी सुल
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द्वितीय खण्ड | २१४
भता से नहीं निभ सकतीं जितनी की आत्मजागृति से स्वयं की स्वयं पर लो हुई वचनबद्धता, मन में महाराज सा. को साक्षी जानकर।
कभी भारी हा मन उनकी तस्वीर के सामने या मन में बसी उनकी मूरत के सामने रोकर हल्का हो जाता है मानो मां की गोद मिल गई हो। कभी। उनके चेहरे पर की सदाबहार मुस्कान एक सहपाठिनी सा ऐसा भास देती है कि मन की छोटी से छोटी बात भी उनके समक्ष कह सकने में कुछ हिचकिचाहट नहीं होती।
उनका प्रोजस्वी, परन्तु अत्यधिक सरल भाषा में दिया हुअा व्याख्यान जिसे विभिन्न भाषाओं के गीत, दोहों और कहानियों के पुट से और भी रोचक बना देती हैं, बहुत ही हृदयग्राही होता है और उसे सुनते हुए मन कभी थकता नहीं।
कुछ ऐसी ही मिली जुली भावनाओं की प्रतिमूर्ति हैं श्री म. सा. मेरे लिये।
अन्त में एक बात बता देना आवश्यक समझती हूँ-वो ये कि महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. के प्रति मेरे मन में प्रगाढ़ श्रद्धा का बीज अंकुरित करने का सारा श्रेय जाता है मेरे पति श्री डॉ० राज धारीवाल सा. को जिनकी अन्तरात्मा ने सिर्फ एक गुरु को माना है और वे हैं श्री म. सा., उनके मन में म. सा. के प्रति अटूट विश्वास है, अनन्य श्रद्धा भक्ति है।
मैं श्री म. सा. के मंगल आशीर्वाद की सदैव कामना करती हूँ।
एक श्रावक का आत्मकथ्य, जिसकी जीवन नैया मांगलिक के सहारे चल रही है. मेरे जीवन की पथप्रदर्शिका
- एन० एम० भण्डारी
सर्वप्रथम मैं आदरणीय स्वर्गीय श्री जयमलजी म. सा., स्वर्गीय श्री ब्रजलाल जी म. सा., स्वर्गीय श्री मधुकरजी म. सा. व श्री उमरावकुंवरजी म. सा. को सादर वन्दना अर्ज करता हूँ।
मैं आदरणीय स्वर्गीय श्री मधुकरजी म. सा. का अत्यन्त आभारी हूँ जो मुझे हमेशा कहा करते थे कि “तू बहुत भाग्यशाली है"। मैं श्रादरणीय श्री उमरावकुंवरजी का भी अत्यन्त आभारी हूँ जिनके मांगलिक के सहारे आज मैं जिन्दा हूँ। मुझे जिन्दगी में कुछ भी नहीं मिला है, डैडी मम्मी के होते हुए भी जन्म से लेकर आज तक उनके स्नेह के लिए तरसता रहा हूँ, न ही संकट के समय किसी रिश्तेदार का
Jain Education Aternational
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मेरे जीवन की पथप्रदर्शिका | २१५ सहारा मिला (क्योंकि ये पैसेवालों की दुनिया है), मुझे जिन्दगी में कुछ मिला है तो वह है आदरणीय श्री उमरावकुंवरजी म. सा. का सुमधुर वाणी से परिपूर्ण 'मांगलिक' जिसके सहारे मेरी जीवन रूपी नैया चल रही है।
मुझे ईश्वर ने दो शक्तियाँ प्रदान की हैं, प्रथम मैं व्यक्ति को बहुत जल्दी पहचान जाता हूँ, दूसरी शक्ति है आने वाले समय का पूर्व ही सपने में आभास हो जाता है । आदरणीय श्री गुरुणीजी की बीमारी के बारे में मुझे सपना पाया था, मैंने इस सपने के बारे में डैडी-मम्मी को बताया, वे बोले, सपने तो ऐसे ही आते रहते हैं, सन्त सतियों को कुछ नहीं होगा और उन्होंने ध्यान नहीं दिया। यह सपना सच हुआ और अप्रैल ८५ में गुरुणीजो इन्दौर में हस्पताल में भर्ती हुई।
आदरणीय स्वर्गीय श्री मधुकरजी म. सा. ने सपने में कहा था कि तेरे ऊपर संकट आयेगा, हिम्मत से काम लेना, धर्म तेरी रक्षा करेगा और ३-४ महीने बाद जनवरी ८५ में डैडी गम्भीर रूप से बीमार हो गये, उनको लकवा हो गया। सारी स्मरण-शक्ति चली गई। मेरो मम्मी व मुझको भी नहीं पहचान पाते थे। सब डाक्टरों व रिश्तेदारों ने सारी उम्मीदें छोड दी पर मैं बिल्कुल नहीं घबराया क्योंकि मैं जानता था कि धर्म रक्षा करेगा, आज धर्म व ईश्वर की मेहरवानी से वह खतरे से बाहर हैं, नजदीकी रिश्तेदारों व मिलने जुलने वालों को पहचानते हैं व अपना दैनिक कार्यक्रम भी स्वयं अपने हाथों से कर लेते हैं।
पहली जनवरी ८४ याने नये वर्ष के दिन मैं अादरणीय गुरुणीजी के दर्शनार्थ इन्दौर गया व मांगलिक सुना, मुझे बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि वह '८४' का वर्ष खुशियों से बीता व जिन्दगी की बड़ी-बड़ी तमन्नाएँ पूरी हुईं।
मुझे यह लिखते हुये अति हर्ष हो रहा है कि आदरणीय गुरुणीजी अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण हैं जैसे वाणी में 'मिठास' व 'अपनापन', जैनधर्म का बहुत गहरा ज्ञान, उन्हें जैनसमाज में अत्यन्त कीति प्राप्त है, फिर भी घमण्ड तो छ नहीं पाया है, मैं इसे सौभाग्य व पिछले जन्म में अच्छे कर्मों का फल मानता हूँ कि मुझे ऐसी महान हस्ती का आशीर्वाद प्राप्त है, ऐसी महान हस्ती के सामने भला कौन बार-बार नत-मस्तक नहीं होना चाहेगा?
मेरी "सैन्ट्रल एक्साइज" विभाग में इन्सपेक्टर पद पर नियुक्ति हुई, वहाँ का वातावरण मेरे को अनुकूल नहीं पाया और मैंने ईश्वर का नाम लेकर एक वर्ष कार्य करके १३००/- रु. मासिक की तनख्वाह वाली नौकरी से जुलाई ८६ में त्याग-पत्र दे दिया और आज मैं फिर से बेरोजगार हूँ, लेकिन मुझे जरा भी अफसोस नहीं है। इस बात का सन्तोष है कि मैंने अपना अगला जन्म नहीं बिगाड़ा, पिछले जन्म के बुरे कर्मों को सजा भुगत रहा हूँ।
अन्त में आदरणीय श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म. सा. की दीर्घायु की कामना करते हुए उनके उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करता हूँ। मेरी यही कामना है कि आदरणीय गुरुणीजी का मांगलिक व आशीर्वाद मुझे जीवन भर मिलता रहे।
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लगता था जैसे शरीर से चमड़ी उतर रही है....कष्ट धर्माराधना से दूर हो गया.
रूठी नींद लौट आई । मोहनदेवी छाजेड़, खाचरौद
संघ के सौभाग्य से सन् १९८६ में जब खाचरौद में महासती श्री उमरावकुंवरजी म० सा० के चातुर्मास का हमें लाभ मिला तो खुशी की सीमा न रही। यद्यपि मेरे ससुराल वाले मूर्तिपूजक हैं लेकिन आपके दर्शन कर हमें ऐसा लगा जैसे हम भगवान् महावीर की दिव्यविभूति के निकट आ गये हैं। ___ मैं गत चार वर्षों से कई व्याधियों से परेशान थी, मुझे लगता था मेरे शरीर में लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े मांस को चीरते हुए घूम रहे हैं। नसें तार की तरह खिचती थीं । कानों में भयानक आवाजें आती रहती थीं। जब मैं पूजा करने मन्दिर जाती तो मेरी अद्भुत स्थिति हो जाती । सारे कपड़े शरीर से चिपक जाते, घर पाकर उतारती तो लगता शरीर की चमड़ी उतर रही है। हर समय भयाक्रांत रहती। नींद जैसे आँखों से रूठ गयी थी। मैंने सारी स्थिति जाकर म. सा. को बतायी। आपने मुझे मंगलपाठ सुनाया और इष्टदेव का जाप करने को कहा। मैंने आपकी प्राज्ञा का पालन किया । उस दिन मुझे तीन वर्ष बाद सुख की नींद आयी। मैं म० सा० के बताये अनुसार नियमित रूप से नवकार मन्त्र का जाप करती हूँ। मैं म० सा० श्री के प्रति सादर वन्दन करते हुए उनके दीर्घजीवन की मंगलकामना करती हूँ।
"सन्त हृदय नवनीत समाना कहा कविन पर कहइ न जाना निज परिताप द्रव नवनीता
पर दुख द्रवै सन्त सुपुनीता॥" धर्मामृत का पान किया
श्रीमती सूरज लोढ़ा, नागौर
मेरा यह सौभाग्य है कि नियति ने मुझे पूजनीया गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के सान्निध्य में मुझे बहुत समय व्यतीत करने का अवसर प्रदान
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धर्मामृत का पान किया /२१७
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किया । आपके श्री चरणों में निवास करते हुए मुझे अनेक दिव्य एवं चामत्कारिक अनुभूतियाँ हुईं, जिनमें से कुछेक का उल्लेख करना मैं आवश्यक समझती हूँ।
म. सा. के सं० २००१ के चातुर्मास के प्रेरक दिन थे। मैं नियमित रूप से व्याख्यान सुनती थी । एक दिन म० सा० से बड़ी विनम्रता से कहा कि व्याख्यान सुनने के अतिरिक्त दया भी पाला करो तथा कुछ ज्ञान-ध्यान में भी रुचि लो। उस दिन के बाद मेरी रुचि इस दिशा में धीरे-धीरे बढ़ती गयी। श्रीमती सिंघणजी का हमारे परिवार से वैमनस्य था। अतः जब मैंने दीक्षा अंगीकार करने की भावना प्रस्तुत की तो उन्होंने इसका बहुत विरोध किया और सिंहनी की तरह दहाड़ते हुए कहा कि महाराज को भी देख लूंगी और तुम्हें भी । यह कहते हुए वह स्थान से चली गयीं।
दूसरे दिन मैं स्थानक गयी तो श्री माधवप्रसादजी शास्त्री म. सा. को अध्ययन करा रहे थे। लगभग चार बजे अचानक उड़द, राई और ऐसी ही अन्य वस्तुएँ पर्याप्त मात्रा में म० सा० के ऊपर गिरी और सारे चौक में फैल गयीं। इतने में मेरी काकीजी रोते हुए आए और कहने लगे कि आपने सिंघणजी को क्यों रुष्ट कर दिया? मैं अभी श्रीचन्द अम्बाणी के घर से पापड़ बेल कर पा रही हैं। उनसे सिंघणजी ने कहा है यदि तीन दिन में श्री उमरावकुंवरजी की लाश न निकले तो मेरा नाम सिंघण नहीं है। पूजनीया गुरुणी श्री सरदारकुंवरजी म. सा० दूसरी मंजिल पर थे। उनकी आवाज बहुत जोर से आई । श्री उमरावकुंवरजी म. सा. का कौन क्या बिगाड़ सकता है ? हम लोग यह सुनकर पाषाण प्रतिमाओं की तरह स्थिर हो गये । कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है ? महासती श्री चम्पाकुंबरजी म. सा. का कभी कभी महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा. के शरीर में प्रवेश हो जाता था। तब आधे घण्टे के लिए भूकम्प आने की सी स्थिति हो जाती थी।
इस घटना के दूसरे दिन श्रीमती सिंघणजी का गोद लिया हुआ पुत्र कीमती गहनों की पेटिका लेकर भाग गया और सख्त बीमार हो गया। ऐसा लगा जो खाई वह गुरुणीजी सा. के लिए खोद रही थीं उसमें स्वयं ही गिर पड़ी। आश्चर्य तो तब हुआ इतनी कटुता उगलने के बाद भी गुरुणीजी सा. श्रीमती सिंघण के घर अगले दिन ही मांगलिक सुनाने एवं धोवन पानी लेने पधारे। इसीलिए तो कहा गया है 'सन्त हृदय नवनीत समाना।' इस घटना से मेरी म. सा. के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गयी।
सं. २००२ का चातुर्मास डेह नामक ग्राम में हुआ। मैं चार महीने आपकी सेवा में रहकर आत्मिक सुख पाती रही। मिगसर सदी 3 को पजनीया गरुणी श्री सरदारकुंवरजी म. सा. को संथारा पाया और वह इस लौकिक संसार को छोड़कर चली गयीं। इस घटना से महासती श्री अर्चनाजी को इतना आघात लगा कि वह उन्हें एक पल के लिए भी न भुला पाईं । अभी आपकी आयु लगभग २२ वर्ष की ही
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द्वितीय खण्ड | २१८
थी और बड़ी गुरु बहन श्री झमकू जी म. सा. की वृद्धावस्था थी, ऐसी स्थिति में तीन वर्ष तक म. सा. की सेवा में रही। इस बीच मैंने आपके दिव्यजीवन को बहुत निकट से देखा । आपकी प्रकृति की एक-एक लहर अलौकिक है, जिसे शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता । मेरी भावना आपसे दीक्षा लेने की थी लेकिन इस जन्म में यह सौभाग्य मझे प्राप्त न हो सका। मेरी यही कामना है कि अगले जन्म में मैं संयम लेकर आत्मसाधना के मार्ग पर चलूं । संयम मार्ग पर सदैव आगे बढ़ने वाली गुरुवर्या युग-युगों तक ज्ञान की प्यासी जीवात्मा को धर्मामृत पिलाती रहें, यही मेरी कामना है।
किश्ती को किनारा
0 नवरतनमल चौरड़िया
मेरा पूरा परिवार (शासनसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म० सा० एवं युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. सा. तथा) गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० 'अर्चना' के प्रति सदैव श्रद्धावनत रहा है । श्रद्धया गुरुणीजी श्री अर्चनाजी म० सा० के महानतम गुणों के विषय में पूज्य माताजी से समय-समय पर सुनने को मिलता है कि आपके नाम से अनेक चमत्कार होते हैं। यह बात मेरे स्वयं के अनुभव से भी पुष्ट हो जाती है।
एक बार मैं दुकान में बैठा था। अचानक तीन चार आदमी छापा लगाने वाले आ धमके । (मैंने बहुत-बहुत कोशिश की कागजातों को छिपाने की), मगर मैं उन्हें छिपा नहीं सका और वे पकड़े गये। कोर्ट केस बन गया था। कोर्ट भी साधारण नहीं था, सीधा सुप्रीम कोर्ट में केस पहुँच गया । सुप्रीम कोर्ट में केस को जीत पाना मेरे लिए असम्भव था । आठ दिन के बाद तारीख थी। मैंने छः दिन तो खुब दौड़-भाग करके मन्त्रियों एवं बड़े-बड़े प्रतिष्ठित व्यक्तियों से सम्पर्क साधा, लेकिन किसी का प्रयास इसमें सफल नहीं हो सका । इसी चिन्ता में निमग्न होकर मैं बैठा था, कि इतने में मेरे माताजी एवं बड़ी बहिन ने आकर कहा, नवरतन ! तुम एक बार प्लेन से उज्जैन जाकर गुरुणी सा० (अर्चनाजी म. सा०) की मांगलिक सुनकर आ जाओ, तुम्हारा काम शत-प्रतिशत हो जायेगा । लेकिन मैंने अपनी विवशता व्यक्त करते हुये कहा कि मैं इस समय नहीं जा सगा क्योंकि दो ही दिन केस के शेष बचे हैं। तब उन्होंने सलाह दी कि यदि तुम अभी नहीं जा सकते हो तो केवल बोलवा ही कर दो कि “यदि काम निपट जायेगा तो मैं अर्चनाजी म० सा० की मांगलिक सुनने जरूर उज्जैन जाऊँगा।" यह बात मेरे
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तप का तेज निखरा /२१९
जच गयी और मैंने कहे अनुसार शुद्ध मन से बोलवा को। पाठकगण ! आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ज्योंही मैंने बोलवा की, उसी समय फोन द्वारा मालूम हुआ कि यह केस निरस्त कर दिया गया है । मामला सहज ही निपट गया। मुझे पूर्ण विश्वास हो गया था कि यह सब चमत्कार म० सा० श्री के नाम का ही है और मैंने उसी क्षण बैठकर गुरुणीजी म. सा० की माला फेरी और उसी दिन शाम की गाडी से मैं उज्जैन के लिये रवाना हो गया। दूसरे दिन मैं उज्जैन पहुँचा । म० सा० श्री के दर्शन किये और मेरे साथ घटित सारी घटना से म० सा० श्री को अवगत कराया, मांगलिक सुनी और मैं पुन: मद्रास लौट आया।
आज भी मुझे श्रद्ध या गुरुणीजी श्री अर्चनाजी म. सा. पर असीम श्रद्धा है जिसे मैं शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकता हूँ। श्रद्धा के फलस्वरूप में प्रति गुरुवार को अखण्ड मौन रखता हूँ क्योंकि म० सा० श्री भी गुरुवार को ही मौन रखते हैं।
मेरे छोटे भाई सुभाष को भी म. सा. श्री के प्रति दृढ़ श्रद्धा है। वह तो कहता है “ मैं जिस दिन म० सा० श्री की माला फेरकर दुकान जाता हूँ तो उस दिन बहुत अच्छी कमाई होती है और कभी किसी दिन कुछ कार्यवश या अन्य कारणों से माला नहीं फेरता हूँ तो उस दिन तो खाली बैठा-बैठा ही थक जाता हूँ।"
__इस प्रकार श्रद्धया गुरुणीजी श्री अर्चनाजी म. सा. के प्रति एक दो की नहीं वरन् सम्पूर्ण परिवार के सदस्यों की अनन्य आस्था है, मैं अपने परिवार की तरफ से शासनदेव से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप दीर्घायु होकर जिन-शासन की सेवा करते रहें। साथ ही हमारे परिवार पर आपका आशीर्वाद सदैव बना रहे।
तप का तेज निखरा
। निर्मलादेवी झामड
परम पूज्या गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' को निकटता से देखने का सुअवसर मुझे मेरी बहिन हेमलता (जो वर्तमान में आपश्री की ही सुशिष्या साध्वी हेमप्रभा है) की दीक्षा महोत्सव पर प्राप्त हुआ था। मैं उसी समय से आपसे बहुत प्रभावित थी।
___ सन् १९८५ का चातुर्मास आपश्री का उज्जैन था । आप काफी अस्वस्थ होते हुए भी मनोबल की दृढ़ता से इन्दौर से उज्जैन पधारे। विहारयात्रा में साथ रहने का मुझे यह सुन्दर अवसर प्राप्त हुआ था। आषाढ सुद तीज का म० सा० श्री का नगर में मंगल प्रवेश था । उस विशाल जुलूस में भाग लेने का भी सौभाग्य प्राप्त हो गया था।
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"द्वितीय खण्ड | २२० मुझे तपस्या करने का बहुत शौक था और इच्छा भी यही रहती थी कि मैं लम्बी-लम्बी तपस्या करूं । लेकिन उपवास, बेले के दिन ही स्वास्थ्य बिगड़ जाता था और मुझे तीसरे दिन नहीं चाहते हुए भी पारणा करना ही पड़ता था। इस बार जब हम म० सा० श्री की सेवा से पुन: मद्रास लौट रहे थे, तब मैंने मन में विचार किया कि म० सा० श्री मुझे ऐसी मांगलिक फरमावें और शक्ति प्रदान करें कि मैं ११ की तपस्या निर्विघ्न पूर्ण कर सकूँ । म० सा० श्री ने मांगलिक फरमायी और हम मद्रास लौट आये।
चौमासी चवदस को मैंने म० सा० श्री का ध्यान करके उपवास किया, दूसरे दिन बेला, इस प्रकार क्रमशः ११ की तपस्या कर ली।
सभी परिवारजन आश्चर्य करने लगे कि कभी तेला न करने वाले ने ११ कैसे कर लिये ? लेकिन जब मैंने म० सा० श्री के मांगलिक का प्रभाव बताया तो सभी सदस्य प्रसन्नता से फूले नहीं समाये ।।
मेरे पतिदेव भी आपश्री से बहुत प्रभावित हैं। आपश्री का शुभ सान्निध्य पाकर, सदुपदेश सुनकर उनकी प्रकृति में दिन-रात का अन्तर आ गया है । प्रतिवर्ष चाहे कहीं भी क्यों न हों, वे नियमित रूप से म० सा० श्री के दर्शन करते हैं।
विरासत में मिली श्रद्धा
0 दुलीचन्द चोरडिया, मद्रास
परम प्रसन्नता का विषय है कि मुझे पूज्य गुरुणीजी श्री मालवज्योति श्री अर्चनाजी म० की सेवा एवं दर्शनों का लाभ मिलता रहता है, और उनके जीवन सम्बन्धी अनेक विषयों की जानकारी है, उन सबको बता पाना सम्भव नहीं है लेकिन एक आश्चर्यकारी बात मुझे बार-बार याद आती है, मेरा पौत्र अनिलकुमार जिसको म० श्री धन्ना सेठ कह कर पुकारते हैं वह बहुत बार स्वप्न में भी म० श्री का नाम लेकर बोलता रहता है और सुबह उठता है तब कहता है कि आज मुझे मिठाई नहीं खाना, कभी कहता फल नहीं खाना । कभी कुछ तो कभी कुछ छोड़ता रहता है और कहता है कि श्री अर्चनाजी म० ने मुझे नियम दिलवाये हैं।
मुझे पूर्ण सन्तोष है कि हमारे गाँव में दीक्षित पूज्य गुरुणी म० का प्रभाव हमारे पर तो है ही लेकिन हमारे बच्चों पर भी यथावत है।
समादर के साथ मेरी हृदय की मंगल कामना है कि पूज्य म० श्री दीर्घजीवी होकर जन जागृति का सन्देश देते रहें।
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श्रद्धानत सिर । तेजराज चोरडिया, मद्रास
अत्यन्त हर्ष के साथ मैं अपने हृदयगत भावों कोव्यक्त कर रहा हूँ। पूज्य गुरुणी श्री अर्चनाजी की दीक्षा हमारे गाँव नोखा में हुई और वह भी पूज्य पिताजी श्री हीरालालजी चोरडिया की सदमेहनत से । आपकी आज्ञा प्राप्ति में बहत कठिनाई का सामना करना पड़ा । प्रमुख रूप से मेरे पिताजी सहित ११ सदस्यों का शिष्टमण्डल दोराई गाँव (अजमेर) गया और बहुत मुश्किल से दीक्षा के दो दिन पूर्व प्राज्ञा लिखवाई गई। उस समय जनता में बहुत जोरों से चर्चा थी कि यह बाई ६ महीने भी संयम का पालन नहीं कर सकती । कारण कि अवस्थानुसार चंचलता जो थी, पर आज हमें गर्व है कि आपकी चतुर्दिक कीर्ति कमनीय रूप से परिव्याप्त है। __ हम अपने आपको धन्य समझते हुए हृदय की शत शत - शुभ कामनायें इस मंगल उत्सव पर प्रेषित करते हैं।
सुयोग से स्वास्थ्यलाभ
0 कमला देवी नाहर, अजमेर
मुझे हार्दिक प्रसन्नता है, पूज्य गुरुणीजी श्री अर्चनाजी म. सा. के अभिनन्दनग्रंथ में अपने मन के भावों को लिखने का सअवसर मिला। उनकी कृपा से मैंने स्वास्थ्य लाभ किया, वह मेरे लिए जीवन की अपूर्व घटना है । चौदह वर्ष तक मैं बहुत ही भयंकर रोग से परेशान रही, घबराहट और दिमाग की शून्यता, बेभानी और भी अनेक रोगों से ग्रस्त रही, नाना प्रकार के उपचारों से भी कोई लाभ नहीं हुआ।
सन् १९८२ के चातुर्मास का लाभ हमारे अजमेर संघ को मिला। मेरी भवाजी श्री उम्मेदकुंवरजी म. सा० ने पूज्य गुरुणीजी का मांगलिक सुनने के लिए प्रेरणा दी। मैं नियमित रूप से मंगलपाठ सुनती रही, अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ। यह चमत्कार साधनामय जीवन के मंगलपाठ का ही समझना चाहिए। __मैं वीर प्रभु एवं पूज्य जयमलजी म. से मैं प्रार्थना करती हूँ कि महाराज श्री की साधना में शक्ति प्रदान करें, जिससे अनेक श्रद्धालुओं को शान्ति मिले ।
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म झे मेरा सम्बल मिला
0 मिश्रीमल तेली, कुचेरा
मेरा परम सौभाग्य रहा है कि मैं पूज्य गुरुदेव स्वामीजी श्री हजारीमलजी म०, श्री ब्रजलालजी म० एवं युवाचार्य श्री मधुकरजी म० की सेवा में वर्षों तक रहा, उनके स्वर्गवास के बाद में मेरे को बहुत बड़ा सदमा लगा, एक तरह से मैं टूट ही गया था, लेकिन दयामूर्ति महासतीजी श्री अर्चनाजी ने मुझे बड़ी आत्मीयता के साथ कहा घबराने की कोई बात नहीं है जिस प्रकार गुरु म० की सेवा में रहते थे उसी प्रकार हमारे पास रहो। अब मैं महासतीजी की सेवा में हूँ । सेवा के फलस्वरूप मेरे कमर का, घुटनों का, सिर का दर्द भी बिलकुल जाता रहा । मैं हमेशा पूज्य गुरुणीजी की सेवा में रह कर ३-४ सामायिकें व चौविहार करता हूँ। मेरा जीवन इसी तरह शान्ति से बीते और आपकी कृपा बनी रहे।
सोते को जगाये । श्रीमती कंचनदेवी मेहता, मद्रास
मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि परम पूज्या गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० "अर्चना" का अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है। मैं अपने आपको सौभाग्यशालिनी समझती हूँ कि, महान् गुणों के भण्डार यशस्वी तपस्वी पूज्या गुरुणीजी म. सा. श्री के दर्शनों का लाभ मुझे कई बार प्राप्त हुआ। इस बीच मुझे कई अनुभव हुए, जो आप श्री से सम्बन्धित हैं।
सन् १९८४ की बात है। चातुर्मास के समय मेरी तीव्र इच्छा हुई कि मैं कोई बड़ी तपस्या करूँ। लेकिन मेरे शरीर से अस्वस्थ होने के कारण कोई भी परिवारजन मुझे तपस्या करने नहीं दे रहे थे। मेरे दो बड़े पेट के आपरेशन हो चुके थे, जिससे मैं मरते-मरते बची हूँ। इस कारण सभी मेरे तपस्या करने से नाखुश थे।
__ मैं भी अपनी इच्छा के कारण विवश थी। मैंने श्रद्धया गुरुणीजी म. सा. श्री का नाम स्मरण कर जैसे तैसे तेला कर लिया। मैं यह भी नहीं चाहती थी कि मेरी तपस्या के कारण घर, परिवार में किसी प्रकार का क्लेश हो अथवा कोई कलह हो, अतः मैंने तेले के दिन यह निश्चय किया कि दूसरे दिन मुझे पारणा कर
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धर्म आराधना का फल / २२३
लेना चाहिए । लेकिन उसी रोज की मध्यरात्रि में, स्वप्न में मुझे श्रद्ध ेया गुरुणीजी म० सा० श्री के दर्शन हुए, जो हँसते हुए मुझे ९ लाडू भेंट कर रहे हैं और यह कह रहे हैं, "कंचन बाई ! तुम डिगो मत और घबराओ मत। तुम तपस्या में आगे बढ़ो, मैं तुम्हें साथ दूंगी। तुम्हारे शरीर पर इस तपस्या का कोई असर पड़ने वाला नहीं है, तुम्हारी तपस्या सुखपूर्वक पूर्ण होगी ।"
सहसा मैं नींद से चौंक पड़ी और यह दृढ़ निश्चय किया कि मैं कल पारणा नहीं करूँगी, मैं आगे बढूंगी । दूसरे दिन सभी परिवारजनों ने बारी-बारी से पारण करने को कहा, लेकिन मैंने सभी को दृढ़तापूर्वक कहा - मैं आगे तपस्या करूँगी, और उससे मेरे शरीर को भी कुछ बिगड़ने वाला नहीं है । मेरी दृढ़ता के सामने सभी झुक गये और मेरी ९ की तपस्या भी सानन्द सम्पन्न हुई । यह सब प्रभाव पूज्या गुरुणीजी म० सा० श्री का ही है ।
(ii) मेरी बड़ी पुत्री ( पिन्टु ) को बहुत ही छोटी अवस्था में सांस उठने की बीमारी हो गई थी । इस कारण मुझ बहुत चिन्ता थी । एक दिन मुझे सहसा पूज्या गुरुणीजी म० सा० श्री के मांगलिक का चमत्कार स्मरण हो आया । मैं पिन्टु को इन्दौर - ( श्रद्धया गुरुणीजी म० सा० श्री की सेवा में) ले गई और म० सा० श्री का मांगलिक सुनवाया । करीब १५ दिन में उसे सांस की बीमारी से शान्ति मिल गई । इससे उसमें ऐसी श्रद्धा जमी कि अन्य किसी बीमारी होने पर उसे कुछ दवा देने पर वह एकदम मना कर देती है और दृढ़ता से कहती है "मैं गुरुणीजी म० सा० श्री की कृपा से ही ठीक होऊँगी ।"
इस प्रकार श्रापश्री की महिमा का क्या वर्णन किया जाय ? प्रापश्री दया के सागर हैं तथा सरलता, सहिष्णुता एवं करुणा की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं ।
मैं अपने परिवार की तरफ से आपकी दीर्घायु होने के साथ स्वस्थ रहने की मंगल कामना करती हूँ ।
जब त्याग प्रत्याख्यान पूर्वक धर्मसाधना ने पारिवारिक संकट टाल दिया. धर्म आराधना का फल
D कोमल जैन, अजमेर
मैंने वात्सल्य वारिधि, काश्मीर-प्रचारिका श्रद्धया गुरुणीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा० 'अर्चना' का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा है ।
जब १९८२ में लाखन कोटड़ी महावीर भवन में चातुर्मास था, तो हम पतिपत्नी ने अपनी व्यथा सुनाई । व्यथा यह थी कि जो मेरी कपड़े की दूकान थी
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द्वितीय खण्ड | २२४
उसमें रखे हुए प्रत्येक थान में हमेशा हजारों जीव हरे रंग के एवं दो-तीन इन्च के पता नहीं कहाँ से कैसे आ जाते थे ? स्वास्थ्य भी हमारा गिरता जा रहा था । हर तरह से घर में अशान्ति का वातावरण फैला हुआ था। लेकिन म० सा० श्री के बताये अनुसार हमने त्याग-प्रत्याख्यान पूर्वक धर्म-पाराधना की। परिणामस्वरूप महीने के अन्दर-अन्दर सब कुछ ठीक हो गया। हम ताजिन्दगी म. सा० श्री के आभारी रहेंगे और उनके बताये हुये धर्मपथ पर चलते रहेंगे।
मैं शासनदेव से म. सा. श्री की दीर्घायु को मंगल कामना करता हूँ।
जब भगवान पार्श्वनाथ स्तोत्र और महासतीजी के आशीर्वाद से उपद्रव शान्त हो गये.
स्तोत्रपाठ का अतुलनीय प्रभाव
] एम० के० जैन, अजमेर
मैंने पूज्या महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के मदारगेट में प्रथम बार दर्शन किये। साथ ही अपना दु:ख भी बताया कि मेरी पत्नी को रात्रि में बन्द दरवाजे से कोई अज्ञात शक्ति उठाकर ले जाती है और ऐसी जगह डाल देती है जहाँ से ढूंढना हमारे लिये मुश्किल हो जाता है । यहाँ तक कि तिजोरी में से रुपये एवं जेवर भी चले जाते हैं। मेरे पिताजी एवं भाई के दिमाग का सन्तुलन भी बिगड़ा हुआ है। हमारा परिवार अत्यन्त दुःखी एवं परेशान है। म० सा० श्री ने मुझे भगवान् पार्श्वनाथ स्तोत्रपाठ करने के लिये कहा । जो विधि म० सा० श्री ने बताई उसी विधि से मैं करता रहा। थोड़े दिनों के बाद ही वह उपद्रव शान्त हो गया । हमारे मन में धर्म के प्रति अटूट आस्था जम गई। नियम के साथ हमेशा धर्माराधना एवं भगवान् पार्श्वनाथ का जप करता हूँ। साथ में म० सा० श्री का उपकार भी मानता हूँ।
मैं शासनदेव से यही प्रार्थना करता हूँ कि आपका साधनामय जीवन सदैव प्रगति की ओर अग्रसर होता रहे ।
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सन्तों के आशीर्वाद से मन के विकार ही नहीं तन की व्याधियां भी दूर हो जाती हैं. नवकार मन्त्र का फलित
0 विमला जैन, इन्दौर
मुझ निरावलम्ब को सहारा देकर महासतीजी ने जो मेरा उपकार किया उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। मेरे सीने में बड़ी-बड़ी गाँठे हो गई थीं जिनके कारण मुझे असह्य पीड़ा होती थी। इन्दौर, उज्जैन आदि के प्रसिद्ध डाक्टरों और हकीमों से मैंने उपचार कराया लेकिन कोई लाभ नहीं हया। हमने डाक्टरों की राय के अनुसार वेल्लर जाकर आपरेशन कराने का निश्चय कर लिया। वेल्लूर जाने से एक दिन पहले उज्जैन से मेरे पिता श्री बसन्तीलालजी सांवेरवाले मुझसे मिलने के लिए आये और एक बार जानकीनगर चलकर परदुःखकातर महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के दर्शन एवं मांगलिक लाभ लेने का आग्रह किया। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि महासतीजी की अनुकम्पा से मेरी बीमारी ठीक हो जायेगी । महाराज श्री के दर्शन करते ही मुझे सुखद अनुभूति हुई । म० सा० ने मुझे मांगलिक सुनाया तथा नवकार मन्त्र एवं जयमलजी म. सा० का जाप करने के लिए कहा । म० सा० श्री के कथनानुसार मैंने घर आकर जाप किया, उस रात मुझे बहुत दिनों बाद आराम की नींद आयी। मेरी अन्तरात्मा मुझे बार-बार कह रही थी कि महासतीजी की कृपा से अवश्य ही निरोग हो जाऊँगी । मैंने वेल्लर जाने का विचार स्थगित कर दिया। मैं प्रतिदिन जानकीनगर जाकर मांगलिक सुनने और जाप करने लगी। अद्भुत चमत्कार था, कुछ ही दिनों पश्चात् गाँठे ठीक हो गईं । डाक्टरों के लिए यह हैरानी का विषय था । अन्तिम साँसों तक मेरे मनरूपी सागर में गुरुणीजी सा० के प्रति श्रद्धारूपी लहरें तरंगित होती रहेंगी। मैं महासतीजी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना करती हूँ।
नवकार मन्त्र के जाप से दु:ख और रोग के बन्धन कट जाते हैं, एक श्रावक की लेखिनी से
इसी अनुभूत सत्य को अभिव्यक्ति. काटे दुःख के बन्धन
। फतहलाल जैन, जावरा
यह मेरे लिए सौभाग्य का विषय है कि महासती श्री 'अर्चना' जी की साधना के पचास वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में मुझे अपने संस्मरण लिखने का अवसर मिला। मेरी पुत्रवधू श्रीमती कुसुम के सीने में एक बहुत बड़ी गाँठ हो गई थी जिससे हम सभी बहुत परेशान हो गये। डाक्टरों ने केंसर की संभावना भी व्यक्त की थी । अन्तः प्रेरणा से मैं महासती 'अर्चना' जी के सुदर्शनार्थ खाचरौद जा पहुँचा और बीमारी के विषय में उन्हें बता दिया। यह भी कहा कि सम्भवतः आज हास्पिटल में एडमिट
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द्वितीय खण्ड | २२६ कराने के लिए मेरी अनुपस्थिति में ले गये हों । मेरी आँखें नम हो गयी थीं । म० सा० श्री ने आत्मीयता के साथ धैर्य बंधाते हुए कहा, 'विश्वास रखो सब ठीक हो जायेगा।' म० सा० ने नवकार मन्त्र के जाप की जो विधि बताई थी, उसे श्रद्धापूर्वक ध्यान में रखकर मंगलपाठ सुनकर जावरा आ गये। मुझे अट विश्वास था कि निश्चित लाभ होगा । डाक्टर से अनुरोध कर मैंने आपरेशन कुछ दिन के लिए स्थगित करवा दिया। लगभग आठ दिन में ही नवकार मन्त्र के जाप से नारंगी जितनी गाँठ छोटी सी रह गई । इसी अन्तराल में मैं तीन बार म० सा० की सेवा में पहुंच चुका था। आशातीत लाभ होने पर मैं श्रीमती कुसुम को लेकर सपरिवार म० सा० को सेवा में उपस्थित हुआ। श्रीमती कुसुम अब बिल्कुल स्वस्थ हैं । महासतीजी के प्रति मेरा हृदय श्रद्धा से प्राप्लावित है।
यदि नवकार मंत्र की शक्ति के साथ सन्तों का आशीर्वाद भी हो तो असाध्य रोग भी
बिना कष्ट दिए दूर हो जाते हैं. मैंने भी सुना मांगलिक
C. कु. निर्मला सुराणा, अजमेर महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० का नाम लेते ही उनके द्वारा किये गये अनेक उपकारों की स्मृति मन में उभर आती है । मैं उदर की असह्य पीड़ा से ग्रस्त थी । बहुत से डाक्टर, वैद्य और हकीमों से उपचार कराया परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। कई बार अस्पताल में भी दाखिल हुई लेकिन 'मर्ज बढ़ता गया, ज्योंज्यों दवा की' कहावत चरितार्थ हुई। रात्रि में दुःस्वप्न भी घेरे रहते। मेरे पिताजी मझे श्री 'अर्चना' जी म. सा. के पास ले गये। म० सा० ने मुझे नवकार मंत्र का जाप करने के लिए कहा और मांगलिक सुनाया। नवकार मंत्र और मांगलिक की शक्ति से मेरी बीमारी समूल नष्ट हो गयी । मेरी मान्यता है कि पवित्र जीवनपथ पर चलने वाले सन्तों के आशीर्वाद में अनेक उपलब्धियाँ होती हैं। मैं म० सा० श्री के दीर्घ जीवन की मंगलकामना करती हूँ।
अनूठी आभा
- उगमकुंवर मेहता, किशनगढ़ अध्यात्मयोगिनी काश्मीर-प्रचारिका श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० साल के अलौकिक व्यक्तित्व एवं भावप्रवण वाक्शक्ति ने जैन, अजैन सभी को सम्मोहित किया है । किशनगढ़ का तो कण-कण आपके प्रभाव से उपकृत है। सभी लोग विस्मित हो गये जब नगर के मुस्लिम भाइयों और श्री जालिम बाबू स्टेशन मास्टर ने आपके किशनगढ़ चातुर्मास के लिए सत्याग्रह किया। किशनगढ़ में परस्पर
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आँखों देखा सत्य | २२७ मनोमालिन्य के कारण सत्ताईस स्थानक विवाद का विषय बने हुए थे और उनमें ताले लगे हुए थे। इस विवाद को निपटाने का कई प्राचार्यों, उपाध्यायों और मुनियों ने प्रयास किया लेकिन वे सफल नहीं हो सके । महासतीजी सम्वत् २०२५ में चातुर्मास हेतु किशनगढ़ पधारे तो उन्होंने सर्वप्रथम यही उपदेश दिया 'मन के दर्पण पर पड़ी धूल को परस्पर प्रेम तथा सद्भावना से साफ करो।" मैं और श्री धर्मीचन्दजी मोदी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि हमारे मरने के बाद हमारी राख भी उड़कर उन स्थानकों में नहीं जायेगी। महासतीजी जिस मकान में ठहरे थे, वहाँ उनके व्याख्यान सुनने के लिए सभी लोग समस्त भेद-भाव भुलाकर जाते थे । एक दिन व्याख्यान के बाद म० सा० ने दोनों पक्ष के लोगों को बुलाया। उन्होंने पाँच मिनट तक मौन रखकर इष्ट का स्मरण किया और सभी को बहुत प्रेम और सद्भाव से कुछ इस तरह समझाया कि लोगों के हृदय परिवर्तित हो गये। दोनों पक्षों के लोगों ने म० सा० को आश्वासन दिया हम आज से सभी विवाद समाप्त कर समझौता करते हैं। स्थानकों के ताले खोल दिये गये। संघ में खुशी की लहर छा गयी । इस प्रसन्नता में जलसे का आयोजन भी किया गया । उत्साहपूर्वक इस प्रेम मिलन का सारा श्रेय महासती 'अर्चना' जी को ही जाता है जिनके अनूठे प्रभाव के बिना यह कार्य संभव न हो पाता । इसके चार पाँच दिन बाद ही मेरी पत्नी को प्रत्यक्ष रूप से स्वर्गीय महासती श्री सरदारकुंवरजी के दर्शन हए
और उन्होंने कहा 'अभी तो अमरु की बहुत ख्याति होगी।' प्राज म. सा. का यशोगान सुनकर हमारा हृदय खुशी से फूला नहीं समाता । वे सुदीर्घजीवन में धर्म की पताका फहराते रहें, यही हमारी मंगलकामना है।
जो जिनशासन की शरण में आ जाते हैं उन्हें गर्म हवाएँ भी नहीं लगती.
आँखों देखा सत्य
0 शिखरचन्द बाफना, जानकीनगर इन्दौर
श्रमणीरत्न महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० जब जानकीनगर पधारे तो लोगों के हृदय में प्रसन्नता और उत्साह का सागर उमड़ पड़ा।
आपके प्रवचन का एक-एक शब्द श्रोताओं के हृदय में उतर जाता है। प्रवचन के संचालन का कार्य मुझे सौंपा गया था। अापके प्रवचन सनकर लोग ग्रापके निर्देशों को जीवन में चरितार्थ करने का संकल्प कर लेते थे। मैंने पापके चमत्कारपूर्ण व्यक्तित्व के बारे में कई लोगों से सुना था। एक घटना के बाद आपके प्रति मेरे हृदय में श्रद्धा और भी दृढ़ हो गयी। एक बार दाल-मिल में अर्द्ध-रात्रि के समय भयंकर आग लग गयी। मैंने एक दिन पहले डेढ़ लाख रुपये के बारदाने खरीद कर मिल में रखे थे। आग लगने की सूचना पाते ही मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी। मैं जैसे ही मिल की तरफ जाने को तैयार हुआ, मेरी माताजी श्रीमती
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द्वितीय खण्ड / २२८
केलीबाई ने कहा-'घबरानो मत ! महासतीजी श्री अर्चनाजी की कृपा से कोई हानि नहीं होगी, तुम पूज्य जयमलजी म. सा० तथा अर्चनाजी म. सा. का नाम जपते जाओ।' नाम का जाप करते ही मुझे जैसे पंख लग गये और मैं पलक झपकते ही मिल तक जा पहुँचा । मैं यह देखकर हैरान था कि थोड़ी देर पहले जो लपटें हमारे माल की ओर बढ़ रही थी, देखते ही देखते वे विपरीत दिशा में बदल गई। पूरी मिल जलकर राख हो गई, पर मेरा माल ज्यों का त्यों बच गया। मेरे पास गुरुणीजी सा० के प्रति श्रद्धासिक्त भावों को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं हैं।
आपके मांगलिक के प्रभाव से ही मेरे पिता श्री नेमीचन्दजी बाफना और उनके साथ यात्रा कर रहे श्री बादलचन्दजी मेहता कार दुर्घटना से ऐसे बच गये जैसे कोई मौत के मुंह में जाकर लौट आये। जिस दिन वह जानकीनगर से मारवाड़ रवाना हो रहे थे, म० सा० ने कहा था 'क्या आप दो दिन बाद नहीं जा सकते ।' पिताजी ने कहा- 'बादलचन्दजी सा० को बहुत ही आवश्यक कार्य है, अतः जाना जरूरी है । अन्तत: म. सा० का मांगलिक सुनकर व उनके चरणों में वन्दना कर वे रवाना हो गये । लौटते समय कार एक बहत बडे पेड़ से टकरायी और ऊँची उछलकर बहत गहरे खड्ढे में गिर गयी, परन्तु कार में बैठे मेरे पिताजी, श्री बादलचन्दजी और ड्राइवर बच गये । मेरे पिताजी इसका श्रेय गुरुणीजी सा. के मांगलिक को ही देते हैं। उनका कहना है कि पवित्रजीवन व्यतीत करने वाले संतों के आशीर्वाद से विपत्ति टल जाती है। दुर्घटनाग्रस्त कार को देखकर लोग विस्मित थे कि इसमें सफर करने वाले कसे बच गये । हमने जब म० सा० श्री के चरणों में जाकर वन्दना की तो उन्होंने शान्त भाव से इतना ही कहा 'जब अपना उपादान सही होता है तो निमित्त भी अच्छा मिल जाता है।' महाराज श्री का वरदहस्त सदैव हमारे सिर पर बना रहे, यही हमारी मंगलकामना है ।
बंजर चले किसी 4 तड़फते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द, हमारे जिगर में है।
सुना जैसा पाया 0 श्रीमती सुधा जैन, इन्दौर
__ मैं मद्रास से जानकीनगर अपने मायके पायी हुई थी। मैंने सहज रूप में सभी के हृदय में प्रतिष्ठित हो जाने वाले गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के विषय में अनेक लोगों से सुना था। मेरे लड़के की एक आँख की पुतली जिसे काली किकी कहते हैं, वह बिल्कुल दिखाई नहीं देती थी। सिर्फ सफेद कोया ही नजर आता था। मद्रास और इन्दौर के बड़े-बड़े डाक्टरों से इलाज कराया परन्तु कोई लाभ
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बाबजी की कृपा अकथनीय है / २२९
नहीं हुया । मेरे पुत्र को म० सा० ने जब वात्सल्यमय दृष्टि से देखा और कहा 'तुम । ठीक हो जाओगे।' तो मेरी आत्मा से आवाज आई कि वह अवश्य ही ठीक हो । जायेगा । मैं उसे लेकर गुरुणोजी सा० की सेवा में जाती और बच्चे को मांगलिक . सुनवाती । धीरे-धीरे आँख की पुतली यथास्थान आ गई। इसके लिए म० सा० का किन शब्दों से आभार व्यक्त करूं । मैं जीवन भर इनका उपकार नहीं भूल सकूँगी । मैं म. सा. के निर्देशानुसार नित्य नियम माला, ध्यान आदि करती हूँ। पलकें बन्द करते ही उनका दिव्य रूप सामने आ जाता है । सदैव भक्तों के हृदय में रहने वाली महासतीजी के सुदीर्घ जीवन की मैं मनोकामना करती हूँ।
पित-मात सहायक स्वामी सखा बनकर
गुरुणीजी सा० जीवन के कष्ट हरते हैं. बाबजी की कृपा अकथनीय है
0 श्रीमती पदमकुवर, गागुडी
मैं महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा० का बड़ा उपकार मानती हूँ। हमारे गांव में वैष्णव लोगों का पदार्पण होता ही रहता है लेकिन जैन सन्त साध्वी का प्रागमन कभी नहीं हुआ था। अपने ठिकाने में हम लोग श्री सुखरामजी महाराज की वाणी पढ़ा करते हैं, जिन्होंने बिराही गांव में अठारह वर्ष एक ही आसन पर तपस्या की थी। सुखराम बाबजी जिनके प्रभाव से हमें आत्मज्ञान हुआ था उन्होंने ३३००० पदों की रचना की थी, इनके संग्रह को हम वाणी कहते हैं और अब तक वाणी को प्रेस में छपवाने की मनाही है। वाणी के आधार पर अनेक सन्त और गहस्थों को आत्मजागति हई और उनकी समाधि लगने लगी। हमारी वाणी में तीर्थंकरों, महाविदेह क्षेत्र, केवलज्ञान व पाँच ज्ञान आदि का वर्णन आता है। जैनदर्शन से सम्बन्धित अनेक तत्त्व हमारी समझ में नहीं आते थे।
महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म. सा. एक बार हमारे गाँव के बाहर प्याऊ पर रात्रिविश्राम के लिए विराजे । वह कुचेरा से विहार कर मेड़ता पधार रहे थे । गाँव में जब हमको ज्ञात हुआ, सभी ठकुरानियाँ-ठाकुर आदि ट्रक भर म० सा० के दर्शन करने पहुँचे। रात को बारह-एक बजे तक ज्ञान-चर्चा चलती रही और हमारे मन में बडी जिज्ञासा हुई वाणी का अर्थ म० सा० से समझे । हमारी प्राग्रह भरी विनती स्वीकार करके म० सा० श्री हमारे गाँव में पधारे । पूरा गाँव आपके प्रवचनों से बहुत प्रभावित हुआ । हम मेड़ता तक पैदल यात्रा में म० सा० के साथ रहे । जब जब भी समय मिलता, ज्ञान-ध्यान सम्बन्धी चर्चायें चलती रहती थीं।
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द्वितीय खण्ड | २३० हमारे परिवार में पीहर व ससुराल पक्ष में कईयों को ध्यान-समाधि लगती है और अनेक प्रकार के अनुभव भी होते हैं लेकिन मेरी प्रबल इच्छा होते हुए भी कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । एक बार मेरे अन्तर् में ऐसी आवाज आयी कि तुम्हें जो समाधि लगेगी वह पूज्य श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० के द्वारा ही लगेगी। तब से मैं निष्ठा के साथ बराबर बाबजी की सेवा में हाजिर होती रहती हूँ और बाबजी ने भी हमारी विनती स्वीकार करके तीन बार हमारे गाँव में पधारने की कृपा की और उन्होंने जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान हमको अच्छी तरह समझाया । म० सा० श्री की कृपा से इन्दौर के बाद में मेरी ध्यान समाधि अच्छी तरह से लगने लग गई है । मैं पूरी रात एक आसन पर बैठ सकती हूँ। उस अपूर्व प्रानन्द का वर्णन करना सम्भव नहीं है। यह मैं अपना सौभाग्य माने या म० सा० श्री की कृपा, कुछ समझ में नहीं आता; लगता है तराजू के दोनों पलड़े बराबर हैं। हृदय की यह तमन्ना है कि आपका साथ जन्म-जन्म तक मिलता रहे और मैं इसी प्रकार ध्यान समाधि में लगी रहूँ।
मेरे दिवंगत देवरजी श्रीमान् गोविन्दसिंहजी की पाँच-छः साल की बालिका, जिसका नाम पूर्णिमा है, उसको महासतीजी के प्रायः स्वप्न में दर्शन होते रहते हैं
और वह हम लोगों को सब बता देती है। विहार के बारे में कि आज म० सा० ने किधर विहार किया। उनकी तबीयत आदि के सम्बन्ध में भी बराबर बताती है । जब हम पत्र देकर बाबजी से इसके बारे में पूछते हैं सब सही एवं बराबर निकलता है। बालिका की विशेषता है कि वह न किसी के साथ खाना खाती है न ही सोती है, अधिकतर एकान्त में ही रहती है । हम लोगों ने म० सा० से यह प्रतिज्ञा कर ली है कि यह आपके चरणों में दीक्षित होना चाहे तो हम मना नहीं करेंगे ।
बाबजी की कृपा से हमारे गुरु महाराज श्री गुलाबदासजी के कई शिष्य जैसे श्री पाँचारामजी म. सा० आदि सन्त जैनपद्धति से साधना करते हैं। पैरों में जूते नहीं पहनते, पैदल यात्रा करते हैं, किसी स्त्री को स्पर्श नहीं करते हैं, रात्रि को भोजन नहीं करते हैं और भी अनेक जैनधर्म के नियमों का पालन करते हैं। श्री मुक्तिरामजी, श्री मृगारामजी, श्री भक्तिरामजी, श्री हरिनारायणजी और श्री भगवानदासजी आदि की महाराज सा० श्री 'अर्चनाजी' के प्रति अनन्य भक्ति एवं श्रद्धा है । सभी सन्तों की हमारे गाँव के प्रति बड़ी कृपा है। इसी कारण इस गाँव को रामनगरी कहकर पुकारते हैं ।
मैं अपने हृदय की श्रद्धा का शब्दों से वर्णन नहीं कर सकती। हम सभी गागुडी निवासियों की भगवान से प्रार्थना है कि म. सा. 'अर्चना' जी दीर्घायु हों और हमारे जैसे जीवों को सन्मार्ग को ओर प्रवृत्त करते रहें।
O
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पूजनीया महासती श्री उमरावकुवरजी म. सा० के
वर्षावास
वि. सं.
स्थान
वि. सं.
स्थान
१. १९९५
ब्यावर
२.. २०१४
जोधपुर
२. १९९६
डेह
२१. २०१५
जयपुर
३. १९९७
पाली
२२. २०१६
लुधियाना
४. १९९८
कडलु
२३. २०१७
जम्मू
५. १९९९
भंवाल
२४. २०१८
जगाधरी
६. २०००
न्यावर
२५. २०१९
दिल्ली
७. २००१
नागौर
२६. २०२०
महामन्दिर
८. २००२
२७. २०२१
रायपुर (मारवाड़)
९. २००३
खजवाणा
२८. २०२२
ब्यावर
१०. २००४
नोखा (चांदावता)
२९. २०२३
ब्यावर
११. २००५
भंवाल
३०. २०२४
हरमाड़ा
१२. २००६
तिवरी
३१. २०२५
किशनगढ़
१३. २००७
ब्यावर
३२. २०२६
अजमेर
१४. २००८
ब्यावर
३३. २०२७
विजयनगर
१५. २००९
मसूदा
३४. २०२८
नाथद्वारा
१६. २०१०
अजमेर
३५. २०२९
महामन्दिर
१७. २०११
पाली
३६. २०३०
बिलाड़ा
१८. २०१२
व्यावर
३७. २०३१
महामन्दिर
१९. २०१३
व्यावर
३८. २०३२
महामन्दिर
M
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द्वितीय खण्ड / २३२
स्थान
स्थान
वि. सं. ३९. २०३३
बि. सं. ४६. २०४०
नागौर
इन्दौर (महावीर-भवम)
४०. २०३४
दादिया
४७. २०४१
इन्दौर (जानकीनगर)
४१. २०३५
विजयनगर
४८. २०४२
उज्जैन
४२. २०३६
उदयपुर
९४. २०४३
खाचरौद
४३. २०३७
सरदारपुरा (जोधपुर)
५०.
२०४४
जावरा
४४. २०३८
नोखा (चांदावता)
५१. २०४५
उज्जैन
४५. २०३९
अजमेर
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_ired तृतीयखण्डasha
प्रवचन पीयूष
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काटानीर प्रचारिका,मालबज्योति, अध्यात्मयोगिनी प्रवचन शिरोमणी परमविदुषीमहासती श्री उमराव कुंवरजी म.सा. उार्यता".
Greta
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आत्म-निवेदन
[] साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना'
हे जिनेश ! कृपालु भगवन् ! सर्वज्ञ हो अब मैं कहूँ क्या
आप
नाथ अनाथ के, शरण आई आप के ।
ढोये सदा अघ-भार प्रात्मा लवलेश भी सुख पा सकी ना, रही
चार गतियों में फिरी, कर्मों से घिरी ।
बस राग-द्वेष कषाय के वश जाने जाने पाप से मन कर याद सबकी आज मस्तक कैसे पुका
आपको साहस नहीं होता है घोर पश्चात्ताप कर्म प्रतीत में हैं जो आँखें बरसती आज अविरल हृदय के टुकड़े
अकरणीय सदा करा, आज है पूरा भरा । झुक रहा है हे विभो, प्रभो ।
किये,
हुये ।
नाम क्योंकर आपका कर दो क्षमा कैसे औ' दुःख जो दिल में प्रसह
है
पथ का प्रदर्शक आज कोई भी कोई हितैषी भी नहीं मिलता
1
कहूँ,
इसे भी कैसे सहूँ ।
न दिखता है यहाँ, भले जाऊँ कहाँ ।
बाना बदलकर विरुद बाने का नहीं जाना प्रभो, धोखा स्वयं खाया जगत् को भी दिया मैंने अहो । संधान साहस का कभी कर स्मरण करती आपको, कर-बद्ध विनती आपसे मेटो सकल संताप को ।
स्वामी न मुझको प्रीति है जलबिन्दुवत् संसार से, है नहीं मतलब जगत् के सुख और झूठे प्यार से ।
केवल वचन, मन और तन से ही विशुद्ध बनी रहूँ, हो वासना से विरत संयत साम्य भावों को कहूँ ।
समाहिकामे समणे तवस्सी
जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है
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.
अ
ना
च
न
.
तृतीय खण्ड
ले ५२
सम-भाव मेरा जगत के सब प्राणियों पर रह सके, मन वज्र सदृश प्रहार को भी मुदित होकर सह सके । चित्त मेरा हो परे प्रभु प्रार्त, रौद्र कुध्यान से, बस शेष दोनों प्रात्मा में रम सकें तव नाम से। एकमात्र यही अरज इस "अर्चना" की मान लो, तुम पतित पावन मैं पतित उद्धार करना ठान लो। तव नाम से ही पा सकूँ मैं कभी परमानन्द को, जागृत करो वह शक्ति तोड़ दुःखदायी बन्ध को। जन्म-मृत्यु मिटा सर्व बस लक्ष्य मेरा हो यही, तुम हो समर्थ तभी तुम्हीं से करुण गाथा है कही।
.
5 दलबENo.
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(महासती अर्चनाजी के तीन प्रवचन-संग्रहों पर एक विहंगम दृष्टि)
9 डॉ. श्यामकुमार निगम
राजस्थान के स्थानकवासी जैन समाज की श्रेष्ठतम साध्वियों में महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' का एक विशिष्ट स्थान है। भारत की आधुनिक जैन साध्वियों की शीर्षस्थ पंक्ति में सम्मानपूर्वक परिगणित की जा सकने योग्य इस परम विदुषी महासती का अध्ययन अपरिमित एवं चिन्तन प्रगाढ़ है । महान् मनस्वी तपोनिष्ठ गुरुदेव स्व. मुनि श्री हजारीमलजी महाराज की सन्निधि एवं गुरुणी श्री सरदारकुंवरजी महाराज की नेश्राय में आपने जो संयम-संकल्प वि. सं. १९९४ में ग्रहण किया था वह, अनवरत अध्ययन एवं दार्शनिक प्रतिभा का अद्वितीय आधार तथा राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश प्रादि राज्यों की पदयात्राओं एवं वर्षावासों का सुदीर्घ अनुभव पाकर, आज अत्यन्त ही परिपक्व एवं अध्यात्म-पुष्ट होकर, व्यावहारिक अभिव्यक्ति की दिशा में तीव्ररूपेण अग्रसर है। उनकी यह अभिव्यक्ति उनके प्रवचनों के माध्यम से अत्यंत गरिमा, औदार्य, मधुरता, आनुभविकता, विश्लेषकता एवं शैलीगत वैशिष्ट्य जैसे सद्गुणों का सम्बल पाकर एक अद्भुत प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करने एवं मानव-चेतना को ऊर्ध्वमुखी स्तरों की ओर सम्प्रेरित एवं सम्प्रेषित करने में सर्वथा सफलीभूत हुई है। यही 'अर्चना' की सार्थक अर्चना है जो कतिपय बहुमूल्य प्रकाशनों के माध्यम से सुधी एवं सांस्कृतिक जगत् के सामने आई है। उस पर गंभीरतापूर्वक विचार एवं विश्लेषण अावश्यक है, क्योंकि अनेक बार ऐसा अनर्थ भी हना है कि समष्टिगत कल्याण के लिये किया गया सार्वभौम चिन्तन का महाकाश, किसी मत-सम्प्रदाय की दृष्टि से किये गये संकुचित वैचारिक-मंथन का घटाकाश मान लिया जाकर, उपेक्षा या अल्पावधानता का पात्र बन गया है।
महासती उमरावकंवरजी 'अर्चना' के प्रवचनों के तीन संकलनों पर समीक्षात्मक विचार, इस महान् विदुषी की अर्चना के रूप में प्रस्तुत करना, एक प्रात्मप्रेरित सहज प्रतिक्रिया है, उनके इन संकलनों को आद्योपांत पढ़ने के उपरांत ।
समाहिकामे समणे तवस्सी - ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी
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55555555276 Moto
अ र्च ना र्च न
।
आम्रमंजरी - इस प्राकर्षक ग्रन्थ का यह तृतीय संस्करण दिसम्बर, १९६२ ई. में प्रकाशित हुआ था, वैसे प्रथम संस्करण सन् १९६६ ई. में ही सुधीजन के हाथों में पहुँच चुका था । ग्रन्थ के प्रकाशक मुनि श्री हजारीमल स्मृति - प्रकाशन, ब्यावर हैं। वस्तुतः यह इस प्रकाशन संस्थान का प्रथम पुष्प ही है। इन प्रवचनों को, जो महासतीजी के ब्यावर वर्षावास की अवधि में धावक संघ के सम्मुख दिये गये थे, संघ द्वारा लिखित रूप में संकलित तथा श्रीयुत पण्डित प्रवर शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की सुयोग्यतम पुत्री श्रीमती कमला जैन 'जीजी' द्वारा प्रालेखित एवं सम्पादित किया गया 'जीजी' का 'आम्रमंजरी' के बारे में यह कहना कतई अन्यथा नहीं है कि 'पुस्तक पढ़कर पाठकों को स्वयं अनुभव हो जायेगा कि महासतीजी का विभिन्न दर्शनों पर तथा विशेषतः जनदर्शन पर कितना गंभीर अध्ययन है।' ग्रन्थ की अनुक्रमणिका तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग, जिसका शीर्षक है'अध्यात्म एवं साधना', बारह प्रवचनों का पुंज है 'मानव दिशाएँ और बिन्दु' शीर्षक के अंतर्गत दस प्रवचन संकलित हैं, जबकि इतने ही प्रवचन तीसरे भाग 'मनुष्य और समाज' के वर्ण्य विषय हैं । संक्षेप में इन प्रवचनों पर चर्चा समीचीन है । सर्वप्रथम जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं: - ( कोष्ठक में प्रवचन के शीर्षक प्रदत्त हैं ।) किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना के लिये मन की शुद्धि परमावश्यक है। वैसे मन बड़ा चंचल, बलवान् पोर प्रमादी है, किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार उसे अभ्यास एवं वैराग्य से वश में किया जा सकता है। जैनदर्शन भी मन को बिना दवाये बिना यातना दिये बिना तिरस्कृत किये
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पहले भाग को लें
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और बिना उसे स्वतंत्र छोड़े अत्यंत शान्तिपूर्ण व संयत तरीके से बोध देने का निर्देश देता है और इस प्रकार उसे साधना में सहायक बनाता है । ( साधना की धुरी - मन ) । निर्दिष्ट साध्य को प्राप्त करने के लिये साधना करना आवश्यक है किन्तु उसका लक्ष्य जीवन को निर्मल, पवित्र एवं उज्ज्वल बनाना होना चाहिए। इस प्रकार सच्ची साधना अंतर्मुखी होनी चाहिए न कि बहिर्मुखी, वह आत्म-प्रधान हो, न कि देह प्रधान इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर का यह उपदेश ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले ज्ञान और विवेक है फिर आचार और साधना । सम्यक् दर्शन समग्र साधना का मूलाधार होता है । ( साधना का मर्म ) । साधना का एक मात्र लक्ष्य वही है कि वह विषमता से समता की घोर अग्रसर हो इस हेतु साहस, अंत: शक्ति, आत्मविश्वास एवं उदात्त भावना का होना श्रावश्यक है । ( साधना का प्रथम चरण) । योग एक आध्यात्मिक साधना एवं ग्रात्म विकास की प्रक्रिया है। भारतीय संस्कृति योग को अत्यधिक महत्त्व देती है । निवृत्तिप्रधान जैन धर्म में योग का अर्थ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति होता है । प्राचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार योग की पाँच भूमिकाएँ अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, और वृत्तिसंक्षय होती हैं । ( योग-साधना) । मानव को आत्मस्थित होकर विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य की मीमांसा करना चाहिए क्योंकि अन्याय प्रसत्य और कपट
तृतीय खण्ड
,
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अर्चनार्चन
की बुनियाद पर स्थायी शान्ति स्थापित करने का विचार छलना मात्र एवं प्रकल्याणकारी भ्रम ही सिद्ध होगा। (अजेय प्रात्मशक्ति)। आत्मिक बल बढ़ाने के उपाय हैं-अंतर्ज्ञान, इन्द्रिय-निग्रह एवं तपस्या (प्रात्मशक्ति का विकास) ।
इस भाग में मनोव्याधियों और उनके उपचार तथा कषाय विष (खण्ड १ एवं २) पर भी प्रवचन संकलित हैं। इन प्रवचनों में कहा गया है कि शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही स्वास्थ्य प्रावश्यक हैं। मन के भयंकर रोग अस्थिरता, चिन्ता, काम, मूढता या मोहग्रस्तता तथा आत्महीनता होते हैं। इनके शमन के लिये शुभ कार्यों में व्यस्तता, श्रेष्ठ चिन्तन, कुसंग का त्याग, सत्संग, सद्ग्रन्थों का पठन, स्वाध्याय आदि उपचार आवश्यक हैं। इसी प्रकार मनुष्य को अपनी प्रात्मा के हित के लिये पाप बढ़ाने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ के कषायों का त्याग कर देना चाहिए। सदैव यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कषाय हम पर हावी होकर प्रात्मा की ज्योति को आच्छादित करके मन्द न कर दे।
इस भाग के अन्तिम दो प्रवचन 'स्वागत है पर्वराज' तथा 'पुनीत पर्व संवत्सरी' हैं। लोकोत्तर पर्यषण पर्व द्वारा प्रतिपादित आत्मसाधना का मंगलमय सन्देश रेखांकित करते हुए कहा गया है कि सामायिक, पौषध, स्वाध्याय, तपस्या आदि बाह्य क्रियानों को करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्म वस्तुत: प्रात्मा की वस्तु है और उसका जागरण अंदर से होगा । संवत्सरी भी एक ऐसा ही पर्व है जो यह बताता है कि हृदय में सेवा-भावना, दया, क्षमा आदि गुणों का समाहित होना ही सच्ची सामायिक, सच्चा प्रतिक्रमण, सच्ची तपस्या और सच्चा धर्म है।
'आम्रमंजरी' के दूसरे भाग में मानवीय दिशामों के बारे में विचार-बिन्दु प्रस्तुत किये गये हैं। महासती ने इस बात पर जोर दिया है कि संसार के विभिन्न धर्मों एवं मतसम्प्रदायों का लक्ष्य एक ही है-मुक्ति प्राप्त करना अर्थात् समग्र बन्धनों को नष्ट कर सिद्ध बुद्ध हो जाना। हमारा कर्तव्य है कि हम स्वधर्म का पालन करें एवं व्यर्थ के साम्प्रदायिक एवं धार्मिक प्रपंचों एवं संघर्षों से मुक्त होकर सद्विचार और सदाचार को अपने जीवन में उतारें। यह सब बिना श्रद्धा के संभव नहीं है। श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त करता है तथा प्राप्त कर संसार-सागर से पार हो जाता है। सांसारिक त्रिविध तापों से छुटकारा पाने के लिये इसी कारण श्रद्धा, ज्ञान एवं क्रिया आवश्यक है।
भौतिक प्राकर्षणों से मन को दूर करने का एक शक्तिशाली माध्यम भक्ति भी है। भक्ति का अर्थ होता है भाव की विशुद्धि से युक्त प्रेम । सरल तथा सहज रूप से भक्ति करने वालों को ही भगवान मिलते हैं, न कि बाह्य क्रियाएँ करने वालों को। जिस भक्ति में
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अंतरात्मा का स्वर नहीं है, वह भक्ति मात्र दिखावा होती है तथा प्रात्म-कल्याण का साधन कभी नहीं बन सकती।
मानवता एवं मानवीय गुणों की सार्थक चर्चा भी इस भाग में हुई है । वस्तुतः मनुष्य का नाम एवं रूप धारण करना मानवता नहीं है। मानवता, अभेदता, अशोषण, अपरिग्रह, अहिंसा, पारस्परिक विश्वास एवं प्रेम जैसे सदगुणों के व्यावहारिक अात्मसातीकरण में निहित होती है । मानवता एवं महत्ता में अविच्छिन्न संबंध होता है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी होते हैं, यद्यपि मनुष्य के बहिरंग जीवन का मानवता से तथा अंतरंग जीवन का महत्ता से सम्बन्ध होता है। सत्संगति, अहिंसा, दान, परोपकार, मैत्रीभाव आदि मानवता के परिणाम होते हैं जबकि प्रार्थना, भक्ति, ईश्वर-प्रणिधान, अंतर्ज्ञान, प्रात्मशुद्धि, इन्द्रिय-दमन आदि गुण महत्ता के मूल होते हैं।
इस भाग के अन्य लेखों में महासतीजी ने गुरु की महत्ता, वाणी-माधुर्य एवं प्रिय वचनों की सार्थकता, विनम्रता एवं विनय की अर्थवत्ता तथा सच्ची मैत्री के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इन्हें मानव-जीवन के अभ्युदय, साफल्य एवं उदात्तीकरण का व्यावहारिक माध्यम माना है। _ 'पाम्रमंजरी' का तीसरा भाग मनुष्य और समाज के पारस्परिक सहसम्बन्धों पर आधारित है। विभिन्न प्रवचनों में इस बात पर जोर दिया गया है कि अनवरत परिश्रम, सक्रियता, अप्रमाद, सोद्देश्यता, कर्त्तव्यशीलता, सतत उद्योग, सदाचार, सम्यक् विचार आदि सद्गुण, प्रगति-वास्तविक रूप में प्रगति के विभिन्न चरण हैं। दान का प्रभाव असीम होता है । वह आत्मिक गुणों के विकास की पहली भूमिका है। मनुष्य को भोजन, औषधि, शास्त्र और अभय-इन चार प्रकार के दान करते रहना चाहिए क्योंकि यह आत्मा को शान्ति तथा सन्तोष देने वाला है । अर्चनाजी का एक प्रवचन में सन्देश है कि मनुष्य का चरित्र दो प्रकार से भव्य बनता है, प्रथम तो उत्तम विचार से तथा द्वितीय विचारों के अनुरूप आचरण से । ऐसा होने से वह ईमानदार बनेगा तथा उसकी समस्त संदों में प्रामाणिकता बढ़ेगी। यह प्रामाणिकता मनुष्य को उन्नति के शिखर पर ले जाकर उसके जीवन में दिव्यता ला सकती है।
एक अन्य प्रवचन में नारी के महिमामय रूप पर प्रकाश डाला गया है और मनु महाराज की इस बात को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता रमते हैं। वास्तव में नारी साक्षात् प्रेरणा ही होती है। उसने त्याग, प्रेम, उदारता, सहिष्णुता, वीरता, सेवा आदि सद्गुणों से मानव को अभिभूत कर धर्म, शिष्टता एवं संस्कृति की रक्षा की है। इस भाग के अपने अन्य प्रवचनों में महासती अर्चनाजी ने
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अर्चनार्चन
रक्षाबंधन पर्व, मुक्ति-दिवस, ज्ञान तथा कला का महत्त्व, समय व साधनों के सदुपयोग, प्रसन्नता की महिमा तथा मानव-जीवन की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर अत्यंत रोचक, बुद्धि-ग्राह्य एवं प्रेरणीय प्रकाश डाला है।
अर्चना और आलोक : महासती उमरावकुंवरजी 'सिद्धान्ताचार्य' के इक्कीस प्रवचनों का यह संग्रह श्रीमती कमला जैन 'जीजी' के सम्पादन में नवम्बर, सन् १९७० ई. में श्री वर्धमान श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, विजयनगर (अजमेर) द्वारा प्रकाशित किया गया । ये प्रवचन अध्यात्म एवं नीति प्रेरक होने के साथ-साथ जीवनस्पर्शी भी हैं । संकलित सभी प्रवचन अनेक मौलिक उद्भावनाओं एवं अनुभूतियों का प्राकट्य करते हैं। प्रथम प्रवचन 'अन्तर्दृष्टि की दीर्घता' से सम्बन्धित है। इसमें कहा गया है कि आत्मा में सद्गुणों की स्थापना करना ही अनन्त सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करना है । इस कारण मनुष्य को अपनी दृष्टि प्रेय पदार्थों तक ही सीमित न रखकर उसे विवेकपूर्ण रूप से श्रेय-युक्त एवं दूरदर्शी बनाना चाहिए । 'बन्धन के दो रूप' नामक प्रवचन कैदियों के प्रति किया गया एक मार्मिक सम्बोधन है । महासती का निष्कर्ष है कि मनुष्य का पाप या अपराध उसका स्वभाव न होकर उसकी रुग्णता है। उसे दूर करने के लिये घृणा को नहीं अपितु स्नेह की औषधि चाहिए। उन्होंने बन्दियों से अपील की कि कारावास के कष्टों की परवाह न करते हुए अपनी आत्मा को निर्दोष बनावें तथा अपनी शक्ति को पहिचान कर उसे सही दिशा में लगावें । सैनिकों के प्रति महासती का सम्बोधन देश में सजग प्रहरी के रूप में लेखबद्ध किया गया है। देश के बहादुर सैनिकों को महासती का सन्देश है :
"अगर आप अन्याय के विरुद्ध लड़ रहे हैं, अत्याचारी को दण्ड दे रहे हैं, तो भले ही आप युद्धभूमि में क्यों न हों, धर्म का पालन कर रहे हैं। .............."मुझे विश्वास है कि जिस प्रकार प्राप देश के शत्रुओं से देश की रक्षा करेंगे, उसी प्रकार प्रात्मा के शत्रुओं से अपनी आत्मा की भी रक्षा करते हुए मनुष्य-जन्म को सार्थक करेंगे।" 'मति और गति' नामक प्रवचन का सार यह है कि जीवन में कठिनाइयों या विघ्नों से घबराकर रुक जाना या उलझन में फंसे रहकर समय नष्ट करना, पुरुषार्थी का धर्म नहीं है। मार्ग में रुकने का अर्थ है-लक्ष्यभ्रष्ट हो जाना।
योग-साधना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए महासतीजी ने कहा है कि साधना का मूल केन्द्र प्रात्मा है, अतः योग के चिन्तन का मुख्य विषय भी वही है । प्रवचन में उन्होंने महर्षि पतंजलि प्रणीत अष्टांग योग की व्याख्या की तथा कहा कि योग एक ऐसा विज्ञान है जो प्रात्मा के दोषों और दुर्बलताओं को दूर करके उसे परिपूर्णता, मुक्ति तथा प्रात्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।
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अपने एक प्रवचन में महासतीजी ने नास्तिकता को छोड़कर प्रास्तिक बनने और इस माध्यम से नश्वर शरीर से भिन्न, आत्मा के अजरत्व, अमरत्व एवं अनश्वरत्व पर पूर्ण आस्था रखने का सन्देश दिया। अपने एक प्रवचन में उन्होंने प्रश्न उठाया, "साधक कैसा हो?" और स्वयं ही उत्तर देते हुए निष्कर्ष निकाला कि सच्चा साधक श्रेय-मार्ग का पथिक, तथा अात्मस्वरूप की प्राप्ति की उच्चाभिलाषा से युक्त होकर साध्य-प्राप्ति तक अनवरत प्रयास करने वाला होता है। एक अन्य प्रवचन, यह मर्म प्रकट करता है कि मुमुक्षु साधक की साधना में सद्गुरु, सत्साहित्य तथा उसका अपना शरीर सहायक होते हैं। अत: सद्गुरु के प्रति समर्पण, स्वाध्याय एवं सुस्वास्थ्य एक साधक के लिये अपरिहार्य हैं। साधक से जुड़े दो तत्त्व, साधना एवं साध्य होते हैं । सच्ची साधना के लिये साधक में दृढ संकल्प, अध्यवसाय, कर्मफलाशा का त्याग, आस्था एवं दृढ़ विश्वास होना चाहिए। साधक का प्रत्येक कार्य निष्काम होना चाहिए । उसका लक्ष्य समस्त विषय-विकारों का त्याग करते हुए अध्यात्म की चरमावस्था पाने का होना चाहिए । यह साध्य ही स्थायी एवं स्थिर होगा।
अपने अन्य प्रवचनों में महासतीजी ने जीवनदर्शन के विविध आयामों पर गहराई से प्रकाश डाला है। उन्होंने अत्यंत विस्तारपूर्वक बतलाया कि मानवता की सच्ची कसोटी कर्तव्यपालन है। इससे आत्मा में साहस एवं शक्ति की वृद्धि होती है। सद्गुरु, सद्विद्या, स्वविवेक एवं सच्चरित्रता की प्रेरणा एवं सम्बल के पाथेय द्वारा दायित्वपूर्ण रूप से अपने कर्तव्य-पथ को पार करना चाहिए । शुभ कर्त्तव्य ही स्वर्ग के द्वार का अदृश्य कब्जा है। मानव का कर्तव्य है कि वह परिवार, समाज, राष्ट्र एवं मानव जाति के प्रति अपने कर्तव्यबोध से सतत जागरूक रहे । एक अन्य प्रवचन में सहानुभूति की महत्ता पर विशद प्रकाश डालते हुए अर्चनाजी ने स्पष्ट किया है कि जिसके हृदय में करुणा एवं दया का अजस्र स्रोत बहता है, वह सच्चा साधु है और साधुवाद का पात्र है, और रहेगा।
जैन धर्म में स्याद्वाद का स्थान प्रतिपादित करते हुए यह कहा गया है कि अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की आधारशिला है। यद्यपि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद एक ही सिद्धान्त के दो पहल हैं किन्तु अनेकान्तवाद वस्तु-दर्शन की विचारपद्धति है और स्याद्वाद उसकी भाषापद्धति । अनेकान्त दृष्टि को भाषा में उतारना ही स्याद्वाद है, वैसे दोनों शब्दों को साधारणत: एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है।
इस ग्रन्थ में संग्रहीत अपने अन्य प्रवचनों में महासती उमरावकवरजी ने धर्म के प्रति समर्पित रहने के लिये नयी पीढ़ी का आह्वान किया है। उन्होंने मन को आत्मविश्वास से युक्त रखने तथा सशिक्षा ग्रहण हेतु सदैव तत्पर रहने की प्रेरणा दी है । धर्म की विशद एवं तात्त्विक व्याख्या करते हुए उन्होंने धर्मान्धता को अभिशाप माना है। धर्म को उन्होंने अमृत
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एवं रसायन माना है जबकि धर्मान्धता को हालाहल विष । यह भी कहा है कि बंधन दो प्रकार के होते हैं । शरीर को बांधने वाले बंधन प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देते हैं, किन्तु आत्मा को बाँधनेवाले बन्धन अप्रत्यक्ष एवं मनोभावों के रूप में होते हैं। इन्हीं भावनाओं से कर्म-बंधन होते हैं । हृदय की मिथ्यात्व ग्रन्थि के नष्ट होने से आत्मा 'स्व' और 'पर' का रहस्य समझ लेती है और मुक्ति-धाम की अधिकारिणी बन जाती है। वस्तुतः उत्कट भावनाएँ श्रेष्ठ गति की प्राप्ति का कारण होती हैं। वे ही संसारी जीव को लौकिक स्तर से ऊपर उठाकर लोकोत्तर जीवन में प्रविष्ट कराती हैं।
अर्चना के फल : साध्वी उमरावकंवरजी 'अर्चना' के प्रवचनों का यह तीसरा संग्रह श्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' एवं श्रीमती कमला जैन 'जीजी' के सम्पादन में मई, सन् १९७७ ई. में प्रथम बार मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर द्वारा प्रकाशित हुआ। इसकी द्वितीयावृत्ति सन् १९८३ ई. में सामने आयी। ग्रन्थ की अनुक्रमणिका दो भागों में विभक्त है । एक का नाम है 'लोकयात्रा' तथा दूसरे का नाम है 'अन्तर्यात्रा' । प्रत्येक विभाग में ग्यारह प्रवचन संकलित हैं।
प्रत्येक विभाग के कतिपय महत्त्वपूर्ण एवं ध्यानाकर्षक अंश इस प्रकार हैं:
लोकयात्रा
१. जब मनुष्य के हृदय में करुणा, सहानुभूति, क्षमा, दया आदि दिव्यगुणों की लहरें
उठती हैं, तब समझना चाहिए कि उसमें देवत्व का प्रकाश हुआ है। २. जैसा संकल्प होता है, तदनुसार ही मनुष्य बनता है।
३. विचारों का ही मूर्त रूप मनुष्यत्व, देवत्व या पशुत्व है । ' ४. आचार-शुद्धि का सारा दारोमदार विचारशुद्धि पर है । ५. संघर्षों के सामने घुटने न टेककर जिन्होंने अपने चरण आगे बढ़ाये हैं, उन्होंने ही
सफलता के शिखर का स्पर्श किया है । ६. अहिंसा कायरों के हाथों में पड़कर स्वयं निर्बलता का रूप धारण कर लेती है।
जीवन का सबसे बड़ा लक्षण है-गतिशीलता । ८. आत्मविश्वास के साथ निर्धारित लक्ष्य की ओर सतत बढ़ने से सफलता मिलती है। ९. मन को जोतना साधक के लिये परम जय है । १०. जहाँ दृढ विश्वास होता है, वहीं कार्य की सिद्धि होती है ।
समाहिकामे समणे तवस्सी " ओ श्रमण समाधि की कामना करता है. वहीं तपस्वी है।
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तृतीय खण्ड
११. हम जीवनकोष के दुर्लभ और दिव्य रत्नों की पहचान करें और इनमें से प्रत्येक को
समान मूल्यवान् सिद्ध करते हुए आत्मकल्याण के मार्ग पर सफलतापूर्वक
अग्रसर हों। १२. सशिक्षा अथवा सद्विद्या वह साधन है जिससे शरीर, मन एवं प्रात्मा, अथवा जड़
और चेतन का ज्ञान होता है। १३. उत्तम संस्कार चाहे वह छोटा सा भी क्यों न हो, एक दिन उत्तम फल का कारण
होता है। १४. हीनता के मनोभावों से मनुष्य की असीम क्षमताएँ दब जाती हैं। १५. आत्मोन्नति की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति के मार्ग में बाधाओं का पाना स्वाभा
विक है। उत्थान का पथ हास-परिहास का नहीं, बलिदान व उत्सर्ग का होता है। १६. मनुष्य की प्रगति आत्मिक गुणों की वृद्धि करने में है। १७. भोजन का वास्तविक उद्देश्य है, शरीर और साथ ही मन को सबल बनाना । मन
की सफलता से तात्पर्य है-उसे शुद्ध और दोषरहित रखना। १८. भोजन में शुद्धता, पवित्रता, स्वच्छता तथा मुख्य रूप से नियमितता का ध्यान
रखना आवश्यक है। १९. धर्म की शक्ति ही जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। २०. इस दुर्लभ मानव-जीवन में यदि कुछ सत्य है, साध्य है, नित्य है और मंगलमय है
तो वह धर्म ही है। २१. सत्य की प्राज्ञा में खड़ा विवेकी पुरुष मृत्यु को भी जीत लेता है । २२. क्रोध लवणसागर है और प्रेम क्षीरसागर है। २३. क्रोधी के प्रति क्रोध करना क्रोधरूपी राक्षस का बल बढ़ाना है। २४. शान्ति के साथ क्रान्ति भी हो । सौम्यता और शीतलता के साथ तेजस्विता और
प्रतापशालिता भी हो। २५. सामाजिक विषमता को दूर करने पर ही समाज और देश खुशहाल रह सकते हैं। अन्तर्यात्रा १. जीवन के रहस्य को जानने, उसके लक्ष्य को पहिचानने तथा इस दुर्लभ एवं अमूल्य
मानव-जीवन को सार्थक करके सदा के लिये भव-बंधन से मुक्त होने के लिये प्रात्मा को जानना आवश्यक है।
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आत्मा की गति स्वभावतः ही ऊर्ध्वगामी है ।
स्याद्वाद के भव्य स्तम्भ पर जैन-दर्शन का महल खड़ा है ।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षरूपी तरु की छाया के समान हैं ।
सम्यक्त्व के पाँच लक्षण हैं- सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्था | धर्म का मूल सम्यक्त्व है ।
मिथ्यात्व श्रद्धा को नष्ट कर देता है ।
श्रद्धा में असीम शक्ति होती है ।
सत्य के मार्ग को दुष्कर्मी पार नहीं कर सकते
सम्यक्त्व, साधना का मूल आधार । इससे सम्पन्न व्यक्ति ही यथार्थद्रष्टा बनता है और उसमें सत्य की ज्योति जाग जाती है ।
१०. भगवान् महावीर के मुख्य सिद्धान्त तीन हैं—अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह | ११. अहिंसा का पालन करने वाले भव्य जीव ही आत्मा को निष्कलंक रख सकते हैं । १२. स्याद्वाद अनुभवसिद्ध, स्वाभाविक एवं परिपूर्ण सिद्धान्त है ।
१३. जातिमद निराधार है। कुलमद भी कम भयंकर नहीं । ज्ञान का मद भी बड़ों-बड़ों को सताता है । ऐश्वर्य मद-ग्रस्तों की खुशामद मत करो.... इस आठ-फने मद सर्प को छोड़ दीजिए और जीवन को नम्रता और सौजन्य के पथ पर ले जाइये ।
१४. मोह मनुष्य को अंधा बना देता है ।
१५. जड़ के प्रति मोह को तोड़े बिना चैतन्य के १६. सच्ची भक्ति भगवान् को अपने वश में कर
लेती है । वे भक्त का कुल, जाति, धन, पूजापाठ या अन्य क्रियाओं का अम्बार नहीं देखते । देखते हैं केवल प्रेम और हृदय की निष्कपटता ।
१७. मनुष्य को आत्मनिरीक्षण, आत्मशोधन एवं श्रात्मविकास में अपने पुरुषार्थं को लगाना चाहिए ।
१८. अंतरंग क्षेत्र उपेक्षित रहेगा तो बहिरंग क्षेत्र में सच्चे सुख और स्थायी शान्ति की झलक भी नसीब नहीं होगी ।
मोह का त्याग भ्रम है ।
१९. संतों की महत्ता, उनके मानस की विशालता एवं ज्ञान की गूढता का कोई पार नहीं
पा सकता ।
२०. मनुष्य द्वारा पापों का किया जाना उतना बुरा नहीं है जितना बुरा है उनके लिये
पश्चात्ताप न करना ।
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जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है
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२१. प्रात्मा अपने निज स्वभाव से चिदानन्दमय है। वह अनन्त और प्रखण्ड चेतना का
पुंज है तथा अव्याबाध प्रानन्द उसका स्वरूप है।
अर्चनाजी के प्रवचन ऐसे अनेक वाक्यों के भंडार हैं जिन्हें न केवल विविध संदर्भो में उद्धृत किया जा सकता है अपितु जीवन-यात्रा में अपना विश्वास-पाथेय भी बनाया जा सकता है। वाक्यों और पंक्तियों की आश्चर्यजनक प्रभावोत्पादकता की चर्चा करते समय यह भूल जाना निश्चित ही अनर्थ होगा कि उनका प्रत्येक प्रवचन लोकयात्रा एवं अन्तर्यात्रा की मार्मिक अनुभूतियों का गंभीर विश्लेषण तथा एक बहुआयामी समग्र चिन्तन की सुगठित एवं सुविचारित ऐसी परिणति है जो कि उनके व्यक्तित्व की गहरी छाप लिये सहजतापूर्वक अभिव्यक्त हो गई है। उनका कथ्य उस सार्वभौम चिन्तन का परिणाम है जो श्रेष्ठतम साहित्यिक संदर्भो एवं दार्शनिक तत्त्व-विश्लेषण के माध्यम से उन्हें अनुभूत हुआ है। किन्तु उनके प्रवचनों में कहीं भी जटिलता एवं दुरूहता नहीं है। वे अर्चनाजी के मुखारविन्द से इस सहजता से निःसृत हुए हैं कि उन्होंने हर वर्ग एवं हर आयु के श्रोतृगण को मंत्रमुग्ध रहने को बाध्य किया है । विविध भाषाओं के उद्धरणों, विभिन्न धर्मों के मनीषियों की सार्थक उक्तियों, सामयिक दृष्टान्तों एवं लघु गाथाओं के सहयोजन के परिणामस्वरूप प्रवचनों की रोचकता एवं प्रभावोत्पादकता में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि हुई है। यह सुधी-विश्व पर एक प्रकार का अहसान ही हुआ है कि उनके प्रवचनों का प्रकाशन अत्यन्त आकर्षक एवं सुमुद्रित रूप में उदारमना एवं समर्पित जन द्वारा संभव किया गया है। विश्वास है यह क्रम निरंतरता पाता रहेगा। इन्हें लेखबद्ध करने एवं विद्वत्तापूर्वक सम्पादित कर प्रकाशित करने के सारे प्रयास अभिनन्दनीय एवं स्तुत्य हैं।
वैदिक वाङमय, पौराणिक साहित्य, जैन आगमों एवं दर्शन-ग्रन्थों, बौद्ध-सर्जनाओं तथा मध्यकालीन एवं आधुनिक संतों एवं अध्यात्मविदों की कृतियों पर महासती की गंभीर पकड़ है जो उनके इन प्रवचनों के पढ़ने पर स्पष्ट हो जाती है। किन्तु अध्ययन एवं मनन की सारी छाप छोड़ने पर भी वे अपने प्रवचनों में उस मौलिकता एवं आनुभविक गहराई को हर समय अपने साथ रखती हैं जो उनमें प्रतिभा, अध्यवसाय, साधना एवं संयम संकल्प के परिणामस्वरूप उनका अपना 'स्व' बनकर मुखरित हुए हैं।
समीक्षानों में कृतियों के पक्ष-विपक्ष में पर्याप्त कहा जाता है। किन्तु इन प्रकाशनों के माध्यम से क्रमबद्ध हुए प्रवचनों की स्तुति के अतिरिक्त कोई अन्य पक्ष नहीं है।
अपनी इन तीन उल्लेखनीय कृतियों में इस गरिमामयी साध्वी ने जीवन के विविध स्थूल एवं सूक्ष्म अायामों का जो अभ्युदयकारी विवेचन एवं विश्लेषण किया है, उनका पुनरावलोकन करना उनके समूचे कथ्य को संक्षेप में प्रात्मसात करना होगा। उनके द्वारा प्रतिपादित
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जीवन-दर्शन भारत की मूलभूत संस्कृति पर ही नहीं अपितु दिव्यत्व की ओर प्रामुख समग्र मानवीय-चेतना की अनुभूतियों पर भी प्राधत है।
मानवता की भावना का विकास आवश्यक--मनुष्य जीवन की सार्थकता उसमें अंतहित मानवता को चरम परिपाक देने में है। केवल नर-देह धारण करने से वह श्रेष्ठ नहीं हो जाता, इसी देह में वह पशु, देव, दानव आदि भी बन सकता है । मनुष्य की असलियत उसके विचारों से जानी जा सकती है। जैन-शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य प्राचार के क्षेत्र में चाहे एक, दो या तीन जन्म तक पराजित हो जाए, परन्तु विचारों के क्षेत्र में पराजित न हो, यही उसे ऊपर उठाने का सूत्र है। उत्तम विचार ही सम्यक-दर्शन है। इससे नरक भी मुक्ति का द्वार खोलने वाला बनेगा। अतः एक सच्चे मनुष्य बनने और मनुष्य की तरह जीने के लिये विचारों को निम्न स्तर के, क्षुद्र एवं संकीर्ण मत बनने दो।
मानवता की कसौटी है-कर्त्तव्यपालन । जो व्यक्ति अपने कर्तव्य को नहीं पहचानते, वे मानव होते हुए भी पशु से भी बदतर जीवन व्यतीत करते हैं। गुरु, शिष्य, शासक, नागरिक न्यायाधीश, चिकित्सक, माता-पिता, संतति, पति, पत्नी, नियोजक, नियोक्ता सबके अपनेअपने कर्तव्य होते हैं। सच्ची मनुष्यता कर्त्तव्य-पालन में निहित होती है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करता है वह न तो इस लोक में सम्मान का पात्र बन सकता है और न ही परलोक का हित साधन कर सकता है।
मानव में दिव्यत्व : मानव-शरीर एक खजाना है। इसमें निम्नलिखित रत्न भरे पड़े हैं
__ मस्तकरत्न-अपने मस्तिष्क में औरों के अहित की अथवा किसी भी प्रकार के अहंकार की भावना को पनपने न देना ।
मानसरत्न-प्रात्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को जगाने के लिये मानस को शुद्ध, सरल एवं परिष्कृत बनाना एवं उसे बारह मानस-मलों से मुक्त करना ।
आननरत्न-गर्व या अहंकार आदि की भावना से सर्वथा परे रहकर या तो मौन रहना या औरों के गुणों की सराहना करना।
हस्तरत्न-अपने समाज एवं देश के भले के लिये धन का सहर्ष त्याग करना ।
चरणरत्न-पात्मगुणों को कायम रखते हुए प्रतिपल परोपकार के लिये तत्पर रहना तथा संकटग्रस्त प्राणियों की पुकार सुनते ही अविलम्ब दौड़ पड़ना ।
प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन-कोष के इन दुर्लभ एवं दिव्य रत्नों की पहिचान करे और इनमें से प्रत्येक को समान मूल्यवान् साबित करते हुए प्रात्मकल्याण के मार्ग पर सफलतापूर्वक अग्रसर हो ।
समाहिकामे समणे तवस्सी * जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्या है।
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मानव के सर्वांगीण विकास के साधन : मानव-विकास के अनेक स्रोत हैं। उनमें एक है साहस । मनुष्य को उच्च आदर्शों के लिये संघर्ष करते समय विष को अमृत मानकर जझना है । जीवन में सफलता पाने के लिये आत्महीनता का त्याग आवश्यक है। जहाँ दृढ विश्वास होता है, वहीं कार्य की सिद्धि होती है। उचित शिक्षा-दीक्षा भी मानव-विकास का एक अपरिहार्य सोपान है। इनसे मनुष्य के आत्मिक एवं भौतिक आयामों को पूर्णता प्राप्त होती है तथा सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों ही दिशाओं में उसका सर्वांगीण विकास संभव होता है। मुखा ज्ञान सच्ची विद्या नहीं है; उसका आचरण में उतरना और क्रियाशील होना ही मानव को पूर्णता की दिशा में ले जाता है ।
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वस्तुतः सफलता मनुष्य के सत्प्रयत्न एवं सत्संकल्प में निहित होती है। इस कारण दृढ़-संकल्प एवं अदम्य उत्साह से सावधानीपूर्वक कदम उठाया जाना चाहिए। कोई भी प्रगति तभी प्रशंसनीय होती है, जबकि वह औचित्य लिये हुए हो तथा उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित हो; वैज्ञानिक प्रगति वास्तविक प्रगति नहीं है और न ही भौतिक शक्ति या सत्ता का विस्तार । इस कारण आलस्य, धर्मान्धता, कामुकता, स्वार्थपरकता, भय, संशय, अनस्थिरता, आदि विकारों का त्याग कर मानव बनने और मानवता के प्रति कर्मठतापूर्वक समर्पित होने के लिये कटिबद्ध रहना ही सच्चा मानवीय धर्म है, जो सामाजिक विषमताओं की खाई को पाटने, पूजीवाद को समाप्त करने, अहिंसा को अपनाने तथा निःस्वार्थता को अंगीकार करने में निहित है । इस प्रकार के महान् विचारों द्वारा उद्भूत कर्म महान होते हैं जो देवभूमि की अपेक्षा मानवभूमि को अधिक श्रेष्ठ बनाते हैं । इस हेतु हमें समय का अनवरत सदुपयोग करते रहना चाहिए एवं सत्संग, स्वाध्याय, साधना, अनासक्त भावना, त्रिरत्न के अनुपालन आदि का समन्वित स्वरूप बनकर मानव-विकास के सोपानों को पार करते जाना चाहिए।
पर्वो से प्रेरणा-श्रेययुक्त मार्ग पर चलने में पर्यों से अभूतपूर्व अभिप्रेरण होता है। कुछ उदाहरणों द्वारा यह देख लेना समीचीन होगा। पन्द्रह अगस्त का दिवस भारत में मुक्ति-पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह दिवस एक महती तपस्या की सफलता का द्योतक है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस स्वतंत्रता की बुनियाद हिंसा नहीं, अहिंसा है । इसने अहिंसा के महत्तम मानवीय मूल्य को एक जीवन-पद्धति, एक सूक्ष्मास्त्र के रूप में संसार के सम्मुख प्रस्तुत कर सत्य और शान्ति के सरितस्वर निनादित किये हैं, विश्व-युद्धों से जर्जरित मानव के हृदय-मरुथल में । इसी प्रकार रक्षाबंधन का पर्व आत्मशुद्धि एवं सुरक्षा की भावना का पावन अभिव्यक्तीकरण है । जैनों के धार्मिक महापर्व संवत्सरी तथा मानवअभ्युदय के अनन्यतम पर्यषण पर्व की भी यही स्थिति है। इसी परम्परा में विजयादशमी, होलिकोत्सव, दीप-पर्व आदि का उल्लेख भी किया जा सकता है । ये पर्व तन-शुद्धि की अपेक्षा
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अर्चनार्चन
मन-शुद्धि और उसके माध्यम से मानव के उदात्तीकरण का अभिप्रेरणीय सन्देश प्रदान करते हैं।
जीवन को उद्गाभिमुख करने वाले इन बाह्य अवलम्बों के साथ महासती उमराव कंवरजी ने प्रात्मकल्याण एवं स्वरूपानुसंधान के निमित्त भारतीय संस्कृति एवं दर्शन द्वारा प्रतिपादित विभिन्न अंतर्यात्राओं यथा साधना, योग, ज्ञान, भक्ति, अनेकांत, त्रिरत्न, तपस्या, सम्यक्त्व प्रादि का सरल किन्तु सारयुक्त, मनोहारी किन्तु गम्भीर, शास्त्रसम्मत किन्तु भानुभविक, अध्यात्म-प्रेरित किन्तु व्यावहारिक विवेचन प्रस्तुत कर मानव-अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त किया है।
इस तत्त्व-ज्ञान का विरोध उन नास्तिक विचारधाराओं द्वारा किया जाता रहा है जो भौतिक सिद्धान्तों, स्थल मानसिक प्रक्रियाओं तथा लौकिक-परिवर्तनों द्वारा मानव-कल्याण के स्थायी आधार को खोज पाने का सपना संजोये बैठे थे। आज उनकी आत्म-सिद्ध विफलताएँ उन्हें इस तत्त्व-चितन को अपनाने को बाध्य कर रही हैं। सिवाय इसके कि मात्र लौकिक एवं इन्द्रिय-सुख के लिए समर्पित जन के हास-परिहास के लिए इनमें कुछ नहीं है, किन्तु उन्हें उद्गामिमुख करने तथा जीवन जीने के अधोगामी धरातल से उनका उद्धार करने के लिए इनमें सब कुछ है।
महासती श्री उमरावकुंवरजी की मानवता के प्रति समर्पित महती साध्वी-साधना को शतशः विनीत प्रणाम ।
--समर्पण ३४, केशवनगर, हरिफाटक, उज्जैन. म. प्र.
समाहिकामे समणे तवस्सी * जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
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अर्चना-प्रवचन भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले सम्पादन : कमला जैन 'जीजी', एम. ए.
[१] प्रात्मबंधुप्रो !
चिरकाल से हम पढ़ते, सुनते और देखते चले जा रहे हैं कि मानव प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करना चाहता है । वह चाहता है कि इस संसार में वह प्रतिष्ठा और प्रशंसा प्राप्त करे तथा भविष्य में जन्म-मरण से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर ले, किन्तु ऐसा होना सरल नहीं है; बड़ी टेढ़ी खीर है। अपनी इच्छापूर्ति के लिए वह सेवा, दान, भक्ति और साधना करता हा भी देखा जाता है किन्तु उसके शुभ-कर्म यथार्थ फल देते हैं या निष्फल और निरर्थक हैं ? उसका विवेकयुक्त मन ही यह जान सकता है। कर्मशुद्धि की कसौटी भावशुद्धि
जीवन में कर्मशुद्धि से पहले भावशुद्धि अनिवार्य है । भावशुद्धि के बिना कर्मशुद्धि सच्ची नहीं होती और कर्मशुद्धि के अभाव में सच्चरित्रता नहीं आ सकती । स्पष्ट है कि सच्चरित्रता के बिना न इहलोक सुधर सकता है और न ही परलोक । भावशुद्धि सही अर्थों में कर्मशुद्धि की जन्मदात्री है । भावशुद्धि का मतलब है चित्त की निर्मलता । चित्तवृत्ति के निर्दोष और निर्मल होने पर ही मनुष्य को अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य 'मुक्ति' की प्राप्ति हो सकती है । कहा भी है:
ण इमं चित्त समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ। -दशाश्रुतस्कंध निर्मल चित्तवाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता।
अनेक व्यक्ति तर्क करते हैं कि मनुष्य में दोष तो विद्यमान ही हैं, फिर वह दोषमुक्त कैसे हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि ऐसा तो कोई भी नहीं होता जो सर्वथा बुरा हो और सर्वदा दोषयुक्त कर्म ही करता हो। दुष्ट-कर्मों की प्रवृत्ति से पूर्व सभी निर्दोष होते हैं तथा दोषों की निवृत्ति के बाद भी निर्दोष हो सकते हैं। किन्तु मुख्य बात तो यह है कि दोष-कर्म करते समय व्यक्ति अपने उन कर्मों को पाप-कर्म नहीं समझता। मानता भी नहीं। पर जब उनके फलभोग का समय आता है, स्वयं को दोषी मानकर पश्चात्ताप करता है। अगर वह पहले ही विवेक और ज्ञान के प्रकाश में अवलोकन करे तो वास्तविकता को सहज ही जान सकता है। यदि पुनः पुनः दोषों की प्रावृत्ति न की जाय तो
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महासतो झमकु कंवर जी म.सा. एवं सांव्सारिक बहन सौभाग्य कुंवर बाई के साथः एक दुर्लभ चित्र
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BEWAK वि.सं. २०३३ में नागौर में Sama
प्रवचन करते हुए महासती अर्चना जी
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भाष-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
किये हए दोष अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत उन्हें दुहराते रहने से वह दोष-भाव में प्राबद्ध हो जाता है । उसकी निर्दोष अथवा निर्मल बन जाने की संभावना अनन्त में विलीन हो जाती है। दोषों की उत्पत्ति का कारण
दोषों की उत्पत्ति और पापकर्मों का उपार्जन मुख्य रूप से अपने विवेक को अमान्य करने से होता है। विवेक और ज्ञान का अनादर करना कर्म की अशुद्धि को निमंत्रण देना है। कर्मों की शुद्धि और अशुद्धि का निर्णय मान्यताओं अथवा प्रथाओं के आधार पर करना उचित नहीं है अपितु यह निर्णय अपने विवेक और ज्ञान के द्वारा करना चाहिये। शुभकर्म अथवा धर्म के विषय में आज के समय में परस्पर विरोधी इतनी मान्यताएँ हैं कि मनुष्य बाह्यज्ञान के द्वारा कदापि सच्चे धर्म और उसके अनुरूप कर्म नहीं कर सकता । इसीलिये किसी ने कहा है:
धर्म को तो आज दुनिया ने खिलौना कर लिया।
दूध के बदले में पानी का बिलौना कर लिया। वस्तुतः आज कोई व्यक्ति हिंसा में अर्थात् देवी-देवताओं के सम्मुख जीवित प्राणियों की बलि चढाने में धर्म मानता है तो कोई उन्हें बचाने में यानी अहिंसा में, कोई गंगा-यमुना में गोता लगाने में तो कोई गेरुए वस्त्रधारी साधु को गाँजा-तम्बाक पिलाने में, तो कोई मूर्ति को चढ़ावा चढ़ाने में और कोई भाव-पूजा में धर्म मानते हैं। इसी प्रकार कोई सूर्य को जल चढ़ाने में अथवा कोई हनुमानजी का व्रत रखने में, कोई पीपल की परिक्रमा में, कोई तुलसीपत्र चबाने में धर्म मानते हैं । इस प्रकार नाना पंथ और सम्प्रदाय विभिन्न कर्मों को धर्म का हेतु मानकर क्रियाएँ करते रहते हैं किन्तु भावशुद्धि का महत्त्व बिरले ही समझ पाते हैं, जो धर्म का सच्चा स्वरूप है और उसका मूल कारण भी है।
इसीलिये मेरा आपसे कहना है कि मान्यताओं और प्रथाओं के आधार पर धर्म का स्वरूप समझना तथा दोषों का निर्णय करना उचित नहीं है। इसके लिये स्वयं के विवेकज्ञान को जगाना आवश्यक है। निज ज्ञान में जहाँ दोषों को जान लेने की क्षमता है वहीं दोषों को मिटाने के उपाय भी विद्यमान हैं । अपने आत्मिक ज्ञान के प्रकाश में ही इन्द्रियों में जितेन्द्रियता, मन में शुद्ध संकल्प तथा निर्विकल्पता तथा बुद्धि में समता और संयम स्वतः आ जाएगा और चित्त निर्मलता से परिपूर्ण हो सकेगा। एक छोटे से सुन्दर मुक्तक में यही बताया है:
चाहते हो मुक्ति तो इतना करो, सत्य, संयम को सदा द्विगुणित करो। बाहरी जड़ दीप से कुछ भी न हो, आत्मा के बीप को, प्रज्वलित करो ॥
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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वस्तुतः आत्मिक ज्ञान - दीप के प्रभाव में यानी निजज्ञान के बिना की हुई क्रियाएँ खोखली रह जाती हैं। जो मान्याताएँ निजज्ञान के विरुद्ध होती हैं वे साधक को अशुद्धता की ओर ले जाती हैं और जो मान्यताएं निज ज्ञान के अनुरूप होती हैं वे चित्त को शुद्धता की ओर अग्रसर करती हैं । अभिप्राय यही है कि निजज्ञान की ज्योति ही शुद्धता का दर्शन कराती है और वही भावशुद्धि एवं कर्मशुद्धि का हेतु बन सकती हैं ।
भावशुद्धि किस प्रकार हो ?
प्रश्न उठता है कि मानव की प्रवृत्तियाँ किस प्रकार की हों जो उसके चित्त को निर्मल या शुद्ध बनाने में सक्षम हो सकें? इसके उत्तर में कुछ बातों का ध्यान रखना प्रत्येक मानव या मुमुक्षु के लिये आवश्यक है।
(१) आत्मवत् सर्वभूतेषु
अपने समान ही संसार के समस्त प्राणियों को समझना सर्वात्मभाव कहलाता है अर्थात् प्राणी मात्र पर अपने समान प्रीति हो मानव शरीर के समस्त अवयवों की आकृति तथा कार्य में प्रन्तर होता है, किन्तु मनुष्य की आत्मीयता और प्रीति प्रत्येक अवयव के प्रति समान होती है । इसी प्रकार अमीर, गरीब, धर्मात्मा, पापात्मा अथवा दीन-हीन और
तृतीय खण्ड
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अपाहिज कैसा भी प्राणी क्यों न हो, मनुष्य को प्राणीमात्र के प्रति समान प्रीति होनी चाहिये । पशु-पक्षी और प्रत्येक जीव-जन्तुयों के प्रति भी दया और प्रेम होना आवश्यक है। सच्चे साधक या फकीर समग्र संसार में एकमात्र परमात्मा को देखते हैं उन्हें दूसरा कोई नज़र ही नहीं आता। एक उदाहरण से इसकी सत्यता जाहिर होती है
एक पहुँचा हुआ साधु सदा जंगल में ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहा करता था। कभीकभी वह गांव में आ जाता और लोग उसे जो कुछ दे देते, उसे पूर्ण अनासक्त भाव से खाकर चल देता । न वह कुछ माँगता और न ही किसी से व्यर्थ बातचीत ही करता ।
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एक दिन वह घूमता चामता गांव में धावा तो किसी गृहस्थ ने उसे कुछ खाना दे दिया फकीर वहीं बैठकर खाने लगा। इसी समय एक कुत्ता वहाँ प्रा गया और फ़कीर के पास बैठकर पूँछ हिलाने लगा। यह देखकर फ़कीर अपने साथ कुत्ते को भी खिलाने लगा । अनेक व्यक्ति एकत्रित हो गए और साधु को पागल कहकर हँसने लगे ।
लोगों को हँसते देख महात्मा ने बड़े प्राश्चर्य से उन लोगों से पूछा - "तुम सब हँस
क्यों रहे हो ?"
" इसलिये हँस रहे हैं महाराज ! कि आप कुत्ते के साथ खाना खा रहे हैं।"
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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ कर्म खोखले
महात्मा ने गंभीर होकर उत्तर दिया:
यह हँसने की बात नहीं हैं, समझने की बात है कि:
"विष्णुः परिस्थितो विष्णु विष्णुः खादति विष्णवे । कथं हससि रे विष्णो ! सर्वं विष्णुमयं जगत् ॥ "
अर्थात् विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु विष्णु को खिलाता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत् ही तो विष्णुमय है । दूसरे शब्दों में, समस्त संसार उस परमपितापरमात्मा विष्णु से व्याप्त है ।
उस फ़क्कड़ संत की गूढ़-ज्ञान से परिपूर्ण बात को सुनकर एकत्र व्यक्ति बड़े लज्जित हुए तथा प्रत्येक प्राणी में परमात्मा को देखने वाले उन पहुंचे हुए सच्चे साधु के समक्ष नतमस्तक हो गए ।
इस ज्वलंत उदाहरण से स्पष्ट जाता है कि मूलत: प्रत्येक जीवात्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है । जीव की उपाधि छोटी है और परमात्मा की बड़ी, इसीलिये ईश्वर में जो सर्वज्ञता प्रभृति धर्म हैं वे जीव में नहीं । इसे सरलतापूर्वक गंगा नदी के उदाहरण से भी समझा जा सकता है । यथा— गंगा के चौड़े पाट और बड़ी धारा में नाव और जहाज चलते हैं, असंख्य मछलियाँ और मगरमच्छ भी तैरते रहते हैं । साथ ही किनारे पर लोग स्नान करके स्वयं को धन्य मानते | किन्तु वही गंगा-जल एक लोटे में भर लिया जाय तो न लोग उसमें गोता लगा सकेंगे, न नावें चलेंगी और न ही कच्छ-मच्छ उसमें तैरते हुए मिलेंगे । पर क्या गंगा के जल में और उस लोटे के जल में कोई अन्तर है ? नहीं, दोनों जलों के एक होने में सन्देह नहीं है । इसी प्रकार छोटे से छोटे जीवात्मा और परमात्मा के मूलतः एक समान होने में भी सन्देह नहीं है ।
स्पष्ट है कि जो महामानव इस रहस्य को समझ लेगा वह अन्य जीवात्माओं से कभी दुराव या वैर नहीं करेगा । जगत् के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझने वाला किससे वैर करेगा और किससे प्रीति ? वह समदर्शी हो जाएगा और समदर्शी होने पर संसार के दुःखक्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त कर लेगा । मोक्ष किसी पदार्थ का नाम नहीं है जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या उपाश्रयों में जाने से प्राप्त हो जाएगा। अपितु मानव के हृदय में अज्ञान की जो ग्रंथि है उसके खुलकर सर्वथा नष्ट हो जाने को ही मोक्ष कहते हैं । दूसरे शब्दों में हृदय में कामनाओं का तथा राग-द्वेष का निवास 'संसार' कहलाता है तथा इन सबका नष्ट हो जाना मुक्ति । आज हम देखते हैं कि सम्प्रदाय, धर्म और मजहब आदि के नाम पर लोग लड़ते हैं, झगड़ते हैं, दंगे-फसाद तथा कल्लेश्राम करते हैं और तब भी स्वयं को धर्म के ठेकेदार तथा भगवान् के भक्त मानते हैं । इसी भावना के कारण किसी ने ठीक ही कहा है:
समाहिकामे समणे तवस्सी
जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
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सम्प्रदाय की आग में इन्सान हर बार जला है, धर्म के नाम पर आपका अभिशाप पला है । मजहब के नाम पर भाइयों को लड़ाने वाली ! तुमने आदमी को नहीं भगवान् को छला है।
वस्तुतः लोग भगवान् के नाम पर भगवान् को ही धोखा देने का प्रयत्न करते हैं और ऐसी स्थिति में सर्वात्मभाव के स्थान पर स्वार्थभाव तथा वैरभाव बढ़ता रहता है तथा भावशुद्धि केवल जबान पर रह जाती है, अन्तःकरण में वह प्रवेश नहीं कर सकती ।
(२) दान की शुद्ध प्रवृत्ति
पत्थरों पर अपना और अपने
।
श्राज दान के रूप में लोग चींटियों को आटा, कुत्तों व गाय आदि को रोटी और भिखारी को तिरस्कारपूर्वक चंद सिक्के दे देते हैं। अनेक श्रीमंत लोग हजारों रुपये देकर पहले बोर्ड पर अपना नाम लिखवाते हैं अथवा संगमरमर के माता-पिता का नाम खुदवाकर उन्हें दीवालों में चुनवा देते हैं दाता के भावों को भी शुद्ध कर पाता है? नहीं, प्रथम करके तथा बेईमानी या ब्लैकमार्केटिंग करके इकट्ठा किया जाता है, कहते हैं। पर उसे भी यश, प्रतिष्ठा एवं प्रसिद्धि के लिये देकर अपने करते हैं तथा अपने नाम से पहले दानवीर लगा देखकर गर्व से फूले नहीं व्यक्तियों के लिये किसी कवि ने सत्य ही कहा है:
किन्तु ऐसा दान क्या उस दानतो वह धन गरीबों का शोषण
जिसे दो नंबर का
अहंकार का पोषण
समाते । ऐसे सभी
।
जिनके
हाथों का शोषण होता
रात-दिन, है ।
गरीब लोगों
धर्म
अपनी ठगाइयों
को,
ढकने
है ।
का लोशन होता धर्मशाला
छोटी
पर,
सी बड़ा सा नाम खुदाने वालों के दिलों में, केवल अपने अभिमान का पोषण होता है ।
शुभ होने के बदले अशुभ साबित होता है ।
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वस्तुतः अहंकार को बढ़ाने वाला तथा ख्याति की भावना को पोषण देने वाला दान
तृतीय खण्ड
एक बार विनोबा भावे को किसी अमीर सेठ ने कुंआ खुदवाने का वचन दिया। उन्होंने इस बात को सहर्ष स्वीकार करते हुए उत्तर दिया
"यह तो बहुत अच्छी बात है, इससे असंख्य लोगों का भला होगा ।"
" किन्तु विनोबा साहब ! मेरी एक शर्त है।" सेठ ने कहा ।
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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
"वह क्या ?" "उस कुए पर मेरे पिताजी का नाम खुदवाया जाय ।" विनोबा जी ने उसी वक्त इन्कार करते हए स्पष्ट जवाब दे दिया
"नहीं सेठजी! मैं आपके पिता को नरक में भेजने का पाप नहीं करूंगा।" सेठ चुपचाप मुंह लटकाकर लौट गया।
गर्व, अहंकार तथा प्रतिष्ठा आदि की कामना आत्मा को कितना नीचे गिराती है, इस विषय में "नारदपरिव्राजकोपनिषद्' में कहा गया है:
अभिमानं सुरापानं, गौरवं घोर रौरवम् ।
प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा, त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ अर्थात् अभिमान मदिरापान के सदृश है तथा गौरव की कामना आत्मा को भयानक रौरव नरक में पहुँचाती है। इनके अलावा प्रतिष्ठा की चाह को तो सूकर की विष्टा के समान निकृष्ट माना गया है। अत: मानव को इन तीनों दोषों को त्यागकर सुखी बनना चाहिये और सुखी बनने के लिये आवश्यक है कि दानादि शुभक्रियाएँ निष्काम और निःस्वार्थ भाव से की जायें। अन्यथा भावशुद्धि के अभाव में कर्मशुद्धि कभी नहीं हो सकती। ढिंढोरा पीटकर की गई शुभक्रियाएँ कभी शुभ फल प्रदान नहीं करतीं। एक दोहे में यही बात बड़े सुन्दर ढंग से बताई है
करणी ऐसी कीजिये, जिसे न जाने कोय ।
जैसे मेंहदी पात में बैठी रंग लुकोय ॥ इस सरल भाषा में कहे गए दोहे में कितने गूढ रहस्य की बात कही गई है। दान इस प्रकार गुप्त रूप से दिया जाय कि दाहिने हाथ से देने पर बायें हाथ को भी उसका पता न चले। मेंहदी की पत्तियों में कितना सुन्दर लाल रंग छिपा रहता है, किन्तु कोई उन्हें देखकर जान नहीं पाता। इसी प्रकार दान भी अभावग्रस्त व्यक्तियों को इस प्रकार दिया जाना चाहिये कि लेने वालों को भी पता न चले कि किसने दिया है।
प्रत्येक मुमुक्ष को यह जान लेना आवश्यक है कि दान ही धर्म रूपी जीवन का प्रथम सोपान है। इसीलिये तीर्थंकर संयम ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन दान देते हैं। अथर्ववेद में कहा है:
-सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजारों हाथों से बाँटो।
वस्तुत: दान इहलोक तथा परलोक, दोनों में ही उत्तम फल प्रदान करता है। किन्तु ऐसा तभी होगा जब वह किसी भी प्रकार की कामना से रहित रहकर निःस्वार्थ और पूर्ण 9. समाहिकामे समणे तवस्सी।
- जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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तृतीय खण्ड
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भावशुद्धि के साथ दिया जाय। अन्यथा वह आत्मा पर रहे हए कर्मों को कम करने के बजाय और बढ़ा देता है। क्योंकि "यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी।"
एक छोटा-सा उदाहरण इस बात को स्पष्ट करता है-एक व्यक्ति अधिक अमीर न होने पर भी बड़ा परोपकारी और दानी था। उसके पास जितना भी धन होता उसे दीन-हीन प्राणियों की सहायता में चुपचाप व्यय कर देता।
एक दिन उसके पास एक फ़रिश्ता आया और बोला
"भाई ! मैं खुदा के द्वारा उन व्यक्तियों की सूची बनाने के लिये भेजा गया हूँ, जो सच्चे दिल से खुदा की बंदगी और पूजा करते हैं। क्या इस सूची में तुम्हारा भी नाम लिख
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परोपकारी व्यक्ति ने संकुचित होकर उत्तर दिया--
“मैं खुदा की बंदगी नहीं कर पाता केवल उसके बन्दों की कुछ सहायता करता हूँ। अगर खुदा के बन्दों की सेवा करने वालों की कोई सूची आपके पास हो और लिखना ही चाहें तो उसमें मेरा नाम लिख लीजिये ! वैसे कोई जरूरत नहीं है नाम लिखने की।"
फ़रिश्ता यह सुनकर बिना कुछ कहे चला गया और वह व्यक्ति भी शीघ्र ही इस घटना को भूल गया; किन्तु मरने के पश्चात् जब वह पाप-पुण्य की फेहरिश्त बनाने वाले एक फ़रिश्ते के पास ले जाया गया तो उसने देखा कि ख दा की बंदगी करने वालों की सूची में सर्वप्रथम उसका ही नाम लिखा हुआ है ।
वह व्यक्ति यह देखकर दंग रह गया। किन्तु यथार्थ बात यही है कि भगवान के नाम की मालाएँ फेरते रहने से, उसकी जल, चन्दन और पुष्प आदि से पूजा करने से, दिन में कई बार नमाज़ पढ़ने से अथवा गुरुग्रंथ साहब के समक्ष माथा टेकने से ईश्वर या खुदा प्रसन्न नहीं होता। अगर उसके बंदों की यानी दीन-दु:खी और असहाय व्यक्तियों की सहायता-सेवा न करते हुए उनका तिरस्कार या उपेक्षा की जाय । (३) भावशुद्धि और भक्ति
आज हम इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श कर लें कि संसार के समस्त प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् भाव, सेवा, दान एवं भक्ति आदि शुभ क्रियाएँ भावशुद्धि के साथ ही की जायँ, तभी वे सार्थक या फलप्रदात्री बनती हैं। पर ऐसा तभी संभव होता है जबकि हमारी आत्मा में विवेक एवं निज-ज्ञान की ज्योति जग जाय, अन्यथा परस्पर विरोधी मान्यतामों और क्रियाकांडों में व्यक्ति भ्रमित मोकर सन्मार्ग छोड़कर उन्मार्ग पर चल देता है और वे सभी क्रियाएँ खोखली और निष्फल साबित होकर आत्मा को संसारमुक्त करने के बदले संसार-परिभ्रमण के चक्र में फंसा देती हैं।
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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
भक्ति और साधना ऐसे दिव्य गुण अथवा अनुपम शुद्धि-क्रियाएँ हैं जो प्रात्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली या दूसरे शब्दों में प्रात्मा को परमात्मा बनाने वाली कड़ियां हैं। अतः संसार-मुक्ति के इच्छुक साधकों को इन क्रियाओं को करते समय पूर्ण सजग, सावधान और विवेकशील बने रहना चाहिये । आत्मिक ज्ञान और निज विवेक, अविवेक को तो नष्ट करते ही हैं, साथ ही दोषों को नष्ट करते हुए भावशुद्धि करते चले जाते हैं, जिसके अभाव में साधना या भक्ति निरा आडंबर या पाखंड बनकर रह जाती है।
अाज हम देखते हैं कि असंख्य व्यक्ति गेरुए वस्त्र धारण कर लेते हैं, अनेक प्रकार की बड़ी-बड़ी मालाएँ गले में लटका लेते हैं, तिलक-छापे या भस्म से सम्पूर्ण शरीर को प्रावत कर लेते हैं। नगरों में आकर अमीरों के घर डेरा डालते हैं तथा वाकपटुता के द्वारा अपने कदमों में रुपयों का ढेर लगवा लेते हैं। भोली स्त्रियों के झुंड में बैठकर उन्हें उपदेश देने के बहाने अपनी रसिक-वृत्ति को ख राक पहुँचाते हैं और उनकी विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिये गण्डे-ताबीज देकर सोने-चांदी के आभूषण तक भेंट में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार स्वयं परिश्रम किये बिना अज्ञानी स्त्री-पुरुषों को भ्रम में डालकर धन इकट्ठा करते हैं तथा उसे बैंकों में जमा करके सपरिवार ऐश्वर्य में खेलते हैं । क्या ऐसे पाखंडी, परमात्मा के भक्त बनकर अपना या औरों का कल्याण कर सकते हैं ? नहीं, औरों का तो क्या वे अपना ही कल्याण रंच-मात्र भी नहीं कर पाते।
किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति सत् और असत् का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, शरीर और आत्मा को भिन्न समझकर इस संसार को स्वप्नवत् मानते हुए परमात्मा से नाता जोड़ने के लिये विह्वल रहते हैं, वे जगत् के लोगों से दूर भागकर एकान्त में प्रभु से लौ लगाए रहने के प्रयास में रहते हैं। सच्चे भक्त आडंबर और पाखंड से घृणा करते हुए निर्जन स्थान पसन्द करते हैं। लोगों की भीड़ या भेंट-पूजा की स्वप्न में भी अभिलाषा नहीं करते । एक छोटा-सा उदाहरण यही बताता है
किसी नगर से बाहर वन में दो त्यागी संत अपनी-अपनी कुटिया में रहकर प्रभुभक्ति और साधना में लगे रहते थे। एक दिन किसी व्यक्ति ने वन में भ्रमण करते हुए उन महात्मानों को देखा । दिव्य तेज से विभूषित उन साधु-पुरुषों के दर्शन कर वह सीधा नगर के राजा के समक्ष पहुँचा और उन्हें बताया
"हुजूर ! हमारे शहर से कुछ ही दूर जंगल में दो महान् साधु निवास करते हैं और दिन-रात भगवद्-भक्ति में लगे रहते हैं।"
राजा को यह जानकर बहुत आश्चर्य हया और उसने सोचा-"मेरे राज्य में ऐसे महान संत हैं और मैंने अभी तक उनके दर्शन भी नहीं किये ? आज ही उनके दर्शन कर अपने को धन्य करू।"
समाहिकामे समणे तवस्सी - जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
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राजा दोपहर में सपरिवार उनके दर्शनार्थ रवाना हो गया। दोनों महात्माओं ने जब अपने स्थान से कुछ ही दूर ध्वजा-पताका वाले रथ और अन्य वाहनों को प्राते देखा तो वे समझ गए कि राजा अपने दल सहित पा रहा है।
महात्मामों ने सोचा-"यह तो बड़ी आफ़त हो गई। आज राजा पा रहा है और कल से नगर-निवासियों का तांता लग जाएगा । हमारा समय नष्ट होगा और भजन में बाधा पड़ेगी। इसलिये किसी तरह इस आवागमन को प्रारम्भ में ही रोक देना चाहिये।"
दोनों प्रभु-भक्तों ने कुछ सलाह की और राजा को परिवार सहित पास आते देखकर एक तेवर बदलकर दूसरे से बोला
"क्यों बे भिखमंगे ! तूने मेरी रोटियाँ क्यों खाई ?"
"क्यों नहीं खाऊँगा? तू भी तो कल मेरी झोंपड़ी में से रोटियां चुराकर खा गया था।"
दोनों महात्माओं को रोटी के लिये इस प्रकार झगड़ते हुए देखकर राजा दंग रह गया और उसके हृदय में साधुनों के प्रति घोर नफ़रत और घृणा का भाव पैदा हो गया। कुछ भी कहे-सूने बिना वह उलटे पैरों, अपने तामझाम सहित रवाना हो गया।
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यह देखकर दोनों भक्तों ने निश्चितता की सांस ली। वे अपनी साधना में लीन हो गए। सच्चे संत और भक्त ऐसे ही होते हैं जिन्हें संसारी लोगों की घृणा या नफ़रत की परवाह नहीं होती और प्रशंसा या प्रसिद्धि की स्वप्न में भी कामना नहीं रहती। सांसारिक व्यक्तियों की घृणा और निन्दा को भी वे अपनी साधना में सहायक बनाकर भक्तिरूपी अमृत में बदल लेते हैं। यही देखकर किसी कवि ने कहा है
विष को भी अमत बनाना जानता है आदमी, पतझड़ में बहार लाना जानता है आदमी । कौनसी तदबीर है जो आदमी न कर सके,
पत्थर को भगवान बनाना जानता है आदमी॥ वस्तुतः यह सब आदमी अर्थात् मानव ही कर सकता है, जिसे फरिश्ता या देवता भी नहीं कर पाता। क्योंकि मानव-योनि ही एक ऐसी योनि है, जिसका अगर लाभ उठा लिया जाय तो आत्मा परमात्म-पद को प्राप्त कर लेती है और इसके विपरीत अगर भक्ति और धर्म को प्रतिष्ठा, प्रशंसा और आडंबर के जाल में उलझा दिया जाय तो वह थोथी और भाव-शुद्धिरहित क्रियाएँ साबित होकर मनुष्य को न इहलोक का रखती हैं और नहीं परलोक का। गोस्वामी तुलसीदासजी ने सत्य कहा है
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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ कर्म खोखले
इत कुल की करनी तर्ज, उत न भजे भगवान । तुलसी अधवर के भये, ज्यों बगूर को पान ॥
स्पष्ट है कि जो भाव -शुद्धि के प्रभाव में वैराग्य का लबादा ओढ़कर संन्यासी बनने का दम भरते हैं, किन्तु घर छोड़कर भी भेंट- पूजा और प्रसिद्धि आदि की कामना का त्याग नहीं कर पाते वे न तो इस लोक में ही सराहना के पात्र बनते हैं और न परलोक में सुगति प्राप्त कर पाते हैं । तुलसीदासजी के कथनानुसार ऐसे व्यक्ति सदा जन्म-मरण के चक्र में उसी प्रकार घूमते रहते हैं, जिस प्रकार पत्ता पवन के बवण्डर या बगूले में चक्कर काटता रहता है ।
कहने का अभिप्राय यही है कि पूर्णतया निर्मल निःस्वार्थं एवं कामनारहित भक्ति या साधना करना सरल नहीं है अपितु लोहे के चने चबाने के समान होता है । पूर्ण भाव-शुद्धिपूर्वक भक्ति करने का आनन्द गूंगे के गुड़ के समान केवल भक्त ही जान सकता है । हमारा जैन दर्शन भक्ति का लक्ष्य श्रात्म शुद्धि ही मानता है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि प्रभु भक्ति के निमित्त से श्रात्मा में शुभोपयोग उत्पन्न होता है और उसी के कारण पापों का क्षय होता चला जाता है ।
साधना या भक्ति में जप, तप, पूजा-पाठ, कीर्तन, स्वाध्याय, ध्यान एवं गुणानुवाद आदि अनेक क्रियाएँ करनी होती हैं, किन्तु वे सब शुद्ध तभी होती हैं जबकि चित्त-शुद्धि बनी रहे और अंतःकरण निर्मल तन्मयता से परिपूर्ण हो । चित्त-शुद्धि प्रथवा भाव-शुद्धि के अभाव में भक्ति के लिये की गई उपर्युक्त सभी क्रियाएँ पूर्णतया निष्फल जाती हैं । इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु को चाहिये कि भक्ति और साधना, अहंकार तथा भेद-भाव आदि से रहित होकर शुद्ध हृदय से करे ।
पौराणिक कथात्रों में शंकराचार्य का एक प्रेरणादायक प्रसंग श्राता है। एक बार वे प्रातःकाल के समय नदी में स्नान करके अपने श्राश्रम की ओर लौट रहे थे । संयोगवश मार्ग में एक हरिजन उनसे टकरा गया। शंकराचार्य अत्यंत क्रोधित होकर तिरस्कारपूर्वक उससे बोले
"अरे नराधम ! तूने मुझे छूकर अपवित्र कर दिया ? अब मुझे पुनः स्नान करने जाना पड़ेगा ।"
हरिजन व्यक्ति नहीं जानता था कि वे महान् गुरु शंकराचार्य । फिर भी वह अत्यंत सहमकर विनयपूर्वक हाथ जोड़ते हुए बोला
" भक्तराज ! मुझे क्षमा करें । उतावली के कारण मुझसे अपराध हो गया । किन्तु कृपया मुझे यह अवश्य बता दीजिये कि अपवित्र क्या हुआ है ? मेरे विचार से शरीर तो मांस
समाहिकामे समणे तवस्सी
जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है
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सुतीय खण्ड
मज्जा, मल-मूत्र एवं हड्डियों से सभी का बना है अतः वह किसी का भी पवित्र नहीं होता। दूसरे, इसमें रहने वाला जो प्रात्मा है, वह कभी अपवित्र हो नहीं सकता।"
"मैंने प्रायः आप सरीखे महात्मानों के उपदेशों को सुना है-"जीवो ब्रह्म व नाऽपरः" यानी जीव ईश्वर ही है, दूसरा नहीं । अब आप मुझे बताइये कि अद्वैत वेदान्त में छूआछूत का उल्लेख कहाँ किया गया है ?"
एक हरिजन के मुंह से यह गूढ-ज्ञान-भरा सत्य सुनकर शंकराचार्य दंग रह गए। उनकी समझ में आ गया कि वे स्वयं भूल कर रहे हैं। भक्ति का किसी भी प्राणी के शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह भाव-शुद्धि में पनपती है और प्रात्मा की निर्मलता से ही परवान चढ़ती है। उन्होंने अपने अहं और बड़प्पन का तत्काल परित्याग करते हुए उस अछुत-बन्धु को प्रणाम किया और उसे अपना गुरु मानकर बिना पुनः स्नान किये अपने आश्रम की ओर लौट गए । भक्ति का माहात्म्य उन्होंने समझ लिया।
4.4 फही.
__9/04.4.
भक्ति और साधना
बंधुनो! आज की बात समाप्त करने से पूर्व हमें संक्षिप्त में भक्ति और साधना के अंतर को भी समझ लेना चाहिये । यद्यपि दोनों में विशेष अन्तर नहीं है और दोनों ही प्रात्मा को निर्मल बनाकर मुक्ति-पथ पर अग्रसर करती हैं, किन्तु भक्ति के विषय में यह कहा जा सकता है कि भक्ति साधना का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है । हम मुख्य रूप से इसको चार भेदों के द्वारा समझ सकते हैं। यथा
(१) प्रात-भक्ति-मनुष्य जब किसी घोर संकट अथवा कष्ट में होता है, तब भगवान् को पुकारकर उनसे प्रार्थना करता हुआ दुःख-मुक्त होना चाहता है ।
(२) अर्थार्थ-भक्ति-इसके वशीभूत होकर व्यक्ति प्रभु से अर्थ अर्थात् धन के लिये प्रार्थना करता है तथा दीपावली आदि के अवसर पर लक्ष्मी की पूजा भी बड़े भक्ति-भाव से की जाती है। इतना ही नहीं, अनेक व्यक्ति संतों के प्रवचनों में कोई अंक सुनाई दे जाता है तो उस नम्बर का लाटरी का टिकिट खरीद लेते हैं अथवा सट्टे में दाँव लगा देते हैं।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की अंध-भक्ति आत्मा के उत्थान में सहायक नहीं बन सकती, क्योंकि उनमें सांसारिक सुख के लिये स्वार्थ निहित होता है।
(३) जिज्ञासा-भक्ति-यह तीसरे प्रकार की भक्ति होती है, जिसके द्वारा भक्त सांसारिक झमेलों से कुछ ऊपर उठकर ईश्वरीय-स्वरूप को जानने की आकांक्षा करता है तथा मात्मा, परमात्मा, बंध और मोक्ष को समझने का प्रयत्न करता है । इसके फलस्वरूप उसकी चेतना अज्ञान की अंधेरी गुफा से निकलकर ज्ञान की ज्योति प्राप्त कर लेती है तथा हिंसा, घृणा,
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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
स्वार्थ और आडंबर-युक्त अनाचार का स्थान अहिंसा, प्रेम, निःस्वार्थता तथा सदाचार आदि सद्गुण ले लेते हैं। जिज्ञासु भक्त विवेकपूर्वक सत्य और असत्य को समझकर प्रात्म-निरीक्षण करता हुआ अपने मन को उद्बोधन और चेतावनी देता रहता है
मक्सदे जिन्दगी न खो, यूही उम्र गुजारकर ।
अक्ल को होश से जगा, होश को होशियार कर ॥ (४) तन्मय-भक्ति-तन्मय भक्त, भौतिक संपत्ति, शारीरिक सुख अथवा पुत्र-पौत्रादि किसी की चाह नहीं रखता। उसके मन को परमात्मा में लीन होकर ही तृप्ति का अनुभव होता है । कहा है
यद् अग्नेस्यामहं त्वं त्वं वा धास्या अहम् । स्युष्टे सत्या इहाशिषः।
अर्थात्-हे प्रकाश-स्वरूप ! जब मैं तू हो जाऊँ या तू मैं हो जाय तो सम्पूर्ण जीवन के तेरे वे आशीर्वाद सफल हो जाय ।
तो आपने समझ लिया होगा कि भक्ति के प्रकार कैसे होते हैं और जिज्ञासा के पश्चात जो तन्मय भक्ति जागृत होती है, वही साधना में सहायक बनती है। इतना ही नहीं, तन्मय या सच्ची भक्ति के अभाव में साधना का होना भी संभव नहीं है । तन्मय भक्ति ही भाव-शुद्धि करती है और आत्मिक ज्ञान को सही रूप में जगाकर शुद्ध-क्रियाओं को करने के लिये प्रेरित करती है। इसलिये मुक्ति के इच्छुक मानव के मन में भाव-शुद्धि होना अनिवार्य है, क्योंकि इसके अभाव में कर्म-शुद्धि नहीं हो सकती और जब तक कर्म-शुद्धि न हो साधना में सफलता नहीं मिल सकती । शुद्धि और अशुद्धि का द्वन्द्व जब तक चित्त में चलता रहता है, तबतक अहं भी अन्दर छिपा रहता है, किन्तु जब शुद्धता अशुद्धता को ग्रस लेती है, उसी पल मानस में उन दिव्य गुणों का स्थायित्व हो जाता है जो प्रात्मा को परमात्मा बनाते हैं। कहा भी है
णेमं चित्त समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ । -निर्मल चित्त वाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता।
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- ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी
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सत्साहित्य का अनुशीलन
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प्रात्मप्रेमी बंधुप्रो !
अाज हम पुस्तकीय जीवन पर कुछ विचार करेंगे। पुस्तकों का महत्त्व कैसा अनुपम है, यह हम 'बालगंगाधर तिलक' की बात से समझ सकते हैं। उन्होंने कहा था कि:
"स्वर्ग में बिना पुस्तकों के रहने की बजाय मैं पुस्तकों के साथ नरक में रहना पसंद करूँगा, क्योंकि पुस्तकों में ऐसी महान् शक्ति है कि वे जहाँ भी होंगी वहाँ स्वर्ग अपने आप ही बन जाएगा।"
तिलक के इस कथन से पुस्तकों का महत्त्व कितना अधिक है, यह हम सहज ही जान सकते हैं। वास्तव में ही अच्छी पुस्तके मानव की सर्वाधिक सहायक एवं विश्वसनीय मित्र अथवा साथी होती हैं जो कदम-कदम पर उसका मार्ग-दर्शन करती हैं। उसे चिता, परेशानी और किसी भी प्रकार के संकट के समय में ज्ञानवान् गुरु के समान सत्यासत्य का तथा कर्तव्यों का बोध कराती हैं। पुस्तकें ही हमें प्रेरणा देती हैं तथा काल और क्षेत्र की माँग के अनुसार जीवन को नई और सही दिशा प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ बनकर अपने जीवन
और मृत्यु दोनों को ही सरस तथा सार्थक बना सकता है । वैसे आज के मानव ने विज्ञान के द्वारा मनोरंजन के अनेकानेक साधनों का निर्माण कर लिया है, किन्तु श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन सबसे अधिक स्थायी और सर्वाधिक कम मूल्य का मनोरंजक साधन है । अकेलापन मिटाने का श्रेष्ठतम साधन
पुस्तकों से प्रेम करनेवाला व्यक्ति कभी स्वयं को अकेला महसूस नहीं करता । इनके द्वारा उसके अकेलेपन अथवा खालीपन की पूर्ति हो जाती है। क्योंकि पुस्तकें ही एकान्त की एकमात्र एवं उत्तम मित्र होती हैं। उनका अध्ययन करना और उस पर चिंतन-मनन करके अपने विवेक द्वारा मानस-मंथन करते हुए सत्य-बोध रूप अमृत का पान करना अध्ययन का मुख्य उद्देश्य होता है, जो एकान्त-शान्त वातावरण में समुचित रूप से हो जाता है । महात्मा गांधी ने अपने जेल-जीवन की बहुत-सी अवधि उत्तमोत्तम पुस्तकों का अध्ययन करके ही व्यतीत की थी। उनका यही कथन था कि
"जो व्यक्ति पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखता है वह वन, नगर आदि प्रत्येक स्थान में तथा प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न और संतुष्ट रह सकता है।"
वस्तुतः उच्चकोटि की पुस्तकें जीवन को औरों के लिये आदर्श रूप बना सकती हैं। इंगलिश भाषा की एक कहावत है
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सत्साहित्य का अनुशीलन
"What you think, so you become." '-तुम जैसे विचार करोगे, वैसे ही बन जानोगे।'
उपर्युक्त कहावत साबित करती है कि जीवन को अगर उन्नत बनाना है तो उत्तम साहित्य का पठन और उस पर चिन्तन-मनन करके उसके निचोड़ को आत्मसात् करना पड़ेगा। इसका ज्वलंत उदाहरण स्वयं महात्मा गांधी थे।
एक बार गांधीजी जोन्सवर्ग से किसी अन्य नगर के लिए ट्रेन से जा रहे थे । सफर पूरे बारह घण्टे का था। उस समय संयोगवश उनका एक अंग्रेज मित्र मिल गया, उसने प्रसिद्ध दार्शनिक रस्किन की लिखी हुई एक पुस्तक 'अन्ट दिस लास्ट' नाम की एक प्रति उन्हें भेंट करते हुए कहा-'मित्र ! बहुत अच्छी पुस्तक है, आप अपने बारह घण्टे के सफर में इसे समाप्त कर लीजियेगा । वक्त भी आराम से कट जाएगा।'
गांधीजी ने उस पूस्तक को पढ़ा और उसका इतना गहरा प्रभाव उन पर पड़ा कि उन्होंने बैरिस्टरी छोड़कर सीधा-साधा ग्रामीण जीवन अपना लिया। सूट-बूट पहनना छोड़कर ऊँची धोती-अंगरखा और वह भी खादी का पहनने लगे। किसान और श्रमिक का सा जीवन व्यतीत करते हुए अपने मन को उन्नत एवं लगन को लोहवत बनाने लगे । अनेक बार अपरिचित व्यक्ति उनके वेश और श्रमिक जीवन को देखकर उन्हें पहचान ही नहीं पाते थे।
ति व्यक्ति उनसे मिलने पाया । गांधीजी की महानता के विषय में उसने बहुत कुछ सुन रखा था। उस समय गांधीजी कुए से जल लाने जा रहे थे । उस धनाढय की संयोगवश गांधीजी पर ही सर्वप्रथम नज़र पड़ी और उसने पूछा
"गांधीजी कहाँ हैं ! मुझे उनसे मिलना है।" खाली घड़ा हाथ में लिये गांधीजी ने कहा"पापको क्या काम है ? बताइये !" "मुझे उन्हीं से मिलना है, आप मुझे उनके पास ले चलिये न !! गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा--"अच्छा आप मेरे साथ चलिये।"
अागन्तुक साथ हो लिया । महात्माजी ने कुए पर जाकर पहले घड़ा भरा और फिर लौटकर अपने स्थान पर पा गए । पुनः उन्होंने पूछा
“कहिये क्या काम है आपको? क्या बात करनी है ?"
श्रीमंत ने कुछ झुंझलाते हुए फिर पूछा- “गांधीजी हैं कहाँ ? मुझे उन्हीं से बात करनी है।"
. गांधीजी हँसते हुए बोले-"भाई ! जिससे आप बात करना चाहते हैं, वह गांधी मैं ही हूँ, बताइये किस विषय पर बात करना चाहते हैं आप?" ..
समाहिकामे समणे तवस्सी - जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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तुतीय खण्ड
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आगन्तुक श्रेष्ठी यह सुनते ही भौंचक्का सा होकर रह गया। उसने तो गांधीजी को आश्रम में पानी भरनेवाला मजदूर ही समझा था। शर्मिन्दा होकर उसने पहले गांधीजी के पैर छुए, क्षमा मांगी और तत्पश्चात् कुछ समय बातचीत करके आश्रम को काफी धन भेंट में देकर चला गया।
यह था सत्साहित्य के पठन एवं चिन्तन का परिणाम, जिसने गांधीजी जैसे व्यक्ति को लोह-पुरुष बना दिया तथा उनके विचारों और कार्यों ने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र कराया। उनके शब्दों में और आह्वान में ऐसी चामत्कारिक शक्ति प्रागई जिसने समूचे भारतवासियों को क्रांति के एक ही झंडे के नीचे एकत्र कर लिया और वह भी अहिंसा की भावना के साथ । गांधीजी के समान ही अनेक महापुरुष उत्तमोत्तम पुस्तकों को पढ़कर ही अपने जीवन को उत्कृष्ट बना सके हैं।
जवाहरलाल नेहरू स्वयं उच्चकोटि की पुस्तकों के लेखक और पाठक थे। उनके विचारानुसार उत्तम पुस्तक वह होती है जो मनुष्य को अधिक चिन्तन के लिये मजबूर कर दे । अमेरिका के ख्यातिप्राप्त राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को बाल्यावस्था में जीवन-यापन के लिये कठोर संघर्ष करना पड़ता। किन्तु इसके बावजद भी वे कई मील पैदल चलकर नगर के पुस्तकालय से पुस्तकें लाते थे तथा रात्रि को चल्हे की लकड़ियों के प्रकाश में ही उन्हें पढ़ा करते थे। उच्च साहित्य के प्रति उनकी रुचि ने ही आगे चलकर उन्हें राष्ट्र के शीर्ष पर पहुँचा दिया था। इसी प्रकार गोपालकृष्ण गोखले एवं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि अपनी अभावग्रस्त स्थिति होने के कारण तथा घर में प्रकाश न कर सकने पर भी सड़क पर लगे लैम्पपोस्टों के क्षीण प्रकाश में पुस्तकें अवश्य पढ़ते थे। वे यह कभी नहीं भूलते थे कि शरीर को चलाने के लिये जिस प्रकार भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मस्तिष्क के लिये उच्चकोटि की पुस्तकें पौष्टिक आहार या खुराक का कार्य करती हैं। उपनिषदों में कहा गया है-"स्वाध्याय करने में व्यक्ति को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जीवन को उन्नत बनाने वाली पुस्तकों का पठन और उस पर चिन्तन-मनन करना ही सच्चा स्वाध्याय है। जैनदर्शन में भी यही कहा गया है-- "न वि अत्थि न वि अ होहिइ, सज्झायसमं तवोकम्मं ।"
-बृहत्कल्पभाष्य ११६९ अर्थात्-स्वाध्याय के समान दूसरा तप न कभी अतीत में हमा है, न वर्तमान में है और न भविष्य में कभी होगा।
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जिस प्रकार पात्मिक उन्नति के लिये धर्म-ग्रथों का स्वाध्याय अर्थात् पुनः पुनः पारायण करना अत्युत्तम है, इसी प्रकार जीवन को मानवोचित गुणों से संयुक्त करके घर,
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समाज एवं देश का सुन्दर निर्माण एवं उत्थान करने के लिए अन्य श्रेष्ठ पुस्तकों का पठन भी लाभप्रद होता है। क्योंकि मानव मानवता से परिपूर्ण होने पर ही आत्मा को सद्गुणसम्पन्न एवं निर्मल बनाते हुए उसे परमात्म-पद की प्राप्ति कराने में सक्षम हो सकता है। पाठय-सामग्री की उपलब्धि
इतिहास बतलाता है कि प्राचीन काल में न छापेखाने होते थे और न ही पुस्तकें छपती थीं। भगवान् की वागरणा यानी वाणी और उपदेशों को गणधर आत्मसात करके उन्हें सूत्र रूप प्रदान करके अपने शिष्यों को समझाते थे। तत्पश्चात् वह गूढज्ञान प्राचार्यों के द्वारा शिष्यों को पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ कराया जाता था।
किन्तु क्रमशः कंठस्थ रखने की धारणाशक्ति का ह्रास होने पर सभी प्रकार के ग्राह्य ज्ञान को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया जाने लगा। प्रारम्भ में वृक्षों की छाल, ताड़पत्र एवं भोजपत्रों का इस कार्य के लिये प्रयोग किया गया। आज भी ताड़पत्र पर लिखे हुए धर्म-ग्रन्थ पुस्तकालयों में अथवा संतों के पास अपने गुरुओं के द्वारा अनेक पीढ़ियों से प्राप्त उपलब्ध होते हैं, जिनका मूल्य हज़ारों और लाखों तक का भी आंका जाता है। अनेक बार अख़बारों के द्वारा ज्ञात होता है कि किसी ने अमुक मूल-लिपि का ताड़पत्र अथवा अन्य किसी वस्तु पर अंकित ग्रंथ चुराकर विदेश में जाकर हजारों डालर में बेच दिया।
आधुनिक काल में प्रेस या छापाखानों का आविष्कार हो जाने से महान् प्रात्मानों के द्वारा दिया गया उपदेश अथवा ज्ञान बहुत कुछ विस्मृत या लुप्त हो जाने पर भी काफ़ी मात्रा में छप जाने से प्राप्त हुआ है। आज के समय में तो मुद्रण-कला ने तहलका-सा ही मचा दिया है। इस काल को पुस्तकीय-काल कहना उपयुक्त है । आज जितनी भरमार साहित्य के छपने की हो रही है, उसे पढ़ पाना भी संभव नहीं रहा । इसलिये पुस्तकों का बुद्धिमत्तापूर्वक चयन करके पढ़ना आवश्यक है। पुस्तकों का चुनाव कैसे किया जाय ?
आत्मोन्नति के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष यह समस्या आती है कि स्वाध्याय के लिये अथवा पठन-पाठन के लिये कैसी पुस्तकों का चुनाव किया जाय ? इसके लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि विषयों के अनुसार पुस्तकों को विभिन्न भागों में बाँट लिया जाय । इस समय हम उनके चार प्रकारों पर प्रकाश डाल सकते हैं । यथा--- (१) आध्यत्मिक साहित्यः
आध्यात्मिक साहित्य, ऐसा साहित्य है जो 'जन' को 'जिन' बना सकता है। अर्थात् राग-द्वेष रहित वीतरागता को प्राप्त कराता हुअा मानव जीवन के सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य, मोक्ष की
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तृतीय खण्ड
प्राप्ति कराकर सदा-सर्वदा के लिये प्रात्मा को जन्म-मरण से मुक्त कराता है। हमारी पुण्यभूमि भारत ने रत्न-गर्भा बनकर ऐसी दिव्यात्मानों को जन्म दिया है, जिन्होंने विनाश के अतल गर्त की ओर ढकेलने वाले अज्ञान के गाढ़े अन्धकार को भेदकर ज्ञान का प्रशस्त पालोकपथ जन-जन को बताने का प्रयत्न किया है तथा स्वयं उस पथ पर चलकर महान् आदर्श उपस्थित कर दिखाया है।
इसी पावन भूमि पर आज से लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व एक ऐसी महान् एवं दिव्यात्मा ने जन्म लिया था जिसे आज हम भगवान महावीर के नाम से स्मरण करते हैं। उनकी जय-विजय का नाद गुंजाते हैं तथा उनके उपदेशों को आत्मसात् करने का प्रयत्न भी करते हैं। वैसे इस पुण्यभूमि पर महान् साधु-सन्त, ऋषि-मुनि, योगी और फ़कीरों का आविर्भाव होता रहा है, किन्तु महावीर जैसे महापुरुष कदाचित् क्वचित् ही होते हैं। वे जब होते हैं तो सम्पूर्ण विश्व की ऊर्ध्वमुखी चेतना विकसित होने लगती है तथा जन-जन का मस्तक श्रद्धा एवं अपूर्व कृतज्ञता से भरकर उस महान् आत्मा के चरणों पर झुक जाता है ।
___ उस दिव्य पुरुष की वाणी का एक-एक शब्द हमारे धर्मग्रन्थों के माध्यम से ऐसा रहस्य-सूत्र देता है जिसे जानकर और अमल में लाकर मानव विकास के चरम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है तथा सृष्टि की समस्त सिद्धियाँ उसके चरणों पर न्यौछावर होकर उसे असीम शक्ति प्रदान करने में समर्थ हो जाती हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि अपनी शक्तियों को पहचान कर सम्यक् ज्ञान युक्त एक-एक कदम बढाता हुआ वह आत्म-सिद्धि के अंतिम सोपान पर पहुँचे । दीप-शिखा
महान आत्माओं को ही ऐसी सिद्धि प्राप्त होती है और अंत में सदा वे के लिये विश्व के सम्मुख एक अद्भुत और स्थायी आलोक-स्तंभ बनकर पथ-भ्रष्ट लोगों का सदा मार्ग-दर्शन करते हैं। भगवान महावीर के जीवन में उक्त कथन अक्षरशः चरितार्थ हुअा था। राजकुल में जन्म लेकर भी सम्पूर्ण राज्य-वैभव को तृणवत् त्यागकर स्व एवं पर के अभ्युदय हेतु उन्होंने साधना-पथ के भयंकर उपसर्गों, परीषहों और अनेकानेक विघ्नबाधाओं को पार करके आत्ममुक्ति के अपने उद्देश्य को प्राप्त किया। उनकी संकल्प-शक्ति, त्याग और तप को देखकर समग्र विश्व चकित रह गया। तत्पश्चात् साधना एवं प्राचरण की भव्य उत्कृष्टता तथा पूर्ण निर्मलता लेकर जब वे पुनः जन-जन के समक्ष प्रकट हुए तो प्रत्येक व्यक्ति हर्ष-विभोर होकर उनके मुखारविन्द से अमृत-बिन्दु के समान झरते हुए एक-एक शब्द को अन्तर्मानस में अंकित करने लगा। महावीर ने अहिंसा रूपी ऐसी अमोघशक्ति परम धर्म के रूप में मशाल के सदृश मानव के हाथ में थमा दी, जिसके प्रकाश में वह चाहे तो चित्त को विशुद्धि की चरम सीमा पर ले जा सकता है।
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विश्व मैत्री दिवस पर सामूहिक क्षमावाणी पर्व इन्दौर सं० २०४०. का एक दृश्य •
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सत्साहित्य का अनुशीलन
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अहिंसा की वह दीपशिखा अनेकानेक महापुरुषों को, महात्माओं को तथा योगियों को ज्योति प्रदान करती रही और हमारे देखते-देखते इस युग के महामानव महात्मा गांधी ने भी अहिंसा की मशाल को थामा। गांधीजी ने अहिंसा की, इस अमोघ शक्ति के द्वारा ही विश्व के इतिहास की सबसे बड़ी लडाई लड़ी और उसमें शताब्दियों से दासता की जंजीर में जकड़े हुए भारत को मुक्त करके विजयी बनाया। गांधीजी की विकट अहिंसक चुनौती के कारण सूदृढ़ अंग्रेजी साम्राज्य हिल गया तथा उनकी तोपों, टैंकों, हवाई जहाजों और असंख्य बंदूकों की शक्ति निरर्थक हो गई। यह सब भगवान् महावीर के उपदेशामृत की एक बिन्दु के द्वारा ही हुआ । ऐसी स्थिति में अगर मानव उनके द्वारा उपदिष्ट समस्त रहस्य-सूत्रों को अपनाकर आत्मसात कर ले तो आत्मा के संसार-भ्रमण से मुक्त हो जाने में कौनसा आश्चर्य है ?
प्रस्तुत विषय पुस्तकों के चुनाव का है। मेरा यही कथन है कि सर्वश्रेष्ठ पुस्तकें अथवा ग्रन्थ वे ही होते हैं जो जीवन, जगत्, कर्मबन्ध एवं विषय-विकारों का रहस्य बताते हुए प्रात्मा को शुद्धि की चरमसीमा पर पहुँचाकर संसार-मुक्त करा सकते हैं। हमारे देश में तो प्रत्येक युग में ऐसे-ऐसे महापुरुष होते रहे हैं, जिन्होंने अज्ञान के अन्धकार में भटकते हुए मनुष्यों को अपने उपदेशों से विवेक एवं ज्ञानयुक्त मार्ग बताया और गढ-ज्ञानपूर्ण रहस्यों को लिपिबर करके अगली पोढ़ियों के कल्याण का प्रयत्न भी किया है। आवश्यकता है उनके बताए हुए मार्ग पर चलने की। केवल राम, कृष्ण, ईसा, बुद्ध और महावीर आदि की गुण-गाथाएँ गा लेने से या उनकी जयन्तियाँ मनाते हए जय-विजय के नारे लगाने से मानव की कामना फलवती नहीं बन सकती। किसी कवि ने ठीक ही कहा है:
महावीर को मनाने का दिल चाहिये। अच्छे विचारों की महफ़िल चाहिए। जो जहर को अमृत बना दे । ऐसा उनका भक्त काबिल चाहिए।
पद्य में महावीर से तात्पर्य किसी व्यक्ति से नहीं है और न ही महावीर हमारे बीच में हैं । कवि की यह बात भावनात्मक है कि महावीर को अगर हम श्रमणसंस्कृति के अग्रदूत मानते हैं तो उनके वचनानुसार सही रूप में चलना भी चाहिये । आध्यात्मिक शिक्षामों से प्रोत-प्रोत हमारे शास्त्र ही उनके लिपिबद्ध वचन हैं, जिन्हें पढ़कर आत्मसात् करते हुए प्रत्येक मुमुक्षु को अपनी आत्मा को राग-द्वेष तथा विषय-विकारों से रहित बनाकर आत्मोन्नति के . मार्ग पर अग्रसर होना चाहिये।
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(२) मानव को मानवता जगानेवाला साहित्य
अभी हमने प्रात्मा को संसार से मुक्त करने वाले प्राध्यात्मिक साहित्य के विषय में विचार किया कि ऐसा साहित्य अथवा ऐसी पुस्तकें सर्वश्रेष्ठ होती हैं।
अब हमें दूसरे प्रकार की उत्तम पुस्तकों के विषय में भी चुनाव करना आवश्यक है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे परिवार, समाज एवं देश में सभी अन्य व्यक्तियों के बीच रहना होता है तथा समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के साथ-साथ सम्पूर्ण मनुष्यों के साथ स्नेह, सद्भावना, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा आदि सद्गुणों को स्वयं में विकसित करना तथा औरों में भी उनका विकास हो यह प्रयास करना होता है। इसलिये ऐसी पुस्तकों का बुद्धिमानी से चुनाव किया जाना चाहिये जिनमें मानवता का अजस्र स्रोत वहता हो ।
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ऐसी पुस्तकें चाहे किसी भी भाषा में छपी हुई हों और चाहे किसी के द्वारा लिखी हुई हों, अगर वे मानवता की जगाती हैं तो उन्हें पढ़ने में लेशमात्र भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। अनेक व्यक्ति यह सोचते हैं, अपने धर्म, अपने पंथ या अपनी साम्प्रदायिक पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकें पढ़ना नास्तिकता या मिथ्यात्व है। ऐसे व्यक्ति महान् भ्रम में रहते हैं। मिथ्यात्व बढ़ाने वाली पुस्तकें वे होती हैं, जिन्हें पढ़ने से मन में वैर-भाव, कषाय या हिंसा की जागति हो। इसके विपरीत मानव जीवन को उन्नत बनाने वाला साहित्य मिथ्यात्व की श्रेणी में नहीं आता । शर्त यही है कि पढ़ने वाले की दृष्टि सम्यक-समीचीन हो। शास्त्र कहता है कि सम्यग्दृष्टि के लिये तो मिथ्याश्रुत भी सम्यक्श्रुत के रूप में परिणत हो जाता है।
कोई भी धर्मग्रन्थ अथवा पुस्तक में यह नहीं लिखा होता कि मनुष्य हिंसा करे, झूठ बोले, चोरी करे अथवा अन्य किसी प्रकार का पाप-कर्म करते हुए जीवनयापन करे । एक मुक्तक में भी यही कहा गया है
पंथ के झगड़ों में मत उलझो, यह तो केवल राहदारी है, धर्म को धारण करो मित्रो ! धर्म कल्याणकारी है । धर्म और पंथ के भेद को, समझ लेना जरूरी है,
पंथ तो दूकानदारी है, और धर्म ईमानदारी है।
मुक्तक में सत्य कहा गया है। आज के समय के अनेकों व्यक्तियों ने बाह्य क्रियाकांडों को भगवान् के नाम पर भेंट पूजा तथा भंडारा आदि भरने के लिये दुकानदारी के समान आय का स्रोत बना लिया है, किन्तु हमें उनकी ओर न देखते हुए धर्म के सही और भीतरी रूप को समझकर उसका आदर करना चाहिये। साथ ही यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि
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मूल धर्म एक ही है जो विभिन्न नामों से हो सही, पर आत्मा को उन्नत बनाते हुए मोक्ष की ओर अग्रसर होने में सहायता करता है। किन्तु इस बात को बिरले पुरुष ही समझ पाते है और वे सहज भाव से कहते हैं
दुनिया भरम भूल बौराई। आतम राम सकल घट भीतर, जाकी सुध ना पाई। बकता ह ह कथा सुनावे, स्रोता सुनि घर आवे,
ज्ञान-ध्यान की समझ न कोई, कह सुन जनम गंवावै। वस्तुतः धर्म आन्तरिक है तथा धर्मान्धता बाह्य । इसीलिये धर्म को अपने विवेक एवं ज्ञान की कसौटी पर कसते हुए उसके अनुसार चलना प्रत्येक मानव के लिये आवश्यक है। कृष्ण ने 'गीता' में मानवमात्र को संबोधित करते हए कहा है
"विमूढा नानुपश्यन्ति, पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।" अर्थात- मूर्ख और अज्ञानी ईश्वर को नहीं देख सकते। सिर्फ वही देख सकते हैं, जिनके ज्ञान-रूपी नेत्र खुले हुए हैं । दूसरे शब्दों में, भगवान् ज्ञान-नेत्र से दिखाई देते हैं चर्मचक्षुत्रों से नहीं।
कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति अपनी बुद्धि, विवेक एवं ज्ञान के द्वारा प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है वही पंथ और सम्प्रदाय आदि के झगड़ों से मुक्त होकर मानवधर्म को सच्चा धर्म मानने लगता है और प्रत्येक प्रात्मा में ईश्वरीय रूप को देखता है ।
बंगाल के सुप्रसिद्ध समाजसुधारक देवेन्द्रनाथ ठाकूर अपने प्रारम्भिक जीवन में अपने धर्म एवं सम्प्रदाय को उत्कृष्ट मानते हुए अन्य सभी धर्मों को अत्यन्त तिरस्कार व घणा से देखते थे।
किन्तु कुछ समय पश्चात् संयोगवश एक बार ब्रह्मसमाजी उपदेशक प्रतापचन्द्र मज़मदार उनके यहाँ पहुँच गए और उन्होंने ठाकूर के यहाँ विभिन्न धर्मों की पुस्तक देखीं तो आश्चर्य सहित पूछ बैठे
"देवेन्द्रनाथ जी ! आप अपने धर्म का अत्यन्त कट्टरतापूर्वक पालन करते थे पर आज ये अनेक धर्मों की पुस्तके आपके यहाँ कैसे ?"
देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्तर दिया-"भाई, इन्सान जब तक जमीन पर चलता है, उसे पृथ्वी कहीं ऊँची और कहीं नीची दिखाई पड़ती है, किन्तु कुछ ऊपर पहुँच जाने के बाद उसे सम्पूर्ण धरातल समान लगने लगता है। मेरे साथ भी यही हुआ है, मैंने जब पक्षपात रहित होकर सभी धर्म-ग्रन्थों का अवलोकन किया तो मुझे उन सब में ही धर्म, जो मानव-धर्म है,
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वास्तव में ही जो पुस्तकें हमारी जिज्ञासानों को तृप्त नहीं करतीं, हमारी ज्ञानपिपासा को नहीं बुझातीं, हमें सत्कार्यों की प्रेरणा नहीं देतीं और हमारे विचारों को व्यापक, सहिष्णु, उदार, समत्वपूर्ण तथा जागरूक नहीं करतीं वे निम्न कोटि में प्रा जाती हैं और इसके विपरीत अच्छी पुस्तकें मानव के मस्तिष्क को पौष्टिक खुराक के रूप में अनेक ऐसे सद्गुण प्रदान करती हैं जो मानव को महामानव, दूसरे शब्दों में महात्मा बना देती हैं। महात्मा ही आत्मा और परमात्मा के मध्य की स्थिति है। कोई भी श्रात्मा महात्मा बने बिना परमात्मा नहीं बन सवती महात्मा अथवा महामानव की पहचान इसी से होती है कि वह सदा पर दुःख कातर रहता है, स्वयं कष्ट उठाकर भी औरों को सुखी करने में अपूर्व सुख का अनुभव करता है ।
दुर्गति में भी सुखी
एक बार रामानुज के गुरु ने उन्हें एक मंत्र देते हुए कहा - " वत्स ! इस मंत्र के रहस्य को कभी किसी और को मत बताना । "
तृतीय खण्ड
रामानुज बड़ी उदार प्रकृति के स्वामी थे। उनके अनेक भक्त सदा उनका उपदेश सुनते थे तथा उनकी संगति से लाभ लिया करते थे। रामानुज ने उनके अधिकाधिक कल्याण के लिये अपने गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का रहस्य बताते हुए उन्हें मंत्र दीक्षा दे दी। किन्तु जब उनके गुरु को यह मालूम हुआ तो वे रामानुज पर बहुत बिगड़े तथा उन्हें तिरस्कृत करते हुए बोले
" तुमने मेरी आज्ञा का पालन न करते हुए औरों को भी मंत्र का रहस्य बता दिया, अत: तुम्हें इसका परिणाम दुर्गति के रूप में भुगतना पड़ेगा ।"
यह सुनकर रामानुज का हृदय दुःख से भर गया, चेहरा फ़क्क होकर रह गया । पर साहस करके बड़ी विनम्रतापूर्वक उन्होंने अपने गुरु से पूछा:
"गुरुदेव ! मुझसे बड़ी भूल हो गई और भारी अनर्थ हुआ । पर कृपया यह बताइये कि मैंने जिन-जिनको मंत्र दीक्षा दी है, क्या वे सब भी दुर्गति को प्राप्त होंगे ?"
गुरु ने उत्तर दिया- "अगर तुम्हारे भक्तों ने पूर्ण श्रद्धा पूर्वक मंत्र ग्रहण किया है तो उन्हें सद्गति प्राप्त होगी ।"
रामानुज यह सुनकर हर्ष-विभोर हो गए और अपने गुरु के चरण-स्पर्श करते हुए प्रतीव प्रसन्नतापूर्वक बोले
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सत्साहित्य का अनुशीलन
"बस गुरुदेव ! अब मुझे कोई भय या चिन्ता नहीं है। अगर उन मंत्र-दीक्षित सभी को सद्गति मिलेगी तो मैं सहर्ष दुर्गति सहन कर लूंगा । अब मुझे लेशमात्र भी चिन्ता अपनी दुर्गति की नहीं है।"
अपने प्रिय शिष्य रामानुज की बात सुनकर उनके गुरु आश्चर्य के कारण स्तब्ध रह गये।
इसे ही सच्ची मानवता और महानता कहते हैं। जो उत्तम पुस्तकें मानव में ऐसी मानवता जागत करती हैं, उनका चयन करके उनसे मार्ग-दर्शन लेना चाहिये। गुरु और संतमहात्मा प्रत्येक समय हमारे समीप नहीं होते किन्तु उस स्थिति में उत्तम पुस्तकें भी गुरु के सदृश ही हमें सत्यासत्य का ज्ञान कराती हैं तथा कर्तव्य-बोध की प्रेरणा देती हैं। क्योंकि वे महापुरुषों के द्वारा ही लिखी जाती हैं। उन्हें हम प्रत्येक समय अपने साथ रख सकते हैं तथा किसी भी ज़रूरत के समय उनसे लाभ ले सकते हैं। एक अरब देश की कहावत है-"किताबें जेब में रखा हुअा ऐसा बगीचा है, जो हर समय फ़िजां में अपनी खुशबू बिखेरता रहता है।"
(३) केवल मनोरंजन और समय को बिताने वाला साहित्य--
___ तीसरे प्रकार के साहित्य अथवा पुस्तकों के द्वारा न मानव की आध्यात्मिकता का विकास होता है और न ही मानवता का । इस श्रेणी के साहित्य में समय को निरर्थक व्यतीत करने वाले घटिया किस्म के असंख्य उपन्यास किस्से-कहानियाँ और कुछ क्षणों का मनोरंजन करने वाले चुटकुलों की किताबें आती हैं। हम देखते हैं कि आज के समय में बिना गूढ़-ज्ञान प्राप्त किये और बिना विवेक, बुद्धि के विकास चार अक्षर पढ़कर अनेकों व्यक्ति लेखक बन कर निरर्थक कहानियाँ और उपन्यास केवल पैसा प्राप्त करने की दृष्टि से छपवाते रहते हैं। उन्हें पढ़ने वाले भी अधकचरे, अशिक्षित और अज्ञानी व्यक्ति ही होते हैं, जिन्हें अपनी साधारण शिक्षा-प्राप्ति के कारण न उत्तम किताबों का महत्त्व ही मालम होता है और न ही वे उच्चकोटि के साहित्य को पढ़कर कुछ समझ सकते हैं। परिणाम यह होता है कि ऐसे व्यक्तियों का जीवन खाने, सोने और जीवन-निर्वाह के लिये कमाने में व्यतीत होता रहता है। जो भी समय बचता है उसे वे सत्संगति और सत्साहित्य को पढ़ने में न लगाकर व्यर्थ जाने वाले अनाज के भूसे की तरह लाभहीन पुस्तकें पढ़कर गँवा देते हैं। (४) निकृष्ट साहित्य
चौथे प्रकार की पुस्तकें अत्यन्त घटिया साहित्य की श्रेणी में आती हैं। ऐसी पुस्तकें अश्लील और आपराधिक भावना को प्रश्रय देती हैं। इन्हें पढ़कर समाज के होनहार कम उम्र के युवक भी अनैतिकता की ओर बढ़ चलते हैं या चोरी, गिरहकटी और हत्यारों जैसे अपराध
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" जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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भी करने लगते हैं । ऐसी पुस्तकें लिखने और बेचनेवाले पैसे के लोभ में पड़कर यह विचार नहीं करते कि इस प्रकार का साहित्य व्यक्ति के जीवन को दुर्गुण-युक्त बनाकर उन दोषों के कीटाण समाज में भी फैलाएगा । जिस प्रकार एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, इसी प्रकार चन्द अनैतिक जीवन जीने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण समाज और देश के लिए घातक विष का कार्य करते हैं । अतः ऐसी निकृष्ट पुस्तकों का प्रत्येक को बहिष्कार करते हुए उनके लिखे जाने और छापे जाने पर भी रोक लगाने का प्रयास करना चाहिये।
अंत में मुझे यही कहना है कि श्रेष्ठ पुस्तकें जहाँ मनुष्य के जीवन को अमृतमय बना देती हैं, वहीं निकृष्ट पुस्तकें जीवन को विषमय बनाकर छोड़ती हैं। इसीलिये मानव को प्राध्यात्मिक तथा जीवन को सदगुण-सम्पन्न करनेवाली श्रेष्ठ पुस्तकों का चयन करके उनको पढ़ना या उनका स्वाध्याय करना चाहिये । श्रेष्ठ और उच्चकोटि की पुस्तकों के पीछे महान् पुरुषों की सैकड़ों वर्षों की मेहनत और लगन छिपी हुई होती है। उनके अनेक सुन्दर अनुभवों का संकलन होता है और उनके चिन्तन-मनन और ज्ञान का निचोड़ हमें सहज ही प्राप्त हो जाता है। इसलिये हम सहज ही जान सकते हैं कि उत्तम कितावें नरक को भी स्वर्ग बनाने की क्षमता रखती हैं। आप भी उत्तमोत्तम पुस्तकों का चुनाव कर उनका अध्ययन एवं परिशीलन करके अपने जीवन को उच्चता की ओर अग्रसर करें।
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संत और पंथ
आत्मार्थी बंधुप्रो !
आज हम संत और पंथ की समानताओं पर विचार करेंगे। आपको आश्चर्य तो होगा कि एक चेतन है और दूसरा जड़, भला इनमें समानता कैसी? किन्तु फिर भी इनमें समानता है और किस प्रकार है यही हमें देखना है । संत और पंथ या 'पथ' दोनों ही प्राणियों के लिये आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं। इन दोनों की सहायता से ही मानव भौतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में अग्रसर होता है तथा अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करता है। (१) दोनों एक ही पृथ्वी पर
पहली समानता दोनों में यह है कि ये दोनों इसी पृथ्वी पर हैं । आज के युग में आवागमन इतना बढ़ गया है कि पंथ और दूसरे शब्दों में पथ या मार्ग के अभाव में मनुष्य पंगु होकर रह जाता है । पृथ्वी पर चारों दिशाओं में मार्गों का जाल सा फैला हुआ है। इन्हीं पर चलकर मानब रेल, बस, तांगा, बैलगाड़ी अथवा पद-यात्रा करके भी एक शहर से दूसरे शहर और एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुंचता है। पथ ही उन्हें अपने निदिष्ट मंजिल की ओर ले जाता है तथा मनुष्य मार्ग-द्वारा जाकर ही अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाने की सुख-सुविधाएँ जुटाता है तथा पारिवारिकजनों, इष्ट-मित्रों और संत-महापुरुषों की संगति का लाभ उठाता है।
पंथ के समान ही संत भी इसी पृथ्वी पर होते हैं। हमारा भारत सदा से धर्म-प्रधान रहा है। यहाँ की पावन और यशस्वी धरा पर प्रत्येक समय, काल या युग में ऐसे-ऐसे महान संतों ने जन्म लिया है, जिनके द्वारा पथ-भ्रष्ट, अज्ञानी, कर, हिंसक और अपने पाप-कर्मों से दुर्गति की ओर बढ़नेवाले प्राणियों को ज्ञान का प्रशस्त आलोक-पथ मिला है और महान संतों के पथ-प्रदर्शन से मन को आध्यात्मिकता की ओर मोड़कर उन्होंने साधना के राजमार्ग पर चलते हुए संसार-मुक्तिरूपी मंजिल प्राप्त की है। इतना ही नहीं, सच्चे संत, श्रमण अथवा साधक में साधना की एवं प्राणीमात्र के प्रति समभाव और प्रेम की ऐसी अलौकिक शक्ति जागृत हो जाती है कि वह सिंह और सर्प जैसे विषधर को भी बोध देने में समर्थ हो जाते हैं। श्रमण भगवंत महावीर का उदाहरण आप सभी को ज्ञात है कि वे लोगों के बारंबार मना करने पर भी विषधर चंडकौशिक सर्प के समीप पाए और उन्होंने उसके वज्र-विषदंतों के विष को अमृत में बदलकर बोध दिया
"संबुज्झह किं न बुज्मह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। नो हवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीविकं ॥
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
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विषधर के प्रति प्रेम, दया, क्षमा एवं कर्तव्य की विजय हुई तथा भयंकर विषधर नाग भी परास्त होकर पानी-पानी हो गया । आत्मग्लानि एवं पश्चात्ताप के कारण अंत में मनुष्यों के असंख्य प्रहार सहकर भी क्रोध की भावना का सम्पूर्ण रूप से परित्याग करके जीवनांत के समय ऊर्ध्वगामी बना।
कहने का अभिप्राय यही है कि इसी पृथ्वी पर ऐसे महान संत, योगी और ऋषि पाए जाते हैं जो यात्री को मंजिल पर पहुँचाने वाले पथ के समान ही मुमुक्षु को मोक्ष-रूपी मंजिल तक पहुँचाने में भी सक्षम होते हैं । (२) संत और पंथ, दोनों के विषय में जानकारी यथार्थ हो
यथार्थ जानकारी के अभाव में पथिक, पथ पर निरंतर चलकर भी अपने गंतव्य तक नहीं पहुँच सकता । इसीलिये किसी भी शहर, गाँव, बस्ती अथवा नदी-तालाब की ओर भी जाना हो तो अपने कदम बढ़ाने से पूर्व वह अन्य व्यक्तियों से मार्ग की जानकारी करता है। अनेक बार तो वह किसी एक के मार्ग-दर्शन पर विश्वास न करके कई व्यक्तियों से सही मार्ग की पुष्टि करता हुअा चलता है, साथ ही मील के पत्थरों पर अथवा पथ पर लगे हुए बोर्डों पर अपने इच्छित गाँव का नाम पढ़कर आगे बढ़ता है। इस प्रकार अनेक सावधानियां बरतता हुया वह उस मार्ग पर विश्वास करता है, जिस पर चलना चाहता है या चल देता है। सही जानकारी के अभाव में अगर वह उन्मार्ग पर चल पड़ेगा तो निश्चय ही उसका गन्तव्य किसी और दिशा में रह जाएगा और वह इतस्तत: भटकता ही रहेगा।
सच्चे संत की जानकारी के विषय में भी ठीक यही बात है। अगर मानव अपनी मोक्ष-रूपी मंजिल को पाना चाहता है और उसे ही अपनी गन्तव्य मानता है तो उसे सच्चे पंथ-रूपी संत की सही पहचान करनी होगी तथा उसके विषय में पैनी दृष्टि से जानकारी हासिल करनी पड़ेगी, अन्यथा उसकी आत्मा को मुक्ति-रूप मंजिल तक पहुँचना तो दूर संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए अनन्त काल तक भटकते रहना होगा।
आजकल हम कदम-कदम पर साधु वेश-धारी व्यक्तियों को देखते हैं । वे विभिन्न प्रकार के बाने पहनकर तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाओं के द्वारा भोले व्यक्तियों के मन को जीतकर स्वयं को संत-महात्मा कहलवाने लगते हैं । अनेक नगरों में बड़े-बड़े मन्दिर और उनमें महन्त होते हैं, किन्तु उनके जीवन की वास्तविक स्थिति कैसी होती है ? मंदिरों में चढ़ाया जानेवाला अपार धन एवं भोग आदि का भंडार उनके हाथ में होता है, जिसके द्वारा वे राजा-महाराजा के सदृश रहते हैं, किन्तु त्याग के नाम पर शून्य तथा उसके स्थान पर सभी कषाय विद्यमान रहते हैं। ऐसे संत-महात्मानों के भक्त भी अनेक प्रकार के लोभ और लालच को हृदय में बसाए हुए उनकी भक्ति और पूजा के द्वारा लौकिक एषणाओं की पूर्ति एवं मुक्ति की अभिलाषा
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करते हैं । क्या ऐसे संत और शिष्य वास्तव में सद्गति प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं, दोनों ही लोभ-लालच और राग-द्वेष रूपी बन्धनों से जकड़े रहने के कारण किस प्रकार संसार-मुक्त हो सकते हैं ? एक मारवाड़ी दोहे में सरल किन्तु सत्य कहा है
लोभी गुरु लालजी चेला दोनों खेलें दाव । दोई डूबे बापड़ा, बैठ पत्थर की नाव ॥
यही बात एक छोटे से उदाहरण में बताई गई है कि एक गाँव में एक संत ने चातुर्मास किया और प्रतिदिन राम और कृष्ण यादि की कथा सुनाई । चातुर्मास की समाप्ति के समय संत ने सोचा - " मैंने लम्बे समय तक कथा बाँची है अतः अधिक नहीं तो कम से कम पाँच सौ रुपये और कपड़े तो दक्षिणा में मिलेंगे ही ।"
उधर गाँव वालों ने सोचा- "इस बार फसल बिगड़ गई है, आमदनी कम होगी । दूसरे, महात्मा जी को तो अब जाना ही है, फिर नाराज होकर भी हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? हम सब पाँच-पाँच रुपये इक्ट्ठ करके इन्हें सौ रुपयों में ही निपटा देंगे। अब तक भगवान् की कथा सुनकर हमने पुण्य तो कमा ही लिया है, इसलिये फ़िक्र की कोई बात नहीं ।
इस प्रकार गुरु और चेले, दोनों ही स्वार्थ, लोभ और लालच रूपी पत्थर की नाव में सवार रहते हैं और उसके द्वारा भव-सागर पार करना तो दूर की बात है, अतल गर्त में डूब जाते हैं ।
सच्चे संत वह होते हैं जो " आप तिरे औरन को तारे।' इस बात को सार्थक कर सकते हैं । ऐसे सच्चे और विरले संतों की जानकारी करने की बात ही चल रही है । 'योगशास्त्र' में सच्चे संत और दूसरे शब्दों में, सच्चे गुरु की पहचान करने के लिये उनके लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं:
महाव्रतधरा धीरा, भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥
अर्थात् — हिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह, इन पाँचों महान् व्रतों का पूर्ण रूप से पालन करनेवाले, धैर्यवान्, शुद्ध भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करनेवाले, संयम में दृढ़ एवं स्थिर रहनेवाले और सच्चे धर्म का निःस्वार्थ भाव से उपदेश देने वाले संत-महात्मा ही गुरु माने गए हैं ।
इन लक्षणों की कसौटी पर कसकर हम जानकारी हासिल कर सकते हैं कि संत कहलाने की योग्यता किसमें है । जिसमें ये लक्षण शुद्ध रूप में पूर्णतया प्राप्त होते हों, उनके सदुपदेशों के द्वारा व्यक्ति संवर, निर्जरा और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है ।
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श्री शंकराचार्य ने भी 'मोहम्दगर' में लिखा हैसुरमन्दिरतरुमूलनिवासः,
शय्याभूतलमजिनं वासः। सर्वपरिग्रहभोगत्यागः,
कस्य सुखं न करोति विरागः॥ यानी-जो विरक्त व्यक्ति देव-मन्दिर या वृक्ष के नीचे पड़े रहते हैं, पृथ्वी जिनकी चारपाई और चर्ममय ही जिनका वस्त्र होता है, सम्पूर्ण विषय-भोगों के सामान जिन्होंने त्याग दिये हैं अर्थात् जो वासना-रहित हो गए हैं-ऐसे किन मनुष्यों को सुख और शांति नहीं है ? यानी त्यागी सदा सुखी व संतुष्ट रहता है।
बंधुनो ! मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को बड़ी पैनी नजरों से, बताए हुए लक्षणों के आधार पर सच्चे त्यागी, महात्मा या संत की पहचान करनी चाहिए। ऐसा साधु-पुरुष किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय का हो सकता है । त्याग, विरक्ति आदि सभी गुण किसी मत या पंथ पर निर्भर नहीं हैं। (३) संत और पंथ टेढ़े न होकर सीधे हों
प्रत्येक पथिक यह चाहता है कि उसका पथ टेढ़ा-मेढ़ा घुमावदार और ऊबड़-खाबड़ न हो। साफ़, सीधा रास्ता हो तो चलने में सहूलियत होती है तथा मंजिल पर शीघ्र पहँचा जा सकता है। ऊबड़-खाबड़ तथा कंटकाकीर्ण मार्ग पैरों को क्षति पहुँचाता है तथा समय अधिक लगने से पथिक थक जाता है और चलते-जलते ऊब भी जाता है।
संत के लिये भी यही नियम लागू होता है। उसका हृदय सरल और शुद्ध हो । साथ ही क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष एवं स्वार्थ रूपी कंटक और कंकर-पत्थर उसके अन्दर न हों तो वह अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक प्रात्मार्थी को प्रफल्ल भाव से साधना के मार्ग पर अग्रसर कर सकता है। किन्तु इसके विपरीत क्रोधी या कटुभाषी संत के सामीप्य से प्रत्येक भक्त या शिष्य घबरा जाता है और अशांत होकर दूर भागता है। कहा भी है:
"जह कोवि अमयरुक्खो विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। ण चइज्जइ अल्लीतु, एवं सो खिसमाणो उ॥"
बृहत्कल्पभाष्य
गाथा में कहा गया है कि-जिस प्रकार विषैले काँटोंवाली लता से वेष्टित होने पर अमृत-वृक्ष का भी कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों को तिरस्कृत करनेवाले और दुर्वचन कहने वाले विद्वान् या संत-महात्मा को भी कोई नहीं पूछता ।
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संत और पंथ
किन्तु इसके विपरीत विवेकी और मृदुभाषी संत की संगति पाकर बुरा मनुष्य भी अच्छा बन जाता है । यथा-एक संत का उपदेश सुनने के लिये एक कृपण व्यक्ति भी आया । प्रवचन सुनकर वह प्रभावित हुआ और उसने एक रुपया भेंट किया।
महात्माजी ने उस व्यक्ति को बुलाकर अपने समीप बैठा लिया। यह देखकर उस कंजूस व्यक्ति ने कह दिया
"महात्माजी ! क्या आपने अभी तक धन का लोभ नहीं छोड़ा, जो रुपया देने पर मुझे अपने समीप बिठाया है। पैसा देनेवालों का आदर तो लालची व्यक्ति ही करते हैं।"
महात्माजी बड़े अनुभवी किन्तु सरल और सीधे थे। उन्होंने उत्तर दिया
"बंधू ! मुझे तो धन का तनिक भी लोभ नहीं है, किन्तु तुमने आज प्रथम बार एक रुपये का त्याग किया है, अतः अंशत: त्यागी मानकर ही मैंने तुम्हें अपने निकट बैठाया है। याद रखो ! अगर इस त्याग-वृत्ति को बढ़ाते जानोगे तो वह क्षण भी कभी आएगा, जब तुम्हें परमात्मा अपने समीप बिठाएँगे।
यह संत के सीधेपन का सुन्दर उदाहरण है। उन्होंने टेढ़े भक्त को भी सीधे पथ पर बढ़ा दिया। (४) संत और पंथ सभी के लिए समान होते हैं
प्रत्येक पथ या मार्ग सभी पथिकों को समान भाव से मंजिल की ओर बढ़ने देता है। वहाँ किसी के लिये किसी प्रकार का पक्षपात अथवा भेद-भाव नहीं होता। मार्ग पर चाहे अमीर अपने लवाजमे के साथ चले या दीन-दरिद्र अपनी गठरी लिये हुए, चाहे उस पर शक्तिशाली पहलवान चले अथवा पंगू अपनी वैसाखी के द्वारा, चाहे वद्ध चले या बालक, और चाहे विद्वान संत-महात्मा चलें या निरक्षर भट्टाचार्य, मार्ग सभी को समान सहयोग देता है । न वह राजा-महाराजाओं के लिये स्वयं को साफ़ और चिकना बनाता है और न ही गरीब, पापी या किसी अपराधी को काँटा चभाता है या नुकीले पत्थरों से उसके पैरों को घायल ही करता है। पथ पर चलने वाला स्वयं सावधानी कम या अधिक रखे यह उसी पर निर्भर है, किन्तु पथ सभी के लिये समान रहता है।
ठीक इसी प्रकार सच्चे संत भी समदृष्टि होते हैं। अपने समीप आनेवाले किसी रईस का वे हर्षित होकर स्वागत नहीं करते और न ही दीन, दुखी या दरिद्र की भक्ति के प्रति लापरवाही अथवा उपेक्षा ही रखते हैं। अपने अनुभव और अपने ज्ञान को वे मुक्तरूप से सभी को समान भाव से देते हैं। जिस प्रकार सूर्य अपना प्रकाश प्रदान करने में, पवन शीतलता देने में और नदी-तालाब अपने जल से लोगों की पिपासा शांत करने में स्वार्थ या पक्षपात का भाव
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नहीं रखते, इसी प्रकार प्रत्येक सच्चे संत व साधु-पुरुष प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखते हैं तथा जाति-पांति अथवा अमीरी-गरीबी के भेद-भाव से रहित रहकर प्रत्येक जिज्ञासु को आत्म-कल्याण का मार्ग बताते हैं उन्हें सद्गुणों के संचय की प्रेरणा देते हैं।
'सूत्रकृतांग' में कहा गया है:
"सव्वं
जगं तु
समयाणुपेही, पियमध्वियं करस वि तो करेजा ।"
समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय । अर्थात् समदर्शी सज्जन पुरुष अपने-पराए, प्रिय या अप्रिय की भेद-बुद्धि से परे रहते हैं।
भगवान् महावीर के भक्त सुदर्शन के समभाव ने ही प्रतिदिन छः पुरुष और एक स्त्री की हत्या करनेवाले पापी अर्जुन माली को साधु-पुरुष बना दिया और इसी समत्व-भाव से परिपूर्ण महात्मा बुद्ध ने मनुष्यों की अंगुलियों की मालाएँ बनाकर पहनने वाले हत्यारे अंगुलिमाल को श्रमण बनाया। अगर वे पापियों से घृणा करते होते तो ऐसा होना संभव नहीं था ।
तृतीय खण्ड
इतना ही नहीं, सदैव ही समभाव को अनुपम दिव्य गुण माना गया है । प्रत्येक समय में महापुरुषों ने इस गुण को धारण करने की प्रेरणा दी है। भगवान् महावीर और बुद्ध से भी २०० वर्ष पूर्व पैलिस्टाइन में जरनिया नामक एक महान् शांति प्रिय एवं समभावी व्यक्ति हुआ, जिसने यही उपदेश २०० वर्ष पूर्व लोगों को दिया था ।
जरनिया एक धर्म-गुरु का पुत्र था, ग्रतः मंदिर में ही रहता था। एक बार उसके मंदिर में किसी धार्मिक उत्सव का आयोजन हुआ। उसने घूमते-घामते आकर देखा कि मंदिर के अन्दर अनेक राजा-महाराज तथा श्रीमन्त और श्रेष्ठी बैठे हुए हैं और उस भयंकर शीतकाल में अनेक प्रभावग्रस्त दीन-दुःखी स्त्री-पुरुष तथा अनाथ बच्चे बैठे ठिठुर रहे हैं। उनके तन पर
पूरे वस्त्र भी नहीं हैं और न ही सर्दी से कुछ बचाव के लिये सिर पर छत ही है !
यह देखकर जरनिया अत्यन्त क्षुब्ध हो गया और उसने लागवबूला होकर उन अमीरों से कहा
"आप सब राजा-महाराजा, सेठ श्रीमन्त और रईस मंदिर के अन्दर सुख से विराजमान हैं, किन्तु आप सब के काले कारनामों के साक्षी अधनंगे गरीब नर-नारी और बालक मंदिर के बाहर खुले मैदान में ठिठुर रहे हैं। जिनके पास न तन ढकने को पूरे वस्त्र हैं और न पेट, भरने के लिये अन्न ।”
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संत और पंथ
"लज्जा नहीं पाती आप लोगों को ? कहाँ से आपने पैसा इकट्ठा किया ? इन गरीबों को लटकर और इनके खुन का पसीना करके ही तो! निकल जाइये मेरे इस मंदिर से ! आप जैसे खनियों और बेईमानों के लिये मेरे मंदिर में जगह नहीं है। जाइये ! चले जाइये !! यहाँ वे आकर बैठेंगे जो भगवान के सच्चे भक्त होने के कारण इस कड़ाके की ठंड में भी बाहर बैठे हैं। आप लोगों की तरह उन्हें धन का अहंकार नहीं है, न ही स्वागत-सत्कार प्राप्ति की भावना ही है। वे केवल भक्तिवश बाहर तकलीफ़ उठाकर भी बैठे हए हैं। किसी प्रकार के स्वार्थ या किसी चाह के आधीन होकर नहीं।'
जरनिया की ऐसी कटु बातें सुनकर सब अमीर और राजा लोग घबरा गए । बड़ी खलबली मच गई। यही नहीं, वहाँ स्थित सारे धर्मगुरु भी स्तब्ध रह गए और मन ही मन जल उठे । जरनिया के प्रति उनके क्रोध और द्वेष का पारावार नहीं रहा। क्योंकि मंदिरों का खजाना या भंडार भरने वाले अमीर ही थे। उन्हें खुश रखने में ही उनका अपना भला था। इस कर्तव्य को वे निबाह भी रहे थे, किन्तु सत्यवादी जरनिया ने सब गुड़-गोबर कर दिया । मारे क्रोध के एक बार उन धर्म के ठेकेदारों ने जरनिया को ज़हर भी पिला दिया किन्तु दृढ़ आस्था और सच्चे धर्मभाव से प्रोत-प्रोत अपूर्व शक्ति का धनी जहर को पचा गया। वह जब तक जीवित रहा, निर्भय होकर अपने विचारों का प्रचार करता रहा।
जरनिया ने महावीर एवं बुद्ध से दो सौ वर्ष पूर्व जो सत्य कहा था तथा समभाव की प्रेरणा दी थी, वह आज भी ग्रहणीय है किन्तु कहे कौन ? आज स्थानक में यदि जरनिया के समान स्पष्ट कह दिया जाय तो आपको कैसा लगेगा ? पाप ही नहीं, हम साधु-साध्वी भी अगर समाज को सदुपदेश या सदाचार की शिक्षा दिये बिना ही भिक्षा लेते हैं तो हमारा स्थान भी आपके समान ही रहेगा। बिना श्रम किये, बिना समाज की सेवा किये और बिना साधु-वत्ति को समझे अगर साधु पकवानों का भोग लगाते रहें, आनन्द से भांग-गांजा पीते रहें और चरम के नशे में धुत्त रहकर तमाख का धुआँ उड़ाते रहें तो क्या वे चोर-उचक्के नहीं कहलाएँगे? समाधि-भाव, समत्व-भाव या त्याग उनसे कोसों दूर रहेगा। वे सबके लिये समान न रहकर टेढे, स्वार्थी और मार्ग-दर्शक न बनकर स्वयं तो संसार-सागर के अतल में जाएंगे ही साथ ही अपने अमीर और प्रशंसा के आकांक्षी, चाटकार भक्तों को भी ले जाएंगे। इसीलिये सन्त को सबके लिये समान होना चाहिये। (५) संत से मिलन और पंथ पर गमन करने से ही सच्चाई ज्ञात होती है
बन्धुनो ! हमें सदा पद-यात्रा ही करनी पड़ती है, अतः पथों के विषय में हमें आप लोगों की अपेक्षा अनेक गुना ज्यादा अनुभव होता है। विहार करते समय मार्ग में छोटे-छोटे गाँव और उनसे भी छोटी बस्तियाँ जिन्हें 'ढाणी' कहते हैं, पाती हैं और हमें प्रायः ऐसी जगहों
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
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पर ठहरना पड़ता है, क्योंकि एक-एक कदम नापते हए आखिर प्रतिदिन कितने माइल चला जा सकता है ? छः, आठ अथवा नौ-दस ।
तो मैं बता यह रही थी कि सदा ही एक स्थान से अगले स्थान पर पहुँचने के लिये मार्ग की जानकारी करनी पड़ती है, छोटे गाँवों के बीच में कच्चा रास्ता तो होता ही है, मील के पत्थर भी नहीं होते। अत: गाँव के लोग जो कच्चे-पक्के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भी सरलता से और अति-शीघ्र चलने के आदी होते हैं, हमें भी रास्ता बताते हुए कह देते हैं
"इस रस्ते से पधार जाइये महाराज जी ! थोड़ा सा चलने पर ही आगे बस्ती प्रा जाएगी।"
हम भी कभी-कभी उनकी बात मानकर शॉर्ट-कट-छोटा रास्ता-समझकर चल पड़ते हैं; किन्तु कुछ चलने पर ही पता चलता है कि कितना कंटकाकीर्ण तथा नुकीले पत्थरों से भरा हा बीहड़ मार्ग है जिस पर नंगे पैर चलने से कितनी तकलीफ और परेशानी होती है। दूसरे वही मार्ग, जिसे गाँववाले थोड़ा सा कहते हैं, कितने माइल निकलता है, वह हमें ही अन्दाज़ हो पाता है। तभी कहा है कि किसी के कह देने से नहीं वरन स्वयं चलने पर ही पथ की सच्चाई यानी वह कैसा है, इसका अनुभव हो सकता है।
ठीक इसी प्रकार संत से मिलने पर और उनका समागम करने पर ही जाना जा सकता है कि वे सच्चे संत हैं या नहीं, याकि तरण-तारण बनने की क्षमता रखते हैं या नहीं। जैसा कि मैंने पहले कहा था, आज के समय में कदम-कदम पर साधु-भेषधारी संत नज़र आते हैं। उनके शरीर पर गेरुए अथवा अन्य रंग के वस्त्र होते हैं, मस्तक पर जटा-जूट बँधा होता है। अनेक प्रकार की मालाएँ होती हैं तथा छापे-तिलक अथवा भस्म भी रमाई देखी जाती है। बड़े-बड़े मठों, मन्दिरों, आश्रमों आदि में उनका निवास रहता है । वे अपने घर को त्यागकर संत-महंत की उपाधि धारण कर लेते हैं, किन्तु उनका त्याग कैसा होता है यह तो उनके समागम से और संत-वृत्ति की कसौटी पर कसने से ही पता चल पाता है। जब तक मन और ज्ञानेन्द्रियों को वश में नहीं किया जाता और वासनाओं का त्याग नहीं होता तब तक घंटों अग्नि की आतापना लेने से, शूलों की शय्या पर सोने से अथवा पहरों गंगा के जल में खड़े रहने पर भी मन की शुद्धि नहीं हो सकती । इसके विपरीत शायर 'जौक' का कथन है
सरापा पाक है, धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से।
नहीं हाजत की वह पानी बहाएँ सर से पावों तक ॥ . अर्थात-जिन्होंने संसार की भोगेच्छानों से हाथ धो लिया है, वे आपाद-मस्तक स्वयं शुद्ध हो गए हैं, अतः ऐसे संत व त्यागियों को सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरूरत नहीं।
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संत और पंथ
हो गए।
वस्तुत: सच्चा साधुत्व बाह्य क्रिया-कांड पर निर्भर नहीं होता और न ही जातिपाँति के प्राधीन होता है। भगवान केवल सच्ची तथा अभिन्न भक्ति को ग्रहण करते हैं। संत नामदेव ऐसे ही ईश-भक्त और उनके अनन्य अनुरागी थे।
नामदेव के पिता दामाशेट जाति के 'छीपा' थे। इन्हीं के घर नामदेव ने जन्म लिया । बाल्यावस्था से ही वे प्रभु-भक्ति में पूरी तरह रंग गए थे। बड़े होने पर वे अपना गाँव छोड़कर पण्ढरपुर में रहने लगे और पण्ढरीनाथ की भक्ति में निमग्न हो गए।
कहावत है-एक बार शिवरात्रि के दिन नामदेवजी प्रौढ़ियाँ में नागनाथ महादेव को कीर्तन सूना रहे थे। समीप ही अभिषेक करनेवाले ब्राह्मणों को नामदेवजी के स्वर से अपने मंत्र-पाठों में बाधा महसूस हुई तो उन्होंने बड़े तिरस्कार से डाँटते हुए उन्हें वहाँ से हटा दिया
और बड़बड़ाते हुए बोले-"ये नीची जाति के लोग भी अपने आपको भक्त समझने लगे हैं, जैसे भगवान् इन्हीं के सन्मुख प्रकट होंगे।"
__ नम्र संत नामदेव ने कुछ भी नहीं कहा और अपने पूर्ववत् प्रफुल्ल भाव से प्रासन उठाया और मंदिर के पीछे जाकर बैठ गए और कीर्तन करने लगे। किन्तु भगवान् विश्वनाथ को संभवत: क्रोध, और अपने आप को उच्च मानने वाले उन ब्राह्मणों के अहंकार-युक्त मंत्रों का उच्चारण अच्छा नहीं लगा, अपितु उन्होंने नामदेव के हृदय से निकलते हुए अनुरागपूर्ण कीर्तन को सुनना पसंद किया, अत: ब्राह्मण मंत्र-पाठ करते ही रहे, किन्तु मंदिर का गर्भ-गृह घूम गया तथा द्वार नामदेवजी की ओर हो गया । चमत्कृत हुए मंत्र-पाठी ब्राह्मण अपना सा मुंह लेकर रह गए। आज भी वहाँ पर नन्दीश्वर मंदिर के पीछे की ओर स्थित हैं।
जो भी हो, कहने का अभिप्राय यही है कि बाना बदल लेनेमात्र से ही व्यक्ति साधुत्व को प्राप्त नहीं कर लेता और अपने इच्छित को प्राप्त नहीं कर सकता । किसी ने कहा है
बाना बदले सौ सौ बार,
बदले बान तो बेड़ा पार । सत्य ही कहा गया है कि सैकड़ों बार बाने बदल लेने से कोई लाभ नहीं होगा, लाभ तभी होगा जब कि बान बदल जाएँगी, यानी आदतें बदल जाएँगी, ढंग बदल जाएगा और की जाने वाली क्रियाओं से दिखावा हट जाएगा। सच्चे संत प्रतिष्ठा और कीति की कामना नहीं करते, प्राडंबर नहीं चाहते तथा भीड़-भाड़ से दूर भागते हैं। वे जन-शून्य स्थानों पर निविघ्न रूप से साधना करते हैं । भर्तृहरि ने कहा है:
धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतामानन्दाथ जलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमकेशयाः ।
Sp.• जो श्रमण समा
समाहिकामे समणे तवस्सी - जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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ततीय खण्ड
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अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट
क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ॥ अर्थात्-वे सन्त धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफ़ानों में रहते हैं और परमात्मा की अपूर्व तेजोमय ज्योति का ध्यान करते हैं और जिनके भक्ति-पूरित अानन्दाश्रुओं का उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयतापूर्वक पान करते हैं। किन्तु हमारा जीवन तो मनोरथों के काल्पनिक महलों की बावड़ी के किनारे क्रीड़ा-स्थानों में विभिन्न प्रकार की लीलाएँ करते हुए ही निरर्थक व्यतीत हो जाता है। दूसरे शब्दों में शेखचिल्ली के समान खयाली पुलाव पकाते रहने पर भी अंत में देखते हैं तो कुछ भी हाथ नहीं आता । सच्चे संत तो बिरले ही होते हैं।
___ कहने का प्राशय यही है कि पंथ पर चलने से उसकी पहचान होती है तथा संत के संपर्क से उनके विषय में सच्ची जानकारी प्राप्त होती है। (५) संत और पंथ चलते रहें तो भय नहीं रहता
आपको इस बात पर कुछ आश्चर्य होगा कि सदा चलते रहना कैसा ? किन्तु आश्चर्य की बात नहीं है, पंथ के चलते रहने से अभिप्राय स्वयं उसके चलने से नहीं वरन् उस पर पथिकों के चलते रहने यानी आवागमन बने रहने से है। जिस मार्ग पर लोगों का आवागमन बना रहता है, वहाँ प्रायः उचक्कों या चोर-डाकुओं का भय नहीं रहता। निर्जन मार्ग पर इक्के-दुक्के शरीफ़ व्यक्ति लट लिये जाते हैं और अनेकों बार तो उन्हें जान से भी हाथ धोना पड़ता है । पहाड़ी-पगडंडियों पर और जनहीन पथों पर आज के युग में खतरा सिर पर मंडराता ही रहता है। तीर्थ-स्थानों पर जाती हई बसों के यात्रियों के लट लिये जाने की वारदातें भी हम प्राय: सुनते हैं, क्योंकि ऐसे स्थान अधिकतर बस्तियों से दूर पर्वतों पर स्थित हैं । इसीलिये कहा गया है कि पंथ चलता रहे तो भय नहीं रहता।
अब आती है संत की बात । वह भी चलता रहे तो ठीक रहता है। प्राशय यह है कि वह ग्रामानुग्राम या नगर-नगर में विचरण करता रहे। इस विषय को गिरिधर कवि ने अपनी सरल भाषा में स्पष्ट किया है :
बहता पानी निर्मला, बन्धा गंदा होय, त्यों साधू रमता भला, दाग न लागे कोय । दाग न लागे कोय जगत से रहे अलहदा, राग-द्वेष-युत प्रेत न चित को करे विच्छदा। कह गिरिधर कविराय, शीत उष्णादिक सहता, होय न कहं आसक्त यथा गंगाजल बहता ॥
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कवि ने संत को जल को उपमा दी है। कहा है-ताल, पोखर आदि का जल एक ही स्थान पर भरा रहता है, अतः शीघ्र गंदला हो जाता है, किन्तु नदी का जल सदा बहता रहने के कारण स्वच्छ बना रहता है । हम देखते भी हैं कि तालाब आदि के घाटों पर पर्वादि के अवसरों पर तो अनेकों लोगों के स्नान एवं वस्त्रादि साफ करने से जल इतना दूषित हो जाता है कि अनेक प्रकार की बीमारियाँ फैलकर जनता को मौत के मुंह में पहुंचा देती हैं, किन्तु नदियों का जल स्थान-स्थान पर एकदम स्वच्छ मिलता है।
संत के लिये भी कवि ने कहा है कि वह विचरण करता रहे। यह नहीं कि एक नगर में डेरा डालकर उसे अपना स्थायी निवासस्थान बना ले । संत को अनिवार्य स्थिति के अतिरिक्त सदा विचरण करते रहना चाहिये । इससे दो लाभ होते हैं । यथा(१) राग-द्वेष एवं प्रासक्ति से बचाव ।
अगर संत एक ही नगर अथवा ग्राम में रहता है तो कुछ व्यक्तियों से अधिक परिचय और उसके पश्चात् उनके प्रति मोह या राग होना अवश्यंभावी है और जिनके प्रति उसका राग होता है उनके विरोधियों से द्वेष भी। वह स्वयं भी अपनी भक्ति करने वालों से प्रसन्न रहता है तथा औरों के प्रति उदासीनता अथवा तिरस्कार की भावना रखता है। गिरिधर कवि के कथानानुसार राग एवं द्वेष, ऐसे प्रेत होते हैं जो संत के हृदय में पैठकर उसकी निर्मलता को नष्ट करते हुए कषाय-रूपी पापों से दागदार एवं बंधनयुक्त कर देते हैं। साथ ही एक स्थान पर सदा बने रहने से परिग्रह बढ़ जाता है और उसके प्रति आसक्ति । ऐसी स्थिति में संत की आत्म-शक्ति साधना की प्रखरता को प्राप्त नहीं कर पाती । उलटे वह मंद होती हुई निकृष्टता की ओर अग्रसर होने लगती है।
आत्म-शक्ति में तो इतनी प्रखरता होती है कि वह अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी प्रात्मा का विकाररहित अनन्त शुद्ध स्वरूप का ध्यान तथा चिन्तन-मनन करके उसे विभाव अवस्था से स्वभाव अवस्था में ला सकती है। ऐसी आत्म-शक्ति का धारक सदा यह चिन्तन करता है
निरामयो, निराभासो निर्विकल्पोऽहमानतः ।
निविकारो निराकारो निरवद्योऽहमव्ययः ।। अर्थात-मैं कषायादि रोगों से रहित हैं, मिथ्यात्व आदि भ्रम से परे हैं तथा रागद्वेष जनित सभी प्रकार के विकारों से रिक्त है। शरीर इन्द्रिय आदि भौतिक पदार्थों से भिन्न होने के कारण मैं पूर्णतया निराकार हैं, सर्वथा निष्पाप हैं और अनादि-अनन्त-रूप होने से अक्षय तथा शाश्वत भी हूँ।
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है. वही तपस्वी है।
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वस्तुतः साधु में ऐसी संयमी और दृढ़ ग्रात्म शक्ति होनी चाहिये। एक पाश्चात्य विद्वान् का कथन है—
"Most powerful is who has himself in his own power."
- जो आत्मसंयमी है, वही सर्वाधिक शक्तिमान् है।
स्पष्ट है कि जो साधक या संत एक स्थान का मोह भी नहीं छोड़ सकता वह रागद्वेषादि कषाय एवं आसक्ति का त्याग कैसे कर सकता है ? और इनके विद्यमान रहने पर वह संत कहलाने योग्य कैसे हो सकता है ?
(२) जन-कल्याण की क्षमता प्राप्ति
तृतीय खण्ड
संत को तरण तारण जहाज की उपमा दी गई है । यह तभी सार्थक हो सकती हैं, जबकि संत यथाशक्ति अधिक से अधिक ऐसे स्थानों पर विचरण करे जहाँ के भोले मानव धर्म के मर्म को समझ सकें।
जैन - कुल में जन्म
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हमने जब काश्मीर के क्षेत्रों में भ्रमण किया तो वहाँ देखा -- वहाँ के लेने वाले व्यक्ति भी अपने इष्ट, भगवान् महावीर या पार्श्वनाथ का नाम तक नहीं जानते थे । 'अहिंसा परमो धर्मः' के ज्ञान से शून्य निःशंक मांस-मदिरा प्रादि ग्रहण करते तथा इनका व्यवसाय भी करते थे। ऐसी स्थिति में अन्य जातियों की तो बात ही क्या थी! किन्तु उन सबमें एक बड़ी विशेषता थी और वह थी सरल जिज्ञासा। वहाँ के व्यक्तियों को सत्संग कभी मिला नहीं था । श्रतः प्रत्येक स्थान पर जहाँ हम ठहरते, श्रास-पास के तथा मीलों दूर के भी सैकड़ों व्यक्ति आते और बड़ी तन्मयता से हमारी बात सुनते कम समय में जो भी मुख्यमुख्य बातें मैं उन्हें समझा पाती, उसे वे समझते और ग्रहण भी करते थे। उनके हृदय कच्चे घड़े के या कोरी स्लेट के समान मुझे लगे, जिन पर सुना हुआ तुरंत अंकित सा हो जाता था । हिंसा, झूठ, चोरी आदि को जब वे पाप समझ लेते तो प्रवचन के बाद ही समीप आकर मांस भक्षण एवं प्राणियों को मारने का त्याग कर देते थे। कई सरल व्यक्ति तो आँखों में भर कर कह उठते
•
"महाराज जी ! हम बड़े पापी है, बहुत जीवों को मारा है हमने अब क्या होगा ? आप इधर पहले क्यों नहीं आए हमें समझाने ।"
उनकी बातें सुनकर मन बड़ा व्यथित होता किन्तु उनके दुःख और पश्चात्ताप को कम करने के लिये हत्यारे 'अर्जुनमाली' और डाकू 'अंगुलिमाल' जैसे व्यक्तियों के अनेक उदाहरण देकर समझाना पड़ता कि सच्चे मन से पश्चाताप और प्रायश्चित करने से पहले किये हुए पापों की निर्जरा होती है तथा भविष्य में न करने की प्रतिज्ञा कर लेने पर भी मन शुद्ध होता चला जाता है और अंत में उच्च गति प्राप्त हो सकती है।
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संत और पंच
यह सुनकर उन्हें काफी संतोष होता और जितना संभव होता ने त्याग करते । तथा अपनी प्रतिज्ञा का दृढ़ता से पालन करने की भावना व्यक्त करते ।
अभिप्राय यह कि साधु-संत अगर विचरण करते रहें तो छोटी-छोटी बस्तियों के लोग भी सत्संग का लाभ उठा सकते हैं तथा बातों को समझ कर अपने जीवन को सदाचारमय और निर्मल बनाकर उत्तम निर्माण कर सकते हैं।
सत्संगति के अभाव में
एक चित्रकार चित्रकला में बहुत कुशल था। वह प्रायः रमणीय स्थलों पर घूमता रहता धीर जैसे भी दक्य देखता उन्हें ज्यों के त्यों कागजों पर बना लेता। एक बार एक स्थान पर उसने प्रत्यन्त सुन्दर, सौम्य और सरल बालक को देखा । उसका शान्त और भोला चेहरा उसे इतना प्रिय लगा कि उसने बालक का एक सजीव सा चित्र बना लिया। उसके पीछे उसका नाम पता लिखकर अपने घर में टाँग दिया। जब भी वह उस बालक के चित्र को देखता, उसका हृदय प्रफुल्ल हो उठता ।
पश्चात् एकाएक एक चित्र के समीप एक
दिन चित्रकार के ऐसा चित्र लगाऊँ
समय व्यतीत होता गया और कुछ वर्षों के मन में इच्छा हुई कि इस सुन्दर प्रकृति वाले बालक के जो इससे बिल्कुल विरोधी भावों वाला हो। ऐसा करने से इस चित्र का महत्त्व और मूल्य अधिक बढ़ जाएगा ।
छोटे-छोटे गाँवों और यथाशक्ति धर्म की मूल अपना और समाज का
अपनी इच्छापूर्ति के लिये वह किसी विद्रूप, दुष्ट एवं क्रोधी व्यक्ति की खोज करने लगा । किन्तु उसके अंकित करने लायक चेहरा न दिखाई देने पर वह उस शहर के जेलखाने की ओर चल दिया । जेलर से जब उसने बात की तो जेलर मुस्करा दिया तथा चित्रकार को भी मनमौजी कलाकार समझकर जेल के अन्दर भेज दिया और कह दिया- "बंधु ! तुम स्वयं अपने चित्र बनाने के लायक चेहरा खोज लो ।"
चित्रकार जेल के अन्दर जाकर सबसे अधिक कुरूप और कुत्सित चेहरा ढूंढने लगा। अचानक सलाखों के पास एक युवक उसे दिखाई दिया जिसके चेहरे से बड़ी क्रूरता, नृशंसता, तथा विद्रूपता झलक रही थी। चित्रकार ने उसीका चित्र बनाना चाहा तथा उस युवक को समीप जाकर उसका नाम और पता पूछा। किन्तु जब उस युवक ने अपने बेहूदे ढंग और क्रोधी स्वर से अपना नाम-पता बताया तो चित्रकार ठगा सा खड़ा रह गया। युवक ने चित्रकार को बुत के समान खड़े देखकर कहा
" बात क्या है ? क्यों घूर रहे हो मुझे ?"
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ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है
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चित्रकार को उसका प्रश्न सुनकर मानो होश आया और उसने बताया-"भाई ! मैं वही चित्रकार हूँ जिसने तुम्हारा कुछ वर्ष पहले ही चित्र बनाया था । उस समय तुम कितने सुन्दर सौम्य, शान्त और सरल थे। अपनी चित्रशाला में पाजतक तुम्हारा वह सुन्दर चित्र देखकर मैं मुग्ध होता रहा हूँ, किन्तु माज तो तुम्हें उस समय से बिल्कुल विपरीत देख रहा हूँ तुम्हारी सुन्दरता, निष्कपटता और सौम्यता को ऐसी कुरूपता में किसने बदल दिया ?"
युवक उदास होकर बोला---"संगति ने ! हमारे छोटे से गांव में कोई संत महात्मा तो नहीं हैं जो मैं महापुरुष बनता । आवारा और उचक्के ही बसते हैं । इसलिये मैं भी वैसा बना और भाज जेलखाने में बैठा हूँ।"
बंधुयो ! यह बात कड़वी है मगर सत्य है कि समाज के बालक, युवक या बड़े व्यक्ति भी जैसी संगति प्राप्त करेंगे, वैसे ही बनेंगे। अगर साधु-साध्वी स्थान-स्थान पर जाकर मानव जीवन को उत्तम एवं सदाचरण युक्त बनाने का प्रयास करते रहें तो जन मानस श्रनंतिकता एवं पाशविकता से परे होकर कल्याण के मार्ग पर बढ़ सकता है। इसके अलावा संत भी ग्रात्म-तुष्टि का अनुभव करते हुए निःस्वार्थ एवं निरासक्तभाव से पूर्ण निराकुलतापूर्वक जहाँ इच्छा हो, साधना कर सकता है और जब मन हो, भटके हुए प्राणियों को सही मार्ग पर चला सकता है। अनेक प्रभावग्रस्त व्यक्ति जो दूर-दूर जाकर और वहाँ रहकर संत मुनिराजों के सत्संग का लाभ नहीं उठा पाते, वे महात्माओं के दर्शन और मिलन के लिये व्याकुल भी रहते हैं । ऐसे सरलचित्त मुमुक्षु की भावना सदा यही रहती है।
:
भोग उदास जोग जिन लीन्हो, छांड़ि परिग्रह भारा हो । इन्द्रिय- दमन वमन मद कीन्हो, विषय कषाय निवारा हो । na धौं मिलें मोहि श्री गुरुवर, करि अर्थात् भोगों का त्याग करके जिन्होंने
हैं
भव-दधि पारा हो ।
संयम अपना लिया है, सम्पूर्ण परिग्रह का भार उतार फेंका है, इन्द्रियों का दमन करते हुए अहंकार को नष्ट कर दिया है और सम्पूर्ण कषायों को जीत लिया है, ऐसे तरणतारण मुनिवर मुझे कब मिलेंगे जो भव-समुद्र से पार उतारेंगे ।
तृतीय खण्ड
ऐसे निर्मल चित्त वाले प्राणियों को लाभ देना संत का अनिवार्य कर्तव्य है और वह तभी पूरा हो सकता है, जबकि वह भ्रमण करता रहे और उसमें आनन्द का अनुभव करे संत कबीर ने मस्ती में डूबे रहकर कितने सुन्दर भाव व्यक्त किये हैं
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मन लागो मेरो यार फकीरी में ।
हाथ में कुडी बगल में सोटा, चारों दिशा जगीरी में । जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में ॥
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वास्तव में सच्चे संत और फकीर एक ही स्थान को अपना न मानकर चारों दिशानों को अपनी ही जागीर समझकर जिधर मन करता है, चल पड़ते हैं। एक ही जगह पर रहकर वे मोह-ममत्व के बंधनों में नहीं बँधते ।
अंत में यही कि आज हमने पंथ और संत की कुछ समानतानों पर विचार किया। पंथ अगर सीधा, समतल, कंटकों और कंकर-पत्थरों से रहित हो तो पथिक उसपर चलकर बिना भटके आसानी से अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है।
यह बात संत के लिये भी कही जा सकती है। संत अगर सही मायने में पूर्णतया निःस्वार्थ, निष्पाप और निरासक्त भावना से परिपूर्ण रहे तो वह अज्ञानावस्था में भटकते हुए प्राणियों को प्रात्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर कर सकता है। सच्चे संत के मार्ग को कोई भी शक्ति अवरुद्ध नहीं कर सकती। कोई भय उसे रोक नहीं सकता तथा कोई भी कामना उसे साधना के मार्ग से डिगा नहीं सकती, अगर वह अपने मन व इन्द्रियों को नियंत्रण में रखते हुए अपनी इच्छानुसार उन्हें चलाता है । क्योंकि:
“अहीवेगंतविट्ठीए, चरित्त पुत्त ! दुच्चरं ।" -सर्प के समान एकाग्र दृष्टि की तरह एकाग्र मन रखते हुए चारित्र का पालन करना अत्यन्त दुष्कर है । किन्तु जो इस दुष्कर पथ पर चल पड़ता है वह स्वयं तो संसार-सागर को पार करता ही है, औरों को भी पार उतार देता है।
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समाहिकामे समणे तवस्सी - जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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तूफ़ानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
आत्मार्थी बंधुप्रो !
आज हमें आस्था पर कुछ विचार करना है । आस्था अथवा विश्वास का छोटा सा भी दीपक अगर एक बार अन्तर्मन या आत्मा में प्रज्वलित हो जाए तो वह मानव को क्रमशः भक्ति, साधना तथा उपासना के मार्गों पर चलाता हुआ मुक्ति-रूपी मंजिल की ओर अग्रसर करता चला जाता है। सम्यक् आस्था का दीप कैसी भी विघ्न वाधाएँ क्यों न आएँ, तुफ़ानों के कितने भी दौर क्यों न गुजर जाएँ, कभी बुझता नहीं बल्कि वह आत्म-शक्ति को प्रखर और तेजस्वी बनाता है। आस्था का दीप ही एक ऐसा दीपक होता है जो प्रज्ञान के प्रावरण को भेदकर अपनी सम्यक् ज्योति से धर्म के मार्ग को प्रकाशित करता है ताकि मोक्षाभिलाषी व्यक्ति उस पर चलकर अपनी इच्छित मंजिल तक पहुँच सके।
किस धर्म मार्ग पर आस्था दीप प्रज्वलित रहे ?
वास्तव में यह एक बड़ी भारी समस्या है कि मनुष्य अपनी दृढ़ प्रास्था अथवा श्रद्धा किस धर्म पर रखे ? प्राज के समय में तो धर्म के नाम से अनेक धर्म-भ्रम चल रहे हैं। अधिकतर विवेकहीन व्यक्ति बाह्य क्रियाकांडों को बाह्याचारों को साम्प्रदायिक परम्पराओं को, जातिगत रीति-रिवाजों को अथवा कुरूड़ियों को धर्म का माकर्षक बाना पहनाकर भोली एवं सम्यक्ज्ञान से रहित जनता के समक्ष अपनी दृढ़ प्रास्था अथवा धर्म-परायणता का प्रदर्शन करते हुए उसे गुमराह करते हैं। ऐसी स्थिति में आस्था का भव्य दीप गलत मार्ग पर रख लिया जाता है और उन्मार्ग पर चलकर मानव की उत्कृष्ट मंजिल प्राप्ति की तमन्ना अनंतकाल तक भी पूरी नहीं हो पाती जन्म-जन्मान्तर तक उसे जन्म-मरण के दुःख उठाने पड़ते हैं।
जिस प्रकार किसी भी रोगी के लिये सर्वप्रथम तो यह आवश्यक है कि वह निष्णात चिकित्सक से यह जानकारी हासिल करे कि उसे क्या बीमारी है ? तत्पश्चात् चिकित्सक के द्वारा बताई हुई औषधियों का प्रयोग भी सही करे अन्यथा मालिश करने वाली दवा पेट में डाल ले और पेट में डाली जाने वाली से मालिश करने लग जाय तो मृत्यु के सिवाय उसे और कौन सी मंजिल मिलेगी ? स्पष्ट है कि दवा का उपयोग तो उसने पूर्ण विश्वास और प्रास्था के साथ किया, किन्तु सही ज्ञान के अभाव में प्रयोग उलट-पुलट हो गया। अतः स्वस्थ होने के बदले वह अधिक रुग्ण होकर मृत्यु का ग्रास बना ।
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यही हाल भोले, अज्ञानी और विवेकहीन व्यक्तियों का होता है। यद्यपि वे अपनी प्रात्मा का कल्याण करने के इच्छुक होते हैं, भव-सागर से पार उतरना चाहते हैं और अक्षय सुख की कामना रखते हैं, किन्तु सही मार्ग-दर्शन प्राप्त न होने के कारण यानी सच्चे धर्म का मर्म न समझ पाने के कारण वे धर्म के नाम पर ऐसा प्राचार-व्यवहार अपना लेते हैं और उसी पर अपनी आस्था का दीपक लेकर चल पड़ते हैं जो धर्म उन्हें अंत में प्रात्म-शांति, संतोष और उस सुख की प्राप्ति नहीं करा पाता, जिसकी आकांक्षा लेकर वे चलते हैं । इसलिये सर्वप्रथम आवश्यक है कि मुमुक्षु व्यक्ति सच्चे धर्म को समझे और उसके बाद पूर्ण प्रास्था सहित पाचरण करके चले। इसके लिये विवेक को जगाना अनिवार्य है, अन्यथा वह मुल्ला नसरुद्दीन के समान मूर्ख साबित होगा।
कहा जाता है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपनी सवारी के लिये गधा रखता था। एक बार वह गधे पर उलटा बैठा हुआ बीच बाजार में से जा रहा था। लोगों ने उसे देखा तो हँस पड़े और बोले
"मियाँ ! गधे की पूछ की तरफ मुंह करके क्यों बैठे हो ?' नसरुद्दीन ने बड़ी गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया
"पाप नहीं समझ सकेंगे कि मैं कितनी बुद्धिमानी से इस भीड़-भाड़ से भरे रास्ते पर चल रहा हूँ । जरा सोचो तो सही, मैं कितना चतुर हूँ ? इस तरह बैठकर मैं पीछे की ओर का ध्यान रख लेता हूँ और मेरा गधा आगे का रास्ता देख लेता है।"
विवेकहीनता और ज्ञान-रूपी नेत्रों के गलत उपयोग का यह एक उदाहरण है । मुल्ला नसरुद्दीन अपने नेत्रों का उपयोग कर तो रहा था लेकिन निरर्थक, जबकि पीछे देखते रहने से कोई लाभ नहीं था। गधा सामने देखता हुअा चल रहा था, किन्तु उसके पास विवेक या ज्ञान नहीं था । ऐसी स्थिति में वह कौनसी मंजिल की ओर पहुँचाता ? बस जिधर मुह उठाया, भटकता रहा।
___बंधुनो ! मैं आपसे यही पूछना चाहती हूँ कि क्या प्राज के अधिकांश मनुष्य ऐसा ही नहीं करते ? अज्ञान-रूपी गधे पर बैठकर अपने विवेक एवं ज्ञानमय नेत्रों का सही उपयोग न करके निरर्थक इधर-उधर भटकते रहते हैं । इस हालत में मुक्ति-मंजिल उन्हें कैसे मिलेगी? इसलिये आवश्यक यही है कि सर्वप्रथम वह अपनी इच्छित मंजिल तक पहुँचाने वाले धर्म के सच्चे मार्ग का ज्ञान प्राप्त करे और तदुपरान्त एकाग्र और दृढ़ आस्था के साथ उस पर बढ़ चले। भले ही धर्म के सही मार्ग पर चलते हुए कितनी भी विघ्न-बाधाएँ आएँ अथवा उन्मार्ग के प्रलोभन अपनी ओर आकर्षित करें, वह रुके नहीं, मुड़े नहीं और न ही अपना मार्ग बदले। अपितु अन्तर्मानस में पूर्ण आस्था रखते हुए निर्भयतापूर्वक यही विचार रखे:
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही लपस्वी है।"
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___'गहिओ सुग्गइमग्गो, नाहं मरणस्स बोहेमि' अर्थात्-मैंने सद्गति का मार्ग या सच्चा धर्म-मार्ग अपना लिया है । अब मैं मृत्यु से भी नहीं डरता। इक सरवर सू गागर भर ले !
उपर्युक्त पंक्ति राजस्थानी भाषा के कवि 'कृष्ण गोपाल' की एक सुन्दर कविता की है। आज हम देखते हैं कि अधिकतर लोग कभी मंदिर में जाकर आस्था सहित पूजा करते हैं, कभी स्थानक में प्राकर दो-चार दिन भगवान महावीर की वाणी सुनते हैं, कभी शिवजी को जल चढ़ाते हैं और कभी बजरंगबली हनुमान जी से प्रार्थना करते हैं। इसी प्रकार विभिन्न देवीदेवताओं के यहां जाकर अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। इतना ही नहीं, लोग पाखंडी साधु-महात्माओं के चमत्कारों की अफवाहें सुनकर भी इधर-उधर दौड़ते रहते हैं। कवि ने इन तमाशों को देखकर आत्मा को उद्बोधन देते हुए चेतावनी भरे शब्दों में कहा है:
मालण ! फूल फूल रो मोल करणो चोखो कोनी ए। कंवली! कली कली रो तोल करणो चोखो कोनी ए।
गली गली बैठचा सौदागर, जितरा मंदिर उतरी झालर, घाट-घाट पे मत जावे तू,
नाड़ी नाड़ी पाणी पालर । जोगण ! देव देव रो ध्यान धरणो चोखो कोनी ए।
सगला चादर में सो बाला, सारी आगल आगे ताला। मन रा पापी तन रा तापी,
हाथ उठावे भगवत माला। भोली ! जणां जणां री पोल चढणो चोखो कोनी ए। कवि ने बड़ी मधुर भाषा में अपनी आत्मा को सत्य के प्रति आगाह किया है कि ग्राज धर्म का मर्म समझे बिना ही विभिन्न प्रकार के कलेवर प्रोढ़े स्वयं को धर्म के ठेकेदार कहने वाले और भोले मानव को अपनी भेंट-पूजा के हिसाब से स्वर्ग और मोक्ष का टिकिट प्रदान करने की घोषणा करने वाले साधु, योगी, महन्त और मठाधीश बने हुए गली-गली में सौदागर बने बैठे हैं। किन्तु वे सब हाथों में माला लिये हुए भी मन और इन्द्रियों की तृप्ति की भूख लिये आडंबर द्वारा प्रज्ञानियों को ठगने की फिराक में रहते हैं। बाह्य क्रियाओं के अलावा आध्यात्मिक अथवा पात्मिक धन रूपी धर्म के नाम पर उनके पास शून्य है। वे मिथ्या ज्ञान,
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विश्व मैत्री दिवस पर सामूहिक क्षमा वाणी पर्व का एक दृष्य
इन्दौरस.२०४०
आचार्य श्री तुलसी की अमणी कुसुम प्रज्ञा से तत्व चर्चा करते हुए महासतीजी. अजमेर सं. २०३९
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स्वार्थ, कपट और पाखंड के कारण सम्यक ज्ञान-रूप कुजी ही प्राप्त नहीं कर सके हैं। उनके आंतरिक खजाने पर अज्ञान के ताले पड़े हैं और माया की आगलों से जुड़ा हुआ वह अभी तक अप्राप्य है।
इसीलिये कहा है-भोली यात्मा! तेरे लिये मंदिर-मंदिर भटकना, प्रत्येक देवीदेवता के दर-दर की खाक छानना और उनकी पोल-पोल पर चढ़ना उचित नहीं है। किन्तु यह आवश्यक है कि:
इक मूरत मंदिर में धर ले, इक सरवर सू गागर भर ले, इक देहरी पर दीप संजोकर,
इक आंगण में नर्तण करले। गजवण ! गली-गली में रास रमणो चोखो कोनी ए। पद्य में प्रात्मा को लक्ष्य करके यथार्थ सत्य कहा है कि--दर-दर भटकते हुए रास रचने की अपेक्षा अपने मन-मंदिर में एक इष्ट की स्थापना कर उस एक ही दहलीज पर आस्था का दीपक संजो! और मन के प्रांगण में ही तन्मय होकर भक्तिपूर्वक नत्य कर ! इसके अलावा अपने अंतर की प्यास बुझाने के लिये बाहर डोलने की क्या आवश्यता है ? अपने अन्दर ही आनन्द के अक्षय स्रोत से मन की गागर भरकर निश्चिततापूर्वक साधना में निमग्न हो जा। सच्चे धर्म की कसौटी
आज के भौतिकवादी, जो धर्म का मर्म नहीं समझ पाते, उनके लिये धर्म एक उपहास का विषय बनकर रह जाता है। वे देखते हैं-कोई वेद, पुराण, कुरान या बाइबिल रट लेने में धर्म समझते हैं, कोई नमाज, पूजा, हवन, संध्या या प्रार्थना में धर्म मानते हैं, कोई गंगाजल में स्नान करके, कोई चारों ओर अग्नि जलाकर उसकी आतापना लेकर और अनेक व्यक्ति इसी प्रकार की अन्यान्य क्रियाओं को करने में धर्म मानते हैं। किन्तु धर्म के मर्म को न समझकर वे उन क्रियानों से सच्चा लाभ नहीं उठा पाते । हमें देखना है कि सच्चा धर्म किसे माना जाय?
हम देखते हैं कि अनेक धर्म-ग्रन्थों को निचोड़ कर रट लेने पर भी लोग धर्म से विमुख रहते हैं, क्योंकि वे उसे जीवन-व्यवहार में नहीं लाते। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार तैरने की कला का ज्ञान कराने वाली पुस्तक को अच्छी तरह पढ़कर भी व्यक्ति न पानी में उतरता है और अगर किसी प्रकार उतर जाय तो प्राप्त ज्ञान के अनुसार हाथ-पैर नहीं चलाता।
समाहिकामे समणे तवस्सी " ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी है।
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दूसरी ओर तत्त्वज्ञान अथवा धर्मग्रन्थों के विषय से पूर्णतया अनभिज्ञ होते हुए भी अनेक व्यक्ति पूर्णतया धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उनके व्यवहार में कोमलता, निष्कपटता, नि:स्वार्थता, निरहंकारिता तथा स्नेह, करुणा, सद्भावना, निर्लोभता तथा वाणी में माधुर्य आदि ऐसे लक्षण पाए जाते हैं, जिन्हें हम धर्म की संज्ञा दे सकते हैं । साथ ही जान सकते हैं कि धर्म केवल किताबी ज्ञान नहीं है, भिन्न-भिन्न प्रकार की वेश-भूषा पहनने और बाह्य क्रियाकांडों में नहीं है, अपितु वह प्रात्मा में या मन में निहित होता है । अगर हमारा हृदय क्रोध से जलता रहे तथा उससे ईर्ष्या, द्वेष और कपट का धुआँ उठता रहे, उसमें लोभ का भूत और क्रूरता का राक्षस छिपा बैठा रहे तो फिर बाहरी धार्मिक क्रियाओं के करते रहने पर भी धर्म का अस्तिव कहाँ मिलेगा ! अगर मन में अड्डा जमाए हए विषय-कषायादि कम न हों तो यह निश्चयपूर्वक समझ लीजिये कि मनुष्य की तमाम धार्मिक क्रियाएँ धर्मरूप नहीं अपितु धर्माभास रूप होंगी। ऐसी क्रियाएँ प्रास्था के दीपक को भी गलत मार्ग पर रखती हुई उससे लाभ न उठाकर भारभूत, हानिकारक और मिथ्याभिमान का कारण बन जाती हैं।
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बंधुनो! कहने का अभिप्राय यही है कि मानव का अन्य प्राणियों के प्रति मधुर व्यवहार और उसके सदगुण ही वे कसौटियाँ हैं, जिनके द्वारा कसे जाने पर धर्म का सच्चा स्वरूप ज्ञात होता है। धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे जानने के लिये धर्म-ग्रन्थों का ढेर पढ़ा और रटा जाय । वह आचरण की वस्तु है। उसे हमारी प्रत्येक जीवन-प्रवृत्ति में प्रोतप्रोत हो जाना चाहिये अन्यथा गंभीर ज्ञानाभ्यास भी निरर्थक साबित होता है।
4.
तोता एक वाक्य रट लेता है--"बिल्ली पाए तो उड़ जाना।" किन्तु जब बिल्ली उस पर झपटने को हो, उस समय अपने रटे हुए पाठ का उपयोग न करे तो क्या वह बच सकेगा ? नहीं, क्योंकि उसने अपनो रटी हुई बात को अमल में लाना नहीं सीखा । पर तोता तो पक्षी है । वह भूल कर सकता है किन्तु बुद्धि, ज्ञान और विवेक के धनी व्यक्ति भी ऐसा ही नहीं करते?
सच्चा संन्यासी कौन ?
एक संन्यासी ने विचार किया- “मैं पहाड़ों में जाकर एकान्त में ऐसी साधना और तपस्या करूगा कि मेरे समस्त दोष स्वयं नष्ट हो जाएंगे।"
अपने संकल्प के अनुसार वह हिमालय पर्वत पर जा पहुँचा और तपस्या करने लगा। कंद-मूल खाकर वह अपनी क्षुधा शांत कर लेता और अपने कमंडलु को जल पीने के काम में लेता। शेष समय में वह तपस्या-साधना में लगा रहता। जब कई वर्ष इस प्रकार व्यतीत हो गए और उसे विश्वास हो गया कि मेरे सम्पूर्ण दोष तपस्या से जल गए तो वह अत्यन्त सन्तुष्ट
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व प्रसन्न होकर हिमालय से नीचे आया। लोगों की बातचीत से उसे पता चला कि आजकल कंभ का मेला चल रहा है। संन्यासी ने सोचा-त्रिवेणी में स्नान करके और पूण्य का लाभ उठाना चाहिये।
संन्यासी चल पड़ा और मेले में सम्मिलित हो गया। मेले के कारण मनुष्यों की बड़ी भोड़ थी। संन्यासी अपना कमंडलु लेकर संगम की ओर चल पड़ा किन्तु जन-समूह की धकापेल से टक्कर खाकर एक युवा संन्यासी प्रपना संतुलन बनाए नहीं रख सका और हिमालय से लौटे हुए घोर तपस्वी महाराज से जोर से टकरा गया। संन्यासी गिर पड़े, कुछ चोट आई पर उनका कमंडलु गिर गया तथा लोगों के पैरों से कुचला जाकर फूट गया।
युवा संन्यासी अत्यन्त दुःखी हुआ और उसने क्षमा माँगते हुए महात्माजी को सहारा देकर खड़ा किया। किन्तु संन्यासोजी मारे क्रोध के प्रागबबूला हो उठे और बोले-"दुष्ट ! चार दिन के साधुपने में ही घमंड के मारे अाँखें कपाल पर चढ़ाए घूमता है। मेरे जैसे सिद्ध तपस्वी को टक्कर मारता है ?"
"नहीं भगवन ! मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, लोगों के धक्कों ने मेरा संतुलन बिगाड़ दिया था। मैं आपके चरण छूकर पुनः पुनः क्षमायाचना करता हूँ।" यह कहने के माथ ही युवा संन्यासी महात्माजी के चरणों में झुक गया।
किन्तु उन सिद्ध संन्यासी का क्रोध शांत नहीं हया था। उन्होंने उस सौम्य और युवा साधु को पैर से ठोकर मारते हुए क्रुद्ध स्वर से कहा
"झूठ बोलता है ! एक तो टक्कर मारकर मुझे गिरा दिया, दूसरे मेरे कमंडलु को फुड़वाकर मेरा नुकसान कर दिया। अब क्या तेरा बाप मुझे नया कमंडलु लाकर देगा ?"
युवक संन्यासी उठ खड़ा हुआ। महात्माजी के चूर-चूर हुए कमंडल को देखकर उसे बड़ा पश्चात्ताप और दुःख हुा । पर उसने तुरन्त ही अपना कमंडलु तपस्वी महाराज की अोर बढ़ाते हुए कहा
'प्रभो ! आप कृपा करके मेरा यह कमंडलु ग्रहण करके मुझे कृतार्थ कीजिये । मैंने तो चंद दिन पहले ही संन्यास लिया है अतः यह भी नया है।"
. संन्यासी जी ने उसे घूरते हुए कमंडलु झपट लिया तथा बिलंब हो जाने के कारण जल्दी जल्दी राम-नाम जपते हए त्रिवेणी के पावनजल में गोते लगाकर पुण्योपार्जन करने चल दिये।
बंधुओ ! संन्यासी ने अहंकार, क्रोध, आसक्ति एवं कटु-भाषण आदि सम्पूर्ण दोषों . का नाश करने के लिये एकान्तवास करते हुए वर्षों तपस्या की और अपनी समझ में निर्मल
समाहिकामे समणे तवस्सी " मो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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होकर पुनः मानव समाज में आया, किन्तु व्यावहारिक जीवन के प्रथम चरण में ही उसके तपस्वी होने का गर्व, कमंडलु के प्रति आसक्ति और क्रोध के भूत ने अपने ज्यों के त्यों विद्यमान होने का प्रमाण दे दिया। दूसरी ओर चार दिन पहले ही बने युवा साधु ने बिना गूढ़ ज्ञान प्राप्त किये मौर घोर तपस्या किये बिना ही अपने मन की निर्मलता का परिचय नम्रता, लघुता, सहनशीलता, अक्रोधता तथा अनासक्तता के द्वारा दिया ।
उसीलिये मैंने कहा कि धर्म का सच्चा अस्तित्व पोथियों को पढ़ पढ़कर उनका अम्बार लगा लेने से अथवा बाह्य क्रिया कांडों के करने से नहीं जाना जाता, वह आत्म-धर्म है की और आत्मा के अन्दर रहे हुए रागद्वेषादि के कम होने पर जाना जा सकता है । मनुष्य प्रत्येक प्रवृत्ति, यथा-बोलना, चलना, खाना पीना अथवा व्यापारादि कार्य, धर्म से श्रोत-प्रोत होने चाहिये ।
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स्पष्ट है कि शुद्ध धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दया, क्षमा, ईमानदारी तथा सच्चे देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा होना है तथा जीवन व्यवहार की बातों में उनका बना रहना कसौटी पर कसे जाने के समान है। किन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि उपर्युक्त धर्म - क्रियानों को करने मात्र से ही व्यक्ति अगर यह समझ ले कि हम कसौटियों पर खरे उतर गए हैं, तो यह भी उसकी भूल है । सबसे बड़ी कसौटी किसी भी क्रिया के पीछे रही हुई भावना होती है ।
पाठ-पूजा, प्रार्थना साधना या तपस्या करने पर यदि अहंकार पनप गया तो समझना चाहिये कि साधक धर्म की कसौटी पर खोटा साबित हुआ है, इसी प्रकार दान जैसा शुभ कृत्य करके दानी गर्व से गर्दन अकडा कर चलने लग जाय तो भी उसकी दान क्रिया कसौटी पर खरी नहीं उतरती । क्योंकि दान देकर कुछ धन का त्याग किया किन्तु घमंड का श्राकर जम गया तो लाभ क्या हुआ ?
दानव मन में
सच्चा दान
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एक बार महात्मा बुद्ध ने राजगृह नगर में चातुर्मास किया। जब उनके बिहार करने का समय आया तो महाराज बिम्बसार से लेकर अनेक श्रेष्ठियों ने भगवान् बुद्ध के समक्ष बढ़चढ़कर दान में महल, भूमि और रुपयों की सूची बनानी प्रारम्भ की अधिक देने वाले स्वयं को श्रौरों की अपेक्षा अधिक दानवीर मानकर कम देने वालों को तिरस्कार की भावना से देख रहे थे। उपाधय में दान की अधिकता के अनुसार बैठने के स्थान निश्चित हुए, यानी जिसने अधिक दिया वह भागे और कम देने वाले उनसे पीछे बैठते चले गए। बुद्ध शांत भाव से यह सब देखते रहे । उन्होंने किसी की प्रशंसा अथवा सराहना के रूप में एक शब्द भी नहीं कहा ।
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अचानक बुद्ध ने देखा कि उपाश्रय के द्वार के समीप एक वृद्धा अपनी मुट्ठी में कुछ लिये हुए बड़ी पाशा और श्रद्धा के साथ खड़ी है। उसकी निगाहों में बड़ी दीनता है। बहुत लालसापूर्वक वह उनकी ओर एकटक देख रही है। यह देखते ही भगवान् बुद्ध उसी क्षण अपने आसन से उठकर उस वृद्धा के पास आए और बोले ----
"माँ, कुछ कहना चाहती हो?"
बुद्ध को अपने समीप देखकर वद्धा की आँखों से प्रानन्दाश्रु छलक पड़े। साथ ही वह अत्यन्त संकुचित होकर बहुत नम्रता के साथ धीमे शब्दों में बोली----
"भगवन् ! आज नगर के लोग दान दे रहे हैं, मेरी भी इच्छा तो बहुत कुछ देने की हो रही है, किन्तु मेरे पास तो केवल पाठ पाने ही आज की मजदूरी के हैं। क्या आप मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार कर लेंगे?"
एकाएक बुद्ध ने पूछ लिया--"क्यों माँ ! तुमने अाज खाना खाया ?"
वृद्धा बोली-"इसकी पाप चिन्ता न करें प्रभो! मैं कल फिर कमाकर खा लूंगी। एक दिन न खाऊँ तो क्या फ़र्क पड़ेगा ? कृपा करके आप इन पैसों को लेने से इन्कार न करें।"
बुद्ध स्तब्ध रह गए पर साथ ही अपना हाथ बढ़ाकर बोले-- "लामो ! अपना दान मेरे हाथ पर रख दो। मैं स्वीकार करूगा, इन्कार नहीं।"
बुद्ध के हाथ पर पचास पैसे रखकर वृद्धा मानो निहाल हो गई और हाथ जोड़े हुए खड़ी रही। मंथर गति से चलते हुए बुद्ध पुन: अपने स्थान पर पाकर विराज गए । किन्तु नगर के धनिकों ने जब यह नजारा देखा तो खिन्न होकर पूछ लिया
"भगवन ! हमारे मकानों, ज़मीनों, मोहरों और रुपयों की अपेक्षा क्या इस बुढ़िया की अठन्नी आपको अधिक मूल्यवान् लगी कि आपने स्वयं अपने हाथ से ग्रहण की?"
बुद्ध हँस पड़े। बोले-"निस्संदेह आपकी दौलत की इस ढेरी से ये पचास पैसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । कारण यह है कि आपने जितना धन दान में दिया है, उसकी अपेक्षा अपने खजाने में अहंकार की मात्रा उससे अधिक भर ली है और इस वृद्धा के प्रति ईर्ष्या
और द्वेष बढ़ाया है ब्याज में । किन्तु इस वृद्धा माँ ने नम्रता, दीनता और श्रद्धा की भावना से अपना पूरा धन, जो पाठ आना था, दे दिया है । यहाँ तक कि इस अठन्नी के अभाव में आज यह भूखी भी रहेगी। आप लोग ही बताइये कि भूखे रहकर भी पचास पैसे के रूप में अपना सम्पर्ण धन देना क्या अापके धन की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है ? साथ ही यह भी ध्यान में रखिये कि दान की कसौटी पर यह वृद्धा मा ही खरी उतरी है, आप लोग नहीं।"
समाहिकामे समणे तवस्ती HOP. जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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बुद्ध के सत्य वचन सुनकर राजगृह के श्रेष्ठियों के मस्तक झुक गए।
बंधुप्रो ! आप इस उदाहरण से भली-भाँति समझ गए होंगे कि सम्पूर्ण धर्म-क्रियाओं के पीछे रही हई भावना ही सच्ची कसौटी होती है जो धर्म के नाम पर किये जाने वाले मनुष्य के कार्यों को खरा या खोटा साबित करती है । जैनदर्शन कहता है
"आत्मशुद्धि-साधनं धर्मः।" अर्थात्-जिन प्रवृत्तियों और कार्यों से आत्मा की शुद्धि हो, दोषों का नाश हो, वही धर्म है।
भर्तृहरि ने भी अपने 'नीतिशतक' में धर्म के लक्षण बताते हुए मोक्षाभिलाषी व्यक्तियों को प्रात्मा के लिये अनिवार्य रूप से श्रेयस्कर मार्ग का निर्देश किया है:
"प्राणघातानिवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यम् । काले शक्त्या प्रदानं, युवतिजन-कथा मूकभावः परेषाम् ॥ तृष्णास्रोतो विभंगो, गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा ।
सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥" अर्थात्-प्राणघात से विरति, परधन हरण करने पर संयम, सत्य भाषण, यथासमय यथाशक्ति दान देना, परस्त्रियों की कामकथा के विषय में मौन रहना, तृष्णा के स्रोत को रोकना, गुरुजनों का विनय करना, समस्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा रखना, समस्त धर्मशास्त्रों में विहित सामान्य धर्म के विधान से भ्रष्ट न होना हो श्रेयस्कर पंथ है।
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. मनुस्मृति में भी धर्म के दस लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म-लक्षणम् ॥
-धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं प्रक्रोध ये धर्म के दस चिह्न हैं।
- इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न धर्मग्रन्थ भी हृदय की निर्मलता, पवित्रता तथा विशालता को ही धर्म मानते हैं, किसी सम्प्रदाय अथवा पंथविशेष की क्रियाओं को नहीं। धर्म के उपर्युक्त सभी लक्षण मनुष्य के अन्तर्मानस में निहित होते हैं जिन्हें बाह्याचार में लाया जाता है। भले ही कोई व्यक्ति जैनकुलोत्पन्न होने से स्वयं को सम्यकत्वधारी या औरों से ऊँचा समझने लगे, पर अगर उसमें सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा तथा आस्था प्रादि पांच लक्षण न हों तो वह भूल में रहेगा। इसके विपरीत अगर ये पाँच लक्षण तथा धर्म के बताए हुए गुण ब्राह्मण, राजपूत, मुसलमान अथवा शूद्र माने जानेवाले व्यक्ति में पाए जाते हों तो
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तूफानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
वह धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धात्मा की कोई जाति नहीं होती। आत्मिक गुणों पर भी किसी जाति, सम्प्रदाय, मत अथवा पंथ की ठेकेदारी नहीं हो सकती। केवल सत्कर्म हो मानव जीवन को उच्च बनाते हैं तथा सद्गति प्राप्त कराते हैं।
पाश्चात्य विद्वान् विक्टर ह्यूगो ने भी सुन्दर बात कही है
"God actions are the invisible hings of the door of heaven."
---शुभ कर्म स्वर्ग के दरवाजे का अदृश्य कब्जा है ।
आत्मा रहित कलेवर निरर्थक हैं
"
अधिकांश व्यक्ति पंच मत धथवा सम्प्रदायों को हो धर्म मान लेते हैं जबकि ये सब बाह्य कलेवर हैं । धर्म तो आत्मिक गुण है और वह आत्मा के साथ ही रहता है । प्रावश्यकता होती है उसे प्रकाशित करने की जिसे आस्था का दीप आलोकित करता है। धर्म जहाँ उत्तम गुणों में बसा हुआ होता है तथा चारित्र को महत्त्व प्रदान करता है, वहीं सम्प्रदाय गुणों की वृद्धि तथा चारित्रिक विकास की उपेक्षा करते हुए केवल विधि-विधानों को ही पकड़े रहता है । धर्म मनुष्य को नम्र बनाता है, किन्तु पंथ उसे मिथ्याभिमानी बना देता है । धर्म जहाँ मनुष्यों के बीच में खड़ी हुई भेद की दीवारों को गिराकर प्रभेदभाव की ओर ले जाता है, वहाँ सम्प्रदाय नई दीवारों का निर्माण करता है। धर्म मानव को अनेक बंधनों से मुक्त करता है। किन्तु सम्प्रदाय अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाकर उसे भूल भुलैया में फँसा देता है। शुद्ध धर्म किसी मत, सम्प्रदाय या पंथ की मालिकी न होकर वायु एवं आकाश के समान सर्वव्यापी होता है जो किसी भी व्यक्ति के लिये सुलभ होता है, चाहे वह किसी भी जाति या कुल में उत्पन्न क्यों न हो ! इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु को धर्म रूपी श्रात्मा से रहित मात्र कलेवर या खोल रूपी पंथ या सम्प्रदाय को पकड़े नहीं रहना चाहिये; अन्यथा वह धर्म के दर्शन भी करने में असमर्थ रहेगा ।
बाह्य क्रियाकांड और चोटी, जनेऊ, तिलक छापे आदि चिह्न धर्म नहीं होते, मात्र प्रतीक कहे जा सकते हैं । अतः न जनेऊ हटाने से धर्म नष्ट होता है और न ही हरिजन के हाथ का पानी पी लेने से । धर्म तभी मरता है जब मनुष्य के मन में से प्रेम, सहानुभूति, करुणा, सत्य, अहिंसा तथा न्याय-नीति आदि का लोप हो जाता है। इसलिये ग्रात्मशान्ति के इच्छुक को सच्चे धर्म का स्वरूप समझकर दृढ़ आस्था के साथ उसका पालन करना चाहिये ।
आप मेरी कही हुई बात भूले नहीं होंगे कि धर्म के मर्म को समझने के लिये ज्ञान प्राप्त करना अति उपयोगी एवं सहायक है जिससे जिससे मनुष्य वीतराग प्रभु की वाणी पर ग्रास्था रखता हुआ सद्गुणों को जीवन व्यवहार में उतारे। किन्तु शर्त यही है कि बह विद्वत्ता का
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बोझ दिमाग पर लादे हुए तर्क-वितर्कों में व्यर्थ समय नष्ट न करे, अन्यथा प्राप्त किया हुप्रा ज्ञान या विद्वत्ता निरर्थक साबित होगी। केवल ज्ञान और तर्क-वितर्कों के कारण मनुष्य मुक्ति के मार्ग पर चल नहीं पाता तथा चले बिना मंज़िल करीब नहीं आती ।
इबादत करो तो सही !
एक बार कुछ विद्वान् व्यक्ति किसी समारोह में शामिल होने के लिये एक नगर में गए। समारोह का आयोजन समाप्त हो गया और वे साथ ही लौट पड़े। चलते-चलते जब उन्हें थकावट महसूस होने लगी तो कुछ समय विश्राम के हेतु वे सब एक सघन वृक्ष के तले जा बैठे ।
तृतीय खण्ड
सभी विद्वान् थे अतः मौन कैसे रहते ? आपस में विचार-विमर्श करने लगे कि ईश्वर की स्तुति करते समय मनुष्य को क्या माँगना चाहिये ?
एक विद्वान् बोला - "भगवान् से प्रार्थना करते समय अन्न माँगना चाहिये, क्योंकि पन के बिना शरीर टिक नहीं सकता। कहावत है- "भूखे भजन न होहि गोपाला।" पहले व्यक्ति की बात सुनकर दूसरा विद्वान् बोला
" अरे प्रन्न क्या ऐसे ही पैदा हो जाएगा ? उसके लिये भुजाओं में बड़ी शक्ति चाहिये अतः अन्न की अपेक्षा प्रभु से शक्ति मांगना ज्यादा अच्छा है।"
दो विद्वानों की बातें सुनकर तीसरा बोल उठा
"वाह ! शक्ति होने पर भी अकल न हो तो अन्न क्या खाक पैदा होगा। शक्ति तो जंगल के राजा शेर में बहुत होती है, पर क्या वह फसल पैदा कर सकता है ? इसलिये सर्वप्रथम भगवान् ( से अक्ल या बुद्धि मांगनी चाहिये ।"
तीनों विद्वानों की बातें ध्यान से सुनने के बाद बड़ी गंभीरता से चौथे विद्वान् ने अपना विचार प्रकट किया
"मैं तो समझता हूँ कि भगवान् से प्रार्थना करके शांति मांगनी चाहिये । शांति के अभाव में वातावरण प्रशांत हो जाता है तथा लोग आपस में लड़-झगड़कर वैरभाव मोल ले लेते हैं । उस वैर के कारण एक-दूसरे की खेती उजाड़ देते हैं या पकी पकाई फ़सलों में आग लगाकर उसे भस्म कर देते हैं । इसलिये भगवान् से शांति माँगना ही उचित है ।"
चौथे विद्वान् की बात सुनकर पाँचवें से चुप नहीं रहा गया। उसने कहा
"क्या खूब; श्रजी, शांति भी कोई माँगने की वस्तुत है ? माँगना ही है तो भगवान् की स्तुति करके प्रेम क्यों न मांगा जाय ? प्रेम होने पर शांति तो अपने ग्राप हो जाएगी ।
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प्रेम होगा तो लोग मिलजुलकर अनाज पैदा करेंगे। भले ही किसी में शक्ति कम हो और किसी में अकल की कमी हो, साथ-साथ काम करेंगे तो एक-दूसरे की मदद करते रहेंगे ।"
सबकी बातें सुनकर छठा विद्वान् भुंझलाकर बोल पड़ा--" आप सबमें समझ की बहुत कमी है, तभी तो मूल को सींचने के बदले फूलों पर पानी डालना चाहते हैं । प्रेम तो फूल है, उसका मूल है त्याग । त्याग जहाँ होगा, वहाँ प्रेम, करुणा, सेवा आदि सभी फल-फूल स्वयं ही प्राप्त हो जाएँगे । अतः भगवान् से माँगना ही है तो त्याग माँगो ! " अब सातवाँ विद्वान् चुप न रह सका और तिरस्कारपूर्वक सबको संबोधित करते हुए कह उठा
" श्रोहो, क्या बात कही है ! त्याग क्या हाथ का लड्डू है जो जल्दी से मुँह में रख लिया ? त्याग ऐसी सरलता से प्राप्त नहीं हो सकता, जब तक मन में भगवान् के प्रति श्रद्धा न हो। इसलिये भगवान् से सीधी श्रद्धा ही माँगना चाहिये और कुछ नहीं ।"
आठवाँ विद्वान् अभी तक ऐसे चुपचाप बैठा मुस्कुरा रहा था, जैसे वह जज हो मौर सबके बोलने के बाद अपना फैसला सुनाएगा। अब वह जोश, क्रोध और रौब से बोला-"छि:, श्राप लोगों में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो प्रार्थना के द्वारा भगवान् से सही चीज़ माँगने के विषय में सोच सके । क्या आप नहीं जानते कि जबतक हृदय में मिथ्यात्व भरा पड़ा है, तबतक श्रद्धा उसमें घुस ही नहीं पाएगी। इसलिये अगर कुछ माँगना ही है तो भगवान् से मिथ्यात्व के नष्ट होने की प्रार्थना करो और सब छोड़ दो ।"
इस प्रकार वे सब महापंडित और विद्वान् वाद-विवाद करते हुए बहुत देर तक झगड़ते रहे । उनकी सारी बातचीत एक फ़कीर चुपचाप अपनी चादर प्रोढ़े पेड़ के तने के दूसरी ओर बैठा हुआ सुन रहा था। जब विद्वानों की बातों का कोई निर्णय नहीं निकल पाया तो उससे चुप नहीं रहा गया और सामने आकर बोला
"भाइयो ! इतनी देर से आपस में झगड़ क्यों रहे हो ? खुदा से कुछ भी माँगने की ज़रूरत नहीं है । तुम इबादत करो तो सही। सब कुछ स्वयं हासिल हो जाएगा ।" वस्तुतः किसी शायर ने इसीलिये कहा है:
मत कर दरे हुजूर पर तू बार-बार अर्ज, जाहिर है हाल तेरा, उस पर कहे बगैर । जोर-जोर से कानों के आरती करने से अथवा मस्जिद की सबसे ऊपरी चीख कर बांग देने की क्या आवश्यकता है ?
वस्तुतः मंदिर में
पर्दे फाड़ देने वाले झालर घंटे बजाकर मंजिल पर चढ़कर लाउड स्पीकरों में चीखईश्वर बहरा नहीं है, वह तो मन की बात भी
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तृतीय खण्ड
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जान लेता है। फिर ईश्वर या परमात्मा दूर कहाँ है ? घट-घट वासी है वह तो, फ़िर उसे पुकारने की क्या ज़रूरत है ? इतना अवश्य है कि परमात्मा का निवास उसी घट या आत्मा में होता है जो दोषों से खाली हो और निर्मल हो। एक छोटा सा उदाहरण हैराम खाली पीपे में है
एक संन्यासी घूमते-घामते किसी व्यापारी की दूकान पर पहुँच गए । दुकानदार ने उन्हें देखकर नम्रता से पूछा
"फ़रमाइये महाराज ! क्या चाहिए आपको ?' संन्यासी ने सहज भाव से उसकी दुकान में रखे हुए पीपों की ओर इंगित करते हुए
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पूछा
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"इन कनस्तरों में क्या-क्या है ?"
व्यापारी ने क्रमशः उनमें जो-जो था. बताना प्रारम्भ किया--"इसमें दाल, इसमें चावल, इसमें चना और इसी प्रकार कई वस्तुओं के नाम बताकर एक डिब्बे की ओर संकेत करते हुए कहा- "इसमें राम-राम है।"
संन्यासी यह सुनते ही चौंक पड़ा और बोला"राम-राम से क्या अभिप्राय है तुम्हारा ? मैं समझा नहीं।"
व्यापारी ने कहा-"महाराज ! राम ही राम है, इसका अर्थ यह है कि इसमें और कोई वस्तु नहीं।"
यह सुनते ही संन्यासी ने हर्ष-विह्वल होकर व्यापारी के दोनों हाथ पकड लिये और कहा-"भाई ! तुम मेरे गुरु हो। जो मैं आज तक नहीं जान सका वह रहस्य मुझे तुमने समझा दिया है।"
अब चौंकने की बारी दुकानदार की थी। वह चकित होकर बोला--"मैंने ऐसा कौन सा पाठ पढ़ा दिया आपको ? पाप तो स्वयं ज्ञानी हैं। हमारे गुरु हैं। खाली कनस्तर में राम हैं, केवल इतना कह देने से आप इतने प्रसन्न क्यों हो रहे हैं ?
"अरे ! मैं वर्षों से जिस तत्त्व की खोज में था वह आज तुम्हारे द्वारा ही तो मुझे मिला है।"
व्यापारी कुछ नहीं समझा । वह दिग्मूढ़ सा प्रश्नवाचक दृष्टि से आँखें फाड़े संन्यासी की अोर देखता रहा । तब संन्यासी ने ही उत्तर दिया
"भाई ! तुम्हारे कारण ही आज मेरी समझ में आया है कि जिस प्रकार खाली पीपे में राम हो सकता है, इसी प्रकार खाली पात्मा में परमात्मा रह सकता है। प्रात्मा में
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तूफ़ानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
परमात्मा को स्थापित करने के लिये उसे राग-द्वेष, छल-कपट एवं भेद-भाव आदि दोषों से कनस्तर के समान खाली करना पड़ेगा । अन्यथा उसमें परमात्मा नहीं रह सकता । तुमने प्राज इस अद्भुत रहस्य को मुझे समझा दिया । इसीलिये मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ और तुम्हें अपना गुरु मानता हूँ ।"
मृत्युञ्जय आस्था
बंधुनो ! अब आप भली-भाँति समझ गए होंगे कि धर्म के लक्षण क्या हैं ? वह किन कसौटियों पर कसा जाता है तथा उसका अस्तित्व कहाँ होता है ? यह जान लेने के बाद आवश्यक है कि मोक्षाभिलाषी साधक सम्यक् देव, गुरु एवं धर्म पर अपनी आस्था के दीपक को प्राणान्तक कष्ट आने तक भी प्रज्वलित रखे। दिव्य शक्तियों को जागृत कर सकता है । ग्रास्थावान् प्राणियों के तव-नियम सुट्टियाणं कल्लाणं जीवियंपि जीवंतज्जंति गुणा, मया पुणो सुग्गइं
दृढ़ आस्था रखे तथा तभी वह अन्तर की
लिये कहा भी है
मरपि ।
अर्थात्-तप-नियमरूप धर्म में भलीभाँति स्थित जीवों का जीना और मरना, दोनों ही कल्याणकारी हैं । जीवित रहने पर वे गुणों का अर्जन करते हैं और मरने पर सद्गति को प्राप्त होते हैं ।
धर्म पर अविचलित आस्था को एक बौद्धकथा में बताया है --- महात्मा बुद्ध अपने पूर्व जन्म में किसी ग्राम के अधिपति के यहाँ पैदा हुए। उनका नाम धम्मपाल रखा गया । कुछ बड़े होने पर वे ज्ञानार्जन के लिये एक महाविद्यालय में भेजे गए जहाँ पाँच सौ छात्र एक प्राचार्य से विद्याभ्यास करते थे ।
जंति ॥
उन्हीं दिनों आचार्य के युवा पुत्र की मृत्यु हो गई । सम्पूर्ण आश्रम के निवासी शोकाकुल हो गए किन्तु धम्मपाल पूर्ण रूप से शांत और निराकुल रहा। यह देखकर अन्य छात्रों ने तिरस्कारपूर्वक कहा - " धम्मपाल ! श्राचार्य का युवा पुत्र मर गया, सब रो-पीट रहे हैं पर तुझे जरा भी दुःख नहीं है ?"
धम्मपाल ने सहजभाव से उत्तर दिया- " बंधुनो ! तुम असत्य बोल रहे हो, बुद्ध होने से पहले कोई नहीं मर सकता ।"
छात्र साश्चर्य बोले -" क्या तुम्हारी कुल परम्परा में कोई जवान नहीं मरता ?"
"हाँ, अपनी कई पीढ़ियों का इतिहास तो मुझे मालूम है । उनमें कोई भी तरुणावस्था में नहीं मरा ।"
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तृतीय खण्ड
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छात्रों ने उनका उपहास करते हुए अपने शिक्षाचार्य से धम्मपाल की शिकायत की। प्राचार्य ने जिज्ञासा के कारण धम्मपाल को बुलाकर पुनः वही बात पूछी और धम्मपाल ने वही उत्तर दृढ़ता तथा शांतिपूर्वक दिया। प्राचार्य ने धम्मपाल के पिता की परीक्षा करनी चाही और एक दिन मृत पशुओं की हड्डियां एक थैले में रखकर ग्रामाधिपति के गाँव जा पहुँचे । उनके समक्ष बनावटी आँसू बहाते हुए बोले
"भाई ! धम्मपाल इस लोक को छोड़ गया। वह मेरा बहुत ही प्यारा और होनहार छात्र था। मैं उसे पुत्रवत् प्यार करता था, इसलिये स्वयं ही उसकी अस्थियाँ आप तक पहुँचाने प्राया है।
धम्मपाल के पिता ने हड्डियों की अोर दृष्टिपात ही नहीं किया। वह निश्चयात्मक स्वर से बोले
"प्राचार्यप्रवर ! मेरा पुत्र नहीं मर सकता। कोई और मरा होगा। ये अस्थियां उसकी नहीं हैं। हमारे यहाँ कोई तरुण नहीं मरता।"
शिक्षाचार्य ने घोर आश्चर्य से पूछा-"आप यह विश्वासपूर्वक कैसे कह सकते हैं कि आपके वंश में कोई जवान मर ही नहीं सकता?"
धम्मपाल के पिता ने प्रादरपूर्वक प्राचार्य से कहा
"प्राचार्यवर ! हमारे कुल के व्यक्ति वंशानुक्रम से क्रोध, हिंसा, असत्य, चोरी आदि सभी दोषों से परे रहते हैं। पुरुष अपनी पत्नी के अतिरिक्त संपूर्ण स्त्री जाति को माता, बहन मानते हैं तथा स्त्रियाँ पति के अतिरिक्त सभी को पिता व भाई के समान मानती हुई धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखती हैं। इसलिये धर्म से रक्षित मेरा पुत्र धम्मपाल जीवित और सुखी है। ये अस्थियाँ आप निःसंदेह किसी और की लाए हैं।"
प्राचार्य यह सुनकर दंग रह गए। उनकी धर्मनिष्ठता तथा अटूट आस्था देखकर नतमस्तक होते हुए अपने परीक्षार्थ आने के मकसद को प्रकट करके लौट गए।
ऐसी आस्था ही धर्म-मार्ग में आनेवाली विघ्न-बाधाओं और परीषहों को निर्मूल करती हुई आत्मा को परमात्मा बना सकती है ।
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सम्पूर्ण संस्कृतियों की सिरमौर ___ भारतीय संस्कृति
प्रात्मबन्धुओ!
संस्कृति किसी भी देश अथवा जाति की आत्मा होती है। इसके द्वारा उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनकी सहायता से देश अपने सामाजिक अथवा सामूहिक जीवन के प्रादर्शों का निर्माण करता है। संस्कृति किसी भी मानवसमूह के उन उदात्त गुणों को प्रकट करती है, जो मानव-जाति में सर्वत्र पाए जाने पर भी उस समूह की विशिष्टता के सूचक होते हैं और जिन पर उनके जीवन में अधिक जोर दिया जाता है। किसी भी देश या राष्ट्र का अस्तित्व उसकी संस्कृति के कारण बना रहता है । यह कहना भी अनुचित नहीं है कि संस्कृति के उदयास्त से ही राष्ट्र का भी उदयास्त होता है। संस्कृति का स्वरूप - संस्कृति शब्द का उद्गम 'संस्कार' शब्द से हुआ है 'संस्कार' का अर्थ वह क्रिया है, जिससे वस्तु का मल दूर होता है अथवा उसके दोष दूर होकर वह-शुद्ध-सिद्धि-साधक बनती है। इसका महत्त्व बताते हुए कहा गया है:
'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते' यहाँ 'द्विज' शब्द से सामान्यतया व्यवहार में लिया जाने वाला ब्राह्मणशब्द से तात्पर्य नहीं है अपितु व्यापक और सही अर्थ है दुबारा जन्म लिया हा यानी रूपान्तरित किया हुआ। मनुष्य जन्म मे कोरी स्लेट के समान होता है, वह चाहे किसी भी देश का हो एक सरीखे शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ रखता है, किन्तु जब उसमें परम्परागत उत्तम संस्कार गुरुजनों के द्वारा डाले जाते हैं, तब उसको द्विज अथवा पुनर्जन्म प्राप्त किया हया कह सकते हैं। ईसामसीह ने बाइबिल में कहा है:
"मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जब तक मनुष्य का दुबारा जन्म न हो, वह परमात्मा के दर्शन नहीं कर सकता।"
यहाँ दुबारा जन्म मे तात्पर्य मृत्यु के बाद के पुनर्जन्म से नहीं, किन्तु इसी जन्म में प्रात्मा की अवस्था के सुधार अथवा संस्कारित होने से है। तथा परमात्मा के राज्य' से अभिप्राय 'सत्य एवं पवित्रता' के उन दिव्य तथ्यों से है, जिनका पालोक अन्तरात्मा से प्रकट
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होता है। स्पष्ट है कि परमात्मा का राज्य मानव के अन्दर ही है किन्तु उत्कृष्ट संस्कार ग्रहण करने पर ही वह उसमें प्रविष्ट हो सकता है अन्यथा नहीं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि संस्कार का अर्थ आत्मा को शुद्ध करना, चमकाना तथा उसके भीतरी रूप को प्रकाशित करना है। शरीर का मैल जल से दूर हो सकता है, वस्त्रों का साबुन से और बरतनों का जंग खटाई मे दूर किया जाता है, उसी प्रकार जिन संस्कारों के द्वारा आत्मा का मैल दूर हो उसका नाम 'संस्कृति' है।
संस्कृति का माहात्म्य
जैसा कि अभी मैंने बताया है, संस्कृति का सम्बन्ध मन और आत्मा से है अर्थात् यह अान्तरिक है। इसका मुख्य लक्ष्य आत्मा पर प्रभाव डालना है। संस्कृति व्यक्ति के आन्तरिक गुणों का समूह होता है। यह ऐसी प्रेरक शक्ति है, जिसकी प्रेरणा से वह विविध सत्कार्य करता है तथा सद्भावना एवं सच्चरित्रता के द्वारा आत्मा को निर्मल बनाता हुआ उसे उन्नत स्थिति की ओर ले जाता है। संस्कृति हमारे सामाजिक व्यवहारों को उत्तम बनाती है, साहित्य और भाषा को मानवोचित गुणों से अलंकृत करती है तथा बताती है कि हम अपनी सूक्ष्म मनोवृत्तियों को कितना विकसित कर सके हैं। संस्कृति सम्यक चेष्टाओं का आधार है और सम्यक चेष्टाएँ ही आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनती हैं। इसीलिये मनुष्य के लौकिक और पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुकूल आचार-विचार ही संस्कृति कहलाते हैं। सुसंस्कृत व्यक्ति आध्यात्मिक प्रादों से कभी च्युत नहीं होता तथा लौकिक स्वार्थ के घेरे से निकलकर पारलौकिक जीवन के लिये भी सम्यक प्रयत्न करने को कटिबद्ध रहता है।
भारतीय संस्कृति में मनुष्य का एकमात्र ध्येय आत्म-साक्षात्कार अथवा भगवत्प्राप्ति होता है। मानव जीवन के उत्कर्ष की यही पराकाष्ठा है। जीवन की चरितार्थता में चार पुरुषार्थ माने गए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । मनुष्य का धर्म से परिचालित होने की स्थिति में पाना एक संस्कार है। यह संस्कार माता-पिता के आचरण, गुरु के द्वारा प्राप्त शिक्षा, उपदेश तथा सत्संग आदि से घटित होता है तथा विवेक-बुद्धि को जागृत करता है। सांसारिक जीवन काममय है, उसके लिये अर्थ का प्रयोजन होता है अत: भारतीय संस्कृति में अर्थ और काम भी पुरुषार्थ माने जाते हैं। किन्तु प्रथम पुरुषार्थ धर्म है और अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार । अतः अर्थ और काम कर्म और मोक्ष से बंधे रहते हैं। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय बात है कि धर्म से नियंत्रित अर्थ और काम भी पवित्र रहते हैं । यथा-धर्म के अनुसार चलने पर चोरी और चोरबाजारी नहीं की जा सकती, रिश्वत नहीं ली जा सकती, अन्याय से किसी का धन नहीं छीना जा सकता तथा निर्धन को भूखों-मारकर अपने आमोद-प्रमोद के साधन नहीं जुटाये जा सकते। धर्म से विषयभोगों की मर्यादा बँध
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जाती है तथा प्राहार-विहार पर नियंत्रण होता है । संक्षेप में अर्थ और काम के स्वैराचारों पर नियंत्रण रखने वाला धर्म ही है इसीलिये कहा गया है:
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धम्म त्यो कामो, भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता । जिणवयणं उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा ॥
दशर्वकालिक सूत्र धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर प्रसपत्न यानी श्रविरोधी हैं ।
वस्तुत: उन्नत मन और बुद्धि के भौतिक विकास सामान्य भौतिक विकास से कहीं अधिक आकर्षक, उद्बोधक और उपकारक होते हैं । हमारी संस्कृति में मानव जाति के उत्कर्ष की भावना बहुत ऊँची है। मनुष्य का आध्यात्मिक विकास एवं तदनुरूप भौतिक उत्कर्ष का प्रयास और इन दोनों का योग हमारी भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलता है ।
संस्कृति और सभ्यता एक नहीं हैं
संस्कृति के विषय में अधिक जानने से पहले हमें यह जान लेना उचित है कि संस्कृति और सभ्यता में कितना अन्तर है ? क्या सभ्यता और संस्कृति एक ही हैं, और नहीं तो इनमें से प्रत्येक का अर्थ क्या है तथा इन दोनों में क्या संबंध है ? इसका ठीक-ठीक विचार करना आसान नहीं है क्योंकि कुछ लेखकों ने जो अर्थ सभ्यता का लिया है, दूसरों वही अर्थ संस्कृति का समझा है । अनेक विद्वानों ने दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है, इतनी ही नहीं कई कोष निर्माताओं ने तो एक को दूसरे का पर्याय या समानार्थवाची बताया । किन्तु इन दोनों में बड़ा भारी अंतर है, जिसे समझना आवश्यक है ।
सभ्यता शब्द का अर्थ
'सभ्यता' शब्द 'सभ्य' से बना है; और सभ्य का एक अर्थ सभासद् या सदस्य है । सदस्यता किसी सभा, समूह अथवा समाज की होती है । इस प्रकार सभ्यता एक सामाजिक गुण है तथा व्यक्ति के समाज में रहने के कारण ही सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ है । सामान्यतया हम किसी व्यक्ति की सभ्यता का अंदाजा इस बात से लगाते हैं कि समाज में उसका उठना-बैठना, वेष-भूषा, बातचीत का तरीका और व्यवहार कैसा है ? जो साफ़-सुथरे वस्त्र पहने हो, शरीर तथा हाथ-मुँह जिसके मैल रहित हों, बाल व्यवस्थित और सँवारे हुए हों तथा उठने-बैठने, खाने-पीने और बातचीत में जिसके शिष्टाचार की झलक रहती हो उसे हम सभ्य कहते हैं, किन्तु ध्यान रहे कि इसमें हम उसकी बाहरी बातों की ओर ध्यान देते हैं, प्रान्तरिक गुणों की ओर नहीं । वर्तमान समय में तो ऐसे व्यक्ति अपने आपको सभ्यता की सर्वोच्च चोटी पर
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मानते हैं, जो ज्ञान प्राप्ति भले ही न कर पाए हों, उच्च भावनाओं से रहित हों किन्तु थोड़ी किताबी शिक्षा ग्रहण करके धौर शहरों में रहके सूट-बूट पहनते हों, मुंह में पान या सिग्रेट हर समय रखते हों, फ़ैशनकट बाल होने से नंगे सिर रहते हों और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान चाहे अधूरा ही हो पर अपनी भाषा के साथ उसका गलत सलत प्रयोग करके अपने विदेशी शब्द - ज्ञान की विज्ञप्ति देकर अन्य व्यक्तियों पर अपना रौब गांठते हों। ऐसे व्यक्ति सादा जीवन, उच्च-विचार रखने वाले व्यक्तियों को और गाँव के सरल, ईमानदार तथा नीतिमान् ग्रामीणों को बिल्कुल असभ्य मानते हैं। स्वयं की सभ्यता का दम भरने वाले ऐसे व्यक्ति अपने आपको सभ्य सुसंस्कृत कहते हुए ऊपर से टिप-टॉप न रहने वाले कम पढ़े लिखे किन्तु सच्चरित्र लोगों को भी असभ्य कहते हुए तिरस्कृत करते हैं।
उपरोक्त प्रकार के 'सभ्य' व्यक्ति अधिकतर अपनी भौतिक उन्नति में लगे रहते हैं। तथा स्वार्थ सिद्धि के विषय में सोचते हैं । उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि समाज के अनेक और व्यक्तियों की दशा कैसी है? कौन अभावग्रस्त या पीड़ित है तथा उनका कष्ट निवारण किस प्रकार किया जाय ? सभ्य कहलवाने वाले व्यक्ति प्रासानी से छल-कपट चालवाजी, धूर्तता, रिश्वतखोरी तथा दूसरों के पीड़न और शोषण की परवाह न करते हुए अपनी सुख-सुविधाओं के सामान जुटाने में लगे रहते हैं। सभ्यता का आवरण प्रोढ़कर वे अपने कुकृत्यों को और आसानी से इस प्रकार करते हैं कि इनके दोष साधारण व्यक्ति समझ नहीं पाते। ऐसे व्यक्ति अधिकतर पुलिस विभाग में बस-ट्रेन आदि वाहनों में, तथा अदालतों में आसानी से देखे जा सकते हैं। ऊँचे-ऊँचे सरकारी पदाधिकारी भी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे रहते हैं जो कि अपने कार्यकाल को जन-कल्याण का अवसर नहीं मानते अपितु धन इकट्ठा करने का स्वर्णिम युग समझते हैं; फिर भी उनकी सभ्यता सर्वमान्य होती है ।
संस्कृति का अपमान
अफ़सोस होता है कि ऐसी प्रेम, दया, त्याग आदि से सर्वथा हीन बर्बर सभ्यता को भी अनेक विद्वान् संस्कृति का नाम देते हैं, जबकि उनके ग्रन्तःकरण में संस्कारों का नामोनिशान भी नहीं होता । हमें भलीभाँति समझ लेना चाहिये कि मानवोचित श्रेष्ठ भावनात्रों से रहित और स्वार्थ सिद्धि की इच्छाओं से परिपूर्ण सभ्यता को 'संस्कृति कहना उसका अपमान करना है । सभ्यतामात्र बाह्य वस्तु है और संस्कृति भ्राभ्यंतर संस्कृति संस्कारों के समूह को कहते हैं और संस्कार का कार्य ही मन और आत्मा की शुद्धि करना तथा उसे अधिक से अधिक उज्ज्वल बनाना है । संस्कार दोषों को नष्ट करने का कार्य ही करते हैं उन्हें जन्म नहीं देते, दे भी नहीं सकते, अन्यथा वे संस्कार ही क्यों कहलाते संस्कार का अर्थ ही मांजना, मैल को दूर करना और चमक लाना है।
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सम्पूर्ण संस्कृतियों को सिरमौर-भारतीय संस्कृति
ध्यान में रखने की बात है कि, जहाँ सभ्यता केवल रहन-सहन और भौतिक उन्नति को ही महत्त्व देती है वहाँ संस्कृति इन सबको गौण मानती है तथा प्रात्मोन्नति को ध्येय या लक्ष्य समझती है। दूसरे शब्दों में सभ्यता बाह्य जीवन को सम्पन्न बनाना चाहती है, किन्तु संस्कृति अान्तरिक जीवन को। इसका अर्थ यह नहीं है कि संस्कृति भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना करती है । वह इन्हें जीवन का एकमात्र साध्य नहीं मानती, केवल शरीर और जीवन की अनिवार्य आवश्यकता समझकर उतना ही उपयोग में लेती है । जैसे-सुसंस्कृत व्यक्ति भोजन करता है पर सिर्फ इसलिये कि भोजन शरीर को कायम रखने के लिये या जीवित रहने के लिये आवश्यक है। वह जिह्वा-लोलपता के कारण अथवा अपने वैभव या ऐश्वर्य की विज्ञप्ति के लिये नाना प्रकार के भक्ष्य या अभक्ष्य खाद्य-पदार्थों का ढेर नहीं लगाता।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार 'बर्नार्ड शॉ' एक बार किसी उत्सव में निमंत्रित थे। समारोह के पश्चात् भोज का भी आयोजन था। भोज का प्रबन्ध करनेवालों को ज्ञात नहीं था कि वर्नार्ड शॉ शाकाहारी हैं अतः उनके लिये व्यवस्था नहीं की गई थी और भोजन सामिष था।
सभी व्यक्ति खाने बैठे पर 'शॉ' चुपचाप रहे, उन्होंने किसी पदार्थ को हाथ भी नहीं लगाया । खाना खाते हुए लोगों ने जब यह देखा तो कहा:
"आपने तो अभी तक भोजन करना प्रारंभ ही नहीं किया, कृपया शुरू कीजिये !"
बर्नार्ड शॉ ने उत्तर दिया-"भाई! ईश्वर ने मुझे पेट दिया है, इसमें शाक-सब्जी आदि पदार्थों के लिये ही जगह है, मेरा उदर मुर्दो के कलेवर से भरने के लिये कब्रिस्तान नहीं है।"
'शॉ' की बात सुनकर सब स्तब्ध रह गए और उनके मस्तक मारे शर्मिन्दगी से झुक गए । इस स्थिति को देखकर 'बर्नार्ड शॉ' चुपचाप उठकर वहाँ से चल दिये।
बंधुनो ! अभी मैंने बताया है कि सुसंस्कृत व्यक्ति का 'अर्थ' और 'काम' पुरुषार्थ भी धर्म से जुड़ा रहता है और सच्चा धर्म कभी प्राणियों का हनन कर उनका भक्षण करने की प्रेरणा नहीं देता। इसी प्रकार संस्कारी व्यक्ति भोजन के समान ही वस्त्रों का उपयोग भी लज्जा-निवारण अथवा शीत आदि से बचने की भावना से करता है। अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने और मान-प्रतिष्ठा पाने की दृष्टि से नहीं । सचाई भी यही है कि नित्य नवीन और बहुमूल्य वस्त्र पहनने से ही व्यक्ति महान् और यशस्वी नहीं बन जाता, उसके लिये प्रात्म-गुणों की आवश्यता होती है।
महात्मा गाँधी जब 'गोल मेज़ परिषद्' में भाग लेने इंगलैण्ड गए तो अपनी उसी छोटी सी ऊँची धोती और शरीर पर चादर लपेटे हुए ही चल दिये। उसी वेश में सम्राट और वायसराय से मिले और परिषद् में भाग लिया । क्या वे सूट-बूट प्रादि बाह्य सभ्यता के
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समाहिकामे समणे तवस्सी ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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प्रतीकों को न अपनाने पर भी असभ्य कहे जा सकते थे ? उनकी महानता, ज्ञान-गरिमा एवं देश-भक्ति उनके अनुपम सुसंस्कारी होने की प्रतीक थीं।
इसी प्रकार स्वामी रामतीर्थ जब अमेरिका गए तो 'सान फ्रांसिस बंदरगाह' पर सभी यात्रियों को शीघ्रतापूर्वक सामान उतारते हए देखकर वे अपने स्थान पर शांति से बैठे रहे।
यह देखकर एक अमेरिकन ने उनसे पूछा"क्या आपके पास उतारने के लिये सामान नहीं है ?" "सामान में रखता ही नहीं।"
उस अमरीकी ने आश्चर्यवश पुनः पूछा-'पाप यात्रा के लिये जरूरी कुछ साधन तो साथ रखते ही होंगे?"
"नहीं मेरे पास कुछ भी नहीं है।" "तो क्या यहाँ आपका कोई परिचित या मित्र रहता है ? स्वामीजी ने हँसते हुए उत्तर दिया-'हाँ, एक मित्र तो आप ही हैं।"
यह सुनकर वह विदेशी, भारतीय संस्कृति की त्यागवृत्ति, सादगी, निरभिमानिता, महानता, उदारता तथा तेजस्विता को स्वामीजी के रूप में देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ और उन्हें अपना अतिथि व मित्र मानकर प्राग्रहपूर्वक अपने घर ले गया।
ऐसे उदाहरणों से हमें ज्ञात होता है कि संस्कृति सभ्यता पर निर्भर नहीं है । साधारण रहन-सहन वाले व्यक्ति सभ्यता के दिखावटी चिह्नों से दूर रह कर भी संस्कृत होते हैं, अगर उनमें उदारता, विशालता, स्नेह, परोपकार एवं सेवा की भावनाओं का जन्म और उनका विकास हो जाय। ध्यान में रखने की बात है कि सभ्यता पर गर्व करना थोथा है। यह आवश्यक नहीं कि जो जातियाँ असभ्य समझी जाती हैं, उनकी संस्कृति का स्तर भी नीचा हो। सभ्यता का दम भरने वाले ऐसा प्रचार करते हैं। किन्तु अनेक अन्वेषकों और यात्रियों ने अनुसंधान किया तो पता चला है कि असभ्य मानी जानेवाली जातियाँ कथित सभ्य लोगों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत एवं ऊँची साबित हई हैं। एक ओर जहाँ स्वयं को सभ्य कहने वाले व्यक्ति ईर्ष्या, द्वष, अन्याय, अनीति, असत्य और क्रूरता के साथ एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वहाँ दूसरी ओर अशिक्षित, कम शिक्षित तथा असभ्य माने जाने वाले ग्रामीण और निम्न जाति के व्यक्ति निर्धन होने पर भी परम संतोष सहित थोड़ा और मोटा खाकर व पहन कर भी आपस में मिलजुलकर एक-दूसरे की सहायता करते हुए प्रेम से रहते हैं। गाँवों में एक व्यक्ति की बेटी को सभी अपनी बेटी मानते हैं तथा विवाह के समय सब घरों के लोग आकर अपनी हैसियत से अनुसार रुपया-पैसा देकर कन्यादान करते हैं। प्रत्येक
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व्यक्ति अपनी इज्जत मानकर किसी भी प्रकार के संकट का एकतापूर्वक मुकाबला करते हैं, जबकि शहरों में सभ्य कहलाए जाने वाले व्यक्ति अपने एकमात्र पड़ोसी के दुःख-सुख में भी काम नहीं आते।
महापुरुष निराले होते हैं
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बाह्य परिग्रह और रहन-सहन की परवाह न करने वाले व्यक्ति ही अपना समय और शक्ति आत्मा को निर्मल बनाने के प्रयत्न में लगा सकते हैं। अनेक भक्त और महापुरुष, जिनके कथानकों से इतिहास भरा पड़ा है वे अकिंचन बनकर ही परमात्मा से लौ लगा पाए हैं। दूसरे शब्दों में जो परमात्मा में लौ लगा लेते हैं वे सम्पन्नता होने पर भी समस्त परिग्रह का त्याग करके अकिंचन बन जाते हैं । बाहरी चमक-दमक की परवाह न करते हुए वे अपनी आत्मा को इतनी चमकीली और तेजस्वी बना लेते हैं कि उसमें प्रात्म-दर्शन की शक्ति का अभ्युदय हो जाता है तथा वे आत्म-साक्षात्कार अथवा भगवत्प्राप्ति के अपने सर्वोच्च जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। भक्त रैदास चमार थे फिर भी उन्होंने चमड़ा साफ़ करने वाली अपनी कठौती में 'गंगा' के दर्शन कर लिये। भक्त नामदेव जाति के छींपा (कपड़ा रंगने वाले) थे। ब्राह्मणों से तिरस्कृत होकर वे मंदिर के पीछे जाकर प्रभु-स्मरण करने लगे और उनकी अनन्य भक्ति से मंदिर का द्वार धूमकर पीछे प्रा गया और उन्हें प्रभु के दर्शन हो गए। सूरदासजी अपने आराध्य 'कृष्ण' का कीर्तन करते हुए भटकते-भटकते एक कुए में गिर गए और तब भी छः दिन तक निरंतर तन्मयता से प्रभस्मरण करते रहे । कहा जाता है कि स्वयं भगवान् कृष्ण ने उन्हें कुंए से निकाल कर नेत्र-ज्योति प्रदान की, किन्तु प्रभुदर्शन के पश्चात् उन्हें और कुछ देखना गवारा नहीं था, अतः भगवान् से वरदान स्वरूप उन्होंने पुनः अंधत्व ही माँग लिया।
मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि आधुनिक सभ्यता की कसौटी पर कसे जाने से तो वे सब पूर्णतया असभ्य थे, किन्तु संस्कारों की दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर आसीन हो चुके थे। स्पष्ट है कि सभ्य होने न होने से सुसंस्कृत बनने में कोई बाधा नहीं पड़ती। हाँ, संस्कार व्यक्ति की सभ्यता में जीवन अवश्य डाल देते हैं। सुसंस्कारी व्यक्ति उत्तम संस्कारों के द्वारा अत्यन्त शिष्ट, सज्जन, सद्भावना से युक्त और अपने जीवन-व्यवहार को प्रेम, दया, करुणा आदि गुणों से परिपूर्ण बनाकर सही मायनों में 'सभ्य' कहलाने योग्य बन सकता है। अच्छे संस्कार जो कि धर्ममय होते हैं वे व्यक्ति के रहन-सहन, बोल-चाल तथा प्राचार-विचार आदि की सभी क्रियाओं को प्रेम तथा अहिंसा रूपी धर्म से प्रोत-प्रोत करके उसे मानव से महामानव बनाकर उसकी सभ्यता में चार चाँद लगाते हैं।
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समाहिकामे समणे तवस्सी ___ो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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भारतीय संस्कृति की जीवन-क्षमता
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो यह निविवाद प्रतीत होगा कि हमारी भारतीय संस्कृति ही आज गर्वसहित साबित कर सकती है कि सहस्रों वर्षों में इसका जीवन अविच्छिन्न रहा है और युगों से यह अपनी विजय-पताका निरंतर फ़हराती चली आ रही है । अनेक संस्कृतियों ने इस पर आक्रमण किये, किन्तु यह अविचल भाव से सबको सहकर भी अपने स्थान पर ज्यों की त्यों बनी रही।
प्राचीन इतिहास के पन्ने पलटने पर जाना जा सकता है कि एक समय मिस्र, बैबीलॉन, यूनान और रोम आदि की सभ्यताएँ अपने चरम उत्कर्ष पर थीं, किन्तु अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं के अाक्रमणों के फलस्वरूप वे सब नष्ट हो गईं अथवा उनका रूप इस प्रकार बदल गया कि उनकी अपनी पहचान ही नहीं रही। आज 'काहिरा' नगर में, एथेन्स के कुट्टिमों में, रोम के विश्वविख्यात ऐप्पियन मार्ग में अथवा यूफेटीज़ नदी के किनारे पर, कहीं भी उन संस्कृतियों के प्रतिनिधि हमें दिखाई नहीं देते । केवल बेजान स्तूप, चैत्य और प्रतिमाएँ अवश्य उनकी स्मृति दिलाती हैं। जीवित व्यक्ति कोई ऐसा नहीं पाया जाता जो अपनी सभ्यता या संस्कृति के विषय में कुछ बता सके ।
पर दूसरी ओर हमारी भारतीय संस्कृति अपने उसी पुरातन और मूल रूप में न केवल जीवित है अपितु निरंतर नवजीवन भी प्राप्त करती चली जा रही है। कोई भी अन्वेषक चाहे हिमालय पर्वत पर चला जाए अथवा विन्ध्याचल को घाटियों में, 'गंगानदी' के कछारों में जाए अथवा 'कावेरी' के तटों पर, उसे भारतवर्ष में सर्वत्र यहाँ की संस्कृति के प्रतीक नर-नारी प्राप्त हो जाएंगे। इसके अलावा भारत में ही क्या, अन्य देशों में भी अपनी महान् संस्कृति की गरिमा से युक्त भारतीय बड़ी संख्या में मिलते हैं और उनके रहन-सहन, व्यवहार, मैत्री-भावना, आध्यात्यिक विचार तथा जीवन के प्रति विशुद्ध दृष्टिकोण के कारण उनकी पहचान सहज ही हो जाती है। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने इसीलिये कहा है:--
"भारतीयों की मुखाकृति में जीवन के प्रकृत रूप का दर्शन होता है। हम तो कृत्रिमता का प्रावरण प्रोढ़े हुए हैं; किन्तु भारतीयों के मुखमण्डल की सुकुमार रूप-रेखानों में ही कर्ता के कराङ्ग ष्ठ की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।"
'बर्नार्ड शॉ' ने यह प्रशंसा भारत में जन्म लेने वाले मानव-शरीर की नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की की है। यह संस्कृति भारतभूमि के कण-कण में व्याप्त है, भारतीय साहित्य के पद-पद में प्रोत-प्रोत है और भारतीय इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है। प्रसिद्ध चीनी यात्री 'ह-ए-त्सांग' ने भी लिखा है:
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"भारतीयों के प्रति सेवा का कार्य कर देने वाला कोई भी व्यक्ति उनकी कृतज्ञता का सदा विश्वास कर सकता है; किन्तु उनका अपराध करने वाला उनके प्रतिशोध से बच भी नहीं सकता। यदि कोई कष्ट में पड़ा हो और सहायता मांगे तो वे अपने आपको भी भूलकर उसकी सहायता और रक्षा के लिये दौड़ पड़ेंगे पर अपना अपमान करने पर वे प्राणों की बाजी तक लगाकर कलंक मिटाएँगे । युद्ध में भागने वालों का तो वे पीछा नहीं करते, परंतु शरण में आए हों का वध भी नहीं करते, उलटे मान देते हैं। भारतीयों का प्राचार-विचार बड़ा सुन्दर और शांतिमय है।"
दस्तुत: चिरकाल से ही भारत-भूमि पर भारतीय संस्कृति की महानता और उज्ज्वलता की प्रतीक महान् प्रात्माएँ जन्म लेती रही हैं, जिनके कारण यह संस्कृति गौरवमय
और अमिट होती चली गई है। दसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति ने ही यहाँ जन्म लेने वाले नर-नारियों के रक्त में घल-मिलकर उन्हें यशस्वी और इतिहास-प्रसिद्ध बना दिया है। किसी कवि ने यथार्थ ही कहा है:
गौतम, जाबालि, व्यास, महावीर, वाल्मीकि,
कपिल, कणाद, से महान ब्रह्मज्ञानी थे। अर्जुन से वीर अम्बरीष के समान भक्त,
हरिश्चन्द्र, कर्ण के समान यहाँ दानी थे। नारद से संत सती सीता-अनुसूया-सम,
सत्य-सदाचार-पूर्ण एक-एक प्रानी थे। ऐसा ही था भारत के भाग्य का अतीत काल,
___ सुयश यहाँ के देवलोक की कहानी थे । वास्तव में ही भारत-भूमि पर जितने ब्रह्मज्ञानी, ऋषि, महर्षि, दानी, परोपकारी, सदाचारी तथा वीर पुरुष हुए हैं उतने और किसी भी देश में नहीं हुए। 'बहरत्ना वसुंधरा' यह कथन भारत-भूमि के लिये सत्य है । इस धरती ने अनेकानेक नर-रत्नों को जन्म दिया है जो समग्र संसार के लिये आदर्श रूप साबित हुए हैं ! 'प्रोफ़ेसर लई रिनाड' ने यही कहा है:
"संसार के समस्त देशों में भारवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण है।
—(4रिस विश्वविद्यालय) हमारी संस्कृति विविधरूपिणी एवं बहुमुखी रही है। यह मनुष्य के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नत और विकसित हुई। यथा-गूढ़ ध्यान, चिंतन एवं तपादि के आध्यात्मिक क्षेत्र में, राजनीति और शासन व्यवस्था में, संगीत व नृत्यकला में, स्थापत्य तथा प्रतिमा-निर्माण में, साहित्य सृजन और चित्रकला में, सामाजिक रीति-नीति व शांति-मैत्री के प्रसारण आदि में,
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समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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. अर्ज ना च न .
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IN 4.4.24.99.94
अर्थात् जीवन के इहलौकिक और पारलौकिक, सभी कर्म-क्षेत्रों में इसने ऐसे महान् आदर्श उपस्थित किये हैं कि समग्र विश्व के देशों ने इसका लोहा माना है। मनुष्य के अंदर जो भौतिक, जैविक, मानसिक, नैतिक तथा आत्मिक शक्तियाँ क्रियाशील हैं, भारतीय संस्कृति ने इन सभी को बल प्रदान करते हुए उन्नति की सर्वोच्च सीमा तक पहुँचाया है तथा इन सभी में, आपस में भी सामञ्जस्य रखा है। इसका क्षेत्र यद्यपि मुख्यरूप से प्रान्तरिक है किन्तु इसने बाह्य-क्रियाओं पर प्रभाव डालते हुए उन्हें भी धर्म-नीति के अनुसार संयमित रखते हुए दोष-रहित बनाने का प्रयत्न किया है। यथा--तपस्या, व्रत, अनुष्ठान एवं पूजा आदि क्रियाएँ करते हुए उनके लिये अहंकार न बढ़ाने की, परोपकार करके प्रशंसा की चाह न करने की, दान देकर यश-प्राप्ति की इच्छा न रखने की और दूसरों के द्वारा प्रताड़ित होकर भी क्रोध न करने की प्रेरणा दी है। यही कारण है कि भारत के सुसंस्कृत मानव त्याग और प्रेम को महत्त्व देते हए ऐसा जीवन जीने में समर्थ होते हैं जो इहलोक और परलोक, दोनों को ही सुधार सके। भारतीय संस्कृति साम्प्रदायिकता के विष से परे है
प्रायः भारतीय संस्कृति को लोग हिन्दू-संस्कृति भी कहते हैं और इसकी वजह से अनेक व्यक्ति जो हिन्दुत्व से अनभिज्ञ हैं वे हिन्दुत्व का अर्थ साम्प्रदायिकता तथा हिन्दू का अर्थ साम्प्रदायिक समझते हैं। ऐसा विचार एवं कथन पूर्णतया भ्रमपूर्ण और अनर्गल है । प्रत्येक भारतीय को 'हिन्दू' शब्द के अर्थ को समझ लेना चाहिये । वैसे इस शब्द की परिभाषा विभिन्न प्रकार से की गई है, किन्तु सबसे सरल, प्रामाणिक और विशद परिभाषा 'अखिल भारतवर्षीय हिन्दूमहासभा की ओर से इस प्रकार हुई है:
__ आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका ।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ॥ अर्थात्-जो भी व्यक्ति इस सिन्धु नद से लेकर सागर (कन्याकुमारी) पर्यन्त विस्तृत इस भारत-भूमि को अपनी पितृ-भूमि और पुण्यभूमि मानता है, उसे ही हिन्दू कहा जा सकता है।
इस परिभाषा में साम्प्रदायिकता लेशमात्र भी नहीं है वरन राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना ही है। राष्ट्रीयता भी ऐसी, जिसका भारत के अलावा कोई अस्तित्व ही नहीं है। यहाँ न तो जैन अथवा ब्राह्मण अधिक हिन्दू हैं और न ही शूद्र कम, सभी समान हिन्दू हैं। हिन्दुत्व एक सागर है, जिसमें विभिन्न सम्प्रदाय रूपी नदियाँ पाकर विलीन हो जाती हैं तथा लहराती हुई तरंगों के समान समुद्र की शोभा बढ़ाती हैं।
हाँ, जैन-धर्म के नाम पर जैन, बौद्ध-धर्म के नाम पर बौद्ध, सनातन-धर्म के नाम पर सनातनी, इसी प्रकार सिख, आर्यसमाजी, ईसाई, पारसी आदि अपने-अपने धर्मों के अथवा
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सम्पूर्ण संस्कृतियों की सिरमौर - भारतीय संस्कृति
सम्प्रदायों के अनुयायी आगे आएँगे, किन्तु हिन्दुस्तान के अथवा हिन्दुत्व के नाम पर सभी सम्मिलित रूप से आगे बढ़ेंगे, जिनमें जैन, सनातनी, श्रार्यसमाजी, सिक्ख और बौद्ध आदि सभी होंगे ।
मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि अपनी संस्कृति को चाहे हिन्दू संस्कृति कहा जाय या भारतीय संस्कृति दोनों के अर्थों में कोई अन्तर नहीं है । विभिन्न धर्मों के बाह्य आचारों में अथवा आत्म-साक्षात्कार या भगवत्प्राप्ति के लिये की जाने वाली साधना पद्धतियों में अन्तर होता है किन्तु लक्ष्य प्राप्ति के विषय में नहीं । अपनी संस्कृति पर आस्था और श्रद्धा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंसा, क्रोध, कपट, अन्याय, अनीति तथा क्रूरता आदि श्रात्मा को मलिन करने वाले दोषों को नष्ट करके उसमें मैत्री, करुणा, अहिंसा, न्याय, नीति, प्रेम, दया तथा क्षमा आदि गुणों की स्थापना करेगा । आत्मा को निर्मल करनेवाले ये समस्त गुण किसी धर्म या सम्प्रदाय के घेरे में नहीं रहते अपितु मानवमात्र को संस्कृत करते हैं और इसीलिये अगर भारतीय संस्कृति के अनुपम प्रादर्शों को अन्य देश वासी अपनाते हैं तो वह जगत् की संस्कृति भी बन सकती है । वे आदर्श और और विशेषताएँ क्या हैं, संक्षिप्त में उन्हें ही बताने जा
हूँ ।
हमारी भारतीय संस्कृति की कुछ विशेषताएँ
(१) समस्त प्राणियों के प्रति समानता एवं प्रेमभाव
समस्त जीवों को अपने समान समझना और उनके प्रति प्रेम की भावना रखते हुए तदनुसार व्यवहार करना, यह हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है जो अन्य किसी भी संस्कृति में इतने पूर्ण और सच्चे रूप में नहीं पाई जाती । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना भारतीय संस्कृति की प्राण है जो मनुष्य के रग-रग में बसी होने के कारण उसके दैनिक जीवन के प्रत्येक पल को प्रभावित करती है । हम निस्संकोच यह भी कह सकते हैं कि हमारी संस्कृति की इस महान् विशेषता में अन्य सभी विशेषताएँ गर्भित हैं अतः केवल इसे बताने पर भी भारतीय संस्कृति का सम्पूर्ण वर्णन हो जाता है। यहाँ का मानव केवल दूसरे मनुष्य की श्रात्मा को ही अपनी आत्मा के समान नहीं वरन् पशु-पक्षी आदि प्राणियों को भी अपने समान मानकर उन्हें कष्ट पहुँचाना नहीं चाहता । उदाहरण स्वरूप हमारे धर्मग्रन्थ में वर्णन है—
धर्मरुचि नामक मुनि को नागश्री नामक ब्राह्मणी ने कड़वे तूम्बे का शाक भिक्षा में में दे दिया जो विष का कार्य करने वाला था । अतएव उनके गुरुदेव ने वह शाक एकान्त फेंक देने की आज्ञा दी । धर्मरुचि उसे लेकर गाँव के बाहर निर्जन में पहुँचे पर यकायक उन्हें कुछ विचार आया और उन्होंने शाक की एक बूँद जमीन पर डाली । कुछ ही क्षणों में शाक में डली हुई मिठास के कारण अनेक चींटियाँ उस बूंद पर आ गईं और निष्प्राण हो गई । यह
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. अर्थ ना च न .
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देखकर मूनि धर्मरुचि ने विचार किया-'एक वृंद से ही जब अनेक चींटियाँ मर गई तो सम्पूर्ण शाक से तो असंख्य चींटियाँ अथवा मक्खियाँ आदि मर जाएंगी। इससे तो अच्छा यही है कि मैं ही इसे उदरस्थ कर लं ।'
यह विचार करके मुनि धर्मरुचि ने वह सारा शाक स्वयं खा लिया और अन्य जीवों के प्राण बचाकर स्वयं निष्प्राण हो गए। 'यात्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना जीवन में श्रमण धर्मरुचि ने उतारकर एक ज्वलंत आदर्श स्थापित किया।
इतना ही नहीं, यह भावना मनुष्य अथवा पशु-पक्षियों तक ही सीमित नहीं है, अपितु पेड़-पौधों तक की रक्षा करने की प्रेरणा देती है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव जब छोटे थे तब एक दिन उनकी माता ने कहा
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"नामू ! मुझे काढ़ा बनाना है अतः जाकर पलाश के पेड़ की थोड़ी सी छाल ले आ।"
बालक नामदेव चल दिया और खोज-खाजकर पलाश के समीप जा पहुँचा। उसने माता की आज्ञा का पालन किया किन्तु यह विचार कर कि पेड़ को कितनी वेदना हई होगी, स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी से खरोंच लगा ली। वेदना का अनुभव करने पर उसने भविष्य में कभी ऐसा न करने का निश्चय किया और लौट पाया।
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उसकी मां ने जब उसके कपड़ों पर खून लगने का कारण जाना तो समझ गई कि मेरे पुत्र ने पेड़-पौधों में रहने वाली संवेदना-शक्ति को भी जब आत्मवत् समझ लिया है तो बड़ा होने पर यह महान् संत अवश्य बनेगा। हुआ भी ऐसा ही, वे बड़े होकर भगवान् के भक्त एवं इतिहास-प्रसिद्ध संत बने । हमारा धर्म पुकार पुकार कर कहता है:
सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सब्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिघेत्तव्वा, न परियावेयव्वा न उदवेयन्वा । तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मनसि । तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मनसि । तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मनसि।
-प्राचारांगसूत्र
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सम्पूर्ण संस्कृतियों को सिरमौर-भारतीय संस्कृति
कहा गया है-'किसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्व को न मारना चाहिये, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिये, न पराधीन बनाना चाहिये, न उन्हें परिताप देना चाहिये और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिये।'
दूसरे सूत्र में इसका कारण बताते हुए संबोधन दिया है कि-'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है; जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है, तथा जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है।
वस्तुतः स्वरूपदृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं-यह समता भावना ही अहिंसा का मूल आधार है तथा 'अहिंसामूलक' समता ही धर्म का सार है। हमारी संस्कृति धर्म से आप्लावित है अतः इसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना है। (२) पुनर्जन्म तथा कर्म-फल पर विश्वास
यह भारतीय संस्कृति की दूसरी विशेषता है। इसके अनुसार प्रत्येक प्रात्मा सभी जीवधारियों के स्वरूपों में जन्म ले सकती है। अभी बताई हई भावना का कि-'मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और सबकी जैसी ही मेरी आत्मा है' इसका कारण भी है तथा परिणाम भी। इससे यह भी ज्ञात होता है कि-मेरी आत्मा की अवस्था भूतकाल में अन्य जीवों-जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है।' और यह कि-'सभी जीव किसी न किसी समय मेरे माता-पिता और अन्य संबंधी रहे हैं और रह सकते हैं।' यही बात विद्वद्वर्य पं. शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' ने अपनी कृति में सुन्दर ढंग से समझाई है
एक जन्म की पुत्री मरकर है पत्नी बन जाती फिर आगामी भव में माता बनकर पैर पुजाती। पिता पुत्र के रूप जन्मता, बैरी बनता भाई, पुत्र त्यागकर देह कभी बन जाता सगा जमाई । देवराज स्वर्गीय सुखों को त्याग कीट होता है, विपुल राज्य से भूपति पल में हाय ! हाथ धोता है। गोबर का कीड़ा स्वर्गों के दिव्य सौख्य पाता है,
अपना ही शुभ अशुभ कृत्य यह अजब रंग लाता है।
कहने का अभिप्राय यही है कि पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म पर विश्वास होने से अन्य प्राणियों के प्रति समानता एवं प्रेम-भाव दृढ़ होता है। दूसरे यह भी ज्ञात होता है कि जीव की कोई भी अवस्था या योनि शाश्वत नहीं है। हिन्दू धर्म के अनुसार परलोक में न अनन्तकालीन स्वर्ग ही है और न ही नरक । जीव के किसी भी जन्म अथवा कई जन्मों के पुण्य या पाप में
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इतनी शक्ति नहीं है कि वे सदा के लिये उस जीव का भाग्य निश्चित कर दें। इसीलिये पाप व पुण्य दोनों को ही 'बेड़ियाँ' कहा गया है । ये दोनों ही जीव की मूक्ति में बाधक हैं।
विचारणीय बात यही है कि जब मनुष्य पाप और पुण्य रूपी कर्म-फलों पर विश्वास करता है और इनके कारण संसार में पुन: पूनः जन्म लेना पडेगा ऐसा मानता है, तभी वह प्रबल पुरुषार्थ करके पाप-कर्म और पुण्य-कर्म, दोनों से बचकर प्रात्मा को उन्नत करता हा मुक्ति के लिये प्रयत्नशील होता है। अगर उसे कर्म-फल पर विश्वास न हो तो कभी वह कुपथगामी होकर अधःस्वरूप को प्राप्त करेगा और कभी कुछ पुण्यों का उपार्जन करके स्वर्ग आदि का सुख भी कुछ समय के लिये पा लेगा, किन्तु परिभ्रमण उसे संसार में करते रहना पड़ेगा । इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य कर्म-फल पर विश्वास रखता हुआ उनसे भयभीत रहे तथा अकर्म-स्थिति में पहुँचने का प्रयत्न करे, जहाँ पहुँचने पर पुन: कभी भी जन्म, जरा अथवा मरणादि का दुःख नहीं भोगना पड़ता। (३) सादा जीवन उच्च विचार
ये दोनों बातें भारतीय संस्कृति की अनुपम महान निधियाँ हैं। जीवन में जब सादगी होती है तो आवश्यकताएँ स्वयं ही कम हो जाती हैं और संग्रहवृत्ति का स्थान अपरिग्रह तथा त्याग की भावनाएँ ले लेती हैं। संस्कारी और सदाचारी व्यक्ति स्वयं कष्ट सहकर भी औरों को सुखी करने के लिये अपना धन, अन्न, यहाँ तक कि जीवन भी उत्सर्ग करने से नहीं चकता क्योंकि वह भली भाँति समझता है कि ये सब नाशवान हैं और कभी भी छुट सकते हैं। ऐसी स्थिति में परोपकार के लिये इन्हें स्वयं ही क्यों न छोड़ दिया जाय ।
किसी गाँव में एक किसान के घर गेहूँ की एक बोरी भरी हुई थी, फिर भी वह भूखा रहता था, उसने बोरी में से एक दाना भी नहीं निकाला । गाँव वाले उसे महाकंजस कहकर थ-थ करते हुए उसका उपहास करते रहे। आखिर भूखे पेट शरीर कब तक चलता, किसान मर गया।
कोई वारिस न होने से उसका जो कुछ था उसे लेने के लिये राज्य-कर्मचारी आए। जब उन्होंने गेहूं की बोरी को हटाया तो उसके नीचे रखा हुआ एक पत्र मिला। उसमें लिखा था- "इस अकाल के समय में अगर मैं इस बोरी का गेहूं खा जाता तो गांव के किसी किसान को अगली फसल के लिये बीज प्राप्त नहीं होता क्योंकि भूख के कारण किसी के पास अन्न नहीं बचा है । मेरा शरीर खुराक न मिलने से नष्ट हो रहा है, पर मेरी इच्छा है कि इस बोरी का गेहँ किसानों में बीज के लिये वितरित कर दिया जाय ताकि फसल होने से अनेकों का जीवन सुख से यापन हो।"
किसान की त्याग-सद्भावना, करुणा और स्नेह की भावना को जानकर उसकी निंदा
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सम्पूर्ण संस्कृतियों को सिरमौर-भारतीय संस्कृति
करने वालों की आँखें खुल गईं और उस दिवंगत महान् आत्मा के लिये प्रेमाश्रु बहा चलीं । वस्तुतः हमारी संस्कृति औरों के लिये अपना सब कुछ और आवश्यकता होने पर शरीर भी उत्सर्ग कर देने की प्रेरणा देती है। ऐसे उच्च विचार ही हमारी महान् संस्कृति के सुनहरे आभूषण हैं।
एक बार कलकत्ता-स्टेशन पर एक युवक कुली को खोज रहा था। उसने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को, जो कि बिल्कुल साधारण वस्त्रों में थे, कुली समझकर उनके सिर पर शीघ्रतापूर्वक सामान रख दिया। विद्यासागर चुपचाप सामान लेकर स्टेशन से बाहर आ गए। जब युवक उन्हें पैसे देने लगा तो उन्हें पहचान कर अत्यन्त लज्जित हया और उनके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगते हुए बोला
आपके साधारण वस्त्रों के कारण मैं भ्रम में पड़ गया था, कृपया माफ़ करें।" ईश्वरचन्द्र ने उसे उठाकर हृदय से लगाते हुए कहा "भाई ! मुझे तनिक भी क्रोध नहीं है, किन्तु तुम इस बात को कभी मत भूलना कि मनुष्य का महत्त्व बहुमूल्य वस्त्रों से अथवा बाह्य प्रदर्शन से नहीं बढ़ता, अपितु प्रांतरिक गुणों से और बहुमूल्य बिचारों से बढ़ता है।" नवयुवक ने विद्यासागर के उपदेश को आत्मसात किया और उन्हें पुनः नमस्कार करके चला गया। (४) आत्मा के अभ्युत्थान एवं मुक्ति की कामना
हमारी संस्कृति में आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति जीवन का सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य है। इसीलिये इस संस्कृति में धर्म प्रत्येक विचार तथा प्रत्येक क्रिया में निहित रहता है। भारतवर्ष सदा से एक धर्म-प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है और भारतीय आदर्श अन्य देशों के लिये भी अनुकरणीय रहे हैं। भले ही यह विभिन्न धर्मों का आश्रय-स्थल है अर्थात यहाँ विभिन्न धर्मावलम्बी सदा से रहे हैं, किन्तु यहाँ की संस्कृति एक है और इसीलिये मनुष्य अपने जीवन की सफलता कर्मों से मुक्त होकर परमात्मरूप को प्राप्त कर लेने में मानते हैं। हमारी संस्कृति का मूल धर्म है अतः मनुष्यों की समस्त प्रवृत्तियों का केन्द्र भी धर्म ही है।
भले ही सब धर्मों की बाह्य क्रियाओं में अंतर है यानी-हिन्दू मन्दिर में पूजा-पाठ करते हैं तथा तीर्थस्थानों के दर्शन कर शांति प्राप्त करते हैं, ईसाई गिरजाघरों में जाकर प्रार्थना करते हैं, बौद्धों के बिहार तथा सिक्खों के गुरुद्वारे होते हैं, मुसलमान मस्जिद में नमाज़ पढ़कर खुदा की इबादत करते हैं और कोई वेद, शास्त्र तथा पुराण आदि के पारायण को आत्म-शुद्धि का साधन मानते हैं। किन्तु समस्त धर्म क्रियाएँ अपने-अपने तरीके से करते हुए भी भारतवासी लोक-परलोक को मानते हैं और कृतकर्मों के अनुसार मिलनेवाले फल पर विश्वास रखते हैं। इसी कारण अपने जीवन-व्यवहार को वे प्रेम, करुणा, परोपकार, सहानुभूति
समाहिकामे समणे तवस्सी ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है,वही तपस्वीर
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और अहिंसामय बनाकर पाप-कर्मों से बचने का प्रयत्न करते हैं ताकि उनकी प्रात्मा दोष-मुक्त होकर निरंतर शुद्ध होती हुई उत्कृष्टता की चरम श्रेणी पर पहुँचकर प्रात्मसाक्षात्कार कर सके, परमात्मपद की प्राप्ति कर सके यानी परमात्मा बन सके। सभी धर्मावलम्बियों का लक्ष्य निरंतर अपनी प्रात्मा का अभ्युत्थान करते हुए अंत में मोक्ष की प्राप्ति करना होता है। मोक्ष को अपना एकमात्र लक्ष्य मानकर ही भारत के महापुरुष, संत, ऋषि, महर्षि आदि जप, तप, पूजा, उपासना, चिंतन, ध्यान, अाराधना एवं साधना करते रहे हैं। उसके साधनों में भले ही विभिन्नता रही है, किन्तु साध्य एक ही है। यही कारण है कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में हमारी संस्कृति एक पावन धारा के रूप में समान भाव से प्रवाहित रहती है तथा आचारविचार और व्यवहार को धर्ममय रखती है।
बंधुप्रो ! हमारी संस्कृति में और भी अनेक विशेषताएँ हैं । यथा-संयुक्त पारिवारिक जीवन, वर्णाश्रमव्यवस्था, उत्तम सामाजिक जीवन, सत्संग-प्रियता, गुरुजनों के प्रति आदर, अपने इष्ट के लिये अटूट भक्ति व श्रद्धा, शरणागत की रक्षा, नारियों का सम्मान तथा अपने राष्ट्र के उत्थान की भावना आदि। समयाभाव के कारण इन सबके विषय में विस्तृत नहीं बताया जा सकता । संक्षेप में यही कि, भारतीय संस्कृति अटूट एवं अपराजेय है । इतिहास बताता है कि समय-समय पर अनेक विदेशी संस्कृतियों ने इस पर आक्रमण किया और इसे जीतना चाहा, किन्तु परिणाम यह हुआ कि वे स्वयं हमारी महिमा-मण्डित संस्कृति के महासागर में लहरों के समान लीन हो गईं। यही कारण है कि आज भी अन्य देश भारतीय संस्कृति का लोहा मानते हैं और इसकी महत्ता के सन्मुख अपना मस्तक ऊँचा नहीं कर पाते । विज्ञान के बाहरी क्षेत्र में वे भले ही दौड़ लगाते हैं, किन्तु प्रात्मा के प्रांतरिक क्षेत्र में ज्ञान के गूढ़ रहस्य तक नहीं पहुंच पाते । भारतीय संस्कृति की थाह पाना उनके वश की बात नहीं है।
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दीर्घ जीवन या दिव्य जीवन ?
आत्मबंधुप्रो ! _ इस समग्र विश्व में प्रत्येक प्राणी अधिक से अधिक जीना चाहता है, मरना पसंद नहीं करता । मनुष्य के अलावा भी जितने प्राणी हैं, भले ही वे बुद्धि व ज्ञान आदि से सर्वथा रहित हों पर मृत्यु से बचने का प्रयत्न वे भी करते हैं तथा जीवन बचाने की कोशिश में रहते हैं। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तथा प्रसीम बुद्धि का स्वामी भी, किन्तु विश्व की सम्पूर्ण उपलब्धियों की प्राप्ति से पूर्व सर्वप्रथम अभिलाषा और चाह उसकी यही होती है कि जीवन लम्बे समय का हो । अगर कोई भविष्यवेत्ता किसी से कह दे कि, उसे अमुक दिन मरना पड़ेगा तो वह बुरी तरह से घबरा जाएगा तथा अपना सम्पूर्ण ध्यान बचाव के उपायों को सोचने में लगा देगा । यथा-उस दिन वह अग्नि से दूर रहेगा, जल के समीप भी न जाने का प्रयत्न करेगा, चाकू, छुरी या घर में खाली बन्दूक भी टॅगी होगी तो उसे छिपा देगा, और तो और दरवाजे के बाहर कदम भी नहीं रखेगा कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाय । कहने का अभिप्राय यही है कि वह अपनी सम्पूर्ण बुद्धि, शक्ति और ध्यान को मृत्यू से बचाव करने की अोर केन्द्रित कर देगा। उस संभावित दिन के निकलने से पहले ही डॉक्टरों की टीम को भी शायद घर पर बुलाकर अपनी जाँच पल-पल में कराता रहेगा कि कहीं चलते-चलते ही नब्ज रुक न जाए और दिल धड़कना बंद न कर दे । जाहिर है कि मनुष्य मरना नहीं चाहता, जीना चाहता है और लम्बे समय तक जीवन के बने रहने की चाह रखता है।
किन्तु बुद्धिमानों का कथन है कि, प्रायु जिस समय समाप्त होती है वह घड़ी लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं टलेगी। पं. शोभाचन्द्र 'भारिल्ल' ने सत्य कहा है
कोटि-कोटि कर कोट ओट में उनकी तू छिप जाना, पद-पद पर प्रहरी नियुक्त करके पहरा बिठलाना। रक्षण हेतु सदा हो सेना सजी हुई चतुरंगी, काल बली ले जाएगा देखेंगे साथी संगी।
तो ऐसी स्थिति में, जबकि मृत्यु समय पर स्वयमेव पाएगी और कोटि प्रयत्न करने पर भी टलेगी नहीं तब फिर उसके लिये चितित न होकर मनुष्य को यह चिंता करनी चाहिये कि जीवन अच्छा कैसे जिया जाय ? उसे लम्बे जीवन की अपेक्षा अच्छे जीवन के लिये प्रयत्न
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समाहिकामे समणे तवस्सी। जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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करना चाहिये अर्थात मरने की चिन्ता में अपनी शक्तियों का ह्रास करने की बजाय जीवन को उत्कृष्ट बनाने में लगाना चाहिये।
प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिपल यह स्मरण रखना आवश्यक है कि जीवन का महत्त्व अधिक वर्षों तक जीने में नहीं, वरन जीवन का अधिक से अधिक लाभ उठा लेने में है। आप सभी जानते हैं कि गजसकूमाल ने अपनी मात्र बारह वर्ष की जिन्दगी में ही जीवन के सर्वोत्कृष्ट साध्य, मोक्ष को प्राप्त कर लिया, जिसे अन्य मनुष्य सौ या उससे भी अधिक जीने के बाद भी नहीं पाते। भक्त ध्रव और प्रह्लाद को कोमल वय में ही भगवान के दर्शन हो गए जो कि लम्बे जीवन तक मनुष्य पूजा-पाठ करके, जप-तप और माला फेर के या घंटे-झालर बजा-बजाकर कीर्तन करके भी नहीं कर पाता । इसका कारण यही है कि भक्ति के नाम पर समस्त क्रियाएँ करते हुए भी उनका ध्यान जीवन से नहीं हट पाता तथा सम्पूर्ण मन से भगवान में केन्द्रित नहीं होता।
एक भक्त अपने गुरु के पास आकर बोला-''गुरुदेव ! आपकी बताई हुई विधियों से ही भगवान की भक्ति और पूजा करता चला रहा हूँ, किन्तु इतने वर्ष हो गए अभी तक भी मुझे भगवान् के दर्शन नहीं हुए, इसका क्या कारण है ?"
संत ने उत्तर दिया-"प्राज इसका कारण तुम्हें बताऊँगा, चलो स्नान करने चलते हैं।"
दोनों जाकर नदी में नहाने लगे और जैसे ही भक्त ने नाक दबाकर पानी में डुबकी लगाई, संत ने अपने हाथ से भक्त के सिर को दबा दिया। उसके कुछ समय तक छटपटाने के बाद उन्होंने हाथ हटाया और उसे पानी से बाहर आने दिया। शिष्य ने कुछ खिन्न भाव से प्रश्न किया
"भगवन् ! आपने ऐसा क्यों किया?" संत ने उसकी बात का उत्तर न देते हुआ पूछा
"पहले तुम यह बताओ कि जिस समय मैंने तुम्हें पानी में दबाए रखा था, उस समय तुम्हारे मन में क्या-क्या विचार पाए ?"
"यह आप क्या पूछ रहे हैं ? उस समय भला मैं क्या सोचता, केवल मन इसीलिये छटपटा रहा था कि कब पानी से निकलं, मेरा तो सारा ध्यान इसी पर केन्द्रित हो गया था।"
___ "वत्स ! तुमने सही जवाब दिया है पर आज की इस घटना और तुम्हारे उत्तर में ही आज जो प्रश्न तुमने मुझसे किया था उसका समाधान भी है।"
भक्त को मुंह बाये अवाक् खड़ा देखकर संत ने स्वयं ही कहा-“देखो ! पानी में डबे होने पर जिस प्रकार तुम्हारा मन या तुम्हारी आत्मा केवल पानी से निकलने के लिये
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दीर्घजीवन या दिव्यजीवन
छटपटा रही थी, बिना किसी अन्य विचार के, ठीक उसी प्रकार जिस समय तुम्हारी आत्मा बिना और कुछ सोचे, केवल भगवान के दर्शन के लिये एकाग्रतापूर्वक छटपटाएगी तथा मन मात्र उन्हीं में केन्द्रित हो जाएगा और संसार की ओर रंचमात्र भी ध्यान नहीं जाएगा, तब तुम्हें भगवान के दर्शन हो जाएंगे। इसके लिये समय की आवश्यकता नहीं है केवल मन के संकल्प-विकल्प छोड़कर भगवत्प्राप्ति की ओर व्यग्रतापूर्वक मन को केन्द्रित कर लेने की अावश्यकता है।" 'आराधनासार' ग्रन्थ में कहा गया है
निग्गहिए मणपसरे, अप्पा परमप्पा हवइ । अर्थात-मन के विकल्पों को रोकते ही आत्मा परमात्मा बन जाता है।
वस्तुतः संत ने भी अपने शिष्य को कुछ समय पानी में डुबाए रखकर यह बात समझा दी कि जीवन के थोड़े से समय में भी इसका सम्पूर्ण लाभ लिया जा सकता है बजाय इसके कि लम्बे समय तक जीने के लिये अधिक फ़िक्र की जाय और बचे हुए समय में भगवान की भक्ति करके मनुष्य यह समझ ले कि मैं अपना कर्तव्य ठीक निभा रहा हूँ।
आज हम इसी विषय पर विचार करने जा रहे हैं कि मनुष्य को अधिक जीने की चिन्ता करनी चाहिये या अच्छा जीने की। आप और हम सभी जानते हैं कि संसार में यात्रा करने के तीन मार्ग हैं-स्थल, जल एवं आकाश। ठीक इसी तरह जीवन-यात्रा के भी तीन मार्ग हैं-पहला जड़वाद, दूसरा बुद्धिवाद और तीसरा आत्मवाद। इन्हें ही प्राधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक रूप से जाना जाता है। इन तीनों के विषय में जानना प्रत्येक मनुष्य के लिये अनिवार्य है, अन्यथा वह सही मार्ग पर नहीं चल सकेगा। (१) आधिभौतिक अथवा जड़वाद
जड़वाद के अनुसार चलनेवालों का जीवन पृथ्वी पर रेंगकर चलने वाले जन्तुनों से अधिक महत्त्व नहीं रखता। जिस प्रकार कीड़े-मकोड़े जब तक जीते हैं, यत्र तत्र निरर्थक और निरुद्देश्य चलते-फिरते रहते हैं, अपने खाद्य-पदार्थ खोजकर पेट भरते हैं और कभी भी समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार जड़वादी अपनी शरीर-क्षमता से दौलत इकट्ठी करता है और उसके द्वारा शरीर-सुख के साधनों को जुटाकर अपने परिवार सहित उनका उपभोग अधिक से अधिक करने का प्रयत्न, जीवन भर करता रहता है। इन्द्रियों को सुख देने में ही वह सुख मानता है पर वह नहीं जानता कि ये सुख मृग-मरीचिका के समान हैं। मरुभूमि में मृग बाल रेत के कणों को जल समझकर मारा-मारा फिरता है पर जल प्राप्त नहीं कर पाता, इसी प्रकार जड़वाद पर चलने वालों का भी हाल होता है । वे भौतिक वस्तुओं में सुख समझते हैं, किन्तु
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समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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सच्चा सुख उनसे परे होता जाता है । आज जिधर नजर डालें, उधर ही इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अधिक संख्या में देखे जा सकते हैं। मनुष्य जड़ के पीछे दीवाने के समान पड़ा हुमा हैं। इसी की सुरक्षा के लिये आज विज्ञान से विध्वंसकारी अणुबम बना लिया है पर उससे क्या होता है ? क्या वह मानव को सच्चा सुख हासिल करवा सकेगा ? कभी नहीं, जीव-जन्तुओं के समान आपस में लड़-झगड़कर लोग इहलीला समाप्त कर लेंगे अथवा चाँद तक चढ़कर भी आखिर अधोलोक में जा गिरेंगे। यही आशंका किसी कवि ने व्यक्त की है-..
विज्ञान में दिनोंदिन आगे बढ़ रहा है आदमी , देखो आज चाँद पर चढ़ रहा है आदमी। डर है जितना ऊँचा उतना नीचे गिर न जाए,
क्योंकि आदमी से आज लड़ रहा है आदमी। वास्तव में ही आज विज्ञानरूपी शैतान ने नरसंहार के लिये अनेकानेक नए-नए तरीके निकाल दिये हैं। मनुष्य के चारों ओर बिजली व गैस आदि की वस्तुओं का ऐसा जाल बिछा है कि वे भौतिक सख प्रदान करने के स्थान पर पल भर में ही व्यक्ति को बेजान कर देती हैं। भोपाल का गैस-कांड भी विज्ञान की देन का एक उदाहरण है, जिसने अल्प समय में ही असंख्य व्यक्तियों का जीवन समाप्त कर दिया और जो किसी तरह बच गए वे नेत्रहीन या अपंग होकर अपना सम्पूर्ण जीवन रोते-बिलखते रहने को बाध्य हैं, अपनी असहायता के कारण या परिवार के कई-कई सदस्यों के एक साथ ही पृथ्वी से प्रयाण कर जाने पर । मनुष्य ने आविष्कृत वस्तुओं के द्वारा जीवन में अधिक सुख प्राप्त करना चाहा है पर उन्हीं के कारण जीवन ही किस क्षण अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा यह आशंका मस्तक पर खांडे की तरह लटक रही है कि कब वह गिरे और जीवन समाप्त हो जाय ।
प्रबुद्ध विचारक समझ सकते हैं कि ऐसी स्थिति में विज्ञान को वरदान कहा जाये या अभिशाप ? मनुष्य समझता है कि वह विकास कर रहा है, यातायात की सुविधाओं से उसने संसार को सिमटा लिया है, किन्तु साथ ही उसका मन भी सिमट कर संकुचित होता जा रहा है, मानवता, सद्भाव, स्नेह तथा सहयोग प्रादि का अभाव होता चला जा रहा है । पर इस ओर शायद उसका ध्यान नहीं है। बाहर से चुस्त-दुरुस्त और स्वयं को सुखी मानते हुए भी उसके मन को शांति नहीं है तथा प्रतिसमय वह स्वयं को व्यग्र, व्यथित और उलझनों से घिरा हुआ पाता है, इसका क्या कारण है ? ।
उत्तर स्पष्ट है कि विज्ञान ने मानव की एकाङ्गी उन्नति की है, उसके द्वारा मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन जुटा लेता है, दौलत इकट्ठी कर लेता है किन्तु आध्यात्मिक पक्ष की उन्नति नहीं कर पाता उलटे अवनति की ओर झुकता है। इसीलिये उसका मन अशांत
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रहता है। शांति का स्रोत अंदर है, बाहर नहीं। आध्यात्मिक उन्नति के अभाव में विज्ञान की बाह्य उन्नति या उसका विकास वरदान न बनकर अभिशाप ही साबित हया है। भौतिक संपत्ति कितनी भी इकट्री कर ली जाय और तिजोरी को सूवर्ण तथा रत्नों से भर लिया जाय पर मनुष्य की आंतरिक तिजोरी खाली ही रहेगी। न वह शांति प्राप्त कर सकेगा और न ही परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति ।
उपनिषद् में एक स्थान पर कहा गया है:"सत्य का मुख सुवर्ण के ढक्कन से ढंका हया है।"
यह बात यथार्थ है, व्यक्ति धन की चकाचौंध में सत्य का दर्शन कदापि नहीं कर सकता । एक धनी व्यक्ति किन्हीं संत के पास पाया और बोला
"महात्मा जी ! ईश्वर है कहाँ ? मुझे तो कहीं भी दिखाई नहीं देता।"
संत ने बिना कुछ कहे एक कागज पर 'ईश्वर' शब्द लिखा और पूछा-"यह क्या है ?"
"ईश्वर लिखा हा है।" व्यक्ति ने उत्तर दिया।
तत्पश्चात् संत ने उस शब्द पर सोने की मोहर रखकर पुनः पूछा-"अब क्या दिखाई दे रहा हैं ?"
आगन्तुक ने कहा-"सोने की मोहर ।"
तब संत ने उस श्रीमंत को समझाते हुए कहा-"भाई ! सोने की मोहर के नीचे दब जाने से ईश्वर शब्द दिखाई नहीं पड़ता, ठीक इसी प्रकार मनुष्य की निगाह जब जड़ वस्तुओं पर ही रहती है तब वह ईश्वर को कैसे देख सकता है ? ईश्वर को देखने के लिये तो उसे बाह्य या जड़-जगत् से दृष्टि हटाकर अन्दर की ओर निगाहें फेरनी पड़ेंगी। परमात्मा का निवास तो आत्मा में ही है, दूसरे शब्दों में यों भी समझ सकते हो कि आत्मा ही परमात्मा है।"
कहने का अभिप्राय यही है कि जड़-भौतिक वस्तुओं को इकट्ठा करने के लिये अनेक पाप करने पड़ते हैं । झूठ, बेईमानी और धोखेबाजी आदि अनेक प्रकरणीय क्रियाएँ किये बिना अथाह सम्पत्ति इकट्ठी नहीं होती और इतने पाप करते हुए भी व्यक्ति सत्य देव के अथवा ईश्वर के दर्शन करना चाहे तो वह कैसे संभव होगा ? जड़वाद सम्पूर्ण बुराइयों की जड़ है और उसके कारण आत्मा को जन्म-जन्मान्तर तक हानि उठानी पड़ती है अत: उस मार्ग पर चलना कदापि उचित नहीं है।
समाहिकामे समणे तवस्सी "0" ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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(२) आधिदैविक या बुद्धिवाद
नेक व्यक्ति बुद्धि-जनित तर्क से सिद्ध होने वाली बात को सत्य समझते हैं और उसे ही मानते हैं । वे यह विचार नहीं करते कि विश्वास से मानी जाने वाली चीज तर्क से कैसे समझी जा सकती है ? मिठाई की मिठास अथवा चोट लगने से होने वाली पीड़ा कैसी होती है, या कितनी होती है, इसे किसी व्यक्ति के द्वारा बताए जाने पर विश्वास ही करना होता है, स्वाद या दर्द को तर्क से न तो समझाया जा सकता है और न ही समझा जा सकता है ।
एक बहुत ज्ञानी और दार्शनिक व्यक्ति अपनी धुन में मस्त सड़क पर चला जा रहा था कि किसी ने उसे पुकारते हुए कहा
"भाई साहब ! जल्दी से सड़क से परे हो जाइये, सामने से बिगड़ा हुआ हाथी श्रा रहा है जिसे महावत भी काबू में नहीं कर सका है, हटिये, अन्यथा जान को खतरा है ।" दार्शनिक महोदय ने नजर उठाकर देखा कि महावत अंकुश से हाथी को वश में करने का प्रयत्न कर रहा है । यह देखकर उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रयोग करके तर्कपूर्वक विचार किया-
तृतीय खण्ड
"यह हाथी मुझे कैसे मार सकता है ? बिना छुए तो मारना संभव ही नहीं है घोर अगर छूकर मारता हो तो महावत उस पर बैठा है अतः स्पर्श होने पर पहले उसे ही मारना चाहिये | जब हाथी महावत को नहीं मार सकता तो मुझे कैसे मारेगा ? "
इस प्रकार विद्वान् दार्शनिक की जबर्दस्त तर्क - कसौटी पर हाथी का 'मार सकना ' सिद्ध नहीं हुआ और वह निश्चिततापूर्वक चलता रहा। किन्तु कुछ मिनिटों में ही उसकी तार्किक बुद्धि अपना सा मुँह लेकर रह गई और हाथी ने उसे अपने पाँव से कुचल दिया।
स्पष्ट है कि तर्क सत्य दिशा में अपने अहंकार के कारण बुद्धि को वितर्क बनते हैं ।
चल सकता है तथा असत्य दिशा में भी । बुद्धिवादी अथवा कुतर्क में प्रवृत्त करके उपहास का पात्र
एक बार काका कालेलकर जब जेल में थे, उन्होंने देखा कि एक भाई को बंदरों से बड़ी चिढ़ थी । वह बंदरों को देखते ही उन्हें एक कोठरी में बंद करके मार-पीट किया करते थे । उन्हें निरंतर ऐसा करते देखकर एक दिन काका कालेलकर ने कहा
" आप इन बन्दरों को क्यों परेशान करते हैं ? इन्हें छोड़ क्यों नहीं देते ?"
"काका साहब ! ये तो मेरे दुश्मन हैं, इन्हें कैसे छोड़ दूं ।" व्यक्ति ने उत्तर दिया । कालेलकर ने चकित होकर पूछा:
"अरे! ये निर्दोष बंदर आपके दुश्मन कैसे हुए?"
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दीर्घजीवन या दिव्यजीवन
"अंग्रेज मेरे शत्र हैं और हम उन्हें बंदर कहते हैं, अतः ये भी मेरे शत्रु हैं।"
काका कालेलकर ने उन सज्जन की तर्कशक्ति और देशभक्ति पर मन ही मन सिर पीट लिया और सोचा-‘ऐसे महान् व्यक्ति देश का कैसे भला करेंगे !'
बंधुनो ! उक्त सज्जन की दलील कैसी झूठी, निस्सार, तथा निर्दोष प्राणियों को कष्ट पहुँचाने वाली थी। अाज ऐसे बुद्धिवादी व्यक्तियों की कमी नहीं है जो कुतर्कों का प्राश्रय लेकर अपना धर्म ही खो बैठते हैं। न वे धर्म पर विश्वास करते हैं और न ईश्वर पर, न वे पुनर्जन्म को मानते हैं और न ही कर्म फलों को। क्योंकि ये सब कुछ विश्वास से सिद्ध होते हैं और कुछ सुतर्क से। मनुष्य जब कुतर्कों की दिशा में बढ़ जाता है तब उसे सही मार्ग नहीं मिलता । कहा भी है:--
'अणंता सुहेऊ अणंता कुहेऊ' । -सुतर्क अनन्त है और कुतर्क भी अनन्त हैं।
इसलिये, जीवन को महत्त्वपूर्ण बनाने के लिये अगर बुद्धिवाद का सहारा लेना है तो मनुष्य को कुतर्क का आग्रह छोड़कर प्रास्था, विश्वास तथा सूतर्क के द्वारा अपनी जीवनदिशा निर्धारित करना चाहिये।
(३) आध्यात्मिक या आत्मवाद
प्राध्यात्मवाद अथवा आत्मवाद, जड़वाद का विरोधी है। विपरीत दिशा में जाने वाली दो नावों के समान ! जड़ वस्तुओं का त्याग प्राध्यात्मवाद का और उनका संग्रह जड़वाद का लक्ष्य है। जड़वस्तुओं को छोड़े बिना मनुष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में कदापि प्रविष्ट नहीं हो सकता। इसका एकांत अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति घर-परिवार सबको छोड़कर साधु बन जाए तथा जंगल में जाकर डेरा जमा ले। आध्यात्मिकता का अर्थ यह नहीं है कि संसार को छोड़ दिया जाय तथा निर्जन में रहकर ही साधना की जाय, अपितु निरासक्त भावना से है। अगर कोई व्यक्ति साधु बनकर जंगल में चला जाय, किन्तु तब भी उसके मन से त्याग का अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष, छलकपट, प्रसिद्धि की भावना तथा कमंडलु और प्रासन का मोह न जाय यानी उनके प्रति भी प्रासक्ति बनी रहे तो समझना चाहिये कि वह संसार में ही है। और इसके विपरीत घर में रहकर भी अगर व्यक्ति पूर्ण निरासक्त भाव से कर्तव्यपालन करता हया आध्यात्मिकता की ओर बढ़े तो वह उसके लिये लाभदायक सिद्ध होगा। 'हितोपदेश' में बताया गया है:
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां, गहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः।
.. समाहिकामे समणे तवस्सी " ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी है। 80%
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अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते,
निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ रागियों को वन में भी दोष लग जाते हैं और वैरागियों को घर में भी पाँच इन्द्रियों का निग्रहरूप तप प्राप्त हो जाता है। जो अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं, उन वैरागियों के लिये तो घर हो तपोवन के समान है।
श्लोक में यही बताया गया है कि शहर, वन अथवा स्थानविशेष से कोई अन्तर नहीं पड़ता, अगर भावनात्रों में राग न हो तो; निरासक्त व्यक्ति के लिये सभी स्थान अध्यात्म-भाव को पुष्ट करने वाले हैं । एक पाश्चात्य विचारक 'हेल्वेटियस' ने भी कहा है:
"By annihilating the desires, you annihilate the mind."
-इच्छाओं को शून्य करने के लिये तुम्हें मन को शून्य करना चाहिये ।
स्पष्ट है कि अगर मन में आसक्ति बनी रही तो घर द्वार छोड़ने से भी आत्मा का भला होने वाला नहीं है। आत्मा का भला जड़ वस्तुओं के प्रति विराग और उनका त्याग करने से होता है।
गुरु गोविन्दसिंह अध्यात्मवादी पुरुष थे। एक बार जब वे यमुना नदी के किनारे बैठे हुए थे, उनका एक धनी भक्त रघुनाथ नामक व्यक्ति उनसे मिलने पाया। कुशल-क्षेम पूछने के पश्चात भेंटस्वरूप दो कंगन उसने गुरुजी के चरणों में रख दिये। कंगन रत्नजटित होने के कारण मूल्यवान् थे।
गुरु गोविन्दसिंह उन्हें लापरवाही से अपनी तर्जनी अंगुली पर घुमाने लगे । एकाएक, एक कंगन यमुना में जा गिरा। यह देखते ही रघुनाथ व्यग्रता से नदी में कूद पड़ा । बेशकीमती कंगन की हानि उसे सह्य नहीं थी। किन्तु कई गोते लगाकर ढूंढने पर भी वह कंगन नहीं मिला और अंत में बदहवास तथा अत्यन्त दुःखी होकर वह पानी से निकल पाया। आकर बोला
"गुरुदेव ! बहुत प्रयत्न किया, पर कंगन नहीं मिला।" उसी क्षण गोविन्दसिंह जी ने दूसरा कंगन भी नदी में उछाल दिया और कहा"देख ! पहले वाला कंगन उस जगह गिरा था।"
रघुनाथ सन्न रह गया। इस बार वह कंगन निकालने के लिये नहीं दौड़ा । वह समझ गया कि गुरुजी ने मुझे शिक्षा देने के लिये ही कंगन फैंके हैं। रत्न-जटित प्रति मूल्यवान् कंगनों के लिये कुछ क्षणों तक उसका मन बेहाल रहा, लगा कि जैसे किसी ने उसके प्राणों को ही शरीर से खींचकर निकाल फेंका हो, किन्तु उसके पश्चात ही उसका मानस बदल
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दीर्घजीवन या दिव्यजीवन
गया और वह समझ गया कि, जब तक सुवर्ण को मिट्टी न समझा जाएगा, तबतक यह सुवर्णरूपी जीवन मिट्री के मोल का यानी मल्यरहित ही साबित होगा। कितनी भी मल्यवान क्यों: हों, इन जड़ वस्तुओं का मूल्य सफल जीवन से अधिक मूल्यवान् नहीं होता।
प्रत्येक मानव को यही विचार करना चाहिये कि अगर जीवन को सुवर्ण जीवन बनाना है तो जड़ सुवर्ण के ढक्कन को हटाकर आत्मा के सत्यस्वरूप का दर्शन करना आवश्यक है। और ऐसा तभी हो सकता है जब व्यक्ति वित्तषणा, पुत्रषणा और लोकषणा, इन तीनों एषणाओं पर विजय प्राप्त कर ले। उसमें श्रीमंत, सत्ताधारी, दानवीर या धुरंधर विद्वान् कहलाने की चाह न हो, साथ ही साधु बनकर भी स्वयं को महात्मा, सिद्धपुरुष, धर्माचार्य, अथवा अध्यात्मयोगी के रूप में प्रसिद्ध होने की कामना न हो, तभी वह भौतिक आकर्षणों से और साधना-जनित सिद्धियों या लब्धियों की प्राप्ति की वेगवती इच्छाओं से दूर रह सकेगा।
मनुष्य को भलीभाँति समझ लेना चाहिये कि साधुत्व का बाना पहनकर भी अगर वह आध्यात्मिक उड़ान भरने की कोशिश में रहेगा तो ख्याति-प्राप्ति के चक्कर में पड़कर ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा तथा अहंकार आदि से बच नहीं पाएगा और उसका, जीवन को उत्कृष्ट तथा महत्त्वपूर्ण बनाने का स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा। और ऐसी स्थिति में वह चाहे जितने लम्बे समय का जीवन प्राप्त करले तथा तप और साधना में लगा रहे फिर भी गजसुकुमाल के समान जीवन का लाभ वर्षों जीकर भी प्राप्त नहीं कर सकेगा।
इसलिये लम्बे जीवन की इच्छा छोड़कर मुमुक्ष की दृष्टि केवल आत्म-शुद्धि की ओर केन्द्रित होनी चाहिये। आत्मोत्कर्ष के लिये लम्बे समय की, घोर तप की अथवा पूजा-पाठ या साधना की अधिकता अनिवार्य नहीं है अपितु अनिवार्य है लक्ष्य-प्राप्ति के लिये बेचनी, व्यग्रता छटपटाहट और तीव्रतम लगन । यही सब बातें प्रात्मा को निर्मलता की सर्वोच्च श्रेणी पर पहुँचाती हैं तथा अत्यल्प काल में भी कर्मों के विशालसमूह को पूर्ण रूप से नष्ट करने में सक्षम बनती हैं। प्रात्मा शाश्वत सुख को प्राप्त होती है और फिर उसे संसार में नहीं आना पडता। यही जीवन की सफलता कहलाती है, जिसके बाद पुन: प्रयत्न नहीं करना पडता और न ही जीवनधारण करना पड़ता है। वे आत्माएँ धन्य होती हैं जो जीवन का लाभ उठा लेती हैं।
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•अर्थ ना र्च न .
दहेज रूपी विषधर को निर्विष बनाओ!
एक 5 लाख
प्रात्मबंधुनो! .. हम आए दिन सुनते हैं और अखबारों में पढ़ते हैं कि अमुक गाँव अथवा अमुक शहर में दहेज कम मिलने के कारण ससुराल वालों ने बहू को मार दिया, जला दिया या सदा के लिये उसे त्याग दिया। ऐसी घटनाओं का घटना प्रत्येक मानव, समाज और देश के लिये महान् कलंक एवं शर्मनाक स्थिति का कारण होना चाहिये, किन्तु ऐसा लगता है, जैसे लज्जा या शर्मिन्दगी मानव के हृदय से निकलकर लोभ या तृष्णा के अथाह सागर में डूब गई है। इतना ही नहीं, उस सागर में से दहेज-रूपी ऐसे विकराल दानव का आविर्भाव हुआ है, जो उन सुकोमल ललनामों को, जिनमें सीता, सावित्री, मीरा, पार्वती और मरियम जैसी महान नारियाँ छिपी हुई हैं, उन्हें निगलता चला जा रहा है। कन्या की उत्तम शिक्षा, शील तथा अनेक गुण-सम्पन्नता के बावजूद भी दहेज वाला पलड़ा ही भारी माना जाने लगा है। लगता है आज लोगों ने सूयोग्य, सुशील और सुन्दर संस्कारों से परिपूर्ण वधू को भी पशु अथवा अन्य सामान्य उपयोग में आने वाली वस्तु के सदृश समझ लिया है, जिसे विवाह के नाम पर सौदेबाजी करके लाया जाता है। हमारे दूरदर्शी पूर्वजों ने कन्यादान के पीछे जिन महान् एवं पवित्र भावनाओं का संचय किया था, वे अब पूर्णतया नष्ट होकर केवल परिपाटी बन गई है। किन्तु इतना ही होता तब भी विशेष दुःख की बात नहीं थी पर अब कन्यादान के साथ दहेजप्राप्ति की जो विभीषिका चल पड़ी है, उसने भारतीय गौरव तथा भारतीय संस्कृति को बरी तरह से कलंकित और लज्जित कर दिया है। भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान कैसा रहा है ?
हमारे देश की प्राचीनतम और महती संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता नारी को आद्यशक्ति और पूज्य मानना ही रही है। इस संस्कृति ने पुकार-पुकार कर सर्वप्रथम यही कहा है
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।" --जहाँ नारी पूजनीय मानी जाती हैं वहाँ देवता भी क्रीड़ा करते हैं।
सर्वत्र नारी का प्रथम स्थान माना गया है, इसका प्रमाण आज भी हमें मिलता है कि लोग विद्या के लिये सरस्वती की, संपत्ति के लिये लक्ष्मी की और शक्ति की प्राप्ति के लिये दुर्गा की पूजा करते हैं। इतना ही नहीं, पशुओं में भी नारी-रूप गाय को पूजते हैं तथा उसमें तेतीस करोड़ देवताओं का समावेश मानते हैं। नारी का महत्त्व तो वे भगवान् के अवतार से भी अधिक
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दहेजरूपी विषधर को निर्विष बनाओ !
समझते हैं । इसीलिये राम से पहले सीता, कृष्ण से पहले राधा और शंकर से पहले गौरी को मानकर सीताराम, राधाकृष्ण या गौरीशंकर कहते हैं। पिता से पूर्व माता शब्द का प्रयोग करते हैं। कोई पिता-माता नहीं कहता, अपि तु माता-पिता ही कहता है। प्राचीन समय में मनु महाराज के इस कथन का बड़ी श्रद्धा से पालन होता था कि
" पितुः शतगुणा माता ।"
-पिता की प्रपेक्षा माता का पद सौगुना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
इतना ही नहीं, मा को तो सम्पूर्ण देवताओं से भी बढ़कर माना गया है-"न मातुः परं दैवतम् ।" अर्थात् माँ से बढ़कर कोई भी देव नहीं है। इस प्रकार नारी की महत्ता जब मानी जाती थी, तब भारतवर्ष संस्कृति और सभ्यता के चरम शिखर पर था और संसार इसे जगद्गुरु मानकर इससे सीख लेने का प्रयत्न करता था किन्तु आज तो सम्पूर्ण स्थिति ही उलट गई है । इसी भारत के लोगों ने, विभिन्न जातियों ने और समाजों ने नारी को जिस स्थान पर पहुंचा दिया है वह मानो अकल्पनीय है। स्त्रियों की स्थिति को अत्यन्त दारुण और दयनीय बनाकर यहाँ के गौरव को मटियामेट कर दिया है । जिस नारी को हमारा देश आद्यशक्ति मानता था, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषायों की साधना में प्रेरणा का स्रोत समझता था साथ ही तपस्या, ज्ञान, गहन चिन्तन एवं साधना में उसे शीर्ष स्थान पर पाकर पूर्ण सहयोगी समझता था, उसे उसके स्थान तथा महत्ता से नीचे गिराकर पुरुष ने विवशता की साक्षात् मूर्ति बना दिया है । उसका मूल्य दहेज की कमी - बेशी से ही कम अथवा अधिक माना जाने लगा है । अगर कन्या ढेरसारा दहेज न लाए तो उसका या उसकी गुणसम्पन्नता का कोई मूल्य नहीं माना जाता । जड़ दौलत की तुला में उसका पलड़ा हलका ही समझा जाता है ।
आज का मानव यह भूल गया है कि हमारी भारतीय संस्कृति में त्याग का महत्त्व सर्वोच्च माना गया है तथा जड़ दौलत का संग्रह करना पतन का कारण । नारी जाति इस धर्म का पालन करने में भी सदा अग्रणी रही है ।
प्राचीन समय में एक राजा था, जो एक विशाल साम्राज्य का स्वामी कहलाता था । किन्तु वह स्वयं सम्पूर्ण राज्य तथा राज-कोष को प्रजा की धरोहर मानकर उसकी भलाई का प्रयत्न करता हुआ 'राजा जनक' की तरह निरासक्त एवं निर्लिप्त भाव से राज्य कार्य सम्पन्न करता था । उसकी एक पुत्री थी और वह त्यागवृत्ति में अपने पिता से भी दो कदम आगे बढ़ गई थी।
जब वह विवाह के योग्य हुई तो अनेक राज घरानों से उसके लिये संबंध के प्रस्ताव
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पत्र क एफ 155 16
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आए, किन्तु राजा ने उन्हें अस्वीकार करते हुए कह दिया- "मुझे अपनी पुत्री के लिये राजकुमार नहीं अपितु त्यागी पुरुष चाहिये ।"
एक दिन राजा शहर से बाहर घूमने गए तब उन्होंने एक फ़कीर को देखा, जिसके चेहरे पर साधना का उम्र तेज दिखाई दे रहा था। उम्र भी अधिक नहीं थी अतः राजा ने उससे पूछ लिया- "क्या तुम विवाह करना पसंद करोगे ?
आश्चर्यपूर्वक उस मस्त फ़कीर ने राजा को देखा, पर उसकी बात को उपहास समझकर उत्तर दिया
-~
"विवाह कर तो सकता हूँ, किन्तु मुझ फ़कीर को कौन अपनी कन्या प्रदान करेगा ? मेरे पास कुछ भी नहीं है ।"
तृतीय खण्ड
"मैं अपनी राजकुमारी तुम्हें दूंगा ।"
"लेकिन मेरे पास तो राजन् ! केवल तीन पैसे हैं ।"
"तुम तीन पैसों से ही कुंकुम और अगरबत्ती ले आओ, मैं कन्यादान कर दूंगा । फ़कीर दोनों चीजें ले धाया और राजा ने उसके साथ राजकुमारी का विवाह बिल्कुल सादगी से कर दिया। फ़कीर पत्नी को लेकर अपनी झोपड़ी में श्रा गया पर उसमें प्रवेश करते ही राजकुमारी की नजर झोपड़ी में एक मोर रखी हुई दो रोटियों पर पड़ी। लिया "ये रोटियां क्यों रखी है ?"
उसने
पूछ
फ़कीर ने बताया -- " श्राज खाने के बाद बच गई थीं, अतः कल के लिये रख दीं ।" राजकुमारी बोली - "मैं यहाँ नहीं रह सकती।"
फ़कीर ने मुस्कराते हुए कहा- "यह तो मैं पहले ही जानता था कि तुम राजघराने की होकर इस झोंपड़ी में नहीं रह सकोगी ।"
"मैं तुम्हारी झौंपड़ी देखकर भागना नहीं चाहती किन्तु तुम्हारी रोटियाँ देखकर नहीं रहना चाहती। क्या तुम्हें कल का भरोसा नहीं है, जो रोटियों का संग्रह कर रखा है।"
यह सुनते ही फ़कीर की मानों आँखें खुल गईं, मन ही वैभव में पली पत्नी को सराहा तथा अपनी साधु वृत्ति को उससे रोटियाँ कुत्ते को डाल दीं।
इसी प्रकार महाकवि 'माघ' और उनकी पत्नी 'लक्ष्मी' उदार व दयालु दम्पती थे । उनके जीवन का एक प्रसंग है
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मन उसने अपनी राजसी तुच्छ मानकर उसी पल
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एक दिन घर में अन्न न होने के कारण लक्ष्मी अपने पति माघ का एक श्लोक लेकर महाराजा भोज के दरबार में गई। श्लोक से प्रभावित और प्रसन्न होकर राजा भोज ने माघपत्नी लक्ष्मी को एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ भेंट में दी। उन्हें लेकर वह अपने पति माघ के पास घर की ओर आ रही थी कि मार्ग में उसे सैकड़ों याचक महाकवि माघ की उदारता की प्रशंसा करते हुए मिले । लक्ष्मी से रहा नहीं गया अत: वह प्रेम और उदारता के साथ सभी को स्वर्णमुद्राएँ दान में देती चली गई। परिणाम यह हुआ कि घर आने तक, उसके पास एक भी मोहर नहीं बची।
जब माघ को इसका पता चला तो वह अतीव प्रसन्न होकर पत्नी की सराहना करते हुए बोले-"लक्ष्मी ! तुम मेरी सच्ची सहधर्मिणी तथा साक्षात् कीर्ति-स्वरूपा पत्नी हो। मुझे तुम्हारे कार्य से असीम सन्तोष और प्रसन्नता प्राप्त हुई है। याचकों को निराश करने से अधिक पाप और कोई नहीं है तथा ऐसे पापी के जीवित रहने से क्या लाभ है ?"
कहा जाता है कि अत्यन्त उदार महाकवि माघ ने अपने जीवन में कभी किसी याचक को अपने द्वार से निराश नहीं लौटाया और जब वे कुछ देने की स्थिति में नहीं रहे तो यह श्लोक कहते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिये कि:
ब्रजत-ब्रजत प्राणा अथिनि व्यर्थतां गते ।
पश्चादपि हि गन्तव्यं क्व सार्थः पुनरीहशः? -हे प्राणो! याचक के व्यर्थ जाने पर तुम भी चले जानो, जाना तो बाद में भी पड़ेगा ही, किन्तु ऐसा साथ फिर कहाँ मिलेगा?
बंधुनो ! आपके सामने मैंने एक-दो उदाहरण ही रखे हैं, जबकि प्राचीनकाल से लेकर अब तक भी ऐसी महान् नारियाँ घर-घर में प्राप्त होती थीं, आज भी हैं, आवश्यकता है उन्हें पहचानने की तथा उनके गुणों का मूल्यांकन करने की । किन्तु अफ़सोस है कि धनप्राप्ति की निकृष्ट भावना ने लोगों के विवेक और ज्ञान के नेत्रों पर दौलत की हवस-रूपी पट्टी चढ़ा दी है और इसीलिये वे केवल उसे दहेज लेकर आने वाली अबला स्त्री मानरहे हैं। अपनी शक्ति की पहचान आप करें
आज पुरुष नारी को अबला तथा शक्तिहीन कहकर तिरस्कृत और अपमानित करते हैं, जबकि वह अबला नहीं सबला और पुरुष से भी अधिक महत्त्व रखती है। बल से अर्थ अगर शारीरिक बल या पशु-बल से लिया जाय तो अवश्य उसमें पुरुष की अपेक्षा वह बल कम है, किन्तु जैसा कि मानना चाहिये, बल का अर्थ नैतिक, चारित्रिक तथा आध्यात्मिक बल से लिया जाय तो निश्चय ही वह सम्पूर्ण दष्टिकोणों से पुरुष की अपेक्षा अधिक बलवान तथा क्षमताशाली है। महात्मा गांधी ने अनेक स्थानों पर कहा है:
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तृतीय खण्ड
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"प्रेम, करुणा, सहानुभूति एवं अहिंसा की जितनी मात्रा बहिनों में होती है, उतनी पुरुषों में कदापि नहीं हो सकती, क्योंकि पुरुषों का दिमाग भले ही विकसित हो गया है, किन्तु नारी के हृदय की गहराई तक वह कदापि नहीं पहुंच सकता।"
वस्तुतः नारी स्नेह, सेवा तथा सहिष्णुता की मूर्ति होती है। वह निराश हृदयों में भी आशा का संचार करती हई संजीवनी साबित होती है। पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी अपने भाषण में कहा था:
"हिन्द के जख्मी हृदयों का इलाज़ स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। शरीर के घाव सूखाने में डॉक्टर मददगार होते हैं किन्तु हृदय के घाव मिटाकर उनमें साहस का संचार नारियों के अलावा कोई नहीं कर सकता।"
4.4 $6.
9/04.4.
इसलिये मैं अपनी बहिनों से कहना चाहती हूँ कि वे अपने पुरातन गौरव को न भूलें तथा अपनी शक्ति को पहचान कर अपना मार्ग स्वयं बनाएँ। वे पढ़े-लिखें तथा ज्ञान हासिल करके इतिहास को पलटें। ऐसा करके स्वयं समझे कि हमारे यहाँ प्राचीन समय में नारियों का जो उच्च और पवित्र स्थान था, वह सामान्यतया अन्यत्र कहीं भी नहीं पाया जाता था । गार्गी और मैत्रेयी जैसी अनेक ऐसी विदुषी नारियाँ आपके समान ही थीं, जिनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिये अनेक जिज्ञासू पाया करते थे। झांसी की रानी जैसी वीरांगनाएँ भी थीं, जिन्होंने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये थे और जिनसे पुरुष भी काँपते थे। माता के रूप में भी वे ही नारियाँ थीं, जिन्होंने अपने पुत्रों को साहस, शौर्य एवं धर्म के क्षेत्र में धुरंधर बनाकर छोड़ा था। यथाशंकराचार्य को उनकी माता ने ज्ञान के शिखर पर पहुँचाया, वीर शिवाजी और प्रताप को उनकी माताओं ने शूरवीर तथा साहसी बनाया। इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी वे अग्रणी रहीं। रानी मदालसा ने अपने सात पुत्रों को महान त्यागी तथा स्वामी विवेकानन्द की माता ने उन्हें संत-महापुरुष के रूप में गढ़ा। जैन-धर्म में हमारी बहिनें सोलह सतियों का सदा स्मरण करती हैं, वे भी नारियाँ ही थीं।
इनके अलावा आज भी एसी नारियों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपना जीवन आदर्श के रूप में अन्य देशों के समक्ष भी उपस्थित किया है। भारत जब गुलाम था तब अनेकों महिलाओं ने पुरुषों के कंधे से कंधा लगाकर देश को मुक्त कराने में उनका साथ दिया है। श्रीमती कस्तूरबा, कमला नेहरू आदि असंख्य नारियाँ जेल में गई और जब उससे बाहर रहीं तब भारतीयों के हृदयों में साहस का संचार करती रहीं। राजकुमारी अमृतकौर सरकार का एक स्तंभ बनी, सरोजनी नायडू गवर्नर के पद पर स्थापित हुई, विजयलक्ष्मी पंडित अमेरिका में भारत की राजदूत बनकर महान कार्य करती रही और इंदिरा गांधी ने वर्षों तक यहाँ का शासन-सूत्र अपने हाथों में रखा।
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हमारी बहिनों को ऐसे आदर्श सामने रखते हुए अपनी शक्ति को पहचानना चाहिये तथा उसे काम में लेते हुए अपने समस्त हीन भावों का त्याग कर देना चाहिये । प्राज के व्यक्ति
विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है किन्तु नैतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में वह अवनति की ओर जा रहा है । किसी समय भारतभूमि के ऋषियों-मुनियों, ज्ञानियों एवं दार्शनिकों के द्वारा किये गए विचारों और स्थापित किये गए आदर्शों से आज की विचारधारात्रों में जो आकाश-पाताल का अन्तर आ गया है वह भारत की संस्कृति और गौरव के लिये लज्जाजनक तो है ही, गहन चिन्ता उत्पन्न करनेवाला भी है । इसलिये हमारी बहनों को और गुण-संपन्न कन्याओं को अपने स्नेह, सेवा, सद्भावना, उदारता एवं आध्यात्मिकता आदि सम्पूर्ण प्राकृतिक गुणों को तथा योग्यताओं को कायम रखते हुए जनमानस को बदलने का प्रयत्न करना चाहिये । अपने उत्तम तथा विशिष्ट व्यवहार से समाज के अहंकारी तत्त्वों को भी महसूस करा देना चाहिये कि :--
इनाम उसे मिलता है, जिसका काम होता है । पत्र उसे मिलता है जिसका नाम होता है । स्वयंवर में ग्रामन्त्रित होने से क्या हुआ ? सीता उसे मिलती है, जिसमें 'राम' होता है ।
कवि की ये पंक्तियाँ अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक हैं। इनमें स्पष्ट कहा गया है कि व्यक्ति को उसकी अपनी योग्यता के अनुसार ही उपलब्धि हासिल होती है और होनी चाहिये भी । रावण के समान आचरण करता हुआ व्यक्ति सीता के जैसी महान् और पतिव्रता पत्नी सदृश देवी तुल्य पत्नी पाने के लिये उसे
प्राप्त करना चाहे तो यह उसकी मूर्खता है। सीता के राम बनना होगा । दूसरे शब्दों में उसमें 'राम' यानी ईश्वरत्व होना चाहिये । जो व्यक्ति नीतिमान्, सदाचारी अथवा धर्माचारी नहीं है, उसे सीता को वरण करने का अधिकार भी नहीं है ।
महिलाएँ सास नहीं, मां बनें
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आज मेरे समक्ष भाइयों की संख्या से बहनों की संख्या कम नहीं है । मेरी बहिनों से यही अपील है कि प्रत्येक बहिन दहेज प्रथा के कारण भयंकर रूप से दूषित हुए समाज को बदलने का प्रयत्न अपने घर के वातावरण को बदल कर करें। यहाँ उपस्थित अनेकों बहिनें ऐसी होंगी, जिनके घर में बहुएँ हैं, अनेक निकट भविष्य में सास बनने वाली भी होंगी। कितना अच्छा रहे कि वे सास न बनकर अपनी बहुत्रों की माता के समान वात्सल्यमयी बनकर अपने घर को स्वर्ग बनाएँ । अगर सभी बहिनें ऐसा संकल्प कर लें तो 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी, अर्थात् उनकी पुत्रियों को भी ससुराल में जाते ही दूसरी माता
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मिल सकेगी। अधिकतर सुनने में तथा पढ़ने में यही पाता है कि अमुक वधू को सास ने दहेज कम मिलने से अमानुषिक कष्ट दिया और अंत में पति अथवा पुत्र की सहायता से मार डाला। प्रत्येक बहिन यह न भूले कि मैं प्रारम्भ में नई बहू बनकर ही आई थी, और अब जैसा बर्ताव अपनी बहू से करूंगी, भविष्य में अर्थात् वृद्धावस्था में बहू भी मेरे साथ उसी प्रकार उपेक्षापूर्ण अथवा अप्रिय व्यवहार करेगी । मेरा विश्वास है कि अगर प्रत्येक बहिन अपनी सास अथवा बहू से मधुर व्यवहार करे तो वह कभी घाटे में नहीं रहेगी, अन्यथा जैसा घर में रवैया होगा उसी के अनुसार प्रत्येक को भुगतना होगा । एक उदाहरण है--
एक महिला अपनी सास को नफ़रत और तिरस्कार के साथ रूखा-सूखा खाना भी पत्तल में देकर सिकोरे में पानी भर दिया करती थी। किन्तु कुछ समय पश्चात् जब उसके पुत्र का विवाह हुमा और बहू घर में आई तो वह अपनी सास का व्यवहार ददिया सास के प्रति जैसा था, उसे देखकर दंग रह गई।
बहू अत्यन्त चतुर, दयालु एवं सेवाभावी थी। उससे ददिया सास का कष्ट देखा नहीं गया, अत: उसने अपनी सास को बुद्धिमानी से शिक्षा देने का निश्चय किया। अगले दिन से ही वह मिट्टी के उन सिकोरों को इकट्ठा करके एक स्थान पर रखने लगी जिन्हें उसकी सास कभीकभी फेंक दिया करती थी।
यह देखकर उसकी सास ने आश्चर्यपूर्वक कहा:"बहू ! ये सिकोरे किसलिये इकट्ठे कर रही हो ?
बहू ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया-"माँ जी ! जब आप वृद्ध हो जाएँगी तब मुझे भी तो आपके लिये सिकोरों की जरूरत पड़ेगी न ? अगर उस समय न मिले तो इन्हीं को साफ़ करके काम में ले लूंगी।
यह सुनते ही सास की आँखें खुल गई और उसी दिन से उसने अपना बुरा बर्ताव छोड़ दिया।
मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि अगर बहिनें दृढ़ निश्चय कर लें तो अपने पति व पुत्र आदि सभी को दहेज-विरोधी बना सकती हैं। भारतवर्ष में मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने का श्रेय नारी जाति को ही प्राप्त हुआ है। उसने अपने त्याग, स्नेह, उदारता तथा सहिष्णता आदि अनेक गुणों के द्वारा पुरुषों को संकट के समय में प्रेरणा देकर उसे उबारा है, तथा 'का मंत्री' यानी कदम-कदम पर सही मार्ग बताकर विनाश के पथ पर जाने से रोककर मंत्री के समान कार्य किया है। इसीलिये एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है:
"Man have sight, woman insight.” -मनुष्य को दृष्टि प्राप्त है, किन्तु नारी को दिव्यदृष्टि मिली हुई है।
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दहेजरूपी विषधर को निविष बनाओ!
भला ऐसी महान् शक्ति की अधिकारिणी नारियाँ क्या नहीं कर सकती ? वे चाहें तो प्रत्येक घर स्वर्ग बन सकता है और प्रत्येक बहू लक्ष्मी साबित हो सकती है। आवश्यकता है अपनी शक्ति का सम्यक उपयोग करने की तथा अपने श्रेष्ठ गुणों से संकीर्ण विचारधारा को नष्ट करके उदार तथा प्रेममय वातावरण बनाने की; बह को बेटी समझने की और दहेज के लालच को विषधर जन्तु समझ कर उससे दूर रहने की। 'शुभचन्द्राचार्य' ने लालच का तिरस्कार करते हुए सत्य ही कहा है:
"व्यामुह्यति मनः क्षिप्रं धनाशाव्यालविप्लुतम् ।"
अर्थात-धन-सम्पत्ति संबंधी तष्णा रूपी सर्पिणी द्वारा इसे जाने पर मन तत्काल ही विमोहित होकर भान भूल जाता है और अपना मूल स्वरूप खो देता है।
तो भाइयो, एवं बहिनो! अपने आज के वक्तव्य के अंत में मुझे केवल यही कहना है कि दहेज के लोभ-रूपी विषधर का विष आज हमारे देश की प्रत्येक जाति और समाज में व्याप्त हो चुका है और इसके प्रभाव के कारण ही जहाँ-तहाँ, अनेक होनहार, योग्य एवं सर्वगण-सम्पन्न मासम बालिकाएँ काल का ग्रास बनाई जा रही हैं। इस विष को आप सब मिलकर ही अनासक्ति अथवा त्याग-धर्म के सर्वोत्कृष्ट मंत्र से नष्ट कर सकते हैं। इस महा-भयंकर प्रथा के विरुद्ध प्रत्येक पुरुष और महिला को कटिबद्ध होकर क्रांति करनी चाहिये। क्योंकि प्रत्येक घर में बेटियाँ हैं और माता-पिता को उन्हें ब्याहना है। पर अगर हर घर के सदस्य पुत्रों के लिये दहेज न लेने की प्रतिज्ञा कर लें तो अपनी पुत्रियों को दहेज देने की समस्या ही उनके सामने नहीं आएगी।
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विचारणीय बात तो यह है कि उन्हें कोई हानि भी नहीं होगी। अगर दहेज लेंगे नहीं तो देने से भी बच जाएँगे, अत: यह सौदा घाटे का नहीं है। उलटे लाभ यह होगा कि समाज में और घर-घर में सभी चैन की साँस लेंगे और स्नेह का साम्राज्य बना रहेगा। कोई भी कन्या दहेज के अभाव में कुमारी नहीं रहेगी और उसकी योग्यगा तथा गुण-सम्पन्नता के अनुसार योग्य वर तथा प्रेममय भावनाओं से परिपूर्ण घर मिल जाएगा। किसी भी प्रकार की विषम स्थिति का सामना उसे नहीं करना पड़ेगा।
साथ ही सबसे बड़ा लाभ परिवार, समाज और देश को यह होगा कि वे ही कन्याएँ जो ससुराल के नाम से भयभीत और बुझी-बुझी सी रहती हैं, अपने पुरातन गौरव को जगाकर अपनी अद्भुत प्रात्म-शक्ति का उपयोग करती हुई सच्ची धर्मपत्नी एवं भविष्य में ऐसी माता बनेंगी कि अपनी संतान को सुयोग्य, श्रेष्ठ तथा धर्मपरायण नागरिक बना सकें।
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संसार की अन्य सभी संस्कृतियों से अनेक गुनी अधिक श्रेष्ठ तथा आध्यात्मिकता से ओतप्रोत हमारी संस्कृति तभी पुनर्जीवित होकर जगमगा सकेगी जबकि आप सब ही नहीं, वरन् हमारे देश का प्रत्येक व्यक्ति दृढ़-प्रतिज्ञ बनकर हमारी संस्कृति को नष्ट प्रायः करने वाली इस दहेज रूपी कुप्रथा को नष्ट करने का प्रयत्न करे । चाहने पर ऐसा होना असंभव नहीं है । किसी ने ठीक ही कहा है:
विष को भी अमृत बनाना जानता है आदमी । पतझड़ में बहार लाना जानता है आदमी । कौनसी तदबीर है जो आदमी न कर सके, पत्थर को भगवान बनाना जानता है आदमी ।
वस्तुतः प्रगाढ ग्रास्या धौर -संकल्प से जब मनुष्य कंकर को शंकर मानकर उससे भी इच्छित लाभ प्राप्त कर सकता है, तब जन मानस को बदलना कोनसी बड़ी बात है। महात्मा गांधी ने अपने संकल्प में कटिबद्ध होकर ही भारतीयों की श्रात्म-हीनता नष्ट करते हुए उनकी शक्ति को जगाकर अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध उभार दिया। परिणाम यह हुआ कि भारत का बच्चा-बच्चा श्रजाद होने के लिये मचल उठा तथा सभी ने संगठित होकर मोर्चा लिया और परतंत्रता की बेड़ियाँ तड़ातड़ टूट गईं । भारतीयों की शक्ति का सभी देशों ने लोहा माना तथा स्वर्णाक्षरों में उसका आदर्श अंकित हो गया।
मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि ठान लेने पर जब देश की सत्ता और इतिहास भी बदला जा सकता है तो कल्याणकारी दहेज रूपी कुप्रथा का उन्मूलन करना कौन सी बड़ी बात है। प्रावश्यकता है चुनिदा व्यक्तियों के द्वारा जन-मानस को इसके विरुद्ध बनाने की आप सबको महसूस करना चाहिये कि प्राण तो भले ही कुछ नारियों के जाते हैं, किन्तु इसका प्रभाव सम्पूर्ण नारी जाति पर पड़ता है। फलस्वरूप प्रत्येक नव वधू होने के कारण स्वयं को शक्तिहीन, विवश और अबला समझ लेती है। जाती है, विकसित नहीं होती। परिणाम यह होता है कि न वह सच्ची सहधर्मिणी बन पाती है और न ऐसी महान माता, जिसके लिये हमारे यहाँ सदा कहा जाता रहा है:
अथवा कन्या भयग्रस्त उसकी बुद्धि कुंठित हो
"सहस्र ं तु पितृम्माता, गौरवेणातिरिच्यते ।"
तृतीय खण्ड
- हजार पिताओं से भी मां का गौरव अधिक है ।
आशा ही नहीं, विश्वास है कि आप सब भी संगठित होकर भारत की प्रत्येक नारी को उसका गौरवपूर्ण पत्नीत्व एवं मातृत्व दिलाने का प्रयत्न करेंगे ।
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विचार एवं आचार
कहा जाता है कि केवल विचारों से क्या होगा? प्राचार भी तो चाहिए । मैं इस बात से सहमत हूँ। परन्तु प्राचार तभी होगा, जब विचार होगा। बिना विचार के अच्छा या बुरा कोई प्राचरण हो नहीं सकता। किसी के मन में सेवा के विचार पाए, दीन-दु:खियों के प्रति करुणा के विचार आए। क्या आप उन सुविचारों का कुछ भी मूल्याङ्कन नहीं करेंगे ? माना कि प्राचार का बहुत बड़ा मूल्य है, किन्तु विचारों का मूल्य भी कम नहीं है। प्राचार की पवित्रता पर मुहर-छाप कौन लगाता है ? विचार ही तो आचार की पवित्रता को प्रमाणित करते हैं। जैसे विचार होंगे, वैसा ही प्राचार होगा । अनुभवसिद्ध बात यह है कि जब आप अपने जीवन में यह महसूस करते हैं कि यह मुझसे नहीं होगा तब वहाँ विचारों की शिथिलता ही प्राचार क्षेत्र में प्रतिबिम्बित हो जाती है। 'विचार तो पाते हैं बीड़ी-सिगरेट छोड़ दें, परन्तु छूटते नहीं।' ऐसा जो कहते हैं-उनके विचार में ही बल नहीं है। अगर प्रबल विचार आए तो तदनुसार आचार बन ही जाता है। अगर एक मनुष्य किसी परिस्थितिवश किसी चीज को छोड़ नहीं सकता तो कोई बात नहीं, अगर वह प्रतिदिन यह विचार ही करता है कि मुझे एक न एक दिन इस चीज को अवश्य ही छोड़ना है, तो यह भी ठीक है। पर मनुष्य विचार तो छोड़ने का करे नहीं, और बात चलने पर कहता रहे कि मैं विचार तो करता हूँ इस चीज को छोड़ने का, पर यह छुटती नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि वह विचार नहीं करता, विचारों का बहाना मात्र करता है।
समाज, राष्ट्र या विश्व में जो भी गलत कार्य हैं-बुरी प्रथाएँ, कुरूढ़ियाँ या बुरे विचार हैं, वे चाहे सामाजिक क्षेत्र में हों, राष्ट्रीय क्षेत्र में हों या पारिवारिक क्षेत्र में, अथवा वे आध्यात्मिक क्षेत्र में हों, अगर आप उन्हें छोड़ना चाहते हैं, तहेदिल से उनका त्याग करना चाहते हैं, तो उन्हें छोड़ने का संकल्प करें, उनके त्याग का विचार करें और मन में श्रद्धा रखें, उनके छोड़ने का उपाय सोचें, तथा उनके त्याग का महत्त्व और स्वरूप जानें तो एक दिन वह विचार प्राचार में परिणत होकर ही रहेगा। भारत का दर्शन कहता है कि अगर आपने विचार भी कर लिया तो एक मोर्चा तो फतह हो ही गया। यानी किले का सिंहद्वार तो टूट चुका । उसके बाद छोटे-मोटे किवाड़ों के टूटने में देर नहीं लगेगी। अगर मनुष्य किसी चीज को छोड़ता है, और छोड़ता है बिना विचार किये । किन्तु क्या आपके दर्शनशास्त्र उसे वास्तव में छोड़ देना कहते हैं ? या उसे त्याग करना कह सकते हैं ? विचारहीन आचार व्यर्थ है
पशु या कीट-पतंगे क्या सिनेमा देखते हैं, बीड़ी-सिगरेट पीते हैं ? वे कौन-सी चोरी करते हैं ? वे इन सब चीजों का सेवन नहीं करते तो क्या त्यागी कहे जायेंगे ? आप अगर
. समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी है।"
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• अर्थ ना च न .
तृतीय खण्ड
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बिना विचार के ही प्राचार को मानते हैं तो आपकी दृष्टि में क्या ये पशु, कीड़े-मकोड़े आदि सब त्यागी हैं ? इसलिए सिद्धान्त यह है कि जब तक विचारपूर्वक त्याग न हो, तब तक उसे आचार की संज्ञा नहीं दी जा सकती। विचारहीन त्याग, त्याग नहीं
भगवान् महावीर से पूछा गया कि त्यागी कौन है, अत्यागी कौन है ? तब उन्होंने कहा
वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुजंति न से चाइत्ति वच्चई ॥ जे य कंते पिए भोए लद्ध विपिट्टीकुव्वई ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥ वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, स्त्री, शय्या आदि का जो पराधीन होकर---विवशता के कारण उपभोग नहीं कर सकता, वह त्यागी नहीं कहलाता। त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त, प्रिय, मनोज्ञ भोगों को प्राप्त होने पर भी उनकी ओर पीठ कर लेता है, अपनी इच्छा से--स्वतन्त्रतापूर्वक छोड़ता है।
जेलखाने में कैदी को जबरन कई चीजें छोड़नी पड़ती हैं, भोजन भी छोड़ना पड़ता है, किन्तु छुड़ाया जाता है, वह अपनी इच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक छोड़ता नहीं है, इसलिए उन वस्तुओं का त्यागी नहीं कहलाता; किन्तु निःस्पृह साधु-साध्वियों के सामने कई चीजें पड़ी रहती हैं, वह उन्हें आँख उठाकर देखते भी नहीं, मन से भी उन्हें प्राप्त करना नहीं चाहते, वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छा से उन मनोज्ञ वस्तुओं का त्याग करते हैं, इसलिए वह त्यागी कहलाते हैं। संसार में हजारों लोग ऐसे हैं, जिन्हें संसार के ऐश्वर्य भोगसाधन आदि प्राप्त नहीं होते तो क्या वे त्यागी कहे जाएँगे? कदापि नहीं। क्योंकि वे अपनी इच्छा से-संकल्पपूर्वक किसी चीज का त्याग नहीं करते। संकल्पपूर्वक ही दानादि होते हैं
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी चीज को छोड़ने का संकल्प ही पैदा नहीं होता और चीज अपने आप ही छूट जाती है। कभी किसी चीज को छोड़ने का संकल्प तो नहीं पाता है, किन्तु अंगविकलता या रुग्णता प्रादि परिस्थितिविशेष से उस चीज का उपभोग वह नहीं कर सकता, तो क्या इसे हम त्याग कहेंगे ? त्याग उसे कहेंगे, जिसमें पहले संकल्प हो । दान करने का विचार होता है, तो पहले दान का संकल्प किया जाता है, तब दान किया जाता है।
जैनदर्शन की दृष्टि से भी देखा जाय तो सम्यग्दर्शन से युक्त चारित्र ही सम्यक् चारित्र कहलाता है। जो चारित्र (प्राचार) सम्यग्दर्शन से युक्त नहीं है, वह मिथ्याचारित्र या कुचारित्र कहलाता है। मुक्ति का द्वार खोलनेवाला सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व है। उसके बाद ही सम्यक् चारित्र कृतकार्य होता है।
इसीलिए कहा गया है कि जो भी व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, धर्मक्रिया या धर्माचरण हों, वे सम्यग्दर्शन से युक्त होने चाहिए, तभी वे प्राचार सम्यक् कहलाएंगे, और मुक्ति के साधन कहलाएंगे।
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चतुर्थ
खण्ड
जैन संस्कृति के विविध आयाम .
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परम विदुषी महासती श्री उमराव कुंवर जी म.सा. अर्चना
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भगवान महावीर की नीति
0 उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म.
जिस प्रकार धार्मिक जीवन का आधार आचार है, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन की रीढ़ नीति है और यह भी तथ्य है कि विना नैतिक जीवन के धार्मिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से नीति, धर्म का आधार है। यही कारण है कि प्रत्येक धर्मप्रवर्तक, धर्मोपदेशक और धर्मसुधारक ने धर्म के साथ नीति का भी उपदेश दिया, जन साधारण को नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा दी।
हाँ, यह अवश्य है कि धर्म, धर्म के मूल्य, धर्म के सिद्धान्त स्थायी हैं, सदा समान रहते हैं। उनमें देश-काल की परिस्थितियों के कारण परिवर्तन नहीं होता; जैसे अहिंसा धर्म है, यह संसार में सर्वत्र और सभी कालों में धर्म ही रहेगा । किन्तु नीति, समय और परिस्थिति सापेक्ष है, इसमें परिवर्तन आ सकता है। जो नीतिसिद्धान्त भारतीय परिस्थितियों के लिए उचित हैं, आवश्यक नहीं कि वे पश्चिमी जगत् में भी मान्य किये जाएँ, वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार नैतिक सिद्धान्त भिन्न प्रकार के भी हो सकते हैं।
व्यावहारिक जीवन से प्रमुखतया सम्बन्धित होने के कारण नीतिसिद्धान्तों में परिवर्तन आ जाता है।
जैन नीति के सिद्धान्त यद्यपि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा निश्चित कर दिये गये थे और वे दीर्घकाल तक चलते भी रहे थे; किन्तु उन सिद्धान्तों को युगानुकूल रूप प्रदान करके भगवान महावीर ने निश्चित किया और यहो सिद्धान्त अब तक प्रचलित हैं। इसी अपेक्षा से इन्हें 'भगवान महावीर की नीति' नाम से अभिहित करना समीचीन होगा।
भगवान् महावीर
भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड ग्राम में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशलादेवी की कुक्षि से ईसा पूर्व ५९९ में हुआ था। पापने ३० वर्ष गृहवास में बिताये, तदुपरान्त श्रमण बने। १२ वर्ष तक कठोर तपस्या की, केवलज्ञान का उपार्जन किया और फिर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। ३० वर्ष तक अपने वचनामृत से भव्य जीवों के लिए कल्याण मार्ग बताया और प्रायुसमाप्ति पर ७२ वर्ष की अवस्था में कार्तिकी अमावस्या के दिन निर्वाण प्राप्त किया।
वे जैन परम्परा के चौवीसवें और अन्तिम तीर्थंकर हैं। वर्तमान समय में उन्हीं का शासन चल रहा है।
भारतीय और भारतीयेतर सभी धर्मप्रवर्तकों, उपदेशकों से भगवान् महावीर का उपदेश विशिष्ट रहा। उपदेश की विशिष्टता के कारण ही उनके द्वारा निर्धारित नीति में भी ऐसी
को संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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आरनस्वन
चतुर्थखण्ड / २ विशेषताओं का समावेश हो गया जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो सकतीं। इस अपेक्षा से भगवान् महावीर की नीति को दो शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है
१. -भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति ।
२- भगवान् महावीर की सामान्य नीति ।
सामान्य नीति से अभिप्राय नीति के उन सिद्धान्तों से है, जिनके ऊपर अन्य दार्शनिकों, मनीषियों और धर्म-सम्प्रदाय के उपदेष्टाओं ने भी अपने विचार प्रकट किये हैं। ऐसे नीति सिद्धान्त सत्य, अहिंसा आदि है किन्तु इन सिद्धान्तों का युक्तियुक्त तर्कसंगत विवेचन जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भगवान् महावीर और उनके अनुयायियों ने इन पर गम्भीर चिन्तन किया है।
।
विशिष्ट नीति से अभिप्राय उन नीति सिद्धान्तों से है, जिन तक अन्य मनीषियों की दृष्टि नहीं पहुँची है। ऐसे नीति सिद्धान्त अनाग्रह, धनेकान्त यतना, समता अप्रमाद आदि हैं। यद्यपि यह सभी नीति सिद्धान्त सामाजिक सुव्यवस्था तथा व्यक्तिगत व्यावहारिक सुखी जीवन के लिए थे फिर भी अन्य धर्म प्रवर्तकों के चिन्तन से यह प्रछूते रह गये। भगवान् महावीर और उनके प्राज्ञानुयायी श्रमणों, मनीषियों ने नीति के इन प्रत्ययों पर गम्भीर विचार किया है और सुखी जीवन के लिए इनकी उपयोगिता प्रतिपादित की है।
जैन नीति के मूल तत्त्व
उपर्युक्त सामान्य और विशिष्ट नीति के सिद्धान्तों को भली भाँति हृदयंगम करने के लिए यह अधिक उपयोगी होगा कि जैन नीति अथवा भगवान् महावीर की नीति के मूल प्राधारभूत तत्त्वों को और उनके हार्द को समझ लिया जाय ।
जैन नीति के मूल तत्व हैं, पुण्य, संवर धौर निर्जरा ध्येय हैं-मोक्ष प्रालय, बंध तथा पाप अनैतिक तत्त्व हैं। जैन नोति का सम्पूर्ण भाग इन्हीं पर टिका हुआ है ।
पाप धनैतिक है, पुण्य नैतिक, प्रात्रव घनैतिक है, संवर नैतिक, बंध अनैतिक है, निर्जरा नैतिक । इस सूत्र के आधार पर ही सम्पूर्ण जैन-नीति को समझा जा सकता है ।
पाप और पुण्य शब्दों का प्रयोग तो संसार की सभी नीति और धर्म-परम्पराधों में हुआ है, सभी ने पाप को अनैतिक बताया और पुण्य की गणना नीति में की है। यह बात अलग है कि उनकी पाप एवं पुण्य की परिभाषाओं में अन्तर है, इनकी परिभाषायें उन्होंने अपनी-अपनी कल्पनाओं में बाँधकर की है।
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किन्तु मासव संवर बंध और निर्जश शब्द जैन नीति के विशेष शब्द हैं। इनका पर्व समझ लेना अभीष्ट है।
}
घालव का नीतिपरक अभिप्राय है वे सभी क्रियाएँ जिनको करने से व्यक्ति का स्वयं का जीवन दुःखी हो, जिनसे समाज में अव्यवस्था फैले, प्रातंक बढ़े, विषमता पनपे समाज के, देश के राष्ट्र राज्य और संसार के अन्य प्राणियों का जीवन अशान्त हो जाय, वे कष्ट में पढ़ जायें।
"
जैन-नीति ने आस्रवों के प्रमुख पाँच भेद माने हैं - १. मिथ्यात्त्व ( गलत धारणा ), २. अविरति ( श्रात्मानुशासन का अभाव ), ३. प्रमाद ( जागरूकता का प्रभाव - असावधानी),
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• भगवान महावीर की नीति / ३
४. कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ) और ५. अशुभ योग (मन, वचन काय की निंद्य एवं कुत्सित वृत्तियां)। एक अन्य अपेक्षा से भी पाँच प्रमुख प्रास्रव हैं- १. हिंसा, २. मृषावादअसत्य भाषण, ३. चौर्य, ४. अब्रह्म सेवन और ५. परिग्रह।
___ स्पष्ट है कि ये सभी प्रास्रव अनैतिक हैं, समाज एवं व्यक्ति के लिए दुःखदायी हैं, अशान्ति, विग्रह और उत्पीडन करने वाले हैं।
इन आस्रवों को-अनैतिकताओं को अनैतिक प्रवृत्तियों को रोकना, इनका आचरण न करना, संवर है-नीति है, सुनीति है।
हिंसा आदि पांचों प्रास्रवों को पाप भी कहा जाता है, इसीलिए पाप अनैतिक है। किसी का दिल दुखाना, शारीरिक मानसिक चोट पहुँचाना, झूठ बोलना, चोरी करना, धन अथवा वस्तुओं का अधिक संग्रह करना आदि असामाजिकता है, अनैतिकता है।
आज समाज में जो विग्रह, वर्गसंघर्ष, अराजकता आदि बुराइयाँ तीव्रता के साथ बढ़ रही हैं इनका मूल कारण उपर्युक्त अनैतिक आचरण और व्यवहार ही है। एक ओर धन के ऊँचे पर्वत और दूसरी ओर निर्धनता एवं प्रभाव की गहरी खाई ने ही वर्गसंघर्ष और असंतोष को जन्म दिया है, जिसके कारण मानव-मन में विप्लव उठ खड़ा हुआ है।
इस पाप रूप अनैतिकता के विपरीत अन्य व्यक्तियों को सुख पहुँचाना, अभावग्रस्तों का प्रभाव मिटाना, रोगी आदि की सेवा करना, समाज में शान्ति स्थापना के कार्य करना, धन का अधिक संग्रह न करना, कटु शब्द न बोलना, मिथ्या भावण न करना, चोरी, हेरा-फेरी आदि न करना नैतिकता है, नीतिपूर्ण आचरण है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार बन्ध का अभिप्राय है-अपने ही किये कर्मों से स्वयं ही बंध जाना, किन्तु नीति के सन्दर्भ में इसका अर्थ विस्तृत है। व्यक्ति अपने कार्यों के जाल में स्वयं तो फंसता ही है, दूसरों को भी फंसाता है। जैसे मकड़ी जाला बुनकर स्वयं तो उसमें फंसती ही है, किन्तु उसकी नीयत मच्छरों आदि अपने शिकार को भी उस जाल में फंसाने की होती है और फंसा भी लेती है।
इसी तरह कोई व्यक्ति झूठ-कपट का जाल बिछाकर लच्छेदार और खुशामद भरी मीठी-मीठी बातें बनाकर अन्य लोगों को अपनी बातों में बहलाता है, भुलावा देकर उन्हें वागजाल में फंसाता है, उन्हें वचन की डोरी से बांधता है, अकड़ता है तो उसके ये सभी क्रियाकलाप चाग्जाल बन्धन रूप होने से अनैतिक हैं।
और नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से निर्जरा है, ऐसे वागजालों में किसी को न फंसाना, झूठ-कपट और लच्छेदार शब्दों में किसी को न बांधना। यदि पहले कषाय आदि के आवेग में किसी को इस प्रकार बन्धन में ले लिया हो तो उसे वचनमुक्त कर देना, साथ ही स्वयं उस बन्धन से मुक्त हो जाना। इसी बात को हेमचन्द्राचार्य ने इन शब्दों में कहा है
आस्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमाईती दृष्टिरन्यवस्या प्रपंचनम् ॥-वीतराग स्तोत्र | धम्मो दीयो -प्रास्रव भव का हेतु है और संवर मोक्ष का कारण है। दूसरे शब्दों में आस्रव |
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्य खण्ड /४
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अनैतिक है तथा संवर नैतिक है। यह पाहत (अरिहन्त भगवान् तथा उनके अनुयायियों की) दृष्टि है। अन्य सब इसी का विस्तार है।
जैन दृष्टि के इन मूल आधारभूत तत्त्वों के प्रकाश में अब हम भगवान् महावीर की नीति को समझने का प्रयास करेंगे।
भगवान् महावीर के अनुयायियों का वर्गीकरण श्रमण और श्रावक इन दो प्रमुख वर्गों में किया जा सकता है। इन दोनों ही वर्गों के लिए भगवान् ने आचरण के स्पष्ट नियम निर्धारित कर दिये हैं। पहले हम श्रमणों को ही लें। श्रमणाचार में नीति
श्रमण के लिए स्पष्ट नियम है कि वह अपना पूर्व परिचय-गहस्थ जोवन का परिचय श्रावक को न दे। सामान्यतया श्रमण अपने पूर्व जीवन का परिचय श्रावकों को देते भी नहीं, किन्तु कभी-कभी परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि परिचय देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा श्रमणों के प्रति अाशंका हो सकती है। इसे एक दृष्टान्त से समझिये
भगवान नेमिनाथ के शिष्य छह मुनि थे-अनीकसेन प्रादि। ये छहों सहोदर भ्राता थे, रूप रंग आदि में इतनी समानता थी कि इनमें भेद करना बड़ा कठिन था। दो-दो के समुह में वह छहों अनगार देवकी के महल में भिक्षा के लिए पहुंचे । देवकी :के हृदय में यह शंका उत्पन्न हो गई कि ये दो ही साधु मेरे घर भिक्षा के लिए तीन बार आये हैं, जबकि श्रमण नियम से एक ही दिन में एक घर में दो बार भिक्षा के लिए नहीं जाता।
देवकी की इस शंका को मिटाने के लिए साधुनों ने अपना पूर्व परिचय दिया,' जो कि उस परिस्थिति में अनिवार्य था ।
इसलिए भगवान् ने साधु के लिए उत्सर्ग और अपवाद-दो मार्ग बताये हैं। उत्सर्गमार्ग में तो पूर्व परिचय साधक देता नहीं, लेकिन अपवाद-मार्ग में, यदि विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न हो जाय तो दे सकता है ।
यह अपवाद-मार्ग जैन साध्वाचार में नीति का द्योतक है ।
इसी प्रकार केशी श्रमण ने जब गौतम गणधर से भ. पार्श्वनाथ की सचेलक और भ. महावीर की अचेलक धर्मनीति के भेद के विषय में प्रश्न किया तो गणधर गौतम का उत्तर नीति का परिचायक है। उन्होंने बताया कि सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र तप की साधना ही मोक्ष मार्ग है । वेष तो लोक-प्रतीति के लिए होता है ।
इसी प्रकार के अन्य दृष्टान्त श्रमणाचार सम्बन्धी दिये जा सकते हैं, जो सीधे व्यावहारिक नीति अथवा लोकनीति से सम्बन्धित हैं।
अब हम भगवान महावीर की नीति का विशिष्ट नीति का वर्णन करेंगे, जिस पर अन्य विचारकों ने बिल्कुल भी विचार नहीं किया है, और यदि किया भी है तो बहत कम किया है।
१. अन्तगड सूत्र २. उत्तराध्ययन सूत्र १३/२९-३२
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भगवान् महावीर की नीति | ५ भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति
___ भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति के मूलभूत प्रत्यय हैं-~-अनाग्रह, यतना, अप्रमाद, उपशम अादि।
समाज देश अथवा राष्ट्र का एक वर्ग अपने ही दृष्टिकोण से सोचता है उसी को उचित मानता है तथा अन्यों के दृष्टिकोण को अनुचित । वह उनके दृष्टिकोण का आदर नहीं करता, इसी कारण पारस्परिक संघर्ष होता है।
आर्य स्कन्दक ने भगवान महावीर से पूछा-लोक शाश्वत है या प्रशाश्वत, अन्त सहित है या अन्त रहित ?
इसी प्रकार के और भी प्रश्न किये । भगवान ने उसके सभी प्रश्नों का अनेकांत नीति से उत्तर दिया, कहा
लोक शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी। यह सदा काल से रहा है, अब भी है और भविष्य में रहेगा, कभी इसका नाश नहीं होगा। इस अपेक्षा से यह शाश्वत है। साथ ही इसमें जो द्रव्य-काल-भाव की अपेक्षा परिवर्तन होता है, उस अपेक्षा से प्रशाश्वत भी है।
इसी प्रकार भगवान ने स्कन्दक के सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। इस अनेकांतनीति से प्राप्त हुए उत्तरों से स्कन्दक संतुष्ट हमा। यदि भगवान अनेकांत नीति से उत्तर न देते तो स्कन्दक भी संतुष्ट न होता और सत्य का भी अपलाप होता । सत्य यह है कि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है । वस्तु स्थिर भी रहती है, और उसी क्षण उसमें काल आदि की अपेक्षा परिवर्तन भी होते रहते हैं।
आज का विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है, तभी आईन्टीन आदि वैज्ञानिकों ने अनेकांत नीति की सराहना की है, इसे भगवान महावीर की अनुपम देन माना है, और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए इसे बहुत उपयोगी स्वीकार किया है। प्राइन्स्टीन का Theory of relativity तो स्पष्ट सापेक्षवाद अथवा अनेकांत ही है। यतना-नीति
यतना का अभिप्राय है सावधानी। नीति के संदर्भ में सावधानी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। भगवान ने बताया है कि सोते, जागते, चलते, उठते, बैठते, बोलते-प्रत्येक क्रिया को यतनापूर्वक करना चाहिए।
सावधानी पूर्ण व्यवहार से विग्रह की स्थिति नहीं पाती, परस्पर मन-मुटाव नहीं होता, किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होता। आत्मा की सुरक्षा भी होती है। समता-नीति
समता भाव अथवा साम्यभाव भगवान महावीर या जैन धर्म की विशिष्ट नीति है। प्राचार और विचार में यह अहिंसा की पराकाष्ठा है। भगवान महावीर ने प्राचार-व्यवहार की नीति बताते हुए कहा---
३. भगवती २, ९ ४. दशवकालिक ४
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड | ६
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अचनाचन
अप्पसमे मन्निज्ज छप्पि काए' छह काय के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझो। छह काय से यहां अभिप्राय मनुष्य, पशु, पक्षी, देव छोटे से छोटे कृमि और यहां तक कि जल, बनस्पति, पेड़ पौधे आदि प्राणिमात्र से है।
जैन धर्म इन सभी में प्रात्मा मानता है और इसीलिए इनको दुःख देना, अनीति में परिगणित किया गया है, तथा इन सबके प्रति समत्वभाव रखना जैन नीति की विशेषता है।
क्रूर, कुमार्गगामी, अपकारी व्यक्तियों के प्रति भी समता का भाव रखना चाहिये, यह जैन रीति है। भगवान पार्श्वनाथ पर उनके साधनाकाल में कमठ ने उपसर्ग किया और धरणेन्द्र ने इस उपसर्ग को दूर किया, किन्तु प्रभु पार्श्वनाथ ने दोनों पर ही सम भाव रखा।
मनोविज्ञान और प्रकृति का नियम है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और फिर प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया। इस प्रकार यह क्रिया-प्रतिक्रिया का एक चक्र ही चलने लगता है। इसको तोड़ने का एक ही उपाय है-क्रिया की प्रतिक्रिया होने ही न दी जाय ।
किसी एक व्यक्ति ने दूसरे को गाली दी, सताया, उसका अपकार किया या उसके प्रति दुष्टतापूर्ण व्यवहार किया। उसकी इस क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप वह दूसरा व्यक्ति भी गाली दे अथवा दुष्टतापूर्ण व्यवहार करे तो संघर्ष की, कलह की स्थिति बन जाये और यदि वह समता का भाव रखे, समता नीति का पालन करे तो संघर्ष शान्ति में बदल जायेगा।
समाजव्यवहार, तथा लोक में शान्ति हेतु समता की नीति की उपयोगिता सभी के जीवन में प्रत्यक्ष है, अनुभवगम्य है।
समतानीति का हार्द है-सभी प्राणियों का सुख-दुःख अपने ही सुख-दु:ख के समान समझना । सभी सुख चाहते हैं, दुःख कोई भी नहीं चाहता। इसका प्राशय यह है कि ऐसा कोई भी काम न करना जिससे किसी का दिल दुखे। और यह समतानीति द्वारा ही हो सकता है। अनुशासन एवं विनयनीति
विनय एवं अनुशासन संसार की ज्वलंत समस्यायें हैं । अनुशासन समाज में सुव्यवस्था का मूल कारण है पर विनय जीवन में सुख-शान्ति प्रदान करता है।
यद्यपि विनय तथा अनुशासन को सभी ने महत्त्व दिया है, किन्तु भगवान् महावीर ने इसे जीवन का आवश्यक अंग बताया है। उन्होंने तो विनय को धर्म का मूल-'विणयमूलो धम्मो' कहा है।
विनय का लोकव्यवहार में अत्यधिक महत्त्व है। एक भी अविनयपूर्ण वचन कलह और क्लेश का वातावरण उत्पन्न कर देता है, जबकि विनय-नीति के पालन से संघर्ष की अग्नि शांत हो जाती है, वैर का दावानल सौहार्द में परिणत हो जाता है ।
विनय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता की कुंजी है । लेकिन विनयनीति का पालन
५. उत्तराध्ययनसूत्र
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भगवान् महावीर की नीति / ७ वही कर पाता है, जो अनुशासित हो, अनुशासन पाकर कुपित न हो । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा
अणुसासिओ न कुपिज्जा। और
विणए ठविज्ज अप्पाणं।' विनय में स्थित रहे, विनय नीति का पालन करे। गुरुजनों, माता-पिता आदि का विनय परिवार में सुख-शांति का वातावरण निर्मित करता है तथा मित्रों, सम्बन्धियों, समाज के सभी व्यक्तियों के प्रति विनययुक्त व्यवहार यश-कीति तथा प्रेम एवं उन्नति की स्थिति के निर्माण में सहायक होता है।
मित्रता (Friendship) को संसार के सभी विचारक श्रेष्ठ नीति स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि सिर्फ अपनी ही जाति तक सीमित रह गई, कुछ थोड़े आगे बढ़े तो उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति के साथ मित्रता नीति के पालन की बात कही। किन्तु भगवान महावीर की मैत्री-नीति का दायरा बहुत विस्तृत है, वे प्राणीमात्र के साथ मित्रता की नीति का पालन करने की बात कहते हैं
मित्ति भूएसु कप्पए । प्राणी मात्र के साथ मैत्री का-मित्रता की नीति का संकल्प करे। भगवान की इसी आज्ञा को हृदयंगम करके प्रत्येक जैन यह भावना करता है
प्राणीमात्र के साथ मेरी मैत्री (मित्रता) है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मन्नं न केणई ।
मित्रता की यह नीति स्वयं को और अपने साथ अन्य सभी प्राणियों को आश्वस्त करने की नीति है। सामूहिकता की नीति
सामूहिकता अथवा एकता सदा से ही संसार की प्रमुख आवश्यकता रही है। बिखराव अलगाव की प्रवत्ति अनैतिक है और परस्पर सद्भाव-सौदाद-मेल-मिलाप नैतिक है।
भगवान महावीर ने सामूहिकता तथा संघ-ऐक्य का महत्त्व साधुओं को बताया। उनके संकेत का अनुगमन करते हुए साधु भोजन करने से पहले अन्य साधुओं को निमन्त्रित करता और कहता है कि यदि मेरे लाये भोजन में से कुछ ग्रहण करें तो मैं संसार-सागर से तिर जाऊँ।
साहू हुज्जामि तारिओ।१०
६. उत्तराध्ययनसूत्र १६९ ७. उत्तराध्ययनसूत्र ११८ ८. उत्तराध्ययनसूत्र ६२ ९. आवश्यकसूत्र १०. दशवकालिकसूत्र ५१२५
सम्मो दी संसार समुद धर्म ही दीय
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चतुर्थखण्ड / ८
में
दशवेकालिकसूत्र के इन शब्दों से यही नीति परिलक्षित होती है । वैदिक परम्परा भी सामूहिकता अथवा संगठन की महत्ता स्वीकृत की गई है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे - कलियुग में संगठन में ही शक्ति है । इन शब्दों में सामूहिकता की ही नीति मुखर हो रही है ।
आधुनिक युग में प्रचलित शासनप्रणाली - प्रजातन्त्र का आधार तो सामूहिकता है ही । प्रजातन्त्र का प्रमुख नारा है
United we stand divided we fall.
- सामूहिक रूप में हम विजयी होते हैं और विभाजित होने पर हमारा पतन हो जाता है ।
सामूहिकता की नीति देश, जाति, समाज सभी के लिए हितकर है।
स्वहित और लोकहित
स्वहित और लोकहित नैतिक चिन्तन के सदा से ही महत्त्वपूर्ण पहलू रहे हैं । विदुर ११ और चाणक्य १२ ने स्वहित को प्रमुखता दी है और कुछ अन्य नीतिकारों ने परहित अथवा लोकहित को प्रमुख माना है, कहा है- अपने लिए तो सभी जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीए, जीवन उसी का है । १३ यहाँ तक कहा गया - जिस जीवन में लोकहित न हो उसकी तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है । इस प्रकार की परस्पर विरोधी और एकांगी नीति- धाराएँ नीतिसाहित्य में प्राप्त होती हैं
लेकिन भगवान् महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना । इसका कारण यह है कि भगवान् की दृष्टि विस्तृत आयाम तक पहुँची हुई थी। उन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया । स्वहित का अर्थ स्वार्थ प्रोर लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया । अपि तु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना । इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता-जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके ।
उन्होंने अपने साधुयों को स्व-पर कल्याणकारी बनने का सन्देश दिया। इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया । श्रमणजन श्रपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं ।
भगवान् की वाणी लोकहित के लिए है । ५ पांचों महाव्रत स्वहित के साथ लोकहित के लिए भी हैं। '६ अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है ।१७ 'णमोत्थुणं' सूत्र में तो भगवान्
११. विदुरनीति १६
१२. चाणक्यनीति १।६; पंचतन्त्र १।३८७
१३. सुभाषित, उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ. २०८
१४. वही, पृष्ठ २०५
१५. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्कन्ध २, श्र. १, सू. २१
१६. प्रश्नव्याकरणसुत्र, स्कन्ध २, प्र. १, सू.
१७. शक्रस्तब - प्रावश्यकसूत्र
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भगवान् महावीर की नीति / ९ को लोकहितकारी बताया ही है ।१८ ..
भगवान् स्वयं तो अपना हित कर ही चुके होते हैं; किन्तु अरिहन्तावस्था की सभी क्रियाएँ, उपदेश आदि लोकहित ही होती हैं।
साधु जो निरन्तर (नवकल्पी) पैदल ही ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, उसमें भी स्वहित के साथ लोकहित सन्निहित है।
श्रमण साधनों के समान ही श्रावकवर्ग और साधारण जन भी, जो भगवान् महावीर की आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं, स्वहित के साथ लोकहित को भी प्रमुखता देते है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भगवान महावीर द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों में लोकहित को सदैव ही उच्च स्थान प्राप्त हुआ है और उनका अनुयायीवर्ग स्वहित के साथसाथ लोकहित का भी प्रविरोधी रूप से ध्यान रखता है तथा इस नीति का पालन करता है।
भगवान् महावीर ने इन विशिष्ट नीतियों के अतिरिक्त सत्य, अहिंसा, करुणा-जीवमात्र पर दया आदि सामान्य नीतियों का भी मार्ग प्रशस्त किया तथा इन्हें पराकाष्ठा तक पहुंचाया।
नीति के सन्दर्भ में भगवान ने इसे श्रमण नीति और श्रावक नीति के रूप में वर्गीकृत किया।
श्रावक चूंकि समाज में रहता है, सभी प्रकार के वगों के व्यक्तियों से उसका सम्बन्ध रहता है, अतः इसके लिए समन्वयनीति का विशेष प्रयोजन है। साथ ही धर्माचरण का भी महत्त्व है। उसे लौकिक विधियों का भी पालन करना आवश्यक है । इसीलिए कहा गया है
सर्व एव हि जनानां, प्रमाणं लोकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ॥
-सोमदेवसूरि : उपासकाध्ययन -जैनों को सभी लौकिक विधियां प्रमाण हैं, शर्त यह है कि सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रतों में दोष न लगे। .
श्रावक-व्रतरूपी सिक्के के दो पहलू होते हैं-१. धर्मपरक और २. नीतिपरक । श्रावक व्रतों के अतिचार भी इसी रूप में सन्दभित हैं। उनमें भी नीतिपरक तत्त्वों की विशेषता है।
ठाणांगसूत्र में जो अनुकंपादान, संग्रहदान, अभयदान, कारुण्यदान, लज्जादान, गौरवदान, अधर्मदान, धर्मदान, करिष्यतिदान और कृतदान-यह दस प्रकार के दान। बताये गये हैं, वे भी प्रमुख रूप से लोकनीतिपरक ही हैं। उनकी उपयोगिता लोकनीति के सन्दर्भ में असंदिग्ध है।
१८. श्रावक व्रत और उनके अतिचारों के नीतिपरक विवेचन के लिए देखें लेखक की जैन
नीतिशास्त्र पुस्तक का सैद्धान्तिक खण्ड (अप्रकाशित) दसविहे दाणे पण्णत्ते, तंजहाअणुकंपासंगहे चेव, भये कालुणिये इ य । लज्जाए गारवेण य, अहम्मे पुण सत्तमे । धम्मे य अमे वृत्ते काहीइ य कतंति य । ठाणांग १०१७४५
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चतुर्थखण्ड / १०
इसी प्रकार ठाणांगसूत्र में वर्णित दस धर्मों में से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म आदि का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नीति से है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन नैतिक दृष्टिबिन्दु स्वहित के साथ-साथ लोकहित को भी लेकर चलता है। गृहस्थ जीवन में तो लोकनीति को स्वहित से अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ है।
भगवान् के उपदेशों में निहित इसी समन्वयात्मक बिन्दु का प्रसारीकरण एवं पुष्पनपल्लवन बाद के प्राचार्यों द्वारा हुआ। प्राचार्य हरिभद्रकृत धर्मविन्दुप्रकरण २१ और आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में मार्गानुसारी के जो ३५ बोल दिये गये हैं वे भी सद्गृहस्थ के नैतिक जीवन से सम्बन्धित हैं ।
२
*
प्रवचनसारोद्वार में धावक के २१ गुणों में भी लगभग सभी गुण नीति से ही सम्बन्धित हैं।
इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा निर्धारित नीति सिद्धान्तों का लगातार विकास होता रहा और अब भी हो रहा है । यद्यपि नीति के सिद्धान्त वही हैं, किन्तु उनमें निरन्तर युगानुकूल परिमार्जन और परिष्कार होता रहा है, यह धारा वर्तमान युग तक चली पाई है।
महावीर युग की नैतिक समस्याएँ और भगवान् द्वारा समाधान
भगवान् महावीर का युग संघर्षों का युग था । उस समय श्राचार, दर्शन, नैतिकता, सामाजिक ऊँच-नीच की धारणाएँ, दास-दासी प्रथा आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ थीं । सभी वर्ग उनमें भी समाज में उच्चताप्राप्त ब्राह्मणवर्ग अपने ही स्वार्थों में लीन था, मानवता पद-दलित हो रही थी, क्रूरता का बोलबाला था, नैतिकता को लोग भूल से गये थे। ऐसे कठिन समय में भगवान् महावीर ने उन समस्याओं को समझा, उन पर गहन चिन्तन किया और उचित समाधान दिया ।
१. नैतिकता के दो दृष्टिकोणों का उचित समाधान
उस समय ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित हिंसक यश एक ओर चल रहे थे तो दूसरी ओर देह दण्ड रूप पंचाग्नि तप की परम्परा प्रचलित थी । यद्यपि भ. पार्श्वनाथ ने तापसपरम्परा के पाखंड को मिटाने का प्रयास किया किन्तु वे नि:शेष नहीं हुए थे।
२०. दसविहे धम्मे पण्णत्ते तंजा
(१) गामधम्मे, (२) नगरधम्मे, (३) दुधम्मे (४) पासंडधम्मे, (५) कुलधम्म्मे, (६) गणधम्मे, (७) संघधम्मे (८) सुवधम्मे, (९) चरितम्मे (१०) अथिकायधम्मे । -ठाणांग १०७६०
२१. प्राचार्य हरिभद्र-धर्मविन्दुप्रकरण १
२२. प्राचार्य हेमचन्द्र - योगशास्त्र ११४७-५६
२३. मार्गानुसारी के ३५ बोलों और श्रावक के २१ गुणों का नीतिपरक विवेचन अन्यत्र किया
गया है ।
२४. प्रवचनसारोद्वारद्वार २३९ गाथा १३५६-१३५८
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भगवान महावीर को नीति / ११
भगवान् महावीर ने यज्ञ, याग, श्राद्ध, आदि तथा पंचाग्नि तप को अनैतिक (पापमय) कहा और बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, इसमें पापकारी प्रवत्तियां नहीं होनी चाहिए। उन्होंने विचार और प्राचार के समन्वय की नीति स्थापित की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि शुभ विचारों के अनुसार ही आचरण भी शुभ होना चाहिए । तथा शुभ आचरण के अनुरूप विचार भी शुभ हों। यों उन्होंने नैतिकता के बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों पक्षों का समन्वय करके मानव के सम्पूर्ण (अन्तर्बाह्य) जीवन में नैतिकता की प्रतिष्ठा की। २. सामाजिक असमानता की समस्या
उस युग में जाति एवं वर्ण के आधार पर मानव-मानव में भेद था ही, एक को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझा जाता था, किन्तु इस ऊँच-नीच की भावना में धन भी एक प्रमुख घटक बन गया था। धनी और सत्ताधीशों को सम्मानित स्थान प्राप्त था, जबकि निर्धन सत्ताविहीन लोग निम्न कोटि के समझे जाते थे। शूद्रों-दासों की स्थिति तो बहुत ही दयनीय थी। वे पशु से भी गये बीते माने जाते थे। यह स्थिति सामाजिक दृष्टि से तो विषम थी ही, साथ ही इसमें नैतिकता को भी निम्नतम स्तर तक पहुंचा दिया गया था। भगवान् महावीर ने इस अनैतिकता को तोड़ा। उन्होंने अपने श्रमणसंघ में चारों वर्गों और सभी जाति के मानवों को स्थान दिया तथा उनके लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया।
चाण्डालकुलोत्पन्न साधक हरिकेशी २५ की यज्ञकर्ता ब्राह्मण रुद्रदेव पर उच्चता दिखाकर नैतिकता को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसी प्रकार चन्दनबाला २६ के प्रकरण में दास-प्रथा को नैतिक दृष्टि से मानवता के लिए अभिशाप सिद्ध किया। मगध सम्राट श्रेणिक का निर्धन पूणिया के घर जाना और सामायिक के फल की याचना करना, नैतिकता की प्रतिष्ठा के रूप में जाना जायेगा, यहाँ धन और सत्ता का कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व है नैतिकता का, पूणिया के नीतिपूर्ण जीवन का।
भगवान् महावीर ने जन्म से वर्णव्यवस्था के सिद्धान्त को नकार कर कर्म से वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और इस प्रतिपादन में नैतिकता को प्रमुख प्राधार बनाया।
उस युग में ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित यज्ञ के बाह्य स्वरूप को निर्धारित करने वाले लक्षण को भ्रमपूर्ण बताकर नया आध्यात्मिक लक्षण दिया, जिसमें नैतिकता का तत्त्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मानव की जकड़न से मुक्ति
उस युग का मानव दो प्रकार के निविड बन्धनों से जकड़ा हुआ था-(१) ईश्वरकर्तृत्ववाद और (२) सामाजिक धार्मिक तथा नैतिक रूढ़ियों से । इन दोनों बन्धनों से ग्रस्त
२५. उत्तराध्ययन सूत्र, १२ वाँ हरिकेशीय अध्ययन २६. महावीरचरियं, गुणचन्द्र २७. श्रेणिकचरित्र २८. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २५, गा. २७, २१ आदि । २९. उत्तराध्ययनसूत्र १२/४४
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | १२
भार
मानव छटपटा रहा था। इन बन्धनों के दुष्परिणामस्वरूप नैतिकता का ह्रास हो गया और अनैतिकता के प्रसार को खुलकर फैलने का अवसर मिल गया।
ईश्वरवाद तथा ईश्वरकतत्ववाद के सिद्धान्त का लाभ उठाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने अपनी विशिष्ट स्थिति बना ली। साथ ही ईश्वर को मानवीय भाग्य का नियंत्रक और नियामक माना जाने लगा। इससे मानव की स्वतन्त्रता का ह्रास हुआ, नैतिकता में भी गिरावट आई।
भगवान् ने मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताकर मानवता की प्रतिष्ठा तो की ही, साथ उसमें नैतिक साहस भी जगाया।
इसी प्रकार इस युग में स्नान (बाह्य अथवा जल स्नान) एक नैतिक कर्त्तव्य माना जाता था, इसे धार्मिकता का रूप भी प्रदान कर दिया गया था, जब कि बाह्य स्नान से शुद्धि मानना सिर्फ रूढ़िवादिता है।
भगवान् ने स्नान का नया प्राध्यात्मिक लक्षण30 देकर इस रूढ़िवादिता को तोड़ा।
ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना भी उस युग में गृहस्थ का नैतिक-धार्मिक कर्तव्य बना दिया गया था। इस विषय में भी भगवान् ने नई नैतिक दृष्टि देकर दान से संयम को श्रेष्ठ बताया। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान देने से संयम श्रेष्ठ है।" वस्तुतः भगवान महावीर दान के विरोधी नहीं हैं, अपितु उन्होंने तो मोक्ष के चार साधनों में दान, शील, तप और भाव में दान को प्रथम स्थान दिया, किन्तु उस युग में ब्राह्मणों को दान देना एक रूढ़ि बन गई थी, इस रूढ़िग्रस्तता को ही भगवान् ने तोड़कर मानव की स्वतन्त्रता तथा नैतिकता की स्थापना की थी।
भगवान के कथन का अनुमोदन धम्मपद३२ में भी मिलता है और गीता के शांकर भाष्य 33में भी। उपसंहार
इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि भगवान महावीर ने नीति के नये आधारभूत सिद्धान्त निर्धारित किये । संवर आदि ऐसे घटक हैं जिन पर अन्य विद्वानों की दृष्टि न जा सकी।
उन्होंने अनाग्रह, अनेकांत, यतना, अप्रमाद, समता, विनय प्रादि नीति के विशिष्ट तत्त्व मानव को दिये । सामूहिकता को संगठन का आधार बताया और श्रमण एवं श्रावक को उसके पालन का संदेश दिया । सामान्यतया, सभी अन्य धर्मों ने धर्म तत्त्व को जानने के लिए मानव को बुद्धि-प्रयोग की आज्ञा नहीं दी, यही कहा कि जो धर्म-प्रवर्तकों ने कहा है, हमारे शास्त्रों में लिखा है, उसी पर विश्वास कर लो। किन्तु भगवान् महावीर मानव को अंधविश्वासी नहीं बनाना चाहते थे, अतः 'पन्ना समिक्खए धम्म' कहकर मानव को धर्मतत्त्व में जिज्ञासा
३०. उत्तराध्ययनसूत्र १२०४६ ३१, उत्तराध्ययनसूत्र ९।४० ३२. धम्मपद १०६ ३३. देखिए, गीता ४/२६-२७ पर शांकर भाष्य
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भगवान् महावीर की नीति / १३
और बुद्धि-प्रयोग को अवकाश देकर उसके नैतिक धरातल को ऊंचा उठाया। म्रात्महित के साथ-साथ लोकहित का भी उपदेश दिया ।
तत्कालीन एकांगी विचारधाराओं का सम्यक् समन्वय किया, सामाजिक धार्मिक दृष्टि से रसातल में जाते हुए नैतिक मूल्यों की ठोस प्राधार पर प्रतिष्ठा की।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने नीति के ऐसे दिशानिर्देशक सूत्र दिये जिनका स्थायी प्रभाव हुआ और समस्त नैतिक चिन्तन पर उनका प्रभाव प्राज भी स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
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कर्म: स्टारूप-प्रस्तुति D मेवाड़भूषण पं. श्री प्रतापमलजी म. के शिष्य प्रवर्तक श्री रमेश मुनि म.
मैं (कर्म) प्रत्यक्ष देख रहा हूँ और अनुभव कर रहा हूँ, इस वर्तमान युग के सन्दर्भ में कि आज के शिक्षित-प्रशिक्षित, ग्रामीण तथा नगरनिवासी, धनी-निर्धनी सभी मिथ्या धारणामान्यताओं के शिकार होते चले जा रहे हैं, अत्यधिकरूपेण भ्रान्तियों में उलझ रहे हैं। विदिशा (उन्मार्ग) की ओर उनकी गति हो रही है।
. इसी कारण अपने बुनियादी यथार्थ सिद्धान्तों, वास्तविक मान्यताओं पर विशेष रूप से आज मैं प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा, जिससे सदियों से प्रचलित गलत धारणाओं से प्रत्येक प्राणी मुक्त हो सके । साथ ही सूर्य-प्रकाश की तरह मेरा यथार्थ स्वरूप जान सके, मेरा सिद्धान्त दुनिया के समक्ष स्पष्टरूप से आ सके। वैसे बहुत से प्रबुद्ध ज्ञानी मेरी प्रक्रिया को पहिचान गये हैं फिर भी अपने सिद्धान्त की परिपुष्टि करना मेरे लिए अत्यावश्यक हो गया है।
सम्पूर्ण सृष्टि अनंत प्रात्मानों से भरा-पूरा एक विशाल सागर है। अतीत काल में अनंत प्रात्माएँ थीं, वर्तमान काल में हैं । उसी प्रकार अनागत काल में अनंत अात्माएँ रहेंगी। उनके अलावा जीवराशि में न अधिक बढ़ने की और न घटने की गुंजाइश है । न नवीन आत्माओं की उत्पत्ति होगी और न विद्यमान आत्माओं का विनाश ही संभव है, चूंकि सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् की कभी उत्पत्ति नहीं ।
मेरा मतलब संसारी, सशरीरी-सरागी आत्माओं से है न कि अशरीरी-मुक्तात्माओं से । यह कोई दर्पोक्ति नहीं है, अपितु एक यथार्थ बात है। सभी संसारी जीवों पर मेरा पूर्ण प्रभाव है। मेरे प्रभाव से कोई भी संसारी आत्मा मुक्त नहीं है। भले वे प्रात्माएँ एकेन्द्रिय के सूक्ष्म कि वा स्थूल चोले में हो या द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के विशाल बदन में प्राबद्ध हों, भले वे नैरयिक हों, तिथंच गति के प्राणी पशु-पक्षी हों, मर्त्यलोक के मानवी हों और भले वे देवलोक के देवी-देवता देवेन्द्र हों। बिन्दु से सिन्धु तक अर्थात् चक्रवर्ती हो या सूक्ष्म जन्तु हो, सभी मेरे अधीन हैं। सभी पर मेरा आदेश लागू है। सभी मेरे बन्धन में आबद्ध हैं । धृष्टतावश जो भी मेरे आदेश की अवहेलना करते हैं उन्हें विपरीत दशा में भटकना पड़ता है। यह मेरा मिथ्या प्रलाप नहीं, एक तथ्य है। आप देख ही रहे हैं, आप पर भी तो मेरा आधिपत्य है। मैं (कर्म) जब चाहूँ तब आपको भटका सकता हूँ, भ्रमित कर सकता है। रुला सकता हूँ तो हँसा भी। निर्विकारी तथा निराकारी आत्माओं के अतिरिक्त मुझ से कोई भी संसारी आत्माएँ अलग नहीं रह सकती हैं। मेरे साथ सभी के रिश्ते-नाते अनादि काल से हैं ।
विद्वज्जगत् मुझे कर्म, भाग्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, परिश्रम, उद्यम, और क्रियाशीलता इत्यादि नाना नामों से पुकारता रहा है । कतिपय अनभिज्ञ नर-नारी मुझे प्रात्मा मानने की
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'कर्म : स्वरूपप्रस्तुति / १५
भूल भी करते रहे तथा कर रहे हैं। वे लोग मेरे सही स्वरूप को जानते नहीं और न जानने की जिज्ञासा ही करते हैं।
दरअसल मैं (कर्म) प्रात्मा नहीं हैं, आत्मा से भिन्न मेरा अस्तित्व, जीव की तरह अनादि काल से है । प्रात्म-स्वरूप को ढंकने वाला मैं अवरोधक तत्त्व हूँ। आत्मा अजर-अमर और चैतन्यशील है। मैं चैतन्यशन्य जडधर्मी हैं। पुदगलमय हूँ। मेरी सत्ता लोकाकाशव्यापी है । अलोक में मेरा अस्तित्व नहीं है । पर्यायों की अपेक्षा मेरी सत्ता एकान्त अनित्यता से जुड़ी हुई है। इस कारण मेरा स्वरूप सदा बदलता रहा, बनता रहा, बिगड़ता रहा है, नाना पर्यायों में नाना संस्थानों में और नाना शरीरों में । बनना बिगड़ना मेरा स्वभाव है । जडत्व मेरा लक्षण है। सत् है मुझ में किन्तु चित् और प्रानन्द का मुझ में अभाव है। सत् चित्त
और आनन्द गुण आत्मा में उपलब्ध होते हैं। मेरे भाग्य में चित् और आनन्द कहाँ है ? मैं जडधर्मी हूँ और निरंतर जडत्व में ही मेरा परिणमन होता रहा है।
जैन-बौद्ध-वैदिक प्रभृति संसार के सभी धर्मानुयायियों ने मेरे प्रति गहराईपूर्वक चिंतन किया है। तत्पश्चात् मेरी सत्ता को स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, उन धर्मप्रवर्तकों ने अपने-अपने धर्मग्रंथों में, पंथों व मतों में मुझे स्थान दिया है । सभी ने मुझे "कर्म" कहकर मेरा सम्मान किया है। उन दार्शनिकों को ऐसा कहते हुए भी सुना गया है कि-"शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल मिलते हैं। क्योंकि-प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं।' इसी कारण मानवों को अच्छे कर्म करना चाहिये और बुरे कर्मों से सदा बचना चाहिये ।
__ जैनदर्शन मेरे सम्बन्ध में अति सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण करता है। यथास्थान प्रस्तुत भी करता रहा है । मेरे एक-एक गूढातिगूढ भेदों उपभेदों को सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने अच्छी तरह से जाना है। इतना ही नहीं, मेरी जड़ें खोलली कर दीं। उन्हें पराजित करने के लिए मैंने चोटी से एड़ी तक पसीना बहाया पर अन्ततः मुझे ही हारना पड़ा। कुछ भी हो, मैं तो स्पष्ट कहने का आदी रहा हूँ। जितना जैनधर्म के प्रवर्तकों ने मेरे सम्बन्ध में लिखा है, प्ररूपित किया है एवं जन मानस को मेरे विषय में सम्यक् प्रकार से समझाने का सत्प्रयास किया है, मेरे वास्तविक स्वरूप को दुनिया के सामने रखा है उतना आज तक किसी ने नहीं किया।
अब आपका ध्यान उस ओर खींच रहा हूँ जिसके कारण मानवों के मस्तिष्कों में भ्रान्तियाँ प्रासन जमाए बैठी हैं। इसका निवारण करना भी मेरे लिए आवश्यक है। वैसे मैं पहले ही कह चका है कि मैं जडधर्मी हुँ। मेरे परमाण स्वयं चलकर जीवात्मा के साथ चिपक जाएँ ऐसी बात नहीं। सरागी-सजीव देहधारियों के संज्ञागत व मनोगत सूक्ष्म किं वा स्थल भावनामों की उभरती-उमड़ती ऊमियों को तरंगों में मेरे कर्माणुओं को अपनी ओर खींचने की चम्बकीय शक्ति रही हुई है। जिस प्रकार शाकाहारी प्राणी जल-पान करते समय जल-कणों को खींचते हैं। वे ग्रहण किये हए चतःस्पर्शी मेरे परमाण शुभाशुभ पर्याय के रूप में प्रात्मप्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं, जुड़ जाते हैं। इसी प्रकार प्रात्मा के साथ मेरा संयोग सम्बन्ध हो जाने के कारण अमुक काल पर्यन्त मेरा अस्तित्व सजीव जैसा बन जाता है ।
१. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति ।
दुच्चिणा कम्मा दुच्चिणफला भवंति ॥ -दशाश्रुत स्कंघ २. कम्मसच्चा ह पाणिणो । --उत्तरा०७/२.
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्य खण | १६ मेरी पाठ शाखाएँ प्रमुख हैं । मेरे कथन की पुष्टि भगवान् महावीर ने की है
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय. मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म । यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य तथ्य है कि-मेरी सभी शाखा, प्रशाखाएं बंध-उदय-उदीरणा और सत्ता के रूप में प्रवृत्तिशील हैं।
ज्ञानावरणीय कर्म-आत्मा के ज्ञान गुण को दबाने की जिसमें सत्ता रही है। इसके पांच विकल्प हैं।
दर्शनावरणीय कर्म-सामान्य दर्शन एवं देखने, सुनने, संघने की शक्ति के लिए प्रदरोधक स्वभाव जिसमें रहा हुआ है। इसके ९ भेद हैं।
- वेदनीयकर्म-जिन प्रकृतियों के निमित्त से देहधारियों को दुःख तथा सुख का अनुभव हुप्रा करता है । इसके--साता, असाता दो विकल्प हैं।
मोहनीय कर्म-यह मेरी प्रमुख शाखा है। यह कर्म देहधारियों को विवेक से भ्रष्ट करने वाला है। जिस प्रकार मदिरापान करने पर उन्हें हिताहित का भान नहीं होता है। उसी प्रकार मोहकर्म के वश होकर आत्मा स्वभाव को भूल जाता है । इसके मुख्य दो विकल्प रहे हैं और उत्तरभेद २८ माने जाते हैं।
आयुकर्म-शरीर में जीवात्मा को प्राबद्ध रखना ही इस प्रकृति का काम है। इसके मुख्य चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु व देवायु।।
नामकर्म-शुभ नाम से अथवा अशुभ नाम से जीवात्मा की पहिचान करवाने वाली प्रकृति, जिसके कारण जीवात्मा की कभी सु-ख्याति तो कभी कु-ख्याति होती है, प्रादि ।
गोत्रकर्म-यह कर्म देहधारियों को कभी ऊंच श्रेणी में तो कभी नीच श्रेणी में रखता है । इसके २ विकल्प हैं।
अन्तरायकर्म-यह भी मेरी प्रमुख शाखा का एक अंग है। दान-लाभ इत्यादि अच्छे कार्यों में विघ्न डालना ही इसे इष्ट है। इसके ५ भेद हैं, आदि ।
अब मैं (कर्म) आपको जरा गहराई में ले जा रहा हूँ। व्यवहारनय की दृष्टि से मेरे परमाणु प्रात्म-प्रदेशों के साथ एकाकार होकर रहते हैं। ज्ञान व ज्ञानी के प्रति जो आपके मन में शुभाशुभ अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, उस समुद्भूत अध्यवसाय में पुद्गलों को खींचने की एक विलक्षण प्रक्रिया रही हुई है। वे गृहीत परमाणु मेरे ज्ञानावरण बंध के रूप में परिणत हो जाते हैं उस कर्ता के साथ । दुर्भावनावश आपने किसी को अंधा-लूला-लंगड़ा-बहरा कह दिया। बस, दर्शनावरण बंध में प्राप बंध गये। किसी को साता या असाता देने की भावना हुई तो वे आकृष्ट पुद्गल सुख था दुःख वेदनीय कर्म रूप में, रागात्मक या द्वेषात्मक प्रवृत्ति में प्रेरित हुए आपको मोहनीय बंध, बिना मतलब आपने किसी प्राण भूत जीव सत्वों के प्राणों का हनन करने की ठानी तो नीच गति का प्रायु बंध सकता है। मेरे कर्माणु शुभाशुभ नाम कर्म में जब परिणत होंगे तभी किसी की सुख्याति सुनकर आप प्रमुदित होंगे या ईर्ष्यावश जलेंगे। जाति, कुल, परिवार, बल-रूप-वैभव पर गर्वित हो गये या नम्रीभूत बने हुए हैं तो नीच या उच्चगोत्र का बंध पड़ेगा । आप दूसरों के लिए बाधक बनने की भावना से प्रेरित हैं तो निश्चय ही वे आकर्षित पुद्गल अन्तराय कर्म के रूप में परिणत होंगे। इस प्रकार मेरी बंध प्रकृतियों का यह
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कर्म : स्वरूप प्रस्तुति | १७
निष्पक्ष विवरण है। और सुनिये वह बंध (प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और रस बंध) इस तरह चार पर्यायों में परिणत होता है। चारों बंधों का संक्षिप्त स्पष्टीकरण
प्रकृति-बंध-स्वभाव की भिन्नता, जैसे-एक-एक मेरी प्रकृति ज्ञान गुण को ढकने वाली है। कोई दर्शन गुण को तो कोई सुख-दुःख को....।
स्थिति-बंध-जिस आत्मा के साथ मेरी प्रकृतियों का सम्बन्ध जुड़ता है वह सम्बन्ध अमुक काल मर्यादानुसार रहता है, उस को स्थिति बन्ध कहकर विद्वानों ने पुकारा है।
अनुभाग-बंध-इसे रस-बंध भी कहते हैं। मेरी कर्म प्रकृतियों का विपाक (फल) जीवात्मा को कभी मंद रूप में तो कभी तीव्र रूप में प्रास्वादन करना ही पड़ता है।
प्रदेश-बंध-मेरे परमाणु-दलिकों के न्यूनाधिक रूप को प्रदेशबंध की संज्ञा दी गई है। जिनके मानस मिथ्या मान्यताओं के शिकार हैं वे मानते हैं कि
"ईश्वर-कृपा से जीवात्मा को सुख किं वा दुःख की प्राप्ति होती है। देहधारी कुछ भी कर नहीं सकता। जगत् में जो कुछ हो रहा है वह ईश्वर की प्रेरणा से ही हो रहा है। सभी का कर्ता-हर्ता-धर्ता ईश्वर है। ईश्वर की इच्छा के बिना संसार का पत्ता भी नहीं हिलता है। कोई जीव नरक में तो कोई स्वर्ग में गया, कोई चोर तो कोई साहकार बना, कोई राजा तो कोई रंक, कोई हीन तो कोई उच्च । यह सब उस अनन्त शक्तिमान ईश्वर की देन है। पामर प्राणी क्या कर सकता है ?"
ये सब कपोलकल्पित भ्रान्तियां हैं। ईश्वर न किसी को दुःख देते हैं और न किसी को सुख। थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि ईश्वर सुख दुःख का कर्ता है तो वह ईश्वर भी मेरे (कर्म के) ही आधीन रहा न ? स्वतन्त्र कहाँ ? अब जरा मेरे तर्क भी सुन लो
यदि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया तो उसने कहां बैठकर किया? जमीन या नभ में ? क्योंकि उनकी मान्यतानुसार पहले कुछ भी नहीं था। यह जगत् असंख्य योजन के विस्तार वाला है। इसमें अनन्तानन्त बेजान वस्तुएँ हैं । इसी प्रकार अनन्तानन्त जीवराशि भी विद्यमान हैं । यदि इन सबको ईश्वर ने बनाया है तो उसे कितना समय लगा होगा? कितने साधन जुटाने पड़े होंगे? पहले कुछ भी नहीं था तो वे साधन कहाँ से प्राप्त किये होंगे? प्रथम चरण में उसने आत्मा का निर्माण किया था या अनात्मा (जड पुद्गलों) का?
विषमता-विचित्रता भरे संसार को प्राप प्रत्यक्ष देख रहे हैं, कोई चीज आकार में छोटी है तो कोई बड़े आकार वाली। कोई मनोज्ञ तो कोई अमनोज्ञ, कोई इष्ट तो कोई अनिष्ट, कोई प्रिय तो कोई अप्रिय, कोई सुगन्धमय तो कोई दुर्गन्धमय, कोई शुभ तो कोई अशुभ, कोई कठोर तो कोई कोमल गुणवाली, कोई सुस्वादिष्ट तो कोई विषवत् । इसी प्रकार आकाशपाताल का अन्तर पैदा करने की उस ईश्वर को क्यों आवश्यकता पड़ी? इस दृश्य से समत्व-योग का अभाव लगता है ईश्वर में ।
प्रत्यक्षतः प्रतीत होता है कि-सष्टि में रहे हए सभी संसारी जीव-जन्तु एक समान स्थिति वाले नहीं है। कोई दु:खी है तो कोई सुखी, कोई श्रीपति बने फिरते हैं तो कोई रंकत्व भोगते हैं। कोई बीमारी से ग्रस्त है तो कोई बिल्कुल हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ हैं। कोई हीन कुल में जन्मा है तो कोई उच्च कुल में। कोई पंडित बना है तो कोई मूर्ख ही रह गया ।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | १८
कोई भिखारी बनकर फिरता है तो कोई दातार। कोई अच्छे काम करने के इच्छुक हैं तो कोई बुरे कार्यों के रसिक । कोई जन-जन के प्रादरणीय बने हुए हैं तो कोई जन-जन के कोप के भाजन बने हुए हैं। कोई सुबुद्धि सुगुणी हैं तो कोई दुर्बुद्धि-दुर्गुणी हैं। कोई धर्मात्मा तो कोई अधर्मात्मा है । कोई हिंसक है तो कोई अहिंसक है। कोई सदाचारी तो कोई दुराचारी । इस प्रकार सभी प्राणी रात-दिन अच्छे अथवा बुरे कर्म करने में लगे हुए हैं। कोई संसारी आत्माएँ काययोग से तो कोई वाकशक्ति से और कोई मनोयोग से कर्मोपार्जन कर रहे हैं। यह सब क्या ईश्वर प्रेरित हैं ? कृत कर्म कदापि निष्फल नहीं जाते हैं । फलस्वादन करवाकर ही छुटेंगे। तो शुभाशुभ विपाक का अधिकार उसी ईश्वर पर रहा न? क्योंकि-"ईश्वर के बिना इच्छा के एक पत्ता भी नहीं हिलता है।" यह मान्यता ईश्वरवादियों की है। मतलब यही कि-वह ईश्वर सृष्टि के समस्त देहधारियों के कर्म-विपाक का जिम्मेदार है।
इस तरह वह ईश्वर सारी दुनिया के कर्मों के गुरुतर भार से कितना भारी होगा? इससे तो ईश्वर कर्जदार हो गया, फिर वह कर्म-कर्ज से मुक्त कैसे होगा? क्योंकि संसारी प्राणी सतत कर्म करने में लगे हुए हैं । विपाक भी इसीलिए ईश्वर पर मंडरायेगा।
कुछ समझ में नहीं पाता, यह कैसा सिद्धान्त है कि कर्म करते जायें संसारी प्रात्माएँ और फल भोक्ता हो ईश्वर, चोरी करे मानव और दण्ड भोगे ईश्वर !
दरअसल ईश्वर कर्तव्य-सिद्धान्त प्रबुद्ध मनीषी के मानव धरातल पर खरा नहीं उतरता, यह सृष्टि अनादि काल से रही है और अनन्त काल तक रहेगी। इसे न किसी ने बनाया और न ही कोई इसके अस्तित्व को मिटा पायेगा। सभी प्राणी अपने अपने किये कर्मों का फल स्वयं भी भोगते हैं अर्थात देहधारी मन-वचन-काया में जैसा जैसा क्रियाकलाप करेगा उसे मैं (कर्म) वैसा वैसा फल देता रहूँगा। - भगवान् महावीर ने मेरे मत का यथातथ्य समर्थन किया है
कर्म से ही समग्र उपाधियाँ-विकृतियाँ पैदा होती है- सभी प्राणी अपने कृत कमों के फल-भोगने में स्वाधीन हैं। और नाना योनियों में कर्मों के कारण भ्रमण करते हैं।' जैसा किया हा कर्म वैसा ही उसका भोग मिलता है । आत्मा अकेला ही अपने किये हए दुःख भोगता है।४ अतीत में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है । और भी सुनिये
एक बीमार है, उसके सम्बन्ध में विविध विचारधारायें उठ खड़ी होती हैं । डॉक्टर कहेगा--तुम्हारे शरीर में वात-पित्त-कफ का जोर बढ़ गया है। नैमित्तिक-ज्योतिषी कहेगातुम्हारी नाम राशि पर क्रूर ग्रह का प्रकोप है, इसी कारण तुम्हें परेशानी उठानी पड़ रही है। ग्रहशांति करवाना आवश्यक है। मंत्रवेत्ता कहेगा-बीमारी कुछ नहीं है, अमुक प्रेतात्मा
१. कम्मुणा उवाही जायइ - प्राचा. सू. १।३।१ । २. सव्वे सयकम्मकप्पिया -सूत्र. सू. १।२।६।१८ । ३. जहा कडं कम्म तहासि भारे -सूत्र. सू. १।५।१।२६ । ४. एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं -सूत्र. सू. १।५।२।२२ । ५. जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, -सूत्र सु. ११५॥२।२३ । तमेव आगच्छति संपराए ।
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कर्म : स्वरूप प्रस्तुति / १९
तुम्हें सता रही है, उसके निवारणार्थ यह जप करिए। किसी प्रोष्ट्रीयोपैथी (हड्डियों के विशेषज्ञ) के पास जायेंगे तो वह कहेगा-इसकी हड्डियों का संतुलन बिगड़ गया है, इसी कारण दर्द रहता है। इसी प्रकार एक्यूपंक्चर-डॉक्टर कहेगा-शरीर में विद्युत् ऊर्जा की कमी है, एक्यूपंक्चर से ठीक रहेगा।
देखा न आपने ? बीमार एक और दृष्टियाँ कितनी विभिन्न ? विभिन्न कार्य-कारण भाव और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ । मुझे तो इस प्रकार विभिन्न कथनकारों पर हँसी पा रही है।
पायं पुत्रो ! सब कुछ मझ (कर्म) पर आधारित है। शुभाशुभ कर्मों के विपाकस्वरूप शारीरिक व मानसिक पीड़ाएं पैदा हुआ करती हैं। अन्तरंग तथा बहिरंग तनाव बढ़ते हैं । विषम परिस्थितियां तभी निर्मित होती है। चूंकि-शनि, राहु, केतु, मंगल, रवि इत्यादि नौ ग्रह वैद्य डॉक्टर, मान्त्रिक तथा भूत-प्रेतात्मा सभी मेरे (कर्म के) प्रभाव से प्रभावित हैं, सभी मेरे अधीन हैं । मैं सभी ग्रहों को चक्कर खिलाता रहता हूँ। मेरा यह सिद्धान्त पाज का नहीं, अनादि काल से है। बिना मतलब मैं किसी के पीछे फिरता नहीं है, हाँ जो शुभाशुभ कर्तव्य करने में संलग्न हैं उन्हीं के पीछे छाया की तरह लगा रहता हूँ। भले ये आत्माएं स्वर्ग किं वा नरक, महल-जेल, कानन-वन, पहाड़-भाड़ में छिपे रहें, मुझमें वह शक्ति विद्यमान है कि-में वहाँ उनका पीछा किये रहेंगा । अपने कर्जदार को पकड़कर दम लेने वाला दुनिया में केवल एक मैं ही हूँ। जहाँ सरकार नहीं वहाँ मेरी पहुंच है, मेरी सत्ता है। सभी नर-नरेन्द्र, सुरेन्द्र पशुजगत् मेरे प्राधीन हैं।
"न सगे-सम्बन्धी, न तात-मात-भ्रात और न पुत्र-पत्नी कर्मफल भोगने में शरीक होते हैं और न मैं किसी को होने देता हूँ।" जो करेगा वही भरेगा,, यह सिद्धान्त है मेरा । भ. महावीर स्वामी को धन्यवाद है। उन्होंने मेरे सिद्धान्त की पुष्टि की है।
इस जीवन में कृत सत्कर्म इस जीवन में सुखदायी होते हैं और अगले जन्म में भी। इसी प्रकार इस जीवन में कृत दुष्कर्म इस जीवन में दुःखदायी होते हैं और अगले जीवन में भी...13
मेरा कर्ज अदा किये बिना भले तीथंकर-चक्रवर्ती-वासुदेव-बलदेव या कोई और भी बड़ी हस्ती हो, मैं उन्हें मुक्त होने नहीं देता । "पुनरपि जननं पुनरपि मरणम् ।" की हेराफेरी में से उन्हें गुजरना ही पड़ता है। "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।" ऐसा उपदेश देकर भ. महावीर ने मेरे मत की पुष्टि की है ।
१. वैद्या वदंति कफ-पित्त-मरुद्विकारं, नैमित्तिका: ग्रहकृतं प्रवदंति दोषम् ।
भूतोपसर्गमथ मंत्रविदो वदंति, कर्मव शुद्धमतयो यतयो वदंति ॥ २. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइयो,
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एको सयं पच्चण होइ दुक्खं,
कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ।। -उत्तरा. ३. इहलोगे सुचिन्नाकम्मा: इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ।
इहलोगे दुचिन्नाकम्मा.... .
धम्मो दीयो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है।
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चतुर्ष खण्ड | २०
मेरे सम्बन्ध में वेदव्यास के उद्गार
जिस प्रकार बछड़ा हजारों गायों के बीच में भी अपनी मां को ढंढ लेता है, उसी प्रकार पहले के किये हुए कर्म भी कर्ता को ढूंढ लेते हैं।'
महात्मा गौतम-बुद्ध ने भी. कहीं कहीं मेरी पुष्टि की है
"हे भिक्षुनो ! इक्यानवे कल्प में मेरे द्वारा एक पुरुष की हत्या हुई थी, उसी कर्मविपाक के कारण मेरे पांवों में कांटे चुभे हैं ।
अब मैं अधिक विस्तार की ओर न जाकर सार के रूप में यही कहूँगा कि-कम से कम मानवों को अन्याय, अनीति, अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार, विश्वासघात, धोखाधड़ी, मार-काट एवं हिंसा-हत्या इत्यादि अशुभ कर्मों से बचना चाहिए।
सेवा, उपकार, नीति, न्याय-ईमानदारी, सत्यपरायणता, अहिंसा, तपाराधना, जपसाधना इत्यादि शुभ और शुद्ध करणी से अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है और पात्मा निर्मल भी।
"कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः।" जब सम्पूर्ण मेरा (कर्म का) रिश्ता प्रात्मा से अलग हो जाता है तब मेरे (कर्म के) प्राधीन रही हुई वह प्रात्मा निष्कलंक-निष्कर्मी होकर सिद्ध-बुद्ध की श्रेणी में पहुँच जाती है।
___आपके प्रति मेरी मंगलकामना है। आपका भविष्य शुभ कर्मों से समृद्धिशाली बने । आप धर्माराधना में दत्तचित्त हों ताकि आवागमन के चक्र से मुक्ति पा सके और मुझे भी विराम-पाराम मिल सके । सुज्ञेषु किं बहुना !
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१. यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विदति मातरम् ।
एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।। २. इत एकनवतेः कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः ।
तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः॥ -बौद्ध ग्रंथ.
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कर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त
युवाचार्य डॉ. शिवमुनि
ज्ञान एक महान् निधि है, जिसका हमें ज्ञान तो है किन्तु अनुभव नहीं है, इसके बीच में एक रुकावट है। जिसे जैन दर्शन में कर्म कहा गया है।
जितनी भी रुकावटें होती हैं, पावरण होते हैं, वे निर्जीव होते हैं, क्योंकि कर्म एक निर्जीव तत्त्व है। अनेक सन्तों, ऋषियों एवं महर्षियों ने इन्हीं आवरणों को दूर करने के लिये प्रयत्न किया है।
इन प्रावरणों से छुटकारा पाना ही सब का एकमात्र लक्ष्य है। कोई इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं, कोई लक्ष्य प्राप्त करने के समीप होते हैं। लेकिन ज्ञान को सही रूप में जब तक जाग्रत नहीं किया जायेगा, तब तक आवरणों से मुक्ति नहीं मिल सकती। कौन छूटेगा? किससे छुटेगा? इन प्रश्नों का समाधान प्रावश्यक है। इसीलिए भगवान महावीर ने "पढमं नाणं" का सूत्र दिया है। जिसका अर्थ है प्रथम ज्ञान ।
यह समझने की चेष्टा होनी चाहिए कि कर्म क्या है ? भगवान् महावीर इस समझने के प्रयत्नों को ज्ञान कहते हैं। अज्ञानी कौन है ? जिसमें यह समझ नहीं है।
आवरण के परमाणु जब तक आत्मा को पाच्छन्न किये रहते हैं, तब तक वह परवश रहती है। हमारे चारों ओर जो परमाणुओं का जाल है, वही कर्म-जाल है। इस प्रावरण के मूल कारणों को इस कर्म-जाल के वास्तविक कारण को समझ लेना ही कर्मों से मुक्त होने का प्रथम सूत्र है।
कर्म परमाणुओं की भी अपनी एक शक्ति होती है। जैसे-जैसे कर्म हम करते हैं, वे कर्मपरमाणु क्रिया के प्रारंभ से ही अपने स्वभाव के अनुसार चलने लगते हैं। अपने स्वभाव के अनुसार कार्य ही कर्म का फल है। कुछ लोग कर्मफल के विषय में ईश्वर को कर्ता मानते हैं, पर यह सिद्धान्त सही प्रतीत नहीं होता है। जब भगवान् स्वयं कर्मों से रहित है तो फिर वह किसी के कर्मफल के झमेले में क्यों पड़ेगा? गीता में इस विषय पर बड़ा ही सुन्दर विवेचन मिलता है।
"न कर्तुत्वं न कर्माणि लेकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥" (गीता) हे अर्जुन ! न मैं कर्म करता हूँ, न ही संसार को बनाता हूँ। जीवों को उनके कर्म का फल भी नहीं देता हूँ । इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह स्वभाव से ही हो रहा है, इससे स्पष्ट होता है कि भगवान् न तो संसार का निर्माण करते हैं और न कर्मों का फल ही देते हैं। कर्म एक प्रकार की शक्ति है और प्रात्मा भी अपने प्रकार की एक शक्ति है । कर्म
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चतुर्थ खण्ड | २२
मात्मा करता है। जो कर्म आत्मा ने किये हैं वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार उसे फल देते हैं। इसमें किसी भी न्यायाधीश की जरूरत नहीं है।
.. हमारे आत्मप्रदेशों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच निमित्तों से हलचल होती है। जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश है, उसी क्षेत्र में कर्म रूप पुद्गल जीव के साथ . बंध जाते हैं। कर्म का यह मेल दूध और पानी जैसा होता है । कर्म-ग्रन्थ में कर्म का लक्षण बताते हुए कहा गया है
"कीरह जिएण हेउहिं जोणतो भण्णए कम्म" प्रर्थात कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही कम है।
कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक भाव-कर्म और दूसरा द्रव्य-कर्म । प्रात्मा में राग देष आदि जो विभाव हैं वे विभाव भावकर्म हैं। कर्मवर्गणा के पुद्गलों के सूक्ष्म विकार द्रव्यकर्म कहलाते हैं। भावकर्म का कर्ता उपादान रूप से जीव है, भावकर्म में द्रव्यकर्म निमित्त होता है। और द्रव्यकर्म में भाव कर्म निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य कम और भाव कर्म दोनों का परस्पर बीज और अंकुर की भांति कार्य-कारण-भाव सम्बन्ध है।
संसार में जितने भी जीव हैं प्रात्मस्वरूप की दृष्टि से वे सब एक समान हैं। फिर भी वे भिन्न-भिन्न अनेक योनियों में, अनेक स्थितियों में, शरीर धारण किये हुए हैं। एक अमीर है, दूसरा गरीब है । एक पंडित है तो दूसरा अनपढ़ है। एक सबल है तो दूसरा निर्बल है। एक ही मां के उदर से जन्म लिये युगल बालकों में अन्तर देखा जाता है। कर्म ही इस विचित्रता के मूल में कारण है। जिस प्रकार सुख-दुःख का अनुभव होता है उस प्रकार का अनुभव कर्म के सम्बन्ध में दृष्टिगोचर नहीं होता।
__ जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल रूप माना गया है। इसलिए वह साकार है, मूर्त है। कर्म के कार्य भी मूर्त हैं। कारण यदि मूर्त होता है तो कार्य मूर्त ही होगा यह सिद्धान्त है। उदाहरण के लिए कारण रूप मिट्टी मूर्त है तो कार्य रूप घड़ा भी मूर्त ही होता है। यदि कारण अमूर्त है, तो कार्य भी अमूर्त ही होगा। ज्ञान का कारण प्रात्मा है, यहाँ ज्ञान और आत्मा दोनों ही अमूर्त हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि मूर्त्त कर्मों से दुःख सुख प्रादि प्रमूर्त तत्त्वों की उत्पति किस प्रकार संभव है ?
सुख दुःख आदि हमारी प्रात्मा के धर्म हैं और प्रात्मा ही उनका उपादान कारण है। कर्म तो केवल सुख दुःख में निमित हैं। अत: जो कुछ उपर्युक्त कर्म के विषय में कहा गया है, वह इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है।
यह प्रश्न भी विचारणीय है कि कम तो मूर्त हैं और प्रात्मा अमूर्त है, फिर दोनों का मेल किस प्रकार संभव है, अमूर्त प्रात्मा पर कर्म किस प्रकार प्रभावी हो सकता है ? जिस प्रकार प्रत्यक्ष दिखने वाली मूर्त्त मदिरा का पान करने पर आत्मा के अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर स्पष्टत: प्रभाव पड़ता है, ठीक उसी प्रकार मूर्त कर्मों का अमूर्त प्रात्मा पर प्रभाव पड़ता है।
चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन कर्म सिद्धान्त के समर्थक हैं। जीव अनादिकाल से कर्मों के वशीभूत होकर अनेक भव-भ्रमण करता चला आ रहा है। जीवन और मरण दोनों की जड कर्म हैं। इस संसार में सबसे बड़ा दुःख जन्म और मृत्यु ही है । जो जैसा
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कर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त | २३
कम करता है उसका वैसा ही फल मिलता है। कर्म स्वसम्बद्ध होता है, पर सम्बद्ध नहीं अर्थात् एक प्राणी पर दूसरे के कर्म फल का प्रभाव नहीं होता।
अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन में कर्म का विशेष रूप से विवेचन प्राप्त होता है। यही कारण है कि कर्मवाद जैन दर्शन का एक विशिष्ट अंग बन गया है।
यहां जैन दर्शन में प्राप्त कर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त निम्नांकित रूप से उद्धृत किये जाते हैं
१. प्रत्येक क्रिया फलवती होती है। कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती है। २. कर्म का फल प्राज नहीं मिलता तो भविष्य में निश्चित ही मिलता है।
३. जीव ही कर्म का कर्ता एवं कर्म का भोक्ता है। कर्म के फल को भोगने के लिए ही जीव एक भव से दूसरे भव में गमन करता है। कर्मबन्धन की इस परम्परा को तोडना भी जीव की शक्ति के अन्तर्गत है।।
४, व्यक्ति-व्यक्ति में भेद का कारण कर्म ही है।
आत्मा की अनन्त शक्ति पर कर्मों का प्रावरण छाया हुआ है जिसके कारण हम अपने प्रापसे परिचित नहीं हो पा रहे हैं। इन कर्मों से हम तब ही मुक्त हो पायेंगे जब हमें अपनी शक्ति का पूरा परिचय और भरोसा हो जायेगा।
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जैन अनुमान की उपलब्धियाँ
डॉ. दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी
प्राग् वृत्त
अध्ययन से अवगत होता है कि उपनिषद्काल में अनुमान को श्रावश्यकता एवं प्रयोजन पर बल दिया जाने लगा था । उपनिषदों में 'आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः " आदि वाक्यों द्वारा श्रात्मा के श्रवण के साथ मनन पर भी बल दिया गया है, जो उपपत्तियों (युक्तियों) के द्वारा किया जाता था । इससे स्पष्ट है कि उस काल में अनुमान को भी श्रुति की तरह ज्ञान का साधन माना जाता था— उसके विना दर्शन प्रपूर्ण रहता था । यह सच है कि अनुमान का 'अनुमान' शब्द से व्यवहार होने की अपेक्षा 'वाकोवाक्यम्,' 'आन्वीक्षिकी,' 'तर्कविद्या,' 'हेतुविद्या' जैसे शब्दों द्वारा अधिक होता था ।
प्राचीन जैन वाङमय में ज्ञानमीमांसा (ज्ञानमार्गणा) के अन्तर्गत अनुमान का ' हेतुवाद' शब्द से निर्देश किया गया है और उसे श्रुत का एक पर्याय ( नामान्तर) बतलाया गया है । तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उसका 'अभिनिबोध' नाम से उल्लेख किया है। तात्पर्य यह कि जैन दर्शन में भी अनुमान अभिमत है तथा प्रत्यक्ष ( सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ज्ञानों) की तरह उसे भी प्रमाण एवं अर्थनिश्चायक माना गया है । ग्रन्तर केवल उनमें वैशद्य और प्रवेशद्य का है । प्रत्यक्ष विशद है और अनुमान अविशद ( परोक्ष ) ।
वैशेषिकों द्वारा अनुमान- विमर्श
अनुमान के लिये किन घटकों की श्रावश्यकता है, इसका प्रारम्भिक प्रतिपादन कणाद ने किया प्रतीत होता है । उन्होंने अनुमान का 'अनुमान' शब्द से निर्देश न कर 'लैंगिक' शब्द से किया है, जिससे ज्ञात होता है कि अनुमान का मुख्य घटक 'लिंग' है । सम्भवत: इसी कारण उन्होंने मात्र लिंगों, लिंगरूपों और लिंगाभासों का निरूपण किया है। उसके और भी कोई घटक हैं, इसका कणाद ने कोई उल्लेख नहीं किया । उनके भाष्यकार प्रशस्तपाद ने अवश्य प्रतिज्ञादि पांच अवयवों को उसका घटक प्रतिपादित किया है।
नैयायिकों द्वारा चिन्तन
तर्कशास्त्र का निबद्ध रूप में स्पष्ट विकास अक्षपाद के न्यायसूत्र में उपलब्ध होता है । अक्षपाद ने अनुमान को 'अनुमान' शब्द से ही उल्लिखित किया तथा उसकी कारणसामग्री, भेदों, अवयवों और हेत्वाभासों का स्पष्ट विवेचन किया है। साथ ही अनुमान परीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमान - सहायक तत्त्वों का प्रतिपादन करके अनुमान को शास्त्रार्थोपयोगी और एक स्तर तक पहुँचा दिया है। वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन और गणेश ने उसे विशेष परिष्कृत किया तथा व्याप्ति, पक्षधर्मता, परामर्श जैसे तदुपयोगी अभिनव तत्त्वों को विविक्त करके उनका विस्तृत एवं सूक्ष्म निरूपण किया है।
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जैन अनुमान की उपलब्धियां | २५ वस्ततः प्रक्षपाद और उनके अनुवर्ती ताकिकों ने अनुमान को इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन 'न्याय (तर्क-अनुमान) दर्शन' के नाम से ही विश्रुत हो गया। बौद्ध ताकिकों द्वारा चिन्तन
असंग, वसुबन्धु दिङ नाग, धर्मकीति प्रभृति बौद्ध ताकिकों ने न्यायदर्शन की समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयी मान्यताओं के आधार पर अनुमान का सूक्ष्म और प्रचर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तन का अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र भारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुअा और अनुमान की विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़ने के साथ सूक्ष्म-से-सूक्ष्म एवं जटिल होती गयी। वास्तव में बौद्ध ताकिकों के चिन्तन ने तर्क में आयी कुण्ठा को हटा कर और सभी प्रकार के परिवेशों को दूर कर उन्मुक्त भाव से तत्त्व-चिन्तन की क्षमता प्रदान की। फलतः सभी दर्शनों में स्वीकृत अनुमान पर अधिक विचार हुआ और उसे महत्त्व मिला। सांख्य और मीमांसक मनीषियों द्वारा चिन्तन
ईश्वरकृष्ण, युक्तिदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु आदि सांख्य-विद्वानों तथा प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि प्रभति मीमांसक चिन्तकों ने भी अपने-अपने ढंग से अनुमान का चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन चिन्तकों का चिन्तन-विषय प्रकृति-पुरुष और क्रियाकाण्ड होते हुए भी वे अनुमान-चिन्तन से अछूते नहीं रहे। श्रुति के अलावा अनुमान को भी इन्हें स्वीकार करना पड़ा और उसका कम-बढ़ विवेचन किया है। जैन तार्किकों द्वारा विमर्श
जैन विचारक तो प्रारम्भ से ही अनुमान को मानते आये हैं। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या 'अभिनिबोध' संज्ञा से उन्होंने उसका व्यवहार किया हो । तत्त्वज्ञान, स्वतत्त्वसिद्धि, परपक्षदूषणोद्भावन के लिए उसे स्वीकार करके उन्होंने उसका पर्याप्त विवेचन किया है। उनके चिन्तन में जो विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जाता है:
उपलब्धियां अनुमान का स्वरूप
न्यायसूत्रकार प्रक्षपाद की 'तत्पूर्वकमनुमानम्,' प्रशस्तपाद की 'लिंगदर्शनात्संजायमानं लैंगिकम' और उद्योतकर की 'लिंगपरामर्शोऽनूपानम' परिभाषामों में केवल कारण का निर्देश है, अनुमान के स्वरूप का नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' में भी लिंगरूप कारण का उल्लेख है, स्वरूप का नहीं। दिङ नागशिष्य शंकरस्वामी की 'अनुमानं लिंगादर्थदर्शनम्' परिभाषा में यद्यपि कारण और स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है, पर उसमें कारण के रूप में लिंग को सूचित किया है, लिंग के ज्ञान को नहीं। तथ्य यह है कि अज्ञायमान धूमादि लिंग अग्नि आदि के अनुमापक नहीं हैं। अन्यथा जो पुरुष सोया हुआ है, मूच्छित है, अगृहीत-व्याप्तिक है, उसे भी पर्वत में धूम के सद्भाव मात्र से अग्नि का अनुमान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। अत: शंकरस्वामी के उक्त अनुमानलक्षण में
| धम्मो दीयो 'लिंगात्' के स्थान पर 'लिंगदर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो सकता है।
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चतुर्थ खण्ड/२६
जैन तार्किक अकलंकदेव ने जो अनुमान का स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उक्त न्यूनताओं से मुक्त है । उनका लक्षण है
लिंगात्साध्याविनाभावामिनिबोधकलक्षणात् ।
लिंगिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥ इसमें अनुमान के साक्षात्कारण-लिंगज्ञान का भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी 'लिंगिधीः' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट है। प्रकलंक ने स्वरूप-निर्देश में केवल 'धीः' या 'प्रतिपत्ति' नहीं कहा, किन्तु 'लिगिधी:' कहा है, जिसका अर्थ है साध्य का ज्ञान, और साध्य का ज्ञान होना ही अनुमान है। न्यायप्रवेशकार शंकरस्वामी ने साध्य का स्थानापन्न 'अर्थ' का अवश्य निर्देश किया है । पर उन्होंने कारण का निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अकलंक के इस लक्षण की एक विशेषता और भी है। वह यह कि उन्होंने 'तत्फलं हानादिबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान का फल भी निर्दिष्ट किया है। सम्भवतः इन्हीं सब बातों से उत्तरवर्ती सभी जैन ताकिकों ने प्रकलंकदेव की इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमान परिभाषा को ही अपनाया। इस अनुमानलक्षण से स्पष्ट है कि वही साधन अथवा लिंग लिंगी (साध्यअनुपेय) का गमक हो सकता है जिसके अविनाभाव का निश्चय है। यदि उसमें अविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पांच रूप विद्यमान हों। जैसे 'वज्र लोहलेख्य है, क्योंकि पार्थिव है, काष्ठ की तरह' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पांच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अविनाभाव के प्रभाव से सद्धेतु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसी से वे अपने साध्यों के अनुमापक नहीं माने जाते । इसी प्रकार 'एक मुहूर्त बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है,' 'समुद्र में वृद्धि होनी चाहिए अथवा कुमुदों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चन्द्र का उदय है' आदि हेतुओं में पक्ष-धर्मत्व न होने से न त्रिरूपता है और न पंचरूपता। फिर भी अविनाभाव के होने से कृत्तिका का उदय शकटोदय का और चन्द्र का उदय समुद्रवद्धि एवं कुमुद विकास का गमक है। अनुमान का परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भाव
___ अनुमान-प्रमाणवादी सभी भारतीय ताकिकों ने अनुमान को स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किया है। पर जैन ताकिकों ने उसे स्वतन्त्र प्रमाण नही माना। प्रमाण के उन्होंने मूलत: दो भेद माने हैं—(१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष ।
अनुमान परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भूत है, क्योंकि वह प्रविशद ज्ञान है और उसके द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थ की प्रतिपत्ति होती है । परोक्ष-प्रमाण का क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थ के परिच्छेदक अविशद ज्ञानों का इसी में समावेश है तथा वैशद्य और अवैशद्य के आधार पर स्वीकृत प्रत्यक्ष और परोक्ष के अतिरिक्त अन्य प्रमाण मान्य नहीं हैं। अर्थापत्ति अनुमान से पृथक नहीं
प्रभाकर और भाट्ट मीमांसक अनुमान से पृथक् अर्थापत्ति नाम का स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि जहां अमुक अर्थ अमुक अर्थ के बिना न होता हुआ उसका परिकल्पक होता है वहां अापत्ति प्रमाण माना जाता है। जैसे-'पीनोऽयं देवदत्तो दिवा
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जैन अनुमान की उपलब्धियां / २७
न भुंक्ते" इस वाक्य में उक्त 'पीनत्व' अर्थ 'भोजन' के बिना न होता हुया 'रात्रि भोजन' की कल्पना कराता है, क्योंकि दिवाभोजन का निषेध वाक्य में स्वयं घोषित है । इस प्रकार के प्रथ का बोध अनुमान से न होकर अर्थापत्ति से होता है । किन्तु जैन विचारक उसे अनुमान से भिन्न स्वीकार नहीं कराते । उनका कहना है कि अनुमान अन्यथानुपपन्न ( अविनाभावी) हेतु से उत्पन्न होता है और प्रर्थापत्ति अन्यथानुपद्यमान अर्थ से । अन्यथानुपपन्न हेतु और अन्यथानुपपद्यमान अर्थ दोनों एक हैं— उनमें कोई अन्तर नहीं है । प्रर्थात् दोनों ही व्याप्तिविशिष्ट होने से अभिन्न हैं । डॉ. देवराज भी यही बात प्रकट करते हुए कहते हैं कि “एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तु का प्रक्षेप तभी हो सकता है जब दोनों में व्याप्यव्यापकभाव या व्याप्तिसम्बन्ध हो । 3 देवदत्त मोटा है और दिन में खाता नहीं है। यहां अर्थापत्ति द्वारा रात्रिभोजन की कल्पना की जाती है, पर वास्तव में मोटापन भोजन का अविनाभावी होने तथा दिन में भोजन का निषेध होने से वह देवदत्त के रात्रि भोजन का अनुमापक है । वह अनुमान इस प्रकार है - 'देवदत्तः रात्रौ भुंक्ते, दिवाऽभोजित्वे सति पीनत्वान्यथानुपपत्तेः' यहां अन्यथानुपपत्ति से अन्तर्व्याप्ति विवक्षित है, बहिर्व्याप्ति या सकलव्याप्ति नहीं, क्योंकि ये दोनों व्याप्तियां श्रव्यभिचरित नहीं हैं । श्रतः श्रर्थापत्ति और अनुमान दोनों व्याप्तिपूर्वक होने से एक ही हैं - पृथक् पृथक् प्रमाण नहीं ।
हेतु का एक लक्षण (अन्यथानुपपन्नत्व) स्वरूप
हेतु के स्वरूप का प्रतिपादन अक्षपाद से प्रारम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धान से प्रतीत होता है । उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैधर्म्य दोनों दृष्टान्तों पर आधारित है । अतएव नैयायिक चिन्तकों ने उसे द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण श्रौर पंचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएं की हैं। वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य श्रादि विचारकों ने उसे मात्र त्रिलक्षण बतलाया है । कुछ तार्किकों ने षड्लक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, जैसा कि हमने अन्यत्र विचार किया है। पर जैन लेखकों ने अविनाभाव को ही हेतु का प्रधान और एक लक्षण स्वीकार किया है, तथा त्र-रूप्य पांचरूप्य आदि को श्रव्याप्त और प्रतिव्याप्त बतलाया है, जैसा कि ऊपर अनुमान के स्वरूप में प्रदर्शित उदाहरणों से स्पष्ट है। इस प्रविनाभाव को ही श्रन्यथानुपपन्नत्व अथवा अन्यथानुपपत्ति या अन्तर्व्याप्ति कहा है । स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व जैन लेखकों की ही उपलब्धि है जिसके उद्भावक श्राचार्य समन्तभद्र यह हमने विस्तार के साथ अन्यत्र विवेचन किया है ।
अनुमान का अंग : एकमात्र व्याप्ति
न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध सभी ने पक्षधर्मता और व्याप्ति को अनुमान का अंग माना है । परन्तु जैन तार्किकों ने केवल व्याप्ति को उसका अंग बतलाया है । उनका मत कि अनुमान में पक्षधर्मता अनावश्यक है । 'उपरि वृष्टिरभूत् प्रधोपूरान्यथानुपपत्तेः ' आदि अनुमानों में हेतु पक्षधर्म नहीं है, फिर भी व्याप्ति के बल से वह गमक है । "स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत्" इत्यादि प्रसद् अनुमानों में हेतु पक्षधर्म हैं किन्तु अविनाभाव न होने से वे अनुमापक नहीं हैं । श्रतः जैन चिन्तक अनुमान का अंग एकमात्र व्याप्ति ( अविनाभाव ) को ही स्वीकार करते हैं, पक्षधर्मता को नहीं ।
धम्मो दीयो
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अर्चमार्चन
चतुर्थ खण| २८ पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओं की परिकल्पना
अकलंकदेव ने कुछ ऐसे हेतुओं की परिकल्पना की है जो उनसे पूर्व नहीं माने गये थे। उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये तीन हेतु हैं। इन्हें किसी अन्य तार्किक ने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं। किन्तु अकलंक ने इनकी आवश्यकता एवं अतिरिक्तता का स्पष्ट निर्देश करते हुए स्वरूप-प्रतिपादन किया है। अत: यह उनकी देन कही जा सकती है। प्रतिपाद्यों की अपेक्षा अनुमान-प्रयोग
अनुमान प्रयोग के सम्बन्ध में जहाँ अन्य भारतीय दर्शनों में व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की विवक्षा किये बिना अवयवों का सामान्य कथन मिलता है वहां जैन विचारकों ने उक्त दोनों प्रतिपाद्यों की अपेक्षा उनका विशेष प्रतिपादन किया है। व्युत्पन्नों के लिए उन्होंने पक्ष और हेतु ये दो अवयव अावश्यक बतलाये हैं, उन्हें दृष्टान्त आवश्यक नहीं है। “सर्व क्षणिकं सत्वात्" जैसे स्थलों में बौद्धों ने, “सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वात्" जैसे केवलान्वयिहेतुक अनुमानों में नैयायिकों ने भी दृष्टान्त को स्वीकार नहीं किया । अव्युत्पन्नों के लिए उक्त दोनों अवयवों के साथ दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवों की भी जैन चिन्तकों ने यथायोग्य आवश्यकता प्रतिपादित की है। इसे और स्पष्ट यों समझिए--
गद्धपिच्छ, समन्तमद्र, पूज्यपाद और सिद्धसेन के प्रतिपादनों से अवगत होता है कि प्रारम्भ में प्रतिपाद्य-सामान्य की अपेक्षा से पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवों से अभिप्रेतार्थ (साध्य) की सिद्धि की जाती थी। पर उत्तरकाल में अकलंक का संकेत पाकर कुमारनन्दि और विद्यानन्द ने प्रतिपाद्यों को व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दो वर्गों में विभक्त करके उनकी अपेक्षा से पृथक्-पृथक् अवयवों वा कथन किया। उनके बाद माणिक्यनन्दि, देवसूरि आदि परवर्ती जैन-तर्क-ग्रन्थकारों ने उनका समर्थन किया और स्पष्टतया व्युत्पन्नों के लिए पक्ष और हेतु ये दो तथा अव्युत्पन्नों के बोधार्थ उक्त दो के अतिरिक्त दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये तीन सब मिलाकर पाँच अवयव निरूपित किये। भद्रबाहु ने प्रतिज्ञाशुद्धि आदि दश अवयवों का भी उपदेश दिया, जिसका अनुसरण देवसूरि, हेमचन्द्र और यशोविजय ने किया। व्याप्ति का ग्राहक एकमात्र तर्क
अन्य भारतीय दर्शनों में भूयोदर्शन, सहचारदर्शन और व्यभिचाराग्रह को व्याप्तिग्राहक माना गया है । न्यायदर्शन में वाचस्पति और सांख्यदर्शन में विज्ञानभिक्षु इन दो ताकिकों ने व्याप्तिग्रह की उपर्युक्त सामग्री में तर्क को भी सम्मिलित कर लिया। उनके बाद उदयन, गंगेश, वर्द्धमान प्रभृति ताकिकों ने भी उसे व्याप्तिग्राहक मान लिया। पर, स्मरण रहे, जैन परम्परा में आरम्भ से तर्क को, जिसे चिन्ता, ऊहा आदि शब्दों से व्यवहृत किया गया है, अनुमान की एकमात्र सामग्री के रूप में प्रतिपादित किया है । अकलंक ऐसे जैन तार्किक हैं, जिन्होंने वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु से पूर्व सर्वप्रथम तर्क को व्याप्तिग्राहक समर्थित एवं सम्पुष्ट किया तथा सबलता से उसका प्रामाण्य स्थापित किया। उनके पश्चात् सभी ने उसे व्याप्तिग्राहक स्वीकार कर लिया। तथोपपत्ति और अन्यथानुपत्ति
यद्यपि बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति और अन्तर्व्याप्ति के भेद से व्याप्ति के तीन भेदों, समव्याप्ति और विषमव्याप्ति के भेद से उसके दो प्रकारों तथा अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति
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इन भेदों का वर्णन तर्कग्रन्थों में उपलब्ध होता है, किन्तु तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति इन दो व्याप्ति प्रकारों (व्याप्ति प्रयोगों) का कथन केवल जैन तर्कग्रन्थों में पाया जाता है । इन पर ध्यान देने पर जो विशेषता ज्ञात होती है वह यह है कि अनुमान एक ज्ञान है, उसका उपादान कारण ज्ञान ही होना चाहिए । तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति ये दोनों ज्ञानात्मक हैं जबकि उपर्युक्त व्याप्तियां ज्ञेयात्मक हैं। दूसरी बात यह है कि उक्त व्याप्तियों में मात्र अन्तर्व्याप्ति ही एक ऐसी व्याप्ति है, जो हेतु की गमकता में प्रयोजक है, अन्य व्याप्तियां अन्तर्व्याप्ति के बिना अव्याप्त और अतिव्याप्त हैं। अतएव वे साधक नहीं हैं तथा यह अन्तर्व्याप्ति ही तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति है अथवा उनका विषय है । इन दोनों में से किसी एक का ही प्रयोग पर्याप्त है। इनका विशेष विवेचन अन्यत्र दृष्टव्य है।
साध्याभास
अकलंक ने अनुमानाभासों के विवेचन में पक्षाभास या प्रतिज्ञाभास के स्थान में साध्याभास शब्द का प्रयोग किया है। अकलंक के इस परिवर्तन के कारण पर सूक्ष्म ध्यान देने पर अवगत होता है कि चूंकि साधन का विषय (गम्य) साध्य होता है और साधन का अविनाभाव (व्याप्ति सम्बन्ध) साध्य के ही साथ होता है, पक्ष या प्रतिज्ञा के साथ नहीं, अतः साधनाभास (हेत्वाभास) का विषय साध्याभास होने से उसे ही साधनाभासों की तरह स्वीकार कर विवेचित करना युक्त है। विद्यानन्द ने अकलंक की इस सूक्ष्म दृष्टि को परखा और उनका सयुक्तिक समर्थन किया। यथार्थ में अनुयान के मुख्य प्रयोजक तत्व साधन और साध्य होने से तथा साधन का सीधा सम्बन्ध साध्य के साथ ही होने से साधनाभास की भांति साध्याभास ही विवेचनीय है। प्रकलंक ने शक्य, अभिप्रेत और प्रसिद्ध को साध्य तथा अशक्य, अनभिप्रेत और सिद्ध को साध्याभास प्रतिपादित किया है (साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ।) अकिंचितकर हेत्वाभास
हेत्वाभासों के विवेचन-सन्दर्भ में सिद्धसेन ने कणाद और न्यायप्रवेशकार की तरह तीन हेत्वाभासों का कथन किया है, अक्षपाद की भांति उन्होंने पांच हेत्वाभास स्वीकार नहीं किये। प्रश्न हो सकता है कि जैन तार्किक हेतु का एक (अविनाभाव-अन्यथानुपपन्नत्व) रूप मानते हैं, अतः उसके अभाव में उनका हेत्वाभास एक हो होना चाहिए । वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य हेतु को त्रिरूप तथा नैयायिक पंचरूप स्वीकार करते हैं, अतः उनके अभाव में उनके अनुसार तीन और पांच हेत्वाभास तो युक्त हैं। पर सिद्धसेन का हेत्वाभास-त्रैविध्य प्रतिपादन कैसे युक्तियुक्त है ? इसका समाधान सिद्धसेन स्वयं करते हुए कहते हैं कि चूंकि अन्यथानुपपन्नत्व का अभाव तीन तरह से होता है-कहीं उसकी प्रतीति न होने, कहीं उसमें सन्देह होने और कहीं उसका विपर्यास होने से, प्रतीत न होने पर प्रसिद्ध, सन्देह होने पर अनैकान्तिक और विपर्यास होने पर विरुद्ध ये तीन हेत्वाभास होते हैं।
अकलंक कहते हैं कि यथार्थ में हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर, जो अन्यथानुपपन्नत्व के अभाव में होता है। वास्तव में अनुमान का उत्थापक अविनाभावी हेतु ही है, अत: अविनाभाव (अन्यथानुपपन्नत्व) के अभाव में हेत्वाभास की सृष्टि होती है। यतः हेतु एक अन्यथानुपपन्नरूप ही है अत: उसके प्रभाव में मूलतः एक ही हेत्वाभास मान्य है
सम्मो दीयो संसार समुद्र में वर्म ही दीय है।
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चतुर्थ खण्ड/३०
और वह है अन्यथा-उपपन्नत्व अर्थात् अकिंचित्कर। प्रसिद्धादि उसी का विस्तार हैं । इस प्रकार अकलंक के द्वारा 'अकिंचित्कार' नाम के नये हेत्वाभास की परिकल्पना उनकी अन्यतम उपलब्धि है।
बालप्रयोगाभास
माणिक्यनन्दि ने आभासों का विचार करते हुए अनुमानाभास सन्दर्भ में एक 'बालप्रयोगाभास' नाम के नये अनुमानाभास की चर्चा प्रस्तुत की है। इस प्रयोगाभास का तात्पर्य यह है कि जिस मन्दप्रज्ञ को समझाने के लिए तीन अवयवों की आवश्यकता है उसके लिए दो ही अवयवों का प्रयोग करना, जिसे चार की आवश्यकता है उसे तीन और जिसे पांच की जरूरत है उसे चार का ही प्रयोग करना अथवा विपरीतक्रम से अवयवों का कथन करना बालप्रयोगाभास है और इस तरह वे चार (द्वि-अवयव प्रयोगाभास, त्रि-अवयव प्रयोगाभास, चतुरवयवप्रयोगाभास और विपरीतावयवप्रयोगाभास), सम्भव हैं । माणिक्यनन्दि से पूर्व इनका कथन दृष्टिगोचर नहीं होता। अत: इनके पुरस्कर्ता माणिक्यनन्दि प्रतीत होते हैं।
इस तरह जैनचिन्तकों की अनुमान-विषय में अनेक उपलब्धियां हैं । उनका अनुमानसम्बन्धी चिन्तन भारतीय तर्कशास्त्र के लिए कई नये तत्त्व प्रदान करता है।
सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल १. बृहदारण्य., २।४१५ २. श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः ।
मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतवः ।। ३. पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ. ७१ ४. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृ. २५९, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, १९६९ ५. वही।
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जैन तात्त्विक परम्परा में
मोक्ष : रूप स्वरूप
राजीव प्रचंडिया, एडवोकेट
।
विश्व के समस्त दर्शनों में भारतीय दर्शन और भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका मूल कारण है जैन दर्शन का सृष्टि पृथ्वी, तस्व द्रव्य, नयप्रमाण, ज्ञान-ध्यान, कर्म अवतारवाद, अनेकान्त - स्याद्वाद तथा अहिंसा - अपरिग्रहवाद आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर सूक्ष्म-वैज्ञानिक विश्लेषणात्मक चिन्तन । तात्त्विक विवेचन, विषादयुक्त वातावरण में समत्व का संचार, स्थायी सुख-शान्ति का स्रोत तथा सम्यक् श्रम-परिश्रम पुरुषार्थ अर्थात् जन्म-जरा-मृत्यु से सदा-सदा के लिये मुक्त होने की भावना - आस्था का जागरण आदि आत्मिक शक्तियों को प्रस्फुटित करने में सर्वथा सक्षम है। बस, आज आवश्यकता है इसके स्वरूप को ठीक-ठीक समझकर जीवन में उतारने की । निश्चय ही यह सम्यग् दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यक् चारित्र का मिला जुला पथ प्रशस्त करायेगा ।
सारा जगत्, लोक व्यवस्था तत्व पर अवलम्बित है । चार्वाक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग, प्रोपनिषद तथा बौद्ध आदि समस्त नास्तिक - प्रास्तिक दर्शनों का मुख्य विषय तात्विक विवेचना का रहा है। वैदिकदर्शन में परमात्मा तथा ब्रह्म के लिये न्यायदर्शन में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, रष्टान्त सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल जाति और निग्रहस्थान नामक सोलह पदार्थों में, वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय नामक छह तत्वों में सांख्यदर्शन में जगत् के मूल कारण के रूप में पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, मन, और पंच महाभूत नामक पच्चीस तत्त्वों में बौद्धदर्शन में स्कन्ध, प्रायतन, धातु नामक तीन तत्त्वों में तथा चार्वाकदर्शन में पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि नामक चार तत्त्वों में तत्त्व की विवेचना स्पष्टतः परिलक्षित है । यद्यपि अपनी-अपनी दृष्टि से इन दर्शनों ने तत्त्व का प्रतिपादन किया है किन्तु जैनदर्शन की तत्वनिरूपणा अत्यन्त मौलिक एवं परम वैज्ञानिक है। वह संसारी जीव के विकास - ह्रास, सुख-दुःख तथा जन्म-मरण आदि अनेक समस्याओं का सुन्दर समाधान प्रस्तुत करती है । वास्तव में जीवन की गत्यात्मकता में तत्त्व की भूमिका श्रनिर्वचनीय है ।
तत्त्व के स्वरूप को स्थिर करते हुए जैनदर्शन में जिस वस्तु का जो भाव है, उसे तत्व कहा है।' अर्थात् वस्तु का सच्चा स्वरूप तत्व कहलाता है जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु के प्रति वही भाव रखना तत्त्व है । यह अनादि निधन है, स्वसहाय और निर्विकल्प है, इसलिए
उत्पत्ति एवं पुरानी नहीं करता है अर्थात् जैनागम में परमार्थ
स्वभाव से सिद्ध है, सत् है और शाश्वत है अर्थात् नवीन अवस्थाओं की अवस्थाओं का विनाश होते रहने पर भी अपने स्वभाव का कभी परित्याग भूत, वर्तमान व भविष्य तीनों काल में वह सदा विद्यमान रहता है ।
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ਹਰ ਟੀਥੀ संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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अर्चनार्चन
चतुर्थखण्ड / ३२
द्रव्य, स्वभाव, परम परम, ध्येय, शुद्ध, तथा परम के लिए भी तत्त्व शब्द का प्रयोग हुआ है । " ये सभी शब्द एकार्थवाची हैं। तत्त्व वास्तव में एक है किन्तु हेय व उपादेय के भेद से अथवा सामान्य विशेष भेद से जैनागमों में यह दो जीव और अजीव, सात- जीव, प्रजीव, आस्रव, वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तथा नौ-जीव, प्रजीव, पुण्य, पाप, ग्रासव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामक भागों में विभक्त है । इन सब में जीव और प्रजीव तत्त्व ही प्रमुख है, शेष आस्रवादि तत्त्व जीव प्रजीव की पर्याय होने से इन दोनों में ही समाहित हैं। संसार या मोक्ष दोनों में जीन प्रधान तत्त्व है। शरीर मन वचन की समस्त शुभ-अशुभ क्रियाएं जीव के द्वारा सम्पादित हुआ करती हैं अर्थात् विश्व की व्यवस्था का मूलाधार जीव ही है। जैनदर्शन के अनुसार जब जीव संसारी दशा में प्राण धारण करता है, तब जीव कहलाता है अन्यथा ज्ञान दर्शन - स्वभावी होने के कारण यह प्रात्मा से संज्ञायित है। वैसे इसके अनेक पर्यायवाचक शब्द जैनागम में स्पष्टतः परिलक्षित है। यह अनन्तगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तिक सत्ताधारी पदार्थ है, कल्पना मात्र नहीं है, नहीं पंचभूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने वाला कोई संयोगी पदार्थ है संसारी दशा में शरीर में रहते हुए भी शरीर से पृथक्, लौकिक विषयों को करता एवं भोगता हुआ भी यह उनका केवल ज्ञाता मात्र है । यद्यपि यह लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परन्तु संकोच विस्तार शक्ति के कारण शरीर प्रमाण होकर रहता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि जीव अनन्तानन्त हैं। प्रत्येक संसारी जीव कर्मों से प्रभावित
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रहता है । जो जीव साधना कर कर्म श्रृंखला को काट-क्षय कर देता है, वह सदा श्रतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता बन अर्थात् परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर विकल्पों से सर्वथा मुक्त होकर केवल ज्ञाता दृष्टा भाव में स्थिति पाता है। इस प्रकार जीव के लक्षण-स्वरूप को स्थिर करते हुए जैनदर्शन कहता है कि जिस तत्त्व में ज्ञान दर्शनात्मक उपयोग अर्थात् चेतना शक्ति अर्थात् सुख-दुःख अनुकूलता - प्रतिकूलता श्रादि की अनुभूति करने की क्षमता प्रर्थात् स्व और पर का ज्ञान और हित-अहित का विवेक विद्यमान हो, वह वस्तुतः जीव कहलाता है । १० जैनागम में संसारी और मुक्त नामक दो भागों में यह जीव विभक्त है।" संसारी जीवों को भव्यताअभव्यता १२, संज्ञी - असंज्ञी 13, त्रस - स्थावर १४, त्रस-स्थावर १४, बादर-सूक्ष्म १५ बहिर् अन्तर्-परम् श्रात्मा -१९ तथा चार गतियों १७ प्रादि के आधार पर वर्गीकृत कर इसके स्वरूप का वर्णन हमें विस्तार से देखने को मिलता है। जीवस्वरूप से विपरीत लक्षण वाला अर्थात् जड़ प्रचेतन अर्थात् जिसमें चेतना का सर्वथा अभाव हो, वह तस्व प्रजीव है। १६ संसार के समस्त दृश्य भौतिक पदार्थ अजीव कहलाते हैं । जैनागम में श्राध्यात्मिक तथा काय की २० दृष्टि से इसके अनेक भेदप्रभेद किए गए हैं। प्रजीव तत्व के अन्तर्गत आने वाले पुण्य पाप तत्त्व की विवेचना भी जैनदर्शन में वर्णित है। जहाँ मन वचन और काय के शुभ योग की प्रवृत्ति अर्थात् शुभ कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थिर हो, वहाँ पुण्य तथा जहाँ अशुभ योग की प्रवृत्ति अर्थात् अशुभ कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध की स्थापना हो वहाँ पाप तत्त्व है । २3 ये पुण्य-पाप संसार के वर्धक हैं । जैनागम में पुण्य और पाप तत्त्व उपार्जन के क्रमशः नौ तथा अठारह कारण बताये गये हैं । ४ जिनमें संसारी जीव सदा प्रवृत्त रहता हुआ संसार-सागर में डूबता उतराता रहता है । जैन तात्त्विक क्रम में पुण्य-पाप तत्त्व के बाद प्रस्रव का स्थान निर्धारित है । मन, वचन और काय की वह सब प्रवृत्तियाँ, जिनसे कर्म आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं अर्थात् पुण्य-पाप रूप कर्मों का श्रागमन-द्वार घालव कहलाता है। २५ यह तत्त्व आत्मा के वास्तविक
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जैन तात्विक परम्परा में मोक्ष : रूप-स्वरूप / ३३
जैनागम में वर्णित हैं ।२६ कर्म-पुद्गलों के आत्मा की ओर आकृष्ट होने पर जब वे प्रात्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह | एक ही स्थान में रहने वाला सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं अर्थात् प्रात्मतत्त्व जब कर्मों से संम्पृक्त हो जाता है तब जो स्थिति होती है वह बन्ध की स्थिति होती है।२७ मूलत: जीव के मनोविकार ही कर्मबन्ध की स्थिति को स्थिर किया करते हैं, अस्तु जैनदर्शन में बन्ध को चार भागों-प्रकृति (कर्मों की प्रकृति/स्वभाव की स्थिरता), स्थिति ( कर्मफल की अवधि काल की निश्चितता ), अनुभाग/अनुभव ( कर्मफल की तीव्र या मन्द शक्ति की निश्चितता) तथा प्रदेश ( कार्मिक सम्बन्ध में कर्मों की संख्या की नियतता) में वर्गीकृत किया गया है ।२८ जिनमें प्रकृति-प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से तथा स्थिति-अनुभागबन्ध, कषाय-मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद के निमित्त से हुआ करते हैं ।२६ यह बन्ध तत्त्व संसारी जीव को अनन्त भवों में, संसारचक्र में परिभ्रमण कराता रहता है तथा जीव को वास्तविक स्वरूप से उसकी प्रतीति से सर्वथा वंचित रखने में अपनी भूमिका का निर्वाह भी करता है। प्रात्म-स्वरूप-प्रतीति-प्राप्त्यर्थ संसारी जीव को प्रास्रव-निरोध अर्थात् कर्मद्वार को बन्द करना पड़ता है, जिससे नवीन कर्मों का आगमन रुक जाता है। जैनदर्शन में इस प्रक्रिया को 'संवर' कहा गया है। यह द्रव्य और भाव दो प्रकार का माना गया है । ३१ संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना अर्थात् आत्मा का शुद्धोपयोग । शुद्धचेतन परिणाम भावसंवर तथा कर्मपुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद होना-निरोध करना अर्थात् जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण भूत हैं, द्रव्य संवर कहलाता है । ३२ इस प्रकार संवर द्वारा नए कर्म रोके जाते हैं किन्तु पुराने-संचित कर्मों से निवृत्ति भी परमावश्यक है । इसके लिए जो साधना की जाती है, उसे निर्जरा कहा जाता है । 33 यह साधना ध्यान-ज्ञान तथा तपादि के द्वारा पूर्ण होती है। इसमें लीन साधक अपने समस्त कर्मों को क्षय करता हपा पात्मिक आनन्दानुभूति के साथ वीतरागता को प्राप्त होता है । जैनदर्शन में निर्जरातत्त्व के अनेक दृष्टि से भेद-प्रभेद किये गये हैं। ३४ ये सभी भेद पूर्वबद्ध कर्म-फल की मलिनता को शनैः शनैः दूर करने के उपाय--साधन हैं । नवीन तथा पूर्वबद्ध अर्थात् समस्त कर्मों से संसारी जीव जब मुक्तविमुक्त हो जाता है तब वह मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाता है अर्थात् संसार के आवागमन से छूट जाता है । जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष अन्तिम तत्त्व है।
प्रस्तुत निबन्ध में जैन तात्त्विक परम्परागों में मोक्ष का क्या स्वरूप है ? उसकी प्राप्ति के क्या विधि-विधान हैं ? आदि महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विषय पर संक्षिप्त चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है ।
समस्त भारतीय दर्शन के चिन्तन का केन्द्रबिन्दु है-आत्म-स्वरूप तथा उसकी प्रतीति की प्राप्ति अर्थात् संसारी जीव के अन्तिम लक्ष्य-साध्य के स्वरूप को निर्धारित कर उसकी प्राप्ति के लिए साधन उपाय को जन-जन तक पहुंचाना । यह परम सत्य है कि समस्त आस्तिक दर्शनों का मार्ग्य साध्य तो एक ही है किन्तु मार्ग साधना में किंचित् भिन्नता है अर्थात् मोक्ष की कल्पना सभी आस्तिक दर्शनों में हुई है। अपने-अपने ढंग से उसके स्वरूप पर निरूपण भी हुआ है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग तथा बौद्धदर्शन में दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति को मोक्ष माना है । ५ इनकी मान्यतानुसार मोक्ष में शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । वेदान्त के मत में जीवात्मा तथा परमात्मा का मिलन मोक्ष है । ३६ इसमें शाश्वत सुख की प्रधानता है। दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति मोक्ष हो जाने पर स्वतः ही हो जाती है। इस
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ३४ प्रकार इन समस्त दर्शनों में मोक्ष को सुख की उपलब्धि तथा समस्त सांसारिक दुःखों की निवत्ति के रूप में स्वीकार किया है किन्तु मोक्ष-साधना में ये सभी दर्शन एक मत नहीं हैं। नैयायिक तथा वैशेषिकदर्शन प्रमाण और प्रमेयादि तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त करना ही मोक्ष का साधन मानते हैं जबकि सांख्य और योगदर्शनानुसार प्रकृति-पुरुष का विवेक, भेदविज्ञान से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । वेदान्त दर्शन अविद्या और उसके कार्य से निवृत्ति को मोक्ष का साधन स्वीकारते हैं तथा बौद्धदर्शन के अनुसार संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं शून्यमय समझना मोक्ष का साधन है। 3८ यह दर्शन तप की कठोरता तथा विषयभोगों के अतिरेक की अपेक्षा मध्यममार्ग अपनाने पर अधिक बल देता है । इस प्रकार उपर्युक्त सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति को मोक्ष के उपाय साधन मानते हैं जिसके माध्यम से संसारी जीव मोक्ष पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। 30 किन्तु इन समस्त दर्शनों में जैनदर्शन की मोक्ष सम्बन्धी धारणा अत्यन्त व्यापक, सार्थक तथा परम वैज्ञानिक है । इसके अनुसार सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना अर्थात् समस्त बन्धनों से मुक्ति अर्थात् प्रात्मा और बन्ध का पृथक्करण ही मोक्ष है।४० जिसकी प्राप्ति पर यह संसारी जीव बार-बार जन्म-मरण से मुक्त अर्थात् सांसारिक सुख-दुःख से पूर्णतया निवृत्त हो, अपने वास्तविक विशुद्ध-स्वरूप में रमण करता हुमा अनन्त मानन्द का अनुभव करता है। फिर वह न तो वेदान्त दर्शन की भाँति ब्रह्मस्वरूप में लीन और न ही सांख्यदर्शन की भाँति प्रकृति को तटस्थ भाव से देखता रहता है और नहीं वह इस जगत् का निर्माण-ध्वंसकर्ता, भाग्यविधाता बनता है अपितु जगत् संसार से पूर्णतः निलिप्तता, वीतरागता से परिपूर्ण अपने ही परमानन्दमय स्वरूप में स्थित हो जाता है।
__ जनदर्शन के अनुसार संसारी जीव चार गतियों-नरक, तिर्यंच, मनुष्य , देव---में से मात्र मनुष्यगति से ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आयु के अन्त में वह स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के कारण लोक शिखर पर, जिसे सिद्ध-शिला कहा जाता है, अवस्थित हो जाता है, जहाँ वह अनन्त काल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुख का उपभोग करता हुअा अपने चरम शरीर के आकार रूप से स्थित रहता है । ज्ञान ही उसका शरीर होता है।४२ अन्य दर्शनों की भाँति जैनदर्शन उसके प्रदेशों की सर्वव्यापकता को स्वीकार नहीं करता और न ही उसे निर्गण व शून्य मानता है। उसके स्वभावजन्य अनन्त ज्ञानादि पाठ प्रसिद्ध गुणों के समुच्चय को स्वीकारता है। इस दर्शन के अनुसार जितने जीव मोक्ष को प्राप्त होते हैं उतने ही निगोद राशि से निकल कर व्यवहारराशि में प्राजाते हैं जिससे लोक जीवों से रिक्त नहीं होता, अपितु सदा भरा रहता है।४३
जनदर्शन की धारणा मोक्ष-भेद के सम्बन्ध में स्पष्ट है । वह सामान्यतः मोक्ष को एक ही प्रकार का मानता है किन्तु द्रव्य, भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से यह अनेक प्रकार का होता है, यथा--जीवमोक्ष, पुद्गलमोक्ष, जीव-पुद्गल मोक्ष ।४४ द्रव्य और भाव के भेद से इसके दो भेद किए जा सकते हैं, एक भावमोक्ष तथा दूसरा द्रव्य मोक्ष । ५५ क्षायिक ज्ञान दर्शन व यथाख्यातचारित्र नाम वाले (शुद्ध रत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरवशेष कर्म प्रात्मा से दूर किये जाते हैं, उन परिणामों को भाव मोक्ष अर्थात् कर्मों के निर्मूल करने में समर्थ ऐसा शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप (निश्चय रत्नत्रयात्मक) जीवपरिणाम भावमोक्ष है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना अर्थात् भावमोक्ष के निमित्त से जीव व कर्मों के प्रदेशों का निरवशेष रूप से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष कहलाता है।४६ वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष
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है। ४७ क्योंकि जीवों के भावों में ही बन्धन है, मोक्ष है मोक्ष के लिए किसी लिंग, जाति, कुल प्रादि का प्राधार नहीं होता प्रपितु यह जीव के सम्यक् पुरुषार्थ अर्थात् राग-द्वेषजन्य विकल्प विचारों से मुक्त होने के उपक्रम पर निर्भर करता है। मोक्ष के इस व्यापक स्वरूप को समझने से पूर्व कर्म-खला तथा बन्ध प्रणाली को समझना परम आवश्यक है। यह निश्चित है, बंध-प्रक्रिया समझने के उपरान्त हो कोई भी संसारी जीव बन्धन काटकर मोक्ष पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है।
नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग, वेदान्त तथा बौद्धदर्शन की भाँति जैनदर्शन भी कर्म पौर मात्मा का सम्बन्ध अनादि मानता है संसारी जीव अपने कृत कर्मों के विनष्ट करने तथा नवीन कर्मों के उपार्जन में ही सर्वथा व्यस्त एवं त्रस्त रहता है। संसारी आत्मा तथा मुक्तात्मा अर्थात् संसार एवं मोक्ष में भेदकरेखा मात्र कर्म - बन्धनों की है । कर्मयुक्त जीव संसारी जीव तथा कर्ममुक्त जीव मुक्तात्मा / सिद्धात्मा कहलाते हैं ।
जैनदर्शन के अनुसार संसारी जीव जब कोई कार्य करता है तो उसके आस-पास के वातावरण में क्षोभ उत्पन्न होता है जिसके कारण उसके चारों ओर उपस्थित कर्म शक्ति युक्त सूक्ष्मपुद्गलपरमाणु / कर्म-वर्गणा श्रर्थात् कर्म श्रात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और इस प्रकार यह श्रात्मा कर्मबन्धनों में जकड़ती चली जाती हैं। जैनदर्शन में कर्म को मूलतः दो भागों में विभक्त किया गया है। एक तो वे कर्म जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप का घात करते हैं, पातिकर्म कहलाते हैं। इनके अन्तर्गत वे ज्ञानावरणीय (प्रात्मा के ज्ञान गुण का प्रच्छन्न होना) दर्शनावरणीय (ग्रात्मा का अनन्त दर्शनगुण अप्रकट रहना) मोहनीय ( मोह को उत्पन्न करना) और धन्तराय (ग्रात्मा में व्याप्त ज्ञान दर्शन मानन्द के तथा अन्य सामर्थ्यशक्ति को क्षीण करना) कर्म आते हैं तथा दूसरे वे कर्म जिनके द्वारा आत्मा के वास्तविक स्वरूप के प्राघात की अपेक्षा जीव की विभिन्न योनियाँ, अवस्थाएँ तथा परिस्थितियाँ निर्धारित हुआ करती हैं, अघाति कर्म कहलाते हैं । इनमें नाम ( शरीरादि का निर्माण), गोत्र ( गोत्र, कुटुम्ब, वंश, कुल, जाति, प्रादि का निर्धारण करना) प्रायु ( जीव की आयु को निश्चित करना) मोर वेदनीय ( जीव की सुखदुःख की वेदना का अनुभव होना) कर्म समाविष्ट हैं । इन ग्रष्ट कर्मों की एक सौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियाँ जैनागम में उल्लिखित हैं, जिनमें ज्ञानावरणीय की पाँच दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो मोहनीय की अट्ठाईस प्रायु को चार नाम की तिरानवें गोत्र की दो तथा अन्तराम की पांच उत्तरप्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार ये घातिघातिकर्म प्रात्मा के स्वभाव को प्राच्छादित कर जीव में ज्ञान, दर्शन व सामर्थ्यशक्ति को क्षीण करते हैं तथा वे कर्म जीव पर भिन्न-भिन्न प्रकार से अपना प्रभाव डालते हैं, जिसके फलस्वरूप संसारी जीव संसार में ही भ्रमण करता हुआ सुख-दुःख के घेरे में घिरा रहता है । इन ग्रष्टकर्मों के अतिरिक्त 'नोकर्म' का भी उल्लेख आगम में मिलता है। कर्म के उदय से होने वाला वह प्रौदारिकशरीरादि, जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है, नोकर्म कहलाता है। ५० ये नोकर्म भी जीव पर अन्य कर्मों की भांति अपना प्रभाव डाला करते हैं ।
४8
प्रश्न उठता है कि ये कौन से कारण हैं जिनके द्वारा ये कर्म संसारी जीवों पर अपना प्रभाव डाला करते हैं? इस विषय पर कर्म में धास्था रखने वाले सभी दर्शनों ने अपनेअपने ढंग से चिन्तन किया है। नैयायिक, वैशेषिकदर्शन, मिथ्याज्ञान को योगदर्शन प्रकृति
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धम्मो दीयो संसार में समुद्र धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | ३६
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पुरुष के अभेदज्ञान को तथा वेदान्त आदि अविद्या को कर्मबन्ध का मूल कारण मानते हैं । किन्तु इस दिशा में जैनदर्शन की मान्यता है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगादि (काय-मन-वचन की क्रिया आदि) कर्मबन्ध के मुख्य हेतु हैं, ५२ जिनमें लिप्त रहकर जीव कर्मजाल में बुरी तरह जकड़ा रहता है। इनसे मुक्त्यर्थ जीव को अपने भावों को सदैव शुद्ध रखने के लिये कहा गया है । क्योंकि कोई भी कार्य करते समय यदि जीव की भावना शुद्ध तथा राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया-लोभ, कषायों से निलिप्त वीतरागी है तो उस समय शारीरिक कार्य करते हुए भी कर्मबन्ध नहीं होता। कार्य करते समय जिस प्रकार का भाव जीव के मन में उत्पन्न होता है, उसी भाव के अनुरूप जीव में कर्मबन्ध हुआ करता है। कर्मबन्ध की तीव्रता-मन्दता अर्थात् प्रात्मस्वरूप के प्रकटीकरण अर्थात् आत्म-विकास की दशा के आधार पर जीव की तीन स्थितियाँ जैनधर्म में दृष्टव्य हैं। एक स्थिति में आत्मज्ञान का उदय नहीं होता है, दूसरी में आत्मज्ञान का उदय तो होता है किन्तु राग-द्वेष आदि काषायिक भाव अपना प्रभाव थोड़ा बहुत डालते रहते हैं तथा तीसरी में राग-द्वेष का पूर्ण उच्छेदन अर्थात् प्रात्मस्वरूप का पूर्ण प्रकटीकरण होता है । पहली स्थिति बहिरात्मा अर्थात् मिथ्यादर्शी की, दूसरी अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दर्शी की तथा तीसरी स्थिति परमात्मा अर्थात् सर्वदर्शी की कहलाती है। ५३ इस प्रकार संसारी जीव की निकृष्ट अवस्था से उत्कृष्ट अवस्था तक अर्थात् संसार से मोक्ष अवस्था तक जाने का एक क्रमिक विकास है। आत्मा का यह क्रमिक विकास किसी न किसी रूप में प्रायः सभी भारतीयदर्शन, वैदिक दर्शन, बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शन क्रमशः भूमिकामों५४, अवस्थानों५५ तथा गुणस्थानों५६ के नाम से स्वीकारते हैं। जैनदर्शन के अनुसार ये गुणस्थान मिथ्यादृष्टि प्रादि के भेद से चौदह होते हैं, ५७ जिनमें से होकर जीव को अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए अन्तिम लक्ष्य-साध्य तक पहुँचना होता है । इन गुणस्थानों में मोह-शक्ति शनैः शनैः क्षीण होती जाती है और अन्त में जीव मोह-यावरण से निरावृत होता हुआ निष्प्रकम्प स्थिति में पहुँच जाता है। गुणस्थानों में पहले तीन स्थान वहिरात्मा की अवस्था, चतुर्थ से बारह स्थान अन्तरात्मा की अवस्था तथा तेरहवां एवं चौदहवां गुणस्थान, परमात्मा की अवस्था हैं।५८ प्रारम्भ के बारह गुणस्थान मोह से तथा अन्तिम दो गुणस्थान योग से सम्बन्धित हैं। इन गुणस्थानों में कर्मबन्ध की स्थिति का वर्णन करते हए जैनागम में स्पष्ट निर्देश है कि प्रथम दश गुणस्थान तक चारों प्रकार के बन्ध-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश होते रहते हैं किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मात्र प्रकृति और प्रदेशबन्ध ही शेष रहते हैं। चौदहवें गुणस्थान में ये दोनों भी समाप्त हो जाते हैं। तदनन्तर चारों प्रकार के बन्ध से मुक्त होकर यह जीवात्मा सिद्ध परमात्मा हो जाता है अर्थात् मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।
आत्मा के प्राध्यात्मिक विकास अर्थात् सम्पूर्ण कर्म-विपाकों से सर्वथा मुक्ति के लिए अर्थात् मोक्षप्राप्त्यर्थ जैनदर्शन मुख्यत: चार साधन-उपायों को दर्शाता है। ये हैं-सम्यक दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अर्थात् रत्नत्रय तथा तप ।
यह निश्चित है कि प्रात्मा स्वभावतः कर्म और नोकर्म से, जो पौद्गलिक हैं, सर्वथा भिन्न हैं। यह अनुभूति भेद-विज्ञान कहलाती है, जो जीव को तपःसाधना की प्रोर प्रेरित करती है । प्रागम में तप की परिभाषा को स्थिर करते हुए कहा गया है कि कर्मक्षय के लिए जो तपा जाय वह तप है।५६ जनदर्शन में तप के मुख्यतया दो भेद किये गये हैं-एक
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जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष : रूप-स्वरूप | ३७
बाह्यतप जिसके अन्तर्गत अनशन/उपवास अवमौदर्य ऊनोदर, रसपरित्याग, भिक्षाचरी/ वृत्तिपरिसंख्यान, परिसंलीनता/विविक्त शय्यासन और कायक्लेश तथा दूसरा प्राभ्यन्तर तप जिसमें विनय, वैयावत्य/सेवा-शुश्रुषा प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग/ व्युत्सर्ग नामक तप आते हैं । १० आभ्यन्तर तप को अपेक्षा बाह्यतप व्यवहार में प्रत्यक्ष परिलक्षित है किन्तु कर्मक्षय और प्रात्मशुद्धि के लिए तो दोनों प्रकार के तपों का विशेष महत्त्व है। वास्तव में तप के माध्यम से ही जीव अपने कर्मों की निर्जरा कर सकता है। कर्ममुक्ति अर्थात् मोक्षप्राप्त्यर्थ जैनदर्शन का लक्ष्य रहा है-वीतराग-विज्ञानता की प्राप्ति । यह वीतरागता सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है।
जैनदर्शन में रत्नत्रय के विषय में विस्तार से तर्कसंगत चर्चा हुई है। इसके अनुसार जीव-अजीव आदि नवविध तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यगज्ञान, तत्त्वों के यथार्थस्वरूप पर किया गया श्रद्धान / दृढ़ प्रतीति अर्थात् स्वात्मप्रत्यक्षपूर्वक स्व-पर भेद का या कर्तव्यअकर्तव्य का विवेक सम्यक दर्शन तथा आचरण द्वारा अन्तःकरण की शुद्धता अर्थात् कर्मबन्ध के वास्तविक कारणों को अवगत कर संवर (नवीन कर्मों को रोकना) तथा निर्जरा (पूर्व संचित कर्मों का तप द्वारा क्षय करना) में लीन रहना, सम्यग् चारित्र कहलाता है। जैनदर्शन में सम्यग दर्शन की महत्ता पर बल दिया गया है। उसे मोक्ष का प्रथम सोपान माना गया है। बिना सम्यग् दर्शन के सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान-अनुभूति तथा समस्त क्रियाएँ मिथ्या होती हैं । वास्तव में सम्यग् दर्शन के अभाव में ज्ञान चारित्र व्रत तथा तपादि सब निस्सार हैं।६३ यह निश्चित है कि सम्यग्दर्शन से जीव सर्वप्रकार की मूढ़ताओं से ऊपर उठता चला जाता है अर्थात् उसे भौतिक सुख की अपेक्षा शाश्वत प्राध्यात्मिक सुख का अनुभव होने लगता है। ६४ सम्यग्ज्ञान के विषय में जैनदर्शनों की मान्यता है कि जिस ज्ञान में संशय, विपर्यास, अनध्यवसाय तथा मिथ्यात्व का प्रभाव हो वह यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।६५ सम्यग् दृष्टि युक्त जीव का ज्ञान मिथ्यात्व पर नहीं, सम्यकत्व पर आधारित होता है। जैनागम में ज्ञान की तरतम अवस्थानों, कारणों एवं विषयादि के आधार पर ज्ञान के अनेक भेद-प्रभेद किए गये हैं । ६६ मति-श्रुत तथा अवधि ज्ञान मिथ्यात्व के संसर्ग से एक बार मिथ्याज्ञान की कोटि में पा सकते हैं किन्तु मन:पर्याय और केवलज्ञान सम्यकदर्शी जीवों में पाए जाने के कारण सम्यगज्ञान की ही सीमा में आते हैं। इस सम्यगज्ञान से संसारी जीव जीवन-मुक्त अर्थात् सिद्धत्व के सन्निकट पहुँचता है। सम्यक चारित्र के विषय में जैनदर्शन का दृष्टिकोण है कि बिना इसके मोक्ष तक पहुँचना नितान्त असम्भव है। इसकी सम्यक् अाराधना से दर्शन, ज्ञान व तप की अाराधना भी हो जाती है। क्योंकि जो चारित्र रहित है उसका ज्ञान गुण निरर्थक है। इस प्रकार तोनों का समन्वित रूप ही मोक्ष का मार्ग स्पष्ट करता है ।६७ वस्तुतः श्रद्धा ज्ञान और चारित्र से कर्मों का निरोध होता है। जब जीव सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र से युक्त होता है तब प्रास्रव से रहित होता है जिसके कारण नवीन कर्म कटते और छंटते हैं, पूर्वबद्ध कर्म क्षय होने लगते हैं, कालान्तर में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं, तदनन्तर अन्तराय, ज्ञानावरणीय, और दर्शनावरणीय ये तीन कर्म भी एक साथ सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं । इसके उपरान्त शेष बचे चार अघाति कर्म भी विनष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय कर संसारी जीव मोक्ष को प्राप्त होता है।
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चतुर्थ खण्ड | ३८
अन्त में यही कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में उल्लिखित तत्त्व-मीमांसा मोक्षमार्गपरक है। यह संसारी जीव को अपने वास्तविक स्वरूप में लाने के लिए सच्चे पुरुषार्थ की ओर प्रेरित करती है। जीव से लेकर मोक्ष तक तत्त्व की इस परम्परा में प्रास्रव-पुण्य-पाप तथा बन्ध तत्त्व सांसारिक वृत्तियों अर्थात् राग द्वेषादि-काषायिक भावों के परिणामों को दर्शाते हैं, संवर और निर्जरा कर्म-युक्ति की साधना का विवेचन करते हैं तथा मोक्ष तत्त्व संसारी जीव के आध्यात्मिक विकास में अर्थात आत्मा के वास्तविक स्वरूप-स्वभाव के प्रकटीकरण में एक प्रभावी भूमिका का निर्वाह करता है। वास्तव में मोक्षतत्त्व साधना-फल-परिणाम को दर्शा कर संसारी जीव में संसार से वैराग्य उत्पन्न कर मुक्ति की ओर प्रेरित करता है।
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सन्दर्भ-ग्रन्थसूची
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(ख) स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम् ।-राजवार्तिक, २।१।६।१००।२५, (क) तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यतः स्वत: सिद्धम् । तस्मादनादि-निधनं
स्वसहायं निर्विकल्पं च ।—पंचाध्यायी, पूर्वार्द्ध,८ (ख) सद् दव्वं वा, ।-भगवती, ८९
(ग) उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा।-स्थानाङ्गसूत्र, १०, ३. तच्चं तह परमझें दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति
अभिहाणा ।। -बृहद् नयचक्र, गाथा, ४, ४. द्रव्यसंग्रह, चूलिका, २८८५२ ५. (क) प्रज्ञापना वृत्ति, प्राचार्य मलयगिरि,
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बन्धमोक्खकुसला। -भगवतीसूत्र । (ख) प्रज्ञापना (ग) जीवाजीवा य वंधो य पूण्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो संते
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ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययः ।-महापुराण, २४।१०३
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(घ) तत्र चेतनालक्षणो जीवः सर्वार्थसिद्धि, ११४११४१३,
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(च) णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स- द्रव्यसंग्रह, मूल, ३ ११. (क) संसारिणी मुक्ताश्वतत्त्वार्थ सूत्र, २०१०
(ख) पंचास्तिकाय, मूल, १०९, (ग) बृहद्नयचक्र, १०५
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१२. (क) जीवभव्याभव्यत्वानि च तत्त्वार्थ सूत्र, प्र० २ सूत्र ७ (ख) पंचास्तिकाय, मूल, १२०,
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(ख) द्रव्यसंग्रह, मूल १२/२९,
१४. ( क ) संसारिणस्त्र सस्थावराः -- तत्त्वार्थसूत्र अ० २ सूत्र १२-१४
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"
(घ) उत्तराध्पयन सूत्र, अ० १०
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(च) प्रज्ञापना, पद प्रथम, १, २, ३
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१६. (क) जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह व अंतरण्या व परमण्या वि यदुविहा अरहंता तह य सिद्धाय ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल, १९२
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(ख) षट्खण्डागम, ११, १ सू० २४/२०१
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(ख) इत्युक्तलक्षणोपयोगश्वेतना च यत्र नास्ति स भवत्यजीव इति विज्ञेयम् ।
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(ग) पंचास्तिकाय २।१२२
(घ) स्थानाङ्गसूत्र, २०१५७
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चतुर्थ खण्ड / ४० १९. तच्च द्विविधम् । जीवसम्बन्धमजीवसम्बंधं च ।
-परमात्म प्रकाश, टीका, ११३०॥३३ २०. (क) अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । कालश्च-तत्त्वार्थसूत्र, ५॥१३९
(ख) द्रव्यसंग्रह, मूल १५३५० (ग) प्रवचनसार, १२७ (घ) उत्तराध्ययनसूत्र, ३६।४
(ङ) समवायाङ्गसूत्र, १४९ २१. (क) शुभः पुण्यस्य-तत्त्वार्थसूत्र, ६।३
(ख) पुण्यं शुभकर्मप्रकृतिलक्षणम्-सूत्रकृतांगे शी० ० २,५, १६ पृष्ठ १२७ (ग) मूलाचारवृत्ति, वसुनंद्याचार्य, ५२६ (घ) समवायाङ्गसूत्र, अभय० १ पृष्ठ ५ (ङ) षड्दर्शनसमुच्चय, गुण० वृ० ४७, पृष्ठ १३७ (च) पुनाति, पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम् ।
-स्थानाङ्गसूत्र, अभयदेव टीका, प्रथमस्थान । २२. (क) पापम् अशुभं कर्म-समवायाङ्ग, अभय० १ पृष्ठ ६ (ख) अशुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च पापम् ।
-पंचास्तिकायवृत्ति, अमृतचन्द्राचार्य, १०८ २३. (क) पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् -सर्वार्थसिद्धि, ६।३ (ख) पात्यवति रक्षति प्रात्मानं कल्याणादिति पापम् ।
-तत्त्वार्थ, श्रुतसागरीयावृत्ति, ६३, (क) जैनदर्शनस्वरूप और विश्लेषण, लेखक-देवेन्द्रमुनि शास्त्री पृष्ठ १९३, (ख) स्थानाङ्गसूत्र, ९ (ग) बोलसंग्रह, भाग ३, पृष्ठ १८२
(घ) नव पुण्णे, ठाणांग, ठाणा ९, २५. (क) समवायाङ्गसूत्र, समवाय, ५
(ख) अध्यात्मसार, १८।१३१ (ग) आवश्यक हरिभद्रीया वृत्ति मल० हेम० हि०, पृष्ठ ८४ (घ) प्रास्रवति प्रविशति कर्म येन स प्रणातिपातादिरूपः प्रास्रवः कर्मोपादान
कारणम्--सूत्रकृताङ्ग, शीला० वृत्ति, २।५।१७, पृष्ठ १२८ (ङ) योगप्रणालिकयात्मानः कर्म आस्रवतीति योग प्रास्रवः । (च) कायवाङ्मनः कर्म योगः । स प्रास्रवः-तत्त्वार्थसूत्र, ६।१-२ (छ) प्रास्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा प्रास्रवः । पुण्यपापागमद्वारलक्षण प्रास्रवः
राजवार्तिक, १।४।९, १६।२६ २६. (क) बृहद्नयचक्र, मू० प्रास्रव । १५२
(ख) तत्त्वार्थसूत्र, ६।४ (ग) सर्वार्थसिद्धि, ६।४।३२०१८ (घ) वारस अणुवेक्खा, ४७
२४.
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जन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष : रूप-स्वरूप /४१
(ङ) द्रव्यसंग्रह, मूल, ३०
(च) अनगारधर्मामृतं, २।३७ २७. (क) प्रात्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणो बंधः।
__---राजवार्तिक, १।४।१७।२६।२९ (ख) स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान २, उद्देशा २
(ग) प्रज्ञापना पद २३ सूत्र ५ २८. (क) समवायाङ्ग, समवाय ४
(ख) मूलाचार, गाथा १२२१ (ग) तत्त्वार्थसूत्र, ८१३ (घ) द्रव्यसंग्रह मूल, ३३
(ङ) गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, मूल, ८९/७३ २९. 'कर्म, कर्मबन्ध और कर्मक्षय' लेखक-राजीव प्रचंडिया, ऐडवोकेट
'जिनवाणी', कर्मसिद्धान्त विशेषाङ्क, १९८४, ३०. (क) प्रास्रवनिरोधः संवर:-तत्त्वार्थसूत्र ९।१
(ख) सर्वेषामास्रवाणां तु निरोधः संवरः स्मृतः-योगशास्त्र, ७९ पृष्ठ ४ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय २९, सूत्र ११ (घ) स्थानाङ्ग वृत्ति, स्था० १ (ङ) बृहद्नयचक्र, १५६ (च) राजवार्तिक, ९।१।६।५८७ (क) सपुभिद्यते द्वेधा द्रव्यभावविभेदतः । यः कर्मपुद्गलादानच्छेदः स द्रव्यसंवरः । भवहेतुक्रियात्यागः स पुनर्भावसंवर।
--योगशास्त्र, ७९-८०, पृष्ठ ४ (ख) स्थानाङ्ग १।१४ की टीका (ग) सप्त तत्त्वप्रकरण, हेमचन्द्रसूरि, ११२ (घ) तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि, ९।१ (ङ) द्रव्यसंग्रह, २०३४ (च) पंचास्तिकाय, २॥१४२, अमृतचन्द्र वृत्ति,
(छ) पंचास्तिकाय, २२१४२, जयसेन वृत्ति, ३२. (क) संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः। तन्निरोधे तत्पूर्वकर्मपुदगलादान
विच्छेदो द्रव्यसंवर:-सर्वार्थसिद्धि, ९.१४४०६।५ (ख) चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदु....चाणित्तं बहुभेया णायव्वा
भावसंवरविसेसा-द्रव्यसंग्रह, मूल, ३४-३५ (ग) स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्र:-तत्त्वार्थसूत्र, ९२ (घ) समिई गुप्ति परिस्सह-जइधम्मो भावणा चरित्ताणि । पणतिवीसदसवार
पंचभेएहि....सगवन्ना।
-नवतत्त्वप्रकरण, २५ (ङ) स्थानाङ्ग ।२।४१८ (च) समवायाङ्ग, ५
धम्मो दीवो संशार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ४२
क) एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा-सर्वार्थ सिद्धि, १४ ख) तत्त्वार्थ राजवातिक, अकलंक, १।४।११ (ग) कर्मणां विपाकतस्तपसा व क्षयो निर्जरा।
__-तत्त्वार्थभाष्य, हरिभद्रीयवृत्ति, १।४ घ) दशवकालिक, ९३ (ङ) नवतत्त्वप्रकरण, ११ भाष्य ९० देवगुप्तसूरिप्रणोत (च) स्थानाङ्ग, स्था० ५, उ० १, सूत्र ४०९ (छ) उत्तराध्ययनसूत्र, अ० १३, गाथा १६ (ज) पुव्वक उकम्म सडणं तु णिज्जरा। भगवती आराधना, मू० १८४९।१६५९ (झ) बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणं । --वारस अणुवेक्खा, ६६
(ब) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल, १०३ ३४. (क) भावनिर्जरा........द्रव्य निर्जरा । —द्रव्यसंग्रह, टीका ३६।१५०,१५१ (ख) सा पुणो हवेइ दुविहा। पठमा विवागजादा विदिया अविवागजाया य।
-भगवती पाराधना, मूल, १८४७-४८।१६५९ (ग) द्विविधा यथा कालोपक्रमिकभेदात् अष्टधा मूलकर्मप्रकृतिभेदात् । एवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पा भवति कमरसनिह रणभेदात् ।।
-राजवातिक १।९।१४।४०।१९ (घ) निर्जरा सा द्विधा ज्ञेया सकामाकामभेदतः ।
-धर्मशर्माभ्युदयम्, २१।१२२-१२३ ड) तत्त्वार्थसार, ७।२-४ (च) चन्द्रप्रभचरितम्, १८।१०९-११० (छ) द्वादशानुप्रेक्षा-निर्जरा अनुप्रेक्षा, १०३-१०४ (ज) स्थानाङ्गसूत्र ९।१६ (झ) काष्ठोपलादिरूपाणां विदानानां विभेदतः....।'
-शान्तसुधारस, निर्जराभावना २-३, (अ) नवतत्त्वप्रकरण, ११, देवगुप्तसूरिप्रणीत ।
(त) स्थानाङ्ग, १११६ की टीका ३५. (क) तदत्यन्तविमोक्षोपवर्ग:-सभाष्य न्यायसूत्र, ७।७।२२
(ख) ईश्वरकृष्णकारिका १ (ग) योगसूत्र, २-२६ (घ) दर्शन और चिन्तन, लेखक-पं. सुखलालजी, योगविद्या, पृष्ठ २५२ (ङ) प्रात्यन्तिको दुःखाभावः मोक्ष:-न्यायवातिक,
(च) न्यायसूत्र, ११११२ पर भाष्य ३६. धर्म, दर्शन, मनन और मूल्याङ्कन, लेखक --श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री, अध्यात्म----
धर्म/दर्शन का परमलक्ष्य, पृष्ठ २३६ ३७. दर्शन और चिन्तन, लेखक, पं. सुखलालजी, योगविद्या, पृष्ठ २५२
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जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष : रूप-स्वरूप / ४३
३८. जैनदर्शन में मूक्तिः स्वरूप और प्रक्रिया, लेखक-श्री ज्ञानमुनिजी महाराज
(जैनभूषण), श्री पुष्करमुनिप्रभिनन्दनग्रन्थ, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ ३१६ ३९. चिन्तन की मनोभूमि, लेखक, उपाध्याय अमरमुनि, पृष्ठ ६० ४०. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २९, सूत्र ७२
(ख) दशाश्रुतस्कन्ध, अ० ५, गाथा १३ (ग) मोक्ष असने । स प्रात्यान्तिक: सर्वकर्म निक्षेपो मोक्ष इत्युच्यते ।
-राजवार्तिक, ११११३७ (घ) धवला, १३१५,५,८२ (ङ) भगवती अाराधना, वि० ३८1१३४ (च) सर्वार्थसिद्धि, १।१ की उत्थानिका (छ) परमात्मप्रकाश, २०१० (ज) ज्ञानार्णव०, ३१६-१० (झ) द्रव्यसंग्रह (टीका), ३७ (अ) जं अप्पसहावादो-मूलोत्तर पयडिसंचियं मुच्चइ ।
-वृहद्नयचक्र, १६९ (त) आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्षः। -समयसार, प्रात्मख्याति, २८८
(थ) कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । -तत्त्वार्थसूत्र, १०१२ ४१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी, पृष्ठ ३३२ ४२. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३६, गाथा ५७
(ख) ज्ञानार्णव, ४२ (ग) तत्त्वार्थसूत्र, १०१५ (घ) नियमसार, मूल ७२ (ड) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, मूल ६८।१७७
(च) पंचसंग्रह, प्राकृत १ ४३. कदाचिदष्टसमयाधिकषण्मासाभ्यन्तो चतुर्गतिजीवराशितो निर्गतेषु"।
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड (जी० प्र०) १९७१४४११५ ४४. (क) सामान्यादेको मोक्षः । द्रव्यभावभोक्तव्यभेदादनेकोऽपि।
-राजवार्तिक, ११७।१४।४०।२४ (ख) धवला, १३।५, ५, ८२३।४८।१ ४५. (क) तं मुक्खं अविरूद्ध विहं खलु दव्व भावगदं ।-बृहद्नयचक्र, १५९
(ख) द्रव्यसंग्रह, टीका, ३७११५४७ ४६. (क) निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन""समस्तानां कर्मणां ।
-भगवती अाराधना, ३८.१३४११८ (ख) कर्मनिर्मूलनसमर्थः द्रव्यमोक्ष इति ।
-पंचास्तिकाय (ता. वृ.) ०१५।१७३।१० (ग) प्रवचनसार (ता. वृ०) ८४११०६।१५ (घ) द्रव्यसंग्रह, टीका २८1८५।१४
धम्मो दीवो संसार समुप में वर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ४४
४७. परमात्मप्रकाश, टीका, २।४।११७।१३ ४८. (क) प्रज्ञापनासूत्र, पद २१ से २९, उ० १, २, सूत्र २९३ से २९९
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय ३३ (ग) षट्खण्डागम, १३१५, ५, सूत्र १९।२०५ (घ) तत्त्वार्थसूत्र, ८।४ (ङ) गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, मूल, ८७ (च) द्रव्यसंग्रह, टीका, ३११९०१६ (छ) वृहद्नयचक्र, ८४ (क) पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशदद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र ८५ (ख) गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, मूल, २२३१५ (ग) षट्खण्डागम, ६।१९-१ सू०/पृ० १३।१४,१५।३१,१७।३४.१९।३७,२५१४८, - २९४४९,४५७७,४६७८
(घ) पंचसंग्रह, प्राकृत अधिकार, २।४ ५०. (क) धवला, १४।५,६, ७१३५२१६
(ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, मूल २४४१५०७
(ग) नियमसार, (ता. ३०) १०७ ५१. दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी, अध्याय-कर्मवाद, पृष्ठ २२८ ५२. कर्म, कर्मबन्ध और कर्मक्षय, लेखक-राजीव प्रचंडिया. एडवोकेट
जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषाङ्क १९८४ ५३. (क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ९,१,१२
(ख) योगशास्त्र, प्रकाश १२ (ग) ज्ञानसार, मोहाष्टक, विद्याष्टक, तत्त्वदष्टि-अष्टक
(घ) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल १९२ ५४. (क) उत्पत्ति-प्रकरण सर्ग ११७-११८, १२६ निर्वाण १२०-१२६ (ख) पातंजलि योगसूत्र, पाद १, सूत्र ३६, पाद ३, सुत्र ४८-४९ का भाष्य
पाद १ सूत्र १ की टीका। ५५. प्रो० सि० वि० राजबाड़े-सम्पादित मराठी भाषान्तरित मज्झिमनिकाय सूत्र
६, पृ० २, सू० २२ पृ० १५, सूत्र ३४ पृ० ४, सू० ४८ पृ० १० ५६. (क) पंचसंग्रह, प्राकृत, १।३।।
(ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड, मूल ८।२९ ५७. (क) षट्खण्डागम, १११,१सू० ९-२२।१६१-१९२
(ख) राजवार्तिक, ९।१११११५८८१८
(ग) मूलाचार, ११९५-११९६ ५८. (क) अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा"बाह्यात्मान्तरात्मा च ।
---अध्यात्ममत परीक्षा, गाथा १२५ (ख) योगावतारद्वात्रिंशिका
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जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष रूप-स्वरूप / ४५
५९. (क) उत्तराध्ययनसूत्र २०१६
(ख) कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तपः । सर्वार्थसिद्धि ९०६ (ग) तत्त्वार्थसार, ६।१८
(घ) कर्मदहना तपः । राजवार्तिक ९।१९।१८
(ङ) चारित्रसार, १३३।४
(च) पद्मनन्दिपंचविशतिका, १९८
1
६०. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०1७ से ९ (ख) मूलाचार, ३४५, ३४६
(ग) सर्वार्थ सिद्धि ९१९
(घ) चारित्रसार, १३३ (ङ) तस्वार्थसूत्र ९०१९-२० (च) भगवती आराधना, २०८
६१. ( क ) उत्तराध्ययनसूत्र, २८ । ३०-१४
(ख) तत्वार्थ सूत्र, ११२, ४
(ग) पंचास्तिकाय २१०६
(घ) दर्शनपाहुड़, १९
(ङ) पंचसंग्रह, प्राकृत, ११५९
(च) मूलाचार, २०३
(छ) द्रव्यसंग्रह, ४१
(ज) वसुनंदि श्रावकाचार, १०
(झ) धवला, १०१,१.४
(ञ) समयसार, तात्पर्याख्यावृति १५५
६२ (क) उत्तराध्ययनसूत्र, प्र०२८, गाथा ३०
(ख) दर्शनपाहुड़ मूल २१,
7
६३. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २८, गाषा २० (ख) ज्ञानार्णव, ६।५४
६४. ( क ) रयणसार, ५४, १५८
(ख) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, २४,३६
६५. स्थानाङ्गसूत्र स्थान २ ० १ सूत्र ७१
६६. (क) नन्दीसूत्र, गाथा ८०
(ख) तत्त्वार्थसूत्र १-१२
( ग ) धवला, ११, १, १ ३७ १
६७. (क) भगवतीयाराधना, मू० ६४१
(ख) शीलपाहुड, मू० ५, (ग) मुलाचार, ८९७
धम्मो दीयो
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ४६
६८. (क) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र, अ० १, सू० १
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २८, गाथा १-३ (ग) तिविधे सम्मे पण्णत्ते, तंजहा नाणसम्मे, दंसणसम्मे चारित्तसम्मे ।
-स्थानाङ्गसूत्र, स्था० ३, उ०४; सूत्र १९४
-मंगलकलश ३९४, सर्वोदयनगर आगरा रोड, अलीगढ़ (उ. प्र.)
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एकात्मकता के साये में पली- पुसी हमारी संस्कृति
[] डॉ. भागचन्द भास्कर, डी. लिट्
।
संस्कृति व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र की एक अजीब नब्ज हुआ करती है जिसकी धड़कन को देख-समझकर उसकी त्रैकालिक स्थिति का अन्दाज लग जाता है । हमारी भारतीय संस्कृति में उतार-चढ़ाव और उत्थान-पतन बहुत प्राये पर सांस्कृतिक एकता कभी विच्छिन्न नहीं हो सकी । उसमें एकात्मकता के स्वर सदैव मुखरित होते रहे । इतिहास के उदयकाल से लेकर आज तक इस तथ्यात्मक वैशिष्ट्य को हम सहेजे हुए हैं राष्ट्र एक सुन्दर मनमोहक शरीर है। उसके अनेक अंगोपांग हैं जिनकी प्रकृति और विषय भिन्न-भिन्न हैं । अपनी-अपनी सीमा से उनका बंधाव है, लगाव है और इसी लगाव से उनमें परस्पर संघर्ष भी होते । क्रोध, ईर्ष्या आदि विकारभावों से उनमें विकारभाव भी उत्पन्न होते हैं । इन सबके बावजूद वे आत्मा से पृथक् नहीं हो पाते । श्रात्मा के नाम पर उनमें एकात्मकता सदैव बनी रहती है । यह एक ऐसी अन्विति है जिसमें बाह्यतत्व भी चिपक जाते हैं, रम जाते हैं और एक ही तत्व में समाहित हो जाते हैं ।
हमारे राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की स्नेहिल श्रृंखला से जुड़ा हुआ है । राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है । जन-जन में शान्ति, सह-अस्तित्व और श्रहिंसात्मकता उसका चरम बिन्दु है । विविधता के पली- पुसी एकता सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का हृदयहारी पाठ पढ़ाती है ।
भाषा, धर्म, जाति और प्रादेशिकता एकता को विखण्डित करने के प्रबल कारण होते हैं । इनकी संकीर्णता से बंधा व्यक्ति न्याय और मानवता की दीवालों को लांघकर हिंसक, क्रूर और श्राततायी हो जाता है । उसकी दृष्टि स्वार्थपरता के जहर से दूषित हो जाती है, हेयोपादेय के विवेक से मुक्त हो जाती है और सीमितता की चकाचौंध में अँधया जाती है ।
भाषा अभिव्यक्ति का एक स्वतन्त्र और सक्षम साधन है, साध्य नहीं है । जहाँ वह साध्य हो जाता है वहाँ सक्तियों और संकीर्णताओंों के घेरे में मनोमालिन्य, झगड़े-फसाद और कलह की चिनगारियाँ विषाद उगलने लगती हैं, चेतना समाप्त हो जाती है, होश गायब हो जाता है, मात्र बच जाता है विरोध, वैमनस्य और प्रादेशिकता की सड़ी-गली भावनाएँ ।
एक वर्गविशेष धर्म को अफीम मानता आया है । उसका दर्शन जो भी हो, पर यह तथ्य इतिहास के पन्नों से छिपा नहीं है कि जब भी धार्मिक भावनाएँ उभरी, अल्पसंख्यकों पर मुसीबत आयी और धर्म के नाम पर उन्हें बुरी तरह कुचला गया । धर्म का यदि सुपाक न हुआ हो तो वह विष से भी बदतर सिद्ध होता है । धर्म के श्रन्तस्तल तक पहुँचना सरल नहीं होता । तथाकथित धार्मिक और राजनीतिक नेता जब धर्म के मुखौटे को प्रोढ़कर जनसमुदाय की भावनात्रों को
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ४८
उभारकर अपना उल्ल सीधा करते हैं तो वस्तुतः वे किसी देशद्रोही से कम नहीं हैं। भूसे से भरा उनका दिमाग और उगल भी क्या सकता है ? धर्म की गली संकरी होती नहीं, बना दी जाती है और उसे इतनी संकरी बना देते हैं हमारे अहंमन्य नेता कि उसमें दूसरा कोई प्रवेश कर ही नहीं पाता । प्रवेश के अभाव में खून-खच्चर की आशंकाएं बढ़ जाती हैं, संयम की सारी अर्गलाएं टूट । जाती हैं और अमानवीय भावनाओं का अनधिकृत प्रवेश हो जाता है।
हमारी सारी राजनीति का केन्द्रबिन्दु अाज धर्म और जाति बन गया है। धर्मनिरपेक्षता की बात मात्र धोखे की टट्टी हो गई है। शैक्षणिक संस्थाएं भी इस कराल गरल से बच नहीं पा रही हैं । कुर्सी पाने और बचाने की प्रवृत्ति ने हमारी नैतिकता पर कठोर पदाघात किया है। उसने नयी पीढ़ी के खून में अजीबोगरीब मानसिकता भर दी है, संस्कार दूषित कर दिये हैं और निकम्मेपन और कठमुल्लेपन को जन्म दिया है। आज भले और ईमानदार आदमी का जीवन भर होता जा रहा है। उसकी कराहती आवाज को सुनने वाला तो दूर, सान्त्वना देने वाला भी नहीं मिलता । ऐसी स्थिति में हमारा देश कहाँ जायगा, अनबुझी पहेली बन गई है।
इतिहास के भूले-बिसरे पन्नों को यदि हम खोलकर पढ़ें तो यह तथ्य उद्घाटित हुए देर नहीं लगेगी कि हमारी भारतीय संस्कृति का धवल प्रांचल कभी मैला नहीं हुआ। प्रार्यकाल से लेकर अभी तक वर्णव्यवस्था की मूल प्रात्मा जब भी अपने पथ से भटकी, समाज में क्रूरता के दर्शन अवश्य हुए पर उस स्वार्थपरता और अहंमन्यता को वास्तविकता का चोला नहीं माना जा सकता । वह तो वस्तुत: ऐसी सड़ांध रही है, जिसमें गर्दीली जातीयता और धार्मिक कट्टरता पनपी और न जाने कितने असहाय वर्गों को वैतरणी का विषपान करना पड़ा। ऐसे अपनीत, असामाजिक और अमानवीय दूषित कदमों को भारतीय संस्कृति का अंग नहीं कहा जा सकता। वह तो वस्तुतः विकृत मानसिकता की उपज रही है। प्रार्य-अनार्य की भेदकरेखा के पीछे भी ऐसे ही गहित तत्त्वों का हाथ रहा है। सरस्वती नदी का तट ऋग्वैदिक मन्त्रों से पवित्र हा, पर धर्म के नाम पर पशु-हिंसा से उसका पुनीत जल रक्तरंजित होने से भी नहीं बच सका। ऋग्वैदिककालीन नैतिक आदर्शों की व्याख्या उत्तरकाल में बदल देनी पड़ी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और यदवंशी भगवान कृष्ण ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियों की बीच की सूदढ कडियां बन गए और भारतीय संस्कृति का समन्वयात्मक मूल स्वर और अधिक मिठास लेकर गुञ्जित होने लगा।
ब्राह्मण परम्परा की अनुश्रुतियों में लिच्छवि, मल्ल, मोरिय प्रादि जातियों को व्रात्य कहा गया है। व्रात्य जन्मतः क्षत्रिय और प्रार्यजाति के थे, जो मूलतः मध्यदेश के पूर्व या उत्तर-पश्चिम में रहते थे। उनकी भाषा प्राकृत थी और वेशभूषा अपरिष्कृत थी। वे चैत्यों की पूजा करते थे। प्रार्य द्रविड़ों नाग और विद्याधर जाति से भी उनके सम्बन्ध थे। वर्णसंकरता उनमें बनी हुई थी। फिर भी अपने को वे क्षत्रिय मानते थे और श्रमण संस्कृति के पुजारी थे। उनके वैदिकयज्ञ विधान और जातिवाद के विरोधक प्रखर स्वर में आध्यात्मिकता और अहिंसात्मकता का दृष्टिकोण प्रमुख रूप लिये हए था। औपनिषदिक विचारधारा का उदय व्रात्यसंस्कृति का ही परिणाम है जहाँ वैदिक यज्ञों को फुटी नख की उपमा दी गई है।
श्रमण व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी-तरह परखा था और संजोया था अपने विचारों में। जैनाचार्यों और तीर्थंकरों ने समता, पुरुषार्थ और स्वावलंबन को प्रमुखता देकर जीवन-क्षेत्र को एक नया आयाम दिया जिसे महावीर और बुद्ध जैसे महामानवीय व्यक्तित्वों ने प्रात्मानुभूति के माध्यम से पुष्पित-फलित किया। श्रमणसंस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे-धाखे
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एकात्मकता के साये में पली-पुसी हमारी संस्कृति / ४९
से आयी विकृत परंपराओं के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया । इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता, अहिंसा-दृढ़ता थी जिसे उसने थाती मानकर कठोर झंझावातों में भी संभालकर रखा। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है वह निश्चित ही अनुपम माना जायगा । बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ पा भी गई पर जैनधर्म ने चरित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया ।
अब मात्र संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं था। पालि-प्राकृतअपभ्रश जैसी लोकबोलियों ने भी जनमानस की चेतना को नये स्वर दिये और साहित्यसृजन का नया प्रांगण खुल गया । इस समूचे साहित्य में एकात्मकता का जितना सुन्दर ताना-वाना हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है। अर्हन्तों और बोधिसत्वों की वाणी ने जीवन-प्रासाद को जितना मनोरम और धवल बनाया उतनी ही उनके प्रति आत्मीयता जाग्रत होती रही । फलतः हर क्षेत्र में उनका अतुल योगदान सामने आया। भावात्मक एकता की सृजनशक्ति भी यहीं से विकसित हुई।
इसी बीच मगध साम्राज्य का उदय हुआ। छोटे-मोटे साम्राज्य उसमें सम्मिलित हो गये पर उत्तर-पश्चिमी भारत विखण्डित होने लगा। विदेशी आक्रामकों ने इस दुर्बलता का भरपूर लाभ उठाया और सिकन्दर जैसे यूनानी योद्धा ने भारत जैसी वसुन्धरा को विजित करने का संकल्प किया। मालव- क्षुद्रक जैसी परस्पर विरोधी जातियों ने और पुरु जैसे समर्थ राजा ने उसका डटकर मुकाबला किया । फलतः उसे वापिस जाना पड़ा । इन विदेशी आक्रमणों का कोई विशेष गंभीर प्रभाव भारतीय समाज पर नहीं पड़ा। हाँ, चन्द्रगुप्त मौर्य को राजनीतिक स्थिरता और एकता स्थापित करने के लिए पृष्ठभूमि अवश्य तैयार हो गई। वह कुशल प्रशासक और सही राष्ट्रनिर्माता सम्राट् था जिसने भद्रबाहु के साथ दक्षिण प्रदेश की यात्रा की और समाधिमरणपूर्वक शरीर त्याग किया।
अशोक (268-69 ई. पू.) तो किसी एक संप्रदाय का होते हुए भी सम्प्रतिपत्तिवादी था। उसकी असाम्प्रदायिक मनोव त्ति, धार्मिक सहिष्णुता, अहिंसा, सद्धर्मप्रचार, सार्वभौमिकता, लोकधर्मपरिपालन आदि जैसे तत्त्व अशोक के मांगलिक कार्यों में अन्यतम थे। ब्राह्मण और श्रमणवर्ग बड़े प्रेमपूर्वक रहते थे। उनमें धर्मपरायणता अ हुई थी।
मौर्यसाम्राज्य के पतन के बाद पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण साम्राज्य की स्थापना की। आन्ध्र-सातवाहन आये। जिन्होंने वैदिक संस्कृति का अच्छा खासा विकास किया। प्राकृत भाषा को विशेष प्राश्रय मिला। साथ ही अन्य धर्मों और भाषामों का भी विकास होता रहा। कलिंगराज खारवेल ने इस विकास-शृखला को और भी आगे बढ़ाया। इसके बाद शक, यवन, पह्लव और कुषाण आये। वे भी भारतीयता के रंग में समा गये । मेनान्डर, कनिष्क आदि का निदर्शन हमारे समक्ष है ही। अश्वघोष, नागार्जुन, हाल, घटसेनाचार्य आदि जैसे विद्वानों ने साहित्यिक क्षेत्र में पदार्पण किया। मृत्तिकला के क्षेत्र में गान्धारकला ने एक नयी दृष्टि-सृष्टि दी। मथुरा कला का भी अपने ढंग का विकास हुआ जहाँ जैन-बौद्ध-वैदिक तीनों सम्प्रदाय समान रूप से विकास करते रहे।
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चतुर्थ खण्ड | ५०
गुप्तकाल को हमारे इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद जो विघटन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी वह गुप्तयुग में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना से समाप्तप्राय हो गई। इस काल में सुदृढ़ सांस्कृतिक एकता ने चरम विकास किया । संस्कृत का विशेष प्रचार हुआ। महाकवि कालिदास, शूद्रक, सुबन्धु, आर्यभट्ट, वराहमिहिर दिङ नाग, . वसुबन्धु, पूज्यपाद, सिद्धसेन आदि जैसे प्रखर विद्वान इस क्षेत्र में पाये और उन सभी ने समन्वयवादिता पर जोर दिया। इसी युग में देवधिगणि द्वारा ४५३ ई. में वल्लभी में जैनागमों का संकलन हुआ। वैष्णव, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्म सद्भावपूर्वक रहते रहे । गुप्त नरेश सर्वधर्मसहिष्ण थे। कला के सभी क्षेत्रों ने इस काल में पर्याप्त विकास किया।
गुप्तकाल के बाद राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गई, हणों का आक्रमण हा और मैत्रिकों और मौखरियों के राज्यों ने राजनीतिक प्रभुता पाने का असफल प्रयत्न किया। इसी पृष्ठभूमि में थानेश्वर का वर्धनवंश सामने आया। हर्ष को पुलकेसिन् द्वितीय, शशांक, गोड़, अोढ, कोंगद आदि अनेक राजाओं से युद्ध करना पड़ा। वह प्राचीन भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट हो या न हो पर कन्नौज की वौद्ध परिषद् और प्रयाग का सर्वधार्मिक सम्मेलन, उसकी धार्मिक सहिष्णुता का संदर निदर्शन है। उसने श्रमण और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं को विकास करने के पूरे अवसर दिये, वह विद्वानों का प्रश्रयदाता तो था ही, स्वयं भी कुशल संस्कृतग्रंथकार था।
हर्ष की मृत्यु (६४६ ईस्वी) के उपरांत उत्तर भारत में छोटे-छोटे राज्यों का उदय हमा, कन्नौज के यशोवर्मन, मिहिरभोज, गहढ़वाल, कश्मीर का ललितादित्य, बंगाल के पाल, सेन, चन्देल, परमार, कलचुरि आदि कितने ही छोटे-मोटे राजा हुए जिन्होंने हमारी संस्कृति को सुरक्षित ही नहीं रखा, बल्कि उसे बहुत कुछ दिया भी है । बाकाटक, राष्ट्रकूट आदि राजवंशों ने भी सांस्कृतिक एकता के यज्ञ में अपना योगदान दिया।
इस समूचे काल में जातीय व्यवस्था दृढ़तर अवश्य होती रही, अनेक जातियों का उदय भी होता रहा पर उनमें बिखराब अधिक नहीं आया। राजाओं ने व्यक्तिगत धर्म का पालन करते हुए भी सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखा।
ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान शुंगकाल से प्रारंभ हुआ और लगातार वह सशक्त होता गया। पूर्व मध्ययुग में पाल, चेदि, चंदेल आदि राजाओं ने शैव संप्रदाय को पनपाया तो बंगाल से लेकर मध्य तथा पूर्वी-उत्तरप्रदेश तथा दक्षिणापथ में वैष्णवमत का अधिक बोलवाला रहा । इसी काल में शक्ति और नाथसंप्रदाय भी उदित हुए, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, गणेश, स्कन्द, सूर्य, अष्ट दिक्पाल श्रादि की पूजा का प्रचलन बढ़ा और अवतारवाद का खूब प्रचार-प्रसार हुआ जिसका प्रभाव समग्र कला और संस्कृति पर पड़ा ।
बौद्धधर्म ने पूर्व मध्यकाल में ह्रास की ओर कदम बढ़ाये । चचनामे के अनुसार सिन्ध में बौद्धधर्म काफी प्रभावक स्थिति में रहा । बंगाल के पालवंश ने भी इसे मजबूत आश्रय दिया। पर मौलिकता से हट जाने पर और तान्त्रिक विचारधारा के प्रवेश कर जाने पर उसका प्रभाव क्षतिग्रस्त हो गया। विदेशों में अवश्य उसने अपनी लोकप्रियता हासिल की।
पूर्वमध्यकाल में जैनधर्म अपेक्षाकृत अधिक अच्छी स्थिति में रहा । विशेषतः दक्षिण भारत में उसे अच्छा राज्याश्रय मिला । शायद यह इसलिए हुआ कि जैनधर्म वैदिकधर्म के समीप अधिक प्राता गया । कला के क्षेत्र में उसका यह रूप आसानी से देखा जा सकता है।
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एकात्मकता के साये में पली- पुसी हमारी संस्कृति / ५१
जैनधर्म प्रारम्भ से ही वस्तुतः एकात्मकता का पक्षधर रहा है। उसका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त पहिंसा की पृष्ठभूमि में एकात्मकता को ही पुष्ट करता रहा है, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। हिंसा के विरोध में अभिव्यक्त अपने प्रोजस्वी और प्रभावक विचारों से जैनाचार्यों ने एक ओर जहाँ दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न किया वहीं मानव-मानव के बीच पनप रहे अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त करने का भी मार्ग प्रशस्त किया । समन्तभद्र ने उसी को ही सर्वोदयवाद कहा था। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने इसी के स्वर को नया आयाम दिया था। प्रारम्भ से लेकर अभी तक का सारा जन साहित्य एकात्मकता की प्रतिष्ठा करने में ही लगा रहा है । इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं जिसमें जैनधर्मावलम्बियों ने किसी पर प्राक्रमण किया है और एकात्मकता को धक्का लगाया है। भारतीय संस्कृति के विकास में उसका यह अनन्य योगदान है जिसे किसी भी कीमत पर झुठलाया नहीं जा सकता।
विशेष तो यह है कि विभिन्न संप्रदायों के उदित हो जाने के बावजूद धार्मिक सहिष्णुता कम नहीं हुई । राजाओं ने अपने मन्तब्य पालन करते हुए भी दूसरे धर्मों के प्रायतनों को पर्याप्त दान दिया । इसका फल यह हुआ कि हमारी एकता कभी मर नहीं सकी बल्कि उसमें नये खून का संचार होता रहा। धर्म और संस्कृति के प्रादान-प्रदान ने देश में विविधता के साथ ही एकता का रूप बनाये रखा ।
इसी बीच मुस्लिम आक्रमण हुए उनके भयंकर और निर्दयतापूर्ण अत्याचारों से समूचा उत्तरापथ प्राक्रान्त हो गया गुजरात के वघेले, देवगिरि के यादवों और द्वारसमुद्र के होसलों आदि का भी प्रन्त सा हो गया पर विजयनगर राज्य का स्वातन्त्र्य प्रेम वे नष्ट नहीं कर सके। उसकी राजनीति, समदर्शिता और सदाशयता की स्थापना करने वाले संगम सरदार के पांच वीर पुत्र थे जिन्होंने (३४६ ई. में) विजयनगर राज्य की स्थापना की और हरिहरराय उसका प्रथम राजा बना। इस राज्य में जैन, वैष्णव, लिंगायत, वीरशैव, सद्शैव सभी शान्ति से रहते थे उनकी उदारता और धर्मसहिष्णुता के कारण बहमानियों और मुहम्मदों के साथ उसके और उसके उत्तराधिकारियों के युद्ध होते रहे पर प्रजा में कभी वैमनस्य उत्पन्न नहीं हुआ। यदि हुआ भी तो राजा की दूरदर्शिता के कारण शान्त कर दिया गया। जैनों और वैष्णवों के बीच हुए विवाद में बुक्काराय का निष्पक्ष निर्णय इसका उदाहरण है । सकल वर्णाश्रमधर्मरक्षक, सर्वधर्मसंरक्षक जैसे विरुद्ध धारण करने में राजा लोग अपना सम्मान मानते थे । कृष्णदेय की धर्मनिरपेक्षता तो प्रसिद्ध है ही। बाद में मुसलमानों ने विजयनगर साम्राज्य को बुरी तरह से बर्बाद किया ।
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इसके बाद लगातार मुस्लिम आक्रमण होते रहे । महमूद गजनवी एक धर्मान्ध विध्वंसक एवं बर्बर लुटेरा था ही । मुहम्मद गौरी, मुहम्मदविन बख्तियार खिलजी आदि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने बेरहमी से मन्दिरों को लूटा और पुस्तकालय जलाये । एकसूत्रता के प्रभाव के कारण हिन्दू राजे परास्त होते रहे हठात् धर्मपरिवर्तन कराना मुस्लिम प्रशासकों की धर्मान्धता का निदर्शन है। पर निजामुद्दीन घोलिया, शेख सलीम चिश्ती यादि कुछ ऐसे भी मुस्लिम थे जिन्होंने इस्लाम को भारतीयता के रंग में रंग दिया । मलिक मुहम्मद जायसी जैसे सूफी कवियों ने प्रेमगाथाओं का सृजन किया और अमीर खुसरो जैसे कवि ने हिन्दी-संस्कृत - उर्दू मिश्रित भाषा के प्रचलन का प्रयास किया। इसे उनकी एकात्मकता का उदाहरण कह सकते हैं ।
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चतुर्थखण्ड / ५२
इसी काल में निर्गुणभक्ति और प्रारममार्ग का भी प्रचार हुआ। अनेक समाज-सुधार प्रान्दोलन हुए पूर्वोत्तर भारत में स्वामी रामानन्द, सन्त कबीर, गुरु नानक, महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, बंगाल में चैतन्यदेव, गुजरात में लोकाशाह और बुन्देलखण्ड में तारण स्वामी जैसे सन्त हुए जिन्होंने एकात्मकता के स्वर में नयी जीवन-पद्धति दी । यह दार्शनिक और सामाजिक चिन्तन का परिणाम था।
दर्शन अध्यात्म चेतना का निष्पन्द है, स्वानुभूति के निकष पर फलित खरा स्वर्ण है, विचारों की गहराई से उद्भूत अमूल्य रत्न है। वह चेतना को जाग्रत करने का सुन्दरतम साधन है । दर्शन के शाश्वत मूल्य कालखण्ड से परे होते हैं । उसके सामयिक तत्त्व परिस्थितियों और सीमाओं से टक्करें लेते हुए लुढ़कते पत्थर के समान अपने स्वरूप को बदलते रहते हैं । शाश्वत मूल्यों से शून्य दर्शन काल के कराल चपेटों में अपने अस्तित्व को खो देता है।
जैनदर्शन सामयिक कम और शाश्वत अधिक रहा है। जैनेतर दर्शनों की अपेक्षा जितनी कम सामयिकता जैनधर्म और दर्शन में रही है, उतनी अन्यत्र दिखाई नहीं देती । इसी तथ्य ने उसे अच्छी तरह गौरवपूर्वक जीवित रखा है। शाश्वत मूल्यों की अपरिवर्तनीयता मानव मूल्यों के साथ संबद्ध रहती है। सामयिक मूल्य सीमित, क्षणिक तथा परिस्थितिजन्य रहते हैं। जैनदर्शन मानवतावादी है। उसके सिद्धान्त कभी भी आसामयिक और कुण्ठित नहीं हुए। तीर्थंकर महावीर ने धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक क्षेत्र में जो जबर्दस्त क्रान्ति की वह चैतन्यमूलक रही है जिसमें पूर्ण अहिंसा, समता और एकात्मता के संगीत भी स्वर प्रतिष्ठित हुए हैं। मूलतः निवृत्तिपरक होते हुए भी प्रवृत्ति का यथोचित समन्वय करना उसकी अन्यतम विशेषता रही है। सभी धर्म पर सम्प्रदायों तथा वर्गों को बिना किसी भेदभाव के एक साथ एक फलक पर समन्वित रूप से बैठाने का अभूतपूर्व कार्य जैनसंस्कृति का प्रभेश अंग रहा है। यही उसका प्राण है, यही उसकी चेतना है।
इस प्रकार भारतीय इतिहास और संस्कृति में देशी-विदेशी साक्रमण प्रत्याक्रमण चलते रहे फिर भी सांस्कृतिक पतन से हम काफ़ी बचे रहे। जैनों में अनेकान्तवाद, बौद्धों के विभज्यवाद, शंकर के मायावाद, रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद, माधवाचार्य के द्वैतवाद और निम्बार्क के द्वैताद्वैतवाद ने एक ओर माध्यात्मिकता को प्रोत्साहन दिया तो दूसरी घोर सामाजिक क्षेत्र में एकात्मकता को प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया। अपवादात्मक स्थितियों को छोड़कर यह तथ्य साधारणतः सभी को स्वीकार्य होगा कि हमारी भारतीय संस्कृति का मूल स्वर एक राष्ट्र का रहा है । विघटन हुए भी तो परिवार के समान ही हुए। राष्ट्र से पृथक होने की बात कभी नहीं पायी एकात्मकता के साये में पली- पुसी हमारी संस्कृति आध्यात्मिकतासिक्त संस्कृति है, अहिंसाप्रधान संस्कृति है जो मानवीय कल्याण को पहला स्थान देती है । यही उसकी विशेषता है ।
--अध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग नागपुर विश्वविद्यालय न्यू एक्सटेंशन एरिया सदर नागपुर - ४४०००
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जैन समाज-दर्शन
10 प्रो. संगमलाल पाण्डेय, डी. लिट्.
जैनदर्शन के अनुशीलन से समाज-दर्शन के स्वरूप और आधार को जानने में बड़ी सहायता मिलती है। इस कथन को तर्कतः सिद्ध करने के लिए हम यहाँ जैनमत में उपलब्ध समाजदर्शन का विश्लेषण करेंगे और समाज के मूल उपादानों की खोज करेंगे। जैन विचारकों ने जिस समाज की अवधारणा की है उसके कुछ मूल प्राधार हैं जिन्हें हम यहाँ छह प्रतिष्ठाएं कहेंगे, क्योंकि 'प्रतिष्ठा' शब्द 'आधार' शब्द से अधिक सारगभित है। प्रतिष्ठा का अर्थ प्रागपेक्षा, प्राधार-स्तम्भ तथा मर्यादा होता है। ये छह प्रतिष्ठाएं हैं-(१) व्रत की प्रतिष्ठा, (२) श्रम की प्रतिष्ठा (३) अपरिग्रह की प्रतिष्ठा (४) अहिंसा की प्रतिष्ठा (५) अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा और (६) मानव की प्रतिष्ठा । जैनमत के अनुसार इन प्रतिष्ठानों पर ही मानवसमाज स्थित है। अत: मानव-समाज का स्वरूप समझने के लिए इन प्रतिष्ठानों का विश्लेषण करना आवश्यक है। इनसे सिद्ध होता है कि समाज केवल व्यक्तियों का बाह्य आरोपित संगठन नहीं है वरन समाज ब्रतधारी मानवों का अन्तःप्रतिष्ठित बाह्यस्वरूप है। १. व्रत की प्रतिष्ठा
कुछ पश्चिमी विद्वानों का कहना है कि समाज का प्राधार मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ तथा सहानुभूति, करुणा आदि संवेग हैं । जैन शब्दावली में कहा जाय तो इन पश्चिमी विचारकों के अनुसार समाज का आधार कषाय है, क्योंकि मूल प्रवृत्तियाँ और संवेग कषाय हैं। फिर कुछ पश्चिमी विद्वान् मानते हैं कि समाज का प्राधार संविदा (Contract) है और कुछ मानते हैं कि समाज का प्राधार मनुष्य की इच्छाओं को वैधानिक ढंग से सन्तुष्ट करने वाला राज्यादेश या संविधान है। किन्तु इन मतों के विपरीत जैनदर्शन मानता है कि समाज का मूलाधार व्रत है। प्रत्येक मनुष्य अपने तथा अन्य मनुष्यों के विकास के लिए कुछ व्रत लेता है। ऐसे व्रत बारह हैं। इनमें पांच अणुव्रत हैं, तीन गुणव्रत हैं और चार शिक्षाक्त हैं । ये बारह व्रत श्रावकाचार हैं अर्थात् साधारण मनुष्य के आचार हैं। इन व्रतों से मनुष्य अपनी जन्मजात प्रवृत्तियों, भावनामों और इच्छानों पर अंकुश लगाता है उनका परिमार्जन तथा परिष्कार करता है तथा अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति का सम्यक् प्रयोग करता है। इन्हीं व्रतों के फलस्वरूप एक मोर मनुष्य अपने को सच्चरित्र और सदाचारी बनाता है तथा दूसरी ओर वह समाज के स्वरूप का प्रादुर्भाव करता है। समाज मनुष्य की संस्कारित इच्छा का परिणाम है। फिर वह प्रत्येक मनुष्य को संस्कारित इच्छा का परिणाम है न कि मनुष्यों के प्रतिनिधियों की इच्छा का परिणाम है । अतएव समाज का आधार कषाय नहीं अपितु कषायाभाव है। इसी कषायाभाव को जैनदर्शन में गुणस्थान कहा गया है। गुणस्थान चौदह है। ये व्यक्ति के विकास की भूमिकाएँ हैं और साथ ही समाज की विभिन्न संस्थानों की आधारशिलाएँ भी हैं। वास्तव में गुणस्थान में श्रावकाचार और श्रमणाचार दोनों सम्मिलित हैं। प्रायः समाज का सम्बन्ध श्रावकाचार से
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चतुर्थ खण्ड/५४
अधिक जोड़ा जाता है । परन्तु जैसा आगे कहा जायेगा श्रमणाचार भी समाज के लिए विशेषरूप से आवश्यक है । अतः सम्पूर्ण गुणस्थानों का समाज में महत्त्व है। ये ब्रत की संस्था के विकास की अवस्थाएँ हैं।
जैनदर्शन के अनुसार जो व्रती नहीं है वह धार्मिक नहीं हो सकता। व्रत धर्म की . प्रथम आवश्यकता है। इसी प्रकार वह समाज की प्रथम प्राधारशिला या प्रतिष्ठा है । व्रत का अर्थ है वरण किया हुआ या ऐच्छिक । समाज ऐच्छिक है, वह स्वयंभू या नैसर्गिक नहीं है । वह मनुष्यों की इच्छा से जन्य है। प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वतन्त्र इच्छा से उसका वरण या चयन करता है। व्रती, व्रत और वात (संगठन)-ये तीन इच्छा-जगत् के आवासी तथ्य हैं । मनुष्य और समाज के बीच जो वास्तविक सम्बन्ध है वह व्रत है। यदि हम व्रत नहीं करते तो हम अपने को सामाजिक नहीं बना सकते । इस प्रकार जैसे धार्मिक होने के लिए, वैसे सामाजिक होने के लिए भी व्रत लेना आवश्यक है।
यहाँ यह उल्लेख-योग्य है कि समाज में वही संस्था या रीति-नीति चलती है जिसके लिए लोग व्रत या संकल्प करते हैं। यदि किसी अच्छे नियम का पालन करने के लिए अधिसंख्यक लोग व्रत और संकल्प न करें तो वह नियम धर्म-ग्रन्थों अथवा संविधान या कानून की पुस्तकों में ही बन्द रह जायगा और उनके अनुसार समाज में व्यवस्था या कार्य नहीं होगा। इस प्रकार यदि तर्क-दृष्टि से देखा जाय तो सिद्ध होता है कि जैनियों का यह कहना बिल्कुल सत्य है कि व्रत ही समाज की प्राद्य प्रतिष्ठा है।
२. श्रम की प्रतिष्ठा
जैन दर्शन ने व्रत की प्रतिष्ठा के अनन्तर श्रम को महत्त्व दिया है। प्रत्येक मनुष्य के लिए श्रम करना आवश्यक है। श्रम अर्थमात्र का मूल है, किन्तु वह मात्र शारीरिक श्रम नहीं है। वह शारीरिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक-तीन प्रकार का माना गया है। शारीरिक श्रम शरीर से होता है और स्थल है। बौद्धिक श्रम बुद्धि से होता है और सूक्ष्म है। स्वाध्याय और मनन उसके दो प्रकार हैं। इनसे भिन्न प्राध्यात्मिक श्रम है जो प्रतिसूक्ष्म है और जो आत्मा के द्वारा सम्पन्न होता है। जब तक मनुष्य बाह्य विषयों की ओर उन्मुख रहता है और उन्हीं का ध्यान-चिन्तन करता रहता है तब तक उसकी आत्मा बहिरात्मा है। फिर जब वह सम्यक् दृष्टि प्राप्त करके आन्तरिक भाव, इच्छा और ज्ञान के जगत् का अनुचिन्तन करता है तब उसकी आत्मा अन्तरात्मा हो जाती है । अन्त में पुनः जब वह बहिः और अन्तः के द्वन्द्व से ऊपर उठकर स्थितप्रज्ञ होता है तब उसकी आत्मा परमात्मा हो जाती है। बहिरात्मा से परमात्मा होने तक पहले बौद्धिक श्रम होता है और अन्त में आध्यात्मिक श्रम । शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिक कहे जाते हैं और आध्यात्मिक श्रम करने वाले श्रमण । इनके मध्य में बौद्धिक श्रम करने वाले हैं जिन्हें श्रुतिधर, प्राचार्य या उपाध्याय कहा जाता है ।
शारीरिक श्रम करने वाले को कम पुरस्कार, अर्थ या महत्त्व दिया जाय और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक श्रम करने वाले को अधिक दिया जाय-ऐसा जैनमत नहीं कहता है । उसका मत है कि प्राध्यात्मिक श्रम करने वालों के पास बिल्कुल अर्थ नहीं रहना चाहिए, बौद्धिक श्रम करने वालों के पास आवश्यकता से अधिक अर्थ नहीं होना चाहिए और शारीरिक श्रम करने वालों के पास सबसे अधिक अर्थ (धन) होना चाहिए। इस प्रकार जैनमत उस अर्थव्यवस्था
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का विरोधी है जिसमें श्रमिक को पेटभर भोजन करने के लिए भी अर्थ नहीं मिलता है। वह ऐसी अर्थव्यवस्था का हिमायती है जिसमें प्रत्येक श्रमिक को पर्याप्त अर्थ मिले। इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए गुणवत और शिक्षावत का विधान किया गया है। शिक्षाव्रत में सामायिकव्रत, देशावकाशिकवत, पौषधोपवास व्रत तथा अतिथिसंविभागवत हैं जिनके बारे में जैनमत के ज्ञातायों को अच्छी तरह जानकारी है ।
३. अपरिग्रह की प्रतिष्ठा
जैनमत का निश्चित मत है कि प्राध्यात्मिक श्रम करने वाले को पूर्ण अपरिग्रह का पालन करना है। अपरिग्रह का सिद्धान्त जैनमत के अनुसार समाज की धुरी है। सभी लोग परिग्रह के इर्द-गिर्द रहते हैं, किन्तु जो लोग इससे पूर्ण विरक्त और अनासक्त हो जाते हैं, जो लोग त्याग करते हैं, वे ही समाज की व्यवस्था के संचालक होते हैं । उनके लिए अपरिग्रह का अर्थ सर्वपरिग्रह से विरमण है। उनके लिए अपरिग्रह महाव्रत है। बौद्धिकों के लिए यह महाव्रत नहीं है, उनके लिए यह एक अणुव्रत है। परन्तु अणुव्रत क्या सभी मनुष्यों के लिए नहीं है ? अतः प्रश्न उठता है कि बौद्धिकों के लिए अणुव्रत से अधिक और क्या कर्तव्य है ? इसके उत्तर में जैनदार्शनिक गुणव्रत का प्रावधान करते हैं । गुणव्रत तीन हैं-दिशापरिमाणव्रत, उपभोग-परिभोगपरिमाणवत और अनर्थदण्डविरमण व्रत । ये तीनों व्रत विशेषतः अपरिग्रह में सहायक हैं। इनके पालन से सिद्ध होता है कि बौद्धिकों को सामान्य जनों से अधिक अपरिग्रह करना चाहिए। समाज-सेवी में साधारण सामाजिक से अधिक त्याग होना चाहिए। इसका उल्टा उचित नहीं है।
परिग्रह या अर्थसंग्रह ऐसा विषय है जिसको समाज केवल व्यक्ति की इच्छा पर छोड़ नहीं सकता । वास्तव में अर्थ समाज का होता है और इसलिए उसके उत्पादन तथा वितरण का भार भी समाज के ऊपर रहता है । अर्थ की व्यवस्था के लिए समाज उद्योग तथा राज्य का निर्माण करता है। राज्य को अपनी व्यवस्था के लिए कर-व्यवस्था स्थापित करनी पड़ती है। जैनमत के अनुसार राज्य को नागरिकों की सम्पत्ति और आय पर कर लगाने का अधिकार है और नागरिकों का कर्तव्य है कि वे अपनी संग्रह-प्रवृत्ति को मर्यादित करें। राज्य और नागरिक दोनों अपनी मर्यादा के अन्दर ही अर्थ-संग्रह कर सकते हैं। जैसे मर्यादा से अधिक अर्थ-संग्रह करने वाला नागरिक जघन्य है वैसे ही वह राज्य भी जघन्य है जिसमें प्रजा को आर्थिक कष्ट रहता है और उस पर भी जो राज्य प्रजा से अर्थ-कर वसूलता रहता है। राज्य का मूल प्रकार्य (फंक्शन) प्रजा का हित करना है। यही प्रकार्य उसके अस्तित्व का लक्षण भी है । इस प्रकार्य के अतिरिक्त उसका कोई शुद्ध अस्तित्व नहीं है। उसका अस्तित्व प्रकार्यात्मक है, द्रव्यात्मक नहीं।
पुनश्च आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए तीन उपाय हैं। पहला राज्य को प्रगतिशील कराधान की व्यवस्था चलानी चाहिए अर्थात नागरिकों की आय के अनुसार उनके ऊपर कर लगाया जाना चहिए । दूसरे, नागरिकों को अपरिग्रह का व्रत लेकर उसके पालन में स्वेच्छा से प्रगति करनी चाहिए । तीसरे, समाज में श्रमिकों, कृषकों, शिल्पकारों, व्यवसायियों
आदि की श्रेणियाँ या संगठन होने चाहिए और उनके पास इतना धन होना चाहिए जिससे वे अपने शिल्प और व्यवसाय की समुचित व्यवस्था और विकास करते रहें। ये श्रेणियाँ सामाजिक
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चतुर्थ खण्ड / ५६
शक्तियाँ हैं। इनका दायित्व अपने सदस्यों को रोजगार देना है। ऐसी श्रेणियाँ प्राचीन काल में थी। आज इनका पुनरुद्धार करना है। इस प्रक्रिया में नवीनीकरण भी अपेक्षित है। अतः इन्हें श्रेणियाँ न कहकर व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्था का नाम देना है और इनकी व्यवस्था में गुणानुरूप सुधार करना है। ४. अहिंसा की प्रतिष्ठा
अहिंसा जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। उसमें अहिंसा की ऐसी व्यापक परिभाषा की गयी है कि समस्त सद्गुण या मूल्य अहिंसा के ही विकास सिद्ध होते हैं। अहिंसा का अर्थ जीव-हिंसा से विरमण ही नहीं किन्तु जीवन से प्रेम करना भी है। हिंसा समाज की आत्मघाती बुराई है। उसके बढ़ते रहने से समाज का अस्तित्व ही नष्ट होने लगता है। वह मानव-समाज को बर्बर या जंगली बना देती है। उसके रहते मात्रयन्याय तथा अराजकता रहते हैं । अतः सभ्यता हिंसा के परित्याग से प्रारम्भ होती है। ज्यों-ज्यों हिंसा छुटती है त्यों-त्यों अहिंसा का विकास होता है। पूर्ण अहिंसा की स्थापना से वैरत्याग हो जाता है। शत्रुभाव नष्ट होता है, मित्र भाव प्रकट होता है। ये सभी गुण सभ्य समाज के लक्षण हैं, इसलिए कहा जाता है कि अहिंसा पर ही सभ्य समाज प्रतिष्ठित है। अहिंसा का पालन करने के लिए समाज की स्थापना नहीं होती, वरन् इस नीति की भी स्थापना होती है जो उस समाज की प्रतिजीविता का हेतु है। यह नीति चार प्रकार की है, साम, दान, दण्ड और भेद । इनसे भिन्न युद्ध है जो वस्तुतः नीति की असफलता और बर्बरता की वापिसी है। इसलिए राज्य-संचालन के लिए साम, दान, दण्ड और भेद, इन चार नीतियों का ही प्रयोग होना चाहिए और हर संभव प्रकार से युद्ध को रोकने का प्रयास करना चाहिए। जिस राज्य में केवल दण्ड और भेद के सिद्धान्तों का पालन होता है वह जघन्य है। इसके साथ उसमें शान्ति (साम) और समवितरण (दान) के सिद्धान्तों का पालन भी अपेक्षित है। ५. अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा
अनेकान्त की प्रतिष्ठा समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि समाज की अनेक बुराइयाँ तथा विविध प्रकार की हिंसाएँ एकान्तवाद को मानने के कारण होती हैं। एकान्तवाद का अर्थ है विचार की एक अति । जो लोग सोचते हैं कि उनका मत ही एकमात्र सत्य है और अन्य मनुष्यों के मत असत्य हैं, उनका मत एक अन्त या अति है। उससे कद्ररता धर्मान्धता, असहिष्णुता तथा हिंसा उत्पन्न होती है। विभिन्न धर्मों के पारस्परिक संघर्ष और विभिन्न विचारधाराओं के विवाद इसके उदाहरण हैं। इन संघर्षों और विवादों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनेकान्तवाद आवश्यक है जिसके अनुसार प्रत्येक मत या विचार किसी सन्दर्भ-विशेष में ही सत्य होता है और वह निरपेक्ष सत्य नहीं है। सभी सत्य सापेक्ष सत्य हैं । अतएव उन सब का सामंजस्य हो सकता है। अथवा वे सभी अपने-अपने अनुयायियों के लिए सत्य हो सकते हैं । इस प्रकार विभिन्न मतों की सह स्थिति संभव ही नहीं किन्त अपेक्षित भी है, ऐसा मानना अनेकान्तवाद है। स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद प्रत्येक मनुष्य को नम्रता सहिष्णता, उदारता और करुणा की शिक्षा देता है। इनके बिना समाज की विविधता जी नहीं सकती। इसलिए अनेकान्तवाद समाज की आवश्यक प्रागपेक्षा या प्रतिष्ठा है। वह अहिंसा का भी प्राधार है । इसलिए निष्कर्षतः कहा जाता है कि विचार में जो अनेकान्तवाद है वही
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जैन समाज-दर्शन | ५७
प्राचार में अहिंसा है। अहिंसा और अनेकान्तवाद एक-साथ चलते हैं, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ६. मानव की प्रतिष्ठा
जैनदर्शन मानववादी है । इसके कई अर्थ हैं। पहला, वह मनुष्य से उच्चतर किसी प्राणी को नहीं मानता है। ६३ शलाका-पुरुष जैनधर्म के आदर्श हैं। इनमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव या अर्धचक्रवर्ती और नौ प्रति-वासुदेव आते हैं । ये सभी मनुष्य हैं । मनुष्य से भिन्न कोई ईश्वर या परमात्मा है-ऐसा जैनदर्शन नहीं मानता । दूसरे, वह प्रत्येक मनुष्य की आत्मा को स्वतंत्र सत् मानता है और अनेक के अस्तित्व में विश्वास करता है । वह सर्वेश्वरवादी तो नहीं है, क्योंकि मानव आत्मानों के अतिरिक्त अन्य जीवों की
आत्माओं को भी वह मानता है। वस्तुतः उसे सर्वात्मवादी (पैन साइकिज्म) कहा जाता है । परन्तु इन सभी प्रात्माओं में मानव-प्रात्माएँ श्रेष्ठ हैं। तीसरे, मानव-मात्माओं में भी श्रेष्ठता का तारतम्य है। नैतिक और सामाजिक सिद्धान्त के रूप में जैनमत मानववाद को गहराई से स्वीकार करता है। वह मानव के सद्गुणों के विकास पर बल देता है।
पुनश्च मानववादी होते हये भी जैनमत जड़वादी या लोकायतवादी नहीं है। उलटे उसने लोकायतवाद का खण्डन करके सिद्ध किया कि जीव या जीवात्मा अजीव या जड़ से भिन्न है, क्योंकि उसका लक्षण चैतन्य है। जीव ज्ञानवान्, इच्छावान् और क्रियावान् है। अजीव ऐसा नहीं है। मनुष्य के अतिरिक्त भी जीव हैं किन्तु मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें बुद्धि और मुमुक्षा है जो अन्य जीवों में नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य का विकास हो सकता है। बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा-ये तीन मनुष्य के विकास की अवस्थाएँ हैं। जन्म से प्रत्येक मनुष्य बहिरात्मा है। साधना से वह क्रमशः अन्तरात्मा और परमात्मा होता है। परमात्मा होना ही प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य है। इस तरह जैनमत के अनुसार प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा का सामर्थ्य है । किन्तु यहाँ परमात्मा का अर्थ जगत् का कर्ता या पिता नहीं है। कोई भी मानव परमात्मा हो सकता है और परमात्मा अनेक हैं। परमात्मा महान् आत्मा है। वह आदर्श मानव है।
जैनमत यद्यपि वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद को अनेकान्तवाद के आधार पर उदारतापूर्वक और सहिष्णुतापूर्वक स्वीकार करता है तथापि वह वर्ण और जाति को सिद्धान्ततः अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण और जाति के पक्ष में नहीं है । कर्म के आधार पर वह जाति और वर्ण को व्यवहार में स्वीकार करता है। परन्तु सिद्धान्ततः वह मनुष्यों में अध्यात्म के आधार पर केवल दो भेद करता है । ये दो भेद हैं---श्रावक और श्रमण । श्रावक गृहस्थ होता है और श्रमण विरक्त । श्रमण ऊर्ध्वरेता और महाव्रती होता है; श्रावक लोककर्मी और अणुव्रती होता है। इस प्रकार श्रावक और श्रमण दोनों की अलग-अलग संस्थाएँ या परिपाटियां हैं।-श्रमण की संस्था श्रावक की श्रद्धा और आस्था के लिए आवश्यक है। समाज में सदाचार की प्रतिष्ठा करना ही श्रमण का लक्ष्य होता है। वह धर्म के समस्त सद्गुणों की मूत्ति है। उसके चारित्र के दीप से ही प्रत्येक श्रावक का चरित्रदीप जलता है। यही कारण है कि श्रमणों की लोक-यात्रा के लिए श्रावकों को ध्यान रखना पड़ता है। श्रमण श्रावक-हितकारी होता है और श्रावक श्रमणोपासक होता है । यही दोनों
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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अर्चनार्चन
चतुर्थ खण्ड / ५८ का सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध से प्रत्येक श्रमण श्रावकमात्र के लिए वन्दनीय है। राजा, प्रशासक व्यापारी, आचार्य, शिल्पी, श्रमिक - ये सभी श्रावक हैं। श्रमण का स्थान इनसे उच्चतर है । ये श्रमण का स्थान नहीं ले सकते हैं । उसके समान इनकी दीप्ति और गरिमा भी नहीं हो सकती है। भ्रमण लोक का प्राणी होता हुआ भी वस्तुतः लोकोत्तर है। वह विग्रहवान् धर्म है। वह समाज की म्रात्मा है। जिस समाज में श्रमण परम्परा जीवित रहती है उसका कभी नाश या उच्छेद नहीं हो सकता है ।
का है, वे वस्तुतः भारतीय
श्रमण परम्परा वर्णव्यवस्था मौर जाति व्यवस्था से भिन्न है। भ्रमण ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र से उच्चतर तथा श्रेष्ठतर है। किसी भी वर्ण या जाति का सदस्य प्रयत्न करने पर श्रमण हो सकता है। यही श्रमण मध्ययुग में संत के नाम से जाना गया है ! कुछ लोग इसी को 'निरगुनिया' कहते हैं, क्योंकि वह सगुण ईश्वर के स्थान पर निर्गुण सत् का मनन ध्यान करता है। कुछ भी हो, भारतीय समाजदर्शन में जैनमत का इतना स्थायी प्रभाव पड़ा है कि श्रमण या संत ही यहाँ सर्वश्रेष्ठ मानव माना जाता रहा है। जो लोग सोचते हैं कि भारतीय समाज दर्शन में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मण समाज व्यवस्था को नहीं जानते हैं; उन्हें भ्रमण परम्परा या संत परम्परा का कोई ज्ञान नहीं है । ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ या महान् श्रमण या संत है । यह श्रमण-व्यवस्था या संतव्यवस्था वर्णव्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है और वर्णव्यवस्था को मर्यादा के अन्दर रखने में कारगर सिद्ध हुई है । श्रमणों या संतों ने इसी कारण जाति-व्यवस्था या वर्ण-व्यवस्था का खण्डन भी किया है। किन्तु इस खण्डन का तात्पर्य यह नहीं है कि वर्णव्यवस्था निराधार है। इसका तात्पर्य है कि वर्ण व्यवस्था के साथ श्रमण-व्यवस्था का चलना आवश्यक है जिससे सर्वोच्च पद तक सभी मनुष्यों की पहुँच संभव हो सके धन या पद से कोई महान नहीं । बनता है । केवल चरित्र से ही लोग महान् बनते हैं । इस प्रकार जो महान् हो जाय वही प्रदर्श मानव, संत या श्रमण है। श्रमण-व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था एक-दूसरे की पूरक हैं। यही नहीं, एक के बिना दूसरो जीवित नहीं रह सकती। इसीलिए दोनों व्यवस्थाओं में अविनाभावसंबन्ध है ।
उपसंहार में कहा जा सकता है कि संपूर्ण विश्व में जैन समाज दर्शन इहलोकवाद (सेक्यूलरिज्म) का प्रथम दर्शन है। जब कभी बृहत्तर मानव समाज इहलोकवाद को स्वीकार करेगा तब उसका प्रारूप वही होगा जिसकी संकल्पना जैनदार्शनिकों ने की है । क्योंकि इसमें लौकिक और आध्यात्मिक मूल्यों का परस्पर पूर्व पूरक नाव स्वीकारा गया है। इस समाजदर्शन को लोकायतवाद से भिन्न करने के लिए लोकायनवाद कहा जा सकता है क्योंकि इसका भी प्रयोजन इस लोक और इसके निवासी का सर्वकल्याण करना है और लोक की गति का संरक्षण करना है। इसलिए लोकायत नहीं किन्तु लोकायन लोक का स्वरूप है।
-अध्यक्ष
दर्शन विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद
DO
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जैनदर्शन के आलोक में
पुद्गलद्रव्य
श्री सुकनमुनि ( श्रमणसूर्य मरुधर केसरीजी म. के शिष्य )
पुद्गल शब्द दार्शनिक चिन्तन के लिये अनजाना नहीं है और विज्ञान के क्षेत्र में भी मैटर, इनर्जी शब्दों द्वारा जाना जाता है । श्राज के भौतिक विज्ञान का समग्र परिशीलनअनुसंधान पुद्गल पर ही प्राधारित है। पुद्गल के भेद परमाणु की प्रगति ने तो विश्व को उसकी शक्ति सामर्थ्य से परिचित होने के लिये जिज्ञासाशील बना दिया है ।
पाश्चात्य देशों की मान्यता है कि पुद्गल परमाणु का उल्लेख सर्वप्रथम डेमोक्रेट्स नामक वैज्ञानिक ने किया है । भारतीय दर्शनों में भी परमाणु का उल्लेख अवश्य है, लेकिन वह नहीं जैसा है, जितना जैनदर्शन में पुद्गल और उसके भेद-प्रभेद परमाणु, स्कन्ध आदि के विषय में विवेचन किया गया है । अतः यहाँ जैनदर्शन में वर्णित पुद्गल से सम्बन्धित विवेचन का संक्षेप में वर्णन करते हैं ।
पुद्गल जैन पारिभाषिक शब्द है । बौद्धदर्शन में भी यद्यपि पुद्गल शब्द व्यवहृत हुआ है लेकिन वहाँ आत्मा के लिये उसका प्रयोग हुआ है ।
जैनदर्शन का पुद्गल शब्द विज्ञान के मैटर का पर्यायवाची है और पारिभाषिक होते हुए भी यह रूढ नहीं अपि तु व्यौत्पत्तिक है— जो पुत्- मिलन और गल-गलन स्वभाव वाला हो उसे पुद्गल कहते हैं । यानी जो वस्तु दूसरी वस्तु से मिलती रहे एवं गले - रहित हो, वह गलन और मिलन के स्वभाव वाली वस्तु पुद्गल कहलाती है ।
जैन आगमों में पुद्गल के बारे में बताया है कि उसमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श गुण होते हैं, वह रूपी है, नित्य है, अजीव है, अवस्थित है और द्रव्य है । द्रव्यापेक्षा पुद्गल की संख्या अनन्त है, क्षेत्रापेक्षा लोकाकाश में व्याप्त है, काल की अपेक्षा उसका सदैव अस्तित्व है, भावतः वर्ण- गन्ध-रस स्पर्श वाला है -गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण वाला है एवं पांच इन्द्रियों द्वारा ज्ञेय है ।
पुद्गल द्रव्य है अतएव उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य रूप होने से पर्याय से पर्यायान्तरित होकर भी अपने मौलिक गुणों में अवस्थित रहता है ।
जैनदर्शन में उसके चार भेद माने हैं
१. स्कन्ध – दो से लेकर अनन्त परमाणुत्रों का एक पिंड रूप होना ( एकीभाव ) स्कन्ध है । स्कन्ध कम-से-कम दो परमाणुओं का होता है और अनन्त परमाणुत्रों के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है ।
२. स्कन्धदेश – स्कन्ध एक इकाई है। उसका बुद्धिकल्पित एक भाग स्कन्धदेश कहलाता है ।
धम्मो दोवो
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ६०
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३. स्कन्धप्रदेश-जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक स्कन्ध की मूल इकाई परमाणु है । जब तक यह परमाणु स्कन्धगत है, तब तक वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है।
४. परमाणु-पुद्गल के उस अंतिम अंश को जो विभाजित नहीं हो सके, परमाणु कहते हैं। परमाणु अविभाज्य, अच्छेद्य अभेद्य अदाह्य और अग्राह्य है, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेशी है। वह सूक्ष्मता के कारण स्वयं ही प्रादि, मध्य और अन्त है।
शास्त्रों में पूर्वोक्त के सिवाय दूसरे प्रकार से भी पुद्गल के भेद इस प्रकार बताये हैं
१. अतिस्थूल-जिस पुद्गलस्कन्ध का छेदन-भेदन एव अन्यत्र वहन सामान्य रूप से हो सके, जैसे भूमि, पत्थर आदि । इसे स्थूल-स्थूल भी कहते हैं ।
२. स्थूल-जिस पुद्गलस्कन्ध का छेदन-भेदन न हो सके, किन्तु वहन हो सके, जैसे घी, तेल, जल आदि।
३. स्थूलसूक्ष्म-जिस पुद्गलस्कन्ध का छेदन-भेदन-अन्यत्र वहन कुछ भी न हो सके, जैसे छाया, पातप आदि ।
४. सूक्ष्मस्थूल-नेत्र इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्श प्रादि चार इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गल-स्कन्ध, जैसे वायु एवं विविध प्रकार की गैसें ।
५. सूक्ष्म-अतीन्द्रिय सूक्ष्मपुद्गलस्कन्ध जैसे मनोवर्गणा, भाषावर्गणा आदि ।
६. अतिसूक्ष्म-ऐसे पुद्गल जो भाषावर्गणा मनोवर्गणा के स्कन्धों से भी अतिसूक्ष्म हों।
जैनदर्शन में पुद्गल के कुछ ऐसे भेद-प्रभेद (पर्याय) माने गये हैं, जिन्हें प्राचीनकाल के दार्शनिक पुदगल रूप में स्वीकार नहीं करते थे, किन्तु अब उनमें से बहुतों को आधुनिक विज्ञान ने पुद्गल के रूप में स्वीकार कर लिया है । जैसे शब्द, अंधकार आदि ।
पुद्गल रूपी है, इन्द्रिय ग्राह्य है । अतएव वह किसी न किसी आकार-संस्थान वाला है । वह संस्थान दो प्रकार का है-इत्थं-नियत आकार वाला, और अनित्थं-अनियत प्राकार वाला। त्रिकोण, चतुष्कोण, प्रायत, परिमंडल आदि नियत आकार-इत्थं है और बादल की प्राकृतियाँ अनियताकार -- अनित्थं है।।
पुद्गल का पूर्व में जो लक्षण बताया है, तदनुसार स्कन्ध परमाणों के संश्लेष से बनता है और परमाणु विलग होने-खंडित होने से । इसलिए संश्लेष के दो प्रमुख भेद हैंप्रायोगिक और वैस्रसिक । प्रायोगिक बंध जीवप्रयत्नजन्य है और वह सादि है। वैस्रसिक का अर्थ है-स्वाभाविक । इसमें जीवप्रयत्न की अपेक्षा नहीं होती है। इसके भी दो प्रकार हैंसादि वैससिक और अनादि वैससिक । सादि वैससिक बंध तो बनता-बिगड़ता रहता है, किन्तु उसके बनने-बिगड़ने में जीव के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती है। जैसे बादलों में चमकने वाली बिजली । इसको लेकर पुदगल के तीन भेद और हैं
१. प्रयोगपरिणत-ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा ग्रहण किये गये हैं । जैसे इन्द्रियाँ, शरीर आदि ।
२. मिश्रपरिणत--जो पुद्गल जीव द्वारा परिणत होकर पुनः छट चके हों। जैसे कटे हुए नख, केश आदि ।
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जैनदर्शन के आलोक में पुद्गलद्रव्य / ६१
३. वित्रसापरिणत-ऐसे पुदगल जो जीव की सहायता के बिना स्वयं परिणत हों। जैसे बादल, इन्द्रधनुष आदि ।
संश्लेष-बंध की तरह पुदगल का विभाजन पाँच प्रकार से होता है१. उत्कर-मूंग आदि की फली का टूटना । २. चूर्ण-गेहूँ आदि का प्राटा । ३. खंड-पत्थर के टुकड़े । ४. प्रतर-अभ्रक के दल ।
५. अनुतटिका-तालाब की दरारें।
' सामान्य रूप से पौद्गलिक स्वरूप की रूपरेखा पूर्वोक्त प्रकार की है। अब पुद्गल के गुण एवं परमाणु और स्कन्ध इन दो मुख्य भेदों के विषय में कुछ विशेष कथन करते हैं।
पुद्गल में प्राप्त पाँच वर्ण आदि बीस गुणों का संकेत ऊपर किया जा चुका है । ये गुण किसी स्थूल स्कन्ध में मिलेंगे, किन्तु परमाणु में एक वर्ण, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श होते हैं । स्पर्शों की अपेक्षा स्कन्धों के दो भेद हो जाते हैं-चतु:स्पर्शी और अष्टस्पर्शी । सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गल चतुःस्पर्शी स्कन्ध है। इसमें शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये चार स्पर्श मिलेंगे और परमाणु में उक्त चार में से भी कोई दो स्पर्श । मृदु, कठिन, गुरु, लघ इन चार स्पर्शों में से कोई भी स्पर्श अकेले परमाणु में नहीं मिलता है।
परमाणु परस्पर मिलकर स्कन्ध रूप धारण करते हैं। ये स्कन्ध कैसे बनते हैं, यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है। क्योंकि परमाणु का निर्माण तो स्कन्ध के खंड-खंड होते जाने की चरम स्थिति में होता है, लेकिन स्कन्धनिर्माण की प्रक्रिया में अन्तर है। स्कन्धनिर्माण के लिये जैनदर्शन में एक प्रक्रिया बताई है, जो संक्षेप में इस प्रकार है
परमाण में जो स्निग्ध और रूक्ष में से एक तथा शीत और उष्ण में से एक स्पर्श बताये हैं, उनमें से एक परमाणु जब दूसरे परमाणु से संबद्ध होता है, तब उसमें परमाणु में विद्यमान वर्ण, गंध, रस तथा शीत या उष्ण स्पर्श का उपयोग नहीं होता, किन्तु स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श का उपयोग होता है । इनके भी अनन्त प्रकार हैं। अतएव कौनसा परमाणु किस परमाणु के साथ संयोग कर सकता है, उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है
१. स्निग्ध परमाणु का स्निग्ध परमाणु के साथ मेल होने पर स्कन्ध निर्मित होता है, किन्तु उन दोनों परमाणुओं की स्निग्धता में दो अंशों से अधिक अन्तर हो । इसी प्रकार रूक्षता के बारे में भी समझना चाहिये ।
२. स्निग्ध और रूक्ष परमाणुगों के मिलन से स्कन्धनिर्माण होता ही है, चाहे वे विषम अंश वाले हों या सम अंश वाले।
उक्त नियमों का अपवाद केवल इतना ही है कि एक गुण स्निग्धता और एक गुण रूक्षता नहीं होना चाहिये । अर्थात् जघन्य गुण वाले परमाणु का कभी संयोग नहीं होता।
जिस किसी भी स्कन्धनिर्माण की प्रक्रिया में उक्त नियम लागू पड़ते हों, वहाँ उन परमाणों से स्कन्ध बनते हैं । इस प्रकार दो, तीन, संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं का एक स्कन्ध बन सकता है।
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अर्चनार्चन
चतुर्थखण्ड / ६२
ऐसा कोई नियम नहीं है कि परमाणुओं से बने स्कन्धों में विद्यमान रूक्षता पौर स्निग्धता के अंशों में परिवर्तन न हो तब तक उस स्कन्ध से संयोजित परमाणु उस स्कन्ध से अलग नहीं होता। क्योंकि स्कन्ध से परमाणु के अलग होने का एकमात्र कारण यहीं नहीं है। दूसरे भी कारण हैं । उनमें से कोई भी कारण मिलने पर वह परमाणु उस स्कन्ध से अलग हो सकता है । वे कारण इस प्रकार हैं
१. कोई भी स्कन्ध अधिक से अधिक असंख्यात काल तक स्कन्ध रूप में रह सकता है । उतने काल के पूर्ण होने पर परमाणु स्कन्ध से अलग हो सकता है ।
२. ग्रन्य द्रव्य द्वारा भेदन होने से भी स्कन्ध का विघटन होता है।
३. बन्धयोग्य स्निग्धता और रूक्षता के गुणों में परिवर्तन पाने से भी स्कन्ध का विघटन हो जाता है।
४. स्कन्ध में स्वाभाविक रीति से उत्पन्न होने वाली गति से भी स्कन्ध का विघटन
होता है।
परमाणु जड़ होकर भी गति धर्म वाला है । उसकी गति अन्य पुद्गल प्रेरित भी होती है और अप्रेरित भी सदैव गति करता रहता है, ऐसी बात नहीं है, कभी करता है कभी नहीं । परमाणु अपनी उत्कृष्ट गति से एक समय में चौदह राजू ऊँचे लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त तथा अध:चरमान्त से ऊर्ध्वचरमान्त तक और अल्पतम गति से गमन करने पर एक समय में आकाश के एक प्रदेश से अपने निकटवर्ती दूसरे प्रदेश में पहुंच सकता है।
परमाणु की गति स्वत: भी होती है और अन्य की प्रेरणा से भी । निष्क्रिय परमाणु कब गति करेगा, यह अनिश्चित है और इसी प्रकार सक्रिय परमाणु कब गति किया बंद करेगा, यह भी अनियत है। वह एक समय से लेकर प्रावलिका के संख्यातवें भाग समय में किसी समय भी गति कर सकता है और गति क्रिया बंद कर सकता है ।
परमाणु में सूक्ष्मपरिणामावगाहन की विलक्षण शक्ति है। जिस श्राकाशप्रदेश में एक परमाणु है उसी प्रदेश में दूसरा परमाणु भी स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकता है और धनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी ठहर जाता है ।
संक्षेप में यह जैनदर्शन में पुद्गल द्रव्य की रूपरेखा है । जो महासागर में से एक बूंद ग्रहण करने के लिये चंचुपात करने जैसी है। विस्तृत विचार तो श्रम एवं समयसाध्य है ।
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'शील' जीवन की सुन्दर उपासना है
C श्रीमती अलका प्रचण्डिया 'दीति' (एम. ए. (संस्कृत), एम. ए. (हिन्दी), रिसर्चस्कॉलर]
'शोल' मानवजीवन का अमूल्य आभूषण है। वह भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है। चारों आश्रमों और चारों वर्गों में शील का प्राधान्य है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, सेवकसेविका और गहस्थ सभी के लिए शील का पालन परमावश्यक है। इसके प्राचरण से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सर्वतोमुखी विकास होता है । शील शरीर, मन और आत्मा को बलवान् बनाता है । बलहीन व्यक्ति को प्रात्मा के दर्शन नहीं होते। इसके लिए वज्रऋषभनाराच संहनन की अपेक्षा होती है और वह शील से आती है। 'शील' से जीवन में शिवत्व मुखर होता है । सुन्दरता खिलती है और जीवन सत्यमय हो जाता है।
भारतीय दर्शन शरीर को प्रात्मा का मंदिर मानते हैं। यह ठीक है कि शरीररूपी मंदिर को भी सार-सम्भाल होनी चाहिए। लेकिन आत्मदेवता की पूजा के बदले आज शरीरपूजा का भाव अधिक बढ़ गया है। प्रात्मपूजा शील पालन से सम्भव है। वस्तुत: शरीर-सत्कार द्रव्यपूजा है और शील भावपूजा है। कहते हैं-ऐश्वर्य का आभूषण सौजन्य है। शौर्य का आभूषण वाणी पर संयम है। ज्ञान का आभूषण उपशम है तो श्रुत का विनय । तपस्या का आभूषण अक्रोध है तो समर्थ का क्षमा । धर्म का आभूषण निश्छलता है लेकिन इन आभूषणों का आभूषण 'शील' है । व्यक्ति, परिवार, समाज, नगर, प्रान्त, राष्ट्र और विश्व सभी तो शीलधर्म से अनुप्राणित हैं। जहाँ शील मुखर है वहाँ प्यार परस्पर में पनपता है । विश्वास टिकता है । मनोबल पैदा होता है। सुख और शांति का माहौल बन जाता है। शील के माहात्म्य में कवि-स्वर गूंज उठते हैं---
शील रतन सबसे बड़ो, सब रत्नों की खान । तीन लोक की संपदा रही शील में आन ।
शील जीवन का ऊर्वारोहण है। वह सहस्राक्ष है, वह देखता नहीं, स्वयं दिख जाता है । शील का सागर अतल, गहन होता है। जितना-जितना इसमें अवगाहन किया जाता है उतना-उतना आनंद बिखरता जाता है। शील की गंध के समान दूसरी गंध कहाँ होगी ? दूसरी गंध तो जिधर हवा का रुख होता है उधर ही बहती है पर शील की गंध ऐसी है जो विपरीत हवा में भी उसी तरह से बहती है जैसी प्रवाह में बहती है-यथा
सीलगंधसमो गंधो कुतो नाम भविष्यति । यो समं अनुवाते च परिवाते च वायति ॥
(विसुद्धिमग्ग, परि. १)
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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HTNAMORO ShareCARE MAHADrafai
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चतुर्थ खण्ड / ६४
यदि किसी को स्वर्ग के उच्चस्थल पर पहुँचना है तो शील सदश कोई सोपान नहीं है। निर्वाणनगर में पहँचने का शील एक सुन्दर यान है-यथा
सग्गारोहणसोपानं अं जं सीलसमं कुतो। द्वारं वा पन निव्वान-नगरस्स पवेसने ॥
(विसुद्धिमग्ग परि. १)
भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल इतिहास के पन्ने शील-सिक्त स्त्री-पुरुषों की कहानी कहते हैं। चाहे दमयंती हो या चन्दनबाला। ब्राह्मी हों या सुन्दरी । हनुमान हों या फिर हों सेठ सुदर्शन । सभी शील की प्रभावना से आज भी स्मरणीय हैं। शीलवान् के समक्ष देवता दास बन जाते हैं । सिद्धियाँ सहचरी बन जाती हैं । लक्ष्मी उनकी दृष्टि का अनुगमन करने लगती है। शील-पुरुष मन से जिस बात की कामना करते हैं वह उन्हें सहज सुलभ हो जाती हैं । कुरूप से कुरूप और बेडौल से बेडौल व्यक्ति भी शील के कारण पूज्य हो जाता है। सचमुच, शील में अपूर्व बल है। अनुभव की आंच में तपे हए भर्तृहरि के उद्गार शील की महत्ता कह उठते हैं, यथा--
बह्निस्तस्य जलायते, जलनिधिः कूल्यायते तत्क्षणात् । मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरंगायते ॥ व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते ।
यस्याङ्गऽखिल लोकवल्लभतरं शीलं समुन्मीलति ॥ अर्थात् जिसके अंग-अंग में निखिल लोक का अतिवल्लभ शील अोतप्रोत है उसके लिए अग्नि जल बन जाती है । समुद्र छोटी नदी बन जाता है । मेरुपर्वत छोटी-सी शिला बन जाता है, सिंह शीघ्र ही हिरण की तरह व्यवहार करने लगता है। सर्प फूल की माला बन जाता है। विष अमृत हो जाता है।
'शील' शब्द बड़ा व्यापक है। इसमें अनेक अर्थ समाहित हैं। बृहत् हिन्दी कोशकार, पृष्ठ १३६१, पर शील का अर्थ मन की स्थायी वृत्ति, स्वभाव और तटस्थ व्यवहार स्वीकारते हैं । संस्कृत 'शब्दार्थकौस्तुभ' पृष्ठ ८४७ में अच्छा स्वभाव, चाल-चलन और सदाचार या सदाचरण के अर्थ में 'शील' शब्द संग्रहीत है। सर्वमान्य प्रचलित अर्थ सदाचार या सच्चरित्रता है । सदाचार के गर्भ में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह वृत्ति का समावेश हो जाता है। इस दष्टि से शील में पाँचों व्रत समाहित हो जाते हैं। बौद्धधर्म में ये पंचशील के नाम से प्रसिद्ध हैं। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में कहा गया है-यथा--"जम्मि य प्राराहियम्मि पाराहियं वयमिणं सव्वं, सीलं तवो य विणो य संजमो य खंती, मुत्ती गुत्ती तहेव य ।" 'तत्त्वार्थसूत्र' में "व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।" अर्थात् ५ अणुव्रत और ७ शील (३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत) के क्रमश: पांच-पांच अतिचार होते हैं, ऐसा कहने से 'शील' शब्द की व्यापकता मुखर होती है । इस प्रकार शील का अर्थ ध्वनित होता है-जोवन में मर्यादाओं में रहना। इन्द्रियों और मन की सुन्दर प्रादर्ते या सुस्वभाव अथवा सद्व्यवहार । जैनदर्शन में 'शीलं ब्रह्मचर्यम्' अर्थात् 'शील' को ही ब्रह्मचर्य कहा गया है । ब्रह्मचर्य में सच्चरित्रता के लिए आवश्यक गुणों का समावेश हो जाता है। जैसे पर्वतों में मेरु पर्वत और देवों में इन्द्रदेव सबसे
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.'शील' जीवन की सुन्दर उपासना है / ६५
बड़ा है वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य का व्रत बड़ा है। इसकी आराधना से सभी व्रतों की अराधना हो जाती है। तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लोभता तथा गुप्ति की साधना हो जाती है। मचमुच, यह व्रतों का सरताज है।
पाँचों इन्द्रियों का निग्रह तथा इनका आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग ३, पृष्ठ १९९ पर प्रात्मा के सद्भाव में परिणति के लिए आचरण 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है, यह उल्लिखित है। भगवती आराधना, मूल, ८७८ पर देहासक्ति से मुक्त व्यक्ति की जो चर्या है वही ब्रह्मचर्य है, ऐसा स्वीकारा है । वस्तुत: 'ब्रह्म' के तीन मुख्य अर्थ हैं-वीर्य, आत्मा, विद्या । 'चर्यः शब्द भी तीन अर्थ कहता है-रक्षण, रमण, अध्ययन । इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ हुप्रा वीर्यरक्षण, आत्मरमण और विद्याध्ययन । वीर्य रक्षा के लिए स्पृश्य के अतिरिक्त दृश्य, श्रव्य, खाद्य और घ्राणीय पदार्थों में विवेकपूर्ण संयम करना या कामोत्तेजक पदार्थों को छोड़ना ब्रह्मचारी के लिए लाजिमी है। वस्तुतः ब्रह्मचर्य उत्तम खाद है जिससे सद्गुणों की खेती लहलहाने लगती है। 'मनुस्मृति' में ब्रह्मचारी अर्थात् शीलवान के लिए कई बातों का परहेज बताया है, यथा--
वर्जयेन्मधु मासं च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः । अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णो-रुपानच्छत्रधारणम् । शुक्तानि यानि सर्वाणि, प्राणिनां चैव हिंसनम । कामं क्रोधं च लोभं च नर्तनं गीतवादनम् । द्यूतञ्च जनवादञ्च परीवादं तथान्तम् ।
स्त्रीणाम्प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च ॥ अर्थात् ब्रह्मचारी मद्य, मांस, सुगन्धित पदार्थ, माला, स्निग्ध रस का अत्यधिक सेवन, स्त्रीसंग, तैल आदि की मालिश या पीठी आदि लगाने, आँखों में अञ्जन (काजल) डालने, पैरों में जते पहनने, छत्र धारण करने सभी प्रकार के अश्लील दृश्य, अश्लील गाने-बजाने या नाचने का त्याग करे । इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, प्राणियों की हिंसा, जुना, निन्दाचगली, असत्य, स्त्रियों की ओर विकारी दृष्टि से देखने, आलिंगन करने या टक्कर लगाकर चलने का भी त्याग करे ।
प्राचार्यों ने 'शील' को दो रूपों में विभक्त किया है-(i) पूर्ण शीलवती (ब्रह्मचारी) (ii) मर्यादित शीलवती (ब्रह्मचर्याणुव्रती) । साधु-साध्वी पूर्ण शीलवती होते हैं । वह मन-वचनकाय से स्वयं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं औरों को ब्रह्मचर्य-पालन की प्रेरणा देते हैं, प्रोत्साहन देते हैं। श्रावकों में दो प्रकार के शीलवती कहे गए हैं। कई श्रावक उम्र ढल जाने पर सपत्नीक अथवा पति या पत्नी दोनों में से किसी एक के देहान्त हो जाने पर स्वयं गहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य (शील) पालन करने की प्रतिज्ञा लेते हैं । कई कुमारिका बहिनें या कुंवारे भाई भी गृहस्थ जीवन में आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं और सेवाकार्य में अपना जीवन अोतप्रोत कर देते हैं । पर ऐसे व्यक्तियों की प्राज संख्या विरल है । गृहस्थ जीवन में शीलवती बनने के लिए स्वपत्नी-संतोष और परस्त्री-विरमण व्रत वचन और काया से अथवा काया से पालने की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है । शील कुल की शोभा बढ़ाता है।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ६६
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अपनार्चन
वर्तमान युग में शीलपालन प्रश्न बन गया है । पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव जो बढ़ गया है और भारतीय संस्कृति का अवमूल्यन होता जा रहा है । तथापि माता-पिता, बुजुर्ग, गुरु, समाज-संस्कर्ता सेवक जरा सतर्कता से काम लेवें, व्यवहार, आचार और संस्कार का परिष्कार करें तो शीलरत्न की ज्योति अखण्डित-प्रज्वलित रहेगी। वह किसी भी भय, प्रलोभनों के झंझावातों से बुझेगी नहीं । शील के संस्कार घर-घर में मुखर होंगे । धरा पर स्वर्ग साकार होगा। 'दोहापाहुड' का 'शीलं मोक्खस्स सोवाणं' आर्ष वाक्य प्रशस्त होगा। प्राचार्य हेमचन्द्र शील-लाभ को उजागर करते हए कहते हैं
चिरायुषः सुसंस्थाना दृढसंहनना नराः ।
तेजस्विनो महावीर्या भवेयुब्रह्मचर्यतः ॥ अर्थात् ब्रह्मचर्य पालन करने से मनुष्य दीर्धायु, तेजस्वी और महापराक्रमशाली होते हैं, उनके शरीर का डीलडौल एवं उनके शरीर के अवयव परस्पर गठे हुए और मजबूत होते हैं। ब्रह्मचर्य राख से प्रच्छन्न आग है। जिसके भीतर ज्योति है लेकिन ऊपर राख । यही तथ्य हिन्दी के फक्कड़ कवि कबीर के स्वर में भी भास्वर हया । यथा
"बाहर से तो कछ न दीखे, भीतर जल रही जोत ।"
'शील' की प्रभावना से व्यक्ति शक्तिधर श्रुतिधर, और स्मृतिधर बन सकता है। सदाचरण के अर्घ्य से, शील की अर्चना से व्यक्ति का ही नहीं, समाज का, समाज का ही नहीं प्रान्त, राष्ट्र और विश्व का अभ्युदय सम्भव है। वस्तुत: 'शील' जोवन का मुकुटमणि है। वह जीबन की सुन्दर उपासना है।
-मंगलकलश ३९४, सर्वोदयनगर, आगरारोड,
अलीगढ़-२०२००१ (उ.प्र.)
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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग
उपासना
। कमला जैन 'जीजी', एम. ए.
'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ।' प्राणियों को मानव-जन्म प्राप्त करना अति दुर्लभ है और यही जन्म चौरासी लक्ष योनियों में सर्वश्रेष्ठ है, यह बात सभी धर्म-ग्रन्थों में प्रकारान्तर से कही गई है। कारण यही है कि मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने ज्ञान एवं विवेक के द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में गतिमान होकर अपनी चरम लक्ष्य-सिद्धि कर सकता है। चतुर्विध पुरुषार्थों में मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है और यही मनुष्य का परम लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के हमारे शास्त्रों में अनेक साधन बताए गए हैं, जिनमें भक्ति एवं उपासना का उल्लेख करते हुए इन्हें आध्यात्मिक जीवन का अनिवार्य अंग माना गया है। सामान्यतया लोग अपने-अपने इष्टदेव की भक्ति और पूजा करके उपासना की सहज और सरल विधि अपनाते हैं, किन्तु संसार-मुक्ति ही जिन साधकों का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है वे सूक्ष्मातिसूक्ष्म और गहनतर उपासना में निमग्न होकर अपनी मंजिल प्राप्त कर लेते हैं। उनका एकान्त विश्वास होता है
लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं,
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् । यस्त्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः,
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् ॥ सर्वश्रेष्ठ मनुष्यजन्म, विद्या, योग्यता आदि प्राप्त करके भी जो व्यक्ति प्रात्ममुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह असद्ग्रह से प्रात्महत्या करता है। अतः मनुष्य को मुक्ति के लिये अवश्यमेव प्रयत्न करना चाहिये।
स्पष्ट है कि प्रात्म-मुक्ति के लिये साधक को उपासना करने में पुरुषार्थ करना अनिवार्य है, क्योंकि उपासना ही उसे मोक्ष-प्राप्ति की ओर अग्रसर करती है। आवश्यकता है उत्कृष्ट संकल्प की । प्रत्येक मनुष्य संकल्पमय होता है, किन्तु उसे ध्यान रखना चाहिये कि अपकृष्ट संकल्प से वह अपकर्ष को प्राप्त होगा तथा उत्कृष्ट संकल्प से उत्कर्ष को प्राप्त हो सकेगा। उपासना का स्वरूप
जिस क्रिया के द्वारा मानव स्वयं को अपने इष्ट के साथ प्रस्थापित कर सके, उसी का नाम 'उपासना' है। 'उप-समीपे पासना-स्थितिः उपासना। उपासक भावप्रवण मन से उपासना करे अथवा उपासना से मन में भाव प्रवणता हो, दोनों ही बातें सम्भव हैं। उत्तम गुरु या अधिकारी सिद्ध साधकों के हृदय में पूर्व से ही भावप्रवणता होती है। अतः उनकी
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड ६८
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उपासना सहज व सरल होने के कारण निर्बाध रूप से सरिता की प्रबल वेगवती धारा के समान निरन्तर अपने आराध्य अथवा इष्ट की ओर बहती रहती है। किन्तु इच्छुक भक्त या साधक के मन में भावप्रवणता प्रारम्भ में पूर्णतया विकसित नहीं होती। उसके हृदय से उपासना का रूप प्रज्वलित अग्नि के समान अन्तर के कषायों को भस्म कर सकने की क्षमता नहीं रखता । लेकिन सिद्ध-साधकों के संसर्ग से तथा अभ्यास से शनैः-शनैः उसके हृदय में भी भावप्रवणता प्रज्वलित पावक का रूप धारण कर सकती है। अत: किसी भी कोटि के साधक अथवा उपासक में हीनता या निराशा का भाव नहीं होना चाहिये । उसे पूर्ण आस्था, एकाग्रता एवं विश्वासपूर्वक साधना-रत रहना चाहिये । 'अभ्यास: सर्वसाधनम' अभ्यास से कुछ भी असंभव नहीं रहता, यही सर्वसिद्धियों की उपलब्धि में सहायक होता है।
उपासना की आवश्यकता
अनेक व्यक्तियों का विचार होता है कि हम उपासना किसलिए करें ? निरर्थक परेशानी मोल लेकर उपासना में समय की भी बर्बादी करना कहाँ की बुद्धिमानी है ? इसके अलावा उपासना का फल मिलेगा ही, यह भी कहाँ निश्चित है ? ऐसे लोगों के विचार से उपासना की विविध क्रियाएँ करना बेकारों का कार्य है, एकमात्र आडम्बर और शून्य में हाथ-पैर मारने के समान है । इस संसार में प्राणियों को भूख मिटाने के लिए भोजन की, प्यास मिटाने को पानी की, श्रम की थकावट दूर करने के लिये सोने की और वंश-परम्परा चलाने के लिये पुत्र-कलत्र की आवश्यकता तथा इन सब भोगों के लिये मात्र धन की परम आवश्यकता है। इन सभी उपलब्धियों के लिये प्रयत्न करने पर फल मिलता दिखाई देता है, किन्तु उपासना की क्रियाएँ अन्धकार में तीर चलाने की तरह हैं, जिनका प्रथम तो निशाने पर लगना ही कठिन है और फिर प्रयत्न के अनुसार फल मिल जाएगा इसकी भी कहाँ गारंटी है ? इसलिये उपासना जैसी निरर्थक अथवा अनिश्चित फलप्रदायिनी खटपट में पड़ना बुद्धिमानी नहीं है।
ऐसे शंकाशील व्यक्तियों को गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिये कि जब स्थूल शरीर के लिए भोजन, पान, विश्राम, वनिता तथा धनादि की आवश्यकता है तो अन्तरात्मा के लिये क्या कुछ भी नहीं चाहिये ? यह तो स्थूल शरीर से कहीं अधिक श्रेष्ठ है और उसका पोषक भी है। यह बात इस प्रकार जानी जा सकती है कि अगर सूक्ष्मदेह-मन प्रशान्त होता है तो पाहार, विश्राम अथवा मनोरंजन आदि सम्पूर्ण लौकिक साधनों के होते हुए भी स्थूल शरीर कृश होता चला जाता है तथा इसके विपरीत अगर सूक्ष्मदेह भक्ति, आराधना एवं उपासना आदि के द्वारा तुष्ट और शांत रहे तो अल्प भोजन अथवा भौतिक सुख-साधनों की अल्पता होने पर भी अन्तर्मानस परम शांत, संतुष्ट और जागरूक रह सकता है।
प्रश्न उठता है कि हमारे मन में अशांति, विकार और दोष कहाँ से आ जाते हैं जिनके निरसन के लिये, शांतिप्राप्ति के लिये तथा अनन्त सुख का अनुभव करने के लिये उपासना की आवश्यकता होती है ? गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर समझा जा सकता है कि वस्तुतः जीव का स्वरूप तो सच्चिदानन्द ही है; किन्तु अनादिकालिक रागादि विकारों के कारण इसका स्वरूप दूषित हो रहा है, जिससे प्रात्मा अनन्त प्रानन्दरूप होने पर भी स्वयं को दःख रूप समझने लगता है। अतः विकारों की मलिनता दूर करने के लिये इष्ट की उपासना
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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना | ६९
करना आवश्यक है। उपासना से मन जितने समय तक इष्टाकार रहेगा उतने ही काल तक वह दोषों से, कषायों से या विकारों से परे रहेगा और धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा जब वह निरन्तर इष्टमय बना रहेगा तो अपने वास्तविक रूप सच्चिदानन्द की प्राप्ति कर लेगा और परमशांति तथा तुष्टता का अनुभव करता हुमा समस्त शंकाओं और संदेहों से रिक्त हो जाएगा। उस समय आध्यात्मिक प्रकाश की अनिर्वचनीय प्राप्ति हो सकेगी तथा हृदय की सम्पूर्ण ग्रन्थियाँ खुल जाएंगी। कहा भी है:
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
- इस स्थिति में पहुँचने पर प्रात्मा को अनिवर्चनीय प्रकाश का अनुभव होता है, और परमानन्द की प्राप्ति होती है।
उपासना किसकी ?
साधारणतया प्रत्येक व्यक्ति समय-समय पर किन्हीं वस्तुओं की अथवा व्यक्तियों की उपासना करता है । यथा-बुभुक्षु और तृषा-पीडित प्रतिपल खाद्यान्त और जल-प्राप्ति के चिन्तन में व्याकुल रहता है, चोर स्वयं को हीन समझता हुअा डाकू की शक्ति और साहस की सराहना करते हुए उसके समान बनने की कामना में डूबा रहता है। किन्तु ऐसे चिन्तनमनन, उपासना की तुला पर निकृष्ट और सारहीन साबित होते हैं, प्राध्यात्मिक जगत् में उनसे कोई लाभ नहीं होता और न ही वे प्रात्मोन्नति में सहायक बनते हैं।
उपासना का अर्थ ही 'उप+आसना'-यानी समीप बैठना है। इसलिये उपासना के इच्छुक को प्रारम्भ में ही योग्य के समीप बैठकर यानी रहकर उसके गुणों को ग्रहण करना चाहिये । उपासना करने वाला उपास्य के गुण अपने में धारण करता है, अत: वह ज्ञानी गुरु के पास रहकर अथवा जिसके पास विशिष्ट प्रात्म-शक्ति हो उसके संसर्ग में आकर उसकी उपासना करे । ऐसा करने पर उसे ज्ञान की प्राप्ति होगी तथा उसकी आत्मिक शक्ति बढ़ेगी। उसका अपने उपास्य जैसा बनने का प्रयत्न करना ही उपासना है। स्पष्ट है कि उपासना अयोग्य की नहीं, अपितु योग्य की करनी चाहिये, वही लाभकारी होती है तथा सही अर्थ में उपासना कहलाती है। दूसरे शब्दों में जिस उपासना से ज्ञान की वृद्धि हो तथा आत्म-शक्ति में विशिष्टता पाए वही सच्ची उपासना होती है।
उन्नति शनैः-शनै होती है और तभी होती है, जब मानव अपना संबंध प्रतियोग्य एवं विशेष सिद्धि-प्राप्त व्यक्तियों से रखे। उन्नति का अकाटय नियम ही यह है कि साधक अपना संबंध अपने से उच्च कोटि के साधक के साथ जोड़े।
अन्तत: परमात्मा से लौ लगाने पर ही मनुष्य अपनी आत्मा को उन्नति के शिखर पर लाता हुया परमात्मा बन सकता है । सारांश यही है कि लौकिक कल्याणार्थ शक्ति-सम्पन्न व्यक्तियों की उपासना भी लघु पैमाने पर सर्वत्र व्यवहृत है किन्तु वह निम्न कोटि की तथा धर्म-विहित है। वास्तविक उपासना पारलौकिक कल्याण के हेतु संसार-मुक्त, शाश्वत सुख के अधिकारी तथा वीतराग प्रभु की की जाती है और वही श्रेयस्कर है।
धम्मो दीवा संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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चतुर्थ खण्ड | ७० जैनधर्म की साधना-उपासना
अन्य अनेक धर्मों के अनुसार जैनधर्म में भी आत्मोन्नति अथवा आत्मविकास की पूर्ण अवस्था मोक्ष ही है । मोक्ष जीवमात्र का चरम और परम लक्ष्य है। जो आत्मा अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त गुणों को विकास की सर्वोच्च सीमा पर ले जाती है वह अपने शुद्ध स्वरूप में शाश्वत काल के लिये स्थिर हो जाती है। इस स्थिरता को ही पुनः-पुनः जन्म-मरण से मुक्ति अथवा मोक्ष कहते हैं । मोक्ष या मुक्ति का कोई विशेष स्थान नहीं है अपितु प्रात्मा का शुद्ध चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति कर लेना ही मुक्ति है। मुक्त होने के पश्चात् न वह कहीं जन्म लेती है और न ही पुनः कर्मों से प्राबद्ध होती है। जैनधर्म की साधना मुख्य रूप से आत्मा की साधना, दूसरे शब्दों में प्रात्मा के विकास की साधना है। जैनधर्म में किसी अवतार का प्रावधान नहीं है। इस धर्म के जितने भी अरिहंत अथवा तीर्थंकर होते हैं-सभी आत्मा की साधना अथवा उपासना द्वारा आत्मा का ऊर्ध्वमुखी विकास करके उक्त पद को प्राप्त करते हैं। जैनधर्म में एक मत से यही स्वीकार किया गया है कि जीव अपने राग-द्वेष को नष्ट करके वीतराग बनकर ईश्वरत्व या परमात्म-पद को प्राप्त करता है। जैनधर्म ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है अतः आस्तिक धर्म है, किन्तु यह अवतारी ईश्वर पर विश्वास न करके प्रात्मा को ही परमात्मा बनाने में विश्वास रखता है।
जैनदर्शन में मोक्ष-प्राप्ति के अनेकों मार्ग बताए हैं, यही कारण है कि इसे सहस्ररूपा साधना भी कहा गया है। कहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को मोक्ष का मार्ग बताया है और कहीं तप का चारित्र में समावेश करके ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मुक्ति का साधन कहा है। कहीं बताया है
। 'तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरन्धरो हो।'
-तप, श्रुत और व्रत का पालन करने वाली आत्मा ही ध्यानरूपी रथ पर आरूढ़ हो सकती है और ध्यान से ही जीव को अन्तिम साध्य मोक्ष की उपलब्धि होती है। इस प्रकार मोक्ष का साधन ध्यान और ध्यान के साधन तप, श्रुत और व्रत हैं।
तपःसाधना
कर्मबद्ध प्रात्मा को मुक्त करने के लिये तप:साधना अनिवार्य है। तप ऐसी अग्नि है जो अष्ट कर्म-रूप काष्ठों को भस्म कर देती है और प्रात्मा अपने अद्वितीय शुद्धस्वरूप को प्राप्त कर लेती है। निशीथचणि में भी बताया गया है-'तप्यते प्रणेण पावं कम्ममिति तपः।' जिस प्रवृत्ति से पाप-कर्म तप्त होकर जल जाते हैं उसे ही तप कहते हैं।
वैसे तो आत्म-शुद्धि के लिये की जाने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति तप कहला सकती है और ये प्रवृत्तियाँ असंख्य हैं, अतः इन्हें सीमा में बाँधना कठिन है फिर भी जैनधर्म में सम्पूर्ण तपोमार्ग को दो भागों में विभक्त किया गया है।
(१) पहले भाग में बाह्य तप आते हैं जिनके नाम हैं--प्रनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश तथा प्रतिसंलीनता।
(२) दूसरे प्रकार के तप आभ्यंतर तप कहलाते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं:प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ।
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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना / ७१
ये छह बाह्य और छह आभ्यंतर, कुल बारह तप हैं, जिनकी साधना सम्यक रूप से की जाय तो मन विषय-विकारों से रहित होकर निर्मल बनता है और निर्मल मन के द्वारा ही वीतराग प्रभु व पंच परमेष्ठियों की उपासना सम्यक रूप से हो सकती है। जगत में मङ्गलरूप, लोकोत्तम एवं शरण्यभूत पंच-परमेष्ठी ही होने से पंच-नमस्कार मंत्र का जप अथवा इसकी उपासना करना आवश्यक है। यद्यपि ध्यान, साधना अथवा उपासना का सच्चा लक्ष्य तो आत्मा को परमात्मा बनाना हो है, किन्तु जब तक आत्म-दर्शन नहीं होता तब तक मन को एकान करने के लिये उसे तप के द्वारा शुद्ध करके पंच-परमेष्ठियों का आदर्श सन्मुख रखकर मंत्र-रूप जप या महामंत्र की उपासना करनी चाहिये ।
श्रुत-साधना
मुमुक्ष के लिये सम्यग्-ज्ञान की प्राप्ति करना अनिवार्य है। सम्यग् ज्ञान के प्रभाव में अज्ञान रहेगा तथा अज्ञानावस्था में आत्म-विकास या प्रात्म-शुद्धि के लिये की जाने वाली कोई भी क्रिया लाभप्रद नहीं होगी। सूत्रकृतांग में बताया गया है:
जहा अस्साविणि णावं, जाइअंधो दुरूहिया ।
इच्छइ पारमागंतु, अंतरा य विसीयई ॥ --अज्ञानी साधक उस जन्मांध व्यक्ति के सदृश है, जो छिद्रवाली नौका पर चढ़कर नदी के किनारे पहुँचना चाहता है, किन्तु किनारा पाने से पहले ही मध्य-प्रवाह में डब जाता है।
_इसीलिये साधना और उपासना करने से पूर्व सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना तथा पुनः पुनः स्वाध्याय करना आवश्यक है। ज्ञान की महिमा अपरम्पार है, अतः ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म-नाश में भी महान् अन्तर है। इस विषय में बताया गया है:
कोटिजन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरे जे,
ज्ञानी के छिन में त्रिगुप्ति ते सहज टरै ते । मिथ्याज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों तक अज्ञानतापूर्वक तपरूप उद्यम करके जितने कर्मों का नाश कर पाता है, उतने कर्मों का नाश सम्यगज्ञानी जीव के त्रिगुप्ति से, अर्थात मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकने से क्षणमात्र में सहज रूप से नष्ट हो जाते हैं। पर ऐसा तभी हो सकता है, जबकि सिद्ध, अरिहंत अथवा परमात्मा, किसी भी रूप का चिन्तन, जिसे उपासना कहा जा सकता है, उसे एकाग्रतापूर्वक चरम सीमा तक पहुँचा दिया जाय ।
व्रत-साधना
वत नाम है संयम का । इन्द्रियों के विषय में यथेच्छ प्रवृत्ति को 'अवत' कहते हैं तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना व्रत या संयम कहलाता है। अवती अथवा असंयमी साधक या उपासक की मनोवृत्तियाँ संसार के भोगोपभोगों की ओर प्रवृत्त होती रहती हैं। अतः वह उपासना में समीचीन रूप से तन्मय नहीं हो सकता, किन्तु जो व्रती और संयमी होता है वह अनासक्त होने के कारण उपासना-रत रहता हुआ कर्मनाश करता चला जाता है तथा अन्त में स्वयं अपने उपास्यवत हो जाता है।
वीतरागो विमुच्येत, वीतरागं विचिन्तयन् ।
धम्मो दीयो संसार समुद्र में वर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / ७२
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-वीतराग का चिन्तन करता हुआ साधक स्वयं वीताराग होकर कर्मों से मुक्त हो जाता है।
संयम अथवा व्रत आत्मिक अनुशासन है। यह बाहर से नहीं आता वरन् अन्दर से ही प्रस्फुटित होता है। व्रत से प्रात्मशक्ति का संवर्धन होता है और यही शक्ति चिन्तन-मनन, साधना व उपासना को बल प्रदान करती हुई मुक्ति की ओर अग्रसर करती है।
बौद्धधर्म में उपासना
इस धर्म में उपासना के दो प्रकार माने गए हैं। (१) प्रथम लौकिक उपासना-इसका तात्पर्य है--'अभ्यास' या 'उद्यम'। किसी चरम उद्देश्य की सिद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्न करना (२) द्वितोय है अलौकिक उपासना--अलौकिक उपासना उन आध्यात्मिक या मानसिक साधनाओं को कहते हैं जो योग अथवा तन्त्र की प्रक्रिया से अलोकिक सिद्धियों की या मुक्ति की प्राप्ति के लिये की जाती हैं।
बौद्धों की तान्त्रिक उपासनानों के लिये अधिकारी वह होता है जिसे गुरु परीक्षा करके उपासना के योग्य घोषित कर दें।
बौद्ध धर्मावलम्बी तंत्रों की चार श्रेणियाँ मानते हैं। (१) क्रियातन्त्र (२) चर्यातन्त्र (३) योगतन्त्र और (४) अनुत्तर योगतन्त्र। इन चार प्रकार के तन्त्रों के उपासकों की भी चार श्रेणियाँ हैं।
वज्रयानीय बौद्धधर्म का मुख्य गढ़ महाचीन (तिब्बत) है । वज्रयानियों का मुख्य उपासना-मंत्र है-'प्रोम मणि पद्म हुम्' यह बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर का षडक्षरी महामन्त्र है। महात्मा बुद्ध ने यद्यपि कोई ग्रन्थ नहीं लिखा किन्तु उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को (१) विनयपिटक (२) सुत्तपिटक तथा (३) अभिधम्मपिटक के नाम से संकलित किया है।
जरथुस्त्र धर्म की अग्नि-उपासना
पारसी जरथुस्त्रियों के 'आतिश बेहराम' नामक अग्नि-मंदिर में एक विशेष अग्नि को स्थापित किया जाता है। इस मन्दिर को 'अगियार' भी कहते हैं और इसके गर्भ-गह में वेदी पर एक विशिष्ट चाँदी के पात्र में अग्नि को प्रतिष्ठित किया जाता है। उस अग्नि में दिनरात चन्दन जलाकर आस्तिक व्यक्ति बोध प्राप्त करते हैं । यथा:--जहाँ ईश्वरीय अग्नि जलती है वहाँ उसका प्रज्वलित रहना सृष्टि के व्यवहार का चालू रहना है। चन्दन का जलकर सुगन्ध फैलाते हुए धम्र के रूप में ऊँचा उठना स्वर्ग की ओर इंगित करना है। अग्नि का तेज जीवन का प्रकाश है जो उपासक की आत्मशक्ति तीव्र होने का द्योतक है। और जिस खण्ड में अग्नि प्रज्वलित रहती है वह सृष्टिकर्ता का सुन्दर नमूना अशोई की शिखा पर है तथा अन्धकार को दूर करके मानव के प्रान्तरिक जीवन को उच्चस्थान प्रदान करने वाला है। उस खण्ड के ऊपर की ओर पड़ने वाली ज्योति को 'पाथ्रो अहरमज्द' की कल्पना करके बन्दगी करने वाले मस्तक समर्पण करते हैं। अग्नि को ईश्वर का पुत्र इस भौतिक जगत् का स्रष्टा और अपने पिता 'अहुरमज्द' का प्रतिनिधि तथा अनन्त सुख का स्वामी माना जाता है जो जीवों का कल्याण करता है।
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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना / ७३
प्रत्येक जरदोश्ती अग्नि-मंदिर में अग्नि के सन्मुख खड़े रहकर उसमें चन्दन का हवन करते हुए प्रार्थना करता है जो स्तुति अवेस्ता में 'आतिश निपाएश' के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी स्तुति इस प्रकार की जाती है:
"हे अहरमज्द के अग्नि! तुम सृष्टि के स्वामी हो अत: मुझे पवित्र करो, दुष्कर्मों से दूर रखो, मेरे भोजन-पान में निवास करो, राह-बाट व घर प्रादि को प्रकाशमान करते रहो तथा दीर्घ-जीवन, अनन्तसुख, प्रखरबुद्धि, बल और पौरुष प्रदान करो।"
इस प्रकार पारसी जरदोश्ती केवल अग्नि को अपना उपास्य मानकर उसकी उपासना करते हैं तथा जीवन में जो कुछ भी आवश्यक है उसकी माँग अपनी प्रार्थना में करते हैं। इनके धर्मग्रन्थ का नाम 'जन्द अवेस्ता' है।
ईसाईधर्म में प्रार्थना ही उपासना
ईसाईधर्म-ग्रन्थ बाइबिल में 'स्तोत्र-संहिता' नामक पाँच अध्याय तथा १५० वर्ग का एक प्रकरण उपासना के लिए कहा गया है। उसमें 'परमेश्वर का स्तवन करो' यह वाक्य अनेक बार आया है। मूलग्रन्थ में उसे हालेलया' कहा गया है। ईसाई धर्म की मान्यता है कि परमेश्वर स्वयं को तीन रूपों में प्रकट करता है:-(१) परमपिता परमात्मा, (२) प्रभु का पुत्र ईसा तथा (३) पवित्रात्मा के रूप में । इनका पवित्र चिह्न क्रॉस है तथा मानवमात्र से प्रेम करना ही प्रभु की सच्ची उपासना मानी जाती है।
इस्लाम धर्म में उपासना
इस धर्म में बताया गया है कि हजरत मुहम्मद को उस समय में प्रचलित 'बुतपरस्ती' अच्छी नहीं लगी तो उन्होंने 'खुदापरस्ती' का प्रचार करने का निश्चय किया। उन्होंने काफी समय तक 'मक्का' के समीप हारा पर्वत की एक गुफ़ा में एकान्तवास किया और तत्पश्चात् अपनी बेगम को सूचित किया कि फ़रिश्ता जिबराइल ने उन्हें संदेश दिया है कि खुदा ने मुहम्मद को अपना पैगम्बर नियत किया है। वे पढ़े-लिखे नहीं थे किन्तु जोश व आवेश में करान की आयतें उनके मुंह से निकलती रहती थीं। इस्लाम के मुख्य दो स्तंभ हैं
(१) ईमानः-इसमें खु दा, उनके पैगम्बर, फ़रिश्ते, कुरान, खुदा की सर्वशक्तिमत्ता तथा मृत्यु के पश्चात् न्याय के दिन में विश्वास करना है।
(२) दीन:-दीन के अङ्ग नमाज , रोजा, जकात (दान देना) और हज़ (पवित्र तीर्थ 'मक्का' जाना) हैं।
हिन्दू प्रायः एकान्त में प्रभु की उपासना करते हैं, ईसाई घुटने टेककर तथा यहूदी (जरदोश्ती) खड़े होकर प्रार्थना करते हैं; किन्तु मुसल्मानों की पाँच वक्त, की नमाज या ख दा की उपासना चटाई अथवा दरी पर ही हो सकती है। उस समय उपासक का मह मक्का की ओर होना भी आवश्यक है । प्रार्थनाएँ छोटी और अरबी भाषा में होती हैं जिन्हें 'रकोह' कहते हैं । प्रत्येक शुक्रवार को मध्याह्न के उपरान्त की नमाज सामूहिक होती है। इनका महामन्त्र 'कलमा' है। कलमे पाँच हैं जिन्हें दिल से मानना तथा जबान से कहना आवश्यक होता है।
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चतुर्थ खण्ड / ७४
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सिख धर्म में उपासना
सिखों के मन्दिर या गुरुद्वारे में कोई मूर्ति नहीं होती वरन् इनका धर्मग्रन्थ 'गुरुग्रंथ साहिब' होता है । इसके प्रति सिखों की अपार भक्ति तथा श्रद्धा होती है और वे इसी की पूजा व पाठ करते हैं । जब 'ग्रन्थसाहिब' का पाठ होता है तब कोई भी एक श्रद्धालु पीछे खड़ा रहकर इस पर पंखा झलता है। इसी ग्रन्थ के समक्ष रुपया, पैसा चढ़ाया जाता है तथा प्रतिदिन दोनों वक्त इसका बड़ी भक्ति से पाठ किया जाता है। केश, कंघा, कच्छा, कड़ा और कृपाण इनके अति पवित्र धर्म-चिह्न माने जाते हैं। ये मन की पवित्रता पर जोर देते हैं तथा माला पर 'सतनाम वाह गुरु' का जप करते हैं । यह हिन्दू धर्म का ही एक पंथ है ।
वैदिकधर्म की उपासना
वस्तुतः हिन्दूधर्म अनेकरूप धर्म है। वेद, उपनिषद, महाभारत, भागवत, गीता, रामायण एवं पुराण आदि इसके अनेक धर्मग्रन्थ हैं। हिन्दूधर्म में ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा राम, कृष्ण, हनुमान की ही नहीं वरन तेतीस करोड़ देवी-देवताओं की उपासना की जाती है। उपासना साकार व निराकार दोनों प्रकार की होती है । पाठ, पूजा, जप, यात्रा, तपस्या तथा ध्यान आदि सभी उपासना के विविध अंग होते हैं।
उपरिवर्णित कुछ धर्मों के अलावा अन्य अनेक धर्म हैं, जिन की उपासना-पद्धतियाँ विभिन्न प्रकार की हैं । कुछ नाम इस प्रकार हैं:--शैव, सौर, गाणपत्य, श्रीनिम्बार्क, श्रीवल्लभ, श्रीगौड़ीय, श्रीरामानन्द, उदासीन, रामसनेही, दादूपंथ, नाथ आदि २ । लेख का कलेवर बढ़ने के कारण इन सभी के विषय में विस्तृत नहीं लिखा जा सकता, आवश्यकता भी नहीं है। यही जानना काफ़ी है कि इन सभी सम्प्रदायों की उपासना-पद्धतियाँ विभिन्न हैं किन्तु अपने इष्ट या उपास्य के प्रति इनकी भक्ति का पार नहीं है। अनेक संत आज भी निर्जन स्थानों पर जाकर अथवा गिरि-कन्दरामों में बैठकर एकाग्र-उपासना-रत पाए जाते हैं। कभी-कभी ये बस्ती में आकर मात्र शरीर को टिकाने जितना खाद्यान्न ग्रहण करते हैं।
प्रस्तुत शास्त्रोक्त उदाहरणों से तथा अनेक भक्तों के अनुभवों से ज्ञात होता है कि साकार एवं निराकार, दोनों ही प्रकार की उपासनाओं के द्वारा उपासक अपने लक्ष्य को प्राप्त करते रहे हैं । फ़िर भी आज अनेक साधकों की शिकायत रहती है कि प्रयत्न करने पर भी उपासना में मन एकाग्र नहीं हो पाता, अथवा चिरकाल करते चले आने पर भी उन्हें अभी तक सफलता प्राप्त नहीं हुई। ऐसे साधना या उपासना के इच्छुकों को उपासना में सहायक तत्त्वों का ज्ञान करके उन्हें अपनाना चाहिये तथा उपासना को सफल बनाने वाले कारणों और साधनों को अपनाकर उपासना को बलवती तथा फलप्रदायिनी बना लेना चाहिये। उपासना में सहायक तत्त्व
उपासना प्रारम्भ करने से पूर्व जिन सहायक तत्त्वों पर अमल करना आवश्यक है वे कोई नये या अनोखे नहीं हैं। हमारे जीवन-व्यवहार में व्यवहृत होने वाले जाने-पहचाने नियम ही हैं। किन्तु उनका अभ्यास एवं पालन सचाई तथा कड़ाई से होना चाहिये। क्योंकि एक छोटी सी भूल भी बनते हुए कार्य को पल भर में बिगाड़ सकती है। वे सहायक तत्त्व चार हैं जिन का क्रमश: संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है
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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना | ७५
(१) सात्त्विक आहारः-गृहस्थ उपासक को न्यायोपार्जित धन के द्वारा शुद्धि एवं पवित्रता से बनाया हुआ परिमित भोजन करना चाहिये । मांस आदि अभक्ष्य एवं उत्तेजक, तामसी पदार्थों का भक्षण करना सर्वथा अनुचित और उपासना की दृष्टि से पूर्णतया निष्फल है। 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन ।' जिस शरीर में तामसिक पदार्थ पहुँचते हों, उसमें रहने वाला मन कभी निर्मल नहीं बन सकता । वह उपासना के योग्य नहीं रह जाता। एक महत्त्वपूर्ण जानने की बात यह है कि उपासक अगर विरक्त या साधु हो तो उसके लिये भिक्षान्न अमृततुल्य माना गया है।
(२) सत्यभाषणः-प्रत्येक उपासक को हित, मित एवं प्रिय सत्य ही बोलना चाहिये । असत्य भाषण से औरों को जितनी हानि होती है, उसकी अपेक्षा अनेकगुनी अधिक हानि असत्य बोलने वाले को होती है । वह अपने उपास्य ईश्वर से परे हो जाता है । हमारे शास्त्र स्पष्ट कहते हैं:-'तं सच्चं भगवं ।' अर्थात्-सत्य ही भगवान है। इतना ही नहीं, सत्य के लिये यह भी कहा गया है
'सच्चं सग्गद्दारं, सच्चं सिद्धीइ सोपाणं ।' -सत्य स्वर्ग का द्वार है तथा सिद्धि का सोपान है।
(३) संयमः--प्रत्येक उपासक के लिये उपासना प्रारंभ करने से पूर्व अपने मन एवं इन्द्रियों को नियन्त्रित अथवा संयमित कर लेना चाहिये । अगर ऐसा न किया गया तो मन इन्द्रिय-सुखों की प्राप्ति का इच्छक बना रहेगा और उपासना में कभी एकाग्र नहीं हो पाएगा। 'सूत्रकृतांग' शास्त्र में बताया है:
जहा कुम्मे सगाई, सए देहे समाहरे।
एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे॥ अर्थात्-कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर समेट कर खतरे से बचाव कर लेता है, इसी प्रकार मेधावी साधक भी अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तर्मुख होकर पापवृत्तियों से स्वयं को सुरक्षित रखता है।
वस्तुत: वही उपासक उपासना में सफलता प्राप्त कर सकता है, जो मन को बाह्यवृत्तियों की ओर से मोड़कर अन्तर्मुखी बना ले । सिनेमा हॉल में हम देखते हैं कि अन्दर के मुख्य पर्दे पर चल-चित्र तभी स्पष्ट दिखाई देता है, जबकि हॉल के सभी द्वार बन्द कर दिये जाते हैं, अन्दर जलनेवाली बत्तियाँ भी बुझा दी जाती हैं और तब एक विशेष स्थान से विशिष्ट प्रकार के प्रकाश के साथ श्वेत-पट पर विभिन्न दृश्य दिखाई देते हैं।
ठीक इसी प्रकार उपासक को भी उपासना करने से पूर्व अपने मन-मंदिर के वे समस्त द्वार जिनसे इन्द्रियाँ बाह्य भोगोपभोगों की ओर भागती हैं, बन्द कर लेना चाहिये।
और उसके बाद अन्तर में पूनः पूनः संकल्प-विकल्पों की जो चमक पैदा होती है, उसे भी बुझा लेना चाहिये । तत्पश्चात पूर्णतया शांत होकर अपनी विशेष प्रात्म-शक्ति के प्रकाश से चित्त के निर्मल पट पर आत्मा के विभिन्न दृश्य देखते हुए प्रात्मदर्शन करना चाहिये तथा प्रात्मा को अपने उपास्य और प्राराध्य में प्रात्मसात होते हए देखना चाहिये। ऐसा होने पर ही उपासना सफलीभूत हो सकेगी।
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चतुर्थ खण्ड / ७६
(४) सत्संग:- सत्पुरुषों की संगति को सत्संग कहा जाता है। इसका कितना महत्त्व है, इसे साधारणतया सभी समझते हैं। फिर भी मानव दुर्जनों के समागम से नाना प्रकार के दोषों और विकारों में लिप्त होकर कर्म-बन्धन करता हा संसार में जन्म-मरण करता रहता है। एक पाश्चात्य विचारक ने दुर्जन साथियों की भर्त्सना करते हुए कहा है:- .
"Evil companions are devil's agents and by these ambassadors he effects more than he could in his own person."
-बुरे साथी शैतान के प्रतिनिधि होते हैं। इन दूतों के द्वारा शैतान ऐसा अनिष्ट करता है जो वह स्वयं नहीं कर सकता।
किन्तु इसके विपरीत अगर व्यक्ति सज्जनों की, ज्ञानियों की तथा संत पुरुषों की संगति करे तो उनके समागम से वह मनोविजय की युक्तियाँ समझ सकता है, उपासना में आने वाले विघ्नों के विषय में जान सकता है तथा मन को निर्मल और सबल बनाने की शक्ति प्राप्त कर सकता है। इतना ही नहीं, अगर किन्हीं कारणों से वह उनका सदुपदेश न सुन सके और ज्ञान प्राप्त न कर पाए, तब भी उनके समीप रहने से उनके निर्दोष आचरण, क्रिया एवं सौम्यता, शांति आदि गुणों का अवलोकन करके अपनी वत्तियों को पवित्र और सात्त्विक बना सकता है । अदृश्य रूप से वायुमंडल के द्वारा उनके पवित्र तथा कल्याणकारी भावों को अात्मसात् कर सकता है जो हृदय में पहुँचकर शोधन का कार्य करते हुए करुणा और प्रेम का बीज वपन करते हैं। इसीलिये उपासक को संत-समागम अनिवार्य बताया गया है। अन्यथा उसका शरीर, मन या आत्मा, उपासना के योग्य कदापि नहीं बन सकते । उपासना शीघ्र फल-प्रसविनी कैसे बने ?
अभी हमने उपासना के सहायक तत्त्वों पर विचार किया किन्तु कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिन्हें जीवन में दढ़तापूर्वक उतार लेने से साधना शीघ्र फलवती हो सकती है। उन बातों या कारणों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
(१) विश्वास-साध्य की सिद्धि में लेशमात्र भी संदेह का न होना विश्वास कहलाता है। विश्वास से चित्त को बहुत बल मिलता है। प्रात्म-शक्ति अनेक गुनी बढ़ जाती है, तथा उपासक असफलता की चिन्ता से सर्वथा मुक्त होकर उपासना में तन्मय हो जाता है।
पूर्ण आस्था होने पर भक्त कंकर को भी शंकर के रूप में प्रतिष्ठित करके उनसे सिद्धियां हासिल कर लेता है और इसके विपरीत अविश्वासी व्यक्ति शंकर को कंकर समझता हा अपने साध्य से दूर हो जाता है। कोई भी साधक अथवा उपासक अपने लक्ष्य पर तभी पहुँच सकता है, जबकि उसका विश्वास अपने मार्ग पर सदा एक सा बना रहे । अविश्वास और शंका ने अगर जन्म ले लिया तो उसका आत्मबल क्षीण हो जायेगा और निदिष्ट लक्ष्य, तक पहुँचना कदापि संभव नहीं होगा। इसीलिये हमारे शास्त्र आचारांग सूत्र में साधक को चेतावनी देते हुए कहा है:
"जाए सद्धाए निक्खंते तमेव अणुपालेज्जा, विजहिता विसोत्तियं ।"
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आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना / ७७
यानी-जिस विश्वास के साथ निष्क्रमण किया है, साधनापथ को अपनाया है, उसी श्रद्धा का शंका या कुंठा से रहित होकर अनुपालन करना चाहिये।
स्पष्ट है कि शंका या अविश्वास मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं और कभी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं होने देते । इसीलिये उपासक को उपासना में अखंड विश्वास रखना अनिवार्य है।
(२) संकल्प-विकल्पों का त्याग-साधना के मार्ग को अपना लेने वाले साधक के लिये मन में उठने वाले अनुकल अथवा प्रतिकल, किसी भी संकल्प या विकल्प को मन में स्थान नहीं देना चाहिये तथा विषधर जन्तु के समान उनके पाते ही चित्त के बाहर फेंक देना चाहिये । ऐसा करने पर ही चित्त सभी प्रकार के चिंतन से मुक्त होकर एकाग्रतापूर्वक उपासना में निमग्न रह सकेगा। उपासना में अस्थिरता का आना लक्ष्य-सिद्धि के लिए सबसे बड़ी बाधा है, इसे नष्ट कर सकने वाला साधक ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है। श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा भी है:-.
“यस्य चित्त स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ।" अर्थात् जिसना चित्त स्थिर तथा अडोल होता है, वही साधक अपनी साधना को फलवती बनाकर सबकी प्रशंसा का पात्र बनता है ।
(३) व्याकुलता-उपासक अपने उपास्य की प्राप्ति के लिये अथवा साधक अपने साध्य की सिद्धि के लिये निरंतर प्रयत्न करता रहे तथा लक्ष्य को पाए बिना पलभर भी चैन से न बैठे, ऐसी अवस्था मन की हो जाए तब उसे व्याकुलता की श्रेणी में रखा जा सकता है । उस स्थिति में प्रत्येक विघ्न तथा प्राणत्याग से भी कठोर दुःख उपासक के लिए सर्वथा तुच्छ हो जाता है। उसके मन की समस्त वृत्तियाँ साध्य की ओर उन्मुख हो जाती हैं तथा अन्य किसी ओर उसका ध्यान क्षणमात्र के लिये भी नहीं जाता। चातक की एकनिष्ठा के समान ही साधक बिना संदेह, अविश्वास और ठहराव के भावविह्वल होकर लक्ष्य-प्राप्ति की ओर ही अपने मन, वचन तथा काया को लगाए रखता है, उस उच्चस्तर पर पहुँचने से ही लक्ष्य की शीघ्र प्राप्ति हो सकती है। 'श्रीमद्भागवत' में भगवान ने कहा है
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्त
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च । विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति । —जिस भक्त की वाणी नाम-कीर्तन करते-करते गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त नामस्मरणमात्र से द्रवित हो जाता है, जो भावावेश के कारण क्षण में रोता और क्षण में हँसता है, लज्जा का त्याग करके उच्च स्वर से कभी गाता है और कभी नाचता है, ऐसा मेरा भक्त सम्पूर्ण विश्व को पवित्र कर देता है।
तात्पर्य यही है कि ऐसी तन्मय भक्ति, जिसमें भक्त या साधक शारीरिक सुख, भौतिक संपत्ति तथा पुत्र-पौत्रादि सभी के प्रति ममत्त्व को छोड़कर अपनी साधना और उपासना में तल्लीन हो जाता है, वही उसे अपने उपास्य या लक्ष्य के समीप लाती है। उपासक के मन की प्यास परमात्मा में लीन होकर ही मिटती है और जबतक नहीं मिटती उसका हृदय व्याकुल बना रहता है । संसार के सम्पूर्ण विषयों से परे होकर ही नहीं, अपनी भी सुध-बुध खोकर जब
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चतुर्थ खण्ड / ७८
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साधक व्याकुलता की चरम सीमा पर पहुँच जाता है तब उसकी आत्मशक्ति चामत्कारिक प्रभाव दिखाती है । इसके उदाहरण अनेक पाये जाते हैं। यथा-सुदर्शन सेठ के लिए शूली का सिंहासन बनना, सती सुभद्रा की चालनी में पानी का आ जाना तथा चन्दनबाला की व्याकुल भक्ति से हथकड़ियों का टूट जाना आदि-आदि । सारांश यह है कि उपासना अगर यथोक्त विधि से की जाय तो वह निश्चय ही फल-प्रदायिनी बनती है। चिंतन-मनन, स्वाध्याय, तप, मंत्र-जाप, भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ, सामायिक, व्रत एवं ध्यान आदि उपासना के अनेक अंग हैं। उपासक अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार इनमें से जो कुछ कर सके, निस्वार्थ भाव से अन्तरमन को इनमें जोड़ते हुए करे तो वह निश्चय ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता हुआ मानव-जीवन का पूर्ण लाभ उठा सकता है। सम्यक् रूप से की गई उपासना ऐसी अनुपम औषध है जो उपासक को जन्म, जरा और मरण के सम्पूर्ण दुःखों से सदा के लिए छुटकारा दिलाकर शाश्वत सुख की उपलब्धि कराती है।
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स्यादवाद की लोकमंगल दृष्टि एवं
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"सत्य क्या है ?" यह एक प्रश्न है जिस पर हजारों हजार एवं लाखों लाख वर्षों से विचार होता आया है। इस प्रश्न पर विचार करनेवाला एकमात्र मनुष्य है। मानव जाति निरंतर सत्य की खोज करती रही है, सत्य को जानने के लिए उत्सुक रही है। आज भी सत्य का जिज्ञासु एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ सभी प्रकार के प्राचार, विचार, बोली, देश वाले व्यक्तियों के आने-जाने का तांता लगा हुआ है । वहाँ आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति से वह एक ही प्रश्न पूछता है -सत्य क्या है ? और प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग उत्तर देता हुआ आगे बढ़ जाता है । एक कहता है कि सत्य पूर्व में है तो दूसरा कहता है कि नहीं, सत्य पश्चिम में है। कोई कुछ और कोई कुछ कहकर अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य को अपनी दृष्टि से परखता है और जिस दृष्टि से देखता है, जिस रूप में देखता है, उसे ही सत्य मानने लगता है। परिणामतः उसके लिए झगड़ने लग जाता है कि 'नहीं नहीं, तुम सब झूठे हो, गुमराह हो, सत्य को नहीं पहचानते हो, अपनी बकवास बंद करो । सत्य तो मेरे पास है, प्रानो मैं तुम्हें सत्य को दिखाता हूँ।' इसका यह अर्थ हुआ कि सत्य बाजार में बिकनेवाली वस्तु है और वह कीमत देकर खरीदी जा सकती है, अथवा सत्य का भी नीलाम हो रहा है। विश्व में उसके सिवाय सत्य किसी के पास है ही नहीं।
। प्राय: मानव मान लेता है कि वह जो कहता है, वही सत्य है । जो वह जानता है, वही सत्य है । मानव की इस मान्यता में सत्यदृष्टि नहीं, अपितु उसका अहंकार छिपा हुआ है। किसी को बुद्धि का अहंकार है तो किसी को धन का और किसी को प्रतिष्ठा का । परिणामतः उसने अपने अहंकार को ही सत्य का रूप दे दिया है और उसके लिए वादविवाद, संघर्ष करने तथा लड़ने और मरने मारने को भी तैयार हो जाता है। जो मेरा है वही सत्य है । यह मूल बीज है तो बहुत छोटा, लेकिन जब यह प्राग्रह का भूत सिर पर सवार हो जाता है तो विग्रह पैदा कर देता है। जिससे संघर्ष के स्वर और वैर-विरोध के विषैले वक्ष लहलहाने लग जाते हैं ।
श्रमण भगवान् महावीर ने एक दृष्टि दी, विचार दिया कि सत्य शाश्वत है, लेकिन यह मत कहो कि मेरा सत्य ही सत्य है। एकान्त प्राग्रह सत्य नहीं है और न वह सत्य का जनक है । जब तक यह दृष्टि नहीं हो जायेगी कि-'यत्सत्यं तन्मदीयम्' तब तक सत्य की खोज नहीं कर सकते । सत्य को पाने के लिए अनाग्रह की दृष्टि अपनानी पड़ेगी। अनाग्रहदृष्टि किसी पक्षविशेष से आबद्ध न होने का नाम है। जब अनाग्रहद्दष्टि होगी तो सत्य स्वयं प्रतिभासित हो जायेगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।
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चतुर्थ खण्ड /८०
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इस अनाग्रहदृष्टि का नाम ही स्याद्वाद-अनेकान्तवाद है। यह सत्य को अनंत मानकर चलता है। फलतः जहाँ भी जिस किसी से भी सत्य मिलता है, अनाग्रह एवं विनम्र भाव से उसे अपना लेता है। प्राग्रहशीलता आदि के बारे में भगवान महावीर के कथन का निष्कर्ष यह है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों की निंदा में तत्पर हैं और ऐसा करने में . ही पांडित्य समझते हैं वे इस संसार में चक्कर लगाते रहते हैं।'
अनेकान्तदर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अर्थात् . पर्याय से उत्पन्न और विनष्ट होता हग्रा भी द्रव्य से ध्रव है। कोई भी वस्तु इसका अपवाद
नहीं है । मौलिक तत्त्वों के बारे में उन्होंने सूत्र दिया-“उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा ध्रुवेइ वा" --तत्त्व उत्पत्ति विनाश और ध्रौव्ययुक्त है। पदार्थ रूप से रूपान्तरित होते हुए भी अपने अस्तित्व, स्थायित्व से विहीन नहीं हो जाता है। लोकव्यवहार का ताना-बाना भी इन त्रिपदों से गुंथा हुआ है। जैसे कि व्यक्ति व्यक्ति के रूप में एक है, स्थायी है अवश्य, लेकिन साथ जुड़ने वाले सम्बन्ध बनते और बिगड़ते रहते हैं। व्यक्ति पिता है, पुत्र है, भाई, भतीजा, साला, बहनोई, मामा आदि अनेक सम्बन्धों से जुड़ा हुआ है, जिनकी यथावसर अभिव्यक्ति होती रहती है । पुत्र की अपेक्षा पितृत्व की उत्पत्ति हो जाती है और पिता की अपेक्षा उसका पिता रूप गौण होकर पुत्ररूप की उत्पत्ति हो जाती है । लेकिन इन पिता और पुत्र दोनों रूपों में व्यक्ति अपने व्यक्तिरूप, ध्रौव्य से विहीन नहीं हो जाता है। व्यक्ति है, तभी तो उसके साथ जुड़ने वाले सम्बन्धों का उत्पाद, विनाश यथावसर हो सका है।
लोक-व्यवहार में एक व्यक्ति के साथ अनेक सम्बन्धों का जुड़ना काल्पनिक नहीं है। हम अतीत की जीवन-परम्परा को छोड भी दें तो भी दर्तमानकालीन सौ वर्ष के सीमित जीवनकाल में भी अनेक सम्बन्धों की शृखला जुड़ी हई है। जैनसाहित्य में कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का पाख्यान प्रसिद्ध है, जो जन्मत: भाई-बहिन थे लेकिन भाग्य-दुर्भाग्य से अठारह सम्बन्ध वाले बन गये। वे नाते-सम्बन्ध भाई-बहिन, पति-पत्नी आदि से लेकर पिता-पुत्री आदि अनेक रूपों में प्रकट हुए । यद्यपि उन सम्बन्धों, धर्मों में विभिन्नता थी, लेकिन वे सभी अपेक्षाष्टि से घटित हुए। जब इन प्रतीतिसिद्ध नातों का अपलाप नहीं किया जा सकता तब अनन्त धर्मात्मक वस्तु में विद्यमान धर्मों के कथन के लिए अनेकान्तवाद-स्यावाद का विरोध कैसे सम्भव है ? अपनी ऐकान्तिक दृष्टि से हम कुछ भी मानले किन्तु सत्य को समझने के लिए वस्तु में अनन्त धर्मों की स्थिति को मानना ही पड़ेगा
यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिन्तन के प्रत्येक आयाम में हम परस्पर विरुद्ध दो स्थितियों के स्पष्ट दर्शन करते हैं। यह दोनों स्थितियाँ सापेक्ष हैं । एकान्त अस्ति या एकान्त नास्ति जैसा निरपेक्ष कुछ भी नहीं है । अतः 'हो' का प्रयोग करके सफल नहीं हो सकते । सफलता प्राप्ति के
१. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्सन्ति संसारे ते विउस्सिया ।।-सूत्रकृतांग १४१०२।२३ २. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र, अ०५
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स्यावाद की लोकमंगल दृष्टि एवं कथनशैली |८१
लिए 'भी' का प्रयोग आवश्यक है। 'भी' का प्रयोग सफल, शिष्ट और सर्वमान्य प्रणाली है और इसके दर्शन हमें अपने प्रतिदिन के जीवन-व्यवहार में होते हैं । अपेक्षाओं की सिद्धि 'ही' से नहीं 'भी' से सम्भव है । 'भी' का प्रयोग यह अभिव्यक्ति देता है कि स्वसत्य तो सत्य है ही, लेकिन दूसरा भी सत्य है ।
विश्ववन्द्य भगवान् महावीर ने स्यादवाद सिद्धान्त के द्वारा यही सूत्र दिया है कि एक पक्ष की सत्ता स्वीकार करते हुए दूसरे पक्ष को भी उसका सत्य कहने दो और उस सत्य . को स्वीकार करो। यह सिर्फ दार्शनिक चिन्तन नहीं है किन्तु सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला है और इसके द्वारा हम गरीबों दुर्बलों और अल्पसंख्यकों को न्याय दे सकते हैं । प्राज जो संघर्ष, वर्गभेद, विग्रह आदि हैं उनका मूल कारण एक-दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना है, वैयक्तिक हठ व आग्रह प्रादि हैं।
अपूर्णता के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास अांशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाते हैं और आंशिक सत्य को ही जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तब संघर्ष पैदा होना अवश्यम्भावी है। सत्य न केवल उतना है कि जितना हम जानते हैं अपितु वह तो अपनी पूर्ण व्यापकता लिए हए है। इसलिए मनीषी चिन्तकों को कहना पड़ा कि उसे तर्क, विचार, बुद्धि और वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। मानवबुद्धि सत्य को जानने में समर्थ अवश्य है। किन्तु पूर्णता प्राप्त किये बिना उसे पूर्णरूप में नहीं जान सकती है। ऐसी स्थिति में जब तक हम अपूर्ण हैं, हमारा ज्ञान अपूर्ण है, विचार अपूर्ण है, तब तक अपूर्ण ज्ञान से प्राप्त उपा को पूर्ण नहीं कहा जा सकता । उसे आंशिक सत्य कहा जायेगा और सत्य का आंशिक ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेध नहीं कर सकेगा। इसलिए इस प्रकार का दावा करना मिथ्या होगा कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, मेरे पास ही सत्य है । आधुनिक विज्ञान ने भी शोध से यही सिद्ध किया है कि वस्तु अनेकात्मक है। प्रत्येक वैज्ञानिक सत्य का शोधक है । इसलिए यह दावा नहीं करता है कि सृष्टि के रहस्य और वस्तुतत्त्व का पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद का सिद्धान्त यही तो कहता है कि हम केवल सापेक्ष सत्यों को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को पूर्णदृष्टागम्य है । अतः दूसरों के ज्ञात सत्य को असत्य नहीं कहा जा सकता है और आपेक्षिक सत्य अपेक्षाभेद से सत्य हो सकते हैं। स्याद्वाद की भी यही दृष्टि है।
___ इस प्रकार व्यावहारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक आधारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वन्द्वी नहीं है किन्तु परस्पर सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ हैं । इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है।
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥२
१. (क) नैषा तर्केण मतिरापनेया।-कठोपनिषद्
(ख) नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।-मुण्डकोपनिषद्
(ग) सव्वे सरा नियत्तंते तक्का तत्थ न विज्जइ।-आचारांगसूत्र २. षड्दर्शनसमुच्चय-टीका।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुथं खण्ड / ८२
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मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति द्वेष । लेकिन यह आकांक्षा है कि जो भी वचन युक्तियुक्त हो उसे ग्रहण करू।
इस प्रकार स्याद्वाद ने व्यक्ति को उस असीम उच्च धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ वह अपने स्वविचारों की कसौटी करे। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने वैचारिक सहिष्णुता के लिए स्याद्वाद के अवलम्बन की आवश्यकता की ओर संकेत करते हुए कहा हैसच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन पर द्वेष नहीं करता है। वह संपूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार की वात्सल्यदृष्टि से देखता है जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। क्योंकि अनेकांतवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं होती है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहा जाने का वही अधिकारी है जो स्याद्वाद का अवलंबन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समानता का भाव रखता है। माध्यस्थ्य भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है । मध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं है।'
स्याद्वाद-कथनशैली
शब्दशास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक शब्द के मुख्य रूप से विधि और निषेध ये दो वाच्य होते हैं । एकान्त रूप से न कोई विधि संभव है और न कोई निषेध ही। विधि और निषेध को लेकर जो सप्तभंगी बनती है, वह इस प्रकार है
(१) स्यात् अस्ति। (२) स्यात् नास्ति । (३) स्यात् अस्ति-नास्ति । (४) स्यात् प्रवक्तव्यम् (५) स्यात् अस्ति अवक्तव्यम्
) स्यात् नास्ति वक्तव्यम् (७) स्यात् अस्ति नास्ति वक्तव्यम्
इस सप्तभंगी में अस्ति, नास्ति और प्रवक्तव्य ये मूल तीन भंग हैं। इसमें तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी इस तरह चार भंग मिलने से सात भंग होते हैं। अस्ति-नास्ति, अस्ति-प्रवक्तव्य और नास्ति-प्रवक्तव्य से द्विसंयोगी भङ्ग हैं। ये तीनों रूप आगमों में विद्यमान हैं। जैसे कि भगवान् महावीर ने गणधर गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा
यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी । तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशविशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ।। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्धयति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद् वालिशवल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं ह्य कपदज्ञानमपि प्रभा । शास्त्रकोटिवथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना ।।
-अध्यात्मवाद ६९-७२
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स्यादवाद की लोकमंगल दृष्टि एवं कथनशैली |८३
'रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं, स्यात् प्रवक्तव्य ! ' स्व की अपेक्षा अस्तित्व है, पर की अपेक्षा अस्तित्व नहीं है, युगपत्-दोनों की अपेक्षा प्रवक्तव्य है। इन तीनों विकल्पों के संयोग से शेष चार विकल्प बनते हैं। उनमें से स्यात्-अस्ति-नास्ति, स्यादस्तिप्रवक्तव्य और स्यात-नास्ति-प्रवक्तव्य यह तीन द्विसंयोगी तथा स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य यह एक त्रिसंयोगी भंग है।
सप्तभंगों के समूह को सप्तभंगी कहते हैं। उनकी निर्माण प्रक्रिया का मुख्य आधार यह है-प्रश्नकर्ता द्वारा प्रश्न उपस्थित किये जाने पर उत्तरदाता एक वस्तु में परस्पर अविरुद्ध नाना धर्मों का निश्चय कराने के लिए विवक्षापूर्वक वाक्य का प्रयोग करता है और इस वाक्यप्रयोग के लिए शर्त यह है कि एक ही वस्तु में जो सत् और असत् प्रादि धर्मों की कल्पना को जाती है वह प्रमाण से अविरुद्ध हो।४
सप्तभंगों के लक्षण इस प्रकार हैं
(१) स्यात्-अस्ति-यह अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए विधि-विषयक बोध उत्पन्न करनेवाला वचन होता है । जैसे--कथंचित् यह घट है।
(२) स्यात-नास्ति-धर्मान्तर का निषेध न करते हुए निषेधविषयक बोधजनक कथन को स्यात्-नास्ति कहते हैं। जैसे-कथंचित् घट नहीं है।
(३) स्यात-अस्ति-नास्ति—यह एक धर्मी में क्रम से प्रायोजित विधि प्रतिषेध विशेषण का जनक वाक्य होता है । जैसे---किसी अपेक्षा से घट है और किसी अपेक्षा से नहीं है।
(४) स्यात्-प्रवक्तव्य-निर्दिष्ट परिगृहीत स्व-रूप तथा अविवक्षित पर-रूप प्रादि की विवक्षा करने पर अवक्तव्य विशेषण वाले बोध का जनक वाक्य । जैसे-घट का कथंचित वचन के द्वारा कथन नहीं किया जा सकता है।
(५) स्यात-अस्ति-प्रवक्तव्य-धर्मी विशेष्य में सत्वसहित प्रवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य । जैसे-कथंचित घट है किन्तु उसका कथन नहीं किया जा सकता है।
(६) स्यात्-नास्ति-प्रवक्तव्य-धर्मी विशेष्य में असत्व सहित प्रवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य जैसे-कथंचित् घट नहीं है और प्रवक्तव्य है।
(७) स्यात्-अस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य-एक धर्मी में सत्व-असत्व सहित प्रवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान का जनक वाक्य । जैसे-कथंचित् है, नहीं है, इस रूप से घट अवक्तव्य है।
१. भगवती १२।१० . २. अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषभंगानां च संयोगजत्वेनामीष्वेवान्तर्भावादिति ।
-स्याद्वादमंजरी, श्लोक २४ की व्याख्या ३. सप्तानां भंगानां समाहारः सप्तभंगीति ।-न्यायदीपिका ४. एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धा विधि-प्रतिषेध-विकल्पना सप्त
भंगी विज्ञेया ।--तत्वार्थराजवार्तिक ११६
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चतुर्थ खण्ड / ८४
अपनाचन
वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक है, अतः उनका कथन करने वाले शब्द भी अनन्त होंगे। फिर भी उन सब कथनों का समाहार स्यादस्ति आदि उक्त सप्तभंगी में हो जाता है।'
इस प्रकार स्यादवाद संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है। यह विशालता, उदारता ही पारस्परिक सौहार्द, सहयोग, सदभावना एवं समन्वय का मूल प्राण है। प्राज के युग में तो इसकी और भी अधिक आवश्यकता है। समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त स्याद्वाद को स्वीकार किये बिना फलित नहीं हो सकता है। उदारता और सहयोग की भावना तभी बलवती बनेगी जब हमारा चिन्तन कथन अनेकान्तवादी होगा। सत्य के मार्ग पर प्राया हुअा व्यक्ति हठी नहीं होता है बल्कि स्याद्वादी होता है। जब तक विश्व अनेकांत दृष्टिस्याद्वाद को स्वीकार नहीं करेगा तब तक संसार में शान्ति होना संभव नहीं है। विश्व को अपने विकास के लिए स्याद्वाद का शाश्वत सरल मार्ग स्वीकार करना आवश्यक है। वास्तव में यही विश्वमंगल की आद्य इकाई है । यही स्यादवाद की लोकमंगलदृष्टि है।
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१. पुच्छावसेण भंगा सत्तेव दु संभवदि जस्स जया।
वत्थत्ति तं पउच्चदि सामण्णविसेसदो नियदं।
-तत्त्वार्थराजवार्तिक
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उत्तराध्ययनसूत्र एवं 'भगवदगीता' के परिप्रेक्ष्य में
वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण
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'उत्तराध्ययनसूत्र' जैनदर्शन का प्रमुख प्रागम ग्रन्थ है तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' वैदिकदर्शन का प्रतिनिधि अध्यात्मग्रन्थ । दोनों ग्रन्थों में प्राध्यात्मिक संस्कृति एवं साधना का प्रतिपादन है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' प्राकृत में निबद्ध है एवं 'श्रीमद्भगवद्गीता' संस्कृत में विरचित । एक निवृत्तिप्रधान है, दूसरा प्रवृत्तिप्रधान । गीता में कृष्ण अर्जुन को युद्ध कार्य करते रहने की शिक्षा देते हैं,' उत्तराध्ययन में अपने आप से युद्ध करने के लिए कहा गया है। गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का विधान है, उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना वर्णित है। दोनों ग्रन्थ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के होते हुए भी, उनमें अनेक स्थानों पर साम्य है। गीता में जिस प्रकार प्रात्मा को अज, नित्य, शाश्वत, अच्छेद्य, अदाह्म, अक्लेद्य, अशोष्य आदि कहा गया है, उसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में भी प्रात्मा की अविनश्वरता स्वीकार की गयी है एवं उसे इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य बतलाया गया है। गीता में पुनर्जन्म के सिद्धान्त को जिस प्रकार स्वीकार किया गया है, उत्तराध्ययन में भी उसे उसी प्रकार स्थापित किया गया है। प्रस्तुत लेख में उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित वीतराग एवं भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के स्वरूप में गभित साम्य एवं वैषम्य का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जा रहा है।
जैनदर्शन में वीतराग
जैनदर्शन में वीतराग शब्द का प्रयोग राग-द्वेषादि से रहित साधक के लिए किया जाता है । यह वीतरागता ग्यारहवें (उपशान्तमोहनीय) गुणस्थान से लेकर चौदहवें (अयोगिकेवली) गुणस्थान तक प्रकट होती है। इनमें ग्यारहवें गुणस्थान की वीतरागता मोहकर्म के उपशम होने से प्रकट होती है तथा शेष तीन गुणस्थानों की वीतरागता मोहकर्म के क्षय (सम्पूर्ण नाश) होने से प्रकट होती है। उपशान्तमोह गुणस्थान में प्रकट होने वाली वीतरागता अस्थायी होती है, क्योंकि इस गुणस्थान का साधक पुनः सराग हो जाता है किन्तु क्षीणमोहनीय गुणस्थान में प्रकट होने वाली वीतरागता सदा के लिए हो जाती है । ऐसी वीतरागतासम्पन्न वीतराग ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायकर्म का भी क्षय कर अरिहन्त बन • जाता है, तथा अंत में चार अघाति कर्मों (वेदनीय, प्रायु, नाम एवं गोत्र) का भी नाश कर सिद्ध (मुक्त) बन जाता है।
मोहकर्म से राग-द्वेष का गहरा सम्बन्ध है। राग-द्वेष को पथक रूप से कर्मप्रक्रतियों में नहीं गिना गया है। किन्तु जब तक मोह का उदय होता है, तब तक राग-द्वेष भी सत्ता पाते रहते हैं और मोहकर्म का नाश होते ही राग-द्वेष का भी नाश हो जाता है। जिसके
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चतुर्थ खण्ठ / ८६
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राग, द्वेष एवं मोह का नाश हो जाता है उसे ही वीतराग कहा जाता है। वीतराग शब्द , में स्थित 'राग' से द्वेष एवं मोह आदि विकारों का भी उपलक्षण से ग्रहण हो जाता है ।
व्याकरण-शास्त्र की दष्टि से 'वीतराग' शब्द में बहुव्रीहि समास है। संस्कृत में अचमाचम समास-विग्रह होगा-'वीत:-अपगतः रागः यस्मात् स वीतरागः' अथवा 'वीतः नष्टः रागः .
यस्यासौ वीतरागः' अर्थात् जिसका राग नष्ट हो गया है वह वीतराग है। दिगम्बर जैन ग्रन्थ धवला ' एवं लब्धिसार में भी इसी प्रकार से विग्रह किया गया है।
'उत्तराध्ययनसूत्र' में वीतराग
उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन 'अप्रमाद स्थान' में वीतराग के स्वरूप का सरल किन्तु सारगर्भित निरूपण है । उसमें पाँच इन्द्रियों एवं एक मन के विषयों के प्रिय होने पर जो उनमें राग नहीं करता, तथा उनके अप्रिय होने पर द्वेष नहीं करता, अपितु सम रहता है उसे वीतराग कहा गया है, यथा
चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेलं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ अ.३२ गा.२२. सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ ३२/३५ घाणस्य गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ३२/४८ जिन्माए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेलं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। ३२/६१ कायस्स फासं गहणं बयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ३२/७४ मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स तु वीयरागो ।। ३२/८७
अर्थात् आँखों का विषय रूप है, मनोज्ञ (प्रिय) रूप राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है। ३२/२२
कानों का विषय शब्द है, मनोज्ञ (प्रिय) शब्द राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) शब्द द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/३५
नाक का विषय गंध है, मनोज्ञ (प्रिय) गंध राग का कारण होती है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) गंध द्वेष का कारण होती हैं; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/४८
जीभ का विषय रस है, मनोज्ञ (प्रिय) रस राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रस द्वेष का कारण होता है, जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/६१
काया का विषय स्पर्शन है, मनोज्ञ (प्रिय) स्पर्श राग का कारण होता है तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रस द्वेष का कारण होता है; जो इन दोनों में सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/७४
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वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण | ८७
मन का विषय भाव (संकल्प-विकल्प) है, प्रिय भाव (संकल्प-विकल्प) राग का कारण होता है तथा अप्रिय भाव (संकल्प-विकल्प) द्वेष का कारण होता है; जो इनमें सम रहता है, वह वीतराग है । ३२/८७
उपर्युक्त गाथार्थ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वीतराग समता की प्रतिमूर्ति होता है । वह सुखद प्रतीत होने वाले विषयों, भोगों एवं कामवासनामों के प्रति राग करता है और न दुःखद प्रतीत होने वाले विषयों, भोगों एवं संकल्पों के प्रति द्वेष करता है। वह समतापूर्वक दोनों स्थितियों को देखता भर है। वह न अनुकूलता में सुखी होता है और न प्रतिकूलता में दुःखी । वह दुःख सुख से प्रतीत होकर समतापूर्वक उनको देखता रहता है । जो सुखद कामभोगों के प्रति राग करता है वह अपनी समता भङ्ग करता है, तथा जो दुःखद परिस्थितियों के प्रति द्वेष करता है अथवा उनसे दुःखी हो जाता है वह भी अपनी समता भङ्ग करता है । समता भङ्ग होने पर वह मोह से विमूढ़ हो जाता है । ऐसा पुरुष सदैव दु:ख प्राप्त करता रहता है। वीतराग पुरुष दु:खों से रहित हो जाता है। दु:ख के मूल कारण तो राग और द्वेष हैं। जो राग-द्वेष से रहित है वह दुःखों से भी रहित है। राग-द्वेष ही कर्मबन्धन के बीज हैं, जैसा कि कहा है
रागो य दोसो विय कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मुलं
दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥ उत्तरा० ३७/२ अर्थात् राग और द्वेष कर्म के बीज हैं, वह कर्म मोह से उत्पन्न होता है । कर्म ही जन्म एवं मरण का मूल कारण है और जन्म-मरण दुःख हैं। मनुष्य पाँच इन्द्रियों एवं एक मन के माध्यम से सुखभोग करता रहता है। वह मधुर संगीत सुनकर हर्षित होता है, अनिंद्य सौन्दर्य को देखकर भोगने हेतु लालायित हो जाता है, शरीर को सुगन्धित करने हेतु अनेक प्रसाधन-सामग्रियों का प्रयोग करता है, जिह्वा को स्वाद देते रहने के लिए प्रयत्नशील रहता है तथा काया के स्पर्शनसुख के लिए भले-बुरे को भी भूल जाता है, मानसिक कल्पनाओं के सुख में दिवास्वप्न लेने लगता है। किन्तु ये सारे ऐन्द्रियक सुख मनुष्य को बेभान बनाते हैं, उसकी चेतना-शक्ति को प्रावृत करते हैं तथा विवेक को कुण्ठित बनाते हैं और मनुष्य में भ्रम विकसित कर देते हैं। उत्तराध्ययन में तो ऐन्द्रियक सुखों में तीव्र 'राग करने वाले का तत्काल विनाश कहा गया है, तथा द्वेष करने वाले को दुःखपरम्परा का जन्मदाता कहा गया है, यथा
रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। ३३१२४ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ॥ ३२॥२५
जो रूप में तीव्र गद्धि (प्रासक्ति) करता है वह अकाल ही विनाश को प्राप्त करता है और जो तीव्र द्वेष करता है वह उसी क्षण दुःख प्राप्त करता है। यहाँ पर रूप में आसक्ति करने की गाथा दी गयी है, किन्तु इसी प्रकार शब्द, रस, गंध, स्पर्श एवं विचार (भाव) में तीव्र आसक्ति (राग) करने वाला भी अकाल ही विनाश को प्राप्त करता है एवं इनमें द्वेष करने वाला दुःखी होता है। काम भोग किंपाक फल के समान मनोरम प्रतीत
धम्मो दीयो संसार समुद्र में चर्म ही दीय है।
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चतुर्थ खण्ड | ८८
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होते हैं, किन्तु वे अनर्थ को जन्म देने वाले होते हैं-खाणी अणत्थाण हु काम-भोगा। कामभोग शल्य हैं, विष हैं और माशीविष के समान हैं, जो कामभोगों (विषयभोगों) की इच्छा करता है, वह उन्हें भोगे विना भी दुर्गति को प्राप्त करता है।
वीतराग कामभोगों में सुख नहीं मानता। वह उनमें दुःख भी नहीं मानता। क्योंकि कामभोग अथवा विषयभोग की सामग्री न समता पैदा करती है और न विषमता पैदा करती है, अपितु उनके प्रति अथवा भोगसामग्री के प्रति रहा हुअा राग एवं द्वेष ही मोह के कारण विकृति (विषमता) पैदा करता है, यथा
ण कामभोगा समयं उर्वति, ण यावि भोगा विमई उति ।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥ उत्तराध्य. ३२११०१ (न कामभोग समता पैदा करते हैं, न विकृति पैदा करते हैं, जो उनके प्रति (भोग सामग्री के प्रति) प्रद्वेष करता है एवं परिग्रह (राग, आसक्ति) करता है वह उनमें मोह के कारण विकृति प्राप्त करता है। इसी तथ्य को भिन्न प्रकार से ऐसे कहा गया है
विरज्जमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा ।
ण तस्स सब्वेवि मणुण्णयं वा, णिव्वत्तयंति अमणुण्णयं वा ॥ ३२॥१०६
इन्द्रियों के शब्दादि विषय, जितने भी है वे सब उस विरक्त (वीतराग) जीव के लिए मनोज्ञता एवं अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं कर सकते । रूपादि विषयों से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुअा भी दुःख-परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे कमल-पत्र जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता । इस प्रकार जो इन्द्रिय एवं मन के विषय रागी मनुप्य के दुःख के कारण होते हैं वे वीतराग मनुष्य को कभी भी किंचित् भी दु:ख उत्पन्न नहीं करते ।
दुःख कामभोग की सामग्री से नहीं होता, अपितु उनमें रही हुई गृद्धता (प्रासक्ति, राग) से होता है। वह दुःख चाहे लोक के किसी भी प्राणी को क्यों न हो, सारा कामभोगों अथवा विषय भोगों में रही हुई प्रासक्ति (राग) से उत्पन्न होता है। वीतराग पुरुष समस्त दुःखों का अन्त कर देता है । यथा
कामणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्ससदेवगस्स ।
जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो ॥ उत्तरा, ३२११९
(देवलोक सहित सम्पूर्ण लोक में जो भी शारीरिक और मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं, वे काम भोगों में रही आसक्ति से उत्पन्न होते हैं, वीतराग पुरुष उन दुःखों का अन्त कर देता है।)
वीतरागता की प्राप्ति होने का अर्थ है राग-द्वेष का नाश अथवा मोहकर्म का क्षय । मोहकर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का भी क्षय हो जाता है, जैसे कि कहा है
स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ णाणावरणं खणणं ।
तहेव जं सणमावरेइ, जं चंतरायं पकरेइ कम्मं ॥ ३२।१०८ (वह वीतराग अशेष कार्य करके, क्षण भर में ही ज्ञानावरण का क्षय कर देता है तथा दर्शन का आवरण करने वाले कर्म एवं अंतराय कर्म का भी उसी प्रकार क्षय कर देता है।)
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वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण /८९
इन चार घनघाति कर्मों का क्षय होने के पश्चात् मुक्ति (मोक्ष) सुनिश्चित है । मुक्ति का सुख अक्षय एवं अव्याबाध होता है । उस सुख का कभी नाश नहीं होता तथा पुनः दुःख नहीं पाता । अतः उत्तराध्ययन में इसे एकान्तसुख शब्द दिया गया है
रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ।
राग एवं द्वेष का पूर्णतः (मूलत:) विनाश होने से वीतराग साधक मोक्ष रूप एकान्तसुख को प्राप्त करता है।
वीतरागता
वीतराग की भाववाचक संज्ञा वीतरागता है । वीतराग की वीतरागता ही साधक का लक्ष्य होती है। वीतरागता की साधना से ही वीतराग बना जा सकता है। वीतरागता प्राप्त होती है राग-द्वेष-कषायों के त्याग से । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में प्रश्न किया गया हैकसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ हे भगवन् ! कषाय का प्रत्याख्यान (त्याग) करने में जीव क्या लाभ प्राप्त करता है ? तो भगवान् उत्तर देते हैं-कसायपच्चक्खाणणं वीयरागभावं जणयइ, वीयरागभावं पडिवण्णे वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ।११ अर्थात् कषाय का प्रत्याख्यान (त्याग) करने से जीव वीतरागभाव को प्राप्त करता है। वीतराग भाव प्राप्त हो जाने पर जीव सुख दुःख में सम (समान) हो जाता है। वीतरागभाव की प्राप्ति से और भी अनेक लाभ होते हैं, उनको अधोलिखित प्रश्नोत्तर में स्पष्ट किया गया है
वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणबंधणाणि य वोच्छिंदइ मणुण्णामणुण्णेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ ।१२।
हे भगवन् ! वीतरागता से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान् उत्तर देते हैंवीतरागता से जीव राग (स्नेह) के अनुबंधनों एवं तृष्णा के अनुबंधनों को काट देता है तथा मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंधादि से विरक्त हो जाता है।
वीतरागता का सहभावी परिणाम राग का विनाश होना है। प्राकृत में नेह (स्नेह) शब्द राग अथवा आसक्ति का पर्याय है। इनमें मोह विद्यमान रहता है। पुत्र, पौत्र, कलत्रादि के प्रति जो स्नेह होता है वह मोहरूप होता है। वीतरागता के साथ ही इस मोह का क्षय (विनाश) हो जाता है और मोह का नाश होते ही वैषयिक सुखभोग की तृष्णा (प्यास) भी समाप्त हो जाती है, वैषयिक सुखों के प्रति रागी अथवा मूढ (मोही) व्यक्ति का ही चित्त चलता है। निर्मोही व्यक्ति सुखभोग की तृष्णा से हीन, समभावी बन जाता है। कहा भी है'मोहो हो जस्स ण होइ तण्हा' ।'
वीतरागता की साधना समता की साधना है। समता में जो स्वाभाविक प्रानन्द की प्राप्ति होती है, वह विषमचित्त में कदापि संभव नहीं। समता में शान्ति,स्वाधीनता एवं अव्याबाध सुख का अनुभव होता है, विषमता में विकारों की अग्नि धधकती रहती है, जो मनुष्य के विवेक का नाश करती है। समता में विवेक जाग्रत होता है, मिथ्यात्व का हनन होता है, सम्यकत्व की प्राप्ति होती है तथा मुक्ति (दुःख-मुक्ति) का अनुभव होता है ।
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स्थितप्रज्ञ एवं स्थितप्रज्ञता
'भगवद्गीता' में 'स्थितप्रज्ञ' का उतना ही महत्त्व है जितना प्रस्थानत्रयी' में गीता का 'स्थितप्रज्ञ' वर्णन को गीता का हार्द कहा जा सकता है। 'स्थितप्रज्ञ' शब्द का विग्रह होगा - स्थिता प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः' अर्थात् जिसकी प्रज्ञा स्थित (स्थिर) है वह स्थितप्रज्ञ है । 'स्थितप्रश' शब्द में स्थित शब्द जड़ता का सूचक नहीं, अपितु समता का सूचक प्रतीत होता है। यह गीता का अपना विशिष्ट शब्द है। अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण से स्थितप्रज्ञ का स्वरूप समझने की जिज्ञासा प्रकट की तो श्रीकृष्ण ने इस प्रकार समझाया
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ २५५ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेष विगतस्पृहः । वीतरागभय क्रोधः स्थितधीमुळे निरुच्यते ॥ २५६
चतुर्थखण्ड / ९०
हे अर्जुन ! जब साधक अपने मन में स्थित समस्त कामनाओं (भोगेच्छाओं) का त्याग कर देता है तथा अपने आप में संतुष्ट हो जाता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है । २।५५ जिसका मन दुःखों (दुःखद स्थितियों) में उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों (सुखद स्थितियों) में उनको पाने की अभिलाषा नहीं रखता ऐसा राग, भय, एवं क्रोध से रहित मुनि स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। २५६
स्थितप्रज्ञ के उपर्युक्त लक्षण से निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं- (१) वह ( सुखभोग की कामना से रहित होता है ( २ ) वह अपने आप में संतुष्ट रहता है ( ३ ) दु:ख में उद्विग्न नहीं होता तथा सुख की अभिलाषा नहीं रखता अर्थात् दुःख एवं सुख में सम रहता है। (४) वह राग, भव एवं क्रोधादि विकारों से रहित होता है।
गीता में स्थितप्रज्ञ को स्थिरबुद्धि एवं स्थिरमति शब्दों से भी अभिहित किया गया है। स्थिरबुद्धि शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है
न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ गीता ५।२०
,
अर्थात् स्थिरबुद्धि मनुष्य असंमूढ एवं ब्रह्मविद् होकर ब्रह्म में स्थित रहता है तथा प्रिय वस्तु को प्राप्त कर हर्षित नहीं होता और अप्रिय वस्तु को प्राप्त कर उद्विग्न नहीं होता । 'स्थिरमति' शब्द का प्रयोग भी स्थितप्रज्ञ के समत्व लक्षण में किया गया है, यथा
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ गीता १२/१८ तुल्यनिन्दास्तुतिमनी संतुष्टो येन केनचित् । अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः ॥ गीता १२ / १९
( शत्रु और मित्र के प्रति सम रहने वाला, सम्मान एवं अपमान में समान रहने वाला, शीत, उष्ण तथा सुख एवं दुःख में सङ्ग (प्रासक्ति) रहित होकर सम रहने वाला, निन्दा एवं प्रशंसा में सम रहने वाला, सर्वथा संतुष्ट रहने वाला मौनी संन्यासी स्थिरमति होता है तथा वह भक्तिसम्पन्न स्थिरमति मनुष्य मेरा प्रिय है ।)
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वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण | ९१
इस प्रकार स्थिरमति एवं स्थिरबुद्धि शब्दों का प्रयोग समत्वप्राप्त, मनुष्य के अर्थ में किया गया है, स्थितप्रज्ञ का भी यही मुख्य लक्षण है कि वह सुख एवं दु:ख के कारणों से प्रभावित नहीं होता। वह सुख में राग एवं दुःख में द्वेष नहीं करता । जैसा कि कहा है
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वप्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ गीता २/५७ जो सर्वत्र राग रहित (अनभिस्नेह) है, शुभ(प्रिय) वस्तु को प्राप्त कर उससे हर्षित नहीं होता तथा अशुभ (अप्रिय) वस्तु को प्राप्त कर उससे द्वेष नहीं करता, उसकी प्रज्ञा स्थित होती है अर्थात् वह स्थितप्रज्ञ होता है ।
मनुष्य स्थितप्रज्ञ कब बनता है अथवा उसकी प्रज्ञा स्थित (प्रतिष्ठित) कब होती है इसका निरूपण करते हुए गीता में कहा गया है
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ जब साधक अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों (रूपरसादि) से उसी प्रकार समेट लेता है, जिस प्रकार कछपा अपने अंगों को चारों ओर से समेट लेता है, उसकी प्रज्ञा स्थित होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो-'वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'-गीता २/६१ अर्थात जिसके वश में इन्द्रियाँ हैं उसकी प्रज्ञा स्थित है।
वीतराग और स्थितप्रज्ञ
वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ के स्वरूप एवं विशेषताओं पर विचार करने पर निम्नलिखित समानताएँ प्रतीत होती हैं१. समता
वीतराग का प्रमुख गुण है समता । वह मनोज्ञ (प्रिय) रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द एवं संकल्प-विकल्पों के प्रति राग नहीं करता तथा अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द एवं संकल्प-विकल्पों के प्रति द्वेष नहीं करता । प्रिय एवं अप्रिय दोनों स्थितियों में वीतराग सम रहता है-समो य जो तेसु स वीयरागो।'
स्थितप्रज्ञ में भी यह प्रमुख विशेषता है । वह भी वीतराग के सदृश सुख, दुःख, प्रिय, अप्रिय, जय, पराजय, लाभ, हानि आदि में समदर्शी होता है। गीता में प्रज्ञा के स्थित (प्रतिष्ठित) होने का अर्थ समता की प्राप्ति से ही है।
२. राग-द्वषादिविकारविहीनता
वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ दोनों राग-द्वेष प्रादि विकारों से रहित होते हैं। राग को सब विकारों का मूल कहा जा सकता है। जहाँ राग है, वहाँ समस्त विकार (कषाय) विद्यमान हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में कामगुणों में आसक्त (रागयुक्त) जीव में अन्य विकारों की उपस्थिति को इस प्रकार कहा है
कोहं च माणं च तहेव माय, लोहं दुगुञ्छं अरइं रइं च । हासं भयं सोग-पुमित्थिवेयं, णपुसवेयं विविहे य भावे ।। ३२/१०२
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चतुर्थ खण्ड / ९२
आवज्जइ एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो।
अण्णे य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ॥ ३२/१०३ अर्थात कामभोगों में आसक्त (रागयुक्त) जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उसी प्रकार के अनेक भावों को एवं विविध रूपों को तथा इनसे उत्पन्न होने वाले अन्य अनेक विकार विशेषों को प्राप्त करता है । इस कारण से वह कायासक्त जीव करुणा-पात्र, लज्जित एवं द्वेष्य बन जाता है ।
राग का नाश होते ही इन सब विकारों का विनाश हो जाता है। भगवदगीता में भी स्थितप्रज्ञ को राग, भय एवं क्रोध से रहित बताया गया है-बीत रागभयक्रोधः स्थितधीमनिरुच्यते । ये तीन विकार (दोष) उपलक्षण से तत्सदृश अन्य विकारों का भी ग्रहण कर लेते हैं। स्थितप्रज्ञ में भी वीतराग की भाँति राग-द्वेषादि विकारों का समूल नाश हो जाता है। जैसा कि कहा है-----रागद्वेषवियूक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन'१५ इत्यादि ।
३. विषयों से विमुखता
बीतराग पुरुष की पांचों इन्द्रियाँ (कान, आँखें, नाक, जीभ एवं स्पर्शन) एवं मन विषयभोगों की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं। वह विषय-भोगों से विमुख हो जाता है । स्थितप्रज्ञ भी इन्द्रिय-विषयों से अपने आपको समेट लेता है। श्रीकृष्ण अर्जन से कहते हैं-हे अर्जन ! जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों से पूर्णत: निगहीत हैं उसकी प्रज्ञा स्थित होती है।
४. दुःख-नाश
वीतरागता की प्राप्ति के साथ ही दुःखों का विनाश हो जाता है। वीतराग के पास किसी भी प्रकार का दु:ख नहीं फटकता । वह सर्वविध दुःखों का अंत कर देता है--जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।'७ अर्थात जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, वीतराग उन सबका अंत कर देता है। अन्यत्र उत्तराध्ययन में हीते चेव थोवं वि कयाइ दुक्खं, ण वीयरागस्स करेंति किंचि१८ कहकर वीतराग से दुःखों को दूर रख दिया है।
स्थितप्रज्ञ' भी जब इन्द्रियनियंत्रण कर एवं प्रात्मवश्य होकर प्राचरण करता है तो वह प्रसाद (प्रसन्नता) प्राप्त करता है तथा प्रसाद प्राप्त करने पर सब दुःखों का विनाश हो जाता है, यथा
आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति । गीता २/६४
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ॥ गीता २/६५ वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ में कुछ अन्तर भी प्रतीत होता है । यह अन्तर निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है
१. कर्म-क्षय
उत्तराध्ययन सूत्र में जहाँ वीतराग को मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का क्षय करने वाला कह कर उसे कर्मक्षय की कसौटी पर परखा गया है वहाँ स्थितप्रज्ञ के साथ कर्मक्षय का कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया गया। जैनदर्शन के अनुसार आठ कर्मों
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वीतराग और स्थितप्रज्ञ एक विश्लेषण / ९३
(ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय) में सर्वप्रथम मोह का क्षय होते ही साधक वीतराग बन जाता है, तदनन्तर वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्मों का क्षय करता है। ग्रन्य चार कमी का एक साथ आयुकर्म के क्षय होते ही नाश हो जाता है और वीतराग मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।"
२. मोक्ष एवं ब्रह्मनिर्वाण
भगवद्गीता में समस्त कामनाओं के त्यागी स्थितप्रज्ञ की स्थिति को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। वह इस स्थिति को प्राप्त कर पुनः मोहित नहीं होता तथा इस स्थिति में स्थित रहकर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त कर लेता है । ३० उत्तराध्ययन सूत्र की शब्दावली में मोक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है वहां वीतराग को चार घाति कर्मों का क्षय करने वाला कहकर आयुकर्म का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त करने वाला प्रतिपादित किया गया है। गीता में ब्रह्मनिर्वाण के लिए प्रयुकर्म के क्षय की बात नहीं की गयी, जो कि उत्तराध्ययन सूत्र में की गई है।
३. एकान्त सुख
उत्तराध्ययन में राग एवं द्वेष का क्षय करने वाले वीतराग को एकान्तसुख (व्याबाधसुख, अक्षयसुख, पतन्तमुख) का प्राप्तकर्ता कहा है यथा-रागस्स दोसस्स व संखएण, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं । २१
बत्तीसवें अध्ययन में भी सब कर्मों से मुक्त होने पर उसे अत्यन्त सुखी बतलाया है
सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को
जं बाहइ सययं जंतुमेयं ।
वीहामयं विप्यमुक्को पत्यो
तो होइ अच्चंतसुही कयस्थो ।। ३२।११०
जो दुःख इस जीव को निरन्तर पीड़ित कर रहा है, उस समस्त दुःख से वह जीव मुक्त हो जाता है तथा दीर्घ कर्मरोग से मुक्त हुआ प्रशस्त जीव कृतार्थ होकर प्रत्यन्त सुखी हो जाता है ।
भगवद्गीता में प्रत्यन्तसुख की बात नहीं कही गयी वहाँ तो कामनाओं के त्यागने । वाले निःस्पृह, निर्मन एवं निरंहकार साधक को केवल शान्ति प्राप्त करने वाला कहा है। २२ उपसंहार
उत्तराध्ययन में प्रतिपादित 'वीतराग' राग-द्वेष का नाश कर विषय-भोगों से राग करते हैं और न ही दुःखद एवं
भगवद्गीता में प्रतिपादित 'स्थितप्रज्ञ' एवं दोनों भिन्न-भिन्न संस्कृति के आदर्श पुरुष हैं। दोनों विमुख होते हैं, तथा सुखद एवं प्रिय वस्तु के प्रति न प्रिय वस्तु के प्रति द्वेष दोनों समता की प्रतिमूर्ति हैं। दोनों अपने समस्त दुःखों का विनाश करने वाले हैं। उनका चित्त एवं इन्द्रियाँ उनके वश में रहती हैं, वे उनसे सुखभोग की इच्छा नहीं करते ।
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वीतराग की प्रज्ञा सम होती है तथा स्थितप्रज्ञ भी वीतराग होता है । फिर भी उनमें कुछ मौलिक भिन्नताएँ हैं। वीतराग मोहकर्म का नाश होने से बनता है, तदनन्तर वह ज्ञानावरणादि ग्रन्य तीन घातिकमों का क्षय कर अरिहन्त बन जाता है, तथा अंतिम समय में चार प्रघातिकर्मों का क्षयकर सिद्ध बन जाता है। स्थितप्रज्ञ कां कर्मों से कोई सम्बन्ध
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चतुर्थखण्ड / ९४
स्थापित नहीं है । वह ब्रह्म में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त करता है । वीतराग में केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख आदि गुण प्रकट होते हैं स्थितप्रज्ञ में इनकी चर्चा नहीं मिलती ।
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संदर्भ
३८
"
१. नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । २. अप्पाणमेव जुकाहि, कि ते जुग्भेण बभयो ।
भगवद्गीता उत्तरा ९१३५
३. अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे । - गीता २।२०
श्रच्छेद्योऽयमदाहयोऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । गीता २।२४
४. नो इंदियगेज्म प्रमुत्तभावा, प्रमुत्तभावा वि य होइ जियो ॥ - उत्तराध्ययन १४ । १९ ५. देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा
तथा देहान्तप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ गीता २।१३
६. एगया देवलीएस णरएस वि एगया।
एगया धासुरे काये, ग्रहाकम्मेहिं गच्छ ॥ उत्तरा ३०३ ७. वीतो नष्टो रागो येषां ते वीतरागाः ।
८. वीतोऽपतो रामः सकलेशपरिणामो यस्मादसो
वीतरागः ।
- लब्धिसार जी. प्र. । ३०४।३८४।१७
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९. उत्तराध्ययनसूत्र १९।१०
१०. सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा ।
कामे य पत्येमाणा, अकामा जंति दुग्गड़ || उत्तरा ९१५३
११. उत्तराध्ययन सूत्र २९|३६
१२. उत्तराध्ययन सूत्र २९।४५
१३. वही ३२१८
१४. वही ३२०२२, ३५, ४८,६१,७४,८७
१५. भगवद्गीता २६४
१६. वही तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । २०६६
१७. उत्तराध्ययनसूत्र ३२।१९
१८. वही ३२१००
।
१९. माउक्खए मोखमुवेद सुखे उत्तरा ३२ १०९ २०. एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ गीता २७२
२१. उत्तराध्ययन सूत्र ३२/२
२२. विहाय कामाभ्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरंहकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ - गीता २७१
- टीचर फेलो, संस्कृत विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर (राज०)
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन
मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय', एम. ए. साहित्य रत्न
प्रभु महावीर और उत्तराध्ययन सूत्र
इष्ट नहीं है ।
क्योंकि अन्य
चार मूल सूत्रों में 'उत्तराध्ययनसूत्र' का नाम आता है । इसको जैन परम्परा में प्रभु महावीर की अन्तिम देशना के रूप में स्वीकार किया गया है। फिर भी इस सूत्र के कुछ अध्ययनों को लेकर हल्का-सा मत-भेद उत्पन्न हुआ है कि वे अध्ययन प्रभु महावीर के निर्वाण के बाद प्रक्षिप्त किये गये हैं । जो भी हो हमें यहाँ इस बात की चर्चा लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि इस सूत्र का स्थान बड़ा ही गौरवपूर्ण है । आगम सूत्रों की अपेक्षा इस सूत्र पर नियुक्ति, चूर्णि, टीका, उपटीका, भाष्य एवं अनेक अनुवाद लिखे गये हैं विद्वदाचार्यों द्वारा ! भद्रबाहु स्वामी द्वारा इस पर नियुक्ति की रचना की गयी है। साथ ही इस सूत्र में चारों ही अनुयोगों - चरणकरणानुयोग, धर्मानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग का वर्णन उपलब्ध होता है । इस दृष्टि से इस सूत्र का महत्त्व स्वयमेव प्रभासित है । यह सूत्र जीवन-दर्शन, अध्यात्म, धर्म, दर्शन; इतिहास, कथा आदि विविध विषयों का एक तरह से कोष है । यह सूत्र ऐसा एक सागर है जिसके भीतर अनमोल रत्न उपलब्ध हैं । चाहिये ऐसा बुद्धि का तिरैया, जो भीतर गहरा उतरे और रत्न ढूंढ लाये !
प्रस्तुत निबंध की भावभूमि
यह सर्वमान्य बात है कि वीतराग- वाणी - श्रार्षवाणी प्राध्यात्मिक भावों को ही स्पष्ट करने वाली है । श्राषं वाणी अपनी तेजस्वी ज्ञानधारा के साथ भव्यजीवों के हृदय को स्पर्श कर मिथ्यात्व की चट्टान को भेदने वाली है । अतः जो सीधे हृदय में उतरने वाली बात है उसका अपना विशिष्ट ही महत्त्व है ।
आर्षवाणी प्राध्यात्म-वैभव से परिपूर्ण होती है । उसका एक-एक शब्द रूपी मोती बहुमूल्य तो क्या अनमोल होता है। क्योंकि उसकी कीमत आंकना ही मुश्किल है । तब उसकी महिमा गरिमा एवं भावना की बात ही क्या है ?
आत्म-वैभव से परिपूर्णता के कारण इस सूत्र पर काफी लिखा गया है निबंधात्मक या शोध रूप से, जिन्होंने भी लिखा उन सभी ने प्रायः इसके प्रात्म-वैभव को लेकर ही लिखा है । जहाँ तक मेरे ध्यान में है, बात यह है कि इसके बाह्य कला वैभव पर बहुत कम लिखा गया है या नहीं ही लिखा गया है । यदि लिखा भी गया है तो मेरे ध्यान में नहीं है । साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मेरा ध्यान इसके कला-वैभव की ओर गया। तब मुझे ऐसा लगा कि इसके कला वैभव को स्पष्ट करना चाहिए। क्योंकि प्राय: जैन सूत्रों और ग्रन्थों को यह कह कर साहित्यिक
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चतुर्थ खण्ड / ९६
जगत् के विद्वानों ने साहित्यिक जगत से परे किया है कि इनमें आध्यात्मिक बातें ही हैं साहित्यिकता नहीं। किन्तु जब गहरी दृष्टि से मैंने इस सूत्र का अध्ययन किया तो मुझे इसमें साहित्यिकता भी मिली । वर्तमान में प्रचलित साहित्यिक-समीक्षा के मापदण्डों में कला पक्ष की प्रधानता प्रायः अधिक है। अतः अब हमें सूत्रों एवं ग्रन्थों का साहित्यिक महत्त्व साहित्यजगत् के सामने रखना चाहिए । यह सूत्र भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों ही पक्षों में बड़े सशक्त एवं सामर्थ्य के साथ अपना स्थान रखता है।
बाह्य वैभव कलापक्ष की समीक्षा प्रायः इन रूपों में की जाती है-रस, छन्द, अलंकार, भाषा, शैली, प्रतीक, विधान आदि ।
ये सारे रूप मिलकर कलापक्ष-बाह्य वैभव की सर्जना करते हैं। सभी का अपनाअपना अलग-अलग महत्त्व है। किसी भी रूप की हम उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।
प्रस्तुत निबंध सम्पूर्ण कलापक्ष के रूपों को लेकर प्रस्तुत नहीं है। किन्तु मात्र 'अलंकर-रूप' को लेकर ही लिखा जा रहा है। अत: 'अलंकार-रूप' के अलावा शेष अन्य रूपों पर यहाँ विचार नहीं किया जाएगा ! उत्तराध्ययनसूत्र और अलंकार
उत्तराध्ययन-सूत्र महाकाव्य नहीं है । वस्तुतः यह पार्ष-वाणी है।
अलंकार की दष्टि से या भाषा वैभव को दृष्टि से यह सूत्र-बद्ध नहीं किया गया अपितु भाववैभव ही इसका प्रमुख प्राधार है। फिर भी जब अलंकार खोजने / शोधने की दृष्टि से इसका अवलोकन किया तो काफी बड़ी मात्रा में इसमें अलंकार मिले। यूं तो अलंकारों की संख्या सैकड़ों में मानी जाती है फिर भी यहाँ उन सभी अलंकारों की दृष्टि से शोधपूर्वक नहीं लिखा है। कुछ प्रमुख अलंकारों की ही शोध की है । वस्तुतः इसमें उपदेशात्मक, कथात्मक हिस्सा अधिक होने से उदाहरण अलंकार, दृष्टांत अलंकार प्रचुरता से मिले । साथ ही यमक, उपमा और रूपक तथा अन्य अलंकार भी इसमें काफी मिल सकते हैं। जहाँ तक मेरी दृष्टि गयी और जैसा अलंकार मुझे दिखा उसे ही यहाँ लिखा गया है। यह प्रथम प्रयास है कि जैन सूत्र पर अलंकार की दृष्टि से कुछ शोधपूर्वक लिखा जाए । अत: चाहिये जितनी प्रौढता इस निबंध में नहीं आ पाई फिर भी जैसा बन पाया, लिखा है।
अब क्रमश: ३६ ही अध्ययनों पर अलंकार अभिव्यक्त करने वाली गाथाएँ यहाँ पर प्रस्तुत हैं।
अध्ययन १–गाथा ४-५-१२-३७-इन गाथाओं में अविनीत शिष्य को क्रमश: 'जहाँ सुणी पूइ-कण्णी'४ सड़े कान की कुतिया, "विट्ठ भुजइ सूयरे' विष्ठाभोजी सूअर, 'गलियस्से१२ गलिताश्व-अड़ियल अश्व का उदाहरण दिया गया है। तथा विनीत शिष्य को 'रमए पंडिए सासं, हयं भट्ट व वाहए' गुरु पंडित शिष्यों पर शासन करता हा इस प्रकार से पानंद प्राप्त करता है जैसे उत्तम अश्व का शासन करने वाला वाहक ! अतः उदाहरण और उपमा के साथ ही इन गाथानों में पुरुषावृत्ति अलंकार भी है। साथ ही १२ वी गाथा में 'पुणो' शब्द तथा ३७ वी गाथा में 'बाहए' शब्द दो-दो बार आया है अतः यमक अलंकार भी है।
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / ९७
अध्ययन २-गाथा ३-'कालीपव्वंगसंकासे'-लम्बी भूख के कारण काकजंघा (वनस्पति विशेष) के समान "किसे धमणिसंतए' कृश हो गया है धमनियों का जाल ! उपमालंकार।
गाथा १०--'नागो संगामसीसे वा' जैसे हस्ती संग्राम में आगे होकर शत्रुओं को जीतता है वैसे 'समरेव महामुणी' समभाव वाला महामुनि परीषह को जीते ! उदाहरण अलंकार।
गाथा १७-'पंकभुया उ इथिओ'—स्त्रियाँ कीचड़ स्वरूप हैं । रूपक अलंकार ।
गाथा २४----'सरिसो होइ बालाणं'—मूर्ख के समान होता है 'अवकोतेज्जा परे भिक्ख' क्रोध करने वाला भिक्ष/उपमालंकर, तथा अनुप्रास !
गाथा २५-'सोच्चाणं फरसा भासा, दारुणा गामकंटगा'-दारुण (असहय), ग्रामकण्टक / कांटे की तरह चभने वाली कठोर भाषा को सुनकर ! ....! उपमा तथा अनुप्रास ।
अध्ययन ३-गाथा ५-'सन्वट्ठसु व खत्तिया'-जैसे समस्त पदार्थों की प्राप्ति होने पर भी क्षत्रिय राजा लोगों को बड़े राज्य से भी संतोष नहीं होता है वैसे ही 'पाणिणो कम्मकिविसा, न निविज्जन्ति संसारे !' दुष्टकर्म करने वाले प्राणी संसार से निवत नहीं होते हैं । उदाहरण तथा अनुप्रास ।
गाथा १२-'धम्मो सुद्धस्स चिट्टई'-धर्म शुद्ध हृदय में ठहरता है और वह शुद्ध हृदय वाला जीव 'निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्त व्व पावए' घृतसिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण को/विशुद्ध प्रात्मदीप्ति को प्राप्त होता है। उपमा और अनुप्रासालंकार है।
__अध्ययन ४-गाथा १–'असंखयं जीविय'--जीवन असंस्कृत/अर्थात् एक बार टूट पुनः न संधने वाले धागे के समान है । इसमें रूपक तथा अनुप्रास है ।
गाथा ३–'तेणे जहा संधिमुहे गहीए' जैसे सेंध लगाते हुए संधिभुख में चोर पकड़ा जाता है वैसे ही 'एवं पया पेच्च इहं च लोए' इस लोक में जीव अपने कृत कर्मों के कारण छेदा जाता है । उदाहरण तथा अनुप्रास है।
गाथा ६-'घोरा मुहत्ता'-समय भयंकर है । इसमें रूपक और अतिशयोक्ति ।
-'भारंड पक्खीव चरेऽप्पमत्तो' भारंडपक्षी के समान पंडित पुरुष अप्रमत्त होकर विचरे । उपमालंकार ।
- 'सुत्त सु यावि पडिबुद्धजीवी' सोये हुए लोगों में जागता हुआ प्रतिबुद्ध जीव । विरोधाभासालंकार । गाथा में अर्थान्तरन्यास तथा अनुप्रास भी है।
गाथा ७–'लाभान्तरे जीविय व्हइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी' जब तक शरीर से लाभ (धर्म क्रिया) है तब तक इसकी वद्धि करे साधक एवं बाद में प्रत्याख्यान द्वारा इसे छोड़ दे। इसमें अपह्न ति, अनुप्रास तथा यमक ('माणो' शब्द दो बार पाया है) है। गाथा ८-छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी ।
पुव्वाइं वासाई चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेई मोक्खं ॥ शिक्षित और कवचधारी अश्व जैसे युद्ध से पार हो जाता है वैसे स्वच्छन्दता का निरोध करने वाला साधक संसार से पार हो जाता है, जीवन में अप्रमत्त होकर विचरण करने वाला ध
संसार समुद्र में
वर्म ही दीप है
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अर्चनार्चन
चतुर्थ खण्ड / ९८ मुनि शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है।' इसमें पुरुषावृत्ति अनुप्रास, यमक ( उवेह शब्द दो बार ) एवं 'छंद' शब्द से श्लेष अलंकार प्रकट होता है ।
अध्ययन ५---गाथा १ - एगे' शब्द दो बार प्रतः यमक और 'अण्णवंसी-महोहंसी' संसार रूपी महाप्रवाहाला समुद्र ! इसमें रूपक अलंकार तथा गाथा में अनुप्रास तथा अर्यान्तरन्यासालंकार भी है ।
गाथा १० - सिसुणागु व मट्टियं केंचुए की तरह दोनों घोर से 'दुआं मलं जंचिणई राग-द्वेष के द्वारा जीव कर्ममल को इकट्ठा करता है । इसमें उदाहरण तथा अनुप्रास है ।
गाया १४-१५-१६ – 'जहा सागडिओ जाणं, समं हिन्वा महापहं ।' 'विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गंमि सोयई ॥
जैसे गाड़ीवान समतल महान् मार्ग को जानकर भी छोड़कर विषम मार्ग में चल पड़ता है और गाड़ी की धुरा टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही (गाथा १५ मे) एवं धम्मं विउम्म्म' धर्म का उल्लंघन करने वाले की स्थिति बनती है । उदाहरण तथा 'मच्चु मुहं' व कलिणा जिए' शोक करता है ।
मृत्यु के मुख में इसमें मानवीय अलंकार है जुम्रारी की तरह एक दाब में सब जीते दावों उपमा तथा अनुप्रास है गाथा में ।
तथा (गाथा १६ में धुत्त को हारने वाले की तरह
।
गाथा २० -- सन्ति एगेहि भिक्खूहि, गारत्या संजमुत्तरा । गारत्येहि व सम्बेहि साहवो संजमुत्तरा ॥
कुछ भिक्षुत्रों की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं किन्तु शुद्धाचारी साधु गृहस्थों
से संयम में श्रेष्ठ है— विरोधाभास, यमक तथा अनुप्रासालंकार है ।
अध्ययन ६ - गाथा ४- इसमें सम तथा धनुप्रास है ।
गाथा ११ - इसमें सम अलंकार है ।
गाथा १६ पक्खीपत्त' समादाय' - पक्षी के पंखों की तरह पात्र ग्रहण करे। उपमालंकार |
अध्ययन ७ - गाथा ९ - 'अय थ्व आगयाएसे, मरणंतमि सोयई' पर (मृत्यु के आने पर ) बकरा शोक करता है वैसे ही कर्म से भारी जीव शोक करता है ।—उदाहरण तथा अनुप्रास ।
मेहमान के श्राने
मृत्यु के श्राने पर
गाथा ११ से १३ – 'जहा कागिणिए हेडं, सहस्सं हारए नरो' - काकिणी के लिए हजार कार्षापण हारने वाले की तरह तथा 'अपत्थं अम्बगं भोच्चा, राया रज्जं तु हारए' एक अपथ्य आम्रफल खाकर जीवन तथा राज्य हारने वाले की तरह भोगासक्त जीव जीवन तथा नर म्रायु हार जाता है । उदाहरण तथा गाया १२ में 'कामा' शब्द दो बार आने से प्रत यमक और अनुप्रास है ।
गाथा १४ - 'एगो' शब्द दो बार अतः यमक ।
गाथा १५ – 'ववहारे उवमा एसा ' ' एवं धम्मे वियाणह' इसमें उपमालंकार ।
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / ९९
गाथा १६-माणसत्त भवे मूलं, लाभो देवगई भवे ।
मूलच्छएण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धवं ।' ---मनुष्य भव मूल धन है, देवभव लाभ रूप है और नरक-तिर्यंचभव मूलधन की हानि रूप है अतः रूपक अलंकार दृष्टव्य है ।
गाथा १९-'मूलियं ते पवेसन्ति माणसं जोणि.....'----मूलधन के समान मनुष्य योनि अत: उपमा तथा अनुप्रास ।
गाथा २३--'जहा कुसग्गे उदग्गं-समुद्देण सम्मं मिणे ।'—समुद्र की तुलना में कुशाग्रजल जैसे क्षद्र है वैसे 'माणस्सगा कामा-देवाकामाण अंतिए' देव के कामभोगों के सामने मनुष्य के कामभोग क्षुद्र हैं । उदाहरण तथा अनुप्रास और समालंकार ।
अध्ययन ८–गाथा ५-- 'बज्झई मच्छिया व खेलंमि' -भोगों में प्रासक्त जीव कर्म से वैसे ही बँध जाता है जैसे श्लेश्म कफ में मक्खी । इसमें उदाहरण अलंकार है। साथ ही गाथा में अनुप्रास है।
गाथा ६-'अह संति सुव्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया व !'--जो सुव्रती साधक साधु हैं वे दुस्तर कामभोगों को उसी प्रकार तैर जाते हैं जैसे वणिक समुद्र को ! -- इसमें भी उदाहरण एवं अनुप्रास अलंकार है।
गाथा ७-'पाणवह मिया अयाणंता'-पशु की भांति अज्ञानी जीव । उपमा तथा अनुप्रास ।
गाथा ९-'तओ से पावयं कम्म, निजाइ उदगं व थलाओ।'--सम्यक प्रवत्ति वाले साधक के जीवन से पापकर्म वैसे ही निकल जाता है जैसे ऊँचे स्थान से जल । उदाहरण अलंकार । गाथा १८-'नो रक्खसीसु गिज्झज्जा, गंडवच्छासु अणेगचित्तासु ।
'जाओ परिसं पलोभित्ता, खेल्लति जहा व दासेहि ।' प्रस्तुत गाथा में 'गंडवच्छासु'--'वक्ष में फोड़े रूप स्तन वाली' में रूपक तथा 'दासेहि' में वासनासिक्त मनुष्य को दास की उपमा दी गई है। अध्ययन ९-गाथा ९-१०--'मिहिलाए चेहए वच्छ, सीयच्छाए मणोरमे।
पत्त-पुप्फ-फलोवेए, बहूणं बहुगुणे सया। वाएण हीरमाणंमि, चेइयंमि मणोरमे।
दुहिया असरणा अत्ता, एए कंदंति भो ! खगा ॥' यहाँ नमि राजर्षि ने अपने आपकी चैत्य-वक्ष से और पुरजन तथा परिजनों को पक्षियों से उपमित किया है अत: ये गाथाएँ रूपक अलंकार की श्रेष्ठ द्योतक हैं। साथ ही 'वच्छे' (वृक्ष और राजषि) 'खगा' (पक्षी और पुरजन तथा परिजन) शब्द श्लेष अलंकार को अभिव्यक्त कर रहे हैं।
गाथा १४-इस गाथा में 'किंचण' शब्द दो बार आया अत: यमक तथा अनुप्रास अलंकार है गाथा में ! तथा विरोधाभास अलंकार भी दृष्टव्य है, क्योंकि नमि राजर्षि इन्द्र से कहते है कि मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है 'न मे डज्झइ किचण' जब कि वे महाराजा हैं और सारा राज्य उनका है ।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थखण्ड / १००
गाथा २०-२१-२२ - इन गाथाओं में भी रूपक अलंकार दृष्टव्य है-श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अगंला ( सांकल), क्षमा को प्राकार ( परकोटा), बाई और शतघ्नी रूप में बताया है ।
बांधकर;
-- पराक्रम को धनुष, ईर्ष्या समिति उसकी डोर धृति को उसकी मूठ तथा सत्य से
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-तप के बाणों में युक्त धनुष से कर्मरूपी कवच को भेद कर प्रन्तर्युद्ध का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।
- इन गाथाओं यमक, अनुप्रास अलंकार भी है ।
गाया ३६ – इस गाया में कहा गया है कि '५ इन्द्रियाँ, ४ कषाय और १० वी मन ये दुर्जेय हैं। एक अपने आपको जीत लेने पर सभी जीत लिये जाते हैं ।' पहले इन्हें दुर्जेय बताकर जीतना भी बताया गया है अतः विरोधाभास अलंकार तथा अनुप्रास अलंकार भी है ।
गाथा ४८ -' इच्छा उ आगाससमा' - इच्छा आकाश के समान अनंत है। इसमें उपमा, तथा गाथा में यमक और अनुप्रास अलंकार है ।
गाथा ५३ - 'सल्लं कामा, विसं कामा, कामा आसोविसोवमा ।
कामे भोए पत्येभाणा, अकामा जंति दोग्यहं ॥
इसमें काम को शल्य, विष और आशीविष सर्प से उपमित किया गया है अतः रूपक तथा यमक और विरोधाभास अलंकार है ।
अध्ययन १० – गाया १ 'दुमपत्तए पंडुपए जहा.... एवं मणुयाणं जीविमं । जैसे समय बीतने पर वृक्ष का सूखा हुआ सफेद पत्ता गिर जाता है, वैसे ही मनुष्य का जीवन है । इसमें उदाहरण अलंकार है ।
गाथा २ - ' कुसग्गे जह ओस बिंदुए है उसी तरह मनुष्य का जीवन भी क्षणिक है ।
कुशाग्र पर टिके प्रसबिंदु की स्थिति क्षणिक उदाहरण अलंकार ।
गाथा २८ वीच्छिन्द सिणेहमप्यणो कुमुयं व सारइयं पाणियं - जैसे शरत्कालिक मुमुद पानी से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार तुम भी सभी स्नेह (लिप्तता) को त्याग दो । उदाहरण तथा गाथा में यमक और अनुप्रास है ।
गाथा २९ - ' मा वन्तं पुणो वि आइए' - वमन किए भोगों को पुनः स्वीकार मत कर। इसमें भोगों को वमन बताया गया है अतः रूपकालंकार है तथा 'वन्तं' शब्द में श्लेष [वन्तं वमन और भोगवमन ] ।
गाथा ३२ -- ' अवसोहिय कष्टगायहं ओइण्णो सि पहं महालय" इस गाथा में कंटकाकीर्ण पथ एवं राजपथ की बात कही गयी है और इस बात का लक्ष्य है - संसार का मार्ग (कंटकाकीर्ण) तथा श्रात्मा का मार्ग ( राज पथ ) । अतः अन्योक्ति अलंकार है ।
गाथा ३४ - इस गाथा में संसार को सागर से उपमित किया है अतः रूपक तथा अनुप्रास अलंकार है ।
अध्ययन ११ श्लेष अलंकार मिलते हैं ।
-गाथा १५ से ३० – इन गाथाओं में उदाहरण, उपमा अनुप्रास तथा
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आलंकारिक दृष्टि से भी उत्तराध्ययनसूत्र एक चिन्तन / १०१
अध्ययन १२ - गाथा १२ - - ' पुण्णमिणं खु खेत्त" - पुण्य रूपी क्षेत्र ( कृषि भूमि ) । इसमें रूपक है तथा गाथा में उदाहरण है ।
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गाथा १३ – 'जे माहणा जाइ बिज्जोववेया' 'ताई तु खेताई....।' - जो ब्राह्मण जाति और विद्या से श्रेष्ठ हैं वे पुण्यक्षेत्र हैं । अर्थात् बाकी सब पापक्षेत्र । इसमें तिरस्कार
अलंकार है ।
गाथा १४ - जो कषायग्रस्त हैं तथा जिनमें हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह हैं वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विद्दोन पापक्षेत्र हैं। इसमें भी 'खेत्ताई सुपावयाई' में रूपक है। गाथा २६ – 'गिर नहेहि खणह, अयं दन्तेहि खायह । जायतेयं पाएहि हणह
""'
पर्वत को नख से खोदना, दांतों से लोहा बवाना और पैरों से अग्नि को कुचलना असंभव है। ग्रतः इसमें असंभव नामक अलंकार है ।
गाथा २७ – 'अमणि व पक्खंद पयंगसेणा - पतंगे की भांति अग्नि में गिरना । इसमें उपमा तथा अनुप्रास है ।
गाथा ४३ –— के ते जोई ? के व ते जोइट्ठाणे ? का ते सुया ? किं व ते कारिसंग ? एहा य ते करा संति ? भिखू ! कयरेण होमेण हुणासि जोई ?
इसमें प्रश्न ही प्रश्न है अतः परिसंख्या अलंकार है ।
"
गाथा ४४ तप ज्योति प्रात्मा उसका स्थान, विभोग कड़छी, शरीर कण्डे, कर्म इन्धन, संयम में प्रवृत्ति शांतिपाठ है। अतः आत्मिक यज्ञ का स्वरूप है। इसमें रूपक अलंकार है।
गाथा ४५ में परिसंख्या तथा ४६ में रूपक अलंकार है, यथा
गाथा ४५-४६ – 'ग्रात्मभाव की प्रसन्नतारूप प्रकलुष लेश्यावाला धर्म मेरा हव
होता हूँ।' साथ ही अनुप्रास
है । जहाँ स्नान कर में विशुद्ध, विमल एवं कर्मरज से दूर अलंकार भी ।
अध्ययन १३ -- गाथा १६ - 'सब गीत श्राभरण भार है और सब काम भोग दुःखप्रद हैं । तथा अनुप्रास अलंकार है ।
+
विलाप है, सब नृत्य विडंबना है, सब इस गाथा में रूपक, विरोधाभास, यमक
"
'सव्वं विलयियं गीयं सवं नष्टं विडम्बियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥'
गाथा २२ ---' जहेब सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ दु अन्तकाले ।' - जैसे सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है वैसे ही मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। इसमें उदाहरण तथा उपमा अलंकार है ।
गाथा ३० --- 'नागो जहा पंकजलावसन्नो' - ' जैसे पंकजल - दलदल में धंसा हाथी स्थल को देखता है पर किनारे नहीं पहुंच पाता है। वैसे मनुष्य कामभोगों में प्रासक्त हो भिक्षुमार्ग पर नहीं आते।' इसमें उदाहरण अलंकार है ।
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १०२
अध्ययन १४-गाथा १-'देवा भवित्ताणं........' (देव लोक के समान) उपमा अलंकार । तथा 'पुरे' गाथा में शब्द दो बार आया अतः यमक और अनप्रास है।।
गाथा १५–में स्वभावोक्ति तथा 'इयं शब्द' ४ बार आया अत: यमक अलंकार है। गाथा १७–'धम्मधुरा'-धर्म की धुरा । इसमें रूपक ।। गाथा १८-'जहा य अग्गी अरणीउऽसन्तो, खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु ।
एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता ........॥' जैसे अरणि में आग, दूध में घी, तिल में तेल है वैसे शरीर में प्रात्मा है। इसमें उदाहरण अलंकार है। गाथा २२-२३-केण अब्भाहओ लोगो, केण वा परिवारिओ?
का वा अमोहा वुत्ता ?........................ परिसंख्या तथा यमक अलंकार ! २२ गाथा में प्रश्न और २३ में उत्तर है।
गाथा २४-२५–'जा-जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई'-जो जो रात्रि जा रही है वह फिर लौट कर नहीं आती है। इसमें स्वभावोक्ति, यमक तथा मानवीय अलंकार है।
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गाथा २७--'जस्स त्थि मच्चणा सक्खं'—जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री है। इसमें असंभव, अनुप्रास तथा 'जस्स' शब्द दो बार आया है अतः यमक अलंकार है।
गाथा २९–'साहाहि रुक्खो लहए समाहि'--वृक्ष शाखा से सुंदर लगता है । यहाँ यह बात इस संदर्भ में कही गयी है कि पुत्र से पिता का घर शोभा पाता है। इसमें रूपक अलंकार है।
गाथा ३०-'पंखहीन पक्षी, सेना रहित राजा और धन रहित व्यापारी जैसे असहाय होते हैं वैसे भृगु भी पुत्र विना असहाय है।' इसमें उदाहरण तथा अनुप्रास है।
गाथा ३३.--'जुण्णो व हंसोपडिसोत्तगामी'प्रतिस्रोत में तैरनेवाले बूढ़े हंस की तरह। इसमें उपमा अलंकार है जो भगु पुरोहित को दी गई है। क्योंकि वह भी प्रौढ़ हो गया है। गाथा ३४ --'जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो, निम्मोणि हिच्च पलेइ मुत्तो'
एमए जाया पयहं ति भोए.............. .............।' जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़कर मुक्तमन से चलता है वैसे ही दोनों पुत्र भोगों को छोड़कर जा रहे हैं । इसमें उदाहरण अलंकार है।
गाथा ३५-'छिदित्त जालं अबलं व रोहिया' रोहित मत्स्य जैसे कमजोर जाल को तोड़कर निकल जाते हैं वैसे 'मच्छा जहा कामगुणे पहाय' साधक कामगुणों को छोड़कर निकल जाते हैं। इसमें उदाहरण अलंकार है।
गाथा ३६-'जहेव कुचा समइक्कमंता, तयाणि जालाणि दलित्त हसा'--जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों के द्वारा बिछाया गया जाल काटकर आकाश में स्वतंत्र उड़ जाते हैं वैसे ही भगु और दोनों पुत्र संसार-जाल को तोड़कर संयमी बनने जा रहे हैं। इसमें भी उदाहरण अलंकार है।
गाथा ४०--'जया-तयवा' छेकानुप्रास तथा गाथा में स्वभावोक्ति है। .
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / १०३
गाथा ४१---'नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा'--जैसे पक्षिणी पिंजरे में सूख नहीं मानती है वैसे ही मैं भी राज्यवैभव में सुख नहीं मानती हूँ । उदाहरण तथा उपमा।
गाथा ४२-४३-दवग्गिणा जहा रणे, उज्झमाणेसु जंतुसु !'-जैसे वन में लगे दावानल में जन्तुषों को जलते देख अन्य प्राणी प्रभावित होते हैं वैसे ही हम भी राग-द्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को समझ नहीं पाये हैं।
गाथा ४६-'जिस गीध पक्षी के पास मांस होता है उसी पर दूसरे मांसभक्षी झपटते हैं। जिसके पास नहीं होता है उस पर नहीं। अत: मैं भी मांसोयमा वाले कामभोगों को छोड़कर निरामिष भाव से विचरण करूंगी!' इसमें उदाहरण दिया गया है अतः उदाहरण अलंकार।
गाथा ४७-'उरगो सुवण्णपासे व, संकमाणो तण चरे,--जैसे गरुड़ के समीप सांप शंकित होकर चलता है वैसे ही कामभोगों से शंकित होकर चले । कामभोग गीध के समान हैं।' इसमें उदाहरण तथा 'गिद्धोवमे' में उपमालंकार है।
गाथा ४८-'नागो ब्व बंधण छित्ता'-बंधन तोड़कर हाथी अपने निवासस्थान-जंगल में चला जाता है वैसे ही हमें भी मोक्ष के पथ में चलना चाहिए !' उदाहरण अलंकार है !
अध्ययन १६-गाथा १५-'धम्मसारही'-धर्मरूपी रथ का चालक/सारथी । इसमें रूपक । 'धम्म' शब्द की पुनरावृत्ति अत: यमक।
अध्ययन १८-गाथा ४७–'नरिंदवसभा' राजाओं में वृषभ के समान । उपमालंकार !
गाथा ४९- 'कम्ममहावणं'-कर्मरूपी महावन । रूपक ।
गाथा ५१–'अदाय सिरसा सिरं'---सिर देकर (अहं) सिर (मोक्ष) प्राप्त किया। तुल्ययोगिता तथा यमक अलंकार । तथा 'सिरं' शब्द में श्लेष मस्तिष्क और मोक्ष ।
गाथा ५४.--'नीरए'---रज रहित; कर्मरूपी रज रहित । श्लेष अलंकार । अध्ययन १६-गाथा ११-'महण्णवाओ' संसार रूप महासागर । रूपक । गाथा १२–'विसफलोवमा'–भोग विषफल के समान । उपमा । गाथा १४-'फेणबुब्बुय'---शरीर पानी के बुलबुले के समान है । उपमा । गाथा १८-'जहा किपागफलाणं, परिणामो न सुदरो।
एवं भुत्ताण भोगाण परिणामो न सुदरो ॥' जैसे विष रूप किम्पाक फल का परिणाम संदर नहीं आता है, वैसे ही भोगे गये कामभोगों का परिणाम भी संदर नहीं होता ! ---उदाहरण तथा यमक ।
गाथा १९-२०-२१-२२-जैसे पाथेय सहित पथिक सुखी होता है और पाथेय रहित दुःखी, वैसे ही धर्मरूपी पाथेय वाला जीव सुखी अन्यथा दुःखी होता है, इन गाथाओं में दृष्टांत तथा यमक अलंकार है।
गाथा ३६-'............गुणाणतु महाभरो।
गुरुओ लोहमारो व्व,............॥'
धम्मो दी संसार समुद्र में धर्म ही दीय
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चतुर्थ खण्ड / १०४
लोह-भार के समान साधु के गुणों का महान् गुरुतर भार है । उपमालंकार ! गाथा ३७-आगासे गंगसोउव्व, पडिसोओ व्व दुत्तरो।
बाहाहिं सागरो चेव, तरियव्वो गुणोयही ॥ जैसे आकाशगंगा का स्रोत और प्रतिस्रोत दुस्तर है। जिस प्रकार सागर में . भुजाओं से तैरना दुष्कर है वैसे गुणोदधि-संयम के सागर में तैरना दुष्कर है ।' –उदाहरण। यमक तथा 'गुणोदहि' में रूपक ।
गाथा ३८-संयम बाल रेत के कवल के समान स्वादरहित है। तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के जैसा दुष्कर है। -उदाहरण तथा यमक ।
गाथा ३९-सांप की तरह एकाग्र दृष्टि से चारित्रधर्म में चलना कठिन है। लोहे के यव-जौ चबाना जैसे दुष्कर है वैसे ही चरित्र का पालन दुष्कर है। -उदाहरण, उपमा ।
गाथा ४० -जैसे प्रज्वलित ज्वाला को पीना दुष्कर है वैसे ही युवावस्था में श्रमणधर्म का पालन दुष्कर है। - उदाहरण अलंकार।
गाथा ४१-जैसे वस्त्र के कोत्थल थैले को हवा से भरना कठिन है, वैसे ही कायरों के द्वारा श्रमणधर्म का पालन । यमक उदाहरण तथा असंभव अलंकार है। गाथा ४२-४३--'जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करं मन्दरो गिरी॥४२॥
'जहा भुयाहि तरिउं, दुक्करं रयणागरो ॥ ४३ ॥ जैसे मेरु को तराजू में तोलना दुष्कर है । उदाहरण तथा असंभव व यमक ।
जैसे रत्नाकर को भुजा से पार करना कठिन है । यमक, उदाहरण, असंभव तथा रूपक [दमसागरो].
गाथा ४७–'जम्माणि मरणाणि' में छेकानुप्रास तथा 'जरा-मरण-कतारे'-जरा-मरण रूप जंगल, में रूपक अलंकार ।
गाथा ५१-महाभयंकर दावाग्नि के तुल्य मरु प्रदेश में 'महादवग्गिसंकासे' में उपमालंकार।
गाथा ५४–'महाजन्तेसु उच्छू वा' ईख की तरह बड़े-बड़े यंत्र । उपमालंकार ।
गाथा ५६---'असीहि अयसिवण्णाहिं, भल्लोहि पट्टिसेहि य' यहां छेकानुप्रास को दर्शा रहा है । तथा तलवार अलसी के फूलों के समान नीले रंग की, इसमें उपमा।
गाथा ५७-'रोज्झो वा जह पाडिओ' रोझ (पशु) की भांति पीट कर भूमि पर गिराया गया हूँ-उपमालंकार ।
गाथा ५८-'चियासु महिसो विव'-चिता में भैंसे की भांति मैं जलाया गयाउपमालंकार । गाथा ५९–'बला संडासतुण्डेहि, लोहतुण्डेहि पखिहिं ।
विलुत्तो विलवन्तोऽहं, ढंकगिद्ध हिऽणम्तसो ॥' __'लोह के समान कठोर संडासी जैसी चोंच वाले ढंक और गीध पक्षियों द्वारा, मैं नोचा गया।' उपमा, छेकानुप्रास तथा यमक अलंकार है।
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / १०५
गाथा ६४-'मच्छो वा' मत्स्य की तरह छलपूर्वक पकड़ा गया। उपमालंकार ।
गाथा ६६---बाज पक्षियों, जाली तथा वज्रलेपों के द्वारा पक्षी की भाँति 'सउणो विव' उपमालंकार !
गाथा ६७–'कुहाडफरसुमाईहि, वड्ढईहिं दुमो विव'-बढ़ई के द्वारा वृक्ष की तरह कुल्हाड़ी और फरसादि से मैं काटा गया। उपमालंकार तथा 'फरसुमाईहिं-वड्ढईहिं' छकानुप्रास !
गाथा ६५-'कुमारेहि अयं पिव'-लुहारों के द्वारा लोहे की भांति । उपमालंकार । तथा 'चवेडमुट्ठिमाईहिं कुमारेहि' में छेकानुप्रास !
गाथा ७०--'अग्गिवण्णाई'---अग्नि जैसा लाल । उपमालंकार !
गाथा ७८ तथा ८४-'एगभूओ अरणे वा, जहा उ चरई मिगो।
एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य।' जैसे मग जंगल में अकेला विचरता है वैसे ही मैं भी संयम और तप के साथ एकाकी होकर धर्म का आचरण करूगा । उदाहरणालंकार ।
गाथा ८७--'महानागो व्व कंचुयं' जैसे महानाग केंचुल को छोड़ता है वैसे ममत्व को मगापुत्र ने छोड़ दिया। दृष्टान्तालंकार ।
गाथा ८८-'रेणुयं व पडे लग्गं'-कपड़े पर लगी रज की तरह [मगापुत्र ऋद्धि-धन मित्र-पुत्र-कलत्र और ज्ञातिजन को झटककर संयमयात्रा को निकल पडा । उपमालंकार।
गाथा ९७-'विणियद्रन्ति भोगेस, मियापुत्त जहा रिसी'--पण्डित पुरुष/संबुद्ध पुरुष कामभोगों से वैसे ही निवृत्त होते हैं जैसे महर्षि मृगापुत्र ! उदाहरणालंकार ।
गाथा ९९-'धम्मधुरं रूपक ।
अध्ययन २०-गाथा ३-'नाणा' शब्द ३ बार आया है अतः यमक । 'नंदणोवम' उद्यान नंदन वन के समान उपमालंकार । तथा स्वभावोक्ति ।
गाथा २०–'पवेसेज्ज अरी कुद्धो, एवं मे अच्छिवेयणा' जैसे शत्रु क्रुद्ध होकर शरीर के मर्मस्थानों में तीक्ष्ण शस्त्र घोंपते हैं वैसे ही मेरी आँखों में तीव्र वेदना हो रही थी। उदाहरणालंकार।
गाथा २१-'इंदासणिसमा घोरा'-इन्द्र के वज्रप्रहार से भयंकर वेदना होती है वैसे ही मुझे भी वेदना हो रही थी-उदाहरण । गाथा ३६-'अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥' प्रात्मा को ही वैतरणी, कूडसामली, कामदुधा धेनु और नंदन वन से प्रारोपित किया गया है अतः रूपक है । आत्मा को एक ओर वैतरणी तथा कूडशामली वृक्ष बताया तथा दूसरी ओर कामदुधा धेनु और सुखप्रद नंदनवन कहा है अत: विरोधाभासालंकार तथा यमकालंकार भी है।
ਧਰਮ ਦੀ संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १०६
गाथा ३७–'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममितं च, दुप्पट्रिय-सुप्पट्रिओ॥' छेकानुप्रास, यमक, रूपक तथा विरोधाभास है। गाथा ४२–'पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा।
___ राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥' जो पोली (खाली) मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे सिक्के की तरह अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ राढ़ामणि-काचमणि है—इनमें उपमा अलंकार है।
गाथा ४४–'विसं तु पीयं जह कालकूडं'–पिया हुअा कालकूट विष ; 'हणाइ सत्वं जह कुग्गहीयं'-उलटा पकड़ा शस्त्र; 'हणाइ वेयाल इवाविपन्नो'-अनियंत्रित वेताल जैसे विनाशकारी है, वैसे ही 'एसे व धम्मो विसओववन्नो' विषय-विकारों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है । इस गाथा में उदाहरण तथा 'जह' शब्द की दो बार प्रावत्ति है, अत: यमक है।
__गाथा ४७–'अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता'-अग्नि की भांति सर्वभक्षी। इसमें उपमा अलंकार है।
गाथा ५०–'कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरटुसोया परियावमेइ ।' जैसे भोगरसों में प्रासक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी (गीध) पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है । इसमें उदाहरणालंकार है।
अध्ययन २१-गाथा १४–'सीहो व सद्देण न संतसेज्जा'-सिंह की भांति भयोत्पादक शब्द को सुनकर भी संत्रस्त न हो। उपमालंकार ।
गाथा १७–'संगामसीसे इव नागराया-नागराज हाथी की तरह व्यथित न हो। उपमालकार ।
गाथा १९–'मेरुव्व वाएण अकम्पमाणो' वायु से अकंपित मेरु को तरह । उपमालंकार।
गाथा २३---'ओभासई सूरिए वऽन्तलिक्खे'--अन्तरिक्ष में सूर्य की भाँति धर्मसंघ में प्रकाशमान होता है । उपमालंकार ।
गाथा २४–'तरित्ता समुदं व महाभवोघ'—समुद्र की भाँति विशाल संसारप्रवाह को तैर कर मोक्ष में गए। उपमा ।
अध्ययन २२--गाथा ६-'झसोयरो'-मछली जैसा कोमल उदर । उपमालंकार ।
गाथा ७-'विज्जुसोयामणिप्पभा'--विद्युत् के प्रभाव के समान शरीर की कांति । उपमालंकार ।
गाथा ३०-..."भमरसन्निभे, कुच्च-फणग-पसाहिए'-कूर्च और कंघी से संवारे भौरे जैसे काले केश । उपमा ।
गाथा ४१–'जइ' शब्द दो बार आया अतः यमक है । रूप की उपमा में कहा है'रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो""सक्खं पुरंदरो।' गाथा ४२-~-'पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं ।
नेच्छंति वन्तयं भोत्त, कुले जाया अगंधणे ॥'
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आलंकारिक दष्टि के श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / १०७
अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प, धूम की ध्वजा वाली, प्रज्ज्वलित, भयंकर, दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं किन्तु वमन किए हुए अपने विष को पुन: पोने की इच्छा नहीं करते हैं । इसमें उपमा (धूम की ध्वजा) की, उदाहरण, विरोधाभास है।
गाथा ४४-'मा कुले गंधणा होमो-हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न बनें। उपमालंकार ।
गाथा ४५-'वायाविद्धो व्व हडो'–वायु से कंपित हड़ (वनस्पतिविशेष) की तरह अस्थिरात्मा । उपमालंकार 'जा-जा' में यमक । गाथा ४६----'गोवालो-भंडवालो वा, जहा तद्दन्वऽणिस्सरो।
एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥' जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने आदि का स्वामी नहीं होता है वैसे ही तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। उदाहरण । गोवालो-भंडवालो में छेकानुप्रास तथा अणिस्सरो दो बार पाया, अतः यमकालंकार है ।
गाथा ४८--'अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ'--जैसे अंकूश से हाथी स्थिर हो जाता है वैसे ही रथनेमि संयम/धर्म में स्थिर हो गया । उदाहरण ।
अध्ययन २३-गाथा १८--'चंदसूर-समप्पमा'-चंद्र और सूर्य की तरह सुशोभित। उपमा।
गाथा ३६----'जिए' 'जिया' शब्द दो-दो बार आये, अत: यमक ।
गाया ४३-'रागद्दोसादओ तिव्वा, नेहपासा भयंकरा'तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन हैं। रूपक ।
गाथा ४८–'भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया'-भवतृष्णा ही भयंकर लता है उसके भयंकर परिपाक वाले फल लगते हैं । रूपक ।
गाथा ५३–'कसाया अग्गिणो'–कषाय अग्नियां हैं तथा 'सुय-सील-तवो जलं' श्रत, शील और तप जल हैं। रूपक ।
गाथा ५६ तथा ५८–'सुयरस्सीसमाहियं'–श्रुतरूपी रश्मि/रस्सी/लगाम से 'मणो.... दुट्ठस्सो' मन रूपी घोड़ा वश में करता हूँ। रूपक ।
गाथा ६३–'सम्मग्गं तु जिणक्खायं' सन्मार्ग जिनोपद्दिष्ट है । रूपक ।
गाथा ६८-'धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई-सरणमुत्तमं ।' धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति और उत्तम शरण है । रूपकालंकार । गाथा ७३---'सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो॥ शरीर नौका है, जीव नाविक है, संसार समुद्र है जिसे महर्षि तैर जाते हैं। इस गाथा में रूपक अलंकार का भव्य चित्रण है।
गाथा ७५-'जिणभक्खरो'-जिनरूपी भास्कर सूर्य । रूपकालंकार । अध्ययन २४-गाथा १-'पवयणमायाओ' जिन-प्रवचन रूप माता । रूपकालंकार ।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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RA
CHREE
चतुर्थ खण्ड / १०८
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PARA
RANJ
अध्ययन २५--गाथा १-'जमजन्नमि'-यमरूप यज्ञ । रूपक' । ___गाथा १६–'अग्निहोत्तमुहा वेया, जन्नट्ठी वेयसां मुहं ।
नक्खत्ताण मुहं चन्दो, धम्माणं कासवो मुहं ॥ वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र और धर्मो का मुख काश्यप है। इसमें रूपकालंकार है । 'मुहं' शब्द तीन बार पाया, अत: यमक ।
Sोप
गाथा १७–'जहा चंदं गहाईया, चिट्ठन्ति पंजलीउडा।
वन्दमाणा नमसंता, उत्तम मणहारिणो ॥'
जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चंद्र की वंदना तथा नमस्कार करते हुए स्थित हैं, वैसे ही भगवान ऋषभदेव हैं----उनके समक्ष भी जनता विनयावनत है। उदाहरणालंकार।
गाथा १५- 'भासच्छन्नाइवऽग्गिणो'----जैसे अग्नि राख से ढंकी हुई होती है वैसे ही वे प्राच्छादित हैं यज्ञवादी स्वाध्याय और तप से आच्छादित हैं । उदाहरणालंकार ।
गाथा १९-'अग्गी वा महिओ जहा'-अग्नि के समान पूजनीय । उदाहरण ।
गाथा २१–'जायरूवं जहाम, निद्धन्तमलपावगं'-कसौटी पर कसे और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए / शुद्ध किए गए सोने की तरह जो विशुद्ध है। उदाहरण ।
गाथा २७–'जहा पोम जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा'-जिस प्रकार जल में उत्पन्न हा कमल जल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। उदाहरण ।
गाथा ४०---'मा भमिहिसि भयाव?' भय के प्रावर्तवाले । संसार सागर । रूपक ।
गाथा ४२-४३--गीला और सूखा दो मिट्टी के गोले दिवार पर फेंके। गीला चिपक जाता है और सूखा नहीं चिपकता है, वैसे ही प्रासक्त जीव विषयों में चिपक जाते हैं विरक्त नहीं। दृष्टान्त और यमक 'उल्लो, सुक्को,' शब्द में, जो दो-दो बार आये हैं।
अध्याय २६-गाथा १ तथा ५३.---'तिण्णा संसारसागरं'-संसार रूपी सागर ।
रूपक।
अध्ययन २७-गाथा २-'वहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तई।
जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई ॥' शकटादि वाहन को ठीक तरह वहन करनेवाला बैल जैसे कान्तार को सुखपूर्वक पार कर जाता है उसी तरह योग-संयम में संलग्न मुनि संसार को पार कर जाता है। इसमें उदाहरण तथा यमक, रूपक तथा पुनरुक्ति द्रष्टव्य है । गाथा ७-८-'खलुका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा।
. जोइया धम्मजाणम्मि, भज्जति धिइदुब्बला ॥' अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देते हैं वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्मभाव में जोतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं। दृष्टान्त तथा 'धम्मजाणम्मि' रूपक है ।
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / १०९
गाथा १४ – 'जायपक्खा जहा हंसा' पंख आने पर हंस उड़ जाते हैं वैसे भक्त-पान से पोषित कुशिष्य अन्यत्र चले जाते हैं। उदाहरण तथा हंसा में श्लेष [हंस और शिष्य ] | गाथा १६ – 'जारिसा मम सीसाउ, तारिसा गलिगद्दहा' जैसे गलिगर्दभ / प्रालसी निकम्मे गधे होते हैं वैसे ही ये शिष्य हैं। इसमें उदाहरण ।
अध्ययन २६ - सूत्र ६ विरोधाभास
तथा 'माया नियाण-मिच्छायंस सल्लाणं'
इसमें रूपक है ।
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सूत्र १३ – विमुपायच्छित य जीवे निष्कुर्याहियए ओहरियभारो व भारवहे' प्रायश्चित्त से विशुद्ध बना जीव अपने भार को हटा देने वाले भारवाहक की तरह निर्वृ सहृदय ( शान्त) हो जाता है। इसमें उपमा है।
सूत्र १७ – मगं च मग्गफलं च विसोहे' (ज्ञान) को निर्मल करता है। इसमें रूपक है ।
और प्राचारफल (मुक्ति) की धाराधना करता है। इसमें भी रूपक है ।
सूत्र ६० जहा सूई समुत्ता, पडिया विन विणस्स' जिस प्रकार ससूत्र ( धागे सहित) सुई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट (गुम) नहीं होती है वैसे ही 'तहा जीवे ससुत, संसारे न विणसई' ससूत्र ( श्रुतसम्पन्न ) जीव संसार में विनष्ट नहीं होता है। इसमें उदाहरण है। 'समुत्ता' तथा 'विणस्सई' में यमक है।
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साधक मार्ग ( सम्यक्त्व) और मार्गफल 'आयरं च आयारफलं च आराहेइ' आचार
सम्पूर्ण २९ वे अध्ययन में परिसंख्या अलंकार मिलता है।
अध्ययन ३० --गाथा ५-६ - 'जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उरिसचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥
"
किसी बड़े तालाब का जल, जल आने के मार्ग को रोकने से पहले के जल को उलीचने से और सूर्य के ताप से क्रमश: जैसे सूख जाता है
' एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जई ॥
,
उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भवों के संचित कर्म पापकर्म के आने के मार्ग को रोकने पर तप से नष्ट हो जाते हैं ।
इसमें उदाहरण अलंकार है तथा साथ ही तप को सूर्य ताप की उपमा दी गई है। अतः उपमा भी है ।
अध्ययन ३२ - गाथा ६ – 'जहा य अण्डव्यभवा बलागा, अण्डं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तव्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ ' जैसे अंडे से बलाका (वगुली) और वलाका से अण्डा उत्पन्न होता है वैसे ही मोह से तृष्णा और तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है। उदाहरण, यमक पुनरुक्ति अलंकार है साथ ही भ्रांति भी है।
गाथा ७
―
'कम्मबीयं' कर्म - बीज । रूपक तथा गाथा में पुनरुक्ति, यमक है ।
गाया १० 'दुमं जहा साउफलं व पक्खी' जैसे स्वादु फल वाले वृक्ष को पक्षी उत्पीडित करते हैं वैसे ही वित्त' च कामा समभिहयन्ति' विषयासक्त मनुष्य को काम उत्पीडित करता है । उदाहरण तथा 'रसा' शब्द दो बार आने से यमक ।
धम्मो दीयो
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ११० गाथा ११–'जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ ।
एविन्दियग्गी वि पगाममोइणो,........ जैसे प्रचंड पवन के साथ प्रचर इन्धनवाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है उसी प्रकार प्रकामभोजी/यथेच्छ भोजन करनेवाले की इन्द्रिय-अग्नि (वासना) शांत नहीं होती है । इसमें उदाहरण तथा 'एविन्दियग्गी' इन्द्रिय-अग्नि में रूपक है। गाथा १३----'जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं बसही पसत्था।
एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बम्भयारिस्स खमो निवासो।' -जिस प्रकार बिडालों के निवासस्थान के पास चूहों का रहना हितकर नहीं है वैसे ही स्त्रियों के निवास स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी हितकर नहीं है । उदाहरण है।
गाथा १७-'जहित्थिओ बालमणोहराओ'-अज्ञानियों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ जितनी दुस्तर हैं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में अन्य कुछ दुस्तर नहीं है। उदाहरण तथा 'मोक्खाभिकं खिस्स वि माणवस्स' में छेकानुप्रास है।
गाथा १८--'जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा'
जैसे महासागर तैरने के बाद गंगा जैसी नदियों को तैरना आसान है वैसे ही स्त्रीविषयक संसर्गों का सम्यक् अतिक्रमण करने पर शेष संबंधों का अतिक्रमण सुखोत्तर हो जाता है। इसमें उदाहरण है। गाथा २०-'जहा य किपाकफला मणोरमा, रसेण बण्णेण य भुज्जमाणा।
ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥' जैसे किपाक फल रस और रूप-रंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम हैं किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं वैसे ही कामगुण भी अन्तिम परिणाम में ऐसे ही होते हैं। इसमें उदाहरण भी तथा उपमा भी (एप्रोवमा)। .
गाथा २४-३७-५०-६३-७६-८९-....जह वा पयंगे, आलोयलीले समुवेइ मच्चु । २४' -~-जैसे प्रकाश लोलुप पतंगा प्रकाश-रूप में प्रासक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है ।
.....हरिणमिगे व मुद्ध, सद्दे अतित्त समुवेइ मच्चु ।' ३७ । ---जैसे शब्द में अतृप्त/मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है ।
___....ओसहिगन्धगिद्ध', सप्पे बिलाओ विव निक्खमन्ते' । ५० ।
-जैसे ओषधि की गंध में आसक्त रागानुरक्त सर्प बिल से निकल कर विनाश को प्राप्त होता है।
'मच्छ जहा आमिसभोगगिद्ध'। ६३ । -जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य कांटे से बींधा जाता है।
....सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वऽरन्ने ७६॥ -जैसे वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भैंसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है।
'....कामगुणेसु गिद्ध, करेणुमग्गावहिए व नागे' । ८९ ।
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आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन /१११
—जैसे हथिनी के प्रति प्राकृष्ट, कामगुणों में प्रासक्त रागातुर हाथी विनाश को प्राप्त होता है।
इसी प्रकार रूप, शब्द, गंध, रस, तथा स्पर्श भोगों में प्रासक्त जीव भी विनाश को प्राप्त होता है। इन सबमें उदाहरण है।
गाथा-३४-४७-६०-७३-८६-९९-'न लिप्पइ भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।'
इन्द्रियविषयों एवं भाव में जो मनुष्य शोक-रहित होता है वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे-जलाशय में कमल का पत्ता जल से अलिप्त रहता है। इन गाथाओं में भी उदाहरण है।
गाथा १०४.-'इन्दियचोरवस्से'-इन्द्रिय रूपी चोर । रूपक । 'वियारे--अमियप्पयारे ।'........ छेकानुप्रास ।।
अध्ययन ३४--गाथा ४--इसमें कृष्णलेश्या के वर्ण स्निग्ध अर्थात सजल मेघ, महिष शृग, अरिष्टक, खंजन, अंजन और नेत्र तारिका के समान काला बताया है। मतः उपमा है। 'नयण' शब्द दो बार पाया, अतः यमक भी है।
गाथा ५.—इसमें नीललेश्या का वर्ण-नील अशोक वृक्ष, चासपक्षी के पंख और स्निग्ध वैडूर्यमणि के समान नीला बताया है, अत: उपमा है।
गाथा ६—इसमें कापोतलेश्या को अलसी के फूल, कोयल के पंख और कबूतर की ग्रीवा के वर्ण के समान कुछ काला और कुछ लाल जैसा मिश्रित बताया है। उपमा है।
गाथा ७—इसमें तेजोलेश्या का वर्ण हिंगुल, धातु-गेरु, उदीयमान तरुण सूर्य, तोते की चोंच, प्रदीप की लौ के समान लाल बताया है । अत: उपमा है।
गाथा ---इसमें पद्मलेश्या का वर्ण हरिताल और हल्दी के खण्ड तथा सण और असन के फल के समान पीला बताया है। उपमा है।
गाथा ९-शुक्ललेश्या का वर्ण-शंख, अंकरत्न (स्फटिक जैसा श्वेत रत्नविशेष) कुंद पुष्प, दुग्धधारा, चाँदी के हार के समान श्वेत बताया है, अतः उपमा है।
गाथा १०-कृष्णलेश्या का रस वैसा ही कड़वा है जैसा तुम्बा, नीम, कड़वी रोहिणी का रस कडुवा होता है । अतः उदाहरण है। तथा 'कडुय' शब्द दो बार इसलिए यमक है और 'कड्यतुम्बगरसो निबरसो' में छेकानुप्रास है।
गाथा ११-नीललेश्या का रस वैसा ही तीखा होता है जैसा त्रिकट और गजपीपल का रस होता है । अत: उदाहरण एवं 'रसो' शब्द दो बार, अतः यमक भी है।
गाथा १२–कापोतलेश्या का रस कसैला होता है जैसा कच्चे आम और कच्चे कपित्थ का होता है । अतः उदाहरण तथा 'रसो' शब्द दो बार पाया है, अतः यमक है।
गाथा १३-तेजोलेश्या का रस वैसा ही खट-मीठा होता है जैसा पके हुए आम और पके हुए कपित्थ का रस होता है। इसमें भी उदाहरण और 'रसो' शब्द दो बार आया है, अत: यमक भी है।
सम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / ११२
अर्चमार्चम
गाथा १४-पद्मलेश्या का रस वैसा ही होता है जैसा उत्तम सुरा, फूलों से बने विविध पासव, मधु (मद्यविशेष) तथा मैरेयक का रस अम्ल-कसला होता है। उदाहरण है तथा 'रसो' शब्द दो बार पाया, अतः यमक है।
गाथा १५-शुक्ल लेश्या का रस मोठा होता है जैसा खजूर, दाख, क्षीर, खाँड और शक्कर का रस होता है। उदाहण तथा 'रसो' शब्द दो बार वाया है, अतः यमक है।
__ गाथा १६-१७-गाय, कुत्ते और सर्प के मृतक शरीर से जैसी दुर्गन्ध आती है वैसी कृष्ण, नील और कापोतलेश्याओं की गन्ध होती है तथा सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों की जैसी गन्ध है वैसी तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याओं की गन्ध होती है । अतः उदाहरण है।
गाथा १८-१९-कवच (करवत), गाय की जीभ और शाक वृक्ष के पत्रों का स्पर्श जैसे कर्कश होता है वैसा कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं का स्पर्श होता है। तथा बूर (वनस्पति विशेष), नवनीत, सिरीष के फूल का स्पर्श कोमल होता है वैसा ही तेज, पद्म और शुक्ललेश्या का होता है। इनमें भी उदाहरण अलंकार है।
अध्ययन ३५-गाथा १२-मत्थि जोइसमे सत्थे'-अग्नि के समान दूसरा कोई नहीं है। उपमालंकार ।
अध्ययन ३६-गाथा ५७-६०---'ईसीपब्भारनामा उ, पुढवो छत्तसंठिया'ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी छत्राकार है। रूपकालंकार ।
गाथा ६१-'संखंक-कुदसंकासा, पण्डुरा निम्मला सुहा'--शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत/निर्मल और शुभ है । उपमालंकार।
गाथा ६६-'अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि-जिसकी कोई उपमा नहीं है ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है । अनुपमेय ।
इस प्रकार क्रमश: ३६ ही अध्ययनों में मेरी अबोध दृष्टिगत जो अलंकार उपलब्ध हुए उनका यहाँ निरूपण किया गया है।
यदि सम्पूर्ण कलात्मक दृष्टि से इस सूत्र पर विचार किया जाये तो निबन्ध के रूप में लिखना अतीव कठिन है। क्योंकि जितना विशद यह सूत्र भावात्मक दृष्टि से है उतना ही विशद इसका कलात्मक परिवेश भी है। अतः केवल अलंकार पक्ष को लेकर यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया है। फिर भी निबन्ध काफी विस्तृत हो गया है।
इस निबन्ध को तैयार करने में 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' पूज्य प्राचार्य प्रवर श्री आत्मारामजी म. एवं महासती श्री चंदनाजी के द्वारा अनूदित सूत्र का आधार लिया गया है । तथा अलंकारों के लिए संक्षिप्त अलंकार मंजरी' (ले. सेठ कन्हैयालाल पोद्दार) का सहारा लिया है।
प्रस्तुत निबन्ध में भूल होने की संभावना हो सकती है । अतः उसके लिये मैं उत्तरदायी हूँ। वीतराग-वाणी का कलात्मक दृष्टि से मनन करते हुए यदि पाशातना हुई हो तो 'मिच्छा मि-दुक्कडं।'
-मालवकेसरी पूज्य श्री सौभाग्यमलजी के शिष्य
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता
0 डॉ० सागरमल जैन
भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी लेखनी से विपुल मात्रा में मौलिक एवं टीका साहित्य का सृजन किया है। अनुश्रुति है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थ रचे थे, किन्तु वर्तमान में उनके द्वारा रचित लगभग ८४ ग्रन्यों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध है। उन्होंने दर्शन, धर्म-साधना, योग-साधना, धार्मिक विधि-विधान, आचार, उपदेश कथाग्रन्थ प्रादि विविध विधानों पर ग्रन्थों की रचना की है। उनका टीका साहित्य भी विपुल है। हरिभद्र उस युग के विचारक हैं, ये जब भारतीय चिन्तन एवं दर्शन के क्षेत्र में वाक-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति प्रमुख बन गयी थी। प्रत्येक दर्शन स्वपक्ष के मण्डन और परपक्ष के खण्डन में अपना बुद्धि-कौशल दिखला रहा था। मात्र यही नहीं, धर्मों और दर्शनों में पारस्परिक विद्वेष और घणा की भावना भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। स्वयं हरिभद्र के दो शिष्यों को भी इस विद्वेष-भावना का शिकार होकर अपने जीवन की बलि देनी पड़ी थी। उस युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के प्रदेयों का और उनकी महानता का सम्यक मूल्यांकन किया जा सकता है। हरिभद्र की महानता तो इसी में है कि उन्होंने शुष्क वाक्-जाल और घणा एवं विद्वेष के इस विषम परिवेश में समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया। यद्यपि समन्वयशीलता, उदारता और समभाव के गुण हरिभद्र को जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि से विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने इन गुणों को जिस शालीनता के साथ अपनी कृतियों में एवं जीवन में प्रात्मसात् किया है, वैसा उदाहरण स्वयं जैन परम्परा में भी विरल ही है। प्रस्तुत निबन्ध में हम उनकी इन्हीं विशेषताओं पर किञ्चित् विस्तार के साथ चर्चा करेंगे।
___ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता का रूप क्या है ? यह समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कर रहे हैं
(१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण ।
(२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति ।
(३) शुष्क दार्शनिक समालोचनामों के स्थान पर उन अवधारणामों के सार तत्त्व और मूल उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न ।
धम्मो दी) संसार समुद्र में कर्म ही दीम है
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चतुर्थखण्ड / ११४
(४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सस्यों को एवं इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय का प्रयत्न ।
(५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन और उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन ।
(६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए भी धार्मिक एवं पौराणिक ग्रन्थविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन ।
करते हुए
(७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में प्रास्था या श्रद्धा की अपेक्षा तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल; किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए हो।
(८) धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की निर्मलता के साथ जोड़ने
का प्रयत्न ।
(९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण ।
(१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उनके गुणों पर बल ।
अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण
जैन परम्परा में अन्य परम्पराधों के विचारकों के दर्शन एवं धर्मोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभा सियाई लगभग ई० पू० ३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परम्पराम्रों के प्रवर्तकों—यथा नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है। निश्चय ही वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराम्रों के प्रति समादर भाव का यह अति प्राचीनकाल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है । अन्य परम्पराओं के प्रति ऐसा समादरभाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। स्वयं जैन परम्परा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी। परिणामस्वरूप यह महान् ग्रंथ जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था, वहां से अलग कर परिपार्श्व में दाल दिया गया। यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती श्रादि श्रागम ग्रंथों में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किंतु उनमें अन्य दर्शनों और परम्परानों के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं होती, जो ऋषिभाषित में थी। ऋषिभाषित में जिस मंखलि गोशालक को महंत ऋषि के रूप में संबोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है, यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परम्परा में अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान् है ।
ज़ैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में 'वेदवाद, दसवीं में योगविद्या बारहवीं में स्वायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / ११५
सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। वे अनेक प्रसंगों में इन अवधारणामों के प्रति चुटीले व्यंग्य भी कसते हैं । वस्तुत: दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों का निराकरण करना हो था। सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है।' यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या-दर्शन हैं जबकि जैनदर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन है। वस्तुतः वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता है। यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दधन प्रादि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। उदाहरण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेवस्तोत्र (४४) में निम्न श्लोक प्रस्तुत करते हैं ।
भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥ __ यह श्लोक हरिभद्र के लोकतत्त्वनिर्णय में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है, यथा
यस्य निखिलाश्च दोषा न संति, सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ वस्तुत: २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक प्राचार्यों ने जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनर्मिता उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या श्लोकों में उदरता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदारदृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन किया हो।
अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दष्टियों से किया जाता है, एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दष्टि से लिखे गये ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य पालोचना करना होता है, तो वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है।
१. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी पृ० ४० ।
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / ११६
उदाहरण के रूप में स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों ने कभी भी उन्हें सम्यक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न नहीं किया है । यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है, अपने ग्रन्थ धर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उसके सम्बन्ध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं।
दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों की परम्परा और उसमें हरिभद्र का स्थान
यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख दर्शनों के सिद्धान्त को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही वे प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है। हरिभद्र के षड्दर्शन-समुच्चय की कोटि का
और उससे प्राचीन दर्शनसंग्राहक कोई अन्य ग्रन्थ हमें प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता।
हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्परामों के किसी भी प्राचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने की दृष्टि से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रन्थों में अपने विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है । जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं, किन्तु उनकी दृष्टि भी खण्डनपरक ही है। विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए अनेकान्तवाद की स्थापना करना है। प० दलसुखभाई मालवणिया के शब्दों में (नय) चक्र की कल्पना के पीछे प्राचार्य का प्राशय यह है कि कोई भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की दलीलों से हो सकता है। स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता रहता है। अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं।' नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है । इस प्रकार जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ नहीं लिखा गया।
जनेतर परम्पराओं के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में प्राचार्य शंकरविरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा प्राचीन है, फिर भी इसके प्राद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में संदेह है। इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए अन्त में अद्वैत वेदान्त को स्थापना की गयी है । अतः किसी सीमा तक इसकी शैली को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिममत का भी प्रथम मत से खण्डन करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदान्त को एकमात्र और
१. षड्दर्शनसमुच्चय-सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १४ ।
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / ११७
अन्तिम सत्य स्वीकार करता है। अतः यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है।
जैनेतर परम्परात्रों में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान माधवाचार्य (ई. १३५०?) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का पाता है। किन्तु 'सर्वदर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र सम्यग्दर्शन है। सर्वसिद्धान्तसंग्रह और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों ग्रन्थों की मूलभूत शैली खण्डनपरक ही है । अतः इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतो के प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती है, जो हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है।
__ वैदिक परम्परा में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा स्थान माधवसरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का पाता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और प्रवैदिक-ऐसे दो भागों में बाँटा गया है। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, और जैन ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये गये हैं । इस ग्रन्थ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है। अतः हरिभद्र के षडदर्शनसमुच्चय जैसी उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है।
वैदिक परम्परा में दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का पाता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और प्रवैदिक-ऐसे दो भागों में बांटा गया है। प्रवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, और जैन ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये गये हैं। इस ग्रन्थ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है । अतः हरिभद्र के षटदर्शनसमुच्चय जैसा उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है।
वैदिक परम्परा के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थानभेद' का पाता है। मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है। नास्तिक-प्रवैदिक-दर्शनों में वे छह प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश हा है। आस्तिक-वैदिकदर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत-दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं०दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार 'प्रस्थानभेद' के लेखक की एक विशेषता अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है । वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि ये (प्रस्थानों के प्रस्तोता) सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे । चंकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये हैं।' इस प्रकार प्रस्थानभेद में यत्किचित उदारता
१. षड्दर्शनसमुच्चय--सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १९ ।
धम्मो दीयो मसार समुद्र में धर्म ही दीय है।
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चतुर्थ खण्ड / ११८
का परिचय प्राप्त होता है। किन्तु यह उदारता केवल वैदिक परम्परा के प्रास्तिक दर्शकों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का निराकरण करना तो सर्वदर्शनकौमुदीकार को भी इष्ट ही है। इस प्रकार दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दष्टि है वह हमें अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है। यद्यपि वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने इष्ट दर्शन और विशेषरूप से वेदान्त को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है।
हरिभद्र के पश्चात जैन परम्परा में लिखे गये दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में अज्ञात कृतक के 'सर्व सिद्धान्तप्रवेशक' का प्रथम स्थान प्राता है। किन्तु इतना निश्चित है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है क्योंकि इसके मंगलाचरण में-"सर्वभावप्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं" ऐसा उल्लेख है । पं० सुखलाल संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का ही अनुसरण करती है।' अन्तर मात्र यह है कि जहाँ हरिभद्र का ग्रन्थ पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है । साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तत भी है।
जैन परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि के शिष्य प्राचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम १२६५) के विवेकविलास का पाता है। इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण है। जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक इन छह दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्याय-वैशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है। मेरी दृष्टि में इसका कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया है
'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिव:'--१३ यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र ६६ श्लोक प्रमाण है।
- जैन परम्परा में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर ( विक्रम १४०५ ) के षडदर्शनसमुच्चय का पाता है। इस ग्रन्थ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध)-इन छह दर्शनों का भी उल्लेख किया गया है। हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी को प्रास्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं । पं० सुखलाल संघवी के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर नहीं रख सके।
पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शन संग्राहक ग्रन्थ प्राचार्य मेरुतंगकृत षड्दर्शन-निर्णय है। इस ग्रन्थ में मेरुतंग ने बौद्ध १. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ । २. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र पृ० ४७ । ३. षड्दर्शनसमुच्चय-सं० पं० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १९ ।
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / ११९
मीमांसा, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक इन छह दर्शनों की मीमांसा की है किन्तु इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है। यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिए लिखा गया है । एक मात्र इसकी विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है।
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने षड्दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसरिकृत षडदर्शनसमुच्चय की वत्ति के अन्त में अज्ञातकृतक एक कृति मुद्रित है। इसमें भी जैन, नैयायिक, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है किन्तु अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैनदर्शन को उच्च श्रेणी में रखा गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति रहे हैं, जिन्होंने निष्पक्ष भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थ में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है । इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं ।
समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोग और अन्य धर्मप्रवर्तकों के प्रति बहुमान
दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते रहे हैं। प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिए अन्य दार्शनिक मतों की समालोचना करता है। स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का खण्डन ---यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है। हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। फिर भी उनकी विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा में वे सदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विरोधी दर्शनों के प्रवर्तकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करते हैं। दार्शनिक समीक्षात्रों के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है जिसमें अन्य दार्शनिक परम्पराओं को न केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था अपितु उनके प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था। जैन और जैनेतर दोनों ही परम्परायें इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त नहीं रख सकीं। जैन परम्परा के सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य दार्शनिक परम्परागों की समीक्षा करते हैं तो न कवल उन परम्परामों की मान्यताओं के प्रति, अपितु उनके प्रवर्तकों के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कस देते हैं। हरिभद्र स्वयं भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति के अपवाद नहीं रहे हैं। जैन आगमों की टीका में और धर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों की रचना में वे स्वयं भी इस प्रकार के चटीले व्यंग्य कसते हैं किन्तु हम देखते हैं कि विद्वत्ता की प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है और अपने परवर्ती ग्रन्थों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं। इसके कुछ उदहरण हमें उनके ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखने
को मिल जाते हैं । अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ रचना का उद्देश्य .स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं
यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।।
सम्मो दीटो संसार समुद्र में म ही दीय है
१. षड्शनसमुच्चय-सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० २० ।
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चतुर्थ खण्ड / १२०
अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेषबुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है । इस ग्रन्थ में कपिल को दिव्य-पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं--(कपिलो दिव्यो हि स महामुनि:-शास्त्रवार्तासमुच्चय २३७) । इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत्, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं (यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत्--- वही ४६५,४६६) । यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं-न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्ल कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं । शास्त्रवार्तासमुच्चय में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है, किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो । इस प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदर-भावना का परिचय दिया वह हमें जैन और जनेतर किसी भी परम्परा में उपलब्ध नहीं होती।
हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित सारतत्त्व या सत्य को समझने का जो प्रयास किया है, वह भी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है । यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत-स्वभाववाद का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते हैं । किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप-द्रव्यकर्म और भावकर्म माने गये हैं उसमें एक अोर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के कारण जहाँ वे चार्वाक-दर्शन की समीक्षा करते हैं वहीं दूसरी ओर वे द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूतस्वभाववाद की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है।' पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में परस्पर पूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और मीमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का सुमेल हुआ है।
इसी प्रकार शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणाओं की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहाँ चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन प्राचार्यों ने इन अवधारणाओं का खण्डन ही किया है, वहाँ हरिभद्र इनकी भी सार्थकता को स्वीकार करते हैं । हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है । प्रथम तो यह कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है जिसके द्वारा वह अपने में आत्मविश्वास जागृत कर सके । पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं - मानव मन की प्रपत्ति या
१. कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वैतदपि साम्प्रतम् ।
आत्मनो व्यतिरिक्तं तत् चित्रभावं यतो मतम् ॥ शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते ।
अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् ॥ --शास्त्रवार्तासमुच्चय ९५, ९६ २. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र पृ० ५३, ५४ ।
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२१
शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुँचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए उन्होंने (हरिभद्र ने ) ईश्वरकर्तृत्ववाद की अवधारणा अपने ढंग स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है' । हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति प्राध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका को प्राप्त हुआ हो वह श्रसाधारण श्रात्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है । इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वतः अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' भी है और 'कर्ता' भी है। इस प्रकार ईश्वर कर्तृत्ववाद भी समीचीन ही सिद्ध होता है । हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं किन्तु वे प्रकृति को जैन परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते हैं । वे लिखते है कि 'सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्मप्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य पुरुष और महामुनि हैं । ४
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प्रयत्न करते हैं
शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं में निहित सत्य को भी देखने का श्रीर कहते हैं कि महामुनि और प्रर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं करते । उन्होंने क्षणिकवाद का उपदेश पदार्थ के प्रति हमारी प्रासक्ति के निवारण के लिए ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति श्रासक्ति गहरी नहीं होती। इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त करने के लिए ही है । यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी । इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की निःसारता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है । इस
१. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, पृ० ५५ । २. ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम् । सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः ॥ ईश्वर: परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणभावतः ॥ तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः ।
तेन तस्यापि कर्तृत्वं . कल्प्यमानं न दुष्यति ॥ - शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०३ - २०५
३. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः ।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृ वादो व्यवस्थितः ॥ - वही, २०७
४. प्रकृति चापि सन्न्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ॥
एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि ।
कपिलो तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥ - वही २३२-२३७ ५. अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये ।
क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥
विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये |
विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः ॥ - शास्र० ४६४-४६५ ॥
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थखण्ड / १२२ प्रकार हरिभद्र की दृष्टि में बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद - इन तीनों सिद्धातों का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति की जगत् के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा का प्रहाण हो ।
अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य है। इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी प्राव श्यक है। अद्वैत परावेपन की भावना का निषेध करता है इस प्रकार द्वेष का उपशमन करता है अतः वह भी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे समीचीन ही स्वीकार करते हैं । "
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिए न होकर उन दार्शनिक परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिए ही है। स्वयं उन्होंने शास्त्रवातसमुच्चय के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्परानों के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध कराना है । उपर्युक्त विवरण से यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे ग्रालोचक के स्थान पर सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं ।
अन्य दर्शनों का गम्भीर अध्ययन एवं उनकी निष्पक्ष व्याख्या
भारतीय दार्शनिकों में अपने से इतर परम्पराम्रों के गम्भीर अध्ययन की प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है। बादरायण, जैमिनीय आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं तो ऐसा लगता है कि वे दूसरे दर्शनों को अपने सतही ज्ञान के अाधार पर भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं। यह सत्य है कि अनेकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने ही किया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारी पूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न तो उन दर्शनों में निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकते थे और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर तटस्थ भाव से टीका भी लिखी । दिङ्नाग के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्वपूर्ण मानी जाती है। पतञ्जलि के योगसूत्र का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने उसीके आधार पर एवं नवीन दृष्टिकोण से योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविशति श्रादि ग्रन्थों की रचना की थी । १. अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये ।
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अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥ २. ज्ञानयोगावतो मुक्तिरिति सम्यग् व्यवस्थितम् तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्यं न दोषकृत् ॥ ३. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्व विनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्ग सिद्धिसुखावहः ॥
वही, ५५० ॥
-वही, ५७९
- वही, २
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"धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२३
इस प्रकार हरिभद्र जैन और जैनेतर परम्परानों के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं। जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भाव रखा, उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ भाव रखा है।
अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन
यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्परामों के प्रति एक उदार और सहिष्ण दष्टिकोण को लेकर चलते हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं हैं कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते हैं । एक अोर अन्य परम्परामों के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं । इस दृष्टि से उनकी दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं-(१) धूर्ताख्यान और (२) द्विजवदनचपेटा । धर्ताख्यान में उन्होंने पौराणिक परम्परा में पल रहे अन्धविश्वासों का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धर्ताख्यान में वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा शंकर के द्वारा अपनी जटाओं में गंगा को समा लेना, वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना । गणेश का पार्वती के शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पार्वती का हिमालय की पुत्री होना आदि अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। हरिभद्र धूर्ताख्यान में कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते हैं और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपरोक्त बातें सत्य हैं तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकतीं। इस प्रकार धर्ताख्यान में वे व्यंग्यात्मक किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या-विश्वासों की समीक्षा करते हैं। इसी प्रकार द्विजवदनचपेटा में भी उन्होंने ब्राह्मणपरम्परा में पल रही मिथ्या धारणाओं एवं वर्णव्यवस्था का सचोट खण्डन किया है । हरिभद्र सत्य के समर्थक हैं, किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यतानों के कठोर समीक्षक भी हैं ।
तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन
हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को तर्कविरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्क से रहित श्रद्धा उपादेय नहीं है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।।
-लोकतत्त्वनिर्णय ३८ उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए । यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपने वाले दोषों के प्रति भी सचेष्ट हैं । वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क का उपयोग केवल अपनी
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चतुर्थ खण्ड / १२४ मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए
घाग्रही वत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ॥
आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का प्रयोग भी वहीं करता है जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है जबकि अनाग्रही वा निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है उसे स्वीकार करता है । इस प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की पुष्टि या अपने विरोधी की मान्यता के खण्डन के लिए न करके सत्य की गवेषणा के लिए करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक हैं।
कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल
हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्मसाधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयास किया है । यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र (शील) को स्वीकार किया गया है । हरिभद्र भी धर्मसाधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हैं, किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो थया को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न ज्ञान को कुतर्क भाति होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तक सीमित रखना चाहिए। वे कहते है कि जिन पर मेरी श्रद्धा का कारण राग भाव नहीं है अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है । इस प्रकार वे श्रद्धा के साथ बुद्धि जोड़ते हैं किन्तु निरा तर्क भी उन्हें इष्ट नहीं है। वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुतः एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाली है। वह ज्ञान का अभिमान उत्पन्न करने के कारण भाव शत्रु है। इसलिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क के वाग्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए।' वस्तुतः वे सम्यग्ज्ञान और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का सृजन करता है प्रत उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता माध्यात्मिक विकास में बाधक ही है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने धर्म के दो विभाग किये हैं- एक संज्ञान योग और दूसरा पुण्य लक्षण' । ज्ञानयोग वस्तुतः शाश्वत सत्यों की परोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक ज्ञान से भिन्न है । हरिभद्र अन्धश्रद्धा से मुक्त होने के लिए तर्क एवं युक्ति को आवश्यक मानते हैं किन्तु उनकी दृष्टि में तर्क या युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए न कि खण्डन- मण्डनात्मक । खण्डन- मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में की है। इसी प्रकार धार्मिक प्रचार को भी वे शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक् रखना चाहते हैं । यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्ड परक ग्रन्थ लिखे हैं। किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने
१. योगदृष्टिसमुच्चय ८७ एवं ८८
२. शास्त्रवार्ता समुच्चय, २० ।
३. योगदृष्टिसमुच्चय ६६ १०१ ।
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२५
प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह किया है। हरिभद्र के समस्त उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर ही अधिक बल देते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिकनिर्मलता और कषायों के उपशमन के निमित्त ही है। जीवन में कषाय उपशान्त हो समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं छद्म जीवन की उन्होंने खुलकर निन्दा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े हाथों लिया है। उनकी दष्टि में धर्म साधना का अर्थ है--
अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद् योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।
--योगबिन्दु ३१ साधनागत विविधता में एकता का दर्शन
धर्मसाधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंने सम्यक-समाधान खोजा है। जिस प्रकार गीता में विविध देवों की उपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है उसी प्रकार हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं-उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित प्राचार पद्धतियाँ बाह्यत: भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वत: एक ही हैं । सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है तत्त्वतः भेद नहीं होता है।'
हरिभद्र की दृष्टि में प्राचारगत और साधनागत जो भिन्नता है वह मुख्य रूप से दो प्राधारों पर है। एक तो साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार एक वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की भिन्नता के आधार पर और रोग की भिन्नता के आधार पर अलग-अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्मा जन भी संसार रूपी व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्न-भिन्न विधियाँ बताते हैं। वे पुनः करते हैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है। वस्तुतः विषय वासनामों से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार पर स्वयं धर्म साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्न चिह्न लगाना अनुचित ही है । वस्तुत: हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म साधना के क्षेत्र में बाह्य
१. योगदृष्टिसमुच्चय १०७, १०८, १०९। २. चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः ।
यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ।।-योगदृष्टिसमुच्चय, १३४ ३. यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः । ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपि तत्त्वतः ॥-योगदृष्टिसमुच्चय, १३८
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चतुर्थ खण्ड | १२६
प्राचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत ही महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यही है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है।
मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण
हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है-ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे ।
न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।। अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी एक सिद्धान्तविशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्तिविशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है । मुक्ति तो वस्तुत: कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। वे स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म सम्प्रदाय अथवा विशेष वेषभूषा नहीं है । वस्तुत: जो व्यक्ति समभाव की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा वही मुक्त होगा। उनके शब्दों में--
सेयंबरो यासंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा ।
समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो ।। अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो।
साधना के क्षेत्र में उपास्य का नामभेद महत्त्वपूर्ण नहीं
हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नामभेदों को लेकर धर्म के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है । लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैं
यस्य निखिलाश्च दोषा, न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। वस्तुतः जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी गुण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय उसमें भेद नहीं। वस्तुतः सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या परमसत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनामों से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परमकारुणिक माना गया है। किन्तु हमारी दृष्टि उस परम तत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथागतः । शब्दस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद एक एवैवमादिभिः ।।
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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२७
अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद है। उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुत: यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं कर पाते हैं। व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्ण या अनासक्ति की भूमिका का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों का यह विवाद निरर्थक हो जाता है । वस्तुतः आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है स्वरूपगत भिन्नता नहीं। वस्तुतः जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह अनुभूति से वंचित हो जाता है। वे कहते हैं कि जो उस परम तत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्द-गत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक उदारचेता, समन्वयशील और सत्यनिष्ठ प्राचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य प्राचार्य को खोज पाना कठिन है। अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं।
-निदेशक पावनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५
धम्मो दीयो संसार समुद्र में al ही दीय है
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आचार्य हरिभद्र के गान्शों में
दृष्टान्त व न्याय - डॉ. दामोदर शास्त्री, दिल्ली
भारतीय धार्मिक व दार्शनिक चिन्तन की सुरक्षा व विकास प्रक्रिया में श्रद्धा के साथ-साथ तर्क व युक्ति की भी प्रमुख भूमिका रही है । यद्यपि श्रद्धा व तर्क-इनकी दिशाएँ परस्पर विपरीत प्रतीत होती हैं, तथापि विवेक व मध्यस्थता की भावना के माध्यम से इन दोनों को सत्यान्वेषण के लक्ष्य की ओर उन्मुख कर एकार्थसाधक बताया जाता रहा है। वस्तुतः विवेक के अभाव में श्रद्धा का विकृत रूप 'अन्धविश्वास' के रूप में, तथा तर्क का 'शुष्क विवाद' के रूप में प्रकट होता है। श्रद्धा व तर्क-इन दोनों का अतिरंजन, या इनमें से किसी एक के प्रति ऐकान्तिक आग्रह मिथ्यात्व व मिथ्याभिनिवेश को जन्म देता है। इसलिए भारतीय प्राचार्यों ने, जिनमें जैन व जैनेतर दोनों सम्मिलित हैं, सत्यान्वेषी को कुतर्क, शुष्क विवाद व अन्धश्रद्धा से बचने हेतु सावधान किया है।' इतिहास साक्षी है कि उक्त प्राचार्यों व मनीषियों के निर्देश की जब-जब अवहेलना या उपेक्षा हुई है, तब-तब चिन्तन की विकासप्रक्रिया को आघात पहुँचा है। दृष्टान्त व युक्ति का जैन-परम्परा में प्रवेश
अनेकान्तवाद व स्याद्वाद के रूप में जैन परम्परा ने दार्शनिक चिंतन के क्षेत्र में मध्यस्थता, निष्पक्षता व समन्वय की भावना को सदा पुष्ट किया है, और इस प्रकार दार्शनिक चिन्तन की प्रक्रिया को विकसित होने में प्रमुख योगदान किया है। समन्वयवादी प्राचार्यों के मत में श्रद्धा व युक्ति-इन दोनों के समन्वय पर ही 'दृष्टि की पूर्णता' प्रतिपादित हुई है। श्रद्धा व तर्क-इन दोनों में विरोध न हो, अपितु समन्वय-भावना बनी रहे-इस दृष्टि से जैन आचार्यों के अनुसार श्रद्धा व तर्क-इन दोनों के प्रतिवादों से बचना चाहिए । मनु ने प्रागम-प्रविरोधी तर्क को समर्थन देकर श्रद्धा व तर्क का समन्वय प्रस्तुत किया। उसी भावना को आगे बढ़ाते हुए जैन प्राचार्यों ने कहा-पागम में प्रतिपादित इन्द्रिय-गम्य स्थल पदार्थों को युक्ति व तर्क की कसौटी पर भी परखना अनुचित नहीं है। हाँ, अतीन्द्रिय, सूक्ष्म पदार्थों के सम्बन्ध में सावधानी अवश्य बरतनी चाहिए। चूंकि अतीन्द्रिय पदार्थ श्रद्धा व स्वानुभव ( स्वसंवेदन ) द्वारा ही गम्य हैं, और तर्क की परिधि से बहिर्भत हैं अतः उनके विषय में कुतर्क या विवाद का आश्रयण उचित नहीं ।
नियुक्तिकार प्रा. भद्रबाहु ( वि. स-६ शती) ने पदार्थों को दो वर्गों में विभाजित किया-१. आगमगम्य और २. दृष्टान्तगम्य । आगमगम्य तत्त्वों के निरूपण में युक्ति, तर्क आदि को अवकाश नहीं है। दृष्टान्तगम्य पदार्थों की समीक्षा स्वतन्त्र चिन्तन, युक्ति व तर्क के माध्यम से करते हए उनकी सत्ता को प्रमाणित करने के साथ-साथ उनके स्वरूप को
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आ. हरिभद्र के ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय / १२९
विस्तृत प्रायाम दिया जा सकता है। इस स्थिति में, प्रत्येक उपदेशक आचार्य के लिए यह उचित है कि वह उक्त विभाजन को ध्यान में रख कर ही अपना व्याख्यान करे । *
आ. सिद्धसेन ( ५ वीं शती) ने हेतुगम्य और ग्रहेतुगम्य इस प्रकार तत्वों का विभाजन किया और कहा कि हेतुगम्य पदार्थों को भी केवल प्रागम- प्रामाण्य से प्रतिष्ठापित कर समझाने का यत्न करने वाला वक्ता / उपदेशक अपने सिद्धान्त का पोषक / प्रचारक तो क्या होगा, वास्तव में विराधक ( विनाशक ) ही होगा। इसी प्रकार, प्राचीनता का नाम लेकर, किसी बात को अन्धश्रद्धावश ज्यों का त्यों, बिना 'ननु नच किए, सत्य रूप में स्वीकार कर लेना, या नवीन चिन्तन को, भले ही वह युक्तिसंगत ही हो, नकार देना, किसी तरह भी उचित प्रतीत नहीं होता । " वास्तव में, उपदेश या व्याख्यान में वक्ता को उदारता से काम लेना चाहिए। यहाँ तक कि दूसरे सम्प्रदाय आदि के सिद्धान्तों को भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए, बशर्ते उनसे अपने मत की पुष्टि हो सके।"
आ. हरिभद्र का न्याय व दृष्टान्त के प्रति दृष्टिकोण
उक्त प्राचार्यों ने स्वतन्त्र चिन्तन व तार्किक परीक्षण की जो श्रधार - शिला रखी, प्रा. हरिभद्र ने उस पर एक विशाल भवन खड़ा कर दिया था. हरिभद्र के समय तक जैन संघ के दिगम्बर श्वेताम्बर परम्परा भेद तो दृढमूल हो ही गये ये व्यवहारधर्म व प्राचार को लेकर कुछ मान्यता भेद भी पनपने लगे थे चैत्यवास जैसी शिथिलता पोषक परम्परा फल-फूल रहीं थीं। प्रत्येक सम्प्रदाय अपनी मान्यता को ग्रागमिक / प्रचीन बताकर उसे ही सत्य सिद्ध करने का प्रयास कर रहा था। उक्त मान्यता को चुनौती देने पर श्रार्षविरुद्धता का आरोप लगाना सहज था । स्वतन्त्र चिन्तन का मार्ग प्रायः अवरुद्ध था । ऐसी स्थिति में
विषम परिस्थिति में प्रसत्य सत्य के रूप
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प्रा. हरिभद्र ने स्पष्ट उद्घोषणा की चूंकि वर्तमान में, और सत्य असत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है, ऐसी स्थिति में युक्ति आदि से परीक्षा करना ही उचित होगा। १० "जैसे कसौटी पर कस कर ही सोने की परीक्षा होती है, वैसे ही एक तटस्थ व्यक्ति की तरह सिद्धान्त की परीक्षा करनी चाहिए।"१" था. हरिभद्र ने जहाँ एक ओर शुष्क तर्कवाद की निन्दा की, वहाँ अन्धश्रद्धा पर भी करारा प्रहार करते हुए कहा कि " दुराग्रह त्याग कर युक्ति व तर्कों से परीक्षण करने के संगत लगे, उसी को स्वीकार करना चाहिए"।
अनन्तर जो बात युक्ति
प्रा. हरिभद्र ने श्रागमगम्य ( अहेतुगम्य ) पदार्थों के सम्बन्ध में प्राचीन प्राचार्यों के मत को यथावत् अपना समर्थन दिया। उन्होंने अलौकिक प्रतीन्द्रिय पदार्थों को मात्र भागमगम्य बताते हुए, उन्हें अनुभूति व श्रद्धा का विषय बताया, १४ तथा उनके सम्बन्ध में शुष्क तर्क के प्रयोग को अनुचित बताया । १५
"
प्रा. हरिभद्र के मत में श्रोता या जिज्ञासु व्यक्ति के समक्ष उपदेशक के लिए यह 'उचित है कि वह विषय-वस्तु के अनुरूप ( ग्रागम मात्रगम्य पदार्थों को श्रागम से हेतुगम्य पदार्थों को युक्ति, न्याय, दृष्टान्त आदि द्वारा इस प्रकार ) युक्ति व आगम-इन दोनों ही प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए इस तरह व्याख्यान करे जिससे तथ्य हृदयंगम हो जाए ।१६ हेतुगम्य पदार्थों के निरूपण में 'दृष्टान्त' के प्रयोग का भी उन्होंने प्रावधान किया । १७ प्रा. हरिभद्र के अनुसार शास्त्र के प्रति श्रोता का बहुमान भाव जागृत हो इस दृष्टि से भी
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चतुर्थ खण्ड / १३०
विषय-वस्तु को स्पष्ट करते हुए उचित उदाहरणों दृष्टान्तों का प्रयोग करना चाहिए।' उन्होंने 'आचार्य' के लिए उदाहरण व हेतु के प्रयोग में निपूण होने की अपेक्षा को उचित ठहराया। जैन-परम्परा में प्राचार्य के लिए नाना उपाख्यानों दृष्टान्तों में कुशल होनाएक अपेक्षित योग्यता मानी गई है । २०
'दृष्टान्त' का अर्थ, और उसके पर्याय
नियुक्तिकार के मत में ज्ञात, उदाहरण, उपमा, निदर्शन-ये सभी एकार्थक हैं, परस्पर पर्याय हैं । २१ आख्यानक (कल्पित या ऐतिहासिक कथाएँ) उपमान, उपपत्ति—इन्हें भी दृष्टान्त के पर्याय रूप माना गया है ।२२।।
'दृष्टान्त' पद की निरुक्ति करते हुए प्रा. हरिभद्र ने बताया कि 'जो दृष्ट अर्थ तक पहँचा दे, वह 'दृष्टान्त' है। २3 उक्त निरुक्ति और पर्यायों को सामने रख कर 'दृष्टान्त' का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है-किसी वस्तु या प्रसंग-विशेष को अधिक स्पष्ट करने के लिए जो लौकिक या शास्त्रीय उदाहरण निदर्शन प्रस्तुत किया जाय, वह 'दृष्टान्त' है, वह उपमा या सादृश्य-बोधक मात्र भी हो सकता है, उदाहरण भी, अथवा समर्थनकारी कोई कहानी-किस्सा भी हो सकता है।
न्याय-शास्त्र में अनुमान-वाक्य में प्रयुक्त पांच अवयवों में 'दृष्टान्त' (या उदाहरण) का परिगणन किया गया है ।२४ वादी–प्रतिवादी या लौकिक परीक्षक समीक्षक को साध्य व हेतु-इन दोनों के साहचर्य का, या साध्य के अभाव में हेतु के प्रभाव का निश्चय कराने के लिए, संदेहरहित कोई उदाहरण ( जो प्रासंगिक अनुमान के साथ वैचारिक साम्य रखता हो) प्रस्तुत किया जाता है-वह 'दृष्टान्त' है । ५ आ. हरिभद्र ने अनुमानावयव 'दृष्टान्त' का भी निरूपण किया है। प्रस्तुत निबंध में उक्त अनुमान-प्रक्रियागत 'दृष्टान्त' गहीत नहीं है।
न्याय और दृष्टान्त : साम्य व वैषम्य
न्याय, दृष्ट, अभिसमन्वागत-ये एकार्थक हैं । २० 'न्याय' शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है। जैसे-१. परमात्मपद या मोक्ष अथवा अभीष्ट अर्थ का साधक उपाय, २. मुमुक्ष साधक का सदाचार, ३. प्रस्तुत अर्थ का साधक प्रमाण२८ ४. दयावृत्तिता । २8 ५. प्रमाणों से अर्थ-परीक्षण की प्रक्रिया।३० ६. अनुमिति–प्रक्रिया का साधक पंचावयवात्मक वाक्य. ७. (अनुमिति में चरम कारण) लिंग-परामर्श के प्रयोजक शब्द-ज्ञान का जनक वाक्य ३२ ८. युक्ति, या युक्ति का प्रतिपादक शास्त्र । 33
. लोक व शास्त्र में प्रसिद्ध घटना-विशेष के दृष्टान्तों को भी 'न्याय' कहा जाता है ।३४ धवला-कार के मत में ज्ञेयानुसारी सिद्धान्त 'न्याय' है।३५
प्रस्तुत निबन्ध में 'न्याय' पद से घटना-विशेष पर आधारित 'सिद्धान्त-विशेष' गृहीत किया गया है।
न्याय और दृष्टान्त में काफी समानता है। वस्तुत: 'न्याय' 'दृष्टान्त' का ही एक प्रकार है । इन दोनों में सूक्ष्म भेद-रेखा भी है, वह यह कि 'न्याय' किसी घटना-विशेष पर आधारित सिद्धान्त का प्रतिनिधित्व करते हैं, और वक्ता उपदेशक उक्त सिद्धान्त के क्रियान्वयन
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को इष्ट उचित बताते हुए वर्ण्य विषय का समर्थन करते हैं, जब कि ज्ञात/दृष्टान्त उदाहरण सामान्य घटनाएँ होती हैं जिनके साम्य पर वर्ण्य विषय या प्रतिपाद्य सिद्धान्त की स्पष्टता, पुष्टि या समर्थन करना अभीष्ट होता है।
दृष्टान्तों की महत्ता/उपयोगिता
___ दृष्टान्तों की संख्या अनगिनत है। प्रत्येक दृष्टान्त में यह क्षमता होती है कि वह श्रोता की बुद्धि को अनुकूल या वशीभूत कर ले । ६ इसी दृष्टि से दृष्टान्त को एक दीपक की उपमा दी गई है जो विषय-वस्तु को पूर्णतः स्पष्ट कर देता है । ३६ जैन प्राचार्यों ने विषयवस्तु को अधिक रोचक व सहजगम्य बनाने हेतु यत्र-तत्र विविध दृष्टान्तों का प्रचुर प्रयोग किया है। नन्दी सूत्र में श्री संघ की रथ, कमल, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, मेरु आदि दृष्टान्तों से विशेषताओं को उजागर किया गया है । ३८ इसी प्रकार, नन्दीसूत्र 38 में मल्लक-दृष्टान्त, प्रतिबोधक दृष्टान्त प्रादि का प्रयोग किया गया है। नियुक्ति में सर्प, पर्वत, अग्नि आदि के दृष्टान्तों से मुनि की विशेषता का निरूपण हया है जो अधिक प्रभावकारी बन पड़ा है। पादिपुराणकार प्राचार्य जिनसेन (ई. ८००-८४८) ने श्रोता के विविध प्रकारों को समझाने हेतु मिट्टी, चलनी आदि विविध उपमानों को प्रयुक्त किया है जिससे वर्णन में सहज रोचकता पैदा हो गई है।४०
प्रस्तुत निबन्ध में प्रा. हरिभद्र के ग्रन्थों में प्रयुक्त प्रमुख न्यायों तथा दृष्टान्तों को प्रस्तुत करते हुए, सम्बद्ध वर्ण्य-विषय में उनके उपयोग पर प्रकाश डाला जा रहा है:
१. चारिसंजीविनीचार न्याय
यह न्याय योगबिन्दु ( पद्य सं. ११९) में निर्दिष्ट है।४१ यह न्याय निम्नलिखित घटना/कथा को इंगित करता है-एक महिला की इच्छा थी कि उसका पति उसके वश में रहे । उसे एक तान्त्रिक ने दो प्रकार की जड़ी-बूटी दी। पहली जड़ी-बूटी खाने वाला मनुष्य से बैल बन जाता था, और दूसरी जड़ी-बूटी खिलाने से बैल मनुष्य हो जाता था। वह महिला अपने पति को पहली जड़ी खिला कर बैल बना देती, और जब चाहती तब दूसरी जड़ी खिला कर पुनः मनुष्य बना देती थी। एक दिन वह दूसरी जड़ी-बूटी की पहचान भूल गई, अतः उसके लिए यह कठिन हो गया कि जंगल में उस जड़ी-बूटी को कैसे पहचान कर निकाले । उसके लिए अपने पति को पुन: मनुष्य बनाना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में उस स्त्री को किसी समझदार ने यह सलाह दी कि अपने बैल रूपी पति को उस जंगल में चरने के लिए खुला छोड़ दे, कभी न कभी वह जड़ी उसके मुंह में पड़ जाएगी तो उसका पति बैल से मनुष्य बन जाएगा। उस स्त्री ने वैसा ही किया और उसका पति एक दिन बैल से मनुष्य बन गया।
__ उक्त कथा या घटना-विशेष के आधार पर यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि जहाँ विविध वस्तुओं में अभीष्ट वस्तु को पहचानना कठिन हो, वहाँ उन सभी वस्तुओं को प्रयोग में लाते रहना चाहिए, कभी न कभी उन वस्तुओं में ही अभीष्ट वस्तू हाथ लगेगी और अपना चमत्कार स्वयं प्रकट करेगी। प्रा. हरिभद्र ने उक्त न्याय के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि कौन वन्दनीय है और कौन अवन्द्य-इसका निर्णय कर पाना कठिन हो,
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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तब सभी-व्यक्तियों (तथाकथित देवताओं) के प्रति वन्दना का भाव रखना चाहिए। कभी न कभी यथार्थतः वन्दनीय व्यक्ति मिलेगा ही और अभीष्ट फल प्राप्त हो ही जाएगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त निर्देश साधना का निम्नकोटि में स्थित व्यक्ति के लिए है।४२ प्रा. अकलंक आदि प्राचार्यों की दृष्टि से उक्त स्थिति वैनयिक मिथ्यात्व' ही कही जाएगी।४३ २. मण्डूकचूर्ण (भस्म) न्याय
यह न्याय योगबिन्दु (पद्य सं. ४२३) में, तथा योगशतक (गाथा ८६) में प्रयुक्त हुआ है।४४ उक्त न्याय वर्षा ऋतु की घटना को इंगित करता है। मेंढ़क का शरीर टुकड़े-टुकड़े भी हो गया हो, तो भी वर्षा के जल में वे सभी टुकड़े मिल जाते हैं और मेंढ़क पुनर्जीवित हो जाता है। किन्तु मेंढ़क के शरीर को जला कर राख कर दिया जाये, तो उस राख पर कितना ही वर्षा का जल गिरे, मेंढ़क जीवित नहीं होता। उक्त न्याय के माध्यम से प्राचार्य यह समझाना चाहते हैं कि आन्तरिक पवित्रता के साथ किया गया तप मनोविकारों को भस्मीभूत कर देता है, इस प्रकार कर्मों व मनोविकारों के पुन: प्रादुर्भूत होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। किन्तु आन्तरिक भावना के बिना, मात्र शारीरिक काय-क्लेश रूपी तप से दोषों का सर्वथा क्षय नहीं होता, और वे अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करते ही पुनः प्रादुर्भूत/विकसित हो सकते हैं।
उक्त न्याय का निदर्शन जैनेतर परम्परा में भी हुआ है।४५
३. शत्रुग्रह-नष्टाध्वभ्रष्ट-तज्ज्ञान-न्याय
इस न्याय का प्रयोग 'उपदेशपद' (गाथा ८६१-६४) में किया गया है।४६ न्याय का स्वरूप इस प्रकार है । कोई व्यक्ति पटना की ओर चला। रास्ते में खतरनाक जंगल था, वहां डाकुओं शत्रों के चंगुल में फंस गया। उसका माल-प्रसवाब तो लुटा ही, रास्ते से भी भटक गया। ऐसी स्थिति में वह सही मार्ग किससे पूछे ? हो सकता है कि जिससे पूछे वह शत्रु-पक्ष का ही हो ।४७ इसलिए सोच-समझ कर ही किसी से मार्ग पूछना उचित होगा । उचित तो यह होगा कि बालक, वृद्ध, स्त्री या पशु चराने वाला-इनमें से कोई भी मिले तो उससे रास्ता पूछा जा सकता है, क्योंकि ये सभी प्रायः सत्यवादी होते हैं ।४८ इस न्याय के आधार पर प्राचार्य ने यह समझाने का प्रयास किया कि आगम के पद, वाक्य, महावाक्य इनके अर्थों को हृदयंगम कर, पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है। अन्य मत के उपदेशकों के वाग्जाल के कारण साधक या जिज्ञासु मार्गभ्रष्ट हो गया हो तो उसे चाहिए कि वह आगम के 'महावाक्यार्थ' (पूरे प्रकरण का पूर्वापर संगत अर्थ) पर ही अधिक भरोसा करे । पदार्थ व वाक्यार्थ पर अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।४६
४. प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्
कीचड़ में पाँव लिप्त कर, फिर उसे धोने की अपेक्षा से तो यही उचित है कि कीचड़ में पांव दिया ही न जाये । यह लोक प्रचलित प्रसिद्ध न्यायोक्ति है।
पूजा आदि का फल-मोक्ष न चाह कर राज्य-सम्पत्ति आदि लौकिक वैभव की इच्छा करना, और इसके समर्थन में यह कहना कि वैभव के परिग्रह से होने वाले पाप को, दान
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प्रादि से होने वाले पुण्य से धोया जा सकता है दोनों ही बातें अनुचित हैं। उक्त तथ्य को हृदयंगम कराने के लिए प्रा. हरिभद्र ने उक्त न्याय का उपयोग किया है । उन्होंने कहा कि कोई व्यक्ति वैभवादि की इच्छा इसलिए करता है कि उस सम्पत्ति से दानादि धर्म (शुभ कार्य) किए जा सकेंगे तो वह अनुचित करता है क्योंकि इससे तो यही अच्छा होगा कि वैभवादि की इच्छा ही न की जाये ।५०
प्रा. हरिभद्र ने उपर्युक्त लौकिक न्यायों के अतिरिक्त, कुछ शास्त्रीय न्यायों का भी प्रयोग किया है:
५. सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषाभिधानम्
(प्रधानता बताने के लिए विशेष-कथन) प्रस्तुत न्याय नन्दी सूत्र (गाथा-६) पर की गई वत्ति में प्रतिपादित है।५१ धर्म-संघ एक महान् रथ है जिसकी पताका 'शील' है, और तप व नियम उसके घोड़े हैं-ऐसा आगम (नन्दी सूत्र) में वर्णित है। यहां यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि 'शील' में तप व नियम समाविष्ट ही हैं, फिर इनका पृथक कथन क्यों किया गया ? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु प्रस्तुत न्याय उपस्थापित किया गया है। इस न्याय के अनुसार तप व नियम की शील-व्रतों में भी प्रधानता/ विशेषता बताने के लिए विशेषरूप से (पृथक रूप से) उनका उल्लेख किया गया है । ५२
६. जातीय वस्तुओं का प्रतिनिधित्व (एक-ग्रहणे तज्जातीय-ग्रहणम्)
इस न्याय को दशवकालिक-वृत्ति (४/सू. पर, पृ. ९५, तथा ६/९ पर पृ. १३१), तथा पंचवस्तुक (९९) की स्वोपज्ञ टीका में उपयुक्त किया गया है।।
___ इस न्याय का हार्द यह है कि किसी एक वस्तु का कथन हो तो उस जाति की अन्य वस्तुओं का कथन भी समझ लेना चाहिए। जैसे प्रारम्भ (हिंसा) का त्याग कहा गया हो तो परिग्रह का भी त्याग समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार, हिंसा करने-करवाने का जहाँ निषेध है, वहाँ हिंसा के अनुमोदन का भी निषेध समाविष्ट है ।५४
७. विशेषणान्यथानुपपत्ति न्यायःइस न्याय का निदर्शन नन्दी सूत्र (गाथा-४० पर) की वृत्ति में हुआ है। जैसे, 'सवत्सा धेनु' ऐसा कहने पर गौ का ही बोध होता है, न कि घोड़ी का। क्योंकि 'सवत्सा' विशेषण घोड़ी के लिए संगत नहीं हो सकता। उसी प्रकार 'नित्यानित्यज्ञाता' इस कथन में 'नित्यानित्य' पद से 'वस्तु' का अध्याहार स्वतः हो जाता है, क्योंकि नित्यानित्यात्मकता विशेषण वस्तु में ही घटित होता है ।
८. पदार्थ-कथन-माध्यम से व्याख्यान (तत्त्वपर्यायाख्यानम)
इस न्याय का उल्लेख दशवकालिक वृत्ति (२/१ गाथा, नियुक्ति १५८, पृ. ५६ ) में हुमा है । श्रमण के स्वरूप के प्रसंग में नियुक्तिकार 'श्रमण' के पर्याय (अनगार, पाषण्डी, चरक, तापस, निर्ग्रन्थ, संयत, भिक्षु) उपस्थापित करते हैं । ५५ इसका औचित्य बताने के लिए प्रा. हरिभद्र प्रस्तुत न्याय (तत्त्वपर्यायाख्यानम्) का सहारा लेते हैं और कहते हैं कि वस्तु के
स्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है।
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प्रकार तथा उसके पर्यायों के कहने से वस्तुतत्व के स्वरूप को अधिक स्पष्ट व विस्तार से बताया जा सकता है। प्रत्येक पर्याय की अपनी निरुक्ति (व्युत्पत्ति) होती है जो वस्तुगत किसी विशेषता को उद्घाटित करती है। पद्मपुराण (रविषेण) में भी श्रमण के पर्यायों की निरुक्ति करते हुए श्रमण-चर्या के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । ५६
६. पदावयव का पूरे पद के लिए प्रयोग-(पदेऽपि पदावयव-प्रयोग-दर्शनम्)
इस न्याय का उल्लेख नन्दी सूत्र (७६ गाथा) पर की गई वृत्ति में हुआ है । इस न्याय के अनुसार सत्यभामा के स्थान पर 'भामा' पद का प्रयोग लोक में जैसे प्रचलित है, उसी तरह आगमों में भी समझना चाहिए। उदाहरणार्थ, 'विश्रेणिस्थित' की जगह 'विश्रेणि' पद नन्दी सूत्र (गाथा-७६) में प्रयुक्त हुआ है ।५७ प्रा. हरिभद्र के ग्रन्थों में प्रयुक्त प्रमुख दृष्टान्त/उदाहरण:
प्रा. हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में अनेक जगह दृष्टान्तों/उपमानों के माध्यम से विषयवस्तु में अधिक रोचकता व स्पष्टता उत्पन्न की है। अनेक दृष्टान्तों का प्रयोग उन्होंने किया है, उनमें से कुछ प्रमुख दृष्टान्तों का उल्लेख आगे किया जा रहा है
१. गोवत्सदुग्धपान-दृष्टान्त चारित्र-सम्पन्न व्यक्ति के मुख से सुने उपदेश लाभकारी होते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने हेतु प्रा. हरिभद्र ने गौ माता व स्तनपायी बछड़े का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि जैसे बछड़ा गौ के थन से दूध पीता है, वह उसके लिए लाभकारी होता है, किन्तु यदि पात्र में दहे गए गो-दग्ध को पीता है तो वह उतना लाभकारी नहीं होता, वैसे हो गुणी-सच्चरित्रव्यक्ति से प्राप्त उपदेश अधिक लाभदायक होता है और चारित्रहीन व्यक्ति से प्राप्त उपदेश लाभकारी नहीं होता ।५८
२. अन्धव्यक्ति-दृष्टान्त अन्धा व्यक्ति देखना चाहते हुए भी नहीं देख पाता, भले ही सूर्य का या सैकड़ों दीपकों का प्रकाश कर दिया जाये । कभी-कभी चिकित्सा (पापरेशन) या पुण्योदय से अन्धा भी देखने लग जाता है। संयोगवश पुण्य-प्रभाव से ऐसा भी होता है कि भयंकर बीहड़ जंगल को भी बिना किसी विपत्ति में पड़े पार कर जाता है। उसी तरह शास्त्र-भक्ति (सद्दर्शन) से हीन व्यक्ति निर्दुष्ट व उत्तम फलदायी व्रतादि-आचरण नहीं कर पाता५६ भले ही सैकड़ों ग्रन्थ उसे पढ़ाये जायें। किन्तु वहीं व्यक्ति मिथ्यात्व की ग्रन्थि को तोड़ देता है तब सत्योन्मुखी दृष्टि पा लेता है। शास्त्र-ज्ञान से रहित व्यक्ति भी सातावेदनीय कर्मों के प्रभाव से धर्म-पथ पर निरापद अग्रसर होता जाता है।"
३-४. उत्पलशतपत्रमेद तथा जीर्णपट्टशाटिकापाटन दृष्टान्त
जिस प्रकार कमल पुष्प के सौ पत्तों को एक साथ रख कर उन्हें सुई से छेदा जाये तो प्रत्येक पत्र के छिन्न होने का पृथक-पृथक् काल निर्धारित करना कठिन है, वस्तुत: छेदने की क्रिया अत्यन्त शीघ्र होती है और काल-व्यवधान बहुत सूक्ष्म होता है-यद्यपि छेदन-क्रिया
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प्रत्येक पत्ते की क्रम से ही होती है। अवग्रह, ईहा अवाय, धारणा इन क्रमिक मति ज्ञानों में अत्यन्त सूक्ष्म कालव्यवधान रहता है-इसे हृदयंगम कराने के लिए प्रस्तुत दृष्टान्त का प्रयोग किया गया है। 3
इसी दृष्टान्त का प्रयोग प्रा. जिनदास गणि ने भी इसी संदर्भ में विशेषावश्यक भाष्य में किया है।९४
इसी दृष्टान्त से मिलते-जुलते एक अन्य दृष्टान्त का भी प्रयोग प्रा. हरिभद्र ने नन्दीसूत्र की वृत्ति में किया है, वह है-जीर्णपट्टाटिकापाटन ष्टान्त पुरानी जीर्ण-शीर्ण साड़ी बहुत जल्दी फाड़ी जाती है, वहाँ भी प्रत्येक तन्तु की क्रमिक भेद क्रिया में अत्यन्त सूक्ष्म कालव्यवधान है ।
५. चिकित्सा दृष्टान्त
संसारी प्राणी अष्टविध कर्मरूपी रोग से ग्रस्त है । संयम-धर्म ही उसकी औषध है, धर्म में रति, और अधर्म में अरति सुपथ्य-विधि है । ६६ सिद्ध या मुक्त-प्रात्मा उक्त कर्म - रोग से मुक्त होने के कारण परम स्वस्थता की स्थिति में पहुंचे हुए होते हैं। चूंकि प्रोषध अस्वस्थ को ही दी जाती है, स्वस्थ को नहीं, अतः परमस्वस्थता प्राप्त सिद्धों को अन्नादि की प्रावश्यकता नहीं । =
आत्मघाती कर्मों पर विजय प्राप्त करने वाले लिए वैद्य तुल्य हैं, उनका प्रवचन उनके लिए भौषध है छुटकारा निश्चित है।
जिनेन्द्र देव कर्मरोगग्रस्त प्राणियों के जिसका सेवन करने से कर्म-व्याधि से
जिस प्रकार वैद्य के लिए भी असाध्य रोगों की चिकित्सा करना सम्भव नहीं है, यदि वैद्य असाध्य रोग की चिकित्सा का प्रवास करे तो वह रोगी को और स्वयं को भी, संकट में डालेगा। वैसे ही अभव्य (मोक्ष के लिए अयोग्य) प्राणी के लिए कर्म व्याधिमुक्त होना, और वैद्य के लिए वैसा करा पाना दोनों कठिन हैं । ७०
चिकित्सा में जैसे दवाई का कड़वापन ( कभी-कभी जहरीलापन भी) लाभकारी ही होता है, वैसे ही तपस्या में परीषहादि का कष्ट भी साधक के लिए लाभप्रद होता है । ७१
श्रौषधि तीन प्रकार की होती हैं- १. रोग की स्थिति में ग्रहण की जाये तभी लाभदायक, अन्यथा रोग पैदा करती है, २. रोग की स्थिति में ली जाये तो लाभप्रद, नीरोगता में ली जाये तो न लाभ और न हानि । ३. रोग होने पर ले तो नीरोगता, नीरोगता में ले तो भी शक्ति आदि में वृद्धि होती है। सायं प्रातः आवश्यक धार्मिक क्रिया ( प्रतिक्रमणादि) करना मुनि के लिए अन्तिम व तीसरी प्रकार की घोषधि है जो दोष सेवन की स्थिति में तो लाभदायक है ही, दोष सेवन न होने की स्थिति में भी ज्ञान, चारित्र आदि प्रात्मिक गुणों को बढ़ाने वाली (रसायनवत्) है।७२
उपचार करते-करते किसी प्रमाद के कारण रोग पुनः उभर जाए तो पुनः अप्रमाद के साथ उपचार प्रारम्भ करना उचित होता है, वैसे ही संयम साधना में किसी कारण अनाचार का सेवन हो जाये तो पुनः पूर्ववत्, उत्साह के साथ, संयम में प्रवृत्त होना चाहिए । ७३
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धम्मो दोवो संसार समुद्र में
धर्म ही दीप है
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जिस प्रकार, घाव पर दवा उतनी ही लगाई जाती है, जितनी जरूरत होती है, उसी प्रकार मुनि को उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिए जितनी से भूख-प्यास आदि की शान्ति हो जाये। (इतनी कम भी न हो कि संयम साधना न हो सके, और इतनी अधिक भी नहीं कि संयमसाधना में व्यवधान पैदा कर दे ।) ७४
औषधि कितनी ही अच्छी हो, उसका प्रयोग नियत समय पर न किया जाये या गलत समय पर किया जाय तो लाभ के बजाय हानि भी हो सकती है, वैसे ही धर्मोपदेश का प्रयोग भी समय-समय देख कर करना चाहिए । ७५ रोग की मृदुभूत (मन्द) अवस्था में औषधि (कोई) लाभकारी होती है, वैसे ही संसारी जीव जब संसार भ्रमण करते-करते चरमपुद्गलावर्त (मन्द कषाय) या अपुनर्बन्धक की स्थिति पर पहुँच जाता है, तभी धर्मोपदेशऔषधि कारगर सिद्ध हो पाती है, अन्यथा गाढ व प्रचुर मिथ्यात्व के कारण धर्मोपदेश के प्रति द्वेष-भाव भी रह सकता है या अनुराग नहीं हो सकता है।
६. नारी-पुरुषप्रणय-दृष्टान्त जैन धर्म बाह्य क्रिया की अपेक्षा भावना को प्रधानता देता है। कोई स्त्री मन से पर-पुरूष में प्रासक्त हो, वह भले ही अपने पति की (बाह्य रूप में) सेवा करती हो, पापी ही कही जायगी। वैसे ही जिस (भिन्न-ग्रन्थि) साधक का मन मोक्ष-लक्ष्य या परमात्मतत्त्व के प्रति प्रासक्त हो गया है, वह भले ही सांसारिक प्रवत्ति में लग्न भी दिखाई दे, योगसाधक ही कहा जाएगा।
जैन परम्परा में मुक्ति को एक सर्वांगसुन्दर स्त्री के रूप में वर्णित किया गया है। उसके साथ सम्भोग/संयोग कराने वाला एकमात्र "धर्म" है। जिस प्रकार कामुक पुरुष को यदि कोई सुन्दर स्त्री दिखाई पड़ जाय तो वह सब काम-काज छोड़ कर उस स्त्री को ही एकटक निहारने लगता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि साधक का धर्म के प्रति स्वाभाविक अनुराग रहता है।८०
७. कपखननादि-दृष्टान्त जिन-पूजा में कुछ जीव-हिंसा भी होती है, इसलिए इसे करना उचित नहीं-ऐसी शंका/मान्यता को “कूपन्याय" (कूप-दृष्टान्त) से दूर करने का प्रयास किया गया है।"
जैसे कूप को खोदने में अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता हैं, फिर भी लोग कमां खोदते हैं, क्योंकि कुआं खुद जाने पर उससे निकले जल से प्यास आदि की शान्ति ही नहीं, जीवनयात्रा का निर्वाह भी होता है। वैसे ही गृहस्थ द्वारा पूजा आदि करते समय कुछ जीव-हिंसा भी हो जाए तो भी वह करणीय होती है, क्योंकि जिन-पूजा से होने वाली भावों की निर्मलता पापकर्म का क्षय कर देती है । २
प्रा. हरिभद्र ने एक अन्य स्थल में श्रावकों के कुछ कार्यों को उक्त दृष्टान्त के माध्यम से उचित ठहराया है।
कपजल प्रणालिका-दष्टान्त के द्वारा एक स्थल पर उन्होंने भावना-प्रवाह को स्पष्ट किया है। जैसे कूए के भीतर भूमिवर्ती जल-प्रणालिका (पानी आने की नाली) द्वारा
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निरन्तर जल भाता रहता है, अतः जल की कभी कमी नहीं होती। यह प्रवाह निरन्तर होता रहे इसके लिए पत्थर, कीचड़ प्रादि अवरोधक तत्त्वों को हटाना भी उचित है, वैसे ही पवित्र मन में शुभ भावनात्रों का प्रवाह उत्तरोत्तर समृद्ध होता रहता है । ८४ साधक को चाहिए कि धर्मोपदेश सुनने आदि कार्य को करता रहे ताकि शुभ भावना का प्रवाह कभी अवरुद्ध न हो । ८५
८. मूर्खतार्किक दृष्टान्त
योगदृष्टिसमुच्चय (पद्य सं. ९१ ) में छिद्रान्वेषी व कुतक व्यक्ति की दुर्दशा का दृष्टान्त देकर, कुतर्क की अनुपादेयता / तुच्छता का प्रतिपादन किया गया है। 58 प्रस्तुत दृष्टान्त एक घटना के रूप में है। एक तार्किक कहीं जा रहा था। मार्ग में एक मदोन्मत्त हाथी दौड़ता हुआ था रहा था। सभी लोग रास्ते से हट कर सुरक्षित स्थान पर खड़े हो गए किन्तु वह तार्किक वहीं खड़ा रहा। वह तर्क कर रहा था कि हाथी समीपस्थ व्यक्ति को ही मारता ( मार सकता ) है । सब से समीपस्थ व्यक्ति तो हाथी पर बैठा महावत ही है, उसे ही मारेगा, मुझे नहीं। इसी बीच यह हाथी नजदीक आ गया और उस तार्किक पर झपट पड़ा। किसी उपाय से महावत ने अंकुशादि का प्रयोग कर उस तार्किक के प्राणों की रक्षा की।
९. अज्ञानिशवरक्रिया- दृष्टान्त
इस दृष्टान्त का प्रयोग योगबिन्दु (पद्य नं. १४८ ) में किया गया है । अज्ञानी जन की क्रिया में दोषबहुलता ही रहती है, कभी-कभी प्रांशिक रूप से सच्चेष्टा का श्राभास होता हैं, किन्तु अज्ञानमय होने के कारण सम्पूर्ण क्रिया दोषपूर्ण ही मानी जाएगी। इस तथ्य को समझाने के लिये एक अज्ञानी भीलराज की कहानी का दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है । कथा इस प्रकार है
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एक बार एक तापस उसके भक्त बना लिया । तापस के भीलराज को काफी मन भाया ।
एक भीलराज अपने साथी भीलों के साथ दुराचारपूर्ण जीवन बिता रहा था। लोगों को लूटना, मांस-मदिरा का सेवन करना उनका दैनिक कृत्य था। पास आगया और उसने अपने सदुपदेश के प्रभाव से भीलों को मस्तक पर मोर मुकुट शोभित होता रहता था। वह मुकुट उसने तापस से वह मुकुट देने के लिए कहा, किन्तु तापस ने भीलराज ने साथियों को आदेश दिया कि तापस को मार कर यह भी कहा कि ख्याल रखना कि तापस हम सब के गुरु हैं, क्योंकि गुरुजनों को पैर छू जाये तो पाप लगता है। भीलों ने की सारी क्रिया प्रज्ञानमय होने से दोषपूर्ण ही है। गुरु के प्रति आदर प्रदर्शित करने वाली बात निस्सार है । भीलराज के मन में तापस के प्रति थोड़ा सा भी आदर होता तो वह तापस को मारने का आदेश क्या दे सकता था ?
देने से इन्कार कर दिया। मुकुट ले प्रायो, किन्तु साथ ही इसलिए उन्हें पैर मत लगाना वैसा ही किया । यहाँ भीलराज
१०. मयूरी दृष्टान्त
मयूरी दृष्टान्त द्वारा सद्योग साधक की आत्मिक आन्तरिक विशेषताओं की महत्ता प्रतिपादित की गई है। जैसे, मयूरी के अण्डों में धन्य पक्षियों के अण्डों की तुलना में अधिक
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चतुर्थ खण्ड / १३८
आन्तरिक गुण व शक्ति की मात्रा निहित होती है, वैसे हो सद्योग-साधक की आन्तरिक विशेषताएँ अन्य जीवों की तुलना में अधिक प्रभावशाली होती हैं, और वे ही यथासमय यौगिक उपलब्धियों के रूप में पुष्पित व फलित होती हैं।
११. सुवर्णघट-दृष्टान्त जैसे सुवर्ण का घट स्वयं में मूल्यवान व उपयोगी होता है, यहां तक कि टूट जाने पर भी उसका मूल्य कम नहीं होता। उसी प्रकार, सम्यग्दृष्टि साधक द्वारा किया गया शुभ अनुष्ठान काषायोदय से भग्न होने पर भी प्रशस्तता से वंचित नहीं होता।८८
१२. वणिग्वत्सक-दृष्टान्त इस दृष्टान्त का संकेत दशवैकालिकवत्ति में किया गया है। मुनि की भिक्षा-चर्या का स्वरूप बताने हेतु इसका प्रयोग है । किसी बनिये ने गाय के बछड़े को पाल रखा है । उस बनिये की पत्नी है जो विविध मनोरम अलंकारों से सजी-संवरी रहती है। किन्तु वह उस बछड़े को नित्य प्रति अपने हाथों से खाना खिलाती है। वहाँ, जैसे उस बछड़े की उस स्त्री के मनोरम रूप या बहुमूल्य अलंकारों की ओर दृष्टि नहीं रहती, मात्र खाद्य पदार्थ पर रहती है, वैसे ही मुनि की दृष्टि भी मात्र भिक्षा पर ही होती है या उसकी शुद्धता-अशुद्धता पर रहती है, किन्तु देने वाले के वैभव आदि पर उसका मन लालायित नहीं होता।८६
१३. समेघ-अमेघरात्रिदर्शन-दृष्टान्त योगदृष्टिसमृच्चय में आठ योग-दृष्टियों के स्वरूप को समझाने हेतु रोचक दृष्टान्त प्रस्तुत किए गए हैं । जैसे कोई व्यक्ति एक ही पदार्थ को मेघाच्छन्न रात्रि में देखे, दिन में सूर्य के 'प्रकाश में देखे' अथवा मेघरहित साफ चांदनी रात में देखे, प्रत्येक परिस्थिति में जो दर्शन होगा वह दूसरी परिस्थिति में होने वाले दर्शन से कुछ भिन्न होगा। इसी तरह रोगयुक्त अाँख से देखने में और नीरोग आँखों से देखने में अन्तर होगा ही। प्राचार्य हरिभद्र ने इन दृष्टान्तों के माध्यम से विविध योगदष्टियों में दर्शन या वैचारिक स्थिति की भिन्नता को हृदयंगम कराया है। साधक की प्रान्तरिक योग्यता के तारतम्य के कारण ही विचारभेद या भावनाभेद होते हैं।
इस तरह अन्य अनेकों दृष्टान्त हैं, उन सबका निरूपण इस सीमित निबन्ध में कर पाना कठिन है । इतना निश्चित है कि उक्त दृष्टान्तों से हम आचार्य की बहुश्रुतता, विविधशास्त्रज्ञता, लौकिक व्यवहारनिपुणता तथा उपदेश-कुशलता आदि गुणों का सहज आकलन कर सकते हैं, उन्होंने इन न्यायों व दृष्टान्तों के माध्यम से विषय-वस्तु को तो अधिक स्पष्ट किया ही है, धर्मोपदेश को लौकिक धरातल से, लोक-जीवन से, जोड़ने का प्रयास भी किया है। इसके अलावा धर्म-प्रभावना को भी नया आयाम मिला है।
संदर्भ-स्थल१. मनुस्मृति ४११३९, शुक्रनीति ३।६२, महाभारत शान्तिपर्व, ३४९।७१ निशीथ-भाष्य
२६ १३, उत्तराध्ययनसूत्र १७४१२, सूत्रकृतांग १।३।३।१९ ।
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• आ. हरिभद्र के ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय / १३९
२. मनुस्मृति १२।१०६ । ३. ब्रह्मसूत्र २।१।१, महाभा. वनपर्व ३१३।११७, गरुडपुराण ११०९।५१, घवला श११४१
पृ. २७३, गोम्मटसार जीवकाण्ड-गाथा-१९६ पर जीव प्र. टीका। ४. पुराणं मानवो धर्मः सांगोपांगचिकित्सकः। आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः
[मनु. १२।११० प्रक्षिप्त। ५. प्राणा गिज्झो अत्थो प्राणाए चेव सो गेहेयन्वो। दिलैंतिय दिट्ठता कहणविहि, विराहणा
इयरा। [आवश्यक-नियुक्ति ६७] । ६. सन्मतितर्क (प्रकरण) ३।४३,४५, ७. सिद्धसेन द्वात्रिंशिका ६।२,५, ८. सिद्ध. द्वात्रिं. ८.१९, ९. सम्बोधप्रकरण [आ. हरिभद्र] ४६-७६, १०. धर्मबिन्दु [हरिभद्र] ८५, ११. परीक्ष्य हेमवद् ग्राह्य पक्षपाताग्रहेण किम [लोकतत्त्वनिर्णय-१८] (तुलना-तत्त्वसंग्रह [बौद्ध
ग्रन्थ]-३५८८,) १२. योगदृष्टिसमुच्चय [ हरिभद्र ] १४३-१४६, ९०-९०, योगबिन्दु [हरिभद्र] ६६-६७,
वादाष्टक [हरिभद्र], १३. युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः [लोकतत्त्वनिर्णय ३८] द्र० योगबिन्दु २२, ५२५,
३१७, १४. योगदृष्टि ९९-१००, १५. योगदृष्टि ८७-९८, ज्ञानसाराष्टक [हरिभद्र २६।३ [तुलना प्रागमस्य प्रतकंगोचरत्वात्
[धवला शश२५, प. २०७] पंचाध्यायी २-४८३, पालाप-पद्धति० ५, १६. पंचवस्तुक [हरिभद्र] ९९१, १७. पंचवस्तुक ९९३-९४ १८. पंचवस्तुक ९९५ १९. दशवकालिकवृत्ति [हरिभद्र] पृ. ४, २०. प्राचारांग ११६१५, आदिपुराण [जिनसेन] १११३०, २१. दशवकालिक-नियुक्ति ५२, २२. स्थानांगसूत्र ४१३१४९९ पर टीका, स्थानांग में दृष्टान्त [ज्ञात] के चार (माहरण,
आहरणतद्देश, उपन्यासोपनय आदि) भेद बताये गये हैं। इनमें प्रत्येक के भी चार-चार भेद बताए गये हैं । अत: कुल भेदों की संख्या १६ हो जाती है [द्र. स्थानांग ४।३।४९९-५०३] तथा दशवकालिकनियुक्ति ५३-१३७ उदाहरण के जो चार भेद नियुक्ति [गाथा-५४] में बताए गए हैं, इनमें प्राहरण-दृष्टान्त का दूसरा नाम 'उदाहरण' है, इसीलिए नियुक्ति में वणित उदाहरण के भेद और स्थानांग (४।३।५००) में वर्णित प्राहरणदुष्टान्त के भेद एक
ही हैं। २३. नन्दीसूत्र ४७ पर हरिभद्रीय वृत्ति तथा दशवकालिक-वृत्ति पृ. ५० २४. न्यायसूत्र ११३६, २५. अनुयोगद्वारसूत्र-वृत्ति [हरिभद्र] पृ. १५, सूत्रकृतांग ११।२१ पर शीलांकाचार्यकृतवृत्ति
पृ. २२६,
धम्मो दीयो संसार समुद में वर्म ही दीप है।
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चतुर्थ खण्ड | १४० २६. द्र. दशवै, वृत्ति पृ. ५२, हेतु के लक्षण आदि के लिए द्रष्टव्य-नन्दीसूत्र ११५ पर हरिभद्रीय
वृत्ति, पृ. ९३, दशवकालिक-नियुक्ति ८६, हरिभद्रीय वृत्ति [दशका.] पृ. ३८-४१ २७. ज्ञाताधर्मकथा १७।३३ [उद्धृत-एकार्थक कोष, पृ. ८७] २८. अभिधानराजेन्द्र कोष भा. ४, पृ. २००२, २९. आदिपुराण ३९।१४१ ३०. न्याय-भाष्य-पृ. ३८ [प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः] । ३१. वेदान्तपरिभाषा पृ. १०३ [न्यायो नाम अवयवसमुदायः] । ३२. तत्वचिन्तामणि, प्र. १४६० [अनुमितिचरमकारण-लिंगपरामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानजनकवाक्यं
न्यायः] । ३३. जैन लक्षणावली, भा. २, पृ. ६५३-५४ ३४. द्र. वाचस्पत्यम् भाग-५, पृ. ४/१५९, ३५. धवला पु. १३, पृ. २८६ ३६. उपासकाध्ययम् १४, पृ. ५ ३७. द्र. अभिधानराजेन्द्र, भा. ४, पृ. २५०९ ३८. नन्दीसूत्र गाथा ५-१९ ३९. दशवै. नियुक्ति-गाथा १५७, ४०. आदिपुराण १११३८-१४२ ४१. चारिसंजीविनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाढेष्ट-सिद्धिः स्याद विशेषेणादिकर्मणाम् ।
[योगबिन्दु ११९] । ४२. द्र. योगदृष्टिसमुच्चय--१४ पर स्वोपज्ञव्याख्या ४३. राजवार्तिक-८।१२८ ४४. कायकिरियाए दोसा खविया मंडुक्क-चुन्न-तुल्ल त्ति । ते चेव भावणाए नेया तच्छारसरिस
त्ति [योगशतक-८६] । मण्डूकभस्मन्यायेन वृत्तिबीजं महामुनिः । योग्यतापगमाद् दग्ध्वा
ततः कल्याणमश्नुते [योग-बिन्दु-४२३] ॥ ४५. यथा वर्षातिपाते मृद्भावमुपागतो मण्डूकदेहः पुनरम्भोद-वारिधारावसेकाद मण्डूकदेहभाव
मनुभवति-योगसूत्र-१११९ पर तत्त्ववैशारदी टीका-वाचस्पतिमिश्रकृत। ४६. एएसिं च सरूवं अण्णे हि वि वणियं इहं णवरं । सत्तुग्गहणट्ठद्धाणभट्टतण्णाण-णाएण ।
[उपदेश पद, गाथा ८६१] । ४७. उपदेश पद-८६२ ४८. बालादिकेभ्यो-बाल-वृद्ध-मध्यमवयःस्थेभ्यः स्त्रीपशुपालभामहादिरूपेभ्य एकान्तत एव
सत्यवादितया सम्भाव्यमानेभ्य एतं पुरुष मार्गपृच्छायोग्यं ज्ञात्वा ततस्तदनन्तरं युज्यते
गमनम्" [-उपदेशपद ८६३ व सुखसम्बोधिनी टीका] । ४९. बालाबलादिभ्यः–तदवगमतुल्यस्तु महावाक्यार्थः, सिद्धति चास्मात् जिज्ञासितोऽर्थः"
[उपदेशपद-८६४ तथा उस पर सु. स. टीका] । ५०. धर्मार्थ यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी। प्रक्षालनाद् हि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरम
[अष्टकप्रकरण-४।६]" यह पद उन्होंने महाभारत [वनपर्व-२१४९, गीताप्रेस सं.1 से उद्धृत किया है।
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आ. हरिभद्र के ग्रन्थों में दृष्टान्त व न्याय | १४१
५१. अस्ति चायं न्यायो यदुत सामान्योक्तावपि प्राधान्य-ख्यापनार्थं विशेषाभिधानम्-इति ।
यथा ब्राह्मणा पायाताः, वशिष्ठोऽपि पायातः इति । नन्दीसूत्र-वृत्ति पृ. ६ । ५२. द्र० राजवातिक-९।३।२ तथा सर्वार्थ सिद्धि [९।३] । ५३. त्यक्त्वा प्रारम्भम् एकग्रहणे तज्जातीय ग्रहणम्-इति न्यायात् परिग्रहं च" [पंचवस्तुक
९९ पर स्वोपज्ञ टीका] ५४. दशवकालिक-गाथा ६९ पर हरिभद्रकृतवृत्ति । ५५. दशवकालिक नियुक्ति-१५८ ५६. पद्मपुराण-१०९।८५-९० ५७. नन्दीसूत्रवृत्ति [गाथा-७६, पृ. ५८] ५८. दशब. वृत्ति, पृ. ४ ५९. योगबिन्दु-२२६ आदि पुराण-२४।१२२, नन्दीसूत्र-४५ पर हरिभद्रीय वृत्ति
[अज्ञानम्, फलाभावात् अन्धप्रदीपवत् । ज्ञानस्य फलं विरतिः, सा च मिथ्यादृष्टेर्न विद्यते । राजवार्तिक-१११०१९ ( जात्यन्धस्य प्रदीपसंयोगेऽपि न दृष्ट्रत्वं तथा ज्ञानयोगेऽपि अज्ञस्वभावस्य पात्मनो न ज्ञातृत्वम् )। लोक-तत्त्वनिर्णय ८ [उदितौ चन्द्रादित्यौ,
प्रज्वलिता दीपकोटिरमलाऽपि नोपकरोति यथान्धे, तथोपदेशस्तमोऽन्धानाम] । ६१. योगबिन्दु-२८३ ६२. योगबिन्दु-२५४-५५ ६३. द्र० नन्दीसूत्र (सू० ५८ तथा गाथा ७२-७३) पर वृत्ति, ६४. उप्पलदलसयदेहे व्व दुन्विभावत्तणेण पडिहाइ । समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे विसयाणमुवलद्धी
( विशेषावश्यक भाष्य-२९८, उद्धृ त शास्त्रवार्तासमुच्चय--११४१ पर यशोविजयकृत
व्याख्या ) ६५. नन्दीसूत्र ( सू० ५८ तथा गाथा ७२-७७ ) पर वृत्ति ६६. दशवकालिक नियुक्ति-३६४-६५ ६७. योगदृष्टिसमुच्चय-२०६, ६८. अष्टकप्रकरण-३२।४-५ ६९. अष्टकप्रकरण-१२६-७ ७०. पंचवस्तुक-४६-४९ ७१. पंचवस्तुक-२११-२१२ ७२. प्रतिक्रमणमप्येवं सति दोषे प्रमादतः । तृतीयौषधकल्पत्वात् द्विसन्ध्यमथवाऽसति । (योगबिन्दु
४००)११ ७३. उपदेशपद--३८९-३९२ ७४. योगशातक-८२ ७५. उपदेशपद-४३०-४३ ७६. उपदेशपद-४३२ तथा चन्द्रसूरिकृत टीका, तथा उपदेशपद-४३७-४० ७७. योगबिन्दु-२०४-२०५ ७८. नियमसारकलश-२२५, आदिपुराण-३५।२४१, उत्तर पुराण-५०१६८ ७९. धर्मः किं न करोति मुक्तिललना-सम्भोगयोग्यं जनम् (ज्ञानार्णव-२।१६९)। ८०. योगबिन्दु-२५७,२६०, षोडशकप्रकरण-११॥३, [ तु. भागवत पुराण-१०।१३।२]
| धम्मो दीयो | संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / १४२
८१. भणियं कवणायं (श्रावक-प्रज्ञप्ति-३४७)। ५२. श्रावक-प्रज्ञप्ति-३४५-३४७, पंचवस्तुक-१२२४, षोडशकप्रकरण-९।१४, ८३. पंचवस्तुक-१०१ ८४. योगबिन्दु-३४५, ८५. योगबिन्दु-३४६-३४९, ८६. जातिप्रायश्च सर्वोऽयं प्रतीतिफलबाधतः । हस्ती व्यापादयत्युक्ती प्राप्ताप्राप्तविकल्पवत्
(योगदृष्टिसमु०-९१) । ८७. यश्चात्र शिखिदृष्टान्तः शास्त्रे प्रोक्तो महात्मभिः। स तदण्डरसादीनां सच्छक्त्यादि
प्रसाधन: (योगबिन्दु-२४५)। ८८. योगबिन्दु-३५१, षोडशकप्रकरण ( ३।११ ) पर यशोविजयकृत टीका, ८९. दशवकालिक वृत्ति (नियुक्ति-३७) पृ० १२ ९०. योगदृष्टिसमुच्चय--१४-१५, तथा स्वोपज्ञ व्याख्या।
तुलना-अभिधर्मदीप-११४३ पर विभाषाप्रभा टीका, तथा-११४१ पर भाष्य ।।
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जैन धर्म में श्रमणियों की गौरवमयी परम्पररा
विदर्भ केसरी वाणिभूषण श्री रतनमुनि
सदा से ही नारी का स्वरूप सुखियों में रहा है । पर उसकी कमनीयता के कारण उसे दूसरे दर्जे का स्थान मिला। उसका महत्त्व कम ग्रांका गया ।
जैन तीर्थंकरों का चिन्तन बड़ा स्पष्ट तथा महत्त्वपूर्ण रहा है । ऋषभदेव ने ब्राह्मी व सुन्दरी नाम की अपनी दो पुत्रियों का योग्य मार्गदर्शन कर उनकी सम्पूर्ण प्रतिभा का उपयोग बड़े ही श्रेष्ठ ढंग से किया । भगवान् महावीर का यह कथन बड़ा ही सारपूर्ण है कि"आत्मा, आत्मा ही है, वह न स्त्री न पुरुष हैं, न कुछ अन्य ।" ऋषभदेव के पूर्व किसी ने सोचा भी न था कि नारी को इतना अपूर्व सम्मान मिल सकेगा । माता मरुदेवी प्रथम सिद्ध होगी और जीवन की लिप्तता से परे बाह्मी तथा सुन्दरी क्रमश: प्रथम व द्वितीय श्रमणी बनाई जावेगी । सभी तीर्थंकरों में सबसे महत्त्वपूर्ण तीन लाख श्रमणियों का अस्तित्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय हुआ । यद्यपि उसके बाद वाले तीर्थंकरों में अधिक श्रमणियाँ भी रहीं पर एक प्रारंभ की दृष्टि से यह परिमाण विस्मय पैदा करने वाला है ।
श्रमणपरम्परा की दोनों शाखानों-जैन व बौद्ध में स्त्री को धर्माचरण का अधिकार रहा जब कि अन्य धर्मों में नारी का धर्म के अनेक क्षेत्रों में प्रवेश निषिद्ध था । बौद्धों में तो नारी का श्रमणी रूप जैन परम्परा के बहुत बाद का पर बुद्ध ने सर्वथा पतित नारियों को अपने धर्म में दीक्षित कर नारी को जो महत्त्व दिया वह उल्लेखनीय है । भगवान् महावीर ने भी निचले से निचले तबके को प्रोत्साहन दिया । चन्दना जैसी विक्रीत दासी को उन्होंने न केवल प्रव्रज्या दी वरन् उसे ३६००० साध्वियों की प्रमुख बनाया ।
नारी का विलासमय रूप श्रमणपरम्परा में अभीष्ट नहीं था । यह एक विराग परम्परा रही है । इसमें यदि उजागर हुआ है तो वह है नारी का मातृरूप । इस संदर्भ में नारी पुरुष से कई गुना श्रेष्ठ सिद्ध हुई है। हजारों पिता से एक माता गौरव में श्रेष्ठ होती है, इस तथ्य को प्रमाणित किया गया । मातृरूपा नारी के उपदेश व धर्मज्ञान की गूढ़ बातों को सबने अपनाया । यद्यपि पुरुषप्रधान समाज ने कई कुठाराघात भी किये व नारी को समग्रतः उभरने नहीं दिया, फिर भी नारी ने श्रेष्ठता की पताका फहराकर धर्मसंघ को उज्ज्वलता प्रदान की है ।
विभिन्न तीर्थंकरों के काल में श्रमणियों का परिमाण बहुत अधिक रहा । श्रमणों से वे दुगुनी तिगुनी तक रहीं। इससे सिद्ध होता है कि नारी की श्रेष्ठता से यह धर्म, यह दर्शन अभिषिक्त रहा । २४ तीर्थंकरों के धर्मपरिवार में श्रमणियों की संख्या इस प्रकार है
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धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १४४
ऋषभदेव-तीन लाख, अजितनाथ-तीन लाख तीस हजार, संभवनाथ-तीन लाख छत्तीस हजार, अभिनन्दन स्वामी-छह लाख तीस हजार, सुमतिनाथ-पाँच लाख तीस हजार, पद्मप्रभ-चार लाख बीस हजार, सुपार्श्वनाथ-चार लाख तीस हजार, चन्द्रप्रभ स्वामी-तीन लाख अस्सी हजार, सुविधिनाथ-एक लाख बीस हजार, शीतलनाथ-एक लाख छह हजार, श्रेयांसनाथ-एक लाख तीन हजार, वासुपूज्यजी-एक लाख, विमलनाथ-एक लाख आठ सौ, अनंतनाथ-बासठ हजार, धर्मनाथ-बासठ हजार चार सौ, शांतिनाथ-- इकसठ हजार छह सौ, कुंथुनाथ-साठ हजार छह सो, अरनाथ-साठ हजार, मल्लिनाथपचपन हजार । मल्लिनाथ चूंकि स्वयं स्त्री रूप थे, उनकी प्राभ्यन्तर परिषद् की साध्वियों को उनके समवसरण में अग्रस्थान प्राप्त था। मल्लिकुमारी ने नारी श्रेष्ठता का प्रमाण इस रूप में दिया कि वे ही एकमात्र ऐसी तीर्थंकर हैं जिन्हें दीक्षाग्रहण के दिन ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उनका प्रथम पारणा भी केवलज्ञान में ही हुआ। मुनिसुव्रत-पचास हजार, नमिनाथ चालीस हजार, अरिष्टनेमि-चालीस हजार । इनके धर्मसंघ में इनकी वाग्दत्ता राजीमती की प्रव्रज्या स्वयं प्रभु के द्वारा होना एक अद्वितीय प्रसंग है। राजीमती द्वारा रथनेमि को प्रवजित रूप में प्रतिबोध देना भी एक विलक्षण प्रसंग है। पार्श्वनाथ -अड़तीस हजार, भगवान् महावीर-छत्तीस हजार ।
उक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि बाद में चलकर श्रमणियों की संख्या में न्यूनता आई, पर इसका कारण और भी धर्मदर्शनों का उदय हो सकता है। उस समय यह संख्या भी बड़े महत्त्व की संख्या थी। आज का भी आंकड़ा हमें "जैन जगत" मई १९८२ के अंक में प्रकाशित स्व. श्री अगरचन्दजी नाहटा के एक लेख से मिलता है, जो उन्होंने भावनगर के श्री महेन्द्र जैन द्वारा सम्पादित 'धर्मलाभ' नामक पत्रिका से उद्धत किया है। १९८१ में जो संख्या थी वह उस पत्रिका के अनुसार इस प्रकार थी
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ३५९० श्रमणी, स्थानकवासी १७६५, तेरापंथी ५३१, दिगंबर प्रायिकाएँ १६८ । इस प्रकार कुल ६०५४ साध्वियों की गणना की गई थी। अभी भी लगभग इतना परिमाण तो है ही। हालांकि विगत वर्षों में बढ़ रहे गुण्डा तत्त्वों से विहार करती साध्वियों को प्रताड़ना दी गई और समाज के सामने उनकी सुरक्षा का प्रश्न भी खड़ा हुआ है पर फिर भी नारीवर्ग में धर्म के प्रति सम्मान व प्रव्रज्या ग्रहण की प्रवृत्ति अधिक ही पाई जाती है।
श्रमणियों की अवमानना की स्थिति में समाज में तात्कालिक रोष भी उपजता है। पर इसका स्थायी हल खोजने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कहीं प्रयास में शिथिलता बरत कर वाहन का उपयोग करने का सुझाव है तो कहीं साथ में गार्ड भेजने की बात है। जो भी हो, एक योग्य हल खोजा जाना जरूरी है।
स्त्रियों की मुक्ति पर प्राचीन काल में प्रश्न-चिह्न लगा है। परन्तु मुक्ति को प्राप्त स्त्रियों व श्रमणियों के उदाहरण से हमारा धर्म-इतिहास परिपूर्ण है। रत्नत्रय की प्राप्ति स्त्रियों के लिए संभव है। किसी भी प्रागम में स्त्रियों के रत्नत्रयप्राप्ति का निषेध नहीं है। पुरुष के समान स्त्री भी मुक्ति की हकदार है।
श्रमणियों में परिमाण के उपरोक्त आंकड़ों पर दृष्टिपात करने से भले ही उनकी संख्या में न्यूनता पाने का तथ्य उजागर हुआ हो पर उससे उनकी दिव्यता में कोई कमी नहीं आई।
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जैन धर्म में श्रमणियों की गौरवमयी परम्परा | १४५
धर्मतीर्थस्थापक तीथंकरों ने धर्म को धारण करने वाले श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका को समान रूप से महत्त्व दिया है। किसी को कम या अधिक नहीं। यह सुव्यवस्था केवल जैनदर्शन में ही देखने में आती है।
श्रमणीवर्ग ने सदा ही समाज में व्याप्त विकृतियों पर स्पष्ट इंगित किये हैं और मानवीय पक्ष को जीवंत रखा है। श्रमणीवर्ग ने समाज को संजीवनी प्रदान की है, यदि ऐसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
श्रमणियों को लेकर साध्वी की वंदनीयता का प्रश्न भी उठा है। धर्मदास गणिरचित उपदेशमाला में कहा गया है
"महासती चन्दनबाला ने जैसे सद्य:प्रवजित मुनि को जो सम्मान दिया, अभ्युत्थान और नमन किया वैसे ही हर श्रमणी को करना चाहिए।" और यही परम्परा चली आ रही है। पर सद्य:दीक्षित मुनि को भी दीक्षापर्याय व ज्ञान में बड़ी साध्वी द्वारा नमन आज के युग में कुछ अजीब सा लगता है। कहीं-कहीं इसे नये रूप से चिन्तन करने की बात उठी है। ज्ञानगुणसम्पन्न का मान होना ही चाहिए। कहा नहीं जा सकता यह प्रवृत्ति कब और कैसे प्रवेश कर गई । समाज में पुरुष की प्रधानता शायद इसका कारण रही हो । आगमों तक में इसी कारण से पुरुष की ज्येष्ठता दर्शायी गयी है।
__ जैन आगम स्थानांगसूत्र में दस कल्पों में 'पुरिसजेठे' का उल्लेख है। यद्यपि इस कथन को कुछ लोग प्रक्षिप्त मान रहे हैं। मांग है कि आगम की सही व्याख्या हो।
यह तो नहीं कहा जा सकता है कि श्रमणियों की श्रेष्ठता की अोर किसी का ध्यान नहीं है पर अभी भी ऐसी क्रांतिकारी दृष्टि का उदय नहीं हुआ है कि संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन का कोई बहुत बड़ा कदम उठाया जा सके। निरन्तर प्रयास किए जाएं तो इस सन्दर्भ में कुछ प्राशाजनक परिणाम पा सकते हैं।
आज भी जैन साध्वी संघ उन्नत और सशक्त है। वह दूर-दूर तक पदयात्राएं कर धर्मप्रचार में उद्यत है। क्या उत्तर, क्या दक्षिण, क्या पूर्व, क्या पश्चिम, साध्वी समुदाय ने सब ओर अपने यायावरी कदम बढ़ाये हैं। उन्होंने धर्म की अलख जगाई है।
श्रमणीवर्ग एक तरह से जूझ रहा है। अथक प्रयास समाज की जागति के हो रहे हैं। विशेषकर नारीसमुदाय पर श्रमणियों का व्यापक प्रभाव है। परिवार की धुरी नारी की जागति यदि सही ढंग से हो सके तो बड़ा कल्याण होगा।
श्रमणियों ने इस भ्रम को तोड़ा है कि स्त्री साध्विका पूर्वश्रुत का अध्ययन नहीं कर सकती। उसे मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती या उसे विशिष्ट योगज विभूतियां प्राप्त नहीं होतीं। यह सब चिन्तनीय एवं खोज का विषय है। नारी को आचार्य नहीं तो प्रवर्तनी जैसा पद सौंपा जाए तो उसमें भी निःसंदेह वह संघसेवा में सफलता प्राप्त कर सकेगी। कहा जाता है कि साध्वी चौदह पूर्वो का अध्ययन इसलिए नहीं कर सकती कि उसकी प्रविधियां या प्रक्रियाएं उसको शरीरिक स्थिति के कारण संभव नहीं। पर यहाँ यह सोचना चाहिए कि वे तथ्य उसे ज्ञात तो हैं । जो ज्ञात हैं उसकी व्याख्या करने में भला कौन सी बाधा है ?
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दी है
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चतुर्थखण्ड / १४६
अब हम जैन धर्म में यत्र-तत्र वर्णित विशिष्ट श्रमणियों की चर्चा करें ताकि यह जाना जा सके कि श्रमणीरूप में उसने कैसी अनुपम उज्ज्वलता पाई है और किन स्थितियों में धैर्य और सहिष्णुता का परिचय देते हुए ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये हैं जो नारी की श्रेष्ठता, पूज्यता, वंदनीयता के उज्ज्वलतम प्रमाण हैं । इसे हम ऐतिहासिक एवं पौराणिक परिवेश में परखेंगे । श्रमणियों के कारण ही धर्मप्रचार में सुविधा रही। कई श्रमणियां तो महासतियों के रूप में पूज्य हैं । पार्श्वनाथ की कई शिष्याएं तो विशिष्ट देवियों के रूप में भी स्थापित हुईं।
प्रथम श्रमणी ब्राह्मी तीन लाख भ्रमणियों की प्रमुखा थी सुन्दरी के श्रमणी होने के पूर्व चक्रवर्ती भरत द्वारा व्यवधान होने पर भी उसने विनम्र रूप से आज्ञाप्राप्ति की स्थिति निर्मित की। यह एक सर्जकवृत्ति का प्रमाण है । उसने स्पष्ट विरोध या रोष व्यक्त करने की बजाय आयम्बिल तपादि द्वारा अपने शरीर को कृश कर लिया। अपनी रूप सम्पदा को विरूपता का स्वरूप देकर श्राखिरकार प्रव्रज्या की श्राज्ञा पा ही ली ।
ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा गर्वमण्डित भ्राता बाहुबलि को जिस अनूठी शैली में प्रतिबोध दिया गया यह भी एक अनुकरणीय उदाहरण है। उन्होंने बाहुबलि की भर्त्सना नहीं की वरन् 'गज से उतरों' इस वाक्य से एक व्यंजना द्वारा स्वयं बाहुबलि को प्रात्मचिन्तन के लिए प्रवृत्त किया। क्या ऐसा प्रनुपम उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध है ?
अरिष्टनेमि की वाग्दत्ता राजीमती द्वारा प्रभु द्वारा प्रवृत्त पथ को ही अपने लिए अंगीकार करने की भावना ने उसकी चारित्रिक उज्ज्वलता को उजागर किया है। रेवताचल पर्वत पर वर्षा से भीगी साध्वी राजीमती पर श्रमण रथनेमि की विकृत दृष्टि पड़ी तो उसे संयम में स्थिर करने की जो संविधि साध्वी राजीमती द्वारा अपनाई गई, अपने आप में वह बेजोड़ है ।
पुष्पचूला का अपने भ्राता पुष्पचूल से विशेष अनुराग रहा । स्थितिवश उन्हें ही परस्पर ब्याह दिया गया। पर व्यावहारिक बुद्धि के वश इस दम्पती ने ब्रह्मचर्य कायम रखा। प्रव्रज्या की अनुमति भी भाई द्वारा उसी नगर में रहने की शर्त पर दी गई जिसे श्राचार्य ने उनकी स्नेह भावना को उज्ज्वलता के कारण स्वीकृत किया। उसी पुष्पचूला ने मोक्ष प्राप्त किया। क्या यह उस श्रमणी की म्रात्मोज्ज्वलता का प्रमाण नहीं ?
दमयन्ती, कौशल्या, सीता, कुन्ती, द्रौपदी, अञ्जना जैसी सतियां जिन्होंने प्रव्रज्या भी ग्रहण की, इतर धर्मों में भी पूज्य हुईं। इनमें से कुन्ती ने तो मोक्ष भी पाया ।
उदायन तापस- परम्परा को मानता था । उसकी पत्नी प्रभावती ने महावीर पर निष्ठा रखी। पति की कामनानुसार वह स्वर्ग से अपने पति को प्रतिबोध देने देव रूप में आयी । उसने पति को प्रतिबोध देकर उसे भ. महावीर के प्रति श्रद्धालु बनाया। पति के प्रति पतिव्रता का पूर्व प्रमाण प्रस्तुत किया। निर्वाण भी प्राप्त किया।
मृगावती दीक्षित होकर प्रार्या चन्दनबाला के संरक्षण में धर्मसाधना करने लगी। उसकी संयमसाधना ऐसी अनुपम थी कि उसने चन्दनबाला से पूर्व केवल्य प्राप्त कर लिया। चन्दनबाला ने मृगावती की वंदना की और उसी रात्रि उसने भी कैवल्य पा लिया । दिव्यता का यह उदाहरण कितना अनूठा है! मृगावती ने पश्चात् निर्वाण प्राप्त किया।
बड़े अटपटे प्रसंग भी श्रमणियों में आये । पद्मावती के मन में जब वैराग्य उत्पन्न हुआ तब वह गर्भवती थी । दीक्षा के उपरांत गर्भवृद्धि से भेद खुलने लगा तो विशेष स्थिति में गुरुणी
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जैन धर्म में श्रमणियों की गौरवमयी परम्परा | १४७
ने प्रच्छन्न रूप से पुत्रजन्म को सफल बनाया। वृक्ष तले रखे जाने पर निःसन्तान व्यक्ति ने उसे ग्रहण किया। वह पुत्र करकण्ड आगे चलकर राजा बना व अपने ही पिता राजा दधिवाहन से प्रसंगवश युद्धरत हुअा। भयंकर जनहत्या को रोकने के लिए पद्मावती ने रहस्योद्घाटन किया। अपवाद का डर त्यागा। युद्ध रुक गया। एक श्रमणी द्वारा इस प्रकार का रहस्योद्घाटन कितने बड़े साहस की बात है।
अवंती नरेश चण्डप्रद्योतन की पत्नी शिवा ने प्रार्या चन्दना के प्राश्रय में रहकर मोक्ष प्राप्त किया। प्रभु महावीर के अभिग्रह की पूर्ति करने में चन्दना का चारित्य भी अनुपम दिव्यता लिए हुए था।
__ मदनरेखा ने अपने पति युगबाहु को भ्राता राजा मणिरथ द्वारा तलवार के वार से मार दिये जाने पर भी पति का परलोक सुधारने के लिये णवकार मन्त्र का जाप करवाया । फलत: वह देवरूप हुआ । हत्यारा मणिरथ मारा गया व उसके स्थान पर मदनरेखा का पुत्र गद्दी पर बैठा । दूसरा पुत्र मिथिलानरेश पद्मरथ के यहाँ पला, क्योंकि मदनरेखा हाथी द्वारा सूण्ड से उछाल दिये जाने पर विद्याधर मणिप्रभ द्वारा विमान में झेल ली गयी। कालांतर में एक गज को लेकर दोनों भाइयों में यूद्ध हया। मदनरेखा ने, जो अब एक श्रमणी थी, सुना तो दोनों पुत्रों को प्रबोध देकर युद्ध रोका।
जैन शासन में अत्यधिक प्रसिद्ध चार चलिकानों की उपलब्धि साध्वी यक्षा को भी सीमंधर स्वामी के द्वारा हुई। वह भ्राता मुनि श्रीयक को मृत्यु से संतप्त थी। दो चूलिकाओं का संयोजन दशवैकालिक सूत्र के साथ व दो का प्राचारांग सूत्र के साथ हुआ है । ये चूलिकाएँ पागम का अभिन्न अंग बनी हुई हैं। प्रार्य स्थलिभद्र भी उन्हीं के भ्राता थे जो मुनि श्रीयक से सात वर्ष पूर्व दीक्षित हुए थे।
जम्बू कुमार द्वारा अपने सह पाठों पत्नियों को प्रथम रात्रि में ही विरागमय पथ पर अग्रसर किया जाना भी एक विरल घटना है। पुत्र अवंति सुकुमाल का मुनिरूप में जम्बुकी द्वारा भक्षण किये जाने पर विलाप करती माता भद्रा का व एक गभिणी वधु को छोड़ अन्य पुत्रवधुओं का प्राचार्य सुहस्ती से दीक्षा प्राप्त करना भी मर्मस्पर्शी प्रसंग है।
आचार्य हरिभद्र ने, प्रेरणा देने वाली साध्वी याकिनी महत्तरा को धर्मजननी के रूप में हृदय में स्थान दिया। उनकी प्रसिद्धि याकिनीसूनु अर्थात् याकिनीपुत्र के नाम से है।
मल्लिकुमारी के साथ तीन सौ स्त्रियों ने संयम ग्रहण किया। भ. अरिष्टनेमि से यक्षिणी आदि अनेक राजपुत्रियों ने दीक्षा प्राप्त की। यक्षिणी श्रमणीसंघ की प्रवर्तिनी नियुक्त हुई। पद्मावती प्रादि अनेक राजकूमारियों ने दीक्षा ग्रहण की।
भगवान महावीर से देवानन्दा (पूर्वमाता) ने दीक्षा ग्रहण की। क्षत्रियकुण्ड के राजकुमार जमालि सह उसकी पत्नी प्रियदर्शना व छह हजार स्त्रियों ने दीक्षा ग्रहण की। आर्या चन्दना की सेवा में काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, रामकृष्णा, पितृसेनकृष्णा, महासेनकृष्णा आदि चम्पानगरी की राजरानियों ने दीक्षा ग्रहण की व कठोरतर तपश्चर्या करके निर्वाण प्राप्त किया।
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १४८ इस तरह हमने देखा कि एक आश्चर्यजनक समता के भाव से जैनधर्म समृद्ध है। इसी कारण यहाँ पुरुष के साथ नारी, श्रमण के साथ श्रमणी को भी पूरा-पूरा अवसर मिला है। किसी भी पंथ की श्रमणी की बनिस्बत जैन संघ की श्रमणी की स्थिति बड़ी गरिमामयी है।
इक्कीसवीं सदी की ओर जा रहे विश्व में जैन समाज का नारीवर्ग आधुनिक भले न हो . पर आध्यात्मिक रूप से समृद्ध अवश्य होगा। अनुकरणीय उदाहरण वही प्रस्तुत कर सकेगा।
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श्रमण का स्थल-जल-व्योम-विहार
अनुयोगप्रवर्तक मुनि कन्हैयालाल 'कमल'
श्रमण अपना जीवन संयम-साधना के लिए निर्धारित करके स्व-पर का कल्याण करता है मतः उसका अकारण नित्य निवास निषिद्ध है और ग्रामानुग्राम-विहार विहित है। २
उत्सर्ग-विधान के अनुसार विहार के नौ विभाग हैं
शीतकाल के चार मास तथा ग्रीष्मकाल के चार मास-इस प्रकार पाठ मास के पाठ विहार और वर्षावास के लिए किया जानेवाला नौवां विहार । ये नवकल्पी विहार माने गये हैं। क्योंकि वर्षावास के चार मास में विहार करने का निषेध है और शीत तथा ग्रीष्म के पाठ मास में विहार करने का विधान है।
रात्रि विहार निषिद्ध
सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद विहार का निषेध है। अतः दिन में ही विहार करना स्वतः सिद्ध है ।
विहार की विधि
श्रमण राजपथ पर चार हाथ दूर तक आगे-मागे देखता हुमा तथा प्रस-स्थावर जीवों को बचाता हुअा चले ।
१. जे भिक्ख नितियं वासं वसइ, वसंतं वा साइज्जइ । —निशीथ-उद्दे. २, सु. ३७ २. राम्रोवरयं चरेज्ज लाढे, विरए वेदवियाऽऽयरक्खिए ।
पन्ने अभिभूय सव्वदंसी जे कम्हियिव न मुच्छिए स भिक्खू ॥ --उत्त. प्र. १५, गा. २ ३. वासावासवज्ज अट्ठ गिम्हहेमंतियाणि मासाणि गामे एगराइया, णयरे पंचराइया ।
प्रोप. सु. २९ ४. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, वासावासासु चारए।
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, हेमन्त-गिम्हासु चारए। -कप्प. उ. १, सु. ३७-३८ ५. नो कप्पइ निग्गंथाण व निग्गंथीण वा, राम्रो वा वियाले वा, प्रद्धाणगमणं एत्तए।
--कप्प. उ. १, सु. ४६ ६. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरो जुगमायं पेहमाणे दळूण तसे
पाणे अद्धटट पादं रीएज्जा, साहट पादं रीएज्जा, वितिरिच्छे वा कट पादं रीएज्जा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा, ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अन्तरा से पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा उदए वा मट्टिया वा अविद्धत्था, सति परक्कमे जाव णो उज्जुयं गच्छेज्जा, ततो संजयामेव गामाणगाम दूइज्जेज्जा। -आचा. सु. २, प्र. ३, उ. १, सु. ४६९-४७०
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थखण्ड / १५०
श्रमण अधिक तेज न चले क्योंकि अधिक तेज चलनेवाला छोटे-छोटे जीवों को कैसे बचा सकता है ?
विहार का उद्देश्य
प्रत्येक ग्राम-नगर में भ्राध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति का सन्मार्ग बताना धर्म-जागरणा करना, कराना तथा स्वाध्याय करना आदि ।
विहार की सीमा
अकारण अयोजन से अधिक बिहार करने का निषेध है। यह एक दिन में बिहार करने की सीमा का निर्धारण है।
प्रार्य क्षेत्रों की चारों दिशाओं में कहाँ तक विहार करने का विधान है, यह भी स्पष्ट है।
१. दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खणं ।
उल्लंघणे य चंडेय पावससणे त्ति वुच्चई ॥
२. बुद्धे परिनिब्बुए चरे गामंगए नगरे व संजए ।
संतिमग्गं च वूहए समयं गोयम ! मा पमायए ।
उत्त. प्र. १७, गा. ८
उत्त. प्र. १० गा. ३६
३. प. - ' भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता एवं ववासी – कइविधा णं भते ! जागरिया पत्ता ?
-
उ.- गोयमा ! तिविह। जागरिया पत्ता तंजहा
१. बुद्धजागरिया, २.
प. - से केणट्टे णं भंते! एवं १. बुद्धजागरिया २
बुद्धजागरिया ३. सुदवखुजागरिया | बुच्चति 'तिविहा जागरिया पन्नत्ता, संजहा बुद्ध जागरिया ३ सुदम्बुजागरिया' ?
|
उ.- गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पन्ननाण दंसणधरा जहा बंदए [ स. २, उ. १. सु. ११ ] जाव ण्णू सव्वदरिसी, एए णं बुद्धा बुद्धजागरिथं जागरंति जे इमे अणगारा भगवंतो परिवासमिता भासासमिता जाव मुत्तबंभचारी, एए णं प्रबुद्धा प्रबुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव विहति एते णं सुदवखुजागरियं जागरंति से तेण णं गोयमा ! एवं बुच्चति 'तिविहा जागरिया जाव सुदवख जागरिया' भगवती स. १२, उ. १, सु. २५
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जे भिक्खू चाढकाल-पोरिसि सत्कार्य न करेइ न करतं वा साइज ।
-
निशीथ उ. १९, सु. १३
पढमं पोरिति सज्झायं वितियं झाणं क्रियायई । तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥ पढमं पोरिति सझायं वितियं भाणं झियायई ।
तइयाए निमोक्खं तु चउत्बी भुज्जो वि सज्झायं ॥ उत्त अ. २६, गा. १२, १५
४. परमदजोयणाओ बिहारं विहरए मुणी ॥ उत्त. प्र. २६, गा. ३५
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श्रमण का स्थल-जल-व्योम-विहार / १५१
पूर्व में अंग एवं मगध तक, दक्षिण में कौसंबी तक, पश्चिम में स्थूणादेश तक उत्तर में कूणाल देश तक ।'
असीम विहार का विधान भी
___ जहाँ-जहाँ ज्ञान दर्शन चारित्र आदि की वृद्धि सम्भव हो वहाँ-वहाँ सर्वत्र विहार कर सकते हैं।
इस विहारसीमा-निर्धारण की पृष्ठभूमि में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि ही प्रधान है। यदि पार्यक्षेत्र में भी जिस पोर विहार करने से ज्ञानादि की हानि होने की सम्भावना हो तो उस अोर विहार न करे।
यदि अनार्य कहे जानेवाले क्षेत्रों में भी जहाँ-जहाँ पार्यों जैसा वर्तन-व्यवहार हो और ज्ञानादि की वद्धि संभव हो तो वहाँ-वहाँ विहार करना आगमानुसार निषिद्ध नहीं है।
स्थल-विहार के अपवादविधान
वर्षावास में विहार करने का यद्यपि सर्वथा निषेध है किन्तु प्रागमविहित कतिपय अपवाद विधानों के अनुसार श्रमण-श्रमणीगण वर्षावास में भी विहार कर सकते हैं।
ये अपवाद विधान पांच हैं
१. किसी गांव या नगर में श्रमण वर्षावास रह रहे हों उस समय किसी संक्रामक रोग से वहाँ के निवासियों को सामूहिक अकाल मृत्यु होने लगे और उस रोग से बचने के लिए वहाँ के निवासी सामूहिक प्रव्रजन कर अन्यत्र जाने लगें तो श्रमण भी वर्षावास में विहार करके अन्यत्र जा सकते हैं ।
इस अपवादविधान के मूल में-"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" की भावना निहित है प्रागमानुसार आत्मविराधना तथा उससे होनेवाली संयमविराधना न हो इसके लिए ही यह अपवाद विधान है । क्योंकि स्वस्थ शरीर से ही संयमसाधना संभव है।
२. इसी प्रकार जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हैं वहाँ और आसपास के प्रदेश में दुष्काल हो जाने से भिक्षा [ आहारादि का मिलना ] दुर्लभ हो जाए तो-वर्षावास में भी श्रमण विहार करके जहाँ सुभिक्ष [ आहारादि का मिलना सुलभ ] हो वहाँ जा सकते हैं।
इस अपवाद विधान के मूल में "भूखे भजन न होई गोपाला' इस लोकोक्ति की भावना निहित है।
१. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा
पुरस्थिमेणं जाव अंगमगहाम्रो एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसम्बीओ एत्तए, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयानो एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयानो एत्तए । एयावयाव कप्पइ, एवावयाव पारिए खेत्ते ।
नो से कप्पइ एत्तो बहि, -कप्प. उ. १. सु. ५२ २. तेण परं जत्थ नाण-दसण-चरित्ताई उस्सप्पन्ति । -कप्प. उ. १, सु. ५२
धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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चतुर्थ खण्ड / १५२
३. जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हैं वहाँ पाकर यदि कोई उनसे प्रार्थना करे कि जिस भाई ने आपके सन्निध्य में रहकर ज्ञानार्जन किया है वह भाई-अभी इसी चातुर्मास में प्रव्रज्या लेना चाहता है किन्तु उसके स्वजन-परिजनों की हार्दिक अभिलाषा अपने गांव में ही प्रव्रज्याप्रदान का प्रायोजन करने की है-प्रतः आप विहार करके वहाँ पधारें। वह पापका ही अन्तेवासी रहकर संयमसाधना करने के लिए कृतसंकल्प है, इस प्रकार प्रव्रज्या प्रदान का प्रसंगउपस्थित होने पर श्रमण वर्षावास में भी विहार करके वहाँ जा सकते हैं ।
इस अपवाद विधान के मूल में-"संयम-साधना में सहयोग करने की भावना" निहित है।
जो संयमी जीवन जीकर अनेकानेक आत्माओं को सन्मार्गगमन की प्रेरणा प्रदान करने का संकल्प रखता है उसे सहयोग करना भी एक सर्वोत्तम कर्तव्य है।
४. जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हों वहां बाढ़ आने की सम्भावना हो या बाढ़ प्रा जाए तो सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के प्राप्त साधनों से वर्षावास में भी अन्यत्र जा सकते हैं।
जहाँ बाढ़ आती है वहाँ का सारा जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। अतः वहां के निवासी प्रायः सुरक्षित स्थान पर वसने के लिए चले जाते हैं।
ऐसी स्थिति में श्रमणों का अन्यत्र चला जाना ही उपयुक्त माना गया है। इस अपवाद विधान के मूल में-"आत्मानं सततं रक्षेत्" का संकल्प सन्निहित है।
५. जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हों वहाँ या उस प्रान्त तथा राष्ट्र पर अनार्यों का आक्रमण होने की सम्भावना हो या आक्रमण प्रारम्भ हो गया हो तो वे वर्षावास में भी अन्यत्र जा सकते हैं। ___ इस अपवादविधान के मूल में-"अशान्त क्षेत्र से दूर रहने का" विधान चरितार्थ हो रहा है।' परोषह और उपसर्ग सहने की सीमा
इन अपवादविधानों से यह स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि जहां तक समाधिभाव रहे वहीं तक परीषह और उपसर्ग सहना संगत माना जा सकता है।
परीषह या उपसर्ग सहते हुए यदि असमाधि भाव आ जाय तो उस परीषह-उपसर्ग को सहने का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि उत्तम संहनन वालों में जितनी सहिष्णुता होती है उतनी सामान्य संहनन वालों में प्रायः नहीं देखी जाती है।
आगमों में परीषह-उपसर्ग सहने के जितने वर्णन उपलब्ध हैं वे प्रायः उसी भव से मुक्त होनेवालों के ही हैं । वे सभी वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले ही थे। अत: सामान्य संहननवालों से उनके अनुकरण का आग्रह करना विवेकपूर्ण कैसे कहा जाय ?
वर्षावास में विहार कर सकने का विधान करनेवाले ये पांच अपवाद और भी हैं
१. संकिलेसकरं ठाणं, दूरग्रो परिवज्जए।
- दश. अ. ५, उ. १, गा. १६ ।
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श्रमण का स्थल, जल-व्योम-विहार / १५३
१. ज्ञानप्राप्ति के लिए से कहीं अतिवद्ध श्रतधर स्थविर विराजित हों, वे अपना अन्तिम समय प्रतिनिकट जानकर स्थानीय संघ से कहे
अमुक जगह कुशाग्रबुद्धि, सुदृढधारणा शक्तिवाला श्रमण है। उसे यहाँ अतिशीघ्र पाने के लिए सन्देश भेजें। मैं उसे एक श्रुत विशेष के अनुयोगों की धारणा कराना चाहता है। अन्यथा मेरी धारणायें मेरे साथ ही विलीन हो जायेंगी।
इस प्रकार संघ द्वारा श्रुतधर स्थविर का सन्देश प्राप्त होने पर श्रमण वर्षावास में भी विहार करके श्रुतधर स्थविर के समीप जा सकता है।
२. दर्शनविशुद्धि के लिए
किसी विशिष्ट व्यक्ति को प्रतिबोध देना अनिवार्य हो या श्रद्धाविचलित किसी विशिष्ट व्यक्ति को श्रद्धा में सुदृढ़ करना हो तो वर्षावास में भी विहार करके वहाँ जा सकते हैं जहाँ वे रहते हों। ३. चारित्रवृद्धि के लिए
[क] जहां कहीं एक या अनेक व्यक्तियों के दीक्षित होने का आयोजन हो वहाँ जाना यदि अनिवार्य हो तो वर्षावास में भी विहार करके जा सकते हैं।
[ख] जहाँ वर्षावास हो वहाँ चारित्र में अतिक्रमादि दोषों के अधिक लगने की सम्भावना हो गई हो तो वर्षावास में भी विहार करके वहाँ जा सकते हैं जहाँ चारित्र शुद्धि या वृद्धि होना सुनिश्चित हो। ४. आचार्य के कालधर्म प्राप्त होने पर
प्राचार्य के कालधर्म प्राप्त होने पर जहाँ नये प्राचार्य की नियुक्ति हो रही हो वहाँ वर्षावास में भी विहार करके जा सकते हैं। क्योंकि माचार्य के बिना श्रमणों का रहना या विहरना सर्वथा निषिद्ध है।
१. निग्गंथस्स णं नवडहरतरुणस्स पायरियउवज्झाए वीसंभेज्जा ।
नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायस्स होत्तए । कप्पइ से पूव्वं पायरियं उद्दिसावेत्ता तो पच्छा उवज्झायं । से किमाह भंते ! दुसंगहिए समणे निग्गथे, तंजहा–१ प्रायरिएणं, २-उवज्झाएण य ।। निग्गंथीए णं नवडहरतरुणीए पायरिय-उवज्झाए पवत्तिणी य-वीसंभेज्जा, नो से कप्पइ अणायरिय-उवज्झाइयाए अपवत्तिणीयाए होत्तए । कप्पइ से पुवं पायरियं उहिसावेत्ता तो उवज्झायं, तो पच्छा पवत्तिणि । से किमाहु भंते। ? तिसंगहिया समणी निग्गंथी, तं जहा१-पायरिएणं, २-उवज्झाएणं, ३-पवत्तिणीए य । -वव. उ. ३, सु. ११-१२
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | १५४
अथवा
साथी श्रमण का स्वर्गवास होने पर जहां स्वधर्मी श्रमण हो वहां वह एकाकी श्रमण वर्षावास में भी विहार करके जा सकता है।
५. वैयावृत्य के लिए जाना आवश्यक होने पर
जहाँ कहीं जिस किसी श्रमण के प्रति अस्वस्थ होने पर वैयावृत्य के लिए अन्य किसी का न आना निश्चित हो वहाँ वर्षावास में भी विहार करके अस्वस्थ श्रमण की सेवा के लिए जा सकते हैं।
अस्वस्थ श्रमण स्वधर्मी [संभोगी] हो या न हो वैयावृत्य के लिए जाना अनिवार्य है।' जलविहार
विहार करते-करते मार्ग में यदि जलप्रवाह या नदी आ जाय और उसके पानी की गहराई सामान्य हो तो उसे पार कर आगे विहार करने का विधान है।' नौकाविहार
विहार करने के मार्ग में यदि गहरे पानी वाली नदी पा जाय और वह नौका द्वारा पार की जा सके तो श्रमण उसे नौका द्वारा पार करके आगे विहार करे।
१. वासावासं पज्जोसविताणं णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा-गामाणगामं तिज्जित्तते।
पंचहिं ठाणेहि कप्पति, तंजहा१. णाणट्ठताते, २. दसणट्ठताते, ३. चरित्तटुताते, ४. पायरियउवज्झाए वा से वीसुंभेज्जा, ५. पायरियउवझायाण वा बहिता वेयावच्चं करणताते ।
-ठाणं. अ. ५, उद्दे. २, सु. ४१३ । जे भिक्ख गिलाणं सोच्चा ण गवेसइ ण गवसंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छइ गच्छंत वा साइज्जइ ।
-निशीथ उद्दे. १०, सु. ४०-४१ ये सभी अपवादविधान श्रमणियों के लिए भी उपयोगी हैं। २. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जेज्जा, अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया,
से पुत्वामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जेज्जा, से पुवामेव [ससीसोवरियं कायं पाए य] पमज्जेत्ता, एगं पादं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा, ततो संजयामेव जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीएज्जा। से भिक्ख वा भिक्खणी वा जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीयमाणे णो हत्थेण हत्थं जाव अणासायमाणेततो संजयामेव जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीएज्जा।
-प्राचा. सु. २, अ. ३, उद्दे. २, सु. ४९३-४९४
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श्रमण का स्थल, जल- व्योम - विहार / १५५
गंगा-यमुना जैसी महानदियों को भी एक मास में अधिक से अधिक तीन वार पार कर सकते हैं । '
अपवादविधान
वर्षावास में विहार करने के जितने अपवादविधान हैं उतने ही जलविहार या नौकाविहार के भी हैं ।
अपवाद-विधानों के मर्मज्ञों का यह चिन्तन है कि आत्मविराधना, संयमविराधना या श्रसमाधिभाव से बचने के लिए किये जानेवाले प्रयत्नों में जलविहार या नौकाविहार द्वारा होनेवाली असंख्यासंख्य अप्कायिक जीवों की विराधना भी द्रव्यहिंसा ही है । क्योंकि श्रमण का संकल्प जीवों की विराधना करने का नहीं है । बिना संकल्प के भावहिसा नहीं होती और उसके बिना कर्मबन्धन भी नहीं होते ।
यह अपवादविधान क्या अनिवार्य हैं ?
यदि अधिक आहार की आवश्यकता प्रतीत हो और जिस क्षेत्र में श्रमण वर्षावास स्थित हो उसमें आवश्यक श्राहार उपलब्ध न हो तो प्रहार लाने के लिए नदी या जलप्रवाह को पार करके जा सकते हैं । किन्तु वह क्षेत्र वर्षावास के अवग्रह की सीमा में ही हो और प्रवाह का पानी अधिक गहरा न हो । २
१. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा,
अंतरा से णावासंतारिमे उदए सिया
से ज्जं पुण णावं जाणेज्जा -- प्रसंजते भिक्खुपडियाए किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा,
वाए वा णावपरिणामं कट्टु,
थलातो वा णावं जलंसि श्रोगाहेज्जा,
जलातो वा णावं थलंसि उक्कसेज्जा,
पुणं वा णावं उस्सिचेज्जा,
सणं वा णावं उप्पीलावेज्जा,
तहप्पगारं णावं उड्ढगामिण वा अहेगामिण वा तिरियगामिण वा परं जोयणमेराए श्रद्धजोयणमेराए वा अप्पतरे वा भुज्जतरे वा णो दुरुहेज्जा गमणाए ।
- श्राचा. सु. २, अ. ३, उ. १, सुत्र ४७४ २. वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निरगंथीण वा सव्वम्रो समंता सकोसं जोयणं
भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्तए ।
जत्थ नई निच्चोयगा निच्चसंदणा नो से कप्पइ सब्वम्रो समंता सक्कोसं जोयणं भिक्खारिया गंतुं पडिणियत्तए ।
एरावई कुणालाए जाव चक्किया सिया एगं पायं जले किच्चा, एगं पायं थले किच्चा जाव एवं णं कप्पइ सव्वम्रो समंता सक्कोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतुं पीडिनियत्तए । एवं च नो चक्किया ।
एवं से नो कप्पइ सव्वप्रो समंता सक्कोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्तए ।
प्रायारदसा - दसा. ८, सु. ९-११
धम्मो दोवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १५६
प्रागमज्ञों के लिए यह अपवाद-विधान विचारणीय है।
व्योम-विहार
जैनागमों में केवल विद्याचारण और जंघाचारण लब्धि से सम्पन्न श्रमणों के व्योम-विहार का वर्णन मिलता है।
विद्याचारणलब्धि निरन्तर छठ-छठ [बेला-बेला] तप करते हुए प्राप्त होती है।
जंघाचारणलब्धि निरन्तर अट्ठम-अट्ठम [तेला-तेला] तप करते हुए प्राप्त होती है। चारण मुनियों की त्वरित गतिशक्ति
विद्याचारण श्रमण एक चुटकी बजावे, जितनी देर में पूरे जम्बूद्वीप की एक परिक्रमा कर सकता है।
जंघाचारण श्रमण एक चुटकी बजावे जितनी देर में पूरे जम्बूद्वीप की सात परिक्रमा कर सकता है। व्योम-विहार का उद्देश्य
चारणमुनियों के व्योम-विहार का उद्देश्य केवल चैत्य वन्दन है । इसके अतिरिक्त इन सूत्रों में अन्य उद्देश्य निर्दिष्ट नहीं है ।
प.-कतिविधा णं भंते ! चारणा पन्नत्ता? उ.-गोयमा ! दुविहा चारणा पन्नत्ता, तंजहा
विज्जाचारणा य जंघाचारणा य । विज्जाचारणसरूवं
प.-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-विज्जाचारणे--विज्जाचारणे ? उ.-गोयमा ! तस्स णं छ8'छट्टणं अणि क्खित्तेणं तवोकम्मेणं विज्जाए उत्तरगुण
लद्धि खममाणस्स विज्जाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जइ ।
से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-विज्जाचारणे-विज्जाचारणे । प.-विज्जाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते ? उ.-गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं । देवे ण
महिड्ढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेव--इणामेव त्ति कटट केवलकप्प जंबूद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए
पण्णत्ते। प..-विज्जाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतियं गतिविसए पण्णत्ते ? उ.--गोयमा ! से णं इनो एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति,
करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता तो पडिनियत्तति, पडिनियत्तित्ताइहमागच्छइ, प्रागच्छित्ता इह चेइयाई वंदति । विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते ।
[शेष टिप्पणियाँ अगले पृष्ठ पर
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श्रमण का स्थल, जल-व्योम-विहार / १५७ व्योम-विहार के उद्देश्य में मतभेद
व्योमविहार के सन्दर्भ में दो मतभेद ऐसे जटिल हैं जिनका निराकरण सहसा संभव नहीं है।
प.-विज्जाचारणस्स णं भत्ते ! उडढं केवतिए गतिविसए पण्णत्ते ? उ.-गोयमा ! से णं इप्रो एगेणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेति, करेत्ता
तहि चेइयाई वंदति, वंदित्ता बितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदति, वंदित्ता तो पडिनियत्तति, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, प्रागच्छित्ता इहं चेइयाइं वंदति । विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते । से णं तस्स ठाणस्स-प्रणालोइयपडिक्कते कालं करेति नत्थि तस्स राहणा । से णं तस्स ठाणस्स पालोइय-पडिक्कते
कालं करेति अस्थि तस्स पाराहणा। जंघाचारणसरूवं
प.-से केणणं भंते ! एवं वच्चइ-जंघाचारणे-जंघाचारणे? उ.-गोयमा ! तस्स णं अट्रमंअट्रमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं प्रप्पाणं भावेमाणस्स
जंघाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जति ।
से तेणणं गोयमा ! एवं बच्चइ जंघाचारणे-जंघाचारणे । प.-जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते? उ.-गोयमा ! अयण्णं जंबूद्दीवे दीवे जाव किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं । देवे
णं महिड्ढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेव-इणामेव त्ति कट्ट केवलकप्पं जंबुट्टीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहि तिसत्तखुत्तो अणपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे
गतिविसए पण्णत्ते। प.-जंघाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतिए गतिविसए पण्णत्ते ? उ.--गोयमा ! से णं इनो एगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति,
करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदति, वंदित्ता तमो पडिनियत्तमाणे बितिएणं-उप्पाएणं नंदीसरवरदीवे समोसरण करेति, करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदति, वंदित्ता इहमागच्छइ पागच्छित्ता इहं चेइयाइं वंदति, जंघाचारणस्स णं गोयमा !
तिरियं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते । प.--जंघाचारणस्स णं भंते ! उड़ढं केवतिए गतिविसए पण्णत्ते ? उ.-गोयमा ! से णं इनो एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, करेत्ता तहि
चेइयाई वंदति, वंदित्ता तो पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेति, करेता तहिं चेइयाई वंदति वंदित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता इह चेइयाई वंदति, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! उडढं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते। से णं तस्स ठाणस्स प्रणालोइय-पडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स पालोइय-पडिक्कते कालं करेति प्रत्थि तस्स आराहणा ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ ॥
-भगवतीसूत्र-श. २० उद्दे. ९ सु. १-९
मम्मो दीवो
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चतुर्थ खण्ड | १५८
प्रथम मत- मूर्तिपूजक व्याख्याकार "चैत्यवन्दन" से "जिनप्रतिमा" प्रादि का वन्दन व्यक्त करते हैं।
द्वितीय मत-स्थानकवासी व्याख्याकार "चैत्यवन्दन" से "ज्ञानियों की स्तुति" व्यक्त करते हैं।
दोनों पक्ष अपनी अपनी मान्यतानों पर अटल हैं।
चैत्यवंदन के प्रस्थापित सूत्र
चैत्यवन्दन को प्रागम-प्रमाण से सिद्ध करने के लिए एक प्रागम प्रति में कुछ सूत्र प्रस्थापित किए। उस प्रति की लिपिकों ने जितनी प्रतिलिपियां कीं, उन सबमें वे सत्र अमर हो गए। यह अमोघ प्रयोग अनेकानेक सूत्रों को प्रस्थापित करने के लिए अपने अपने युग में सबने अपनाया है।
स्थानकवासियों को प्रस्थापित सूत्रोंवाली ही प्रतियां मिलीं अत: अपनी मान्यता का अर्थ करके उन सूत्रों को स्वीकार कर लिया।
[१] जिस समय भरत ऐरवत एवं महाविदेह में चारणलब्धिसम्पन्न श्रमण विद्यमान थे, उस समय तो साक्षात् जिनदेव भी वहाँ विद्यमान थे ।
महाविदेह में तो शाश्वत विहरमान जिन भी विद्यमान थे, वे भी उत्कृष्ट १७० तो थे ही, फिर भी वे चारण श्रमण मनुष्य क्षेत्र से बाहर जाकर चैत्यवन्दन करते थे।
___ इसका फलितार्थ यह हुआ कि-प्रत्यक्ष जिनवन्दन से भी मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चैत्यवन्दन का महत्त्व अधिक है।
'चारणमुनियों के व्योमविहार की त्वरित गतिशक्ति देखते हुए नन्दीश्वर द्वीप या पण्डगवन तक जाने आने में एक या दो उडानों का कथन भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एक चुटकी बजावे जितने समय में जम्बूद्वीप की सात परिक्रमा करने वालों के लिए उक्त दूरी तक तिरछे या ऊपर जाना तो सामान्य कार्य है ।
प्रस्थापित सूत्रों की कसौटी
[२] चैत्यवन्दन संवर का कृत्य है या निर्जरा का ?
यदि संवर का कृत्य है तो नन्दीश्वर द्वीप या पण्डगवन तक जाने-माने में होने वाली असंख्यासंख्य वायुकायिक जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त करने की क्या आवश्यकता है ?
संवर के बिना निर्जरा नहीं होती, इस सिद्धान्त के अनुसार लब्धिप्रयोग के प्रमाद का प्रायश्चित्तविधान कहाँ तक संगत है ।
चैत्यवन्दन के लिए लब्धि-प्रयोग अनिवार्य है, अत: प्रमादरूप अधर्म से चैत्यवन्दन धर्म की स्थापना हो गई है।
इस प्रकार ये सूत्र प्रस्थापित प्रतीत होते हैं।
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श्रमण का स्थल, जल-व्योम-विहार / १५९
ये स्थलजलव्योम विहार पागमानुसार सिद्ध हैं । इन विहारों में होनेवाली हिंसा द्रव्यहिंसा है । इस हिंसा का प्रायश्चित्त इरियावही प्रतिक्रमण है। जो एक सामान्य प्रायश्चित्त है।
वर्तमान में अपवाद-विधान
वर्तमान में इन अपवाद विधानों की किसे कितनी जानकारी है, कौन किन स्थितियों में इन अपवादविधानों का किस सीमा तक उपयोग करता है, यह सर्वक्षण योग्य है ।
धम्मो दीवो
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आगम का व्याख्या साहित्य
. डॉ. उदयचन्द्र जैन
आगम को परम्परा
__ भारत की मूल परंपरा में प्रागमों का समय-समय पर प्रणयन हुआ। वैदिक परम्परा में वेद, उपनिषद् ब्राह्मणग्रन्थ, मूल स्मृतियां प्रादि ग्रन्थ आते हैं। बुद्ध के वचनों का नाम त्रिपिटक पड़ा और महावीर के वचनों का नाम पागम पड़ा। ये तीनों परम्परायें प्राचीन हैं। इनकी समग्र-सामग्री प्राज भी उसी रूप में सुरक्षित है।
आगमयुग
आगमयुग कब से प्रारम्भ हुप्रा यह कहा नहीं जा सकता; परन्तु इतना स्पष्ट है कि जो तीथंकरों की परम्परा है, वही आगमयुग की परम्परा है। क्योंकि प्रागमों में जो लिखित रूप आया, वह तीर्थंकर परम्परा से ही पाया है। तीथंकरों की वाणी सदैव एक-सी प्रवाहित होती है, उसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं होता है। फिर भी पागमयुग का प्रारम्भ अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग छह सौ वर्ष बाद से लेकर एक हजार वर्ष तक माना जा सकता है । और आज भी वैसी की वैसी परम्परा वर्तमान युग में भी प्रचलित है।
आगम के मूल प्रणेता
अर्थ रूप में प्रागमों के प्रणेता तीर्थकर हैं और शब्द रूप में ग्रहण कर सूत्ररूप में निबद्ध करनेवाले गणधर, तथा सूत्र-शैली को कंठस्थ कर उसे लिपिबद्ध करने का श्रेय प्राचार्यपरम्परा को दिया जाता है।
आगमवाचना
(i) पाटलीपुत्रवाचना-यह वाचना देवाद्धि गणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में (महावीर निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात्) हुई । इसमें ग्यारह आगमों का संकलन हुआ ।
(ii) मथुरावाचना–महावीरनिर्वाण के ८२४-८४० वर्ष के मध्य प्रार्य स्कंदिल की अध्यक्षता में की गई।
(iii) बलभीनगर की वाचना-यह वाचना महावीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद हई। इस वाचना में ४५ पागम ग्रन्थ लिखितरूप में पाए।
प्रागमों की भाषा
(i) अर्धमागधी प्रागमों की भाषा अर्धमागधी भाषा है। यह मथुरा, मगध, कौशल, काशी आदि अनेक देशों में व्याप्त थी।
(ii) शौरसेनी आगमों की भाषा शूरसेन, मध्यक्षेत्र तक फैली हुई थी।
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10888
00008860
08
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गीता भवन इन्दौर केनी एस.एन.व्यास 'व्यारव्याग्रज्ञप्ति' महान्सती जी को भेंट करते हुए
8688000
33000000000000000
ఆడపోయడఊదదదదదదు
ఆడపోత పోపోడిపాడు
उज्जैन में न्याय मूर्ति भी मुरारीलाल तिवारी महामती जी को उनके ६४वें जन्म दिवस के अवसर पर प्रवचन शिरोमणि की उपाधि भेंट करते हुए। सं० २०४२
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६१
विषय-प्रतिपादन-प्रस्तुत प्रागमों में धर्म, दर्शन, संस्कृति, गणित, ज्योतिष, खगोल, भूगोल, इतिहास आदि विषयों का समावेश है। इसलिए ये सभी आगम आध्यात्मिक, दार्शनिक, मांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं ।
आगम का व्याख्या सहित्य
(1) नियुक्ति (ii) भाष्य, (iii) चूणि, (iv) टीका (v) टब्बा (vi) अनुवाद ।
(i) नियुक्ति--आगमों पर सर्वप्रथम व्याख्या नियुक्तिरूप में प्रस्तुत की गई थी "णिज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ णिज्जत्ती।" अर्थात् सूत्र में जो अर्थ निबद्ध हो, वह नियुक्ति है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने नियुक्ति की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है:--"निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्ति:--परिपाट्या योजनम् ।"
नियुक्ति प्रागम गाथानों पर संक्षिप्त विवरण है। नियुक्तियों का समय वि. सं. ४००-६०० तक माना गया है । अभी तक समय निर्णीत नहीं है।
नियुक्तियों में गूढभावों को सरलतम शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रसंगवश धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज, इतिहास आदि विविध विषयों का समावेश हो गया है। कुछ प्रसिद्ध नियुक्तियाँ
(१) आवश्यक (२) दशवैकालिक (३) उत्तराध्ययन, (४) आचारांग (५) सूत्रकृतांग (६) दशाश्रुतस्कंध (७) बृहत्कल्प (८) व्यवहार (९) अोध (१०) पिण्ड (११) ऋषिभषित (१२) निशीथ, (१३) सूर्य (१४) संसक्त (१५) गोविंद (१६) और आराधना । नियुक्तियों का परिचय
(१) आवश्यक नियुक्ति प्राचार्य भद्रबाहु ने ज्ञानवाद, गणधरवाद और निह्नववाद का संक्षेप कथन कर सामायिक के स्वरूप पर गम्भीर दृष्टि डाली है। इसमें शिल्प, लेखन एवं गणित आदि के विषयों का परिचय, व्यवहार, नीति एवं युद्धवर्णन, चिकित्सा, अर्थशास्त्र एवं अनेक उत्सवों का समावेश हो गया है। वंदन, ध्यान, प्रतिक्रमण का निक्षेप पद्धति से विवेचन किया है। प्रसंगवश सुन्दर सूक्तियाँ भी आगई हैं। जैसे
"हयं णाणं कियाहीणं"
"न हु एगचक्केण रहो पयाइ।" (२) दशवकालिक नियुक्ति -इस नियुक्ति ग्रन्थ में आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी और निवेदनी इन चार कथाओं के माध्यम से अहिंसा, संयम और तप का सूक्ष्म विवेचन किया है। श्रमणचर्या का सूक्ष्मता से विवेचन हुअा है। यथाप्रसंग धन-धान्य, रत्न और अनेकविध पशुओं का वर्णन किया है। धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोणों का भी सूक्ष्मता से विवेचन हुआ है।
(३) उत्तराध्ययन नियुक्ति-इसमें उत्तर, अध्ययन, श्रुत, स्कंध की व्याख्या की गई है। गति और प्राकीर्ण का दृष्टांत देकर शिष्यों की विभिन्न दशा का वर्णन किया है। इसमें शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। इस नियुक्ति में गंधार श्रावक, तोसलि पुत्र, स्थूलभद्र, कालक, स्कंदलपुत्र और करकंडू आदि का जीवन संकेत है।
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | १६२
आचारांग नियुक्ति
"अंगाणं कि सारो? आयारो।" आचारांग समस्त अंगों का सार है।
इसके प्रारम्भ में प्राचार क्या है ? इस गम्भीर विषय पर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। प्राचारांग अंगों में प्रथम अंग क्यों है ? और इसका परिमाण क्या है ? लोक, विजय, कर्म, सम्यक्त्व, विमोक्ष, श्रुत, उपधान और परिज्ञा आदि शब्दों की सुन्दर व्याख्या की है।
सूत्रकृतांग-नियुक्ति-इसके प्रारम्भ में सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इसके उपरांत गाथा, षोडश, विभक्ति, समाधि, प्राहार और प्रत्याख्यान आदि शब्दों की व्याख्या करके ३६३ मतों के सिद्धांतों की सुन्दर व्याख्या की है। क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक इन चार मुख्य वादों का सुन्दर शैली से विवेचन किया है।
दशाथ तस्कंध-नियुक्ति-इसमें समाधि, आशातना और शबल को व्याख्या तथा गणी और उसकी सम्पदाओं का उल्लेख हुआ है । चित्र, उपासक, प्रतिभा, पर्युषण का भी कथन है। इसमें पर्दूषण के पर्युषण, पज्जूसण, पर्युपशमना, परिवसना, वर्षावास, स्थापना और ज्येष्ठग्रह पर्यायवाची कहे गए हैं।
बृहत्कल्प-इस सूत्र ग्रन्थ में मूल सूत्र के साथ निर्यक्तियों का सम्मिश्रण हो गया है। इसमें ग्राम क्या है ? नगर क्या है ? पत्तन क्या है ? द्रोणमुख क्या है ? निगम क्या है ? और राजधानी क्या है ? आदि कई विषयों का रोचक वर्णन हा है। यथाप्रसंग में लोककथानों का भी उल्लेख है।
इसके अतिरिक्त श्रमणचर्या के माहार-विहार एवं स्थान प्रादि का वर्णन है।
व्यवहारनियुक्ति-कल्प और व्यवहार सूत्र की नियुक्ति की परस्पर शैली, भाव और भाषा में समानता है। इस नियुक्ति में साधना-पक्ष और सिद्धान्तपक्ष के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डाला गया है ।
निशीथनियुक्ति-सूत्रगत शब्दों की व्याख्या इस ग्रन्थ की विशेषता है ।
पिण्डनियुक्ति-पिण्ड का अर्थ है-भोजन । इसमें प्राहार-शुद्धि एवं आहार-विधि की व्याख्या की गई है। इस पर मलयगिरि ने वृहद्वृत्ति और प्राचार्य वीर ने लघुवृत्ति लिखी है।
ओघनियुक्ति-पोघ शब्द की व्याख्या करके प्राचार्य भद्रबाह ने श्रमणचर्या की सूक्ष्म व्याख्या की है। प्रतिलेखन, उपधि, प्रतिसेवना, पालोचना, विशुद्धि और प्रोध की व्याख्या भी की गई है।
ओघ का अर्थ है-सामान्य या साधारण । अर्थात् जिस नियुक्ति में श्रमणचर्या के सामान्य भाव एवं क्रिया को प्रतिपादित किया गया है।
संसक्तनियुक्ति यह प्राचार्य भद्रबाहु की लघुवृत्ति है ।
गोविंदनियुक्ति-इस नियुक्ति को दर्शन-प्रभावक-शास्त्र भी कहा गया है, क्योंकि इस ग्रन्थ में दर्शनशास्त्र की दृष्टि से जीवादि तत्त्वों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६३
आराधनानियुक्ति-अाराधना पताका के नाम से भी इस ग्रंथ को जाना जाता है । वट्टकेर के मूलाचार में इसका उल्लेख है ।
ऋषिभाषिता-प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इस ग्रन्थ को ऋषि-भाषिता कहा गया है। इसमें चवालीस प्रत्येकबुद्धों के जीवन को प्रस्तुत किया गया है ।
सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राचार्य भद्रबाहु ने सूर्यप्रज्ञप्ति ग्रन्थ पर नियुक्ति लिखी है। इसमें ज्योतिष, गणित आदि के विषयों का विवेचन हुअा है ।
भाष्य-आगमग्रन्थों पर प्राकृत में भाष्य भी लिखे गए हैं। भाष्य-शैली पद्यात्मक है। संघदास गणि, जिनभद्र क्षमाश्रमण भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। प्रागमों पर भाष्य विक्रम सं. की सातवीं शती में लिखे गए हैं।
बृहतकल्पभाष्य, व्यवहार भाष्य, निशीथभाष्य विशेषावाश्यक भाष्य, पंचकल्प, जीतकल्प और लघुभाष्य ये सात भाष्य हैं। इनमें बृहतकल्प, व्यवहार, और निशीथ ये तीन भाष्य विशालकाय हैं।
भाष्यग्रन्थों का परिचय
बृहत्कल्पभाष्य-इस भाष्य में साधु-जीवन के प्राचार-विचार पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है । विचारभूमि, विहारभूमि और आर्यक्षेत्र की व्याख्या मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत की गई है।
“विणासधम्मीसु हि किं ममत्तं" विनाश---शील वस्तुओं पर ममत्व क्यों ?
"जं इच्छसि अप्पणत्तो, जं च ण इच्छसि अप्पणत्तो--जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करो।"
ऐसे कई उपदेशपूर्ण पदों का कथन इस ग्रन्थ की विशेषता है ।
व्यवहारभाष्य-साधु-साध्वियों के प्राचार, विचार, तप, संयम, साधना, प्रायश्चित्त एवं इनकी विभिन्न चर्वानों का उल्लेख इस ग्रन्थ में विस्तार से हुआ है। इस पर मलयगिरि ने विवरणिका लिखी है।
___ इस व्यवहारभाष्य में रक्षित, आर्य कालक, सातवाहन, प्रद्योत और चाणक्य इनका उल्लेख भी पाया है।
निशीथभाष्य-"जइ सव्वसो अभावो रागादीणं हवेज्ज णिद्दोसो।" यदि साधक के जीवन में किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है, तो वह साधक निर्दोष साधक है । इसी उद्देश्य को सामने रखकर भाष्यकार ने साधक का परिचय दिया है। इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन, ज्योतिष एवं विभिन्न भाषाओं का बोध इस विशालकाय ग्रन्थ के माध्यम से हो जाता है।
निग्रंथ, निग्रंथी, संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य आदि का विवेचन भी भाष्यकार ने किया है। प्रसंगवश विभिन्न लोक-कथाएं, समाज-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था राजनीति-व्यवस्था का भी समावेश हो गया है।
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चतुर्थ खण्ड / १६४
जीतकल्प-भाष्य-प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में प्रायश्चित्त का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। प्रायश्चित्त की व्युत्पति इस प्रकार की है
पावं छिदति जम्हा प्रायच्छित्तं ति भण्णेति तेणं-जिससे पाप का छेदन किया जाता है, वह प्रायश्चित्त कहा गया है।
जीत, पागम, श्रुत, प्राज्ञा और धारणा इन पांच व्यवहारों का वर्णन किया गया है। भक्तपरिज्ञा, इंगिनी मरण, और पादपोपगमन इन तीन संल्लेखनामों का उल्लेख भी किया है।
पंचकल्पभाष्य-इसमें पाँच प्रकार के प्राचार का वर्णन किया गया है। कल्प शब्द की व्याख्या भी प्राचार की गई है।
पिण्ड भाष्य-इस भाष्य में साधुजीवन के प्राचार एवं विचार का कथन किया गया है। इसमें पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त और उसके महामंत्री चाणक्य का भी उल्लेख है।
ओघ भाष्य-यह ३२२ गाथाओं में निबद्ध है। इसमें भी श्रमणचर्या का उल्लेख है। इसमें मालवा देश के सामाजिक जीवन को प्रस्तुत करने का उल्लेख है तथा शुभ, अशुभ तिथियों का भी विचार किया गया है।
दशवकालिक भाष्य-इस भाष्य में मूलगुणों और उत्तरगुणों का उल्लेख किया गया है। प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रमाण की व्याख्या एवं जीवसिद्धि भी की गई है ।
उत्तराध्ययन भाष्य-यह भाष्य निर्ग्रन्थों के स्वरूप को प्रतिपादित करता है। पुलाक, वकूश, कूशील निर्ग्रन्थ और स्नातक के भेद-प्रभेदों का भी कथन किया गया है ।
आवश्यकभाष्य-यह साधना तत्त्व को प्रतिपादित करनेवाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। क्योंकि इसमें चरणानुयोग, कथानुयोग और द्रव्यानुयोग के माध्यम से साधना के विषय को प्रतिपादित किया गया है।
विशेषावश्यक भाष्य-आवश्यक सूत्र पर लिखा गया यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञान की मीमांसा करनेवाला विश्वकोष है। इसमें ज्ञानवाद, गणधरवाद और निह्नववाद का दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त इसमें सामायिक, निक्षेप का स्वरूप तथा नयों का स्वरूप भेद-प्रभेद एवं नय-योजना का कथन भी विस्तार से हुआ है।।
इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं जिनमें (i) स्वोपज्ञवृति (ii) कोट्याचार्य की विस्तृत टीका (iii) प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्रकृत टीका।
यह भाष्य समस्त प्रागमों और उनकी टीकामों में महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि इस भाष्य के प्रत्येक अध्ययन-विषय की गम्भीरता को प्रतिपादित करते हैं।
चणि-परिचय
चूणि ग्रन्थ गद्य एवं पद्य दोनों ही शैलियों में लिखे गए हैं । इन चूर्णि-ग्रन्थों की भाषा मात्र प्राकृत ही नहीं है, अपितु संस्कृत भी है, जो अत्यन्त सरल एवं सुबोध है।
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६५
चूणियों की रचना सातवीं-पाठवीं शताब्दी के लगभग की गई है। चणिकारों में सिद्धसेनसूरि, प्रलम्बसूरि और अगस्त्यसिंह-सूरि प्रमुख हैं। प्रसिद्ध चूणियाँ
(१) आवश्यक (२) प्राचारांग (३) सूत्रकृतांग (४) दशवकालिक (५) उत्तराध्ययन (६) नन्दी (७) अनुयोगद्वार (८) व्याख्या-प्रज्ञप्ति (९) जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (१०) जीवाभिगम (११) निशीथ (१२) महानिशीथ (१३) बृहत्कल्प (१४) व्यवहार (१५) दशाश्रुतस्कंध (१६) जीवकल्प (१७) पंचकल्प (१८) प्रोघ ।
इन चणियों में धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज और इतिहास आदि की विपुल सामग्री उपलब्ध है।
आवश्यकचणि-विषय-विवेचन की दृष्टि से अावश्यक चणि का अत्यन्त महत्त्व है। इसकी भाषा प्रांजल है। इसमें संवाद और कथानकों की भरमार है। इसमें ऋषभदेव की सभी घटनाओं का क्रम से वर्णन है। विभिन्न कलानों शिल्पतत्त्व-कुम्भकार, चित्रकार, वस्त्रकार, कर्मकार और काश्यप का वर्णन, ब्राह्मी की लेखनकला, सुन्दरी की गणितकला और भरतादि की राजनीति का सुन्दर विवेचन हुआ है।
महावीर का जन्मोत्सव, दीक्षा, साधना, उपसर्ग एवं कैवल्य आदि का वर्णन, पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों का कथन, मंखलिपुत्र गोशालक, लाढ देश की वज्र एवं शुभ्रभूमि जमालि, पार्यरक्षित, तिष्यगुप्त, वज्रस्वामी और वज्रसेन के कथानक तथा विविध राज्यों का वर्णन यथाप्रसंग हो गया है।
यह चूणि लोक-कथा एवं ऐतिहासिक तथ्यों से पूर्ण है । ___ आचारांगचूणि-आचारांग की चूणि में श्रमण के प्राचार-विचार के साथ लोक-कथाएँ भी सरल एवं सुबोध ढंग से प्रस्तुत हुई हैं
___ "एगम्मि गामे एक्को कोडुबिनो धणमंतो बहुपुत्तो य' प्रादि बहुत ही सरल भाषा में कथानक प्रस्तुत किए गए हैं।
सूत्रकृतांगणि-इसमें दार्शनिक तत्त्व एवं लोक-कथाओं की बहुलता है । आर्य एवं अनार्य देश की प्रसिद्ध कथाओं का भी उल्लेख है। अनार्य देश में रहनेवाले आर्द्र कुमार की अभयकुमार के साथ मित्रता का भी उल्लेख है ।
दशवकालिकणि-इस चणि में लोक-कथाओं और लोक-परम्पराओं का उल्लेख है। जिनदास महत्तर ने इसमें श्रमण के प्राचार-विचार की व्याख्या प्रस्तुत की है। प्राकृत के शब्दों की व्युत्पति पर्याप्त रूप से की गई है। उदाहरण के लिए–'दुम', रुक्ख, पादप की व्याख्या देखिए
"दुमा नाम भूमीए, रुत्ति पुहवी, खत्ति आगास, तेसु दोसु वि जहा ठिया, तेणं रुक्खा पादेहि पिवन्तीति पादपा । पादा मूलं भण्णंति" कहीं-कहीं पर संवाद-शैली भी है, जो पढ़ने में एकांकी एवं नाटकों जैसा आनंद देती है।
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चतुर्थ खण्ड / १६६
कि मच्छे मारसि । न सक्के मि पातु ।
अरे ! तुम मज्जं पियसि। उत्तराध्ययनचूणि-जिनदास महत्तर ने इस चूणि में संस्कृत और प्राकृत को मिश्रित कर दिया है। इसमें लोककथाओं की बहुलता है। प्रसंगवश तत्त्वचर्चा भी की गई है।
व्युत्पत्तियों के लिए यह चूणि प्रसिद्ध है। काश्यप शब्द की एक व्युत्पत्ति द्रष्टव्य है
"काशं उच्छ, तस्य विकारः, कास्यः रसः स यस्य पानं, काश्यप-उसमसामी, तस्य जोगा जे जाता ते कासवा, वद्धमाणो सामी कासवो"
नंदिचूणि-इस चूणि में पांच ज्ञानों का वर्णन है। इस चूणि में माथुरीवाचना तथा प्राचार्य स्कंदिल के द्वारा श्रमण संघ को दी गई शिक्षा का उल्लेख मिलता है। इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री और लोक-कथाओं की बहुलता है।
अनुयोगद्वारचूणि-इसमें चार अनुयोग और उनमें प्रतिपाद्य विषय का विवेचन है । भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है। इसमें विभिन्न सभाओं, रथ, यान आदि का वर्णन है।
व्याख्याप्रज्ञप्तिचूर्णि-व्याख्याप्रज्ञप्ति का दूसरा नाम भगवतीसूत्र है। इसमें मात्र शब्दों की व्युत्पत्ति ही की गई है। __जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णि-जंबूद्वीप के क्षेत्र, विस्तार का सांगोपांग वैज्ञानिक एवं गणित की दृष्टि से इस चूणि में विवेचन किया गया है।
जीवाभिगमणि-इस चूणि में जीव और अजीव की व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए इनके भेदप्रभेदों का वर्णन किया है। इसमें गौतम गणधर द्वारा महावीर से जीव आदि तत्त्वों के विषय में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर है। इस पर मलयगिरि ने टीका और हरिभद्रसूरि ने लघुवृत्ति लिखी है।
वशाथ तस्कंधचूणि-भद्रबाहु ने इस चणि में प्राचार्य कालक की कथा सातवाहन की कथा एवं सिद्धसेन तथा गोशालक का भी उल्लेख किया है। कई श्रमणों की तपश्चर्या का भी इसमें उल्लेख है।
ओघणि-इसमें अोष की व्याख्या प्रस्तुत करके साधु जीवन का उल्लेख किया है।
निशीथचूर्णि-प्राकृत भाष्य पर जो व्याख्या प्रस्तुत की गई, वह निशीथ चूर्णि कहलाई । चूर्णिकार ने कहा है
"पुटवायरिय-कयं चिय अहं पि तं चेव उ विसेसा" इसमें मधुर और सूवाच्य शैली में विशेष व्याख्या प्राकृत में ही की गई है। और अल्प मात्र ही संस्कृत में व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
जिनदास महत्तर ने बड़ी गंभीरता से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की है, सुन्दर वार्तालाप द्वारा इस चुणि को अधिक रोचक बनाया है:
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आगम का व्याख्यासाहित्य / १६७
कि ण गतासि भिखाए ? अज्ज ! खमणं मे। कि णिमित्त ? मोह-तिगिच्छं करेमि। अहं पि करेमि।
इसमें प्रकृतिचित्रण, सिंध-प्रदेश, मालवप्रदेश, निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक, प्राजीवक, चार अनुयोग, मंत्रविद्या प्रादि का उल्लेख है। तरंगवती, मलयवती, धूर्ताख्यान और वसुदेवाचरित्र प्रादि ग्रंथों का भी उल्लेख है।
महानिशीथचूणि-इस ग्रंथ की अभी तक प्राप्ति नहीं हो सकी है। पर इसका अनुसंधान हरिभद्रसूरि ने किया था।
बृहत्कल्पचूणि--इस चूर्णि को श्रमणों के जीवन को प्रतिपादित करनेवाला प्राचारशास्त्र कहा जा सकता है।
व्यवहारचूणियह चूणि भी श्रमणचर्या को प्रस्तुत करती है।
जीतकल्प-जिनभद्र क्षमाश्रमण ने इसमें साधुनों के पाँच व्यवहारों, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख कर विस्तार से वर्णन किया है।
पंचकल्प–इसमें पांच प्रकार के कल्पों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। संघदास गणि ने इस पर चूणि लिखकर प्राचार-शास्त्र की सम्यग् व्याख्या की है।
टीका-परिचय
नियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों के बाद प्रागमों पर टीकाएं लिखी गईं। टीकाएं संस्कृत में ही लिखी गईं। नियुक्ति भाष्य, चूणि, टीका, विवृत्ति, वृत्ति, विवरण, विवेचना, अवचूरि, प्रवचूर्णि, दीपिका, व्याख्या, पन्जिका, विभाषा और छाया को टीका ही कहा गया है।
टीकानों में लोककला को समझाने का प्रारंभ भी हया । परन्तु टीकाकारों ने प्रागमों पर सैद्धांतिक विवेचन के साथ दार्शनिक विवेचन भी विस्तृतरूप से किया है।
प्रसिद्ध टीकाएँ और उनके टीकाकार
टीकाकारों में आचार्य हरिभद्रसूरि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । क्योंकि इन्होंने राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, दशवैकालिक, आवश्यक, नंदी, अनुयोगद्वार आदि सूत्र ग्रंथों पर संस्कृत में सर्वप्रथम टीकाएं लिखी थीं।
इसके बाद आचार्य शीलांक ने प्राचारांग, सूत्रकृतांग पर दार्शनिक दृष्टि से टीका प्रस्तुत की।
शांतिरि ने उत्तराध्ययन पर 'पाइय टीका' लिखी है इस पर संस्कृत टीका भी लिखी गई ।
धम्मो दीयो है। मलधारी हेमचंद्र और कोटचाचार्य ने विशेषावश्यक पर टीका लिखी।
संसार समुद्र में
धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / १६८
मलयगिरि ने राजप्रश्नोय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति आदि उपांग ग्रंथों पर टोकाएं लिखी हैं। आवश्यक, पिण्डनियुक्ति, अोधनियुक्ति, नंदीसूत्र, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प आदि पर भी टीकाएं लिखी हैं।
अभयदेव, देवसूरि, सुमतिसूरि आदि कई प्राचार्यों ने आगमों पर टीकाएं लिखीं। प्रागमों की टीकाओं का संक्षिप्त परिचय:अंग-आगम
टीकाकार १. प्राचारांग
प्राचार्यशीलांक, जिनहंस, २. सूत्रकृतांग
" हर्षकुल ३. स्थानांग
अभयदेवसूरि, नागर्षि ४. समवायांग ५. भगवतीसूत्र ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशांग ८. अंतकृद्दशांग ९. अनुत्तरोपपातिकदशांग १०. प्रश्नव्याकरण
ज्ञानविमल ११. विपाकसूत्र
प्रद्युम्नसूरि उपांग-आगम
टीकाकार १. प्रौपपातिक
अभयदेवसूरि २. राजप्रश्नीय
हरिभद्र, मलयगिरि, देवसूरि ३. जीवाभिगम
मलयगिरि ४. प्रज्ञापना
, हरिभद्र, कुलमंडल ५. सूर्यप्रज्ञप्ति ६ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति
शांतिचंद्र, ब्रह्मर्षि ७. चंद्रप्रज्ञप्ति
मलयगिरि ८. कल्पिका
चंद्रसूरि, लाभश्री ९. कल्पावतंसिका १०. पुष्पिका ११. पुष्पचूलिका १२. वृष्णिदशा मूलसूत्र
टीकाकार १. दशवकालिक
हरिभद्र, समयसुन्दरगणि, तिलकाचार्य, सुमति
सूरि, अपराजितसूरि, विनयहंस २. उत्तराध्ययन
वादिवेतालसूरि, नेमिचंद्र, कमलसंयम, लक्ष्मीवल्लभ, भावविजय
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आगम का व्याख्यासाहित्य | १६९
३. आवश्यक
हरिभद्र, मलयगिरि, तिलकाचार्य, कोट्याचार्य,
नमि साधु, माणिक्यशेखर ४. पिण्डनियुक्ति
मलयगिरि, वीराचार्य अथवा अोधनियुक्ति
मलयगिरि, द्रोणाचार्य चूलिका
टीकाकार १. नन्दी
हरिभद्र, मलयगिरि २. अनुयोगद्वार
हरिभद्र, मलधारी हेमचन्द्र छेदसूत्र
टीकाकार १. निशीथ
प्रद्युम्नसूरि २. महानिशीथ ३. व्यवहार
मलयगिरि ४. दशाश्रतस्कंध
ब्रह्मर्षि ५. बृहत्कल्प
मलयगिरि, क्षेमकीति सूरि ६. पंचकल्प प्रकीर्णक
टीकाकार १. चतुःशरण
गुणरत्नसूरि २. पातुर-प्रत्याख्यान ३. महाप्रत्याख्यान ४. भक्त-परिज्ञा
गुणरत्न ५. तंदुलवैचारिक
विजयविमल ६. संस्तारक
गुणरत्न गच्छाचार
विजयविमल ८. गणिविद्या ९. देवेन्द्रस्तव १०. मरण-समाधि
टब्बा-परिचय-टीकामों के बाद टब्बा व्याख्या के लिखने की प्रवृत्ति सामने आई । टब्बा प्रागमों पर लिखी गई संक्षिप्त टीका है। राजस्थानी और गुजराती में जो व्याख्याएं लिखी गई वे टब्बा कहलाई। टब्बाकारों में पार्श्वचंद और धर्मसिंह जी महाराज का नाम उल्लेखनीय है ।
अनुवाद-आगमों पर जो भाषांतर लिखे गए, उन्हें अनुवाद कहा गया। अनुवादों में मुख्य तीन भाषाएं पाती हैं
(१) हिंदी-आत्माराम, जवाहरलाल, घासीलाल, हस्तीमल, सौभाग्यमल, अमरचंद (२) अंग्रेजी-हरमन जैकीवी, अभ्यंकर (३) गुजराती- बेचरदास, जीवाभाई पटेल, दलसुख मालवणिया, सौभाग्यमुनि । आगमयुग की इस व्याख्यापरक परम्परा का मूल्यांकन होना अति आवश्यक है।
-पिऊ कुज, ३ अरविंद नगर,
उदयपुर (राज.) ३१३००१
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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जैनदर्शन में ईश्वर की अवधारणा
सौभाग्यमल जैन
जैनदर्शन में "ईश्वर" का कोई स्थान है या नहीं ? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है किन्तु इस प्रश्न पर कोई मत प्रतिपादित करने के पूर्व यह आवश्यक है कि "ईश्वर" शब्द से क्या तात्पर्य है ? इसका विश्लेषण किया जाय। वास्तव में ईश्वर भगवान्, परमेश्वर आदि पर्यायवाची शब्द हैं। एक संस्कृत के कवि ने "भगवान्" शब्द की व्याख्या करते हुए कहा
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य, यशसः भियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां "भग इतीरणा ॥
3
तात्पर्य यह है कि "भग" शब्द में समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य, इन छह का समावेश होता है, इस प्रकार इन छह ऐश्वयों से युक्त को "भगवान्" कहा जा सकता है। यही भाव "ईश्वर" शब्द से है ऐश्वर्यवान् ( साहवे पौसाफ) को ईश्वर कहा जाता है। जिस प्रकार भौतिक ऐश्वर्य से सम्पन्न को "साहबे जायदाद" कहा जाता है इसी प्रकार श्रध्यात्मिक अथवा आधिदैविक ऐश्वर्य से युक्त को ईश्वर ( साहबे साफ ) कहा जा सकता है । विश्व में प्रचलित धर्मों में ईश्वरसम्बन्धी मान्यताओं का यदि हम विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होगा कि कुछ धर्मों में ईश्वर को रचयिता, नियामक माना जाता है, कुछ में उसे प्राणियों के भले-बुरे कर्मों का निर्णायक मानकर दण्डदाता या पुरस्कारदाता के रूप में माना जाता है या उसे दयालु मानकर क्षमादाता के रूप में चित्रित किया जाता है । कुछ में ईश्वर केवल साक्षी रूप माना जाता है। यदि हम वैदिककाल की मान्यता पर दृष्टिपात करें तो यह ज्ञात होगा कि उस काल में विश्व की प्रज्ञात प्राकृतिक शक्तियों (मानव समुदाय का उपकार करने वाली सहायता प्रदान करने वाली या भयानक सभी शक्तियों) में मानव ने "देवश्व" का धारोपण करके बहुदेववाद की स्थापना की हम देखते हैं कि उस काल में मानव को देवी- आपत्तियों का सामना करना पड़ता था, वैज्ञानिक प्राविष्कार नहीं हुए थे, प्रकृति के रहस्यों से वह वाकिफ नहीं था। इस कारण इस प्रकार की शक्ति में देवत्व की कल्पना मानव समाज की सहज स्फुरित भावना का प्रतीक है। जैसे-जैसे मानव का वैचारिक स्तर उन्नत हुमा वैसे-वैसे उसने एक ब्रह्म की कल्पना की उसी को जगत् का मूलाधार माना। समस्त प्राणिजगत् उसी ब्रह्म का प्रतिरूप है। तात्पर्य यह है कि वैदिक परम्परा में द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद के निरूपण के साथ ब्रह्म और जीव के पृथक्त्व तथा एकरव की मान्यता प्रचलित हुई अद्वैतवाद के प्रवर्तक आचार्य शंकर ब्रह्म को निर्गुण तथा द्वैतवाद के प्रवर्तक प्राचार्य मध्व ब्रह्म को सगुण मानते हैं ।
1
यह एक संयोग की बात है कि विश्व के लगभग सभी धर्माचार्य एशिया में हुए जिनमें कुछ एकेश्वरवाद के हामी तथा कुछ बहुदेववाद के हामी थे। कुछ के निकट ईश्वर का स्वरूप निराकार तथा कुछ के निकट साकार स्वरूप था । जो धर्माचार्य ईश्वर अथवा भगवान् के
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जैनदर्शन में ईश्वर की अवधारणा /१७१
अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे उनके मत में भी समष्टि को नियमित करने वाली किसी शक्ति का अस्तित्व अवश्य था । चाहे उसको "दैवी शक्ति" (Spirit) के नाम से पहचाना जाये या किसी और नाम से। यह प्रश्न गौण था। वैदिक परम्परा के अतिरिक्त इस्लाम एकेश्वरवाद का हामी था। इस्लाम का पवित्र कलमा "ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदरसूलिल्लिाह" है जिसका अर्थ यह है कि ईश्वर केवल एक है और हजरत मुहम्मद उसके रसूल हैं, पैगम्बर हैं, उसके संदेशवाहक हैं । इस्लाम में ईश्वर के अतिरिक्त किसी और शक्ति की मान्यता "शिरकत" कहलाती है। और इस मान्यता का जबरदस्त विरोध है। सूफी मत के सन्त ईश्वर तथा सांसारिक जीवों के मध्य "द्वैत" का एक पर्दा मानते हैं जहाँ वह पर्दा (प्रावरण) हटा कि सांसारिकजीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। कहा गया है कि
"महबूब मेरा मुझ में है, मुझको खबर नहीं ऐसा छिपा है पर्दे में, जो कि आता नजर नहीं।
शौक है दीदार का, तो नजर पैदा कर ॥" इसके अतिरिक्त सूफी संत, मानव के अन्तरतम में ही ईश्वरीय प्रकाश (जलवा) का अस्तित्व मानते थे
दिल के आईने में है तस्वीरे यार ।
जब जरा गरदन झुकाई, देख ली ॥ साथ ही ईश्वर को सर्वव्यापी मानते थे तथा वेदान्त की अद्वैत परम्परा के अनुसार अनलहक (अहं ब्रह्मास्मि) का नाद करते हुए ईश्वरीय प्रेम में मस्त रहते थे।
जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है और
आदम को खुदा मत कहो, आदम खुदा नहीं।
लेकिन खुदा के नूर से, आदम जुदा नहीं। एक प्रसिद्ध सूफी संत सरमद का वाकया बहुत प्रसिद्ध है जो अपनी ईश्वरीय प्रेम में मस्त जिन्दगी व्यतीत करता-करता दिल्ली पहुंचा। उस काल में दिल्ली के तख्त पर एक धर्मान्ध बादशाह औरंगजेब का शासन था। सरमद अपनी मस्ती में "अनलहक" की आवाज लगाता हुया घूम रहा था। बादशाह ने उसे कई बार चेतावनी दी कि वह इस तरीके से बाज पा जाए। बादशाह के निकट यह क्रुफ था किन्तु संत अपनी मस्ती में इतना तल्लीन था कि उसको इस बात पर ध्यान देने का समय ही नहीं था। अंततोगत्वा बादशाह ने संत को मृत्युदण्ड दिया। उस समय के उसके वाक्य, उसकी मस्ती, तल्लीनता का स्पष्ट दिग्दर्शन कराते हैं
बजमें इश्क तो अम, मी कुशंद मोगा अस्त ।
तो नीज वस्सरे वांम, आंकि खुद तमाशा रास्त ॥ तुझे तेरे इश्क में मारा जा रहा है। जरा अटारी पर चढ़कर देख कैसा तमाशा हो रहा है । इसके अतिरिक्त निर्गुणी संतों में कबीर का स्थान सर्वोच्च है जिसने ईश्वरीय प्रेम में अपने को आपादमस्तक गर्क कर लिया था और उसी मस्ती में उसने "अनहदनाद" सुना था
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थखण्ड / १७२
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और उसी मस्ती में मुल्ला मौलवी, पंडित जैसी धर्मोन्मादी संस्थाओं पर वीसे व्यंग करके उनकी निस्सारता प्रकट की थी। इस प्रकार के एक मस्त विचारक ने कहा था
किसी का राम काशी में, किसी का है मदीने में
किसी का जन सम, जर में, किसी का खाने-पीने में कोई कहता गया में है, किसी का का योरोशलम में है । "पैमानन्य" राम अपना या तो हरजा है या सीने में है ।
वास्तविक रूप में मनुष्य स्वयं परमात्मास्वरूप है। स्वयं परमात्मास्वरूप है । उसका स्थान मनुष्य का हृदय है या वह सर्वव्यापी है। किन्तु जहाँ इस्लाम अपनी मान्यता पर इतना दृढ़ था कि जो ईश्वर (अल्लाह) को लाशरीक कहता था उसी में कई ऐसे शायर हुए कि जिन्होंने ईश्वर की दयालुता का वर्णन करते हुए उसको चाटुकारिता के समकक्ष माना । उदाहरणस्वरूप
मौर
तेरे करम के भरोसे पर हथ में या रख, गुनाह लाया हूं और बेहिसाब लाया हूं ।
गया शैतान मारा एक सिजदे के न करने से दोलख सही पे सर का झुकाना नहीं अच्छा
और इसी कारण शायर ने सख्त मजाक करते हुए लिखा था:
हुआ है चार सिजदों पर यह दावा जाहिदों तुमको। खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है ?
इस भूमिका के परिप्रेक्ष्य में यदि हम जैनदर्शन के तत्वज्ञान पर दृष्टिपात करते हैं तो यह स्पष्ट जाहिर है कि उपर्युक्त किसी भी रूप में ईश्वर की मान्यता यहाँ पर नहीं है। जहाँ तक सृष्टिकर्ता तथा कर्मफलप्रदाता का रूप है, जैनधर्म स्पष्ट रूप से इंकार करके बताता है कि यह सारा विश्व कार्य-कारण के आधार पर अनादि काल से चला था रहा है तथा अंतहीन है | ( Begningless & endless ) विश्व में कभी सर्वप्रलय नहीं हो सकती । जो सत् है वह कभी असत् नहीं हो सकता । यह पृथक् बात है कि द्रव्य के पर्याय में रूपान्तर होता रहता है। कहा गया है:
नासतो विद्यते भाव, नाभावो जायते सत ।
केवल जैनधर्म ही नहीं वैदिक परम्परा में भी कई ग्रंथों में ईश्वर को विश्व का नियंता या कर्मफलप्रदाता नहीं मानते हुए "स्वभाव" के कारण ही इनका अस्तित्व माना है जैसा कि श्रीमद्भागवद् गीता में कहा गया :
"न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः न कर्मफलसंयोग: स्वभावस्तु प्रवर्तते । नादतं कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
जैनदर्शन का विश्वास है कि प्राणी स्वयं अपने कर्म करने में स्वतंत्र है तथा भले-बुरे कर्मों के कारण वह पुण्य-पाप का बंध करता है। वास्तव में ईश्वर नाम की कोई शक्ति न
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जैनदर्शन में ईश्वर की अवधारणा / १७३
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तो न्यायदाता (जज) का कार्य करती है न उसकी दयालुता किसी को भले-बुरे कर्मों से क्षमा प्रदान कर सकती है, न किसी ईश्वर में यह शक्ति है कि वह उसके नाम-स्मरण या नाम जप से प्रसन्न होकर उसे क्षमा प्रदान कर सके तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन की सृष्टि निर्माण तथा कर्मफल की मान्यता अत्यन्त तर्क पुरस्सर है और आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करती है कि समष्टि का निर्माण कार्य-कारण (Law of Causes & Effect ) के आधार पर ही हुआ है। वास्तव में जैन धर्म में ईश्वर के किसी अवतार धारण करके विश्व में अवतरित होने की मान्यता को स्थान नहीं है। वह ईश्वर का मानवीय रूप (Personalised Godhood ) स्वीकार नहीं करता । उसके निकट मौलिक रूप में विश्व का समस्त प्राणिजगत् शुद्ध-बुद्ध है। उसकी क्षमता है कि वह आत्मिक गुण या प्राध्यात्मिक या आधिदैविक ऐश्वर्य से महात्मा अथवा परमात्मा पद तक पहुँच सके। जैसा कि कहा गया है कि निश्चय नय की दृष्टि से प्रत्येक जीवात्मा में यह ( Potentiality ) है कि वह वास्तविक रूप से परमात्मत्व अपने में आरोपित कर सके। अधिक उपयुक्त यह है कि हम "ईश्वर" शब्द के स्थान पर "परमात्मा" शब्द का उपयोग करें। जीवात्मा अपनी प्रात्मिक उन्नति करते-करते महान् आत्मा हो सकती है और जब सारे घातिया कर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय) क्षय करके शुद्ध बुद्ध हो जाती है तो उसे "कैवल्यप्राप्ति " हो जाती है और जब प्रपातिया ४ कर्म (नाम, गोत्र, आयुष्य वेदनीय) क्षय हो जाते हैं, तो वही सिद्ध हो जाता है और कृतकृत्य हो जाता है। सती मदालसा का एक वाक्य प्रसिद्ध है जो वह अपने गर्भस्थ शिशु या नवजात शिशु को अच्छे संस्कार डालने के लिये कहा करती थी
शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि ।
तथा अन्य दर्शनों में भी कहा गया है
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बन्धुर्न मित्र, गुरुनैव शिष्यः । चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् । न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रं न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।
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जैन धर्म में प्रात्मिक ऐश्वर्य या ग्रात्मा की शुद्ध स्थिति के प्रकटीकरण के लिये जिन १४ गुणस्थानों का क्रम स्वीकार किया गया है वह अत्यन्त वैज्ञानिक विचारसरणी है। उससे जीवात्मा, जो यद्यपि कर्मफल से लिप्त है वह शनैः शनैः उन्नत अवस्था को प्राप्त करती हुई अपने शिवस्वरूप को प्राप्त कर सकती है। यही ईश्वरत्व है, परमात्मत्व है । तात्पर्य यह कि जैन दर्शन में उपरोक्त अर्थों में ईश्वर का स्थान नहीं है किन्तु ईश्वरत्व का स्थान अवश्य है और Personalised Godhood नहीं है अपितु प्रत्येक आत्मा निश्चय नय से शिवस्वरूप है और अपने राग-द्वेष से मुक्त होकर अपने शिवत्व को प्रकट कर सकती है। जीवात्मा में शिवत्व उसी प्रकार व्याप्त है जैसे:
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
धर्म ही दीप है
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यथा जल जले क्षिप्तं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम् । अविशेषो भवेत्तद्वद्, जीवात्मपरमात्मनः ॥
हमारे देश में गत शताब्दियों में ईश्वर संबंधी मान्यता भ्रामक हो गई और मनुष्य अपने को ईश्वराधीन मानने लगा । "हरीच्छा बलीयसी" के वाक्य ने मानव को केवल नियतिवादी बना दिया उद्यम, साहस, पराक्रम पुरुषार्थ से उसका संबंध नहीं रहा। ईश्वर की मर्यादा बढ़ती रही और श्रात्मा की घटती रही। मानव के चिन्तन में "अमृतस्य पुत्रा: " के स्थान पर "पापोऽहं पापकर्माऽहं” "पापात्मा पापसंभव:" का नाद गूंज उठा जिसने उसके आत्मगौरव का नाश कर दिया यह विडम्बना रही, किन्तु जैनदर्शन ने सबसे बड़ी देन यह दी कि उसने मानव के आत्मगौरव की स्थापना की। देव की गुलामी से मुक्त किया "न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किचित्" जैसे वाक्यों की सही सही स्थापना की। इसी संदर्भ में मुझे वैशेषिकदर्शन के एक विद्वान् की रोचक घटना स्मरण धाती है जो जगन्नाथपुरी में दर्शन करने गया था किन्तु असमय होने से कपाट बन्द मिले तब उसने कपाट खोलने का श्राग्रह करते हुए कहा था :
ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मामवज्ञाय
वर्तसे । उपस्थितेषु बौद्ध षु, मदधीना तव स्थितिः ॥
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उदयनाचार्य
संभवत: इस प्रकार के उद्गार उस विचारसरणि के परिणाम थे जो जैनधर्म ने प्रवाहित की थी । मानव ने अपने श्रात्मसम्मान को ध्यान में रखकर यह श्लोक कहा होगा । जैनधर्म ने स्पष्ट रूप से बताया कि मनुष्य जन्म देवत्व से भी बढ़कर है । मानव शुद्ध, शिवत्व प्रकट कर सकता है जबकि देव को भी मोक्ष तभी मिल सकेगा जबकि वह मनुष्य जन्म ले मनुष्य कर्म में स्वतंत्र है। किसी देव, ईश्वर की गुलामी या उसकी खुशामद की उसे श्रावश्यकता नहीं है ।
वास्तविक रूप से देखा जाय तो एशिया हो नहीं सारे विश्व के धर्माचार्य एक प्रकार से उस देवी संदेश के वाहक थे। चाहे वह राम हों, कृष्ण हों, महावीर हों, बुद्ध हों, ईसा, मुहम्मद, जरथुस्त्र हों। इन सबने मानव को भला बनाने, उसे उन्नत बनाने तथा अपने शुद्ध रूप में शिवत्व प्रकट करने का मार्ग बताया था। जैसा कि एक जैन अध्यात्मयोगी सन्त ने अपना मन्तव्य प्रकट करके कहा था:
राम कहो, रहमान कहो, कोई कान्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजनभेद कहावत नाना एक मृत्तिका रूपी री । तसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड स्वरुपी री। निजपद रमे सो राम कहिये, रहम करे रहमान री । करे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निर्माण रो परसे रूप पारस सो कहीये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्मारी । इस विधि साधो, आप 'आनंदघन' चेतन मय निष्कर्ष री ।
- शुजालपुर मंडी (म. प्र. ) 00
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जैन और बौद्ध परम्परा में
नारी का स्थान 10 मुनि नेमिचन्द्र, शिखरजी
नारी-जीवन के मुख्य पाँच रूप
नारी-जीवन को हम मुख्यतया पांच रूपों में विभक्त करके जैन और बौद्धधर्म की परम्परा में उसका क्या कैसा और कितना स्थान था ? इस सम्बन्ध में विश्लेषण करेंगे।
नारी-जीवन के मुख्य पांच रूप ये हैं-(१) पुत्री, (२) वधू, (३) माता, (४) विधवा और (५) भिक्षुणी।
१. पुत्री-जीवन पुत्री-जीवन में सुसंस्कारों का बीजारोपण
पुत्री या कन्या नारी-जीवन की प्रथम अवस्था है । पुत्री के रूप में ही नारी का सामाजिक जीवन में प्रथम प्रवेश होता है। पुत्री-जीवन में ही नारी-जीवन की शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों का बीजारोपण होता है । नारी-जीवन को विशिष्ट उन्नत, शिक्षित एवं संस्कारित बनाने की नींव पुत्री-जीवन से ही रखी जाती है, क्योंकि पुत्री के जीवनयापन का ढंग, शिक्षण एवं संस्कार ही नारी-जीवन की सभी अवस्थानों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वैदिक युग में पुत्री की दशा शोचनीय
वैदिक युग में पुत्री की दशा शोचनीय नहीं थी, किन्तु उसकी प्राप्ति उतनी प्रिय नहीं होती थी, जितनी कि पुत्र की। उत्तरवैदिककाल में पुत्रप्राप्ति को धार्मिक महत्त्व दिया जाने लगा था । अर्थात् यह समझा जाता था कि "पुत्र उत्पन्न होने से मनुष्य पितृऋण से मुक्त होता है तथा पुत्र पुं नामक नरक से पितरों को बचाता है । पितरों की आत्माएँ पुत्रों से पिण्ड एवं जल का तर्पण पाकर सुखी एवं सन्तुष्ट होती हैं।" पुत्र के उक्त धार्मिक महत्त्व से पुत्री उपेक्षा की पात्र बन गई । वाल्मीकि रामायण में कन्या को कष्टदायिनी बताया गया है, ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि पुत्री जन्म होते ही स्वजनों के लिए दुःखकारिणी होती है विवाह के समय धन लेकर सदा के लिए पराई हो जाती है और यौवनावस्था में भी अनेक दोष की होती है।
जैन-बौद्धयुग में पुत्र और पुत्री के प्रति समानता का भाव
किन्तु जैन और बौद्ध दोनों श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि धर्मों में श्रमण संस्कृति के विकास के साथ पुत्री के प्रति घृणासूचक भाव समाप्त होने लगे क्योंकि पुत्र को महत्त्व देने
धम्मो दीयो। संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / १७६
वाले कारणों को दोनों ही धर्मों ने मान्यता नहीं दी। जैन और बौद्ध आगमसाहित्य में वैदिक धर्ममान्य षोडश संस्कारों को भी महत्त्व नहीं दिया गया है। धार्मिक उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए दोनों ही धर्मों में गृहस्थावास को छोड़कर अनगारावस्था में साधू और साध्वी दोनों के लिए शुद्ध ब्रह्मचर्य के पालन पर जोर दिया गया है, जबकि वैदिकधर्म में मासिकधर्म प्राप्त कन्या का . विवाह करना अनिवार्य माना जाता था।
प्रागैतिहासिक काल में भ० ऋषभदेव के युग में पुत्र और पुत्री में कोई भेदभाव नहीं रखा जाता था । भ० ऋषभदेव ने तो अपनी दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी और सून्दरी को स्वयं कलाओं की शिक्षा दी थी।
बौद्ध और जैन आगमों में धार्मिकदृष्टि से नारी को पुरुष के समकक्ष माना गया । नर एवं नारी दोनों को अनगारावस्था में साधना करने तथा मुक्ति या वीतरागता प्राप्त करने का समान अधिकार दिया गया है। धार्मिक क्षेत्र में नारी को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त होने से पुत्री के जीवन-विकास के लिए वह वरदानरूप सिद्ध हया। पुत्री-वर्ग ने इस नये धार्मिक अधिकार का सर्वाधिक उत्साह के साथ उपयोग किया ।
में परिवार में माता के आचार-विचार-संस्कारों की विरासत कन्याओं को
परिवार में पुत्री अपनी माता के अनुशासन में रहती थी, इस कारण उसे माता के प्राचार-विचार एवं धार्मिक संस्कार विरासत में मिलते थे।
जनयुग में स्वतंत्र धार्मिक जीवन के संस्कार साधुवर्ग से
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पारिवारिक जीवन में माताओं द्वारा कन्याओं के हृदय में धार्मिक भावना उत्पन्न करने की प्रथा का उल्लेख बौद्धागमों में पाया जाता है। जैनागमों में नहीं । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जैनागमों के काल तक नारी-जीवन विकसित हो चुका था, उनके प्रति उत्तरवैदिक कालीन व्यवहार प्रायः समाप्त हो चुका था। अतः वे माताओं से धार्मिक शिक्षण न पाकर भी साधु-साध्वियों के पास जा कर जीवन धर्ममय एवं सुख-शान्ति से व्यतीत कर लेती थीं।
यही कारण है कि कन्याएँ बाल्यावस्था में धार्मिक पुरुषों-साधु-साध्वियों के उपदेश एवं दर्शन से जो धार्मिक आचार-विचार के संस्कार पाती थीं, अपनी युवावस्था में वे उसी का परिशीलन किया करती थीं। अगर कोई धर्मसम्बन्धी शंका जाग्रत होती तो उसके समाधानार्थ धार्मिक महापुरुषों के पास जाती थीं। 'चन्दी' नामक राजकुमारी एक कथन के स्पष्टीकरण के लिए ५०० कुमारियों के साथ तथागत बुद्ध के पास गई थी। जयन्ती राजकुमारी ने भगवान महावीर के पास जाकर गम्भीर तात्त्विक एवं धार्मिक शंकाएँ प्रस्तुत करके
१. सद्धा भिक्खवे.....तादिसा अय्ये भवाहि यादिसा खुज्जुत्तरा च उपासिका.... ।
अगारस्मा अवगारियं पव्वजसि, तादिसा अय्ये भवाहि यादिसा खेमा च भिक्खणी उप्पल
वण्णा, का' ति ।-संयुत्तनिकाय २।१९६-१९७ २. साहं भंते ! भगवंतं पुच्छामि....अंगुत्तरनिकाय २।३०१
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १७७ समाधान पाया था। ये और ऐसे उदाहरण पुत्रीवर्ग की धार्मिक बुद्धि-विकास के ज्वलन्त प्रमाण हैं। जैन-बौद्धयुग में कन्याप्रव्रज्या के लिए प्रयत्नशील
उत्तरवैदिककालीन प्रभाव के कारण बौद्धयुग में नारी की पराधीनता एवं कष्टापन्न दशा दृष्टिगोचर होती थी। अतः उससे मुक्ति पाने के लिए कन्याएँ धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील होने लगी। विवाहित हो जाने पर तो प्रव्रज्या की इच्छुक स्त्री को पति की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक हो जाता था । जबकि कन्याएँ अनायास ही माता-पिता प्रादि अभिभावकों से प्रव्रज्या की अनुमति प्राप्त कर लेती थीं। यही कारण था कि बौद्ध और जैन युग में अनेक कन्याओं ने विवाहित न होकर दीक्षा ग्रहण की थी। जनयुग तक स्त्री की अवस्था उन्नत होने से केवल वे ही कन्याएँ साध्वीजीवन व्यतीत करने के लिए उद्यत होती थीं, जिन्हें ज्ञानप्राप्ति की तीव्र लालसा होती थी, या जो अविवाहित रह जाती थीं।
पुत्री-जीवन से सम्बद्ध उत्सव
ज्ञाताधर्मकथा में पुत्री के जीवन से सम्बन्धित 'वर्षगांठ' महोत्सव तथा चातुर्मासिक स्नान आदि का उल्लेख मिलता है । यद्यपि ऐसे उत्सवों का सम्बन्ध राजघराने की पुत्रियों से दृष्टिगोचर होता है, तथापि पुत्री को प्राप्त सामाजिक मान्यता इन उदाहरणों से ध्वनित होती है।५
कन्याओं की शिक्षा
जैनागमों में कन्याओं को कलाचार्य के पास भेजकर शिल्प एवं कला को शिक्षा देने की प्रथा नहीं थी, पुत्र को ही कलाचार्य के पास भेजने के उल्लेख मिलते हैं। इसका मुख्य कारण यह था कि उस युग में जीविकोपार्जन का कार्य पुरुष ही करते थे, कुलस्त्रियाँ नहीं। उस युग में शिल्प एवं कला से विहीन पुरुष को घर बसाने के अयोग्य समझा जाता था, इसलिए शिल्पादि के शिक्षण का महत्त्व पुरुषों के लिए था, स्त्रियों के लिए नहीं । यद्यपि जैनागमों में थावच्चा, भद्दा अादि कुछ सार्थवाहियों के स्वयं व्यापारादि करने के उल्लेख प्रापवादिक रूप में मिलते हैं, किन्तु कन्याओं को जीविकोपार्जन में सहायक शिल्पादि का शिक्षण देने की प्रथा प्रायः नहीं थी।
__ महिलाओं के लिए निर्धारित ६४ कलाओं पर दृष्टिपात करने से इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि कन्याओं के भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए उन्हें पतिकुल के प्राचार३. भगवतीसूत्र श. १२, उ. २
४. संयुत्त० ११२८-२९ - ५. तत्थ णं मए....मल्लीए संवच्छर-पडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्रपुव्वे.
-नायाधम्मकहानो ११८७३ .."सुबाहुदारियाए कल्ल चाउम्मासिय-मज्जणए भविस्सइ ।-वही शा७६ ६. नायाधम्म १३५१५८, अनुयोग ३।१७८ । ७. ....चोसटुिं महिलागुणे-जम्बूद्वीप० २।३०
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १७८
विचार एवं सदाचरण का शिक्षण दिया जाता था। ऐसे शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु कभी-कभी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा भी दिलाया जाता था। पतिकूल के सभी सदस्यों के प्रति सम्मान एवं प्रात्मीयता प्रदर्शित करने, पति के पोष्य एवं कर्मकरों के प्रति उचित व्यवहार करने तथा पति के आन्तरिक कार्यों में निपुणता एवं पति द्वारा उपाजित धन तथा साधनों की सुरक्षा में दक्षता दिखाने की शिक्षा भी उसे कन्याकाल में दी जाती थी। राजघराने में जाने वाली कन्याओं को पतिकुल के अनुरूप प्रशिक्षण देने हेतु कन्याओं को अन्त:पुर में रखा जाता था। अन्तकृदृशांग सूत्र में सोमा दारिका के उल्लेख से यह स्पष्ट है।
२-वधू-जीवन
नारी का दूसरा रूप वध-जीवन है। नारी पतिकल में पत्रवध के रूप में प्रायः पदार्पण करती थी। इस अवस्था में पतिकुल में कर्तव्यनिष्ठा और मधुर व्यवहार के द्वारा वह पतिकुल में प्रतिष्ठा अजित करती थी, जिसके लिए परिवार के सभी सदस्यों, विशेषरूप से सास-ससुर एवं पति का सम्मान करना आवश्यक होता था।
बौद्धयुग में वधू सास-ससुर के कठोर नियंत्रण में अपना जीवन-यापन करती थी। जब कोई कुलपुत्र प्रव्रज्या लेने की इच्छा व्यक्त करता था, तो उसके माता-पिता उसे समझाते थे, किन्तु परिवार में पुत्रवधु के रूप में रहने वाली उसकी पत्नी उसे रोकने के लिए प्रयास नहीं करती थी, यहाँ तक कि पुत्रवध प्रव्रज्या के लिए जाते समय पति से बात भी नहीं करती थी।'
जिस प्रकार पुत्री, गृहपत्नी, विधवा आदि नारीवर्ग को धर्माचरण करने की अनुमति एवं सुविधाएँ मिल जाती थीं, उस प्रकार की अनुमति एवं सुविधाएँ बहुत ही कम पुत्रवधुनों को उपलब्ध होती थीं। अधिकांश वधुनों को सास-ससुर की अनुमति के बिना कार्य करने पर कठोर दण्ड या उपालम्भ भी मिलता था। बौद्धनागमों के अनुसार एक पुत्रवधू ने श्रमण को स्वेच्छा से रोटी दे दी, यह बात सास को मालम हुई तो उसने पुत्रवधु को फटकारा कि तू अविनीत है, श्रमण को रोटी देते समय मुझसे पूछने की इच्छा नहीं हुई आदि । फिर उसने मुसल से पुत्रवधू को इतना पीटा कि बेचारी बहू मर गई । यहाँ तक कि वधू को कोई उत्तम कार्य
८. ....यथाम्हि अनुसिट्टा-थेरीगाथा १५।११४०९ ९ इमा मे भंते ! कुमारियो पतिकुलानि गमिस्संति । प्रोवदतु....अनुसासतु तासं....यं तासं
अस्स दीघरत्रं हिताय सुखाया ति ।-अंगुत्तर० २।३०३ १. (क) अथ खो....मातापितरो एतदवोचुं....त्वं खोसि, तात ! ....अम्हाकं एकपुत्तको.... किंपन मयं जीवंतं अनुजानिस्साम, अगारस्या अनगारियं पव्वजाय ?
-पारा. प. १७, मझिम. २।२८३ (ख) तए णं तं....अम्मापियरो एवं वयासी....तो पच्छा मव्वइससि–णायाधम्म.११११२८ २. विमा. १॥३१॥३०९-३१३ ३. इतिस्सा सस्सु परिभासि अविनीतासि त्वं वधू । न म संपुच्छितुं इच्छि, समणस्स ददामहे । ततो मे सस्सू कूपिता पहासि, मुसलेन मं । कटंगच्छि अवधि में नासक्खिं जीवितं चिरं ।।
-विमा. ११२९२९२-२९३
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भी करना होता तो सास सुसर की अनुमति प्राप्त करना मावश्यक होता था। कभी-कभी वधू के रूप में लाई गई नारी से दासी का काम भी लिया जाता था। यही कारण है कि वधू श्वसुर को देख कर भय से कांपती रहती थी।
ने
जैनागम में भी इसी तथ्य पर प्रकाश मिलता है । सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार एक वधू अन्यमनस्क होकर ससुर की उपस्थिति में भोजन परोसते समय थोड़ी-सी त्रुटि कर दी थी, जिस पर परपुरुष पर प्रासक्त होने की शंका से उसे घर से निकाल दिया गया । "
वस्तुतः समुराल में पुत्रवधू को प्रातः उठकर सास-ससुर को प्रणाम कर उनके चरणों की रज को मस्तक पर धारण करना, उनके सोने के बाद सोना और उठने से पूर्व उठना, भूत्य के समान उनकी प्रज्ञाओं का पालन करना तथा उनके साथ मधुर भाषण एवं प्राचरण अनिवार्य था।
करना
इसके अतिरिक्त पुत्रवधू से यह भी अपेक्षा रखी जाती थी कि सास ससुर के जीवनकाल में परिवार के सभी सदस्यों के प्रति स्वामित्व प्रदर्शन की भावना का पूर्णतया त्याग कर यथायोग्य सम्मान प्रदर्शित करे। यह उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा और स्नेहप्राप्ति का परिचायक था ऋषिदासी ने इसी प्रकार का आचरण करके ससुर के हृदय को जीत लिया था । इस कारण पुत्र के हठ के कारण ऋषिदासी का ससुर उसे उसके पीहर में छोड़ते समय बड़ा दुःखी होता था।
कुछ पुत्रवधुएँ ससुर के संरक्षण में बिना किसी बाधा के जीवनयापन कर लेती थीं। जैनागम में स्त्रियों के भेदों में श्वसुरकुल से रक्षित स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है ।'' सासससुर की उपस्थिति में पुत्रवधू प्रपने पति द्वारा जुए के दाव पर लगाई गई हो या प्रताड़ित करके घर से निकाल दी गई हो, ऐसे उदाहरण प्रायः नहीं मिलते। बल्कि कभी-कभी ससुर अपने पुत्र के माध्यम से पुत्रवधुत्रों को जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ प्रीतिदान के रूप में दिया करता था। जैनागम में ऐसा उल्लेख मिलता है।"
४. तुम्हं त्विदं इस्सरियं प्रथो मम, इतिस्सा सस्सु परिभासते मम ।
वही
५. पाथ्यो इमं कुमारिक दासिभोगेन भुज्जत्थ... गच्छ.... त्वं न मयं तं जानामा ति
६. सुजिसा ससुरं दिस्वा संविज्जति संवेगं प्रापज्जति । - मज्झिम
७. (क) सूत्रकृतांग ११४।१।१५ (ख) सू. टी. भा. २, पृ. १२८
८. ( क ) यस्स वो माता- पितरो भत्तुनो....तस्स पुट्ठायिनियो पच्छानिपातिनियो किकार पट्टिस्साविनियो मनापचारिनियो पियवादिनियो.... - अंगुत्तर० २ २०३
(ख) या मय्ह सामिकस्स भगिनियो भातुनो परिजनो वा । तमेकवरकं पि दिवा, उम्बिग्गा ग्रासनं देमि || बेरीगाथा. १५/२/४१.
- वहीं, प. १९६-१९७ ११२३७
―
९. तं मे पितृघरं परिवसिसु विमना दुखेन श्रधिभूता । पुत्तमनुरक्खमाना, जिताम्हसे रूपिनि लक्खि ॥ थेरीगाथा १५।१।४२१ औपपातिक सू. १६७
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१०. तं जहा अंत..... ससुरकुलर विखयाओ । ११. तए णं तस्स मेहस्स सम्मापियरो इमं एयास्वं पीइदाणं वलयंति....तए णं मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए .... परिभाएउं दलयइ । —नायाधम्मका १११।२४
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एक परिवार में एक से अधिक पुत्रवधुएँ होने पर उनके कार्यों का विभाजन ज्येष्ठत्व के आधार पर न होकर बुद्धि के आधार पर होने के उदाहरण जैनागम 'नायाधम्मकहा' में मिलते हैं । उझिया भक्खिया, रक्खिया और रोहिणी की कथा इस पर प्रकाश डालती है। १२
पुत्रवधू गृहपत्नी के रूप में ।
पुत्रवधू सास-ससुर के दिवंगत हो जाने के पश्चात् अथवा कभी-कभी पुत्र-पौत्रादि हो जाने पर 'गृहपत्नी' के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ करती थी।
जनयुग और बौद्ध युग में गृहपत्नी को पति के समान धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त हो गया था। 3 गृहस्थावस्था में जिस प्रकार पुरुष को उपासक या श्रावक बनकर धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था, उसी प्रकार नारी को भी उपासिका या श्राविका बनकर धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था। बुद्ध ने सद्गुणों से सम्पन्न गहपत्नी को सामाजिक दष्टि से श्रेष्ठ बतलाया।१४ पत्नी के हित का ध्यान रखकर कार्य करने वाले पुरुष को सत्पुरूष बतलाया गया है।'५ फलतः गृहपत्नी का बौद्धयुग में पुन: व्यक्तित्व विकसित होने लगा। वह समाज में सम्मानित समझी जाने लगी। घर की संचालिका बनकर घर में नियम-संयम का पालन करना-करवाना उसका प्रमुख कार्य हो गया। वह पति की हितचिन्तिका एवं सर्वश्रेष्ठ मित्र मानी जाने लगी।" वह पति के द्वारा अजित सम्पत्ति की संरक्षिका भी बन गई । यदि पति नैतिकता एवं धर्म के विरुद्ध कार्य करता तो गृहपत्नी रूठ भी जाती थी और नीति-धर्म-विरुद्ध कार्य न करने को बाध्य कर देती थी।१७ अत: गहपत्नी का कर्तव्य थापति के सम्मानित व्यक्तियों का सम्मान करना, पाभ्यन्तरिक कार्यों में दक्षता प्राप्त करना, परिवार के सदस्यों का उचित ध्यान रखना तथा धन-धान्यादि का रक्षण करना प्रादि ।
१२. जे?....उज्झिइयं....कुलघरस्स छारुज्झियं....ठावेइ, भोगवइया....महाणसिणि ठावेइ.... रक्खिइयाए....भंडागारिणि ठवेइ, रोहिणीयं....बहूसु कज्जेसु....पमाणभूयं ठावेइ ।
-नाया. २०७।६८ १३. (क) तएणं सा सिवानंदा....समणोवासिया जाया....--उपासकदशांग. १६२
(ख) ता लोके पढम उपासिका अहेस ....-महावग्ग. पृ. २१ १४. इत्थी पि हि एकच्चिया, सेय्या पोस जनाधिप ! मेधाविनी सीलवती सस्सुदेवा पतिव्बता ।।
तस्सा यो जायति फोसो, सूरो होति दिसपत्ति । तादिसा सुभगिया पुत्तो। रज्जपि
अनुसासती ति ।-संयुत्तनिकाय ११८५ १५. सप्पुरिसो""पुत्तदारस्स प्रत्थाय हिताय सुखाय होता है।-वही २।३१२ १६. पुनावत्थु मनुस्सानं भरिया च परमो सखा ।---संयुत्त० १।३५ १७. (क) तएणं सा भद्दा धणं सत्थवाह नो पाढाई""तुसिणिया परम्मुही संचिट्ठह ।
नाया० ११२।४६ (ख) तो णं तुब्भे मम एयमट्ठ परिकहेह; जा णं अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करेमि ।
-निरयावलिका० शश२६
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८१
अतः ऐसी सद्गहिणी के प्रति पति का भी कर्त्तव्य था, कि वह परस्त्री-गमन न करके, तथा ऐश्वर्य एवं अलंकारादि सामग्री प्रदान करके पत्नी को सन्तुष्ट एवं सम्मानित करे । ८
फलत: पतिकुल में प्राप्त सम्मान एवं स्वतन्त्रता के कारण गृहपत्नियों के स्वभाव एवं पाचरण में विभिन्नता प्रा गई। बौद्ध आगमों में स्वभाव की दृष्टि से पत्नी सात प्रकार की बताई गई है- (१) वधकसमा (पति की हत्या के लिए उत्सुक, परपुरुषगामिनी दुष्ट चित्ता) (२) चोरसमा (पति के धन-धान्यादि चुराने छिपाने वाली) (३) आर्यसमा (पति के सेवकों के प्रति प्रभत्व प्रदर्शनकी, आलसी एवं लालची), (४) मातसमा (पात्मीयता पूर्वक रक्षा करने वाली), (५) भगिनी समा (गौरवशील, लज्जावती, पति की इच्छा के अनुरूप प्राचरणकी), (६) सखी-समा (पति को देखकर प्रसन्न रहने तथा सखीसम व्यवहार करने वाली) एवं (७) दासी-समा (दासी के अनुरूप आचरणकी, पति के कटुतम व्यवहार को भी शान्ति से सहन करने वाली।) अंगुत्तरनिकाय में सुजाता नामक कुलवधू के असंयत प्राचरण को सुधारने की दृष्टि से उक्त भेदों को बताया गया है। सुजाता ने अन्त में दासीसमा बन कर रहने का निश्चय किया था ।२०
ऐसा प्रतीत होता है, बौद्धयुग में पराधीनता एवं हीनता की भावना से मुक्ति मिलने पर कतिपय गहपत्नियाँ स्वच्छन्द बन गई, पति का वध करने को उत्सुक हो गई।
परन्तु जैनयुग तक गृहपत्नियों की ऐसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति समाप्तप्रायः हो गई। जैनागमों में स्वच्छन्दाचरण करने वाली पत्नी के सम्बन्ध में बहुत ही कम उल्लेख मिलते हैं। उदाहरणार्थ-महाशतक' श्रावक की पत्नी रेवती ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सौतों की हत्या करके उनकी सम्पत्ति पर अपना कब्जा कर लिया और पति की इच्छा के खिलाफ पापाचरण से युक्त जीवन प्रारम्भ कर दिया। रेवती के इस दुष्टाचरण के पीछे उसकी इच्छा पति के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोग भोगने की थी। उसने अपने पति को मारने या उसका बुरा करने का प्रयास नहीं किया। फिर भी रेवती के दुष्ट आचरण से क्रुद्ध होकर पति ने उसे जब शाप दिया तो वह भयभीत हो उठी।" किन्तु ऐसा उदाहरण अपवाद रूप है।
१८. ये तु भत्तु गुरुनो भविस्संति''ते सक्करिस्साम । ये"अब्भंतराकम्मंता"तत्थ दक्खा
भविस्साम""यो अब्भतरो अंतोजनो"तेसं जानिस्साम""ये धनं ते प्रारविखएण गृत्तिया
संपदिस्साम ।-अंगुत्तर १।३०३-३०४ १९. दधकसमा 'दासीसमा, इमा सत्त "पुरिसस्स भारियायो।-अंगुत्तर० ३।२३३ २०. अंगुत्तरनिकाय ३।२२५ २१. (क) तए णं सा रेवई."छ सवत्तीयो सत्थप्पभोगेण उद्दवेइ'छ सवत्तीप्रो विसप्पनोगेण
उहवेइ"तासि सवत्तीणं हिरणकोडिं""सयमेव पडिवज्जइ । महासयएणं सद्धि
उरालाई भोगाभोगाइं भुंजमाणी विहरइ । --उपा० ८।२३५ ।। (ख) रूठं णं मम महासयए'न नज्जइ णं अहं केणवि कुमारेणं मारिज्जस्सामि
त्ति कटट भीया"झियाइ। -उपा० ८।२५२
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चतुर्थ खण्ड / १८२
जैनागमों में अधिकांश उदाहरण पति के प्रति पत्नी के विनम्र, आज्ञाकारिणी होने के मिलते हैं । आशय यह है कि जैनयुगीन गृहपत्नी में स्वतंत्रता के साथ-साथ शालीनता भी आ गई थी। फिर भी पत्नी पर पति का प्रायः पूर्ण प्रभुत्व रहता था।
आगमकालीन समाज में पत्नी पति की निजी सम्पत्ति (परिग्रह) के रूप में मानी जाती . थी। यही कारण है कि पत्नी अपने पति के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकती थी। कोई पत्नी दुराचारिणी होती तो पति उसे मार भी डालता था। कभी-कभी तो बलात्कार का शिकार बनी हुई निर्दोष पत्नी को भी परपुरुष से दुषित होने के कारण मार डाला जाता था।२२
पति पर पत्नी का प्रभुत्व
परन्तु प्रागमों में पति पर पत्नी के प्रभुत्व की चर्चा भी की गई है। ऐसी पत्नी, अपने रूप, भोग, ज्ञाति, पुत्र, एवं शीलबल से युक्त होती थी।२३ तरुण पत्नी भी अपने वृद्ध पति पर प्रभुत्व करती थी। राजा प्रोक्काक ने अपनी युवा पत्नी के बहकावे में आकर प्रथम पत्नी के पुत्र-पुत्रियों को देश निकाला दे दिया था।२४ ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग में पति पर पत्नी का प्रभुत्व होना पत्नी के लिए गौरवसूचक माना जाता था। उस युग में कई पत्नियाँ अपने पति को अनुकल बनाने या वश में करने के लिए विद्या, मन्त्र, चूर्ण, योग, औषध आदि का भी प्रयोग करती थीं।
दाम्पत्य-जीवन
दाम्पत्य-जीवन की सुदृढ़ता के लिए पति का अतिक्रमण न करना पत्नी के लिए आवश्यक होता था।२५ नकुलपिता को मरणशय्या पर व्याकूल देखकर उसकी पत्नी ने जब विश्वास दिलाया कि वह मरणोपरान्त भी उसका अतिक्रमण नहीं करेगी। फलतः नकुलपिता पत्नी से आश्वस्त होकर स्वस्थ हो गया।२६ कुलीन दम्पती के कार्यों को देख कर यही अनुमान होता था कि वे केवल शरीर से भिन्न किन्त पारिवारिक प्राचार-विचारों से अभिन्न थे। कभी-कभी पति-पत्नी में धार्मिक मतभेद के कारण मनमुटाव भी उत्पन्न हो जाता था।
२२. (क) मय्हं पजापति अतिचरति, तं पातेस्सामो ति । जानाही ति ।—पाचि० पृ० ३०१ (ख) तएणं छ गोट्ठिल्ला पुरिसा'बंधुमईए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति"अज्जुणए छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएमाणे · विहरइ ।
---अन्तकृद्० ६।१०४-१०६ २३. पंचहिं बलेहि समन्नागतो मातुगामो सामिकं अभिभुय्य वत्तति । -संयुत्त० ३।२१९ २४. भूतपुव्वं अम्बटू, राजा प्रोक्काको "जेट्टकुमारे रस्मा पब्बाजेसि । -दीघ० ११८० २५. (क) .."ठानानि दुल्लभानि अकतपुञ्जन मातुगामेन'"सामिक अभिभुय्य वत्तेय्यं ।
-संयुत्त० ३।२२१ (ख) नं अत्थियाइं मे अज्जाओ ! केइ कहिंचि चुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा
हियउड्डावणे."गुलिया वा प्रोसही वा"इदा भवेज्जामि।-नायाधम्म.१।१४।१०४ २६. सिया खो पन ते,गहपति, एवमस्स-नकुलमाता गहपतानी ममच्चयेन अझ घरं गमिस्स
तीति, न खो पनेतं""एवं दृट्टव्वं ।-अंगुत्तर० ३।१७
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८३
जैन-बौद्धयुग धार्मिक क्रान्ति का युग था। अत: उस समय धार्मिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करते थे।
सपत्नीकृत उपद्रव
आगमकालीन समाज में बहुपत्नी-प्रथा प्रचलित थी। उस समय राजाओं और धनाढ्यों की तो अनेक पत्नियाँ होती ही थीं, साधारण व्यक्ति भी पत्नी के वन्ध्या होने पर दूसरी पत्नी रख लेता था। फलतः इन सपत्नियों के कारण परिवार उपद्रवों का स्थल बन जाता था। पति की प्रिय-पत्नी अपनी अहितैषी सौतों के विद्वेष के कारण सदैव संतप्त एवं पीड़ित रहा करती थी। वन्ध्या पत्नी प्रायः अपनी गर्भवती सौत के गर्भ को नष्ट करने को उद्यत रहती थी। इसके विपरीत पति की प्रिय-पत्नी भी अपनी सौतों का नाश करने का प्रयास करती थी। रेवती ने इसी दुर्भावना से अपनी १२ सौतों का सफाया कर दिया था। सिंहसेन की ५०० रानियाँ थीं, जिनमें श्यामा उसकी सर्वाधिक प्रिय थी। फलतः उपेक्षित रानियों की माताओं ने अपनी पुत्रियों की दयनीय दशा दूर करने हेतु श्यामा को मार डालने की योजना बनाई । श्यामा को मालम पड़ने पर उसने अपने पर आसक्त सिंहसेन को बहका कर अन्य रानियों की माताओं को मरवा डाला था। इन कारणों से सपत्नी का न होना पत्नी के लिए सौभाग्य एवं पुण्यफल माना जाता था ।२७
गहपत्नी के अच्छे-बुरे कार्यों की समाज में प्रतिक्रिया
गहपत्नी के अच्छे या बुरे कार्यों की प्रतिक्रिया केवल परिवार तक सीमित न रह कर समाज में भी होती थी। वैदेहिका नाम की गृहपत्नी के सद्व्यवहार से समाज में उसकी कीति फैल गई, उसके गुणों की चर्चा होने लगी, किन्तु जब उसने अपने दुर्व्यवहार का परिचय दिया तो समाज में उसकी अपकोर्ति होने लगी। नागश्री ब्राह्मणी द्वारा मनिवर धर्मरुचि को दिये गये कडवे एवं जहरीले तुम्बे के पाहार से धर्मरुचि मुनि का देहावसान हो गया तो समाज में उसकी अपकीर्ति बढ़ गई । समाज में जिसकी अपकीर्ति व्याप्त हो जाती थी. उस पत्नी को कभी-कभी तो मार-पीट कर घर से निकाल दिया जाता था।२८
२७. (क) उपासकदशा० ८।२३५ (ख) एवं खलु सामी सिंहसेणे राया सामाए देवीए मूच्छिए ४ अम्हं धयानो नो पाढाइ।
तं सेयं खलू अम्हं सामं देवि"जीवियाग्रो ववरोवित्तए। तएण"सीहरन्ना
प्रालीवियाई "कालधम्मुणा संजुत्ताई।-विवागसुयं० ११९।१६५-१७१ २८. (क) वेदेहिकाय, भिक्खवे, गृहपतानिया एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुगतो."सोरता
वेदेहिका गृहपतानी निवाता उवसंता"।-मज्झिमनिकाय० १११६७ ' (ख) चंडी वेदेहिका गहपतानी"।-वही, १।१६९ (ग) बहजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ-धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाग्रो ववरोविए । "तएणं तं माहणा तज्जिता तालिता सयानो गिहाप्रो निच्छभंति ।
-नायाधम्म० १५१६।११३
धम्मो दीयो संसार समुव में धर्म ही दी
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चतुर्थ खण्ड | १८४ गृहपत्नी का वैयक्तिक धन
प्राचीनकाल में कुछ सम्पत्ति पत्नी को पति की ओर से मिलती थी, कुछ सम्पत्ति उसे उसके पीहर से स्त्रीधन के रूप में मिलती थी। वह उसकी निजी सम्पत्ति कहलाती थी। जिसमें से वह अपनी इच्छानुसार खर्च कर सकती या किसी को पुरस्कारस्वरूप दे सकती थी। . जीवक ने जब सेठ की पत्नी को स्वस्थ कर दिया तो उस सेठ की पत्नी ने उसे चार हजार रुपये पुरस्कार में दिये थे। पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी निजी सम्पत्ति पर प्रायः उसके पुत्र का अधिकार हो जाता था।
३ मातृ-जीवन
माता सभी धर्मों, दर्शनों और समाजों में पादरास्पद रही है। इसका कारण यह है कि माता अपने पुत्र-पुत्री के लिए जो कष्ट सहती है, जो त्याग करती है, जो वात्सल्य-वर्षा करती है, हितशिक्षण और संस्कार देती है, वह अन्य व्यक्ति के लिए अशक्य है। जन्म लेने से पूर्व और पश्चात् सन्तान का सबसे अधिक सम्बन्ध माता से ही रहता है। इसीलिए इसे स्वर्ग से भी बढ़कर माना है। अतः मातृजीवन ही नारी का सबसे गौरवपूर्ण जीवन है।
मातृ-भक्ति
बौद्ध और जैन आगमों में माता-पिता के उपकारों से उऋण होना अत्यन्त दुष्कर बताया गया है।' बौद्धागमों में माता-पिता का पोषण करना, उनको प्रसन्न रखना, पुण्यकारक कृत्य माना गया है। ऐसे व्यक्ति को पण्डित एवं सत्पुरुष कहा गया है। उन कुलों को उत्तम माना जाता था, जिनमें माता का सम्मान होता था। जो समर्थ होने पर भी माता-पिता का पोषण नहीं करता, उसे वृषल (शूद्र) माना गया है। जनयुग में माता-पिता
९. (क) इदं ते तात रट्टपाल । मत्तिकं धनं अञ पेत्तिकं ।। -मज्झिम० २।२८८ (ख) तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलधरियानो अट्ठहिरण्णकोडीप्रो"।
-उपा० ८.२३० (ग) महाबग्ग पृ० २८९ १. (क) द्विन्नाह, भिक्खवे, न सुप्पतिकारं वदामि-मातुक पितुक । –अंगुत्तर०
(ख) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।। (ग) तं भुजाहि ताव जाया ! विपुले "जाव""ताव वयं जीवामो तो पच्छा पव्वइ
स्संसि । –नाया० ११११२८ २. (क) धम्मेन भिक्खं परियेसित्वा, मातापितरो पोसेति, बहुसो पुञ पसवती ति ।
-संयुत्त० १११८१ (ख) द्वीसु, भिक्खवे, सम्मापटिपज्जमानो पंडितो वियत्तो सप्पूरिसो होति."मातरि च
पितरि च ।--अंगुत्तर० ११८३ (ग) ""साहुनेय्यानि तानि कुलानि येसं पुत्ता मातापितरो अज्झागारे पूजिता होति ।
-वही० १२२ ३. यो मातरं पितरं वा जिण्णकं गतयोब्बनं । पहु संतो न भरति तं जव्या बसलो इति।
सुत्तनिपात० १७१२४
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १८५
की सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था । श्रमण भगवान् महावीर ने गर्भ में हलनचलन करने से माता को कष्ट होगा, जान कर हलन चलन बंद कर दिया था, किन्तु इससे माता को अपार चिन्ता हुई, जान कर पुनः हिलने-डुलने लगे। माता के उपकारों को स्मरण कर उन्होंने गर्भावस्था में ही यह प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। यह है मातृभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण । तत्कालीन समाज में यह मान्यता प्रचलित थी कि माता-पिता की सेवा करने से इहलोक और परलोक में शान्ति मिलती है ।४
:
पुत्ररक्षण ही उसका सर्वस्व
माता का अद्भुत स्नेह जैनागमों में माता के
स्नेह का हृदयस्पर्शी वर्णन
मिलता है। जब कोई पुत्र प्रव्रज्या लेने की बात कहता था कि उसे सुनते ही माता मूच्छित हो जाती थी, चैतन्यावस्था में आने पर वह विभिन्न उपायों से समझा-बुझाकर उसे प्रव्रज्या लेने से रोकने का प्रयास करती थी। माता ही परिवार में ऐसी सदस्या थी, जिसे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय अपने पुत्र का जीवन था । माता अपने जीवन की बाजी लगाकर भी पुत्र की रक्षा करती थी, फिर भले ही उसका पुत्र हत्यारा, प्रत्याचारी, दुष्ट एवं अनाचारी हो। जैनयुगीन माता की यही इच्छा रहती थी कि वह अपने जीवन का उपयोग अपने पुत्र के संरक्षण में करे।
जैनागमों में मातृ-सेवा का अनुपम उदाहरण
यद्यपि बोद्ध धागमों में मातृ सेवा का उपदेश तो मिलता है, किन्तु मातृ-सेवा के विशद एवं प्रयोगात्मक उदाहरण नहीं मिलते; जबकि जैनागम 'विवागसुयं' में पुष्यनन्दी राजा के द्वारा की गई मातृसेवा का वर्णन मिलता है कि वह अपनी माता के पास जाकर चरण-वन्दन करता था, तत्पश्चात् शतपाक—सहस्रपाक तैलों से उसके शरीर की मालिश करके सुगन्धित मिट्टी से उबटन कर नहलाता था। फिर उसे भोजन कराता था। माता के भोजन कर लेने के बाद स्वयं भोजन करता था ।
माता की सम्पत्ति एवं प्रभुता
बौद्धागमों में माता की सम्पत्ति का उल्लेख है जो उसके पीहर से उसे प्राप्त होती थी । जिसे वह स्वेच्छा से व्यय कर सकती थी। गृहस्वामिनी भी वही हो सकती थी, जो किसी बच्चे की मां हो। तभी उसे परिवार की प्रभुता प्राप्त होती थी। सन्तानहीन पत्नी को गृहस्वामिनी नहीं माना जाता था।
४. (क) कल्पसूत्र
(ख) मायरं पिवर पोस एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं ताय ! जे पालेति य मावरं । गांग० १।३।२।४
५. तरणं सा धारिणी देवी कोट्टिमतलं सिसव्वं गेहि धसत्ति पडिया नायाधम्म० १।१।२७ ६. (क) बुद्दक० ९७
( ख ) थेरगाथा, पृ० २०६ -२०७
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / १८६
मातृवध : घोर निन्दनीय कृत्य
बौद्ध-पागमों में मातृ-वध-सम्बन्धी अनेक उल्लेख मिलते हैं। माता का वध जैसा काला कर्म करने वाला कृष्णफल का भागी, घोरपापी माना गया है। मातृवध करने वाले को भिक्षसंघ में प्रविष्ट नहीं किया जाता था। बौद्ध-युग में इस प्रकार के निकृष्ट कर्म का . अस्तित्व था, जबकि जैनयुग में मातृवध जैसा दारुण पाप इस मात्रा में नहीं होता था। धार्मिक पुरुषों को उसकी निन्दा करने का अवकाश मिले । जैनागमों में मात-वध सम्बन्धी उल्लेखों का प्रभाव सा है। यद्यपि विरक्तात्मा पुत्र माता-पिता की इच्छा की परवाह न करके प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता था, लेकिन जीवित हों तो माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य था । इसलिए कहा जा सकता है कि जैनयुग में माता की सेवा को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था।
मातृत्व-लालसा
जैनयुगीन नारियों में मातृत्व-प्राप्ति के हेतु सुलसा आदि द्वारा किये गए प्रयत्नों के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
४. विधवा-जीवन
वैधव्यजीवन व्यावहारिक दृष्टि से तो अमंगलसूचक माना जाता है किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से रत्नत्रय की एवं मोक्षरूप लक्ष्य की प्राप्ति के हेतु साधना-पाराधना के लिए वह महत्त्वपूर्ण स्वर्णकाल है। विधवाओं की स्थिति दयनीय या अदयनीय ?
यद्यपि वैदिक और उत्तरवैदिककाल में समाज में विधवाओं की स्थिति शोचनीय, दयनीय एवं अमंगलसूचक हो गई थी। उनका विवाहादि उत्सवों या समारोहों में उपस्थित होना, निषिद्ध था। उनकी सम्पत्ति का अधिकार भी नगण्य था। विशेषतः पुत्रहीन विधवा को वैधानिकरूप से पति के धन पर अधिकार नहीं था।" बौद्धयुग में जातक में वैधव्यजीवन के घोर कष्टों की चर्चा की गई है ।१२
७. ""पूसनंदी राया सिरीए देवीए मायाभत्तए यावि होत्था""देवीए सयपाग-सहस्सयागेहि
तेल्लेहि अभिगावेइ"तएणं पच्छा व्हाइ वा भंजइ वा"। -विवागसुयं० २९।१८१ ८. (क) एकच्चयेन माता जीविता वीरो पिता होति.''इदं वुच्चति कम कण्हं कण्ह विपाकं ।
-अंगुत्तर० २।२५० (ख) मातरं पितरं हत्वा""अनीघो याति ब्राह्मणो।-धम्मपद २११२९४ (ग) मातुघातको, भिक्खवे ! अनुपसंपन्नो, न उपसंपादेतब्बो 'नासेतब्बो ति ।
-महावग्ग पृ० ९१ अन्तकृद्ददशांगसूत्र १०. .."नगरस्स बहिया नागाणि य भूयाणि य"महरिहं पुप्फचणियं करेत्ता'""दारगं वा दारिगं
वा पयायामि तो णं अहं तुह्म.."अणुवड्ढे मि।-नाया० ११११४० तथा विवाग-११७।१३८ ११. धर्म शास्त्र का इतिहास भा० १, पृ० ३३०-३३२ १२. जातक २२।५४७।१८३६-३९
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८७
परन्तु बहुत सम्भव है, जातक का यह कथन वैदिकधर्म-परम्परा से प्रभावित हो । वस्तुतः बौद्ध और जैन युग में विधवा नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय नहीं थी।१३ सामाजिक दृष्टि से उसे बुरा या अमंगलसूचक नहीं माना जाता था। विधवा महिलाएं भी सधवानों के समान परिवार एवं समाज में सभी अधिकारों का उपभोग करती थीं। रंगीन वस्त्रों, आभूषणों का उपयोग, मांगलिक कार्यों में प्रवेश या बालों को कटवा लेने आदि का प्रयोग विधवाएँ नहीं करती थीं, ऐसा उल्लेख जैनशास्त्रों में कहीं नहीं मिलता । यह बात दूसरी है कि विधवा नारी स्वयं अपूर्णता का अनुभव करे या स्वेच्छा से प्रसाधन या शृगार में रुचि न ले। थावच्च ने पुत्र के विवाह जैसे मांगलिक कार्य में मुख्यरूप से भाग लिया था।१४ इसी प्रकार रदपाल तथा सुदिन्न के प्रत्रजित हो जाने पर भी उनकी पत्नियाँ अलंकारादि का उपयोग करती थीं।१५
विधवा किसे कहें ?
जैनागमों में प्राप्त बालविधवा एवं मृतपतिका नामक भेदों से यही भाव व्यक्त होता है कि जो स्त्री किसी भी कारण से पतिविहीन हो जाती थी, उसे विधवा की श्रेणी में रखा जाता था। महावग्ग में प्रवजित पुरुषों की पत्नियों को भी विधवा कहा गया है।१६
विधवा और सतीप्रथा
भारत में अठारहवीं सदी तक सतीप्रथा प्रचलित थी। उस समय तक मृतपति की चिता में जलकर भस्म हो जाना, हिन्दुधर्म में, खासकर ब्राह्मणों व क्षत्रियों में जायज माना जाता था। ७ वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में इस प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तरवैदिककालीन साहित्य के मुख्य ग्रन्थ---रामायण, महाभारत, विष्णुस्मृति आदि ग्रन्थों में अवश्य ही सतीप्रथा-सम्बन्धी छुटपुट एवं अल्प संकेत प्राप्त होते हैं। इतने पर से यह कहना कठिन है कि यह प्रथा जनसामान्य में प्रचलित थी।'८
किन्तु जैन और बौद्ध आगमों में सतीप्रथा का कोई उल्लेख या अनुकूल अभिमत प्राप्त नहीं होता; क्योंकि यदि तत्कालीन समाज में सतीप्रथा का प्रचलन होता तो जीवहिंसा के विरोधी गौतमबुद्ध या भगवान् महावीर अवश्य ही अपने उपदेशों में इसका विरोध करते या इसे पशुबलि की तरह निन्दनीय बताते। अतः स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज में विधवा होने
१३. चुल्लवग्ग पृ० २७३ । १४. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारग"बत्तीसाए इब्भकूलबालियाहिं एगदिवसेणं पाणि
गेण्हावेइ। - नायाधम्म० ११५।५८ १५. एथ तुम्हे वधुयो"तेन अलंकारेन अलंकारोथ'""- मज्झिम० २।२८८, पारा०पृ० २२ १६. (क) अंतो मय-पइयाप्रो बालविहवायो।-प्रौपपातिक पृ०१६७
(ख) वेधव्याय पटिपन्नो"|-महावग्ग० पृ० ४१ १७. धर्मशास्त्र का इतिहास भा० १ पृ० ३४८ ।। १८. वाल्मीकि रामायण ७/१७।१५, महाभारत १२११४८।१० मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहणं धम्मोदीखो वा।-विष्णुस्मृति २५।१४, व्यासस्मृति २।५३-मृतं भरिमादाय ब्राह्मणी वह्निमाविशेत् | संसार समद में
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चतुर्थखण्ड / १८०
पर महिला अपने पति की चिता के साथ जल मरने जैसी प्रथा का पालन नहीं करती थी । उसकी स्थिति दयनीय नहीं थी।
विधवाओं के जीवनयापन के साधन
उस युग में विधवा स्त्री संसार से विरक्त होकर यदि स्वेच्छा से प्रव्रजित होती थी, तब तो उसके समक्ष जीवननिर्वाह का कोई प्रश्न नहीं था । ऐसा न होने पर निम्नोक्त तीन साधनों में से एक का अवलम्बन लेकर विधवा अपना जीवन यापन करती थी
(१) पतिद्वारा अजित संपत्ति से, (२) जाति-कुल का संरक्षण पाकर, या (३) परपुरुष को ग्रहण करके ।
थावच्चा सार्थवाही ने पति के धन को ही जीवनयापन का साधन बनाया था । सोणा भी पति के प्रव्रजित होने पर उसकी सम्पत्ति की स्वामिनी हो गई थी । " ज्ञातिकुल का संरक्षण के ही विधवाएं लेती थीं, जिनके पास स्वतन्त्र जीवनयापन के पर्याप्त साधन नहीं होते थे। ज्ञातिकुल में माता-पिता, भाई-बहन, कुटुम्बी, स्वधर्मी एवं सगोत्रीय जिन विध बाओं के पास न तो पति द्वारा उपार्जित सम्पत्ति होती थी, और न ही जो ज्ञातिकुल से सम्पन्न होती थीं, उनका वैधव्यजीवन कष्टकारक होता था । चन्दा दरिद्र पिता की पुत्री थी, तथा दरिद्र पुरुष को व्याही थी। जिस समय वह विधवा हुई, निःसन्तान थी अतः उसे वैधव्यजीवन में भोजन - वस्त्रादि साधन भी नहीं मिलते थे । पति, पुत्र और ज्ञातिजनों से हीन पटाचारा को तो अनेक कष्टों से पूर्ण वैधव्यजीवन बिताना पड़ा था।
सामान्यतया उच्चकुल की विधवा महिला परपुरुष का श्राश्रय कभी प्रव्रजित पुरुष की नवविवाहिता पत्नी अपने पति की अनुमति से लेती थी । पर यह प्रथा अधिक प्रचलित नहीं थी । २० किसी पुरुष लिए यह स्मरण कराया जाता था कि अभी उसकी पत्नी युवा है। पर कहीं वह परपुरुष के पास न चली जाए ।
विधवाओं का पुनर्विवाह
यद्यपि वैदिककाल में विधवा के लिए पुनर्विवाह का तो नहीं, किन्तु सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए नियोग करने का उल्लेख मिलता है; क्योंकि उस समय सन्तानोत्पत्ति को अधिक
१९. ( क ) तत्थणं बारवईए थाबच्चा नामं गाहावइणी परिवसइ, अड्ढा जाव अपरिभूया । -नायाधम्म० १।५।५८
(ख) बेरी अप० ३२६।२३१
२०. (क) दुग्गताहं पुरे ग्रासि विधवा च प्रपुत्तिका ।
नहीं लेती थी । कभीपरपुरुष को ग्रहण कर
को प्रव्रज्या से रोकने के उसके प्रवजित हो जाने
,
बिना मित्ते हि जातीहिं, भत्तचोलस्स नाधिगं ॥ -- थेरी० ५।१२।१२२ ।
(ख) द्वे पुत्ता कालकता, पती च पंथे मतो कपणिकाय ।
माता पिता च भाता, उम्ति च एकचितकार्य ।
1
खीणकुलीने कपणे अनुभूतं ते दुखं अपरिमाणं ।। वही १०।१।२१९-२२० २१. 'भारिया ते नवा ताय! मासा अन्नं जणं गमे... --- सूयगडांग० १।३।२५
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १८९
महत्त्व दिया जाता था। पति के नि:सन्तान मर जाने पर उसकी वंशपरम्परा को सुरक्षित रखने के लिए देवर या निकट सम्बन्धी से सहवास करना बुरा नहीं माना जाता था। नियोगप्रथा का उद्देश्य यही था। किन्तु जैन-बौद्धयुग में विधवा नारी के लिए पूनविवाह करना सामाजिक दृष्टि से मान्य नहीं था, न ही नियोग-प्रथा मान्य थी, बल्कि इन्हें निन्दनीय समझा जाता था। इसका कारण यह है कि सन्तानोत्पत्ति करना, या वंशपरम्परा चलाना जैनबौद्धयुग में स्त्री या पुरुष के जीवन में अनिवार्य नहीं था। ऐसी स्त्री, जिसका पति मर चुका हो, सम्भवतः अशुभ मानी जाने के कारण कोई भी ऐसी स्त्री को पत्नीरूप में चयन नहीं करता था। इस कारण भी विधवा का पुनर्विवाह जायज नहीं था।
५. भिक्षुणी-जीवन
प्रागमकालीन नारीवर्ग में भिक्षणियों का विशिष्ट स्थान था। नारीसमाज की तत्कालीन व्यवस्था में जैन-बौद्ध-युग में जो धर्मक्रान्ति हुई, उसमें भिक्षणीवर्ग में त्याग, वैराग्य एवं संयम के आदर्श के कारण उसके प्रति समग्र समाज में विशेष आदर एवं आकर्षण हुमा । बौद्ध और जैन भिक्षुणियों में अन्तर
बौद्ध और जैन दोनों ही युगों में भिक्षुणी-जीवन दुःखों से मुक्ति, शान्ति, और रत्नत्रयसाधना द्वारा मोक्षप्राप्ति का साधन था।' यद्यपि इन दोनों युगों की भिक्षुणियों में साध्य की दृष्टि से समानता थी, किन्तु सामाजिक नारियों के उनके प्रति दृष्टिकोण, आकर्षण, व्यवहार एवं साधना आदि की भिन्नता के कारण उभययुगीन भिक्षणियों में समानता नहीं थी।
बौद्ध भिक्षुणी बनने के कारण
बौद्धागमों के अनुसार उस समय प्रायः प्रत्येक नारी सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन से उदास, भयभीत एवं व्याकुल होकर भिक्षुणीसंघ में प्रविष्ट होने का प्रयास करती थी। फलतः उस समय भिक्षुणियों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि तथागत बुद्ध को उन्हें व्यवस्थित एवं संयमित रखने के लिए पृथक एवं नई आचारसंहिता बनानी पड़ी। फिर भी भिक्षुणियों के शील की असुरक्षा, संघीय अव्यवस्था एवं समाज के बढ़ते हुए अश्रद्धामय दृष्टि
२२. (क) पंचहि धम्मेहि "भिक्खु उस्सं कित-परिसंकितो होति ।"इध भिक्खवे, भिक्खु
वेसियागोचरो वा होति, विधवागोचरो वा होति ।-अंगुत्तर० २।३८४ (ख) पसाहणठं गम-बिहव -नायाधम्म १।१।२४ १. (क) उपेमि सरणं बुद्ध धम्म संघ च तादिनं । समादियामि सीलानि तं मै अत्थाय होहिति ।।
--थेरीगाथा १२॥११२५० (ख) तं सेयं मम 'अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए ।-नायाधम्म० ११४।१०५,
निरया० ३।४।११६ २. (क) अहं पि पब्बज्जिस्सामि भातुसोकेन अद्विता । थेरीगाथा १२।४।३२९ । (ख) अस्सोसि खो सा इत्थी-'सामिको किर मं घातेतूकामो' ति। वरभण्डं प्रादाय"."
पज्जं याचि । -पाचि० पृ० ३०१
| धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीय
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चतुर्थ खण्ड | १९०
कोण के कारण तथागत बुद्ध के समक्ष नई-नई समस्याएँ खड़ी हो जाती थीं। जिन्हें सुलझाने के लिए उन्हें नये-नये नियम बनाने पड़े। जैन-भिक्षुणीवर्ग और बौद्ध भिक्षुणीवर्ग में अन्तर
जैनयुग में भिक्षुणीवर्ग जरा संयमित एवं नियमित हो गया था। जैन-भिक्षुणी की साधना . भी कठोर होती थी। जैनभिक्षों और भिक्षणियों के रहने के धर्मस्थान भी अलग-अलग होते थे। जैनागमों के अनुसार भिक्षुणीसंघ का अस्तित्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय में भी था। इसलिए यह कहा जा सकता है कि जैनभिक्षुणीवर्ग को साधना परिपक्व, अनुभूत एवं समाज-मान्य थी। जबकि बौद्धधर्म में भिक्षसंघ की स्थापना के पांच वर्ष बाद भिक्षुणीसंघ बनाया गया था। इस विलम्ब का मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि बुद्ध स्त्रियों को सांसारिक दुःखों का मूल कारण तथा दुःखविनाश में बाधक भी मानते थे। अतः सैद्धान्तिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष में धर्माचरण करने की समान क्षमता मानते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से वे स्त्रियों को भिक्षुणी रूप में संघ में प्रवेश देने के पक्ष में नहीं थे । यही कारण है कि बुद्ध ने पुरुषवर्ग को भिक्षु बनाने में उत्साह बताया, वैसे स्त्रीवर्ग को भिक्षुणी बनाने में उतना उत्साह नहीं बताया। चूंकि बुद्ध संघ को विशुद्ध ब्रह्मचर्यस्थल बनाना चाहते थे, अत: वे ब्रह्मचर्य की विकारभूत स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने के लिए उत्साहित नहीं थे। उस युग में बुद्ध के संघ का जो रूप या, वह भिक्षुणी की सुरक्षा करने में असमर्थ हो गया था। इसीलिए बुद्ध भिक्षुणी रूप में नारी को संघ में प्रवेश देना नहीं चाहते थे ।५
जैन-पागमों के अनुसार उस युग में नारियों को न केवल गार्हस्थ्य अवस्था में पुरुषों के समान धर्माचरण करने का अधिकार था, अपितु भिक्षणी बनने में भी उन पर संघ की ओर से किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। इतना ही नहीं, जैन मान्यतानुसार स्त्री केवलज्ञानी, तीर्थंकर एवं सिद्ध (मुक्त) भी बन सकती थी। राजकुमारी मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर पद प्राप्त किया। काली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा आदि रानियों ने साध्वी . बनकर रत्नत्रय की उत्कृष्ट साधना करके केवलज्ञान एवं मोक्ष भी प्राप्त किया था। बुद्ध के मतानुसार स्त्री सम्यक सम्बुद्ध नहीं हो सकती थी। अत: जैनभिक्षुणियाँ बौद्धभिक्षुणियों की अपेक्षा सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों दष्टियों से धार्मिक क्षेत्र में आगे थीं। जैन साधु और साध्वी दोनों को धार्मिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त थे।
जैनयुग तक भिक्षुणीसंघ कोई नवीन संस्था नहीं रह गई थी, इसलिए बौद्धयुग की तरह जैनयुग में भिक्षणियों के शील की रक्षा करना कोई जटिल समस्या नहीं रह गई थी;
३. चुल्लवग्ग पृ० ३८२-३८६ तथा आगे। ४. इत्थी मलं ब्रह्मचरियस्स, एत्थायं सज्जते पजा।-संयुत्त० ११३६ ५. साधु भंते ! लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पबज्ज
ति । अलं गोतमि, मा ते रुच्चि मातुगामस्स....."पव्वज्जा" ति । -चुल्ल० पृ० ३७३ ६. नायाधम्मकहा ११८७०,८३। ७. अंतगडदसामो० ८वां वर्ग । ८. अद्रानमेतं भिक्खवे, अनवकासो यं इत्थी परहं अस्स सम्मासंबुद्धो।-अंगुत्तर० १११९
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १९१
क्योंकि बौद्धसंघ की तरह जैनसंघ की व्यवस्था गणतंत्र के सिद्धान्तों पर आधारित नहीं थी, अपितु भिक्ष-भिक्षुणी संघ के सुरक्षण एवं संचालन का भार संघ के वरिष्ठ भिक्षुप्राचार्य पर रहता था। वह केवल पुराने बने हुए नियमों के आधार पर ही नहीं, परिस्थितिवश नये नियम बनाकर भी संघ का संचालन-संरक्षण करता था। वह संघ की, विशेषतः भिक्षणीवर्ग की सुरक्षा करने में सतत जाग्रत रहता था। इसी कारण भ० महावीर
और उसके पश्चात प्राचार्य प्रादि नारी को प्रव्रज्या देने में न तो हिचकते थे और न ही किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाते थे। मूल जैनागमों में सामाजिक व्यक्तियों द्वारा जनसाध्वियों पर अनाचार या अनादर किये जाने के उल्लेख नहीं मिलते । निष्कर्ष यह है कि बौद्ध भिक्षुणियों का समाज की ओर से शील की असुरक्षा का जो खतरा बना रहता था, वह जैनयुग तक कम हो गया था। समाज में इनका विशिष्ट स्थान बन गया था। राज्य एवं समाज का सबसे बड़ा व्यक्ति भी भिक्षणी या परिव्राजिका को देखकर आसन से उठता था, उनका स्वागत करता, तथा वन्दना करके उचित सम्मान प्रदर्शित करता था।१०
जैनभिक्षुणी बनने के कारण
जैनयुग में भिक्षुणी-जीवन के प्रति सामान्य नारी का आकर्षण कम हो गया था। उस समय वे ही स्त्रियाँ जैनभिक्षुणी बनती थीं, जिन्हें ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति की एवं मोक्ष प्राप्त करके सर्वदुःखों का अन्त करने की प्रबल लालसा होती थी, या पारिवारिक जीवन में जिनका किसी दु:ख के कारण रहना कठिन हो जाता। अर्थात या तो वह पति के लिए अप्रिय बन जाती, या वह सन्तान को जन्म देने में असमर्थ होती या विधवा हो जाने से उपेक्षित होती। ऐसी परिस्थिति में, जो नारी संसार से विरक्त होती, वह अपने संरक्षकवर्ग की आसानी से स्वीकृति प्राप्त कर भिक्षणी बन जाती थी। दुःखित, पीडित या अपमानित नारियाँ प्रारम्भ में किसी जैन साध्वी से अपने दुःख निवारण का उपाय पूछती थीं, जब भिक्षुणी दुःख का सावध उपाय न बताकर निरवद्य भिक्षुणी-जीवन ग्रहण करने का उपदेश देती थी तो उन्हें बाध्य होकर भिक्षुणी बनना ही पड़ता था। आशय यह है कि इस युग में नारी भिक्षुणीजीवन के आकर्षण के कारण नहीं, अपितु प्रायः सांसारिक जीवन से खिन्न होने के कारण दीक्षा लेती थी।"
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९. निशीथः एक अध्ययन, पृ० ६६ १०. तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासइ, पासइत्ता सीहासणाप्रो उन्भुट्ठ इ...
सक्कारेइ आसणेणं उवनिमंतेइ ।-नायाधम्म० ११८७९ 0 निशीथ एक अध्ययन, पृ० ६६ ११. (क) इच्छामि णं, देवाणुप्पिया ! .."पव्वइत्तए । अहासुह""तए णं सा पउमावई अज्जा
एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ।-अन्तकृत्० ५।११८५-८९ (ख) भगवतीसूत्र० १२१२ (ग) अहं तेयलिपुत्रस्स""""अणिट्टा "। तं सेयं खलु मम""पव्व इत्तए ।
-नाया० १२१४११०५
शग्गो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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चतुथं खण्ड / १९२
जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों के लिए नियम
जैनभिक्षुणियों को अनुशासन में रखने के लिए तीन-तीन या चार-चार भिक्षुणियों के संघाड़े (संघाटक) बना दिये जाते थे, उस संघाड़े में दीक्षाज्येष्ठ साध्वी रहती थी। सभी संघाड़ों को नियंत्रित एवं व्यवस्थित रखने के लिए उन पर एक प्रवर्तिनी या महत्तरा चुन ली . जाती थी, जो साध्वियों के चातुर्मास, शिक्षादीक्षा, सेवा, प्रायश्चित्त आदि द्वारा शुद्धि की व्यवस्था करती थी। जैनागमों में सामान्यरूप से अधिकांश नियम भिक्षु-भिक्षुणी दोनों के लिए एक से उल्लिखित हैं। अलबत्ता, दूषित मनोवृत्ति के व्यक्तियों से सुरक्षा के निमित्त जैनसाध्वियों के कुछ विशिष्ट नियमों की रचना समय-समय पर की गई है।१२ यद्यपि प्राचार्य-उपाध्याय भिक्षु-भिक्षुणी संघ के वरिष्ठ अधिकारी एवं संरक्षक होते थे. किन्त भिक्षणीवर्ग के अान्तरिक कार्यों में वे हस्तक्षेप नहीं करते थे । प्रवर्तिनी ही आन्तरिक कार्यभार संभालती थी।
बौद्ध-भिक्षणीसंघ के लिए सामान्य नियम तो भिक्षुसंघ के आधार पर ही बनाये गए थे, किन्तु कुछ ऐसे विशिष्ट नियम भी बनाए गए थे जो केवल भिक्षुणीजीवन से सम्बन्धित थे। वे विशिष्ट नियम मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं--(१) प्रथम भाग में वे नियम हैं जो भिक्षुणियों की शारीरिक आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाए गए थे, ताकि भिक्षणियाँ समाज में जाएँ तो उनका उपहास या अवमान न हो।१४
द्वितीय भाग में, वे नियम हैं, जो भिक्षुणियों के स्त्रीस्वभावानुसार संचयवत्ति एवं संयमविरुद्ध प्रवृत्तियों को रोकते हैं ।
तृतीय भाग में ऐसे नियम हैं, जो भिक्षुणियों को कामवासना से दूर रख कर ब्रह्मचर्य का सुदढ़ता से पालन करने के निमित्त से बनाए गए थे । वस्तुतः ये नियम भिक्षणियों को ब्रह्मचर्य से स्खलित होने से बचाने के लिए बनाए गए थे।
दोनों धर्मों की भिक्षणियों को यह ध्यान रखना आवश्यक था कि उनके जीवनयापन के, आहार-विहार के तौर-तरीकों से संघ की प्रतिष्ठा को हानि न पहुँचे । वे लोकनिन्दा की पात्र न बनें।
(घ) ......."नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं व पयायामि, तं सेयं...."पव्वइत्तए ।
-निरया० ३।४।११६ (ङ) तं अत्थियाई भे अज्जायो केइ कहिंचि चुण्णजोए वा"जेणाहं""पुणरवि इट्टा ५
भवेज्जामि ?.."अम्हे णं समणीयो"नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पगारं ...."तए णं सावयासी-इच्छामि णं" धम्मं निसामित्तए ।
-नायाधम्म० १११४।१०४, १।१४।११८। १२. (क) बृहत्कल्प भा० ३. पृ० ६५१,६६०,६७०।
(a) History of Jain Monachism. P. 473 १३. (क) History of Manachism. P. 468,
(ख) नो से कप्पइ अणायरिय-उवज्झाइत्तए होत्तए"।-ववहारसुत्तं० ३११२
(ग) बृहत्कल्प भाग० ५, गा०६०४८ १४. पाचि० पृ० ३८४, महावग्ग पृ० ३०९, चुल्ल० पृ० ३९०-३९१
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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान | १९३
प्राशय यह है कि जैन या बौद्ध भिक्षुणी का जीवन इतना आदर्श, चारित्र-सम्पन्न, ज्ञानमय एवं लक्ष्यमुखी हो । वस्तुतः भिक्षणी-जीवन सर्वोत्कृष्ट जीवन है वह त्याग, तप, वैराग्य और संयम से अनुप्राणित है । आज भी जैनसाध्वी-जीवन प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
उपसंहार
इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्परा में नारी अपने पाँचों रूपों में गौरवपूर्ण रही है, उसका भूतकाल भी उज्ज्वल रहा है और भविष्य भी उज्ज्वल रहेगा।
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धम्मो दीयो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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जैनदर्शन में तत्त्व-चिन्तन
0 सुभाष मुनि 'सुमन'
जैनाचार्य सत, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ, तत्त्वार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में करते रहे हैं। जैनदर्शन में तत्त्व-सामान्य के लिये इन सभी शब्दों का प्रयोग हया है। जैनदर्शन तत्त्व और सत् को एकार्थक मानता है। द्रव्य और सत् में भी कोई भेद नहीं है, यह बात उमास्वाति के "सत् द्रव्यलक्षणम्" इस सूत्र से सिद्ध होती है। तत्त्व को चाहे सत् कहिये, चाहे द्रव्य कहिये । सत्ता सामान्य की दृष्टि से सब सत् है । इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुये यह कहा गया है कि सब एक हैं, क्योंकि सब सत् हैं । इसी बात को दीर्घतमा ऋषि ने "एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" सत् तो एक है किन्तु विद्वान् उसका कई प्रकार से वर्णन करते हैं-ऐसा कहा । स्थानांगसूत्र में इसी सिद्धान्त को दूसरी तरह से समझाया गया है । वहाँ पर "एक प्रात्मा" और "एक लोक' की बात कही गयी है।
सत् का स्वरूप
सत् के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए तत्वार्थसूत्रकार ने कहा कि सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है। आगे जाकर इसी बात को, "गुण और पर्याय वाला द्रब्य है" इस प्रकार कहा । उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय आया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन के सूचक हैं। ध्रौव्य नित्यता की सूचना देता है । गुण नित्यता वाचक है और पर्याय परिवर्तन सूचक । किसी भी वस्तु के दो रूप होते हैं—एकता और अनेकता, नित्यता और अनित्यता, स्थायित्व और परिवर्तनशीलता, सदृशता और विसदशता । इनमें से प्रथम पक्ष ध्रौव्यसूचक है-गुण सूचक है। द्वितीय पक्ष उत्पाद-व्ययसूचक है-पर्यायसूचक है। वस्तु के स्थायित्व में एकरूपता होती है, स्थिरता होती है।
परिवर्तन में पूर्व रूप का विनाश होता है, उत्तर रूप की उत्पत्ति होती है। विनाश और उत्पत्ति के रहते हुए भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती और न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होती है। विनाश और उत्पाद के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है।
द्रव्य और पर्याय
जैन साहित्य में द्रव्य शब्द का प्रयोग सामान्य के लिये भी हुआ है। जाति अथवा सामान्य को प्रकट करने के लिये द्रव्य और व्यक्ति अथवा विशेष को प्रकट करने के लिये पर्यायशब्द का प्रयोग किया जाता है।
द्रव्य अथवा सामान्य दो प्रकार का है-तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में जो समानता की अनुभूति होती है, वह तिर्यक् सामान्य है। जब कालकृत नाना अवस्थाओं में किसी द्रव्य का एकत्व या अन्वय
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जैनदर्शन में तत्त्व-चिन्तन / १९५
विवक्षित हो, एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, तब उस एकत्व अथवा ध्रौव्यसूचक अंश को ऊर्ध्वता-सामान्य कहा जाता है।
जिस प्रकार द्रव्य या सामान्य दो प्रकार का है, उसी प्रकार पर्याय अथवा विशेष भी दो प्रकार का है। तिर्यक सामान्य के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हों वे तिर्यक्-विशेष हैं और ऊर्ध्वता सामान्याश्रित जो पर्याय हों वे ऊर्ध्वताविशेष हैं।
द्रव्य के ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा जाता है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार के परिणामों का वर्णन है। विशेष और परिणाम दोनों द्रव्य के पर्याय हैं क्योंकि दोनों परिवर्तनशील हैं। परिणाम में काल-भेद की प्रधानता रहती है, जबकि विशेष में देश-भेद मुख्य होता है। जो काल की दृष्टि से परिणाम हैं, वे ही देश दृष्टि से विशेष हैं । इस प्रकार पर्याय, विशेष, परिणाम, उत्पाद और व्यय प्रायः एकार्थक हैं । द्रव्य की विविध अवस्थानों में इन सभी शब्दों का समावेश हो जाता है।
द्रव्य और पर्याय का स्वरूप समझ लेने के बाद यह जानना भी आवश्यक है कि द्रव्य और पर्याय का सम्बन्ध क्या है ? द्रव्य और पर्याय भिन्न हैं या अभिन्न ? इस प्रश्न को सामने रखते हुए भगवतीसत्र में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यों और भगवान महावीर के शिष्यों में हए एक विवाद का वर्णन है। पार्श्वनाथ के शिष्य यह कहते हैं कि उनके प्रतिपक्षी सामायिक का अर्थ नहीं जानते । महावीर के शिष्य उन्हें समझाते हैं कि "आत्मा ही सामायिक है। आत्मा ही सामायिक का अर्थ है।" यहाँ पर आत्मा एक द्रव्य है और सामायिक प्रात्मा की अवस्था विशेष है अर्थात पर्याय है। सामायिक प्रात्मा से भिन्न नहीं है अर्थात् पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं है। यह द्रव्य और पर्याय की अभेददृष्टि है । इस दृष्टि का समर्थन प्रापेक्षिक है। किसी अपेक्षा से आत्मा और सामायिक दोनों एक हैं, क्योंकि सामायिक आत्मा की ही एक अवस्था है-प्रात्मपर्याय है । अन्यत्र द्रव्य और पर्याय के भेद का भी समर्थन किया गया है। "पर्याय अस्थिर होने पर भी द्रव्य स्थिर रहता है", इस वाक्य से स्पष्ट भेद-दृष्टि झलकती है । यदि द्रव्य और पर्याय का सर्वथा अभेद होता तो पर्याय के नष्ट होते ही द्रव्य भी नष्ट हो जाता । इसका अर्थ यह है कि पर्याय ही द्रव्य नहीं है। द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न भी हैं । द्रव्य की पर्याय बदलती रहती है, किन्तु द्रव्य अपने आप में नहीं बदलता। द्रव्य का गुण कभी नष्ट नहीं होता, भले ही उसकी अवस्थाएं मिटती रहें और पैदा होती रहें। पर्याय-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया जा सकता है और द्रव्य-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के अभेद की पुष्टि की जा सकती है। दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के भेद और अभेद की कल्पना करना ही भगवान महावीर को अभीष्ट था।
इस प्रकार आत्मा और ज्ञान के विषय में भी भगवान् महावीर ने वही बात कही। ज्ञान प्रात्मा का एक गुण है। वह सदैव स्थिर रहता है किन्तु उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। फिर भी ज्ञान की प्रात्मा से भिन्न स्वतंत्र सत्ता नहीं है । वह आत्मा का ही • एक अंश-विशेष है। इस दृष्टि से ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं । यदि आत्मा और ज्ञान में एकान्त अभेद होता तो उनमें गुण-गुणी भाव न होता। ऐसी अवस्था में अनेक धर्मात्मक अात्मा-द्रव्य की उपलब्धि न होती। यदि ज्ञान और प्रात्मा में एकान्त भेद होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर न होता। एक व्यक्ति के ज्ञान
| धम्मो दीतो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है।
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चतुर्थ खण्ड / १९६
की स्मृति दूसरे व्यक्ति को हो जाती अथवा उस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे स्वयं को भी न हो पाता। ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अराजकता और अव्यवस्था हो जाती। इसलिये ज्ञान और आत्मा का कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानना ही उचित है । द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान और प्रात्मा का अभेद मानना चाहिये और पर्याय-दष्टि से दोनों का भेद मानना चाहिये।
आत्मा के पाठ भेदों की बात भगवतीसूत्र में कही गई है। गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं-हे भगवन् ! प्रात्मा के कितने प्रकार हैं ? महावीर उत्तर देते है-गौतम ! आत्मा को आठ प्रकार का कहा गया है। वे अाठ प्रकार ये हैं-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा। ये भेद द्रव्य और पर्याय दोनों दृष्टियों से हैं । द्रव्यात्मा द्रव्यदृष्टि से और शेष सात पर्यायदष्टि से। इस प्रकार की अनेक चर्चाएँ जैन दार्शनिक साहित्य में मिलती हैं, जिनसे द्रव्य और पर्याय के सम्बन्ध का पता लगता है। द्रव्य-पर्याय एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की स्थिति असम्भव है । द्रव्य-रहित पर्याय की उपलब्धि नहीं हो सकती उसी प्रकार पर्याय-रहित द्रव्य की उपलब्धि भी असम्भव है ! जहाँ पर्याय होगा वहाँ द्रव्य अवश्य होगा, जहाँ द्रव्य होगा वहाँ उसका कोई न कोई पर्याय अवश्य होगा।
भेदाभेदवाद
दर्शन के क्षेत्र में भेद और अभेद को लेकर मुख्य रूप से चार पक्ष बन सकते हैं। एक पक्ष केवल भेद का समर्थन करता है, दूसरा पक्ष केवल अभेद को स्वीकृत करता है, तीसरा पक्ष भेद और अभेद दोनों को मानता है, चौथा पक्ष भेद-विशिष्ट अभेद का समर्थन करता है। भेद और अभेद का यथार्थ समन्वय जैनदर्शन की विशिष्ट देन हैं। जब हम भेदाभेदवाद की व्याख्या करते हैं, तो उसका अर्थ होता है भेदविशिष्ट अभेद और अभेदविशिष्ट भेद । भेद और अभेद दोनों समान रूप से सत् हैं । जिस प्रकार अभेद वास्तविक है, ठीक उसी प्रकार भेद वास्तविक है । जहाँ भेद है वहाँ अभेद है, जहाँ अभेद है वहाँ भेद है । भेद और अभेद स्वाभाव से ही एक दूसरे से मिले हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वमाव से ही समान्य-विशेषात्मक है---भेदाभेदात्मक है-नित्यानित्यात्मक है। जो सत् है वह भेदाभेदात्मक है। प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है। वस्तु या तत्त्व को केवल भेदात्मक कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कोई भी भेद बिना अभेद के उपलब्ध नहीं होता । भेद और अभेद को दो मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होते और उनको जोड़ने वाला कोई अन्य पदार्थ भी उपलब्ध नहीं होता। तत्व कथंचिद् सदृश है, कथंचित् विसदृश-विरूप है, कथंचित् वाच्य है-कथंचित् अवाच्य है,कथं चित् सत् है-कथंचित् असत् है। ये जितने भी धर्म हैं, वस्तु के अपने धर्म हैं। इन धर्मों का कहीं बाहर से सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है । वस्तु स्वयं सामान्य और विशेषरूप है, भिन्न और अभिन्न है, एक और अनेक है, नित्य और क्षणिक हैं। द्रव्य सामान्य और विशेष दोनों का समन्वय है। कोई भी वस्तु इन दोनों रूपों के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती।
द्रव्य का वर्गीकरण
द्रव्य के कितने भेद हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है। जहाँ तक द्रव्य-सामान्य का प्रश्न है, सब एक हैं। वहाँ किसी प्रकार की भेद-कल्पना
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जैनदर्शन में तत्वचिन्तन / १९७
उत्पन्न ही नहीं होती। जो द्रव्य है, वह सत् है और तत्व है। सत्तासामान्य की दृष्टि से जड़ और चेतन, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक है । यह दृष्टिकोण संग्रहनय की दृष्टि से सत्य है । संग्रह -नय सर्वत्र श्रभेद देखता है । भेद की उपेक्षा करके प्रभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह -नय का कार्य है । प्रभेदग्राही संग्रह नय भेद का निषेध नहीं करता श्रपितु भेद को अपने क्षेत्र से बाहर समझता है । इस नय का अन्तिम विषय सत्ता सामान्य है । प्रत्येक द्रव्य सत् है । सत्ता सामान्य का ग्रहण एकता का अन्तिम सोपान है, जहाँ सारे भेद भेदरूप से सत् होते हुए भी प्रभेद रूप से प्रतिभासिस होते हैं । सत्ता भेदों को नष्ट नहीं करती, अपितु उनमें एकत्व और सद्भाव स्थापित करती है।
यदि हम द्वैतदृष्टि से देखें तो द्रव्य को दो रूपों में देख सकते हैं। ये दो रूप है—जीव और जीव । चैतन्य-धर्म वाला जीव है और उससे विपरीत अजीव है । इस प्रकार सारा लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है । चैतन्य लक्षण वाले जितने भी द्रव्यविशेष हैं, वे सब जीव विभाग के अन्तर्गत म्रा जाते हैं जिनमें चैतन्य नहीं है, इस प्रकार के जितने भी द्रव्यविशेष हैं, उन सब का समावेश प्रजीव विभाग के अन्तर्गत हो जाता है।
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जीव और जीव के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छह भेद भी होते हैं । जीव द्रव्य रूपी है । जीव द्रव्य के दो भेद किये गये हैं-रूपी और अरूपी । रूपी द्रव्य को पुद्गल कहा गया । अरूपी के पुनः चार भेद हुए - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, श्रद्धासमयकाल । इस प्रकार द्रव्य के कुल ६ भेद हो जाते हैं—पुद्गल, धर्म, अधर्म, श्राकाश और श्रद्धासमय । इन छह द्रव्यों में से प्रथम पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं और छठा अनस्तिकाय है । अस्ति का अर्थ है प्रदेशों का समूह
[प्रकाश] घेरता
अनेक प्रदेश जिस
"अस्ति" और " काय" इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है। प्रदेश होना और काय का अर्थ है अनेक प्रदेशों का समूह जहाँ अनेक होता है वह प्रस्तिकाय कहा जाता है। पुद्गल का एक अणु जितना स्थान है उसे प्रदेश कहते हैं। यह एक प्रदेश का परिमाण है । इस प्रकार के द्रव्य में पाए जाते हैं, वह द्रव्य अस्तिकाय कहा जाता है। इस नाप से पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पांचों द्रव्य भी नापे जा सकते हैं। यद्यपि जीवादिद्रव्य रुपी है, किन्तु उनकी स्थिति प्रकाश में है और प्राकाश स्व-प्रतिष्ठित है प्रतः उनका परिमाण समझाने के लिए नापा जा सकता है। पुद्गलद्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्यों का इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धि से उनका परिमाण नापा एवं समझा जा सकता है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के अनेक प्रदेश होते हैं । अतः ये पांच द्रव्य प्रस्तिकाय कहे जाते हैं । इन प्रदेशों को अवयव भी कह सकते हैं। अनेक अवयव वाले द्रव्य प्रस्तिकाय है। श्रद्धासमय अनेक प्रदेशों वाला एक अखण्ड द्रव्य नहीं है। उसके स्वतंत्र अनेक प्रदेश हैं। प्रत्येक प्रदेश स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करता है । उनमें एक अवयवी की कल्पना नहीं की गई, अपितु स्वतंत्र रूप से सारे कालप्रदेशों को भिन्न-भिन्न द्रव्य माना गया है। इस प्रकार यह कालद्रव्य एक द्रव्य न होकर अनेक द्रव्य हैं। लक्षण की समानता से सबको "काल" ऐसा एक नाम दे दिया गया। धर्म आदि द्रव्यों के समान काल एक द्रव्य नहीं है । इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है ।
पुद्गल जिसे सामान्यतया जड़ या भौतिक कहा जाता है, वही जैनदर्शन में व्यवहृत होता है। पुद्गल शब्द में दो पद है- "पुद्" और " गल" । पुद् का
पुद्गल शब्द से अर्थ होता है
धम्मो दीवो संसार समुद्र मैं धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | १९८
पूरण अर्थात् वृद्धि और गल का अर्थ होता है गलन अर्थात ह्रास । जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है वह पुद्गल है। पुद्गल के मुख्य चार धर्म होते हैंस्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण । पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में ये चारों धर्म होते हैं । इनके जैनदर्शन में बीस भेद किए जाते हैं।
स्पर्श के आठ भेद होते हैं-मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । रस के पांच भेद होते हैं-तिक्त, कटक, आम्ल, मधुर और कषाय । गन्ध दो प्रकार की है-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । वर्ण के पांच प्रकार हैं-नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित ।
ये बीस मुख्य भेद हैं । तरतमता के आधार पर इनका संख्यात असंख्यात और अनन्त भेदों में विभाजन हो सकता है ।
पुद्गल के मुख्यतया दो भेद होते हैं—अणु और स्कन्ध ।
पुद्गल का वह अन्तिम भाग, जिसका फिर विभाग न हो सके, प्रण कहा जाता है। एक अणु में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं। स्कन्ध अणुओं का समुदाय है ।
पुद्गल का कार्य
पुद्गल के कुछ विशिष्ट कार्य हैं । ये कार्य हैं-शब्द, बन्ध, सौक्षम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, पातप और उद्योत ।
___ संसारी प्रात्मा पुद्गल के बिना नहीं रह सकती। जब तक जीव संसार में भ्रमण करता है, तब तक पुद्गल और जीव का सम्बन्ध विच्छेद्य है।
"पुद्गल शरीर-निर्माण का उपादान कारण है । प्रौदारिक, वैक्रिय और पाहारकवर्गणा से क्रमशः औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर बनते हैं तथा श्वासोच्छवास का निर्माण होता है । तेजोवर्गणा से तैजस शरीर बनता है। भाषावर्गणा वाणी का निर्माण करती है मनोवर्गणा से मन का निर्माण होता है। कर्मवर्गणा से कार्मण शरीर बनता है।"
तिर्यंच और मनुष्य का स्थूल शरीर औदारिक शरीर है । उदार अर्थात् स्थूल होने के कारण इसका नाम औदारिक है । रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण हैं ।
देवगति और नरकगति में उत्पन्न होने वाले जीवों के बैक्रिय शरीर होता है । इन जीवों के अतिरिक्त लब्धिप्राप्त मनुष्य और तिर्यंच भी इस शरीर को प्राप्त कर सकते हैं। यह शरीर इन्द्रियों का विषय नहीं होता। भिन्न-भिन्न आकारों में परिवर्तित होना इस शरीर की विशेषता है । इसमें रक्त, मांस, आदि का सर्वथा अभाव होता है ।
सूक्ष्म पदार्थ के ज्ञान के लिये अथवा किसी शंका के समाधान के लिये प्रमत्त संयत [मुनि] एक विशिष्ट शरीर का निर्माण करता है। यह शरीर बहुत दूर तक जाता है और शंका के समाधान के साथ पुनः अपने स्थान पर आ जाता है। इसे आहारक शरीर कहते हैं ।
तैजस शरीर एक प्रकार के विशिष्ट पुद्गल परमाणुओं [तेजोवर्गणा] से बनता है। जठराग्नि की शक्ति इसी शरीर की शक्ति है।
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जैनदर्शन के तत्व-चिन्तन | १९९
कार्मण शरीर मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार की प्रवृतियों का मूल है। यह पाठ प्रकार के कर्मों से बनता है।
उपर्यक्त पाँच प्रकारों में से हम अपनी इन्द्रियों से केवल प्रौदारिक शरीर का ज्ञान कर सकते हैं। शेष शरीर इतने सूक्ष्म हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ग्रहण नहीं कर सकतीं। अतीन्द्रियज्ञानी ही उनका प्रत्यक्ष कर सकता है।
धर्म
जीव और पुद्गल गति करते हैं । इस गति के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता है। यह माध्यम धर्म द्रव्य है। चूंकि यह अस्तिकाय है, इसलिए इसे धर्मास्तिकाय भी कहते हैं। गति तो जीव और पुद्गल ही करते हैं, किन्तु उनकी गति में जो सहायक कारण हैमाध्यम है वह धर्म हैं। यदि बिना धर्म के भी गति हो सकती तो मुक्त जीव अलोकाकाश में भी पहुँच जाता । अलोकाकाश में आकाश के सिवाय कोई द्रव्य नहीं है। मुक्त जीव स्वभाव से ही ऊध्वं गति वाला होता है। ऐसा होते हुए भी वह लोक के अन्त तक जाकर रुक जाता है, क्योंकि प्रलोकाकाश में धर्मास्तिकाय नहीं है। धर्मास्तिकाय के अभाव में गति नहीं हो सकती।
राजवातिककार के अनुसार स्वयं क्रिया करने वाले जीव और पुद्गल की जो सहायता करता है वह धर्म है। यह नित्य है, अवस्थित है और प्ररूपी है। नित्य का अर्थ है, तद्भावाव्यय । गति [क्रिया में सहायता देने रूप भाव से कभी च्युत नहीं होना ही धर्म का तद्भावाव्यय है । अवस्थित का अर्थ है जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेशों का हमेशा रहना । धर्म के असंख्यात प्रदेश हैं। वे प्रदेश हमेशा असंख्यात ही रहते हैं। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण रहित अरूपी द्रव्य है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है । जीवादि की तरह धर्म भिन्न-भिन्न रूप से नहीं रहता, अपितु एक अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है । यह सारे लोक में व्याप्त है ।
अधर्म
जिस प्रकार गति में धर्म कारण है उसी प्रकार स्थिति में अधर्म कारण है। जीव और पुद्गल जब स्थितिशील होने वाले होते हैं तब अधर्म द्रब्य उनकी सहायता करता है। जिस प्रकार धर्म के अभाव में गति नहीं हो सकती, उसी प्रकार अधर्म के प्रभाव में स्थिति नहीं हो सकती । अधर्म भी एक अखण्ड द्रव्य है। इसके असंख्यात प्रदेश हैं । धर्म की तरह यह भी सर्वलोकव्यापी है।
आकाश
जो द्रव्य जीव, पूदगल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता है वह आकाश है । यह सर्वव्यापी है, एक है, अमूर्त है और अनन्त प्रदेशों वाला है। इसमें सभी द्रव्य रहते हैं। यह प्ररूपी है। प्राकाश के दो विभाग हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । आकाश के जिस भाग में जीवादि द्रव्यों का अस्तित्व देखा जाता है वह लोक है। लोक रूप जो आकाश है, वह लोकाकाश है। जिस आकाश में यह नहीं होता वह प्रलोकाकाश है, वस्तुत: सारा आकाश एक है, अखण्ड है, सर्वव्यापी है। उसमें कोई भेद नहीं हो सकता। भेद का प्राधार अन्य द्रव्य हैं। आकाश की दृष्टि से लोकाकाश और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है। आकाश सर्वत्र एक रूप है।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है।
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चतुर्थ खण्ड / २००
आकाश को कुछ दार्शनिकों ने स्वतंत्र द्रव्य माना है और कुछ ने नहीं माना। जिन्होंने उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है उनमें से किसी ने भी जैनदर्शन की तरह लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में नहीं माना । पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के इतिहास में "रिक्त प्राकाश है या नहीं" इस विषय पर काफी विवाद है, किन्तु इस ढंग के दो अलग-अलग विभाग वहाँ भी नहीं मिलते हैं। अद्धासमय
परिवर्तन का जो कारण है उसे श्रद्धासमय या काल कहते हैं । काल की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। द्रव्य का स्वजाति के परित्याग के विना वैससिक और प्रायोगिक विकाररूप परिणाम व्यवहारदृष्टि से काल को सिद्ध करता है। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए भी उसकी जाति का कभी विनाश नहीं होता । इस प्रकार के परिवर्तन परिणाम कहे जाते हैं । इन परिणामों का जो कारण है वह काल है । यह व्यवहार दृष्टि से काल की व्याख्या हुई । प्रत्येक द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षणभावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है। इस वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वृत्ति वाला है। यह वृत्ति प्रतिक्षण रहती है । यही पारमार्थिक काल का कार्य है। काल का अर्थ है परिवर्तन । परिवर्तन को समझने के लिये अन्वय का ज्ञान होना आवश्यक है । अनेक परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है । इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु में परिवर्तन हुा । यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुअा, इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता । इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकण्ड आदि विभाग करते हैं । यह व्यावहारिक काल है । पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है । क्षण-क्षण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है, यह परिवर्तन बौद्ध सम्मत परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त है । इस प्रकार दोनों दृष्टियों से काल का लक्षण परिवर्तन है। काल असंख्यात प्रदेश प्रमाण होता है। ये प्रदेश एक अवयवी के प्रदेश नहीं हैं, अपितु स्वतन्त्र रूप से सत् है। इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक काल प्रदेश बैठा हया है। रत्नों की राशि की तरह लोकाकाश के एक-एक काल प्रदेश पर जो एक-एक द्रव्य स्थित है वह काल है । वह असंख्यात द्रव्य प्रमाण है । इससे यह फलित होता है कि काल एक द्रव्य नहीं है, अपितु असंख्यात द्रव्य प्रमाण है । परिवर्तन की दृष्टि से यद्यपि काल के सभी प्रदेशों का एक स्वभाव है, तथापि वे परस्पर भिन्न हैं। वे सब मिलकर एक अवयवी का निर्माण नहीं करते । जिस प्रकार उपयोग सभी आत्माओं का स्वभाव है, किन्तु सभी आत्माएं भिन्न-भिन्न हैं, उसी प्रकार वर्तना लक्षण का साम्य होते हुए भी प्रत्येक काल भिन्न-भिन्न है । जीवत्व सामान्य को लेकर सभी आत्माओं को जीव कहा जाता है, उसी प्रकार कालत्व [वर्तना] सामान्य की दृष्टि से सभी कालों को काल कहा गया है । अतः काल वर्तनासामान्य की दृष्टि से असंख्यात हैं।'
जैनदर्शन प्रतिपादित तत्त्व का यह विवेचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तत्त्व का ठीक स्वरूप समझे बिना अन्य विषयों का यथार्थ ज्ञान होना कठिन है। इसलिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है।
१. कतिपय प्राचार्य काल को जीव और अजीव के पर्याय रूप में स्वीकार करते हैं।
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु की विद्यमानता नहीं मानते । प्रागमों में छह द्रव्य स्वीकृत हैं किन्तु काल का विस्तृत विवेचन नहीं मिलता। -सम्पादक 01
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जाज के युग में महावीर की
प्रासंगिकता 0 रिखबराज कर्णावट, एडवोकेट
संसार अभाव, अन्याय व अज्ञान तीन मुख्य बुराइयों से ग्रस्त है । सभी मनुष्यों को रोटी, कपड़ा व छप्पर उपलब्ध नहीं है। हमारे देश भारत में गरीबी की रेखा, जो सरकार ने मान्य की है, उससे नीचा जीवनस्तर बिताने वालों की संख्या बहुत अधिक है। कहना न होगा कि चुनावों के समय व साधारण अवस्था में भी हमारे राजनेता यह कहते नहीं थकते कि वे योजनाओं द्वारा सर्वसाधारण को उनकी जीवन जरूरत रोटी, कपड़ा व मकान की समस्या को शीघ्र हल करेंगे। इस आशा से लोग तथाकथित नेताओं को अपना वोट देकर प्रतिनिधि चुन लेते हैं। वैसे प्रतिनिधि पंचायत, राज्यसरकारों व केन्द्र सरकार में पहुँच कर सर्वसाधारण जनता को यह कहना शुरु कर देते हैं कि उनके पास जादुई चिराग नहीं है, अपने को ऊँचा उठाने के लिए जनता को कठिन परिश्रम करना होगा और धीरजपूर्वक अपने सपने (नेताओं के वादे) साकार करने की आशा रखनी होगी। हाँ, नेता लोग अपना घर धनमाल व ऐशो-आराम की चीजों से लबालब भर लेते हैं और एक नई जाति (सम्पन्न) के रूप में उभर जाती है। अपने परिवार व सगे सम्बन्धियों को भी निहाल कर देते हैं। पुनः चुनाव आने पर एक दिन के लिए सर्वसाधारण को जनता-जनार्दन कहकर उनकी आरती उतारते हैं। लोग भी उस रोज अपने को राजा समझने लगते हैं। जैसे रामलीला में गरीब ब्राह्मण का लड़का भगवान् रामचंद्र का रूप धारण कर सिंहासन पर टांग पर टांग रखकर सजधज के साथ बैठकर आरती उतरवाता है। रामलीला की उस रात की समाप्ति पर टूटी खाट पर या प्रांगन पर सोकर सुबह चरी लेकर पाटा मांगने निकल जाता है। यही हाल हमारे आज के प्रजातन्त्र में आम जन का है । वे मात्र रामलीला के राजा हैं। फिर वैसे ही जैसे पहले थे, बल्कि प्रभाव दूर होने के बदले उनका प्रभाव और बढ़ जाता है। शोषणकर्ताओं में जनप्रतिनिधियों की भारी भरकम संख्या जुड़ जाती है। योजनाएँ अभावग्रस्त लोगों के अभाव दूर करने के लिए बनाई जाती हैं जिसमें योजनाकारों व उनके अमले में काफी व्यय हो जाता है। फिर क्रियान्विति, जिन अफसरों, बाबुओं या तथाकथित जनप्रतिनिधियों के मार्फत होती है, एक बड़ा हिस्सा कानूनी व गैरकानूनी तौर पर उनके पेट में समा जाता है । अभावग्रस्त लोग तो पूर्ववत् व वसूली के समय पूर्व हालत से बदतर हालत में चले जाते हैं । भोगप्रधान संस्कृति में अधिक उपभोग अथवा संग्रह करने वाले भी प्रभाव को समाज में बढ़ाते हैं , यद्यपि वे स्वयं भी अन्ततोगत्वा अनेक प्रकार के दु:ख भोगते हैं।
इसका निदान भगवान महावीर ने संसार को अपरिग्रह का सिद्धान्त जीवन में प्रयोग किए जाने के पश्चात अनुभवसिद्ध करके प्रतिपादित किया। अपनी आवश्यकताओं को कम से कम कर उत्पादित वस्तुओं का उपयोग करने का सफल प्रयोग किया। उनके जीवनकाल में
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चतुर्थखण्ड / २०२ चौदह हजार साधु व छत्तीस हजार साध्वियाँ सम्पूर्ण रूप से परिग्रह के त्यागी बने तो लाखों श्रावक / श्राविकाओं ने परिग्रह की मर्यादा की। आज भी महावीर को मानने वाले हजारों साधु साध्वी स्वयं अपरिग्रही हैं । किन्तु उनके तथाकथित श्रावक श्राविकायें इस सिद्धान्त को केवल शाब्दिक नारों से तो मानती हैं, पर वस्तुतः वे परिग्रह में अधिक से अधिक उलझने व भोगउपभोग की सामग्री अधिक से अधिक अन्य समाजों की भाँति इकट्ठी करने में लगे हुए हैं। दुर्भाग्य
बात यह है कि अपरिग्रही साधु साध्वी भी इन सेठ साहूकारों के घेरों में प्रविष्ट होने लगे हैं । अप्रत्यक्ष रूप में उन ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों को जिनमें धनाढ्य, राजनेता व इनके दलाल कार्यकर्तागण की शह दे रहे हैं और बदले में उन लोगों से जयजयकार करवा कर वाहवाही पाते हैं। जो भी हो महावीर के इस सिद्धान्त पर आधारित योजना ही प्रभाव को दूर कर सम वितरण में कारगर हो सकती है। आज की राशन प्रणाली व अनेक प्रकार के नियन्त्रण सम वितरण के लिए बने हैं किन्तु वे व्यक्ति की स्वयं इच्छा से नहीं, शासन व कानून के दबाब से हैं। इसीलिए वे अधिकांश असफल रहते हैं। महावीर का सिद्धान्त स्वेच्छा से होने के कारण जितना ग्रहण किया जाता है प्रायः पूर्ण सफल रहता है।
वर्तमान काल की दूसरी बड़ी बुराई अन्याय की है। सबल अपने स्वार्थ में अच्छे होकर निर्बलों के परिश्रम के फल को हथियाने में लगे हुए हैं, निर्बल इसे मजबूरी से सहन करते हैं। सबलों की पूरी व्यवस्था निर्बलों को पशु व निर्जीव मानने की बनी हुई है। उनके मन में निर्बलों के प्रति कुछ हया दया भी नहीं है । निर्बलों के पास शक्ति नहीं कि वे सबलों के पाशfor बल का मुकाबला कर सकें। इस स्थायी ( सामाजिक एवं व्यक्तिगत ) अन्याय के प्रतीकार
महात्मा गांधी ने हिंसा
के लिए महावीर ने पहिंसा का व्यावहारिक दर्शन संसार को दिया। को एक प्रमोष प्रस्त्र के रूप में प्रयोग किया व सिद्धि प्राप्त की अहिंसा का दर्शन अन्याय करने वाले को अन्याय करने से बचाता है तथा अन्याय सहने वाले को शक्तिशाली बनाकर प्रतीकार का अवसर देता है, भ्रतः यह दोनों के लिये हितकर एवं कल्याणकारी है महिसा की साधना करने वाला व्यक्ति निर्वैर हो जाता है। वह अहिसा की शक्ति को पाकर निर्भय भी हो जाता है । महावीर के इस अहिंसा के सिद्धान्त का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ सामन्त, ब्राह्मण, किसान व अछूत समझे जाने वाले लोगों ने महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की मानवीय गुणों को विकसित किया। यहाँ तक कि प्राणिमात्र को हिंसा से दूर रहकर उन लोगों ने प्रेम, करुणा व शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने की ओर प्रयाण किया। आज विश्व भर में यह मान्यता घर कर रही है कि अन्याय व उत्पीड़न से मुक्ति पाने का ग्रहिंसा ही एकमात्र प्रभावी
प्रस्त्र है।
तीसरी बुराई जो व्याप्त है वह अज्ञान की है। वैसे देखा जाय तो ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और ज्ञान एवं अज्ञान की मध्यरेखा भी इतनी क्षीण होती है कि ज्ञान को अज्ञान और प्रज्ञान को ज्ञान भाषित किया जाता है। सीधी और सरल परिभाषा करें तो सत्य का साक्षात्कार करना ज्ञान है । सत्य शाश्वत है । सत्य अनन्त है । सत्य का साक्षात्कार किये जाने पर भी उसका प्रतिपादन केवल प्रांशिक रूप में ही किया जा सकता है। कोई सत्यद्रष्टा किसी सत्यांश का प्रतिपादन अपेक्षित समझता है तो कोई ग्रन्य किसी अन्य सत्यांश का । शब्द में इतनी शक्ति नहीं कि सत्य के सभी पर्यायों का कथन कर सके। यही कारण है कि भिन्न-भिन्न सत्यांश हमारे सामने पाते हैं। वे सत्यांश कभी-कभी प्रज्ञान वन जाते हैं जब उन्हें पूर्ण सत्य
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आज के युग में महावीर की प्रासंगिकता | २०३
मानकर अन्य सत्यांशों पर विचार नहीं करने का आग्रह हो जाता है। वस्तु के अनेक स्वरूपों में से किसी एक ही स्वरूप को सही मान बैठना ज्ञान नहीं प्रज्ञान है। इसी प्रज्ञान के कारण संसार में वाद पैदा होते हैं जो कदाग्रह के कारण बनते हैं। महावीर ने इन कदाग्रहों व झगड़ों को मिटाने के लिए "अनेकान्त" का विचार दिया है। उन्होंने बताया कि अपेक्षाकृत किसी सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर झगड़ना अज्ञान है। जैन वाङमय के एक कथानक में छह अन्धे प्रादमियों द्वारा हाथी के भिन्न-भिन्न अवयवों को स्पर्श कर हाथी की भिन्न-भिन्न कल्पना कर ली। किसी ने हाथी के दांत छकर उसे लकड़ी जैसा, किसी ने उसकी पूछ छूकर रस्सी जैसा, किसी ने टांग छकर खम्बे जैसा, किसी ने कान छुकर सूप जैसा, किसी ने सुंड छु कर साँप जैसा, और किसी ने पेट छकर दोवार जैसा बताया। आपस में झगड़ते रहे और एक दूसरे को झूठा कहते रहे। हाथी के एक अंग को ही हाथी समझा। सूझते आदमी ने बताया कि वे सभी आंशिक रूप से सही होने पर भी हाथी की जानकारी नहीं पा सके। यही हालत आज के संसार में व्याप्त है। अपनी-अपनी सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक मान्यताओं को लेकर लोग झगड़ रहे हैं। अनेकान्त की दृष्टि अपनायी जाय तो कलह व कदाग्रह के स्थान पर प्रेम व शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो जाय । अनेकान्त की दृष्टि से परस्पर सहयोग, सहकारिता, सद्भाव, उत्पन्न होता है जिससे विरोधी दिखने वाले तत्त्वों में भी सहअस्तित्व एवं एकता की भावना प्रकट होती है । अनेकांत के सिद्धांत को प्रतिपादित कर महावीर ने अज्ञान के अन्धकार को दूर करने का एक सबल अस्त्र संसार को प्रदान कर दिया। और अज्ञान से हटा कर ज्ञान की ओर अग्रसर होने का मार्ग बताया।
इस प्रकार भगवान महावीर ने संसार में व्याप्त तीन बड़ी बुराइयों-अभाव, अन्याय व अज्ञान को दूर करने के लिए अपरिग्रह, अहिंसा व अनेकांत के अमोघ अस्त्र प्रदान किए। महावीर की यह देन अनोखी है, इसकी पालना से ही उपरोक्त बुराइयों का पलायन संभव हो सकता है। इसीलिए महावीर की प्रासंगिकता आज के सन्दर्भ में भी अविछिन्न रूप में है।
---४४८ रोड, सी, सरदारपुरा
जोधपुर-३ (राजस्थान)
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वर्तमान समय में जैन सिद्धान्तों की
उपादेयता 0 मुनिश्री विनयकुमार 'भीम'
कहने को कहा जाता है, वर्तमान युग ने बहुत उन्नति की है, एक अपेक्षा से यह सच भी है, भौतिक विज्ञान उच्चता तक पहुँचा है और पहुँचता जा रहा है। उस द्वारा ऐसे ऐसे चामत्कारिक निर्माण हुए हैं, जिनकी संभवत: मानव को कोई कल्पना ही नहीं थी । यह सब तो हुआ, पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उसने अाज बहुत खोया भी है । इतना खोया है कि कभी-कभी तो उसे ऐसा मानने में संकोच होने लगता है कि वह मानव भी है क्या । वैज्ञानिक विकास तो हुआ पर कौन नहीं जानता कि उससे सारा जगत् आज आतंकित
और भयाक्रांत है। महान वैज्ञानिक की प्रतिभा का अधिकतम भाग ऐसे विध्वंसक शस्त्रास्त्रों के निर्माण में लग रहा है, जो क्षणभर में जगत् में प्रलय मचा सकें। विध्वंसक साधन-सामग्री के आविष्करण और सर्जन की यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर तीव्रगति के साथ चल रही है। इन शस्त्रास्त्रों का कहीं प्रयोग हो न जाय, इस भीति से मानव विपुल नर-संहार से बचने हेतु कभी कभी अनाक्रमण-सन्धि की चर्चाएँ करता है, कभी विश्व-मैत्री की बातें करता है पर भीतर ही भीतर सब एक दूसरे के प्रति अविश्वासी तथा शंकाशील हैं । सचमुच आज सर्वत्र एक ऐसा वातावरण छाया है, जिसमें पारस्परिक अविश्वास, संशय तथा दुराव के भाव व्याप्त हैं।
सभी शान्ति की बातें करते हैं, चाह भी रखते हैं पर वैसा सध नहीं पाता । आज के इस विषम युग में, मैं यह समझता हूँ, श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जीवन-दर्शन या जैन धर्म के सिद्धान्तों की वस्तुत: बहुत बड़ी उपयोगिता है।
अहिंसा जैनधर्म का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। अहिंसा की चर्चा तो अन्यान्य धर्मों में भी यथाप्रसंग होती रही है, पर वैचारिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से जैनधर्म इसमें अत्यन्त सूक्ष्मता तथा गहराई तक पहुँचा। उसकी मान्यता है कि न केवल किसी प्राणी के प्राणों का विच्छेद करना हिंसा है, वाणी द्वारा किसी को प्राघात पहुँचाना भी हिंसा है। किसी के प्रति दुर्विचार लाना भी हिंसा है। यद्यपि जिसके प्रति मन में दुविचार लाए जाते हैं, उसको वे दिखाई नहीं देते किन्तु जो दुर्विचार लाता है, उसके मन को तो वे विकृत तथा दूषित कर ही डालते हैं। विकारमय तथा दोषग्रस्त चिन्तनधारा वातावरण में अशांतिमय स्थिति का निष्पादन करती है, ज्ञानीजन ऐसा बतलाते हैं। किसी भी क्रिया (Action) की प्रतिक्रिया (Reaction) होती है, यह सुनिश्चित है। कोई व्यक्ति यदि अपने मन में, वचन में तथा कर्म में अहिंसा स्वीकार करता है तो उससे सम्बद्ध जितने भी व्यक्ति हैं, प्रतिक्रिया-स्वरूप उनमें अहिंसक भाव उत्पन्न होता है । वातावरण सहज ही पवित्र बनता है। यदि एक राष्ट्राध्यक्ष भावात्मक रूप में भी यथार्थतः अहिंसा को स्वीकार करले तो उसमें जरा
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वर्तमान समय में जैन सिद्धांतों की उपादेयता / २०५
भी सन्देह नहीं कि उसका अन्यान्य राष्ट्राध्यक्षों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ेगा । अहिंसा से ही विश्वमैत्री तथा समता फलित होती है। विश्वमैत्री भाषणों, वार्तालापों और प्रायोजनों से कभी फलित नहीं होती। उसे लाने हेतु अहिंसा को जीवन में उतारना ही होगा । भगवान् महावीर ने अहिंसा को विज्ञान बतलाया, जिसका प्राशय यह था कि अहिंसा को सूक्ष्मता, गहनता तथा व्यापकता के साथ जानना वास्तव में बहत बड़ी उपलब्धि है। वैयक्तिक, पारिवारिक सामाजिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय-सभी क्षेत्रों में अहिंसा की अपरिहार्य आवश्यकता है। जैन धर्म के अनुसार अहिंसा कायरों का सिद्धान्त नहीं है, वह वीरों का धर्म है। अहिंसा को जीवन में उतारने के लिए बहुत बड़ी प्रात्म-शक्ति की आवश्यकता है ।।
अहिंसा की तरह जैनधर्म का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकांत दर्शन है। जीवन में हम प्रत्यक्ष रूप में जो संघर्ष, द्वन्द्व, कलह तथा शत्रुभाव देख रहे हैं, उसका मूल मनुष्य के विचारों में उत्पन्न होता है। विचार वस्तुतत्त्व की समझ पर निर्भर करते हैं । यदि समझ में प्राग्रह बुद्धि या ऐकान्तिक पकड़ होगी तो व्यक्ति जड़ बनेगा । फलत: वह सत्य के बहुआयामी स्वरूप को यथावत् रूप में पकड़ ही नहीं सकेगा और न उसे प्रतिपादित ही कर सकेगा । अक्सर होता ऐसा ही है, लोग किसी वस्तु या तत्त्व के एक ही पक्ष को दुराग्रह या जड़ता के साथ गृहीत कर लेते हैं और एकमात्र उसे ही यथार्थ मानते हैं। जो वैसा नहीं स्वीकारता या नहीं बोलता, उसे लोग गलत मानने लगते हैं। यहीं से संघर्ष का दौर शुरू होता है, जो आगे चलकर शतशाखी, सहस्रशाखी वटवृक्ष की तरह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है । वास्तव में सत्य अनुभूति का विषय है, वह समग्रता से एक साथ कहा नहीं जा सकता। जब वह वचन का विषय बनता है तो उसे भिन्न-भिन्न रूप में भिन्न-भिन्न वचनों द्वारा निरूपित करना होता है । आपेक्षिक निरूपण एकान्त नहीं होता है, वह अनेकान्त होता है, उस निरूपण की वचन-पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं । अनेकान्तवाद या स्याद्वाद विश्व को जैनदर्शन की अद्भत देन है। आज का युग, जिसमें असहिष्णुता, कटुता, पास्परिक प्रसद्भाव आदि व्यापक रुप में फैलते जा रहे हैं, जिनका परिणाम संघर्ष, हिंसा, रक्तपात के रूप में प्रकट होता है। यदि विचार में अनेकान्त-तत्त्व को स्वीकार कर लें तो ये सब स्थितियाँ जिन्हें मानवता का अभिशाप कहा जा सकता है, स्वयं समाप्त हो जाएँ। विरोध और झगड़े का मुख्य कारण असहिष्णुता है । असहिष्णुता की आधारभूमि दुराग्रह है। अनेकान्त के पाते ही तत्काल असहिष्णुता तथा दुराग्रह का उन्मूलन हो जाता है। इससे वैचारिक सहिष्णुता, सौम्यता तथा सद्व्यवहार का वातावरण बनता है।
लोक-जीवन में जो अशान्ति व्याप्त है, उसका एक कारण परिग्रह है, परिग्रह का अर्थ धन, सम्पत्ति, वैभव, साधन-सामग्री और इन सब में आसक्ति है । मनुष्य की यह कितनी बड़ी दुर्बलता है कि वह बहुत कुछ प्राप्त कर लेने पर भी सन्तोष नहीं कर पाता । जिस प्रकार आकाश का अन्त नहीं होता, उसी प्रकार उसकी इच्छाएँ भी अनन्त हैं । ज्यों ज्यों मनुष्य के पास धन-दौलत प्राता जाता है, उसकी आकांक्षाएँ और अधिक बढती जाती हैं। वह उनमें लिप्त व मूछित होता जाता है । शास्त्रकार ने मूर्छा को परिग्रह कहा है । मूर्खा एक प्रकार की बेहोशी है, मादकद्रव्य का सेवन कर व्यक्ति अपना होश-हवास खो बैठता है, उसी प्रकार परिग्रहजनित मूर्छा या धन, वैभव के नशे में भी मनुष्य की वैसी ही स्थिति होतो है । जैनधर्म परिग्रह को पाप का मूल मानता है, क्योंकि ज्यों ही मनुष्य धन-दौलत के लोभ में फंस जाता है, वह पाप-पुण्य,
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चतुर्थ खण्ड / २०६
धर्म-अधर्म सब भूल जाता है। उसे केवल पैसा ही पैसा दीखता है। वैसी स्थिति में मनुष्य के सद्गुण लुप्त हो जाते हैं, उसमें दुर्गुण अपना अड्डा बना लेते हैं। जैनधर्म में परिग्रह के त्याग पर बड़ा जोर दिया गया है। उस द्वारा स्वीकृत पाँच महान् व्रतों में अपरिग्रह भी है। उसके अनुसार साधक की वह स्थिति अत्यन्त पवित्र होती है, जहाँ वह परिग्रह का सर्वथा परित्याग कर देता है। जीवन में अपरिग्रह का भाव परिव्याप्त हो जाने पर, दूसरे शब्दों में । सन्तोष व्याप्त हो जाने पर अद्भुत शान्ति का अनुभव होता है। परिग्रह के लिए ही तो प्रादमी मारा-मारा फिरता है, नीच-पुरुषों की खुशामद करता है, अपमान, भर्त्सना आदि सब कुछ सहता है । यदि वह परिग्रह-लिप्सा से मुक्त हो जाय तो निश्चय ही उसके जीवन में शान्ति का अथाह समुद्र हिलोरे लेने लगता है।
वास्तव में जैनधर्म के प्रादर्श विश्वजनीन हैं। जैनधर्म संकीर्ण सांप्रदायिकता के परिवेश से सर्वथा विमुक्त है। वह जीवन का यथार्थ दर्शन है, एक शीलमय प्राचार-पद्धति है, जो सत्य की पृष्ठभूमि पर अवस्थित है। उसके सिद्धान्त निश्चय ही आज के वैषम्यपूर्ण युग में समता, शान्ति, समन्वय और सह-अस्तित्व की सजीव प्रेरणा देने में समर्थ हैं।
जैनसन्तों, विद्वानों एवं उपासकों को चाहिए कि जैनधर्म के इस विराट् एवं शाश्वत शान्तिप्रद विचार-दर्शन को वे जन-जनव्यापी बनाने का सत्प्रयास करें।
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राजस्थानी साहित्य को जैन संत
कवियों की देन - डॉ. नरेन्द्र भानावत
राजस्थान : वीरभूमि, धर्मभूमि
राजस्थान वीरभूमि होने के साथ-साथ धर्मभूमि भी है । शक्ति और भक्ति का सामंजस्य इस प्रदेश की मूल विशेषता है। यहाँ के वीर भक्तिभावना से प्रेरित होकर अपनी अद्भुत शौर्यवृत्ति का प्रदर्शन करते रहे तो यहाँ के भक्त अपने पुरुषार्थ, साधना और शक्ति के बल पर धर्म का तेज निखारते रहे। यहाँ शैव, वैष्णव, जैन आदि सभी धर्मों को समान रूप से फलने-फूलने का अवसर और आदर मिला।
जैन मान्यता के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का समय ईस्वी पू० छठी शती है। भगवान महावीर का निर्वाण हुए आज पच्चीस सौ तेरह वर्ष हो गये हैं। इनके निर्वाण के साथ ही तीर्थंकरों की परम्परा समाप्त हो गई। महावीर के बाद उनके धर्म-शासन को प्रार्य सुधर्मा और जम्बू स्वामी जैसे केवलियों, प्रभवस्वामी और भद्रबाह जैसे श्रुतकेवलियों तथा स्थलिभद्र, महागिरी, सुहस्ती देवद्धिगणि क्षमा-श्रमण, कुन्द-कुन्द जैसे प्राचार्यों ने आगे बढ़ाया ।
राजस्थान में जैनधर्म
राजस्थान में जैन धर्म की विद्यमानता का संकेत ईस्वी पू० पांचवी शती से मिलता है। अजमेर जिले के बड़ली नामक गांव से प्राप्त शिलालेख में भगवान महावीर के निर्वाण के ८४ वें वर्ष का तथा चितौड़ के समीप स्थित मध्यमिका नामक स्थान का उल्लेख है। इससे सूचित होता है कि सम्राट अशोक से पूर्व राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार था। अशोक के पौत्र राजा सम्प्रति ने जैन धर्म के उन्नयन और विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया। उसने राजस्थान में कई जैन मन्दिर बनाये। यह भी कहा जाता है कि वीर निर्वाण संवत् २०३ में आर्य सुहस्ती के द्वारा उसने घांवणी में पद्मप्रभ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी थी।
विक्रम की दूसरी शती में बने मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से प्रति प्राचीन स्तूप और जैनमन्दिर के ध्वंसावशेष मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में उस समय जैनधर्म का अस्तित्व था। केशोरायपाटन में गुप्तकालीन एक जैनमन्दिर के अवशेष से, सिरोही क्षेत्र के बसन्तगढ़ में प्राप्त भगवान् ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा से, जोधपुर क्षेत्र के प्रोसियाँ नामक गांव के महावीर मन्दिर के शिलालेख से, कोटा की समीपवर्ती जैन गुफाओं से, उदयपुर के पास स्थित प्रायड़ के पार्श्वनाथ मन्दिर और जैसलमेर के लोदरवा स्थित जिनेश्वर सूरि की प्रेरणा से निर्मित पार्श्वनाथ के मन्दिर से यह स्पष्ट होता है कि राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार ही नहीं था, वरन् सभी क्षेत्रों में उसका अच्छा प्रभाव भी था।
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धम्मो दीवो संसार समुव में
ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड / २०८
अजमेर क्षेत्र में भी जैनधर्म का व्यापक प्रभाव रहा। यहाँ के राजा वीराज के मन में श्री जिनदत्त सूरि के प्रति विशेष सम्मान का भाव था। जिनदत्त सूरि मरुधरा के कल्पवृक्ष माने गये हैं। उनका स्वर्गवास अजमेर में हुआ । दादाबाड़ियों का निर्माण उन्हीं से शुरु हुआ।
कुमारपाल के समय में हेमचन्द्र की प्रेरणा से जैनधर्म का विशेष प्रचार हुना। प्राबू के . जैनमन्दिर जो अपनी स्थापत्यकला के लिए विश्वविख्यात हैं, उसी काल में बने । पन्द्रहवीं शती में निर्मित राणकपुर का जैनमन्दिर भी भव्य और दर्शनीय है। इसके स्तम्भ अपने शिल्प और कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। जयपुरक्षेत्रीय श्री महावीरजी और उदयपुर क्षेत्रीय श्री केसरियानाथजी के मन्दिर ने जैनधर्म की प्रभावना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। ये तीर्थस्थल सभी धर्मों व वर्गों के लिए श्रद्धाकेन्द्र बने हुए हैं। इस क्षेत्र के मीणा और गूजर लोग भगवान महावीर और ऋषभदेव को अपना परम आराध्य मानते हैं।
यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि महावीर के निर्वाण के लगभग ६०० वर्ष बाद जैनधर्म दो मतों में विभक्त हो गया-दिगम्बर और श्वेताम्बर । जो मत साधुनों की नग्नता का पक्षधर था और उसे ही महावीर का मूल प्राचार मानता था, वह दिगम्बर कहलाया । यह मूल संघ नाम से भी जाना जाता है। और जो मत साथुओं के वस्त्र, पात्र का समर्थन करता था, वह श्वेताम्बर कहलाया। आगे चलकर दिगम्बर सम्प्रदाय कई संघों में विभक्त हो गया, जिनमें मुख्य हैं--- द्राविड़संघ, काष्ठासंघ और माथुरसंघ। कालान्तर में शुद्धाचारी, तपस्वी दिगम्बर मुनियों की संख्या कम हो गई और नये भट्टारक वर्ग का उदय हुआ जिसकी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सेवायें रही हैं। जब भट्टारकों में शिथिलाचार पनपा तो उसके विरुद्ध सत्रहवीं शती में एक नये पंथ का उदय हुआ जो तेरहपंथ कहलाया। इस पंथ में टोडरमल जैसे विद्वान् दार्शनिक हुए । श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी आगे चलकर दो भागों में बंट गयाचैत्यवासी और वनवासी। चैत्यवासी उग्रविहार छोड़कर मन्दिरों में रहने लगे। कालान्तर में श्वेताम्बर सम्प्रदाय कई गच्छों में विभक्त हो गया। इनकी संख्या ८४ कही जाती है। इनमें खरतरगच्छ व तपागच्छ प्रमुख हैं। कहा जाता है कि वर्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि ने गुजरात के अणहिलपुर पट्टण के राजा दुर्लभदेव की सभा में जब चैत्यवासियों को परास्त किया तो राजा ने उन्हें 'खरतर' नाम दिया और इस प्रकार खरतरगच्छ नाम चल पड़ा। तपागच्छ के संस्थापक श्री जगतचन्द्र सूरि माने जाते हैं। संवत् १२८५ में उन्होंने उग्रतप किया । इस उपलक्ष्य में मेवाड़ के महाराणा ने इन्हें 'तपा' उपाधि से विभूषित किया। तब से यह गच्छ 'तपागच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुआ। खरतरगच्छ और तपागच्छ दोनों ही मूर्ति-पूजा में विश्वास करते हैं।
चौदहवीं-पन्द्रहवीं शती में संतों ने धर्म के नाम पर पनपने वाले बाह्य प्राडम्बर का विरोध किया, इससे भगवान् की निराकार उपासना को बल मिला। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथ प्रमूर्तिपूजक हैं। ये मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते । स्थानकवासियों का सम्बन्ध गुजरात की लोकागच्छ परम्परा से रहा है। राजस्थान में यह परम्परा शीघ्र ही फैल गयी और जालौर, सिरोही, जैतारण, नागौर, बीकानेर आदि स्थानों पर इसकी गद्दियाँ प्रतिष्ठापित हो गयीं। इस परम्परा में जब आडम्बर बढ़ा तब जीवराजजी, हरजी, धन्नाजी पृथ्वीचन्दजी, मनोहरजी आदि पूज्य मुनियों ने तप-त्याग मूलक सद्धर्म का प्रचार किया।
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राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २०९
स्थानकवासी परम्परा बाईस सम्प्रदाय के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस परम्परा में भूधरजी, जयमल्लजी, रघुनाथजी, रतनचन्द्रजी, जवाहरलालजी, चौथमलजी, आदि प्रभावशाली प्राचार्य और संत हुए हैं।
श्वेताम्बर तेरापन्थ सम्प्रदाय के मूल संस्थापक प्राचार्य भिक्ष हैं। यह पंथ सैद्धान्तिक मतभेद के कारण संवत् १८१७ में स्थानकवासी परम्परा से अलग हुआ। इस पंथ के चौथे प्राचार्यजी श्री जयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं, राजस्थानी के महान साहित्यकार थे। उन्होंने तेरापंथ के लिए कुछ मर्यादायें निश्चित कर मर्यादा-महोत्सव का सूत्रपात किया। इस पंथ के वर्तमान नवम प्राचार्य श्री तुलसीगणी हैं, जिन्होंने अणुव्रत प्रांदोलन के माध्यम से नैतिक जागरण की दिशा में विशेष पहल की है और जो राजस्थानी भाषा के सरस कवि हैं।
राजस्थान में जैनधर्म के विकास और प्रसार में इन सभी जैनमतों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैनधर्म के विभिन्न प्राचार्यों, सन्तों और श्रावकों का जन-साधारण के साथ ही नहीं वरन् यहाँ के राजा और महाराजामों के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। प्रभावशाली जैन श्रावक यहाँ राज-मन्त्री, सेनापति, सलाहकार और किलेदार जैसे विशिष्ट उच्चपदों पर रहे हैं। उदयपुर क्षेत्र के रामदेव, सहणा, कर्माशाह, भामाशाह क्रमशः महाराणा लाखा, कुम्भा, सांगा और प्रताप के राज-मन्त्री थे। कुंभलगढ़ के किलेदार प्रासाशाह ने बालक राजकुमार उदयसिंह का गुप्त रूप से पालन-पोषण कर अपने अदम्य साहस और स्वामीभक्ति का परिचय दिया था, बीकानेर के मन्त्रियों में वत्सराज, कर्मचन्द बच्छावत, वरसिंह, संग्रामसिंह, आदि की सेवायें विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। बीकानेर के महाराजा रायसिंह करणसिंह, सुरतसिंह ने क्रमश: जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरि, धर्मवर्द्धन, व ज्ञानसार को बड़ा सम्मान दिया। जोधपुर राज्य के मन्त्रियों में मेहता रायचन्द्र, वर्धमान आसकरण, मूणोत नेणसी और इन्द्रराज सिंघवी का विशेष महत्त्व है। जयपुर के जैन दीवानों की लम्बी परम्परा रही है। इनमें मुख्य हैं-मोहनदास, संघी हुकुमचन्द, विमलदास छाबड़ा, रामचन्द्र छाबड़ा, कृपाराम पण्ड्या । अजमेर का धनराज सिंघवी भी महान योद्धा था। इन सभी वीर मन्त्रियों ने न केवल शासनव्यवस्था की सुदढ़ता में योग दिया वरन् राजस्थानी साहित्य और कला के विकास व उन्नयन के लिए अनुकूल अवसर भी प्रदान किया।
जैन सन्तों के साहित्य का धरातल
जैन सन्तों की प्रात्मोत्थान और राष्ट्रोत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उनका समग्र जीवन अहिंसा, संयम, तप, त्याग और लोककल्याण के लिये समर्पित रहा है । सांसारिक मोह-माया और घर-गृहस्थी के प्रपंच से छूट कर ये जब श्रमण दीक्षा अंगीकार करते हैं तब नितान्त अपरिग्रही बन जाते हैं । न इनका अपना ठहरने का कोई निश्चित स्थान होता है न जीवनयापन के लिए ये कोई संग्रह करते हैं। वर्षाऋतु के चार महीनों के अतिरिक्त ये कहीं स्थायी रूप से ठहरते नहीं। वर्ष के शेष आठ महीनों में ग्रामानुग्राम पदयात्रा करते हुए, जीवन को पवित्र और सदाचारयुक्त बनाने की प्रेरणा और देशना देना ही इनका मुख्य लक्ष्य रहता है। अपना जीवन ये सद्गृहस्थों से भिक्षा लाकर चलाते हैं। इनकी भिक्षावृत्ति को । मधुकरीवृत्ति या गोचरी कहा गया है। ये अपने पास एक कौड़ी तक नहीं रखते और वस्त्र, धम्मो दीवो पात्र, शास्त्र आदि मिलाकर इतनी ही सामग्री रखते हैं कि पद-यात्रा में ये स्वयं उठा सकें।
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | २१०
न किसी के प्रति इनका राग होता है न द्वेष । प्राणिमात्र के प्रति मंत्री भाव रखते हुए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का ये कठोरता के साथ पालन करते हैं । इनका अधिकांश समय ध्यान, स्वाध्याय, साधना और लोकोपदेशना में ही व्यतीत होता है।
प्राचारगत पवित्रता और मर्यादा के परिणामस्वरूप जैनसन्तों द्वारा सृजित साहित्य शब्दों का विलास न होकर आत्मा का उल्लास और नैतिक जागरण का माध्यम होता है। मानव अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सके, इस प्रक्रिया को विभिन्न रूपों और प्रकारों से जनसामान्य को समझाना, जैन साहित्य का मूल उद्देश्य है। यह 'समझ' जन-सामान्य के हृदय को छू सके, इस प्रयोजन को ध्यान में रख कर ये सन्त अपनी बात लोकभाषा में लोककथाओं और लोक-विश्वासों को आधार बनाकर कहने के विशेष अभ्यासी रहे हैं। लोक जीवन से इतना निकट उतर कर भी ये शास्त्रीय ज्ञान से अनभिज्ञ नहीं हैं। शास्त्रीयता और सहजता, पण्डितता और सरलता, धार्मिकता और लौकिकता का जो सामंजस्य इनकी साहित्यप्रक्रिया में दृष्टिगत होता है, वह अत्यन्त दुर्लभ है।
अपने प्राचार-नियमों के प्रति अत्यन्त कठोर होते हुए भी ये कवि युग की नब्ज को पहचानने में विशेष दक्ष व संवेदनशील रहे हैं। एक अमुक धर्मविशेष का प्रास्था में पलकर भी ये विचारों में उदार मानववादी रहे हैं। पदयात्रा इनके धर्म का अंग होने से इनका जन-जीवन से निकट का सम्पर्क सधता चलता है । विभिन्न क्षेत्रों और अनुभवों के लोगों का सम्पर्क इन्हें समय की वर्तमानता और जीवन की यथार्थ स्थितियों से बराबर जोड़े रखता है। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में एक विशेषप्रकार की ताजगी और आत्मीयतापूर्ण संबंधों की गन्ध मिलती है । कथ्यगत शालीनता और शिल्पगत वैविध्य इसका प्रतीक है ।
जैन सन्त जीवन और शास्त्रों के गूढ़ अध्येता रहे हैं । व्यक्ति की गरिमा, स्वतन्त्रता और समानता के ये जबरदस्त समर्थक रहे हैं। इनकी चिन्तना का मूल प्राधार यह रहा है कि व्यक्ति का विकास किसी परोक्ष सत्ता द्वारा नियन्त्रित न होकर, व्यक्ति के स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा संचालित है। व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसीके अनुरूप उसे सुख-दुःखात्मक फल भोगने पड़ते हैं। कर्मवाद का यह सिद्धान्त व्यक्ति को तथाकथित ईश्वरीय निरंकुशता के चंगुल से मुक्त कर व्यक्ति को स्वतः कर्म करने और उसे भोगने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है और इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ और साधना के बल पर उदीरणा, उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण के जरिये अपने कर्मों की अवधि को घटा-बढ़ा सकता है, कर्म फल की शक्ति को मन्द अथवा तीव्र कर सकता है और एक कर्मप्रकृति को दूसरी कर्मप्रकृति में संक्रमित भी कर सकता है।
प्रमुख जैन सन्त कवि
राजस्थान के जैन सन्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, राजस्थानी और हिन्दी सभी भाषामों में समान रूप से साहित्य-सर्जन करते रहे हैं। हरिभद्र सूरि, उद्योतन सूरि, जयसिंह सूरि, पद्मनन्दी, जिनेश्वर सूरि, जिनचन्द्र सूरि, जिनवल्लभ सूरि, जिनकुशल सूरि, समयसुन्दर, भट्टारक शुभचन्द्र आदि प्राकृत साहित्य के, ऐलाचार्य अमृतचन्द्र, हेमचन्द्र, प्राशाधर, प्रभाचन्द्र,
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राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन | २११
सकलकीर्ति, ब्रह्मजिनदास प्रादि संस्कृत साहित्य के प्रमुख साहित्यकार हुए हैं। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश की ही परम्परा आगे चलकर राजस्थानी साहित्य में विस्तार को प्राप्त हुई। राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करने वाले प्रमुख कवियों के नाम इस प्रकार हैं:-शालिभद्र सुरि, आसिग, सुमतिगणि, देल्हण, जय सागर, देपाल, ऋषिवर्धन सूरि, मतिशेखर, पद्मनाभ, धर्मसुन्दरगणि, सहजसुन्दर, पार्श्वनाथ सूरि, ठक्कुरसी, बुचराज, छीहल, विजयसमुद्र, राजशील, पुण्यसागर, कुशललाभ, मालदेव, हीरकलश, कनकसोम, हेमरत्न सूरि, रायमल्ल, हर्षकीर्ति, ब्रह्मजिनदास, विद्याभूषण, रत्नकीर्ति, गुणविनय, समयसुन्दर, सहजकीर्ति, श्रीसार, जिनराजसूरि, जिनहर्ष, लब्धोदय, धर्मवर्धन, कीर्तिसुन्दर, कुशलधीर, जिनसमुद्र सूरि, जयमल्ल, संत भीसणजी, रायचन्द्र, प्रासकरण, सबलदास, दुर्गादास, लालचन्द, रतनचन्द्र, चौथमल, जयाचार्य, मनीराम, मुजानमल, नेमिचन्द्र, माधवमुनि आदि ।।
जैन सन्तों की तरह जैन साध्वियों का भी साहित्त्य-निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रमुख कवयित्रियों के नाम इस प्रकार हैं:-विनयचुला, पद्मश्री, हेमश्री, हेमसिद्धि, विवेकसिद्धि, विद्यासिद्धि, हरकवाई, हुलासा, सरूपां बाई, जड़ावजी, भूरसुन्दरी आदि । नैनकाव्य की विशेषताएं - जैनकाव्य विविध और विशाल है। यद्यपि इसका मूल स्वर शान्त रसात्मक है पर जीवन के सभी पक्षों को इसने स्पर्श किया है। रसात्मक साहित्य के साथ-साथ ज्ञानात्मक साहित्य भी विपुल परिमाण में रचा गया है । यथा ज्योतिष, गणित, वैद्यक, योग सम्बन्धी साहित्य ।
__ जैन काव्य की यह विशेषता विषय तक ही सीमित नहीं है, रूप और शैली में भी महाकाव्य तथा खण्ड काव्य के बीच कई स्तरों पर शताधिक नवीन काव्य रूप खड़े किये गये।
पद्य के क्षेत्र में जो काव्यरूप उभरे, उन्हें इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है:
(क) चरित काव्य
_इनमें सामान्यत: जैन तीर्थंकरों, प्राचार्यों और विशिष्ट महापुरुषों के जीवन पाख्यान को पद्य में बांधा गया है। ये पाख्यान विशेषत: प्रबंधात्मक और गौणत: मुक्तक हैं। इनमें चरित्रनायक का पूर्वभव, जन्म, माता-पिता, शैशवकाल, विवाह, वैराग्य, संयमधारण, कठोर साधना, मृत्यु प्रादि का वर्णन है। ये चरित प्रायः विभिन्न सों, अध्यायों या ढालों में विभक्त हैं। इस वर्ग में रास, रासो, चौपाई, चौपई, सन्धि, चर्चरी, ढाल, प्रबन्ध, चरित, पाख्यान, कथा, पवाड़ा, आदि काव्यरूप पाते हैं।
(ख) ऋतु काव्य
इनमें सामान्यतः ऋतुओं एवं लौकिक उत्सवों पर लिखे गये काव्य रूप सम्मिलित किये जा सकते हैं। फागु, धमाल, बारहमासा, धवल, मंगल आदि ऐसे ही काव्य हैं। फागु काव्य मूलतः वसंतोत्सव से सम्बन्धित है। धमाल में किसी उत्सवविशेष की चहलपहल, उत्साहवर्द्धकता, मस्ती और मादकता चित्रित की जाती है। बारहमासा में नायिका की विरह-व्यथा प्रत्येक मास के ऋतुपरिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में व्यं जित की जाती है। धवल और मंगल काव्य विवाहादि मांगलिक उत्सवों और तत्सम्बन्धी गीतों से सम्बन्धित हैं ।
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संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / २१२
(ग) नीतिकाव्य
जैन काव्य की मूल प्रवृत्ति प्रोपदेशिक भावना है । संसार की प्रसारता,काया की नश्वरता, व्यसन-त्याग, क्रोध, मान, माया, लोभ का त्याग, तप का माहात्म्य, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का धारण, भाव शुद्धि, दान की महत्ता, संयम की कठोरता प्रादि अनेक . नैतिक उपदेश संवाद, कक्का, मातृका, बावनी कुलक, हीयाली, बारहखड़ी प्रादि काव्यरूपों में दिये जाते हैं। संवाद में दो मूर्त-प्रमूर्त भावनाओं में कृत्रिम विरोध का झगड़ा खड़ा कर एकदूसरे को नीचा दिखाते हुए, शुभ संकल्प और धर्मतत्त्व की विजय दिखायी जाती है । कक्का, बावनी, बारहखड़ी आदि काव्यरूपों में देवनागरी लिपि के वर्णक्रम को आधार बनाकर, कोई न कोई नीति की बात कही जाती है।
(घ) स्तुतिकाव्य
इस वर्ग में जैन तीर्थंकरों, धर्माचार्यों, धर्मगुरुओं, विशिष्ट सन्त-सतियों प्रादि का गुणकीर्तन किया जाता है। तीर्थंकरों में ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी की स्तुति विशेषरूप से की गई है। विहरमानों की स्तुति में बीसी संज्ञक काव्यरूप लिखे गये हैं । तीर्थस्थानों की महत्ता में तीर्थमाला, चैत्य परिपाटी आदि काव्यरूप रखे गये। स्तुति काव्य के प्रमुख रूप हैं-स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, विनति, गीत, नमस्कार, चौबोसी, वीसी, तीर्थमाला आदि।
जैन पद्य की तरह जैन गद्य भी काफी समृद्ध और विपुल परिमाण में मिलता है। यह गद्य दो रूपों में मिलता है- स्वतन्त्र मौलिक सृजन के रूप में और टीका तथा अनुवाद के रूप में । स्वतन्त्र गद्य के क्षेत्र ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य के रूप में तथा टीकात्मक गद्य के क्षेत्र में टब्बा और बालावबोध के रूप में कई काव्य रूप विकसित हए । संक्षेप में उन्हें इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है :
(क) ऐतिहासिक गद्य
धार्मिक गद्य के साथ-साथ जैन विद्वानों ने ऐतिहासिक गद्य को भी प्रारम्भिक सहयोग दिया। इन विद्वानों ने गुर्वावली, पट्टावली, वंशावली, उत्पत्तिग्रन्थ, दफ्तरबही, ऐतिहासिक टिप्पण आदि विविध काव्य रूपों में इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री को सुरक्षित रखा । गुर्वावली में गुरु-परम्परा का विस्तृत और विश्वस्त चरित्र वर्णित रहता है। पट्टावली में गच्छविशेष के पट्टधर प्राचार्यों का जन्म, दीक्षा, साधनाकाल, विहार, मृत्यु आदि का विवरण तथा उनकी शिष्य-संपदा और प्रभावना का यथातथ्य चित्रण निहित रहता है। उत्पत्ति ग्रन्थ में किसी सम्प्रदाय विशेष की उद्भवकालीन परिस्थितियों का तथा उसके प्रवर्तन के कारणों आदि का वर्णन होता है । वंशावली में जैन श्रावकों की वंश-परम्परा का वर्णन दिया जाता है। दफ्तरबही एक प्रकार की डायरी शैली है, जिसमें रोजनामचे की भाँति दैनिक व्यापारों का विवरण लिखा जाता है । ऐतिहासिक टिप्पण एक प्रकार के स्फुट ऐतिहासिक नोट हैं जिन्हें व्यक्तिविशेष ने अपनी रुचि ने अनुसार संगृहीत कर लिया है। (ख) कलात्मक गद्य
कलात्मक गद्य के वचनिका, ददावेत, सिलोका, वर्णक ग्रन्थ; बात प्रादि काव्यरूप
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• राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २१३
विकसित हुए हैं । इस गद्य की यह विशेषता है कि इसमें अनुप्रासात्मक और अन्त्यानुप्रासमूलक शैली का प्रयोग किया जाता है। गद्य की तुकात्मकता संक्षेप में इन काव्यरूपों की सामान्य विशेषता है। हिन्दी में प्राधुनिक युग में चलकर जिस गद्य काव्य की सृष्टि की गयी, उसके मूल उत्स इन काव्यरूपों में ढूंढे जा सकते हैं। यह अलग बात है कि दोनों के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर रहा हो।
( ग ) टीकात्मक गद्य
टीकात्मक गद्य के निर्माण में जैन विद्वानों का योग सबसे अधिक रहा है। यह गद्य पाँच रूपों में हमारे सामने पाया चूर्णि प्रवचूर्णि टख्या वालावबोध, और वचनिका चूर्णि में मूल गाया का विवेचन और विश्लेषण बड़ी गहराई धौर सूक्ष्मता के साथ किया जाता है। एक प्रकार से विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से उनका मन्थन कर दिया जाता है, इसलिए इस रूप को 'चूर्णि' कहा गया 'अवचूर्णि' चूर्ण का संक्षिप्त रूप है 'टव्वा' एक प्रकार की सामान्य शैली है जिसमें मूल शब्द का अर्थ ऊपर-नीचे या पार्श्व में एक विशेष प्रकार की टीकाशैली है जिसमें मूल ग्रन्थ की मूल सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न कथायें भी दी जाती हैं। इस टीका को इतने सहज भाव से लिखा जाता है कि इसे बालक जैसा अपढ़ या मन्द बुद्धिवाला व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है । सम्भव है इसीलिए उसे 'बालावबोध' संज्ञा दी गयी है । 'वचनिका' मूलग्रन्थ का भाषानुवाद है, जो कलात्मक गद्य की वचनिका विधा से नितान्त भिन्न है ।
दे दिया जाता है। 'बालावबोध' व्याख्या ही नहीं की जाती, वरन्
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कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैनकवियों ने पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में काव्यरूप सम्बन्धी कई नवीन प्रयोग किये। ये प्रयोग चमत्कार प्रदर्शन के लिए न होकर लोक मानस को प्रबुद्ध पौर संवेदनशील बनाने के लिए हुए इन प्रयोगों से यह लाभ हुआ कि काव्यरूपों की गतानुगतिक परम्परा, शास्त्रीयता के बन्धन से सहजता की घोर, कटिबद्धता से लौकिकता की श्रोर, प्रोर बने-बनाये सांचों से बाहर निकलकर लोकजीवन के व्यापक सांस्कृतिक परिवेश की ओर बढ़ी, प्रवाहित हुई ।
जैनकवि काव्य को कलाबाजी नहीं समझते। वे उसे प्रकृत्रिम रूप से हृदय को प्रभावित करने वाली धानन्दमयी कला के रूप में देखते हैं जहाँ उन्होंने लोकभाषा का प्रयोग किया वहाँ भाषा को अलंकृत करने वाले सारे उपकरण ही लोक जगत से ही चुने हैं। जैनेतर कवियों में (विशेष कर चारणी शैली में लिखित काव्य ) जहाँ भाषा को विशेष प्रकार के शब्द चयन द्वारा, विशेष प्रकार के अनुप्रास प्रयोग ( वयण सगाई श्रादि) द्वारा श्रौर विशेष प्रकार के छन्दोऽनुबद्ध द्वारा एक विशेष प्रकार का प्राभिजात्य गौरव और रूप दिया है, वहाँ जैनकाव्य भाषा को अपने प्रकृत रूप में ही रखकर प्रभावशाली और प्रेषणीय बना सके हैं। यहाँ अलंकारों के लिए ग्राग्रह नहीं। वे अपने ग्राप परम्परा से युगानुकूल चले आ रहे हैं। शब्दों में अपरिचित सा अकेलापन नहीं, उनमें पारिवारिक सम्बन्धों का सा उल्लास है। छन्दों में तो इतना वैविध्य है कि सभी धर्मों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों से वे सीधे खिचे चले घा रहे हैं। दालों के रूप में लोक देशियाँ अपनाई गई हैं। लोकोक्तियों और मुहावरों का जो प्रयोग किया गया है वे शास्त्रीय कम और लौकिक अधिक हैं। पर इस विश्लेषण से यह न समझा जाये कि उनका काव्यशास्त्रीय ज्ञान अपूर्ण था या बिलकुल ही नहीं था। ऐसे कवि भी
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | २१४
पर्याप्त हैं जो शास्त्रीय परम्परा में सर्वोच्च ठहरते हैं, प्रालंकारिक चामत्कारिता, शब्दक्रीड़ा और छन्दशास्त्रीय मर्यादा-पालन में होड लेते प्रतीत होते हैं। पर यह प्रवृत्ति जैन साहित्य की सामान्य वृत्ति नहीं है । शैलीगत समन्वय भावना के दर्शन वहाँ स्पष्ट हो जाते हैं, जहाँ वे अपने नायक को मोहन और नायिका को गोपी कह देते हैं । लगता है जिस समय वैष्णव धर्म और वैष्णव साहित्य का अत्यन्त व्यापक प्रचार था, उस समय जन-साधारण को अपने धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए इन साहित्यकारों ने अपने साहित्य में कृष्ण, राधा, गोपी, गोप, गोकुल, मुरली, यशोदा, जमुना, आदि शब्दों को स्थान दे दिया। विभिन्न देशिया तो लगभग वैष्णव प्रभाव को ही सूचित करती हैं।
जैनकाव्य में जो नायक आये हैं उनके दो रूप हैं, मूर्त और अमूर्त । मूर्त नायक मानव हैं, अमूर्त नायक मनोवृत्ति विशेष । मूर्त नायक साधारण मानव कम, असाधारण मानव अधिक हैं । यह असाधारणता पारोपित नहीं, अर्जित है। अपने पुरुषार्थ, शक्ति और साधना के बल पर ही ये साधारण मानव विशिष्ट श्रेणी में पहुंच गये हैं । ये विशिष्ट श्रेणी के लोग त्रेसठशलाका पुरुष के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, और प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं । इनके अतिरिक्त सोलह सतियां, स्थूलिभद्र, जम्बूस्वामी, सुदर्शन, गजसुकुमाल, श्रेणिक, श्रीपाल, धन्ना, प्राषाढ़भूति, आदि प्रालेख्य योग्य हैं। ये पात्र सामान्यत: राजपुत्र या कुलीन वंशोत्पन्न होते हैं । सांसारिक भोगोपभोग की सभी वस्तुएँ इन्हें सुलभ होती हैं। पर ये संस्कारवश या किसी निमित्त कारण से विरक्त हो जाते और प्रव्रज्या अंगीकार कर लेते हैं। दीक्षित होने के बाद इन पर मुसीबतों के पहाड़ टूटते हैं। पूर्व जन्म के कर्मोदय कभी उपसर्ग बनकर, कभी परीषह बनकर सामने आते हैं। कभी-कभी देवता रूप धारणकर इनकी परीक्षा लेते हैं, इन्हें अपार कष्ट दिया जाता है पर ये अपनी साधना से विचलित नहीं होते। परीक्षा के कठोर आघात इनकी आत्मा को और अधिक मजबूत, उनकी साधना को और अधिक स्वणिम तथा उनके परिणामों को और अधिक उच्च बना देते हैं । अन्ततोगत्वा सारे उपसर्ग शान्त होते हैं, वेशधारी देव परास्त होकर इनके चरणों में गिर पड़ते हैं और पुष्पवृष्टि कर इनके गौरव में चार चांद लगा देते हैं । ये पात्र केवलज्ञान के अधिकारी बनते हैं, लोक-कल्याण के लिए निकल पड़ते हैं और अन्तत: परमपद मोक्ष की प्राप्ति कर अपनी साधना का नवनीत पा लेते हैं । प्रतिनायक परास्त होते हैं पर अन्त तक दुष्ट बनकर नहीं रहते । उनके जीवन में भी परिवर्तन आता है और वे नायक के व्यक्तित्व की किरण से संस्पर्श पा अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं।
अमर्त्त नायक में 'जीव' या 'चेतन' को गिना जा सकता है तथा नायिका में 'सुमति' को । अमूर्त प्रतिनायकों में 'मोह' सबसे बलशाली है और प्रतिनायिका में 'कुमति' को रख सकते हैं । चेतन राजा अपने प्रान्तरिक गुणों से शत्रु-सेना (मोह) को परास्त कर मुक्ति रूपी गढ़ का अधिपति बन बैठता है।
जैनकाव्य का अधिकांश भाग आगमसिद्धान्त को ही प्रतिपादित करने में लगा है। पर जैनकवियों की दृष्टि यहीं तक सीमित रही हो, ऐसा कहना एकान्त सत्य न होगा। सच तो यह है कि जैनदर्शन की समन्वय भावना ने जैनकवियों की दृष्टि को भी उदार बना दिया है। यही कारण है कि एक ओर तो उन्होंने विष्णु के अवतार समझे जाने वाले राम और कृष्ण
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राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन | २१५
को भी सामान्य महापुरुष न मानकर विशिष्ट श्रेणी के महापुरुषों में स्थान दिया है। राम बलदेव श्रेणी में हैं तो कृष्ण वासुदेव श्रेणी में। यही नहीं जिन पात्रों को जैनेतर कवियों ने घणित और बीभत्स दष्टि से देखा है, उन पात्रों को भी यहाँ समूचित सम्मान दिया गया है। रावण भी यहाँ प्रतिवासुदेव श्रेणी का विशिष्ट पुरुष है। दूसरी ओर जैनेतर आदर्श पात्रों को अपना वर्ण्य विषय बनाकर उनके व्यक्तित्व की महानता का गान किया है। दलपतिविजयकृत 'खुमाण रासो' इस प्रसंग में द्रष्टव्य है। स्वतन्त्र ग्रन्थनिर्माण के साथ-साथ जैनेतर साहित्यकारों द्वारा रचित जैनेतर ग्रन्थों पर विस्तृत और प्रशंसात्मक टीकाएँ भी लिखी गई हैं। इस प्रोर बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ कृत 'क्रिसन रूक्मणी री बेलि' पर जैन विद्वानों द्वारा लिखित ७० टीकाओं का उल्लेख किया जा सकता है। यही नहीं जैन विद्वानों ने जनेतर प्राचीन ग्रन्थों की रक्षा करना भी अपना राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझा और बड़ी प्रादर भावना के साथ उनकी सुरक्षा की। आज जितने भी जैन भण्डार हैं, उनमें कई प्राचीन महत्त्वपूर्ण जैनेतर ग्रन्थ संरक्षित हैं। इससे भी आगे बढ़कर जैन यतियों ने अमूल्य जैनेतर ग्रन्थों को लिपिबद्ध कर उनका उद्धार किया। यही कारण है कि 'बीसलदेव रासो' की समस्त पुरानी प्रतियाँ लगभग जैनयतियों द्वारा लिखित उपलब्ध होती हैं।
जैन काव्य की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इन कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति को स्पष्ट और प्रभावशाली बनाने के लिए विराट सांगरूपकों की सुष्टि की। ये सांगरूपक लौकिक और तात्त्विक उपमानों को लेकर निर्मित हुए हैं। इनमें चेतन राजा, प्राध्यात्मिक दीवाली, मन माली, श्रद्धाश्रीदीप, अध्यात्म होली आदि के रूपक बड़े सटीक हैं। पूरे के पूरे पद में इनका निर्वाह बड़ी खूबी के साथ किया हुआ मिलता है। हिन्दी कवियों में गोस्वामी तुलसीदास रूपकों के बादशाह माने गये हैं। उनके ज्ञानदीपक और भक्तिचिन्तामणि के रूपक बड़े सुन्दर बन पड़े हैं पर मुझे तो लगता है कि यहां सामान्य रूप से प्रत्येक जैन कवि ने इन बड़े बड़े भव्य रूपकों का सहारा लिया है । तात्त्विक-सिद्धान्तों को लौकिक व्यवहारों के साथ 'फिट' बैठाकर ये कवि गूढ़ से गूढ़ दार्शनिक भाव को बड़ी सरलता के साथ समझा सके हैं। निर्गुण सन्त कवियों की तरह विरोध-मूलक वैचित्र्य और उलटबांसियों के दर्शन यहाँ नहीं के बराबर हैं । फिर भी इतना अवश्य है कि कुछ कवियों ने चित्रालंकार काव्य लिखकर अपनी चमत्कारप्रियता का परिचय दिया है। मयूरबन्ध, खड्गबन्ध, छतरीबन्ध, धनुषबन्ध, हस्तीबन्ध, भुजबन्ध, स्वस्तिकबन्ध प्रादि काव्य प्रकार इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं । जैन काव्य में यों तो सभी रस यथास्थान अभिव्यं जित हुए हैं पर अंगी रस शान्तरस ही है। जैनधर्म की मूल भावना अध्यात्मप्रधान है। वह संसार से विरक्ति और मुक्ति से अनुरक्ति की प्रेरणा देती है। शान्तरस का स्थायी भाव निर्वेद है। यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक कथा-काव्य का अन्त शान्तरसात्मक ही है। इतना सब कुछ होते हुए भी जैनसाहित्य में शृंगाररस के बड़े भावपूर्ण स्थल और मार्मिक प्रसंग भी देखने को मिलते हैं। विशेष कर विप्रलंभ शृगार के जो चित्र हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी और हृदय को विदीर्ण करने वाले हैं। मिलन के राशि-राशि चित्र वहाँ देखने को मिलते हैं जहाँ कवि 'संयमश्री' के विवाह की रचना करता है। यहाँ जो शृगारहै वह रीति-कालीन कवियों के भावसौन्दर्य से तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है । पर यह स्मरणीय है कि यहाँ शृगार शान्तरस का सहायक बनकर ही आता है। इस शृगार वर्णन में मन को सुलाने वाली मादकता नहीं, वरन् आत्मा को जागृत करने वाली मनुहार है।
घग्गो दीयों संसार समदमें महीधीय
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चतुर्थ खण्ड / २१६
शृंगार की यह प्रतिक्रिया आवेगमयी बनकर नायक को शान्तरस के समुद्र की गहराई में बहुत दूर तक पेठा देती है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर जैनकवियों की काव्य-साधना की मुख्य विशेषताओं को . संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है:
१. ये कवि प्रमुख रूप से साधक और शास्त्रज्ञ रहे हैं। कवित्व इनके लिये गौण रहा है। प्रतिदिन जनमानस को प्रतिबोधित करना उनके कार्यक्रम का मुख्य अंग होने से अपने उपदेश को बोधगम्य और जनसुलभ बनाने की दृष्टि से ये समय समय पर स्तवन, भजन, कथाकाव्य आदि की रचना करते रहे हैं।
२. इन कवियों के काव्य का मूल प्रेरणास्रोत पागम साहित्य और इससे सम्बद्ध कथासाहित्य रहा है । सुविधा की दृष्टि से इनके काव्य के चार वर्ग किये जा सकते हैं-चरितकाव्य, उत्सवकाव्य, नीतिकाव्य और स्तुतिकाव्य । चरितकाव्य में सामान्यतः तीर्थंकरों, गणधरों, महान् प्राचार्यों, निष्ठावान् श्रावकों सतियों प्रादि की कथा कही गई है। रामायण
और महाभारत को अपने ढंग से ढालों में निबद्ध कर उनके आदर्शों का व्यापक प्रचार प्रसार करने में ये बड़े सफल रहे हैं। ये काव्य रास, चौपाई, ढाल, सज्झाय, संधि, प्रबन्ध, चौढालिया, पंचढालिया, षटढालिया, सप्तढालिया, चरित कथा आदि रूपों में लिखे गये हैं। उत्सवकाव्य विभिन्न आध्यात्मिक पर्यों और ऋतु विशेष के बदलते हए वातावरण को माध्यम बनाकर लिखे गये हैं। इनमें सामान्यतः लौकिक रीति-नीति को सांगरूपक के माध्यम से लोकोतर रूप में ढाला है । नीति काव्य जीवनोपयोगी उपदेशों तथा तात्त्विक सिद्धान्तों से सम्बन्धित है। इनमें सदाचारपालन, कषाय-त्याग, सप्तव्यसन-त्याग, ब्रह्मचर्य, व्रत-प्रत्याख्यान, बारह भावना, ज्ञानदर्शन, चारित्र, तप, दया, दान, संयम आदि का माहात्म्य तथा प्रभाव वर्णित है। स्तुतिकाव्य चौवीस तीर्थंकरों, बीस विहरमानों और महान आचार्यों तथा मुनियों से सम्बन्धित है।
३. इन विभिन्न काव्यों का महत्त्व दो दृष्टियों से विशेष है । साहित्यिक दृष्टि से इन कवियों ने महाकाव्य और खण्डकाव्यों के बीच काव्यरूपों के कई नये स्तर कायम किये और उनमें लोकसंगीत का विशेष सौन्दर्य भरा। वर्ण्य विषय की दृष्टि से अधिकांश चरित काव्यों में कथा की कोई नवीनता या मौलिकता नहीं है । पिष्टपेषण मात्र सा लगता है । एक ही चरित्र को विभिन्न रूपों में बार-बार गाया गया है पर इन कथाओं के माध्यम से क्षेत्रीय लोकजीवन और लोकसंस्कृति का जो चित्र अंकित किया गया है, वह सांस्कृतिक दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। प्रागमिक कथामों के अतिरिक्त अपनी परम्परा से सम्बद्ध जिन महान् प्राचार्यों, मुनियों और साध्वियों पर जो सज्झाय, स्तवन और ढालें लिखी गई हैं, उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है।
४. ये कवि मूल रूप से धार्मिक क्रांति और सामाजिक जागरण से जुड़े हुए हैं। इस कारण इन कवियों में धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडम्बर, बाह्याचार, रूढ़िवादिता और जड़ता के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोह की भावना रही है। इन्होंने सदैव निर्मल संयम-साधना, प्रांतरिक पवित्रता और साध्वाचार की कठोर मर्यादा पर बल दिया है।
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राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २१७
५. ये कवि जन्मना राजस्थानी होकर भी अपने साधनाकाल में विभिन्न क्षेत्रों में पद-विहार करते रहे हैं। इस कारण इनकी भाषा में स्वाभाविक रूप से अन्य प्रान्तों के देशज शब्दों का समावेश हो गया है। भाषा के क्षेत्र में इन कवियों का दृष्टिकोण बड़ा उदार और लचीला रहा है। इन्होंने सदैव तत्सम प्रयोगों के स्थान पर तद्भव प्रयोगों को विशेष महत्त्व दिया है। भाषा की रूढिबद्धता से ये सदैव दूर रहे हैं। यही कारण है कि इनके काव्यों में भले ही रीतिकालीन कवियों सा चमत्कार प्रदर्शन और कलात्मक सौन्दर्य न मिले, पर भाषाविज्ञान की दृष्टि से इनके अध्ययन का विशेष महत्त्व है। अलंकारों के प्रयोग में ये बड़े सजग रहे हैं। उपमानों के चयन में इनकी दृष्टि शास्त्रीयता की अपेक्षा लोकजीवन पर अधिक टिकी है। लम्बे लम्बे सांगरूपक बांधने में ये विशेष दक्ष प्रतीत होते हैं ।
६. छन्द के क्षेत्र में इनका विशेष योगदान है। जहाँ एक पोर इन्होंने प्रचलित मात्रिक और वर्णिक छन्दों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न छन्दों को मिलाकर कई नये छन्दों की सर्जना की है। ये कवि अपने काव्य का सर्जन मुख्यतः जनमानस को प्रतिबोधित करने के उद्देश्य से किया करते थे, अतः समय-समय पर प्रचलित लोक धुनों और लोकप्रिय तों को अपनाना ये कभी नहीं भूले । जहाँ वैराग्य-प्रधान कवित्त और सवैये लिखकर इन्होंने मां भारती का भण्डार भरा, वहाँ ख्यालों में प्रचलित तोड़े भी इनकी पहुँच से नहीं बचे । गजल और फिल्मी धुन के प्रयोग भी प्राध्यात्म के क्षेत्र में ये बड़ी कुशलता से कर सके हैं।
७. साहित्य निर्माण के साथ-साथ प्रति-लेखन और साहित्य-संरक्षण में भी इन कवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । कई मुनियों और साध्वियों ने अपने जीवन में सैकड़ों मूल्यवान् और दुर्लभ ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर, उन्हें कालकवलित होने से बचाया है । साहित्य के संरक्षण और प्रतिलेखन में इन्होंने कभी भी साम्प्रदायिक दृष्टि को महत्त्व नहीं दिया । जो भी इन्हें ज्ञानवर्द्धक, जनहितकारी और साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान् लगा, फिर चाहे वह जैन हो या जैनेतर, उसका संग्रह-संरक्षण अवश्य किया। राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक देन की दृष्टि से इनका यह योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
-२३५ ए, तिलकनगर, जयपुर (राज.)
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धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान
- डॉ० शान्ता भानावत
राजस्थानी साहित्य शौर्य, शक्ति और भक्ति का साहित्य है। इसने प्रत्येक नर-नारी को त्याग, बलिदान, साहस, वीरता एवं धर्म की रक्षा का पाठ पढ़ाया। यहां के युगल प्रेमी दाम्पत्यधर्म की पवित्रता और सतीत्व की रक्षा के लिये मर मिटे हैं। यहाँ की नारी पुरुष को कर्तव्यपालन की प्रेरणा ही नहीं देती वरन् अवसर आने पर स्वयं हाथ में तलवार भी उठाती है। युद्धक्षेत्र से परास्त होकर पति के भाग आने पर वह उसे ऐसी व्यंग्योक्तियां सुनाती हैं कि उसके कायर दिल में बिजली का वेग दौड़ पड़ता है। भक्तिक्षेत्र में भी यहाँ के साहित्य ने भक्त और भगवान के मधुर सम्बन्धों को वाणी दी है तो रीति के क्षेत्र में कई नवीन काव्यशास्त्रीय मानदण्ड स्थापित कर अपना विशिष्ट व्यक्तित्व प्रतिफलित किया है।
राजस्थान में साहित्यसृजन के क्षेत्र में महिलाएं पीछे नहीं रहीं। यहाँ की विदुषी कवयित्रियों का साहित्य वीर, भक्ति और शृगार भावों से भरापूरा है। यहाँ १४ वीं शती से १९ वीं शती के मध्य होने वाली कवयित्रियों का साहित्यिक परिचय संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
अध्ययन की सुविधा के लिए मध्यकालीन विभिन्न धाराओं की कवयित्रियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है
१. डिंगल काव्यधारा की कवयित्रियाँ २. रामकाव्यधारा की कवयित्रियां ३. कृष्णकाव्यधारा की कवयित्रियाँ ४. निर्गुणकाव्यधारा की कवयित्रियाँ ५. जैनकाव्यधारा की कवयित्रियाँ ।
१. डिगल काव्यधारा की कवयित्रियाँ
इस धारा की कवयित्रियों की मुख्य भाषा डिंगल (राजस्थानी की चारण शैली) है। इन कवयित्रियों का सम्बन्ध मुख्यत: राजघरानों या चारण परिवारों से रहा है। इनकी कविताओं में प्रमुख रूप से वीर और शृगार रस की अभिव्यंजना हुई है। इन कवयित्रियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से एक ओर राजाओं में साहित्यानुराग पैदा किया तो दूसरी भोर संयोग-वियोग में उठने वाले भावों द्वारा नायक-नायिकाओं के हृदय की धड़कन को पहचाना । जिस प्रकार चारण कवियों की लेखनी ने रणबांकुरे राजानों को युद्धभूमि में उत्साहित कर वीरोचित भावनाएँ भरी वैसे ही इन कवयित्रियों ने घर बैठे अपनी कविताओं
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान | २१९
द्वारा राजाओं को अपनी विस्मृत शक्ति का ज्ञान कराया। इस धारा की प्रमुख कवयित्रियाँ निम्नलिखित हैं
१. झीमा चारणी (रचनाकाल सं० १४८० के आसपास)
यह कच्छ देश के अंजार नगर निवासी वरसड़ा शाखा के मालव जी नामक चारण व्यापारी की कनिष्ठा पुत्री थी । एक चारण युवक ने इनका अपमान किया था तब से इन्होंने चारण युवक से विवाह न करने की प्रतिज्ञा ली थी। इसी कारण इनका विवाह जैसलमेर के तणोट निवासी भाटी बुध के साथ हुआ था।
कवयित्री भीमा की लेखनी में अद्भुत बल छिपा था। अपनी कविता द्वारा प्रेरणा देकर उसने गागरोण गढ़ के राजा अचलदास खींची, जो लालादे के प्रेम में फंस गये थे, उन्हें सदा के लिए अपनी पत्नी उमा दे सांखली का बना दिया। हृदयस्थ भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति इनके पदों में मिलती है । इनका जन्म एवं रचनाकाल १५ वीं शताब्दी है । भाषा, भाव, और अभिव्यक्ति की दृष्टि से डिंगल काव्यधारा में भीमा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी कविता के नमूने के रूप में दो दोहे यहाँ दिये जाते हैं
१. धिन उमावे सांखली, ते पिव लियो मुलाय ।
सात बरस रो बीछड़ियो, तो किम रैन विहाय ॥ २. पगे बजाऊं घूघरा, हाथ बजाऊं तूंब ।
ऊमा अचल मोलावियो, ज्यू सावण री लूब ॥ २. पद्मा चारणी (र० का० सं० १५९७ के आसपास)
कवयित्री पद्मा चारणी ऊदाजी सांदू की सुपुत्री और शंकर बारहठ की पत्नी थी। बीकानेर के महाराजा कल्याणसिंह के पुत्र और रायसिंह के अनुज अमरसिंह का अन्तःपुर इनका प्रावास था। पिता और पति की भाँति डिंगल गीत और कवित्त लिखने में ये कुशल थीं। इनकी समस्त रचनाएं वीररस पूर्ण हैं। राजस्थानी भाषा के सुप्रसिद्ध अलंकार वयणसगाई का निर्वाह इनके छन्दों में मिलता है। इनका जन्म एवं रचनाकाल १६ वीं शताब्दी है। सोये अमरसिंह को युद्ध की प्रेरणा देने वाली इनकी कविता का नमूना देखिये
बीकहर सीहघर मार करतो बसु, अमंग अर वन्द तौ सीस आया। लाग गयणाग भुज तोल खग लंकाल, जाग हो जाग कलियाण जाया ।
३. चाम्पादे रानी (र० का० वि० सं० १६५०)
कवयित्री चाम्पादे जैसलमेर के महारावल हरराज की पुत्री और बीकानेर के प्रख्यात कवि राठौड़ पृथ्वीराज की पत्नी थीं। काव्यसृजन की प्रेरणा इन्हें अपने पितृगह से ही मिली थी। महारावल हरराज के दरबार में कवियों का बड़ा आदर था। वहाँ काव्यकृतियों का निर्माण निरन्तर चलता रहता था । ऐसे साहित्यिक वातावरण में चाम्पादे की काव्य प्रतिभाको बड़ा बल मिला । इनके और पृथ्वीराज के काव्यविनोद की कई आख्यायिकाएं प्रसिद्ध
धम्मो दीवो | संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / २२०
हैं। कहा जाता है कि एक बार पृथ्वीराज को दर्पण में अपने सिर पर एक सफेद बाल दिखाई दिया जिसे उन्होंने उखाड़ कर फेंक दिया। इनकी इस चेष्टा पर पीछे खड़ी चाम्पादे को हंसी या गई जिसे पृथ्वीराज ने दर्पण में देख लिया। इस पर उन्होंने यह दोहा कहा—
पीयल धोळा आविया बहुली लगी खोड़ । पूरे जोबन पद्मणी, ऊभी मुक्ख मरोड़ ॥
अपने पति को ग्लानि को मिटाने के लिए चाम्पादे ने तत्काल ही कुछ दोहे कहे जिनमें से एक यह है
प्यारी कहे पीथळ सुणो, घोळा दिस मत जोय ।
नरां नाहरां डिगमरां, पाकां ही रस होय ॥
४. रानी राड़धरी जी (२० का० सं० १६५० )
रावजी की पत्नी थीं। राजा और अधिकांश समय काव्यसृजन में ही
कवयित्री राधरी जी मारवाड़ के राड़धड़ा प्रांत के राणा की पुत्री और सिरोही के रानी दोनों ही काव्यानुरागी प्रकृति के थे। इसलिए उनका व्यतीत होता था। छन्द और अलंकार शास्त्र का आपको
अच्छा ज्ञान था ।
५. बिरजू बाई (२० का० सं० १८०० )
कवयित्री बिरजू बाई कविराजा करणीदान की द्वितीय पत्नी थीं। इनका रचनाकाल वि० सं० १५०० के आसपास है। बिरजू बाई समय-समय पर कविताएँ लिख कर चारण कवियों को दे दिया करती थीं। कई कवि उन्हें अपनी बता कर जागीरदारों से पुरस्कार पाया करते थे । भाव और भाषा की दृष्टि से इनकी रचनाएं बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं।
६. हरिजी रानी चावड़ी (२० का० सं० १८७५ से पूर्व )
कवयित्री हरिजी रानी का जन्म गुजरात के एक चावड़ा राजपूत कुल में हुआ था। ये जोधपुर के प्रतापी राजा मानसिंह की द्वितीय रानी थीं इन्होंने उत्कृष्ट भावपूर्ण श्रृंगाररस के गीतों का सृजन किया। इनके लिखे ख्याल टप्पे और गीत विविध राग-रागिनियों में मिलते हैं। लोकगीत और संगीत पर हरिजी रानी का अच्छा अधिकार था। इसीलिये इनके पदों में गेयता आ गई है। एक उदाहरण देखिये
बेगा नी पधारो म्हारा आलीजा जी हो । छोटी सी नाजुक धण रा पीव । ओ सावणियो उमंग रह्यो जी । हरिजी ने ओढण दिखणी रो चीर ॥ इन ओसर ओसर मिलणो मिलणी कद होसी, लाड़ी जी रो थां पर
जीव ॥
इस धारा की अन्य कवयित्रियों में काकरेची जी (१८ वीं शती का मध्य काल ) राव जोधाजी की सांखली रानी (१९ वीं शती का उत्तरार्ध) आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान / २२१
२. रामकाव्यधारा की कवयित्रियाँ
जिस प्रकार तुलसी ने अपने प्राराध्य राम के चरणों में अपनी काव्यांजलि अर्पित की वैसे ही यहाँ की कवयित्रियों ने भी राम के चरित्र को लेकर अपनी भावाञ्जलि चढ़ायी। यहाँ नारी ने सीता को केन्द्रबिन्दु मानकर अपने हृदयस्थ भावानुरूप रामकाव्यविषयक ग्रन्थों का सृजन कर रामभक्तिभावना को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाने में विशेष सहयोग प्रदान किया। राधा और कृष्ण के प्रति भक्तिभाव दर्शाने में भी इन कवयित्रियों ने उदारता का परिचय दिया। इस काव्यधारा की प्रमुख कवयित्रियाँ निम्नलिखित हैं
१. प्रताप कुवरी (र० का० सं० १८७३ से १९४३)
प्रताप कुंवरी का जन्म जोधपुर के जाखण गांव निवासी भाटी गोयन्ददास के घर वि० सं० १८७३ में हुआ और निधन सं० १९४३ में। बचपन से ही ये बड़ी कुशाग्रबुद्धि की थीं। इनका विवाह जोधपुर के अधिपति मानसिंह जी के साथ हुआ था। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैंज्ञानसागर, ज्ञानप्रकाश, प्रताप पच्चीसी, प्रेमसागर, रामचन्द्रनाममहिमा, रामगुणसागर, रघुवरस्नेहलीला, रामप्रेमसुखसागर, रघुनाथजी के कवित्त, प्रतापविनय, हरिजसविनय आदि ।
कवयित्री की भाषा सरल, सुबोध और सरस राजस्थानी है। छंद, अलंकार तथा राग रागनियों का अच्छा ज्ञान होने के कारण इनके पदों में लालित्य पा गया है। भावों की गहराई से भरा प्रताप कुंवरी का एक पद देखिये
सियावर लाज हाथ है तेरे । गहरा समन्द बीच है बेड़ा, कोउ सहाय न मेरे ॥ बाजत पवन कठोर दुसह अति, मन धीरज न धरे।
टूटी नाव पुरानी जरजर, केवट दूर रहे रे॥ २. तुलछराय (र० का० सं० १८५० के आसपास)
कवयित्री तुलछराय जोधपुर के महाराजा मानसिंह जी की उपपत्नी थी। इनके लिखे फुटकर पदों से यह ज्ञात होता है कि ये राम की अनन्य उपासिका थीं। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से राम काव्य-धारा की कवयित्रियों में तुलछराय का भी गौरवपूर्ण स्थान है । विरहानुभूति कवयित्री के पदों का शृगार है । वे सियावर से अपने दिल की बात सुनने का निवेदन करती हुई कहती हैं
मेरी सुध लीजो जी रधुनाथ, लाग रही जिय केते दिन की सुनो मेरे दिल की बात, मो को दासी जान सियावर राखो चरण के साथ। तुलछराय कर जोर कहे, मेरो निज कर पकड़ो हाथ ।
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चतुर्य खण्ड | २२२ ३. बाघेली विष्णुप्रसाद कंवरी (र० का० सं० १८२१ के आसपास)
ये रीवां के महाराजा श्री रधुनाथसिंह की पुत्री और जोधपुर के महाराजा श्री जसवंतसिंह के छोटे भाई महाराज श्री किशोरसिंह की रानी थीं। इनका विवाह सं. १५२१ में हुआ था। इनके लिखे अवधविलास, कृष्णविलास, और राधाविलास ग्रंथ उपलब्ध हैं । ये रामस्नेही संप्रदाय के रामदास के शिष्य दयाल की शिष्या थीं। इनकी भाषा राजस्थानी है जिसमें ब्रजभाषा का सा मिठास है।
४. रत्नकुंवरी (र० का० सं० १९०० के आसपास)
कवयित्री रत्नकुंवरी जारवन निवासी भाटी लक्ष्मणसिंह जी की पुत्री, कवयित्री प्रतापकुंवरी की भतीजी एवं ईडर के महाराजा प्रतापसिंह जी की महारानी थी। इनके लिखे पद शांत और शृगाररस प्रधान हैं। रंगीले राम ने कवयित्री का मन मोह लिया है। रातदिन वह उन्हें ही स्मरण करती है। उन्हीं का ध्यान करती रहती है। उनके भक्तिभाव से प्रेरित एक पद का रसास्वादन कीजिये
मेरो मन मोयो रंगीले राम । उसकी छवि निरखत ही मेरो विसर गयो सब काम ॥ अष्ट पहर मेरे हिरवे बिच, आन कियो निज धाम ।
रतन कुवर कहे उनको पलक पलक ध्यान करू नित शाम ॥ ५. रूपदेवी (२० का० सं० १९०८ से १९२४)
कवयित्री रूपदेवी शाहपुरा निवासी अमरसिंह की पुत्री और अलवर के राजा विनयसिंह की रानी थी। इनके लिखे तीन ग्रंथ रूपमंजरी, राम रास, रूप रुकमणीमंगल मिलते हैं। छंदों की दृष्टि से दोहा और चौपाई का प्रयोग अधिक मिलता है। इनका प्रकृति-चित्रण भी अनूठा है। अनुप्रासों की सुन्दर छटा कवयित्री के प्रत्येक पद को सुन्दर बना देती है, देखिये--
सब मिल रास रच्यो मझ रात । तट सरजू को तीर निकट अति, सहस सखा ले साथ ॥ घुघरू झनक झनकार सबद सुनि, चकित भयो ब्रह्म मुसकात।
संकर शक्ति चकित चित आतुर निरखि सरूप रधुनाथ ॥ ६. जादेची प्रतापबाला (र० का० सं० १८९१ से १९७४)
ये जामनगर के जाम श्री रिणमल जी की पुत्री और जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह की रानी थी । इनका जन्म सं. १८९१ व विवाह १९०८ में हुआ। रामस्नेही संप्रदाय की अनुयायी होने पर भी कृष्ण के प्रति भी समान आदर भाव था। इन्होंने अपने अधिकांश पद चतुर्भुज श्याम को सम्बोधित करके लिखे हैं
वारी थारा मुखड़ा री स्याम सुजान ।
मन्द मन्द मुख हास्य विराजे कोटिक काम सजान । इनकी भाषा में ठेठ राजस्थानी का मिठास है।
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान | २२३
७. चन्द्रकला बाई (र० का० सं० १९२३ से १९६५)
चन्द्रकला बाई बूंदी के राव गुलाबजी के घर की दासी थी। इनका जन्म वि० सं० १९२३ में बंदी में हुआ और देहावसान सं० १९६५ में । ये प्राशु कवयित्री थीं। हिन्दी के 'रसिक मित्र' और 'काव्य सुधाकर' आदि तत्कालीन पत्रों में आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। कवयित्री की रचनाओं से पता चलता है कि वह बड़ी विदुषी होने के साथ साथ छंद, अलंकार और शब्दशास्त्र की ज्ञाता थी । इन्होंने करुणाशतक, पदवीप्रकाश, रामचरित्र महोत्सव-प्रकाश प्रादि अनेक काव्यकृतियों की रचना की।
३. कृष्णकाव्यधारा की कवयित्रियाँ
हिन्दी और ब्रजभाषा में कृष्णकाव्यधारा का आविर्भाव प्रबल रूप से पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक बल्लभाचार्य के अष्टछाप की स्थापना के बाद हुआ। कृष्ण के प्रति जिस वात्सल्य, सख्य और दास्य भाव की व्याख्या बल्लभाचार्य ने जिन विविध रूपों में की, उन्हीं का अनुसरण सूरदास, कुम्मनदास, परमानन्ददास प्रादि अष्टछाप के कवियों ने किया। कृष्ण भक्तिधारा का सर्वाधिक प्रचार प्रसार सूरदास ने किया था। इन्होंने वात्सल्य से प्रोतप्रोत कृष्ण की मनोमुग्धकारी बाललीलामों का चित्रण करके जनमानस का ध्यान नटवर नागर नन्दकिशोर की ओर आकर्षित किया । राजस्थानी कवयित्रियाँ भी कृष्णकाव्यधारा में अवगाहन किये बिना नहीं रह सकी । इन काव्यधारा की प्रमुख कवयित्रियाँ निम्नलिखित हैं
१. मीरा
मीरा मेड़ता के राठौड़ रतनसिंह की पुत्री और राव दूदाजी की पौत्री थीं। इनका जन्म संवत् १५६३ में हुआ । १३ वर्ष की आयु में मीरा का विवाह मेवाड़ के सुप्रसिद्ध राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुंवर भोजराज के साथ कर दिया गया । यौवन की देहरी पर पैर धरतेधरते मोरा की जीवनधारा यकायक बदल गई। उनके पति परलोक चल बसे। मीरा अपने गार्ह स्थिक बंधन तोड़ गिरधर की सेवा में रहने लगी। मीरा ने अपने आराध्य के चरणों में भावों की जो भावाञ्जलि चढ़ाई उसमें भक्तिभावनाओं का सहज स्पन्दन है। न उसमें कृत्रिमता है न दिखावा । मीरा की भक्ति दाम्पत्यभाव की थी। उसने कृष्ण को पतिरूप में माना और संयोग-वियोग की अनुभूति को विविध पदों में गाया। हिन्दी साहित्य में कबीर सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों की भांति कवयित्री मीरा का भी गौरवपूर्ण स्थान है। इन पर अधिक चर्चा करना मात्र पिष्टपेषण होगा।
२. सोढ़ी नाथी (र० का० सं० १७२५ के आसपास)
सोढ़ी नाथी अमरकोट के राणा चन्द्रसेन की पोती, राणा भोज की पुत्री और जैसलमेर के पदच्युत रावल रामचन्द्र के महाराजा सुन्दरदास की पत्नी थीं। कवयित्री द्वारा रचित 'बालचरित' काव्य में ६२ राजस्थानी दोहे और सोरठों में कृष्ण की बाललीला का वर्णन किया गया है। 'कंसलीला' १०९ दोहों में लिखा गया काव्य है। कवयित्री ने कृष्ण के प्रति हृदय खोल कर अपनी भक्ति-भावना अर्पित की है। कृष्णभक्त कवयित्रियों में सोढ़ी नाथी का विशिष्ट स्थान है। अपने पाराध्य के प्रति अटल विश्वास प्रकट करती हई वे कहती हैं---
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड | २२४
नाथी निहचो मन धरै, मति तलफावे जीव ।
जे हरिजी हिरदे बसे, तो भरि भरि हरि रस पीव ॥ ३. ब्रजवासी रानी बांकावतो (र० का० वि० सं० १७७६ से १८२०)
महाराणी बांकावती कछवाह राजा आनन्दराय जी की पुत्री और किशनगढ़ के महाराजा राजसिंह की महाराणी थीं । आराध्य देव की भक्तिभावना में सराबोर होकर इन्होंने श्रीमद्भागवत का छंदोबद्ध राजस्थानी भाषा में अनुवाद किया जो आज भी 'ब्रजदासी भागवत' के नाम से सुविख्यात है । अनुवाद अत्यधिक सरस, सुबोध और प्रसादगुण युक्त है। कृष्ण का कवयित्री को इष्ट था और ये आठों याम कृष्ण ध्यान में पगी रहती थीं। वे कृष्ण की बारबार वंदना करती हुई कहती हैं
बार बार वंदन करौं, श्री वृषभान कुवारी।
जय जय श्री गोपाल जू, की कृपा मुरारी ॥ ४. गिरिराज कुवरी (र० का० सं० १९२२ से १९८०)
भरतपुर की राजमाता गिरिराज कुंवरी का जन्म वि० सं० १९०२ में हमा। कृष्ण के प्रति भक्ति-भावना का आविर्भाव उनके मानस में बाल्यावस्था से था। आपका लिखा 'ब्रजराज विलास' कृष्ण-भक्तिभावना से भरा अतीव सरस ग्रंथ है। कृष्ण-मिलन हेतु उनकी आत्मा सदैव आतुर रहा करती थी । सूर की भांति इनके अनेक पदों में दैन्य भावनाएँ अभिव्यक्त हुई हैं-यथा
मो सम कौन अधम जग माही। सगरी उमर बिसयन में खोई, हरि की सुधि बिसराई। मन भायो सोई तो कीनो, जन में भई हँसाई ॥ काम क्रोध मद लोभ मोह के, घेरे हुए सिपाही ।
इन ते मोहिं छुड़ावो स्वामी, गिरिराज है सरणाई ॥ ५. ब्रजभानकिशोरी (र० का० सं० १८८५ के आसपास)
ये जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह को रानी थीं। इन्होंने कृष्ण की विविध लीलाओं का सरस पदों में वर्णन किया है। कुछ पंक्तियाँ देखिये
धेनु संग आवत श्याम बिहारी।। अंग रज छाजत छअत नैनन में कंज छटी कर धारी।
निरखत नन्द ग्वाल सब निरखत, निरखत सबै ब्रजनारी ॥ ६. सौभाग्यकुवरी (र० का० सं० १९४६ से २००५ तक)
जोधपुर नरेश तख्तसिंह की पुत्री सौभाग्यकुंवरी का जन्म सं० १९२६ में हमा। इनका विवाह बूंदी के राजा रघुवीरसिंह के साथ हुप्रा। इनकी लिखी 'सौभाग्य-बिहारी-भजनमाला' प्रकाशित हुई है। इसमें गुरुमहिमा, कृष्णलीला, वियोग-संयोग आदि भावों के पद मिलते हैं। कवयित्री के मन में कृष्ण के प्रति अगाध भक्ति है। उसने नंदलाल को अपने मन में बसा लिया है
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान / २२५
म्हारे मन बसिया नन्दलाल, पन माली म्हाने लागो छो व्हाला । मन्द मन्द मुख हास विराजत, बांके नयन बिसाला । सुन्दर श्याम सलौनी सूरत, शोभित गल श्री सौभाग्य बिहारी छवि निरखत भई कहै सौभाग्य कुंबरी कर जोरे, बीजं
वनमाला ।
मैं निहाला ॥
दरस दयाला ।
७. बाघेली रणछोर कुवरी (र. का. सं १९२३ से १९६३ )
ये रींवा के महाराज विश्वनाथ के भाई बलभद्रसिंह की पुत्री और जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह की रानी थीं कहा जाता है कि इनके पिता राधावल्लभ की मूर्ति को युद्ध में जाते समय साथ ले जाया करते थे, उसे ही कवयित्री अपने साथ जोधपुर लाई थी और उसकी प्रतिष्ठा करवा कर एक मन्दिर बनवाया था। कृष्ण के प्रति इनकी अटूट भक्ति थी एक कवित्त देखिये
।
आभा तो निर्मल होय सूरज किरण उगे ते, चित्त तो प्रसन्न होय गोविन्द गुण गाये से । पीतर तो उज्ज्ल होय, रेती के मांजे से, हृदय में ज्योति होय, गुरु ज्ञान पाये से ॥ भजन में विछेप होय, दुनियां की संगति से, अनन्द अपार होय, गोविन्द के ध्याये से। मन को जगावो अरु, गोविन्द के शरण आओ, तिरने के ये उपाय, गोविन्द मन भाये से ।
८. सम्मान बाई (र. का. सं. १९२५ के लगभग )
सम्मान बाई अलवर के रामनाथ कविया की पुत्री थी । इनके हृदय में कृष्ण के प्रति अटूट भक्ति-भावना थी । इन्होंने पति के रूप में ही ईश्वराधना की। इनका 'पतिशतक' बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कृष्णबाललीलाविषयक दोहे, सवैये, पद आदि भी लिखे हैं ।
१८२२ )
९. रसिकबिहारी बनीठनी (र. का. सं. १७६७ से कवयित्री बनीनी हिन्दी साहित्य के यशस्वी कवि किशनगढ़ के महाराज नागरीदास की दासी थी । उनके सम्पर्क से इनमें कृष्णभक्ति के भाव जागृत हुए। इनके कृष्ण जन्मोत्सव, होली, राधाजन्म, पनघटलीला आदि से सम्बद्ध अनेक पद उपलब्ध होते हैं । कवयित्री ने अपने आपको राधा के रूप में मान करके कृष्ण के प्रति भावार्पण किया है। कृष्ण के बारे में लिखा हुआ उनका निम्न पद शील-मर्यादा के कारण अत्यन्त प्रभावक बन पड़ा है......
कैसे जल लाऊं मैं पनघट आऊँ ।
होरी खेलत नंदलाडलो री, क्योंकर निवह न पाऊं। वे तो निलज फाग मदमाते हों कुलवधू कहाऊं । जो छुआ अंग रसिक बिहारी, ती हूं धरती फार समाऊं ॥
धम्मो दीयो संसार समुद्र में
धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | २२६ १०. सुन्दरकवरी बाई (र. का. सं. १८१७ से १८५३)
कवयित्री सुन्दरकवरी बाई भक्त कवि नागरीदास की बहिन थीं। ये सदैव कृष्णभक्ति में लीन रहने वाली थीं। इनका विवाह राघवगढ़ के राजा बलभद्रसिंह के कुंवर बलवंतसिंह के साथ हुआ। साहित्यिक वातावरण में पली सुन्दरकवरी बाई का झुकाव हरिभक्ति की. ओर प्रारम्भ से ही रहा । इनके लिखे नेहनिधि, वृन्दावन गोपी माहात्म्य, रसपुंज, भावनाप्रकाश, संकेत युगल आदि ११ ग्रन्थ मिलते हैं। इन्होंने भावानुकूल विभिन्न छंदों में कृष्णराधा की लीलाओं का सरस वर्णन प्रस्तुत किया है।
११. छत्रकुवरी बाई (र. का सं. १७०३ से १७९०)
कवयित्री छत्रकवरी बाई नागरीदास की पोती थीं। इनका विवाह कोटडे के खींची गोपालसिंह के साथ हुआ था। इनके लिखे प्रेमविनोद ग्रंथ में राधाकृष्ण की प्रेमलीलाओं का चित्रण है। रस की दृष्टि से इनकी कविताएँ शृगाररस प्रधान हैं परन्तु इसमें भी भक्ति की सुखद सरिता प्रवहमान है। इनके लिये सांझी के पद बहुत ही सरस व मधुर हैं।
इस धारा की अन्य कवयित्रियों में बीरां (सं. १७५० से १८००) महारानी सोन कंवरी (सं. १७४५ से १८००), दासी सुन्दर (१८ वीं शती का पूर्वार्द्ध), प्रानंदी देवी गोस्वामी (१८ वीं शती का पूर्वार्द्ध) आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
व्यधारा को कवयित्रियाँ
सगुण काव्यधारा की भाँति निर्गुणकाव्यधारा भी जनमानस को प्रभावित करती रही है। गोरखनाथ और बाद में कबीर ने इस प्रवृत्ति को विशेष गति और गरिमा प्रदान की। इस काव्यधारा में मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए पूजा के बाह्य विधि-विधानों का खण्डन किया गया है। ईश्वर की अद्वैतभावोन्मुखी उपासना पर विशेष बल देते हुए जातिवाद का खण्डन कर उपासना का द्वार सब वर्ण के लोगों के लिए खोल दिया गया। राजस्थान में निर्गुण मार्गी कई सन्त-सम्प्रदाय प्रतिष्ठित हुए जिनमें कवियों के साथ-साथ कई कवयित्रियां भी हुई। इस धारा की प्रमुख कवयित्रियों का परिचय इस प्रकार है
१. सहजो बाई (र. का. सं. १८ वीं शती)
कवयित्री सहजो बाई का जन्म अलवर में ढूंसर जाति के श्री हरप्रसाद के घर हा । चरनदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक चरणदासजी इनके गुरु थे। गुरु और ईश्वर के प्रति इनकी अटूट श्रद्धा थी। इनके ग्रंथ 'सहज प्रकाश' में गुरु महिमा और सांसारिक नश्वरता का मार्मिक वर्णन है । प्रभुनामस्मरण को महत्त्व देती हुई वे कहती हैं
सहजो फिर पछतायेगी, स्वास निकसी जब जाय ।
जब लग रहे शरीर में, राम सुमिर गुन गाय ॥ २. दयाबाई (र. का. सं. १८०५ के आसपास)
कवयित्री दयाबाई सहजोबाई की बहिन थीं। ये बड़ी विदुषी महिला थीं। इनके गुरु भी चरणदास जी थे। इनकी अपने गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा थी। उन्हीं की कृपा से इन्हें दिव्य
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान | २२७
ज्ञान प्राप्त हुआ था। संसार की नश्वरता और ईश्वर तक पहुँचाने वाले दृढ़प्रतिज्ञ शूरवीर भक्तों का वर्णन वैराग्य अंग और 'सूर अंग' में बड़ी सुन्दरता से हुआ है। 'दयाबोध' और 'विनयमालिका' दो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं । एक उदाहरण देखिये---
सोवत जागत हरि भजो, हरि हिरदे न बिसार । डोरी गहि हरि नाम की, दया न टूटे तार ॥
३. गवरी बाई (र० का० सं. १८३५ से १८९५)
कवयित्री गवरीबाई ने डूंगरपुर के नागर ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। इनके माता-पिता प्रभभक्त थे। उनकी इस भक्ति-भावना का बालिका गवरी पर गहरा प्रभाव पड़ा। गवरीबाई बाल्यकाल से ही पतिसुख से वंचित हो गई थीं, परिणाम स्वरूप उन्होंने समस्त जीवन ईश्वरभक्ति-भावना में व्यतीत किया। इनके लिखे हुए करीब ६१० पदों का एक संग्रह उपलब्ध होता है जिसमें गवरी बाई की भक्ति भावना, विद्वत्ता और आराध्य के प्रति अनन्य भावना का पता लगता है। निर्गण शाखा के कवियों में जो स्थान सुन्दरदास का है वही स्थान निर्गण शाखा की कवयित्रियों में गवरीबाई का है। वे तो कहती हैं
प्रभु मोको एक बेर दर्शन दइये।। हीरा, मानक, गरध भण्डारा, माल मुलक नहीं चहिये।
४. उमा (र. का. सं. १८ वीं शती का उत्तरार्द्ध)
कबीर के राम की भाँति इनका राम दशरथसुत न होकर निर्गुण ब्रह्म है। वे उसके संग फाग खेलती हुई गाती हैं
ऐसे फाग खेले राम राय, सुरत सुहागण सम्मुख आय । पंच तत्त को बन्यो है बाग, जामें सामन्त सहेली रमत फाग । जह राम झरोखे बैठे आय । प्रेम पसारी प्यारी लगाय ॥
५. रूपां दे (र. का. सं. १५ वीं शती का मध्यकाल)
संत कवयित्री रूपां दे राजा मल्लिनाथ की पत्नी थी। इनके गुरु का नाम उगमसी भाटी था। जाति पांति के बंधन तोड़ कर ये रामदेव जी के मंदिर में जाया करती थीं और प्रसाद लेती थीं। कवयित्री की इन गतिविधियों से राजा मल्लिनाथ की अन्य रानियाँ अप्रसन्न रहती .थीं। पर रूपां दे का इन सांसारिक बातों से कोई लेना देना नहीं था। वे तो सांसारिक भोगों एवं भौतिक ऐश्वर्य की नश्वरता को नकारती हुई कहती हैं
पैला जैसी प्रीत सदाई कोनी रयसी रै। नेम धरम थारा छानां कोनी रयसी रै।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप
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चतुर्थ खण्ड /२२८
६. जन बेगम (र० का० सं० १८३५)
निर्गुण सम्प्रदाय की कवयित्रियों में जन बेगम का नाम भी बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। ये अलवर के दोली गांव की रहने वाली और चरणदासीसम्प्रदाय के सन्त छौना की शिष्या थीं । इनका लिखा 'सुदामाचरित' भक्तिभावभरा सरस ग्रन्थ है। इसमें कवयित्री ने गुरु और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा व्यक्त की है ।
७. स्वरूपा बाई (र० का० सं० १८ वीं शती का उत्तरार्द्ध)
ये रामस्नेहीसम्प्रदाय के प्रवर्तक रामचरण जी महाराज की शिष्या थीं। इनका राजस्थानी भक्तिसाहित्य के विकास में बड़ा योग रहा। सांसारिक नश्वरता एवं गुरुभक्ति इनकी कविता का मुख्य स्वर है।
इस धारा की अन्य कवयित्रियों में बाई खुशाल (सं०१८३४), तोला दे, काजल दे, गोरांजी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
५. जैन काव्यधारा को कवयित्रियाँ
भारतीय धर्मपरम्परा में साधुओं की तरह साध्वियों का भी विशेष योगदान रहा है। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं। ऐतिहासिक परम्परा के रूप में हमें भगवान महावीर के बाद के साधुओं की प्राचार्यपरम्परा का तो पता चलता है पर उनकी साध्वियों की परम्परा अन्धकाराच्छन्न है। भगवान् महावीर के समय में ३६,००० साध्वियों का नेतृत्व करने वाली साध्वी चन्दनबाला का उल्लेख शास्त्रों में आता है। महावीर से ही तत्त्वचर्चा करने वाली जयन्ती का उल्लेख भी हमें मिलता है । यह तो निश्चित ही है कि साधुनों और श्रावकों के साथ-साथ श्राविकाओं की भी अविच्छिन्न परम्परा रही है और इन साध्वियों ने भी साधुओं की भांति साहित्य के निर्माण एवं संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। मध्यकाल की जिन जैन कवयित्रियों का हमें उल्लेख मिलता है उनका संक्षेप में परिचय इस प्रकार है
१. गुणसमृद्धि महत्तरा (र० का० सं० १४७७)
ये खरतरगच्छी जिनचन्द्र सूरि की शिष्या थीं। इनके द्वारा प्राकृत भाषा में रचित ५०२ श्लोकों का 'अंजणासुन्दरीचरियं' ग्रन्थ जैसलमेर के भण्डार में विद्यमान है। इसमें हनुमानजी की माता अंजनासुन्दरी का चरित वणित है।
२. विनयचूला (र० का० सं० १५१३ के आसपास) ___ये साध्वी आगमगच्छी हेमरत्न सूरि के सम्प्रदाय की हैं। इन्होंने हेमरत्न सूरि गुरु फागु नाम से ११ पद्यों में रचना की।
३. पद्मश्री
इनका सम्बन्ध भी आगमगच्छ से रहा है। श्री मोहनलाल दलीचन्द दौसाई ने जैन गुर्जर कविप्रो भाग ३ खण्ड १ के पृष्ठ ५३५ पर इनकी रचना 'चारुदत्तचरित्र' का उल्लेख किया है।
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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान | २२९
४. हेमश्री (र० का० सं० १६४४)
ये साध्वी बड़तपगच्छ के नयसुन्दर जी की शिष्या थीं। 'जैन गुर्जर कविप्रो' भाग १ में पृष्ठ २८६ पर इनकी एक रचना 'कनकावती आख्यान' का उल्लेख मिलता है। यह ३६७ छन्दों की रचना है।
५. हेमसिद्धि (र० का० सं० १७वीं शती)
इनका सम्बन्ध खरतरगच्छ से था। श्री अगरचन्द नाहटा ने 'ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह' के पृष्ठ २१० और २११ पर इनके दो गीतों का, उल्लेख किया है। पहली रचना है लावण्यसिद्धि पहुतणी गीतम्' इसमें साध्वी लावण्यसिद्धि का परिचय दिया गया है। इनकी दूसरी रचना 'सोमसिद्धिनिर्वाणगीतम्' है। इसमें कवयित्री का सोमसिद्धि के प्रति गहरा स्नेह और भक्ति-भाव प्रकट हुआ है। ६. हरक बाई (र० का० सं० १८२०)
ये स्थानकवासी परम्परा से सम्बद्ध हैं। महासती श्री अमरूजी का चरित्र व 'महासती श्री चतरूजी सज्झाय' नाम से इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं।
७. हुलासाजी (र० का० सं० १८८७)
ये स्थानकवासीपरम्परा के पूज्य श्रीमलजी म. से सम्बद्ध हैं। क्षमा, तप आदि विषयों पर इनके कई स्तवन मिलते हैं।
८. जड़ावजी
ये स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य श्री रतनचन्द जी म० के सम्प्रदाय की प्रमुख श्रीरमा जी की शिष्या थीं। इनका जन्म सं० १८९८ में सेठों की रीयां में हुआ था। सं० १९२२ में ये दीक्षित हई । नेत्रज्योति क्षीण होने से सं० १९५० से अन्तिम समय सं० १९७२ तक ये जयपुर में ही स्थिरवासी बनकर रहीं। इनकी रचनाओं का एक संग्रह 'जैनस्तवनावली' नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें इनकी स्तवनात्मक, कथात्मक, उपदेशात्मक और तात्त्विक रचनाएँ संकलित हैं । सांगरूपक लिखने में इन्हें विशेष सफलता मिली है । एक उदाहरण देखिये
ज्ञान का घोड़ा, चित्त की चाबुक, विनय लगाम लगाई। तप तरवार भाव का भाला, खिम्मा ढाल बंधाई।
९. भूरसुन्दरी (र० का० सं० १९८० से १९८६)
इनका सम्बन्ध स्थानकवासीपरम्परा से है। इनका जन्म संवत १९१४ में नागौर के समीप वसेरी नामक गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम अखयचन्दजी रांका तथा माता का नाम रामा बाई था। अपनी भुना से प्रेरणा पाकर ११ वर्ष की अवस्था में साध्वी चंपाजी से ये दीक्षित हो गई। इनके ६ ग्रन्थ प्रकाशित मिलते हैं-भूरसुन्दरी जनभजनोद्धार, भूरसुन्दरी विवेकविलास, भूरसुन्दरी बोधविनोद, भूरसुन्दरी अध्यात्मबोध, भूरसुन्दरी ज्ञानप्रकाश, भूरसुन्दरी विद्याविलास । इनकी रचनाएँ मुख्यत: स्तवनात्मक व उपदेशात्मक हैं। इन्होंने पहेलियां भी लिखी हैं । एक उदाहरण देखिये
धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीय
MatsANI
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चतुर्थ खण्ड | २३०
आदि अखर बिन जग को ध्यावे, मध्य अखर बिन जग संहारे।
अन्त अखर बिन लागत मीठा, वह सबके नयनों में दीठा। उत्तर-काजल उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य की वीर, शृगार, भक्ति एवं अध्यात्म की विविधरूपा काव्यधारा को समृद्ध एवं पुष्ट बनाने में राजस्थान की कवयित्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।'
-सी-२३५ ए तिलक नगर, जयपुर-४
इस निबन्ध को तैयार करने में "प्रेरणा" (फरवरी १९६३) के 'राजस्थानी कवयित्रियाँ विशेषांक से सहायता ली गई है। इसके लिए लेखिका, सम्पादक श्री दीनदयाल अोझा के प्रति आभार व्यक्त करती है।
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मेवाड़ में संस्कृतसाहित्य की
जैन परम्परा - डॉ० प्रेमसुमन जैन
मेवाड़ में प्राचीन समय से जो संस्कृत साहित्य लिखा गया है उसमें जैन मुनियों एवं गृहस्थ साहित्यकारों का विशेष योगदान है । प्राकृत एवं अपभ्रश साहित्य के अतिरिक्त संस्कृत भाषा में भी जैनमुनियों ने पर्याप्त रचनायें लिखी हैं । मेवाड़ के संस्कृत साहित्य के इतिहास में प्रारम्भ में संस्कृत के शिलालेख एवं प्रशस्तियाँ ही प्राप्त होती हैं। काव्यग्रन्थों का प्रणयन मध्ययुग में अधिक हुआ है। उनकी पृष्ठभूमि में जैन मुनियों द्वारा प्रणीत संस्कृत के धर्म-ग्रन्थ रहे हैं। मेवाड़ में संस्कृत के स्वतन्त्र रूप से प्रथम ग्रन्थ लिखने का श्रेय ५वीं शताब्दी के जैन मुनि सिद्धसेन को है, जिनकी साहित्यसाधना का प्रमुख केन्द्र चित्तौड था। इन्होंने ३२ श्लोकों वाली २१ द्वात्रिशिकाएँ लिखीं तथा न्यायावतार नामक जैन न्याय का ग्रन्थ संस्कृत में लिखा है।
जैन मुनियों की संस्कृत-साहित्य साधना का प्रमुख केन्द्र चित्तौड़ रहा है। पाठवीं शताब्दी में यहाँ कई प्रमुख जैन कवियों ने संस्कृत में रचनाएँ लिखी हैं । प्राचार्य हरिभद्रसूरि की साधना-भूमि मेवाड़ रही है। उन्होंने चित्तौड़ में प्राचीन ग्रन्थों पर संस्कृत में कई टीकाएँ लिखी हैं । दशवैकालिकवृत्ति, ध्यानशतकवृत्ति एवं श्रावकप्रज्ञप्तिटीका उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं । हरिभद्रसूरि ने संस्कृत में धर्मबिन्दु, अष्टकप्रकरण एवं षड्दर्शनसमुच्चय आदि मौलिक ग्रन्थ भी लिखे हैं। प्राचार्य हरिभद्रसूरि के समय से ही चित्तौड़ अन्य जैन मुनियों का भी काव्यक्षेत्र रहा है। जैनाचार्य एलाचार्य एवं उनके शिष्य वीरसेन ने चित्तौड़ में संस्कृत साहित्य को पुष्ट किया है । वीरसेन की धवला-टीका संस्कृत का विशाल ग्रन्थ है। इनके शिष्य जिनसेन ने काव्य ग्रन्थों का प्रणयन भी संस्कृत में किया है। पार्वाभ्युदय, प्रादिपुराण इनकी प्रमुख रचनायें हैं । इन ग्रन्थों में संस्कृत काव्य और अलंकारों के कई नये प्रयोग देखने को मिलते हैं।
जिनसेन ने "पाश्र्वाभ्युदय" में कालिदास के मेघदूत को आधार बनाया है । "मेघदूत" की एक पंक्ति लेकर तीन पंक्तियाँ अपनी लिखी हैं। फिर भी दृश्यों की छटा में कवि की मौलिकता झलकती है । इस तरह इस मेवाड़ी जैन कवि ने मेघदूत की परम्परा को आगे बढ़ाया है। जिनसेन ने आदिपुराण को महाभारत की शैली में लिखा है। उनकी इस रचना में आठवीं शताब्दी की सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति समायी हुई है । मेवाड़ के अन्य प्रतिष्ठित जैन संस्कृत कवियों में जिनवल्लभसूरि और उनके शिष्यों का प्रमुख स्थान है। इन्होंने १५-२० रचनाएँ संस्कृत में लिखी हैं, जिनके विषय धार्मिक होते हुए भी उनमें काव्यतत्त्वों की भरमार है। जिनवल्लभसूरि ने "शृगारशतक' नामक एक ग्रन्थ लिखा है। जैन मुनियों के संस्कृत काव्य में यह अकेली शगारप्रधान रचना है। इस ग्रन्थ के एक पद्य में कवि कहता है कि नायिका की
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
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चतुर्थ खण्ड / २३२ दन्त - ज्योत्स्ना गगन - मंडल में फैलती हुई विश्व को अपनी धवलता से आप्लावित कर रही है । ऐसी स्थिति में अभिसार के लिए चन्द्रोदय की प्रतिक्षा क्यों की जाय ?
यथा
मुग्धे दुग्धा दिवाशा रचयति तरला तैः कटाक्षच्छटाली, दस्तज्योत्स्नाऽपि विश्वं विशदयति वियन् मण्डलं विफुरन्ती । उत्फुल्लद्गंडपाली विपुलपरिलसत् पाणिमाडम्बरेण, क्षिप्तेन्दौ कान्तमदाभिसार सरभसं किं तवेन्दुद्वयेन ॥७९॥
जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि ने भी संस्कृत में कई ग्रन्थ लिखे हैं । उनकी रचनाएँ भक्तिरस को प्रवाहित करती हैं।
चित्तौड़ के समान मेवाड़ प्रान्त का मांडलगढ़ भी जैन मुनियों एवं कवियों की साहित्य साधना का केन्द्र रहा है। तेरहवीं शताब्दी के महाकवि आशाधर मांडलगढ़ के मूलनिवासी थे । उनकी रचनाओं में अध्यात्मरहस्य, सागारधर्मामृत, अनगारधर्मामृत, जिनयज्ञकल्प आदि प्रमुख हैं । इन्होंने अपने संस्कृतग्रन्थों द्वारा मनुष्य के दैनिक आचरण को नैतिक बनाने में पूरा योगदान किया है । इनके ग्रन्थ जैन श्राचार के विश्वकोष हैं ।
जैन मुनियों ने अपनी संस्कृत रचनाओं द्वारा मेवाड़ के साहित्यिक वातावरण को प्रभावशाली बनाया है । १५वीं शताब्दी में अनेक जैनाचार्य मेवाड़ में साहित्य - साधना में रत रहे हैं । इसके पूर्व जैन भट्टारकों ने मेवाड़ को संस्कृतसाहित्य से समृद्ध किया है। भट्टारक सकलकीर्ति, भुवनकीति, ब्रह्मजिनदास, शुभचन्द्र एवं भट्टारक प्रभाचन्द्र की सैकड़ों रचनाएँ संस्कृत में मेवाड़ में लिखी गयी हैं । इन रचनाओं का काव्यात्मक महत्त्व तो है ही, मेवाड़ के इतिहास की सामग्री भी इसमें भरपूर है । इन भट्टारकों ने मेवाड़ में चित्तौड़, उदयपुर, ऋषभदेव प्रादि में जैन ग्रन्थभण्डारों की स्थापना कर मेवाड़ के संस्कृतसाहित्य को सुरक्षा प्रदान की है । इन भट्टारकों की साधनाभूमि चित्तौड़ एवं डूंगरपुर जिले के गाँव रहे हैं ।
मेवाड़ के जैन मुनियों में भट्टारक सकलकीर्ति एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने २५-३० ग्रन्थ संस्कृत में लिखे हैं । इन्होंने पुराण, कथा, चरित्र एवं स्तोत्र आदि सभी विधानों को अपनी संस्कृत रचनाओंों से पुष्ट किया है। सकलकीर्ति का यह चिन्तन था कि साहित्य ऐसा होना चाहिये जो मनुष्य के जीवन को उन्नत करे । अपने "आदिपुराण" में वे कहते हैं कि जिस कथा के श्रवणमात्र से भव्य जीवों के समस्त राग-द्वेष, मोहादि दोषों का प्रक्षालन हो जाय और उनके स्थान पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र श्रादि गुण उत्पन्न हो जाएँ तथा दान-पूजा, ध्यान आदि की वृत्तियाँ बढ़ जाएँ वही शास्त्र वास्तविक है ।
यथा---
येन श्रतेन सभ्यानां
रागद्वेषादयोऽखिलाः । दोषा नश्यंति मोहेन सार्धं ज्ञानादयो गुणाः ॥
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मेवाड़ के संस्कृत साहित्य की जैन परम्परा/२३३
संवेगाद्याश्च वर्द्धन्ते जायते भावनारुचिः । दानपूजातपोध्यानव्रताद्या
मोक्षवमसु॥
स० १ श्लोक ३३-३६ सकलकीति की रचनाओं से ज्ञात होता है कि उस समय संस्कृत सभी वर्ग के लोग समझते थे। समाज में संस्कृत के ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था थी। सकलकीति कहते हैं कि मैंने आबाल-स्त्री-वद्ध लोगों को सारभूत तत्त्वों का ज्ञान कराने के लिए संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं।
ग्रन्थोऽत्रव वरः पुराणकलितो बह्वीकथासंभृतः। बालस्त्रीसुन्दरीणामतीवसुगमो गीर्वाणसद्भाषया ।
उ० पु० १५-२१८ संस्कृत के इन ग्रन्थों में जैनमुनियों ने यद्यपि परम्परागत महापुरुषों को ही चरित्रनायक बनाया है, किन्तु अपने समय के शासकों एवं सज्जन पुरुषों का स्मरण भी इन ग्रन्थों में किया गया है। जैन मुनियों का राजवंशों से भी सम्पर्क रहा है। इस दृष्टि से उनके ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं।
राणकपुर और दिलवाड़ा भी जैन मुनियों की साहित्यसाधना के केन्द्र रहे हैं। मुनि सोमसुन्दर को राणकपुर में वाचकपद प्राप्त हुआ था । उन्होंने दिलवाड़ा में रहकर संस्कृत में कई रचनायें लिखी हैं। सोमदेववाचक इनके शिष्य थे। उन्हें महाराणा कुम्भा ने कविराज की उपाधि प्रदान की थी। महाराणा कुम्भा के ही समकालीन महाकवि प्रतिष्ठासोम हुए हैं। इनकी रचनाओं "सोमसौभाग्यकाव्य" एवं “गुणरत्नाकर' प्रसिद्ध संस्कृत रचनाएँ हैं, जिनमें तत्कालीन मेवाड़ी संस्कृति की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। १५वीं शताब्दी के जैनकवियों में महोपाध्याय चरित्ररत्नगणि एवं जिनहर्षगणि प्रमुख हैं, जिन्होंने चित्तौड़ में संस्कृतकाव्य लिखे हैं। जिनहर्षगणि का "वस्तुपालचरित" एक ऐतिहासिक काव्य है । मेवाड़ में वाग्भट्ट नामक एक जैन कवि हुए हैं, जिन्होंने छन्दशास्त्र और काव्यशास्त्र पर ग्रन्थ लिखे हैं।
स्वतन्त्र काव्यग्रन्थों के अतिरिक्ति जैन मुनियों ने मेवाड़ में रहते हुए संस्कृत में कई प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं। १२वीं शताब्दी के जनकवि रामकीत्ति ने चित्तौड़गढ़ में एक प्रशस्ति लिखी, जिसमें कुमारपाल के वहाँ आगमन का वर्णन है। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने वि. सं. १३२२ में एक प्रशस्ति लिखी, जो चित्तौड़ के समीप घाघसे की बावड़ी में लगी हुई है। इन्हीं की दूसरी संस्कृतप्रशस्ति चीखा गाँव में लगी हुई है। इसमें १५ श्लोक हैं, जिनमें गुहिल वंशी बाप्पा वंशजों के पराक्रम का वर्णन है । गुणभद्र नामक जैन मुनि ने वि. सं. १२२६ में बिजीलिया के जैन मन्दिर की प्रशस्ति लिखी थी। १५वीं शताब्दी में चारित्ररत्नगणि ने महावीर प्रशस्ति लिखी है, सरस्वतीस्तुति के उपर्यन्त मेवाड़ देश का सुन्दर वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन प्रशस्तियों का विशेष महत्त्व है।
इस प्रकार मेवाड़ में ५वीं शताब्दी से १५-१६वीं शताब्दी तक जैन मुनियों द्वारा संस्कृत भाषा में काव्यमय रचनाएँ लिखी जाती रही हैं। अाधुनिक युग में भी मेवाड़ के कई जैन मुनियों ने संस्कृत में काव्य लिखे हैं। इन मुनियों की संस्कृत रचनाओं को एकत्र कर यदि प्रकाशित किया जाय तो संस्कृतकाव्य के इतिहास की समृद्धि तो होगी ही, उससे मेवाड़ की संस्कृति के कई पक्ष भी उजागर हो सकते हैं।
| धम्मो दीतो
संसार समुद्र में वर्म ही दी है।
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चतुर्थ खण्ड / २३४
__ जैन मुनियों के इन संस्कृतग्रन्थों में मेवाड़ के ग्रामीण जीवन की झांकी प्राप्त होती है। ये मुनि पैदल ही चलते थे। अतः इनका सम्पर्क समाज के हर वर्ग से बना रहता था। उन्होंने जो कुछ भी समाज में देखा उसका चित्रण अपने ग्रन्थों में किया है। इस दृष्टि से मेवाड़ के रीति-रिवाज, पहनावा,पर्व-उत्सव एवं रहन-सहन की प्रामाणिक जानकारी के लिये जैन मुनियों द्वारा प्रणीत संस्कृतसाहित्य का अध्ययन उपयोगी साबित होगा। इन कवियों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म रही है । एक कवि ने अपने ग्रन्थ में एक वृद्ध व्यक्ति का चित्रण करते हुए कहा है कि बुढ़ापे में व्यक्ति झुककर जमीन को देखते हुए चलने लगता है तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अपने खोये हए बचपन और यौवन को धरती में खोजता हुया चल रहा है। यथा
असंभृतं मण्डनमंगयष्टेनंष्टं वने मे यौवनरत्नमेतत् । इतीव वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नधोऽधो भुवि बम्भ्रमीति ॥
धर्म. ४/५९
जैन मुनियों के द्वारा प्रणीत संस्कृतसाहित्य की एक विशेषता यह भी है कि पीढ़ियों तक वे संस्कृतकाव्य-रचना में संलग्न रहते थे। एक प्राचार्य के समीप रहने वाले प्राय: सभी जैनमुनि संस्कृत पढ़ते थे और काव्य-रचना करने में अपना समय व्यतीत करते थे । काव्य की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में भी उनके विचार थे कि काव्य वही श्रेष्ठ है जिसके आलोक से अन्य कवि भी कविता का प्रणयन करने में समर्थ हो सकें। जिस प्रकार एक चन्दन वृक्ष की गन्ध के सम्पर्क में समस्त वन के वृक्ष चन्दन की सुगन्ध वाले बन जाते हैं । यथा
जयन्ति ते सत्कवयो यदुक्त्याः बाला अपि स्युः कविताप्रवीणाः ।
श्रीखंडवासेन कृताधिवासः श्रीखंडतां यान्त्यपरेऽपि वृक्षाः॥ इस भावना के कारण मेवाड़ में संस्कृतकाव्य-सृजन के कई केन्द्र स्थापित हो गये थे। जिनका संचालन जैन मुनि करते थे। चित्तौड़ का केन्द्र वीरसेन और हरिभद्रसूरि ने पुष्ट किया तो दिलवाड़ा के संस्कृत कविराज सोमदेव वाचक थे। डूंगरपुर और वागड़ क्षेत्र को सकलकीत्ति तथा उनके शिष्यों ने अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था तो गुणभद्रमुनि ने बिजौलिया को अपने संस्कृतकाव्य से अलंकृत किया था। इस तरह मेवाड़ का कोई क्षेत्र जैन मुनियों की संस्कृतकविता से अछूता नहीं है। अावश्यकता इस क्षेत्र के ग्रन्थ भण्डारों में पड़े हुए काव्यरत्नों को खोज निकालने की है।
विशेष अध्ययन के लिये सन्दर्भग्रन्थ १. मेवाड़ का संस्कृत साहित्य को योगदान (थीसिस) १९६९, __ डॉ० चन्द्रशेखर पुरोहित । २. भट्टारक सकलकीति--एक अध्ययन (थीसिस), १९७६,
डॉ. बिहारीलाल जैन। ३. समदर्शी हरिभद्रसूरि, बांठिया ४. जिनवल्लभसूरि का कृतित्व एवं व्यक्तित्व (थीसिस)-म. विनयसागर
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मेवाड़ के संस्कृत साहित्य की जैन परम्परा / २३५
५. तीथंकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, भाग ४ ६. भट्टारकसम्प्रदाय, डॉ० विद्याधर जौहरापुरकर ७. महाराणा कुम्भा, रामवल्लभ सोमानी ८. राजस्थान के जैनग्रन्थभण्डारों की सूचियाँ (भाग १-५),
डॉ० के० सी० कासलीवाल ९. शोध-पत्रिका, उदयपुर, अंक २-३, भाग ६, १०. वरदा, वर्ष ५, अंक ३ ११. राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा-अगरचन्द नाहटा १२. 'जिनवाणी' विशेषांक (जैन संस्कृति और राजस्थान), १९७५ १३. राजस्थान का जैन साहित्य, जयपुर १९७६ १४. संस्कृतकाव्य के विकास में जैनकवियों का योगदान, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री
२९, सुन्दरवास, उदयपुर-३१३००१
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धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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1
मानव के चित्त की समस्त भावनाओं और क्रियाओं को क्लेशहेतुक और प्रक्लेशक इन दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, क्योंकि किसी भावना अथवा क्रियाका साक्षात् अथवा परम्परया यही दो परिणाम हो सकते हैं ये भावनाएँ अनासक्तिपूर्वक अथवा परम शिव (परमेश्वर) को समर्पित होकर नहीं होतीं । उस स्थिति में उन्हें अक्लेशहेतुक कहा जाएगा। ऐसी का संचय नहीं हुआ करता।'
और क्रियाएँ सम्पूर्णतया सम्पन्न होने पर क्लेशहेतुक भावनाओं और क्रियाओं
अस्मिता राग-द्वेष मौर
क्लेशहेतुक भावना एवं कर्मों को योगपरम्परा में अविद्या अभिनिवेश, इन पाँच स्थितियों में विभक्त किया जाता है, तथा इन पाँचों का मूल अविद्या है, ऐसा स्वीकार किया जाता है। क्योंकि समस्त क्रियाएँ और उनके भी लोभ क्रोध मोह श्रादि मनोभाव की उत्पत्ति श्रविद्या श्रादि के द्वारा ही होती है, वह ही सबके मूल में रहा करती है। चित्तगत ये भावनाएं और क्रियाएं ही विविध अवस्थाओंों में परिणत होकर संचित होती हैं, उस अवस्था में इन्हें कर्माशय कहा जाता है। तथा ये प्रसुप्त तनु विच्छिन्न और उदार अवस्थाओं में संचित रहा करती है। जिस समय ये मनोभाव (अविद्या अस्मिता यादि चित्तवृत्तियाँ) बीज की भांति केवल शक्तिमात्र से चित्त में प्रतिष्ठित रहते हैं, उस स्थिति में इन्हें ही क्लेश- बीज कहा जा सकता है, कालान्तर में प्रालम्बन को प्राप्त करके ये ही प्रकट हुआ
१.
वैदिकपरम्परा में
-
कर्माशय एवं उनका भोग
म. म. डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी
२.
३.
क. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिगीषयेच्छतं समाः एवं त्ववि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।
ख. तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असतो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः । ग. ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । अनन्ये नैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते । तेषमहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । घ. अभ्यासेप्यसमर्थोऽसि मत्कर्म परमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ अविचास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः प्रविद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम् ।
-गीता १२.१०.
श्रविद्याक्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो दाराणाम् ।
- ईश. २.
,
गीता ३. १९.
गीता १२.६-७.
- यो. सू. २.३-४.
यो. सू. २.४.
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कर्माशय एवं उनका भोग | २३७
करते हैं । इस प्रकार बीजभाव को प्राप्त चित्तवृत्तियों (क्रियाओं) को प्रसुप्तकर्म कहते हैं।' साधना के माध्यम से विवेकख्याति का उदय होने के अनन्तर ये चित्तवृत्तिरूप क्लेशबीज दग्ध हो जाते हैं, उनकी अंकुरण शक्ति समाप्त हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पालम्बन के सम्मुख आने पर भी उनका उदय (अंकुरण) नहीं होता, जैसे कि आग से भुने हुए बीजों को बोने पर अन्य समग्र परिस्थितियों के अंकुरण योग्य होने पर भी दग्ध होने के कारण बीजों का अंकुरण नहीं होता । यह अवस्था कर्मों की पांचवीं अर्थात् अन्तिम अवस्था है, इस अवस्था को कर्मों की प्रसुप्ति अवस्था भी कहते हैं। तत्त्वज्ञान, प्रात्मा और इन्द्रियों में भेद की प्रतीति, वैराग्य, मैत्रीभावना एवं अजरामरत्व बुद्धि का उदय होने पर उनके द्वारा उपहत होने से अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्रमशः क्षीण हो जाते हैं, उस स्थिति में इन क्लेशमूलक कर्मों की तनु अवस्था स्वीकार की जाती है। क्योंकि ये भावनाएँ अविद्या आदि की प्रतिपक्षी भावना है, और उन्हें दुर्बल बना देती है।४ जब कभी एक क्लिष्ट चित्तवत्ति (क्रिया) किसी अन्य वत्ति (क्रिया) से किञ्चित्काल के लिए दब जाती है, इसे स्थितिविच्छेद या विच्छिन्नता की अवस्था कहते हैं । ५ विषय की प्राप्ति के समय क्लेश के विकास अथवा अनुभूति की अवस्था को उदार कहते हैं। रामानन्द यति के अनुसार विदेह प्रकृतिलय योगियों के क्लेश प्रसुप्त, क्रिया योगियों के तनु तथा विषयासक्त जनों के क्लेशविच्छिन्न तथा उदार कहे जा सकते हैं। इसके विपरीत राजमार्तण्डवृत्तिकार भोज मानव की विशेष स्थायी उपलब्धि के आधार पर क्लेशों को उदाहृत करने के स्थान पर चित्तभूमि की स्थिति के आधार पर उदाहृत करते हैं । उनके अनुसार चित्तभूमि में स्थित, किन्तु प्रबोधक के अभाव में अपना कार्य प्रारम्भ न करने वाले कर्म प्रसुप्त कहे जाने चाहिए, उदाहरणार्थ बालक के चित्त में विद्यमान काम (रति) आदि क्लेश प्रबोधक सहकारी कारणों के अभाव में अभिव्यक्त नहीं होते। प्रतिपक्ष भावना से जिनकी कार्यसम्पादनशक्ति क्षीण हो गयी है,
तत्र का प्रसुप्ति: ? चेतसि शक्तिमात्रप्रतिष्ठानां बीजभावोपगमः, तस्य प्रबोधः पालम्बने सम्मुखीभावः ॥ —योगभाष्य २. ४. पृ. १४४. विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ।
-यो. सू. २. २६. प्रसंख्यानवतः दग्धक्लेशबीजस्य सम्मुखीभूतेऽप्यालम्बने नासौ पुनरस्ति, दग्धबीजस्य कुतः प्ररोहः। विषयस्य "
सम्मुखीभावेऽपि सति न भवति एषां प्रबोध इत्युक्ता प्रसुप्तिः। -योगभाष्य २.४. ४. क. वितकं बाधने प्रतिपक्षभावनम् । -यो. सू. २. ३३
ख. प्रतिपक्षभावनोपहता: क्लेशास्तनवो भवन्ति । -यो. भा. २.४. ५. विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मा पुनः समुदाचरन्ति इति विच्छिन्ना। कथम् ? रागकाले
क्रोधस्यादर्शनात् । न हि रागकाले क्रोधः समुदाचरति, स हि तदा प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो
भवति । -यो० भा० २.४. ६. विषये यो लब्धवृत्तिः स उदारः ।-यो० भा० १.४, पृ० १४६ - ७. तत्र विदेहप्रकृतिलयानां योगिनां प्रसुप्ता: क्लेशा:, क्रियायोगिनां तनवः, विषयसङिगनां
विच्छिन्ना: उदाराश्च भवन्ति । -मणिप्रशा० २.४, पृ० ६४. ये क्लेशाश्चित्तभूमौ स्थिताः प्रबोधकाभावे स्वकार्य नारभन्ते ते सुप्ता इत्युच्यन्ते । यथा बाल्यावस्थायाम्, बालस्य हि वासनारूपेण स्थिता अपि क्लेशा प्रबोधसहकार्यभावे नाभिव्यज्यन्ते ।-भोजवृत्ति २.४, पृ० ६३
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चतुर्थ खण्ड / २३८
किन्तु वासना, रूप से अभी चित्त में शेष हैं, ऐसे क्लेशों को तनुक्लेश कहते हैं । ये क्लेश प्रभूत और प्रभूततर सहकारी कारण उपस्थित होने पर ही पुनः अपना परिणाम दिखाने में समर्थ हो पाते हैं । क्लेशों की यह स्थिति अभ्यासयुक्त योगियों में प्राप्त होती है, यह कहा जा सकता है। जिन क्लेशों की शक्ति किसी अन्य बलवान् क्लेश से अभिभूत रहती है, उन्हें विच्छिन्नक्लेश कहते हैं। तथा सहकारी कारणों को प्राप्त कर उद्भूत अवस्था में विद्यमान क्लेश उदार कहे जाते हैं।'
प्रसुप्त तनु विच्छिन्न और उदार इन चारों ही प्रकार के क्लेशों से उत्पन्न वृत्ति को कर्म कहते हैं । दूसरे शब्दों में अविद्या अस्मिता रागद्वेष और अभिनिवेश ये प्रसुप्त आदि किसी भी अवस्था में रहते हुए चित्त और इन्द्रियों में व्यापार उत्पन्न करते हैं, इस व्यापार को कर्म कहते हैं। इन कर्मों के द्वारा संस्कार उत्पन्न होते हैं, जिन्हें प्राशय अथवा कर्माशय कहते हैं।
अविद्या प्रादि से उत्पन्न कर्मों के संस्कारों, जिन्हें कर्माशय नाम से ही सामान्यतः अभिहित किया जाता है, का फल इस जन्म और जन्मान्तर दोनों में प्राप्त हो सकता है।' ये फल तीन प्रकार के हो सकते हैं, जन्म (जाति) आयु और भोग ।' किस कर्माशय का फल इस जन्म में होगा और किसका जन्मान्तर में इस सम्बन्ध में सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि अतिविशिष्ट पुण्य तथा प्रति उग्र अपुण्य से निर्मित कर्माशय इसी जन्म में और कभी-कभी सद्यःफलदायी हया करते हैं। जैसे-तीव्र संवेगपूर्वक की गयी मन्त्रसाधना तप:साधना समाधिसाधना अथवा महर्षि या देवता की आराधना द्वारा अजित पुण्य कर्माशय सद्यःफलदायी हो जाता है। इस प्रसंग में नन्दीश्वर का उदाहरण दिया जा सकता है जिसने बाल्यावस्था में ही तीव्र मन्त्र तप: समाधि की साधना के फलस्वरूप दीर्घ आयुष्य एवं मानवशरीर से ही दिव्य भोगों को प्राप्त कर लिया था। महर्षि विश्वामित्र ने भी तपश्चर्या के द्वारा इसी जन्म में ब्राह्मण जाति एवं दीर्घ आयुष्य को प्राप्त किया था।
तीव्र अपुण्यकर्माशय भी शीघ्र फल देते हैं। उदाहरणार्थ भयाकुल रोगी अथवा दीनजनों के साथ किया गया विश्वासघात अथवा पुण्यात्मा महर्षि गुरुजन आदि के साथ किया गया बारम्बार अपकार सद्यःफलदायी होता है। नहुष द्वारा महर्षियों के अपमान से सर्प जाति की प्राप्ति का पौराणिक आख्यान इसका उदाहरण है।
योगसूत्र के व्याख्याकार नागोजिभट्ट के अनुसार कर्माशय का मुख्य फल तो भोग ही हुआ करता है, जाति और आयुष्य तो उसके नान्तरीयक फल हैं, जिनकी प्राप्ति भोगों के लिए पृष्ठभूमि के रूप में हुआ करती है।
विच्छिन्ना ये
सामग्रीमन्तरेण स्वकार्यमा सम्पादनशक्तयो वासनावशेषतय
3. क्लेशमूलः यः स्वं स्वं कार्यमा क्लेशेनाभिभूतशतमाः यथा अभ्या
१. ते तनवो ये स्वप्रतिपक्षभावनया शिथिलीकृतकार्यसम्पादनशक्तयो वासनावशेषतया चेतस्यव
स्थिताः प्रभूतां सामग्रीमन्तरेण स्वकार्यमारब्धुमक्षमाः, यथा अभ्यासवतो योगिनः । ते विच्छिन्ना ये केनचिद् बलवता क्लेशेनाभिभूतशक्तयस्तिष्ठन्ति । --ते उदारा: ये प्राप्त
सहकारिसन्निधयः स्वं स्वं कार्यमभिनिर्वतयन्ति ।-भोजवृत्ति २.४, पृ० ६३. २. क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । -यो० सू० २.१२ ३. सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः॥-यो० सू० २.१३ ।। ४. विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य-पातञ्जलयोगशास्त्र एक अध्ययन, पृ. ९०. ५. अत्र भोगो मुख्यं फलम्, तन्नान्तरीयके च जात्यायुषी।
नागोजिवृत्ति, २. १३. पृ. ७३.
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कर्माशय एवं उनका भोग | २३९
इन कर्माशयों के फल की अनिवार्यता के सम्बन्ध में भले ही विवाद हो सकता है कि इनका फल प्रत्येक कर्ता को अवश्य भोगना पड़ता है, अथवा भोग के बिना भी उनका क्षय हो सकता है । इस प्रश्न पर योग-भाष्यकार व्यास की मान्यता है कि कर्माशय तब तक ही फलदायी होते हैं, जब तक अविद्या प्रादि क्लेश विद्यमान रहते हैं। इनका विनाश हो जाने पर ये अंकुरण में उसी प्रकार असफल हो जाते हैं जिस प्रकार शालिबीज आवरण ( भूसी) के अलग हो जाने पर अंकुरण में समर्थ नहीं होते । इसी प्रकार विवेकख्याति द्वारा यदि क्लेश भी दग्धबीजभाव को प्राप्त हो जाये तो शेष कर्माशय भी दग्धबीजभाव को प्राप्त हो जाते हैं, और उनका कोई फल नहीं होता। सूत्रकार ने स्वयं विवेकख्याति को क्लेश और उनके परिणामों के विनाश का सफल उपाय स्वीकार किया है।'
आइये, अब हम कर्माशयों के फलों पर क्रमशः विचार करें। कर्माशय का प्रथम फल जाति अर्थात् जन्म स्वीकार किया गया है। यहाँ एक प्रश्न सहज रूप से उपस्थित होता है, कि क्या एक कर्म का संस्कार एक जन्म का हेतु है, अथवा वह अनेक जन्मों का भी हेतु हो सकता है ? इसी प्रकार दूसरा प्रश्न यह है कि क्या अनेक कर्म मिलकर एक जन्म के हेतु होते हैं, अथवा वे ( अनेक कर्म ) अनेक जन्मों के भी हेतु हो सकते हैं ? इन चार पक्षों में प्रथम पक्ष अर्थात् 'एक कर्म एक जन्म का हेतु होता है' यह स्वीकार करना उचित नहीं हो सकता । क्योंकि प्रथम तो एक जन्म में अनेक प्रकार के सुख दु:ख आदि का अनुभव होता है, जो एक कर्म से उत्पन्न कर्माशय का फल नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त एक कर्म के परिणाम में एक जन्म मानने पर अनादिकाल से चली आ रही जन्मपरम्परा में से प्रत्येक जन्म में किये गये संख्यातीत कर्मों के अनन्त होने के कारण असंख्य कर्मों के फलयोग का अवसर ही न पा सकेगा । इसी प्रकार एक कर्म को अनेक जन्मों का हेतु भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस स्थिति में पूर्वोक्त दोष
और भी प्रबल रूप से उपस्थित होंगे। इसके अतिरिक्त इस स्थिति में कर्मों के भोग का क्रम भी न बन पाएगा क्योंकि अनेक जन्म तो एक साथ हो नहीं सकते । इसी भाँति अनेक कर्मों को भी अनेक जन्मों का हेतु मानना भी उचित न बन पायेगा, क्योंकि इस स्थिति में भी क्रमविषयक अव्यवस्था उत्पन्न होगी, तथा अनेक जन्मों में किये गये कर्मों के भोग का क्रम भी न बन सकेगा। इन अनेक विकल्पों के प्रसंग में विविध उपस्थित असुविधाओं को देखते हुए यह मानना अधिक उचित प्रतीत होता है कि जन्म से लेकर मरणपर्यन्त किये गये समस्त कर्मसमूह के द्वारा विवधतापूर्ण विचित्र फलों वाले जन्म का प्रारम्भ होता है। क्योंकि वह समूह एक होता है अतः इससे एक जन्म का प्रारम्भ होता है, तथा कर्मसमूह में कर्मों की बहुलता और वैचित्र्य विद्यमान रहने के कारण प्राप्त जन्म में भी फलों की बहुलता-विचित्रता रहा करती है।
सामान्यतः अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय का विपाक जन्म, आयु और भोग तीनों रूपों में संभव है, जबकि दृष्ट जन्मवेदनीय कर्मों के संस्कार प्रायः भोग की ही सृष्टि करते हैं;
१. क्लेशावनद्धः कर्माशयो विपाकारम्भी भवति, नापनीतक्लेशो न प्रसंख्यानदग्धक्लेशबीजभावो
वेति । योगभाष्य २. १३. २. तस्माज्जन्मप्रयाणान्तरे ( मरणान्तरे ) कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचयो विचित्रः प्रधानोप
सर्जनीभावेनावस्थितः प्रयाणाभिव्यक्त एक प्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य सम्मूच्छित एकमेव जन्म करोति । प्रयाणभिव्यक्त तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति । तस्मिन्नायुषि तेनैव कर्मणा भोगः सम्पद्यते ।
--योगभाष्य, २.१३
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चतुर्थखण्ड / २४० यद्यपि कभी-कभी इनके द्वारा आयुः फल भी प्राप्त होता है । एक दो उदाहरण ऐसे भी प्राप्त हैं जहाँ दृष्ट जन्मवेदनीयकर्म का विकास जन्म के रूप में भी हुआ है । नन्दीश्वर और नहुष् के कथानक इसके उदाहरण हैं।"
व्यास के अनुसार अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्म पुनः दो प्रकार के हैं-- नियत विपाक, और. अनियतविपाक नियतविपाक कर्माशय वह है जिसके फल का प्रतिबन्धन अन्य किन्हीं सबल कर्मों द्वारा नहीं होता, बल्कि उसका फल अवश्य ही भोगना है। प्रनियतविपाक कर्माशय के फल का प्रतिबन्धन अन्य कर्माशय द्वारा हो सकता है । इसकी तीन स्थितियाँ हो सकती हैं। (१) विपाक के बिना ही नाश, (२) प्रधान कर्म के साथ उसका भी फलभोग, (३) नियतविपाक प्रधानकर्म के द्वारा अभिभूत होने से चिरकाल तक भोग के बिना अवस्थिति । विपाक के बिना ही कर्म का नाश तब होता है, जब उस कर्म के विपरीत फल वाले कर्मों का समूह विद्यमान हो । प्रायश्चित्त के फलस्वरूप अनियतविपाक कर्म का ही नाश होता है, उपनिषद् वाक्य भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं ।
योगसूत्र के टीकाकार नागोजि भट्ट कर्माशय का विभाजन कुछ भिन्न प्रकार से करते हैं। उनके अनुसार प्रथमतः कर्माशय के दो भेद हैं : प्रारब्ध फलवाला और अनारब्ध फल वाला । इनमें प्रारब्ध फल वाले कर्माशय का भोग इसी जन्म में होता है । अनारब्ध फलवाले कर्माशय का विभाजन उन्होंने तीन भेदों में किया है—शुक्ल, कृष्ण एवं शुक्लकृष्ण स्वाध्याय जप आदि शुक्ल कर्माशय कहे जाते हैं, जिनके सम्पादन के क्रम में परपीड़ा आदि का अवसर कभी उपस्थित नहीं होता । ये कर्म ( शुक्ल कर्म) परिणाम के आधार पर अत्यन्त सबल कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनका उदय होने से अन्य कृष्ण अथवा शुक्लकृष्ण कर्मों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। शुक्ल कर्मों के द्वारा जिन कर्मों का प्रभाव नष्ट होता है, उन्हें अनारब्ध फल वाले कर्म कहा जाता है। वैदिक पशुहिंसा आदि कर्म कृष्ण कर्म है, किन्तु जब ये कृष्ण कर्म वैदिक यज्ञों के साथ किये जाते हैं, तब इन कृष्ण कर्मों के फल का भोग प्रधान कर्म यज्ञ आदि के फल के भोग के साथ ही होता है ये अप्रधान कर्म स्वतन्त्र रूप से कर्मफल का आरम्भ करने में समर्थ नहीं होते। जिन कर्मों में हिंसा यादि कृष्ण कर्म एवं दान यादि शुक्त कर्मों का सहभाव होता है, जैसे हिसामिश्रित वैदिक याग आदि ने शुक्लकृष्ण कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों का फल भी सदा मिश्रित ही होता है।
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अवस्थाभेद से भी कर्मों का वर्गीकरण किया जा सकता है। इसके अनुसार कर्मों के तीन वर्ग होंगे - प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण । कर्माशय में विद्यमान अनन्त कर्मों में से जिनका
१. दृष्टजन्म वेदनीयस्त्वैकविपाकारम्भी भोगहेतुत्वात् द्विविपाकारम्भी या प्रायुर्भौगहेतुत्वात्, नन्दीश्वरषवद् वा इति । यो० भा० २.१३.
२. यो दृष्टजन्मवेदनीयो नियतविपाकस्तस्य त्रयोगतिः कृतस्याविपक्वस्य नाश:, प्रधानकर्मण्यावापगमनं वा नियतविपाकप्रधानकर्मणाऽभिभूतस्य वा चिरमवस्थानम् ।
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वही, २.१३ २. हे कर्मणी वेदितव्यं पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोपहन्ति । योगभाष्य, पृ० १७१ से उब त द्वे द्वे ४. सः कर्माशयो द्विविधः, प्रारब्धफलोऽनारब्धफलश्च । तत्रारब्धफलः उक्त एकजन्मावच्छिन्नः । अनारब्धफलोऽपि त्रिविधः, शुक्लः कृष्णः शुक्लकृष्णश्च । नागोजिवृत्ति २.१३
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कर्माशय एवं उनका भोग / २४१
भोग प्रारम्भ हो चका है वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। दष्ट जन्मवेदनीय कर्म इसी श्रेणी में आते हैं। इस जन्म में किये गये वे कर्म जिनका भोग (विपाक) इसी जन्म में होना है किन्तु अभी भोग प्रारम्भ नहीं हुआ है, उन्हें प्रारब्ध तो नहीं कहा जा सकता किन्तु फिर भी वे दष्ट जन्मवेदनीय कर्म कहे जायेंगे। पूर्वजन्मों में किये गये वे कर्म जिनकी समष्टि द्वारा वर्तमान जन्म प्राप्त हुआ है, और वे इसके जन्म प्रायुष और भोग के हेतु हैं, वे कर्म समष्टि रूप से (व्यक्ति रूप से नहीं) प्रारब्ध कर्मों की कोटि में रखे जायेंगे।
जिन कर्मों का भोग अभी प्रारम्भ नहीं हया है, वे सभी चाहे इस जन्म में किये गये हों चाहे जन्मान्तर में, संचित कर्म कहे जाते हैं। इसी प्रकार जो कर्म अभी किये जा रहे हैं, तथा उनका भोग इस जन्म में निश्चित नहीं है, ऐसे सभी कर्म क्रियमाण कर्म कहाते हैं।
संचित कर्मों के संस्कारों को अनियत विपाक-अदष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय के समानान्तर तथा प्रारब्ध कर्मों के संस्कारों को प्रधान अर्थात् नियत विपाक दृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय के समानान्तर रखा जा सकता है। यद्यपि भाष्यकार व्यास ने क्रियमाण कर्मों से उत्पन्न संस्कारों की कोई चर्चा नहीं की है, किन्तु फिर भी इस प्रकार के संस्कारों को दृष्ट जन्मवेदनीय अथवा अदष्ट जन्मवेदनीय कर्मों में यथावसर रखा जा सकता है।
इन कर्माशयों से जिस जाति (जन्म) प्रायः और भोग की उत्पत्ति होती है, उनके द्वारा जीव को क्लेश का ही अनुभव होता है, दु:ख का ही अनुभव होता है। सर्वसामान्य जहां कहीं सुख का भान करता है वहाँ वह सुख का भान भ्रममूलक होता है। योगिजन वहाँ सुखाभास का भी अनुभव नहीं करते क्योंकि उन्हें विदित है कि विषयों का उपभोग करने से उनके प्रति राग की वृद्धि होती है, राग से कामना बढ़ती है, और पुनः अप्राप्ति से दुःख होता है, भोग से तृप्ति हो जाती हो ऐसा तो होता है नहीं, अतः कोशय के फलस्वरूप प्राप्त भोग दुःख का ही कारण है, यही स्वीकार किया जाता है।' इसीलिए सूत्रकार पतञ्जलि ने समस्त दष्ट और अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय को क्लेशमूलक ही स्वीकार किया है। चाहे उसका विपाक (फल) जन्म हो चाहे आयु और चाहे भोग ।'
कर्माशय के रूप में चित्त में अनादिकाल से असंख्यात कर्मसंस्कार चले पा रहे हैं। इनमें कुछ प्रधान और कुछ उपसर्जन कर्माशय कहे जा सकते हैं। जिन कर्मवासनाओं के संस्कार प्रबल रूप से उत्पन्न होते हैं उन्हें प्रधान कर्माशय कहते हैं, और जिनके संस्कार शिथिल रूप से पड़े रहते हैं, उन्हें उपसर्जन कर्माशय कहते हैं। मरणकाल में प्रधान कर्माशय पूरे वेग से जागृत हो जाते हैं, साथ ही पूर्व और वर्तमान जन्म के अनुकूल वासनाओं को उद्धृत करते हैं। १. (क) भोगाभ्यासमनु विवर्द्धन्ते रागाः, कौशलानि चेन्द्रियाणामिति तस्मादनुपायः सुखस्य
भोगाभ्यास: ।-योगभाष्य २.१५ (ख) विषयाणामुपभ्युज्यमानानां यथायथं ग भिवृद्धस्तदप्राप्तिकृतस्य दुःखस्यापरिहार्यतया
दुखान्तरसाधनत्वाच्चास्त्येव दुःखरूपता ।-भोजवृत्तिः २.१५ २. क्लेशमुलकर्माशयो दष्टादष्टजन्मवेदनीयः । सति मुले तद्विपाको जात्याय गाः।। परिणामतापसंस्कारदुःखै गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वविवेकिनः ॥
-यो०सू० २.१२,१३,१५ ३. ततस्तविपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम् । यो. सू. ४.८
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चतुर्थ खण्ड / २४२
इनमें भी जो संस्कार प्रधानतम होता है, अन्य संस्कार उसके सहायक बन जाते हैं और तब उनकी समष्टि की वासना के अनुसार जन्म प्रायु और भोग का निर्धारण होता है। ऐसे कर्माशय (कर्म समष्टि) को, जिसके जन्म, आयु और भोग निश्चित हो गये हैं, वे नियतविपाक कर्माशय कहे जाते हैं। मुण्डक उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता में इस नियत भाव को प्राप्त हो रहे कर्माशय को ही भावों का स्मरण अथवा कामना नाम से अग्रिम जन्म का हेतु माना है।
वे कर्म (उपर्जन कर्म) जिनका फलोपभोग करने के लिये जन्म, आयुष्य और भोग अभी नियत नहीं हया है, वे अनियत विपाक कर्माशय कहलाते हैं, ये कर्म अदष्ट जन्मवेदनीय कर्म भी कहलाते हैं, क्योंकि इनका फल वर्तमान जन्म में नहीं होना है। अनियत विपाक कर्माशय का विभाजन दो समूहों में किया जा सकता है (१) इनमें प्रथम वे हैं जिनका स्वयं का विपाक नहीं होता किन्तु नियत विपाक कर्म के प्रभाव में कुछ न्यूनता या अधिकता उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं । अथवा उनमें संयुक्त होकर फल देते हैं। (२) दूसरे वे हैं जो चित्तभूमि में दवे हुए तब तक वैसे ही पड़े रहते हैं, जब तक कि उन्हें किसी अनुकूल जन्म और साधन को प्राप्त कर फल देने के लिए अवसर नहीं मिलता। जब कभी उनको जगानेवाले कर्माशय की प्रधानता होती है तब वे उबुद्ध होकर फल देने की स्थिति में प्राते हैं (और उस स्थिति में उन्हें नियतविपाक की श्रेणी में रखा जा सकेगा) अन्यथा कितने जन्म और समय बीतने पर भी वे उसी भाँति सुरक्षित रहते हैं और उनका नाश नहीं होता। इससे भिन्न इनकी तीसरी स्थिति वह भी होती है जब योगसाधना आदि के द्वारा तत्त्वज्ञान का उदय होने पर वे भस्मसात् हो जाते हैं । २
पतञ्जलि के अनुसार आशिष के रूप में ये कर्माशय अनादि काल से जीव के साथ विद्यमान रहते हैं।
इस प्रकार हम संक्षेप में कह सकते हैं कि कर्माशय दृष्ट जन्मवेदनीय और अदष्ट जन्मवेदनीय अथवा नियतविपाक और अनियतविपाक नाम से दो प्रकार का होता है । अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय के द्वारा ही अग्रिम जन्म के जन्म आयुष्य और भोग का निर्धारण होता है। इस निर्धारण में कर्मसमष्टि रूप कर्माशय कारण होता है, कर्मव्यष्टि नहीं ।
-स्वामी केशवानन्द योग संस्थान ८/६ रूपनगर, दिल्ली-११०००७
१. (क) कामान्यः कामयते मन्यमानः सः कामभिर्जायते यत्र तत्र ।
पर्याप्तकामस्य कृताव्यनस्तु इहैव सर्वे प्रविशन्ति कामाः ।।-मुंड० २-२-२. (ख) यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।-गीता०५-६ २. (क) ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। -गीता ४.३७
(ख) ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुं पंडितं बुधाः। -गीता ४.१९
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धार्मिक रहस्यवाद में दिक्-काल-बोध
डॉ० वीरेन्द्रसिंह
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धर्म मानव संस्कृति का वह चादितम रूप है जब प्रादिमानव ने प्रकृति शक्तियों (जल, आकाश, वायु, सूर्य आदि ) के प्रति भय तथा जिज्ञासा से प्रेरित होकर, उनका प्रतीकात्मक साक्षात्कार किया, फलस्वरूप जागतिक दिक्काल के स्तर से वह क्रमशः ब्रह्माण्डीय या पराजागतिक स्तर की विराटता' की ओर अग्रसर हुआ यह जागतिक विक्काल से पराजागतिक दिक्काल तक की यात्रा का अन्योन्य सम्बन्ध है और विभिन्न ज्ञानानुसार ( धर्म, दर्शन, विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास आदि ) किसी न किसी रूप में इस जगत् और ब्रह्मांड के सम्बन्धों को समझने के माध्यम हैं। इस दृष्टि से धर्म जागतिक विक्काल से विराट या पराजागतिक दिक्काल का अनुभव कराता है जो व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर घटित होता है। धर्म, चाहे ईश्वरवादी हो या निरीश्वरवादी —दोनों अपने-अपने तरीके से "विराट" या सत्य तक पहुँचना चाहते हैं। अतः जहाँ तक धार्मिक अनुभव अथवा रहस्यवाद का प्रश्न है, उसका प्रारंभ जागतिक दिक्काल के चतुर्वर्गीय स्तर से होता है जो क्रमशः ब्रह्मांड की विराटता को समेटता हुआ, परमशक्ति या परमतत्त्व तक पहुँचता है। यहाँ पर एक तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि जब व्यक्ति या समूह जागतिक से पराजागतिक स्तर की प्रोर बढ़ता है, तो वह दो प्रकार की व्यवस्थाओं के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध से गुजरता है। एक है जागतिक दिक्काल की व्यवस्था और दूसरी है "अनन्त " की व्यवस्था इस द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध से गुजरने की प्रक्रिया में वह उपासना, साधना और भक्ति के विविध रूपों को स्वीकारता है । उपासना और साधना वे माध्यम हैं जिनके द्वारा साधक अपने "स्व" को दिक् और काल की सापेक्षता में प्रतिक्रमित करता है । यह प्रतिक्रमण यह स्पष्ट करता है कि दिक्काल की दो व्यवस्थाएं एक साथ प्राप्त होती हैं अर्थात् जागतिक विक्काल की व्यवस्था और पशजागतिक दिक्काल की व्यवस्था | यह "अनन्त " की व्यवस्था प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में प्राप्त होती है । यदि गहराई से देखा जाए तो प्रत्येक ज्ञानानुशासन न्यूनाधिक रूप से "महाकाल" के इस अनन्तबोध से टकराते हैं। यहाँ पर मेरे विचार से जागतिक स्तर को नकारा नहीं जा सकता है। क्योंकि "अनन्त व्यवस्था" की सापेक्षता में इसका एक सार्थक निर्धारण आवश्यक है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि दिक्काल की दोनों व्यवस्थाएँ एक दूसरे की पूरक हैं अथवा उनमें कार्य कारण सम्बन्ध है। यहाँ पर डब्लू. टी. स्टेस का मत है कि ईश्वर या ब्रह्म दिक्काल से निरपेक्ष है ।" जो मेरे विचार से पूर्णतया ठीक नहीं है । इसका कारण यह है दिक्काल की दृष्टि जागतिक घोर अनन्त का सापेक्ष सम्बन्ध है क्योंकि चाहे हम जागतिक दिक्काल से "अनन्तता" की ओर जाएँ या 'अनन्तता' से विकुकाल की घोर भ्राएं दोनों स्थि
१. टाइम एण्ड इटर्निटी डब्लू टी स्टेस, पृ. ७२
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चतुर्थ खण्ड | २४४
तियों में प्रदत्त दिक्काल एक ऐसा सत्य है जिसके बगैर हम दिककाल की विराटता या अनन्त सत्य का बोध नहीं कर सकते हैं । इस व्यवस्था को हम 'दिव्य' व्यवस्था भी कह सकते हैं जिसकी अभिव्यक्ति संतों तथा भक्तों ने विविध रूपाकारों के द्वारा की है। इसे मैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो काल का वह "बिंदु' जहाँ पर ये दोनों व्यवस्थाएँ एक-दूसरे को काटती हैं। यह 'बिंदु' साधक या रहस्यवादी का वह अनुभव या "प्रतीति-बिंदु" है जहां से वह जागतिक और तात्त्विक व्यवस्थाओं को सम्बन्धित करता है । अतः रहस्यवादी अनुभव के लिए यह "प्रतीतिबिंदु" जिसे हम काल का वर्तमान प्रखंड भी कह सकते हैं, इसके बगैर अनन्त या तात्त्विक का बोध संभव ही नहीं है । अनन्त या शाश्वत में काल और दिक् का सूक्ष्म रूपान्तरण होता है न कि उनका नकार । काल का यह वर्तमान प्रतीति-बिंदु या क्षण जहाँ से व्यक्ति 'अनन्तता' का बोध करता है, वह मात्र संतों और रहस्यवादियों तक सीमित न होकर वैज्ञानिकों, दार्शनिकों तथा कलाकारों के दिक्काल बोध में एक प्रेरक तत्त्व है। कहने का तात्पर्य यह है कि धार्मिक, रहस्यवादी, दार्शनिक, रचनाकार आदि सभी भिन्न-भिन्न स्तरों पर "अनन्तबोध' से टकराते हैं, अंतर पद्धति और अनुभव के आवेग का है । अत: टी. एस. इलियट का यह मत है कि काल और कालहीनता के अंतरछेदन के बिंदु का अनुभव संतों का विषय है।' यह उपर्युक्त कारणों से पूर्णरूप से सत्य नहीं है।
इस दृष्टि से ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में "रहस्यवाद' का अपना स्थान है जो जागतिक दिककाल और व्यापक अर्थभित ब्रह्मांडीय अथवा अनंतबोध को एक सूत्र में पिरोता है। रहस्यवादी का अनन्त बोध प्रातिभज्ञान या अनुभूति का विषय है जो एक जैविक मानसिक क्रिया है जिसे प्राधुनिक परामनोविज्ञान अतींद्रिय प्रत्यक्षीकरण (एक्स्ट्रा सेन्सरी परसेप्शन ) की संज्ञा देता है।
इसी संदर्भ में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अनन्त का यह बोध एक 'रूपक' है क्योंकि रहस्यवादी रूपक के द्वारा इस संबंध को संकेतित करता है। दिक् और काल का यह संकेतन भाषा के प्रतीकों और रूपाकारों के द्वारा ही व्यक्त होता है। जागतिक से पराजागतिक तक की यात्रा को कवि या रहस्यवादी भाषिक रूपाकारों से ही संवेदित करते हैं। यहाँ पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ये रूपाकार (प्रतीक: बिम्ब, मैं, तुम आदि ) जागतिक दिक और काल से ही ग्रहण किए जाते हैं जिन्हें क्रमशः तात्त्विक अर्थ संदर्भो का वाहक बनाया जाता है। ये भाषिक रूपाकार सत्य या अनन्त सम्बंध के माध्यम है, पर इनका आधार यह प्रदत्त दिक और काल का जागतिक स्तर है। ये रूपाकार उपर्युक्त दो व्यवस्थानों के अनुसार दो प्रकार के होते है-एक पिंडीय (माइक्रो) और दूसरे ब्रह्मांडीय या अनन्त (मैक्रो) स्तर को संकेतित करने वाले । ये सभी 'रूपाकार' यथार्थ और सत्य के भिन्न रूपों का प्रतीकात्मक निर्देशन करते हैं। नदी, चकोर, पिंड, चातक, मैं, गोपी, पतंग, प्रेमिका आदि माइक्रो या पिंडीय स्तर के रूपाकार हैं तथा दूसरी ओर क्रमशः समुद्र, चाँद, ब्रह्मांड, मेघ, तुम, कृष्ण, दीपक, प्रेमी (पति) अादि “मेको" स्तर के प्रतीक हैं । माइक्रो स्तर के रूपाकार जागतिक स्तर से सम्बन्धित हैं और मैक्रो स्तर के रूपाकार (जो जगत के हैं) पराजागतिक स्तर से । रहस्यवादी इन जाग
1. To apprehend.
The point of intersection. Of the Timeless with Time is an occupation for the Saint
-T. S. Eliot
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धार्मिक रहस्यवाद में दिक-काल बोध / २४५
तिक रूपाकारों को रूपक और व्यंजना की शक्ति के द्वारा तात्त्विक अर्थ-संदर्भो तक ले जाता है । इस प्रकार वह काल के वर्तमान बिंदु से तथा दिक की वस्तुओं-पदार्थों से पराजागतिक अर्थ-संदर्भो को व्यक्त करता है। इस दृष्टि से इन रूपाकारों का महत्त्व धार्मिक रहस्यभावना से जितना है उतना सृजनात्मकता से, क्योंकि रचनाकार भी इन्हीं रूपाकारों के द्वारा बृहत्तर अर्थ संदों को उजागर करता है। भारतीय संतों, सूफियों तथा ईसाईयों में यह रहस्यवादी प्रवत्ति सामान्य है जो अपने-अपने तरीके से सीमा और असीम के द्वन्द्व को रेखांकित करते हुए क्रमशः इस सम्बन्ध को निर्द्वन्द्व स्थिति तक ले जाते हैं। कबीर ने पति-पत्नी के युग्म द्वारा इन दो स्तरों के द्वन्द्व तथा संगति को इस प्रकार व्यक्त किया है
हरि मोर पीव मैं राम की बहरिया
राम बड़ो मैं उसकी लहरिया । दूसरी ओर इस्लामी सूफी कवि रूमी ने इसी सम्बन्ध को मैं और तुम के द्वारा व्यक्त किया है और वह भी "क्षण' के द्वारा
"वह क्षण कितना आनंदप्रद होगा,
जब 'मैं' और 'तुम' भवन में बैठे होंगे, हमारे दो 'आकार' और 'रूप' हैं। पर आत्मा एक है हमारी और तुम्हारी ।"
(मिस्टिक्स ऑफ इस्लाम में उद्धृत) क्ति उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि रहस्यवादी अनुभव में 'रूपाकार' का महत्त्व उपर्युक्त दो व्यवस्थाओं के अन्तर्जेदन को प्रस्तुत करता है । बट्रेन्डरसेल ने इस रहस्यवादी प्रक्रिया को निरपेक्ष न मानते हुए सापेक्ष माना है और उसे एक तार्किक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है। यह मानसिक और आध्यात्मिक यात्रा एक प्रारोहण है जिसकी चार अवस्थाएँ रसेल ने मानी हैं। प्रथम विश्वास की अवस्था है जो क्रमशः दूसरी अवस्था “अन्तदष्टि" को जन्म देती है। दूसरी अवस्था में साधक या व्यक्ति वस्तुओं और घटनामों की प्रकृति और उनके सम्बन्ध के प्रति सचेत होता है। तीसरी अवस्था “एकात्म भाव" की अवस्था है जहाँ मन और पदार्थ का अभेद स्थापित होता है। यह एकत्व का अनुभव चौथी अवस्था की ओर साधक को ले जाता है जहां वह दिक् और काल के जागतिक स्तर का सूक्ष्म एवं व्यापक रूपांतरण करता है।' यदि गहराई से देखा जाए तो रहस्यवादी अनुभव और वैज्ञानिक दार्शनिक अन्वेषण या प्रत्ययन में ये अवस्थाएँ किसी न किसी रूप में प्राप्त होती हैं जो अन्वेषक को 'सत्य' के परिशुद्ध रूप तक ले जाती है, पर उसके अन्तिम रूप तक नहीं। परिशुद्ध सत्य के निकट रहस्यवादी और अन्वेषक दोनों पहुँचते हैं पर शायद उसके सम्पूर्ण और अन्तिम रूप तक नहीं। यही ज्ञान का गत्यात्मक रूप है ।
अन्त में, मै यह बात जोर देकर कहना चाहूंगा कि अनन्त या दिव्य की व्यवस्था के मानने का यह अर्थ नहीं है कि जागतिक दिककाल की व्यवस्था को असत्य, भ्रम या अर्धसत्य माना जाए; दूसरी ओर जागतिक दिक्काल की व्यवस्था को मानने का यह अर्थ नहीं है कि अनन्त या दिव्य को वायवी कहकर नकारा जाए। दोनों की 'अति' हमें 'सत्य' से दूर ले जाती है । आवश्यकता है उनमें एक संतुलन की, दोनों व्यवस्थानों के सार्थक निर्धारण की । यह निबन्ध इसी की प्रस्तावना मात्र है। -५स १५, जवाहर नगर, जयपुर-३०२००४ १. मिस्टिसिज्म एण्ड लॉजिक, बट्रेड रसेल, पृ० २१
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धम्मो दीवो संसार समुद्र में चर्म ही दीप है
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प्राकृत बोलियों की सार्थकता
- डॉ. जगदीशचन्द्र जैन
गरुडपुराण (पूर्व खण्ड, ९८.१७) में कहा गया है।
लोकायतं कुतकं च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् ।
न श्रोतव्यं द्विजेनंतत् अधो नथति तद् द्विजम् ॥ लोकायत (= चार्वाक), कुतर्क और म्लेच्छों द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत ब्राह्मण को सुनना ठीक नहीं-ये उसे अधोगति को ले जाते हैं।
इस पर से कुछ लोग प्राकृत को म्लेच्छ-भाषित मानकर उसकी गर्हणा करते हैं । लेकिन देखा जाय तो कोई भी भाषा प्रशंसनीय अथवा गर्हणीय नहीं है। भाषाविज्ञान में, भाषाओं के विकासक्रम में, सबका अपना-अपना स्थान निर्धारित है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भारतीय आर्यभाषाओं को तीन भागों में विभक्त किया गया है : पहला युग प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं का है जो ईसा पूर्व २००० से लेकर ईसा पूर्व ६०० या ५०० तक चलता है। दूसरा युग मध्यकालीन आर्यभाषाओं का है जो ईसा पूर्व छठी या पांचवीं शताब्दी से ईसा की १० वीं या ११ वीं शताब्दी तक चलता है; तीसरा युग अाधुनिक प्रार्यभाषाओं का है, जो ईसा की १० वीं या ११ वीं शताब्दी से लेकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषायों तक चलता है।
संस्कृत का आधिपत्य
कहना न होगा कि जब से भारतीय भाषाशास्त्र के असाधारण मनोषी पाणिनि (ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी) ने अपनी अष्टाध्यायी के सूत्रों में संस्कृत व्याकरण को समेट कर, भाषा को सुसंस्कृत बनाया तभी से संस्कृत को भारतीय साहित्य में गौरव का स्थान प्राप्त हमा। कालक्रम से इस भाषा में दर्शन, न्याय, काव्य, व्याकरण, कोश, ज्योतिष, वैद्यक आदि सम्बन्धी साहित्य का निर्माण होने लगा। कालान्तर में संस्कृत इतनी लोकप्रिय हुई कि इसके समक्ष अन्य भाषायें प्रभावहीन प्रतीत होने लगीं। उदाहरण के लिए, ईसवी सन् ९०० के अासपास, नृत्य पर आधारित केवल प्राकृत में लिखे जाने वाले सट्टकों की रचना हुई, किन्तु संस्कृत के प्रभाव के कारण अथवा संस्कृत में रूपान्तरित होने के कारण उनका अस्तित्व ही शेष न रहा । यायावरवंशीय सुप्रप्रिद्ध राजशेखर ने कर्पूरमंजरी आदि सट्टकों का प्रणयन कर यश का सम्पादन किया। किन्तु उलेखनीय है कि ईसा की नौंवीं शताब्दी के आसपास संस्कृत का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि राजशेखर को अपने बालरामायण नाटक के प्राकृत अंशों को संस्कृत छाया द्वारा समझाने की चेष्टा करनी पड़ी। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भी संस्कृत नाटकों में प्राकृत अंशों की संस्कृत छाया छपी रहती है और संस्कृत के अध्यापक प्रायः उसीके आधार से विद्यार्थियों को प्राकृत का ज्ञान कराते हैं।
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प्राकृत बोलियों की सार्थकता | २४७
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्राकृत का अध्ययन
पाश्चात्य विद्वानों, विशेषकर जर्मन विद्वानों का, हमें ऋणी होना चाहिए जिन्होंने सर्वप्रथम प्राकृत बोलियों का आधुनिक ढंग से वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया, खास कर उस युग में जबकि प्राकृत ग्रन्थों की केवल हस्तलिखित पांडुलिपियाँ ही उपलब्ध थीं। इस संबंध में पाल ब्रत वेबर, हर्मन याकोबी, होग, कॉवेल, रिचर्ड प्रिशल, हॉर्नेल आदि के नामों का उल्लेख किया जा सकता है। सर्वप्रथम प्रालबर्ट होएफर ने De Prakrita dialecto libri duo (प्राकृत बोलियाँ, दो भागों में, बलिन, १८३६) पुस्तक का प्रकाशन किया । लगभग इसी समय १८३७ में क्रिस्तिएन ला स्सेन की Institutiones Linguae Prakriticae रचना प्रकाशित हुई जिसमें प्राकृत बोलियों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सामग्री एकत्रित की गई। इस क्षेत्र में प्रालब्र श्त वेबर ने महाराष्ट्री, अर्धमागधी और अपभ्रश बोलियों पर सराहनीय कार्य किया। एडवर्ड म्यूलर ने अर्धमागधी पर कार्य किया। तत्पश्चात् वेबर के प्रतिभाशाली शिष्य याकोबी ने जैन महाराष्ट्री का अध्ययन प्रस्तुत किया। Ausgewete Erzelungen in
Maharastri (महाराष्ट्री से चुनी हुई कहानियाँ) में जैन महाराष्ट्री प्राकृत कथाओं का सम्पादन कर उसे भाषाशास्त्रीय टिप्पणियों से सज्जित किया। तत्पश्चात् ई. बी. कॉवेल ने वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश को १८५४ में प्रकाशित किया। इसी का द्वितीय संस्करण अंग्रेजी अनुवाद और टिप्पणियों तथा भामह की टीका के साथ १८६८ में प्रकाशित हुआ। कॉवेल महोदय ने १८७५ में वररुचि के प्राकृत-प्रकाश पर आधारित 'ए शॉर्ट इण्ट्रोडक्शन टु द प्रॉडिनरी प्राकृत व द संस्कृत ड्रामाज विद ए लिस्ट ऑव कॉमन इरेगुलर प्राकृत वर्डस' पुस्तक प्रकाशित की। होग ने Vergleichurg des Prakrita mit den Romanischen spra cher (रोमन भाषाओं के साथ प्राकृत का तुलनात्मक अध्ययन) नामक पुस्तक का १८६९ में प्रकाशन किया जिसमें प्राकृत तथा स्पैनिश, पोर्चुगीज़ फ्रेंच और इतालवी आदि भाषाओं के रूपों में समान ध्वनि परिवर्तन के नियमों की तुलना की गई। ए. एफ. होएनले ने प्राकृत भाषाविज्ञान के सामान्य सर्वेक्षण के इतिहास पर कार्य किया। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किया रिचर्ड पिशल ने जिन्होंने अप्रकाशित हस्तलिखित प्राकृत ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन के पश्चात् १८७४ में Grammatik der Prakrit Sprachen(प्राकृत भाषायों का व्याकरण); सुभद्र झा द्वारा Comparative Grammar of the Prakrat Languages नाम से १९५७ में अंग्रेजी में तथा हेमचन्द जोशी द्वारा 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण'' (शीर्षक के अन्तर्गत बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना द्वारा १९५८ में हिन्दी में प्रकाशित) नामक महत्त्वपूर्ण रचना प्रस्तुत की। कहना न होगा कि इस रचना में प्राकृत भाषाओं के स्वरूप-निर्णय के लिए आवश्यक प्राचीनतम जैन आगम और उन पर लिखी गई प्राचीन व्याख्याओं एवं हाल में प्रकाशित जैन कथा-साहित्य प्रादि से संबंधित महत्त्वपूर्ण रचनाओं को सम्मिलित नहीं किया
१. दुर्भाग्य से हिन्दी के इस संस्करण में बहुत-सी अशुद्धियाँ रह गई हैं। अडसठ पन्नों का
शुद्धाशुद्धि पत्र अन्त में दिया गया है, फिर भी जैन आगमों के प्रयोगों एवं पाठों की काफी अशुद्धियाँ देखने में आती हैं। देखिये 'ज्ञानांजलि' (पूज्य मुनि श्री पुण्य विजय जी अभिवादन ग्रन्थ, १९६९) में, हिन्दी विभाग के अन्तर्गत मुनि पूण्य विजय जी द्वारा लिखित 'जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय' पृ० ५८-६१ ।
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चतुर्थ खण्ड / २४८
गया है। ऐसी हालत में प्राकृत भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन करने का प्राधुनिकतम कार्य अभी बाकी है। इस सूची में लुडविग पाल्सडोर्फ का नाम जोड़ देना अनुचित न होगा। उन्होंने संघदासगणि वाचक द्वारा प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित वसुदेव हिंडि का भाषा शास्त्रीय अध्ययन करने के पश्चात् 'द वसुदेव हिडि : ए स्पेसीमेन ऑव आर्केक जैन महाराष्ट्री' नामक एक महत्त्वपूर्ण लेख 'बुलेटिन ऑव द स्कूल प्रॉव पोरिटियेल स्टडीज' (जिल्द ८, १९३६) में प्रकाशित किया। इस विद्वत्तापूर्ण लेख में पाल्सडोर्फ ने वसुदेव हिंडि में प्रयुक्त भाषा के विलक्षण प्रयोगों को प्राकृतभाषा के विकास के प्राचीनतम स्तर से संबंधित बताया है।'
प्राकृत बोलियों की प्रादेशिकता
संघदास गणि क्षमाश्रमणकृत बृहत्कल्पभाष्य में जनपदपरीक्षा-प्रकरण में बताया गया है कि पदचर्या द्वारा देश-देश में विहार करने वाले जैन श्रमणों को चाहिये कि वे विभिन्न देशों में बोली जाने वाली बोलियों में कुशलता प्राप्त करें, ऐसा करने पर ही वे जन सामान्य को अपने धर्मोपदेश द्वारा लाभान्वित कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि महावीर और बुद्ध ने भी ईसा पूर्व छठी शताब्दी में पंडितों द्वारा मान्य शिष्ट संस्कृत भाषा में अपना धर्मोपदेश न देकर, जन-साधारण द्वारा ग्राह्य प्राकृत बोली को ही मान्य किया था। दोनों ही की धार्मिक एवं सामाजिक प्रवृत्तियों का केन्द्र मगध था, अतएव दोनों ने ही मगध में बोली जाने वाली मागधी को अपने-अपने धर्मोपदेश के लिये उपयुक्त स्वीकार किया।
आर्य लोग वेदग्रन्थों को पवित्र निधि मानते थे, अतएव वैदिक ऋचाओं का ठीक-ठीक उच्चारण करना परम आवश्यक था। इन ऋचारों का यथावस्थित उच्चारण न किये जाने पर-अक्षर, मात्रा, पद और स्वर की कमी रह जाने पर-देवतागणों के अप्रसन्न हो जाने से मन्त्रोच्चारणकर्ता की मन:कामना के अपूर्ण रह जाने का अंदेशा बना रहता था । अतएव वेदसंहिता की मौलिकता की रक्षा के लिये शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प नामक वेदांगों की रचना की गई, शिक्षा और व्याकरण में उच्चारण की शुद्धता पर जोर दिया गया। उस काल में बड़े-बड़े ऋषियों के मुख से भी मंत्रोच्चारण के अशुद्ध प्रयोग सुनाई पड़ जाते थे। ऐसी हालत में प्रातिशाख्य और व्याकरण के अध्ययन को प्रमुख माना गया। इन्हीं परिस्थितियों में जैसा कहा चुका है कि पाणिनि ने व्याकरण के सूत्रों का निर्माण कर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में असाधारण कार्य सम्पन्न किया। उन्होंने अनगढ़ वैदिक भाषा को परिमाजित एवं संशोधित करके उसे सुव्यवस्थित रूप दिया, और संस्कारित होने के कारण यह भाषा संस्कृत नाम से अभिहित की गई।
प्राकृत के संबंध में यह बात नहीं थी । प्राकृत का व्याकरणसम्मत अर्थ होता है प्रकृतिजन्य, अर्थात् स्वभावसिद्ध, जनसामान्य द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली । ईसा की ११वीं शताब्दी के जैन विद्वान नमि साधु ने रुद्रट के काव्यालंकार (२.१२) पर टीका करते हुए लिखा है
१. वसुदेव हिंडि के अध्ययन के लिए देखिये जगदीशचन्द्र जैन 'द वासुदेवहिंडि-ऐन ऑथेण्टिक
जैन वर्जन प्रॉव द बृहत्कथा', १९७७
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प्राकृत बोलियों की सार्थकता / २४९
"प्राकृतेति । सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरना हितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सेव वा प्राकृतम् वा प्राक् पूर्वकृतं प्राक्कृतं बालमहिलादिसुबोधं सकल। भाषानिबंधनभूतं वचनमुच्यते ।"
-- प्राकृत शब्द का अर्थ है व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन स्वाभाविक वचन का व्यापार, उससे जो उत्पन्न हो अथवा वही प्राकृत है.... प्रथवा जो पहले हो उसे प्राकृत कहते हैं, जो बालक, महिला श्रादि के लिये सुबोध हो, यह समस्त भाषाओं की मूल है ।"
भरत के नाट्यशास्त्र (१८.२ ) में प्राकृत को भाषा का अपभ्रष्ट रूप कहा है जो संस्कारगुण से वर्जित है, और जिसे अनेक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है ( नानावस्थान्तरात्मक ) । इससे भी प्राकृत बोलियों की प्रादेशिकता ध्वनित होती है।
उल्लेखनीय है कि १२वीं शताब्दी के हेमचन्द्र आदि कतिपय पुरातन विद्वान् प्रकृति का अर्थ प्राकृतिक अथवा स्वभावसिद्ध न मानकर, संस्कृत करते हैं और प्राकृत को संस्कृत से निष्पन्न स्वीकार करते हैं ( प्रकृति संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्, हेमचन्द्र, सिद्ध शब्दानुशासन, १.१. की वृत्ति ) ।
क्या वैदिक आर्यों की बोली को प्राकृत कहा जा सकता है ?
इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न विचारणीय है और वह यह कि वेदों की रचना के पूर्व वैदिक आयों की कौन सी बोली थी जिसमें वे अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे ? दुर्भाग्य से इस जन बोली का स्वरूप निर्धारित करने के हमारे पास साधनों का प्रभाव है। यद्यपि इस बोली के आधार पर वैदिक संहिताओंों की भाषा की रचना की गई, फिर भी जाहिर है कि यह भाषा वैदिक आर्यों की जन-बोली से कुछ भिन्न रही होगी। क्या इस जन-बोली को 'प्राकृत' नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता ? (यहाँ 'प्राकृत' का अर्थ वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत लेना आवश्यक नहीं)। पूर्वकालीन वैदिक युग के सामान्य जनों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में भौगोलिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के कारण समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे, और अनेक शताब्दियों के पश्चात् जन सामान्य की बोली का जो रूप सामने धाया, वह बोली प्राकृत कही जाने लगी। प्राकृत का अर्थ है सामान्य जन की बोली, सहज वचन व्यापार, जो संस्कृत की भाँति व्याकरण धादि के संस्कार से रहित है, जैसा कहा चुका है। कहा जा सकता है कि संस्कृत का अर्थ यदि वेदपूर्व अथवा वैदिक काल में बोली जाने वाली भाषा किया जाये तो प्राकृत की संस्कृत - निष्पन्नता सिद्ध हो सकती है । इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि वेदकालीन अनगढ़ एवं अपरिमार्जित भाषा को परिमार्जित और संस्कारित करने के पश्चात् ही शिष्टजनों की भाषा संस्कृत निष्पन्न हुई है, अतएव वेदपूर्व अथवा वैदिक काल की सामान्य बोली को संस्कृत नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता । भाषाविज्ञान के विकासक्रम में दोनों का अलग-अलग स्थान है और दोनों का उद्भवस्थान समान होने पर भी दोनों के दो भिन्न-भिन्न पहलू हैं।
१. धनिक, सिंहदेव गणि, नरसिंह, लक्ष्मीधर, वासुदेव, त्रिविक्रम, मार्कण्डेय आदि ने भी यही मान्यता स्वीकार की है, देखिये डॉक्टर के. सो. प्राचार्य, मार्कण्डेयकृत प्राकृत सर्वस्व की भूमिका, पू० ३८
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चतुर्थ खण्ड / २५०
इस सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि आजकल उपलब्ध प्राकृत भाषा के कितने ही व्याकरण सम्बन्धी रूप एवं शब्द पाणिनि की संस्कृत से सम्बद्ध न होकर वेदों की भाषा के अनुरूप हैं। उदाहरण के लिये
(क) प्राकृत और वैदिक भाषाओं में अकारान्त प्रथमा विभक्ति के एकवचन में विसर्ग के स्थान पर 'ओ' ।
(ख) प्रकारान्त शब्दों के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'भिस्'
(ग) अन्तिम व्यंजन का लोप
(घ) चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग
;
(ङ) पूर्वकालिक क्रिया के साधारण प्रत्यय तण (प्राकृत में वैदिक भाषा में त्वन) का प्रयोग
(च) स्पर्शवर्गीय चतुर्थ अक्षर के स्थान पर महाप्राणीय 'ह' का प्रयोगः धि हि गृध = ग्रह; ग्रभ्= ग्रह; घ्नन्ति = हन्ति; अर्ध = श्रहं ।
(छ) स्वर के बीच में आने वाले ड़ का ळ में और ढ़ का ल्ह में परिवर्तन
( ज ) प्राकृत में प्रयुक्त कितने ही शब्दों का संस्कृत में प्रयोग
,
विक्षिप्त (प्राकृत विच्छित्ति से), गोपेन्द्र (गोविन्द), मसूण (मसिण ) यत् (ज्यु), विकृत ( विकट), क्षुद्र ( शुल्ल), थिविर (शिविर) विदूषक ( विउस अथवा विउम्र), आर्थिका ( अज्जुका ), मार्ष ( मारिस), भद्रं ते ( भदन्त ) आदि । १
ज्ञातव्य है कि सुप्रसिद्ध भाषाविज्ञान के वेत्ता जॉर्ज ग्रियर्सन ने प्राकृत की तीन अवस्थाओंों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। उनके अनुसार, (क) वैदिक भाषा और उसकी उत्तराधिकारी संस्कृत प्रमुख प्राकृत के साहित्यिक रूप हैं, (ख) गौण प्राकृत में पालि, वैयाकरणों द्वारा उल्लिखित प्राकृतों, संस्कृत नाटकों की प्राकृतों, सामान्यतया साहित्य की प्राकृतों और वैयाकरणों के अपभ्रंशों का समावेश होता है, (ग) प्राकृत की तीसरी अवस्था में श्राधुनिक प्रार्य भाषाओं का अन्तर्भाव होता है।
प्राकृत बोलियों की अनेकरूपता
कहा जा चुका है कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न रूप से बोली जाने वाली प्राकृत में, संस्कृत की भाँति एकरूपता न आ सकी । इसीलिए पाणिनि की अष्टाध्यायी के स्तर पर उसका सर्वमान्य सर्वांगीण व्याकरण तैयार न किया जा सका। पूर्वीय और पश्चिमी संप्रदायों के वैयाकरणों ने अपने-अपने प्राकृतव्याकरणों की रचना की। इन व्याकरणों में य-धुति, ण-प्रयोग, अनुनासिक प्रयोग आदि को लेकर परस्पर विरोधी मतों का विधान किया गया । " इसके अतिरिक्ति व्याकरण सम्बन्धी अनेक नियमों के प्रतिपादन के प्रसंग में 'प्रायः', 'बहुल',
१. देखिये पिशल, कम्परेटिव ग्रामर प्रॉव द प्राकृत लैन्गवेजेज ( सुभद्र झा), ६, पू. ४-५ मार्कण्डेय, प्राकृतसर्वस्व के. सी. प्राचार्य, भूमिका, पृ. ४६ जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत
1
साहित्य का इतिहास, संशोधित संस्करण, १९८५, पृ. ५
२. देखिये, जगदीशचन्द्र जैन, वही. पृ. १८-१९
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प्राकृत बोलियों की सार्थकता / २५१
'क्वचित्', 'वा' आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा प्राकृत बोलियों को अनेकरूपता का ही समर्थन किया गया । १
वररुचि ( ईसा की लगभग छठी शताब्दी) आदि पूर्वी संप्रदाय के वैयाकरण कितनी ही ऐसी बोलियों और उन बोलियों की चर्चा करते हैं जिनका उल्लेख हेमचन्द्र ( १०८८-१९७२ ई.) आदि पश्चिमी संप्रदायों की रचनाओं में नहीं मिलता । वररुचि महाराष्ट्री (प्राकृत), पैशाची, मागधी और शौरसेनी की चर्चा करते हैं जब कि हेमचन्द्र इसमें चूलिका पैशाची और अपभ्रंश जोड़ देते हैं । इसके अतिरिक्ति वे प्रार्षप्राकृत या अर्धमागधी का भी उल्लेख करते हैं किन्तु अपने प्राकृत - व्याकरण (१.३ सिद्धहेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय ) में उन्होंने
कहा कि उनके व्याकरण के समस्त नियम आर्ष प्राकृत के लिए लागू नहीं होते । त्रिविक्रम अपने प्राकृत शब्दानुशासन में, सिंहराज अपने प्राकृत रूपावतार में लक्ष्मीधर षड्भाषाचन्द्रिका में और अप्पय दीक्षित प्राकृतमणिदीप में हेमचन्द्र का ही अनुकरण करते हैं; अन्तर इतना ही है कि वे प्रार्ष अथवा अर्धमागधी को शामिल नहीं करते ।
प्राकृत प्रकाश की लोकप्रियता
वररुचि का प्राकृतप्रकाश उपलब्ध व्याकरणों में सर्वप्राचीन जान पड़ता है । इस पर भामह ने मनोरमा, कात्यायन ने प्राकृतमंजरी ( पद्यबद्ध टीका ), वसंतराज ने प्राकृतसंजीवनी, सदानन्द ने सुबोधिनी और नारायण विद्याविनोद ने प्राकृतपादटीकात्रों की रचना की है। केसवहो और उसाणिरुद्ध नामक प्राकृत काव्यों के रचयिता मलाबार के निवासी रामपाणिवाद ने भी इस पर प्राकृतवृत्ति नामक टीका लिखी है । इसके अतिरिक्त, जैसे भट्ट कवि ने अष्टाध्यायी के सूत्रों का स्पष्टीकरण करने हेतु भट्टिकाव्य ( रावणवध ), और आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्ध हेमव्याकरण के सूत्रों को समझाने के लिए प्राकृत द्वयाश्रय काव्य की रचना की, उसी प्रकार केरल निवासी कृष्णलीलाशुक ने वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश के नियमों का ज्ञान कराने के लिए सिरिचिधकव्व की रचना की । इससे इस व्याकरण की लोकप्रियता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है । प्राकृतप्रकाश के १२ परिच्छेदों में से ९ परिच्छेदों में सामान्य प्राकृत ( = महाराष्ट्री ) का विवेचन है, १०वें में पैशाची, ११ वें में मागधी और १२ वें में शौरसेनी के लक्षण बताये गये हैं । कात्यायन की प्राकृतमंजरी, वसंतराज की प्राकृतसंजीवनी और सदानन्दकृत सुबोधिनी टीकायें प्राकृतप्रकाश के केवल आरंभ के ९ परिच्छेदों पर हैं, इससे जान पड़ता है कि वररुचि ने केवल सामान्य प्राकृत १. संधिप्रयोगों की बहुलता के सम्बन्ध में वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश पर संजीवनी के टीकाकार वसन्तराज ने निम्न श्लोक उद्धृत किया है
क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेविधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं
वदन्ति ॥
- प्राचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, प्राकृतप्रकाश, १९७२; ४.१, पृ. ७३ २. यह टीका सर्वप्रथम आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय द्वारा सरस्वती से दो खण्डों में १९२७ में प्रकाशित; द्वितीय परिवर्धित संस्करण
भवन सीरीज, बनारस १९७२ में प्रकाशित |
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चतुर्थखण्ड / २५२
महाराष्ट्री प्राकृत को ही मान्य लिया था जो उस समय की स्टैण्डर्ड साहित्यिक प्राकृत समझी जाती थी । क्रमश: पैशाची और मागधी का विवेचन करने वाले १० वाँ और ११ वा अध्याय संभवतः भामह प्रथवा किसी अज्ञात वैयाकरण द्वारा बाद में जोड़ा गया। ज्ञातव्य है कि शौरसेनी के लक्षण प्रतिपादित करने वाले १२ बॅ परिच्छेद पर स्वयं भामह की भी टीका नहीं है । '
प्राकृत बोलियों संबंधी मतभेद
पूर्वीय और पश्चिमी संप्रदायों के वैयाकरणों में परस्पर कितने ही मतभेद हैं जिससे भिन्न-भिन्न क्षेत्र एवं भिन्न-भिन्न काल को लेकर परिवर्तनशील प्राकृत बोलियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है । सबसे पहला मतभेद तो धातु अथवा शब्द संबंधी गणों को लेकर ही है; दोनों ही संप्रदायों ने भिन्न-भिन्न गण स्वीकार किये हैं । पैशाची, मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री बोलियों संबंधी मतभेद भी कम नहीं हैं । वररुचि ने प्राकृतप्रकाश में शौरसेनी को पैशाची का आधार माना है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व में ११ पिशाच देशों को गिनाया है। उन्होंने कैकय, शौरसेन और पांचाल नाम की तीन पैशाची बोलियों का उल्लेख किया है । राम शर्मा तर्कवागीश ने इनमें गौड़, मागध और व्राचड पैशाची को सम्मिलित कर दिया है। पश्चिमी संप्रदाय के वैयाकरणों में इस प्रकार का वर्गीकरण देखने में नहीं आता । पैशाची प्राकृत की कोई स्वतंत्र रचना भी उपलब्ध नहीं है; गुणाढ्य की बडकहा (वृहत्कथा ) नष्ट हो गई है । श्रर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और पैशाची की भाँति मागधी में स्वतंत्र रचनात्रों का अभाव है । संस्कृत नाटकों में ही इसके प्रयोग मिलते हैं । वररुचि और हेमचन्द्र ने मागधी के कतिपय नियमों का विवेचन कर शेष नियमों को शौरसेनी पर से समझ लेने का प्रादेश दिया है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी को मागधी की प्रकृति बताया है । अर्धमागधी प्राकृत के संबंध में ऊपर कहा जा चुका है। यह श्वेताम्बर जैन आगम ग्रंथों की भाषा है जैसे संस्कृत को गीर्वाण (देव) भाषा कहा जाता है वैसे ही अर्धमागधी को प्रार्षवचन प्रथवा देववाणी कहा गया है। घाषभाषा होने के कारण इसकी स्वतंत्र उत्पत्ति मानी गई है जिसके लिये व्याकरण के नियमों की आवश्यकता नहीं पड़ती । क्रमदीश्वर ने अर्धमागधी को महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण कहा है। मार्कण्डेय ने मागधी के लक्षणों का विवेचन करने के पश्चात् शौरसेनी के समीप होने से मागधी को ही अर्धमागधी बताया है । श्वेताम्बर जैन ग्रंथों की अर्धमागधी के लोकभाषा होने के कारण उसमें क्षेत्र एवं काल के धनुसार समय-समय पर परिवर्तन होते रहे जिससे उसमें मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री के प्रयोग भी शामिल कर लिये गये । ज्ञातव्य है कि जैसे बौद्ध श्रागम ग्रंथों की मागधी नाट्यशास्त्र एवं प्राकृत व्याकरणों में निर्दिष्ट मागधी से भिन्न है, उसी प्रकार श्वेताम्बर जैन ग्रंथों की अर्धमागधी नाट्यशास्त्र एवं प्राकृत व्याकरणों में निर्दिष्ट अर्धमागधी से भिन्न मानी गई है। शौरसेनी दिगंबरीय ग्रागम ग्रंथों की भाषा रही है। ध्वनितस्व को दृष्टि से यह बोली मध्यभारतीय आर्यभाषा के विकास में संक्रमण काल की अवस्था मानी गई है, इसके बाद महाराष्ट्री प्राती है । भरत ने नाट्यशास्त्र में बोलियों का वर्गीकरण करते हुए शौरसेनी का
१. देखिये दिनेशचन्द्र सरकार, ग्रामर श्रॉव दी प्राकृत लैन्ग्वेज, १९४३, पृ० ३
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प्राकृत बोलियों की सार्थकता / २५३
उल्लेख किया है, महाराष्ट्री का उल्लेख यहाँ नहीं मिलता। प्रश्वघोष, भास, शूद्रक, कालिदास, विशाखदत्त श्रादि संस्कृत नाटककारों की रचनाओंों में शौरसेनी के प्रयोग पाये जाते हैं । वररुचि ने प्राकृत प्रकाश में संस्कृत को शौरसेनी का प्राधार माना है। संस्कृत द्वारा प्रभावित होने के कारण शौरसेनी में प्राचीन कृत्रिम रूपों की बहुलता पाई जाती है । ईसा की छठी शताब्दी के अलंकारशास्त्र के विद्वान् दण्डी ने अपने काव्यादर्श (१.३४ ) में महाराष्ट्र में बोली जाने वाली महाराष्ट्री को उत्तम प्राकृत कहा है, जो सूक्ति रूपी रत्नों का सागर है । ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से यह प्राकृत अत्यन्त समृद्ध मानी गई है।' हाल की गाहा सत्तसई की रचना इसी प्राकृत में की गई है। इस प्राकृत का सर्वाधिक प्रयोग प्रगीतों में किया गया है। आगे चलकर महाराष्ट्री इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे सामान्य प्राकृत के नाम से कहा जाने लगा । वररुचि ने अपने प्राकृतप्रकाश में सामान्य प्राकृत महाराष्ट्री का ही विवेचन किया है । गाहासत्तसई और गउडवहो जैसी रचनायें महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई हैं, फिर भी इन रचनाओं के कर्ताओं ने अपनी भाषा को प्राकृत नाम ही दिया है। संस्कृत नाटकों में महाराष्ट्री के प्रयोग देखने में प्राते हैं। कालान्तर में जब महाराष्ट्री और शौरसेनी ने साहित्यिक रूप लिया तो इन बोलियों के शाश्वत निर्धारित नियमों के प्रभाव में एक प्राकृत के नियम दूसरी प्राकृत के लिये लागू किये जाने लगे। पुरुषोत्तम ने अपने प्राकृतानुशासन ( ११.१ ) में महाराष्ट्री और शौरसेनी का ऐक्य स्थापित कर इस कथन का समर्थन किया है । '
१. विस्तार के लिये देखिये, जगदीशचन्द्र जैन, वही, पृ० २६-४३
२८ शिवाजी पार्क बम्बई - २८
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ध्येय-प्राप्ति का हेतु 'भावना'
0 डॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति'
जिससे आत्मा भावित होती है, वह भावना कहलाती है। चित्तशुद्धि, मोहक्षय तथा अहिंसा-सत्य आदि की वृत्ति को टिकाने के लिए प्रात्मा में जो विशिष्ट संस्कार जागत किए जाते हैं, उसे भावना कहते हैं। जिसका जिस प्रकार से जो-जो संवेदन होता है, उसको उसी प्रकार से वैसा ही अनुभव होने लगता है। सदा अमृत रूप में चिन्तन करने से विष भी अमृत बन जाता है। मित्रदष्टि से देखने पर शत्र भी मित्र रूप में परिणत हो जाता है। रागद्वेषयुक्त गमन-निरीक्षण-जल्पन आदि जितने भी काम संसार के हेतु हैं, वे ही रागद्वेष रहित हों तो मुक्ति के हेतु बन जाते हैं। प्राणी स्नेह, द्वेष या भय से अपने मन को बुद्धि द्वारा जहाँ-जहाँ लगाता है, मन वैसा ही अर्थात् स्नेही, द्वेषी या भयाकुल बन जाता है।
शरीर के अवयवों का कमाण्डर 'मस्तिष्क' है। उसी प्रकार जीवन की सारी प्रवत्तियों या क्रियाओं का कमाण्डर 'भाव' है। महाकवि सूरदास के पास आँखें नहीं थीं किन्तु भक्तिरस के सुन्दर भावों ने उन्हें कविर्मनीषी ही नहीं अपितु सगुण संत बना दिया। अष्टावक्र का शरीर आठ अंगों से टेढ़ा-मेढ़ा और बेडौल था परन्तु अपनी अध्यात्मशैली से वह आदरास्पद हो गए। किसी भी क्रिया के पीछे सद्विचार या शुभभाव का योग होता है तो उसमें माधुर्य पा जाता है। क्रिया को भोजन कहें तो भाव को नमक कह सकते हैं। जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ शुभ भाव अनिवार्य है। भाव रसायन हैं। थोड़ी सी मात्रा में सेवन किया गया भाव-रसायन आत्मा को बड़े-बड़े रोगों से-काम क्रोधादि से मुक्ति दिलाकर स्वस्थ-सबल बना देता है। क्रिया के साथ डाला गया भावों का थोड़ा सा जामन भी चित्तरूपी पात्र में शुद्ध धर्मसंस्काररूपी दही जमा देता है और तभी उसमें शुभगति अथवा मोक्षरूपी मक्खन प्राप्त किया जा सकता है।
परिणाम ही बन्ध हैं, मोक्ष हैं। परिणाम की धारा ही आत्मा की दशा को नापने-मापने का थर्मामीटर है। यदि परिणाम की धारा अशुभ दिशा की ओर प्रवहमान है तो हमारी आत्मा भी अशुभगामी है । यदि वह शुभ की ओर उन्मुख है तो आत्मा शुभगामी होगी ही। जिसकी जैसे भावना होती है वैसी ही सिद्धि होती है। जैसे तंतु (तार) होते हैं वैसा ही कपड़ा बन जाता है। मन्त्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, नैमित्तिक, औषधि और गुरु इन सबमें जिसकी जैसी भावना होती है, प्रायः वैसी ही सिद्धि-फल की प्राप्ति होती है। खराक के अनुसार गाय-भैंस का दूध होता है। मेह अर्थात् वर्षा के अनुरूप खेती होती है। माल के अनुसार लाभ होता है और भावना के अनुसार पुण्य होता है । मरते समय जो भावना होती है वैसी ही गति मिलती है। हिन्दी कहावत है कि 'दानत जैसी बरकत' अर्थात जिसकी दानत बुरी, उसके गले छुरी । शायर अकबर कह उठता है
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ध्येय-प्राप्ति का हेतु 'भावना' | २५५
तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना।
बरकत जो नहीं होती नीयत की खराबी है ॥ जो आस्रव-कर्मप्रवेश के हेतु हैं, वे भावना की पवित्रता से परिश्रव-कर्म रोकने वाले हो जाते हैं और जो परिस्रव हैं, वे भावना की अपवित्रता से प्रास्रव हो जाते हैं-यथा
जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। (पाचारांग ४।२)
दो किसान बाजरी बोने के लिए खेत जा रहे थे। रास्ते में साधु मिले। पहला उन्हें देखकर खुश हुआ एवं सोचने लगा कि नंगे सिर साधु मिले हैं अतएव इनके सिर जितने बड़े-बड़े सिट्टे होंगे । शकुन बहुत अच्छे हुए हैं। दूसरा साधु को देखकर अपशकुन की कल्पना करने लगा कि इनके सिर पर पगड़ी नहीं है, इसलिए केवल कड़वी होगी, सिट्ट बिल्कुल नहीं होंगे। भावना के अनुसार परिणाम सामने आया। पहले के खेत में खूब बाजरी हुई
और दूसरे के खेत में टिड्डियाँ पाने से सारे सिट्टे नष्ट हो गए । भाव की सत्यता से जीव विशुद्धि को प्राप्त करता है। विशुद्ध भावना वाला प्राणी अरहंत प्रज्ञप्त धर्म की अाराधना में तत्पर होकर पारलौकिक धर्म का आराधक होता है। भावनायोग से शुद्धात्मा संसार में जल पर नाव के समान तैरता है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा मिलने से नाव पार पहुँचती है उसी प्रकार शुद्धात्मा संसार से पार पहुंचता है-यथा--
भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले नावा व आहिया।
नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ (सूत्रकृतांग १५५५) आचरण की पवित्रता भावों की शुद्धता पर निर्भर है। जब तक भावों में शुद्धि नहीं हो जाती तब तक जीवन में धर्म नहीं टिक सकता। जो सरल हो जाता है उसी की शुद्धि होती है और जो भावों से शुद्ध होता है, उसी में शुद्ध धर्म ठहर सकता है। जिस प्रकार मेज की सफाई के लिए साफ कपड़े की जरूरत होती है उसी प्रकार जीवन या हृदय की स्वच्छता, शुद्धि के लिए भी शुद्ध भाव रूपी कपड़े की आवश्यकता स्वाभाविक है। यदि हमारे भाव शुद्ध हैं तो हमारा आचरण या कर्म भी शुद्ध होगा क्योंकि आचरण या कर्म ही तो भावों की छाया है । भाव बीज है तो पाचरण उसका फल है। शुद्ध भावों के संकल्प आसपास के वातावरण को भी शुद्ध बना देते हैं। तालाब में कंकर फेंकने से लहरें उठती हैं और एक के बाद दूसरी को जन्म देती हुई तट तक पहुंच जाती हैं उसी प्रकार शुभ भावों की लहरें भी समाज रूपी सरोवर में अपने सदृश लहरों को जन्म देती हुई समाज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच जाती हैं। तीर्थकरों की धर्मसभा 'समवसरण' में सिंह और बकरी पास-पास बैठते हैं। कारण ? पवित्रता की प्रतिमूर्ति व्यक्ति के शुद्धभावों का प्रभाव । व्यक्ति के भावों में जितनी अधिक शुद्धता होगी जन-जन के मन पर उतनी ही प्रभावना अंकित होगी।
भावों के विनिमय में सतर्कता अपेक्षित है। अन्यथा असदभावों के घने चक्कर में फंस कर व्यक्ति अपनी अजित पुण्य रूपी पूंजी गँवा देता है । असल में असद्भाव चाण्डाल है। शास्त्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव' ये चार प्रकार के चाण्डाल कहे गए हैं। नाम चाण्डाल
और स्थापना चाण्डाल हमारा उतना नुकसान नहीं करते जितना द्रव्यचाण्डाल अर्थात् खोटे कृत्य वाला और भावचाण्डाल अर्थात् खोटे या निंद्य कर्मों की ओर प्रेरित करने वाला, करते हैं। भाव जब चाण्डाल बन जाता है तो हमारी आत्मा को अधोगति में ले जाता है।
घरगो दीवो
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चतुर्थ खण्ड / २५६
आध्यात्मिक क्षेत्र में भावों की शुद्धि अनिवार्य मानी गई है। यदि आप प्रात्मा के राज्य में पहुँचना चाहते हैं, विषय-कषायों का शमन करके, प्राधि-व्याधि-उपाधि को पार कर केवलज्ञान और मुक्ति पाना चाहते हैं तो आपको सर्वप्रथम भावों, अध्यवसायों, परिणामों की शुद्धि करनी ही होगी। भावों की शुद्धि के बिना ध्यान, दान, तप, जप, सब सार्थ नहीं हो सकेंगे। भावों की शुद्धि सतत रहे, तांता टूटे नहीं। इसके लिए दो उपाय हैं-एक तो अभ्यास और दूसरा वैराग्य । अभ्यास और वैराग्य के लिए आलम्बन की जरूरत होती है । अनुप्रेक्षाएँ और भावनाएँ क्रमशः वैराग्य और अभ्यास के मुख्याधार हैं। इनके परिशीलन, चिन्तन, मनन से प्रात्मा का उत्कर्ष सम्भव है। ध्येय अर्थात मोक्ष की प्राप्ति सहज हो सकती है।
आवशुद्धि के लिए प्राचार्य अमितगति सूरि ने सामायिक पाठ में भावनाओं के चार प्रकार वताएँ हैं-यथा
सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ अर्थात् हे प्रभो ! मेरी यह आत्मा प्राणिमात्र के प्रति सदैव मैत्रीभावना, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभावना, दुःखी जीवों पर करुणा भावना और विपरीत वृत्ति वालों पर माध्यस्थ्य भावना रखे। इस प्रकार मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य इन चारों भावनामों का अभ्यास जीवन में सक्रियता, सजगता लाता है। 'मेरी भावना' नामक प्रसिद्ध कृति में पंडित जुगलकिशोर मुखत्यार द्वारा इन चारों भावनाओं का सुन्दर-सरल निरूपण हरा है-यथा
मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे। दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे ॥ दुर्जन, क्रूर, कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रखू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥ गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे ।
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥ पातंजल-योगदर्शन में भी इन चारों भावनाओं का सुफल द्रष्टव्य है-"सुख-दुःखपुण्यापुण्यानां मैत्री-करुणा मुदितोपेक्षाभावनातश्चित्तप्रसादनम्।" अर्थात् मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चारों भावनाओं से क्रमश: सुखी दुःखी, पुण्यवान् और पुण्यहीन के चित्त को प्रसन्न किया जा सकता है। अपना चित्त भी भावशुद्धि और सद्गुण वृद्धि से प्रसन्न होता है। बौद्ध धर्म में भी इन चारों भावनाओं में रमण करने को 'ब्रह्मबिहार' अर्थात शुद्धात्मा में विचरण की संज्ञा दी गई है। वस्तुतः जीवन में इन चारों भावनाओं के प्रयोग से तथा सतत अभ्यास से साधक बंकिम मार्ग से हटकर समता के प्रशस्त पथ पर आरूढ़ हो जाता है।
भावना का एक नाम अनुप्रेक्षा है । ध्येय के अनुकूल गहरा चिन्तन, अवलोकन अनुप्रेक्षा कहलाता है। अनुप्रेक्षा से अनुप्राणित ध्याता वस्तुस्वरूप का चिन्तन करके अपने स्वभावस्वरूप में स्थिर रहता है । इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग में सहिष्णुता और धैर्य का जाम पीते हुए वह सम रहता है तथा किसी भय और प्रलोभन के कारण धर्मपथ से च्युत नहीं
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ध्येय-प्राप्ति का हेतु 'भावना' / २५७
होता है । आध्यात्मिक विकास में अनित्य, अन्यत्व, अशरण, अशुचि, प्रास्रव, एकत्व, धर्म, निर्जरा, बोधिदुर्लभ, लोक, संवर और संसार-बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाएँ परम सहायक हैं।
कविवर मंगतराय इन अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन, मनन से संसार-सागर तरने की बात कहते हैं-यथा
मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश करें गुरु, बारह भावन को। इनका चिन्तवन बार-बार कर श्रद्धा उर धरना ।
मंगत इसी जतन तें इक दिन, भव सागर तरना ॥ भक्तकवि भूधरदास ने बारह भावनाओं को संक्षिप्त लेकिन सरल सारभित रूप में दोहा, सोरठा छन्द में शब्दित किया है जो बाल, वृद्ध, युवा सभी के लिए चिन्तन-मनन करने योग्य हैंअनित्यभावना
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥ अशरणभावना
दल बल देई देवता, मात पिता परिवार ।
मरती विरियाँ जीव को, कोई न राखनहार ॥ संसारभावना
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥
एकत्वभावना
आप अकेला अवतर, मरै अकेला होय । यू कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ॥
अन्यत्वभावना
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय । घर सम्पति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ॥
अशुचिभावना
दिप चाम-चादर मढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, अवर नहीं घिन गेह ॥
प्रास्त्रवभावना
मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमै सदा। कर्म चोर चहुं ओर, सरवस लूट सुध नहीं ॥
संवरभावना
सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमैं । तब कछु बने उपाय, कर्म चोर आवत रुकै ॥
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड | २५८
ज्ञान-दीप तप-तेलभर, घर शोध भ्रम छोर ।
या विध विन निकस नहीं, बैठे पूरब चोर ॥ निर्जराभावना
पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार ।
प्रबल पंच इन्द्री-विजय, धार निर्जरा सार । लोकभावना
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष-संठान ।
तामें जीव अनादि तें, भरमत हैं बिन-जान ॥ बोधिदुर्लभभावना
धन कन कंचन राज सुख, सहि सुलभ कर जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥ धर्मभावना
जाचे सुर तर देय सूख, चितत चितारन ।
बिन जाच बिन चितये, धर्म सकल सुख दैन । इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीप का प्रकाश हो जाता है।
दान धन से दिया जाता है । शील सत्त्व से पाला जाता है, तप भी कष्ट से तपा जाता है किन्तु उत्तमभावना स्वतन्त्र है । भगवान न तो काष्ठ में है, न पत्थर में है और न मिट्टी में है । भगवान् का निवास पवित्र भावना में है अतएव भगवत्प्राप्ति का मुख्य हेतु भावना है । प्रज्ञ 'नमो विष्णोय' कहता है और विज्ञ 'नमो विष्णवे' कहता है लेकिन दोनों को समान पुण्य होता है। क्योंकि विष्णुभगवान् भावना के भूखे हैं। इस प्रकार इन भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं के द्वारा भावों की शुद्धि और शुभभावों में एकाग्रता होती है। वस्तुत: भावों की शुद्धि से आत्मशुद्धि होती है और प्रात्मशुद्धि से ध्येय की प्राप्ति सम्भव है।
-मंगलकलश, ३९४, सर्वोदयनगर, आगरारोड,
अलीगढ़-२०२००१ (उ०प्र०)
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मन : एक चिन्तन : विश्लेषण
- लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', एम. ए.
मन का स्थान
जैन महापुरुषों ने संसार के प्राणियों को दो भागों में विभाजित किया है(१) संज्ञी अथवा समनस्क या मनसहित । (२) असंज्ञी अथवा अमनस्क अर्थात् मनरहित ।
प्रथम संज्ञी की परिभाषा दी-जो मन सहित हो, शिक्षा-उपदेश ग्रहण कर सके । जैसे पुरुष-स्त्री, बच्चा-बृद्ध, बन्दर-घोड़ा, हाथी-कबूतर आदि । द्वितीय असंज्ञी की परिभाषा दी, जो मन-रहित हो, शिक्षा-उपदेश ग्रहण नहीं कर सके, जिसका जन्म माता-पिता के रज और वीर्य के विना हुया हो। जैसे जल का सर्प, कोई कोई तोता । संसार में समनस्क अधिक हैं अथवा अमनस्क ? संसार में विद्वान् अधिक हैं अथवा अविद्वान् ? दोनों प्रश्नों का उत्तर लगभग एक ही है यानी समनस्क और विद्वान् अल्प हैं तथा अमनस्क और अविद्वान अधिक हैं। एकेन्द्रिय [पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति द्वीन्द्रिय [लट, केंचुना, जोंक, शंख] त्रीन्द्रिय [चींटी, चिवटा, खटमल, जूं] चौन्द्रिय [भौंरा, बरी, मक्खी-मच्छर] तक सभी जीव अमनस्क हैं । पंचेन्द्रिय [मनुष्य, पशु-पक्षी, देवता-नारकी] चार भागों में विभक्त है।
मन पाँच इन्द्रियवालों के ही हुआ करता है। यह इन्द्रियों [स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण] से ऊपर है। मन की रचना मनन करने के लिए हुई । मन, शरीर और आत्मा दोनों का प्रतिनिधित्व करता है । मन ही मस्तिष्क को चिन्तन हेतु विचार-शक्ति देता है और मन ही इन्द्रियों को कार्य करने की प्रेरणा देता है । मन, दर्शन-ज्ञान, चारित्र और तप आराधनाओं का प्राधार बनता है और मन ही यतिज्ञान-श्रुतज्ञान की आधारशिला है । मन की महत्ता शब्दातीत है । मन, सुमन होकर अपनी सुगन्ध से संसार को भी सुवासित करता है, सदाचारी होकर संसार सन्तुलित सुखद जीवन का सन्देश "जियो और जीने दो" देता है पर मन कुमन होकर को दुराचारों की दुर्गन्ध लिए संसार को दुःखमय बनाता है, अशान्ति और अविवेक लिए युद्ध को तीथं बनाता है, शस्त्रों का व्यापारी बनता है, प्रस्तर की नौका सा स्वयं डूबता है और अन्य आसीन जन-समुदाय को भी डुबाता है। चूंकि सुमन, प्राग में बाग लगाता है और कुमन, बाग में आग लगाता है, अतएव योगवाशिष्ठकार की यह सूक्ति सहज ही समझ में आ जाती है .कि मन, एक नदी के समान है, जो पाप और पुण्य-दोनों ओर बहती है।' मन को द्विमुखी जोंक समझ ही शायद सर्वार्थसिद्धिकार ने भी ईषद् इन्द्रिय या अनिन्द्रिय लिखा है।
१. चित्तनदी नाम उभयवाहिनी वहति पापाय च पुण्याय च ।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप,
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चतुर्थखण्ड / २६०
गोम्मटसार ग्रन्थ में मनुष्य की परिभाषा दी गई— जो मनु की सन्तान हो, मति और मनवान् हो वह मनुष्य है। मनु यानी सुधर्म का प्रतिनिधि, पध्यात्म की दिशा में स्व ( आत्मा ) और पर (शरीर ) का भेदविज्ञानी और लोक-जीवन की दिशा में स्व (अपना) पर ( पराया) भेद भाव रहित उदारहृदय, जीवन्मुक्त पन्त ( पूज्यतम पुरुष ) पर प्रास्था रखने वाला हो, उसका उत्तराधिकारी अनुयायी हो। जिसके मन हो अर्थात् अपना भला-बुरा, सोचने-समझने, करने-कराने की शक्ति हो, जो मन से मनुष्य को मनुष्य समझे, माने और स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व का भाव रखे, वही मन मन है, अन्यथा मन माप का मन है, ताप का मन है, पाप का मन है, पर जाप का मन नहीं, श्रापका मन नहीं, नाप का मन नहीं है बल्कि शाप का मन है । मति से प्राशय बुद्धि- मनीषा, धिषणा-धी, प्रज्ञा-शेमुषी का है । मति से अभिप्राय स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध का है । बुद्धि बल से बड़ी है और मनीषा छल से दूर खड़ी है तथा धिषणा को तृष्णा तो फूटी पाँखों भी नहीं सुहाती है एवं धी मनुष्य को जहाँ सुधी बनने की प्रेरणा देती है, वहाँ कुधी से बचने की भी प्रेरणा देती है। प्रज्ञा तो वह छैनी ही है, जो अज्ञान के अरावली को तोड़ फोड़ कर दिन-रात ज्ञान के द्वार खोलने में लगी है। शेमुषी शम उषा का स्वप्न सँजोए है। मति, मतभेद लेकर भी मनभेद की रोकथाम कर रही है। स्मृति, अतीत को नहीं भूलने वाली है तो संज्ञा प्रतीत और वर्तमान को जोड़ने वाली कड़ी है और चिन्ता तो त्रिकालदर्शी बनने के लिए चिन्तित ही रहती है तथा अभिनिबोध अपने अध्ययन-अनुभव अभ्यास के अस्त्र लिए मानवता को विनाश के कगारों से हटाने में लगा है। मतिज्ञान की सुलभ सामग्री न तो स्वयं की है और न इस जन्म की है बल्कि यह श्रुतज्ञान की भी है और श्रवण श्रमण परम्परा की भी है। तीर्थंकरों की दृष्टि से मति और श्रुत, ये दो ज्ञान संसार के सभी प्राणियों में पाये जाते हैं। अक्षर के अनन्त भाग ज्ञान तो निगोद के जीवात्मा को भी होता है । इतना न हो तो जीव प्रजीव बन जावे । तत्त्वव्यवस्था गड़बड़ हो जावे । जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञान है, जहाँ ज्ञान है, वहाँ श्रात्मा है ।
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मन मोदक है; मन ओदन है । मन लोहा है, मन सोना है । मन जीरा है, मन हीरा है । मनमौजी है, मन मौनी है । मन नटखट है, मन झटपट है । मन करवट है, मन सलवट है । मन मरघट है, मन घट-पट है । मन चटपट है, मन खटखट है । मन कटमर है, मन मर्कट है । मन जड़ है, मन चेतन है । मन निराशा है, मन आशा है। मन दिन है, मन रात है । मन गरमी है, मन सरदी है । मन स्वभाव है, मन विभाव है । मन प्रभाव है, मन जमाव है । मन हाव है, मन भाव है। मन चाव है, मन अलगाव है। मन तन हार है, मन मनहार है । मन मनिहार है, मन मनुहार है । मन पूर्व है, मन पश्चिम है। मन उत्तर है, मन दक्षिण है । मन शैतान है, मन हैवान है । मन बेईमान है, मन ईमान है । मन असत्य है, मन सत्य है । मन मायावी है, मन बेताबी है मन छल है, मन बल है। मन बालक है, मन युवा है। मन प्रौढ़ है, मन वृद्ध है | मन कंस है, मन कृष्ण है । मन रावण है, मन राम है । मन श्रानन्द है, बुद्ध है । मन गौतम है, मन महावीर है । मन शाला है, मन माला है । मन हाला है, मन ताला है। मन गोरा है, मन काला है। मन धर्म है, मन दर्शन है। मन साहित्य है, मन संस्कृति है। मन हिन्दी है, मन संस्कृत है। मन भरता है। मन मरता है। मन आदि है, मन धन्त है। मन मध्यम है, मन माध्यम है । मन शेष है, मन लेश है। मन गणेश है, मन महेश है । मन मक्कार है, मन सत्कार है । मन दुत्कार है, मन पुचकार है । मन बिन्दु है, मन सिन्धु है ।
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मन : एक चिन्तन : विश्लेषण : २६१
मन इन्दु है, मन हिन्दु है । मन तूर्य है, मन सूर्य है। मन वेश है, मन देश है। मन दायें है, मन बाएँ है। मन ऊपर है, मन नीचे हैं। मन जीवन है, मन जंजाल है । मन समझना सरल है, मन समझना जटिल है। मन अनियन्त्रित है, मन नियन्त्रित है । मन फिदा है, मन विदा है, मन कुछ नहीं, मन सब कुछ है । मन भ्रामक है, मन नियामक है। मन छोटा है, मन मोटा है। मन प्रश्न है, मन उत्तर है। मन मृत्यू है, मन जीवन है।
मन की सृष्टि
मन के दो भेद हैं:-(१) द्रव्य मन (२) भाव मन । द्रव्य मन पोद्गलिक रचना है; इसका जीवन धड़कन है। यह शरीर की घड़ी का पेण्डलम है और जीवन की घड़ी की सूचना है । यह नाड़ी का मूल प्राधार है । यह वंशानुक्रम से प्रभावित होता है। मनुष्य का मन एक मन्दिर है, उसमें आत्मदेव प्रतिष्ठित है; वहाँ जो जैसी आवाज लगाता है, वह वैसा व्यवहार पाता है।
द्रव्य मन, भाव मन का आधार है। जैसे वस्तु की संख्या गुणवत्ता पर बाजार-भाव है, वैसे द्रव्य मन के आधार पर भाव मन भी न्यूनाधिकता, उत्थान-पतन, संकोच-विस्तार लिए ज्वार-भाटा बना है । द्रव्य मन की अपेक्षा भाव मन की उतनी अधिक शक्ति और सत्ता है कि जितनी भी शक्य और सम्भव है। यह भाव मन की सजगता का ही सुपरिणाम है कि वह भोगी से रोगी और योगी भी बनता है। संयोगी, वियोगी, नियोगी ये सब भाव मन की देन हैं । भाव मन से ही नर नारायण, आत्मा परमात्मा, अप्पा परमप्पा है। भाव मन से ही साधक-साध्य, आराधक-प्राराध्य है। भाव मन से प्रास्रव बन्ध संवर-निर्जरा है। भाव मन से ही स्वर्ग-अपवर्ग है। भाव मन से ही गूणस्थान, जीव समास, मार्गणा हैं। भाव मन का विश्व अपने में एक ही है, प्रत्येक प्राणी मन पर रीझा है।
मन का महल छोटा होकर भी बहुत बड़ा है। मन, दैनिक पत्र-प्रकाशन कार्यालय के समान है, जिसका स्थान सीमित हैं, पर रचना-संसार असीमित है । अ-मन के अखबार मनुष्य अतीव अमन के साथ पढ़ते हैं पर मन के अखबार विरले पढ़ते हैं । जो नहीं पढ़ना चाहिए, वह दिन-रात अाँखे फाड़ फाड़ पढ़ते हैं। लगता है कि मन नादानी के साथ मनमानी भी करता है। जब तक मन की मनमानी नहीं मिटती है तब तक मनुष्य अमनुष्य रहेगा, मनुष्य नहीं बनेगा, युद्ध के लिए प्रस्तुत होगा, अयुद्ध के लिए अप्रस्तुत । मनुष्य के शरीर में बायीं ओर स्थित मन, जाग्रत अवस्था की तो कौन कहे; निशीथ के सपनों में भी मिलखासिंह धावक बनकर दौड़ लगाता रहता है। मन, चंचलता में मर्कट को मात देता है और गतिशीलता में पवन से बाजो मार जाता है । महाभारत के 'यक्ष-युधिष्ठिर संवाद' में मन को मरुत से बढ़कर बतलाया गया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा-जहाँ मन है, वहाँ मरुत है, जहां मरुत है, वहाँ मन है। दोनों परस्पर कारण-कार्य हैं।' मन ही हार-जीत, बन्धन-मुक्ति का कारण है। - मन का सम्बन्ध उपयोग से है। चेतना और वेदना से है। इस दृष्टि से मन के तीन भेद हैं:-(१) अशुभ मन (२) शुभ मन (३) शुद्ध मन । संक्षेप में समझे
१. मनो यत्र मरुत् तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतो संवीती क्षीरनीरवत् ।।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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चतुर्थ खण्ड /२६२
प्रशुभ मन
पाप का सृजन करता है । क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे दुर्गुण स्वीकार करता है। हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह पाप बटोरता है । जुया खेलना, मांस खाना, मदिरापान करना, वैश्या-गमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, परकीया रमणी से रमण करना जैसे नशा व्यसन करता है। ज्ञान, पूजा, जाति, कुल, बल, ऋद्धि, तप वपु, के मद में मतवाला होता है । खानो, पिनो और मस्त रहो का परमविश्वासी होता है। 'लेकर दिया, कमाकर खायातो तुं व्यर्थ जगत में आया' का अपार आस्थावान होता है। यह भौतिक संस्कृति व पाश्चात्य सभ्यता का परम उपासक होता है। स्वर्ग और नरक, धर्म और कर्म का अतीव अविश्वासी होता है। यह प्रबल स्वार्थी बहभाग में आत्मकेन्द्रित होता है।
शुभ मन
पुण्य का सृजन-संचयन करता है। क्षमा, मदुता, सरलता, निर्लोभता जैसे सद्गुण स्वीकारता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को भी अपूर्णतया अथवा पूर्णतया स्वीकारता है। यह विपरीत मान्यतामूलक मिथ्यात्व से बचता है, मिथ्या प्राचार विचार इसे सुहाते नहीं हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य, मोक्षमूलक सम्यक्त्व इसे रुचता है, यह श्रमणोपासक बनकर श्रमण भी बनने को उत्सुक रहता है। यह लोक-परलोक का विश्वासी होता है। सहधर्मी बन्धुओं के प्रति अनुरागी होता है। शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य पर इसकी अखण्ड आस्था होती है। यह अल्पल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, स्वदारसन्तोषी होकर लोक-जीवन में प्रामाणिक व्यक्ति होता है । यह श्रद्धा-विवेक-क्रियावान् होने से शुद्ध मन लिए परोपकारपरायण होता है व जीव-दया का केन्द्र-बिन्दु होता है।
शुद्ध मन
अशुभ मन रागो-द्वेषी होता है, शुभमन राग-द्वेष से बचने के लिए प्रयत्नशील होता है, पर शुद्ध मन लोक में रह अलौकिक जीवन्मुक्त होता है। यह वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी बनने के लिए सर्वस्व समर्पण करता है। शुद्ध मन तो समता दर्शन का जनक होता है । शुद्ध मन समभाव के धर्म का उत्स होता है शुद्ध मन सद्य:शिशु सा अतीव निर्विकार होता है। यह काँच-कंचन, महल-मसान, निन्दा-प्रशंसा, सुख-दुःख, शत्र-मित्र जैसे भेद-भावों से ऊपर उठता है । समाज से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहकर बहुत कुछ देने के लिए कृतसंकल्प होता है। इसकी जिजीविषा, अनुभूति, आचरणशीलता अद्भुत अनोखी होती है। लोग इसे पाकर अपना अहोभाग्य समझते हैं । यह बाहर-भीतर एक होता है ।
नियमन की दृष्टि से मन को दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है :(१) नियन्त्रित मन (२) अनियन्त्रित मन ।
नियन्त्रित मन-पूर्वापर विचारक होता है। लोक-लाज से भयभीत होता है । धर्मभीरुता को गुण मानता है। पाप से डरता है, पुण्य पर प्राण देता है। संयम और साहस को स्वीकारने वाला नियन्त्रित मन अपनी गति (गमन-शक्ति) को सुगति बना लेता है । अपने स्वामी को मनुष्य और देवगति में ही नहीं बल्कि ऊर्ध्वमुखी होने से लोकाग्रत्तिनी सिद्ध-शिला पर भी आसीन कराता है। जन्म, जरा और मरण के दुखों से मुक्ति के लिए नियन्त्रित मन रामबाण ।
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मन : एक चिन्तन : विश्लेषण | २६३
अमोघ औषधि है। नियन्त्रित मन से लोकजीवन ही नहीं बल्कि पारलौकिकजीवन भी मंगलमय होता है। नियन्त्रित मन अनुकल मित्र है। यह सही दिशा में समुचित गन्तव्य स्थल तक पहुँचाता है । यह संवर-निर्जरा का कारण है।
अनियन्त्रित मन
किसी भी प्रकार के बन्धन को स्वीकार नहीं करता है। पूर्णतया अराजकतावादी होता है। अनियन्त्रित मन में अपारगति होती है पर अपार परिणाम सोचने की शक्ति नहीं होती है। अनियन्त्रित मन उस मर्कट के समान है, जो एक तो स्वभावतः चञ्चल, दूसरे कोई उसे सुरा पिलादे, तीसरे स्त्री-विच्छ से कटादे तो यह उछल कूदकर नर से वानर, राम से रावण बनता है और शत्रु हो कर, प्रास्रव-बन्ध करके सर्वश्रेष्ठ योनि मानव को निकृष्टतम योनि निगोद में ले जाता है । अनियन्त्रित मन उस वाहन (सायकल, मोटर, स्कूटर, रेलगाड़ी, हवाई जहाज) सदृश है, जिसमें गति है पर नियामक रोकथामकारी ब्रेक नहीं है । अनियन्त्रित मन, अनपढ़, अज्ञानी, अशिक्षित, अकुलीन, अमानुषिक पर ही प्रभाव जमा पाता है, अपनी बाढ़ में बहा पाता है, कभी भूले-भटके ज्ञानी शिक्षित कुलीन को भी बहा ले जाने का नाटक करता है। उनके सद्गुणों की परीक्षा लेने का नाटक करता है। अनियन्त्रित मन अधोमुखी है । वह मनुष्य को नरक और तियंञ्च गति में ले जाता है । एक वाक्य में अनियन्त्रित मन अतीवत्रास मूलक है।
अनियन्त्रित मन बरसाती बाढ़वाली मलिन सरिता है और नियन्त्रित मन शीतग्रीष्मकालीन स्वच्छसलिला विमला सरिता है। जहाँ अनियन्त्रित मन अपने अस्तित्व के हेतु संघर्ष करने को कटिबद्ध रहता है, वहीं नियन्त्रित मन अपने सम्मान को सुरक्षित रखने के साथ अन्य के भी मान-महत्त्व को स्वीकार करता है। विचार के धरातल पर अनियन्त्रित मन से नियन्त्रित मन श्रेष्ठतम है।
भावना के उत्थान-पतन की दष्टि से मन के दो भेद हैं:- १. प्राशावादी मन, २. निराशावादी मन ।
१. आशावादी मन-आशावाद जीवन है । आशावादी मन की आस्था है-'हारिये न हिम्मत विसारिए न हरि-नाम ।' आशावादी मन लेकर मनुष्य गुलाब के उद्यान में विहार की नीयत से जाये तो गुलाब के हंसते कोमलतम प्रसून को देखकर विचारने लगे--जब गुलाब का फूल एकेन्द्रिय इतने काँटों के बीच मुस्करा सकता है, तब मैं पाँच इन्द्रियों वाला मनुष्य चार-छह दु:ख के कांटों से घबरा कर चेहरा लटकाऊं, आत्महत्या की विचारू तो मुझे धिक्कार है । मेरी शिक्षा, संस्कृति, धर्म, प्रतिभा व्यर्थ है। गुलाब के प्रसून-सी हंसती जिन्दगी व्यतीत करना ही मेरा कर्तव्य है। माना कि कर्म अनादिकालिक हैं और मैं तीर्थंकर-चक्रवर्तीबलभद्र सा समर्थ नहीं हूँ किन्तु कर्मभूमि का सामान्य मनुष्य तो हूँ, एकदम पुरुषार्थ-विहीन तो नहीं हैं। इसलिए चेतन स्वभावी प्रात्मा होकर मैं जड़कर्मों से कभी भी हार नहीं मानूंगा। अशुभ आश्रव से बचकर शुभ आश्रव तो कर ही सकता हूँ, अपकार के स्थान में उपकार कर सकता है और अपवर्ग नहीं तो स्वर्ग तो प्राप्त कर सकता है। मैं संकल्पप्रधान आशावादी हो जीवन पर्यन्त रहूंगा।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में | धर्म ही दीय
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चतुर्थ खण्ड | २६४ २. निराशावादी मन-गुलाब के बगीचे में विहार के लिए जाये तो कांटों के बीच खिले गुलाब के फूल को देखकर विचारने लगे--एक गुलाब और सौ कांटे, एक प्रात्मा पाठ कर्म । कर्म अनादिकालिक, इनको जीतना महा मुश्किल, पंचमकाल हीन संहनन, कर्म विजेता बनने में जब तीर्थंकर, चक्रवर्ती बलभद्र कठिनाई का अनुभव करते हैं तब सामान्य मनुष्य . की क्या हस्ती जो कर्मरूपी पहाड़ों के लिये बज्र बने । निराशावादी कोल्ह के बैल की तरह अतीव अनुत्साही होकर जीवन बिताता है। निराशावादी कर्मों के आगे नाचता है और प्राशावादी कर्मों को नाच नचाता है।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने अमर यशस्वी 'योगशास्त्र' में मन के ४ भेद किये१. विक्षिप्त, २. यातायात, ३. श्लिष्ट, ४. सुलीन ।*
मन का यह वर्गीकरण भी मनोवैज्ञानिकों के लिए वाञ्छनीय है और इसके बिना वे चमत्कारी मानव नहीं बन सकेंगे। चूंकि मन सभी मनुष्यों के समीप है, अतएव यह सत्य तथ्य सभी के लिए, सम्पूर्ण सृष्टि के लिए, ज्ञातव्य और ध्यातव्य है ।
१.विक्षिप्त मन-इधर-उधर भटकता रहता है। यह एक प्रकार का बनजारा आवारा है। जो घड़ी में बाहर आता है, घड़ी में भीतर जाता है। विक्षिप्त मन पागल या मिथ्यादृष्टि जैसा है जो अपनी माँ को मां कहने के साथ बहन, बहू, बेटी, स्त्री भी कह बैठता है । विक्षिप्त मन वह अबोध बालक है, जो शीघ्र रूठता और संतुष्ट होता है। विक्षिप्त मन उस खादी के समान है, जो जल्दी साफ होती है और जल्दी गन्दी होती है।
२. यातायात मन-विक्षिप्त नहीं सावधान है। अपने कार्य हेतु सजग सतर्क है। माल गोदाम में जैसे माल का आयात-निर्यात होता है, वैसे ही यातायात मन में भावनाओं का ज्वारभाटा आता-जाता है । यातायात मन में विभ्रम नहीं विलास है। लाभ की ओर दृष्टि है, हानि से बचाव का प्रयत्न है। यातायात मन वाला कभी शरीर की सत्ता भलाकर भी प्रात्मा में क्षणिक काल के लिए सुस्थिर होने का प्रयास करता है।
३. श्लिष्ट मन-विक्षिप्त में बेचैनी है, यातायात में अस्थिरता। श्लिष्ट मन स्थिरता सहित होता है, इन्द्रियरूपी अश्वों को रोकने की उसमें अपूर्व क्षमता होती है। श्लिष्ट मन समाधि में समाविष्ट होने का स्वप्न देखता है, प्रयास करता है, जितने काल तक स्थिर रहता है, आनन्द का अनुभव करता है। श्लिष्ट मन उस विद्यार्थी के तुल्य है जो प्रथम श्रेणी के अंकों के लिए अध्ययन, अनुभव, अभ्यास अतीव आवश्यक मानकर तदनुकल प्रवृत्ति करता है। यह अग्रसर पुरोगामी होता है । वाहन का इंजन जैसा है।
४. सुलीन मन-सुलीन शब्द ही बतलाता है कि उसका धारक अपने में अनन्य भाव लिए है, अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए सम्पूर्णतया समर्पित है। सुलीन मन मति वाला अपने कार्य-हेतु अनवरत-अविश्रान्त रूप में जागरूक रहता है और 'जागरूक की जय निश्चित है' मानता है। सुलीन मन दिव्य प्रानन्द पाता है और प्रामाणिकता की उपाधि धारण करता है। सुलीन मन सब कुछ कर सकता है।
• इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च ।
चेतश्चतुःप्रकारं तत् सचमत्कारकारि भवेत् ॥
-अ. १२ श्लोक २
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मन : एक चिन्तन : विश्लेषण | २६५
विक्षिप्त और यातायात मन जितनी बाहरी वृत्ति वाले हैं, श्लिष्ट और सुलीन मन उतनी भीतरी वृत्ति वाले हैं। पहले में उद्धतता दूसरे में उच्छखलता, तीसरे में शालीनता, चौथे में तल्लीनता है। विक्षिप्त अडियल घोड़ा गोलाकार घूमता, यातायात निरुद्देश्य भागता, श्लिष्ट सही दिशा पकड़ता, सुलीन गन्तव्य स्थान पाता है ।
मन की महिमा
(१) मन, अविश्वासी धीवर है। जैसे धीवर जल में जाल फैला मछलियां फँसाता है, वैसे ही मनरूपी धीवर खोटे विकल्पजाल में फंसकर नरकाग्नि में जलाता है। इसलिए मन के मत के अनुसार मत चलिए, मन के अनेक मत है, यह समझकर एक मन को जीतें और मन को वश में कर सही साधू बनें।
(२) मन, को मित्र बनाइये, प्रार्थना कीजिए कि दीर्घकालिक मित्र! कृपा करो, बुरे विकल्पों से बचानो, संसार में मत फंसायो, सत्संकल्पों से सन्नद्ध करो।
(३) मन पर अंकुश रख मन को वश कर लो तो क्षण भर में वह स्वर्ग-मोक्ष भी दे सकता है । कार्य भले न हो पर मानसिक चिन्तन से मन तो अपराधी होता ही है । तन्दुल मत्स्य सप्तम नरकगामी ज्वलन्त उदाहरण है।
(४) न देवता सुख-दुख देते, न शत्रु-मित्र-काल कुछ करते, मनुष्य को मन ही घुमाता है।
(५) जिसका मन वश में है, उसे नियम-यम से क्या लेना देना और जिसका मन वश में नहीं है उसका जप-तप-संयम निष्फल निरुद्देश्य है।
(६) दान-ज्ञान, तप-ध्यान जैसे धार्मिक अनुष्ठान मन का निग्रह किये बिना सम्भव नहीं है । कषायजनित चिन्ता प्राकुलता-व्याकुलता बढ़ाती है । जिसका मन वश में है, वह योगी है उसको देव-पूजा, शास्त्र-स्वाध्याय, संयम-तप-दान गरुड़-उपासना सफल है ।
(७) न जप से मोक्ष मिलता, न अन्तरंग बहिरंग तप से, न संयम, दम, मौन-धारण प्राणायाम से मोक्ष मिलता; मोक्ष तो अन्तःकरण को जीतने से मिलता है।
(८) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित, जैनधर्म रूपी दुर्लभ जहाज को पाकर भी यदि मनुष्य मन रूपी पिशाच से ग्रस्त होकर संसार-समुद्र में गिरता है तो चेतन (बुद्धिमान्) नहीं बल्कि जड़ (मूर्ख-प्रज्ञानो) ही है ।
(९) जिसका मन विवश है, उसके मन वचन काया तीन दुश्मन हैं। ये विपत्ति का पात्र बना देंगे।
(१०) हे चित्त रूपी बैरी! मैंने तेरा क्या अपराध किया, जो चिद्रूप में रमण नहीं करने देता, बुरे विकल्पों के जाल में फंसा दुर्गति में फेंकता है । मोक्ष के सिवाय अन्य भी स्थान हैं, जहाँ मनुष्य सुख-शान्ति का वरण कर सकता है पर तू तो मेरा कहना ही नहीं सुनता।
(११) जिस प्राणी का मन विषम है, विषाक्त है, वह सन्ताप ही पाएगा । जैसे कुष्ठ रोगी को कोई सुन्दरी नहीं चाहती, वैसे ही विपत्ति के मारे को भी लक्ष्मी नहीं चाहती।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में
Maniameriorating
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चतुर्थ खण्ड / २६६
(१२) कोई कितना भी विद्वान् हो पर मनोनिग्रही नहीं तो नरक ही जाएगा। जब कभी भी मोक्ष होगा तब मनोनिग्रही को ही होगा। मनोनिग्रह का उपाय स्वाध्याय, योग-वहन, चारित्रक्रिया का व्यापार, बारह भावना का चिन्तन, मन-वचन-काय की सरलता है।
(३३) जिसके मन रूपी वन में भावना अध्यवसाय रूपी सिंह जागत है, वहाँ दुर्ध्यान रूपी शूकर कभी नहीं आएगा। जिसने मन को साध लिया उसने सब साध लिया, ऐसा कवि आनंदघन का मत है।
(१४) जो शरीर से नहीं, मन से संसार त्यागते हैं, वे ही भगवान् के निकट हैं। यह कहने वाले तुकाराम ने हिन्दी भाषा में लिखा-कहे तुका मन यू मिल राखो। राम रस जिह्वा नित फल चाखो।
(१५) कबीर के शब्दों में मन का मुरीद सारा संसार है, गुरु का मुरीद कोई साधु ही है । मन समुद्र है, लहर है, इसमें अनेक डूबते हैं, बहते हैं, पर विवेकी बहते नहीं बचते हैं ।
(१६) विहारी के शब्दों में जिसका मन कच्चा है, उसका नाचना व्यर्थ है। जप, माला, छापा, तिलक से क्या होगा? राम तो सच्चे मन पर रीझते हैं। जब तक मन में कपट के कपाट लगे हैं, तब तक भगवान भला कैसे पा सकते हैं ?
'मन : एक चिन्तन : विश्लेषण' निबन्ध का समापन करते हुए यही लिखना है कि मन को शिक्षा दो, मन की परीक्षा लो । मन को साथ लेकर चलो । मन से बात करो । मन को आधार बनायो । मन की मान्यता करो। मन के राक्षस को काम बतायो । मन के साक्षर को ठीक तरह पढ़ाओ।
-बजाज खाना जावरा (म. प्र.)
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विचार और हम । प्रो० संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र'
मैं अपनी बात एक घटना से शुरु करूगा। एक शाम जब गुलाबी सूरज सागर के गहरे तल में डूबने जा रहा था, उस दार्शनिक को बड़ा अच्छा लगा। रह-रह कर आकाश में अरुणिमा के बने दृश्य उसे लुभाने लगे। कलरव करते पक्षी, शीतल बहती बयार सभी का सभी मनोहारी था उसके लिए। वह उसमें डूब जाना चाहता था । बाल के बने ढेर पर वह बैठ गया, यह सब दृश्य देखने को। तभी उसे न जाने क्या सूझा, वह सोचने लगा--क्यों न मैं इस रम्य संध्या के मनोहारी दृश्य देखने के लिए अपनी पत्नी को निमंत्रण दे दूं। पर पत्नी तो उससे बहुत दूर थी। उसके लौटते तो प्रहर बीत सकती थी। वह क्या करे कि पत्नी को संध्या के अमूल्य दृश्य दिखा सके-रह-रह कर विचारों का युद्ध उसके मन को व्यथित किए जा रहा था। वह दार्शनिक था तो कुछ न कुछ उपाय उसे खोज ही लेना था। सो उसने वैसा ही किया। एक खाली लिफाफे को वह कहीं से ले आया और खोल दिया उसका एक हिस्सा उस रम्य संध्या के मनोहारी दृश्य को भरने के लिए। डूबते हुए गुलाबी सूरज की अद्भुत किरणों को उसने भर दिया लिफाफे में । और फिर लिफाफा बंद कर भेज दिया पत्नी के नाम उसने । पत्नी लिफाफा पाते ही खिल उठीं । सोचा पति का पत्र पाया है न जाने क्याक्या लिखा होगा उन्होंने मेरे लिए। लिफाफे को खोल दिया उसने । पर वह तो खाली का खाली था तो भरा कैसे होगा। यह देख पत्नी आगबबूला हो गयी। इतना भीषण मजाक उन्हें मेरे साथ करने की क्या जरूरत थी -मानो क्रोध में वह पागल हुई जा रही थी। सोचा, पति तो दार्शनिक हैं जरूर कोई दर्शन दिया होगा उन्होंने इस लिफाफे में। दिमाग ठंडा किया और खाली लिफाफे का रहस्य खोजने लगी वह ।
रहस्य खोजने में जो कुछ हाथ लगेगा, वह सभी कुछ तुम्हारे भीतर का होगा। लिफाफा चाहे खाली हो या भरा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लिफाफा तो प्रतीक है, बिम्ब है, स्वप्न है, मात्र सूचना लेने-देने का साधन है। लेकिन जो कथ्य के भीतर तथ्य छिपा है, वह, अनुभूत किया हुमा तथ्य कथ्य तक पहुँचते-पहुँचते असत्य की पत्तों में बंध जाता है। फिर चाहे रम्यसंध्या का दृश्य हो या किसी अन्य प्रहर का, कोई फर्क नहीं पड़ता उसमें । जो कहा या सुना गया, यह सभी अछूता हो जाता है अनुभूत से। दार्शनिक ने शायद इसीलिए अनुभूत के करीब खाली लिफाफा ही समझा होगा, इसीलिए लिफाफे में उसने उस रम्य संध्या को डुबोया होगा।
आज कितनी बड़ी मजाक में हम जी रहे हैं । हम लिफाफों को भरते चले जा रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा भरे हुए लिफाफों को अच्छे से अच्छे दाम में भेजा जा रहा है । समय और साधन दोनों का अपव्यय हो रहा है। इस पर कोई ध्यान नहीं है। हम जानते हैं कि खाली लिफाफे कम से कम दाम में चले जाते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं सोचते । विचार जितने ज्यादा
धम्मो दीयो संसार समुद में वीही दीय
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चतुर्थ खण्ड / २६८ भरे होंगे, वजनी होंगे, लक्ष्य तक पहुंचने में वे उतने ही बाधक होंगे । विचारशून्य होने पर लक्ष्य तक आसानी से पहुँचा जा सकता है फिर किसी पकड़ की आवश्यकता नहीं होती। पकड़ तो तभी तक है जब तक विचारों का बोझा सिर पर लादे हए हम बढ़ते जाते हैं। विचारहीन प्राणी घेरे में घिरा हुआ है जबकि विचारशून्य प्राणी घेरे को काट चुका होता . है। हमें अपने भीतर विचारों के बोझ को मुक्त करना होगा । तभी हम जीवन के अर्थ को पा सकते हैं। यही अभीष्ट है।
-मंगलक्लश ३९४ सर्वोदय नगर, आगरा रोड,
अलीगढ़-६०२००१
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संस्कृत-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान
डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
रहा
संस्कृत साहित्य के विकास एवं समुन्नति में जैनाचार्यों एवं विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान । उन्होंने इस साहित्य की प्रत्येक विधा पर काव्य-रचना करके उसके प्रचार-प्रसार की दिशा में कार्य किया । जैनाचार्यों ने साहित्यसर्जन करते समय लोक - रुचि का विशेष ध्यान रखा, इसलिये उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत में भी काव्य, चरित, कथा, नाटक, पुराण, छन्द एवं अलंकार जैसे सभी विषयों पर साहित्य - जगत् को मूल्यवान् रचनाएँ भेंट की । वास्तव में संस्कृत का जैन वाङ् मय विशाल एवं महत्त्वपूर्ण है । लेकिन विशाल साहित्य होने पर भी उसका प्रकाशन एवं समुचित मूल्यांकन नहीं होने के कारण उसे साहित्यजगत् में यथोचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका है। अकेले राजस्थान के जैन ग्रन्थों की लाखों पाण्डुलिपियाँ संगृहीत हैं । उस विशाल साहित्य का लेख में संभव नहीं है, फिर भी प्रति संक्षिप्त रूप में हम यहाँ उसका परिचय देना चाहेंगे ।
ग्रन्थभण्डारों में संस्कृत परिचय कराना एक ही
दर्शन एवं न्याय :
दूसरी शताब्दी में होने वाले आचार्य समन्तभद्र जैन दर्शन के प्रस्तोता माने जा सकते हैं । अनेकान्तवाद को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने वाले समन्तभद्र प्रथम प्राचार्य हैं । उनकी प्राप्तमीमांसा एवं युक्त्यनुशासन दोनों ही महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । प्राप्तमीमांसा में एकान्तवादियों के मन्तव्यों की गम्भीर आलोचना करते हुये प्राप्त की मीमांसा की गयी है और युक्तियों के साथ स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है । इसी तरह युक्त्यनुशासन में जैन शासन की निर्दोषता युक्तिपूर्वक सिद्ध की गयी है। प्राप्तमीमांसा पर भट्टाकलंक की प्रष्टशती तथा आचार्य विद्यानन्दि का प्रष्टसहस्री नामक विस्तृत भाष्य उपलब्ध है । ये दोनों ही मीमांसा की लोकप्रियता एवं उसकी महत्ता को सिद्ध करने वाली कृतियाँ हैं ।
सातवीं शताब्दी में होने वाले भट्टाकलंक जैन न्याय के
संस्थापक माने जाते हैं । इनके
पश्चात् होने वाले सभी जैनाचार्यों ने इनके द्वारा प्रस्थापित मार्ग का अनुसरण किया है । अष्टशती के अतिरिक्त लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय इनकी महत्त्व - पूर्ण दार्शनिक कृतियाँ हैं । दर्शन जैसे गहन विषय को इन्होंने इन कृतियों में प्रस्तुत करके गागर में सागर को भरने जैसा कार्य किया है ।
आठवीं शताब्दी में महान् दार्शनिक प्राचार्य हरिभद्र सूरि हुए, जिन्होंने अनेकान्तसिद्धान्त की पुनः प्रतिष्ठा की और अपनी अनेकान्तजयपताका, षट्दर्शनसमुच्चय एवं अनेकान्तवाद जैसे दार्शनिक ग्रन्थों की रचना करके देश के दार्शनिक जगत् में अनेकान्त की दुन्दुभि बजायी । इसके
धम्मो दोवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड | २७०
पश्चात प्राचार्य माणिक्यनन्दी हए जिन्होंने अपनी परीक्षामुख कृति में जैन न्याय को सत्र रूप में प्रस्तुत किया। परीक्षामुख ९ परिच्छेदों में विभक्त है और इसकी सूत्र संख्या २०७ है । प्राचार्य प्रभाचन्द्र [सन् ८२५] ने इस पर प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसी विशालकाय टीका लिख कर जैन न्याय के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इनकी अकलंक के लघीसस्त्रय पर . न्यायकुमुदचन्द्रोदय टीका भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है।
नवीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य विद्यानन्दि जैन न्याय के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते हैं । इनकी कितनी ही छोटी-बड़ी रचनाएँ दर्शनसाहित्य की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं, जिनमें विभिन्न मान्यताओं की प्रामाणिक आलोचना की गयी है तथा अकलंक के विचारों का युक्तिपूर्वक समर्थन किया गया है। इनकी कृतियों में प्राप्तपरीक्षा, प्रष्टसहस्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा एवं तत्वार्थश्लोकवातिक के नाम उल्लेखनीय हैं ।
दसवीं शताब्दी में देवसेन हुए जिनकी लघुनय चक्र, बृहद्नयचक्र एवं पालापपद्धति न्यायशास्त्र की गम्भीर रचनायें हैं। इसी समय अनन्तवीर्य हुये जिन्होंने परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला टीका लिख कर उसकी लोकप्रियता में चार चांद लगा दिये । इन्होंने अकलंक की सिद्धिविनिश्चय पर भी अच्छी टीका लिखी थी।
ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि का योगदान जैन न्याय के क्षेत्र में ही नहीं किन्तु संस्कृत वाङमय के सभी क्षेत्रों में अद्भुत एवं प्राश्चर्यकारी है। उनकी प्रमाणमीमांसा जैन न्याय की अनूठी रचना मानी जाती है।
उक्त आचार्यों के अतिरिक्त देवसूरि का प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, जिस पर विशालकाय स्याद्वादरत्नाकर ग्रन्थ और रत्नाकरावतारिका नामक टीका लिखी गईं, चन्द्रप्रभसूरि की दर्शनशूद्धि एवं प्रमेयत्नकोश [११०० ए. डी] माघनन्दि का पदार्थसार, राजशेखर सूरि की स्याद्वादकलिता जैसी रचनाओं का नाम भी उल्लेखनीय है ।
१८वीं शताब्दी में होने वाले अभिनव धर्मभूषण की न्यायदीपिका को जैन न्याय के मौलिक तत्त्वों को सरल एवं सुबोध रीति से प्रतिपादन करने वाली कृति के रूप में मान्यता प्राप्त है । न्यायदीपिका में प्रमाण एवं नय का बहत ही स्पष्ट एवं व्यवस्थित विवेचन किया गया है। २०वीं शताब्दी में होने वाले दार्शनिक विद्वान पंडित चैनसूखदास न्यायतीर्थ का जैनदर्शनसार एक महत्त्वपूर्ण कृति मानी जाती है जिसमें जैनदर्शन के सभी विषयों पर संक्षिप्त किन्तु सरल रीति से प्रकाश डाला गया है।
काव्य:
जैनाचार्यों ने संस्कृतकाव्यों के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने महाकाव्य लिखे, चम्पूकाव्य लिखे, चरित्रकाव्य एवं द्रतकाव्य निबद्ध किये। लेकिन इन काव्यों की मूल आधारशिला द्वादशांग वाणी है। संस्कृत भाषा का प्रत्येक जैन काव्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र द्वारा कोई भी मानव चरम सुख प्राप्त कर सकता है, इस सन्देश को प्रसारित करने वाले होते हैं। जैन काव्य वर्णाश्रम धर्म के पोषक न होकर मुनि-पायिका, श्रावक-श्राविका को ही समाज का रूप मानते हैं। इसके अतिरिक्त जैन काव्यों के नायक
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संस्कृत-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान | २७१
केवल देव, ऋषि, मुनि अथवा राजा नहीं हैं किन्तु राजाओं के साथ सेठ, सार्थवाह, श्रेष्ठी, तीर्थंकर, शूरवीर या सामान्य मानव होते हैं।
आठवीं शताब्दी में होने वाले जटासिहनन्दि का वरांगचरित्र प्रथम महाकाव्य है जिसमें जैन राजा वरांग का ३१ सर्गों में जीवनचरित निबद्ध है । महाकाव्य के नायक में धीरोदात्त के सभी गुण समवेत हैं। इसमें नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्धविजय आदि सभी का वर्णन मिलता है। इस शताब्दी में होने वाले जिनसेनाचार्य के पार्वाभ्यूदय में २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवनचरित निबद्ध किया गया है। यह खण्डकाव्य है जो चार सर्गों में विभक्त है।
धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य के रचयिता हैं महाकवि हरिचन्द । यह महाकाव्य २१ सर्गों में पूर्ण होता है तथा इसमें धर्मनाथ स्वामी का जीवनचरित निबद्ध है। प्रस्तुत काव्य की राजस्थान के जैन ग्रंथागारों में कितनी ही प्रतियाँ मिलती हैं। महाकवि हरिचन्द का ही दूसरा महाकाव्य जीवन्धरचम्पू है। इसमें महाराजा जीवन्धर का जीवनचरित निबद्ध है। गद्य-पद्य मिश्रित यह महाकाव्य अपने ढंग का अनोखा काव्य है।
११वीं शताब्दी में होने वाले वीरनन्दि ने शक संवत ९४३ में चन्द्रप्रभचरित की रचना समाप्त की। १५ सर्गों में विभक्त यह काव्य पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ के जीवन को प्रस्तुत करने वाला है। इसी शताब्दी में महाकवि धनंजय हये जिन्होंने राघव पाण्डवीय जैसे महाकाव्य की सर्जना की। काव्य की कथा राम एवं पाण्डव दोनों कथानों को प्रकट करने वाली है। इसका दूसरा नाम द्विसंधान महाकाव्य भी है । प्रस्तुत महाकाव्य में १८ सर्ग हैं।
१२वीं शताब्दी में महाकवि वाग्भट्ट हये जिन्होंने 'नेमिनिर्वाण" काव्य की रचना की। यह भी उच्चस्तरीय महाकाव्य है और अपने समय का लोकप्रिय काव्य रहा है।
अनेक काव्यों के रचयिता महाकवि हेमचन्द्राचार्य के नाम से सभी विद्वान परिचित हैं। उनका महाकाव्य त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित एवं द्वयाश्रयकाव्य संस्कृत के अनूठे काव्य हैं । प्रथम महाकाव्य में ६३ शलाका (श्लाघ्य) महापुरुषों का जीवनचरित निबद्ध है जबकि दूसरे काव्य में कुमारपाल का जीवन वणित है । इसीलिये इसका दूसरा नाम कुमारपालचरित भी है। यह महाकाव्य २८ सर्गों में विभक्त है।
महाकवि सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू का चम्पूकाव्यों में उत्कृष्ट स्थान है। महाकवि ने इस काव्य में राजा यशोधर के जीवनचरित को काव्यमय भाषा में प्रस्तुत किया है। इस चम्पकाव्य की नागौर, पामेर एवं जयपुर के ग्रन्थभण्डारों में पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध होती हैं। १३वीं शताब्दी में होने वाले महापंडित पाशाधर के शिष्य अर्हदास ने पुरुदेव की रचना करके चम्पू काव्यों में एक और कड़ी जोड़ दी। इस काव्य में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के जीवन को प्रस्तुत किया गया है।
. महाकवि प्रसग का महावीर चरित एक महत्त्वपूर्ण काव्य है जो २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन का दिग्दर्शन कराता है।
___ उक्त महाकाव्यों के अतिरिक्त प्राचार्य गुणभद्र का जिनदत्तचरित एवं धन्यकुमारचरित देवेन्द्रसूरि का महावीरचरित (१०२७ ए. डी. । देवसूरि का बलभद्रचरित, महापंडित
ઘરની રીતો
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चतुर्थ खण्ड | २७२ आशाधर का त्रिषष्टिस्मृति, अर्हद्दास का मुनिसुव्रतचरित, अजितप्रभ सूरि का शांतिनाथचरित आदि चरितकाव्यों के नाम उल्लेखनीय हैं।
१५वीं शताब्दी में पद्मनाभक्त कवि हुये जिन्होंने संवत् १४६२ में यशोधरचरित की रचना की। यशोधरचरित अपने समय का लोकप्रिय काव्य है जिसकी कितनी ही पाण्डुलिपियाँ राजस्थान के विभिन्न शास्त्र-भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। इसी शताब्दी में भट्रारक सकलकीर्ति हुये जो संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इन्होंने अपना समस्त जीवन संस्कृत के प्रचार प्रसार में समर्पित किया हुआ था। इनके द्वारा निबद्ध यशोधर चरित्र, मल्लिनाथचरित्र, जम्बूस्वामिचरित्र, सुदर्शनचरित्र, शान्तिनाथचरित्र, पार्श्वनाथचरित्र वर्द्धमानचरित्र संस्कृत की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। अकेले भट्टारक सकलकीति ने संस्कृत भाषा में २५ से भी अधिक रचनाओं को निबद्ध करके एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।'
भट्टारक सकलकीर्ति की परम्परा में होने वाले भट्टारकों एवं अन्य साधुओं ने संस्कृत काव्यों को निबद्ध करने की परम्परा को जीवित रखा । ब्रह्म जिनदास ने संस्कृत में जम्बूस्वामीचरित्र, रामचरित्र (पद्मपुराण)हरिवंशपुराण, भट्टारक सोमकीति ने प्रद्युम्नचरित्र, एवं यशोधरचरित्र एवं भट्टारक शुभचन्द्र ने चन्द्रप्रभचरित्र, करकण्डुचरित्र, चन्दनाचरित्र, जीवन्धरचरित्र, श्रेणिकचरित्र, पाण्डवपुराण जैसे कितने ही काव्य लिख कर संस्कृत काव्यधारा को जीवित रखा।
ढूंढाड प्रदेश में होने वाले संस्कृत जैन कवियों में पं. राजमल्ल, पं. जगन्नाथ तथा भट्टारक सुरेन्द्रकीति का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । पं. राजमल्ल ने संवत् १९४२ में जम्बूस्वामिचरित्र की रचना की थी। इसी तरह पं. जगन्नाथ ने सुखनिधान, नेमिनरेन्द्रस्तोत्र जैसे काव्यों की रचना करके संस्कृत की लोकप्रियता में वृद्धि की।
व्याकरण
व्याकरणग्रन्थों की रचना के क्षेत्र में भी जैनाचार्यों का उल्लेखनीय योगदान है। प्राचार्य पूज्यपाद प्रथम जैन वैय्याकरण हैं जिन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण की रचना की थी। जैनेन्द्रव्याकरण वहत व्याकरण है जिस पर विभिन्न टीकायें उपलब्ध हैं। इनमें अभयनन्दि कृत महावृत्ति, प्रभाचन्द्र कृत शब्दाम्भोजभास्कर, प्राचार्य श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया एवं पं. गुणनन्दि की प्रक्रिया उल्लेखनीय हैं।
दूसरा जैन व्याकरण शाकटायन का शब्दानुशासन अथवा शाकटायनव्याकरण है । इस पर स्वयं सत्रकार ने विस्तृत टीका अमोघवत्ति निबद्ध की थी। इस व्याकरण पर और भी टीकायें उपलब्ध होती हैं। इनमें यक्षवर्मा की चिंतामणि टीका, अजितसेनाचार्य की मणिप्रकाशिका, प्राचार्य अभयचन्द्र की प्रक्रियासंग्रह, भावसेन की शाकटायनटीका एवं दयापाल मुनि की रूपसिद्धि के नाम उल्लेखनीय हैं।'
आचार्य हेमचन्द्र अपने समय के लोकप्रिय वैय्याकरण थे। इनका "सिद्धहेमशब्दानुशासन" अत्यधिक लोकप्रिय व्याकरण है। इस व्याकरण पर स्वयं ग्रन्थकार ने तो लघुवत्ति एवं बहदवत्ति लिखी ही किन्तु अन्य २८ टीकायें और उपलब्ध होती हैं। १. देखिये राजस्थान के जैन सन्तः व्यक्तित्व एवं कृतित्व, २. अनेकान्त वर्ष १२-किरण-९, पृष्ठ २९६ ३. जैन ग्रन्थ भण्डार्स इन राजस्थान-पृष्ठ १६९
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संस्कृत साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान | २७३
देवेन्द्रसूरि के शिष्य गुणरत्नसूरि ने क्रियारत्नसमुच्चय व्याकरण की संवत् १४६६ में रचना समाप्त की थी। हेमचन्द्र के शब्दानुशासन के आधार पर हंसुकला ने कविकल्पद्रुम की रचना करके व्याकरणरचना में एक कड़ी और जोड़ दी।
महाकवि गुणाढय के समकालीन सर्ववर्मा ने महाराजा सातवाहन को पढ़ाने के लिए कातन्त्र रूपमाला की रचना की थी । यह अत्यधिक सुबोध एवं संक्षिप्त व्याकरण है तथा इस पर भी १४ टीकायें प्राप्त होती हैं। .
जैनाचार्यों ने स्वयं ने व्याकरणग्रन्थों के निर्माण के साथ-साथ अन्य व्याकरणों पर भी टीकायें निबद्ध की। इनमें सारस्वतव्याकरण पर बीस से भी अधिक टीकायें उपलब्ध होती हैं । नाटक
नाटक ग्रन्थों के लिखने में जैनाचार्य किसी से पीछे नहीं रहे। हस्तिमल्ल सबसे प्रमुख जैन नाट्यकार थे जिन्होंने विक्रान्तकौरव, सुलोचना नाटक, सुभद्राहरण, अंजनापवनंजय, मैथिलीकल्याण जैसे नाटक ग्रन्थ लिख कर इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। हस्तिमल्ल उभयभाषा-कविचक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित थे तथा वे १३वीं शताब्दी के नाटककार थे।
हेमचन्द सूरि के शिष्य रामचन्द्र सूरि प्रसिद्ध नाट्यकार थे, जिन्होंने १० नाटक ग्रन्थों की रचना करके एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। रामचन्द्र सूरि के नाटकों के नाम निम्न प्रकार हैं
१. नलविलास नाटक २. कौमुदीमित्रानन्द (प्रकरण) ३. मल्लिका मकरन्द (प्रकरण) ४. निर्भय भीम (कायोग) ५. पाटवाभ्युदय (नाटक) ६. रघुविलास (नाटक) ७. रोहिणी मृगांक (प्रकरण) ८. वनमाला (नाटक) ९. सत्य हरिश्चन्द्र (नाटक) १०. राघवाभ्युदय (नाटक)
सम्वत् १५९१ में वादिचन्द्र सूरि ने ज्ञानसूर्योदय नाटक की रचना समाप्त की थी। जैनाचार्यों ने स्वयं ने तो नाटक ग्रन्थों की रचना की किन्तु अन्य नाट्यकारों के नाटकों की पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रखने में भी भारी योगदान दिया। महाकवि कालिदास, शूद्रक एवं विशाखदत्त के नाटकों की पाण्डुलिपियाँ राजस्थान के जैन ग्रन्थगारों में उपलब्ध होती हैं। पुराण साहित्य
. जैनाचार्यों एवं भट्टारकों ने समय-समय पर पुराणग्रन्थों के लिखने में अपना भारी योगदान दिया। इन पुराणों के कारण संस्कृत के पठन-पाठन को अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई तथा इन पुराणों के आधार पर ही आगे कथासाहित्य का विकास हुआ। महाकाव्यों एवं चरितकाव्यों के प्रमुख स्रोत ये पूराण ही हैं। जैन पुराणों में तीर्थंकरों के जीवन परिचय के अतिरिक्त नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, चक्रवर्ती जैसे शलाकापुरुषों के जीवन का वर्णन रहता है।
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चतुर्थ खण्ड / २७४
प्राचार्य रविषेण सबसे प्रथम पुराणकार हैं जिन्होंने ६७८ ए. डी. में पद्मपुराण की रचना प्रस्तुत की थी। अठारह हजार श्लोक प्रमाण पद्मपुराण में राम का जीवनचरित्र निबद्ध है जो ६३ शलाका पुरुषों में से एक हैं । ९वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैन आचार्य जिनसेन एवं गुणभद्र हुये जिन्होंने संस्कृत भाषा में प्रथम महापुराण की रचना की थी। महापुराण के दो भाग हैं. एक आदिपुराण एवं दूसरा उत्तरपुराण । प्रादिपुराण प्राचार्य जिनसेन की कृति हैं और उत्तरपुराण आचार्य गुणभद्र की रचना है । गुणभद्र आचार्य जिनसेन के ही शिष्य थे। महापुराण में २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण एवं ९ बलभद्रों के जीवन का विस्तृत वर्णन दिया गया है।
इसी शताब्दी में प्राचार्य जिनसेन द्वितीय हये जिन्होंने १२ हजार श्लोक प्रमाण हरिवंशपुराण की रचना की। हरिवंशपुराण में २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के साथ ही श्रीकृष्ण, बलराम एवं पाण्डवों की कथा वर्णित है। यह एक प्रकार से जैन महाभारत है। १२वीं शताब्दी में महाकवि असंग ने शान्तिनाथ पुराण की स्वतंत्र रूप से रचना की। १५वीं शताब्दी में होने वाले भट्रारक सकलकीर्ति ने आदिनाथ पुराण एवं उत्तरपुराण जैसे पुराणों की रचना करके पुराणसाहित्य के विकास में और अधिक योग दिया। भट्रारक सकलकीर्ति के शिष्य महाकवि ब्रह्म जिनदास ने हरिवंशपुराण एवं पद्मपुराण की रचना करके पुराणों की लोकप्रियता में वृद्धि की । ऐसा लगता है कि उस समय पुराणों का पठन-पाठन खूब जोरों पर था। इसलिये प्रत्येक विद्वान् संस्कृत में पुराण लिखने की ओर झुका हुआ था।
सन् १४९८ में ब्रह्म कामराज ने जयकुमारपुराण की रचना समाप्त की थी। इस पुराण में १३ सर्ग हैं। सन् ५१८ में नेमिदत्त ने नेमिनाथ पुराण की रचना की थी। इस पुराण में १६ अधिकार हैं तथा भगवान नेमिनाथ का जीवनचरित निबद्ध है।
१६वीं शताब्दी में भट्टारक शुभचन्द्र हुए जो संस्कृत के बड़े भारी विद्वान् थे। उन्होंने पद्मनारायण एवं पाण्डवपुराण नामक दो पुराणों की रचना की थी । १७वीं शताब्दी में भट्टारक धर्मकीति हए जिन्होंने पद्मपुराण की रचना सन १६१२ में समाप्त की। इसमें २४ अधिकार हैं। भट्टारक वादिभूषण ने पाण्डवपुराण एवं पद्मपुराण की रचना की थी। इसी तरह भट्टारक श्रीभूषण, जो विद्याभूषण के शिष्य थे, पाण्डवपुराण एव शान्तिनाथ पुराण की रचना करने में सफल हुए । इसी १७वीं शताब्दी में होने वाले भट्टारक चन्द्रकीति ने आदिनाथपुराण की रचना की थी। राजस्थान के बैराठ नगर में भट्टारक सोमसेन ने पद्मपुराण की रचना की, इसे रामपुराण भी कहा जाता है। इसमें २४ अधिकार हैं जिनमें राम का जीवनचरित निबद्ध है । भट्टारक विद्याभूषण के शिष्य भट्टारक चन्द्रकीति ने तीन पुराणों की रचना की जिनके नाम हैं-ग्रादिपुराण, पद्मपुराण एवं पार्श्वपुराण । सन् १९५६ (?) में अरुणमणि ने जिहानाबाद में अजितपुराण की रचना की थी। संस्कृतभाषा में पुराण लिखने वालों को सम्भवतः ब्रह्म कृष्णदास अन्तिम विद्वान् थे जिन्होंने सन् १६१७ व १६२४ में विमलपुराण एवं मुनिसुव्रतपुराण की रचना की थी।
जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत में अध्यात्म साहित्य भी खूब लिखा गया । इस प्रकार के साहित्य में आत्मचिन्तन, मनन, ध्यान, अनुप्रेक्षा प्रादि विषयों पर विवेचन रहता है। जगत् की वास्तविकता को बतलाने वाला अध्यात्मसाहित्य जैन समाज में बहुत ही लोकप्रिय साहित्य माना
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संस्कृत साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान | २७५
जाता है। प्राचार्य गुणभद्र प्रथम आचार्य थे जिन्होंने प्रात्मानुशासन जैसे ग्रन्थ की रचना करके आध्यात्मिकजीवन व्यतीत करने पर जोर दिया। इसमें २७० काव्य हैं जिनमें आत्मा, प्रात्मा की क्रियाएँ, एवं शरीर आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रात्मानुशासन जैन साहित्य का बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ है जिसकी कितनी ही प्रतियाँ राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध होती हैं।
अमितिगति का योगसार अध्यात्म विषय की उत्तम कृति है। इसमें ९ अधिकार हैं। इसका दूसरा नाम गीतवीतराग भी है। योगसार सरल भाषा में निबद्ध उच्चस्तरीय कृति है। इन्हीं का सामायिक पाठ आत्मचिंतन के लिये सुन्दर कृति है।
१०वीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य अमृतचन्द्र अध्यात्म के पारंगत विद्वान् एवं साधक थे। इन्होंने प्राचार्य कुन्द-कुन्द के समयसार पर आत्मख्याति टीका एवं कलश टीका लिखी। इन दोनों का ही समस्त जैन समाज में ऊंचा स्थान है। इसकी सैकड़ों पाण्डलिपियाँ उपलब्ध होती हैं।
तपागच्छ के प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरि द्वारा निबद्ध अध्यात्मकल्पद्रुम अध्यात्मविषयक अच्छी कृति है । प्रस्तुत ग्रन्थ १९ अध्यायों में विभक्त है। इसी गच्छ में होने वाले यशोविजयसूरि ने अध्यात्मसार ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें ९४८ पद्य हैं जो सात अध्यायों में विभक्त हैं।
महापंडित प्राशाधर के अध्यात्मरहस्य की उपलब्धि कुछ ही वर्षों पूर्व अजमेर के भट्टारकीय शास्त्रभण्डार से हुई थी। १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पं० राजमल्ल ने अध्यात्मकल्पद्रम की रचना समाप्त की थी। इसी तरह सोमदेव की अध्यात्मतंरगिणी एवं उपाध्याय यशोविजय की अध्यात्म उपनिषद अध्यात्मशास्त्र की अच्छी रचना मानी जाती है।
जैनाचार्यों में उक्त विषयों के अतिरिक्त कथासाहित्य, सुभाषित एवं नीतिशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, छन्दशास्त्र, कोष एवं पूजा साहित्य में सैकड़ों रचनायें निबद्ध करके संस्कृतसाहित्य के विकास में जो योग दिया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित रहेगा।
-जयपुर
धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग
रमेश मुनि शास्त्री [उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी के शिष्य]
जैन साधना बहु आयामी है, उसकी गति वीतरागता की ओर है। भौतिक सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का जीवन में कोई मूल्य-महत्त्व यहाँ स्वीकार नहीं किया गया। जो यह मानता है कि मैं सम्पन्न-विपन्न हूँ, साक्षर-निरक्षर हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूँ, सुखी-दुःखी हूँ. राजारंक हूँ, वह जैन धर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है, उसे अपने अस्तित्व की यथार्थता का परिबोध नहीं है; वह मोहासक्त है, मिथ्यात्व में जीता है । वह व्यामोह की महावारुणी पिये हुए है। उसे जब गुरु-प्रसाद से अपने अस्तित्व का अपने जीवन के मूल्य का परिज्ञान होता है और संसार की असारता का दर्शन खुली आँखों से करता है तो वह इन सभी से विरक्त होकर अन्तर्मुख हो जाता है । तब उसे समूचा बाहरी वैभव छलावा लगने लगता है, बाह्य सौन्दर्य में उसे विरूपता दिखाई देने लगती है। वह सर्व ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है । तब वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। भेदविज्ञान उस में जाग उठता है और वह स्वयं अपने लिए दीपक बन जाता है। वह अपने में से कर्तृत्व-भाव को समाप्त कर देता हैं और अपनी प्रान्तरिक क्षमताओं की अनुद्घाटित परतों को उद्घाटित करता है।
यह ध्र व सत्य है कि साधना अध्यात्मक्षेत्र की चरम और परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करने का एक महामन्त्र है। उसका क्षेत्र-विस्तार अनन्त आकाश की भांति असीम है। अध्यात्म-साधना के अगाध-अपार महासागर में जीवन भर अवगाहन करने पर भी अन्ततः लगता है कि अभी तो विराट के एक बिन्दु का भी संस्पर्श नहीं हया है। निष्कर्ष यह है कि जैन साधना की असीमता को ससीम शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता ! तथापि उसका प्रमुख उद्देश्य यही है कि अध्यात्म-साधना का अभिनव-अभियान विनाश की अोर नहीं, विकास की ओर है, पतन की ओर नहीं, उत्थान की ओर है, अवरोहण की ओर नहीं, प्रारोहण की ओर है जो साधना-मानव को अन्तर्दर्शन की सप्राण-प्रेरणा नहीं देती या अन्तर्दर्शन नहीं कराती, वह साधना नहीं, अपितु विराधना है।
"आवश्यक" जैन साधना का प्राणतत्त्व है। वह जीवन विशुद्धि और दोष परिमार्जन का ज्वलन्त-जीवन्त महाभाष्य है। आत्मा को निरखने एवं परखने का एक सर्वथा सफल साधन हैं । आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप अध्यात्मज्योति का विकास पावश्यक क्रिया के बिना कथमपि नहीं हो सकता । अत: जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वही अावश्यक अध्यात्मसाधनारूप है।
आवश्यक परिभाषा
जो अवश्य किया जाए, वह प्रावश्यक है।' श्रमण और श्रावक दोनों ही दिन मौर रात्रि
१. अवश्यकरणाद् आवश्यकम् ।
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २७७
के अन्त में सामायिक आदि साधना करते हैं । अतः वह साधना आवश्यकपदवाच्य है । प्राकृत भाषा में आधार पद वाचक "आपाश्रय" शब्द 'आवस्सय' कहलाता है। जो सद्गुणों की प्राधारभूमि हो, वह श्रावस्तय-प्रापाश्रय है । आवश्यक आध्यात्मिक समता, विनम्रता, आत्मनिरीक्षण आदि विविध गुणों का प्राधार है। इसलिए वह 'ग्रापाश्रय' भी कहलाता है। जो म्रात्मा को दुर्गुणों से हटाकर गुणों के वश्य-प्राधीन करे वह आवश्यक है । आ + वश्य= आवश्यक । गुणों से शून्य म्रात्मा को जो सद्गुणों से सर्वतः वासित करे, वह प्रावश्यक कहलाता है। * आवस्य का एक संस्कृत रूपान्तर आवासक भी होता है। उसका अर्थ हैं अनुरंजन करने वाला जो आत्मा का ज्ञान, दर्शन आदि गुणों से धनुरंजन करे, वह धावासक है। इस सन्दर्भ में मेरा विनम्र मन्तव्य है कि जो साधक विक्षेप-विकल्प, वैभव-विलास, विषय-कषाय, ललक -लालसा, ममता तवता आदि के वश में न हो व उनसे अभिभूत न हो, वह अवश कहलाता है, उस अवश का जो आचरण है, वह ग्रावश्यक है ।
आवश्यक के छह प्रकार हैं
१. सामायिक - समता प्रधान साधना ।
२. चतुर्विंशतिस्तव - तीर्थंकर देव के गुणों का उत्कीर्तन ।
३. बन्दन – सद्गुरुयों को श्रद्धापूर्वक नमस्कार ।
४. प्रतिक्रमण - दोषों की आलोचना |
५. कायोत्सर्ग शरीर के ममत्व का त्याग ।
६. प्रत्याख्यान
-
आहार आदि की प्रासक्ति का त्याग ।
साधक के लिए सर्वप्रथम समभाव का पालन करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । समता को अपनाये बिना सद्गुणों का विकास होना कथमपि संभव नहीं है। जब तक विषम भावों की ज्वालाएँ साधक के अन्तर्मानस में धधकती रहेंगी तब तक वह तीर्थंकर महापुरुषों के सद्गुणों का समुत्कीर्तन नहीं कर सकता । अतएव घडावश्यक में प्रथम आवश्यक सामायिक है। सामायिक का आराधक साधक ही महापुरुषों के सद्गुणों को सम्माननीय और ग्रहणीय मानकर उन गुणों को अपने जीवन में उतार सकता है । अतः सामायिक के बाद चतुर्विंशतिस्तव रखा गया है। सद्गुणों का महत्व हृदयस्थ कर लेने के बाद ही साधक गुणी के सम्मुख सिर झुकाता है, भक्तिविभोर हो कर वन्दन करता है। वन्दन करनेवाले साधक का अन्तर्मन विनम्र होता है, जो विनम्र है, वह सरलमना साधक ही कृतदोषों की मालोचना करता है। प्रतएव वन्दन के बाद ही प्रतिक्रमण आवश्यक का क्रम आया है । दोषों का स्मरण कर उनसे मुक्ति पाने हेतु तन मन की स्थिरता अत्यावश्यक है। कायोत्सर्ग आवश्यक साधना में तन और मन
२. आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशेल्या प्रावस्सयं ।
३. गुणानां वश्यमात्मानं करोति इति ।
४ गुणशून्यमात्मानं गुणैरावास्यतीति भावासकम् ।
५. गुणै: प्रावस धनुरञ्जकम्
सन्दर्भ १ से ५ तक की आधारभूमि विशेषावश्यक भाव्य गाथा-८७७ मोर ८७८ टीकाकार प्राचार्य कोटि
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चतुर्थ खण्ड | २७८
की स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है, तन और मन की एकाग्रता की जाती है, अतः प्रतिक्रमण के पश्चात कायोत्सर्ग का क्रम है। जब तन और मन में स्थिरता होती है. तर्भ प्रत्याख्यान किया जा सकता है। इस प्रकार आवश्यक की साधना के क्रम को सुन्दर रूप से रखा गया है । यह जो क्रम हैं, वह कार्यकारण भाव की शृङ्खला पर अवस्थित है और पूर्ण रूप से वैज्ञानिक भी हैं।
आवश्यक की साधना अपने आप में गम्भीर और विस्तृत है। उसके समग्न अंगों का समायोजन एक निबन्ध में करना सरल नहीं है। फिर भी हम यहाँ समासत: प्रयास करेंगे कि कायोत्सर्ग आवश्यक की साधना का समग्र स्वरूप उजागर हो सके और अध्येता प्रस्तुत विषय को स्पष्ट रूप से समझ सके। कायोत्सर्ग : साधना
अध्यात्मसाधना का सर्वप्रथम चरण है-कायोत्सर्ग। शरीर को स्थिर करना, उसकी चंचलता को समाप्त करना। काया की चंचलता समाप्त हो जाने की स्थिति में कायोत्सर्ग होता है। शरीर स्थिर होता है तब चेतना अपने घर में लौट आती है। जब चेतना अन्तर्जगत् को छोड़कर बहिर्जगत् में जाती है तब चंचलता पैदा होती है। जब शरीर चंचल हुआ, तब इन्द्रियचेतना बाहर जाती है, मन की चेतना बाहर जाती है। जैसे ही शरीर निश्चल प्रशान्त और सुस्थिर हमा, इन्द्रियचेतना और मानसिक चेतना लौट पाती है। प्रतिक्रमण आवश्यक की साधना प्रारम्भ हो जाती है। चेतना का बहिर्जगत् में जाना अतिक्रमण है। और चेतना का अन्तर्जगत् अर्थात् अपने भीतर पा जाना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण की क्रिया अर्थात् साधना अपने आप प्रारम्भ होती है। जब हम प्रतिक्रिया की स्थिति में पहुंच जाते हैं तभी हमारे अगले चरण कायोत्सर्ग की साधना के लिए अपने पाप आगे बढ़ जाते हैं । जब कायोत्सर्ग सघन रूप में पहुँच जाता है, तब कायगुप्ति सघन बन जाती है, और जब कायगुप्ति सघन होती है तब काया का संयम विशेष रूप से गहरा होता है, काया का सर्वथा रूप से संवर होता है। इस स्थिति में काया बाहर से परमाणुओं का लेना बन्द कर देती है। निष्कर्ष यह है कि परमाणुओं का आना रुक जाता है, बन्द हो जाता है। अन्तर्जगत का बहिर्जगत् के साथ जो सम्पर्क सूत्र था वह टूट जाता है। उस विशिष्ट भूमिका में कायोत्सर्ग की फलश्रुति भी हमारे सामने मूर्तिमान् हो जायेगी।
__ कायोत्सर्ग वस्तुतः एक प्रकार का प्रायश्चित्त है । वह पाप को विशोधन करता है। जिस प्रक्रिया से पाप की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है। कायोत्सर्ग की साधना में गम्भीर चिन्तन कर उस पाप को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है । संयमप्रधान जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिये, प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मा को माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से रहित बनाने के लिए पाप कर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग का अपर नाम "व्रणचिकित्सा" है। पंच महाव्रत आदि रूप धर्म की आराधना करते समय
६. तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणटाए ठामि काउस्सग्गं ।
-आवश्यकसूत्र ७. अनुयोगद्वारसूत्र
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साधना की सप्राणता कायोत्सर्ग / २७९
प्रमादवश उसमें यदि कहीं अतिचार लग जाते हैं, भूल हो जाती हैं, वे संयम रूप शरीर के घाव हैं, जख्म हैं। कायोत्सर्ग उन पावों के लिए मरहम का काम देता है। यह वह रामबाण प्रोषध है, जो अतिचार रूपी घावों को पूर देती है और संयम शरीर को प्रक्षत बनाकर संपुष्ट करती है । जो उज्ज्वल - वस्त्र बहुत ही मलिन हो जाता है वह किस से साफ किया जाता है ? उसे किससे धोया जाता है ? पानी से ही धोया जाता है, साबुन लगाकर साफ किया जाता है। एक बार नहीं, प्रत्युत अनेक बार मल मल कर धोया जाता है। ठीक इसी प्रकार संयमरूपी वस्त्र को जब प्रतिचारों का मल लग जाता है, भूलों के दाग लग जाते हैं तो अध्यात्म-साधक उन दागों को प्रतिक्रमण रूप जल द्वारा स्वच्छ करता है। फिर भी जो दाग नहीं मिटते, कुछ
शुद्धि का अंश रह जाता है उन्हें कायोत्सर्ग के उष्ण जल से दुबारा धोया जाता है, उन्हें निर्मल बनाया जाता है । निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग ऐसा जल है जो हमारे जीवन के मल के हर कण को गलाकर साफ करता है और संयम-जीवन को सम्यक् प्रकार से परम शुद्ध बना देता है। कायोत्सर्ग वास्तव में एक अपूर्व शक्ति है, जिसके द्वारा साधक धारमा की शुद्धि करता है, गुणों की वृद्धि करता है। साधक निष्पाप हो जाता है। इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य तथ्य है कि प्रायश्चित्त के अनेक रूप है, जैसा दोष होता है उसी के अनुपात में या उसी प्रकार का प्रायश्चित्त उस दोष की शुद्धि करता है । कायोत्सर्ग उन सब पाप कर्मों का प्रायश्चित्त हूँ, कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा वे सब पापकर्म घुलघुल कर साफ हो जाते हैं। फलतः, श्रात्मा निर्मल, निष्पाप और विशुद्ध हो जाता है ।
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कल्पना के लोक में जरा
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भगवान् महावीर की स्पष्ट भाषा में पापकर्म भार के सदृश है उड़ान भरिये मंजिल दूर है महीना जेष्ठ है। मार्ग भी ऊँचा नीचा है और मस्तक पर मन भर पत्थर का बोझ गर्दन की हर नस को तोड़ रहा है, यह एक विकट स्थिति है । इस विकट परिस्थिति में भार उतार देने पर उस व्यक्ति को अपार आनन्द का अनुभव होता है। यही दशा पाप कर्मों के भार की भी है। कायोत्सर्ग के द्वारा इस भार को उतार दिया जाता है, उसे फेंक दिया जाता है । कायोत्सर्ग यह एक ऐसी विश्रामभूमि है, जहाँ पापों का भार हल्का हो जाता है ।" सब ओर प्रशस्त धर्म ध्यान का सुनहरा - वातावरण बन जाता है । फलतः श्रात्मा प्रति स्वस्थ, निराकुल औौर धानन्दमय हो जाता है ।
कायोत्सर्ग एक यौगिक शब्द है। काय और उत्सगं इन दो शब्दों के योग से 'कायोत्सर्ग' शब्द की निष्पत्ति हुई है । तात्पर्य है - प्रतिक्रमण के पश्चात् साधक प्रमुक समय तक अपने शरीर की ममता का त्याग कर प्रात्मस्वरूप में लीन होता है वह उस समय न संसार के पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, सब ओर से सिमट कर मात्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक विशिष्ट साधना है। बहिर्मुखी स्थिति से साधक जब अन्तर्मुखी स्थिति में पहुँच जाता है तो वह राग और द्वेष की गन्दगी से बहुत ऊपर उठ जाता है । अनासक्त और अनाकुल स्थिति का रसास्वादन करता है । शरीर तक की मोह-माया का परित्याग कर देता है । इस स्थिति में कोई भी उपसर्ग श्रा जाए, विकट संकट आ जाए, वह उसे समभाव से सहन करता है । कायोत्सर्ग में जब साधक अवस्थित होता है तब सर्दी हो,
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८. काउसम्मेणं तीयपड़प्पन्नं पायच्छितं विसोहेइ विसुद्धपायच्छिते य जीवे निश्वयहियए हरियभरुव भारवहे पसत्थज्भाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ । —उत्तराध्ययन सूत्र २९ । १२ ।
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
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चतुर्थ खण्ड / २८० गर्मी हो, मच्छर हों, दंश हो, कैसे भी संकट हों, सब पीड़ाओं और व्यथानों का समभाव से सहन करना ही काय का त्याग है। कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा शरीर की ममता कम की जाती है। कायोत्सर्ग का समुद्देश्य है- शरीर की ममता का त्याग करना। यह जीवन का मोह, यह शरीर की ममता साधना के लिए सब से बड़ी बाधा है । जीवन की आशा का पाश मनुष्य को अपने में उलझाए हुए है । पद-पद पर जीवन का भय भी साधना-मार्ग से पराङ मुख होने की स्थिति खड़ी कर देता है। यही कारण है कि इन सब बन्धनों से मुक्ति पाने का और सर्व दुःखों का अन्त करने का एकमात्र अमोघ उपाय "कायोत्सर्ग" है।' कायोत्सर्ग की साधना का साधक यह चिन्तन करता है कि यह शरीर पृथक् है और मैं पृथक हूँ। मैं अविनाशी तत्त्व हूँ, यह शरीर क्षणभंगुर है । कोई परवस्तु मेरी नहीं है । शरीरादि परवस्तुएँ जड़ हैं और मैं चेत । परवस्तु के साथ प्रात्मतत्त्व का संयोग और वियोग ही दुःख है। इन संयोगों के कारण ही आत्मा संसार-कानन में परिभ्रमण करता है । अतः साधक सोचता है कि मैं अकेला हूँ, एक हूँ इस संसार में मेरा कोई नहीं है। और मैं भी किसी का नहीं हैं।" ज्ञानदर्शन मेरा स्वरूप है। माता-पिता, पुत्र ये सभी मुझसे पृथक हैं। यहाँ तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, वह भी आत्मा से भिन्न है ।२ प्रात्मा और अनात्मा का भेद-विज्ञान होना, कायोत्सर्ग साधना का संलक्ष्य है। कायोत्सर्ग की साधना में न बोलना है, न हिलना है । साधक एक स्थान पर पत्थर की चट्टान के सदृश निश्चल एवं निःस्पन्द दण्डायमान खड़े रहकर अपलक दृष्टि से शरीर का ममत्व त्याग कर प्रात्मभाव में रमण करता है, कायोत्सर्ग की स्थिति में साधक को यदि कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाये या कोई द्वेषपूर्वक बसूले से उसके शरीर को छीले, चाहे उसका जीवन रहे या तत्क्षण मृत्यु प्रा जाए, सब स्थितियों में समचेतना रखता है । वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। जो कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यञ्च संबंधी सभी प्रकार के उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है, उसका कायोत्सर्ग ही वस्तुतः शुद्ध होता है।'४ जिस प्रकार कायोत्सर्ग में निःस्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने लगते हैं, दुःखने लगते हैं । प्रत्येक अंग में एक प्रकार की पीड़ा होती है । उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा आठों ही कर्म-समूह को पीड़ित करते हैं । उन्हें विनष्ट कर डालते हैं ।' ५ कायोत्सर्ग में सब दुःखों और क्लेशों की जड़ ममता का शरीर से सम्बन्ध तोड देने के लिए साधक को यह सुदढ़
९. राजवार्तिक ९।१०।२६ १०. अमितगति द्वात्रिंशिका, श्लोक-२८ ११. प्राचारांग सूत्र १-८-६ १२. सूत्रकृतांग सूत्र १-२-२३ । १३. वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो ।
देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स ।।
-आवश्यक नियुक्ति, गाथा १५४८ प्राचार्य भद्रबाहु १४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५४९, प्राचार्य भद्रबाहु १५. काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स, भज्जति अंगमंगाई। इह भिदंति सुविहिया अट्टविहं- कम्मसंघायं ।।
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५५१ ।।
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श्रीमती थावर बाई चण्डालिया को संथारा का स्वरूप एवं Mp महत्व समझाते हुए महासतीजी. खाचरौद सन्१९८६
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भी अर्चना जी को साज देने का वचन देते हुए.
भी थावर बाई
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८१
संकल्प कर लेना चाहिए कि शरीर और है, प्रात्मा और है। प्राचार्य भद्रबाह ने कायोत्सर्ग के साधकों के लिए जिन तथ्यों का उल्लेख किया है, उनका एकमात्र उद्देश्य साधक में क्षमता का दृढ़ बल पैदा करना है, जिससे साधक दृढता के साथ कायोत्सर्ग में लीन हो जाता है। पर उसका यह अर्थ नहीं है कि साधक मिथ्याग्रह के चक्कर में पड़कर अज्ञानतावश अपना जीवन ही होम दे । कुछ साधकों की मन:स्थिति दुर्बल भी होती है। भगवान् महावीर ने उनके लिए कुछ प्रागारों को प्रोर संकेत किया है। जैसे-खांसी, छींक, डकार, मूर्छा आदि विविध शारीरिक व्याधियों का भी प्रागार रक्खा जाता है। क्योंकि शरीर शरीर है और वह व्याधि का मन्दिर है। कायोत्सर्ग की साधना में समाधि की अभिवृद्धि हो, वह कायोत्सर्ग ही लाभप्रद है, हितावह है। किन्तु जिस कार्य को करने से असमाधि की वृद्धि होती है, आर्तध्यान और रौद्रध्यान में परिणति होती है वह कायोत्सर्ग के नाम पर किया गया कायक्लेश मात्र है।
कायोत्सर्ग का अभिप्राय केवल इतना ही नहीं है कि शारीरिक चंचलता का निरोध कर वक्ष के समान, पर्वत के समान या सूखे काष्ठ के समान साधक निश्चल और निस्पन्द स्थिति में खड़ा हो जाए। शरीर से सम्बन्धित निष्पन्दता तो एकेन्द्रिय आदि जीवों में भी होती है । पर्वत पर कितना भी प्रहार करो, वह कब चंचल होता है ? वह किसी के प्रति भी रोष-पाक्रोश नहीं करता है। उसमें जो स्थैर्य है, वह अविकासशील-विवेकविकल प्राणी का स्थैर्य है। किन्तु कायोत्सर्ग में होने वाला स्थैर्य विवेकपूर्वक होता है।
तप के कुल बारह प्रकार हैं। १६व्युत्सर्ग तप का बारहवां भेद और प्राभ्यन्तर-तप का छठा प्रकार है । प्रस्तुत तप को तीन प्रकार से स्पष्ट किया गया है-१६
१. अहंकार और ममकार रूप संकल्पों का त्याग करना । २. कायोत्सर्ग आदि करना । ३. व्युत्सर्जन करना भी व्युत्सर्ग है, इसे त्याग भी कहा गया है ।
शरीर व उसके आहार में प्रवृत्ति को हटाकर ध्येय वस्तु में चित्त की एकाग्रता करना कर्मबन्ध के हेतुभूत बाह्य एवं प्राभ्यन्तर दोषों का भलीभाँति परित्याग करना व्युत्सर्ग है।२० व्युत्सर्ग शब्द "वि" और "उत्" उपसर्ग के संयोग से बना है। यहाँ "वि" अर्थ होता है
१६. आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५५२ १७. आवश्यकसूत्र १८. (क) भगवतीसूत्र-२५।६
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन-३० (ग) मूलाचार-३४५ (घ) कातिकेयानुप्रेक्षा-१०२
(ङ) सर्वार्थ सिद्धि-९।१९ - (च) चारित्रसार-१३३ १९. सर्वार्थसिद्धि ९।२०, ९।२२, ९।२६ २०. (क) अनगारधर्मामृत ७।९४
(ख) धवला ८।३, ४११८५
धम्मो दीवो
नदार असुख में
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चतुर्थ खण्ड / २८२
विविध | उत् का अर्थ है— उत्कृष्ट । और सर्ग का अर्थ है - त्याग । इन सब के आधार पर व्युत्सर्ग का शब्दार्थ होगा - विविध प्रकार का उत्कृष्ट त्याग | स्त्री-पुरुष श्रादि के सम्बन्धों को कर्मबन्ध का बाह्य कारण माना गया है। अहंकार व ममत्व आदि को कर्म बन्ध का अन्तरंग कारण माना जाता है, जिन्हें हर साधक को त्याग देना चाहिए। अतएव इन बाह्य और ग्राभ्यन्तर दोषों का उत्तम प्रकार व भलीभाँति त्याग करना "व्युत्सगं" कहा जायेगा ।
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व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं २१ -- द्रव्य - कायोत्सर्ग, भाव- कायोत्सर्ग । इन में द्रव्य - कायोत्सर्ग में सर्वप्रथम शरीर का निरोध किया जाता है । शारीरिक चंचलता और ममता का परित्याग किया जाता है । काय चेष्टा का निरुन्धन करना काय - कायोत्सर्ग है और यह द्रव्य कायोत्सर्ग हो जाने में ही साधना का प्राण नहीं है। साधना का प्राणभूत तस्य है— भाव भाव कायोत्सर्ग का अभिप्राय है प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान एवं शुक्ल-ध्यान में रमण करना । साधक भावकायोत्सर्ग की उच्च स्थिति में अपने मन में पवित्र विचारों का प्रवाह प्रवाहित करता है। वह आत्मा के मौलिक स्वरूप की घोर गमन करता है। जिससे उस साधक को किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता है । वह देह में रहकर भी देहातीत बन जाता है । निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि भावकायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान की महिमा है। यही भावकायोत्सर्ग ध्यानरूप है। द्रव्य कायोत्सर्ग तो भावकायोत्सर्ग के लिए भूमिका मात्र है । इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि द्रव्य के साथ जो भाव कायोत्सर्ग है, वह सभी प्रकार के दुःखों को विनष्ट करने वाला है । * * द्रव्यकायोत्सर्ग भावकायोत्सर्ग की ओर बढ़ने का एक सक्षम साधन है। द्रव्य स्थूल है। स्थूल से सूक्ष्मता की ओर बढ़ा जाता है द्रव्यकायोत्सर्ग में बाहरी वस्तुनों का त्याग किया जाता है इसके चार प्रकार हैं 3
१. शरीर व्युत्सर्ग- शारीरिक क्रियाओं में चपलता का त्याग करना । २. गण व्युत्सगं विशिष्ट साधना के लिए गण का त्याग करना ।
३. उपधि व्युत्सर्ग - वस्त्र पात्र आदि उपकरणों का त्याग करना । ४. भक्तपान व्युत्सर्ग-प्राहार पानी का त्याग करना ।
भाव व्युत्सगं ऐसी साधना पद्धति है जिसमें त्याग और विसर्जन की शक्ति का विशेष रूप से विकास होता है। फिर छोड़ने में कोई संकोच नहीं होता। चाहे इन्द्रियों के विषय छोड़ने पड़े, शरीर को छोड़ना पड़े, परिवार, धन, वैभव को छोड़ना पड़े उसमें छोड़ने की इतनी अधिक क्षमता बढ़ जाती है कि वह साधक जब चाहे तब उसे छोड़ सकता है । इस व्युत्सर्ग
२१. ( क ) भगवती सूत्र - २५।७।१४९
(ख) प्रोपपातिक सूत्र - २०
(ग) सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति । दव्वतो कायचेट्ठानिरोहो भावतो काउस्सग्गो भाणं ॥ आवश्यकचूणि, आचार्य जिनदास गणी महत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र २६।४२।।
२२. काउस्सगं तो कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं २३. भगवती सूत्र २५ ७ १५० १
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८३
चेतना का सुफल यह होता है कि इसके जागने पर साधक को स्पष्ट रीत्या अनुभव हो जाता है कि मैं चैतन्यमय हूँ। यही मेरा ध्र व, शाश्वत अस्तित्व है। चैतन्य के अतिरिक्त जितना भी जुड़ा हुआ है, वह सब विजातीय तत्त्व है। उनमें से कोई रहे या नहीं भी रहे इससे मुझे क्या ? सबको एक न एक दिन छोड़ना ही है। निष्कर्ष यह है कि भावव्युत्सर्ग चेतना से त्याग व वैराग्य की शक्ति प्रबल होती है। इसके तीन प्रकार हैं-२४
१. कषायव्युत्सर्ग--चेतना के अथाह महासागर में कषाय के कारण उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं, जिससे चैतन्योपयोग में विक्षोभ उत्पन्न होता रहता है जो जीव के शुद्धोपयोग में मलिनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है। कषाय शब्द कषैले रस का द्योतक है। कषायरसप्रधान भोजन किया जाए तो अन्न रुचि न्यून हो जाती है। वैसे ही कषाय के कारण जीव में मोक्षाभिलाषा न्यून हो जाती है। कषाय मन की मादकता है। जब कषाय रूपी रावण सद्बुद्धि रूपी सीता का अपहरण करता है तब विवेक रूपी राम सदबुद्धि रूपी सीता को मुक्त कराने के लिये कषाय रूपी रावण पर आक्रमण कर उसे विनष्ट कर देता है। कषाय व्युत्सर्ग में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों प्रकार के कषायों का परिहार किया जाता है।
२. संसारव्युत्सर्ग-इसमें संसार का परित्याग किया जाता है। वह चार प्रकार का है२५-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्यसंसार चार गाति रूप है । चार गति के नाम ये हैंनरक, तियंच, मनुष्य और देव । क्षेत्रसंसार अधः, उर्ध्व, और मध्य रूप है। कालसंसार एक समय से लेकर पुद्गल परावर्तन काल तक है। भाव संसार जीव के विषयासक्ति रूप भाव है, जो संसार-कानन में परिभ्रमण का मूल और मुख्य कारण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल संसार का त्याग नहीं किया जा सकता। केवल भावसंसार का त्याग किया जाता है । जो इन्द्रिय के विषय हैं, वे ही वस्तुत: संसार है ।२६ और उनमें आसक्त हा जीव संसार में भ्रमण करता है। भावसंसार ही वास्तविक संसार है। जहाँ कामनाओं का हृदय में वास है, वहीं संसार है । उन्हीं कामनाओं के कारण चतुर्विध गति रूप में संसार में जीव भ्रमण करता है । उस भावसंसार का त्याग करना ही संसार-व्युत्सर्ग है ।
३. कर्मव्युत्सर्ग-कर्म के मुख्य दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारण भाव को लक्ष्य में लेकर पुद्गल-परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म कहा जाता है और राग-द्वेष रूप प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा है। द्रव्यकर्म की मूल - प्रकृति पाठ हैं, उनके नाम ये हैं
२४. भगवती सूत्र २०७१५१॥ २५. चउन्विहे संसारे पण्णत्ते तंजहा-दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे।
स्थानांगसूत्र, स्थान-४, सूत्र २८५ । २६. जे गुणे से आवट्टे । -प्राचारांगसूत्र १०१।५ २७. (क) नाणस्सावरणिज्जं दसणावरणं तहा ।
वेयणिज्जं तहा मोहं प्राउकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माइं अद्वैव उ समासप्रो ।। -उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३३।२-३
धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / २८४
१. ज्ञानावरणीय
२. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय
४. मोहनीय ५. आयु
६. नाम ७. गोत्र
८. अन्तराय उक्त अष्ट प्रकार के कर्मों एवं कर्मबन्ध के कारणों को नष्ट करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह कर्मव्युत्सर्ग है ।२८
कायोत्सर्ग के जो विभिन्न प्रकार बताये गये हैं, वे शारीरिक दृष्टि और विचार की दृष्टि से हैं। पर प्रयोजन की अपेक्षा से कायोत्सर्ग दो रूप में किया जाता है। एक है-चेष्टाकायोत्सर्ग और दूसरा है-अभिभव-कायोत्सर्ग । २६
इन दोनों में जो चेष्टाकायोत्सर्ग है वह दोषशुद्धि के लिए किया जाता है। जब श्रमण शौच या भिक्षा आदि के लिए बाहर जाता है अथवा निद्रा आदि में जो प्रवृत्ति होती है, उसमें दोष लगने पर उसकी विशुद्धि के लिए किया जाता है। यह कायोत्सर्ग परिमित काल के लिए प्रायश्चितस्वरूप होता है। दूसरा अभिभवकायोत्सर्ग दो स्थितियों में किया जाता है-प्रथम दीर्घकाल तक प्रात्म-चिन्तन के लिए साधक प्रात्मशुद्धि हेतु मन को एकाग्र करने का प्रयास करता है। और दूसरा संकट पाने पर, जैसे राजा अग्निकाण्ड, दुर्भिक्ष, विप्लव आदि । यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए होता है। उपसर्ग-विशेष के आने पर जीवनपर्यन्त के लिए जो सागारी संथारा रूप कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें यह भावना भी रहती है कि यदि मैं इस उपसर्ग के कारण मर जाऊँ तो मेरा यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए है। यदि मैं जीवित बच जाऊँ तो उपसर्ग रहने तक कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का दूसरा रूप संस्तारक अर्थात् संथारे का है। यावज्जीवन संथारा करते समय जो काय का उत्सर्ग किया जाता है वह भवचरिम अर्थात् आमरण अनशन के रूप में होता है। प्रथम चेष्टा कायोत्सर्ग, उस अन्तिम अभिभव कायोत्सर्ग के लिए अभ्यास-स्वरूप होता है। नित्य प्रति कायोत्सर्ग-साधना का अभ्यास करते रहने से एक दिन वह आत्मबल उपलब्ध हो सकता है, जिसके फलस्वरूप अध्यात्मसाधक एक दिन मृत्यु के सन्मुख निर्भीक खड़ा हो जाता है। वह मर कर भी मरण पर विजय प्राप्त कर लेता है।
२७. (ख) स्थानांगसूत्र ८।३।५९६
(ग) भगवतीसूत्र शतक-६, उद्धेशा-९ (घ) प्रज्ञापनासूत्र २३३१
(ङ) प्रथमकर्मग्रन्थ, गाथा-३ २८. (क) स्थानांगसूत्र-४१८
(ख) समवायांगसूत्र, समवाय-५
(ग) तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन-८१ २९. जो उसग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायव्यो । भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिजुजणे बिइयो ।
-प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा-१४५२ ।।
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८५
अभिभव कायोत्सर्ग का काल जघन्य अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट एक वर्ष का है । बाहुबली ने एक वर्ष तक कायोत्सर्ग किया था।३० दोषविशुद्धि के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है उस कायोत्सर्ग के पांच प्रकार हैं, वे ये हैं-१. देवसिक कायोत्सर्ग २. रात्रिक कायोत्सर्ग ३. पाक्षिक कायोत्सर्ग । ४. चातुर्मासिक कायोत्सर्ग । ५. सांवत्सरिक कायोत्सर्ग।
षडावश्यक में जो कायोत्सर्ग का उल्लेख है उसमें चतुर्विशतिस्तव अर्थात चौबीस तीर्थंकरों का ध्यान किया जाता है । चतुर्विशतिस्तव के सात श्लोक और अट्ठाईस चरण हैं। एक उच्छ्वास में एक चरण का ध्यान किया जाता है। इस प्रकार एक चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में सम्पन्न हो जाता है। जैसे प्रथम सांस लेते समय मन में "लोगस्स उज्जोयगरे" कहा जायेगा। और सांस को छोड़ते समय "धम्मतित्थयरे जिणे।" द्वितीय सांस लेते समय "अरिहंते कित्तइस्सं" और सांस छोड़ते समय "चउवीसं पि केवली" कहा जायेगा। इस प्रकार चतुर्विशतिस्तव का कायोत्सर्ग होता है। कायोत्सर्ग का ध्येय परिमाण और कालमान इस प्रकार हैचतुर्विंशतिस्तव
श्लोक चरण
उच्छ्वास १. देवसिक-४
१०० २. रायिक-२
१२३ ३. पाक्षिक-१२
३००
३०० ४. चातुर्मासिक-१६
४००
४०० ५. सांवत्सरिक-२०
५०० दिगम्बर परम्परा के प्रभावक प्राचार्य श्री अमितगति ने विधान किया है कि देवसिक कायोत्सर्ग में एक सौ पाठ और रात्रि के कायोत्सर्ग में चउपन उच्छ्वासों का ध्यान करना चाहिए। सत्तावीस उच्छ्वासों में नमस्कार मन्त्र की नौ प्रावत्तियाँ हो जाती हैं। क्योंकि तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार महामन्त्र पर ध्यान किया जाता है । "नमो अरिहन्ताणं" "नमो सिद्धाणं" एक उच्छ्वास में "नमो पायरियाणं" "नमो उवज्झायाणं" दूसरे उच्छ्वास में "नमो लोए सव्वसाहूणं" का तीसरे उच्छ्वास में ध्यान किया जाता है।
२५
०.०
१००
१२५
३०. (क) तत्र चेष्टाकायोत्सर्गोऽष्टपंचविंशति सप्तविंशति त्रिशति अष्टोत्तर सहस्रोच्छवासान
यावद् भवति । अभिभव-कायोत्सर्गस्तु-मुहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलिरिव
भवति । -योगशास्त्र ३, पत्र २५० (ख) मूलाराधना २,११६ विजयोदया वृत्ति । ३१. योगशास्त्र-३॥ ३२. मूलाराधना-विजयोदया वृत्ति १, ११६ ३३. अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः कायोत्सर्गः प्रतिक्रमः ।
सान्ध्ये प्रभातिके वार्धमन्यस्तत् सप्तविंशतिः । सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमाः । सन्ति नमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ।।
- अमितगति श्रावकाचार ८, श्लोक-६८, ६९
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
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चतुर्थ खण्ड | २८६
प्राचार्य अपराजित का अभिमत है कि पंच महाव्रत सम्बन्धी अतिक्रमण होने पर एक सौ पाठ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय मानसिक चंचलता से अथवा उच्छ्वासों की संख्या की परिगणना में संदेह उत्पन्न हो जाय तो पाठ श्वासोच्छ्वासों का और अधिक कायोत्सर्ग करना चाहिए । ३४
कायोत्सर्ग की साधना में मानसिक एकाग्रता सर्वप्रथम आवश्यक है। कायोत्सर्ग अनेक प्रयोजनों से किया जाता है। इसका मुख्य और मूल प्रयोजन है-क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन करना । ३५ विघ्न, बाधा, अमंगल आदि के परिहार के लिए भी कायोत्सर्ग का विधान है। किसी शुभ कार्य के प्रारम्भ में यदि किसी भी प्रकार का उपसर्ग, अपशकुन हो जाए तो पाठ श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए और उस कायोत्सर्ग में महामंत्र "नमस्कार" का चिन्तन करना अपेक्षित है।
दूसरी बार पुनः बाधा उपस्थित हो जाय तो सोलह श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर दो बार नमस्कार महामन्त्र का चिन्तन करना चाहिए। यदि तीसरी बार भी विघ्न-बाधा उपस्थित हो जाय तो बत्तीस श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर चार बार नमस्कार महामन्त्र का चिन्तन करना चाहिए। यदि चौथी बार भी बाधा उपस्थित हो तो विघ्न अवश्य होगा ऐसी संभावना समझकर विहार यात्रा को और शुभ कार्य को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए।
हमारे शरीर में जितनी भी शक्तियां विद्यमान हैं उन समस्त शक्तियों से भलीभांति परिचित होने का सबसे सुगम मार्ग "कायोत्सर्ग" है। कायोत्सर्ग एक ऐसी साधनापद्धति है जिसमें श्वास शनैः शनैः सूक्ष्म होता चला जाता है । श्वास, प्रश्वास को सूक्ष्मता से कायोत्सर्ग घटित हो जाता है। उसके साथ ही साधक को यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि मैं अन्य हैं और यह शरीर मेरे से भिन्न है; और ऐसा क्षण प्राता है जब साधक तन एवं मन इन दोनों से ऊपर उठकर प्रात्मरूप हो जाता है।
श्वास की कुछ स्थितियां हैं, जिनका बोध होना अतिआवश्यक है-वे स्थितियां इस प्रकार हैं।
१. सहज श्वास २. शान्त श्वास ३. उखड़ी श्वास ४. विक्षिप्त श्वास ५. तेज श्वास ।
अध्यात्म-साधक सर्वप्रथम श्वास को गहरी और लम्बी करता है। उसके बाद लयबद्ध श्वास का अभ्यास करता है । फिर सूक्ष्म शान्त एवं जमी हुई श्वास का अभ्यास करता है। चतुर्थ अभ्यास में वह साधक अपने आप को सहज-कुम्भक स्थिति में पाता है। इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि तेज श्वास लेना, साधक के लिए उपयोगी नहीं है। कारण यह है कि
३४. मूलाराधना २, ११६ विजयोदया वृत्ति ३५. कायोत्सर्गशतक गाथा-८ ३९. व्यवहारभाष्य, पीठिका, गाथा-११८, ११९
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साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८७
तेज श्वास लेने से तन और मन में अत्यन्त श्रम का अनुभव होता है, जिससे वह शिथिल हो जाता है तथा चेतना के प्रति जागरूकता की स्थिति घटित नहीं हो सकती। उस स्थिति में थकान व मूछी के कारण आने वाली जो तन्द्रारूपी शून्यता है, उससे अपने आप को बचाना कठिन हो जाता है। श्वास-प्रश्वास को उखाड़ने की अपेक्षा उसे लम्बा करने का अभ्यास करना चाहिए। धीमी अर्थात् मन्द श्वास धैर्य की निशानी है । श्वास जितना सूक्ष्म होगा, शरीर में उतनी ही क्रियाशीलता न्यून होगी। श्वास की निष्क्रियता मौन एवं शान्ति है । इसमें ऊर्जा संचित होती है और वह संचित ऊर्जा मन को देहाविष्ट बनाती है। जब श्वास शिथिल हो जाता है, तब शरीर भी निष्क्रिय बन जाता है। मन निविचार हो जाता है। जिस से कषाय की ग्रन्थियाँ भी पाहत होने लगती हैं। क्योंकि उस साधक में तीव्र रूप से वैराग्य, परद्रव्यात्मभिन्नता और और अन्तःप्रवेश की क्षमता उत्पन्न होती है ।
कायोत्सर्ग की साधना में श्वास-क्रिया मन्द हो जाती है, जिसके कारण जागरूकता बनी रहती है। शरीर की स्थिरता सधती है, चेतना निर्मल होती जाती है और इस स्थूल शरीर की सीमा का अतिक्रमण कर सूक्ष्म शरीर की घटनाओं का परिबोध होने लगता है। और स्थल शरीर के प्रति हमारी पहुँच या पकड़ कम हो जाती है, जिससे हम दुःख के उपादान तत्त्व तक पहुँच जाते हैं । यह एक अनुभूत तथ्य है कि यह शरीर दुःख को प्रकट करने का हेतु है, किन्तु उसे प्रकट करने का उपादान कारण नहीं है । उपादान, मूल कारण है-कर्मशरीर । कायोत्सर्ग की स्थिति में हमें दु:ख के उपादान का संदर्शन होता है, तब समूचा व्यक्तित्त्व भिन्न प्रकार का होता है। एक सत्य स्थिर होता है-चेतना के साथ जो कर्मशरीर है, उसे क्षीण करना है फलतः कर्म-परमाणुओं का भीतर पाना बन्द हो जाता है । चेतना का बाहर से सम्पर्क टूटता है। अपनी समूची शक्ति का नियोजन भीतर होता है । मन भी निर्विचार हो जाता है। स्थूल शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होकर सूक्ष्म शरीर-तैजस एवं कार्मण शरीर से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है । तेजस् शरीर से दीप्ति प्राप्त होती है। कार्मण शरीर के साथ सम्बन्ध संस्थापित कर भेद-विज्ञान का अभ्यास किया जाता है । इस तरह शरीर और आत्मा के ऐक्य की जो भ्रान्ति है वह मिट जाती है।
द्रव्य और भाव के भेद को समझने के लिए कायोत्सर्ग के चार प्रकार प्रतिपादित हैं। 30 १. उत्थित-उत्थित २. उत्थित-उपविष्ट ३. उपविष्ट-उत्थित
४. उपविप्ट उपविष्ट १. उत्थित-उत्थित
मुमुक्षु साधक कायोत्सर्ग मुद्रा में जब खड़ा-खड़ा ध्यान करता है, तब उसके अन्तर्मन की चेतना भी खड़ी हो जाती है। उसकी काया तो उन्नत रहती ही है, उसका ध्यान भी उन्नत होता है । वह आर्तध्यान और रौद्रध्यान का परित्याग कर धर्मध्यान व शुक्लध्यान में रमण करता है। यह कायोत्सर्ग सर्वोत्कृष्ट होता है । इसमें प्रसुप्त प्रात्मा जाग्रत होकर कर्मों
३६. प्राचार्य अमितगति, श्रावकाचार ८, ५७-६॥
धम्मो दीवो संसार समुख में वर्मती
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चतुर्थखण्ड / २८८
से
युद्ध करने के लिए तन कर खड़ी हो जाती है। वह द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से उचित है । अतः वह प्रथम श्र ेणी का साधक है ।
२. उत्थित - उपविष्ट
कुछ साधक इस श्रेणी के भी होते हैं, जो आँख मूंदकर खड़े हो जाते हैं । वे शारीरिक दृष्टि से खड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु मानसिक दृष्टि से उनमें किञ्चित् मात्र भी जागृति नहीं होती है। उनका मन प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान में रहता है। वह द्रव्य से खड़े रहते हैं, पर भाव से गिर जाते हैं। ध्यान की अपकृष्ट भावधारा में अवगाहन करते हैं वह तन से उत्ति है, किन्तु मन और आत्मा से उपविष्ट है।
३. उपविष्ट उस्थित
।
कभी-कभी शारीरिक अस्वस्थता या वृद्धावस्था आदि के कारण साधक कायोत्सर्ग की साधना के लिए खड़ा नहीं हो पाता है वह शारीरिक सुविधा की दृष्टि से पद्मासन, सुखासन आदि से बैठ कर ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान की परिणति में रत रहता है। वह साधक तन की दृष्टि से बैठा हुआ है किन्तु उसके अन्तर्मानस में शुभ-शुद्ध भावधारा तीव्रता से प्रवाहित हो रही है, बैठने पर भी वह मन से उस्थित है ।
४. उपविष्ट- उपविष्ट
साधक शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ और समर्थ होने पर भी घालस्य के कारण खड़ा नहीं होता है। बैठे-बैठे ही कायोत्सर्ग करता है और प्रातंध्यान और रौद्रध्यान में लीन रहता है। धर्मध्यान की परिणति में रत न होकर सांसारिक विषय भोगों की कल्पनाओं में उलझा रहता है । राग-द्वेष में फंसा हुआ है । उसका तन और मन दोनों बैठे हुए हैं । उसमें भाव की दृष्टि से कोई जागृति नहीं है। यह कायोत्सर्ग नहीं, मात्र कायोत्सर्ग का दम्भ है।
उपर्युक्त कायोत्सर्ग - चतुष्टय में साधक जीवन के लिए प्रथम और तृतीय कायोत्सर्ग हो उपादेय हैं। ये दोनों ही वस्तुतः कायोत्सर्ग हैं। इन द्वारा ही जन्म-मृत्यु का बन्धन कटता है और प्रात्मा अपने ज्योतिर्मय स्वरूप में पहुँच कर वास्तविक प्राध्यात्मिक श्रानन्द की अनुभूति प्राप्त करता है । परम-पद मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
उत्थित उपविष्ट के स्थान पर "उत्थित निविष्ट" का प्रयोग साहित्य में तो और हो प्रकार के नाम निर्दिष्ट किये गये हैं, अर्थगत अभिप्राय एक जैसा ही है ।
-
यह कायोत्सर्ग मन, वचन और काय इन तीनों ही योगों के द्वारा किया जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि घुटनों तक दोनों हाथों को लटका कर, दोनों पाँवों के बीच में चार अंगुल का अन्तर रखते हुए खड़ा होना काया के द्वारा किया गया "कायिक कायोत्सर्ग" होता है । उसके पश्चात् ध्यान में लीन होने से पहले, वाणी से यह उच्चारणपूर्वक कहना “मैं शरीर का
३८. मूलाचार-६७३-६७७
३९. आवश्यकनिर्मुक्ति, गाथा - १४५९-१४६०
३८
मिलता है। नियुक्ति
फिर भी इन शब्दों का
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साधना की सप्रमाणता : कायोत्सर्ग / २८९
परित्याग करता हूँ, अर्थात् दैहिक ममता का विसर्जन करता हूँ।" यह वाचिक कायोत्सर्गं कहा जायेगा । और मन से शरीर से " ममेदं" बुद्धि की निवृत्ति कर लेना " मानसिक कायोत्सर्ग" होगा |
शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा की अपेक्षा से कायोत्सर्ग के नौ प्रकार भी हैं। ४०
शारीरिक स्थिति
१. उत्सृत- उत्सृत २. उत्सृत
३. उत्सृत निषण्ण
४. निषण्ण उत्सृत ५. निषण्ण
६. निषण्ण-निषण्ण
७. निषण्ण उत्सृत ८. निषण्ण
खड़ा
खड़ा
खड़ा
बैठा
बैठा
बैठा
लेटकर
लेटकर
मानसिक चिन्तनधारा
धर्मशुक्ल ध्यान
न धर्मशुक्ल न पातं रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा
श्रतं रौद्रध्यान
धर्म शुक्लध्यान
न धर्मशुक्ल ध्यान न प्रातं रौद्र किन्तु
चिन्तनशुन्य दशा
श्रार्त रौद्रध्यान ।
धर्म क्यान
न धर्मशुक्ल, न भ्रातरौद्र किन्तु
चिन्तनशुन्य दशा प्रातं रौद्र ध्यान
९. निषण्ण- निषण्ण
लेटकर
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कायोत्सर्ग खड़े होकर बैठकर, लेटकर इन तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है बड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग साधना करने की रीति इस प्रकार है— दोनों हाथों को घुटनों की ओर लटका दे । पैरों को समरेखा में रखे । दोनों पंजों में चार अंगुल का अंतर रखे। बैठी मुद्रा में कायोत्सर्ग - साधना करने वाला पद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाये। हाथों को या तो घुटनों पर रखे, बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर अंक में रखे तथा लेटी हुई मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला साधक सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को सबसे पहले ताने, फिर उन्हें शिथिल कर दे हाथ और पैर को सटाये हुए न रखे इन सभी में अंगों का सुस्थिर और शिथिल होना प्रति प्रावश्यक है। ४१
इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग करने वाला साधक शरीर से निष्क्रिय होकर खम्भे की तरह खड़ा हो जाय। दोनों बाहुत्रों को घुटनों की ओर फैला दे । प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाय। शरीर को एकदम पकड़ कर न खड़ा रखे प्रौरन एकदम झुका करके ही वह सम मुद्रा में बड़ा रहे कायोत्सर्ग में उपसर्ग और परिषह को सहन करना चाहिए। इतना अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि कायोत्सर्ग जिस
समभाव से स्थान पर
४०. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा - १४५६-१४६०। प्राचार्य भद्रबाहु ४१. योगशास्त्र ३ पत्र, २५०
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jameibrary.org
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चतुर्थ खण्ड | २९०
किया जाय, वह स्थान एकान्त हो, शान्त हो तथा जीव-जन्तुओं से रहित होना चाहिये। ४२
श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं के साहित्य के पर्यवेक्षण से यह सूर्य के प्रकाश की तरह सुस्पष्ट है कि प्राचीन काल में श्रमण-साधकों के लिए कायोत्सर्ग का विधान विशेष रूप से रहा है। श्रमण को पुन: पुन: कायोत्सर्ग करना चाहिये । ४३ उसे दिन और रात में कुल अट्ठाइस बार कायोत्सर्ग करना चाहिये। स्वाध्यायकाल में बारह बार, वन्दनकाल में छ: बार, प्रतिक्रमण काल में पाठ बार और योग भक्तिकाल में दो बार इस प्रकार कुल अट्ठाईस बार कायोत्सर्ग करना चाहिए । ४४
कायोत्सर्ग के अनेक फल हैं, संक्षेप में उनका वर्णन इस प्रकार है
१.देहजाड्य शुद्धि-श्लेष्म आदि के द्वारा शरीर में जड़ता पा जाती है, कायोत्सर्ग की साधना से श्लेष्म आदि दोष विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी समाप्त हो जाती है।
२. मतिजाड्य शुद्धि-कायोत्सर्ग में मानसिक प्रवृत्तियाँ केन्द्रित हो जाती हैं । उससे चित्त एकाग्र होता है, बौद्धिक-जड़ता विनष्ट होकर उसमें तीक्ष्णता आती है ।
३. सुख-दुःख-तितिक्षा-कायोत्सर्ग से सुख और दुःख सहन करने की अद्भुत क्षमता उत्पन्न होती है।
४. अनुप्रेक्षा-कायोत्सर्ग में अवस्थित साधक अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना का स्थिरतापूर्वक अभ्यास करता है।
५. ध्यान-कायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान का सहज अभ्यास हो जाता है।
वास्तविकता यह है कि इसकी साधना से जीवन में निर्ममत्व, निस्पृहता और अनासक्ति की भव्य-भावना लहराने लगती है। शरीर में ममत्व का निरास करना ४७ परिमित काल
४२. तत्र शरीरनिस्पृहः स्थाणु रिवोर्ध्वकाय: प्रलम्बितभुज: प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्न मितानतकायः परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते वेशे ।
-मूलाराधना २-११३, विजयोदया पृ२७८-७९ प्राचार्य अपराजित । ४४. क-उत्तराध्ययन सूत्र अ-२६ गाथा-३९ से ५१ तक
ख-अभिक्खणं काउसग्गकाऽरी। -दशवकालिक चलिका २-७ ४५. अष्टविंशति संख्याना: कायोत्सर्गा मता जिनः ।
अहोरात्रगता सर्वे षडावश्यककारिणाम् ।। स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैः वन्दनायां षडीरिताः। अष्टौ प्रतिक्रमे योग भक्तौ तौ द्वावदाहृतौ ॥
-आचार्य अमितगति श्रावकाचार ८१६६-६७ ४६. क-कायोत्सर्ग शतक, गाथा-१३ ।
ख-व्यवहारभाष्यपीठिका गाथा-१२५ ४७. देहे ममत्वनिरास: कायोत्सर्गः -भगवती अराधना वि-६।३२
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साधना की सप्रमाणता : कायोत्सर्ग / २९१
के लिए देह में होने वाली ममत्व बुद्धि का त्याग करना, ४६ शरीर को कर्मजनित, विनश्वर और अचेतन मानते हुए, उसके पोषण आदि के निमित्त कोई कार्य न करना ४६, जिस मुनि का शरीर जल और मल से लिप्त हो, या दुस्सह रोग के हो जाने पर जो उपचार न कराता हो, शरीर के अंग धोने में जो उदासीन हो, भोजन, शय्या आदि की अपेक्षा न करता हो, सज्जन और दुर्जन के प्रति मध्यस्थ हो, शरीर के प्रति ममत्व न रखता हो, सिर्फ आत्मस्वरूप के चिन्तन में लीन रहता हो ५० उसे कायोत्सर्ग नाम का तप होता है । दैवसिक निश्चित क्रियाओं में वोक्त काल प्रमाण पर्यन्त उत्तम क्षमा, प्रादि रूप जिनसद्गुणों की भावना करते हुए ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है । " काय सम्बन्धी समस्त क्रियाओं को कायोत्सर्ग कहा जाता है ।
7
काय आदि पर द्रव्यों में स्थिरभाव को छोड़कर निर्विकल्प रूप से प्रात्म स्वरूप का ध्यान करना " कायोत्सर्ग" है । ५३ कर्मों के विनाश की अभिलाषा रखने वाला, मुमुक्ष निर्जन, एकान्त, जन्तुओं से रहित स्थान में, ठूंठ की तरह सीधा, हाथों को नीचे की ओर लटकाए हुए खड़ा होकर, परिषह और उपसर्गों को सहता हुआ, शरीर से निस्पृह होकर शरीर को न तो अकड़ा हुआ, न झुकाया हुआ, प्रत्युत एकदम सीधा रखता हुआ प्रशस्त ध्यान में स्थिर होता है, ५४ यही उसका कायोत्सर्ग है।
1
श्रन्तर्मन में प्रसन्नता का संचार
ऊर्जा मन को एक दिशागामी
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग की प्रक्रिया वस्तुतः कष्टप्रद नहीं है । इस प्रक्रिया से शरीर को पूर्ण रूप से विश्रान्ति मिलती है, होता है । ऊर्जा का संरक्षण होता है । कुछ दिनों के बाद संचित बनाकर उसे ध्येय में लगाती है । मैं विनम्र भाषा में इतना ही कहना चाहता हूँ कि मोक्षमार्ग में स्थित साधक को अहंकार और ममकार को छोड़ने के लिए दुःखों को विनष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग साधना प्रवश्य करनी चाहिए। कायोत्सर्ग करने से जिस तरह से शरीर के अंगों व उपांगों की सन्धियों का भेदन होता है, वैसे ही कर्म रूपी मल व धूलि भी आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाती है। इस पवित्र साधना में न तो दुःख कष्ट सहन करने का विधान है और
४८. परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः राजवार्तिक ६।२४।११ ४९. ज्ञात्वा योऽचेतनं कार्य नश्वरं कर्म निर्मितम् ।
न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गः करोति सः ॥ - योगासार ५। ५२ ।।
५०. जल्वमललितगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो । मुहघोषणादिविरयो भोजणसेज्जादि णिरवेक्खो ॥
ससरूवचितणर दुज्जण सुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे वणिग्ममतो काम्रोसग्गो तम्रो तस्स ॥ ५१. देवस्सियणियमादिसु जहत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
|
कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४६७-४६८ ।।
जिण गुणाचिन्तणजुत्तो काधीसम्मो तणुविसम्गो । मूलाचार २६ ।
५२. नियमसार, तात्पर्याख्यावृत्ति ७० ।
५३. कायाइय परदव्वे थिरमावं परिहरितु अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्गो जो कायइ णिविप्पेण | ५४. मूलाराधना २।११६ | विजयोदया पृष्ठ २७८ ।।
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नियमसार १२१ प्राचार्य अपराजित ।
धम्मो दोवो संचार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थखण्ड / २९२ न दुःख कष्टों से पलायन की परम्परा प्रवर्तित की गई है। प्रत्युत उम्र से उम्र कष्ट के सामने अडिग अविचल बन कर खड़े रहने को एक ऐसी एकाग्रता, सहिष्णुता की विशद रूप से विश्लेषणा की गई है, जिसमें कष्ट दुःख स्वयं ही हार थक कर अध्यात्म-साधक का पिण्ड छोड़कर भाग जाएँ । वास्तविकता यह है कि कायोत्सर्ग की साधना से मोक्षार्थी लाधक के जीवन में स्वर्ण सुगन्ध जैसा संयोग जुड़ जाता है।
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श्रमण-साधना
डॉ० शोभनाथ पाठक
मानव को मानवता की तुला पर गुरुतर होने के लिए साधना सम्पन्नता अपेक्षित है । साधनापथ कंटकाकीर्ण श्रवश्य होता है किन्तु साधक के कठोर तप संयम संकल्प आदि के समन्वयात्मक सम्बल से पथ का प्रशस्त होना स्वाभाविक है और साधक अपने गन्तव्य तक पहुँच जाता है। भगवान् महावीर ने भी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की वरीयता को समझाते हुए प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक बताया है। साधक की साधना व आत्मविश्वास पर समस्त सिद्धियाँ उसके चरण चूमती हैं। महंत भी केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी अन्य की सहायता न लेकर स्वयं की साधना से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। तभी तो कहा गया है
नापेक्षा परेिऽन्तः परसाहायिकं क्वचित्, केवलं केवलज्ञानं प्राप्नुवन्ति स्ववीयंतः । स्ववीर्येणैव गच्छति जिनेन्द्राः परमं पदम् ॥'
तात्पर्य यह है कि जैन धर्म में कठोरतम संयम साधना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है, जिसके सम्बल से श्रमण-धमणी (साधु-साध्विय) असीम प्राध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्रजित कर समाज को संवारते हुए अंतत: परमपद ( निर्वाण ) को प्राप्त करते हैं ।
श्रमण-साधना प्राणियों के अभ्युदय को जो उत्कर्ष प्रदान करती है, संभवतः अभ्यत्र ऐसी महत्ता नहीं है । भगवान् महावीर ने लोकोपकार की भावना से तभी तो चतुविध संघ की व्यवस्था का उपदेश दिया था जिसको तीर्थ व महातीर्थं की महत्ता प्रदान की गयी है । यथा
तिरथं पुण चावन्नान्ने तंजहा - समणा, समणीओ, सावया,
समणसंघो, सावियाओ । २
।
श्रमण, धमणी, श्रावक एवं धाविका ही जैन धर्म की धुरी है 'श्रमण' शब्द ही साधना का परिचायक है । तप और खेद (परिश्रम) अर्थवाली 'श्रम्' धातु से श्रमण शब्द बनता है । श्राचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि 'श्राम्यन्तीति श्रमणा तपस्यन्तीत्यर्थः' अर्थात् जो तप करता है वह श्रमण है । प्राचार्य रविषेण ने तप को ही श्रम कहा है जिससे राजा लोग भी अपने वैभवपूर्ण जीवन को त्याग अभिभूत हुए-
परित्यज्य नृपो राज्यं, श्रमणो जायते तपसा प्राप्य सम्बन्धस्तपो हि धम
१. त्रिश. पु. च. १०।२०२९ से ३३
२. भगवतीसूत्र सटीक, शतक २, ३, ८ सूत्र ६५२ पत्र १४६
३. पद्मचरित ६।२
महान् । उच्यते ।
धम्मो दीवो संसार समुप में धर्म ही दीप है
wwww. jallelibrary.org
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चतुर्थ खण्ड / २९४
राजा लोग राज्य का परित्याग कर तप से जुड़कर "श्रमण बन जाने में गौरव की अनुभूति करते थे। क्योंकि तप ही श्रम है।" 'श्रम' धातु के तप और खेद अर्थ को ध्यान में रख कर 'अभिधानराजेन्द्र कोश' में 'श्रमण' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बताई गई है, यथा
"श्रममानयति पञ्चेन्द्रियाणि मनश्चेति वा श्रमणः, श्राम्यति संसारविषयेषु खिन्नो भवति तपस्यति वा स श्रमणः।"
श्रमण का मूल प्राकृत रूप "समण" है। इसका संस्कृत रूपान्तर-श्रमण, समन, शमन तथा श्रम है । शम और सम श्रमणसंस्कृति का मूलाधार है। श्रमण साधक है, वह सिद्धत्व के लिए श्रम करता है, तथा स्वयं अपने श्रम से भवबंधनों को तोड़कर स्वयं को मुक्त करता है।
'समन' शब्द 'सम' उपसर्ग पूर्वक 'अण' धातु से बनता है जिसका अर्थ है सभी प्राणियों पर समानता का भाव रखने वाला। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है-'समयाए समणो होइ'' अर्थात समता से ही श्रमण होता है । इसी तथ्य को इसी में परखिये
णत्थि य से कोई वेसो, पिओ य सम्वेसु जीवेसु ।
एएण होइ समणो, एसो अन्नो विपज्जाओ। अर्थात् जो किसी से द्वेष नहीं करता, जिसको सभी जीव समान भाव से प्रिय हैं, वह समण है । टीकाकार हेमचन्द्र ने उक्त पद के 'समणं' शब्द का निर्वचन 'सममन' किया है जिसका तात्पर्य है सभी जीवों के प्रति समान मन अर्थात् समभाव । निरुक्त विधि के अनुसार 'सममन' एक मकार का लोप होकर 'समन' हो गया अर्थात् "सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वात्" अनेन भवति समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना 'समना' इत्येषोऽन्योऽपि पर्याय:
सो समणो जइ सुमणो, भावेण जइ ण होइ पापमणो ।
सयणे अजणे य समो, समो अमाणावमाणेसु ॥3 "समण" सुमना होता है। वह कभी भी पापमन नहीं होता । अर्थात् जिसका मन सदैव प्रसन्न-स्वच्छ निर्मल रहता है, कभी भी कलुषित नहीं होता तथा जो स्वजन एवं परजन में, मान व अपमान में सर्वत्र सम रहता है, सन्तुलित रहता है, वह 'समण' है। आज के हिंसक वातावरण में समण की भूमिका और भी उपयोगी है जो लोगों को 'अहिंसा' की महत्ता से परिचित कराये । तभी तो कहा गया है
जह मम ण पियं दुवक्तं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं ।
ण हणइ ण हणावेइ, अ सममणइ तेण सो समणो॥४ अर्थात जिस प्रकार दु:ख मुझे अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार संसार के अन्य सब जीवों को भी अच्छा नहीं लगता है। यह समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता
१. उत्तराध्ययनसूत्र २।३ २. स्थानाङ्गसूत्र-६ ३. स्थानाङ्गसूत्र-३ ४. सूत्रकृताङ्ग-१।१६।२
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श्रमण- साधना / २९५
है, सर्वत्र सम रहता है वह 'समय' है होकर किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, नहीं बोलता, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, कर्मादान और आत्मा के पतन संयमी व ममत्व से रहित है वही व्यक्त किया है यथा:
सूत्रकृताङ्ग में भी बताया गया है कि प्रासक्ति रहित किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता, झूठ राग, द्वेष तथा प्राणातिपात आदि जितने भी के हेतु हैं, उन सबसे निवृत्त रहता है तथा जितेन्द्रिय, शुद्ध समण है। भगवान् बुद्ध ने भी 'धम्मपद' में इसी भाव को
न मुण्डकेन समणी, अय्यतो अलिकं भणो । इच्छालोभसमापन्नो, समणो कि भविस्सति ॥
तथ्यतः श्रमण श्रमणी का कठोरतम तपोमयी जीवन समाज में श्राध्यात्मिकता के उत्थान, नैतिकता के निखार, सर्वाङ्गीण समानता के संवार हेतु समर्पित होता है। युगनिर्माण का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व इस वर्ग पर है जबकि आज का अणु-आकुल अंतस शांति की खोज में भटक रहा है। वैभव विलास की चकाचौंध में भागती हुई पीढ़ी के लिए तो प्राज श्रध्यात्म व संयम का सम्बल और भी प्रावश्यक है । अत: मानवता के कल्याण हेतु स्वयं को तपाकर सदाचार की सुधा प्रवाहित करना श्रमण श्रमणी ( साधु-साध्वी) का उत्तरदायित्वपूर्ण पावन कर्तव्य है।
" श्रमण" का स्त्रीलिंग प्राकृत में "समणी" है तथा संस्कृत में श्रमणी श्रमणा, श्रवणा है । " श्रमणा " कुमारी साध्वी तथा श्रमणी - सुहागिन स्त्री साध्वी कहने का तात्पर्य है कि स्त्री अमणों को 'श्रमणा' व 'श्रमणी' शब्द से सम्बोधित करते हैं यथा:--
"पदमाख्या श्रमणी मुख्या विधान्य क्षमणीपदम् "
तथा
" श्रमणा
धर्म निपुणामभिगच्छेति
राघव "
अनेक उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जो स्त्री-पुरुष कुमारावस्था में ही श्रमण दीक्षा ग्रहण कर लेते थे वे क्रमश: कुमारश्रमणा और कुगारश्रमण कहे जाते थे यथा “कुमार: वैदिक ग्रन्थों में भी इस शब्द का प्रयोग कठोरतम
I
श्रमणादिभिः " तथा " कुमारः श्रमणादिना" साधना के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। 3
श्रमण साधना का गंभीर विषय अत्यधिक गरिमामय व विस्तीर्ण है किन्तु संक्षिप्ततः * इस छोटे से लेख में मुझे यही कहना है कि 'श्रमणसाधना अत्यधिक कठोर व लोकोपकारी है । मानवता के मंगल हेतु श्रमण श्रमणी कठोरतम साधना करके अपनी कंचन सी काया को तप की लौ में तपाकर ऐसा रूप प्रदान करते हैं जिसके प्रवचन के श्रवण तथा दर्शन से ही मनुष्य का माकुल अंतस जुड़ जाता है और वह असीम सुख शांति की धनुभूति करता है ।
अतः श्राज के अणु प्रायुधों की होड़ में, भौतिकता व वैभव के भटकाव में, दिन प्रतिदिन बढ़ती हिंसात्मक प्रवृत्ति के शमन हेतु, साधु-सन्तों का कृपा-सम्बल संसार के लिए वरदानस्वरूप सिद्ध हो सकता है, जिसके लिए समष्टिमव प्रयास आवश्यक है। पांच व्रतों का प्रचार-प्रसार करके मानवता के मंगल का आह्वान आज की अनिवार्यता है । OO ४६, फतेहगढ़, भोपाल (म. प्र. ) २. क्षत्रचूडामणि - ११-१६
१. धम्मपद ( धम्मट्ठवग्ग ) ९-१० ३. वाल्मीकि रामायण-१-१-५६
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप
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जैनधर्म में ईश्वरविषयक मान्यता
विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया साहित्यालंकार, एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट्, निदेशक : जैन शोध अकादमी
श्रमण और ब्राह्मण नामक संस्कृतियों का समीकरण प्राचीन भारतीय संस्कृति के रूप को स्वरूप प्रदान करता है । श्रमण संस्कृति में जैन और बौद्ध संस्कृतियां समाहित हैं जबकि ब्राह्मण संस्कृति में केवल वैदिक संस्कृति का अभिप्राय विद्यमान है। इस प्रकार वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृतियाँ मिलकर भारतीय संस्कृति को स्थिर करती हैं। वैदिक वाङमय को वेद, बौद्ध वाङ्मय को त्रिपिटक तथा जैन वाङमय को आगम की संज्ञाएं प्राप्त हैं। वैदिक और जैन संस्कृतियों में ईश्वर समादत है किन्तु बौद्ध संस्कृति में ईश्वरविषयक मान्यता का सर्वथा निषेध है। यहां जैन धर्म में ईश्वरविषयक मान्यता पर संक्षेप में चर्चा करना हमें अभीप्सित है।
परमात्मा अथवा ईश्वर एक ही अर्थ-अभिप्राय के लिए प्रयोग में आने लगा है। जैन धर्म में ईश्वर तो है पर वह एक नहीं है। अनेक हैं ईश्वर। जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक प्रात्मा अपनी स्वतन्त्र सत्ता को लिए हुए है और वह मुक्त भी हो सकता है। अनन्त आत्माएँ मुक्ति प्राप्त कर चुकी हैं और प्राज भी मुक्त्यर्थ सन्मार्ग खुला हुआ है और सदा-सर्वदा खुला रहेगा। दरअसल ये मुक्त जीव ही जैन धर्म के ईश्वर हैं। (१) जो मुक्त प्रात्माएँ मुक्त होने से पूर्व संसार को मुक्ति-मार्ग का बोध कराती हैं, उन्हें तीर्थंकर कहा गया है। (२) तीर्थंकर किसी अंशी के अंश रूप अथवा अवतार रूप नहीं हैं। संसारी जीवों में से ही कोई जीव जब सम्यक् तप और संयम-साधना करते हुए लोक-कल्याण की भावना से तीर्थंकर पद प्राप्त करता है । वह जीव जब माता के गर्भ में आता है तब उसकी माता को विशिष्ट स्वप्न दिखलाई देते हैं। इनके जीवन की पांच प्रमुख घटनाएँ होती हैं, जिन्हें कल्याणक कहा जाता है। गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, दीक्षा-तप कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक, ये हैं पाँच कल्याणक । (३) विचार करने योग्य बात यह है कि तीर्थंकर को अर्हत् भी कहा गया है। हिन्दू पुराणों में अर्हत् किसी व्यक्तिवाची संज्ञा के रूप में ग्रहण किया गया है । फलस्वरूप अर्हत् नामक व्यक्ति द्वारा ही जैन धर्म की स्थापना करने वाला निरूपित किया गया है। यह धारणा सम्यक् और शुद्ध नहीं है । यह अर्हत् किसी व्यक्ति का नाम नहीं है अपितु पदविशेष है। (४) इस पद को प्राप्त कर स्वयं कषायमुक्त होकर संसार के कल्याण-मार्ग को प्रशस्त करते हैं। कषायमुक्त आत्माएँ जिन कहलाती हैं, जिनकी वाणी को जिनवाणी-पागम की संज्ञा प्रदान की गई। जिन-धर्म को जैन धर्म और जैन धर्म के माननेवालों को जैन कहा गया है। जीवनमुक्त तीर्थंकर अथवा अर्हत् में अनन्त चतुष्टय मुखर हो उठते हैं अर्थात् अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख उनमें जागरित हो उठता है। ऐसी मुक्त आत्माएँ वस्तुत: भगवान् अथवा ईश्वर होती हैं । संसारी प्रात्मा के पास सत्ता भी है और चेतना भी है । यदि उसके पास कुछ कमी है तो वह है केवल स्थायी सुख एवं
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स्थायी प्रानन्द की (५) अक्षय प्रानन्द जगाने पर प्रत्येक जागरित आत्मा परमात्मा बन जाती है । कतिपय धर्मों के अनुसार ईश्वर एक सर्वोपरि प्रभु-सत्ता है । अनादि काल से वह एक है और सर्वसत्तासम्पन्न है। दूसरा कोई ईश्वर हो नहीं सकता । वह ईश्वर ही जगत् का निर्माता और संहर्ता है। किसी का ईश्वर वैकुण्ठ में रहता है, किसी का ब्रह्मलोक में तो किसी का सातवें
आसमान पर रहता है, तो किसी का समग्र विश्व में व्याप्त है । विचार करें, ईश्वर-विषयक ऐसी मान्यता मनुष्य को पंगू और पराश्रित नहीं बना देती है ? इससे व्यक्ति पूरा का पूरा पराश्रित होता है। फलस्वरूप मनुष्य कर्तव्यनिष्ठ बनने की अपेक्षा खुशामदी बन जाता है। जैन दर्शन में मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वरत्व है । वह कोई व्यक्तिविशेष नहीं है अपितु है एक प्राध्यात्मिक भूमिका विशेष । प्रत्येक प्राणी में ईश्वर शक्ति विद्यमान है, प्रश्न है उसे जगाने भर का। उसे जगाने में किसी क्षेत्र, देश, जाति, कुल अथवा पंथ विशेष का बंधन नहीं है। जो प्राणी अपने को राग-द्वेष से विमुक्त कर स्व में स्व को लीन कर लेता है, वही वस्तुत: परमात्मा हो जाता है।
अध्यात्मभाव की इस विकास-प्रक्रिया को आगम में गुणस्थान की संज्ञा प्रदान की है। भगवान् विश्व प्रकृति का द्रष्टा है, स्रष्टा नहीं। विश्व प्रकृति के दो मूल तत्त्व हैं-जड़ और चेतन । दोनों में कर्तृत्वशक्ति विद्यमान है। इससे ही स्वभाव और विभाव सक्रिय होते हैं। विचार करें-पर के निमित्त से होनेवाली कर्तृत्वशक्ति वस्तुतः कहलाती है विभाव । पर के निमित्त से रहित स्वयं सिद्ध सहज कर्तृत्व शक्ति का अपर नाम स्वभाव है । चेतना तत्त्व पूर्णतः परिशुद्ध होकर परमात्मचेतना का स्वरूप प्राप्त करता है तभी उसमें से पर-प्राश्रित भावना भंग हो जाती है और वह स्व-अपने ही स्व में लीन हो जाता है। यही आत्मा की शुद्धि की अवस्था है । जब आत्मा शुद्ध हो जाती है तभी वह सिद्ध हो जाती है अर्थात् प्रात्मा से परमात्मा।
(६) जैन धर्म में प्रात्मा एक नहीं अनन्त मानी गई है। उसका लक्षण है चैतन्य । (७) चैतन्य स्वभाव ही आत्मा-द्रव्य को अन्य अनेक द्रव्यों से भिन्न करता है। यह चैतन्य धर्म वस्तुतः उसका स्वभाव धर्म है । (८) प्रत्येक प्रात्मा ज्ञाता के साथ-साथ कर्ता और भोक्ता भी होती है । (९) सांसारिक अवस्था में आत्मा अपने कर्म की कर्ता होती है और अपने ही कर्म की भोक्ता भी (१०) अपने कर्मकूल को काट कर जब मुक्ति प्राप्त कर लेती है तब उसमें अनन्त चतुष्टय जागरित हो जाते हैं।
जीव जब प्राण पर्याय ग्रहण कर लेता है, तब वह प्राणी कहलाता है । प्रत्येक प्राणी स्वदेहपरिमाणी होता है। (११) अर्थात् वह स्वदेह में ही व्याप्त रहता है, देह के बाहर नहीं । (१२) जैन धर्मानुसार जिस वस्तु के गुण जहाँ विद्यमान रहते हैं, वह वस्तु वहीं पर होती है। ज्ञान प्रादि गुण आत्मा के हैं-जहाँ ये गुण हैं वहीं प्रात्मा माननी चाहिए । अाकाश द्रव्य है उसके गुण सर्वव्यापी हैं अतः आकाश सर्वत्र है । (१३) संसारी जीव अनादि काल से कर्मबद्ध है, फलस्वरूप वह सांसारिक चंक्रमण-जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है किन्तु उनमें भी सिद्ध समान शक्ति तिरोभूत विद्यमान है। (१४) यदि यह कर्मरहित हो जाए अर्थात् वह अपने शुभ संकल्प से तप-संयमपूर्वक साधना करते हुए कर्मक्षय कर डाले तो उसका सिद्ध स्वरूप मुखर हो उठेगा। क्योंकि जैन धर्म में जीव को प्रभु कहा गया है। (१५) इस प्रकार जीव अपने उत्थान-पतन का स्वयं उत्तरदायी है। वही अपना शत्रु है, वही अपना मित्र भी है ।
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चतुर्थखण्ड / २९८ (१६) बंधन और मुक्ति उसी के पुरुषार्थ श्रौर संकल्प पर निर्भर करते हैं। इसके लिए उसे बाहरी शक्तियों का कोई योग सहयोग प्राप्त नहीं हुआ करता
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आध्यात्मिक दृष्टि से म्रात्मा को तीन कोटियों में बांटा गया है— बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा (१७) बहिरात्मा अपने शरीर को ही अपनी आत्मा समझता है और शरीरविनाश में स्वयं का विनाश मान लेता है । (१८) ऐसा जीव इन्द्रियों के व्यापार में सक्रिय रहता है, प्रासक्त रहता है । जब उसे अनुकूलता होती है तब प्रसन्नता अनुभूत करता है और जब उसे प्रतिकूलता होती है तब अनुभव करता है दुःखातिरेक (१९) उसे मृत्यु अर्थात् मरण का अतिशय भय रहता है। (२०) उसके शरीर में प्रसन्न ज्ञान के बोध न होने से वह प्राणी अनन्त काल तक संसार के चंक्रमण में गतिशील रहता है ।
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(२१) अन्तरात्मा अपनी आत्मा और शरीर में भिन्नता अनुभव करता है । (२२) इसी लिए उसमें किसी प्रकार का भय नहीं होता है अर्थात् लोकभय, परलोक भय मृत्युभय, आदि से वह सर्वथा मुक्त रहता है उसमें किसी प्रकार का मद नहीं रहता अर्थात् कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप तथा प्रभुता श्रादि के मदों से रहित होता है । (२३) अन्तरात्मा अवस्था में जीव को सांसारिक पदार्थों और उनके भोग में किसी प्रकार की श्रासक्ति नहीं रहती । साथ ही ऐसे अनासक्त प्राणी को जन्म-मरण के दुःखों से यथाशीघ्र निवृत्ति मिल जाती है ।
(२४) बहिरात्मा और अन्तरात्मा के पश्चात् जीव की विशिष्ट अवस्था है-परमात्मा । परमात्मा वह जिसने अपनी आत्मा का पूर्ण उत्थान कर लिया हो और जो काम, क्रोध प्रादि दोषों से सर्वथा मुक्त हो चुका हो । (२५) उसमें अनन्त चतुष्टय जाग जाते हैं और वह आवागमन के चक्र से परिमुक्त हो जाता है । पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्मा श्रवस्था का चित्रण है। चौथे से बारहवें गुणस्थान अन्तरात्मा अवस्था का दिग्दर्शन हैं और तेरहवां चौदहवाँ गुणस्थान परमात्मा प्रवस्था का है।
(२६) आत्मा का स्वभाव है ज्ञानमय । वह स्वभाव कर्म करें तो प्रकट हो । ध्यान से कर्म विपाक बंधते और कटते भी हैं अशुभ ध्यान संसार का कारण है और शुभ ध्यान मोह का कारण पहिले तीन गुणस्थानों में घातं और शेद्र ये दो ध्यान ही पाए जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में श्रार्त्त और रौद्र ध्यान के प्रतिरिक्त सम्यक्त्व की प्रभावना से धर्मध्यान भी होता है । छठे गुणस्थान में प्रार्त्त और धर्मध्यान की संभावना रह जाती हैं । यहाँ रौद्रध्यान छूट जाता है। सातवें गुणस्थान में केवल धर्मध्यान होता है। यहाँ तक आते-जाते रौद्र और प्रार्त्तध्यान छूट जाता है। घाट से बारहवें गुणस्थानों तक अर्थात् इन पाँच गुणस्थानों में केवल धर्मध्यान के साथ एक ध्यान और जागता है वह है शुक्ल । यह शुक्लध्यान मूलाधार है मोक्ष की प्राप्ति का इसीलिए अगले गुणस्थानों में केवल शुक्लध्यान होता है।
(२७) जो स्थान योगवाशिष्ठ २८ में तथा पातंजल योगसूत्र में (२७) मज्ञानी जीव का है वही लक्षण जैन धर्म में मिथ्यादृष्टि अथवा बहिरात्मा के नाम से उल्लिखित है । (३०) जीव को परमात्म अवस्था प्राप्त्यर्थं अपनी मिध्यादृष्टि का परिष्कार करना आवश्यक है । वह मिध्यादृष्टि से सम्यक् दृष्टि हो जाता है तभी उसमें विकसित होकर परमात्म-लक्षण मुखर होते हैं।
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इस प्रकार जैन धर्म में अर्हत् और सिद्ध पद हैं। उन तक जो जीव पहुँचता है, वही वस्तुतः ईश्वर माना गया है । प्रत्येक जीव में ईश्वर होने की शक्ति विद्यमान है । अनादि काल से जीव अपनी ईश्वरत्व शक्ति को कर्मबंध से प्रच्छन्न किए हुए है । जब और ज्यों ही कर्मबंध क्षीण होने लगते हैं तभी उस जीव में ईश्वर होने की शक्तियाँ उजागर हो जाती हैं और अंततः वह जीव ईश्वर बन जाता है। (३१) जैनधर्मानुसार यह ईश्वर संसार से कोई संबंध नहीं रखते हैं। सृष्टि के सृजन अथवा संहार में भी इनकी कोई भूमिका नहीं है। किसी के द्वारा सम्मान और अपमान पर विचार नहीं करते। वे स्तुतिवाद और निन्दावाद से सर्वथा मुक्त रहने का भाव रखते हैं। उन्हें इससे न तो हर्ष ही होता है और न ही विषाद।
___ जैनधर्मानुसार सृष्टि स्वयंसिद्ध है। जीव अपने-अपने कर्मानुसार स्वयं ही सुख-दुःख पाते हैं। ऐसी दशा में मुक्तात्माओं और अर्हत् सिद्धों को इन सब झंझटों में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जिनके सभी राग मिट गए हैं, जो वीतराग हैं, भला उन्हें तुम्हारी भलाई-बुराई से क्या प्रयोजन ? सार संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म में अर्हतों और मुक्त प्रात्माओं का उस ईश्वरत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे अन्य लोग संसार के कर्ता और हर्ता ईश्वर में कल्पना किया करते हैं। जैन दर्शन में इस प्रकार की कोई कल्पना ही नहीं की गई अपितु इस मान्यता के विरुद्ध सप्रमाण आलोचना अवश्य की गई है । यदि ईश्वर का यही रूप है तो जैन दर्शन को भी अनीश्वरवादी कहा जा सकता है।
(३२) इस प्रकार उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि बौद्ध और अन्य अनीश्वरवादियों की भांति जैन धर्म नहीं है । यहाँ ईश्वर तो है और उस संबंधी अपना दृष्टिकोण है, अपनी मान्यता है। विशेषता यह है कि यहां प्रत्येक प्राणी को प्रभ बनने की सुविधा प्राप्त है। अतः यहाँ विकास और प्रकाश पाने की पूर्णतः स्वतंत्रता है।
---'मंगल कलश', ३९४ सर्वोदय नगर, आगरा रोड,
अलीगढ़-२०२००१
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समग्र विज्ञान मूलत: दो तत्त्वों से निर्मित है—जीव और अजीव । दोनों तत्त्व अनादि, अनंत और शाश्वत हैं। संसार के विभिन्न रूप, दशा और परिणाम सभी इन दो तत्वों की पर्यायें हैं। संसार एक विशाल नाट्यशाला है जहाँ जीव प्रजीव का नाटक अनादि से होता रहा है और अनंतकाल तक होता रहेगा । जीव नाट्यकार है और प्रजीव उसका सहायक । जीव मोह रूप मदिरा को पीकर उन्मत्त बना अपने मूल स्वभाव को भूल विभाव दशा में बहुरूपिया बना भटक रहा है। यह अनादि भटकाव जीव का किस प्रकार रुके और वह अपने मूल शुद्ध परमात्म-स्वभाव को कैसे प्राप्त हो, इस हेतु स्व-स्वरूप को समझना परमावश्यक है। स्व-स्वरूप को समझने हेतु यहाँ प्रात्म-विज्ञान का संक्षेप में निरूपण किया जाता है ।
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जैन दर्शन में आत्म-विज्ञान
आत्म-तत्व क्या है ?
तत्त्व का अर्थ — 'तस्य भावस्तत्त्वम्' के अनुसार सद्भूत वस्तु को तत्त्व कहा जाता है । जो सदा अजर, अमर, अनश्वर, शाश्वत, चैतन्य, प्ररूपी और मूल में निरंजन, निराकार ब्रह्म रूप है, वही आत्म-तत्त्व है ।
आत्म-तस्व की पहचान क्या है ?
जशकरण डागा
(१) जो सुख दुःख की अनुभूति करता है। (२) जिसमें उपयोग ज्ञान विद्यमान रहता है। (३) जो प्राण चेतनायुक्त है और वीर्य शक्तिवाला है। (४) जो नरक, तियंच, मनुष्य व परिभ्रमण करता है ।
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प्रारमा
के
( ५ ) जो शाश्वत है—-कभी नष्ट
सूखता नहीं, जल में भीगता नहीं एवं हवा से उड़ता नहीं है ।
देव गति रूप चारों गतियों में विभिन्न दशानों में
नहीं होता है। जो प्रग्नि से जलता नहीं, धूप से
मुख्य नाम क्या हैं ?
संसार में रही प्रात्मा विभिन्न नामों से पहचानी जाती है। मुख्य नाम इस प्रकार हैं
(१) जीव जो जीवस्व और मृतस्य पर्याय धारण करता है।
(२) प्राणी जो मन इन्द्रियादि दस द्रव्य प्राणों और ज्ञानदर्शन मादि चार भाव प्राणों को धारण करता है ।
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(३) चेतन-जो चेतना या उपयोग शक्ति से युक्त है। (४) सत्त्व-जो सद्भूत, सत्य व शाश्वत है।
प्रात्मा के लक्षण प्रात्मा अनंत धर्म युक्त है। उसके मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं
"नाणं च सणं चेव, चरित्त च तवो तहा।
वीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ।" अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, वीर्य व उपयोग ये जीव के लक्षण हैं। इनके अतिरिक्त अगुरुलषत्व और अमूर्तत्व आदि भी जीव के लक्षणों में आते हैं।
आत्मा के विभिन्न स्वरूप
शुद्धात्मा ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति रूप चतुष्टय से युक्त है। किन्तु मोहग्रस्त प्रात्मा अपने अनंत ऐश्वर्य से वंचित है। विभिन्न रूपों में रहने से उसका वर्गीकरण ज्ञानियों ने इस प्रकार किया है
(१) द्रव्यात्मा-प्रत्येक प्रात्मा असंख्य प्रदेशमय है । (२) कषायात्मा-क्रोध, मान माया व लोभ में प्रवृत्त प्रात्मा । (३) योगात्मा-जो योग-मन, वचन व काय सहित हो। (४) उपयोगात्मा-जो ज्ञान-दर्शन में उपयोग-युक्त हो। (५) ज्ञानात्मा-जो ज्ञान में प्रवृत्त हो। (६) दर्शनात्मा-जो दर्शन में प्रवृत्त हो। (७) चारित्रात्मा-जो चारित्र में प्रवृत्त हो । (८) वीर्यात्मा-जो पुरुषार्थ से युक्त हो।
इनमें पहली, चौथी, पांचवी व छठी ये चार प्रात्माएँ द्रव्य और गुण अपेक्षा से होने से सभी जीवों में होती है। किन्तु अन्य शेष चार प्रात्माएँ जीव के अशुद्ध स्वरूप में ही मिलती हैं।
आत्मा के भेदः
प्रात्माएं अनंत हैं और सभी का अलग-अलग अस्तित्व है। उनकी विभिन्न दशा और विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा से उनके भेद स्पष्ट किए जाते हैं
१. एक भेवः -सभी पात्माएँ चेतना, उपयोग युक्त हैं। प्रतः संग्रहनय की अपेक्षा सब एक हैं । मागम में कहा भी है'-'एगे पाया' । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि आत्माओं का मस्तित्व अलग-अलग स्वतन्त्र नहीं है । द्रव्य की अपेक्षा सभी आत्माएं अलग-अलग हैं। अगर -ऐसा न हो तो फिर एक समय में ही एक प्रात्मा द्वारा सुख की तो दूसरी प्रात्मा द्वारा दुःख की अनुभूति या एक द्वारा हँसना तो दूसरी द्वारा रोना आदि विभिन्न क्रियाएँ कैसे होती?
१. स्थानांगसूत्र, स्थान १
पिनो टीवो
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चतुर्थ खण्ड | ३०२ २. दो भेवः--सिद्ध और संसारी-जो आत्माएँ कर्मरहित हो व शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो चुकी हों वे सिद्ध कहलाती हैं और जो कर्म सहित हैं वे संसारी हैं ।
३. तीन भेदः-(i) बहिरात्मा:-जो प्रात्मस्वरूप को न समझ शरीर को ही प्रात्मा मानते हैं,विषय भोगों में लगे रहते हैं, जो 'जीवेत् यावद्' सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । . भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ।।" के सिद्धान्त को मानते हैं और तत्त्व को यथार्थतः नहीं मानते हैं, वे सब बहिरात्मा हैं । यह आत्मा की हीनतम वैभाविक, और सुप्त दशा है । इसे एकान्त अज्ञान-दशा भी कहते हैं ।
(ii) अन्तरात्मा-जो मिथ्यात्व की भाव-निद्रा से जाग्रत हो स्व-स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित होती हैं, जिनमें सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म का विवेक जाग्रत होता है और जो शरीर व आत्मा को भिन्न-भिन्न समझकर भेद ज्ञान का अनुभव करती हैं वे आत्माएँ अन्तरात्मा की श्रेणी में आती हैं। ऐसी आत्माएँ यथाशक्ति आत्मसाधना व धर्म में प्रवृत्त भी होती हैं। सम्यग्दृष्टि श्रावक श्राविकाएँ व छद्मस्थ साधु साध्वी सब इस के अर्न्तगत होते हैं।
(iii) परमात्मा-परमात्मा का अर्थ है परम (पूर्ण रूप से) उत्कृष्ट आत्मा । आत्मसाधना से जो पात्माएं घाती कर्मों का क्षय कर प्रात्मविकास की सर्वोच्च भूमिका को प्राप्त होती हैं, वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो 'परमात्मस्वरूप' हो जाती हैं। जब अवशेष चार अघाती कर्म क्षय हो जाते हैं तो सशरीर परमात्मा, अशरीरी बन निराकार परमात्मा-सिद्ध स्वरूप हो जाती हैं।
इस प्रकार बहिरात्मा संसारी जीवन का, अन्तरात्मा साधक जीवन का और परमात्मा विशुद्ध दशा के प्रतीक रूप हैं। प्रत्येक बहिरात्मा (भव्यात्मा) साधना करते-करते जीवन विकास कर अन्तरात्मा होकर अन्ततः राग द्वेष का क्षयकर परमात्मा बनने का अधिकारी है। इसलिए कहा गया है-'अप्पा सो परमप्पा ।'
तीन भेद अन्य प्रकार से-(i) सिद्ध (ii) त्रस और (iii) स्थावर । (iv) चार भेद-(i) पुरुष वेदी (ii) स्त्री वेदी (ii) नपुंसक वेदी और (iv) भवेदी। (v) पाँच भेद-(i) नारक (ii) तिथंच (iii) मनुष्य (iv) देव (v) सिद्ध ।
(vi) छह भेद--(1) एकेन्द्रिय (i) द्वीन्द्रिय (iii) त्रीइन्द्रिय (iv) चतुरिन्द्रिय (v) पंचेन्द्रिय (vi) अनिन्द्रिय (सिद्ध)
(vii) सात भेद -(i) पृथ्वी (i) अप् (पानी) (ii) तेजस् (अग्नि) (iv) वायु (v) वनस्पति (vi) त्रस, काय तथा (vii) अकाय सिद्ध ।
(vii) आठ भेद-(i) नारक (i) तिथंच (iii) तियंचनी (iv) यनुष्य (v) मनुष्यनी (vi) देव (vii) देवी और (viii) सिद्ध।
(ix) नव भेद-(i) नारक (ii) तियंच (iii) मनुष्य मोर (iv) देव, ये चारों पर्याप्त और अपर्याप्त तथा नवम भेद सिद्ध ।
(x) बस भेद-पांच स्थावर (पृथ्वी, अप प्रादि), तीन विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय) पंचेन्द्रिय तथा दसवां भेद सिद्ध।
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(x) ग्यारह भेव — एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पर्याप्त व अपर्याप्त की अपेक्षा दस भेद और व्यारहवाँ भेद सिद्ध ।
(xii) बारह भेद-पाँच स्थावरों के सूक्ष्म और बादर की अपेक्षा दस भेद, एक बस और त्रस बारहवाँ सिद्ध ।
(xiii) तेरह मेवषट्काव (पाँच स्थावर व श्रस ) के पर्याप्त व अपर्याप्त की अपेक्षा बारह भेद तथा तेरहवाँ भेद सिद्ध
(xiv) चौदह भेद - (i) नारक (v) मनुष्यनी तथा चार प्रकार के देव ज्योतिष्क, वैमानिक) यों तेरह भेद । चौदहवाँ भेद सिद्ध ।
(ii) तियंच (iii) तियंचनी (iv) मनुष्य व चार प्रकार की देवियाँ (भवनपति, वाणव्यंतर,
(xv) पन्द्रह भेद (i) सूक्ष्म एकेन्द्रिय (ii) बादर एकेन्द्रिय, तीन विकेन्द्रिय तथा संजी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय यों सात भेद के पर्याप्त, अपर्याप्त ये चौदह भेद होते हैं । पन्द्रहवाँ भेद सिद्ध ।
इस प्रकार जीवों के विभिन्न भेद-प्रभेद उनके वर्गीकरण के भेद से होते हैं । संसारी जीवों के विस्तार से ५६३ भेद भी होते हैं । स्पष्टीकरण नव तत्व या पच्चीस बोल के थोकड़े श्रादि में देखा जा सकता है। इन भेदों को ध्यान में लेने से जीवों को विभिन्न पर्यायों व अवस्थाओं का परिज्ञान होता है जो आत्मा का स्वरूप समझने में सहायक हैं ।
आत्मा का अस्तित्त्व शाश्वत है
चार्वाक आदि कुछ नास्तिक आत्मा के पृथक् अस्तित्व को नहीं मानते हैं । उनका कथन है
"एए पंच महन्भूया, तेब्मो एगोत्ति आहिया । अह तेसि विणासेणं विनासो होइ देहिणो । "" अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतों से एक धारमा उत्पन्न होती है । इन भूतों के नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है, किन्तु यह मान्यता भ्रामक एवं असत्य है, क्योंकि पृथ्वी प्रादि भूतों के गुण अन्य हैं तथा आत्मा का गुण चैतन्य अलग है | यदि यह कथन मान्य किया जाए कि सब भूतों के मिलने से चैतन्य गुण प्रकट होता है, तो जो गुण कभी किसी भूत में नहीं, वह उनके मिलने पर कैसे उद्भूत हो सकता है ? कदाचित् पंच भूतों से जीव की उत्पत्ति मान ली जाए तो फिर उसकी पंच भूतों के रहते मृत्यु नहीं होनी चाहिए। किन्तु यह सर्वविदित है कि पंच भूतों से युक्त देह पड़ी रहती है, और जीव की मृत्यु हो जाती है। यदि पंच भूतों में किसी भूत की कमी या अधिकता से मृत्यु हो तो उसकी पूर्ति भी सब प्रकार से की जा सकती है, विशेषकर श्राज के विकसित विज्ञानयुग . में ऐसा करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती । किन्तु मृत्यु होने के बाद पुनः मृत शरीर में जीवन का सृजन लाख प्रयत्न करने पर भी संभव नहीं होता ।
१. सूत्रकृतांग, प्र. श्रु.
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चतुर्थ खण्ड | ३०४
कुछ दार्शनिक प्रात्मा को तो स्वीकारते हैं किंतु उसे शाश्वत तत्त्व न मानकर क्षणिक व नश्वर मानते हैं किंतु यह मान्यता भी असत्य है। प्रायः जातिस्मरण ज्ञान की घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं। अनेक आत्माओं ने अपने पूर्वभवों को बताया है और परावैज्ञानिकों द्वारा जांच करने पर पुनर्जन्म की अनेक घटनायें सत्य सिद्ध हुई हैं, जो प्रात्मा के शाश्वत अस्तित्व की पुष्टि करती हैं।
श्रीमद् राजचन्द्र, जो इस युग के एक विशिष्ट साधक और तत्त्ववेत्ता हुए हैं तथा जिन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ था, उन्होंने आत्मा की अनुभूति कर आत्मा के अस्तित्व की पुष्टि की है।
"आत्मानी शंका करे आत्मा पोते आप । शंकानुं करनार ते, अचरज एह अमाप । जड़ थी चेतन ऊपजे, चेतन थी जड़ थाय । एहवो अनुभव कोई ने, क्यारे कदीन थाय॥ क्रोधादि तरतम्यता, सादिक ने मांय । पूर्व जन्म संस्कार ते, जीव नित्यता त्यांय ॥ आत्मा द्रव्य नित्य छ, पर्यायो पलटाय ।
बालादिक वय मण नु, ज्ञान एक ने थाय ॥" वस्तुतः आत्मा अरूपी अमूर्त तत्त्व है। दिखाई नहीं देने से अनेक लोग नहीं मानते हैं। किन्तु केवल दिखाई न देने से उसका अस्तित्व न मानना ठीक नहीं है। अनेक रूपी पदार्थ भी सूक्ष्म होने से नज़र नहीं पाते जैसे ध्वनि, विद्युत् प्रवाह, वायु आदि । किन्तु इनके अस्तित्व को सभी स्वीकारते हैं। फिर आत्मा तो ऐसा अलौकिक सूक्ष्म तत्त्व है जिसमें शब्द, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप आदि कुछ नहीं है । वह केवल ज्ञानमय और उपयोग रूप है। अतः वह शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रिय सभी पर नियंत्रण करने वाला होकर भी इन सबकी पकड़ से परे है। ऐसे विलक्षण महान आत्मतत्त्व को स्वानुभूति से नि:शंक स्वीकार किया जाना चाहिए।
आत्मा ही नरक, स्वर्ग और मोक्ष हैभगवान् महावीर ने प्रात्मा का विशिष्ट स्वरूप दर्शाते हुए कहा है
"अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दनं वनं ॥"२ अर्थात् प्रात्मा ही नरक की वैतरणी नदी व शाल्मली वृक्ष है तथा आत्मा ही कामधेनू गाय और नन्दन वन है।
"अप्पा कत्ता विकत्ता य, बुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टियसुपट्ठिओ।" अर्थात् प्रात्मा स्वयं ही अपने सुख दु:ख का कर्ता हर्ता है, सदा सन्मार्ग पर लगी हई पात्मा अपनी मित्र है और कुमार्ग पर लगी हुई दुराचारी आत्मा अपनी शत्रु है।
२. उत्तरा. अ. र. गा. ३६ ।
३. उत्तरा. अ. र. गा. ३६ ।
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जैन दर्शन में आत्म-विज्ञान / ३०५
"अप्पाणमेव जुन्नाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पणामेव अप्पानं, जइत्ता सुहमेहए ॥४
अर्थात् आत्मा से ही संघर्ष कर, बाहर किससे कर रहा है ? जो आत्मा से श्रात्मा को जीतता है वही सुखी होता है ।
"अप्पा चैव दमेयचो, अप्पा हु खलु बुद्दमो अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥
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अर्थात् श्रात्मा पर ही नियंत्रण करो । श्रात्मा ही दुर्जेय है । जो आत्मा पर नियंत्रण कर लेता है, वह इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है ।
आत्म-विज्ञान की दुर्लभ प्राप्ति
नव तत्त्वों में जीव तत्व प्रमुख व प्रथम है। किन्तु इसकी सम्यक् समझ व श्रद्धा प्रति दुर्लभ है। प्रथम तो तत्व को जानने व तत्वसंबंधी श्रवण की रुचि ही सब जीवों को नहीं होती है । ज्ञानी कहते हैं
"बिरला सुन्ति तच्चं बिरला जणंति तच्चदो तच्चं । बिरला भावहि तच्चं बिरलाणं धारणा होवि ॥ "
अर्थात् विरल ( पुण्यशाली निकटभव्य ) आत्माएँ तत्व की बात सुनना पसंद करती हैं, सुनने वालों में भी बिरल व्यक्ति तत्त्व को जान पाते हैं। जानकारों में भी बिरल ही भाव से तत्त्व को स्वीकारते हैं तथा भाव से स्वीकारने वालों में भी उसकी ( सम्यक् ) श्रद्धा करने वाले और भी विरल होते हैं ।
तीर्थंकर प्रभु के निकट सेवा में रहने वाले और नव पूर्वी तक का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले भी अनेक जीव ऐसे होते हैं जो ग्रात्म-तत्त्व के विषय में पर्याप्त जानकारी रखते हुए भी आत्म-तत्त्व की सम्यक् श्रद्धा से विहीन होते हैं। उनके ज्ञान से दूसरे जीव प्रात्मज्ञानी हो कल्याण को प्राप्त करते हैं किंतु वे एकान्त मिथ्यादृष्टि ही बने रहते हैं। वे बहुश्रुत और महान् पंडित होते हुए भी आत्मा के प्रति शंकाग्रस्त बने रहते हैं। चारों वेदों के पाठी महापण्डित इन्द्रभूति गौतम जैसे महापुरुष भी भगवान् महावीर से सद्बोध पाने से पूर्व ' श्रात्म-तत्त्व' के प्रति शंकाशील ही थे ।
इस आत्म-तत्त्व पर सम्यग् श्रद्धा लाये बिना जीव कोई कितना ही त्याग, तप और क्रियाकाण्ड करे, उसका पृथम गुणस्थान (मिच्वाश्व) भी नहीं छूट पाता है जैसे बिना अंक के शून्य (बिन्दु) कितने भी हों उनका महत्त्व नहीं, वैसे ही मोक्ष मार्ग में बिना श्रात्म-श्रद्धान के क्रिया का कोई महत्व नहीं है।
भगवान् महावीर प्रभु ने शरीर को नौका ग्रात्मा को नाविक धौर संसार को समुद्र
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४. उत्तरा भ्र. ९, गा. ३५
५. उत्तरा. प्र. १, गा. १५
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चतुर्थखण्ड / २०६ की उपमा देते हुए फरमाया है कि महान् मोक्ष की एषणा करने वाले महर्षि संसार - समुद्र को तर जाते हैं ।
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अतः भव्य प्रात्माओं को ग्रागम प्रमाण और गुरुगम से स्वानुभूतिपूर्वक प्रात्मविज्ञान को यथार्थतः समझ कर उस पर सम्यक् श्रद्धा लाकर संसार समुद्र से तिरने की कला - भेदविज्ञान को प्राप्त कर तदनुरूप पुरुषार्थ से मोक्ष की प्राप्ति करना चाहिए। यही अभीष्ट है।
६. उत्तरा. प्र. २३ गा. ४३
टोंक
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आचार्य हरिभद्रसूरि का गृहस्थाचार
0 डॉ. पुष्पलता जैन
हरिभद्रसूरि जन्मतः ब्राह्मण पर कर्मतः एक सही श्रमण थे । हस्तिघटना ने उन्हें एक कर्मठ जैन, बहुश्रुत प्राचार्य बना दिया। उनका बहुश्रुत व्यक्तित्व वैदिक, बौद्ध और जैन परम्परा के गहन अध्ययन से अोतप्रोत था। उनके समूचे साहित्य में सभी भारतीय चिंतनपरम्परामों के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं। इतना ही नहीं बल्कि उनकी समीक्षा से उनकी ताकिक शक्ति का भी पता चलता है।
हरिभद्रसूरि का समय भले ही विवादग्रस्त माना जाए पर उन्हें हम पाठवीं-नवमी शताब्दी का विद्वान् तो मान ही सकते हैं । हम यह जानते हैं कि यह समय बौद्ध युग का उतारकाल था। जैन मनीषियों का गंभीर पांडित्य ह्रास की ओर जाने लगा था। चारित्र की भी यही स्थिति थी। जैन आचार और समाजव्यवस्था पर वैदिक प्राचार और समाज-व्यवस्था हावी होने लगी थी और अधिकांश वैदिक क्रियाओं का जैनीकरण किया जाने लगा था। जैनाचार्यों ने ऐसी स्थिति से समाज को किंवा धार्मिक प्राचार को बचाने का प्रयत्न अवश्य किया पर तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितिवश वे ऐसा नहीं कर सके । फलतः जैनाचार्यों को वैदिक आचार संहिता की ओर मुड़ना पड़ा। यह एक अच्छी बात रही कि इस मोड़ में उन्होंने जैनाचार के मूलरूप को कभी नहीं छोड़ा। यह तथ्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों से भी उद्घाटित होता है।
प्राचार्य हरिभद्रसरि की ग्रन्थ-सम्पदा इतनी समद्ध है कि एक तो वे सारे के सारे उपलब्ध नहीं हो पाते और यदि उपलब्ध हो भी जाएँ तो एक लेख में उनका समूचा उपयोग किया जाना संभव नहीं होगा। श्रावकाचार से सम्बद्ध उनकी कृतियों में विशेष उल्लेखनीय हैं-पंचसूत्रक (टीका), पंचनिपंठी (?), पंचवत्थुग, सावयधम्मविहि पकरण (?) पंचासग, धर्मस्तरं, सावयधम्मतंत, धर्मबिन्दु और ललितविस्तरा। इनमें से मेरे सामने अंतिम दो ही ग्रंथ हैं इसलिए प्रस्तुत निबंध इन दोनों ही के आधार पर लिखा गया है।
श्रावकाचार अनगारचार के लिए एक आधारशिला होती है। अनगार के व्रत-तप आदि प्राचार की प्रक्रिया गृहस्थावस्था में ही प्रारंभ हो जाती है, अतः इस अवस्था का उत्तरदायित्व श्रावकाचार के प्रति विशेष बढ़ जाता है।
श्रावक के लिए गृहस्थ, उपासक और अणव्रती इन तीन शब्दों का प्रयोग अधिक होता है । ये सभी शब्द श्रावक की सीमा को इंगित करते हैं। प्राचार्य उमास्वाति ने श्रावक उसे माना है जो सम्यग-दृष्टि साधुओं के पास उत्कृष्ट समाचारी श्रवण करता है, वह श्रावक है। हरिभद्रसूरि ने श्रावक की अपेक्षा गृहस्थ शब्द का उपयोग अधिक अनुकूल माना और उसे ही सामान्य और विशेष भागों में विभाजित किया।
को दीवो
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चतुर्थ खण्ड | ३०८
धर्मबिन्दु के प्रारम्भ में ही श्रावक धर्म को उपर्युक्त रूप में विभाजित कर सामान्य धर्म निर्देश इस प्रकार किया है
(१) कुल-परम्परानुसार अनिंद्य आचरणपूर्वक न्यायानुसार द्रव्यार्जन करना। प्राचार्य ने इस बिन्दु पर सर्वाधिक बल दिया है। यह तथ्य है कि समृद्धि होने पर दो प्रकार की शंकायें जन्म लेती हैं। एक तो भोक्ता पर संदेह प्रकट होता है और दूसरा भोग्य पर। इन दोनों शंकाओं और संदेहों से बचने के लिए न्यायोपार्जन सर्वाधिक उपयुक्त साधन है। जैसे मेंढक कुए की अोर और पक्षी सरोवर की ओर स्वतः अभिमुख होते हैं वैसे ही शुभकर्म और न्यायोपार्जन करने वालों की ओर लक्ष्मी पराधीन की तरह दौड़ पड़ती है। यह प्रवृत्ति इहलोक और परलोक के लिए सुखदायी होती है। अन्यायपूर्वक सम्पत्ति का अर्जन एकांततः सुखदायी नहीं होता।
हरिभद्रसूरि के उत्तरवर्ती लगभग सभी श्रावकाचारों में न्यायमार्गीय वत्ति पर अधिक बल दिया गया है। जिनेश्वर सूरि का षटस्थान प्रकरण तथा रत्नशेखर सूरि की श्राद्धविधि का विशेष उल्शेख किया जा सकता है । दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने भी इसे श्रावक का प्रथम कर्तव्य माना है। पं० आशाधर ने श्रावक धर्म के योग्य पात्रों की गुरु शृखला में न्यायोपार्जन को सर्वप्रथम स्थान दिया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्रसूरि कालीन जैन-समाज अन्यायपूर्वक द्रव्यार्जन करने लगा होगा। यही कारण है कि प्राचार्य को श्रावक के गुणों और व्रतों में न्यायोपार्जन वत्ति को समाविष्ट कर बार-बार उसे स्मरण करना पड़ा।
(२) प्राचार्य ने सामान्य धर्म की श्रेणि में दूसरा क्रम समान कुल, शील वाले भिन्न गोत्री के साथ विवाह को दिया है। उनकी दष्टि में इससे पारस्परिक प्रीति और स्नेह बन रहता है, छोटे-बड़े का भाव नहीं पा पाता और प्राचार व्यवस्था में भी कोई बाधा नहीं होती। इस संबंध में टीकाकार ने कन्या की प्रायु १२ वर्ष और पुत्र की सोलह वर्ष विवाह के योग्य मानी है जिसे आज स्वीकार नहीं किया जा सकता । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने स्त्री को गृहकार्य तक ही सीमित रखने की वकालत की है।
(३) गृहस्थ का तृतीय धर्म है सदाचारियों की प्रशंसा करना । योगबिन्दु में प्राचार्य ने लोकापवाद से भय, दीन जनों का उद्धार, कृतज्ञता, साधुजनों की प्रशंसा, विनम्रता, अपव्यय से दूर रहना, अप्रमादिता आदि गुणों को सदाचार के अन्तर्गत माना है।
(४) इसके बाद कुछ और भी धर्मों का परिपालन एक सामान्य गृहस्थ के लिए पावश्यक बताया है-(१) इन्द्रिय-संयमन, (२) उपद्रवग्रस्त स्थान का त्याग, (३) योग्य व्यक्ति का आश्रय, (४) सत्संगति, (५) योग्य निवासस्थान, (६) देश-परिस्थिति के अनुसार वेश धारण, (७) आयोचित व्यय, (८) देशाचार परिपालन, जिससे स्थानीय लोग विरुद्ध न हो सर्के (९) निंदित कार्य में अप्रवृत्ति, (१०) राजा आदि की निन्दा न करना, (११) माता-पिता का सत्कार (१२) अशांति के कारणों का त्याग (१३) आश्रितों का भरण-पोषण, (१४) पोष्य
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आचार्य हरिभद्र सूरि का गृहस्थाचार | ३०९ वर्ग की रक्षा, (१५) गौरव रक्षा, (१६) दीन जनों की सेवा, (१७) स्वास्थ्य रक्षा, (१८) लोक-व्यवहार का पालन, (१९) प्रतिदिन धर्म श्रवण, (२०) कदाग्रह का त्याग प्रादि । इन गुणों से युक्त व्यक्ति ही जैन श्रावक होने का अधिकारी है। पं. प्राशाधर ने लगभग इन सभी गुणों को सागारधर्म के अन्र्तगत गिना दिया है।
हरिभद्र के मत से इन सामान्य गुणों से समन्वित होकर गहस्थधर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने लगता है। इसे उसके आध्यात्मिक विकास का द्वितीय चरण कहा जा सकता है। इस चरण में प्राचार्य ने गहस्थदेशना विधि बतायी है। इस विधि में सर्वप्रथम उन्होंने धर्म की व्याख्या की है । यह व्याख्या करते समय धर्म के अधिकारी, चिह्न, गुण आदि पर भी विस्तार से विचार किया है। यह सब कदाचित इसलिए भी किया है कि व्यक्ति जब तक धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित न हो, उसकी ओर अपने प्रभावी कदम नहीं बढा सकता। ललितविस्तरा में तो सर्वप्रथम उन्होंने धर्म के अधिकारी का ही निर्णय किया है। उनकी दष्टि में धर्म का पालन बही कर सकता है जो जिज्ञास हो, विधितत्पर हो, शुद्ध पाजीविका वाला हो और निर्भय हो। इसके साथ ही धर्मकथा प्रीति, धर्म-निन्दा-अरुचि, धर्म-निंदक पर दया, धर्म में चित्त स्थापन, गुरु-विनय, शक्तित: त्याग इत्यादि गुण होना भी आवश्यक है।
इन गुणों से व्यक्ति का हृदय प्राध्यात्मिकता में पक जाता है और वह धर्म के मर्म को समझने लगता है। सम्यग् अध्ययनपूर्वक उसकी कर्तव्य बुद्धि जाग्रत हो जाती है । साधना की विशुद्धि के लिए यह आवश्यक है कि साधक निरपेक्ष होकर कर्मों का उपशमन करे । धर्म को वृक्ष का रूपक देते हुए प्राचार्य ने स्पष्ट किया कि साध्य धर्म की चिन्ता व प्रशंसा करना, धर्म के लिए बीजवपन है, उसकी अभिलाषा करना अंकुरादि अवस्था है, सम्यग् उपदेश का श्रवण करना शाखामों का फटना है, सम्यग् विशुद्ध आचरण करना उसका पत्र-प्रस्फुटन है, सम्यग् आचरण से पुण्य द्वारा देव, मनुष्य आदि जन्मों में सुख प्राप्ति पुष्प अवस्था है। और अंत में मोक्ष की उपलब्धि धर्म की फल अवस्था है।
___ 'धम्मनायगाणं' की व्याख्या में प्राचार्य ने धर्मनायकों के गुणों की ओर संकेत करते हुए धर्म-प्राप्ति का मार्ग तथा उसके फल को स्पप्ट किया है। उन्होंने कहा है कि तीर्थंकर के धर्म नायक होने में चार कारण हैं-धर्म पालन करने का प्रणिधान, उसका निरतिचार पालन, यथोचित धर्मोपदेश और धर्मोपदेश स्वयं देना । धर्म के फलस्वरूप ही तीर्थंकर प्रातिहार्य, समवसरणादि से विभूषित होते हैं । तथ्य यह है कि धर्म एक प्रांतरिक जागृति का शुभ परिणाम है। जिज्ञासा, अभिलाषा और सत्प्रयत्नों से व्यक्ति धर्म की ओर बढ़ता है और समभावी बन जाता है।
प्राचार्य हरिभद्र ने देशना क्रम में यह भी निर्देश दिया है कि प्रवृत्तिमार्गी को क्रिया मार्ग से, प्रेमी को भक्ति मार्ग से, और ज्ञानी को ज्ञान मार्ग से उपदेश दिया जाना चाहिए । इस क्रम से वह उपदेशक श्रावक को स्वाध्याय की ओर प्रेरित कर सकता है । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का पालन करते हुए साधक अध्यात्म की ओर आगे बढ़ जाता है। इस प्रकार पुरुषार्थपूर्वक वह गंभीर देशना प्राप्त करने का अधिकारी
नमो दीयो
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चतुर्थखण्ड / ३१० हो जाता है। बाचना, पृच्छना, परावर्तना, धनुप्रेक्षा, और धर्मकथन से श्रुतधर्म का प्रयास करता है। कष, छेद और ताप से उसका परीक्षण करता है और स्वानुभूति प्राप्त करता है। बारह भावनाओं का चितन करने से उसकी स्वानुभूति में और भी गहराई मा जाती है। धर्मचिंतन के माध्यम से गृहस्य धर्म की ओर अच्छी तरह प्राकर्षित हो जाता है।
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गृहस्थ धर्म के आध्यात्मिक विकास के तृतीय चरण में श्राचार्य हरिभद्र ने विशेष देशना - विधि प्रस्तुत की है। उनका मत है कि इस स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते गृहस्थ संवेग प्राप्त कर लेता है और सम्यग्दृष्टि बन जाता है। सम्यग्दृष्टि होने पर ही वह अणुव्रत ग्रहण करने का अधिकारी है अन्यथा नहीं। सम्यग्दृष्टि ही प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा धौर धास्तिक्य जैसे गुणों से जीवन को उज्ज्वल कर लेता है ।
इसके बाद आचार्य ने बारह प्रणुव्रतों का वर्णन किया है। पंचाणुव्रतों में तो कोई भेद नहीं है पर गुणवतों धौर शिक्षाव्रतों में कुछ अंतर मिलता है। हरिभद्र ने दिपरिमाण भोगोपभोगपरिमाण धीर अनर्थदंड विरमण ये तीन गुणव्रत माने हैं। कुंद-कुंद की परम्परा में भी इन तीनों को गुणव्रत कहा है। उमास्वाति ने अवश्य भोगोपभोग के स्थान पर देशव्रत को स्वीकार किया है। भगवती प्राराधना, वसुनन्दिश्रावकाचार महापुराण धादि में उमास्वाति का ही अणुकरण किया गया है ।
इसी अध्याय में प्राचार्य ने सामायिक, देशावकासिक, प्रोषध, और प्रतिथिसंविभाग इन चार शिक्षाव्रतों को स्वीकार किया है। इसके पूर्व कुंद कुंद ने देशावकासिक न मानकर संलेखना को स्थान दिया है। भगवती धराधना में संलेखना के स्थान पर भोगोपभोग परिमाण व्रत रखा गया और सर्वार्थसिद्धि में उसे स्वतंत्र व्रत का रूप दिया गया । उमास्वाति ने देशाकाशिक की जगह उपभोग- परिभोग परिमाण और समन्तभद्र ने प्रोषधोपवास की जगह वैयावृत्य का समर्थन किया । इन परम्पराओं में दैशिक और कालिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि रही होनी चाहिए।
सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर उसकी रक्षा का उपाय भी सुझाया गया। साधर्मियों की संगति, वत्सलता, नमस्कारमंत्रपाठ चैत्यवंदन, प्रत्याख्यान, चैत्यगमन, पूजा-पाठ, साधुवंदन, उपदेश ग्रहण, चिन्तन, दान, दया, धर्म व्यवहार आदि ऐसे उपाय हैं जिनके आधार से सम्यक्त्व में प्रबलता और दृढता आती है । ललितविस्तरा में भी इनका वर्णन श्राता है । विशेष रूप से वहाँ चैत्यवंदन को अधिक महत्त्व दिया गया है।
इस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र ने धर्मविन्दु और ललित विस्तरा इन दोनों ग्रन्थों में गृहस्थाचार का काल की दृष्टि से वर्णन किया है। कहीं-कहीं लीक से हटकर उन्होंने अपना मत व्यक्त किया है । समय और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने गृहस्थाचार की देशना विधि का जो क्रम दिया है वह निश्चित ही प्रभावक और उद्धारक है । साधक के प्राध्यात्मिक विकास की इतनी सरल और सुलझी हुई रूपरेखा अन्यत्र दिखाई नहीं देती ।
न्यू एक्स्टेन्शन एरिया सदर, नागपुर
१. सति सम्यग्दर्शने न्याय्यमणुव्रतादीनाम् ग्रहणं नान्यथेति धर्म बिन्दु २, ५.
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अंधविश्वास एवं मिथ्या-मान्यताओं के निवारण में नारी की भूमिका
0 माया जैन, एम. ए.
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सभी को समान स्थान एवं समान अधिकार प्राप्त हैं। जिस तरह हमारी मातृभूमि सहिष्णु मानी गयी है, उतनी ही सहिष्णु नारी है। नारी सेवारूपा और करुणाभूपा है। सेवाशुश्रूषा और परिचर्या, दया, ममता आदि के विषय में जब विचार किया जाता है तो हमारी दृष्टि नारी समाज पर जाती हैं । उसकी मोहक आँखों में करुणारूपी ममता का जल और आँचल में पोषक संजीवनी देखी जा सकती है। कुटुम्ब, परिवार, देश, राष्ट्र, युद्ध, शांति, क्रान्ति, भ्रान्ति, अंधविश्वास, मिथ्या मान्यताओं जैसी प्रतिकल स्थितियाँ क्यों न रही हों नारी सदैव इनसे लड़ती रही और अपने साहस का परिचय देती रही।
वह दुःखों को, भारी कार्यों को उठाने वाली क्रेन नहीं है। परन्तु वह इनसे लड़ने वाली एवं निरन्तर चलती रहने वाली प्रारी अवश्य है । मैले आँचल में दुनिया भर के दुःख समेट लेना उसकी महिमा है। बिलखते हुए शिशु को अपनी छाती से लगा लेना उसका धर्म है। वह सभी प्रकार के वातावरण में घुलमिल जाने वाली मधुरभाषिणी एवं धार्मिक श्रद्धा से पूर्ण है। विश्व के इतिहास के पृष्ठों पर जब हमारी दृष्टि जाती है तब ग्रामीण संस्कृति में पलने वाली नारी चक्की, चूल्हे के साथ छाछ को विलोती नजर आती है और संध्या के समय वही अंधेरी रात में प्रकाश के लिए दीपक प्रज्वलित करती है। हर पल, हर क्षण नित्य नये विचारों में डबी हुई रक्षण-पोषण में लगी हुई, अंधविश्वासों से लड़ती हुई नजर आती है। जब वह अपने जीवन के अमूल्य समय को सेवा में व्यतीत कर देती है, तब उसे अंधविश्वास एवं मिथ्यामान्यताओं से कोई लेना-देना नहीं होता है।
उसका सबसे बड़ा विश्वास है आदि पुरुष आदिनाथ की ब्राह्मी एवं सुन्दरी जैसी कन्याओं की तरह धार्मिक संस्कारों से मुक्त होकर समाज की सेवा करते रहना। क्योंकि कन्या की धार्मिक भावना पिता के गृह की अपेक्षा अपने पति के गृह में प्रवेश करके स्वच्छ वातावरण को उत्पन्न करना चाहती है। जहाँ ब्राह्मी और सुन्दरी ने नारी के मनोबल को ऊँचा उठाया वहीं दूसरी ओर सभी तीर्थंकरों की माताओं को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। सभी तीर्थंकरों की माताएँ क्षत्रिय कन्यायें थीं। स्वयं तीर्थंकर भी क्षत्रिय थे। क्षत्रिय धर्म बल को प्रदर्शित करने वाला होता है पर धर्म-बल भी उन्हीं में रहा। . राजुल ने परिवार एवं समाज की चिन्ता न करते हुए एक ऐसे रास्ते को अपनाया, जिस पर चलना बड़ा कठिन समझा जाता था। समस्यायें आई और जगह-जगह कष्टों को झेलना पड़ा, पर उन कष्टों की चिन्ता न करते हुए वह मुक्ति-पथ की खोज में लगी रहीं। चन्दना ने
धम्मो दीवो
संसार समय में
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चतुर्थ खण्ड / ३१२
समाज में नई जागृति पैदा की और कुन्दकुन्द की माता ने कुन्दकुन्द को महान सिद्धान्तवादी एवं अध्यात्मवादी बना दिया।
___ मैनासुन्दरी अंधविश्वास एवं मिथ्या मान्यताओं को तोड़ती है। मैनासुन्दरी कर्मवादी है और सुरसुन्दरी भाग्यवादी है। मैना से जब यह कह दिया जाता है कि-बेटी ! तेरा विवाह एक कोढ़ी से तय कर दिया गया है, तब वह कहती है-मां-बाप केवल विवाह करते हैं, उसके बाद तो कन्या का अपना कर्म ही काम आता है। पिताजी ! जीव कर्म से ईश्वर होता है, कर्म से रंक होता है। जो अपने ललाट पर लिखा है उसे कौन मिटा सकता है। वह विधि का विधान है । मैना अपने अन्तःकरण से धर्मनिष्ठ है। वह समाज के लिए एक आदर्श है जो यह दिखला देना चाहती है कि राजा भी कभी रंक हो सकता है। दुःखी भी कभी सुखी हो सकता है।
भारतीय समाज में नारी कभी क्रीत दासी भी रही। वह कभी चेटी, दासी, लोढी, वादी, गोली, दूती, सेविका एवं धाय आदि के नामों से जानी जाती थी। परन्तु उसमें सेवा एवं धार्मिक भाव सदैव विद्यमान रहा।
समाज में एक अोर अनेक प्रकार की बौद्धिक विचार वाली नारियाँ हैं तो दूसरी ओर अंधविश्वासों से युक्त नारियाँ भी हैं। हमारे समाज में मूल रूप से जादू टोना, सम्मोहन, वशीकरण, उच्चाटन व मंत्र एवं तंत्र प्रचलित हैं। पर ये सभी इस छोटी सी पंक्ति से निराधार सिद्ध हो जाते हैं
'मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावे कोई ।' वेदों में नारियों के सोलह रूप बताये हैं, जो ज्ञान और साधना को अपनाती थीं। लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, वैदिक ऋचाओं में प्रसिद्ध हुईं। जिन्हें समाज का उच्च आदर्श प्राप्त हा उन्होंने मिथ्या मान्यताओं से परे होकर ब्रह्मसाधना पर विशेष बल दिया। रामायण, महाभारत की प्रादर्श नारियाँ उस युग की गाथा को कहती हैं, मीरा समाज के बंधनों को तोड़ देती है। दुर्गावती, चांद बीबी, ताराबाई, अहिल्याबाई, झांसी की रानी क्रान्ति की शिक्षा देती हैं।
नारी का कर्तव्य परिवार को सूखी बनाने में सहायक होता है। बुद्ध और महावीर के बाद अंधविश्वासों एवं मिथ्या मान्यताओं से लड़ती नारियां देखी जा सकती हैं। बुद्ध की मौसी के साथ पांच सौ नारियों ने दीक्षा ली। धर्मप्रचार किया, विम्बसार की रानी क्षेमा, श्रेष्ठिपुत्री भद्रा, कुण्डलकेसा, आम्रपाली, विशाखा आदि ने अपने समय में क्रान्तिकारी कदम उठाया। विशाखा, बसंतसेना आदि ने समाज को नई दिशा दी और नारी के लिए पतिव्रत धर्म के साथसाथ त्याग तपस्या को बल मिला।
नारी को शिक्षित करने का अर्थ है पुरुष को शिक्षित करना, परिवार को शिक्षित करना, कुटुम्ब को शिक्षित करना, समाज को शिक्षित करना। शिक्षा के अभाव में नारी अंधविश्वासों में जकड़ जाती है । वह कभी जादू टोना कराती है, कभी ताबीज बांधती है, कभी डोरा-डंगा बांधती है, और कभी मंत्र और तंत्र में लीन हो जाती है। यह सब इसलिए करती है कि शायद इससे कुछ प्राप्ति हो जाए। परन्तु सचाई यह है कि नारी इन अंधविश्वासों में पड़कर
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अंधविश्वास एवं मिथ्या-मान्यताओं के निवारण में नारी की भूमिका / ३१३
अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है, और कलह का कारण बन जाती है। प्राज यदि नारीसमाज में जागति उत्पन्न हो जाए और जैसा मैनासुन्दरी ने, चन्दना ने, अंजना ने कदम उठाया था वैसी धारणा कर ले तो निश्चित ही एक स्वस्थ समाज की कल्पना साकार हो सकती है।
एक समय ऐसा भी पाया कि नारी हीन.दीन घोषित कर दी गई पर उस बीच में भी नारी ने अपनी बौद्धिक विचारधारा के बल पर पुरुषों के भी छक्के छुड़ा दिये । सांस्कृतिक वातावरण एवं सामाजिक क्षेत्र के विकास में नारियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। कुण्ठानों से परे होकर नारी ने विश्व-क्षितिज पर मिथ्या मान्यताओं को समाप्त किया। साधु जीवन को स्वीकार करके नारी ने अपनी गरिमा को बढ़ाया। आज हमारी श्रमण संस्कृति में जितने श्रमण संघ हैं, उन सभी में नारी श्रमिणों की संख्या, आर्यिकानों की संख्या, ब्रह्मचारिणी बहनों की संख्या अत्यधिक देखी जा सकती है। यह इसलिए नहीं कि उन्हें परिवार में कष्ट था, समाज में दुःख था या नारी के रूप में उचित सम्मान नहीं मिला था। अपितु वे इस कार्यक्षेत्र में इस भावना को लेकर उतरी हैं कि आज हमारे समाज में जो सामाजिक क्रान्ति पुरुष वर्ग नहीं ला सकता है वह सामाजिक क्रान्ति हम धार्मिक क्षेत्र में उतर कर नारी में आस्था के, श्रद्धा के एवं विश्वास के अंकूर पैदा कर ला सकते हैं। समाज में जो कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र की प्रथा प्रचलित है उसे यदि कोई मिटा सकता है तो घर में रहने वाली गहिणी मिटा सकती है। प्राचार्य जिनसेन ने आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले यह बात स्पष्ट कर दी थी कि तप, साधना एवं व्रत आदि करने में और मिथ्या मान्यतामों को दूर करने में नारियाँ अधिक आगे हैं।
स्वयंप्रभा विपुलमति ने गहिणी-धर्म का पालन करते हुए परिवार में धर्म के अंकुर अंकुरित किये । प्राकृत कथानकों में एक कथानक यह है कि एक पत्नी अपने पति-अपनी सास एवं श्वसुर को अधिक उम्र का होते हुए भी बहुत कम उम्र का बतलाती है। श्वसुर क्रोधित होते हैं, पर वह उनकी मिथ्या मान्यताओं का खण्डन करती हुई कहती है-जो व्यक्ति जितनी संस्कारी, जितनी उम्र से हुआ है वह उतनी ही उम्र का है । कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कार से व्यक्ति अच्छा बनता है और उसी से उसकी उम्र नापी जाती है ।
एक मनुष्य था, जिसके दर्शन करने से भोजन भी प्राप्त नहीं होता था। एक बार राजा को भी खाना प्राप्त नहीं हुआ तब वह राजा उस व्यक्ति को मृत्युदंड की सजा सुना देता है । उस प्रसंग में सजायाफ्ता व्यक्ति कहता है-मेरा मुख देखने से किसी को भोजन नहीं प्राप्त होता है परन्तु राजा का मुख देखने से मुझे मृत्युदंड भोगना पड़ रहा है।
यह उदाहरण अंधविश्वास का है। कामायनी में एक हृदयगत भावना इस प्रकार है
तुम भूल गये पुरुषत्व मोह, कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता सम्बन्ध बनी, अधिकार और अधिकारी की। अंधविश्वास को कुप्रथा, कुरीतियों एवं अशुभ विचारों की संज्ञा दी जाती है। अंधविश्वासों में जादू टोना मंत्र-तंत्र विशेष रूप से आते हैं जिन्हें आज भी समाज में देखा जाता है । यदि कोई बुरा कार्य हुआ तो मंत्र तंत्र की ओर हमारी दृष्टि चली जाती है, पर इससे
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चतुर्थ खण्ड | ३१४
कितनों को लाभ हुआ ? नारियों की थोथी मान्यतामों को नारियों के द्वारा ही, जागति पैदा करके दूर किया जा सकता है ।
___ शकुन और अपशकुन सम्बन्धी निराधार धारणाएँ भी समाज में देखी जाती हैं। तीर्थंकरों की माताओं ने जो स्वप्न देखे थे वे शुभ शकुन थे, जिनका अपना विशेष महत्त्व था। वे स्वप्न धर्मनिष्ठ एवं श्रुतशीला नारी को ही दिखे । आज की नारी को भी स्वप्न दिखते हैं, पर वे सत्य से परे इसलिए हो जाते हैं कि उनके जीवन में धार्मिकता के बीज नहीं हैं । अपशकुनों का बोलबाला आज भी समाज में है-यथा-बिल्ली का रास्ता काट जाना, छींक आना आदि । पर उन पर विचार किया जाए तो ये अपशकुन क्यों हैं, इसका किसी को पता ही नहीं है अतः इन अंधविश्वासों को त्यागना होगा और इन्हें समाप्त करने के लिए नारियों को आगे माना होगा। आज की सबसे बड़ी कुरीति दहेजप्रथा समाज में व्याप्त हो रही है। दहेज की बलिवेदी पर कन्यायें चढा दी जाती हैं । इसका सबसे बड़ा कारण धार्मिक जागृति का न होना ही कहा जा सकता है । आत्महत्या जघन्य अपराध है, पर प्रात्महत्या क्यों और किसलिए की जाती है यह तो सर्वविदित ही है । ऐसे जघन्य अपराधों को नारी ही रोक सकती है।
अाज हमारे समाज में मिथ्या-मान्यताओं का भी बोलबाला है। किसी शुभ कार्य के प्रसंग पर अपने इष्टदेव का स्मरण न कर, अन्य देवी देवताओं को पूजना, मन्दिर में तीर्थंकर की प्रतिमा, वीतरागता के भावों को प्रदर्शित करने वाली होती है पर व्यक्ति धनोपार्जन की लालसा आदि को लेकर यक्ष-यक्षिणियों, पद्मावती आदि की मूर्तियों की पूजा करने लगते हैं। मैं यहाँ यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यक्ष-यक्षिणियां पद्मावती आदि श्रद्धा की पात्र तो हो सकती है परन्तु पूजा की पात्र नहीं।
अंत में यही कहा जा सकता, है कि अत्याचार, अनाचार, दुराचार, पाखण्ड आदि को दूर करने में नारी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, क्योंकि उसके व्यावहारिक जीवन में मातृत्व गुण के अतिरिक्त पवित्रता, उदारता, सौम्यता, विनयसम्पन्नता, अनुशासनप्रियता, प्रादर सम्मान की भावना आदि गुणों का पुट मणि-कांचन की तरह होता है।
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जैनधर्म में अहिंसा
डॉ० श्रीरंजन सरिदेव
अहिंसा जैनधर्म की आधारशिला है। जैन- चिन्तकों ने अहिंसा के विषय में जितनी गम्भीर सूक्ष्मेक्षिका से विचार-विश्लेषण किया है, उतनी सूक्ष्म दृष्टि से कदाचित् ही किसी अन्य सम्प्रदाय के विचारकों ने चिन्तन किया हो । जैनों की श्रहिंसा का क्षेत्र बड़ा व्यापक है । उनके अनुसार हिंसा बाह्य और आन्तरिक दोनों रूपों में सम्भव है । बाह्यरूप से, किसी जीव को मन, वचन और शरीर से किसी प्रकार की हानि या पीड़ा नहीं पहुँचाना तथा उसका दिल न दुःखाना अहिंसा है तो प्रान्तरिक रूप से राग-द्वेष के परिणामों से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थित होना श्रहिंसा है । बाह्य अहिंसा व्यावहारिक अहिंसा है, तो प्रान्तरिक हिंसा निश्चयात्मक अहिंसा । इस दृष्टि से व्यावहारिक रूप से जीव को प्राघात पहुँचाना यदि हिंसा है, तो आघात पहुँचाने का मानसिक निश्चय या संकल्प करना भी हिंसा ही है । वस्तुतः अन्तर्मन में राग-द्वेष के परिणामों से निवृत्तिपूर्वक समता की भावना जब तक नहीं प्रती, तब तक अहिंसा सम्भव नहीं । इस प्रकार प्रति व्यापक रूप में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि सभी गुण अहिंसा में ही समाहित हैं। कुल मिलाकर, अहिंसा ही जैनधर्म की मूल धुरी है और इसीलिए जैन- दार्शनिकों ने अहिंसा को परमधर्म कहा है ।
व्यावहारिक दृष्टि से यदि देखें, तो जल, स्थल, आकाश आदि में सर्वत्र ही क्षुद्रातिक्षुद्र जीवों की अवस्थिति है, इसलिए बाह्यरूप में पूर्णतः प्रहिंसा का पालन सम्भव नहीं है; परन्तु यदि अर्न्तमन में समता की भावना रहे और बाह्यरूप में पूर्ण यत्नाचार के पालन में प्रमाद न किया जाए तो बाह्य जीवों की हिंसा होने पर भी सोद्देश्य हिंसा की मनःस्थिति के प्रभाव के कारण साधक या श्रावक मनुष्य श्रहिंसक ही बना रहता है ।
स्वयं चलने फिरने वाले
इस प्रकार जैनों के 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि प्राधार ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि अहिंसा मुख्यतः दो प्रकार की है, स्थूल अहिंसा और सूक्ष्म अहिंसा । त्रस जीवों अर्थात् अपनी रक्षा के लिए ( यानी कीट, पतंग और पशु-पक्षी से मनुष्य तक ) दो इन्द्रियों से पांच इन्द्रियों तक के जलचर थलचर और खेचर जीवों की हिसा नहीं करनी चाहिए और अकारण एकेन्द्रिय, अर्थात् वनस्पतिकायिक प्रभृति जीवों की भी हिंसा यानी पेड़ों को काटना या उनकी डालियों और पत्तों को तोड़ना आदि कार्य भी नहीं करना चाहिए । यह स्थूल अहिंसा व्रत है और फिर जो श्रावक मनुष्य जीवों के प्रति दयापूर्ण व्यवहार करता है, सभी जीवों को श्रात्मवत् मानता है और अपनी निन्दा करता हुआ दूसरे प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाता है तथा मन, और वचन और शरीर से त्रस जीवों की न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरे से कराता है और न दूसरे के द्वारा की जाने वाली हिंसा का अनुमोदन करता है, वह सूक्ष्म अहिंसा का पालन करने वाला कहा गया है । इस प्रकार सर्वतोभावेन जीवों की रक्षा करना ही श्रहिंसा व्रत है ।
धम्मो दोनो कार में
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चतुर्थ खण्ड | ३१६
प्राद्य जैन चिन्तक प्राचार्य उमास्वाति ने 'तत्त्वार्थसूत्र' (७/४) में अहिंसा-व्रत के पालन के लिए साधनस्वरूप पांच भावनामों का उल्लेख किया है-वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान-निक्षेपणसमिति और पालोकित पान-भोजन । इन भावनाओं का अर्थ मोटे तौर पर लें, तो हिंसा से बचने के निमित्त वचन के व्यवहार में सतर्क रहना या प्रमाद न करना ही वचनगुप्ति है, मन में हिंसा की भावना या संकल्प को उत्पन्न न होने देना मनोगुप्ति है, चलनेफिरने, उठने-बैठने आदि में जीवहिंसा न हो, यानी जीव को नष्ट न पहंचे, इसका ध्यान रखना ईर्यासमिति है, किसी वस्तु को उठाने-रखने में जीव हिंसा से बचना आदान-निक्षेपणसमिति है और निरीक्षण परीक्षण करके भोजन पान ग्रहण करना आलोकित पान भोजन है । इससे स्पष्ट है कि राग, द्वेष, प्रमाद प्रादि से सर्वथा रहित होने की स्थिति ही अहिंसात्मक स्थिति है।
'सर्वार्थसिद्धि' (७.२२।३६३।१०) में कहा गया है; मन में राग आदि का उत्पन्न होना ही हिंसा है और न उत्पन्न होना अहिंसा । और फिर 'धवलापुस्तक' (१४१५, ६, ९३।५।९०) के लेखक ने कहा है, जो प्रमादरहित है, वह अहिंसक हैं और जो प्रमादयुक्त है, वह सदा के लिए हिंसक है। इसलिए धर्म को अहिंसालक्षणात्मक (परमात्म प्रकाशटीका: २१६८) कहा गया है और अहिंसा जीवों के शुद्ध भावों के बिना संभव नहीं है। प्रात्मरक्षा की दृष्टि से भी अन्य प्राणियों की अहिंसा के धर्म का पालन अत्यावश्यक है। जो आत्मरक्षक नहीं होता, वह पररक्षक क्या होगा? 'आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः जैसी नीति के समर्थक सर्वजीवदयापरायण भारतीय नीतिकारों की 'प्रात्मानं सततं रक्षेत्' की अवधारणा इसी अहिंसासिद्धान्त पर पाश्रित है।
"ज्ञानार्णव" (८।३२) में अहिंसा जगन्माता की श्रेणी में परिगणित है। इस ग्रन्थ में जगन्माता के विमल व्यक्तित्व से विमण्डित अहिंसा के विषय में कहा गया है:
अहिंसव जगन्माताऽहिंसेवानन्दपधतिः ।
अहिंसैव गतिः साध्वी श्रीरहिसेव शाश्वती ॥ अर्थात् अहिंसा ही जगत् की माता है; क्योंकि वह समस्त जीवों का परिपालन करती है। अहिंसा ही प्रानन्द का मार्ग है। अहिंसा ही उत्तमगति है और शाश्वती, यानी कभी क्षय न होने वाली लक्ष्मी है । इस प्रकार, जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सब इस अहिंसा में ही समाहित हैं।
इसीलिए तो 'अमितगतिश्रावकाचार' (१११५) में कहा गया है कि जो एक जीव की रक्षा करता है, उसकी बराबरी पर्वतों सहित स्वर्णमयी पृथ्वी को दान करने वाला भी नहीं कर सकता । 'भावपाहुड' (टी० १३४१२८३) में तो अहिंसा को सर्वार्थदायिनी चिन्तामणि की उपमा दी गई है। चिन्तामणि जिस प्रकार सभी प्रकार के अर्थ की सिद्धि प्रदान करती है, उसी प्रकार जीवदया के द्वारा सकल धार्मिक क्रियाओं के फल की प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, प्रायुष्य, सौभाग्य, धन, सुन्दर रूप, कीर्ति प्रादि सब कुछ एक अहिंसावत के माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जैनशास्त्रों में अहिंसा की प्रचुर महत्ता का वर्णन उपलब्ध होता है, जिसका सारतत्त्व यही है कि अहिंसाव्रत के पालन के लिए भावशुद्धि और आत्म
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जैनधर्म में अहिंसा/३१७
शुद्धि आवश्यक है। इसके बिना राग-द्वेष और प्रमाद का विनाश संभव नहीं है, अथच इन दोनों के विनाश के बिना अहिंसा व्रत का पालन असंभव है।
जैनशास्त्र में हिंसा के चार प्रकार माने गए हैं, संकल्पी, उद्योगी, प्रारंभी और विरोधी। अकारण संकल्पजन्य प्रमाद से की जानेवाली हिंसा संकल्पी है । भोजन आदि बनाने, घर की सफाई आदि करने जैसे घरेल कार्यों में होने वाली हिंसा प्रारम्भी है, जिसकी तुलना ब्राह्मणपरम्परा की स्मृति में वर्णित 'पंचसूना' दोष से की जा सकती है। अर्थ कमाने के निमित्त किये जाने वाले व्यापार धन्धे में होने वाली हिंसा उद्योगी है और अपने आश्रितों की अथवा देश की रक्षा के लिए युद्ध आदि में की जाने वाली हिंसा विरोधी है । इन चार प्रकार की हिंसानों में सर्वाधिक खतरनाक संकल्पी हिंसा है। यही हिंसा शेष तीन प्रकार की हिंसानों का मूल कारण है । संकल्पी हिंसा का मन में उत्पन्न होना ही भीषण से भीषणतर नरसंहार की घटनामों का कारण बन जाता है। मनुष्य के मन में जब हिंसा का संकल्प उदित होता है, तब वह निरन्तर अप्रशस्त ध्यान यानी प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान में रहता है। रौद्रध्यानी या प्रार्तध्यानी मनुष्य सदैव असत्य का प्राश्रय लेता है और असत्य वचन बोलने वाला निश्चित रूप से हिंसक होता है।
जैनशास्त्र में सत्य और असत्य के परिप्रेक्ष्य में हिंसा और अहिंसा पर भी बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है । जैसा हुअा हो, वैसा ही कहना अर्थात् यथार्थ कथन ही सत्य कथन का सामान्य लक्षण है। "महाभारत" में व्यासदेव ने कहा है, 'यल्लोकहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति नः श्रुतम् ।' इसका तात्पर्य है, जो अधिक से अधिक लोकहित साधक है, वही सत्य है। स्पष्ट है कि लोक का हित अहिंसा से और उसका अहित हिंसा से जुड़ा हुआ है।
अध्यात्ममार्ग में स्व और पर दोनों के लिए अहिंसा अनिवार्य है । आत्मगत या परगत रूप में अहिंसा धर्म के पालन के क्रम में सत्यकथन के निमित्त वचनगुप्ति या हित और मित वचन का प्रयोग आवश्यक होता है और यही हित और मित वचन सत्यवचन होता है। कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि अहिंसा के लिए 'कथांचित् असत्यं भी बोलना पड़ता है । और नीतिकारों का कथन है कि 'प्रिय सत्य' बोलना चाहिए, 'अप्रिय सत्य' नहीं । तो यह एक प्रकार की द्विविधा की स्थिति हो जाती है किन्तु, जो ज्ञानी या मोहरहित पुरुष होते हैं वे इस द्विविधा की स्थिति को बड़ी निपुणता से संभाल लेते हैं।
एक कहानी है कि एक बार व्याध के बाण से पाहत मृग प्रात्मरक्षा के लिए किसी मुनि के आश्रम में जाकर छिप गया। व्याध, उसका पीछा करता हुअा अाश्रम में पहुँचा और मुनि से उसने पूछा कि आपने मेरे शिकार (मृग) को देखा है ? मुनि अपने मन में सोचने लगे'यदि मैं सच कह देता हूँ तो एक निरीह जीव की हिंसा हो जायेगी और झूठ बोलता हूँ, तो मिथ्याभाषण का दोषी हो जाऊंगा।' अन्त में उन्होंने यथार्थ कथन की एक युक्ति निकाली और व्याध से कहा :
यः पश्यति न स ब्रूते यो ब्रूते स न पश्यति ।
अहो व्याध स्वकार्याथिन् ! किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ अर्थात् जो (नेत्र) देखता है वह बोलता नहीं और जो (मुख) बोलता है, वह देखता नहीं है । इसलिए अपने मतलब साधने वाले अरे व्याध ! तू (मुझसे) बार-बार क्या पूछता है ?
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चतुर्थखण्ड / ३१८
मुनि की बात सुनकर व्याध वहाँ से खिसक गया और इस प्रकार एक प्राणी की हिंसा होते होते भी नहीं हुई । तो सत्य और असत्य भाषण की द्विविधात्मक स्थिति में भी युक्तिपूर्वक सत्य का पालन करना प्रत्येक सुजान व्यक्ति के लिए अपेक्षित है ।
प्रसिद्ध जैनाचार ग्रन्थ 'बारस प्रणुदेवखा' की गाथा सं. ७४ में लिखा है, "जो मुनि दूसरों को क्लेश पहुँचाने वाले वचनों का त्यागकर अपने और दूसरे का हित करने वाला वचन बोलता है, वह सत्य धर्म का पालक होता है ।"
यों, सत्य की परिभाषाएँ अनेक हैं किन्तु मोटे तौर पर असत्य के विरुद्ध वाणी के समस्त प्रकार का प्रयोग सत्य है जैनाचार्य पद्मनन्दिकृत 'पंचविंशतिका' में कहा गया है कि मुनियों को सदैव स्व पर हितकारक परिमित तथा प्रमृत-सदृश सत्यवचन बोलना चाहिए। यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत हो, तो मौन रहना चाहिए। स्थूल सत्यव्रत तो यह है कि राग और द्व ेष से विवश होकर श्रसत्य नहीं बोलना चाहिए और सत्य भी हो, लेकिन प्राणीहिंसक हो, तो उसे भी नहीं बोलना चाहिए ।
अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों की दृष्टि में विशुद्ध सत्य कुछ भी नहीं होता । श्रपेक्षया सत्य भी असत्य होता है और अपेक्षया असत्य भी सत्य होता है । अर्थात्, एक ही वस्तु अपेक्षया सत्य और अपेक्षया असत्य भी हो सकती है । उदाहरण के लिए कोई सच्ची किन्तु कड़वी बात किसी से कह दी गई, घोर उससे उसके हृदय को चोट पहुंची, तो उक्त सच्ची बात अपनी यथार्थता की अपेक्षा से सच्ची (महिंसाकारक) होते हुए भी कहने की अपेक्षा से झूठी ( हिंसाकारक) बन गई और फिर शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'पंकज' का सामान्य लोकरूढि अर्थ है 'कमल' । किन्तु कमल केवल पंक से ही तो नहीं उत्पन्न होता, अपितु उसके लिए पंचभूत के सम्मिलित प्रभाव की अपेक्षा होती है। इस प्रकार कमल को पंकज कहना लोकरूढि की अपेक्षा से सस्य होते हुए भी पंचभौतिक प्रभाव की अपेक्षा से असत्य है। इसलिए जैन दृष्टि किसी भी वस्तु को केवल सत्य न मानकर उसे सत्यासत्य यानी उभयात्मक या अनेकात्मक मानती है। स्पष्ट है कि हिंसा की अपेक्षा से सत्य भी ग्राह्य है और अहिंसा की अपेक्षा से असत्य भी ग्राह्य है और यहीं तब व्यास की पूर्वोद्धृत उक्ति चरितार्थ होती है कि 'यल्लोक हितमत्यन्तं तत्सत्यमिति नः श्रुतम् । अर्थात् अधिकाधिक लोकहित हो, चाहे वह जिस किसी प्रकार से हो, सत्य है ।
महाभारत युद्ध में युधिष्ठिर के द्वारा भंग्यन्तर से कही गई उक्ति, 'अश्वत्थामा हतः कुञ्जरो वा नरो वा' असत्यगन्धी होते हुए भी लोकहित की दृष्टि से असत्य नहीं थी। युधिष्ठिर के लिए श्रात्महित की अपेक्षा से उनकी उक्ति यदि असत्य ( हिंसक ) थी, तो व्यापक लोकहित की अपेक्षा से सत्य (अहिंसक ) थी । अपने पुत्र प्रश्वत्थामा की मृत्यु-सूचना से, चाहे वह गलत ही थी, द्रोणाचार्य शोकाहत हुए और उनके द्वारा की जाने वाली भीषण विरोधी प्राणिहिंसा में शोक से चित्यवश सहज ही न्यूनता था गई, जो लोकहित या युद्धशान्ति के प्रयास के रूप में ही मूल्यांकित हुई।
प्राचीन 'युग में सत्य और अहिंसा के बहुत बडे प्रववत्ता भगवान् महावीर हुए और अर्वाचीन युग में महात्मा गांधी ने भगवान् महावीर के सत्य और अहिंसा की प्रासंगिकता को लोकतांत्रिक दृष्टि से अधिक से अधिक विकासात्मक व्याख्या की और दोनों ही महात्मा इस
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जैनधर्म में अहिंसा | ३१९
बिन्दु पर एकमत दिखाई पड़ते हैं कि अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी प्रसत्य भी सत्य है । उदाहरण के लिए, अगर किसी रोगी की हालत बिगडने लगती है, तो डॉक्टर हितभावना से उसकी तसल्ली के लिए उसके हृदय को मृत्यु के पातंक से बचाने के लिए उसके ठीक हो जाने का झूठा आश्वासन देता है । यह हितकारी होने के कारण असत्य होते हुए भी सत्य ही है। ठीक इसके विपरीत रोग की भीषणता की सत्य बात कहकर रोगी को प्रातंकित करने वाला व्यक्ति सत्य बोलते हुए भी अहितकारी होने के कारण असत्य या हिंसक वाणी बोलता है। इसी सन्दर्भ में 'लाटीसंहिता' में जिन-वचन का उल्लेख प्राप्त होता है:
सत्यमसत्यतां याति क्वचिद् हिसानुबन्धतः ।
असत्यं सत्यतां याति क्वचिद् जीवस्य रक्षणात् ॥ अर्थात् जिस बात से जीव हिंसा संभव हो, वह सत्य होकर भी प्रसत्य हो जाता है। इसी प्रकार, क्वचित् जीवों की रक्षा होने से असत्य वचन भी सत्य हो जाता है। 'अनगारधर्मामृत' में इसी सिद्धान्त का समर्थन किया है:
सत्यं प्रियं हितं चाहुः सूनृतं सूनृतव्रताः।
तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ।। जो वचन प्रशस्त, कल्याणकारक आह्लादक तथा उपकारी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रत पुरुषों ने सत्य कहा है, किन्तु वह वाणी सत्य होकर भी सत्य नहीं है जो प्रप्रिय और अहितकर अर्थात् हिंसक है।
जैनधर्म की अहिंसा की यह व्याख्या अतिशय व्यावहारिक होने के कारण वर्तमान सन्दर्भ में भी अपना ततोऽधिक मूल्य रखती है ।
-पी० एन० सिन्हा कॉलोनी,
मिखना पहाड़ी, पटना-८००००६
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मानवता के साधनासका
मानवतन अनन्त दिव्यताओं का वरण करने एवं लघु से महान बनने के लिए प्राप्त होता है। किन्तु मानव की जीवन-धरती पर खड़ा होने वाला मानवता का प्रासाद भी गगनचुम्बी भव्यप्रासाद की तरह नींव की अपेक्षा रखता है । मन का मानव बने बिना मानवतन प्राप्त हो जाने का कोई अर्थ नहीं है।
मानव और मानव-जीवन की तथ्यपरक व्याख्या करते हुए विज्ञजनों ने अपनी-अपनी अनुभूतियाँ इस रूप में व्यक्त की हैं-जीवन का उद्देश्य भौतिक ऐश्वर्य और ऋद्धि प्राप्त कर लेना नहीं है, अपितु उस अान्तरिक सौन्दर्य, समृद्धि को प्राप्त करने की प्रोर अग्रसर होना है जिसमें प्रानन्द, अभय और अनुराग की धारा प्रवाहित है।
एतदर्थ मानव के समक्ष आज बड़े-बड़े प्रादर्शों का शंखनाद करने की आवश्यकता नहीं है। इनकी अोट में कर्णप्रिय शब्दावली के स्वर भी गूंज रहे हैं, लेकिन उनमें प्रोज नहीं है। अतएव बजाय इनके उन जीवन-सूत्रों की आवश्यकता है जो मानवमात्र के भ्रान्त, क्लान्त, श्रान्त अन्तःकरण को जगमगा दें और जीवनपथ स्पष्ट दिखने लगे।
मानव की मौलिक आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित हैं। लेकिन समस्या है परस्पर विरोध रूप में सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय प्रादि कर्तव्यों के पालन करने की । इसके समाधान के लिये विश्व वाङमय की प्रत्येक शाखा-प्रशाखा ने विस्तार से प्रकाश डाला है, लेकिन उन सबका यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है । अतः मानवता की सुरक्षा
और मानव विकास के लिये कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने मार्गानुसारी के गुणों के रूप में जिन साधना-सूत्रों का व्याख्यान किया है, उनका यहाँ नामोल्लेख कर देना पर्याप्त है। उनमें मानवता की दिव्य कला सीखने के साथ सरल, सरस, सुबोध अर्थ गंभीर शैली में मानव-जीवन की सर्वांगीण सुरम्य झांकी उपस्थित है । यथा
न्यायनीति से धनोपार्जन करना। शिष्ट पुरुषों के प्राचार की प्रशंसा करना । कुल और शील में समान भिन्न गोत्रवालों से विवाह-सम्बन्ध करना । पापभीरु होना । प्रसिद्ध देशाचार का पालन करना । किसी की और विशेष रूप में राजा आदि की निन्दा न करना । एकदम खुले
और गुप्त स्थान पर घर नहीं बनवाना। बाहर निकलने के अनेक द्वारों वाला घर न हो। सज्जनों की संगति करना। माता-पिता आदि गुरुजनों की सेवा-भक्ति करना। चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले प्रसंगों से दूर रहना । निन्दनीय कार्यों में प्रवृत्ति न करना । प्राय के अनुसार व्यय करना। आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्रादि पहनना । प्रतिदिन धर्म श्रमण करना । अजीर्ण होने पर भोजन न करना। नियत समय पर संतोषपूर्वक भोजन करना । अविरोध रूप से धर्मादि पुरुषार्थचतुष्टय का सेवन करना। अतिथि, साधु, दीन जनों का यथायोग्य सत्कार करना । दुराग्रह नहीं करना । गुणानुरागी होना। देश और काल के प्रतिकल आचरण न करना । अपनी शक्ति-सामर्थ्य की मर्यादा को समझ कर कार्य-प्रवृत्ति करना। सदाचारी और गुणी जनों की विनय-भक्ति करना । अधीनस्थों का पालन-पोषण करना । दीर्घदर्शी होना । अपने हिताहित को समझना। कृतज्ञ होना। लोकप्रिय होना । लज्जाशील होना। दयावान होना। प्रसन्नहृदय होना । परोपकार करने में तत्पर रहना । कामादि विकार एवं इन्द्रियजयी होना।
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आज के जीवन में अपरिग्रह का महत्व
D डॉ० हुकुमचन्द जैन
एम. ए., पी-एच. डी., सहायक आचार्य
यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसको अपना जीवनयापन करने के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुनों की श्रावश्यकता होती है। उन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समाज में रहकर विभिन्न प्रकार के प्रयत्न करता है और आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करके अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाता है। किन्तु मनुष्य में बुराई वहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से वह अपनी इच्छाओं को संयमित करने के बजाय उनकी वृद्धि करता है और उनकी पूर्ति हेतु कुमार्ग पर चल पड़ता है। यही उसके जीवन का अन्धकारमय पक्ष है । इसी अन्धकारमय पक्ष के वशीभूत होकर वह वस्तुओं का अनावश्यक संग्रह प्रारम्भ कर देता है और इस तरह से उसमें परिग्रह-वृत्ति जन्म से लेती है। इसी परिग्रह-वृत्ति से मानसिक विकारों की परम्परा प्रारम्भ हो जाती है । इन मानसिक विकारों की परम्परा के मूल में इच्छा - तृष्णा विद्यमान रहती है । उत्तराध्ययन सूत्र में ठीक ही कहा है, यदि कैलाश पर्वत के समान सोने चाँदी के असंख्य पर्वत हों फिर भी तृष्णावान् मनुष्य को उन पर्वतों से कुछ भी संतोष नहीं मिलता । निश्चय ही इच्छा प्राकाश के समान अनन्त है। मनुष्य की कुछ प्रवृत्ति ऐसी होती है कि लाभ होने के साथ लोभ की वृत्ति बढ़ जाती है श्रोर लोभ-वृत्ति ही परिग्रहवृत्ति को बढ़ाती है। यह परिग्रह वृत्ति जब सीमा को लांघ जाती है तो व्यक्ति वस्तुओं की प्राप्ति के लिए हिंसा, चोरी, प्रसत्य श्रादि का दास हो जाता है । जो व्यक्ति उसकी परिग्रहवृत्ति के पोषण में सहायक होता है, उसको ही वह अपना समझता है और जो व्यक्ति उसकी परिग्रह-वृत्ति पर रोक लगाना चाहते हैं उनसे उनका वैर हो जाता है। इस कारण से उसके जीवन में क्रोध कषाय प्रबल हो जाता है । जैसे उसके लिए क्रोध प्रबल हो जाता है वैसे अत्याचार करने में उसको कोई हिचकिचाहट नहीं होती। इसी परिग्रह-वृत्ति के कारण वह अनेक प्रकार के दुःखों से ग्रस्त हो जाता है । सदैव एक मानसिक क्षोभ का अनुभव करता है । इसी मानसिक क्षोभ का उदाहरण नेमिचन्द्रसूरि कृत रयणचूडरायचरियं में देखा जा सकता है । हिण्डोला-क्रीड़ा के समय मानसिक काम - विकार की पूर्ति हेतु धन का अनावश्यक संचय करने के लिए सोमप्रभ ब्राह्मण जंगल-जंगल भटक कर मानसिक दुःखों से पीड़ित रहता है।
परिग्रहवृत्ति का प्रबलतम कारण मनुष्य की प्रासक्तिमय मानसिक अवस्था है। इस श्रासक्ति के परिणामस्वरूप व्यक्ति जीवन में अनावश्यक संग्रह को महत्त्व देने लगता है । यह संग्रहवृत्ति एक ओर जहाँ व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है, वहाँ दूसरी और सामाजिक जीवन को भी गड़बड़ा देती है। संप्रवृत्ति से बाजार में कृत्रिम प्रभाव पैदा हो जाता है, वस्तुनों के भावों में तेजी आने लगती है जिससे सामान्य जन कठिनाई का अनुभव करता है । इससे गरीब और अधिक गरीब हो जाता है और अधिक अमीर हो जाते हैं। समाज में एक प्रार्थिक विषमता शोषणवृत्ति फैलती है एवं भ्रष्टाचार को प्रश्रय मिलता है।
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परिग्रह - वृत्ति वाले श्रमीर उत्पन्न हो जाती है । इससे
१. उत्तराध्ययनसूत्र, नमिपवज्जा अध्ययन, गा० नं० ४८ २. समणसुत्त, गा० नं० ९७
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आज के जीवन में अपरिग्रह का महत्त्व /३२१
मनुष्य की सामान्य आवश्यकता है भोजन, वस्त्र और मकान । यदि ये वस्तुएँ सभी को सामान्य रूप से उपलब्ध हो जाएं तो व्यक्ति का बहुत कुछ दुःख कम हो सकता है। किन्तु परिग्रह-वृत्ति वाले लोग समाज में कृत्रिम प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं और इन वस्तुओं के दाम
आसमान छूने लग जाते हैं, जो सामान्य जन के दुःख का कारण होते हैं । इस तरह से समाज में कुछ ही परिग्रह-वृत्ति वाले लोग अधिकांश लोगों को दुःखी करने में सफल हो जाते हैं।
परिग्रह-वृत्ति का एक आयाम मुनाफाखोरी भी है। इसके वशीभूत होकर व्यक्ति अत्यधिक मुनाफा कमाने लग जाता है और उसे जनजीवन के सुख का कोई भान नहीं रहता है । इसका भी सबसे बड़ा कारण व्यक्ति की अपनी भोग-विलास की प्राकाँक्षा की पूर्ति है। अत्यधिक प्रासक्ति के कारण जीवन में भोग-विलास की प्रवत्ति बढ़ती है और व्यक्ति इस कारण से अत्यधिक मुनाफा कमा करके धन-संचय की ओर अग्रसर हो जाता है।
परिग्रह-वृत्ति से मानसिक क्षमता एवं शांति नष्ट हो जाती है । व्यक्ति में राग-द्वेष की वृत्ति बढ़ने से इसका सामाजिक समायोजन विकृत हो जाता है और समता के अभाव में मनुष्य आत्महित की ओर अग्रसर नहीं हो सकता । जीवन में अशांति होने से मनुष्य में उच्च विचारों का ग्रहण कठिन हो जाता है। व्यसनों के मूल में भी परिग्रहवत्ति ही उपस्थित रहती है।
यदि हम विभिन्न राष्ट्रों के आपसी संबंधों की ओर ध्यान दें तो परिग्रह-वत्ति के कारण शक्तिसंग्रह ही संघर्षों में तनाव उत्पन्न करता है। शक्तिसंग्रह भी परिग्रह-वृत्ति का एक रूप है। विभिन्न राष्ट्र अपनी सीमावृद्धि के लिए तथा वैचारिक मतभेद के कारण दूसरे राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं और अपनी शक्ति-संवर्धन के लिए दूसरे राष्ट्रों के साथ युद्ध में उतर जाते हैं। परमाण बम, सेना, हथियार आदि सभी का संग्रह मनुष्य की परिग्रह-वृत्ति से उत्पन्न कलुषित भावना के उदाहरण हैं। परिग्रह-वृत्ति के कारण राष्ट्र अपने विज्ञान एवं वैज्ञानिकों का भी दुरुपयोग करता है। मानव-कल्याण की भावना उनके लिए गौण होती है और अपने राष्ट्र को सर्वोपरि बनाना उनके लिए मुख्य होता है । जिस तरह से व्यक्ति का अहंकार उसको दूसरे व्यक्तियों का शोषण करने में लगाता है उसी प्रकार राष्ट्रों का अपना अहंकार भी दूसरे राष्ट्रों के शोषण में लग जाता है । यह शोषण राष्ट्रों के स्तर पर परिग्रहवृत्ति का ही परिणाम है।
___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य की अधिकांश बुराई के मूल में परिग्रहवृत्ति ही उपस्थित रहती है। मानवीय विकास के लिए इस वृत्ति को नष्ट करना व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में है। जैन-दर्शन ने इस वत्ति की भीषणता को समझा है और उसको समाप्त करने के लिए सम्यक्चारित्र का उपदेश दिया है। यह सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान सहित होना चाहिए । गृहस्थ के लिए परिग्रह-परिमाणवत की व्याख्या की है, जिसका पालन करने से व्यक्तिगत शान्ति एवं सामाजिक विकास दोनों ही संभव हैं। इसलिए हमारे जीवन में अपरिग्रह का अत्यन्त महत्त्व है।
-जैनविद्या एवं प्राकृतविभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर (राज.)
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धर्म की दिशा
0 डॉ० भगवतीलाल राजपुरोहित
धर्म के ज्ञाता तथा उसके प्रचारक भारत में साधु कहलाते हैं। दूसरों का काम साधने से यह शब्द सार्थक है। वैसे संसार के अन्य धर्मों में भी ऐसे धर्मज्ञ होते ही हैं। धर्म-प्रचार का काम लोकोपकार का तो है ही, बड़ा कष्टसाध्य, समयसाध्य और बुद्धिसाध्य भी है। यह सब सांसारिक बंधनों के रहते साधा नहीं जा सकता। इसलिए गृहत्याग की ओर उन्मुख होते हैं । गृहत्याग कर धर्म सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर उसका जन-जन में प्रचार करने में ही अपना जीवन अपित कर देते हैं। यह त्याग भारतीयों के लिए सदा से प्रणम्य रहा है। इसलिए भारत में साधुओं का सम्मान सदा से रहा है। शासक भी उनके सामने सदा झुकते आये हैं।
इन धर्मज्ञों ने धर्मग्रन्थों की रक्षा की। धर्म और दर्शन का अध्ययन-चिंतन कर नये धर्मग्रन्थ निर्मित किये । भविष्य के लिए नये ज्ञानपंथों का प्रवर्तन किया। समय और परिस्थिति के अनुसार नये-नये नियम बनाये सदाचार के, लोकाचार के साधुनों सम्बन्धी भी, गृहस्थों सम्बन्धी भी। समय-समय पर औचित्य-अनौचित्य के आधार पर नियम बनते, विस्मृत होते चले गये । वास्तव में सभी नियम युगसापेक्ष होते हैं। जो युग का साथ नहीं देते, वे त्याज्य हो ही जाते हैं। पर ये नियम ही कालान्तर में परम्पराबद्ध होकर रूढि बन जाते हैं। रूढि बनने पर उसके कालौचिन्य प्रादि का कोई तर्क नहीं चलता। फिर तो वह अन्धविश्वास बन जाता है। सब उसे अपनाते हैं पर आंख मूंद कर । जब आँख मूंद कर चलने लगते हैं तो कहीं भी कुएँ-गड्ढे में गिरने की सम्भावना बराबर रहती है। तब दोष किसका ? भला आँखों के रहते अन्धे बनने का परिणाम भी तो यही होता है। पर कठिनाई भी होती है। रूढि को तोड़े कौन? जो तोड़ेगा वही समाज के रूढिवादी वर्ग द्वारा प्रताड़ित होगा। उसे साहस करना होगा। अन्धविश्वास के जुए को उतार फेंकना साहस का काम है। हर कोई वह काम कर नहीं सकता। पर जो कर लेता है वही सच्चा साधु है, चाहे वह संन्यस्त हो या न हो। गृहस्थी में रहकर भी ऐसी साधुता कई लोग बड़ी सफलता से निभा जाते हैं । ऐसी साधुता सबके द्वारा प्रशंसित तो होती ही है ।
देश और समाज का जागरूकता से मार्गदर्शन करने से साधुत्व को सार्थकता प्राप्त होती है । उसके लिए व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। धर्म की लोकोपकारी धाराओं को समाजोन्मुखी और राष्ट्रोन्मुखी कर देने से वह अधिक लोकोपयोगी हो सकता है । यह कार्य सरल नहीं है, तो असाध्य भी नहीं है। इससे धर्म सार्थक होता है। इसे साधने वाले का प्रयास सार्थक होता है। उससे वह समाज तथा राष्ट्र की भी कुछ सेवा कर पाता है जिसका वह अंश है, जिसका वह प्रतिनिधि है।
केवल पूजा-पाठ उस धर्म का चिह्न हो सकता है। पर वही उसका लक्ष्य बन जाये तो वह समाज के लिए उपयोगी नहीं रह जाता। धर्म की सार्थकता उसकी लोकोपयोगिता में है।
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धर्म की दिशा | ३२३
शांति के समय वह धर्म और दर्शन का चिन्तन परिणाम प्रस्तुत करे, सदाचार का पथ प्रशस्त करे । अशांति के समय भी वह सदाचार के आयामों का प्रचार-प्रसार करे । पर न केवल यही बल्कि उन प्रशांत क्षेत्रों में पहुँचकर अपनी बात मजबूती के साथ कहे । यह साहस का काम है पर वही साहस उपयोगी है। सुदृढ़ साहस से अहिंसा का मार्गदर्शन करने वाला साहस प्रशंसनीय है। उसके लिए स्वयं को होम देना पड़ता है पर उस पाहुति में भी उदात्तता रहती है, उत्सर्ग रहता है, जो सर्वश्लाध्य होता है। उस उत्सर्ग की सभी श्लाधा करते हैं । मित्र भी, शत्रु भी। स्वधर्मी भी, विधर्मी भी। जो श्लाधा सर्वव्यापी हो, वही सच्ची श्लाघा है। जिसकी प्रशंसा शत्र भी करे, वहो प्रशंसा है। गांधीजी की प्रशंसा इसीलिए सार्थक है। अहिंसा पूजा की वस्तु नहीं है । पूजा से वह कुंठित होती है । वह है साधना का मार्ग । इसे साधकर गांधी गांधी बन गये । कर्मक्षेत्र में उसे साधने की आज फिर आवश्यकता है। आवश्यकता के समय उसका कार्यान्वयन हो जाने पर ही उसकी सार्थकता है। आज भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सत्य किसी अनजान गुहा में जाकर छिपा बैठा है । हिरण्य ने सत्य के पात्र का मुख ढक दिया है। यह तो लोकयात्रा है। उस हिरण्यपात्र को हटाने का प्रयास ही सच्ची साधुता है। साथ के लोभ में सभी व्यापारी परिग्रही बन जाते हैं । एक साथ पर असंख्यों की दुर्गति । उस मार्ग पर भी विचार होना ही चाहिए । अस्तेय के उपदेश से काम नहीं चलेगा। चोरी की दिशाएँ खोजकर उन पर आघात करना होगा। दहेज प्रथा, बलात्कार जैसे घृणित मार्गों से लोगों का मन हटा पाये तो धर्म सार्थक है, तो वे उपदेश सार्थक हैं, तो वे व्याख्यान सार्थक हैं, तो वे धर्मग्रन्थ सार्थक हैं। अन्यथा किस काम के वे सब? समाज में अनाचार बढ़ते रहें, धर्माधिकारी चुपचाप उन्हें देखते सहते रहें। यह तो अनाचार को उनकी मौन स्वीकृति है।
समाज उनसे मार्गदर्शन चाहता है। सच्चे मार्गदर्शन को पूरा समाज स्वीकृत करता है। उस स्वीकृति के लिए मार्गदर्शक को आगे आना होगा । प्रागे वही पा सकेगा जिसके पास हल है। हल उसके पास ही होता है जिसके पास बुद्धि और उत्सर्ग की भावना और दढ़ प्रात्मशक्ति है।
धर्म जनता से अपेक्षा करता है पर जनता की भी धर्म से अपेक्षा है। धर्म लोकोपकार के लिए सही अर्थों में उन्मुख हो तो ही उसकी सार्थकता है। धर्म की वह मानवता की बड़ी सेवा होगी। वही सेवा सार्थक होगी। वही धर्म सत्य है, वही शिव है, वही सून्दर है। क्योंकि धर्म धर्म के लिए नहीं होता उसका लक्ष्य मानव का अभ्युदय है।
-१२, वीर दुर्गादास मार्ग,
उज्जैन (म०प्र०)
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जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक विवरण
डॉ० तेजसिंह गौड़
जैन आगम ग्रंथ मूलतः प्राध्यात्मिक ग्रंथ हैं। फिर भी इन ग्रंथों में प्रसंगानुसार धर्मदर्शन के साथ ही इतर विषयों का भी विवरण उपलब्ध होता है। प्रस्तुत लघु निबंध के माध्यम से प्रागम ग्रंथों में उपलब्ध आयुर्वेद विषयक विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।
जैन दृष्टि से आयुर्वेद की उत्पत्ति का विवरण नवीं शताब्दी में हुए आचार्य उग्रादित्याचार्य ने अपने आयुर्वेद ग्रंथ कल्याणकारक में इस प्रकार दिया है
"श्री ऋषभदेव स्वामी के समवसरण में भरत चक्रवर्ती प्रादि भव्यों ने पहुंचकर श्री भगवंत की सविनय वन्दना की और भगवान् से निम्नलिखित प्रकार से पूछने लगे---
'भो स्वामिन् ! पहले भोगभूमि के समय मनुष्य कल्पवृक्षों से उत्पन्न अनेक प्रकार की भोगोपभोग सामग्रियों से सुख भोगते थे। यहाँ भी खूब सुख भोगकर तदनन्तर स्वर्ग पहुंचकर वहाँ भी सुख भोगते थे। वहां से फिर मनुष्य भव में प्राकर अनेक पुण्य कार्यों को कर अपनेअपने इष्ट स्थानों को प्राप्त करते थे। भगवन् ! अब भारतवर्ष को कर्मभूमि का रूप मिला है। जो चरम शरीरी हैं व उपपाद जन्म में जन्म लेने वाले हैं, उनको तो अब भी अपमरण नहीं है । उनको दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है। परन्तु ऐसे भी बहुत से मनुष्य पैदा होते हैं जिनकी आयु लम्बी नहीं रहती और उनको वात, पित्त, कफादि दोषों का उद्रेक होता रहता है। उनके द्वारा कभी शांति और कभी उष्ण व कालक्रम से मिथ्या आहार सेवन करने में आता है। इसलिए अनेक प्रकार के रोगों से पीड़ित होते हैं। वे नहीं जानते कि कौन-सा आहार ग्रहण करना चाहिए और कौन-सा नहीं लेना चाहिये । इसलिये उनकी स्वास्थ्य-रक्षा के लिये योग्य उपाय बतावें। आप शरणागतों के रक्षक हैं । इस प्रकार भरत के प्रार्थना करने पर आदिनाथ भगवंत ने दिव्य-ध्वनि के द्वारा पुरुष लक्षण, शरीर, शरीर का भेद, दोषोत्पत्ति, चिकित्सा, कालभेद आदि सभी बातों का विस्तार से वर्णन किया। तदनन्तर उनके शिष्य गणधर व बाद के तीर्थंकरों ने व मुनियों ने आयुर्वेद का प्रकाश उसी प्रकार किया। वह शास्त्र एक समुद्र के समान है, गम्भीर है।"
इस विवरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन साहित्य में आयुर्वेद की परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के द्वारा प्ररूपित है और श्रुत-परम्परा से चली आ रही है। इस विवरण के पश्चात् हम आगम ग्रंथों में उपलब्ध आयुर्वेद विषयक उल्लेख को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
चिकित्सा के अंग-चिकित्सा के चार अंग होते हैं। जैसे-(१) वैद्य, (२) प्रोषध, (३) रोगी और (४) परिचारक या परिचर्या करने वाला।२ १. कल्याणकारक, सम्पादकीय, पृष्ठ २५-२६ २. स्थानांगसूत्र, ४।४।५१६
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जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक विवरण | ३२५
व्याधियों के प्रकार-व्याधियों की उत्पत्ति जिन कारणों से होती है उन्हें चार प्रकार का बताया गया है । यथा
(१) वातिक-वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि । (२) पैत्तिक-पित्त के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि । (३) श्लैष्मिक-कफ के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि । (४) सान्निपातिक-वात, पित्त और कफ के सम्मिलित विकार से उत्पन्न होने वाली
व्याधि ।।
यदि सम्पूर्ण प्रागम साहित्य का अध्ययन, विवेचन किया जावे तो उसके अनुसार रोगोत्पत्ति के नौ कारण होते हैं
(१) प्रतिमाहार, (२) अहिताशन, (३) अति निद्रा, (४) प्रति जागरण, (५) मूत्रावरोध (६) मलावरोध, (७) अध्वगमन, (८) प्रतिकूल भोजन और (९) काम-विकार ।
यदि इन नौ कारणों से मनुष्य बचता रहे तो उसे रोग उत्पन्न होने का भय बिल्कुल नहीं रहता।
जैन आगमों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि उसमें अहिंसा तत्त्व की प्रधानता है और उसमें अहिंसा को सर्वोपरि प्रतिष्ठापित किया गया है। प्राचारांगसूत्र' का एक उदाहरण इस बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। वहां कहा गया है-अपने को चिकित्सा-पंडित बताते हुए कुछ वैद्य चिकित्सा में प्रवृत्त होते हैं । वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण-वध करते हैं। 'जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूगा' यह मानता हुआ वह जीव-वध करता है । वह जिसकी चिकित्सा करता है, वह भी जीव-वध में सहभागी होता है।
इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले अज्ञानी की संगति से क्या लाभ ! जो चिकित्सा करवाता है, वह भी अज्ञानी है। अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता । इस प्रकार यहाँ चिकित्सा में हिंसा का निषेध किया गया है।
चिकित्सक-वैद्य या चिकित्सक चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे
(१) आत्मचिकित्सक, न परचिकित्सक-कोई वैद्य अपना इलाज करता है, किंतु दूसरे का इलाज नहीं करता ।
(२) परचिकित्सक, न आत्मचिकित्सक कोई वैद्य दूसरे का इलाज करता है, किंतु अपना इलाज नहीं करता।
(३) आत्मचिकित्सक भी, परचिकित्सक भी-कोई वैद्य अपना भी इलाज करता है और दूसरे का भी इलाज करता है।
१. वही, ४।४।५१५ २. २०६।९४
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चतुर्थ खण्ड / ३२६
(४) न आत्म चिकित्सक, न परचिकित्सक कोई वैद्य न अपना इलाज करता है और न दूसरे का ही इलाज करता है । '
·
स्थानांगसूत्र में ही एक अन्य स्थान पर कायनपुणिक का उल्लेख है, जो शरीर की इडा पिंगला आदि नाड़ियों का विशेषज्ञ होता था, जिसे हम श्राज भी नाड़ीवैद्य की संज्ञा से अभिहित करते हैं। दूसरे चिकित्सानेपुणिक का उल्लेख है जिसे शारीरिक चिकित्सा करने में कुशल बताया है ।
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में चिकित्साशाला का उल्लेख है। जिसमें वेतनभोगी बंध तथा अन्य कर्मचारी रोगियों की सेवा-शुश्रूषा के लिए कार्यरत रहते थे। विवरण इस प्रकार है नन्द मणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला बनवाई। वह भी अनेक सौ खंभों वाली यावत् मनोहर थी। उस चिकित्साशाला में बहुत से वैध, बंध-पुत्र, ज्ञायक ( वैद्यशास्त्र न पढ़ने पर भी अनुभव के आधार से चिकित्सा करने वाले अनुभवी ), ज्ञायक पुत्र कुशल ( अपने तर्क से ही चिकित्सा के ज्ञाता ) मोर कुशलपुत्र आजीविका, भोजन और वेतन पर नियुक्त किये हुए थे। वे बहुत से व्याधितों की ग्लानों की, रोगियों की पौर दुर्बलों की चिकित्सा करते रहते थे । उस चिकित्साशाला में दूसरे भी बहुत से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे । वे उन व्याधितों, रोगियों, ग्लानों और दुर्बलों की प्रीषध, भेषज, भोजन और पानी से सेवा-शुश्रूषा करते थे ।"
1
"
इस विवरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विद्यमान थी। साथ ही व्यवस्थाकर्ता का उदार दृष्टिकोण भी प्रकट होता है ।
आयुर्वेद के प्रकार आयुर्वेद आठ प्रकार का बताया गया है यथा१. कुमारभृत्य या कौमारमृत्य- बाल रोगों का चिकित्साशास्त्र ।
-
२. कायचिकित्सा- शारीरिक रोगों का चिकित्साशास्त्र |
३. शालाक्य —-शलाका के द्वारा नाक, कान आदि के रोगों का चिकित्साशास्त्र |
४.
शल्यहत्या या शाल्यहत्या - आयुर्वेद का वह अंग जिसमें शल्य कण्टक, गोली श्रादि निकालने की विधि का वर्णन किया गया है । शस्त्र द्वारा चीरफाड़ करने का शास्त्र ।
५. जंगोली या जांगुल आयुर्वेद का वह विभाग जिसमें विषों की चिकित्सा का विधान है।
4.
६. भूतविद्या- भूत, प्रेत, यक्षादि से पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा का शास्त्र ।
७. क्षारतंत्र या बाजीकरण-बाजीकरण, वीर्यवर्धक औषधियों का शास्त्र ।
रसायन पारद आदि धातु-रसों आदि के द्वारा चिकित्सा का शास्त्र, अर्थात्
८.
१. स्थानांगसूत्र ४१४५१७
२. ९।२८
३. १३।१७
४. स्थानांगसूत्र, ८।२६, विपाकसूत्र ११७८
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
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जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक विवरण | ३२७
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आयु को स्थिर करने वाली व व्याधि-विनाशक औषधियों का विधान करने वाला प्रकरणविशेष ।
विपाकसूत्र में आयुर्वेद के पाठ प्रकारों का विवरण देकर आगे बताया गया है कि धन्वन्तरी वैद्य राजा तथा अन्य रोगियों को मांसभक्षण का उपदेश देता था, इस कारण वह (अपने पापकर्मों के कारण) काल करके छट्री नरक पृथ्वी में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुना।'
प्राचारांगसूत्र में निम्नलिखित सोलह रोगों का उल्लेख पाया जाता है
(१) गण्डमाला, (२) कोढ़, (३) राजयक्ष्मा, (४) अपस्मार (मृगी), (५) काणत्व, (६) जड़ता (अंगोपागों में शून्यता), (७) कुणित्व (टूटापन, एक हाथ या पैर छोटा और बड़ा-विकलांग होना), (८) कुबड़ापन, (९) उदररोग (जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि), (१०) मूकरोग (गूंगापन), (११) शोथरोग-सूजन, (१२) भस्मकरोग, (१३) कम्पनवात, (१४) पीठसपी-पंगुता, (१५) श्लीपद रोग-हाथीपगा एवं (१६) मधुमेह ।
विपाकसूत्र में जिन सोलह भयंकर रोगों का उल्लेख है, वे उपर्युक्त सोलह रोगों से भिन्न हैं। यथा
(१) श्वास, (२) कास, (३) दाह, (४) कुक्षिशूल, (५) भगन्दर, (६) अर्श, (७) अजीर्ण, (८) दृष्टिशूल, (९) मस्तक शूल, (१०) अरोचक, (११) अक्षिवेदना, (१२) कर्णवेदना, (१३) खुजली, (१४) जलोदर, (१५) कोढ़, (१६) बवासीर ।
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में भी उपर्युक्त सोलह प्रकार के रोगों के नाम मिलते हैं, किन्तु कुछ अन्तर भी दिखाई देता है। ज्ञाताधर्मकथा में पाये जाने वाले सोलह रोगों के नाम इस प्रकार हैं
(१) श्वास, (२) कास, (३) ज्वर, (४) दाह, (५) कुक्षिशूल, (६) भगन्दर, (७) अर्श, (८) अजीर्ण, (९) नेत्रशूल, (१०) मस्तकशूल, (११) भोजन विषयक अरुचि, (१२) नेत्रवेदना, (१३) कर्णवेदना, (१४) कंडू, (१५) दकोदर–जलोदर प्रौर (१६) कोढ़ ।
रोगियों की चिकित्सा के लिए चिकित्साशाला (अस्पताल) तो होती थी, किन्तु वैद्य अपने घरों से शास्त्रकोश लेकर निकलते थे और रोग का निदान जानकर अभ्यंग, उबटन, स्नेहपान, वमन विरेचन, अवदहन (गर्म लोहे की शलाका प्रादि से दागना), अवस्नान (प्रौषधि के जल से स्नान), अनुवासना, (गुदा द्वारा पेट में तैलादि के प्रवेश कराने), वस्तिकर्म (चर्मवेष्टन द्वारा सिर आदि में तेल लगाना अथवा गुदाभाग में बत्ती प्रादि चढ़ाना), निरुह (एक प्रकार का विरेचन), शिरावेध (नाड़ी वेध कर रक्त निकालना), तक्षण (छुरे प्रादि से त्वचा आदि काटना), प्रतक्षण (त्वचा का थोड़ा भाग काटना), शिरोवस्ति (सिर में चर्मकोश बाँधकर उसमें संस्कृत तेल का पूरना), तर्पण (शरोर में तेल लगाना), पुटपाक (पाक)
१. विपाकसूत्र, ११७।९-१० २. प्रथमश्रुतस्कंध ८।१।१७९ ३. श२२
४. १३१२१
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जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक विवरण | ३२९ विशेष में तैयार की हुई औषधि तथा छाल, वल्ली मूल, कंद, पत्र, पुष्प, फल, बीज, शिलिका (चिरायता प्रादि कड़वी औषधि), गुटिका औषधि आदि से उपचार करते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आगम ग्रंथ यद्यपि आध्यात्मिक ग्रंथ हैं, फिर भी प्रसंगानुसार उनमें आयुर्वेद विषयक महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। यहां तो कुछ ही आगम ग्रंथों को आधार बनाया गया है, जिनमें आयुर्वेद के अंग, वैद्य के प्रकार, आयुर्वेद के प्रकार, चिकित्साशाला और चिकित्साविधि का उल्लेख प्राप्त हुआ है। यदि समग्र आगम साहित्य का अनुशीलन किया जाय तो मेरा दृढ विचार है कि आगमों से आयुर्वेद विषयक एक अच्छी पुस्तक तैयार हो सकती हैं। विषय विशेषज्ञों से इस दिशा में कुछ प्रयास करने का प्राग्रह है। इस अनुशीलन से यह भी संभव है कि वर्तमान युग में प्रचलित कुछ असाध्य रोगों के उपचार का मार्ग प्रशस्त हो।
00
-११ अंकपात मार्ग गली नं. २, काजीवाड़ा उज्जैन (म.प्र.) ४५६००६
१. (i) ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, १३१२२
(ii) विपाकसूत्र, ११२३
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जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना
के प्रेरक तत्व 0 डॉ. निजाम उद्दीन
विषमताओं और असंगतियों से घिरे इस समाज का सारा वातावरण और परिवेश असंतुलित है। शक्तिस्रोतों में असंतुलन है, प्रकृतिजगत में असंतुलन है, मनुष्य के विचारों-भावों में असंतुलन है। मनुष्य का सकल जीवन विषमताग्रस्त है। पर्यावरण प्रदूषित है, हमारी जीवन-पद्धति प्रदूषित है। वायु, जल सभी में प्रदूषण है। भ्रष्टाचार, उत्कोच, लूट-मार, मिलावट, तस्करी, हिसा भरे मानव-समाज में अजीब तरह की अफरा-तफरी है। भौतिकता द्वंद्वमयी बन चुकी है । मनुष्य की जीवन-सरिता में जीवन-मूल्यों के स्रोत सूख गये हैं। वह विदिशा में भ्रमित होकर भटक रहा है। नैतिकता स्खलित हो रही है। जो देश अहिंसा को परम धर्म समझता आ रहा है, उसी देश में—महावीर, गौतम, नानक के देश में हिंसा पर हिंसा हो रही है। मनुष्य-मनुष्य को जान से मार रहा है। लगता है हम गीता, कुरान भूल गये, जिनवाणी, गुरुवाणी बिसार बैठे हैं । महावीर ने 'आचारांगसूत्र' में कहा है-"जब तुम किसी को मारने, सताने या अन्य प्रकार से कष्ट देना चाहते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो। यदि वही व्यवहार तुम्हारे साथ किया जाता तो कैसा लगता? यदि मानते हो कि तुम्हें अप्रिय लगता है तो समझ लो दूसरे को भी अप्रिय लगेगा। यदि नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ कोई ऐसा व्यवहार करे तो तुम भी किसी के साथ वैसा व्यवहार मत करो।" उन्होंने संदेश दिया था कि राग-द्वेष के तटों के बीच रहो; न किसी के प्रति रक्त हो न किसी के प्रति द्विष्ट । किसी के प्रति न राग रखो, न द्वेष रखो, समभाव में रहो। समता भाव के उपवन में ही अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य और अनेकान्त के सुगंधित गुलाब विकसित होते हैं। समता का अर्थ है मन की स्थिरता, राग-द्वेष का उपशमन, समभाव, सुख-दुःख में अचल रहना। समता
आत्मा का स्वरूप है। सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मतुल्य भाव रखना चाहिए-"प्रायतुले पया"' साधु प्राणिमात्र के प्रति समता का चिन्तन करते हैं। समता से श्रमण, जान से मुनि होता है। समता में ही धर्म है-"समया धम्ममुदाहरे गुणी" | महावीर ने कहा है कि साधक को सदैव समता का माचरण करना चाहिए। उनके मांगलिक धर्मोपदेश का आधार समता है, अर्थात् पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, निर्जीव-सजीव, सकल मानवजगत् की रक्षा की जाये, सब पर दया-दृष्टि रखी जाये, सब से प्रेम-मैत्री भरा व्यवहार किया जाये। सूक्ष्मातिसूक्ष्म,
१. सूत्रकृतांग १।११।३ २. उत्तराध्ययन २०३० ३. सूत्रकृतांग, २।२।६
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जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के प्रेरक तत्त्व | ३३१
क्षदातिक्षद्र जीव की भी देखभाल और रक्षा की जाये, जल, वृक्ष, नदी, तालाब, खेत, वन, वायु, वन्यपशु, वनस्पति सभी को सुरक्षा प्रदान की जाये, सभी प्रणियों को अभयदान दिया जाये । कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर का जीवन-दर्शन सबका हित और कल्याण चाहना है, हित और कल्याण करना है, आचार-व्यवहार में भी मैत्री, अहिंसा, समता भाव हो, केवल विचारों में, वाणी में, शब्दों में ही समता भाव न हो। कोरी सहानुभुति से या 'लिप्स सिम्पेथी' से काम नहीं चलेगा, उसके अनुकल आचरण भी करना जरूरी है। प्राचार्य जीतमल ने समता को प्रात्मधर्म मानते हुए कहा है
समता आतम-धर्म है, तामस है पर-धर्म । अच्छा अपने आप में, रहन्त समझो मर्म ॥ समता में साता धणी, दुख विषमता माह ।
ममता तज समता भजो, जो तिरने की चाह ॥ समता-धर्म को प्राचरित करने पर ही जीवात्मा इस संसार-सागर का संतरण कर सकता है। समता में सद्गति है, समता में सद्भाव है, समता में प्रेम-मैत्री है । इसके विपरीत विषमता या तामस में दुर्गति है, दुर्भावना है, द्वेष-घृणा है। समता सुधा है, अमृत है, राग अग्नि है । 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि जब जीव अपनी आत्मा को प्रात्मा के द्वारा प्रौदारिक, तेजस व कार्मण इन तीन शरीरों से तथा राग, द्वेष व मोह इन तीन दोषों से भी रहित जानता है तब उसका साम्यभाव में प्रवस्थान होता है ।' क्रूर तथा उग्रवादी की क्रूरता, उग्रता समत्वयोगी के प्रभाव से शान्त हो जाती है
शाम्यन्ति जन्तवः करा बढ़वैरा परस्परम् ।
अपि स्वार्थप्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः ॥२ समता मोह, क्षोभ को शान्त करती है । भगवती आराधना में मोह को हाथी कहा गया है-मोहमहावारणेन हन्यति । जो व्यक्ति समता भाव में विचरण करता है उसकी कथनीकरनी समान होती है, उसका अन्तर्वाह्य एक जैसा होता है। उसका मन सम्यक् होता है'सम्यक मणे समणे ।' जिस प्रकार हमें अपने प्राण प्रिय हैं, उसी प्रकार दूसरे जीवधारियों को भी अपने प्राण प्रिय हैं। भला हमें किसी के प्राण हरने का क्या अधिकार है जबकि हम उसे प्राण प्रदान नहीं कर सकते। यही समत्वदृष्टि है, आत्मौपम्यभाव है। 'गीता' में कहा गया है कि वही महान योगी है जो आत्मौपम्यभाव रखकर अपने सुख-दुःख के समान ही, दूसरे के सुख-दुःख को समझता है-आसक्ति का परित्याग कर, सिद्धि-प्रसिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित होकर कर्म करना समत्वभाव है।' जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता
१. ज्ञानार्णव, २०११६ २. ज्ञानार्णव, २०२० ३. प्रवचनसार १७ ४. भगवती पाराधना, १३०९ ५. गीता ६. गीता-२,४८
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चतुर्थ खण्ड | ३३२
है, न शोक करता है, न कामना करता है, शुभ-अशुभ फल का त्याग करता है, वही व्यक्ति सच्चा भक्त है तथा ईश्वर को प्रिय है और जो व्यक्ति शत्र-मित्र में, मान-अपमान में समान रहता है, सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख के द्वन्द्व में भी सम रहता है, संसार में जिसकी प्रासक्ति नहीं होती, वह सच्चा भक्त है, वही परमपिता परमात्मा को प्रिय है। समता का अर्थ समभाव है-न राग न द्वेष, न ममत्व न आसक्ति । समता का अर्थ है तराजू के दो समान पलड़े, न एक नीचे न दूसरा ऊपर । समत्व में जीना ही सच्चा जीना है। समस्त प्राणियों के प्रति मेरे मन में समत्व का भाव है, किसी के प्रति वैर-भाव नहीं। प्राशा का त्याग कर समाधि-समत्व को ग्रहण करना चाहिए
सम्मं मे सव्व-भदेसू, वेरं मज्झं ण केण वि
आसाए वोसरित्ताणं, समाहि पडिवज्जए ॥ (मूला., २४२) शलाकापुरुष वीतरागी महावीर का कथन है कि तुम में न कोई राजा है न प्रजा, न कोई स्वामी है न कोई सेवक । समता-शासन में दीक्षित होने के पश्चात् राजा-प्रजा, स्वामीसेवक नहीं हो सकता। सबके साथ समता का व्यवहार करना चाहिए। जो समभाव में रहता है वह लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में एक जैसा होता है। ४ वह इस लोक व परलोक में अनासक्त वसुले से छीलने या चन्दन का लेप करने पर तथा प्राहार के मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है-हर्ष-विषाद नहीं करता। मैत्री और सद्भाव भरा व्यवहार करना ही समता भाव है। जहाँ मैत्री व सद्भाव नहीं, वहाँ न समता है न शांति है।
समता के प्रायाम चार माने जा सकते हैं(१) अहिंसा, (२) निर्भयता, (३) मैत्री, (४) सहनशीलता ।
जैनदर्शन अहिंसा पर आधारित है। अहिंसा का मतलब है किसी जीव को किसी भी प्रकार का-शारीरिक, मानसिक, वैचारिक, आर्थिक कष्ट न देना। सबका कल्याण चाहना अहिंसा है। सबको प्रात्मवत समझना अहिंसा है, तीर्थंकर महावीर ने 'सर्वजनहिताय' की बात कही थी, जबकि उनके समसामयिक गौतम बुद्ध ने 'बहुजनहिताय' की बात कही थी। जैनदर्शन में प्रतिपादित अहिंसा पांच अणुव्रतों | महाव्रतों में सर्वोपरि है। उसके द्वारा सकल प्राणिजगत की रक्षा की जा सकती है। महावीर ने सही कहा है-'अहिंसा के घड़े में शत्रता
१. गीता-१२ १७ २. गीता-१२.१८ । ३. जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया।
जे मोणपयं उवट्टिए, नो लज्जे समयं समा चरे॥-सूत्रकृतांग-१।२।२।३ ४. समणसुत्तं-३४७ ५. समणसुत्तं-३४९
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जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के प्रेरक तत्त्व | ३३३
का एक छेद नहीं रह सकता। वह पूर्ण निश्च्छिद्र होकर ही समत्व के जल को धारण कर सकता है।' भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे प्रोषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, उसी प्रकार अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है । अहिंसा चर-अचर सभी का कल्याण करने वाली है
"एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं पिव गगणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं मिव असणं, समुद्दमझे वा पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्ठियाणं च ओसहिबलं, अडवीमज्ञ व सत्थगमणं, एतो विसिट्टतरिका अहिंसा जा सा पुढवि-जलअगणि-मारुय-वणस्सह-बीज.हरित-जलचर-यलचर-खहचर-तस-थावर-सव्वभेयखेमकरो।"'
'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त होकर साधक सब प्राणियों को प्रात्मवत समझे और किसी की हिंसा न करे । २ 'याचारांग' के अनुस आत्मीयता की भावना का प्राधार ही अहिंसा और मैत्री है। किसी उद्वेग, परिताप या दुःख ने, नहीं पहुँचाना चाहिए । अहिंसा शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जिसका प्रतिपादन तीर्थंकरों अर्हतों ने किया। अहिंसा को नैतिकता के साथ-साथ रखना चाहिए, यह दोनों पृथक् पृथक् नहीं हैं । व्यवहार में अहिंसा नैतिक आचरण की सीमा का संस्पर्श करती है। 'पाचारांगसूत्र' में बहुत ही गहन और व्यापक जीवन-दर्शन अहिंसा, मैत्री के माध्यम से रेखांकित किया गया है, यह आत्मीयता का साकार रूप है
"जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे परिताप देना चाहता है वह तू ही है।" यहीं से हम समाज में समानता और एकता का वातावरण बना सकते हैं। अहिंसा, मैत्री से बढ़कर समाज में समानता, एकता, सद्भाव, शांति और किसके द्वारा प्राप्त हो सकती है। उपनिषदों में सब भूतों को अपनी आत्मा में देखना या समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखने का सर्वात्मदर्शन व्यंजित है, वह अहिंसा का ही प्रतिपादन है, यहां किसी से घृणा का प्रश्न नहीं उठता
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुप्सुते ॥ यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मवाभूद् विजानतः।।
तत्र को मोहः कः शोकः एकात्वमनुपश्यतः॥ महाभारत में अहिंसा, मैत्री, अभय का विस्तार से बार-बार प्रतिपादन किया गया है। भला जो सर्व भूतों को अभय देने वाला है वह दूसरों को कैसे मार सकता है। अभयदान या प्राणदान से बढ़कर संसार में और कोई दान नहीं हो सकता-"प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति । न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम् । अहिंसा परम धर्म है, परम
१. प्रश्नव्याकरण, ६१२१ २. उत्तराध्ययन, ६१६ ३. प्राचारांगसूत्र, ११४१२ ४. प्राचारांगसूत्र, १११५ ५. महाभारत, अनु. पर्व, ११६-१६
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चतुर्थ खण्ड / ३३४
दम है, परम दान है, परम तप है।' यही परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख है। हिंसा निर्बल, कायर या शक्तिहीन का काम नहीं, यह तो सबल व्यक्ति का प्रस्त्र है। शक्ति होने पर किसी को न सताया जाये, न बदला लिया जाये अपितु क्षमा कर दिया जाये, यही वीरता का लक्षण है, यही अहिंसा है, इसी को निर्भयता कहेंगे । जब कहते हैं कि मैं किसी से वैर नहीं रखता, कोई मुझ से वैर न रखे, सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ति मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणई ॥
तब मनुष्य को सभी जीवों के प्रति मंत्री भाव रखना चाहिए- 'मेति भूएसु कप्पए । " सामायिक का अर्थ है प्राणिमात्र को प्रात्मवत् समझता, समत्व का व्यवहार करना। सामायिक वह व्यवहार है जिसके द्वारा हम समत्व को समता भाव को अपने जीवन में उतारते हैं"समस्य ग्रायः समायः स प्रयोजनम् यस्य तत्सामायिकम् ।" हमारे अन्दर समता भाव भा जाये तो हमारी अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है ।
समतावादी समाज की संरचना के लिए सहिष्णुता या सहनशीलता का होना भी अनिवार्य है । भारत में शासनप्रणाली की प्रमुख विशेषता धर्मनिरपेक्षता है । धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्मविमुख होना नहीं है, वरन् इसका अर्थ है जैसे हम अपने धर्म को महान्, श्रेष्ठ समझते हैं, वैसे ही दूसरों के धर्मों को महान् और श्रेष्ठ समझें । हम यदि चाहते हैं कि हमारे धर्मग्रन्थ या धर्मग्रन्थों की कोई अवमानना न करे, सब लोग उनका सम्यक सम्मान करें तो हमें भी चाहिए कि हम भी दूसरी जाति के धर्म का धर्मग्रन्थों का उचित सम्मान करें। दूसरों की धर्मपद्धति या जीवनपद्धति के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित करना हमारा कर्तव्य है,
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रामजन्मभूमि मंदिर पर झगड़ा बड़ा
पर हम ऐसा करते कहाँ है ? तभी बाबरी मस्जिद और करके एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं। हमारे पास महान् धर्मग्रन्थ हैं महान् धर्मोपदेशक और धर्मगुरु हैं, विद्वान् हैं, आचार्य हैं; लेकिन आचरण हैं। कष्टसहिष्णु तो हैं ही नहीं, दूसरे के कटु शब्द भी सहन विशालहृदयता हमारे अन्दर नहीं । हमारा दृष्टिकोण ही संकुचित और दूसरों के
हम सर्वथा विपरीत करते करने की सहनशीलता,
प्रति द्वेष घृणा से पूर्ण रहता है। मानवीय संदर्भ नहीं होते हमारे जीवन व्यवहार में हम यह जानते हैं कि फोध प्रीति का नाश करता है, माया मैत्री का नाश करती है और लोभ सबका ( प्रीति, विनय, मैत्री का) नाश करता है । हमें चाहिए कि उपशम से क्रोध को नष्ट
माया और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त
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करें, मृदुता से मान को जीतें ऋजुभाव से करें। धर्म जोड़ने का काम करता है, तोड़ने का नहीं धार्मिक असहिष्णुता न जाने कितने वर्षों से अनिष्ट करती आ रही है। जैनदर्शन सभी मतों का समान श्रादर करने की दृष्टि प्रस्तुत करता है । प्राचार्य हरिभद्र ने धार्मिक सहिष्णुता के कारण ही अनात्मवाद (बौद्धदर्शन), १. महाभारत, अनु. पर्व ११६-२०
२.
११६-२९
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३.
उत्तराध्ययन
४. दशवेकालिक ८३७
५. दशर्वकालिक ८३८
६।२
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जनदर्शन में समतावादी समाज रचना के प्रेरक तत्व / ३३५
कर्तृत्ववाद ( न्यायदर्शन), सर्वात्मवाद ( वेदान्त) में भी सामंजस्य दर्शाने का सत्प्रयास किया । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि संसार परिभ्रमण के कारण रूप रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं, उसे मैं प्रणाम करता हूँ, फिर चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महेश हो अथवा जिन हो ।
जैनदर्शन में समतावादी समाज के लिए वैचारिक सहिष्णुता, अनाग्रही विचारधारा बड़ा योग दे सकती है। जनदर्शन में इसी को अनेकान्तवाद कहा जाता है। श्राज सभी देशों में मताग्रह के कारण शीतयुद्ध जैसा वातावरण बना हुआ है। हमारे समाज में परिवार में मताग्रह के कारण ही द्वेष वैमनस्य तथा मनमुटाव लोगों के दिलों में भरा रहता है जो किसी भी समय प्रतिकूल हवा पाते हो श्रेध, शत्रुता, कलह, संघर्ष तथा हिंसा में परिवर्तित हो जाता है। अनेकान्तवाद ऐसा प्रेरक तत्त्व है जिसको अंगीकार कर हम अनेक समस्याओं, प्रश्नों, उलझनों को सुलझा सकते हैं । ग्रनेकान्तवाद विचारों के प्रति अनाग्रही दृष्टि का नाम है। वस्तु के अनन्य धर्मात्मक गुणों के प्रति विधेयात्मक समन्वित दृष्टि अनेकान्त कहलाती है । हमें वस्तुस्वरूप को सापेक्षता में देखना चाहिए। हम मताग्रहग्रस्त होकर वस्तुस्वरूप देखते हैं, विचार को देखते हैं, व्यक्ति को देखते हैं। पूर्वाग्रह के कारण विषमता उत्पन्न होती है। हम यदि पूर्वाग्रह छोड़कर दूसरे के मत - दृष्टिकोण को जानने-समझने की कोशिश करें तो समाज में समतावादी वातावरण बनाया जा सकता है। इसके लिए श्रावश्यक है(१) दूसरों के विचारों को सहानुभूति से सुनें,
(२) दूसरे के मत के प्रति सहिष्णु बनें,
(३) अपने विचार को शिष्टता से प्रस्तुत करें,
(४) अपने मत के प्रति दुराग्रह न रखें,
(५) व्यवहार में विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ ।
विभिन्न मतों - दृष्टिकोणों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करना अनेकान्तावादी का परम धर्म है । यहीं से वैचारिक धरातल पर हम समरसता और सहिष्णुता की भावना प्राप्त कर सकते हैं। जैनदर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद समन्वयवाद पर आधारित हैं, प्रत समाज में हम इनके आधार पर समतावादी समाज की संरचना करने में अपने कदम श्रागे बढ़ा सकते हैं । हमारी युवाशक्ति जो भटकी हुई है, पथभ्रष्ट है, विदृष्टि-ग्रस्त है, उसे सम्यक् दृष्टि अनेकान्तवाद द्वारा दी जा सकती है। अपनी बात को हम यों कह सकते हैं कि अहिंसा द्वारा सहअस्तित्व, विश्व बन्धुत्व की भावना जाग्रत की जा सकती है, मंत्री के राजमार्ग बनाये जा सकते हैं। वैर वैमनस्य को मिटाकर प्रेम के, दया के, करुणा व सहानुभूति के सुमन विकसित कर सकते हैं। अहिसा के एक तरफ अनेकान्तवाद और दूसरी तरफ स्याद्वाद स्थित है—
यं लोका असकृतमन्ति ददते यस्मं विनम्रांजलि, मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिंसाभिः । नित्यं चामरधारणमिव बुधाः यस्यैकपार्श्वे महान, स्याद्वादः परतो बभूवतु स्थानकान्तकल्पद्र ुमः ॥
जैनदर्शन के अनुसार समाज में समतावादी भावना के लिए पार्थिक विषमता को, परिग्रहवाद को समाप्त करना धावश्यक है जमाखोरी, रिश्वत, मिलावट, तस्करी, चोरीडकैती सब परिग्रहवादी भावना के अलग-अलग मुखौटे हैं और यह मुखौटे हमें सर्वत्र नजर
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चतुर्थ खण्ड | ३३६
आते हैं । इनके द्वारा हिंसावृत्ति को, भ्रष्टाचार को, अनैतिकता को बल मिलता है । इसी दुष्प्रवृत्ति के कारण दहेज जैसा अजगर अपना रूप अधिकाधिक विकराल बनाता जा रहा है । अनेक कोमलांगी नववधुओं को जिंदा जलाया जाता है, उन्हें अमानवीय यातनाओं का शिकार बनाया जा सकता है। कानन बना है दहेजविरोधी, लेकिन मनुष्य की अर्थ लिप्सा पर रोक नहीं लग सकी। परिग्रह को जैनदर्शन में 'मूर्छा' कहा गया है, यही ममत्व की, आसक्ति की, लोभ की, मोह की भावना है। 'दशवकालिकसूत्र' में आसक्ति को ही परिग्रह माना गया है।
लोभ मैत्री, विनम्रता, प्रेम आदि सदगुणों का नाश कर डालता है। मोहांध व्यक्ति को सन्मार्ग नहीं सूझता। आर्थिक विषमता का कारण तृष्णा है, तृष्णा कभी शांत नहीं होती। तृष्णा तृष्णा को बढ़ाती है, लोभ से लोभ पैदा होता है । इच्छानों और तृष्णाओं को बढ़ने से रोकना अपरिग्रह है। लोभासक्ति पर नियंत्रण लगाना अपरिग्रह है। अर्थ-संचय आज के युग का प्रथम ध्येय है। आर्थिक संघर्ष और विषमता ने मानव जीवन को अशांति का अभिशाप दे दिया है। अर्थजन्य विषमता से समाज बुरी तरह प्राक्रान्त है। किसी को झोंपड़पट्टी में सिर छिपाने को जगह नहीं और किसी के पास कई-कई भव्य भवन हैं। वही लोग परिग्रह को परिभाषित करते हैं; 'परि' =परितः, सब अोर से, सब दिशाओं से, 'ग्रह' = ग्रहण करना, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना, चारों हाथों से लटखसोट करना परिग्रह कहलाता है। मनुष्य परिग्रह के कारण असत्य बोलता है, चोरी करता है, दूसरे के साथ छल-कपट करता है। परिग्रह दो प्रकार का होता है-पाभ्यन्तर और बाह्य । प्राभ्यन्तर परिग्रह के अन्तर्गत माया, लोभ, मान, क्रोध, रति, मिथ्यात्व, स्त्रीवेद आदि आते हैं और बाह्य परिग्रह में मकान, खेत, वस्त्र, पशु, दास-दासी, धन-धान्य प्रादि शामिल हैं। यदि कोई निर्धन है, लेकिन उसमें धनी बनने की प्रासक्ति या मोह है तो वह परिग्रही ही माना जायेगा। ज्योतिपुरुष महावीर ने वस्तुगत परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा, वरन् उन्होंने 'मूच्छो' को हो परिग्रह कहा है
न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ बुत्तं महेसिणा ॥५ उन्होंने परिमाण में, आवश्यकतानुसार वस्तु-संग्रह और धनोपार्जन की स्वीकृति दी। आवश्यकता से अधिक धनसंग्रह को उन्होंने पाप कहा है और ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता। प्रेमचन्द धनी व्यक्ति को बड़ा नहीं समझते थे, क्योंकि बड़ा आदमी बनता है शोषण से, लूट-खसोट से, बेईमानी से, दूसरों का हक छीनने से । गाँधीजी ने सम्पत्ति को जनसाधारण के प्रयोग के लिए 'ट्रस्टीशिप' का विचार दिया। वह भी धनसंग्रह या परिग्रह के विरोधी थे। मार्क्सवाद में जो अर्थ का, पदार्थों का समान वितरण करने का प्रादर्श है वही अपरिग्रह है।
१. तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) ७।१७ २. दशवकालिक ६२० ३. दशवकालिक ८१३७ ४. उत्तराध्ययन ४.५ ५. समणसुत्तं ३७९
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जनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के प्रेरक तत्त्व / ३३७
इस्लाम में भी परिग्रह को निंदनीय माना गया है। समाज को समतावादी भूमि प्रदान करने के लिए आर्थिक विषमता की ऊँची होती दीवारों को तोड़ना होगा।
भारतीय समाज में जातिवादी प्रथा एक अभिशाप है, कलंक है। एक जाति का व्यक्ति अपने को दूसरी जाति के व्यक्ति से श्रेष्ठ समझता है। शूद्र अछुत, अस्पृश्य समझे जाते थे। डा. अम्बेडकर जैसी राष्ट्र-विभूति को जातिवाद के कारण घणा, अपमान का शिकार होना पड़ा, फलतः उन्होंने हिन्दूधर्म का परित्याग कर बौद्धधर्म अंगीकार किया। इस शताब्दी की महानात्मा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अछूतों, शूद्रों को 'हरिजन' का नाम देकर समाज में आदर और समानता का दर्जा देने का भरसक प्रयत्न किया और उसमें वे कुछ सफल भी हुए। परन्तु हरिजनों पर अाज भी यातनामों की बिजली गिराई जाती है। अनेक स्थानों पर उन पर पुलिस द्वारा, उच्च जाति के लोगों द्वारा जुल्म ढाये जाते रहे हैं। कहने को तो हमारा संविधान धर्म, जाति से ऊपर है, धर्म और जाति निरपेक्ष है, परन्तु व्यवहार में हम कितने धर्मनिरपेक्ष या जातिनिरपेक्ष हैं ? सन् १९४७ से अब तक हम हरिजनों की दशा में सुधार नहीं कर सके। यह अवधि कोई कम नहीं है। राजनीति में धर्म, जाति का दखल नहीं होना चाहिए, राजनीति को धर्म में, धर्म को राजनीति में नहीं लाना चाहिए। परन्तु निर्वाचन में जाति/धर्म के आधार पर 'पार्टी मेनडेट' दिया जाता है। मुस्लिम बहुल इलाके में मुस्लिम को एम एल. ए. या एम. पी. का टिकिट पार्टियां देती हैं। इस प्रकार राजनीति में, निर्वाचन में हम धर्म और जाति को खुद ही दाखिल कर देते हैं। धर्म और जाति के नाम में हम एक-दूसरे के गले को काटते हैं, मकान-दुकान जलाते हैं । क्या यह मनुष्य के लिए शोभनीय है ? हिन्दू-मुस्लिम दंगे अंग्रेजों के जाने के बाद स्वतन्त्र भारत में प्राज तक जारी हैं, उन्हें हम बन्द नहीं करा सके। हजारों साल पहले महावीर ने मनुष्य की समानता का एक आदर्श प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान होता है। उन्होंने स्वयं हरिकेश चाण्डाल को गले से लगाया, उसे मुनि बनाया और कहा मनुष्य को मनुष्य से घृणा नहीं करनी चाहिए। हर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सब भगवान् बन सकते हैं। जैनदर्शन यह नहीं मानता कि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुमा ब्राह्मण कहलाता है या ब्राह्मणकुल में पैदा होने पर व्यक्ति ब्राह्मण होता है। यहां जाति को जन्मना नहीं, कर्मणा मना गया है
कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वहस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥' अर्थात् मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र होता है । ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म का आचरण करे, जो सत्यवादी हो, अहिंसक हो, अकिंचन हो' और जिसमें रागद्वेष न हो, भय न हो। हमारा समाज जाति-प्रथा में, राग-द्वेष में,
१. उत्तराध्ययन २५.३१ २. उत्तराध्ययन २५.३० ३. उत्तराध्ययन २५१२१ ४. उत्तराध्ययन २५।२२-२३
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चतुर्थ खण्ड | ३३८
सम्प्रदाय में फंसा है। साम्प्रदायिक उन्माद ने धर्म-ज्योति को मलिन कर दिया है । समतावादी समाज की रचना के लिए साम्प्रदायिकता, जातिवाद, संकीर्णता और दुर्भावना को त्यागना होगा। जैनदर्शन इस युग में हमें नयी समाज-संरचना का व्यावहारिक रूप प्रदान करता है। सम्प्रदाय की प्रतिबद्धता की केंचुली को उतारना होगा। साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण हम दुसरे सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की जरूरत नहीं समझते, क्योंकि एकान्तिक प्राग्रह से ग्रस्त होते हैं। धर्म-दृष्टि को व्यापक, उदार बनाने पर, धर्म-सहिष्णु होने पर, आत्मौपम्य दृष्टि विकसित करने पर अवश्य समतावादी समाज की संरचना की जा सकती है।
-हिन्दी विभागाध्यक्ष
इस्लामिया कॉलेज, श्रीनगर-१९०००२ (कश्मीर)
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तत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभतिपरक
सत्य का एक अद्भुत उपक्रम
o आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री एम. ए. (त्रय),
पी-एच. डी. काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
"एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" यह वैदिक वाक्य बड़ा सारगभित है। सत्य एक है, सर्वथा एक है, उसमें द्वैत नहीं होता । हाँ, इतना अवश्य है, सामान्य बुद्धियुक्त मानवसमुदाय को अवगत कराने हेतु शास्त्रकार, ज्ञानीजन उसे अनेकानेक अपेक्षाओं से, दष्टियों से निरूपित करते हैं। निरूपण वक्त-सापेक्ष और श्रोतृ-सापेक्ष होता है। वक्ता अपने अध्ययन, चिन्तन और शास्त्रज्ञान के अनुसार विवेचना करता है, श्रोता अपनी क्षमता के अनुसार विवेचित तथ्य का श्रवण करता है, उसे स्वायत्त करता है। सत्य की साक्षात् अनुभूति इससे परे है। वह व्यक्ति के अपने प्राभ्यन्तर पर्यालोचन, पर्यालोकन, मनन एवं निदिध्यासन से सधती है। इन सब के माध्यम से एक अन्त:स्फुरण की प्रक्रिया निष्पन्न होती है। सत्य और अन्वेष्टा के बीच में जो शास्त्रगत माध्यम रहता है. तत्त्वतः नैश्चयिक दष्टि से यदि उसे व्यवधान कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा, अपगत हो जाता है। वह सत्य के साक्षात्कार की दशा है। उसे अनुभूति कहा जाता है। जहां साधना अनुभूत्यात्मक स्थिति प्राप्त कर लेती है, वहाँ फिर सम्प्रदायगत, परम्परागत सभी भेद अपने आप में समाहित हो जाते हैं। वैसे साधक किसी भी नाम से अभिहित किये जाएं, किसी भी परम्परा से जुड़े हों, उनका याथाथिक ऐक्य अक्षुण्ण रहता है।
मेरे उपर्युक्त विचारों को बहुत बल मिला, जब मैंने परम विदुषी, प्रबुद्ध ध्यान-योगिनी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. "अर्चना" से यह सुना कि मारवाड़ के मेड़ता अंचल के प्रास-पास के क्षेत्र में विद्यमान रामस्नेही साधकों की परम्परा में उनकी वाणी में कहीं-कहीं ऐसे संकेत हैं, जहाँ श्राद्यतीथंकर भगवान ऋषभ, चरमतीर्थंकर भगवान महावीर, तीर्थकर चौबीसी, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान, तीर्थंकर-पद, वीतराग-विज्ञान आदि का बड़े प्रामाणिक और सुन्दर रूप में उल्लेख, पाख्यान हुआ है। बड़ा आश्चर्य होता है, श्रमण-परम्परा की यह शब्दावली, यह तत्त्व रामस्नेही परम्परा में कैसे विमिश्रित हो गया। उन सन्तों ने स्वतन्त्र रूप से प्रार्हत परम्परा का, तन्मूलक शास्त्रों का अध्ययन करने का अवसर पाया हो, ऐसा कम संभव प्रतीत होता है। ऐसा होते हुए भी उनके शब्दों से जो तथ्य उदभासित हुए हैं, वे शाश्वत, व्यापक और यथार्थ हैं। वह व्यापकता इतनी विराट है कि वहाँ संकेत के लिए केवल नामात्मक भिन्नता का अस्तित्व रहता है, वस्तुवृत्त्या वहाँ मूलतः कोई भेद रह नहीं जाता।
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चतुर्थखण्ड / ३४०
रामस्नेही संत परम्परा में संत श्री सुखराम जी एक महान् साधक हुए हैं। उनका जन्म मरुधरा के अन्तर्गत मेड़ता के समीपवर्ती "बिराई" नामक ग्राम में गुर्जर गौड़ ब्राह्मण परिवार में विक्रम संवत् १७८३, चैत्र शुक्ला नवमी गुरुवार को हुआ। संवत् १८७३ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को उन्होंने इस नश्वर देह का त्याग किया। वे महान संस्कारी योगी थे । बाल्यावस्था में ही साधना में जुट गये। दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक तपश्चरण द्वारा उन्होंने प्रद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त की, धनुभूतियां प्राप्त की सिद्धिजनित वैशिष्ट्य प्रदर्शन से वे सदा दूर रहे। उनकी अनुभूतियों के पद वाणी के रूप में विश्रुत हैं । रामस्नेही साधक सन्त-वाणी को सर्वोपरि स्थान देते हैं । उसे प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण, साथ ही साथ सम्यक् परिरक्षणीय श्रीर गोपनीय मानते हैं। श्री सुखरामजी म. की वाणी सुरक्षित है। वह तेतीस हजार श्लोक-प्रमाण पदों में है ऐसा कहा जाता है। एक श्लोक में ३२ अक्षर माने जाते हैं। वाणी में अध्यात्म, साधना, जप, ध्यान, मोक्ष प्रादि से सम्बद्ध महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है। जैसाकि ऊपर इंगित किया गया है, वहाँ अनेक स्थानों पर जैनपरम्परा के अनेक शब्दों का ठीक जैनपरंपरा सम्मत श्राशय से प्रयोग हुआ है । जैन शब्द "जिन" से बना है। जिन शब्द का अर्थ राग-द्वेष-विजेता है। यों जैन शब्द का अर्थ वह तत्वज्ञान है, जो राग-द्वेष- विजयी, जिनके लिये जैनपरंपरा में वीतराग शब्द का प्रयोग हुआ है, परम पुरुषों द्वारा प्रतिपादित है, इसलिये उसे वीणराग-विज्ञान कहा है । वाणी का एक पद हैवीतराग विज्ञान होय, इनको शिव होय जाय, जे सतगुव संसार में जन्म घरे जग मांय । जन्म घरे जग मांय दोष ताहूं नहीं कोई, जो पद केवल ब्रह्म तांय कू दुर्लभ जोई ॥ सुखरामदास ए गुरु किया, अब गुरु नहीं जग मांय । वीतराग विज्ञान होय, इनको सीख वे आय ॥
यहाँ सन्त का कथन है कि शिष्य ऐसे पुरुष का होना चाहिए, जो वीतराग-विज्ञान का धारक हो, जिसका जीवन दोषवर्जित हो, जो सतत ब्रह्मज्ञान में लीन रहे । सेवक सुखराम ऐसे ही गुरु में प्रास्थावान् हैं जो वीतराग-विज्ञान युक्त हो, अन्य में नहीं ।
सन्त सुखराम ने बहुत थोड़े से शब्दों द्वारा इस पद में बड़े मर्म की बात कही है। बात ऐसी तथ्यपरक है, जहाँ साम्प्रदायिक संकीर्णता का लेशमात्र भी नहीं है। ऐसा ही एक प्रेरक प्रसंग जैन जगत् के सुप्रसिद्ध प्राचार्य कलिकाल - सर्वज्ञ विरुद - विभूषित श्री हेमचन्द्रसूरि के साथ घटित हुया ।
अपने युग का परम प्रतापी नरेश, गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह प्राचार्य हेमचन्द्र के प्रति बहुत श्रद्धा एवं आदर रखता था। एक बार प्राचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज का सोमनाथ में एक साथ होने का संयोग बना । प्राचार्य हेमचन्द्र सिद्धराज के अनुरोध पर सोमनाथ मंदिर में गये। सिद्धराज ने उनसे सादर निवेदन किया- प्राचार्यवर ! भगवान् शिव को प्रणाम करें । प्राचार्य हेमचन्द्र ने तत्काल एक स्तवनात्मक श्लोक की रचना की, जो निम्नांकित है"भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमोऽस्तु सर्वभावेन ॥"
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तत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम | ३४१
भव-जन्म-मरण-आवागमन के बीज को उत्पन्न करने वाले-जिनसे जन्म-मरण का चक्र प्रादुर्भूत होता है, वे राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि जिनके क्षीण हो गए हैं, अर्थात जो राग-द्वेष आदि से प्रतीत हैं, भवचक्र को लांघ चके हैं, वे ब्रह्मा, विष्ण, शिव या जिन जिस किसी नाम से अभिहित हों, उन्हें मेरा नमस्कार है।
निश्चय ही शाश्वत सत्य पर प्राधत भारतीय चिन्तनधारा का यह एक अदभत, अनुपम पद है । सत्य के बागात्मक परिवेशों में वैविध्य या अनक्य संभावित है, किन्तु वह विसंगत नहीं होता। विसंगति पार्थक्य है। संगति या समन्विति भिन्नता के बावजद अपार्थक्य है। विभिन्न आम्नायों द्वारा स्वीकृत, प्रतिपादित शाश्वत सत्यमूलक सिद्धान्त विवक्षा-भेद से शब्दात्मक अभिधानों की असमानता होते हए भी यथार्थ की कोटि से बाहर नहीं जाते।
जैन-परम्परा में दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान, कर्म आदि का बड़ा गहन विवेचन हुआ है। वहाँ ज्ञान के पांच भेद माने गये हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान । धार्मिक साहित्य में इनका बड़ा विशद विवेचन हुया है। मतिज्ञान ज्ञान की प्रारंभावस्था है तथा केवलज्ञान चरमावस्था। प्रात्मा अनन्त ज्ञानमय है। ज्ञान पर जो कार्मिक आवरण हैं, ज्ञान को ढकने वाली पत हैं, वे ज्यों-ज्यों हटती जाती हैं, आत्मा का ज्ञानमय स्वरूप उत्तरोत्तर उद्घाटित, उद्भासित होता जाता है। जब ज्ञान को ढकने वाले समस्त कर्मावरण सर्वथा ध्वस्त, विनष्ट या क्षीण हो जाते हैं, तब ज्ञान की समग्रता अभिव्यक्त हो जाती है । ज्ञातृरूप प्रात्मा का तब ज्ञेय से सीधा सम्पर्क निष्पन्न हो जाता है । इन्द्रियां, मन आदि माध्यम वहाँ सर्वथा निरपेक्ष हो जाते हैं। ऐसी स्थिति तब बनती है, जब राग, द्वेष प्रादि समस्त प्रात्म-परिपंथी बाधक तत्त्व उच्छिन्न हो जाते हैं । केवलज्ञान वह है, जहाँ वर्तमान, भूत व भविष्य के भावों को प्रात्मा जानती है । यह प्रात्मा की परम उच्चावस्था है । संतवर सूख राम अपने एक पद में ज्ञान की चर्चा के सन्दर्भ में कहते हैं
मतज्ञान माने नहीं, श्रुतज्ञान में न्याव, अवधज्ञान में सूझसी, लाख कोश को डांव । लाख कोश को डांव, मन परचे सोहि करह, आ केवल ही पर्ख, अमर फल खाय न मरह॥ सुखराम वर्ष वदित हुआ, नरके उपजे भाव । मतज्ञान माने नहीं, अतज्ञान में न्याव ॥
ब्रहम ध्यान बिन ध्यान सब, माया मिलण उपाय, बहम प्रेम बिन प्रेम सो, सब कर्मों की खाय । सब कर्मों की खाय, नाम केवल बिन सारा, सब इन्द्रयां का भोग, करण कारण विचारा ॥ कोई शब्द के प्रेम बिन, परम मोख नहीं जाय ।
ब्रहम ध्यान बिन ध्यान सब, माया मिलण उपाय ॥ जीवन का परम प्राप्य वीतरागभाव, कैवल्य या केवलज्ञान है। मतिज्ञान मननात्मक होता है। इन्द्रिय, मन प्रादि बाह्य उपकरणों द्वारा जो हम जानते हैं, वह मतिज्ञान है।
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चतुर्थ खण्ड / ३४२
श्रुतज्ञान, प्रागम, शास्त्र आदि के अध्ययन, वाचन, मनन, श्रवण प्रादि से प्राप्त होने वाला ज्ञान है । श्रतज्ञान प्राप्तवचन्नात्मक होता है, उच्चतम स्थान पर पहुँचे हए महापुरुषों की देशना से अनुगत होता है । अतएव उसमें किचित्मात्र भी शंकास्पदता नहीं होती । श्रुतज्ञान के इस स्वरूप को ध्यान में रखते हुए सन्त ने "श्रुतज्ञान में न्याव" इन शब्दों द्वारा श्रुतज्ञान की न्याय्यता तथा उपादेयता पर प्रकाश डाला है। अवधिज्ञान, जो व्यवहित पदार्थों को स्थानिक व्यवधान के बावजूद जान लेने का गुण लिये होता है, की विशेषताओं की संत यहाँ चर्चा करते हैं। अन्ततः वे केवलज्ञान पर ही प्रा टिकते हैं। केवलज्ञानी जैसी आध्यात्मिक उच्च भूमिका को स्वायत्त कर लेता है, सन्त सुखराम की दृष्टि में वह बहुत बड़ी उपलब्धि है। वे उसे अमरत्व के रूप में उपपादित करते हैं। "अमर फल खाय न मरह" -इन शब्दों में साधकवर्य ने बहुत कुछ कह डाला है, जो मननीय है।
ऊपर उद्धत दो पदों में दूसरे पद के अन्तर्गत सन्त सुखराम ब्रह्मध्यान की चर्चा करते हैं । ब्रह्म पर चित्त को एकाग्र किए बिना प्रात्मानुभूति नहीं होती। अतएव साधक को सदैव ध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिए। ब्रह्म से मिलने का, ब्रह्म-सारूप्य साधने का एकमात्र ध्यान ही अमोध उपाय है। वह शुद्ध भागवत्-प्रेम से सधता है। इसके अतिरिक्त जो कुछ किया जाता है, कार्मकाण्डिक धर्माचरण ही सही, वह यथार्थ की भाषा में माया के अन्तर्गत ही समाविष्ट होता है। इस पद में भी संत केवलज्ञान की चर्चा करते हैं और केवलज्ञान के बिना सारे कर्म-समवाय को इन्द्रिय-भोग से अधिक नहीं मानते । सगुण- निर्गुण की चर्चा में उनके पदों में एक पद है
बांदा! केवल भेद नियारोजी, सत्स्वरूप आनंद पद कहिये, सो उपदेश हमारो जी। टेर। ब्रह्मा विष्णु महेश नां पायो, नां अवतारां सोई।। सुर तेतीस शक इन्द्रादिक, नेक न जाण्यो कोई ॥१॥ ग्यानी ध्यानी संत साध रे, नां जोगेसर पावे।। दुनियां सकल कोण गिनती में, सेस ब्रह्म लग ध्यावे ॥२॥ बंध मुक्त दोनों के आगे, मुक्त रूप सुण होई। यहाँ लग सकल खबर ले आया, आगे न जाण्यो कोई॥३॥ कहे सुखराम अर्थ जब लाधे, जब ऐसी मत आवे।
जब वैरागी होय नर जग में पिता किसब कूण चावे ॥४॥ साधक को सम्बोधित कर संत कहते हैं-कैवल्य या केवलज्ञान का रहस्य कुछ अलग ही है। उसके प्राप्त होने पर अपने शुद्ध स्वरूप का भान होता है और परम प्राध्यात्मिक प्रानन्द की अनुभूति होती है। हमारा यही चरम उद्देश्य है, जिसे प्राप्त करने हेतु साधक सदैव सतत यत्नशील रहे। यह वह गूढ़ रहस्य है, जिसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव तक न जान सके और न दूसरे अवतार ही जिसे स्वायत्त कर सके। उसी प्रकार न तेतीस करोड़ देवी-देवता और न उनके अधिनायक इन्द्र आदि इसे जरा भी जान पाये। यह वह निगूढ़तम तत्त्व है, जो ज्ञानियों, ध्यानियों, संतों, साधुनों, योगेश्वरों, उद्भट योगियों को भी उपलब्ध नहीं हो सका। इस
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तत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम | ३४३
जगत् की तो गिनती ही क्या है ? शेषनाग से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त सभी इसे ध्याते हैं, प्राप्त करने की कामना करते हैं । बन्धावस्था तथा बाह्य दष्टि से मुक्तता इन दोनों के आगे मोक्ष स्वरूप की अवस्थिति है। यहाँ तक की खबर तो सब ले आये, यहाँ तक की गति, प्रगति, स्थिति आदि तक को तो सबने समझा किन्तु इससे आगे क्या है ? इसे कोई नहीं जान पाया । मुख राम कहते हैं कि यथार्थता-वास्तविकता, असलियत तब प्राप्त हो, जव जैसा यहाँ बताया गया है, उस पद का अवलम्बन किया जाय । वैराग्य और अभ्यास द्वारा सत्-स्वरूप को अधिगत किया जाय । वैसी स्थिति में ब्रह्मानन्द या शुद्ध चैतन्यानुभूति प्राप्त होती है, जिसका प्राप्त होना जीवन का साफल्य है।
एक पद में वे पुन: केवलज्ञान की चर्चा करते हैं, लिखते हैं
बांदा ! केवल को घर न्यारो। करामात क्रिया सब झूठी सांचो नांव विचारो। करामात सू सब कोई रीझे, ग्यानी दरसण सारा ।
ओ सुण अर्थ न सूझे किसक, माया चरित विचारा ॥१॥ मायी जहां राम सुण नाहि, राम जहाँ नहीं माया । ओ सुण भेद न जाणे कोई, परचा कहाँ सु आया ॥२॥ देखो भूल ग्यान दरसण में परचा सकल सरावे। जिण जनक माया बिध मारचो, ताकी शोभा गावे ॥३॥ ब्रह्मलोक जाता • बीचे, माया है बट फाड़ी।
सतगुरुशरण तत जहाँ भ्यासे, जिण जन पटक पछाड़ी ॥४॥ इस पद्य में संत ने कैवल्य की महिमा का बड़े मार्मिक तथा सशक्त शब्दों में विवेचन किया है । साधनोत्सुक पुरुष को सम्बोधित कर वे कहते हैं-मानव ! कैवल्य का स्थान, कैवल्यमयी स्थिति वास्तव में सबसे न्यारी, अनठी है। यह परम उत्कृष्टतम सिद्धि है। लौकिक लक्ष्य से प्राचीर्ण साधनाक्रम, ध्यान, योगाभ्यास, मन्त्राराधन से प्राप्त चामत्कारिक सिद्धियाँ वास्तव में मिथ्या हैं । चमत्कार प्रस्तुत करना साधक का लक्ष्य नहीं होता। चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा साधना विकृत, दूषित और क्षीण हो जाती है। अतएव सन्त बड़े स्पष्ट शब्दों में "करामात क्रिया सब झूठी" यों कहते हुए उसका नैरर्थक्य प्रकट करते हैं। वे जानते हैं कि जगत् चमत्कारों से प्रभावित होता है। वह चमत्कारों को नमस्कार करता है, क्योंकि वह एषणामों तथा कामनाओं से प्रापूर्ण होता है, अतएव वह मन में प्राशा संजोये रहता है कि चमत्कारी पुरुष उसे लाभान्वित करेंगे। यह चमत्कार की दुनिया बड़ी विचित्र है। जन-साधारण तो इससे प्रभावित होते ही हैं, जिन्हें हम विद्वान् कहते हैं, वे भी चमत्कारों के प्रभाव से अछूते नहीं रहते, यह बड़े दुःख का विषय है। ऐसे व्यक्ति अक्षरज्ञ कहे जा सकते हैं, वस्तुतः विद्वान् नहीं । विद्या प्राप्त हो जाए और ऐसी एषणापूर्ण, लुब्धतापूर्ण हीनवृत्ति बनी रहे, यह कदापि संगत नहीं होता। संत के अनुसार यह माया है, प्रवंचना है, अविद्या है, प्रज्ञान है। जहाँ माया का अस्तित्व होता है, वहाँ प्रभु नहीं मिलते ।
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चतुर्थ खण्ड | ३४४
इसी पद में संत ज्ञान तथा दर्शन की चर्चा करते हैं। दर्शन शब्द जैन परम्परा में बड़ा महत्त्वपूर्ण अर्थ लिए हुए है। सामान्यतः दर्शन का अर्थ "देखना" या "तात्त्विकज्ञान" है। जैन वाङमय में यह शब्द श्रद्धान के अर्थ में प्रयुक्त है। श्रद्धान का अर्थ प्रास्था या विश्वास है। जीवन में सबसे पहले श्रद्धान का शुद्ध होना अति आवश्यक है। श्रद्धान-शुद्धि के बिना व्यक्ति सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मान लेता है। यदि श्रद्धान शुद्ध नहीं है, सम्यक नहीं है तो ज्ञान भी शुद्ध या सम्यक् नहीं होगा। जैनदर्शन में तो सम्यक श्रद्धाहीन पुरुष के ज्ञान को अज्ञान की संज्ञा दी गई है। वहाँ प्रज्ञान का प्रयोग ज्ञान के प्रभाव में नहीं है, अपितु कुज्ञान या कुत्सित ज्ञान के अर्थ में है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकुचारित्रइन तीनों को जैन परम्परा में "रत्नत्रय" कहा जाता है। सन्त ने यहाँ ज्ञान के साथ-साथ जिस दर्शन शब्द को जोड़ा है, वह उनकी अति गहन आध्यात्मिक अनुभूति या उपलब्धि का विषय है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से जागतिक पदार्थों का जो परिचय प्राप्त होता है, वह निश्चय हो यथार्थ होने के कारण शोभनीय और स्तवनीय होता है। जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र द्वारा माया को, जो ब्रह्मलोक की ओर जाते साधक को मार्ग में लूट लेने वाले बटमार "दस्यु" की तरह है, पराभूत कर डालते हैं, वे वस्तुत: अपनी जीवन-यात्रा को सफल कर डालते हैं। इस माया को पछाड़ने की क्षमता तब आती है, साधक जब सद्गुरु की शरण अपनाता है, जिन-राग-द्वेष विजेता की भूमिका अधिगत कर लेता है।
आश्चर्य है, सन्त सुखराम के प्रतिपादन में प्राहंत परम्परा के साथ कितना सुसंगत समन्वय है। जिन शब्द जैन परम्परा के विशिष्टतम शब्दों में है।
ऊपर जैनदर्शन सम्मत ज्ञान के भेदों पर चर्चा हुई है। तीर्थंकर मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान इन पांचों के धारक होते हैं । वैसे केवलज्ञान में, जो अपरिसीम है, सभी ज्ञान-भेदों का समाहार हो जाता है। वाणी में आत्म-परिशोधन के सन्दर्भ में एक पद है
जामो है भारी भारी, कोई धोवे संत हजारी। जो धोया जो अमर हुआ रे, आवागमन निवारी॥ सुर नर मुनि जन शंकर बंछ, मिलनो दुर्लभ विचारी ॥१॥ जामा माही अनंत गुण होई, जो कोई लखे विचारी। गेली जगत धो नहीं जाणे, उलटो कियो खुवारी ॥२॥ जामो है भारी.... कर सुधुपे ने लातां खुदीज्यां, कीमत कठन करारी । ज्यां धोया ज्यां अघरज धोया, प्रेम नाम जल डारी॥ जामो है भारी....
॥३॥ जल सूधुपे न साबुन दियां पायण शिला पिछारी। ऋषियां मुनियां सिद्धां पीरा धोयो नहीं लिगारी ॥ जामो है भारी....
॥४॥ धोबी करोड़ निनाणु खसिया, बाल जाल गया फाड़ी। अनन्त कोट संतां मिल धोयो, कस रज भागे सारी ॥५॥
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नत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम | ३४५
पांच ज्ञान तीर्थकरा पाया, कर गया फगल विचारी।
जन सुखदेवज धोवण बैठा, करडी मत उर धारी ॥६॥ सन्त ने इस में प्रात्मशोधन की प्रक्रिया का एक जामे के प्रक्षालन के प्रतीक द्वारा निरूपण किया है। यह आध्यात्मिक प्रक्षालन की प्रक्रिया है, जो सदज्ञान द्वारा, सम्यग्ज्ञान द्वारा, जिससे सम्यक विधिक्रम प्रस्फुटित होता है, निष्पन्न होती है। निष्पन्नत्व के शीर्षस्थ रूप में अवस्थित तीर्थंकरों का, जिन्होंने जगत को धर्म का सन्देश दिया, इस पद के अन्त में दो पंक्तियों में उल्लेख हुअा है, जो उनके परम शुद्धात्मस्वभाव का ख्यापन करता है । तीर्थंकरों ने पांचों ज्ञानों को स्वायत्त कर लिया, यह उनका अतुल आत्म-पराक्रम था, जिससे प्रात्मप्रक्षालन रूप करणीय में उन्हें सबल संबल प्राप्त हुआ।
संत सुखराम, जो रामस्नेही परम्परा के उच्च कोटि के महात्मा थे, वास्तव में साम्प्रदायिक संकीर्णता से सर्वथा अतीत थे। उनके लिए तीर्थंकर, अवतार पुरुष, जो भी उच्च आत्माएं इस भूमण्डल पर आती रही हैं, वरेण्य हैं, आदरणीय हैं । तीर्थकरत्व के आदर्शों के प्रति संत का बड़ा रुझान रहा है । वे एक स्थान पर लिखते हैं
अटक रह्यो रे साधो, अटक रह्यो, मुझे कोई मेर लगावे रे।
जिण स्थान तीर्थकर पहुंता, वो ई आसण मोई भावे रे ॥ बड़े प्रेरक शब्द हैं ये । संत ने इनमें मानो अपना हृदय खोलकर रख दिया है । वे कहते हैं-मैं अटक रहा हूँ, मंजिल की ओर बढ़ते मेरे चरण कुछ ठिठक रहे हैं, मेरी प्रगति कुछ ध्याहत-सी हो रही है, मुझे कोई यथास्थान पहुंचाए-मेरे वहां पहुंचने में सहयोगी बने। मुझे वह स्थान पाने की अभीप्सा है, जो तीर्थंकरों ने प्राप्त किया अर्थात मैं शुद्ध-बुद्ध, मुक्त होना चाहता हूँ।
सन्त सुखराम न केवल तात्त्विक विषयों में ही नहीं वरन् परंपरा-प्रसूत ऐतिहासिक प्रसंगों में भी सहज भाव से कुछ ऐसा कह जाते हैं, जो अनादि-अनन्त जैन परंपरा से अनुस्यूत प्रतीत होता है। वे पाद्यतीर्थंकर ऋषभदेव, चरम तीर्थंकर महावीर की चर्चा करते हैं, चौबीसीचतुर्विंशतिक तीर्थंकर-परम्परा का वर्णन करते हैं, सिद्धि, मुक्ति आदि का विवेचन करते हैं। जहां भी तीर्थंकरों का उल्लेख करते हैं, उनके प्रति उनके हृदय में श्रद्धा का अगाध सागर लहराता है। उनके कतिपय पद उद्धत किये जा रहे हैं, जो इन तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं
नव कोड जन पहुंतिया, एक चौबीसी लार । आगे अनंता पहुंतिया, अंत पहुंतण हार ॥ अंत ही पहुंतण हार, भक्त को पराक्रम भारी । जो सिवरे निज पांव, मोख के वे अधिकारी ॥ सुखराम परम पद नाम जो, भणज्यो बारंबार । नव क्रोडा जन पहुंतिया, एक चौबीसी लार ॥ आद भजो जिन रिखबदेव, अंत मजो महावीर । आठ पोर सिवरण किया, धर चित्त ध्यान सधीर ।। धर चित्त ध्यान सधीर, इकान्तर आसन किया। छाड़ दिया सब भरम, जगत सुचारज लिया ।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ३४६
केवल भज केवल हुआ, चुगे हंस जहां हीर। आद भजो जिन रिखबदेव, अंत भजो महावीर ॥
"केवल भज केवल हमा" द्वारा संत ने इस पद में एक बहुत गहरी बात कही है। ध्याता जिस पालम्बन को लेकर ध्यान करता है, जिसका ध्यान करता है, जिस ध्येय में अभिरत . होता है, तन्मयतापूर्ण ध्यानावस्थ होता है, अन्ततः वह वैसा ही हो जाता है। यह वह दशा है, जहां ध्याता और ध्येय का भेद अपगत हो जाता है, मिट जाता है। संत कहते हैं-केवली को भजने वाले केवली हो गये-कैवल्य प्राप्त कर गये, कैवल्य प्राप्त करते हैं। सन्त की कैवल्य-भाव में, तन्निरूपक शब्दावली में अगाध श्रद्धा है। जब भी वे उस सन्दर्भ में कुछ कहने को उद्यत होते हैं, भाव-विभोर हो उठते हैं।
कलिजुग बारो मोषको, भरतखंड के मांय, भजन करे सो जीव रे वार उपजे आय । वार उपजे आय ग्यान केवल घट आवे, और दर्शन कर-कर मोष, कोड़ा लख जावे ॥ सुखराम चौबीसी प्रकटे सतजुग त्रेता माय, कलजुग बारो मोख को भरत खंड के मांय ।।
ऋषभदेव तांमे तत छाण्यो, छछम भेद में तत पिछाणवा परगट कियो जग में, आणी विध, चोबीस तीर्थकरा जाणी।
यो सब देव करे पछतावा, यो नरतन कब पावा। जन्म मरण काल भय मेट र, परम धाम कब जावां । अहो प्रभु ! मानव-तन दीजे, भरतखंड के मांही। केवल भक्ति करां संत सेवा, और करां कछु नाही ॥
हण भुरकी पैगंबर ताऱ्या, और मुनि जन ज्ञानी । ऋषभदेव तीर्थकर ताऱ्या भरत भरत की रानी। ऋषमदेव भुरकी दे ताऱ्या, पांच कोड नर-नारी ॥
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तस्य चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतियरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम / ३४७
भगवत बोसो नित नवी विद खेतरे मांय, एक भव तारी संत जन जनम धरे वहाँ आय । जनम धरे वहाँ आय मोख वासु हंस जावे, हर बिन दर्शण भगवान ग्यान घट ना ही आवे ॥ सुखरामदास वा समय हो हंस मोख नित जाय, भगवत बीसी नित नवी विद खेतरे मांय ॥
इस पद्य में विदेह क्षेत्र में विहरण या बीस तीर्थकरों की फोर संत का इंगित है। जैन परम्परा के मौलिक स्वरूप के प्राकट्य का यह एक प्रद्भुत उदाहरण है, जो एक महान् संत की अनुभूति से निःसृत हुग्रा, जिससे इस परम्परा का सातत्य, शाश्वत रूप सम्यक् परिपुष्ट होता है ।
जैनदर्शन कर्मवादी दर्शन है। जीव स्वकृत कर्मों के अनुसार विविध रूपों में उत्पन्न होता है । वह रूप - वैविध्य गतियों में विभक्त है – १. नरकगति, २ तियंचगति, ३ मनुष्यगति तथा ४. देवगति ।
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संसारी जीव जब तक कर्मबद्ध है, इन्हीं चार गतियों में चक्कर काटता रहता है । कर्मानुरूप सुख-दुःख भोगता है।
सन्तप्रवर सुखराम ने इन चार गतियों का चार खानों के रूप में वर्णन किया है, जो इस प्रकार है
अब चार खाण में ऊपजे, जीव जहाँ तां जाय, सुख दुःख जहाँ तहाँ एक ही कम नहीं जाका मांय । कम नहीं जाका मांय नरक सरगां लग जावे, घरी देह का डंड, विसन आगे विसन आगे लग पावे । तीन लोक सुखराम कह यूं जग वणियो आय अब चार खाण में ऊपने, जीव जहाँ तां जाय ॥
सन्त बड़े उन्मुक्त शब्दों में यहाँ उद्घोषित करते हैं, देह दण्ड कर्मफल सब किसी को, - यहाँ तक कि अति विशिष्ट देव विष्णु तक को भोगना पड़ता है ।
उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है, रामस्नेही परम्परा के इन महान् सन्त की वाणी में स्थान-स्थान पर प्रार्हत परम्परा का सन्निवेश सन्त के विराट्, परम सत्यान्वेषी, व्यापक, सूक्ष्म, गहन चिन्तन, विचारवत्ता तथा अनुभूतिगम्य उपलब्धिवत्ता का संसूचक है, जहाँ शाश्वत सत्य का वैविध्य सहजतया ऐक्य में प्रनुस्यूत हो जाता है । धन्य इन महान् सन्त की गरिमामयी साधना तथा विश्वजनीन चिन्तनधारा । 00
धम्मो दीवो संसार समुद्र में
धर्म ही दीप है www.ahelibrary.org
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The Jaina Mathematical Philosophy
Prof. L. C. Jain
“Early Greek geometers, passing from the empirical rules of Egyptian land-surveying to the general propositions by wbich those rules were found to be justifiable, and then to Euclid's axioms and postulates, were engaged in mathematical philosophy......"
-Bertrand Russell 1. Introduction
Bertrand Russell (1872-1970) appears to have worked on an adventurous path of introducing philosophy through mathematics, in place of logic. He maintained that mathematics ought to be recognized as symbolic logic and he contributed to this end through his world famous work "Principia Mathematica" in collaboration with Whitehead.
In the history of philosophy, there is a digression marked with the Jaina philosophy. It had an approach to a set-theoretic system theory known as Karma theory on which Șa¢khņdāgama, Mabābandha and Kasāyapābuda texts were compiled round about the beginning of the Christian era.
The Jaina school developed post-universal measures through existential sets (cardipals as simile measures) and constructive sets (ordinals as number measures), both detailed as upamā māna and samkhyā māna in the text of the Karņānuyoga group, viz. the Tiloyapaņņatti (C. 5th century A. D.) the Trilokasāra (C. 11th century A. D.) and so on.
These works comprise the mathematico-philosophic pursuits, carried through various commentaries, of which the available texts are the Dhavalā and Jayadhavalā (C. 9th century A. D.). They, a priori, had the logical trends. But when Nemicandra Siddhänta Cakravartı (C. 11th century A. D.) abstracted them in mathematical form, known as the Gommagasära, and the Labdhisāra, the succeeding commentators required a well developed symbolism for their elaborate studies.
The pioneers in this field appear to be Mädhavacandra Traividya and perhaps Cãmundarāi (11th century A. D. ), who might have before them the works or their predecessors, mainly Kundakunda, (C. 3rd century A. D.) Samantabhadra, Yativīşabha, (C. 5th century A. D.) and Akalarika (C. 8th century A. D.). It was to the credit of Keśava varņi (C. 14th century A. D. to consolidate all these as Karnātavșttisi, further translated as Jiva tattva
Delhi,
1981,
Gommatasära ( vols. 1-4), Bharatiya Jñana Pitha, New onwards.
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pradspikā into Sanskrit. Țodaramala (C. 18th century A. D. ), basing bis Samya kjõāpacadrikā commentary on all their works, in the eighteenth century, bifurcated the mathematical philosophy of the commentaries into the philosophy as lay man texts and the mathematics as artha samdşşți (symbolic norms) in two chapters, set introductory to the Gommațsāra and Labdhisāra (inclusive of Kșapaņāsāra), of 17th century A. D.
2. Modern Context
The necessity for a mathematical philosophy in the modern era arose due to class of paradoxes and antinomies in the theory of sets founded by Georg Cantor, through his researches beginning since 1864. He was opposed by Dedekind and his school so much so that bis concepts of infinities wbich were distinguished from philosophical infinity as proper infinities (as they could be compared mathematically as smaller or greater) received foundational blow. Georg Cantor was so puzzled that ultimately he died in an asylum for the lunatics.
Burali-forti (Italian) and Russell round about the beginning of the 20th century, showed the paradoxes of the set theory of Cantor. Attempts then began with Russell to build up the set-theories in order to avoid the paradoxes and Contradictions through intuitionistic, logistic and Hilbert's formalistic approaches.
The Jaina school of thought had also a set theory1 in which extensive use of mathematically comparable infinities were used through monads or units introduced for space, time, phases, matter, motion. These were denominated as point (pradeśa), instant (samaya), indivisible corresponding sections (avibhāgi praticcheda) of various types for Yogic and Kāşāyic actions as well as certain phases of a bios (pariņāmas).
It was natural to avoid contradictions and paradoxes of infinities in giving mathematical operations among them.2 Logic, therefore, took its role towards consistent inferences, for which syādvāda was a process of eliminating the inconsistencies and contradictions. The omniscience was regarded a supreme but adaptable set of indivisible-corresponding-sections of all knowledge of all fluents (dravyas) supposed to exist through their own controls (gunas) and own events (paryāyas) from ab-aeterno to ad-aeterno.
This knowledge was applied to their Karmas system theory, which was the main source leading to a mathematical-philosophy in a naive form. 1. Jain, L. C., Set Theory in Jaina School of Mathematics, 1. J. H. S., Vol. 8,
no. 1, 1973, 1-27. 2: Jain, L. C., On Certain Mathematical Topics of the Dhavala Texts; I. J.
H. S, vol. 11; no. 2, 1976, pp. 85-111. 3. Jain, L. C.. System Theory in Jaina School of Mathematics, I. J. H. S.,
vol. 14, no. 1, 1979, pp. 29-63.
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चतुर्थ खण्ड | ३५० 3. Set Theoretic Approach
Gödet, a great set theorist, concluded that it is impossible to establish a meta-mathematical proof of the consistencies of a system comprehensive enough to contain whole of arithmetic. He found that Principia or any other system within which artibmetic can be developed is essentially incomplete. According to him Principia Mathematica must contain "undecidable" formulas, as much also contain axiom systems for set theory when formalized by addition of axioms and rules of conclusion of the calculus of logic.
In spite of the incompleteness of a system, it does work for all branches of studies, for example the set theory so developed has been applied to science and other fields where abstract methodology has been evolved. Similary, strange enough to find, the naive set theory is found to have been applied to Jaina religious philosophy of Karma (action).
The fundamental word for set in Jaina texts is rāśi, with its synonyms, samüba, ogha, puñja, vsoda, sampāta, Samudaya, pinda, avaấesa, abhinna and Sāmānya, as found in the Dhavalā texts. The sets have been classified as : unitary elements of sets, fundamental measure units of sets, fixed fluent sets, point sets, instant sets, smallest, biggest and intermediary sets, pull sets, indivisible-corresponding sections sets of controls and events, transfinite sets, Karmic sets : varga, vargaņā, spardhaka, guna bāni (viz. varieties, varieform, supervarieform, geometric regression) and variable sets under the methods of treatment of sets, there are eight analytical methods, the method of reductioad- absurdum, the method of one-one correspondence for comparing transfinite sets. The analytical methods consist of the methods of measure (pramāņa), reason (karaņa), explanation (oirukti), abstraction (vikalpa), cut (Khaņdita), division (bhājita), spread (viralana) and removal (apabsta). There is also the approach through the laws of indices, logarithms fraction and square piling.
Comparability in syntopology is still under active investigation for existential and constructive sets and the Jaina works of karma theory have various comparability results for various types of sets, known as alpabahutva, at regular steps, whereever needed for elaboration of ideas and concepts of cardinality and ordinality of sets under description. Alpabahutva has been called the very nature of numbers ends' of three types : about bios, about non-bios, and about mixed. They are detailed into own's place, in other place and in general. The relations used in comparability of quantities are as follows: small, equal, smallest, non-existent, distinctly great, distinctly small, summable times, non-summable times, infinite times, numerate or inpumerate part, decrease and increase, least mild, and most intense etc. 1 1. Jain. L, C., Perspective of the System Theoretic Technique in Jaina
School of Mathematics between 1400-1800 A.D., Jaina Journal, Calcutta, vol. 13, no. 2, 1978, pp. 49-66.
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Out of the fourteen topological sequences (Dbārās), the three dyadic sequences, standing with dyadic forms and reaching the set of omniscience are very important. All of them make use of the well-ordering theorem. 1 Sequential relations in each other are found through comparison and logarithms.
The various operational treatment of the sequences etc., appear to lead us to certain antinomies, paradoxes and fallacies. Yet the Zeno's paradoxes can be easily explained away by the Jaina mathematical principles of postulating finite points in finite segments although in a finite segment in analytical methods, infinite set could also be established as a representation.2 Some of the paradoxes could be explained away through comparability and the sequences. The set of instants in the future time is stated to be infinite times that of set of instants in the past time, appears to be paradoxial, Yet it has been postulated as existent. The axiomatic method is predominant.3
4. Systems Theoretic Approach
The Jaina Karma theory can be compared with mathematical system theory of the modern age in so far as the karma theory deals with input, output and state transition. Yet the Jaina Karma theory had evolved as a self-reproductive system. The modern science has yet to develop abstract models for self-reproductive systems.
The Karma group of texts may also be classified either as under dravyānuyoga or karanānuyoga group. There are Karma structural sets, universes and operators, operands as well as transforms. The Karma theory rests on the following fundamental ground:
1. The Yoga (volition) and Moha (charm) operators, with quantitative
norms and measures; 2. The tetrad of measures and norms of configuration (praksti,
points (pradeśas) or particle-numbers, life-time (sthiti) and energy levels (anubhāga-ansa) corresponding to various karma structures and particularly in nisusus (nişekas) represented in Karma lifetime matrices; The causality concept of simultaneous events corresponding to an absolute scale of behavioral time, corresponding to bios and matter;
3.
1. Jain, L.C., Divergent Sequences Locating Transfinite sets in Trilokasara.
· I. J. H. S., vol. 12, no. 1, (1977), pp. 57-75. 2. Jain, L. C. (editor), Ganita Sara Sangraha of Mahāvirācārya (1963),
Sholapur (introduction). 3. Comparison of sixteen sets in Dhavala, book 3, is worthy of attention.
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8.
4. Yoga operator being responsible for configuration and particle
bonds whereas Moha operator being responsible for life-time and
energy-level bonds; 5. The dual system of the bios phase-rise and its karmic-matter phase
rise working as feed-back to prolong the working of karmic system in ordinary course; Before rise of karmic display, there is a proportionate time-lag,
axcept for the age configuration; 7. There is state-existence (sattva) of karmic totality of the past,
transiting every present instant, depending on the action of input of yoga, charm and self effective independent phases (pariņāmas) of the bios, time also acting as an operator for gradual decay of the nisusus; There are output values and output functions, working every instant;
Impedance (samvara) also works as an input function; 10. The fluent measure, quarter (kşetra) measure, time measure and
phase measure of various sets of bios, non-bios, their merits and demerits, influx, impedance, decay, bond and emergence of all the types of karmic configurations forming statistical survey of the karmic universes; The ten operational phases of bond being those of bonding, state transition, rise, premature-rise, uptraction (utkarşana), downtraction (apa karşana), transmutation (sarikramana), subsidence
(upaśama), nidhatti and nikācita operations; 12. There is a sequence in which the ending of the tetrad of bond
(configuration, point, life-time and recoil-energy) occurs, through reduction in Yoga and Moha as well as effective independent
pariņāmas of a bios; 13. There is a sequence of annibilation of state, and a rule of life-time
cut for life-time state; a law for the down-tract and a law for
reduction of recoil energy; 14. The three operators: the low tended (adhaḥpravstta), the unprece.
dent (apūrva) and the invariant (anivștti) being responsible for
attainment of correct vision, similar to that in omniscient; 15. The complete emergence resulting in omniscience and other
infinite controls.
Thus the karmic philosophy in the Jaina School emerged out as a mathematical pbilosophy in which the astronomical and cosmological system were also evolved under the following basis : 1 1. Jaina, L. C,, On Certain Physical Theories in Jaina Astronomy, The Jaina
Antiquary, vol. 29, nos. 1/2, 1976, pp. 9-16.
11.
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2.
1. Divisibility ad infinitum of space and time, in physical nature is
impossible; An ultimate particle of matter, by virtue of motion could be existent on more than one space-point within an indivisible
instant of time; 3. In nature, the physical and bios phenomena have frequency of
occurence; A closed path when topologically deformed, does not lose its
invariant properties; 5. Seasons changing with precession of quinoxes.
The above marks the system as a principle theory which adopts the analytical method, its basic elements not being constructed hypothetically, but discovered empirically. The basic concepts and principles from the general characteristic of the natural process. Such a theory has the advantage of being logically perfect, and have a secured foundation. Yet the principles require to be powerfully supported by experience and should be logically reconcilable. 1 5. The Mathematio-Logical Development
The Syädvāda system of predication went very deep into the evolution of expressing the karmic system theory before the development of symbolic norms (artha samdrsti), from the sentential and syncopted expressions for equations in qualitative and quantitative forms.
According to Yativ sabha2, the suborder of third Prābbộta of tenth Vastu, in the fifth Purva called jñānapravāda, is of five types : ānupūrvi, nāma, pramāņa, vaktavyatā (assertoriality) and artha-adhikära. Vaktavyatā suborder is of three types : sva-samaya, para-samaya and tadubhaya. The variational aspect of assertoriality transforms it into propositionality, leading logic to symbolic form.
Virasena (c. 9th century A. D.) quotes a verse, Relative to controls and events, “That fluent is one without leaving its various-own-forms and positively it is many relative to its own controls and events, without leaving its one-ness. Thus, O, Jipa, the object in infinite forms is stated in sentences, in squence, through partial acceptance phase (bhāva)." He further explains. “Relative to dravyärthika naya, there is one-pess in one and many. Relative to paryayarthika naya (purport), from an arbitrary one number, the remaining 'one' numbers are different, therefore there is many-ness in them.
1. 2. 3.
Enistain, A., Ideas and Opinions, London, 1956, pp. 227-232. Kasaya Pahuda, Calcutta, 1955. Dhavalā, book 3, 1940.
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Relative to paigama purport, the duality etc., phases comes into being, which leads to acceptance of number-division.”
The mathematical import of the following logic for deciding the fineness between space and time is important. Virasena mentions, “Many preceptors state that the fine is that which is accumulation of many points. It has also been stated that time-measure is fine and quarter-measure is finer, because in an innumerable part of a finger, there are innumerable Kalpas. But this assertion it not eventuated, because, at such a recognition, fluent description will follow the quarter description. Doubt: How is this? Explanation : Because in a fluent finger, compared of infinite point-like ultimate particles, relative to embedding, there is only one quarter-finger, but relative to counting, there are infinite quarter-fingers: Hence quarter is five and fluent is finer, because there are infinite quarter-fingers in a fluent finger:"2
Mahalanobis found in Syādvāda a close relevance to the concepts of probability. 3
According to him, the fourth syādvāda category, being a synthesis of three basic modes, the fourth denoting inexpressibility, indefiniteness or indeterminateness, supplies the logical foundations of modern concept of probability. Yet causality being a relation of determination, it is difficult how causality could not be accomodated in its usual form in Jaina philosophy, as such the assertion of Mahalanobis is subject to reexamination, for the form of the causality held in Jaina philosophy.
Haldane puts in the quantitative aspect of the indeterminate solutions of equations under investigation of syādvāda predication. He says that solutions, of equation like x2=-1, were non-assertorial, till the discovery and use of imaginary members. 4 He finds, "Search for truth by the scientific method does not lead to complete certainty. Still less does it lead to compJete uncertainty. Hence any logical system which allows conclusions intermediate between certainty and uncertainty should interest scientists".
We have still to see how behavioral (vyavahāra) and deterministic (niscaya) purports find place in the universe of knowledge sets in Jainology, for description of natural phenomena. Sahajānanda Varņi divided the
1. Dhavala, book 3, p. 30. 2. Ibid, pp. 27-28. 3. Mahalanobis, P. C., The Foundations of Statistics, Dilectics, vol. 8, no. 2,
15 June 1954, (Samkhya, Indian Journal of Statistics, vol. 18, pts I & II, pp. 183-194.) Haldane, J.B.S., The Syādvad System of Predication, Samkhya, the Ind. Journal of Statistics vol. 18, pts. 1 and 2, (record 1956), pp. 195-200.
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purport system into as many as 225 purpots. This work gives an exhaustive and experimental detail for a deep study into the purport-system.
Thus one finds that what lacks today is the team for exploring the mathematical aspects of the Jaina philosophy, which has found its beautiful architect in the revelation of the Karma theory.
On
--Secretary Mother Universe Foundation 677, Sarafa, Jabalpur-482002 ( India )
1.
Samayasära of Kundakunda with-Sapta Daśāngi commentary of Sahajananda, Meerut. 1977.
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Definition of the Living in Jaina Cannons: An Evaluation
N. L. Jain
The living reality does not exist for the materialists like Charvakas and They seem to believe in spontaneous generation of life. They attribute all the properties assigned to the living to the complex combination of five elements. The continuity or feeling of similarity is said to be due to continuing streams of knowledge. In general, they have a material view of life.
The Ajivikas seem to make an advance on this view by assuming a seperate reality. Though material in nature, it has a transmigration properties-a non-aryan theme according to Basham. It is atomic, circular or octagonal in shape, and blue in color. Basham has called some of these ideals as strange, fantastic and bisarre.
Many other philosophies postulate seperate existence of the living denoting it by several names. The Sankhyas call it Purusha, the NyayaVaisheshikas call it 'soul or Atma' and the Vedantins and Jainas call it Jiva or Atma. Each of these systems have its own description about it containing many similar and dis-similar points. The first three systms (S, N, V.) stand on non-material nature of the living in its pure state. its other qualities like knowledge etc. being adventitious. It could not be identified without its association with linga sharir (S), Sukshma sharira (J)-different names of the fine physical body. That is why, the living one in the world is said to be impure with self-purification as its aim. How the inert pure living becomes. impure, does not become very clear from literature for the common man.
The Jainas postulate the seperate existance of the living on the ground of doubt, the realisation of 'I' and substratum of consciousness as by the Vaisheshikas. Its existence is also proved by its manifold functions. They have taken a dualistic and realistic approach regarding its descripion contained in large number of Jaina cannons and their commentaries. It has been described in many ways and scholars have explored about its spiritual aspects. However, proper attention does not seem to have been given regarding the biological concepts about it despite some attempts by Lodha," Jain, Sikdar and Pralayankar. It will be endeavoured here to sum up and evaluate the overall Jaina picture in this regard.
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Definition of the Living in Jaina Cannons : An Evaluation / 357
It may be known at the outset that the dual nature of the living is found scattered all over the early cannons. But it was in Kundkunda's period (App. 100 AD) that the two types of living reality (pure and worldly) were specifically postulated and described per chance due to the extreme influence of Vedanta in these times. The worldly living is said to be impure and bas material nature inherent because of its adherence to fine and gross karmic or other particles. It could be described in better positive terms. The pure element is just the reverse of it. It is non-material and per chance indescribable. Self-perception is the only way for its recognition and identification.
This shows the Jainas to co-ordinate the extreme of materialists and nonmaterialist philosophies. The Vaisheshikas have also pointed out the two varieties of the living.omni-scientist and the reverse. Vedantins also follow suit in the terms of Jiva and Brahma, It has been very difficult philosophically to prove or disprove the pure living, hence we will be concerned here with the worldly living which could be subjected to physical description and scientific verification. One could easily extrapolate from the impure to the pure one. It is surprising that a large number of concepts regarding the living of date were developed by the Jainas even before the early Christian era. Some of the points of contrasts are also now coming to a point of comparablity. Definition of the Living Reality or Jiva : Various Attributes
As the living one forms a seperate reality, it must have two types of definitions--general and specific. The early cannons like Bhagwatis and Panchastikaya (of Kundkunda)' have given its characteristics classified in Table 1, without referring them as general and specific, nevertheless, containing many general and a number of specifics. Bhagwati has given six terms in the first instance lo and twenty three literal terms later specifying these characteristics. Though there seems to be some duplication because of similar meanings of some terms, it is seen that most of the synonyms represent observable properties when action particles are taken as material. Only three synonyms seem to be non-observables. The details of these are given in Nav Padartha by Bhikhanji. 11 Bhagwati and other cannons 12 also mention characteristics of size, weight, metabolism, irritablity, growth, reproduction and adaptation of the living. In contrast, Kundkunda bas sevanteen attributes of the living. But it has some difference. It assumes non-materiality, weightlessness, thought activities and physical body size to the living in addition, which the connons like Bhagvati do pot mention. This could be due to per chance Bbagvati and other cannons assuming a nearly material nature of the living in contrast to Kundkunda's presumption of its basically non-material nature. That is why, it has not mentioned the birth or the growth of the living. One could currently equate the sensitivity or irratablity with consciousness in these cases. There seem to be two terms
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चतुर्थ खण्ड / ३५८
of Vigya and Veda in Bhagvati with meaning leading to consciousness. The same is true for Kundkunda when he uses two terms-Upayoga and Chetna having similar meanings. Kuidkunda, thus, seems to be influenced by the dominant philosophy of his age.
Umaswati 13 followed Kundkunda stating the two types of characteris-. tics in his two aphorisms. He mentioned five types of thought activities (the last type including almost all general attributes in current terms.) and Upayoga. Pujyapada 14 has defined Jivatva as consciousness, indicating all living ones have inherently a life element or consciousness. It is subjected to various types of thought activities due to rise, subsidence, destruction of fine action particles and inherence. These activities prove material nature of the living and include 53+ types of activities of physical or psychical nature. They are shown in Table II. Many activities are common in a number of basic types representing their different degrees and status. They are all various expressions of the elements of consciousness through its capacity of perception and knowledge. The living one bas the capacity to experience and it is susceptible towards sensations of various types. These capacities vary from a very negligible extent to infinity depending on the type and development of livingness. These expressions are differentiating attributes. These are supported by Akalanka. 15
These thought activities are related to mind or brain in current terms. Psycologists have delved deep into the nature and functions of mind. Some have equated it with consciousness itself and called it as substantive. This substance may be materially proctoplasmic or non-materially psycoplasmic as suggested by Bausfield. 16 The true meaning of these two terms is dependant on the definition what we call material. It is agreed that sense perceptibility is conveyed by this term of pre-microscopic age. Thus, both these terms connote non-material nature. They however have become material in microscopic age.
Bhagvati and Kundkunda do not mention these thought activities in this connection. Devsen also does not point them out. Instead, he 17 mentions six special attributes of the living including consciousness together with perception, knowledge, bliss, strength and non-materiality with duplication of two (first and last) general attributes. Kundkunda 18 further adds that the living one is tasteless, colorless, odorless, soundless, genderless and has indefinable shape. Per chance these attributes elaborate the senseimperceptiblity of the basic living. He does not mention the attribute of intactablity, however. Why so, is a subject of research. Devsen has also used different terms in this regard. Thus, despite consciousness being a common characteristic of the living in the descriptions of Bhagvati, Kundkunda and Umaswati, the terms used for this attribute by these seers create some difficulty in proper understanding.
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Definition of the Living in Jaina Cannons : An Evaluation / 359
Upayoga as Characteristic of the Living
Besides the above thought activities, Umaswati has also Upayoga as a characteristic of the living. It is taken as the capacity to see and know. This is termed consciousness, sensivity irritablity or chaitanya. He has only one term for all of them. But bis teacher Kundkunda 19 has used two terms seperately-upayoga and chaitanya in many places proclaiming some difference between the two seemingly synonymus terms though he has used only one term in Niyamsara 20 which seems to have been followed by Umaswati. Does this dual terminology have some bearing on the order of his many composition ? Jain, SC21 has discussed this point and has opined that the two terms should be taken in terms of capacity and functional aspects perception and knowledge.
The literature reveals some difference regarding the meaning of the term consciousness. While, Umaswati has only knowledge and perception meant by it, Devsen (10th century) keeps them seperately from it in his six specific qualities of the living. Bbagvati and Akalanka 21 include bliss and strength etc. also in this term assuming they are part and parcel of this quality. The term thus could be assumed to represent generality of the attributes distinguishing the living from the non-living. Mehta 23 also opines that the term should include all the four infinities as specificity of the living. This should be taken as correct interpretation. Rajmalla 24 has mentioned two types of consciousness due to knowledge and action particles. This requires elaboration.
It is observed that there seems some difference in the meaning of the term Cheta in Bhagvati and Panchastikaya. While it means collector of the action particles in the former, the latter bas consciousness meant by it. Assuming the earlier one as the older cannon, it leads to a guess that consciousness was not a very clearout basic property of the living in the early philosophical development. Does this mean that the Jaina theory was in agreement with the NV theory in the beginning? When was the concept of concommitant consciousness evolved in the Jaipa philosophy ? This is a point for further scrutiny. Do the two terms specifying the living used by authors have some point to make in this regard ?
Classification of the Attributes
All the attributes of the living found in Cannons and described above may be termed specific in current terms. It seems that the term Dravya (or reality) was not a Jaina coin as Kundkunda starts his description with five Astikayas (Existences) and Umaswati with “Tattwas". As the teacher 25 points out later these existences attain the reality by their property of permanance through change. So also. his worthy disciple 26 calls the living as Dravyaat quite a late stage in chapter 5 in place of first. It was
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चतुर्थ खण्ड | ३६०
tattwa for him initially. This leads to a presumption that the term Dravya of NV system was included in Jain metaphysics at a later stage when the NV system had a profound scholastic appeal in the world of seers. This has also been observed by Malvanja 27 specially in case of Umaswati, though he might be erring in stating his precedence over Kundkunda.
Dravya or reality has been elaborated with similarities (general) and dis-similarities (specifics) by the Vaisbeshikas. This has been followed by Umaswati. Accordingly, the general definiton of reality detailed earlier applies to the living one as it bas existentiality, i. e. permanance through change (birth and death). It has qualities and modes. It has eleven general attributes of Akalanka and eight of Devsen. It also has eleven general natures (Swabhavas) of Devsen which refer to the ways and forms the living one may bave in general. These various definitions are shown in Table-3 below. It is seen that Akalanka and Devsen have developed over Umaswati where two attributes have gone upto four commons and many more un. commons. However, one could mark the differences. While Akalanka does not have consciousness, weightlessness and space occupancy of Devsen, the latter also does not have many attributes of the earlier. It can be surmised that the earlier characteristic of existentiality has been given more concrete meanings by thes, authors. As is clear, the general definition involves particulate nature, space occupancy, weightlessness, sense-imperceptiblity or non-materiality as physical and consciousness as psychical characteristics of the living one. The first and last terms here seem to be quite contradictory, It is also evident that Akalank's general definition seems to weigh more on the non-materaial side of the living in comparision to Devsen. If one removes the attribute of consciousness from Devsen's list, it will have purely material nature for the living.
In contrast, the specific attributes have very much in common with all the three authors each one has various forms or expressions of consciouness as liberally defined earlier. The cannonical characteristics of the living in Table-1 can also be similarly classified on the basis of Table 3 where they prove more extensive.
It must, however, be accepted that in contrast to Devsen, consiousness should be called a specific rather than general property. The rest of the properties are suggestive of the material nature of the living. Its basic unit has all the qualities atom-like materials have. The single living unit is said to contain ianumerable pradeshas or spacepoints with capacity for expansion and contraction. It has these space units in an independant and real sense. 28 They are invisible because of fineness and therefore sense imperceptiblity or non-materiality of the living in contrast with the visible parts of the gross matter. It is also said that the living one is partless but even a single living
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part is made up of innumerablespace points.29 These represent its approximate size or extension. The spacepoints of the living belong to two categories-fixed and movable.80 It is said that there are eight central space points in a single living unit which are fixed. Others are movable during expansion and contraction by extirpation or interpenetration.
It has also been pointed that the living one always resides in a body in the world. Its size or extension depends on the size of the body. However, it has been added in the end that the extension applies only to the worldly living called Jiva due to action particles associated with it. The pure living unit exists, might be devoid of extension, and therefore, a non-existent reality. as Jain has pointed out.
The real space point nature and extension of the living extends to the idea about the property of weight. Because of its extreme fineness, it must have negligible weight empirically said to be weightless. Jain 32 has indicated the inverse relationship between extension and density which is its necessary accompaniment, pointing out indirectly the low density and hence finest weight of the basic living reality.
Pranas or Vital Airs and Paryaptis or Completions
The broad and extensive definition of the living as above, has been concocted in a single term-the first one of Table-1 by the Jaina seers. It is called Prani as it is characterised by Pranas translated as life principles, 33 life force, vitality, as and vital airs.36 The pranas are the most important properties of the living. There are four types of Pranas-pranas of strength, pranas of senses, pranas of respiration and age. They have been further elaborated to have ten types-three strengths of physique, speech and mind; five sense pranas of touch, taste, smell, sight and hearing and the last two of respiration and age as individual units. These represent the physical expressions or activities of the living one. The lowest level of the living ones have at least four pranas-strength of physique, sense of touch, respiration and age. This number increases up to 10 as the living character is gradually developed. These pranas may be physical or psychical.#7
Sankhyas, Vaisheshikas, Vedantins40 and Ayurved scholars41 also have the word 'Prana' with refrence to the living. They have comparatively quite a restricted meaning of the term. Activities like vibrations, expansion and contraction is the vedic view12 The inhaling and exhaling is their main idea during which one takes the air in and gives out air in different parts of the body. This process of respiration also supplies the necessary for many physiological processes occurring in the body at every moment. This energy is known as fire or fire god. Hence prana is fire. In contrast, the concept of pranas in Jaina philosophy is more complex. The Acharangas means the living one itself by this term. Bhagvati has two
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meanings for the term-respiratory precess and living ones with two to four senses. The Dashvaikalika churnis 5 describe pranas as those which have visible respiratory process in 2-4 sensed living beings. Does it mean that livingness in one-sensed beings is a post-agamic development ? Umaswati has also referred pranas in many places calling them material supported by Pujyapad 40 and Akalanka.47 All this means that the word Prana was used by the Jainas in the same sense as in other contemporary philosophies-ie. respiratory process. Later, more activities of the Living were observed to cover physical, vocal and mental ones. They incorporated the senses, their sensitivity and physico-chemical actions together with the duration of these activities. Thus, the meaning of the term Prana was also extended to include all of them in general which gave a better meaning for the term for the Jajnas. Even Kundkunda 48 had this meaning in mind and it can be seen that the respiratory process becomes only a part and not the whole of the Prana term. When and how this widened meaning of the terms was coined, is a subject matter for the scholars to pursue.
During the days of spiritualistic trend in philosophy and symbolism replaced factualism, 49 the term prapa was also spiritualised to mean a force or energy making it indefinable in physical terms. It became Adhyatmvayu for Vedantins 50 That is why, it has been translated in many terms. For simplicity, we have to be better factual and, thus, the last term of Vital Airs seems to be the most appropriate meaning representing the various types of fluids or gaseous substances so necessary for different types of physico-chemical activities including the respiratory one which is the most essential and direct proof of life. The Sanskrit-Hindi dictionary also supports this meaning. 51 Thus, the term should not only meen respiratory process but any activity or process essential to life and supplies the necessary energy for functioning, maintaining and growth of various organs in the body. All processes occurring in the body for defined livingness have been found to be cxothermic chemical reactions. More recently, Gurudattas' commentary on Nyayasutra 52 maintains that air and pranas are aynonymous and mean inner energy ratber than common material. The livingness is the functional aspect of the prapa energy. This statement requires revaluation. The traditional prana has 5-7 forms in Nyaya,58 ten physical forms in Jainas, cleven forms for Vedantins, 5 4 twelve forms for Ayurvadins 56 and forty-nine forms for shabda-kalpadrumists.58 It may also be pointed out the Ashtangsangraha gives blood as a meaning of prana which is not a generally accepted view.
Every living one developes these pranas gradually depending on their sensory development until all of them fully developed. It takes an antarmuhurta (i.e. 48 mts.) 57 for this process. This gradual cevelopment has six stages. Firstly, the living one takes (i) food for building and running the
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life. Food causes the (ii) body to develop. Due to this (iii) physical and conceptual senses develop gradually. When senses develop, (iv) respiration (v) speech and (iv) mind or brain also appear. Those living ones having mind are called fully developed. Otherwise, they are called undeveloped. It is assumed that all these six stages start nucleating simultaneously, but they develop in a sequence in about 48 minutes. These six stages are known as Paryaptis or completions. It is also said that paryaptis are causes of pranas. Thus, there are six of them namely food, body, senses, respiration, speech and mind-covering each of the above stages. It is seen that these six ones correspond to nine pranas as shown in the Table-4 The prana of age or duration may be called the resultant of these completions. Like the Pranas, the lowest living ones have four completions in appearance. Higher ones show all the six.
Table-4. Paryaptis and Pranas Paryaptis
Pranas 1. Food 2. Body
1. Physical 3. Senses
2. Sense of touch 3. Sense of Taste 4. Sense of smell 5. Sense of Sight
6. Sense of hearing 4. Respiration
7. Respiration 5. Speech
8. Vocal strength 6. Mind
9. Mental strength
10. Age or Duration Minimum Paryaptis 4.
Minimum Prapas 4 It may be pointed out that though the concept of Pranas is traceable in old literature, that of paryaptis is not so found there despite this being as one of the physique making Karma. This, however, has a variety of respiration but no pranas. One has, therefore, to look into the origin of this concept. Akalanka 58 has equated the pranas with respiration. While differentiating the prana and paryapti, he has mentioned that paryapti is supra-sensual and imperceptible to the sense of touch and hearing in contrast to pranas. This suggests that pranas are physical and functional in nature and not a form of mysterious life force as suggested by Sikdar.59 He has called paryapti also as a vital force or actual living material consisting of many substances nearing protoplasmic type causing the capacity to develop various pranas. If both of these terms are described in terms of unique mysterious forces, it will be difficult to explain them in current terms. Moreover, two forces for the same purpose seem to be superfluous. Secondly,
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this opinion has no cannonical support as vital force theory is not tepable for Jainas. Sikdar also seems to be off the track when he equates paryapti with force and a nearly protoplasmic material as these two entities bave different patures.
The names of Paryaptis indicate their physical nature representing. various organs to perform different functions-internal and external. For example, the respiration paryapti should mean development of pasal organ, heart and nervous system. If any system has to function, it requires energy which is normally supplied by food intake duriog its digestion and metabolio transformation. If respiratory organ is not there, the process may be difficult. Even the development of various organs may be difficult. This point easily leads one to believe that Paryapti is also a physical phenomenon and not supra-sensual as pointed by Akalanka. In a sense, they seem to be grosser than pranas. The physico-chemical or physiological processes occurring in various physical organs are known to generate energy to give strength and activity expressed through various pranas. Thus, paryapti may be called a primary physical process of developing body and its various functioning organs and supplying the necessary energy or force (which is the inherent outcome of food intake) for different pranas to function. This means that Paryapti is a primary building up of organs which are necessary to develop secondary characteristics of prapas. This view is also in agreement with Nemichandra 69 who maintains that pranas or activities are effects of Paryaptis. The true meaning of these terms could only be understood when one takes ths spiritual sheaths off from their definitions. One then finds that the Jain Scholars were keen observers of physical and functional aspects of the living
Instincts or Sangyas as Characteristics of the Living
The Jainas also have a third way of defining the Living. It has some instincts or sangyas--physical or psychical. The word "Sangyas' has many meanings-name, knowledge, desire and thinking capacity about good or evil.60 These are due to inherent consciousness or instincts of many types. Their number and varietis may vary. It is said that a minimum of four instincts must be present in the living-food, fear or irritablity, sex and belongings.62 Some substitute sleep or rest in place of the last one. However, those being with better developed minds, have additional instincts of education, action, duty (updesa) and vocal expressions (alap). 62 The Pannavana mentions ten such instincts including psychic functions like anger, pride, deceit, greed, traditionalism (loka) and whim (ogha) besides the first four as above.6 3 The first six of these are not found in later literature. Some scholars hold the view that these instincts belong to those living ones which have brain or physical and psychical mind, They also postluate that
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only five sensed mammals have mind and they are the only instinctive. Other living ones with upto four senses donot possess these instincts. This does not seem to be correct in these days and even Pannavana 8 4 declared all the ten instincts present in all the living ones though they might be dormant in lower life. Commentator Ratnakara 65 has referred to these instincts in a different way. He has classified them in three types-longlived, logistics and polyviewing. All these seem to refer to the living with developed mind with five senses. However, he refers the first type for the living ones with uterine birth, second type for the living with 2-4 sensed and the third type for the living ones with right faith. This statement needs critical examination.
The characteristics of instincts is merely an extension of the basic quality of sensitivity or consciousness showing its various modes expressions. It could not be taken as any additional property of the living. The defining of the living by Paryapti and pranas has, however, a material approach to the living in contrast.
Current Scientific Concepts about the Living Reality
The scientists of today have come to the conclusion that the first life on earth was originated accidentally and spontaneously from complex combination of inorganic matter. Later on, it has been the rule that the living produces the living of its own species. They have characterised the living reality with the help of its structural and functional aspects on the basis of cell theory initiated in early nineteenth century. These characteristics are based on physical or mechanical concepts rather than the vitalist one. They are given in Table-5 below. The scientific concept has no place for non-materiality, indestructiblity of the living element. There may, however, be genetic continuity through transformablity. As earlier, the irritablity is akin to consciousness.
The scientific livingness consists of cells of the size invisible to the eye (10-4-10-6 cm.) but visible under fine microscopes. The cells have a very complex structure made up of few common elements. This complexity may be guessed when one finds that one of the lowest living tobbaco mosaic virus has 2000 column shaped molecules each consisting of 158 amino acids of 16 varieties, its core consisting of 6502 nucleotide molecules making for its genetic speciality.6 6 It has been estimated that a normal human body consists of about 1018 cells performing various functions. These cells have an average energy of 0.06 V. They form tissues, tissues form nerves and various organs and these form the complex organism. 6 7 The scientists have not only identified the compounds in the living units, but they have been able to prepare them in the laboratory also. That is why they are now in position to not only create life in laboratories, but they can produce Gandbis,
EjJHcial संसार समुद्र में धर्म ही दी है
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चतुर्थ खण्ड / ३६६
Einsteins and Natwarlals at their will from the specitic genes characteristic of these type of species. 68 These new experiments have created a stir in the minds of the east and west and they have started crying that these experiments should be prohibited. There will be chaos in the world as it directly affects their religcous beliefs.
This scientific concept about the living leads to the material nature of the living element suggestive of equating cells with life element. It reminds us of the materialistic philosopbers but it seems to be more accurate and fine one. It would, thus, mean that human body has not one, but 1013 living units in it performing and coordinating their functions remarkably and independently. This concept also leads to the microscopic perceptiblity of the life element. Both these inferences do not find support from Jaina cannons as far as pure life element is concerned. The worldly living, however, satisfies these inferences as it is material and ultra sense perceptible.
Formerly, the scientists presumed the energies to be of non-material nature following the conservation law. Thus, the above cannonical concepts may be taken as suggestive of the pure life element in the form of energy rather than cellular. However, the Jainas have postulated the energy also to be of atomic or material nature from the very beginning though they may be sufficiently finer than cells. The current science has also confirmed about the interconvertiblity of matter and energy. Accordingly, the life element may be assumed to be of energetic nature whose non-materiality may be defined in terms of sense-imperceptibility. This assumption has been confirmed by scientific experiments which have shown that a newly born baby is associated with a charge of app. 500 V of electrical energy and at death, charge is nearly vanished despite the fact that nobody knows at present where does this charge go at death.69 It is, however, presumed that the charge may be hoovering round the dead for sometime. This leads us to the fact that the living element is a form of fine energy particles called fine action or electrical or calorific bodies by the Jajnas. The recent of telephonic talks (Spirocom) with spirits of the dead by O'neil and Meek also suggest a similar view of the life element to be made up of fine light waves. 70 This association of fine bodies with the living makes it material. The maximum number of properties described in cannons and Dhavla71 also support this view. The computers are another examples to support material generation of knowledge or conscicusness of the desired nature. That is why the physical brain of man is called one of the most efficient and complex natural computer.
It must, bowever, be noted that whether the cannonical life element is assumed cellular or energetic, there is no interference or effect on its important properties. Both concepts can explain the effects and changes in thought activities, knowledge and energy of the living unit due to cellular
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denaturation, mutation or elimination. The philosophers could think a conceptual difference between the pure and worldly living. The scientists are, however, not in a position to prove this. They have only one type of living unit--the worldly one about which the pbilosophers have described the same way as the scientists. Lodha 72 refers to Jivabhigama, Pannavana and Bhagvati to show that about eight important scientific characteristics of the living are included in the concept of paryaptis and prapas as given in the Table-5. The prana of age may mean death. As before, irritablity may be the first stage of consciousess.
Despite the fact that cannonical eternality of pure living does not involve birth, growth, reproduction and death phenomena, the worldly one does have these characteristics of life as shown in Bhagvati. The common man experiences these facts as he finds there could be no new worldly living entity until it has birth through any of the processes. Besides birth, the cannons have aslo described the growth and death phenomena. Summing up the contents spread over in different Jaipa cannons, it is found that all the scientifically essential characteristics of the living are traceable there and they seem to have mostly material approach, It may be added, however, that the scientists idea about the material nature of the living seems to have recieved a setback from many types of analytically reported parapsychological phenomena and accounts of previous lives in many cases. 73 However, Khushwant Singh 74 categorically denies the correctness of these descriptions mentioning this as the basic cause for the closure of the para-psychology dept. of Rajasthan University in the later seventh decade.
All scholars appreciate the cannonical contents about the definition of the living on the basis of current biological findings. It seems, however, that these contents mostly refer to externally observed facts. They keep mum over the why and how of these facts. They tell the five bodies to be visually 'gross and fine, but there is nothing about their physical or chemical composition or their physiological functions. They have seen respirations but there is nothing about the nature and compositions of the inhaled or exhaled gases or substances. It is said that matter or food affects the functions, activities or emotions of the living, but its structural causation is missing. These examples may be multiplied. It is possible to conclude that cannons represent an age of physical observations and of mental conceptualisations. The current age represents an era of experimentation and internal and external examination with the help of physical senses and finer instruments giving us better insight into various aspects of life.
Of course, the observation power of the Jaina seers seems to be quite advanced over other contemporary philosopbies. The experimental age has given us a deeper understanding and clarity of cannonically observed facts. In most cases, they have been verified and supported but in some cases these
ETIH) cial संसार समुद्र में
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चतुर्थखण्ड / ३६८
need be reexamined and re-told. Though the observational process represents one of the three important steps for scientific knowledge, but natural observation and observations through experiments and instruments makes a difference. This gap between results of natural and experimental observations must be recognised as a measure of intellectual growth of mankind between the cannonical and current age. There would have been much progress in biological field of today if the Jainological contents about the living could be known to the scientific community of the world during earlier centuries and they would themselves have peeped into the world of the living in early days in preference to the material world.
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14. ibid, p. 113
15. Akalanka, Bhatta; Tattwarthvartika-1, ibid, 1953, p. 111
16. see ref. 2. p. 71
17. Devsen, Acharya, Alappaddhati, Mahavirji, 1970, p. 50
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19. See ref. 9, p. 12
20. Kundkunda, A.; Niyamsara, CJPH, Lucknow, 1931, p. 5
21. See ref. 2. p. 78
22. See ref, 15, p. 119
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Definition of the Living in Jaina Cannons : An Evaluation / 369
23. Mehta, M, L.; Jain Philosophy, Vir Shasan Sangha, Mysore, 1951 24. Rajmalla : Panchdhyayi, Varni Granthmala, Kasbi, 1950, p. 183 25. Kundkunda. Acharya; Panchastikayasara, Bhartiya Gyanpitha, Delhi,
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Allahabad.; 1957, p. 773
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चतुर्थ खण्ड / ३७० 52. Gurudutta (Ed.) ; Nyaya Darsban, Shashwat S. Parishad, Delbi, 1980,
p. 226 53. See ref. 39 and 52 54. See ref. 40. p. 546 55. See ref. 41, p. 104 56. See ref. 5 57. Chakravarti, Nemchand., Gommatsar Jivkand, PP Mandal, Agas, 1972 p.76 58. See ref. 28, p. 578-79 59. See ref. 57, p. 80 60. See ref. 46, p. 129-30 61. Muni, Kamal, K. L.; Samvao (ED)., p. 8 62. See ref. 37, p. 293 63. Shyam, Arya, Pappavana Sutta (ed. Muni, Madhukar),
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Agency, Calcutta, 1970, p. 1, 31 68. Jain, P. K.; in Paramarsba (Hindi), 7-1, 1985, p. 1-10 69. Jain, C. R.; Cosmology, Old and New, Bharatiya Gyanpith, Delhi, 1975,
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Definition of the Living in Jaina Cannons: An Evaluation / 371
Table-1 Properties of the Living Bhagwati and Kundkunda Bhagwati
Kundkunda
A. Observable
1. It has Pranas or Respiration
(Prani)
2. It is knower (Vigya)
3. It has capacity to bind action. Particles (Satva)
4. It is actor and detracter of action particles (Karta/Vikarta) 5. It is collector, victor victor and leader of action praticles (Cheta, jeta, Nayak)
6. It is material and has a body (Pudgal/sa-shariri)
7. It is pervasive in the body (antaratma)
8. It moves (Jagat, Hinduks, atma)
9. It has a time duration of living* Jiva
10. It gives aura of love and hateRangan.
11. It takes birth (Jantu) 12. It gives birth (Yoni)
13. It has particulate (Astikaya)
nature
B. Non-observables
14. It has neither beginning nor
end (Bhuta, Manav)
15. It has sensivity towards good/ bad (Veda)
16. It is self-existant (Swayambhuta).
A. Observable
1. It has physical/psychical pranas or life principles (Prani) 2. It has knowledge and percep
tion-upyoga
3. It is associated with action particles (Karmyukta)
4. It is the actor of action particles (Karta)
5. It is enjoyer of action particles (Bhokta)
6. It has extension of innumerable space points (Asamkhyat pradeshi)
7. It is pervasive in the body. (Aikya)
8. It moves in all six directions (Upakraman)
9. It has time duration of livingJiva
10. It gives aura to body (Prabhasan, rangan
11. It has extension of bodysize (Dehmatra)
12. It is imperceptible to sensesAmurta
13. It is weightless (Agurulaghu) 14. It has potency to exist in different states (Prabhu)
B. Non-observables
15. It has neither beginning nor end (Anadi-nidhan)
16. It has element of consciousness (Cheta/Chetan) 17. It has five emotional/thought activities (Bhava).
दीवो
धम्मो ਬਰਸੀ ਟੀ संसार समुद्र में
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Subsidential, 2
1. Right belief
2. Right conduct
Table-2. Different Thought Activities of the Living
Destructional, 9
1. Rt. Belief
2. Rt. Conduct
3. Knowledge
4. Perception
5. Gift
6. Gain
7. Enjoyment
8. Re-enjoyment
9. Energy
Mixed, 19
1. Rt. Belief
2. Rt. Conduct
3-6. Knowledges-4
7.9. Wrong Knowledge-4
10-14. Attainments-5
15-17. Perceptions-3
18. Restraint/ Non-restraint
Frution, 21
1-4. Existences
5-8. passions
9-11. Sexes
12. Wr. Belief
13. Wr. Knowledge
14. Non-restraint
15. Non-salvaticon
16-21. Coloration
Inherent 3+10
1. Livingness
2. Salvation C
3. Non-sov. G
+10. others
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Definition of the Living in Jaina Cannons: An Evaluation / 373
Table-3. General and Specific Definitions of the Living
Source
1. Bhagvati
4. Akalanka
2. Kundkunda
3. Umaswati (a) Existentiality
5. Devsen
General
23
(with 7 repeatitions)
17
-Permanance through change (b) Qualities and modes.
11
(a) Existence
Changeablity Particulate nature non-materiality
(b) Differentiality
Actorship
Enjoyership Non-pervasivity
beginningless bonding. permanance Upgoingness
8 (a) Existence
Substantiality Particulate nature Non-materiality
(b) Space occupancy Weightlessness Knowledgeablity
Consciousness.
General Natures 11
Specific
(a) Five thought activities.
(b) Upayoga/Consciousness (Sight and knowledge)
As in 3 above
6
Knowledge Sight
Happiness
Energy Non-materiality
Consciousness Special Natures 10
धम्मो दीयो संसार समुद्र में
धर्म ही दीप है
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चतुर्थ खण्ड / ३७४
Table-5. Scientified Concepts about the Living
Paryapti
Prana
Instincts
Scientific Characteristics
Agamic Term
Food
Phys. Strength
Phys. Str.
1. Food, Nutrition,
Food Metabolism 2. Cellular Structure Pudgala, Body
(protoplasmic) Astikaya 3. Body Organisation Multipradeshi 4. Birth
Jantu 5. Growth 6. Movements Jagat, Hinduks, Senses
(Spontaneous, Atma, Induced)
Upakrama 7. Respiration
Prani Respiration
Sense 8. Excretion 9. Reproduction
Yoni 10. Irritablity
Vigya, Veda Mind 11. Adaptation 12. Death
Jiva
Respiration
Sex Fear
Mental Str.
Age
-Girls College Rewa (M.P.)
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On Geometry of Jambudvipa
Dr. S. S. Lishk
Jainas thought that the earth was made up of a series of concentric rings of land masse surrounded by concentric ocean rings. The central island of the earth was Jambūdvipa. 1 The mount Meru is placed at the centre of Jambūdvipa. According to Tiloya Pannattia (gātbā 4, 1780 et. seq.), Meru is made up of frustrum of cones. A mathematical analysis 8 of the dimensions of the mount Meru shows that the concept of Meru implies the notion of obliquity of ecliptic. Earth's true axis passes along the hypotenuse of an approximate cone of Meru and not along the axis of Meru. So true radius of Jambūdvipa is equal to apparent radius of Jambūdvipa less radius of Meru's base on earth, i. e., 50000_-5000=45000 yojanas. With this concept the circumference of Jambudvipa coincides with the parallel of maximum declination of the Sun, i. e., 230.5 North.
Now as regards the concept of samatala bhumi, Surya Prajñapti. 18, the seventh upānga (sub-limb) of Jaina canonical literature, states-that
“From the samatala bhumi, the Sun moves at a height of 800 Yojanas."
A mathematical analysis of these data shows that samatala bbūmi represents the plane parallel to the plane of ecliptic and bounded by the Parallel of celestial latitude of 730.7. The centre of samatala bhumi is coincident with the projection (on earth) of pole of ecliptic. Radius of samatala bhūmi is equal to 900 minus 730.7, i. e., 160.3. Obviously with this concept of samatala bhūmi, the Jaina notion that the Moon is 89 Yojanas higher than the Sun, becomes easily discernible. A notion of celestial latitude of the Moon is implied therein.5 Besides it may be noted that the radius of Meru is equal to height of the Moon over that of the Sun above samatala bhūmi because. Height of the Moon above that of the Sun=80 Yojanas
= 5000 yojanas (... 1 yojana=500 Yojanas)
=Radius of Meru's
base on flat earth Besides it may be remarked that the only characteristic for samatala bhqmi as referred to in the text is that the Sun remains above it always at a height (celestial co-latitudinal distance as implied in Jaina texts) of 800
EIJH1 dai संसार समुद्र में धर्म ही दीप
www.jamenbray.org
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चतुर्थ खण्ड / ३७६
Yojanas. on the other hand the Sun covers 510 Yojanas on its southward Journey from sarvābhyantara mandala to sarvabähya mandala and vice-versa. The consistency of figures 800 Yojanas and 510 Yojanas support our view? regarding the concept of Meru and the concept of samatala bhūmi. Even in the case of Meru, consistency of figures tbroughout gives a good criterion: It is also worth mentioning that although the apparent geometry confirms the Jainian notion about the shape of flat earth, yet the actual observation and determinations do fit the real geometry of earth.
Now it may be worth noticing that the actual distances were measured both in time degrees 8 and in earth distances'. Thus the Sun's southward journey from the sarväbhyantara mandala (innermost mandala, i. e.. Sun's diurnal path on summer solstice day) and vice versa was measured into earth distances of 510 Yojanas. In Jambūdvipa Prajñapti 7.2, it is stated 10 there are 65 solar mandalas stretched over 180 Yojanas of Jambudvipa apd then the area of lavaņa samudra (salt ocean) begins therefrom.
Now since 510 Yojanas are equated with 47°, double the maximum declination of the Sun, this leads to conclude that 180 Yojanas = 160.6
= 230.5—60.9 This suggests that north-south stretch of mandalas in Jambūdvipa is extended southward from Sun's extreme north position 230.5 upto 60.9 in the northern hemisphere as we understand it these days, verisimilarly coinciding with the southern limit of ancient India including modern Sri Lanka. It seems convincing that verisimilarly the southward journey of the Sun was measured in Yojanas starting from a station on earth where the noon-shadow length of gnomon was zero on the summer solstice day, i. e., starting from a station situated in the neighbourhood of terrestrial latitude of 230.5 north (which is incidently very close to the latitude of Ujjain, a renowned seat of ancient Indian culture) upto the station situated at about the extreme southern limit of ancient India where again the noon-shadow length was observed to be zero after 65 days since summer solstice day. This leads us to conclude that the concept of solar mandalas implies that the outermost limit of Jambūdvīpa coincides with the parallel of terrestrial latitude of 60.9 wherefrom lavaga samudra starts. The dimensions of circumference of Jambūdvipa have been already dealt with as to how they were generated mathematically11.
A mathematical analysis of the consistent dimensions of the mount Meru coupled with the study of the concept of samatala bhūmi shows that the outermost limit of Jambūdvipa coincides with the parallel of terrestrial latitude of 230.5 North. This conclusion implies that the true radius of Jambūdvīpa with Meru at its centre, is 5000 yojanas (=80 Yojanas) less than its apparent radius. Probably later at some stage the apparent radius of Jambūdvipa might have been taken for its true radius, as a result of which
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On Geometry of Jambūdvipa / 377
the outermost limit of Jambūdvipa might have been shifted 80 Yojanas southward to the parallel of latitude of 230.5 North. But the development of the concept of mandala with the help of gnomonic experiments, the outermost limit of Jambūdvipa had been shifted to 180 Yojanas southward to the parallel of 230.5 North. Probably to cover up the gap between the sequential shifts from 80 Yojanas to 180 or to account for any error in the gnomonic experiments the concept of Jagat might have been evolved which the author is yet investigating. Finally it may be envisaged that Jambūdvipa as implied in the recent model of the concept of solar maşdalas (Sun's diurnal paths) is stretched over northern hemisphere of the earth with its periphery coinciding almost with the parallel of terrestrial latitude of 60.9 North. This study opens many new vistas of research on certain physical theories in Hindu astronomyia and the role of Jainacāryas will be further highlighted.
References
1. See Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1976) Notion of Circular Flat Earth
in Jaina Cosmography. The Jaina Antiquary, Vol. 28, Nos. 1-2, pp 1-5. 2. Jain, L. C. (1958) Tiloya Pannatti kā Ganit (prefixed with Jambudiva
Paņgatti Sarngaho edited by A. N. Upadhye and Hira Lal Jain) pp. 62-64. 3. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1978) Notion of Obliquity of Ecliptic
implied in the Concept of Mount Meru in Jambūdvipa Prajñapti. Jain
Journal, Vol. 12, No. 3, pp. 79-92. 4. Ibid. 5. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1975) Latitude of the Moon as Deter
mined in Jaina Astronomy. Shramana, Vol. 27, No. 2, pp. 28-35. 6. Lishk, S. S. and Sharma, S D. (1979) Lengih Units in Jaina Astronomy.
Jain Journal, Vol. 13, No. 4, pp. 143-154. See also Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1975) The Evolution of Measures
in Jaina Astronomy. Tirthankar, Vol. 1, Nos. 7-12, pp. 83-92. 7. See ref. 3. 8. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1979) Zodiacal Circumference as
Graduated in Jaina Astronomy. Indian Journal of History of Science,
Vol. 14, No. 4, pp. 1-15. 9. Lisbk, S. S. and Sharma, S. D. (1977) Seasons Determination Through
the Science of Sciatherics in Jaina School of Astronomy. Indian Journal of History of Science, Vol. 12, No. 1, pp. 37-44. See also Lisbk, S. S. (1980) Certain peculiarities of Jaina School of Astronomy. Jaina Journal, Vol. 14, No. 3, pp. 81-88. See also Lishk, S. S. and Sharma, S D (1977) Role of pre-Aryabhata I Jaina School of Astronomy in the Development of Siddhāntic Astronomy.
Indian Jourual of History of Science, Vol. 11, No. 2, pp. 106-113. 10. Lishk, S. S. (1983) Notion of Declination implied in the Concept of
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चतुर्थ खण्ड / ३७८
Mapdala (Diurnal Circle) in Jaina School of Astronomy. Jaina Journal, Vol. 18, No. 3, pp. 83-101. For more details, see Lishk, SS (1978) A Mathematical Analysis of PostVedānga Pre-Siddhāntic Data io Jaina Astronomy. Ph. D. Thesis. Library of Panjabi University, Patiala. (Original texts have been quoted
there in Prakrit version.) 11. Gupta, R. C. (1974) Circumference of Jambūdvipa in Jajna Cosmography.
Indian Journal of History of Science Vol. 10. No. 1, pp. 38-46. 12. Jain, L. C. On Certain Physical Theories in Hindu Astronomy. Prachya
Pratibha, Vol. 5, No. 1, pp. 75 $6. See also Jain, Anupam. Survey of the Work Done on Jaina Mathematics. Manuscript.
-Govt. In-Service Teacher Training
Centre, Patiala-147001 (Punjab)
Em dia संसार समुंव में धर्म ही दीप
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• पंचम खण्ड •
A
योग साधना
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ध्यानयोग साधिका महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. अर्चना ध्यान साधना की तैयारी
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पंचविध ध्यान-पद्धतिः स्वरुप, विश्लेषण
महासती श्री उमरावकुवर 'अर्चना'
अपने अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुभूति के परिणाम-स्वरूप ध्यानाभ्यास की दृष्टि से सर्वसाधारण के लाभ हेतु एक सरलतम ध्यान-पद्धति प्रस्तुत करने का मेरा प्रयास रहा है। प्रार्थना, योगमुद्रा, दीपक मुद्रा, वीतरागमुद्रा तथा आनन्दमुद्रा के रूप में उसकी पांच विधाएँ हैं। यह ध्यानपद्धति योगाभ्यास में अभिरुचि रखने वाले भाई-बहिनों के लिए बड़ी उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध हुई है। इसके सहारे साधक भाई-बहिनों ने ध्यान के अभ्यास में स्पृहणीय प्रगति की है ।
प्रस्तुत ध्यान-पद्धति की पाँच विधाएँ इस प्रकार हैं
१. प्रार्थना
श्रद्धा जीवन की दिव्यता का निदर्शन है। श्रद्धा में अहंकार-विसर्जन तथा स्वरूपमर्जन का दिशाबोध है। यह अन्तःपरिष्कार की प्रक्रिया है। प्रार्थना श्रद्धा-प्रसूत है, श्रद्धावर्धक भी । प्रार्थना में अर्थना के साथ जूडा "प्र" उपसर्ग अर्थना, चाह या मांग में एक वैशिष्ट्य का समावेश करता है। वह वैशिष्ट्य पुरुषार्थ-जागरण का संदेश है । रागद्वेषातीत, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परमात्मा, परम पुरुष या परब्रह्म का आदर्श प्रार्थी के समक्ष है। प्रार्थी प्रार्थना, जो अन्तःप्रेरणा संजोने का रहस्यमय अर्थ लिये है, करता हुआ बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव तथा अन्तरात्मभाव से परमात्मभाव की उपलब्धि के लिए उद्यम करता है, जो बड़ा सूक्ष्म होता है, तलावगहो होता है।
प्रार्थनावस्था में साधक वज्रासन में स्थित हो। ध्यान रहे, वज्रासन का ही कोई दृढ़ प्राग्रह नहीं है । यदि साधक को अधिक प्रानुकूल्य हो तो वह सुखासन, कमलासन आदि किसी अन्य प्रासन का भी उपयोग कर सकता है । साधक के दोनों हाथ जुड़े हों। संयुक्त दोनों अंगुष्ठ नासाग्र पर लगे हों। यह काय-स्थिति भावों के अन्त:परिणमन में प्रेरक और सहायक होती है।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / २
साधक शब्दानुरूप भावानुभूति का प्रयत्न करता हुआ निम्नांकित वाक्यों का उच्चारण करे -
मुझे सिद्धि की कामना है,
प्रसिद्धि की नहीं ।
मुझे प्रेम चाहिए, दया नहीं।
अपने पुरुषार्थ से प्राप्य को पाना है,
किसी की दया से नहीं ।
आत्मा में समग्र, सर्वव्यापी प्रेम, विश्ववात्सल्य के उद्रेक द्वारा संकीर्ण स्वार्थ का परिहार और वीतरागभाव के स्वीकार का उत्साह इनसे ध्वनित होता है ।
यह अभ्यास की प्रथम भूमिका है, जिससे साधक निर्विकार और निर्मल भावापन मन:स्थिति पाने की ओर अग्रसर होता है।
२. योगमुद्रा
यह मुद्रा ध्यान-साधना की दूसरी स्थिति है। साधक पद्मासन या सुखासन में संस्थित हो । दोनों हाथों की मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका - तीनों अंगुलियां सीधी रहें। अंगुष्ठ घोर तर्जनी परस्पर संयुक्त रहें। यह कायस्थिति एक विशेष भाव-प्रोध की उद्भाविका है। तीनों सीधी अंगुलियां मानसिक शुद्धि वाचिक शुद्धि और काविक शुद्धि की प्रतीक है। जिससे आधि, व्याधि श्रोर उपाधि अपगत होती हैं। आधि मानसिक रुग्णता, वेदना या व्यथा के अर्थ में है । व्याधि का आशय दैहिक अस्वस्थता, पीड़ा या कष्ट है । उपाधि मन, वचन एवं देह की संकल्पविकल्पापन्नता का असन्तुलित, अस्थिर और अव्यवस्थित दशा का द्योतक है । मानव की ये बहुत बड़ी दुर्बलताएं है। इन्हें पराभूत करने का अर्थ सत्य पथ पर अग्रसर होना है । सत्य को ग्रात्मसात् करना, उस पर सुप्रतिष्ठ होना ही वस्तुतः सम्यक्त्व है, जो मात्मोत्कर्ष का प्राथ सोपान है।
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पंचविध ध्यान पद्धति स्वरूप, विश्लेषण : विश्लेषण / ३
सांख्यदर्शन के अनुसार यह जागतिक सृष्टि त्रिगुणात्मिका है। सत्त्व, रजस् तथा तमस् — इन तीन गुणों का समवाय- सहवर्तित्व जगत् है । गुणत्रय से प्रतीत होने का श्राशय शुद्ध स्वरूप का अधिगम है। तीनों सीधी अंगुलियां त्रिगुणातीत होने को उत्प्रेरित करती हैं ।
अंगुष्ठ परमात्मा ब्रह्म समाधि या परमधाम का प्रतीक है और तर्जनी जीवात्मा
"
"
का तर्जनी और अंगुष्ठ का संयोग जीव के ब्रह्म-साहत्य, ब्रह्मज्ञान या भावापन्नता की ओर गतिमत्ता का सूचक है ।
श्रात्मा की परमात्म
उपर्युक्त चिन्तन-धारा का आधार लेकर साधक बहिनिरपेक्ष वन परमात्म सापेक्ष स्थिति प्राप्त करने को तत्पर उद्यत एवं प्रयत्नशील अभिक्रम बढ़ता जाता है ।
3
३. दीपकमुद्रा
दीपक ज्योति का प्रतीक है । दीपक का अर्थ भी बड़ा सुन्दर है, जो दीप्त करे। दीपकमुद्रा में साधक सुखासन या पद्मासन में संस्थित हो अपने दोनों हाथों की मध्यमा अंगुलियों को सीधा करे, उनके सिरों को परस्पर मिलाए, अवशिष्ट अंगुलियों तथा अंगूठों को मोड़े रहे। यों दीप ज्योति जैसा स्थूल धाकार निर्मित होता है।
दीपकमुद्रा धारमा की दिव्य ज्योति, शक्ति या ऊर्जा की प्रतीति कराती है। योगमुद्रा द्वारा उत्प्रेरित अन्तर्जगत् की यात्रा में बाह्य उपादान छूटते जाते हैं. अन्तर्जगत् की ओर साधक के कदम बढ़ते जाते हैं, साधक आत्मज्योति पर अपने को टिकाता है । इस टिकाव से पूर्वाभ्यास प्राप्त उत्कर्ष की स्थिरता सहती है।
यह बड़ी सूक्ष्म, स्फूर्त एवं ज्वलन्त चिन्तनधारा है । इस द्वारा चिन्तनक्रम परपराङ्मुख और स्वोन्मुख बनता है । साधक आगे बढ़ता जाता है ।
आत्मसापेक्ष, प्रन्ततः रहता है। उसका वह
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COPINOD
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / ४
अर्चनार्चन
४. वीतरागमुद्रा
वीतराग वह दशा है, जहाँ साधक राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह प्रादि से विरत होने की अनुभूति करता है । यद्यपि तात्त्विकदृष्ट्या तदनुरूप कर्म-क्ष यात्मक स्थिति जब तक निष्पन्न नहीं होती, तब तक वह (वीतगगता) सर्वथा प्राप्त नहीं हो सकती, किन्तु तदनुरूप कर्मक्षयोन्मुख पुरुषार्थ-पुरस्कार हेतु साधक वीतरागत्व के ध्यानात्मक अभ्यास में अभिरत होता है, जो उसके लिए परम हितावह है।।
इस मुद्रा में साधक प्रशान्तभाव से सुखासन में स्थित हो। बायें हाथ (हथेली) पर दायें हाथ (हथेली) को रखे । निम्नांकित श्लोक के आदर्श को दृष्टि में रखेरागद्वषविजेतारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः । शक्रपूज्यं गिरामीशं, तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥
___ राग-द्वेषविजय, देहातीत एवं साक्षिभाव की अनुभूति इस मुद्रा का उद्दिष्ट है। जगत् के प्रति, देह के प्रति सर्वथा अनासक्त, असंपृक्त भावमूलक चिन्तन, मनन एवं निदिध्यासन आगे बढ़े, अपने शुद्ध स्वरूप की ज्ञप्ति, प्रतीति, अनुभूति सधे, इस दिशा में साधक की स्थिरतामय दशा इस मुद्रा में निष्पन्न होती है। यह अनुभूतिप्रवण दशा है, जिसे शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता । इससे साधक निःसन्देह अपने जीवन में दिव्य शान्ति एवं समाधि-दशा का अनुभव करते हैं।
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पंचविध ध्यान पद्धति : स्वरूप, विश्लेषण / ५
५. आनन्दमुद्रा
पिछली चार मुद्राग्रों की फल निष्पत्ति इस पांचवीं मुद्रा में है । प्रार्थना बीज, योगमुद्रा अंकुर, दीपकमुद्रा पादप, वीतरागमुद्रा फलोद्गम तथा श्रानन्दमुद्रा फल की रसानुभूति से उपमित की जा सकती है ।
साधनारत ग्रात्मा का परमात्मभाव
के साक्षात्कार की दिशा में अभिवर्धनशीलक्रम के अन्तर्गत ज्यों-ज्यों वहिर्भाव से पार्थक्य होता जाता है, उसकी दृष्टि स्वोन्मुख बनती जाती है, राग, द्वेष के बन्धन तड़ातड़ टूटने लगते हैं । यह सब ज्यों ही सध जाता है, अपरिसीम आनन्द की अनुभूति होती है, जो सर्वथा परनिरपेक्ष और नितान्त स्व-सापेक्ष होता है । यह वह आनन्द है, जिसके लिए जगत् में कोई उपमान नहीं है। इस
अखण्ड अनवच्छिन्न असीम ग्रानन्द को
अनुभूति के कुछ ही क्षण अन्तरतम में ऐसी उत्कण्ठा जगा जाते हैं, जो जीवन को एक नया मोड़ देती है, जो इस मुद्रा द्वारा गम्य है ।
}
1
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इस मुद्रा में ग्रासन काय स्थिति यदि साधक के सहज धानुकूल्य एवं सौविध्य के अनुरूप अभीप्सित है।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन
तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनार्चन
पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन
डॉ. लालचन्द्र जैन
भारतीय दर्शन एक प्राध्यात्मिक दर्शन है। यहाँ के चिन्तकों और मनीषियों के जीवन का परम लक्ष्य सुख प्राप्त करना रहा है। सुख से तात्पर्य इन्द्रिय-सुख से नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय-सुख वास्तव में सुख नहीं है। वह तो पराधीन, क्षणभंगुर और बन्ध का कारण होने से दुःख रूप ही है।' उन्होंने ऐसे सुख को प्राप्त करना चाहा है जो प्रात्म-जन्य, अनन्त और अविनाशी हो। इस सुख की प्राप्ति का अर्थ है-मोक्ष की प्राप्ति । यही कारण है कि भारतीय विचारकों ने चार पुरुषार्थों में मोक्ष को ही महान् और उपादेय बतलाया है। मोक्ष की प्राप्ति योग से हो सकती है, भोग से नहीं । यह योग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप है।
योगसाधना अत्यन्त प्राचीन और अनादि है। इसे किसी न किसी रूप में प्रायः भारतीय दर्शन की सभी परम्पराओं ने स्वीकार किया है। यह सत्य है कि विभिन्न दर्शनों में योग का लक्ष्य एक नहीं प्रतीत होता है। किसी ने योग का अध्यास ऋद्धि-सिद्धियों, (अलौकिक) शक्तियों को प्राप्त करने आदि के लिए माना है तो अन्य ने सांसारिक बन्धनों को तोड़ने के लिए।
जो
योग के पुरस्कर्ता-जिस योग को प्राचार्यों ४ ने कल्पतरु, उत्तम चिन्तामणि एवं समस्त धर्मों में प्रधान धर्म कहा है ५ और जिस योग से जन्म रूपी बीज नष्ट हो जाता है, कर्म
१. सपरं बाधासहिदं, विच्छिण्णं बंधकारणं सविसयं । जं इंदियेहिं लद्धं तं सौक्खं दुक्खमेव तधा ।।
-प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, ११७६ अइसममादसमुत्थं विसयातीदं प्रण विममणंतं ।
अव्वुच्छिण्ण व सुहं सुद्धवप्रोगप्पसिद्धाणं ।। -वही, ज्ञा१३ ३. हेमचन्द्र, योगशास्त्र ११५ ४. (क) प्रा० हरिभद्र, योगबिन्दु, श्लोक ३६-६७ ।
(ख) हेमचन्द्र, योगदर्शन योगशास्त्र, ११५-१४ ५. योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणि परः ।
योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धेः स्वयंग्रहः ॥ -योगबिन्दु, पद्य-३
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पातंजल-योग और जन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / ७
मे मलिन अात्मा विशुद्ध हो जाती है, चिरसंचित पाप नष्ट हो जाते हैं, समस्त विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं, योगी का कफ, विष्ठा, स्पर्श आदि औषधि रूप हो जाते हैं, अणिमा, लघिमादि ऋद्धियां प्राप्त हो जाती हैं, वारणविद्या, प्राशीविषलब्धि, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, समस्त महापाप नष्ट हो जाते हैं और "योग" इन दो अक्षरों को न सुनने वाले मनुष्य का जन्म पशु के समान निरर्थक माना जाता है। इस प्रकार के योग के विषय में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि उसका प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुप्रा और उसके पुरस्कर्ता अथवा उद्भावक कौन हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर देना सरल नहीं है। पुनरपि दर्शनशास्त्र के इतिहास का पालोड़न करने से ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में सर्वप्रथम योग का उद्भव या प्राविष्कार हुआ था। हमारे इस कथन की पुष्टि निम्नांकित प्रमाणों से होती है
(१) भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि यहाँ प्रारंभ से प्राध्यात्मिक धारा बहती रही है। अन्य देशों में इस प्रकार की प्राध्यात्मिकता का दर्शन नहीं होता है। प्रवधत, तपस्वी, परिव्राजक, श्रमण शब्द यहां के योग की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
(२) दूसरा प्रमाण यह है कि सभी प्रकार के भारतीय वाङमय-काव्य, नाटक, उपन्यास, दर्शन आदि में योग के लक्ष्यभूत मोक्ष का विवेचन उपलब्ध होता है। इस तरह का विवेचन अन्य देशों के वाङमय में उपलब्ध नहीं है।
(३) तीसरा प्रमाण यह है कि योग का स्वरूप और उसकी प्रक्रिया प्रादि का जितना सूक्ष्म विवेचन भारतीय योग-साहित्य में मिलता है, उतना अन्यत्र नहीं।
(४) आज भौतिकता की चकाचौंध से व्याकुल होकर यूरोपीय देशों में योग के प्रति आकर्षण होना भी यही सिद्ध करता है कि योग का उद्भव सर्वप्रथम भारतवर्ष में हा है।
(५) पण्डित सुखलाल संघवी ने भी योग के प्राविष्कार का श्रेय भारतवर्ष को दिया है। वे कहते हैं-"योग का सम्बन्ध प्राध्यात्मिक विकास से है । अतएव यह स्पष्ट है कि योग का अस्तित्व सभी देशों और सभी जातियों में रहा है, तथापि इन्कार नहीं कर सकता है कि योग के आविष्कार या योग को पराकाष्ठा तक पहुँचाने का श्रेय भारतवर्ष और प्रार्यजाति को है। इसके प्रमाण में मुख्यतया तीन बातें हैं-(१) योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि महापुरुषों की बहुलता, (२) साहित्य के प्रादर्श की एकरूपता, (३) लोकरुचि।""
यद्यपि भारतवर्ष में योग का उद्भव हुमा लेकिन इसके उद्भावक कौन थे ? आज भारतवर्ष में पातंजल-योग बहुत प्रसिद्ध है। इसका प्रसार और प्रचार भी इतना हना है कि पातंजल-योग ही "योग" का पर्यायवाची बन गया है। इससे कुछ लोगों ने अनुमान लगाया है कि भगवान पतंजलि ही योगसिद्धांत के पुरस्कर्ता हैं। लेकिन उनका यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है।
पतंजलि योग के अनुशास्ता हैं-महर्षि पतंजलि का समय विवादास्पद है। विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न विचार व्यक्त किए हैं। जैकॉबी और एम० हिरियन्ना ने उनका समय
१. दर्शन और चिन्तन, पृ. २३२
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड /८
अर्चनार्चन
पांचवीं शताब्दी का अन्त माना है।' डॉ० राधाकृष्णन् ने उनका प्राचीनतम समय ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी माना है। पतंजलि ने "योगसूत्र" नामक ग्रन्थ लिखा था। इसके प्रथम सत्र "अथ योगानुशासनम्" में पाये हुए.---"अनुशासन' शब्द से विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि पतंजलि योग के प्रवर्तक नहीं हैं। उन्होंने अपने पूर्व प्रतिष्ठित योग-सिद्धान्त का परम्परागत अनुसरण कर उसमें संशोधन कर व्यवस्थित किया और उपदेश दिया है । ३ बलदेव उपाध्याय ने लिखा भी है-"पतंजलि ने योग का केवल अनुशासन किया, अर्थात प्रतिपादित शास्त्र का उपदेश मात्र दिया है । अतः वे योग के प्रवर्तक न होकर प्रचारक या संशोधक मात्र हैं। अनुशासन का अर्थ है-उपदेश दिये गये सिद्धांत का प्रतिपादन । पतंजलि ने यह किया है।"४ इससे सिद्ध है कि पतंजलि के पूर्व भी भारत में योग-साधना के बीज मौजूद थे। अब प्रश्न होता है कि यदि भगवान् पतंजलि योग के उद्भावक नहीं थे तो उनसे पहले किसने योग का आविष्कार किया ? जिसका अनुशासन पतंजलि ने किया है। बलदेव उपाध्याय, नगेन्द्रनाथ उपाध्याय प्रभ ति विद्वानों ने याज्ञवल्क्य-स्मृति का हवाला देते हुए हिरण्यगर्भ को योग का पुरस्कर्ता माना है। इनका उपदेश प्रतिपादक शास्त्र "हिरण्यगर्भ योग" के नाम से प्रसिद्ध है। पण्डित सुखलाल संघवी ने हिरण्यगर्भ और उनके योग-सिद्धांत को नि:शंक रूप से प्राचीन और पतंजलि से पूर्व सांख्यावलम्बी योग माना है। लेकिन उनको योग-सिद्धांत का आविष्कर्ता नहीं माना है। एक विचारणीय बात यह भी है कि तथाकथित योग के वक्ता हिरण्यगर्भ कौन हैं ? 'महाभारत' में कृष्ण अपने को हिरण्यगर्भ कहते हुए योगियों द्वारा पूजित बतलाते हैं।
यदि स्मृतियों के आधार पर हिरण्यगर्भ को योग का पुरस्कर्ता मान लिया जाय तो प्रश्न यह उठता है कि उपनिषदों और वेदों में इनके नाम का उल्लेख योग के प्रवक्ता के रूप में क्यों नहीं मिलता है। यद्यपि वहाँ यौगिक साधना के बीज यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं ?
भगवान ऋषभदेव का उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। 'ऋग्वेद' प्राचीनतम ग्रन्थ है। प्रतः निश्चित है कि भगवान् ऋषभदेव ही योग के पुरस्कर्ता थे। इनकी योगसाधना का विवेचन प्रथमानुयोग से सम्बन्धित जैन वाङमय में उपलब्ध है। दूसरी बात यह है कि खजुराहो के संग्रहालय में भगवान् ऋषभदेव की योग अवस्था में मूर्ति है। इससे भी सिद्ध है कि भगवान् ऋषभ ही योग के पुरस्कर्ता थे ।
१. एम. हिरियन्ना, भा. द. रू. पृष्ठ २६९ और उसकी पादटिप्पणी २. डॉ० राधाकृष्णन् , इंडियन फिलासफी भाग २, पृष्ठ ३४१ का पादटिप्पण ३. माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह पृष्ठ १२६ ४. बलदेव उपाध्याय, भा. द.पृष्ठ २८५-२८६ ५. (क) हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः। -सांख्ययोगदर्शन पृष्ठ १
(ख) बलदेव उपाध्याय, भा. द. पृष्ठ २८५
(ग) नगेन्द्रनाथ उपाध्याय, तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य पृष्ठ ८ ६. समदर्शी प्रा. हरिभद्र (गुजराती संस्करण) पृष्ठ ६८-६९ ७. हिरण्यगर्भो द्युतिमान् य एषच्छन्दसि स्तुतः । योगैः सम्पूज्यते नित्यं स एवाहं भुवि स्मृतः ।।
.-महाभारत, शांतिपर्व २४२।९६
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / ९
योग का अर्थ-"योग" का साधारण अर्थ जोड़ना या मिलाना होता है । "योग" शब्द की निष्पत्ति "युज" धातु से हुई है। यह धातु दो अर्थों में प्रयुक्त हुई है-जोड़ना और समाधि । इन दोनों अर्थों में योग शब्द भारतीय वाङमय में उपलब्ध है। इसके बावजूद अध्यात्म-विकास के संदर्भ में योग का अर्थ समाधि होता है।
जैनदर्शन में "योग" शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हमा है। उमास्वाति ने मन, वचन और काय की प्रक्रिया के अर्थ में "योग" शब्द का प्रयोग किया है । ' इसी प्रकार भट्ट अकलंकदेव, वीरसेन प्रादि के ग्रन्थों में प्रात्म-प्रदेशों के हलन-चलन और आत्म-प्रदेशों के संकोच-विकोच के अर्थ में योग शब्द प्रयुक्त हुआ है।
भद्र प्रकलंकदेव ने "योजनं योगः" इस निरुक्ति के अनुसार योग का अर्थ संबंध किया है। वीरसेन ने भी "युज्यत योगः" इस प्रकार योग की निरुक्ति करके योग का अर्थ संबंध माना है। इसी प्रकार जैन वाङमय में जीव की शक्तिविशेष और वर्षादि काल की स्थिति के अर्थ में भी योग शब्द का प्रयोग मिलता है । लेकिन अध्यात्म-विकास के संदर्भ में योग के उपर्युक्त अर्थ सार्थक नहीं हैं। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि जैन-दर्शन में 'योग' शब्द का अर्थ अध्यात्म-विकास के संदर्भ में उपलब्ध नहीं है। प्राचार्य पूज्यपाद, भट्ट अकलंकदेव, पद्मनंदि प्रभृति प्राचार्यों ने योग का अर्थ समाधि, सम्यक् प्रणिधान, ध्यान, साम्य, स्वास्थ्य, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग किया है। उपर्युक्त अर्थों के अलावा जैनदर्शन में योग के लिए संवर शब्द का भी प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुमा, विशेषकर पागम साहित्य और द्रव्यानुयोग वाङमय में । अतः योग का अर्थ संवर भी है।
अतः हम कह सकते हैं कि सोख्य-योगदर्शन में जिस ध्यान की प्रक्रिया को योग कहा गया है, उसे बौद्ध-दर्शन में समाधि और जैन-दर्शन में संवर कहा है। पंडित सुखलालजी संघवी ने कहा भी है-"सांख्य परिव्राजकों की ध्यान-प्रक्रिया योग के नाम से विशेष प्रसिद्ध हुई और बुद्ध की ध्यान-प्रक्रिया समाधि के नाम से व्यवहृत हुई, तो आजीवक और निर्ग्रन्थ परम्परा में इसके लिए संवर शब्द विशेष प्रचार में प्राया। इस तरह हम कह सकते हैं कि योग, समाधि, तप और संवर ये चार शब्द आध्यात्यिक साधना के समग्र अंग-उपांगों के सूचक हैं और इसी
१. तत्त्वार्थसूत्र ६१ २. भट्ट अकलंकदेवः, तत्त्वार्थवार्तिक ६।१।१०, पृष्ठ ५०५ ३. 'अयं योग शब्द: संबंधपर्यायवाचिनो द्रष्टव्यः ।' वही ७।१३।४, पृष्ठ ५४० ४. षट्खण्डागम, पु. १, खं. १, भाग १, सूत्र ४, पृष्ठ १३९ ५. 'योगश्च वर्षादिकालस्थितिः ।' -दर्शनपाहड, टीका, ९८ ६. (क) योगः समाधिः सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः।-प्रा. पूज्यपाद, स. सि. ६।१३, पृष्ठ २४६ (ख) युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनान्तरम् ।
-भट्ट प्रकलंकदेव, त. वा. ६।१।१२, पृष्ठ ५०५, और भी देखें-६।१२।८ पृष्ठ ५२२ (ग) साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम।
शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः। -पदमनदि पंचविंशतिका ४१६४
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड/१०
रूप में वे व्यवहार में प्रतिष्ठित भी हए हैं।""
बंदिक साहित्य में योग-वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'ऋग्वेद' माना जाता है। उसके अनेक मंडलों में "योग" शब्द का उल्लेख हना है। यहां पर योग जोड़ने अर्थ में प्रयुक्त हुअा है ।
अर्चनार्चन
उपनिषद-ऋग्वेद के पश्चात उपनिषदों का अनुशीलन करने पर विभिन्न उपनिषदों में योग के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं। जहां कठोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद, छान्दोग्य, बृहदारण्यक आदि में प्रात्म-साक्षात्कार और समाधि के अर्थ में योग, ध्यान और तप शब्द का प्रयोग मिलता है, वहीं अर्वाचीन उपनिषदों में योग के विविध अंगों का भी वर्णन मिलता
गीता-गीता में योग के तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं -कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। इसके अलावा योग प्रक्रिया और उसके सिद्धान्तों का विवेचन भी किया गया है।
बौद्ध दर्शन-'विसुद्धिमग्ग' में शील-समाधि का विवेचन उपलब्ध है। बौद्धदर्शन में ध्यान की प्रक्रिया को समाधि कहा गया है, अत: यहाँ योग का अर्थ समाधि है । शील के द्वारा अकुशल कर्म दूर हो जाते हैं और समाधि अवस्था में कुशल कर्मों की अोर चित्त एकान हो जाता है। चित के एकाग्र हो जाने से तृष्णा और वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं। समाधि दो प्रकार की हैउपचार समाधि और अप्पना समाधि । उपचार समाधि में चित्त एकाग्र होता है और अप्पना समाधि में चित्त को अत्यधिक शुद्ध बनाने की प्रक्रिया होती है। इस प्रकार क्रमश: प्रज्ञा उत्पन्न होने पर अर्हत् अवस्था प्राप्त हो जाती है। इसके बाद स्कन्धों, पुनर्जन्म, दुःख तथा पीड़ा से प्रात्यंतिक निवृत्ति हो जाती है।
न्यायदर्शन-यद्यपि महर्षि गौतम के न्यायदर्शन में प्रमुख रूप से प्रमाणादि सोलह पदार्थों का विवेचन हा है लेकिन योग सम्बन्धी कुछ प्रक्रिया का भी इसमें उल्लेख मिलता है। जैसे समाधि विशेष के अभ्यास से प्रत्यक्ष रूप से तत्त्वज्ञान होता है। अरण्य, पर्वतगुहा, बालुमय नदी के किनारे प्रादि एकान्त स्थानों में योगाभ्यास करना चाहिए। यम और नियम के द्वारा
१. पं. सुखलाल संघवी-समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर
(राजस्थान), १९६३, पृष्ठ ६९ २. सुरेन्द्रदास गुप्ता, भा. द. भाग१, पृ. २३४, ३. "योग आत्मा" -ते. उ. २।४
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो ।। -कठोपनिषद् २।३।११ श्वेताश्वतरोपनिषद् २।८-१५
गीता के अध्याय ६ और १३ दृष्टव्य हैं। ६. 'समाधिविशेषाभ्यासात् ।' -न्यायदर्शन ४।२।३८ ७. अरण्य-गुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः। -न्यायदर्शन ४।२।८२
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पातंजल-योग और जैन-योग: एक तुलनात्मक विवेचन / ११
आत्मसंस्कार अर्थात् अधर्म का नाश और धर्म की वृद्धि हो जाती है और "योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः" अर्थात् तपश्चर्या, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और धारणा रूप अध्यात्मविधि से अपवर्ग प्राप्त हो सकता है।'
वैशेषिकदर्शन-महर्षि कणाद के वैशेषिकसूत्र में भी योग विषयक अंगों का एक दो सूत्रों में उल्लेख हया है ।२ जैसे अभिषेचन, उपवास, ब्रह्मचर्य, गुरुकुलवास, वानप्रस्थ, यज्ञ, दान, ब्री ह्यादि के प्रोक्षण, दिशा के नियम, काल के नियम । ये प्रकारान्तर से योग के अंग हैं।
कपिलदर्शन--महषि कपिल ने सांख्यसत्र की रचना की है। इसमें योग-प्रक्रिया प्ररूपक कुछ सूत्र आए हुए हैं। जैसे ध्यान, धारणा और प्रासन का स्वरूप आदि।
ब्रह्मसूत्र--महर्षि बादरायण के ब्रह्मसूत्र में भी योगांगों का उल्लेख मिलता है।४
पातंजलदर्शन--भगवान् पतंजलि ने योग का सांगोपांग विवेचन किया है। उनका 'योगसूत्र' योग विषय का अविकल ग्रन्थ है। इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं। अतः इस परपंरा में योग-सिद्धांत निरूपक विपुल साहित्य उपलब्ध है।
सांख्य-योगदर्शन में ध्यान को ही प्रमुख रूप से योग कहा गया है। योग की परिभाषा देते हुए लिखा है कि चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं । इसके पश्चात् योग के पाठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है।
जैनदर्शन-जैन भागमों में योग के लिए तप, ध्यान और संवर शब्दों का प्रयोग बहुधा किया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, पूज्यपाद, हरिभद्र, हेमचन्द्र, योगचन्द्र, नागसेन, पं० प्राशाधर, यशोविजय आदि जैनाचार्यों ने भारतीय योगसाहित्य को संवद्धित किया है। यह साहित्य निम्नांकित है
प्राचार्य उमास्वाति : तत्त्वार्थसूत्र (९ वा अध्याय), पूज्यपाद : समाधितंत्र, इष्टोपदेश, स्वामिकार्तिकेय : कार्तिकेयानुप्रेक्षा, हरिभद्र : योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका, योगशतक, षोशडप्रकरण ।,
१. तदर्थ यमनियमाभ्यामात्मासंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः । ज्ञानग्रहणाभ्यासस्तद्विद्यैश्च
सह संवादः। -न्यायदर्शन ४।२।४६-४७ २. अभिषेचनोपवास-ब्रह्मचर्य-गुरुकुलवासवानप्रस्थ-यज्ञदानप्रोक्षणदिङ नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चा
दृष्टाय। -वैशेषिकदर्शन, ६।२।२ ३. रागोपहतिया॑नम् । -३१३०, वृत्तिनिरोधात् तसिद्धिः।-३।३१,
धारणासनस्वकर्मणा तसिद्धिः। -३१३२, निरोधाश्छदिविधारणाभ्याम् । -३१३३,
स्थिरसुखमासनम् । -३।३४ ४. आसीनः संभवात् । ध्यानाश्च । यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् । -४।११७-८ और ११ ५. भा. द. (संपादक डॉ.न. कि. देवराज) पृष्ठ सं. ३९४-३९५ ६. योगसूत्र १२२
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / १२
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अर्चनार्चन
योगेन्द्रदेव : परमात्मप्रकाश, अध्यात्मसंदोह, सुभाषितरत्नसंदोह, गुणभद्र : प्रात्मानुशासन, अमितगति : योगसार, शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र : योगशास्त्र, योगचन्द्र : योगसार, नागसेन : तत्त्वानुशासन, पं० प्राशाधर :-अध्यात्मरहस्य, यशोविजय : अध्यात्मसार, अध्यात्मनोपनिषद्, योगलक्षण, योगविंशिका ।
इसके अलावा विभिन्न भाषाओं में लिखित काव्य, नाटक और उपन्यासों में भी योग का विवेचन हुआ है। इतने विपुल साहित्य में योग सिद्धांतों के उपलब्ध होने का कारण जैन धर्म दर्शन का निवृत्ति प्रधान होना और मोक्ष प्राप्ति प्रधान होना है।
आचार्य कुन्दकुन्द के 'प्रवचनसार' में योग के स्थान पर उपयोग का प्रयोग मिलता है । उन्होंने उपयोग के तीन भेद-अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग बतलाकर उनका सूक्ष्म विवेचन किया है और शुद्धोपयोग को मोक्ष का कारण प्रतिपादित किया है।'
'नियमसार' में उन्होंने योग की परिभाषा करते हुए कहा है कि विपरीत अभिनिवेश का त्याग करके जैन-कथित तत्त्वों में जो अभिनिवेश को लगाता है, उसका निज भाव योग कहलाता है।
हरिभद्र ने अपनी कृतियों में योग का सूक्ष्म विवेचन किया है। 'योगविशिका' में उन्होंने सर्व विशुद्ध धर्मव्यापार को योग कहा है।३।
यशोविजय ने समिति और गुप्ति के साधारण धर्मव्यापार को योग कहा है। शुभचन्द्राचार्य ने जन्म ग्रहण करने से उत्पन्न क्लेशों को दूर करने को योग कहा है।
उपर्युक्त योग की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि संसारी जीव क्रोधादि कषायों से संतप्त होकर दुःखी है। इस असहनीय दुःख का विनाश करने के लिए भव्य जीव जिस निर्दोष, निरवद्य क्रिया का अनुष्ठान करता है, वह योग कहलाता है । सम्पूर्ण योग सम्बन्धी वाङमय में यही एकमात्र अर्थ विवक्षित है। अतः योग का पर्यवसान आत्मशक्तियों के पूर्ण विकास में है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र-ये तीन योग के अंग बतलाये
१. प्रवचनसार ११७, ९११-१२ २. नियमसार, परमभक्त्यधिकार, गा. १३९ ३. मुक्खेण जोयणायो जोगो सव्वो वि धम्मवावारो।
परिसुद्धो विन्नेग्रो ठाणाइगो विसेसेणं । -योगविशिका, १ ४. समितिगुप्तिसाधारणं धर्मव्यापारत्वं योगत्वं । -योगदृष्टिसमुच्चय(गुजराती) भूमिका पृ.२१ ५. भवप्रभवदुर्वार-क्लेश-सन्तापपीडितम् ।।
योजयाम्यहमात्मानं पथि योगीन्द्रसेविते । -शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव १११८ और भी देखें श३९.
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन | १३ हैं।' महाव्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय, चारित्र और तप सम्यक्चारित्र के प्रभेद हैं ।
पातंजलदर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के पाठ अंग माने गये हैं।
यम और महावत-'यमयन्ति निवर्तयन्तीति यमाः' अर्थात जो अवांछनीय कार्यों से निवृत्त कराते हैं, उन्हें यम कहते हैं। यम का अर्थ संयम है। असत् प्रवृत्तियों को रोकने के लिए सामान्य अशुद्धियों को दूर करना आवश्यक होता है। योगदर्शन में यम पांच प्रकार का बतलाया गया है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।
जैनदर्शन में "यम" के लिए महाव्रत का प्रयोग मिलता है । हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह, इन अशुभ कर्मों का त्याग करना व्रत कहलाता है।४ अणुव्रत और महाव्रत की अपेक्षा से व्रत के दो भेद किये गये हैं। अणुव्रत का अर्थ है हिंसादि का स्थूल रूप (एकदेश) से त्याग करना। इसका पालन गृहस्थ करते हैं। महाव्रत का अर्थ होता है हिंसादि का सूक्ष्म रूप से सर्वत्याग करना। इसका पालन मुनि करते हैं। शुभचन्द्राचार्य ने कहा है कि अहिंसादि महान् अतीन्द्रिय सुख और ज्ञान के कारण हैं, महान् पुरुषों ने इनका आचरण किया है, महान पदार्थ अर्थात मोक्ष के देने वाले हैं और स्वयं निर्दोष हैं। इसलिए अहिंसादि महाव्रत कहलाते हैं। यम तो केवल निषेधात्मक मात्र हैं और महाव्रत भावात्मक भी हैं। प्रत्येक महाव्रत की पांच भावनाएं हैं। इनका अभ्यास करने से वैराग्य होता है और व्रत स्थिर रहते हैं।
अष्ट प्रवचन-माता : गुप्ति और समिति-महाव्रती को अपने व्रतों का दृढतापूर्वक पालन करने के लिए और नवीन कर्मों को रोकने के लिए मन, वचन एवं काय गुप्ति तथा ईर्या, भाषा, एषणा, प्रादान-निक्षेप और उत्सर्ग, इन पांच समितियों का पालन करना भी आवश्यक है।
गुप्ति का अर्थ है रक्षा करना। जिसके द्वारा संसार के कारणों से प्रात्मा की रक्षा होती है, उसे गुप्ति कहते हैं । योगी महाव्रती को मन, वचन और काय की प्रवृत्ति पर संयम रखना आवश्यक है। इनकी स्वच्छन्द प्रवत्ति से नवीन कर्मों का पाना नहीं रुक सकता है। इसलिए उमास्वाति ने मन-वचन-काय रूप योगों का अच्छी तरह से निरोध करने को गुप्ति कहा है।
१. 'ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः।' -योगशास्त्र, १११५. २. त० सू० ९।२-३, ज्ञानार्णव ८।२-३ ३. योगसूत्र, २।३० ४. उमास्वाति, त० स०, ७.१ ५. वही, ७२ और भी देखें सर्वार्थसिद्धि टीका ६. ज्ञानार्णव १८१ ७. वही १८१२ और भी देखें तत्त्वार्थसत्र ७।३-८ ८. त० सू० ९।४
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पंचम खण्ड / १४
महाव्रती को किसी न किसी प्रकार की चेष्टाएँ करनी पड़ती हैं। अतः उसे इस प्रकार की चेष्टाएँ करनी चाहिए जिससे सूक्ष्म प्राणियों को भी पीड़ा न हो। ऐसा करने से नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता है । इस सम्यक् आचरण या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं।'
जिस मार्ग पर लोगों का आना-जाना शुरू हो गया हो, उस मार्ग पर सूर्य की किरणों . के निकलने पर जीवों की रक्षा के लिए नीचे देखकर चलना ईर्यासमिति है ।
महाव्रती द्वारा संदेह उत्पन्न करने वाली द्वयर्थक भाषा न बोलना तथा निर्दोष, सर्वहितकर, परिमित, प्रिय और सावधानीपूर्वक वचन बोलना भाषासमिति कहलाती है।
निर्दोष आहार ग्रहण करना एषणासमिति है। शास्त्र आदि को भलीभांति देखकर, प्रमादरहित होकर रखना-उठाना आदान-निक्षेप समिति है।
निर्जीव स्थान पर सावधानीपूर्वक कफ, मल, मूत्र आदि का त्याग करना उत्सर्ग समिति है।
हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि प्राचार्यों ने तीन गुप्तियों और पांच समितियों को अष्ट प्रवचनमाता कहा है । क्योंकि ये योगियों के चारित्र की कर्म-रज से उसी प्रकार रक्षा करती हैं, जिस प्रकार माता अपने पुत्र के शरीर की धूलि से करती है। इसलिए महाव्रती को इनका पालन करना आवश्यक है। योगदर्शन में यमों की रक्षा के लिए इस प्रकार का कथन नहीं है।
नियम-नियम योग का दूसरा अंग माना गया है। 'नियमन्ति प्रेरयन्ति नियमाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार नियम का अर्थ है शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना । प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'नियमसार' में कहा गया है कि जो नियम से किया जाता है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप नियम है। योगसूत्र में नियम के पांच भेद बतलाये गये हैं-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ।४।।
शौच-शौच का अर्थ होता है पवित्र या शुद्ध। योगदर्शन में शौच दो प्रकार का बतलाया गया है-बाह्य शौच और प्रान्तरिक शौच । मृत्तिका, जल आदि पदार्थों से पवित्र होना, स्नान करना, पवित्र भोजन करना बाह्य शौच है। मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा
१. पूज्यपाद, सर्वार्थ सिद्धि ९।९ २. (क) जनन्यो यमिनामष्टौ रत्नत्रयविशुद्धिदाः । एताभी रक्षितं दोष, निवृन्दं न लिप्यते ॥
-शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव १८।१९, पृ. १७८ (ख) एताश्चारित्रगात्रस्य जननात् परिपालनात् । संशोधनाच्च साधनां मातरोऽष्टी प्रकीर्तिता॥
-हेमचन्द्र, योगशास्त्र ११४५ और भी देखें २४६ ३. "णियमेण यजं कज्ज तण्णियमं णाणदंसणचरित्तं।"-नियमसार गा. ३ ४. योगसूत्र २।३२
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / १५
द्वारा चित्तमलों को धोना आन्तरिक शौच कहलाता है।' 'ज्ञाताधर्मकथा' में शुक परिव्राजक इसी प्रकार के शौचधर्म का व्याख्यान करता है।
जैन-परम्परा में योगी के लिए इस प्रकार के बाह्य शौच का कोई महत्त्व नहीं है। 'ज्ञाताधर्मकथा' में बाह्य शौच का पालंकारिक रूप से निराकरण किया गया है । मल्ली चोक्खा परिवाजिका से कहती है कि जिस प्रकार रुधिरलिप्त वस्त्र रुधिर में धोने से शुद्ध नहीं होता है, उसी प्रकार प्राणातिपात रूप मिथ्यादर्शन शल्य से किसी प्रकार की शुद्धि नहीं होती है। बाह्यशुद्धि तो सभी संसारीजन करते ही हैं।
पद्मनन्दि ने भी कहा है-"यदि प्राणी का मन मिथ्यात्वादि दोषों से मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करने पर भी प्रायः अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता। जिस प्रकार मद्य के प्रवाह से परिपूर्ण घट को बाहर से पवित्र जल से अनेक बार धोने से शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार जलादि से पवित्रता नहीं आती है।
योगदर्शन के आन्तरिक शौच की तरह जैनदर्शन में प्रान्तरिक शुद्धि को महत्त्वपूर्ण माना गया है। इस आन्तरिक शुद्धि के लिए जैनदर्शन में महाव्रत की भावनाओं, गुप्तियों, समितियों का आचरण करना योगी के लिए अनिवार्य होता है।
बारह भावनाएँ-जैन योग सिद्धांत में अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, अशौच, आश्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक और बोधिदुर्लभ-ये बारह भावनाएँ बतलाई गई हैं। इनके बार-बार चिन्तन से समदष्टि या समत्व का भाव विकसित हो जाता है। मन के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। मोक्ष रूपी महल पर चढ़ने के लिए योगाचार्यों ने इन्हें प्रथम सीढ़ी कहा है।
मैत्री, करुणा आदि भावना--प्रान्तरिक शुद्धि के लिए योगदर्शन की तरह जैनदर्शन में भी मैत्री आदि भावनाओं का चिन्तन करने की प्रेरणा दी गई है। उमास्वाति ने प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणा-वत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भाव की भावना करने की प्रेरणा दी है।
शुभचन्द्राचार्य ने कहा कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं का मोह नष्ट करने और धर्मध्यान करने के लिए चित्त में चिन्तन करना चाहिए।
१. सुरेन्द्रनाथदास गुप्ता, भा. द. ई. भाग १, पृष्ठ २७७ २. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र (सम्पादक पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल), पृष्ठ १९२ ३. वही, पृष्ठ २९० ४. पं. वि., १९५ ५. त. सू. ९७
ज्ञानार्णव २।५-७, वारसणुवेक्खा ८९-९१
त. सू. ७६ ८. ज्ञानार्णव २७।४, १५-१८ और हेमचन्द्र योगशास्त्र ४।११७, १२२, मैत्री, करुणा मादि
चारों भावनाओं के विस्तृत स्वरूप के विवेचन के लिए दृष्टव्य ज्ञानार्णव २७-५, हेमचन्द्र योगशास्त्र ११८-१२१ ।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / १६
संतोष-योगदर्शन में दूसरा नियम संतोष माना गया है। संतोष नियम के अनुसार योगी की इच्छाओं को रोककर जो कुछ प्राप्त हो उसी में सन्तुष्ट रहना पड़ता है। तृष्णा के होने से असन्तोष होता है। तृष्णा क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय के कारण होती है। इसलिए जैन-योग-सिद्धान्त में कषायों को जीतने का उपदेश योगी को दिया गया है।' कषायों का शमन हो जाने से इच्छाओं का निरोध स्वयं हो जाता है।
जैनदर्शन में भी सन्तोष भावना का चिन्तन करने का योगी को उपदेश दिया गया है। प्राचार्य जयसेन ने सन्तोषभावना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि मान-अपमान में समता से और अशन-पानादि में यथालाभ से समताभाव रखना संतोषभावना है।
तपस-नियम का तीसरा भेद तपस् या तप नियम है । क्लेश, कर्मवासना का शुद्धीकरण जिसके द्वारा होता है वह तप कहलाता है। योगदर्शन में सुख-दुःख, पातप-शीत, भूखप्यास आदि का सहन करना तप कहा गया है। भगवती आराधना में पांच असं क्लिष्ट भावनामों में तप नामक भावना बतलाई गई है। प्राचार्य शिवकोटि ने बतलाया है कि तपश्चरण से इन्द्रियों का मद नष्ट हो जाता है और इन्द्रियाँ वशवर्ती हो जाती हैं। प्राचार्य जयसेन ने भी कहा है कि तपभावना से विषय-कषाय पर विजय मिल जाती है।
__जैनदर्शन में बारह प्रकार के तप बतलाये गये हैं, जिनका वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है-६ बाह्य तप और ६ प्राभ्यन्तर तप । अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त-शयनासन और कायक्लेश, ये छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह ग्राभ्यन्तर तप हैं। योगदर्शन के तप नियम की तुलना जैनदर्शन में बतलाये गये बाह्य तपों से की जा सकती है। इसके अलावा तप-नियम की तुलना जैनदर्शन में मान्य “परीषहजय" से की जा सकती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने संवर के कारणों में "परीषहजय" को भी बतलाया है । स्वामी कार्तिकेय ने अत्यन्त भयानक भूख आदि की वेदना को शान्त भाव से सहन करना परीषहजय कहा है। उमास्वाति ने परीषहजय की आवश्यकता बतलाते हुए कहा है कि संवर के मार्ग से भ्रष्ट न होने के लिए कर्मों की निर्जरा के लिए परीषह को जीतना आवश्यक है। परीषह के बाईस प्रकार हैं।
क्षुधा, प्यास, शीत, उष्ण, वंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश,
१. प्रा. शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव सर्ग २०, पृष्ठ १९८-९९ २. तवभावना य सुदसत्तभावणेगत्त भावणा चेव ।
धिदिबलविभावणाविय असंकिलिट्रावि पंचविहा॥-भगवती आराधना, गा० १८७ ३. वही, १८८ ४. पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, गा० १७३, पृ० २५४ ५. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र ९।१९-२० ६. सो वि परिसह विजनो छुहादि पीडाण अइरउद्दाणं ।
सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं ।।-स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ९८ ७. तत्त्वार्थसूत्र ९८ ८. वही ९९
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / १७
वध, याचना, अलाम, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अवर्शन । उपर्युक्त बाईस परीषहों में एक जीव के एक साथ उन्नीस परीषह होने का उल्लेख जैन प्राचार्यों ने किया है, क्योंकि शीत और उष्ण में से एक और चर्या, निषद्या व शैय्या परीषहों में से कोई एक ही हो सकता है।
स्वाध्याय-बार-बार मोक्ष प्रतिपादक प्राध्यात्मिक शास्त्रों का अध्ययन करना योगशास्त्र में स्वाध्याय नामक नियम कहा गया है । इसकी तुलना जैनदर्शन में मान्य श्रुतभावना और स्वाध्याय नामक आन्तरिक तप से की जा सकती है। प्राचार्य जयसेन के अनुसार प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप चार प्रकार के प्रागमों का अभ्यास करना श्रुतभावना कहलाती है।' प्रा० पूज्यपाद ने आलस्य को त्याग कर ज्ञान की आराधना करने को स्वाध्याय तप कहा है। मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के पाँच भेद बतलाये हैं। परियट्ठणाय (आम्नाय), वायण (वाचना), पडिच्छणा (पृच्छना), अणुपेहया (अनुप्रेक्षा) और धम्मकहा (धर्मोपदेश),3 इनके स्वरूपादि का विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थसूत्र की टोकाओं में उपलब्ध है।
ईश्वर-प्रणिधान-फलों की प्राकांक्षा किये बिना सभी प्रकार के कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है। जैनदर्शन में अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय
और साधु ये पाँच परमेष्ठी माने गये हैं। प्रत्येक योगी इनके प्रति निष्काम भाव से श्रद्धा रखता है। इनके अलावा और किसी अन्य ईश्वर (जगत के कर्ता-धर्ता) में इस प्रकार भक्ति भावना नहीं रखता है।
आसन-योगदर्शन की भाँति जैनदर्शन में भी योगी के लिये प्रासन का विधान किया गया है। प्राचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में और प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' में प्रासन के योग्य स्थान और प्रासन के भेदों का विवेचन किया है। काष्ठ का तख्ता, शिलापट्ट, भूमि और बालुयुक्त स्थान प्रासन के योग्य हैं। योगसिद्धान्तचन्द्रिका में अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अधिक प्रासनों के भेद बतलाये गये हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने पर्यकासन, अर्द्ध पर्यकासन, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्गासन को ध्यान के योग्य बतलाया है। हेमचन्द्र ने उपर्युक्त आसनों के अलावा भद्रासन, दण्डासन, उत्कुटकासन और गोदोहिकासन
१. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवत्ति, गाथा १७५, पृ० २५८ २. प्रा० पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ९।२०, पृ० ४३९
(क) वट्टकेर, मूलाचार, गा० २९३
(ख) उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, ९।२५ ४. (क) ज्ञानार्णव, २८११-११
(ख) योगशास्त्र, ४११२३-१३६. दारुपट्टे शिलापट्ट भूमो वा सिकतस्थले ।
समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ।। -ज्ञानार्णव, २८९ ६. डॉ० (कू.) विमला कर्णाटक, भारतीय दर्शन (सं०-डॉ० न० कि० देवराज) पृ० ४१३ ७. ज्ञानार्णव, २८।१०
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पंचम खण्ड / १८
भी बतलाये हैं।' योगी उसी पासन को ध्यान का साधन बना सकता है, जिससे मन स्थिर रह सके । योगी अमुक अासन ही करे, ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है ।
आसन का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए प्राचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि जितेन्द्रियों को
आसन-जय करना चाहिए, इससे समाधि में थोड़ा भी खेद नहीं होता है। जिसको आसन का. अचेनार्चन | अभ्यास नहीं होता है, उस योगी का शरीर स्थिर नहीं होता है, जिससे योगी को खेद होता
है। आसन को जीतने वाला योगी पवन, गर्मी, तुषार आदि और विभिन्न प्रकार के जीवों से पीड़ित होकर भी खेद-खिन्न नहीं होता है । अत: योगी को प्रासनजयी होना चाहिए ।
प्राणायाम-पतंजलि ने योग का चौथा अंग प्राणायाम बतलाया है। 'प्राण+पायाम प्राणायाम । प्राण का अर्थ है वायु और पायाम का अर्थ है रोकना । अतः प्राणायाम का अर्थ हमा-श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया का निरोध करना । आचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने प्राणायाम के तीन भेद योगदर्शन की भांति बतलाये हैं-पूरक, कुम्भक और रेचक ।५ किसी प्राचार्य ने प्राणायाम के उपर्युक्त तीन भेदों में प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और अधर को मिलाकर सात प्रकार का प्राणायाम बतलाया है। उपर्युक्त प्राणायामों का विस्तृत और सूक्ष्म विवेचन ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में उपलब्ध है।
योगदर्शन की भाँति जैनदर्शन में भी प्राणायाम की आवश्यकता योगी के लिए प्रतिपादित की गई है, लेकिन इसके प्रतिपादन का उद्देश्य या प्रयोजन अलग-अलग प्रतीत होता है। जैनदर्शन में ध्यान की सिद्धि और मन की एकाग्रता से प्रात्म-स्वरूप में स्थिर होने के लिए प्राणायाम की प्रशंसा की गई है। बिना प्राणायाम के मन को नहीं जीता जा सकता है। हेमचन्द्र कहते हैं कि यद्यपि मन और वायु दोनों परस्पर अविनाभावी हैं लेकिन इनमें से किसी एक के निरोध करने से दूसरे का भी निरोध हो जाता है । मन और वायु का निरोध हो जाने से इन्द्रिय और बुद्धि के व्यापार का नाश हो जाता है और ऐसा होने पर मोक्ष हो जाता है।'' शुभचन्द्र ने भी कहा है कि प्राणायाम से चित्त स्थिर हो जाता है और चित्त के
१. हेमचन्द्र, योगशास्त्र, ४।१२४ २. जायते स्थिति येनेह, विहितेन स्थिरं मनः ।
तत्तदेव विधातव्यम् आसनं ध्यान साधनम् ॥-वही, ४११३४. ३. शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव, २९।३०-३२ ४. "प्राणायमो गतिच्छेदः श्वासप्रश्वासयोर्मतः।" योगशास्त्र, ५।४ ५. (क) शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २९।३
(ख) हेमचन्द्र, योगशास्त्र ५।४ ६. योगशास्त्र ५१५ ७. ज्ञानार्णव २९।३-१०२ ८. योगशास्त्र ५।४-२७३ ९. सुनिर्णीतसुसिद्धांतैः प्राणायाम: प्रशस्यते ।
मुनिभिान सिद्धयर्थं स्थैर्यार्थ चान्तरात्मनः ।। -ज्ञानार्णव, २९-१ १०. वही, २९।२ ११. योगशास्त्र, ५।२-३
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पातंजल योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन | १९
स्थिर हो जाने से संसार के समस्त पदार्थों का ज्ञान प्रत्यक्ष की तरह हो जाता है। मन को वश में करके भावना करने वाले मनुष्य की अविद्या का क्षण मात्र में विनाश हो जाता है और कषाय क्षीण हो जाती है। प्राणायाम से कामदेव रूप विष और मन पर विजय प्राप्त हो जाती है और समस्त रोगों का क्षय हो जाता है तथा शरीर में स्थिरता आ जाती है। परमात्मप्रकाश के टीकाकार ब्रह्मदेव ने भी कहा है कि कुम्भक आदि प्राणायाम से शरीर नीरोग हो जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि योगदर्शन की भाँति जैनदर्शन में भी योगियों के लिए प्राणायाम उपादेय बतलाया गया है। लेकिन दोनों की उपादेयता में अन्तर यह है कि योगदर्शन में प्राणायाम ध्यान का कारण माना गया है, लेकिन जैनदर्शन में प्राणायाम योगी के लिए कथंचित् रूप से उपादेय कहा गया है। प्राणायाम मोक्ष का साधक नहीं है, यद्यपि प्राणायाम से संसार के शुभ-अशुभ, भूत-भविष्यत् जाने जाते हैं और दूसरों के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति है। इस प्रकार लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि प्राणायाम से होती है। लेकिन यह ध्यान का कारण नहीं है। भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि श्वासोच्छ्वास के रोकने के दुःख से शरीर के नष्ट होने की संभावना होती है।
प्राचार्य शुभचन्द्र भी कहते हैं कि प्राणायाम से विक्षिप्त मन स्वस्थ नहीं होता है। पवन का चातुर्य शरीर को सूक्ष्म, स्थूलादि करने का साधन है, इसलिए जो लोग मुक्ति चाहते हैं उनके लिए विघ्न का कारण है। प्राणायाम से आत्मा को संदेह और पीड़ा होती है। प्राणायाम से प्राणों को रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा से प्रार्तध्यान होता है और प्रार्तध्यान से तत्त्वज्ञ मुनि अपने लक्ष्य से भष्ट हो जाता है। क्योंकि प्रार्तध्यान संसार का कारण है। हेमचन्द्र ने भी यहो कहा है।६ ब्रह्मदेव ने भी कहा है कि प्राणायाम में वायु का धारण इच्छा-पूर्वक किया जाता है, इच्छा मोह से उत्पन्न विकल्प है और मोह का कारण भी है। वायु धारण करने से मुक्ति नहीं मिल सकती है, क्योंकि वायु धारण करना शरीर का धर्म है, प्रात्मा का नहीं है। अतः प्राणायाम मोक्ष का कारण नहीं है।'
प्रत्याहार-योग का पांचवां अंग प्रत्याहार है। पातंजल योग की तरह जैन योग में भी प्रत्याहार को उपादेय माना गया है। इन्द्रियों का यह स्वभाव होता है कि वे स्वेच्छाचारिता से अपने विषय की ओर आकृष्ट होती हैं। योगी को इन इन्द्रियों की प्रवत्ति को रोकना यावश्यक होता है। उन्हें बाह्य विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना अर्थात् मन के वशवर्ती बनाना
१. स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामाबलम्बिनाम् ।
जगदवत्तं च नि:शेषं प्रत्यक्षमिव जायते ॥-ज्ञानार्णव २९.१४, १०१११ २. ज्ञानार्णव २९।१२, १००-१०१ ३. ब्रह्मदेव, परमात्मप्रकाश टीका, २११६२ पृष्ठ २७४ ४. भट्ट अकलंकदेव, तत्त्वार्थ. वार्तिक ९।२७।२३ पृष्ठ ६२७ ५. शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३०१४-११ ६. योगशास्त्र ६।४-५ ७. ब्रह्मदेव, परमात्मप्रकाश टीका, २११६२ पृष्ठ २७४
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पंचम खण्ड /२०
अर्चनार्चन
आवश्यक है। इसी को प्रत्याहार कहते हैं।' प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने प्रत्याहार का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि इन्द्रियों और मन को उनके विषयों से खींचकर प्रशान्त बुद्धि वाले साधक द्वारा अपनी इच्छानुसार उन्हें जहाँ चाहे वहाँ लगाना प्रत्याहार कहलाता है । प्रत्याहार की विधि प्रतिपादित करते हुए बतलाया गया है कि योगी इन्द्रियों को विषयों से अलग करके मन को इन्द्रियों से अलग करे और निराकुल मन को ललाट पर लगाये । प्रत्याहार धर्मध्यान के लिए आवश्यक है। प्राणायाम से मन विक्षिप्त हो जाता है, इसलिए समाधि की सिद्धि के लिए प्रत्याहार करना आवश्यक होता है, अर्थात् प्रत्याहार से मन पुनः स्वस्थ होकर समस्त रागादि रूप उपाधियों से रहित होकर समभाव युक्त हो जाता है और प्रात्मा में लीन हो जाता है। इस प्रकार प्रत्याहार योगी के लिए आवश्यक है।
धारणा-पातंजल दर्शन में योग का छठा अंग धारणा है। प्रत्याहार के द्वारा योगी का मन स्थिर हो जाता है। उस स्थिर मन को देश-विशेष में स्थिर करना धारणा है। प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के अनुसार ललाट, नेत्रयुगल, दोनों कान, नाक का अग्रभाग, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और दोनों भौंहों के मध्यभाग में से किसी एक पर चित्त को स्थिर करना धारणा है।' योगदर्शन में उपर्युक्त धारणा के आध्यात्मिक देशों के अलावा सूर्य, चन्द्र और अग्नि को धारणा के बाह्यदेश कहा है । 'सिद्धान्तचन्द्रिका' में महाभूत विषयक धारणा-पाथिवीय धारणा, जलीय धारणा, तैजसीय धारणा, वायुवीय धारणा तथा नाभसी धारणा-का भी उल्लेख है । इनका दूसरा नाम क्रमशः स्तंभिनी, प्लाविनी, दहनी, भ्रामणी तथा समनी है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी इन पांच धारणामों का विस्तृत विवेचन किया है।
१. इन्द्रियाणि विषयेभ्यः प्रत्याह्रियन्ते विमुखीक्रियन्तेऽनेनेति प्रत्याहारः ।
डॉ० (कु.) विमला कर्णाटक, भा. द. (संपादक डॉ० न. कि. देवराज) पृष्ठ ४१५ समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः ।
यत्र यत्रेच्छया धन्ते स प्रत्याहार उच्यते ।। -ज्ञानार्णव ३०११ ३. इन्द्रियः समाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः ।
धर्मध्यानकृते तस्मात् मनः कुर्वीत निश्चलम ॥ --योगशास्त्र, ६५६ ४. ज्ञानार्णव, ३०१४-५ ५. 'देशबन्ध श्चित्तश्य धारणा'
-योगसूत्र, ३११ ६. (क) नाभि-हृदय-नासाग्र-भाल-भू-तालु दृष्टयः ।
मुखं कणौँ शिरश्चेति ध्यान-स्थानान्यकीर्तयन । -योगशास्त्र ६१७-८ (ख) शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव, ३०।१३ ७. प्रा० नारायण तीर्थ, योग या सिद्धांतचन्द्रिका, १० १०५ और भी देखें भा० द०
(संपादक डॉ० न० कि० देवराज), पृ० ४१६ ८. पाथिवी स्यादथावनेयी मारूती वारूणी तथा ।
तत्रभः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंच धारणा॥ -योगशास्त्र, ७१९, ७।१०-३५.
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तलनात्मक विवेचन | २१
ध्यान-योग-दर्शन में योग का सातवां अंग ध्यान बतलाया गया है। जैनदर्शन में ध्यान का सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है, क्योंकि ध्यान मोक्ष का कारण माना गया है। योगदर्शन में पतंजलि ने ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि जब धारणा के देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप होने लगता है तब वह ध्यान कहलाता है।' जैनदर्शन में उमास्वाति, प्रा० पूज्यपाद, कार्तिकेय, रामसेनाचार्य प्रादि प्राचार्यों ने ध्यान के स्वरूप का प्रतिपादन करते हए कहा है कि विभिन्न विषयों का चिन्तन करने से चित्त चंचल होता है। उसे समस्त विषयों से हटाकर एक ही विषय का चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। अतः एकाग्रचिन्तानिरोध को ध्यान कहते हैं। ज्ञानार्णव, ध्यानशतक, ध्यानशास्त्र, योगशास्त्र आदि में ध्यान के भेद, ध्याता, ध्येय, ध्यान-फल, ध्यान के योग्य देश-कालअवस्था आदि का सूक्ष्म विवेचन किया है । शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने अन्य ध्यानों के अलावा सवीर्यध्यान, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत धर्मध्यान का अनन्य वर्णन किया है।' योगियों के लिए 'ज्ञानार्णव' ध्यान का अविकल ग्रन्थ है।
समाधि-योग का अन्तिम अंग समाधि है। भद्र अकलंकदेव ने ध्यान और समाधि को ही योग का चरम लक्ष्य माना है। योगदर्शन-सम्मत समाधि के लिए जनदर्शन में शुद्धोपयोग शब्द का प्रयोग हुआ है। समाधि की व्युत्पत्ति की गई है कि 'सम्यगाधीयते एकाग्री क्रियते विक्षेपान परिहत्य मनो यत्र स समाधिः'४ अर्थात् अच्छी तरह से विक्षेपों को हटाकर चित्त का एकाग्र होना समाधि है । 'समाधि' शब्द 'सम+अधि' से बना है। सम का अर्थ एक रूप करना है। अतः समाधि का अर्थ हा मन को उत्तम परिणामों में अर्थात शुभोपयोग या शुद्धोपयोग में एकाग्र करना। समाधि अवस्था में ध्यान, ध्येय और ध्याता का भेद मिट जाता है। समाधि में बाह्य और प्रान्तरिक समस्त प्रकार के जल्पों का क्षय हो जाता है और एक मात्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा का चिन्तन होता है।
१. 'तत्र प्रत्यकतानता ध्यानम् ।' -योगसूत्र ३।२ २. (क) एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्महात् । -त. सू. ९४२७ (ख) अंतो-मुहुत्त-मेतं लोणं वत्थुम्मि माणसं गाणं ।
झाण भण्णदि समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥ --कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ४७० (ग) एकाग्र चिन्तनं ध्यान..........."एकाग्र-चिन्ता-रोधे यः परिस्पन्देन वजितः
-श्री रामसेनाचार्य, तत्त्वानुशासन, श्लोक ३८, ५६ और भी देखें ६०-६१. ३. ज्ञानार्णव ३१ सर्ग, ३७ सर्ग, ४१ सर्ग । योगसार ७-१० प्रकाश । ४. द्रष्टव्य-उपाध्याय बलदेव, भा० द०, पृ० ३०४ ५. (क) समेकीभावे वर्तते"..."| समाधानं मनस: एकाग्रताकरणं शुभोपयोगे शुद्धे वा ।
--भगवती आराधना, विजयोदया टीका ६४ पृ० १९४ (ख) यत्सम्यक् परिणामेष चित्तस्याधानमंजसा ।
स समाधिरिति ज्ञेयः स्मृतिर्वा परमेष्ठिनाम् ॥ -जिनसेन, महापुराण, २१४२२६ ६. सयल-वियप्पहं जो विलउ परम समाहि भणं ति ।
तेण सुहासुह-भावणा मुणि सयलवि मेल्लं ति ।। -परमात्मप्रकाश, २११९०
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पंचम खण्ड / २२
अर्चनार्चन
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है-"वचनोच्चारण की क्रिया का त्याग कर वीतराग भाव से प्रात्मा का ध्यान करना समाधि है। दूसरे शब्दों में संयम, नियम, तप और धर्मध्यान-शुक्लध्यान से प्रात्मा का ध्यान करना समाधि है।' योगदर्शन में समाधि के दो भेद बतलाये गये हैं-(१) सम्प्रज्ञातसमाधि एवं (२) असम्प्रज्ञातसमाधि । सम्प्रज्ञातसमाधि को सबीजसमाधि भी कहा गया है। इस समाधि में मन एक वस्तु पर केन्द्रित रहता है। दूसरे. शब्दों में इस अवस्था में मन का व्यापार चलता है। इसकी तुलना चौथे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती योगी की योग अवस्था से की जा सकती है। हरिभद्र ने योगबिन्दु में अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय, इन पाँच को अध्यात्म विकास की भूमिकाओं में विभाजित किया है। इनमें से प्रादि की चार भूमिकानों की तुलना सम्प्रज्ञातसमाधि से की जा सकती है। असम्प्रज्ञातसमाधि में किसी विषय का चिन्तन नहीं किया जा सकता है। इसे निर्बीज-समाधि भी कहा गया है । इसकी तुलना जैनदर्शन में मान्य प्रयोगकेवली से की जा सकती है । हरिभद्र ने इस असम्प्रज्ञातसमाधि को वृत्तिसंक्षय कहा है ।
हरिभद्रीय योगांगों के साथ पातंजल-योगाष्टांग की तुलना-हरिभद्र ने 'योगदृष्टि-समुच्चय' में योग के मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा ये पाठ अंग बतलाये हैं। तथा उनका विस्तृत स्वरूप-विवेचन भी किया है। हरिभद्र ने मित्रा की यम, तारा की नियम, बला की प्रासन, दीप्रा की प्राणायाम, स्थिरा की प्रत्याहार, कान्ता की धारणा, प्रभा को ध्यान और परा की समाधि से तुलना की है।
मा. रामसेनीय योगाष्टांग की पातंजल-योगाष्टांग से तुलना-प्राचार्य रामसेन ने 'तत्त्वानुशासन' (ध्यान-शास्त्र) में योग-साधन के पाठ अंग इस प्रकार बतलाये हैं-ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल, ध्येय, ध्यानस्वामी, ध्यानक्षेत्र, ध्यानकाल और ध्यानावस्था।' इन पाठ अंगों का सूक्ष्म विवेचन उक्त ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। युगवीर जुगलकिशोर मुख्तार ने प्राचार्य रामसेन के उक्त योग के आठ अंगों की तुलना पातंजल के पाठ योगांगों से मुख्य-गौण दृष्टि एवं स्वरूप आदि की दृष्टि से की है। उदाहरणार्थ यम और नियम का अन्तर्भाव धर्मध्यान और संवर में, ध्यान और समाधि का ध्यान में तथा प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा का ध्यान की अवस्था एवं प्रक्रिया में अन्तर्भाव होता है।
१. नियमसार, गा. १२२-१२३ २. हरिभद्र, योगबिन्दु, कारिका ३१ ३. (क) वही, कारिका, ४२८, ३१, ४२० (ख) दृष्टव्य-पं० सुखलाल संघवी, समदर्शी अ० हरिभद्र, पृष्ठ १०१;
दर्शन और चिन्तन, पृष्ठ २६५ ४. मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कांता प्रभा परा।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत। -योगदष्टिसमुच्चय, श्लोक १३ ५. दृष्टव्य वही, श्लोक २१-१८६ ६. यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारत :।।
अद्वेषादिगुणस्थानं क्रमेणषा सतां मता ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक १६ ७. प्रा. रामसेन, तत्त्वानुशासन, श्लोक ३७-४०
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पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / २३
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन और योग-दर्शन में योग के स्वरूप और उसके अंगों के कथन में शब्दों के हेर-फेर के साथ समानता है। योगदर्शन में जो योग की परम्परा उपलब्ध है वह पतंजलि की मौलिक देन नहीं है अर्थात पतंजलि योगसिद्धांत के आविष्कारक (प्रतिपादक) नहीं थे। यह सिद्धांत उन्हें परम्परा से प्राप्त हुअा था। लेकिन इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है उन्होंने योग-सिद्धांत को परिमार्जित कर उसका विकास प्रचार कर उसे अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया है।
प्राध्यापक, प्राकृत, जैनशास्त्र एवं अहिंसा शोध संस्थान वैशाली (बिहार) २४४१२८
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वीतराग-योग - कन्हैयालाल लोढा
अर्चनार्चन
पशु, पक्षी आदि प्राणियों का जीवन प्रकृति पर निर्भर करता है। उन्हें प्रकृति से जब जो भोग की सामग्री मिल गयी और उसकी उस समय आवश्यकता हुई तो उसका भोग कर लेंगे, आवश्यकता नहीं हुई तो उसका भोग नहीं करेंगे । जैसे खाने को घास या अनाज मिला तो भूख होगी तो ही खायेंगे, भूख नहीं हो तो नहीं खायेंगे। उनकी भोग की यह प्रकृति प्राकृतिक है। उनकी प्रकृति (आदत) प्रकृति-निसर्ग Nature के आधीन होती है। इस दृष्टि से वे अपनी आदत या प्रकृति के प्राधीन हैं, पराधीन हैं। वे भोगयोनि जीव हैं। भोग के प्राधीन हैं। भोग से मुक्ति पाना उनके लिए संभव नहीं है। परन्तु मानव में यह बात नहीं है। उसके सामने भोजन आ जाय तो उसे भूख होने पर भी वह अपने को खाने से रोक सकता है, भूख न हो तब भी खा लेता है। अतः मानव में यह विशेषता है कि वह भोग वृत्ति व प्रवृत्ति को घटा या बढ़ा सकता है तथा भोग का पूर्ण त्याग भी कर सकता है अर्थात् वह भोग के प्राधीन नहीं है तथा भोग से सर्वथा मुक्ति भी पा सकता है । भोग के प्राधीन नहीं होने से प्रकृति के आधीन नहीं है, प्रकृति से मुक्ति पा सकता है। जो अपनी भोग की प्रकृति (प्रादत) तथा प्रकृति (Nature) के आधीन नहीं है वह पराधीन नहीं है, स्वाधीन है, मुक्त है । मुक्त होने में ही मानव-जीवन की सफलता है, मुक्त होने की प्रक्रिया ही साधना है।
साधना-जगत् में स्वभाव, साधक, साध्य, साधना, साधन, सिद्धि, आदि तत्त्वों का बड़ा महत्त्व है। प्रस्तुत लेख में इन्हीं तत्त्वों पर वीतराग के परिप्रेक्ष्य में जैन, बौद्ध, योग दर्शन को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए स्वयं-सिद्ध निजज्ञान के प्राधार पर प्रकाश डाला जायेगा।
स्वभाव-वस्तु में जो गुण स्वतः सदा के लिए विद्यमान है, वह स्वभाव है । स्वभाव वस्तु में सदा, सर्वत्र विद्यमान रहता है, उसकी कभी उत्पत्ति व नाश नहीं होता है। स्वभाव
और प्रकृति में अन्तर है। स्वभाव प्रकृति के प्राधीन नहीं होता। प्रकृति (प्रादत) प्रकृति के प्राधीन होती है, प्रकृति में पर की प्राधीनता होती है, अतः प्रकृति पराधीनता की द्योतक है। प्रकृति का संबंध कर्म से होता है, स्वभाव से नहीं । प्रकृति कर्म का ही अंग है ।
साधक-साधक वह है जिसका कोई साध्य है और उस साध्य की प्राप्ति के लिए जो प्रयत्नशील है।
साध्यसाधक का लक्ष्य ध्येय या उद्देश्य साध्य है। साध्य साधक का स्वभाव होने से सभी साधकों का एक होता है व सभी को अभीष्ट होता है।
साधना-साधक द्वारा साध्य की प्राप्ति के लिए किया गया पुरुषार्थ साधना है। यह प्रत्येक साधक की अपनी-अपनी होती है।
साधन-साधना का सहयोगी अंग साधन है।
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महा सती जी विभिन्न योग मुद्राओं में .
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वीतराग-योग | २५
सिद्धि-साध्य की उपलब्धि सिद्धि है। सिद्ध--जो सिद्धि प्राप्त कर उससे सदा के लिए अभिन्न हो गया है, वह सिद्ध है।
यह तो साधना-तत्त्वों का सामान्य विवेचन हुमा । प्रागे इन्हीं का कुछ विस्तार के साथ विवेचन करते हैं।
साधक का सर्वप्रथम आवश्यक कार्य यह है कि वह अपने साध्य का निर्णय करे। साध्य वही होता है जो सत्य हो, यथार्थ हो। सत्य वही होता है जो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में समान रहे, जिसमें भेद व भिन्नता न हो। उसमें निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं
(१) वह सार्वजनीन होता है अर्थात वह मानव मात्र को समान रूप से इष्ट होता है। जो किसी को इष्ट हो और किसी को इष्ट न हो, वह साध्य नहीं हो सकता। कारण कि उसमें भेद व भिन्नता है, वह सीमित है।
(२) वह सार्वदेशिक होता है अर्थात् वह सर्व देशों में, सर्व क्षेत्रों में समान रूप से इष्ट होता है । जो किसी एक देशवासी के लिए इष्ट हो और अन्य देशवासियों के लिए इष्ट न हो, वह साध्य नहीं हो सकता । कारण कि उसमें भेद व भिन्नता है, वह सीमित है।
(३) वह सार्वकालिक होता है अर्थात् वह सदा इष्ट होता है। जो किसी काल में इष्ट हो और किसी काल में इष्ट न हो, कभी इष्ट हो कभी इष्ट नहीं हो, वह साध्य नहीं हो सकता । कारण कि वह भेदभिन्नता युक्त सीमित है।
(४) वह सार्वभाविक होता है अर्थात सर्व अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में अभीष्ट होता है। जो किसी अवस्था व परिस्थिति विशेष में इष्ट हो और अन्य अवस्था व परिस्थिति में इष्ट नहीं हो, वह साध्य नहीं हो सकता । कारण कि वह सीमित है।
सत्य ही साध्य है । सत्य में भेद व भिन्नता नहीं होती है, जैसे (१) त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण होता है, (२) तीन और चार मिलकर सात होते हैं आदि ये सब मनुष्यों के लिए सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं में समान रूप से स्वीकार्य हैं। इसमें तर्क व ननुनच करने का गुंजाइश या अवकाश नहीं है।
जिसमें भेद व भिन्नता है वह वर्ग देश, काल, अवस्थाविशेष तक सीमित होता है । जो सीमित होता है वह अपूर्ण होता है । जो अपूर्ण होता है वह दोषयुक्त होता है । अपूर्णता दोष की द्योतक होती है। जो जितना अपूर्ण है वह उतना ही दोषयुक्त है। वस्तुतः दोष का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता क्योंकि यह नियम है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व होता है वह अविनाशी होता है, उसका प्रात्यंतिक विनाश संभव नहीं होता। अतः यदि दोष का स्वतंत्र अस्तित्व होता तो कोई भी साधक दोष से मुक्त नहीं हो सकता। वस्तुतः दोष गुण की अपूर्णता या कमी का नाम है। जैसे अहिंसा गुण में कमी ही हिंसा रूप दोष है। सत्य बोलने में कमी ही मिथ्याभाषण का दोष है, विराग गुण में कमी ही राग का दोष है प्रादि । प्राशय यह है कि जो सीमित है, वह अपूर्ण है, कमी युक्त है, अतः वह साध्य नहीं हो सकता। साध्य सदैव असीम, अनंत, परिपूर्ण होता है ।
आइये, अब यह विचार करें कि ऐसे कौन से तथ्य या गुण हैं जो सार्वजनिक, सार्वदेशिका, सार्वकालिक और सार्वभाविक हैं अर्थात् जो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड | २६
अर्चनार्चन
अभीष्ट हैं। विचार करने पर ज्ञात होगा कि (१) सुख, (२) अमरत्व (अविनाशीपन), (३) स्वाधीनता, (४) चिन्मयता, (५) सामर्थ्य, (६) पूर्णता प्रादि सभी को सदैव, सर्वत्र सब प्रकार से अभीष्ट (पसंद) है। किसी को भी (१) दुःख, (२) मृत्यु (विनाश), (३) पराधीनता, (४) जड़ता, (५) असमर्थता, (६) अभाव आदि कभी भी, कहीं भी पसंद नहीं है ।
किसी से यह पूछा जाय कि तुम्हें सुख चाहिये या दुःख, अमरत्व चाहिये या मृत्यु, स्वाधीनता चाहिए या पराधीनता, सामर्थ्य चाहिये या असमर्थता, पूर्णता चाहिये या प्रभाव (कमी), तो कोई भी यह नहीं कहेगा कि "मैं" सोच-विचार कर पीछे जवाब दूंगा। प्रत्युत बिना किसी प्रकार ऊहापोह, तर्क-वितर्क किए तत्काल उत्तर देगा कि सुख चाहिए, अमरत्व चाहिए, स्वाधीनता चाहिए, सामर्थ्य चाहिए, पूर्णता चाहिए । इसका कारण यह है कि ये गुण चेतन (जीव) के स्वभाव हैं। स्वभाव होने से स्वयं सिद्ध हैं। जो स्वयंसिद्ध हैं उन्हें सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, पागम आदि किसी भी अन्य प्रमाण की अपेक्षा या आवश्यकता नहीं होती है। न उनमें किसी तर्क को ही अवकाश (स्थान) होता है। इसीलिए स्वयंसिद्ध ज्ञान सहज ज्ञान है, निजज्ञान है, स्वाभाविक ज्ञान है । स्वाभाविक ज्ञान होने से अपरिवर्तनशील है, नित्य ज्ञान है, शाश्वत-सनातन अनंत ज्ञान है। स्वाभाविक ज्ञान में तर्क की आवश्यकता नहीं होती। कहा भी है "स्वभावोऽतर्कगोचरः।" इससे यह भी फलितार्थ निकलता है कि जिसमें तर्क हो सकता है, वह स्वाभाविक ज्ञान या निजज्ञान नहीं है, प्रत्युत इन्द्रिय-मन-बुद्धिजन्य ज्ञान है, परोक्षज्ञान है। उस ज्ञान का संबंध निज स्वरूप से न होकर परिवर्तनशील परपदार्थों से होता है अर्थात् शरीर और संसार तथा इनके पारस्परिक व पारम्परिक संबंध से होता है। परपदार्थ, शरीर और संसार व इनका संबंध परिवर्तनशील है, अनित्य है, अतः इनका ज्ञान भी परिवर्तनशील, विकारी व अनित्य है। इसे पागम भाषा में क्षायोपशमिक ज्ञान कहा है।
तात्पर्य यह है कि जो सबको सदा अभीष्ट है, स्वयं सिद्ध है, स्वभाव है, स्वधर्म है, वह ही साध्य है। इस दृष्टि से विचारने पर ज्ञात होता है कि सुख, अमरत्व, अविनाशीपन, स्वाधीनता, पूर्णता, चिन्मयता, सामर्थ्य आदि मानव मात्र का साध्य है। यही नहीं इन सबका परस्पर में घनिष्ट सम्बन्ध भी है। जहाँ इनमें से कोई भी एक है, वहाँ अन्य भी सब हैं। उदाहरणार्थ सुख को ही लें तो किसी को भी विनाशी, पराधीन, अपूर्ण, दुःखयुक्त सुख नहीं चाहिये; सभी को अविनाशी (अक्षय), पूर्ण (प्रखंड), अनन्त, स्वाधीन (अव्याबाध) सुख चाहिये। अतः कहना होगा कि सभी का साध्य अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुख है, क्योंकि सभी को यह इष्ट (पसंद) है । इसी प्रकार हम स्वाधीनता, सामर्थ्य आदि को भी ले सकते हैं।
सुख, अमरत्व, चिन्मयता (पूर्ण ज्ञान व दर्शन), स्वाधीनता, पूर्णता रूप साध्य को प्राप्त करना ही सिद्धि प्राप्त करना है । जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली है, वह ही सिद्ध है। इस दृष्टि से साध्य वही है जो सिद्ध पद के गुण हैं अर्थात् सिद्धत्व के गुण हैं।
जैन व बौद्ध धर्म में सिद्ध पद में जिन गुणों का होना कहा है, वही साध्य का स्वरूप है। सिद्धों के गुण हैं अमर (अविनाशी), अजर, मुक्त (स्वाधीन), शिव, ध्रुव, अक्षय, अव्याबाधअनन्त सुख, अनिन्द्रिय, अनुपम, देहातीत, लोकातीत, भवातीत । जिनमें ये गुण हैं, वे ही सिद्ध हैं । अतः ये गुण सभी साधकों के साध्य भी हैं । ये ही गुण चेतन का स्वभाव है।
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वीतराग-योग | २७
सुख, अमरत्व, स्वाधीनता, चिन्मयता, सामर्थ्य, पूर्णता प्राप्त करने एवं दुःख, मृत्यु, पराधीनता, जड़ता, असमर्थता, अभाव आदि अवांछनीय, अनिष्ट स्थितियों से मुक्त होने रूप साध्य का ऊपर वर्णन किया गया। उस पर गहराई से विचार करने पर यह बात सामने आती है कि इन सब अनिष्ट स्थितियों की उत्पत्ति का सम्बन्ध शरीर से है, अर्थात शरीर के साथ ये सब दुःख लगे हुए हैं। शरीर और संसार एक ही जाति के पदार्थ-पुद्गल से बने हैं । अतः दोनों एक ही जाति, गुण व धर्म के हैं । अतः शरीर का सम्बन्ध संसार से है।
चेतना का शरीर और संसार से वियोग अवश्यंभावी है। जो सदा साथ न दे, जिसका वियोग हो जावे वह 'पर' है। 'पर' पर जीवन निर्भर करना पराधीनता है, बंधन है। पर से परे होना अर्थात शरीर और संसार से परे होना, प्रतीत होना ही सब बन्धनों से, सब दोषोंदुःखों, बुराइयों से छुटकारा पाना है, मुक्त होना है। मुक्त होने का अर्थ है शरीर और संसार आदि 'पर' के प्राधीन व प्राश्रित न रहना, स्वाधीन होना । कहा भी है
"बुद्धि वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उनको स्वाधीन कहो।
भक्तिभाव से प्रेरित हो, चित्त उसी में लीन रहो।" -मेरी भावना अत: 'मुक्त' होने में दुःख, मृत्यु, अभाव आदि समस्त दोषों व दु:खों से मुक्ति मिल जाती है एवं सुख, अमरता, पूर्णता प्रादि सब इष्ट गुणों व साध्यों की उपलब्धि हो जाती है, अर्थात् एक ही 'मुक्ति' शब्द में सब साध्यों का समावेश हो जाता है। इसीलिए साध्य हुमा 'मुक्ति' प्राप्त करना । मुक्ति की प्राप्ति वीतरागता से ही संभव है। कारण कि राग ही बन्धन का कारण है । प्रतः साधना है वीतरागमार्ग। इसीलिए यहां प्रागे वीतरागता के परिप्रेक्ष्य में जैन, बौद्ध व योग साधनाओं का प्रति संक्षेप में विवेचन किया जा रहा है। वर्तमान में 'योग' शब्द का साधना के अर्थ में प्रयोग हो रहा है, जैसे ज्ञानयोग, कर्मयोग, समत्वयोग, उपासनायोग, आदि । इसी अर्थ में यहां वीतराग-साधना को 'वीतराग-योग' के रूप में प्रस्तुत किया जा
साधना
प्राणी में तीन शक्तियां हैं-(१) जानने की शक्ति, (२) संवेदन (अनुभवन, विश्वास) करने की शक्ति और (३) क्रिया करने की शक्ति । इन तीनों शक्तियों को क्रमशः ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा जाता है । इन ही तीनों शक्तियों का दुरुपयोग बंधन व दु:ख का तथा सदुपयोग मुक्ति व सुख का कारण है । इन शक्तियों के दुरुपयोग को दोष कहा जाता है, जो दुःख व संसार परिभ्रमण का कारण है और इन्हीं शक्तियों के सदुपयोग को साधना कहा जाता है, जिसे अपनाकर मानव राग, द्वेष, मोह, विषय, कषाय आदि समस्त दोषों एवं पराधीनता, अभाव आदि समस्त दु:खों से सदा के लिए मुक्त हो सकता है। इसी तथ्य को जैनागम उत्तराध्ययनसत्र के २८वें अध्ययन में प्रतिपादन करते हुए कहा है
नाणं च बंसणं चेव, चरित्तच तवो तहा ।
एस मग्गोति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥२॥ अर्थात् श्रेष्ठ द्रष्टा जिनेन्द्रों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मुक्ति का मार्ग कहा है अर्थात साधनापथ बताया है। यहाँ क्रियाशक्ति को चारित्र और तप इन दो रूपों में प्रस्तुत किया गया है।
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पंचम खण्ड / २८
अचेनार्चन
ज्ञान-दर्शनसाधना - सामान्यत: प्रत्येक मानव अपने जीवन में अपने ज्ञान, दर्शन एवं क्रियाशक्ति का उपयोग सुख, शांति, मुक्ति रूप उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही करता रहा है व कर रहा है। परन्तु उसे अपने इस उद्देश्य की सिद्धि में सफलता मिलना तो दूर रहा उल्टा, ज्यों-ज्यों दवा की त्यों-त्यों रोग बढ़ता ही गया, यह कहावत चरितार्थ हो रही है। इसका कारण इन शक्तियों का गलत उपयोग अर्थात् दुरुपयोग ही है। इस दुरुपयोग का मूल कारण उसकी यह भ्रान्त व मिथ्या मान्यता है कि सुख इन्द्रियों के विषयभोगों की पूर्ति में व विषयभोगों की सामग्री की उपलब्धि में है। इस मान्यता में रही भ्रान्ति को समझने के लिए कामनापूति से मिलनेवाले किसी भी विषय-सुख का विश्लेषण करना होगा। विषय-सुख की यथार्थता
उपर्युक्त तथ्य को समझने के लिए यहाँ भोजन से प्राप्त होने वाले सुख को ही लें। किसी तीन दिन के भूखे व्यक्ति को उसका मनचाहा स्वादिष्ट भोजन मिला, उसने भोजन करना प्रारम्भ किया तो उसे बड़ा सुख प्रतीत हुआ। परन्तु जैसे-जैसे वह ग्रास लेता गया वैसे-वैसे वह सुख घटता गया, क्षीण होता गया। जितना सुख पहले ग्रास के लेने में मिला, उतना सुख दूसरे ग्रास के लेने में नहीं रहा, हर अगले ग्रास में सुख कम होता गया और अन्त में सुख या रस बिल्कुल नहीं रहा। वह सुख या रस नीरसता में बदल गया। फिर उसे कोई बीस-तीस ग्रास और खाने के लिए कितना ही लोभ दे या भय दिखावे, वह और खाने के लिए अपनी असमर्थता प्रकट करेगा। यही बात सुनने के सुख पर भी चरितार्थ होती है। कोई कितना ही मधुर गाना हो, उस गाने की कैसेट बार-बार सुनी जाय तो उसका सुख हर बार, हर क्षण क्षीण होता जायेगा और अन्त में उससे ऊब हो जायेगी, नीरसता पा जायेगी। देखने के सुख को लें। कोई विदेशी हजारों रुपया व्यय करके आगरा के ताजमहल की सुन्दरता को देखने के लिए भारत पाता है और ताजमहल को देखते ही बड़ा सुख अनुभव करता है, परन्तु वह सुख क्षण-प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है । फिर एक क्षण ऐसा आता है कि उसका यह देखने का सुख नीरसता में बदल जाता है तब वह देखने से ऊब कर वहाँ से जाने को उद्यत हो जाता है और चला जाता है। इससे यह परिणाम निकलता है कि इन्द्रियों से मिलने वाला सुख प्रथम क्षण जितना अगले क्षण नहीं रहता है, प्रति क्षण क्षीण होता हुआ वह सुख सूख जाता है, समाप्त हो जाता है, अतः क्षणिक है; अक्षय, नित्य, शाश्वत नहीं है।
वस्तुतः विषय-सुख, सुख नहीं सुखमात्र है। जैसे सिनेमाघर में पर्दे पर घटनाएँ सत्य व अभिनेता सजीव दिखाई देते हैं परन्तु वे यथार्थ में सत्य व सजीव होते नहीं हैं, सत्यता व सजीवता का आभास होता है । इसी प्रकार विषय-सुख यथार्थ में होता, उसका अस्तित्व होता तो हमें किसी न किसी प्रकार का सुख तो हर समय मिलता ही रहता है, वह मिला हुमा सुख ढेर सारा इकट्ठा हो जाता । परन्तु सुख का इकट्ठा होना, बढ़ना तो दूर रहा, उसमें से किसी भी सुख का वर्तमान में अस्तित्व ही न रहा। यदि भोग्य वस्तु व भोक्ता के न रहने पर सुख न रहता होता तब भी यह माना जा सकता था कि वस्तु की प्राप्ति के साथ सुख का संबंध है। परन्तु हम सब का अनुभव यह है कि जिस वस्तु से सुख मिला उस भोग्य वस्तु के विद्यमान रहते, जिस इन्द्रिय के साधन से सुख भोगा उस इन्द्रिय व उसकी भोगने की शक्ति के विद्यमान
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वीतराग-योग | २९
रहते और जिस व्यक्ति ने सुख भोगा उस भोक्ता व्यक्ति के भी विद्यमान रहते अर्थात भोग्य वस्तु, भोग का साधन, भोग की शक्ति एवं विषय सुख प्राप्ति के भोक्ता ये चारों तत्त्व ज्यों के त्यों विद्यमान रहने पर भी सुख नहीं रहता है। ऊपर के ताजमहल वाले उदाहरण में देखने के सुख को ही लें, ताजमहल के देखने से सुख मिलने का संबंध होता तो ताजमहल, वहाँ स्थित उसका पहरेदार व उसकी नयन की शक्ति, इन सबके विद्यमान रहते हुए भी पहरेदार को देखने का लेशमात्र भी सुख नहीं मिलता है। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि इन्द्रियों की विषयवस्तु की प्राप्ति से सुख मिलता है, यह मान्यता भ्रान्त व मिथ्या है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर यह सुख मिलता कैसे है ? आगे इसी प्रश्न के समाधान पर प्रकाश डाल
सुख कामनापूर्ति में नहीं, कामना के अभाव में है
__ कामना की पूर्ति से जिस सुख की प्रतीति होती है, वस्तुतः उस सुख का कारण कामनाओं का अभाव तथा निष्काम होना है, न कि कामनाओं की पूर्ति तथा पूर्ति के लिए उपलब्ध वस्तुएँ । कारण कि कामना या भोगेच्छा की पूर्ति के समय जो वस्तुएँ उपलब्ध हुईं वे वस्तुएँ पहले भी विद्यमान ही थीं, नवीन नहीं उत्पन्न हई। केवल उनकी दूरी कम हुई है, पहले दूर थीं अब कुछ, निकट आ गई हैं । अत: उन वस्तुओं से सुख मिलता होता तो पहले भी मिलता । दूसरी बात यह है कि वस्तुएँ मिलकर भी प्रात्मरूप नहीं हो जाती हैं, आत्मा से अलग ही, भिन्न ही रहती हैं। जो प्रात्मरूप नहीं हैं, आत्मा से भिन्न हैं वे पर हैं । पर से आत्मा को सुख की उपलब्धि होना संभव नहीं है। पर पदार्थों से प्रात्मा को, अपने को सुख की प्राप्ति होती है, ऐसा मानना अपना पर के प्राधीन मानना है। दूसरे शब्दों में अपने को पराधीन बनाना है। यही नहीं, कामनापूर्ति के समय जिस सुख की प्रतीति होती है वह सुख भी उस समय कामना के न रहने से कामना के अपूर्तिजन्य दुःख के मिट जाने से मिलता है। कामनापूर्ति के समय कामना नहीं रहती अर्थात् कामना का अभाव हो जाता है, कामना का अभाव हो जाने से कामना की उत्पत्ति से पैदा हुई अशांति व दुःख मिट जाता है । अशांति व दुःख के मिट जाने से ही शांति व सुख की अनुभूति होती है । अतः वह सुख भी कामना के प्रभाव से मिलता है । तात्पर्य यह है कि सुख कामना के अभाव में है, कामनापूर्ति में नहीं। कारण कि कामनापूर्ति के समय वही स्थिति हो जाती है जो कामना उत्पत्ति से पूर्व थी अर्थात कामना का प्रभाव था।
सम्यग्ज्ञान-दर्शन का साधना: भेदविज्ञान
प्राशय यह है कि विषय-भोग का सुख सुखाभास है, मिथ्या है तथा कामनापूर्ति में निमित्तभूत वस्तुओं की उपलब्धि या परपदार्थ सुख-दुःख के कारण नहीं हैं । इस तथ्य का बोध होना ही सम्यग्ज्ञान है। इस बोध के होने में कामनाउत्पत्ति-पूर्ति का चक्र रूप ग्रंथि का भेदन हो जाता है और साधक कामनाओं व कामनापूर्ति में निमित्त वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति प्रादि पर-पदार्थों से परे हो जाता है । ऐसा होते ही उसे तत्काल निराकुल सुख व शांति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है, स्वानुभूति व स्वरूप का दर्शन होता है, यही सम्यग्दर्शन है।
स्व-पर का भेद समझकर स्व को पर से भिन्न अनुभव करने को जैन ग्रन्थों में भेदविज्ञान कहा है । यह भेदविज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान का सार है । कहा भी है
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पंचम खण्ड | ३०
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ।
यदन्यदुच्य ते किंचित् सोऽस्तु तत्स्यैव विस्तारः॥ -इष्टोपदेश ५० अर्थात् जीव शारीरिक पुद्गल से भिन्न है और पुद्गल जीव से भिन्न है, यही ज्ञान का सार है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है, वह सब इसी का विस्तार है।
अर्चनार्चन
भेदाभ्यास
जिस प्रकार जैनदर्शन में स्व-पर या जड़-चेतन के भेद को भेदविज्ञान कहा है, इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में संयुक्तनिकाय में आत्मा-अनात्मा के भेद को भेदाभ्यास कहा है। वहाँ स्व के स्थान पर आत्मा शब्द का और पर के स्थान पर अनात्मा शब्द का प्रयोग है। यह प्रात्माअनात्मा शब्द जैनदर्शन के स्व-पर शब्द के ही समानार्थक हैं। जिस प्रकार जैनसाधना में अजीव को जीव मानना मिथ्यात्व कहा है; अजीव अर्थात् पुद्गल निर्मित शरीर, धन, धाम, धरा प्रादि में जीवन बुद्धि का होना, उनके अक्तित्व से अपना अस्तित्व मानना मिथ्यात्व है और अजीव को जीव (स्व) से भिन्न समझना सम्यग्ज्ञान है। ठीक इसी प्रकार बौद्धदर्शन में अनात्म को स्व (प्रात्मा) से भिन्न समझना सम्यग्ज्ञान कहा है। जिस प्रकार जैन विचारकों ने तन, मन, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस आदि को अनात्म कहा और उनमें प्रात्म-बुद्धि न रखने का निर्देश दिया, उसी प्रकार बौद्ध प्रागमों में भी इन सब को अनात्म कहा और उनमें आत्मबुद्धि न रखने पर जोर दिया। दोनों ही परम्पराओं में भेद-ज्ञान या भेदाभ्यास को साधना का सोपान माना है । इसको योगदर्शन में विवेकजज्ञान कहा जा सकता है।
जिस प्रकार जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन व सम्यग्दष्टि शब्द का बड़ा महत्त्व है व इसका व्यापक रूप में प्रयोग हुअा है, इसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी सम्यग्दर्शन व समदृष्टि शब्द का साधना में बड़ा महत्त्व है तथा व्यापक रूप में प्रयोग हुमा है। योगदर्शन में सम्यग्दर्शन के अर्थ में विवेकख्याति शब्द का प्रयोग हुआ है और उसका महत्त्व जैन बौद्ध दर्शन के समान ही प्रात्मा, अनात्मा के भेदज्ञान व दर्शन के रूप में स्वीकार किया है।
चारित्र-साधना : संयम-संवर
यह नियम है कि व्यक्ति अपने ज्ञान और दर्शन अर्थात् विचार और विश्वास के अनुसार ही जीवन में विचरण या पाचरण करता है । आचरण या प्राचार से ही चारित्र-गठन होता है, अतः प्राचार को शास्त्रीयभाषा में चारित्र कहा गया है। अर्थात् ज्ञान-दर्शन का जीवन में आदर करना-पाचरण करना ही चारित्र है।
चारित्र की आधारशिला या बीज विचार व विश्वास अर्थात् ज्ञान व दर्शन है। यदि ज्ञान-दर्शन सम्यक है तो चारित्र भी सम्यक होगा। सम्यक् चारित्र से ही शांति, मुक्ति की प्राप्ति रूप उद्देश्य की सिद्धि होती है, असम्यक् या मिथ्या चारित्र से नहीं। असम्यक चारित्र को ही पाप कहा जाता है। अतः पाप से विरत होकर पापत्याग का व्रत लेना सम्यकचारित्र है। सम्यकचारित्र को जैन व बौद्ध धर्म में संवर, संयम या शील कहा है, योग में यम से प्राणायाम तक कहा है।
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वीतराग-योग/ ३१
संयम-शील-यम
पाप प्राणी के प्रान्तरिक या पात्मिक विकारों या दोषों का ही अपर नाम है। दोष ही दुःख के कारण हैं। अतः दोषों की वृद्धि से दुःख की वृद्धि, दोषों की कमी से दुःख की कमी एवं दोषों के प्रभाव से दुःख का अभाव होता है। दोष दो रूप में प्रकट होते हैं, यथामानसिक एवं ऐन्द्रियक । मानसिक दोषों को कषाय एवं ऐन्द्रियक दोषों को विषय कहा जा सकता है। ये ही विषय, कषाय समस्त दुःखों के कारण हैं अतः पाप हैं। इनकी अभिव्यक्ति जिन कार्यों में होती है, उन कार्यों को भी पाप कहा जाता है। पाप मुख्यतः पाँच हैं, यथाहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ।
साधक के लिए इनका त्याग अनिवार्य है। कारण कि हिंसा के त्याग से क्रूरता मिटकर मित्रता, प्रात्मीयता, दया, करुणा, सर्वहितकारी प्रवृत्ति का प्रसार होता है । झूठ के त्याग से अविश्वास मिटकर विश्वास, सत्यता व प्रामाणिकता का प्रादुर्भाव होता है। चौर्यकर्म के त्याग से शक्ति, सम्पत्ति व अधिकार का अपहरण व शोषण मिटकर नैतिकता व समता को बढ़ावा मिलता है। कुशील के त्याग से व्यभिचार, दुराचार मिटकर सदाचार का पोषण होता है। परिग्रह के त्याग से संग्रहवत्ति, विषमता व संघर्ष मिटकर समता व शांति का विस्तार होता है।
उपर्युक्त दोषों के मिटने से दुष्टता का नाश एवं शिष्टता का पोषण व धर्म का प्रचार व प्रसार होता है। जिससे वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक व राजनैतिक, आर्थिक, आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्रों की समस्याएं समाप्त होती हैं व सर्वत्र सुख-शांति का साम्राज्य हो जाता है।
ये पांचों पापरूप दुष्प्रवृत्तियां चित्त को प्रशान्त बनाती हैं, अन्तःकरण में अन्तर्द्वन्द्व पैदा करती हैं। हृदय में कठोरता, क्रूरता, रुद्रता, जड़ता, निर्दयता, दानवता को जन्म देती हैं । समाज और संसार में संघर्ष, कलह, क्लेश और कष्ट उत्पन्न करने वाली हैं । अतः शांतिप्रेमी साधक के लिए इनका त्याग करना अर्थात् अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अपनाना आवश्यक है। जैनधर्म में इन दुष्प्रवृत्तियाँ के पूर्ण त्याग व व्रत को संयम या महाव्रत और आंशिक त्याग को अणुव्रत कहा है। बौद्धधर्म में पंचशील कहा है, केवल अपरिग्रह के स्थान पर मद्य-निषेध (अमूर्छाभाव) कहा है तथा अष्टांगिक मार्ग में प्राणातिपात, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य के त्याग को सम्यक् कर्मान्त में एवं मृषावाद के त्याग को सम्यक् वाचा में स्थान दिया गया है ।
जैनदर्शन में जिसे संयम या महाव्रत कहा है, उसी को योगदर्शन में यम (महाव्रत) कहा है। यथा-अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । जातिदेशकाल-समयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम् ।-योगशास्त्र २-३०, ३१ । अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं और इनका जाति, देश, काल व समय की सीमा से रहित होकर पूर्ण रूप से पालन करना महाव्रत है।
यही नहीं प्राज जो विश्व के समस्त देशों की सरकारों ने यहां तक कि धर्म और ईश्वर का अपलाप करने वाले साम्यवादी विचारधारा वाले देशों के विधानों में भी
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / ३२
सामान्य नागरिक के लिए भी हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह-शोषण को दण्डनीय अपराध माना है अर्थात् अनाचार माना है ।
इन दुष्प्रवृत्तियों या दोषों का त्याग मानवमात्र के लिए कर्तव्य है तथा साधक के लिए साधना की भूमिका है। इन दोषों के त्याग के बिना साधना पथ पर एक कदम भी आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि दुष्प्रवृत्तियों में क्रूरता की प्रबलतां होने से इनको जैनधर्म में रौद्रध्यान कहा है, जो त्याज्य है ।
इन पाँचों पापों का संसार से सम्बन्ध है । इनमें संसार से सुख लेने व दुःख देने की प्रवृत्ति होती है । सुख लेने से रागात्मक और दुःख देने से द्वेषात्मक सम्बन्ध का बन्ध हो जाता है । जिससे पराधीनता, क्षोभ, प्रभाव, नीरसता का दुःख होता है । अतः ये प्रवृत्तियाँ पतनकारी हैं, इन्हें जैनधर्म में पाप, बौद्धधर्म में अकुशल कर्म और योग में क्लेश कहा है, तथा पाप, अकुशल कर्म व क्लेश को त्याज्य बताया है यतः संसार से सम्बन्ध या बन्धन तोड़ने का उपाय है (१) संसार से सुख लेने व दुःख देने का त्याग करना, (२) संसार से प्राप्त वस्तु संसार के भेंट करना अर्थात् अपनी शक्ति, सुविधा व सुख की सामग्री को दुःखियों, दुःख से करुणित होकर उनकी सेवा में लगाना सेवा से वर्तमान उदयमान राग निर्जीव होता है तथा राग का उदात्तीकरण होकर प्रेम में रूपान्तरण हो जाता है, जो कल्याणकारी है | अतः सेवा को जैनधर्म में पुण्य, बौद्धधर्म में कुशलकर्म एवं योगदर्शन में भावना कहा है एवं अपनी साधनाओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। नियम : शिक्षाव्रत
पहले कह लाए हैं कि समस्त दोषों व दुःखों से मुक्ति पाना हो समस्त दोषों व दुःखों का मूल है 'विषयसुख' प्रतः विषयसुख पर विजय की साधना है ।
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मुक्ति या मोक्ष है। पाना ही मुक्ति
दोषों के त्याग रूप निषेधात्मक या निवृत्तिरूप साधना तो सहज स्वाभाविक होती है। इसमें खतरा नगण्यवत् होता है परन्तु प्रवृत्ति में यह बात नहीं है। प्रवृत्ति बहिर्मुख बनाती है, अतः प्रवृत्ति में साधक को विशेष सजगता की श्रावश्यकता होती है। कारण कि प्रवृत्ति में पर का श्राश्रय लेना होता है । पराश्रय स्वाधीनतारूप मुक्ति में बाधक होता है। प्रवृत्ति व प्रवृत्ति का परिणाम विनाशी होता है । विनाशी का संग अविनाशी (भ्रमरत्व ) की प्राप्ति में बाधक होता है। प्रवृत्ति से पंचलता, गतिरूप अस्थिरता होती है, जिससे अशांति उत्पन्न होती है जो शांति में बाधक है । प्रवृत्ति में श्रम होता है । श्रम से शक्ति का ह्रास होता है, जिसमें थकान व श्रसमर्थता श्राती है, जो सामर्थ्य (वीर्य) की बाधक, विघ्न व अंतराय रूप होती है। भाव यह है कि प्रवृत्ति मुक्ति, शांति, अमरत्व व सामर्थ्यरूप उद्देश्य की सिद्धि के लिए विघ्न रूप है तथा प्रवृत्ति से बचने में ही साधक का हित है अतः साधक के लिए विषयभोग की प्रवृत्तियों का पूर्ण त्याग करना आवश्यक है ।
परन्तु पाँचों इन्द्रियों, मन, वचन, काय इनकी प्रवृत्तियों का सदा के लिए पूर्ण त्याग कर देना संभव नहीं है। कारण कि कान हैं तो शब्द या ध्वनि सुनने का काम करेंगे ही। चक्षु हैं तो देखने की प्रवृत्ति होगी ही नाक से सूंघने की, जीभ से स्वाद की मन से चिंतन की, वचन से
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वीतराग- योग / ३३
बोलने की और काया से चलने-फिरने, खाने-पीने की प्रवृत्ति होगी ही । इन प्रवृत्तियों का पूर्ण रोका जाना असंभव है। इनका संवरण ही संभव है। यही इनका संवर या संयम है। संवरण का अर्थ है प्रवृत्तियों को भोगों की ओर जाने से रोकना तथा सीमित, नियमित व व्यवस्थित करना । जैसे श्राहार में शरीरनिर्वाह के लिए जितनी वस्तुएँ लेनो हैं, जितनी बार लेनी हैं, जिस समय लेनी हैं, जितनी मात्रा में लेनी हैं उसका नियम करना और उस नियम का लेशमात्र श्री भंग नहीं करना | संयम में प्रवृत्ति का पूर्ण त्याग होता है और नियम में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सीमा में त्याग होता है। संयम और नियम में यही धन्तर है ।
नियम की इसी प्रक्रिया को जनदर्शन में विधिवत् प्रस्तुत करते हुए माठ संवर, तीन गुणवत स्थान में आठ संवर कहे हैं, यथाघाणइन्द्रियसंबर (४) रसनाइन्द्रियवचनसंवर और (८) कायसंवर ।
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व चार शिक्षाव्रत का विधान है। स्थानांग के आठवें (१) श्रोत्रइन्द्रियसंबर ( २ ) चक्षुइन्द्रियसंबर (३) संवर (५) स्पर्शनइन्द्रियसंवर (६) मनसंवर (७) इन्हीं माठ संवरों को नियमबद्ध करने के लिए गुणव्रत व शिक्षाव्रत कहे हैं। भोगों को द्रव्य से नियमित करने के लिए भोगोपभोगपरिमाणव्रत, प्रतिथिसंविभागव्रत क्षेत्र व काल से नियमित करने के लिए दिग्व्रत व देशावकासिकव्रत भाव से नियमित करने के लिए धनदंडत्याग, सामायिक व पोषव्रत कहे हैं । बौद्ध दर्शन में इन्हें साठ या द शील के रूप में कहा है। जिनमें पौषध मुख्य है। पौषध व्रत का स्वरूप व विधान लगभग वैसा ही है जैसा जैनदर्शन में पौषधत्रत का जैन व बौद्ध दोनों दर्शनों में पौषध ( पोषय) में माला धारण, नृत्य-वादन संगीत का त्याग, स्वर्णरजत आदि के भूषणों व विभूषा का त्याग महाशय्या - गड़ा आदि पर शयन का त्याग करना कहा है तथा कृष्ण व शुक्ल इन दोनों पक्षों की भ्रष्टमी व चतुर्दशी तथा अमावस्या व पूर्णिमा इन छः तिथियों में साधक को पोषध या पोषच करने का विधान बताया है। अतिथिसंविभाग के स्थान पर बौद्धदर्शन में भिक्षुसंघ संविभाग कहा है, परन्तु इन दोनों का भाव एक ही है ।
योगदर्शन
में 'शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः' (योग. २-३२) कहा है अर्थात् शौच पवित्रता संतोष, समता, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान नियम हैं । यहाँ भी प्रकारान्तर से प्रवृत्तियों के नियमन को ही नियम कहा है।
इन्द्रियों के नियमन से भोगेच्छा का नियमन हुआ, जिससे प्रप्राप्त मनोज्ञ भोगों को पाने की, प्राप्त मनोज्ञ भोगों को बनाये रखने की समनोज्ञ विषयों व रोगादि को दूर करने की इच्छा या प्रवृत्ति का स्वाग हुआ। इसी को जैनदर्शन में प्रातंध्यान का त्याग कहा है। इससे आक्रंदन- रुदन, शोक-चिन्ता, खिन्नता व विलाप रूप दुःख स्वतः दूर हो जाते हैं । बहिर्मुखी वृत्ति रोकने में तथा साधना में सहायक श्राहार- बिहार, रहन-सहन, भाषण - भ्रमण आदि के सभी नियमों को योगदर्शन में 'नियम' ओर जैन-बौद्ध साधनामों में शिक्षाव्रत या शील कहा है।
इस प्रकार संयम या यम- महाव्रत से रौद्रध्यान का और नियम से प्रार्त्तध्यान का प्रांतिक निवारण हुआ जिससे चित्त बहिर्मुखी वृत्तियों से हटकर अंतर्मुखी होने योग्य हुआ । परन्तु अंतर्मुखी होने के लिए शारीरिक स्थिरता एवं मानसिक शांति का होना आवश्यक है ।
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पंचम खण्ड / ३४
अर्चनार्चन
शारीरिक स्थिरता के लिए प्रासन एवं मानसिक शांति के लिए प्राणायाम उपयुक्त उपाय हैं । अतः साधना में प्रासन और प्रणायाम को भी स्थान दिया गया है। आसन : तन की स्थिरता
जब तक तन अस्थिर है तब तक चित्त का स्थिर होना कठिन ही है। अत: चित्त को स्थिर करने के लिए तन का स्थिर होना आवश्यक है। तन की स्थिरता है बिना हिले-डुले स्थिरता व सुखपूर्वक बैठना। इसी को प्रासन कहा गया है, यथा-'स्थिरसुखासनम्' (योग २-४६)।
ध्यान-साधना के लिए पद्मासन, सिद्धासन अथवा अन्य कोई प्रासन-विशेष आवश्यक हो, ऐसा जैन, बौद्ध एवं योग इन तीनों साधना-पद्धतियों में कहीं नहीं कहा गया है। तीनों ही में स्थिर सुखासन को महत्त्व दिया गया है। यह अलग बात है कि शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से विविध प्रासनों का भी अपना महत्त्व है। परन्तु ध्यान-साधना के लिए विविध प्रासनों को जानना व करना आवश्यक नहीं है।
'स्थिरसुखासनम्' सूत्र में 'स्थिर' का अर्थ है शरीर हिले-डुले नहीं और सुखपूर्वक बैठने का अभिप्राय है शरीर में कहीं तनाव न रहे, ऋजु रहे, सारा शरीर शिथिल-ढीला रहे। इसके साथ यह भी ध्यान रहना आवश्यक है कि रीढ की हड्डी सीधी रहे । जिससे निरन्तर चार-पांच घंटे या अधिक लम्बे समय तक ध्यान में स्थिरतापूर्वक बैठने में कठिनाई न हो। मौन
आसन है तन की स्थिरता, तन का मौन । इसके साथ वचन की स्थिरता अर्थात् वचन का मौन व मन का मौन भी आवश्यक है । मन की मौन अर्थात् मन की स्थिरता के लिए आगे के प्रकरण में 'प्राणायाम' का विधान किया गया है । ध्यान-साधक के लिए मन, वचन, तन इन तीनों का मौन अनिवार्य है। बौद्धधर्म में इसे प्रार्य मौन कहा है। मौन 'संवर' का ही द्योतक है। प्राणायाम : चित्त की स्थिरता
प्राणी का जीवन प्राणशक्ति पर निर्भर है। अतः प्राणी को अपनी प्राण शक्ति व्यर्थ व्यय नहीं करना चाहिये। जनदर्शन में प्राण दस कहे हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण (२) चक्षुरिन्द्रियबलप्राण (३) घ्राणेन्द्रियबलप्राण (४) रसनेन्द्रियबलप्राण (५) स्पर्शनेन्द्रियबलप्राण (६) मनोबलप्राण (७) वचनबलप्राण (८) कायबलप्राण (९) श्वासोच्छ्वासबलप्राण और (१०) आयुष्य (जीवनशक्ति) बलप्राण। इन दशों में बल को अर्थात् शक्ति को प्राण कहा है। उक्त इन दस प्राणों की शक्ति का ह्रास न होने देना, ह्रास रोकना प्राणों की रक्षा है, वही प्राणायाम है। प्राणशक्ति का ह्रास होता है प्रवत्ति से। इसलिए इन सब की प्रवृत्ति या गति पर नियंत्रण रखना है, यही प्राणायाम है ।
प्राणों की प्रवृत्ति से हल-चल, चंचलता अस्थिरता होती है, जिससे चित्त की शांति भंग होती है। साधक को अंतर्मुखी होकर पर से स्व तक पहुँचना होता है और अंतर्मुखी होने के लिए चित्त का शान्त होना आवश्यक है। अतः साधक के लिए अंतर्मखी होने की साधना करते समय इन प्राणों की प्रवत्ति रोकना आवश्यक है।
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वीतराग-योग | ३५
इन प्राणों की प्रवृत्ति का श्वास की गति से सीधा सम्बन्ध है। जैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय आदि इन्द्रियां, मन, वचन, काय भोग के लिए प्रवृत्ति करते हैं, वैसे ही श्वास की गति तीव्र हो जाती है । श्वास की गति की तीव्रता-मंदता भोगप्रवृत्ति की तीव्रता-मंदता की द्योतक है। श्वास इनका मापकयंत्र (थर्मामीटर) है । जैसे-जैसे अंत:करण में भोग प्रवृत्ति घटती जाती है, चित्त शांत हो जाता है वैसे-वैसे श्वास स्वतः धीमा-मंद व सूक्ष्म होता जाता है । अतः श्वास इन प्राणों में प्रमुख है तथा प्राणी का जीवन श्वास पर निर्भर करता है, श्वास रुकने पर कुछ क्षणों में मृत्यु हो जाती है, अतः जैनदर्शन ने और साथ ही बौद्ध व योगदर्शन ने भी श्वास को प्राण कहा है और श्वासोच्छ्वास को प्राकृत व पाली भाषा में 'पानापान' कहा है।
योगदर्शन में प्राणायाम का वर्णन करते हुए कहा है-तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः। -योगदर्शन २-४९ । अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति का विच्छेद प्राणायाम है।
यहाँ 'श्वास-प्रश्वास की गति के विच्छेद' का अभिधा में अर्थ करें तो 'श्वास का रोकना' अर्थ होगा। श्वास को रोकना मृत्यु को आमंत्रण देना है। अतः 'श्वास रोकना' अर्थ उपयुक्त नहीं है। यहाँ इस सूत्र का लक्षणा में अर्थ करना उपयुक्त होगा अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति के विच्छेद का अनुभव प्राणायाम है, जैसा कि इसके अगले सूत्र में स्पष्ट कहा है
'बाह्याभ्यन्तर स्तम्भवृतिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घः सूक्ष्मः।-योगदर्शन २-५० ।
अर्थात बाह्य-प्राभ्यंतर और स्तम्भ रूप किस देश (क्षेत्र या स्थान) और किस काल अर्थात् कहाँ पर और कब दीर्घ और सूक्ष्म श्वास का अनुभव होता है, यह प्राणायाम है। योगदर्शन के इन सूत्रों में व अन्यत्र कहीं भी भीतर या बाहर श्वास को रोकने रूप कभक करने का निर्देश या विधान का उल्लेख नहीं है।
योगदर्शन के इन सूत्रों के अनुभूतिपरक वास्तविक अर्थों को समझने के लिए बौद्धदर्शन के दीर्घनिकाय ग्रंथ के सतिपट्टान सूत्र में पाए 'आनापानसति' प्रकरण को देखना अधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकरण में कहा गया है कि 'पानापान साधना' करता हुअा साधक हर आने वाले और जाने वाले श्वास की स्मृति, जानकारी बनाए रखता है। स्वाभाविक श्वास दीर्घ हो तो दीर्घ, ह्रस्व, हो तो ह्रस्व, स्थूल हो तो स्थूल, सूक्ष्म हो तो सूक्ष्म जानता हुअा वह श्वास लेता है, छोड़ता है तथा बाहर जा रहा है तो बाहर जा रहा है, भीतर आ रहा है तो भीतर पा रहा है, जानता है।
नासिका के भीतर व बाहर जाता-प्राता हुमा श्वास जिसे विषय कर रहा है, छ रहा है, स्पर्श कर रहा है, उस स्थान पर होने वाले अनुभव (संवेदन) का अवलोकन करना आनापान का अंतिम चरण है । इसे ही योगदर्शन में चतुर्थ प्राणायाम कहा है
बाह्याभ्यंतरविषयाक्षेपी चतुर्थः। योगदर्शन २-५१ ।
अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर-भीतर के विषय का अवलोकन करने वाला चतुर्थ प्राणायाम है।
इस प्रकार देखा जाता है कि योगदर्शन के प्राणायाम सूत्रों और सतिपट्टान के 'पानापान
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पंचम खण्ड / ३६
अर्चनार्चन
सति' सूत्रों में अति साम्य है। योगदर्शन के इन सूत्रों का मर्म प्रकट करने में पानापानसति के सूत्र बड़े उपयोगी हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।
'पानापानसति' के अभ्यास से जैसे-जैसे चित्त श्वास के आवागमन का अवलोकन करते हए शान्त होता जाता है, वैसे-वैसे श्वास की गति स्वतः धीमी, मंद, सूक्ष्म होती जाती है अर्थात् श्वास की गति का विच्छेद होता जाता है, प्राणायाम सधता जाता है।
प्राणायाम या पानापान से चित्त शांत व स्थिर होता है। चित्त की शांति व स्थिरता को बौद्धधर्म में समाधि कहा है । जैनधर्म के अनुसार यहाँ तक संवर की साधना पूर्ण हुई। प्रत्याहार-बाह्मतप : कर्म कृश करने की प्रक्रिया
पूर्वोक्त साधना के क्रम में 'नियम' से इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का संकोच हुअा और 'प्राणायाम' से इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को रोका गया। इस प्रकार इन्द्रिय विषयों से नवीन राग (कर्म-संस्कार) उत्पन्न होना रुका तथा इन्द्रियों का विषयों के सम्मुख होना रुका, इससे नवीन कर्म-बंध होना रुका अर्थात् संवर की प्रक्रिया हुई। परन्तु वर्तमान में जो राग विद्यमान है, उसके क्षय के लिए उसे कसना, कृश करना आवश्यक है। विषयों के विद्यमान राग को कृश करने की, विषयों से विमुख होने की प्रक्रिया को तप कहा जाता है ।
जैनदर्शन में तप दो प्रकार का कहा है-बाह्यतप और आभ्यंतर तप विषयों से विमुख होने की, उन्हें कृश करने की क्रिया बाह्यतप है । बाह्यतप के छः भेद हैं-- अनशन, ऊनोदरी, वत्तिप्रत्याख्यान, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग कायक्लेश और प्रतिसंलीनता।
१. अनशन-पाहार न करना अनशन कहा जाता है। प्राहार त्याग से यहाँ अभिप्राय रसनेन्द्रिय के आहार-अन्न-जल आदि भोजन का त्याग तो है ही, साथ ही शेष इन्द्रियों कान, आँख, नाक, स्पर्शन के आहार, भोग्य-विषय-श्रवण, दर्शन, सूंघना प्रादि का त्याग भी है। अर्थात तप के संदर्भ में आहार का अर्थ इन्द्रियों द्वारा भोग्यसामग्री का भोग करना है और आहारत्याग का अर्थ इनके भोगों का त्याग करना है।
२. ऊनोदरी-जीवनपर्यन्त अनशन नहीं किया जा सकता । शरीर और इन्द्रियों को प्राहार की आवश्यकता होती ही है । अतः जब आहार करना ही पड़े तो आहार अर्थात् भोग्य सामग्री का भोग जितना कम कर सके, उतना कम करना ऊनोदरी तप है।
३. वत्तिप्रत्याख्यान-जो भोजन करना पड़े, उसमें भी वृत्तियों का संकोच करना चाहिए अर्थात विविध प्रकार के रसों के भोग करने की वृत्तियों को त्यागना वत्तिप्रत्याख्यान है। इसका दूसरा नाम भिक्षाचरी है, जिसका अर्थ है पाहार लेने में अपना संकल्प (वत्ति) न रखना। भिक्षा में अर्थात् सहज में जो पाहार मिल जाये उसे ग्रहण करना।
४. रसपरित्याग-वृत्तियों को सीमित कर जो भोजन ले रहे हैं, उस भोजन में भी स्वाद या रस नहीं लेना, समभाव, उदासीनभाव से उसे ग्रहण करना ।
५. कायाक्लेश-काया पर पाने वाले सी, गर्मी, वर्षा आदि कष्टों से अपने को न बचाना, उनसे भय न करना, उन्हें समभावपूर्वक सहन करना ।
६.प्रतिसंलीनता-बाहरी विषयों में गई चित्त-वृत्ति को मोड़कर पुनः निज स्वरूप में संलीन करना।
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वीतराग-योग / ३७
उपर्युक्त छहों तप भोगों के राग को क्रमश: कृश करते हुए बाहर से भीतर की अोर, स्व की ओर लौटने की प्रक्रिया है, इसे प्रतिक्रम भी कहा जा सकता है। विषयों से विमुख होने व उन्हें कृश करने की इस प्रक्रिया को योगदर्शन में प्रत्याहार कहा है, यथा-स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणांप्रत्याहारः । ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम्।।-योगदर्शन ५४-५५। अर्थात् इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ संबंध न होने (रहने) पर चित्त का स्वरूप के अनुकरण या अनुशरण करना प्रत्याहार है अथवा इन्द्रियों का अपने आहार-सूनाना, देखना प्रादि विषयों से वापिस मुड़कर विमुख होकर स्व में लौट पाना प्रत्याहार है । उस प्रत्याहार से इन्द्रियों का उत्कृष्ट वशीकरण होता है । प्राशय यह है कि बाहर दौड़ती हुई इन्द्रियों की वृत्तियों को केन्द्राभिमुख करना, केन्द्र में समेटना प्रत्याहार है । बौद्ध दर्शन में इसे कायानुपश्यना में स्थान दिया जा सकता है।
धारणा अंतर्मुखी अवस्था
बाह्यतप या प्रत्याहार से चित्त निज केन्द्र की ओर अभिमुख हो गया, स्व में स्थित रहने के योग्य हो गया। इससे आगे की साधना अंतर्मुखी अवस्था के विभिन्न स्तरों से सम्बन्धित है, जिसे जैनदर्शन में प्राभ्यंतर तप कहा है। प्राभ्यंतर तप छह हैं-प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग ।
प्रायश्चित-षट्खंडागम की धवलाटीका में प्राय: शब्द को लोकवाची कहा है। अतः चित्त का अपने लोक में अर्थात् देह में स्थित होना, देह से बाहर न जाने देना, स्व में रमण करना प्रायश्चित है।
विनय-अपने भीतर रमण करते हुए-परिक्रमा करते हुए संवेदनाओं के प्रति केवल द्रष्टा रहना, कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव रूप अहंभाव न आने देना विनय है।
वैय्यावृत्य-भीतर में जहाँ कहीं भी चेतना पर पावरण हो, जड़ता हो, ग्रंथि हो, उसे वेध कर व धुन कर बिखेर देना, गला देना वैय्यावृत्य है।
स्वाध्याय-भीतर ही भीतर स्व का अवलोकन करना, स्व में उत्पन्न हुए दोषों को दूर करना स्वाध्याय है।
उपयुक्त प्रांतरिक स्थितियों को योगदर्शन में धारणा कहा जा सकता है। जैसा कि कहा है-देशबन्धाश्चित्तस्य धारणा।-योग. ३-२ । चित्त को किसी देश (स्थान) विशेष में बांधना, अर्थात अपनी देह के भीतर बाँधना, ठहराना, रोकना धारणा है। मन को अपने में ही धारण किए रहना, देह से बाहर न जाने देना धारणा है।
ध्यान-ध्यान पूर्णत: अंतर्मुखी होने की साधना है। इसमें अंतर्मुखी हो अपने अंतर में, देह के भीतर जहाँ चेतना व्याप्त है, वहाँ जो स्व-संवेदन रूप अनुभव हो रहा है उसे तटस्थभाव से, समभाव से देखना है, अनुकूल वेदना के प्रति राग और प्रतिकूल वेदना के प्रति द्वेष नहीं करना है। इस प्रकार राग-द्वेष रहित समभाव में रहते हुए केवलदर्शन, केवलज्ञान प्राप्त करना है।
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पंचम खण्ड | ३८
अर्चनार्चन
ध्यानावस्था में भीतर में स्थित पूर्वकृत भोग-विकार उदीरित होकर उदय में प्राते हैं या ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ, विभूतियाँ प्रकट होती हैं। इन सब के प्रति अपनी ओर से कुछ नहीं करना है न इन्हें बुरा मानना है, न अच्छा मानना, न समर्थन या सहयोग करना है और न विरोध या प्रतिरोध करना है, केवल तटस्थ रहना है, ज्ञाता-द्रष्टा रहना है। इससे कर्म त्वरित गति से उदय में पाते हैं, वे कर्म सघन व जड़तायुक्त होते हैं। उन कर्मों की सघनता, जड़ता को दूर करने के लिए उनका वेधन करना है, उन्हें धुनना है। जिस प्रकार रुई को धुनने से उसके तार बिखर जाते हैं, रुई की सघनता मिट जाती है, फिर उन तारों में बल व मल नहीं रहता है, वे हल्के होकर तितर-बितर हो जाते हैं, इसी प्रकार ध्यान-साधना कर्म धुनने की प्रक्रिया है। जिससे कर्म खंड-खंड होकर बिखर जाते हैं, क्षय हो जाते हैं। इससे सघनता व जड़ता मिटकर चिन्मयता का बोध होता है। ध्यानप्रक्रिया
यहाँ हम ध्यान की प्रक्रिया को बौद्धदर्शन की 'विपश्यना' ध्यान-साधना तथा जैनदर्शन के 'धर्मध्यान' के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। पानापानसति के अभ्यास से, श्वासोच्छ्वास को देखने से चित्त कुछ समय के लिए बार-बार एकाग्र, शान्त व विकल्प-रहित हो जाय तथा नासिका के अग्रभाग पर श्वास के आवागमन के कारण होने वाली संवेदना का अनुभव हो । तदनतर ध्यान की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाय, जो इस प्रकार है
. सर्वप्रथम नासिकाग्र की संवेदना पर एकाग्र हुए चित्त को और अधिक गहरा शांत करके मस्तिष्क पर स्थित तालुरंध्र पर लगाया जाय। जिससे तालुरंध्र पर होने वाली संवेदना का अनुभव होता है। फिर शनैः शनैः मन को खिसकाकर तालुरंध्र के चारों ओर मस्तिष्क पर लगाया जाय, इससे मस्तिष्क पर होने वाली संवेदना का अनुभव होगा। फिर मन को मस्तिष्क से आगे बढ़ाते हुए क्रमशः ललाट, भौंहों, पलकों, बरौनियों, नासिका, दोनों गाल, कान, टोडी पर लगाया जाय एवं दाहिने हाथ के कंधे, भुजा, हाथ, कलाई, हथेली, अंगुलियों के पैरवों, पर मन को लगाया जाय । इसी प्रकार बायें हाथ के कंधे से पैरवों तक मन को लगाया जाय । तदनन्तर गला, सीना, पेट व समस्त सामने के शरीर के भाग पर मन को लगाया जाय । फिर गर्दन, पीठ, कमर पर, पूरे शरीर के पीछे के भाग पर मन को लगाया जाय। फिर दाहिने पैर के कल्हे, जंघा, घटना, पिण्डली, एडी, फाबा व अंगलियों व उनके पैरवों तक लगाया जाय, तदनन्तर बायें पैर में भी इसी क्रम से मन को लगाया जाय ।
इस प्रकार मन देह में सिर से पैर के पैरवों तक चलता ही रहे और जहाँ-जहाँ जो व जैसी संवेदनाएं उस क्षण हो रही हैं, उनको देखता रहे । उन संवेदनाओं के प्रतिक्षण बदलाव का अनुभव कर 'वे अनित्य हैं' इस अनुभतिपरक बोध से समता को पूष्ट करता रहे। संवेदना अनुकूल हो या प्रतिकूल, सुखद हो या दुःखद अथवा असुखद-प्रदुःखद, उनके प्रति समता बनाये रखें, हर्ष-शोक न करें।
ध्यान की इस प्रक्रिया में पहले अपने स्थल शरीर की उपरी सतह पर प्रकट होने वाली संवेदनाओं का अनुभव होता है। उनके प्रति समभाव रखने से अर्थात् समताभाव पुष्ट होने से चित्त स्वत: अधिक से अधिक शान्त, सूक्ष्म व तीक्ष्ण होता जाता है। चित्त के सूक्ष्म व तीक्ष्ण होने से शरीर में सिर से लेकर पैर तक के भीतरी भाग में प्रकट होने वाली सूक्ष्म संवेदनाओं
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वीतराग-योग/ ३९
की अनुभूति होने लगती है। जिससे अपने भीतर पड़े हए चेतन-अर्द्धचेतन-प्रवचेतन के स्तर पर पर्वसंचित कर्म-संस्कार प्रकट होकर सामने आने लगते हैं। संस्कार संवेदनामों के रूप में उदय, क्षीण व नष्ट, निर्जरित होने लगते हैं। समताभाव से तटस्थभाव से राग-द्वेष रूप प्रतिक्रिया रहित देखने से नवीन संस्कारों (कर्मों) का निर्माण तो प्रायः रुक ही जाता है । साथ ही पुराने संस्कार निर्जरित होने लगते हैं, टूटने लगते हैं। इससे अपने भुक्त-भोगों के प्रति राग-द्वेष या ममता करके तथा नवीन कामनाएं पैदा करके जिन संस्कारों का, कर्मों का, मानसिक ग्रन्थियों का सर्जन किया था, उनका विसर्जन होने लगता है। अपने बारे में जो धारणाएँ, प्रतिमाएँ (images) थीं, वे टूटने लगती हैं, अहंकार विगलित होने लगता है। इस अहंकार का टना, गलना ही जैनधर्म में विनय तप कहा है और भीतर स्थित स्थल संवेदना पर समतायुक्त तीक्ष्ण चित्त को एकाग्र करने से उन संवेदनामों का बेधन होने लगता है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में प्राकाश में बादल बिखर कर गलते हैं, वैसे ही संवेदनाएँ, व साथ ही उनके संस्कार बिखर कर विगलित होने लगते हैं। संवेदनाओं को व संस्कारों (कर्मों) को धुनने की इस प्रक्रिया व प्रयास को जैनधर्म में वैयावत तप व बौद्धधर्म में सम्यक् व्यायाम कहा गया है। इसके आगे ध्यान की क्रिया में जब सब स्थल संवेदनाएँ और सूक्ष्म हो जाती हैं और सूक्ष्म संवेदनाएँ गलकर विजित हो जाती हैं तो स्वानुभूति होती है, निजस्वरूप का बोध होता है, वह स्वाध्याय है । इस प्रकार ध्यान की पूर्वावस्था में प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय रूप प्राभ्यान्तर तप से स्थूल व सूक्ष्म शरीर की समस्त संवेदनाएँ तरंगवत् हो जाती हैं । फिर तरंगें भी विसजित हो जाती हैं तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर का या काया का अस्तित्व ही अनुभव नहीं होता है, चेतना प्राकाशवत् शून्य रूप निर्मल हो जाती है। ऐसी कायातीत, देहातीत अवस्था को जैनदर्शन में कायोत्सर्ग कहा जाता है। योगदर्शन में इसे समाधि कहा जाता है, यथा-तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः। -योग. ३-३ । अर्थात् वही ध्यान जब अर्थ (वस्तु) मात्र के भास से रहित हो स्वरूप से शून्य (आकाश) वत् हो जाता है, इसे ही समाधि कहा जाता है । बौद्धदर्शन में इसे स्रोतापन्न या सकदागामी कहा जा सकता है। विपश्यना : धर्मध्यान
जैनदर्शन में धर्मध्यान चार प्रकार का है-(१) प्राज्ञाविचय (२) अपायविचय(३) विपाकविचय (४) संस्थानविचय । ध्यान-साधना में अंतर्यात्रा करते हुए शान्त चित्त से अंतर्जगत की यथार्थता को देखकर सत्य का दर्शन करना प्राज्ञाविचय है, अपने अंतस् में उठने वाले राग, द्वेष आदि विकारों दोषों, अपायों को देखना अपायविचय है। इन विकारों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली चित्त की स्थितियों व संवेदनाओं को देखना विपाकविचय है। विपश्यना ध्यानपद्धति में प्राज्ञाविचय को सम्यग्दर्शन, अपायविचय को कायानुपश्यना, विपाकविचय को वेदनानुपश्यना तथा चित्तानुपश्यना कहा जा सकता है।
जैसे बीज से फल और फल से बीज की उत्पत्ति का क्रम या चक्र चलता ही रहता है, इसी प्रकार राग-द्वेष प्रादि विकारों (अपायों) के संस्कार रूप बीज से वेदना (संवेदना) रूप परिणाम, फल (विपाक) उत्पन्न होता है । उस विपाक में अनुकूल वेदना, संवेदना के प्रति राग, प्रतिकूल वेदना, संवेदना के प्रति द्वेष करने से पुन: संस्कारों (कर्मों) का बीज वपन होता है, वे कर्म संवेदनाओं के रूप में उदय पाकर फल देते हैं । इस प्रकार विकार-उत्पत्ति और
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उसके परिमाण रूप कर्म के बंध व उदय का चक्र चलता ही रहता है । यह नैसर्गिक विधान (नियम) है। ध्यान में इस विधान का साक्षात्कार होता है, उसे धर्मध्यान में संस्थानविचय और विपश्यना में धर्मानुपश्यना कहा है।
अर्चनार्चन
संस्थानविचय या धर्मानुपश्यना में साधक प्रकृति के इस तथ्य का साक्षात्कार करता है कि अपने भीतर कामना, वासना, राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि विकार उत्पन्न होते ही पूरे शरीर के नाड़ीतन्त्र में एक तनाव पैदा होता है और शरीर के श्वसन, पाचन आदि सभी तंत्रों पर उसका प्रभाव पड़ता है। क्रोध उत्पन्न होते ही मस्तिष्क में तनाव पैदा होता है, सिर में दर्द होने लगता है, अाँखें लाल हो जाती हैं, सारे शरीर का रक्तचाप बढ़ जाता है । चिन्ता हुई तो हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, हृदय बैठने लगता है, कभी-कभी हृदय की गति रुक कर मत्यु तक हो जाती है । भय उत्पन्न होने पर उसका प्रहार उदर व प्रामाशय पर होता है। पेट सिकुड़ने लगता है दस्त हो जाती हैं। खुले जंगल में शेर के भय से अच्छे-अच्छे पहलवानों को कपड़ों में दस्त लगते देख जाती हैं।
अभिप्राय यह है कि ऐसा कोई विकार नहीं है जिसके कारण चित्त में व शरीर में संवेदना प्रकट न हो, विषमता न हो, आकुलता न हो। दिन में जितनी बार (सैकड़ों बार) विषय-कषाय रूप विकार उठते हैं और उतनी ही बार चित्त के साथ शरीर में नखशिखान्त तनाव पा जाता है। जिसे दिन में जितनी बार चिंता हुई, क्रोध आया, भय लगा, उतनी ही बार उसका हृदय, यकृत, गुर्दा, पाचनसंस्थान, रक्तसंस्थान प्रादि सब प्रभावित होंगे ही तथा शरीर की रासायनिक प्रक्रिया भी प्रभावित होगी। (इसका विशेष वर्णन लेखक की आध्यात्मिक चिकित्सा के मन से तन सर्जन, प्रकरण में द्रष्टव्य है)।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक विकार या विचार (भावात्मक आवेग) चित्त में तनाव और शरीर पर दबाव पैदा करता है। हम सदैव इन तनावों और दबावों से पीड़ित रहते हैं । विकारग्रस्त व्यक्ति तनाव-त्रस्त तथा दबाव-ग्रस्त होगा ही। अतः तन-मन के इस तनाव, दबाव व द्वन्द्व से मुक्ति का एक ही उपाय है-अपने को निर्विकार बनाना।
ध्यानावस्था में समताभाव से अर्थात् यथाभूत तथागत दृष्टि से सत्य का साक्षात्कार (प्राज्ञाविचय) करते हुए दोषों की उत्पत्ति (अपायविचय) और उनके विपाक (विपाकविचय) तथा उनसे संबंधित नैसर्गिक नियमों (संस्थानविचय) को अनुभव करने से निर्विकारनिर्दोष अवस्था व शांति-मुक्ति का महत्त्व व ज्ञान हो जाता है, जो विकारों को उपशान्त व क्षय करने में सहायक होता है, जिससे कर्ता व भोक्ता भाव गलता है तथा तन, मन शान्त व विश्रान्त अवस्था की स्थिति को प्राप्त होते हैं । फलतः तनाव व दबाव से मुक्ति मिलती है।
धर्मध्यान के पश्चात् शुक्लध्यान में प्रवेश होता है। शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा है- (१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार (२) एकत्व-वितर्क-विचार (३) सूक्ष्म-क्रियाऽप्रतिपाती और (४) समुच्छिन्न-क्रियानिवृत्ति । योगदर्शन में समापत्ति के चार प्रकार कहे हैं(१) सवितर्का (२) निर्वितर्का (३) सविचारा और (४) निर्विचारा तथा बौद्धदर्शन में ध्यान के चार प्रकार कहे हैं-(१) सवितर्क-सविचार-विवेकजन्य प्रीति सुखात्मक (२) वितर्क विचाररहित समाधिज प्रीतिसुखात्मक (३) प्रीति-विराग से उपेक्षक हो स्मृति और
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वीतराग-योग / ४१
सम्प्रजन्य युक्त उपेक्षा स्मृति सुखबिहारी (४) सुख-दुख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-दुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त ।
उपयुक्त ध्यान के विषय में जैन, योग और बौद्ध इन तीनों परम्परानों के भेदों में थोड़े से शाब्दिक अंतर के साथ अत्यधिक साम्य है। विस्तार भय से इसका यहां विवेचन नहीं किया जा रहा है।
ध्यान के विघ्न व उनका निवारण
ध्यान की इस प्रक्रिया में कार्मण शरीर या अवचेतन चित्त में स्थित भुक्तभोग और अभुक्तकामनाओं के जो संस्कार अंकित हैं, वे ध्यान के समय अंतर्मुखी होने पर उभर-उभर कर (उदीरणा होकर) उदय होते हैं, प्रकट होते हैं। साधक इन्हें देखकर घबरा जाता है और मेरा चित्त अशांत हो गया, ऐसा समझकर चित्त को कोसने लगता है, बुरा-भला कहने लगता है। उसे बलपूर्वक दबाने या रोकने का प्रयत्न करता है । परिणाम यह होता है कि वह चित्त से युद्ध करने में ही उलझ जाता है, अटक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता है, अपनी शक्ति का व्यर्थ अपव्यय करने लगता है।
उपर्युक्त स्थिति में साधक को समझना चाहिये कि चित्त में जो सिनेमा की रील की तरह चित्र चल रहे हैं, वे अवचेतन में अंकित पुराने संस्कार (कर्म) हैं, जो नष्ट होने के लिए उदय (प्रकट) हो रहे हैं। यदि साधक उनके प्रति उपेक्षा भाव बरते, असहयोग रखे, चित्त में उदित चित्रों की पूर्ति न करे, उनका समर्थन व विरोध न करे, उन्हें बुरा न माने, उनके प्रति द्वेष न करे, उन्हें साहस और धैर्य के साथ केवल देखता रहे, साथ ही संवेदनाओं का अनुभव भी करता रहे (संवेदनामों का अनुभव न करना द्रष्टाभाव का द्योतक है) तो चित्त के इन चित्रों का दिखाई देना धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। कारण कि संस्कार या कर्म अनन्त नहीं है, सान्त है । अतः धैर्य और गंभीरतापूर्वक देखते चले जायें तो बड़ी द्रुत व त्वरित गति से पूर्व में अंकित सबल संस्कारों के चित्र चित्त पर प्रकट होकर नष्ट हो जाते हैं और शेष रहे संस्कार क्षीण (अपवर्तित) होकर स्वत: नष्ट हो जाते हैं।
ध्यान की उपर्यक्त प्रक्रिया में चक्रभेदन, कंडलिनीजागति, दिव्यज्योति, दिव्यध्वनि, अपने इष्टदेव का दर्शन आदि अनेक विलक्षण विभूतियों का प्रकट होना संभव है। ये विभूतियां बड़ी आकर्षक होती हैं । अतः साधक इनके सुखों का भोग करने लगता है, इन्हें छोड़ना नहीं चाहता है । साधक असावधानी से इन्हें ही परमात्म-दर्शन, प्रभु-साक्षात्कार मानने लगता है। फलस्वरूप वह इन्हीं में रमण करने लगता है और वहीं अटक जाता है, उसकी प्रगति रुक जाती है। यदि साधक इनमें अटके नहीं, विभूतियों के प्रवाह में बहकर भटके नहीं, तटस्थ भाव से इनका द्रष्टा रहे. इनके सुख का भोग नहीं करे तो इन विभूतियों-अनुभूतियों को पार कर इनसे परे पहुँच जाता है। - अंतर्यात्रा के पथिक साधक को मार्ग में रमणीय स्थल मिलें, इसमें कोनसी विचित्र बात है। पर साधक इनके साथ अहंभाव जोड़कर जुड़ जाता है, उन्हें अपनी उपलब्धि मान लेता है
और समझने लगता है कि मुझे गुरु के दर्शन हुए, भगवान् के दर्शन हुए, मैं सौभाग्यशाली हूँ, यह अनुभूति सदैव बनी रहनी चाहिए तो वह अतीन्द्रिय विभूति परिग्रह बन जाती है। परिग्रह
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पंचम खण्ड | ४२
अर्चनार्चन
चाहे संपत्ति का हो, प्रतिष्ठा का हो, पद का हो, भौतिक हो, प्राधिदैविक हो, प्राभ्यंतरिक हो, अतीन्द्रिय विभूतियों का हो, परिग्रह तो परिग्रह ही है, त्याज्य ही है। अतीन्द्रिय विभूतियों का परिग्रह कोई पवित्र नहीं हो जाता । प्राशय यह है कि विभूतियाँ, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ साधक को अटका व भटका सकती हैं। अतः साधक को इनसे सावधान रहना चाहिये । यदि साधक . इनमें अटके-भटके नहीं तो इनका दिखना पीछे रहे जाता है और वह आगे बढ़ जाता है। मुक्ति-अमरत्व-निर्वाण
पहले कह पाए हैं कि साधना का लक्ष्य या फल मुक्ति, अमरत्व व निर्वाण रूप साध्य को प्राप्त करना है, जिसका उपाय है वीतरागता अर्थात् राग का त्याग । विनाशी के राग के त्याग से अमरत्व, पर के राग के त्याग से मुक्ति, संस्कार (कर्म) के राग के त्याग से निर्वाण की अनुभूति या उपलब्धि होती है। जैसा कि मुक्त (सिद्ध) जीवों का वर्णन करते हुए जैनदर्शन में कहा है
जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तण भोयणं कोई। तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो। इय सम्वकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ।। सिद्ध ति य बुद्ध त्ति य, पारगय त्ति य परंपरगय त्ति । उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य॥ णिच्छिणसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंती सासयं सिद्धा॥
(औपपातिकसूत्र-गाथा सं.१८, १९, २०, २१) अर्थात् जिस प्रकार सर्व प्रकार से अभी सिप्त गुण वाले भोजन को करके मनुष्य भूख एवं प्यास से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार (सिद्ध) अमृत से तृप्त होकर विराजते हैं। वे अतुल निर्वाण को प्राप्त कर सब कालों में तृप्त रखते हैं तथा शाश्वत एवं अव्याबाध सुख को प्रा कर सुखी रहते हैं । वे सिद्ध, बुद्ध, पारंगत और परम्परागत (परम्परा से पार गये हुए) कहलाते हैं । कर्मदल से उन्मुक्त होकर वे अजर, अमर एवं प्रसंग हो जाते हैं, सब दु:खों से रहित होकर वे जन्म, जरा, मरण एवं बंधन से मुक्त हो जाते हैं तथा वे सिद्ध अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं । इसी का समर्थन बौद्धदर्शन में भी किया है।
इदमजरं इदममरमिदमजरामणपदमसोकं । असपत्त असम्बाधमक्खलितमभयं निरपतापं ॥
अधिगतमिदं बहहि अमृतं अज्ञापि च लभनीयमिदं। -थेरीगाथाएं ५११-५१३ अर्थात् यह अजर है, यह अमर है, जरा और मरण से विमुक्त पद है। यह शोक रहित है। यहाँ कोई प्रभाव नहीं, बाधा नहीं, स्खलन नहीं, भय नहीं, ताप नहीं । बहुतों ने इस अमृत को प्राप्त किया है और आज भी यह प्राप्त किया जा सकता है।
संयुक्त-निकाय में कहा है
असंखतं वो भिक्खवे देसिस्सामि सच्चञ्च....पारञ्च....अजरञ्च....धुवञ्च.... निप्पपञ्चञ्च....अमतञ्च....सिवञ्च....खेमञ्च....अब्भुतञ्च....विसुद्धिञ्च........दीपञ्च........ ताणञ्च वो भिक्खवे देसिस्सामीति ।
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वीतराग-योग / ४३
अर्थात् भगवान बुद्ध ने एक बार अपने भिक्ष-शिष्यों को संबोधित करके कहाभिक्षप्रो! अब मैं तुम्हें प्रसंस्कृत (कर्मरहित अवस्था) के विषय में देशना दंगा। सत्य का.... पार का....अमर का... ध्रव का....निष्प्रपंच का....अमृत का ...शिव का....क्षेम का... अद्भत का....विशुद्धि का....द्वीप का....त्राण का उपदेश दूंगा ।
इस प्रकार बौद्ध दर्शन में अमृत (अमरत्व), ध्रव, मुक्ति, निर्वाण प्राप्ति का संयुक्तनिकाय, सुत्तनिपात, महामालुक्यसुत्तन्त आदि ग्रन्थों में सैकड़ों स्थलों पर उल्लेख है।
इसे ही योगदर्शन में कैवल्य प्राप्ति व समाधि के रूप में प्रस्तुत किया है। यथापुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।-कैवल्यपाद ३३॥ अर्थात् पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों का अपने कारण में लीन होना कैवल्य है अथवा चिति शक्ति का अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाना कैवल्य है । और भी कहा है
तस्यापि निरोधे सर्व निरोधरानिर्बीजः समाधिः ॥ समाधिपाद-५१ । अर्थात् पर-वैराग्य द्वारा उस ऋतम्भरा प्रज्ञाजन्य संस्कार के भी निरोध हो जाने पर पुरातन सब संस्कारों के निरोध हो जाने से निर्बीज समाधि होती है। इसी को निरालम्ब्य तथा असम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं।
उपर्युक्त तीनों साधनाओं का आधार है पर से स्व की अोर पाना अर्थात् बहिर्मखी से अंतर्मुखी होकर स्व में स्थित होना । अथवा स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढते हुए सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्तर तक पहुंच कर परम शुद्ध कैवल्य ( शुद्धतम) अवस्था को प्राप्त हो जाना।
बाहर से अंदर की अोर पाने का क्रम है संसार, विषय वस्तुएँ, स्थल (औदारिक) शरीर, सूक्ष्म शरीर (चित्त व तेजस) एवं कारण (कार्मण) शरीर तक पहुंचना, फिर इन शरीरों के परे की अवस्था का अनुभव करना ।
यह नियम है कि जो ठहरता नहीं है, रुकता नहीं है वह ही आगे बढ़ता है । ठहरना व रुकना वहीं होता है जहाँ पर रस लेना, रमण करना, संग करना होता है अर्थात् संबंध जोड़ना होता है । अतः रस न लेने, रमण न करने, प्रसंग होने, संबंध विच्छेद करने से ही आगे बढ़ना होता है। आगे बढ़ना ही प्रगति करना है। अतः साधना में प्रगति करने का सूत्र है साधनामार्ग में आने वाले रमणीय स्थलों, अवस्थाओं में रस न ले, इनसे संबंध न जोड़े तथा जिनसे संबंध जोड़ रखा है, उनसे संबंध-विच्छेद कर दे और क्रमश: आगे बढ़ता जाय, यही साधना की प्रक्रिया है, कुंजी है।
साधक को सर्वप्रथम संसार से संबंध-विच्छेद करने के लिए (१) संयम, (२) यम (महाव्रत), (३) पंचशील स्वीकार करना चाहिये।' फिर विषयों के. भोग व भोग्य वस्तुओं से संबंध-विच्छेद करने के लिए (१) शिक्षाव्रत व संवर, (२) नियम, (३) शिक्षाव्रत या दश शील ग्रहण करना चाहिये । तदनंतर स्थूल (औदारिक) शरीर से संबंध-विच्छेद करने, हलचल रोकने के लिए (१) ध्यानमुद्रा, (२) प्रासन, (३) ध्यानावस्था में बैठना चाहिये। सूक्ष्मशरीर अर्थात् चित्त की बहिर्मुखी वृत्ति रोकने के लिए (१) प्रारंभत्याग, (२) प्राणायाम, (३) पानापान१. उपर्युक्त विवेचन में (१) में जैनदर्शन की साधना को, नंबर (२) में योगदर्शन की
साधना को और नंबर (३) में बौद्ध दर्शन की साधना को प्रस्तुत किया गया है ।
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पंचम खण्ड / ४४
अर्चनार्चन
समाधि का अभ्यास करना चाहिये । तत्पश्चात विद्यमान व उदयमान भोगवृत्तियों से प्रसंग होने के लिए, उन्हें कृश करने के लिए (१) बाह्य तप (२) प्रत्याहार (३) कायानुपश्यना-वेदनानूपश्यना को अपनाना चाहिये। फिर चित्त का शोधन करने के लिए (१) प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय तप, (२) धारणा, (३) चित्तानुपश्यना करना चाहिए। तदनंतर कारण (कार्मण) शरीर से प्रसंग होने के लिए (१-२) ध्यान, (३) धर्मानुपश्यना करना चाहिए और . अन्त में देहातीत होने के लिए (१) कायोत्सर्ग, (२) संप्रज्ञातसमाधि, (३) भवांग ध्यान करना उपयुक्त है। फिर कैवल्यप्राप्ति के लिए (१) शुक्लध्यान, (२) समापत्ति, (३) सवितर्कसविचार प्रादि चारों ध्यान करना होता है।
इस प्रकार ऊपर वणित बहिर्मखी से अन्तर्मखी होने की साधना में जैनदर्शन में वर्णित ज्ञान, दर्शन, चारित्र (संवर) और तप रूप साधना का, बौद्धदर्शन में वर्णित शील, समाधि, प्रज्ञा, अष्टांगिक मार्ग का, योगदर्शन में वर्णित अष्टांग योग का समावेश हो जाता है । इन तीनों साधनाओं का लक्ष्य कैवल्य की उपलब्धि कराते हए निर्वाण तक पहुँचना है। इन तीनों साधनाओं का हार्द या प्राण वीतरागता है, ये तीनों वीतराग मार्ग का समर्थन व अनुसरण करती हैं। वीतराग साधना के ही ये तीन रूप हैं। वीतरागता का सिद्धान्त तीनों साधनाओं को समान रूप से स्वीकार्य है। इसके संबंध में इनमें कहीं अन्तर नजर नहीं पाता। इनमें जो अन्तर दिखाई देता है वह इनके विभाजन व वर्गीकरण का है। किसी भी साधना-प्रक्रिया का विभाजन या वर्गीकरण अनेक प्रकार से हो सकता है। उससे मूल वस्तु में कोई अन्तर नहीं पड़ता है।
लेखक द्वारा उपर्युक्त तीनों साधनाओं का प्रस्तुत किया गया साम्य बहुत ही स्थूल व मोटे रूप से है । इसे केवल संकेतात्मक ही समझना चाहिए, निश्चयात्मक व निर्णयात्मक नहीं। महत्त्व इन साधनों के वर्गीकरण या साम्य का नहीं है। महत्त्व है वीतरागता का । जो भी वीतराग पथ है, जिससे राग गलता है, घटता है, दूर होता है तथा वीतरागता की ओर प्रगति होती है, वही साधना है। वीतराग मार्ग नैसर्गिक नियमों पर आधारित है, अतः यह सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक सत्य है, यह किसी संप्रदाय, जाति, वर्ण, वाद व परम्परा से बंधा नहीं है । जो भी इसे अपनाता है उसका कल्याण होता है, उसे तत्काल शांति, मुक्ति, प्रसन्नता की अनुभूति होती है, इसके विपरीत जो साधना वीतरागता के विरुद्ध हो, वीतरागता की अोर न बढ़ाती हो, राग-निवृति में सहायक न हो, राग-उत्पादक व रागवर्द्धक हो-वह साधना नहीं है, विराधना है । वह त्याज्य है ।
___ इस लेख का उद्देश्य जैन, योग व बौद्ध साधना का पक्ष लेना व पुष्ट करना तथा अन्य साधना पद्धतियों को हीन समझना नहीं है। प्रत्युत इन साधनामों में रही हुई वीतरागता को प्रकट तथा पुष्ट करना है । साधना में मूल्य वीतरागता का है, किसी साधना-विशेष का नहीं। जिससे वीतरागता का पोषण हो वही साधना है। वही स्वीकार्य है । अत: इन साधनापथों में अथवा अन्य किसी साधना-पथ में जो बात जिस किसी को जहाँ कहीं भी वीतरागता के विपरीत लगे उसे असाधन समझ कर छोड़ देना चाहिये । इन साधनाओं में भी अनेक मतभेद, विचारभेद, दृष्टिभेद, दार्शनिकभेद, कथनभेद, वर्गीकरणभेद, अर्थभेद, समझभेद
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वीतराग-योग/ ४५
हो सकते हैं। उन्हें एक ओर रखते हुए साधक को केवल वीतरागता का समर्थन करने वाले सूत्रों को ही अंगीकार करना चाहिये । इसी में कल्याण है, निर्वाण है, विमुक्ति है।
भविष्य में वैज्ञानिक विकास के साथ भोगों की विपुल सामग्री उपलब्ध होने वाली है, जो भोगेच्छा को बढ़ाने वाली होगी। भोगेच्छा की वृद्धि के साथ लाभ, लोभ, संग्रह, मान, मद, स्वार्थपरता, संकीर्णता, हृदयहीनता, कठोरता, अकर्मण्यता, अकर्तव्य प्रादि दोषों के भयंकर रूप में वृद्धि होने वाली है। जिसके परिणामस्वरूप अभाव, तनाव, दबाव, द्वन्द्व दीनभाव, होनभाव, नीरसता, निर्बलता, असमर्थता, प्राणशक्ति का ह्रास, संघर्ष, शारीरिक और मानसिक रोग आदि दुःखों की भयावह अभिवद्धि होने वाली है, जिससे मानव का जीना दूभर हो जायेगा। साथ ही मानवजाति के अस्तित्व को खतरा भी हो सकता है। इन दोषों से, दुःख से, नर्क, स्वर्ग, परलोक प्रादि से निरपेक्ष धर्म ही बचा सकता है । अत: मानवजाति को बचाने के लिए ऐसे मार्ग की आवश्यकता है जो निज अनुभव व ज्ञान पर तथा निसर्ग व कारण-कार्य के नियमों पर आधारित हो, ऐसा मार्ग 'वीतराग-मार्ग' ही हो सकता है । अत: वीतराग-मार्ग के अनुयायियों का कर्तव्य है कि वे अपने मतभेद भुलाकर वीतराग-मार्ग को जन-जन तक पहुँचाकर उन्हें दुःख से मुक्त करने में पहल करें।
-अधिष्ठाता, श्री जैन सिद्धांत-शिक्षण संस्थान साधना भवन, ए-९, महावीर उद्यानपथ बजाज नगर, जयपुर (राज.) ३०२०१७
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जैन साधना-पद्धति में ध्यान
[ कन्हैयालाल गौड़, एम. ए., साहित्यरत्न
अनादिकाल से आज तक विश्व में जितनी भी वन्दनीय एवं पूजनीय महान मात्माएं हुई हैं, उन सभी ने अपनी दृढ़ साधना के बल पर ही उच्चता प्राप्त कर अपनी प्रात्मा का विकास किया है और आज भी साधक अपनी दृढ़ साधना के द्वारा आत्मा का विकास कर रहे हैं।
जब साधक के जीवन का प्राध्यात्मिक विकास हो जाता है तो उसके जीवन की साधना तेजस्वी होती है, उसके जान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, दया, क्षमादि धर्म आदि सब पात्मिक गुणों में आत्मिक विवेक सहज, अकृत्रिम, तेजस्वी, सुदृढ़ एवं अविचल हो जाता है।
साधना-पथ पर पैर रखने पर कदम-कदम पर कष्टों और संकटों का सामना करना पड़ता है। साधक की तप-साधना कर्मक्षय के लिये होती है। साधना की तीन श्रेणियाँ हैं(१) ज्ञान (२) तप और (३) चारित्र ।
ज्ञान मनुष्य में मोक्ष और संसार संबंधी विवेक को जागृत कर देता है, प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ भान करा देता है, जिससे मनुष्य विवेक से हेय मार्ग को त्याग कर उपादेय मार्ग को अपना सकता है। इसीलिये भगवान् महावीर का कथन है-"ज्ञान समस्त वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए है, अज्ञान और मोह को मिटाने के लिये है।"
जैनधर्म अन्तरंग की साधना पर विशेष बल देता है, बाह्य साधना पर नहीं। साधना किसी भी तप-जप की हो अथवा व्रत-नियम की हो, वह हृदय की पवित्रता से ही सिद्ध होती है । यदि साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधक का मन पवित्र नहीं है, कलुषित है, विकारों से अोतप्रोत है, तो वह क्षम्य नहीं। संयमव्रत ग्रहण करने से मन में पवित्रता आती है। यदि साधक संयमव्रत को ग्रहण कर साधना करे तो उस साधना में बल पा जाता है। साधक का मन भी पवित्र विचार और स्पष्ट चिन्तन देता रहता है।
साधना में ध्यान का लक्षण
साधना में ध्यान का विशेष महत्त्व है। यदि साधना में चित्त एकाग्र नहीं है तो वह साधना निष्फल जायगी। अतः साधक को साधना करते समय चित्त को एकाग्र रखना आवश्यक है। चित को एकाग्र रखना ही ध्यान है । अथवा अपने लक्ष्य या ध्येय की अोर मन को एकाग्र करने को ही ध्यान कहा है । अपने लक्ष्य में चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है।
एक ही वस्तु में अंतर्मुहूर्तमात्र जो चित का अवस्थान-एकाग्रता है, वह छानस्थिक का ध्यान और योग का निरोध जिनेश्वरों का ध्यान है।
महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित योगशास्त्र में ध्यान के लक्षण को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि धारणा में जहाँ चित्त को धारण किया गया है वहीं पर जो प्रत्यय की एकाग्रता है
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जैन साधना-पद्धति में ध्यान | ४७
विसदृश परिणाम को छोड़ कर जिसे धारणा में पालम्बनभूत कहा गया है, उसी के पालम्बन रूप से जो निरन्तर ज्ञान की उत्पत्ति होती है उसे ध्यान कहते हैं।' प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुये बताया-शुभ प्रतीकों पर एकाग्रता अथवा पालम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण मनीषी-ज्ञानी जनों द्वारा ध्यान कहा जाता है। वह दीपक की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय होता है, सूक्ष्म तथा अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है।
ध्यान के फलस्वरूप वशित्व-आत्मवशता, प्रात्म-नियंत्रण या जितेन्द्रियता अथवा सर्वत्र प्रभविष्णुता, सब पर अक्षुण्ण प्रभावशीलता, मानसिक स्थिरता तथा संसारानुबन्ध-भवपरंपरा का उच्छेद जन्म-मरण से उन्मुक्त भावसिद्ध होता है।
प्राचार्य हेमचन्द्राचार्य रचित योगशास्त्र में निर्दिष्ट किया है-समत्व का अवलम्बन लेने के पश्चात योगी को ध्यान का प्राश्रय लेना चाहिये। समभाव की प्राप्ति के बिना ध्यान के प्रारम्भ करने पर अपनी प्रात्मा विडम्बित होती है। क्योंकि बिना समत्व के ध्यान में भली-भांति प्रवेश नहीं हो सकता । महर्षि कपिलमुनि द्वारा लिखित सांख्यसूत्र में राग के विनाश को और निविषय मन को ध्यान कहा गया है। विष्णपुराण में ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है-अन्य विषयों की ओर से निस्पृह होकर परमात्मस्वरूप को विषय करने वाले ज्ञान की एकाग्रता सम्बन्धी परम्परा को ध्यान कहा जाता है। यह यम, नियमादि प्रथम छह योगांगों से सिद्ध किया गया है।' ध्यान अनुभव की ओर जाने वाला मार्ग है। ध्यान की प्रक्रिया में दो प्रवृत्तियाँ सक्रिय रहती हैं-पाकर्षण, विकर्षण । विकर्षण लौकिकता से और आकर्षण प्रलौकिकता के प्रति यानी प्रात्मस्वरूप के प्रति । यानी इस प्रक्रिया में हम पुद्गल से जीव का जो प्रगाढ़ पाश्लेष है, उसे सम्यग्ज्ञान की प्रखरता के औजार से तोड़ने का प्रयत्न करते हैं, साधन अन्तःज्ञान ही होता है, ध्यान मात्र उसे प्रखरता/तीव्रता/ तीक्ष्णता प्रदान करता है। कहें हम कि ज्ञान, ध्यान पर शान चढ़ाता जाता है और ज्यों-ज्यों हम प्रखर होते हैं, उक्त श्लेष ढीला पड़ता जाता है। ध्यान में संतुलन, समत्व और सम्यक्त्व का शीर्ष महत्त्व है। तत्त्वार्थसूत्र में अनेक अर्थों का पालम्बन लेने वाली चिन्ता के निरोध को, अन्य विषय की ओर से हटा कर उसे किसी एक ही वस्तु में नियंत्रित करने को ध्यान कहा है । अथवा उत्तम (प्रथम तीन) संहनन वाले जीव का किसी एक विषय पर एकाग्ररूप चिन्ता का निरोध ध्यान है।" तत्त्वार्थसूत्र के समान तत्त्वानुशासन में भी एकाग्र
१. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम्। -योगसूत्र ३-२ २. जैन योगग्रन्थचतुष्टय, प्राचार्य हरिभद्र सूरि, पृ. १८१-१८२ (हिन्दी अनुवाद) ३. समत्वमवलमब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् ।
बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते। योगशास्त्र १०५-११२ ४. रागोपहतिया॑नम् । -सांख्यद., ३-३० एवं ६-२५ ५. तद्रूप प्रत्ययैकाग्रय सन्ततिश्चान्य निःस्पृहा।
तद्ध्यानं प्रथमैरङ्गः षभिनिष्पाद्यते नृप ।। -वि० प्र० ६-७-८९
तीर्थकर मासिक, जैन-ध्यान-योग विशेषांक, अप्रेल-८३, पृष्ठ १० ७. उत्तम संहननस्यै काग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ -त० सूत्र०९।२७
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पंचम खण्ड / ४८ चिन्तानिरोध को ध्यान का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है ।" श्राचार्य श्रमितगति ( प्रथम ) विरचित योगसारप्रभूत में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा है कि ग्रात्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले सन्त के होता है, जो उसके कर्मक्षय को करता है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्यानुसारिणी सिद्धसेनगणि विरचित टीका में आगमोक्त विधि के अनुसार वचन, काय और चित्त के निरोध को ध्यान कहा गया
अर्चनार्चन है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान को सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग
से रहित कहा है । १0 भगवती प्राराधना की विजयोदयाटीका में राग-द्वेष और मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है । वहाँ प्रागे एकाग्र चिन्ता निरोध को भी ध्यान कहा गया है । श्रादि पुराण में स्थिर प्रध्यवसान को एक वस्तु का श्रालम्बन लेने वाले मन को ध्यान कहा गया है
ध्यान की आवश्यकता
कर्म का सर्वथा विलय होना मोक्ष है। यानी कर्म और दुःख के बन्धन से सर्वथा छूट जाना मोक्ष है और श्रात्मा का भान हुए बिना उसका होना संभव नहीं है । चित्त की साम्यावस्था के बिना संयमी को भी श्रात्मा का भान होना सुलभ नहीं है, चित्त की साम्यावस्था भी मल और विक्षेप को दूर करने वाले शुभ ध्यान के बिना सर्वथा संभव नहीं है । इसलिए संयमधारियों को मोक्षप्राप्ति के लिए परम्परा से धर्मध्यान और शुक्लध्यान का प्राय लेना चाहिए।
शुभ ध्यान का फल ग्रात्म-साक्षात्कार है और आत्म-साक्षात्कार मोक्ष का साधन है । इसलिए शास्त्रों में ध्यान की परमावश्यकता बतलाई है। जब तक चित्त ध्यान के द्वारा साम्यावस्था नहीं प्राप्त करता और साम्यावस्था के लिए चित्त के मलविशेष रूपी दोषों का नाश नहीं होता तब तक मुमुक्षु को आत्मा का भान नहीं होता । १ ३ इसीलिए कहा है--जो कोई सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं और सिद्ध होंगे वे सब शुभाशय वाले ध्यानतप के बल से ही सिद्धता प्राप्त करते हैं । १४ निर्जरा करने में बाह्यतप से प्राभ्यान्तर तप श्रेष्ठ है, इसमें भी ध्यानतप
८. तत्त्वानुशासन - ५६
९.
ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव प्रस्ता० पृ० २७ उद्धृत
१०. दंसण- णाणसमग्गं झाणं णो प्रण्णदव्वसंजुत्तं । - पंचा० का० १५२
११. भगवती आराधना विजयोदयाटीका - २१ व ७०
१२. प्रदिपुराण
२१-९ १३. मोक्षः कर्मक्षयात्मकः स च भवेनैवात्मभानं विना । तम्दानं सुलभं भवे न यमिनां चित्तस्य साम्यं विना ॥ साम्यं सिद्ध्यति नैव शुद्धिजनकं ध्यानं विना सर्वथा ।
तस्माद् ध्यानयुगं श्रयेन्मुनिवरो धर्म्यं च शुक्लं पुनः ॥ कर्तव्यकौमुदी, २०१५५४ १४. सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति यावन्तः केऽपि मानवाः ।
ध्यानतपोबलेनैव
ते सर्वेऽपि
शुभशयाः ॥
-वही ५५५ पृ०
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महासतीजी अपनी सुशिष्याओंनी प्रतिभाजी एवं नी सुप्रभाजीक साथ ध्यान योग में लीन | उदयमंदिर,जोधपुर सं.२०३७ *
परम साधिका श्रीमती इन्दर बाईभण्डारी महासती जी के साथ
ध्यान में मग्न।
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एकछत्र है, चक्रवर्ती है, मुनिगण ऐसा कहते हैं । १५ ध्यान के बिना आत्मा का भान नहीं होता और केवल शुभध्यान से ही प्रात्मभान होने पर संसार तर जाने के उदाहरण मिलते हैं। मुंडकोपनिषद् में भी कहा गया है-'ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः' अर्थात् ध्यान करने वाला पुरुष ही मन शुद्ध होने पर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है । 'ध्यानबिन्दु' उपनिषद् में कहा गया है यदि पर्वत के समान ऊँचे और अनेक योजन तक विस्तार वाले पाप हों तो भी ब्रह्म का ध्यान करने से उन सब पापों का भेदन हो जाता है, अन्य किसी भी उपाय से नहीं होता।
ध्यान का महत्त्व
विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख का इच्छुक है, दुःख कोई नहीं चाहता है । पर वह सुख क्या है और कहाँ है और उसके प्राप्त करने के उपाय क्या हैं ? जो वस्तुतः सुख-दुःख के कारण नहीं हैं उन बाह्य पदार्थों में सुख-दुःख की कल्पना करके राग-द्वेष व मोह के वशीभूत होते हुए कर्म से सम्बद्ध होते हैं । इस प्रकार कर्मबन्धन में बंधकर वे सुख के स्थान में दुःख ही अनुभव किया करते हैं । अज्ञानी प्राणी जिसे सुख मानता है वह यथार्थ में सुख नहीं, पर सुख का आभास मात्र है। ऐसे इन्द्रियजनित क्षणिक सुख के विषय में कहा गया है-वह काल्पनिक सुख प्रथम तो सातावेदनीय आदि पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त होता है, अतः पराधीन है। दूसरे पुण्यकर्म के संयोग से यदि वह प्राप्त भी हुआ तो वह जब तक पुण्य का उदय है, तभी तक संभव है। तीसरे उसकी उत्पत्ति दुःखों से व्यवहित है। उस सुख के पश्चात् पुनः अनिवार्य दुःख प्राप्त होने वाला है। कारण यह कि पुण्यकर्म के क्षीण हो जाने पर दुःख के कारणभूत पाप का उदय अवश्यंभावी है। इसलिए ऐसे दुःख मिश्रित सुख को अश्रद्धेय कहा गया है।
ध्यान तप का प्रमुख कारण है, वह तप संवर व निर्जरा का कारण है तथा वे संवर व निर्जरा मुक्ति के कारण हैं। इस प्रकार परम्परा से मुक्ति का कारण ध्यान ही है । जिस प्रकार अग्नि चिरसंचित ईंधन को भस्मसात् कर देती है उसी प्रकार ध्यान चिरसंचित कर्म रूप ईंधन को भस्मसात् कर देता है। अथवा जिस प्रकार वायु के आघात से मेघों का समूह छिन्न-भिन्न हो जाता है उसी प्रकार ध्यान रूप वायु के आघात से कर्मरूप मेघसमूह क्षण भर में विलीन हो जाता है। इतना ही नहीं ध्यान के प्रभाव से इस लोक में मानसिक और शारीरिक दुःखों से भी संतप्त नहीं होता। इस प्रकार ध्यान में अपूर्व सामर्थ्य है।
ध्यान पर प्रारूढ़ हुमा ध्याता चूंकि इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है, इसलिए उसके जहाँ नवीन कर्मों के प्रागमन का निरोध होता है वहाँ ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार वह ध्यान परम्परा से निर्वाण का कारण है ।
१५. निर्जराकरणे बाह्यात्छष्ठमाभ्यन्तरं तपः ।
तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः॥ -कर्त्तव्यकौमुदी पृ० ५५५ १६. ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव, प्रस्तावना पृ० १०-११
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पंचम खण्ड / ५०
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ध्यान के योग्य स्थान
ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान उद्यान, कदलीगह, पर्वत की गुफा, द्वीप, दो नदियों अथवा नदी और समुद्र का संगमस्थान, गांव का एकान्त घर, पर्वत-शिखर, वृक्ष, समुद्रतट आदि स्थान जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक, बालक आदि का आवागमन न हो और किसी प्रकार का कोलाहल न होता हो, ऐसा शांत स्थान संयमी मनियों के ध्यान की सिद्धि के लिए उत्तम है।
ध्यान का स्थान पवित्र और किसी भी प्रकार के उपद्रव से रहित होना चाहिए। कारण कि ऐसे अनुकल स्थान के न मिलने से यदि प्रतिकुल स्थान पर ध्यान किया जाता है तो ध्यान भंग हो जाता है। हठयोगप्रदीपिका में कहा है कि अति आहार, परिश्रम, अधिक बोलना, नियम का अनादर, मनुष्यों का समागम और चंचलता, इन छह दोषों से योग का विनाश होता है और उत्साह, साहस, धैर्य, तत्त्वज्ञान, निश्चय तथा जन-समागम का परित्याग, इन छह नियमों से योग की सिद्धि होती है। दुर्जन के समीप वास, अग्नि का तापना, स्त्री-संसर्ग, तीर्थयात्रागमन, प्रातःस्नान, उपवासादि और शरीर को क्लेश देने वाली क्रियायें-इन सबका योगाभ्यासकाल में त्याग कर देना चाहिए। सब ओर से समान, पवित्र, कंकड़, अग्नि, रेती, कोलाहल और जलाशय से रहित मन के अनुकूल, मच्छरों से रहित, अतिवायु से रहित गुफा आदि स्थान में साधक को योगाभ्यास करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सब प्रकार से अनुकूल और निरुपद्रव स्थान ध्यान के लिए पसन्द करना चाहिए । ध्यान की स्थिति
ध्यान के लिए शास्त्र में पूर्व अथवा उत्तर दिशा को उत्तम माना गया है। अतः इन दिशाओं की ओर मुख करके यथोचित समय, योग्य आसन लगाकर शान्तमुख, विक्षेप और प्रमाद से रहित मन वाले मुनि को नासिका के अग्रभाग पर दोनों नेत्रों को अत्यन्त स्थिर करके ध्यान के लिए बैठना चाहिए।
ध्यान के लिए पूर्व या उत्तराभिमुख, योग्य समय और योग्य प्रासन लगाकर बैठना चाहिए। ध्यान में ध्याता का अपना मन विक्षेप तथा प्रमादयुक्त न बनने देना चाहिए । ध्यान-स्थिति के लक्षण प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान, इन पांचों का योग जब सुष्ठरीति से होता है, तभी ध्यान सफल होता या यथार्थ ध्यान हुमा समझा जाता है। ध्यान के प्रकार .
ध्यान चार प्रकार का है-(१) मार्त (२) रौद्र (३) धर्म और (४) शुक्ल । १८ इनमें प्रार्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण हैं और धर्म तथा शुक्ल ये दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं। विशेष रूप से प्रार्तध्यान को तिर्यंचगति का, रौद्रध्यान को नरकगति का, धर्मध्यान को देवगति का और शुक्लध्यान को मुक्ति का कारण माना गया है।"
१७. कर्त्तव्यकौमुदी-पृ० ५५७, ५५८, ५५९, ५६० १८. प्रातरौद्रधर्मशुक्लानि । -त० सूत्र ९।२९ १९. परे मोक्षहेतु। -त० सूत्र ९।३० .
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(१) आध्यान-अनिष्ट विषयों का संयोग होने पर उनके वियोग की जो चिन्ता होती है और उनका वियोग हो जाने पर भी जो भविष्य में उनके पुन: संयोग न होने की चिन्ता होती है, उसे प्रार्तध्यान माना गया है । रोगजनित पोड़ा के होने पर उसके वियोग की चिन्ता के साथ भविष्य में उसके पुनः संयोग न होने की जो चिन्ता होती है, उसे प्रार्तध्यान कहा गया है। यह दूसरे प्रकार का है । अभीष्ट विषयों का संयोग होने पर उनका भविष्य में कभी वियोग न होने विषयक और वर्तमान में यदि उनका संयोग नहीं है तो उनकी प्राप्ति किस प्रकार से हो इसके लिए भी जो चिन्ता होती है, उसे तीसरा पातध्यान माना जाता है । यदि संयम का परिपालन अथवा तपश्चरण आदि कुछ अनुष्ठान किया गया है तो उसके फलस्वरूप इन्द्र व चक्रवर्ती आदि की विभूतिविषयक प्रार्थना करना इसे चौथे प्रार्तध्यान का लक्षण कहा गया है । ध्यानशतक की तरह तत्त्वार्थ सूत्र में भी अप्रिय वस्तु का संयोग हो जाने पर उसका वियोग होने के लिए पुनः पुनः विचार करना अनिष्टसंयोग नामक प्रथम प्रार्तध्यान है । २० वेदना-पीड़ा से छूटने के लिए जो चित्त की एकाग्रता होती है वह पीड़ा-चिंतन नामक दूसरा पार्तध्यान है। इष्ट (प्रिय) वस्तु का वियोग हो जाने पर उसका संयोग होने के लिए पुनः पुनः विचार करना इष्टवियोग नामक तीसरा प्रार्तध्यान है। २. तपश्चर्या आदि के फलस्वरूप परलोक में सांसारिक विषयों का संकल्प करना निदान नामक चौथा प्रार्तध्यान है। २३ ये चार प्रकार के प्रार्तध्यान अविरत, देशविरति और प्रमत्तसंयत जीवों को ही हुमा करते हैं । २४ प्रार्तध्यान का स्वरूप वणित करते हए उसके फल, लेश्या, लिंग और स्वामियों का निर्देश किया गया है।
(२) रौद्रध्यान-हिंसा, असत्य, चोरी और विषयों की रक्षा के लिये सतत चिन्तन रौद्रध्यान है। यह अविरत और देशविरत जीवों के ही सम्भव हैं । २५ अथवा जिसका मन क्रोध व लोभ के वशीभूत होकर दूसरों की धन-सम्पत्ति आदि के अपहरण में लगा रहता है उसे रौद्रध्यान समझना चाहिये ।
(३) धर्मध्यान-धर्मध्यान के कुल चार प्रकार हैं--(१) प्राज्ञा-विचय, (२) अपाय-विचय, (३) विपाक-विचय और (४) संस्थान-विचय । मन की एकाग्रता धर्मध्यान है।
आत्मा के उद्धार के लिये इसका चिन्तन किया जाय और इस पर मन को एकाग्र कर लिया जाय तब धर्मध्यान के प्रथम प्रकार 'प्राज्ञा-विचय' की निष्पत्ति होती है। राग, द्वेष और कषाय के दोषों से क्या-क्या हानियां होती हैं, जब इनका चिन्तन किया जाय और इन दोषों की शुद्धि के लिये दृढ़ विचार करते हुए उन पर मन को एकाग्र कर लिया जाय तो 'अपाय-विचय'-धर्मध्यान का दूसरा प्रकार सिद्ध होता है ।
२०. पार्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय-स्मृतिसमन्वाहारः ॥ त. सू. ९।३१ २१. वेदनायाश्च ॥ त. सू. ९।३२ २२. विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ त. सू. ९।३३ २३. निदानं च ।। त. सू. ९।३४ २४. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ त. सू. ९।३५ २५. हिंसानतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ त. सू. ९.३६
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पंचम खंड / ५२
अर्चनार्चन
विपाक-विचय और संस्थान-विचय विश्व की सर्व सम्पत्ति अथवा विपत्ति, सुख या दुःख, संयोग या वियोग, पूर्व-जन्म के उपाजित अपने पुण्य या पाप के ही फल हैं, जब यह विचार किया जाय और इस पर अपने मन को एकाग्र कर लिया जाय तब विपाक-विचय नामक धर्मध्यान के तीसरे प्रकार की सिद्धि होती है और जब इस लोक-जगत के नख से शिख तक के आकार और उसमें जीव का जाना और प्राना-जन्म और मरण अथवा परिभ्रमण को अपने एकाग्र हुए निर्मल मन में चिन्तन किया जाय, तो संस्थान-विचय नामक धर्मध्यान का चौथा प्रकार सिद्ध होता है। प्राचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य कहते
नानाद्रव्यगतानन्तपर्याय-परिवर्तनात् ।
सदासक्त मनो नव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ।। अर्थात इस लोकस्वरूप पर विचार करने से, द्रव्यों के अनन्त पर्यायों के परावर्तन करने से, निरंतर उसमें आसक्त रहने वाला मन रागादि की आकुलता नहीं प्राप्त करता। इस प्रकार धर्मध्यान के चारों प्रकार प्रात्मा के निर्मल करने में साधन रूप हैं। धर्मध्यान के आलम्बन और भावना
धर्मध्यानरूपी पर्वत पर चढ़ने के लिये शास्त्र में चार प्रकार के पालम्बन-सहारे-बताये गये हैं-(१) आध्यात्मिक और (२) तात्त्विक शास्त्रों का पठन, परियटणा-मनन-करने योग्य विषय पर ऊहापोह करना और अभ्यस्त तत्त्वों पर कथा कहना । यह चार पालम्बन ध्यान के इच्छुक को ग्रहण करना चाहिए। ध्यान की विशुद्धि के लिए अनित्य भावना, अशरण भावना, संसार भावना और एकत्व भावना, यह चार भावनायें तब तक करते रहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट से उत्कृष्ट रुचि उत्पन्न न हो जाय ।" ध्येय के चार प्रकार
ध्यान की विधि में ध्येय के चार प्रकार शास्त्रों में मिलते हैं-पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । इनमें पार्थिवी प्रादि धारणा के रूप में एकाग्रता से प्रात्मा का चिन्तन किया जाय, उसे ध्येय के चार प्रकारों में से प्रथम पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं।
पदस्थ ध्येय-नाभि में सोलह पंखुड़ियों वाले, चित्त में चौबीस पंखड़ियों वाले और मुख में पाठ पँख ड़ियों वाले कमल की कल्पना करके, उस पर प्रत्येक पंखड़ी पर कोई प्रक्षर बनाकर, एकाग्रतापूर्वक उसका या पंच परमेष्ठि मंत्र के शब्दों का एकाग्र मन से स्थिरतापूर्वक चिंतन करने को पदस्थ ध्येय अथवा ध्यान कहते हैं।
रूपस्थ और रूपातीत-भगवान महावीर की शान्त अवस्था का निर्मल स्वरूप, स्थिर और एकाग्र चित्त में स्थापित करके प्रति निर्मलता से समय निर्धारित कर उसका चिन्तन किया जाय, तो वह रूपस्थ ध्येय कहलाता है।
२६. धर्मध्याननगाधिरोहणकृते शास्त्रोक्तमालंबनं ।
ग्राह्य वाचनप्रच्छनोहन कथेत्येवं चतुर्भेदकम् ।। संसाराशरणेकता क्षणिकता रूपाश्चतुर्भावना। भाव्या-ध्यानविशुद्धये समुदिपाद्यावत्प्रकृष्टा रुचिः ॥ -कर्त्तव्यकौमुदी ५६७१२०६ .
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रूप से प्रतीत हुए निरंजन निराकार निर्मल सिद्ध भगवान् का प्राश्रय लेकर उनके साथ अपनी प्रात्मा के ऐक्य का अपने हृदय में एकाग्रतापूर्वक चिन्तन किया जाय तो उसे रूपातीत ध्येय कहते हैं ।२७
पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और प्राकाश-यह पाँच तत्त्व हैं। इन पांचों तत्त्वों का प्रत्येक पदार्थ पिण्ड बना है । इस पंचतत्त्व का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है।
धर्मध्यान की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए निम्न बातों की ओर साधक का ध्यान प्राकृष्ट किया गया है- (१) ध्यान की भावनाओं (२) देश (३) काल (४) प्रासन-विशेष (५) पालम्बन (६) क्रम (७) ध्यातव्य (८) ध्याता (९) अनुप्रेक्षा (१०) लेश्या (११) लिंग और (१२) फल, इनको जानकर धर्मध्यान करना चाहिये। तत्पश्चात धर्मध्यान का अभ्यास कर लेने पर शुक्लध्यान करना चाहिये ।२८
धर्मध्यान का फल-प्राचीन ऋषि-मुनियों का यह कथन है कि यह धर्मध्यान वैराग्य को सजीव करने वाला है, लेश्या की शुद्धि करने वाला है, अशुभ कर्मों के ईंधन को जलाकर भस्म करने वाला है, काम-विकार रूपी अग्नि को बुझाने के लिये अंभोधर-मेघ के समान है, प्रथम पालम्बन सहित है, तो भी निरन्तर के अभ्यास से ज्यों-ज्यों विशुद्ध होता जाता है, त्यों त्यों ध्यान को पालम्बनरहित और निर्मल शुक्लध्यान की सीमा में क्रमशः पहुँचा देता है।२८ प्राचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य धर्मध्यान के फल के विषय में कहते हैं
अस्मिन्नितान्त वैराग्यव्यतिषङ्ग तरङ्गिते।
जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ॥ अर्थात् इस ध्यान में अत्यन्त वैराग्य रस के संयोग से तरंगित हुए योगियों को स्वतः अनुभव में आने वाला अतीन्द्रिय आत्मिक सुख प्राप्त होता है। यह प्रात्मिक सुख ही चित्त की राग-द्वेष रहित समस्थिति का पर्यायवाचक है। सालंब ध्यान में धर्मध्यान उच्च शिखर पर विराजमान है और निरालंब ध्यान में प्रवेश करने का वह अन्तिम सोपान है। योगिजन यह कहते हैं कि शुक्लध्यान के योग्य इस समय मनुष्यों का शारीरिक संगठन नहीं रह गया है। कारण कि शरीर के टुकड़े हो जाने पर भी चित्त की समस्थिति में क्षेप-विक्षेप उत्पन्न न हो, ऐसा शरीर संस्थान होना चाहिये और वह इस काल में नहीं होता; अतएव धर्मध्यान शुक्लध्यान का प्रवेश मार्ग होने पर भी आधुनिक काल में धर्मध्यान ही सर्वथा उपयोगी और अभ्यास करने और ग्रहण करने योग्य ध्यान है। शास्त्रीय दृष्टि से शुक्लध्यान का स्पर्श कराने वाला धर्मध्यान ही है।
(४) शुक्लध्यान-जिस ध्यान में इन्द्रियों को विषय की समीपता प्राप्त होते ये भी वैराग्य बल से चित्तवृत्ति बिल्कुल बहिर्मुख न हो, किसी शस्त्र से शरीर का छेदन करने अथवा काटने पर भी स्थिर हुमा चित्त तनिक भी न कम्पित हो, उस ध्यान को शुक्लध्यान कहा जाता है। इसके भी चार प्रकार हैं। यह ध्यान स्वरूपाभिमुख है और राग-द्वेष तथा कषाय का सर्वथा
२७. क० को०, पृ० ५७०-५७१ २८. ध्यान शतक, प्रस्ता० पृ० ५
क० को०, पृ० ५७८-५८०
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पंचम खंड | ५४
विलय कराके साक्षात् परम-मोक्ष का देने वाला है।
शुक्लध्यान के चार प्रकारों में से प्रारम्भ के दो प्रकार श्रुत, शब्द और अर्थ तथा योगमन, वचन, काय के व्यापार का पालम्बन करते हैं । यानी प्रथम के दो प्रकार सालम्बन हैं और अन्त के दो प्रकार निरालम्बन हैं। अर्थात् प्रथम प्रकार सवितर्क और सविचार है । वितर्क नाम श्रुत का है और विचार शब्द, अर्थ और योग के संक्रमण परिवर्तन को कहते हैं। दूसरा प्रकार सवितर्क और अविचार है । इसमें श्रुत की एक ही अर्थ की एक ही पर्याय का एक योग द्वारा ध्यान होता है । ये दो प्रकार ८ गुणस्थान से १२वें गुण स्थान तक होते हैं तथा तीसरा प्रकार १३वे गुणस्थान में और चौथा प्रकार चौदहवें गुणस्थान में होता है।
शब्द, अर्थ और योग का संक्रमण-शब्द, अर्थ और योग का आश्रय लेकर जिनेश्वरों ने तीन प्रकार का संक्रमण बतलाया है। एक शब्द की आलोचना करके दूसरे शब्द की ओर बढ़ना, शब्द-संक्रमण है। इसी प्रकार एक योग का आश्रय लेकर फिर दूसरे योग में प्रवेश करना योग का संक्रमण है और एक अर्थ का विचार करके दूसरे अर्थ की ओर जाना अर्थ-संक्रमण है। यानी शब्द-संक्रमण, योग-संक्रमण तथा अर्थ-संक्रमण यह तीन प्रकार के संक्रमण हैं। शुक्लध्यान के प्रकार में जो सविचार शब्द आता है, उसमें विचार शब्द उक्त संक्रमण के अर्थ में व्यवहार किया गया है। सविचार यानी संक्रमण-सहित यह अर्थ होता है ।३०
शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार-शुक्लध्यानी की जिस अवस्था में तीन योगों में से एक ही योग होता है, उस समय बहुत्व के प्रभाव से संक्रमण नहीं होता, इसलिए उस समय अविचार नामक शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार संभव हो सकता है । इस अवस्था में मोहनीयकर्म का सर्वथा उच्छेद होने पर चारों घातिकर्मों का विलय हो जाता है और चौतीस प्रतिशयों के साथ निर्मल केवलज्ञान प्रकट होता है ।
वीतराग को केवलज्ञान प्राप्त होने पर अपना निज का कल्याण तो हमा, परन्तु जिनतीर्थकर नामकर्म के उदय और अनन्त भावदया के प्रवाह से जगत् का कल्याण करने की ओर अपने आप ही उनकी वृत्ति हो जाती है। इसलिए केवली भगवान् सत्य तत्त्वरूपी अमृत की वर्षा करके इस पृथ्वी को परम शीतल बना कर जगत् को मुक्ति का मार्ग दिखलाकर जगत्-सेवा करते हैं ।
शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार-जिस अवस्था में केवली भगवान् अन्त समय में स्थूल काययोग में रहकर वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और मन-वचन-योग में रहकर स्थूल काययोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और उसमें रहकर भी मन-वचन-योग को रोकते हैं, उस समय केवल सूक्ष्म काय-योग की सूक्ष्म-क्रिया रहती है। इससे सूक्ष्म क्रिया नामक शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार निष्पन्न होता है।
२९. क० को० ५८३।२११ ३०. क० को० ५८६।२१२-२१३ ३१. क. को० ५८९।२१४
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जैन साधना-पद्धति में ध्यान / ५५
शुक्लध्यान का चौथा प्रकार-अरिहन्त भगवान जब मुक्तिपद में प्रयाण करते हैं तब सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करके पांच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण करने जितने समय तक मेरु पर्वत की तरह निश्चल प्रयोग अवस्था में-शैलेशी अवस्था में रहते हैं। यही व्युच्छिन्नक्रिय नामक ध्यान का चौथा प्रकार है । इसमें सकल अर्थों की समाप्ति हो जाती है और शिव पद प्राप्त हो जाता है । ३२
आलम्बन और भावना-संयमियों को शुक्लध्यान में बढ़ने के लिए क्षमा, निर्लोभता, ऋजुता-सरलता और मृदुता-यह चार पालम्बन बतलाये गये हैं । इसी प्रकार शुक्लध्यान की विशुद्धि के लिये पाप-मात्र अपायकारक-हानिकारक है, यह देह अशुभ-अशुचिमय है, यह जीव अनन्त पूदगलपरावर्तन द्वारा संसार में भ्रमण करता है और जगत नश्वर चलायमान हैयह चार भावनाएं माननी चाहिये । 33
दुष्करता-शुक्लध्यान की अवस्था प्राप्त करने के लिये प्रात्मा की पूर्ण दृढ़ता और प्रात्मा का अपरिमित वीर्य-सामर्थ्य चाहिये और अत्यन्त दृढ़ वैराग्य भाव चाहिये। इस समय यदि वह संभव न हो तो भावी की प्राशा रख कर तब तक शुक्लध्यान की भावना भानी चाहिये, जब तक कि अपरिमित वीर्य प्रादि साधन सामग्री पूर्णरूप में प्राप्त न हो जाये । ३४ आधुनिक समय के लिये धर्मध्यान ही इष्ट, शुभ है।
१७, लाला लाजपतराय मार्ग उज्जैन (म. प्र.), ४५६००९
३२. क. कौमुदी, ५९२।२१६-२१७ ३३.. क. कौमुदी, ५९४।२१८ ३४. क. कौमुदी, ५९६।२१९
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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ध्याता, ध्यान और ध्येय ।। आर्या सुप्रभाकुमारी 'सुधा' एम. ए., साहित्यरत्न
अर्चनार्चन
ध्यान एक सर्वोत्तम साधना है। साधना का क्षेत्र भी बड़ा जटिल और विस्तृत है। निदिष्ट साध्य को प्राप्त करने के लिए साधना करना अनिवार्य है। किन्तु उसका लक्ष्य जीवन को निर्मल, पवित्र तथा उज्ज्वल बनाने का होना चाहिये । प्रान्तरिक विकारों का शमन करना ध्यान-साधना का मुख्य लक्ष्य है। तत्त्वचिन्तन की भावना का विकास करके मन को किसी एक पदार्थ या तत्त्व के चिन्तन पर स्थिर करना ध्यान है।
ध्यान मानसिक प्रक्रिया है, जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मानस क्षेत्र में की जाती है। मानसिक क्षेत्र में स्थापित की हुई वस्तु हमारे चिन्तन का प्रधान केन्द्र बनती है तथा उसकी ओर मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियां खिच जाती हैं। फलस्वरूप एक स्थान पर उनका केन्द्रीयकरण होने लगता है। जिस प्रकार चुम्बक अपने चारों मोर बिखरे हुए लोह-कणों को सब ओर से खींचकर अपने पास जमा कर लेता है, इसी प्रकार ध्यान द्वारा बिखरी हुई समस्त चित्त-वृत्तियां एक ही केन्द्र पर सिमट पाती हैं।
एक छोटी-सी कहावत है-"जैसी मनसा, वैसी दशा।" ध्यान के विषय में भी यही बात है। जैसा ध्यान किया जाता है, मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। जिस प्रकार किसी साँचे में गीली मिट्टी को दबाने से मिट्टी की प्राकृति साँचे के अनुसार बन जाती है। कीट और भङ्ग का उदाहरण भी इसी बात को स्पष्ट करता है। कहा जाता है-भङ्ग झींगुर को पकड़ कर ले पाता है और उसके चारों ओर लगातार गुञ्जन करता रहता है। झींगुर उस गुञ्जन को तन्मय होकर सुनता रहता है और भङ्ग के रूप को तथा उसकी चेष्टानों को एकाग्रतापूर्वक निहारता रहता है । परिणाम यह होता है कि झींगुर का मन भृङ्गमय हो जाने के कारण उसका शरीर भी उसी ढांचे में ढलता जाता है और उसके रक्त, मांस, नस, नाड़ी, त्वचा, मन आदि में परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है। थोड़े समय में ही झींगुर मन और शरीर से भी असली भङ्ग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यानशक्ति के द्वारा साधक का सर्वाङ्गपूर्ण कायाकल्प हो जाता है । इस प्रकार कोई आदर्श, लक्ष्य या इष्ट निर्धारित करके उसमें लीन हो जाने को ही 'ध्यान' कहते हैं।
स्वामी शिवानन्द के शब्दों में-"ध्यान मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र राजमार्ग है। ध्यान एक रहस्यमयी सीढ़ी है जो अवनी और अम्बर को मिलाती है तथा साधक को ब्रह्म के अमरलोक की ओर ले जाती है।" किसी अन्य विद्वान् ने भी कहा है
"ध्यान ही वह गगन है जहाँ गगन-मानव मन के अमित बलशाली आराध्य की तस्वीर खींचने में देवी चितेरे भी असफल होते पाए हैं।"
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ध्याता, ध्यान और ध्येय / ५७
प्रात्मा में अनन्त असाधारण शक्तियां छिपी हुई हैं, जिन्हें साधक ध्यान आदि क्रियानों से प्राप्त कर सकता है, वे कहीं बाहर से नहीं पाती हैं। इसी बात को बड़े सुन्दर ढंग से अन्योक्ति द्वारा उर्दू के कवि सीमोब ने कहा है
तू क्या समझेगा ऐ बुतसाज ! यह पर्दे की बातें हैं।
तराशा जिसको भी, पहले से वह तस्वीर पत्थर में ॥ इसका भाव यही है कि प्रात्मा में अनन्त शक्ति विद्यमान है, किन्तु आवश्यकता है उसे । जानने एवं विकसित करने की। यह तभी हो सकता है जब साधक अपना एक उच्चतम लक्ष्य बनाये और उसे केन्द्र बनाकर तन्मयतापूर्वक अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को उस पर स्थिर करके आत्मा को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न करे।
सभी महापुरुषों ने अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कही है--"अपने अन्दर देखो, अपने आपको पहचानो, सारे विश्व का परिचय पा जानोगे।"
रामकृष्ण परमहंस ने इसी बात को इस प्रकार कहा है-"हिरण कस्तूरी का सुगन्धस्रोत जानने के लिए सारी दुनिया छान मारता है, यद्यपि वह उसके अन्दर ही रहता है।"
गीता में भी कहा है-"ध्यान बौद्धिक ज्ञान से उत्तम है।" जैनदर्शन के महान् दार्शनिक प्राचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है
"आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?" अर्थात् प्रात्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् प्रात्मा है। ज्ञान और प्रात्मा दो नहीं एक ही हैं। प्रात्मा की व्याख्या करते हुए जैन मनीषियों ने बताया
"केवलणाणसहावो केवलदसणसहाव सुहमइओ
केवलसत्तिसहावो सोहं इदि चिन्तए णाणी ॥ आत्मा एकमात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वरूप है, संसार के सर्व पदार्थों को जाननेदेखने वाला है। वह स्वभावतः अनन्त शक्ति का धारक और अनन्त सुखमय है।
वास्तव में ध्यान ऐसा वायुयान है जो साधक को अनन्त और अक्षय शांति के साम्राज्य की ओर उड़ा ले जाता है । आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि साधक मन को पूर्ण रूप से वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करे और बुद्धि में चंचलता न रखे । तभी वास्तविक ध्यान हो सकता है।
मन को स्थिर रखने के साथ ही साथ ध्यान करते समय साधक किस आसन से बैठे, इसका भी ध्यान रखना चाहिए । योगशास्त्र में कहा है
सुखासनसमासीनः सुश्लिष्टाधरपल्लवः । नासाग्रन्यस्तद्गद्वन्द्वो, दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् । प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुखो वाप्युदङ मुखः ।
अप्रमत्तः सुसंस्थानो ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत ॥ अर्थात साधक अथवा ध्याता ऐसे पारामदेह आसन से बैठे कि जिससे लम्बे समय तक बैठने पर भी मन विचलित न हो। दोनों ओष्ठ मिले हुए हों। नेत्र नासिका के अग्र
आसअस्थतम । आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / ५८
अर्चनार्चन
भाग पर टिके हुए हों। ऊपर के दांत नीचे के दांतों का स्पर्श न करते हों। मुख-मण्डल प्रसन्न हो। पूर्व या उत्तर में मुंह हो । प्रमादरहित हो तथा मेरुदंड बिलकुल सीधा रहे इत्यादि।
इसके लिए पर्यंकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दंडासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन तथा कायोत्सर्गादि अनेक प्रासन बताये गये हैं। अगर शरीर निर्बल हो तो उस अवस्था में लेटकर भी ध्यान किया जा सकता है।
ध्यान करने की इच्छा रखने वाले साधक को तीन बातें जाननी आवश्यक हैं(१) ध्याता-ध्यान करने वाले में कैसी योग्यता होनी चाहिए ? (२) ध्येय-जिसका ध्यान करना है, वह वस्तु कैसी है ? तथा (३) ध्यान-ध्यान की सामग्री कैसी है ?
जो साधक प्राण-नाश का अवसर आ जाने पर भी संयमनिष्ठा को न छोड़े, अन्य प्राणियों को प्रात्मवत् देखे, सर्दी-गर्मी और प्रांधी-पानी से भी विचलित न हो, कषायों से रहित
और काम-भोगों से विरक्त रहे, मानापमान में समभाव रखे, प्राणियों पर करुणा तथा मैत्रीभाव रखे, परिषह तथा उपसर्गादि पाने पर भी मेरु की तरह अडिग रहे, वही सच्चा व श्रेष्ठ ध्याता है, साधक है।
ध्येय को ज्ञानी पुरुषों ने चार प्रकार का माना है । ये चारों ध्यान के पालम्बन रूप होते हैं-(१) पिंडस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ तथा (४) रूपातीत ।
(१) पिंडस्थ-पिण्डस्थ ध्यान पिण्ड से सम्बन्धित है । इसमें पांच धारणाएँ होती हैं(१) पार्थिवी, (२) प्राग्नेयी, (३) मारुति, (४) वारुणी तथा (५) तत्त्वभू ।
पिण्ड अनेक तरह के होते हैं। उनमें चौदह राजू लोक की उपमा नाचते हुए भोपे के रूप में दी है । उस पिण्ड का चिन्तन करना तथा हेय-ज्ञेय-उपादेय का चिन्तन कर, हेय-ज्ञेय को यथायोग्य जानना और छोड़ना, उपादेय जो आध्यात्मिक निज स्वरूप है, उसको ग्राह्य करते हुए समुद्र-मन्थन की तरह लोक-मन्थन का निष्कर्ष प्राध्यात्मिक स्वरूप को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से लोकरूप पिण्ड का चिन्तन पिण्डस्थध्यान के अन्तर्गत प्राता है।
(२) पदस्थ-नाभि में सोलह पंखुड़ी के, हृदय में चौबीस पंखुड़ी के और मुख पर पाठ पंखुड़ी के कमल की तरह स्थापना करना और प्रत्येक पंखुड़ी पर पंच परमेष्ठी मंत्र के अक्षरों की स्थापना करके उनका एकाग्नतापूर्वक चिन्तन करना पदस्थध्यान है।
(३) रूपस्थ-सशरीर अरिहन्त भगवान् की शान्तमुद्रा का स्थिरचित्त से ध्यान करना रूपस्थध्यान है।
(४) रूपातीत-रूप रहित निरंजन, निर्मल सिद्ध भगवान का ध्यान करना रूपातीतध्यान है।
___ "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।'' अर्थात् उत्तम संहनन वाले साधक द्वारा किसी एक विषय में अन्तःकरण की विचार
१. तत्त्वार्थसूत्र, प्र. ९।२७
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ध्याता, ध्यान और ध्येय / ५९
धारा को स्थापित करना ध्यान का लक्षण है। अर्थात् चित को अन्य विकल्पों से हटाकर एक ही अर्थ में लगाने को 'ध्यान' कहते हैं। प्राचार्यों ने ध्यान की संसिद्धि हेतु प्रारम्भिक साधक को मन एकाग्र करने का सुगम और सरल उपाय मन्त्र जप आदि बताया है। चल अध्यवसाय चित्त है तथा स्थिर अध्यवसाय ध्यान है। ध्यान का प्रथम रूप चित्त का निरोध करना है। द्वितीय रूप मन, वचन तथा काया का पूर्ण रूप से निरोध करना है । साधारणतया मन की विचारधारा प्रतिपल बदलती रहती है और अन्य-अन्य दिशाओं में प्रतिक्षण बहती हुई हवा में स्थित दीपशिखा की भांति अस्थिर होती है। ऐसी चिन्तनधारा को प्रयत्नपूर्वक अन्य विषयों से हटाकर एक ही विषय में रखना ध्यान है। तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता वाचक उमास्वाति ने लिखा है-"आ मुहूर्तात"१ अर्थात् ऐसा ध्यान अन्तर्महुर्तपर्यन्त रहता है। ध्यान का यह स्वरूप छमस्थ में ही संभव है, इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है। योगशास्त्र में कहा है
मुहर्तात्परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् ।
वह्वर्थसंक्रमे तु स्याहीर्धाऽपि ध्यान-संततिः ॥२ अर्थात् अन्तर्महर्त से आगे पालम्बन भेद से ध्यानान्तर हो सकता है, किन्तु एक विषयक ध्यान अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक नहीं हो सकता । अन्य वस्तु पर चिन्तनधारा का संक्रमण होने पर ध्यान की धारा अन्तर्महर्त से अधिक भी चल सकती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि एक दिवस या एक अहोरात्र तक अथवा अधिक काल तक ध्यान किया।
अंतोमुहत्तमित्त चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि ।
छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं त॥ अर्थात् एक वस्तु में अन्तर्मुहुर्त प्रमाणकाल के लिए चित्त को एकाग्र करना छाद्मस्थिक ध्यान है और योगनिरोध अयोगी जिनों का ध्यान है।
ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है। प्रस्तुत बिन्दु को सभी दर्शनों में स्वीकार किया है। इसके लिए सर्वप्रथम अहंकार एवं ममकार का विसर्जन आवश्यक होता है । इस स्थिति की प्राप्ति के लिए अनुप्रेक्षानों का निर्देश किया गया है। एकत्वभावना का अभ्यास करनेवाला अहं के पाश से मुक्त हो जाता है । अनित्यभावना का अभ्यास करनेवाला ममकार के पाश से मुक्त हो जाता है।
जैन आगम साहित्य में ध्यान के चार प्रकार बताये हैं। ध्यान के वर्गीकरण में प्रथम दो ध्यान प्रार्त और रौद्र उपादेय नहीं हैं। धर्म एवं शुक्ल ये अंतिम दो ध्यान उपादेय हैं।
प्रार्तध्यान में कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता रहती है। प्रार्तध्यान के चार प्रकार हैं
(१) अमनोज्ञ वस्तु का संयोग होने पर उसे दूर करने का बार-बार चिन्तन करना । (२) मनोज्ञ (प्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा वार-वार
चिन्तन करना। १. तत्त्वार्थसूत्र ९।२८ २. योगशास्त्र, प्रकाश ४, श्लोक ११६ ३. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा....। -स्थानांगसूत्र, स्थान ४/१, पृ. २२२
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तव हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड/६०
| अर्चनार्चन
(३) अातंक-घातक रोग होने पर उसके दर करने का वार-वार चिन्तन करना। (४) भविष्यत्काल में-पागामी जन्म में विषयभोगों या ऐश्वर्य आदि को प्राप्ति के
लिए एकाग्रतापूर्ण चिन्तन करना । प्रार्तध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं(१) प्राक्रन्दन करना अर्थात् उच्चस्वर से बोलते हए रोना। (२) शोक करना-दीनता प्रकट करते हुए शोक करना । (३) आँसू बहाना। (४) परिदेवनता-करुणाजनक विलाप करना ।' रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है(१) हिंसानुबंधी-निरन्तर जिसमें हिंसा का अनुबन्ध हो । (२) मृषानुबन्धी-असत्य भाषण सम्बन्धी एकाग्रता। (३) स्तेयानुबन्धी-निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी एकाग्रता । (४) संरक्षणानुबन्धी-परिग्रह, सन्तान प्रादि के संरक्षण हेतु दूसरे का उपधात करने की ___कषायमयी वृत्ति रखना अर्थात् जिसमें विषयभोग के साधनों का अनुबन्ध हो। रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। (१) उत्सन्नदोष-प्रायः हिंसा में प्रवृत्त रहना। (२) बहुदोष -हिंसादि को विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना । (३) अज्ञानदोष-प्रज्ञानवश हिंसादि में प्रवृत्त होना। (४) आमरणान्तदोष-मरणपर्यंत क्रूरकर्मों के लिये पश्चात्ताप न करना अर्थात्
हिंसादि में लगा रहना ।। प्रस्तुत लक्षण स्थानांग, भगवती एवं ध्यानशतक के अनुसार बताये हैं। रौद्रध्यान में क्रूरता की प्रधानता रहती है। रौद्रध्यानी दूसरों को दुःखी देखकर प्रसन्न होता है। ऐहिक एवं पारलौकिक भय से रहित होता है। पाप करके प्रसन्न होता है। जैनागमों में प्रार्तध्यान को तिर्यग्गति का कारण और रौद्रध्यान को नरकगति का कारण कहा गया है। ये दोनों अप्रशस्त एवं अशुभ ध्यान हैं। धर्मध्यान
धर्मध्यान, शुक्लध्यान की भूमिका तैयार करता है। शुक्लध्यान मुक्ति का साक्षात कारण है। सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान रहता है। पाठवें गुणस्थान से शुक्लध्यान का प्रारम्भ होता है।
धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार प्रकार हैं।
धर्मध्यान के चार ध्येय बतलाये गए हैं। ये अन्य ध्येयों के संग्राहक या सूचक हैं।
१. स्थानांग सूत्र, ४११ पृ० २२२ २. वही. पृ० २२३
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ध्याता, ध्यान और ध्येय/६१
जितने द्रव्य और पर्याय होते हैं, उतने ही ध्येय होते हैं। यों ध्येय अनन्त हैं, उन अनन्त ध्येयों का उपर्यक्त चार प्रकारों से समासीकरण किया गया है।
(१) आज्ञाविचय प्रथम ध्येय है। इसमें प्रत्यक्षज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सभी तत्त्व ध्याता के लिए ध्येय बन जाते हैं । ध्यान का अर्थ तत्त्व की विचारणा नहीं है । उसका अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार करना। धर्मध्यान करने वाला आगम में निरूपित तत्त्वों का आलम्बन लेकर उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है। इसमें वीतराग प्रभु की आज्ञा के प्रति बहुमान रखते हुए इस प्रकार चिन्तन किया जाता है कि यह वीतराग-वाणी परम सत्य है, तथ्य है, निश्शंक है।
(२) अपायविचय द्वितीय ध्येय है। इसमें द्रव्यों के संयोग और उनसे उत्पन्न विकार या वैभाविक पर्याय ध्येय बनते हैं। अर्थात दोषों के दुष्परिणामों का चिन्तन करना और उनसे बचने की भावना रखना अपायविचय है।
(३) विपाकविचय में द्रव्यों के काल, संयोग आदि सामग्रीजनित परिपाक, परिणाम या फल ध्येय बनते हैं। वैसे अनुभव में आने वाले कर्मफलों में से कौन-सा फल किस कर्म के कारण है, कौन-से कर्म का क्या फल है, इसके विचार में मन को एकाग्र करना विपाकविचय है।
(४) संस्थानविचय चतुर्थ ध्येय है। यह प्राकृति विषयक पालम्बन है। इसमें परमाण से लेकर विश्व के अशेष द्रव्यों के संस्थान ध्येय बनते हैं। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य और उनकी पर्याय, जीव, अजीव के आकार, लोक, द्वीप, सागर, जीव-गति-प्रागति, लोकस्थिति, नरक, विमान, भवन प्रादि के आकार के चिन्तन में चित्त को एकाग्र करना संस्थानविचय है।
धर्मध्यान करने वाला उक्त ध्येयों का पालम्बन लेकर परोक्ष को प्रत्यक्ष की भूमिका में अवतरित करने का अभ्यास करता है।
धर्मध्यान के अधिकारी-अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, इन सबको धर्मध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है।
धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। अथवा तत्त्वों और श्रुतचारित्ररूप धर्म के सम्बन्ध में सतत चिन्तन धर्मध्यान कहलाता है। तत्त्व सम्बन्धी विचारणा, हेयोपादेय सम्बन्धी विचारधारा तथा देव-गुरु-धर्म की स्तुति आदि धर्मध्यान के अंग हैं, शर्त यह है कि इसमें तल्लीनता हो।
धर्मध्यान के चार लक्षण हैं-प्राज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढरुचि या उपदेशरुचि । तत्त्वार्थ का श्रद्धान धर्मध्यान का मुख्य लक्षण है। वीतराग देव एवं साधु मुनिराज के गुणों का कथन करना, भक्तिपूर्वक श्रुत, शील एवं संयम में अनुराग रखना-ये धर्मध्यान के चिह्न हैं । इनसे धर्मध्यान की पहचान होती है।
धर्मध्यान के चार पालम्बन-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना एवं अनपेक्षा हैं। धर्मध्यान की चार अनुपेक्षाएँ कही गई हैं(१) एकत्वानुप्रेक्षा-अकेलेपन का चिन्तन करना । (२) अनित्यानुप्रेक्षा-पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना ।
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पंचम खण्ड / ६२
अर्चनार्चन
(३) अशरणानुपेक्षा-अशरणदशा का अनुचिन्तन करना।
(४) संसारानुप्रेक्षा-संसारपरिभ्रमण का चिन्तन करना । शुक्लध्यान
शुक्लध्यान के चार चरण हैं। उनमें प्रथम दो चरणों-पृथक्त्ववितर्क-सविचार और एकत्ववितर्क-विचार के अधिकारी श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वी) होते हैं।' इस ध्यान में सूक्ष्म द्रव्यों और पर्यायों का पालम्बन लिया जाता है, इसलिए सामान्य श्रुतधर इसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं। प्रात्मा पर लगे पाठ कर्मरूपी मैल को धोकर जो उसको स्वच्छ, धवल बना देता है, वह शुक्लध्यान है ।
शुक्लध्यान के चार पाये कहे हैं। जैसे-- १. पृथक्त्ववितर्क-सविचार
जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्वश्रत का पालम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन तथा काया में से एक-दूसरे में संक्रमण होता रहता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को पृथक्त्ववितर्क-सविचार कहा जाता है। पृथक्त्ववितर्क-सविचार नामक यह शुक्लध्यान का प्रथम भेद है। २. एकत्ववितर्क-अविचार
जब द्रव्य के किसी एक पर्याय का प्रभेद दष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्वश्रुत का आलम्बन लिया जाता है, जहां पर शब्द, अर्थ तथा मन, वचन, काया में से एक दूसरे में संक्रमण रुक जाता है, शुक्लध्यान की प्रस्तुत स्थिति एकत्व वितर्क-प्रविचार है। इस ध्यान में पृथक्त्ववितर्क-सविचार ध्यान की अपेक्षा अधिक स्थिरता आ जाती है । इस ध्यान का फल केवलज्ञान की प्राप्ति है। ३. सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति
जब मन और वाणी के योगों का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है, किन्तु काययोग का पूर्ण निरोध नहीं होता है, श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया अवशेष रहती है, उस अवस्था को सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है । इसका निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। ४. समुच्छिन्नक्रिय-अप्नतिपाति
जब सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है, ध्यान की उस अन्तिम एवं सर्वोत्कृष्ट अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है। यह ध्यान मुक्ति का साक्षात् कारण है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने हरिभद्रसूरि-कृत योगबिन्दु के आधार पर शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों की तुलना संप्रज्ञात-समाधि से की है। संप्रज्ञात-समाधि के चार प्रकार हैं१. शुक्ले चाद्ये पूर्व विदः । -तत्त्वार्थसूत्र ९।३९ २. तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारैकत्ववितर्काविचाराख्य शुक्लध्यानभेदद्वये संप्रज्ञात....सम्यक् .... प्रकर्षरूपेण, वृत्यर्थज्ञानतस्तथा। जैनदृष्ट्या परीक्षितपातञ्जलयोगदर्शनम्, १११७,१८
-योगबिन्दु ४१८
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ध्याता, ध्यान और ध्येय / ६३
वितर्कानुगत, विचारानुगत, श्रानन्दानुगत और अस्मितानुगत । ' उन्होंने शुक्लध्पान के शेष दो चरणों की तुलना असंप्रज्ञात समाधि से की है । प्रथम दो चरणों में आए हुए वितर्क और विचार शब्द जैन, बौद्ध और योगदर्शन तीनों की ध्यानपद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं। जैन साहित्य के पनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान और विचार का प्रयं संक्रमण है।
आचार्य अकलंक ने ध्यान के परिकर्म का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है— उत्तम शरीरसंहनन होकर भी परिवहों के सहने की क्षमता का श्रात्मविश्वास हुए बिना ध्यानसाधना नहीं हो सकती है। परिषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह नदी तट शून्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, प्रतिवायुरहित, वर्षा, प्रातप श्रादि से रहित पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिए उस समय शरीर को सम ऋजु धौर निश्चल रखना चाहिए। बाएँ हाथ पर दाहिना हाथ रखकर न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों पर दांतों को रखकर सीधी कमर व प्रसन्नमुख श्रीर अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, धालस्य कामराग, रति, धरति हास्य, भय आदि छोड़कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेने वाला साधक ध्यान की तैयारी करता है। वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या नासाग्र पर चित्तवृत्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। इस तरह एकाग्रचित्त होकर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ पौर व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक् पृथक् संक्रान्ति करता है ।
1
ध्यान की सिद्धि के लिए रामसेन ने गुरु का उपदेश श्रद्धा निरन्तर अभ्यास और स्थिरमन, ये चार बातें आवश्यक मानी हैं।
1
ध्यान की उच्चतर स्थिति में चेतना धानन्द की घोर बढ़ती है। साधक प्रेरणा और प्रकाश के प्रायामों में प्रवेश करता है। ध्यान की परिणति है प्रात्मसाक्षात्कार यह उच्चतर मन के भी परे है। चेतना मन के क्षेत्र को छोड़कर सत्ता के बीज कोष आत्मा के साथ एकाकार हो जाती है । यही शुद्ध चेतना की स्थिति है, जहाँ पहुँचने पर मनुष्य का अपनी केन्द्रीय सत्ता से सम्पर्क स्थापित होता है। ध्यान हमारी पूर्वाजित सम्पत्ति है । इसका अनुभव हम सहज ही कर सकते हैं। हम जो हैं और जो चाहते हैं, उनके बीच यदि ऐक्य स्थापित हो जाए, तब ध्यान सहज ही लग सकता है ।
ध्यान एक निजी अनुभव
ध्यान न तो निद्रा है, न सम्मोहन ही । यह इनसे परे एक प्रत्यन्त स्वस्थ स्थिति है, जिसमें मनुष्य अपने अन्दर चल रहे तनावों यादि के प्रति सजग होकर उन्हें समय रहते दूर करने का अवसर पा जाता है । व्याधि दूर करने का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है । नित्य
१. वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः पातञ्जलयोगदर्शन २०१७
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२. क्षपक निपरिसमाप्ती.... केवली नोसंज्ञीत्युच्यते ।
- जैनदृष्ट्या परीक्षितपातञ्जलयोगदर्शन १।१७,१८
२. विचाशेऽयं व्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः । तत्त्वार्थसून ९०४६ ४. तत्वार्थवार्तिक ९।४४
आसनस्थ तम
आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / ६४
अर्चनार्चन
प्रात:काल अाधा घंटे का ध्यान ऐसी स्थिति ला देता है कि दिन भर के कार्यों की रूपरेखा ही बदल जाती है। प्रान्तरिक शान्ति और सन्तुलन का प्रभाव हर कार्य पर पड़ने लगता है। ध्यान से निराशावादिता, उदासी तथा तनाव ग्रादि का निवारण होना अवश्यम्भावी है। मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति प्रानन्द की है।
ध्यान में जो शारीरिक एवं मानसिक विश्राम मिलता है, वह हमें नींद में भी नहीं मिल पाता है। ध्यान द्वारा अनेक बीमारियां दूर की जा सकती हैं। अपूर्व स्वास्थ्य-लाभ किया जा सकता है।
प्राधुनिक व्यस्त मानव-समाज, जो अनेक शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का शिकार बना हुआ है, ध्यान की विधि द्वारा उनसे मुक्ति पा सकता है। सर्वप्रथम ध्यान करने वाले साधक को ध्यान करने के विधान को भली-भांति समझ लेना आवश्यक है। ध्यान के पांच अङ्ग हैं-स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति, संस्मिति।
स्थिति से तात्पर्य है साधक की ध्यान करते समय की स्थिति । ध्यानार्थी ध्यान करने के लिए एकांत और शान्तिपूर्ण स्थान पर शारीरिक शुद्धि करके सुखासन से बैठे। उसका मुंह पूर्व या उत्तर की ओर होना चाहिए।
ध्यान का दूसरा अंग है संस्थिति । इससे अभिप्राय है साधक अपनी चित्त-वृत्तियों को केन्द्रित करे।
अपने उपास्य के गुणों का चिन्तन करने को विगति कहते हैं। यथा-अरिहन्तों के बारह, सिद्धों के आठ, प्राचार्यों के छत्तीस, उपाध्यायों के पच्चीस तथा साधु के सत्ताईस, इस प्रकार निर्धारित गुणों का भावनानुसार चिन्तन करे।
उपासना-काल में साधक के मन में रहने वाली भावना प्रगति कहलाती है। साधक गुरु, पिता, सहायक आदि जिस रूप में उपास्य को मानना चाहे, उस रूप की स्थिरता को प्रगाढ़ बनाने के लिए अपनी आन्तरिक भावनाओं को विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा व्यक्त करे।
जिसमें साधक और साध्य, उपासक और उपास्य, भक्त और भगवान् एकरूप हो जाते हैं, उस अवस्था को संस्मिति कहते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता। उपासक की भावना का एक राजस्थानी पद्य में बड़ा सुन्दर चित्रण किया गया है
जल बीच कुभ, कुम बीच जल है,
जल माहे तरंग समाय। ध्यान के इच्छुक साधक में इसी प्रकार की तन्मयता और दृढता होनी चाहिए । सच्चा ध्यानार्थी वही है जो प्राण-नाश का अवसर प्रा जाने पर भी संयम-निष्ठा का परित्याग नहीं करता, सर्दी, गर्मी और वायु से खिन्न होकर अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होता, रागादि दोषों से आक्रान्त नहीं होता, मन को आत्म-भाव में रमण कराता हुमा योग रूपी अमृत-रसायन का पान करने का इच्छुक होता है, शत्रु-मित्र पर समान भाव रखता हुआ संसार के प्रत्येक प्राणी की कल्याणकामना करता है और परिषह-उपसर्ग पाने पर भी सुमेरु के समान अटल रहता है । ऐसा ही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध साधक प्रशंसनीय और श्रेष्ठ ध्याता हो सकता है । ध्यान का परम प्रकर्ष होने पर ध्याता ध्येय रूप हो जाता है, उसकी आत्मा परमानन्द को प्राप्त कर लेती है। सभी विकल्प नष्ट हो जाते हैं और प्रात्मा सिद्धपद को प्राप्त कर लेती है।
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भ्याता, ध्यान और ध्येय / ६५
ध्यान का सबसे उत्तम समय प्रातःकाल और संध्याकाल है। प्रातःकाल ब्रह्ममुहर्त में बिना हिले-डले पाराम से बैठ जाना । सारे शरीर के कंपन को छोड़ देना और रीढ को एकदम सीधा कर लेना चाहिये । अांखें बन्द करके बहुत धीमी श्वास लेना, श्वास को देखते रहना, फिर बड़ी धीमी गति से श्वास को छोड़ना चाहिये। यदि बैठकर ध्यान करना है तो मेरुदण्ड सीधा रहे, इस बात का पूरा ध्यान रहना चाहिये । शरीर एकदम स्थिर रहे। ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व पांच-दस मिनट तक स्थिर बैठना । अपने विचारों को रोकना नहीं। विचार को प्राने दीजिए और उसे देखिये । प्रत्येक विचार को देखना, किन्तु साक्षी बनकर ही देखना चाहिए।
ध्यान दो प्रकार के हैं-सक्रिय एवं निष्क्रिय ।
(१) सक्रिय ध्यान-वास्तव में योग का उद्देश्य यह है कि सामान्य जीवन के कर्मसम्पादन में भी मनुष्य ध्यान की अवस्था में रह सके। यही सक्रिय ध्यान है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह दैनिक कार्यों के प्रति अन्यमनस्क हो जाय, बल्कि यह है कि वह अधिक तत्परता एवं दक्षता से कार्य सम्पन्न करे। निष्क्रिय ध्यान के माध्यम से भी सक्रिय ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है।
(२) निष्क्रिय ध्यान-निष्क्रिय ध्यान में एक प्रासन में बैठकर ध्यान का अभ्यास किया जाता है। चंचल मन को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना ही इसका उद्देश्य है । निष्क्रिय ध्यान से मन शान्त रहता है और अन्तर्मुखता पाती है ।
न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्पं जायते तस्माद् द्वयमन्योन्यकारणम् ॥
-योगशास्त्र ध्यान के लिए समभाव अनिवार्य है । समभाव के बिना ध्यान नहीं होता और ध्यान के बिना समता नहीं पाती । दोनों में परस्पर कार्य-कारण भाव है।
ध्यान आत्मा के लिए महान् हितकारी माना गया है । ध्यान से प्रात्मज्ञान प्राप्त होता है तथा प्रात्मज्ञान से कर्मों का क्षय होता है। कर्मों का क्षय हो जाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्रद्धया पूज्य गुरुवर्या महासती श्री अर्चनाजी महाराज प्रति दिन तीन बार ध्यान में विराजते हैं। सद्गुरुवर्या जो केन्द्र बनाकर ध्यान करते हैं, उनकी दो-दो, तीन-तीन घण्टों की समाधि लग जाती है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। प्रत्येक मुमुक्षु साधक एवं साधिका के लिए ध्यानयोग अतीव उपकारक है। ध्यानसाधना से जीवन में कल्पनातीत परिवर्तन आ जाता है और जब साधक का जीवन परिवर्तित हो जाता तो समग्र सष्टि का उसके लिए रूपान्तरण हो जाता है ।
-अध्यात्मजगत् की परम साधिका श्री उमरावकुवरजी म. सा. 'अर्चना' की सुशिष्या
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आसअरथ तम आत्मस्थ मन तव हो सके आश्वस्त जन
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अर्चनार्चन
ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप
डॉ० प्रेमसुमन जैन
जैनसाहित्य में ध्यान के विभिन्न पक्षों का वर्णन प्रायः सम्यक् चारित्र के वर्णन के प्रसंग में आता है। जैनदर्शन में संक्षेपरूप में संसार-बन्धन का कारण श्रास्रव श्रौर बन्ध को माना गया है तथा संसार से मुक्ति के लिए संवर और निर्जरा को प्रमुखता दी गयी है । कर्मों की निर्जरा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को आधार माना गया है । सम्यक्चारित्र में तप की प्रधानता है। तप के प्राभ्यन्तर छह भेदों में एक भेद ध्यानतप भी है । इसी ध्यान का वर्णन जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में किया है ।' ध्यान पर स्वतन्त्ररूप से भी ग्रन्थ लिखे गये हैं । वस्तुतः जैनदर्शन में ध्यान आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकट करने वाला है । अतः ध्यान और ज्ञान में अटूट सम्बन्ध हैं । मध्ययुग के ११ वीं शताब्दी के जैनाचार्य शुभचन्द्र ने अपने ध्यानशास्त्र को ज्ञानशास्त्र का ग्रन्थ मानकर इसे 'ज्ञानार्णव' नाम प्रदान किया है । विषय की दृष्टि से वास्तव में यह ग्रन्थ ध्यान का समुद्र है । ध्यान के सभी पक्षों का इसमें विस्तार से वर्णन है । इसलिए प्राचार्य ने इसे 'ध्यानशास्त्र' भी कहा है
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इति जिनपतिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किचित् । स्वमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् ॥
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ को 'योगप्रदीप' भी कहा है। उनकी दृष्टि से ध्यान एवं योग शब्द समान अर्थ को व्यक्त करते हैं । यद्यपि जैनपरम्परा में इन दोनों शब्दों का अपना अलग इतिहास भी है ।
आचार्य शुभचन्द्र एवं उनके ज्ञानार्णव के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ के सम्पादक पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री एवं अनुवादक पं. बालचन्द्र शास्त्री ने अपनी प्रस्तावनाओंों में पर्याप्त प्रकाश डाला है । 3 जैन योगशास्त्र की परम्परा में ज्ञानार्णव का विशेष स्थान है । ज्ञानार्णव में पूर्ववर्ती ध्यानविषयक सामग्री का सार प्रस्तुत किया गया है । इस कारण यह ग्रन्थ परवर्ती जैनाचार्यों के लिए श्राधार-ग्रन्थ बन गया है | आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के साथ इसका घनिष्ट सम्बन्ध है ।
आचार्य शुभचन्द्र का समय विद्वानों ने वि० सं० २०१६ से वि० सं० १९४५ के बीच माना है । ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र ने जिनसेन के प्रदिपुराण, रामसेनाचार्य के तत्त्वानुशासन, सोमदेव के उपासकाध्ययन एवं श्रमितगति के योगसारप्राभृत प्रादि पूर्ववर्ती ग्रन्थों के श्राधार
१. जैन, प्रेमसुमन 'ध्यान सम्बन्धी जैन- जैनेतर साहित्य' -जिनवाणी विशेषांक २. कापड़िया, २० ला०; जैनसाहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ४, पृ० २२७ - २५५ ३. ज्ञानार्णव, सं० डा० ए० एन० उपाध्ये, सोलापुर, १९७६ की प्रस्तावना
४. वही, प्रस्तावना, पृ० ४७-५१
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ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप / ६७
पर ध्यान के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला है। किन्तु उसके पूर्व बारह भावनाओं का वर्णन ग्रन्थ में किया है। शुभचन्द्र प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं कि यह मेरी रचना संसारताप के निवारण के लिए है। इससे अविद्या से उत्पन्न दुराग्रह नष्ट होगा । तभी समीचीन ध्यान की प्राप्ति होगी। वही वास्तविक आनन्द प्रदान करना इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है
अविद्याप्रसरोद्भूतग्रह-निग्रहकोविवम् ।
ज्ञानार्णवमिमं वक्ष्ये सतामानन्दमन्दिरम् ॥ १११ प्राचार्य शुभचन्द्र अध्यात्मयोगी थे। अतः ध्यान का वर्णन करते समय सांसारिक सुखों को उन्होंने महत्त्व नहीं दिया। ध्यान कोई चमत्कार दिखाने के लिए अथवा इन्द्रियों के रसों की तृप्ति के लिए नहीं है। इस प्रकार की साधना संसार के कीचड़ में ही फंसाती है । राग-द्वेष से युक्त वृत्तियों की उपस्थिति में शुद्ध ध्यान नहीं हो सकता है। अत: बारह भावनाओं के द्वारा पहले अपने चित्त को निर्मल करना चाहिए । मिथ्या धारणाओं के छूटने पर ही ध्यान की भूमि में प्रवेश किया जा सकता है । अतः सम्यग्दष्टि होना ध्यान की प्रथम सीढ़ी है। यदि कोई साधक संसार के क्लेशों को नष्ट करना चाहता है तो उसे सम्यग्ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान का बीज ध्यान है । संसाररूपी समुद्र को लांघने के लिए ध्यान एक जहाज की तरह है
भवक्लेशविनाशाय पिब ज्ञानसुधारसम् ।
कुरु जन्मान्धिमत्येतु ध्यानपोतावलम्बनम् ॥ ३॥१२ ध्यान की साधना के लिए संसार के स्वरूप को समझना आवश्यक है। जब तक संसार के कार्यों में सुख और ममत्व बुद्धि बनी रहेगी तब तक ध्यान का महत्त्व समझ में नहीं आ सकेगा। अत: अन्तःकरण में विवेक को जागृत करना होगा। प्राचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि तीनों लोकों में व्याप्त करने वाली मोहरूपी गाढ निद्रा को जो नष्ट करता है, वही ध्यानरूपी अमृत रस का पान कर सकता है। बाह्य पर पदार्थों से ममत्व बुद्धि को हटाकर ही ध्यान का आनन्द लिया जा सकता है। योगिजनों ने इस ध्यान के सिद्धान्त को स्वयं प्राचरित किया है । अतः उनसे ध्यान के स्वरूप को यदि सुना जाय तो चित्त निर्मल होता है। ऐसे गुणकारी ध्यान को जब आचरण में लाया जाता है तो संसार के सभी दु:खों से छुटकारा मिल जाता है
पुनात्याकणितं चेतो दत्त शिवमनुष्ठितम् ।
ध्यानतन्त्रमिदं धीर धन्ययोगीन्द्रगोचरम ॥ ३॥२५ योगशास्त्र में ध्यान के स्वरूप आदि पर चिंतन करते हुए उससे सम्बन्धित अन्य बातों पर भी विचार किया जाता है। शुभचन्द्र ने ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान का फल, इन चारों पर विस्तार से चितन किया है। शुभचन्द्र लौकिक फल के लिए ध्यान का उपयोग करना ठीक नहीं समझते । अतः वे आध्यात्मिक जागति के लिए ही शुभध्यान का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं। वैसे ही आत्महितैषी ध्याता को वे प्रमुखता देते हैं, लौकिक योगी को नहीं। वे मानते हैं कि जो योगी व साधु ध्यान को जीविका का साधन बनाते हैं, उन्हें लज्जा पानी चाहिए। उनका ऐसा ध्यान कभी सार्थक नहीं हो सकता । यह ध्यान का दुरुपयोग है । ध्यान को, साधुवेष को आजीविका का साधन बनाना माता को वेश्या बनाने जैसा है। यथा
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड /६८
अर्चनार्चन
यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्तः किन लज्जिताः ।
मातुः पणमिवालम्ब्य यथा केचित्गतषणाः ॥ ४॥५४ ज्ञानार्णव के अनुसार सच्चा ध्याता वही हो सकता है, जिसने वास्तविक संयम को प्राप्त किया है । निर्मल ज्ञान की साधना से जिनका अन्तःकरण पवित्र है, जगत् के सभी जीवों के प्रति जिनके मन में दया एवं संरक्षण का भाव है, जो वायु की तरह परिग्रह के मोह से रहित हैं, वे ही योगी सच्चे ध्याता हैं, ध्यान के अधिकारी हैं। जिस योगी के ध्यानस्थ होने पर प्राणवायु का संचार रुक जाता है, शरीर नियमित हो जाता है, इन्द्रियों की प्रवृत्ति रुक जाती है, नेत्रों का स्पन्दन नष्ट हो जाता है, अन्तःकरण विकल्पों से रहित हो जाता है, मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है तथा विश्व को प्रकाशित करने वाला तेज प्रकट हो जाता है, वह योगी धन्य है। वही ध्यान के श्रेष्ठ प्रानन्द को अनुभव कर सकता है ।
आचार्य शुभचन्द्र भारतीय योगदर्शन से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ में जैन, अजैन सभी योग-परम्परामों का प्रकारान्तर से उल्लेख किया है। प्रशस्त ध्यान के लिए मन पर संयम प्रावश्यक है। विभिन्न दार्शनिक मन के संयम के लिए अलग-अलग साधनों का उल्लेख करते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, योग के इन पाठ अंगों का वर्णन भारतीय परम्परा में विस्तार से हरा है। इनका लक्ष्य मन पर संयम पाकर योग की साधना करना है। शुभचन्द्र कहते हैं कि कुछ दार्शनिक उत्साह, निश्चय, धैर्य, सन्तोष, तत्त्वनिश्चय और देशत्याग, इन छह अंगों से भी योगसाधना की सिद्धि मानते हैं। कुछ योगी ध्यान की साधना में कारण-चतुष्टय-गुरु का उपदेश, उपदेश पर भक्ति, सतत चिंतन और मन की स्थिरता-को भी अनिवार्य मानते हैं। आचार्य शुभचन्द्र का मानना है कि इन सब में मन की निर्मलता प्रमुख है, जो मन के संयम से आती है । मन यदि स्वाधीन है तो विश्व स्वाधीन हो जाता है। मन पर संयम व्रतनियम आदि के परिपालन और राग-द्वेष पर विजय पाने से हो सकता है। मन की शुद्धि से ही कर्ममल की शुद्धि होती है। मन-शुद्धि के बिना ध्यान सम्भव नहीं है । मन शुद्ध हो तो ध्यान भी शुद्ध होगा एवं कर्म भी नष्ट होंगे। यथा
ध्यानसिद्धि मनःशुद्धिः करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्यपि निःशङ्का कर्मजालानि देहिनाम् ॥ २०१४
१. ज्ञानार्णव, ३.१४-१७ २. रुद्ध प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवत्तेऽक्षप्रपंचे,
नेत्रस्पन्दे निरस्ते प्रलयमुपगतेऽन्तविकल्पेन्द्रजाले । भिन्ने मोहान्धकारे प्रसरति महसि क्वापि विश्वप्रदीपे,
धन्यो ध्यानावलम्बी कलयति परमानन्दसिन्धुप्रवेशम् ।। ५।२२ ३. उत्साहान्निश्चयाद्धर्यात् संतोषात्तत्त्वनिश्चयात् ।
मुनेर्जनपदत्यागात् षड्भिर्योगः प्रसिध्यति ।। ५।१ ४. वही, ५।१,१
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ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप / ६९
मन की शुद्धि ध्यान की साधना के लिए अनिवार्य है। शुद्ध मन से ही अन्तःकरण में विवेक जागृत होता है, जो हेय-उपादेय का ज्ञान कराता है। मन का संयम सही ध्यान की कसौटी है। प्राचार्य कहते हैं कि जो योगी स्वतन्त्र प्रवृत्त होने वाले चित्त को नहीं जीत पाता और यदि वह ध्यानी होने का दावा करता है तो उसे लज्जा पानी चाहिए। क्योंकि मन की एकाग्रता के बिना ध्यान सम्भव नहीं है। मन की स्थिरता ही ध्यान की साधना का प्रमाण है । ज्ञान से संस्कारित स्थिर मन वाले योगी के लिए फिर बाह्य साधनाओं की आवश्यकता नहीं रहती।' संक्षेप में ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जिसके आश्रय से मन अज्ञान को लांघकर प्रात्मस्वरूप में स्थिर हो जाय वही ध्यान है, वही विज्ञान है, वही ध्येय है और वही तत्त्व (परमार्थ) है
तध्यानं तद्धि विज्ञानं तदध्येयं तत्त्वमेव वा।
येन विद्यामतिक्रम्य मनस्तत्त्वे स्थिरीभवेत् ॥ २०१९ ज्ञानार्णव में ध्यान और साम्यभाव को परस्पर जुड़ा हुआ माना गया है। मन की स्थिरता, साम्यभाव से जैसे ध्यान की साधना सम्भव है, वैसे ही एकाग्र चित्त से किये गये ध्यान से प्रात्मा में साम्यभाव प्रकट होता है। अतः ध्यान का उद्देश्य भी समता है और साधन भी समता है । समता को छोड़कर अन्य किसी उद्देश्य से किया गया ध्यान प्रात्मकल्याणक नहीं हो सकता। वशीकरण, प्रदर्शन, चमत्कार आदि के लिए किया गया ध्यान दुर्गति का कारण बनता है, अात्महित का पोषक नहीं। इसलिए शुभचन्द्र ने ध्यान के प्रमुख चार भेदों का भी विस्तार से वर्णन किया है । मूलतः ध्यान दो प्रकार का है-प्रशस्त ध्यान एवं अप्रशस्त ध्यान । जो ध्यान वस्तुस्वभाव के यथार्थ ज्ञान से रहित है तथा जिसमें मन की स्थिरता, संयम नहीं है, वह अप्रशस्त ध्यान है तथा जहां राग-द्वेष से रहित समताभाव है एवं यथार्थज्ञान है, वहाँ प्रशस्त ध्यान है ।
ध्यान के प्रमुख चार भेद जैनपरम्परा में स्वीकृत हैं-प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान । इनमें से प्रथम दो ध्यान दुर्ध्यान कहे गये हैं, जो जीवों को अत्यन्त दुःख देने वाले हैं, जबकि अंतिम दो ध्यान कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ हैं।
प्रार्तध्यान में व्यक्ति अनिष्ट वस्तुओं के संयोग से दुःख पाता है। विष, कण्टक आदि पदार्थों के संयोग के ध्यान से व्यक्ति आतंकित बना रहता है। कभी वह स्त्री, पुत्र, धन-सम्पत्ति प्रादि इष्ट वस्तुओं एवं स्वजनों के वियोग की कल्पना करके दु:खी होता रहता है, कभी व्यक्ति को नाना प्रकार के रोग वेदना पहुँचाते रहते हैं। इस वेदना से बचने के लिए व्यक्ति का मन विकल्पों से भरा रहता है। ऐसा पार्तध्यानी व्यक्ति कभी भविष्य में होने वाले भोगों से सुख-प्राप्ति का निदान करता रहता है। ये सभी प्रकार के विचार प्रार्तध्यान के द्योतक
१. यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् ।।
सिद्धमेव मुनेस्तस्य साध्यं कि कायदण्डनैः ।। -२०।२६ २. साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वशिभि । --२२११३ ३. ज्ञानार्णव, २३।१६-१७ ४. अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम् ।
रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानात्तुर्यमणिमाम् ।। २३।२२
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनार्चन
हैं। इनसे दुःख ही मिलता है।
ध्यान का फल तियंचगति की प्राप्ति कहा गया है।
दुष्ट अभिप्राय वाला प्राणी जब हिंसा, असत्य, चोरी, विषय सेवन आदि में प्रानन्द मानने लगता है और इन्हीं कार्यों का चिंतन करता रहता है तो उसको रौद्रध्यान होता है । दूसरे के अपयश की अभिलाषा करना एवं दूसरों के गुणों व उपलब्धियों से ईर्ष्या करना रौद्रध्यान वाले व्यक्ति की पहिचान है । ऐसा व्यक्ति ज्ञान और विचारों से रहित होकर दूसरों को उगने में लगा रहता है। ये प्रातं एवं रौद्र ध्यान पापरूपी वृक्षों की जड़ है, जिनके फलस्वरूप नरकादि के दुःख भोगने पड़ते हैं ।'
मोह के अन्धकार से
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श्रात्मस्वरूप का चिंतन
ज्ञानार्णव में तीसरे धर्मध्यान को सवीर्यध्यान भी कहा गया है । निकलकर संसारस्वरूप एवं श्रात्मस्वरूप का चिंतन करना धर्मध्यान है कर योगी जब अपना ध्यान सिद्धात्मा में लगाता है और स्वयं अपने को भी परमात्मा बना लेता है तो वह शुक्लध्यानी कहलाता है । यही परम ध्यान है । भेद-विज्ञान से इस ध्यान की सिद्धि होती है।
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पंचम खण्ड | ७०
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ में अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन प्रमुख प्राचायों के ग्रन्थों से ध्यान विषयक सामग्री को प्रकारान्तर से ग्रहण किया है । ग्रन्थ के सम्पादक पं. बालचन्दजी शास्त्री ने अपनी भूमिका में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उससे ज्ञात होता है कि शुभचन्द्र बहुश्रुत विद्वान एवं योगी आचार्य थे । प्राचार्य रामसेन के तत्त्वानुशासन और ज्ञानार्णव के विषय में पर्याप्त समानता है। ध्यान के भेद-प्रभेदों के विवेचन में शुभचन्द्र ने अधिक विस्तार किया है। मारुति, तेजसि, आप्पा (वारुणि) जैसी धारणाओं का यहाँ उल्लेख है तथा महामुद्रा, महामन्त्र महामण्डल जैसे पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग है । पद्मसिंहमुनि द्वारा विरचित ज्ञानसार प्राकृत ग्रन्थ का विषय भी ज्ञानार्णव में समाया हुआ है। ज्ञानसार में अतीन्द्रिय मन्त्र-तन्त्र से रहित, ध्येय-धारणा से विमुक्त ध्यान को 'शून्यध्यान' कहा गया है। ज्ञानार्णव में इसी शून्यध्यान को 'रूपातीत' ध्यान नाम दिया गया है । यथाचिदानन्दमयं शुद्धममूर्त ज्ञानविग्रहम् ।
स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्र पातीतमिष्यते ।। ३७।१६
મ
१. ज्ञानार्णव २४ । ४१-४२
२. अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्ष्मलांखिताः । तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभिः ।। २८।१८
ज्ञानार्णव धौर प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के विषय में ही नहीं, उसके प्रस्तुतीकरण में भी अपूर्व समानता है। ज्ञानार्णव में ध्यान विषयक सामग्री कुछ बिखरी हुई एवं विस्तृत है, जबकि योगशास्त्र में सरल ढंग से सुबोध शैली में ध्यान का निरूपण किया गया है । विद्वानों का मत है कि योगशास्त्र परवर्ती ग्रन्थ है। ध्यान को मोक्ष का धाधारभूत कारण मानने में दोनों आचार्यों का मत एक है । वे मानते हैं कि मोक्ष कर्मों के क्षय से होता है । वह कर्मों का क्षय श्रात्मज्ञान से सम्भव है और वह प्रात्मज्ञान ध्यान के माध्यम से प्राप्त होता है । यथा
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ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप | ७१
मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानजः स्मृतः। ध्यानबीजं मतं तद्धि तस्मात्तद्धितमात्मनः ।।
-ज्ञाना. २५९ एवं योगशास्त्र ४।११३ इसी प्रकार महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र का भी ज्ञानार्णव से घनिष्ठ सम्बन्ध है। शुभचन्द्र ने योगसूत्र के यम आदि पाठ अंगों का उल्लेख करके उनके स्थान पर जैनधर्म के अनुसार अन्य पारिभाषिक शब्द देने का प्रयत्न किया है। यम के समकक्ष बारह भावनाओं एवं . अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का निरूपण किया गया है। आजीवन व्रतों के पालन को यम एवं सीमित काल तक व्रतों के पालन को नियम कहा गया है। प्रासन का ध्यान के लिए दोनों परम्पराओं में प्रमुख स्थान है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिस प्रासन से मन में स्थिरता आये वही आसन योग्य है । प्राणायाम एवं प्रत्याहार को समान रूप में दोनों ग्रन्थों ने ध्यान की पुष्टता के लिए स्वीकारा है। धारणा के कार्य में दोनों में समानता है। योगसूत्र में चित्त की एकाग्रता को धारण करने को ध्यान कहा गया है । ज्ञानार्णव में इसी बात को प्रकारान्तर से निरूपित किया गया है कि संसर्ग से रहित होकर एक ही वस्तु का जो स्थिरतापूर्वक चिन्तन किया जाता है, उसका नाम ध्यान है
एकचिन्तानुरोधो यस्तद्धयानं भावना: परा:। अथवा
चिन्तन को अन्य विषयों की ओर से हटाकर किसी एक विषय की ओर लगाना ही ध्यान है
ध्यानमाहुरपैकाग्रचिन्तारोधो बुधोत्तमाः। २३।१४ योगसूत्र में जिसे समाधि कहा गया है, उसे ज्ञानार्णव में शुक्लध्यान कहा है। इस प्रकार यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो भारतीय योग-साधना के परिज्ञान के लिए ज्ञानार्णव का विषय विशेष महत्त्व का है। क्योंकि इसमें योग की कई परम्परामों एवं विधियों को सुरक्षित रखा गया है। ज्ञानार्णव में ध्यान के वर्णन के साथ-साथ प्रकारान्तर से जैन-साधना के कई अंगों का भी वर्णन हो गया है। ग्रन्थकार का यहां यह लक्ष्य प्रतीत होता है कि ध्यान का उपयोग सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए किया जाना चाहिए। वही प्राध्यात्मिक ध्यान परम आनन्द का स्रोत हो सकता है।
-अध्यक्ष जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय
उदयपुर (राज.)
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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अर्चनार्चन
जैनदर्शन और योगसाधना
कमला माताजी, इन्दौर
इन दोनों में दुग्ध और जल जैसा संयोग कह लें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । जैनदर्शन में योगसाधना पर इतना बल क्यों दिया जाता है ? सत्य है, मात्मा के साथ तीनों योगों का मिश्रण जल के समान है। जब तक योगों का निरुधन नहीं होगा तब तक आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को न पा सकेगी ।
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वर्तमान में योगाभ्यास विपश्यना आदि साधनाओं के लिए शिविर आदि का आयोजन किया जाता है । सभी साधकों का व मार्गदर्शकों का एक ही लक्ष्य है कि हम शान्ति को प्राप्त करें और इसलिए ध्यान आदि क्रियाएँ की जाती है करवाई जाती हैं। कुछ समय के लिए काययोग अभ्यास के द्वारा स्थिर हो गया और उसके साथ ही वचन - योग तो स्थिर हो ही जाता है। लेकिन मनोयोग को रोकना इतना आसान नहीं है। इसकी गति बहुत तीव्र होती है। यह सहज में वश में नहीं किया जाता । उत्तराध्ययनसूत्र के २३ वे अध्ययन में केशीस्वामी श्रमण ने भ. गौतम से अपनी प्रश्नपृच्छा के दौरान यह प्रश्न भी रक्खा
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प्रश्न- मणी साहसिओ भीमो वुटुस्सो परिधावई ।
जंसि गोयम ! आरूढो, कहं तेण न हीरसि ॥ ५५ ॥ उत्तर- पधावन्तं निगिहामि सुपरस्सीसमाहियं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई | ५६ ॥
कितना सुन्दर प्रत्युत्तर इधर-उधर दौड़ते हुए मन रूपी अश्व को सन्मार्ग पर लाने के लिए सतत सूत्र रूपी लगाम अपने हाथ में रक्खें। वह कैसे ? सुन्दर चिन्तन के
द्वारा
एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसण संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥
एक शाश्वत आत्मा ही मेरा है जो ज्ञान- दर्शनमय है । श्रात्मा के सिवाय सभी भावपदार्थ मुझसे अलग हैं। संयोग से यह मेरे साथ जुड़ गए हैं— वस्तुतः मेरा इनसे कुछ सम्बन्ध नहीं है ।
हमारी जिल्ह्वा पर ही न थिरकते रहें ये शब्द इन्हें अन्तर में उतारने का प्रयत्न बराबर चालू रहे। इन भावों के द्वारा सचित प्रचित्त परिग्रह के स्वरूप को समझें, जिन्हें अपना मानकर चलने का अभ्यास हमें अनादि काल से है । शुद्ध समझ न होने के कारण श्रनित्य में ही नित्यता का आभास हो रहा है । कभी सोचा नहीं ! चिन्तन किया नहीं । सही समझ के प्रभाव में इधर-उधर सुख प्राप्ति के लिए दौड़ते रहे। हमें एक नजर इधर भी डालनी है। जब शिविरों में प्रवेश किया जाता है, तब साधक के साथ पल्प परिग्रह रहता
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जैनदर्शन और योगसाधना / ७३
है और साधना काल में पारिवारिक जीवन से भी पृथक रहता है। सांसारिक क्रियाओं से लगभग दूरी हो जाती है। मेरी तेरी जेवरी का बन्धन भी ढीला हो जाता है । भले ग्रामानुग्राम से आये हुए भाई बहनों से घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है शिवरार्थी परिवार के रूप में, लेकिन अन्तर में वह मानता है कि यह मेरा नहीं है। इसलिए उसे साधनाकाल में शांति अनुभव होता है। लेकिन घर लौटने पर पुनः राग-द्वेष, प्रात-रौद्र ध्यान उसे घेरे रहते हैं। जितने २ अंशों में सचित्त-अचित्त उपाधियों से ममत्व हटाने का प्रयत्न किया जायेगा, उतने २ अंशों में शांति प्राप्त होती जायेगी। इसीलिए जैनदर्शन में महाव्रतों एवं अणुव्रतों का प्रावधान है। यह सब बाह्य उपाधियों से मुक्त होना है, लेकिन प्राभ्यन्तर उपाधियों से छुटकारा पाने के लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है । सतत जागरूक रहने की प्रावश्यकता है। भ. महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक ध्यानमग्न रहकर चिन्तन किया और प्राभ्यन्तर उपाधि से छुटकारा पाकर के सर्वज्ञता प्राप्त की। शास्त्रों में साधना का जहाँ वर्णन पाता है, वहाँ प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान का विधान है। इसका यही प्राशय है कि ज्ञानरूपी सूत्र का पालम्बन लेकर ध्यान के द्वारा अशुद्ध भावों को रोके । अशुभ से शुभ में प्रवेश कर शुद्धता की ओर बढ़ें। __महापुरुषों ने जिस मार्ग का अनुसरण कर सिद्धि प्राप्त की, वही मार्ग भव्य प्राणियों के लिए कहा गया है । अशुभ मनोयोग कर्मबन्धन में अपनी पूरी २ भूमिका निभाता है तो शुभ मनोयोग अगर उत्तरोत्तर शुद्धता की ओर बढ़ता जाये तो अन्तर्मुहूर्त में पूर्णता को प्राप्त करवा देता है। वचनयोग, काययोग तो इसीके इशारे पर चलते रहते हैं, केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर लेने के बाद भी सयोगीकेवली ही कहे जाते हैं। वहां पर भी चार अघातिक कर्म से बद्ध रहती है प्रात्मा । यह है योगों का साम्राज्य !जब योगों का निरुधन सम्पूर्ण रूप से हो जाता है तो क्षणिक समय में सिद्धत्व प्राप्त कर लेती है आत्मा । अतएव सतत जागरूक रहते हुए शुभाशुभ योगों पर दृष्टि रखने का प्रयास चाल रखना चाहिए। जलरूपी योगों से मुक्त होकर दुग्ध रूपी शुद्ध प्रात्मत्व को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होगी तभी आधि, व्याधि, उपाधि से छटकारा होगा । अतएव जैनदर्शन में योगसाधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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योग-वाङ्मय के महान् प्रणेता आचार्य हरिभद्र रचित योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण
o आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री, एम. ए. 'त्रय', पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
अर्चनार्चन
प्राचार्य हरिभद्र सूरि अपने युग के महान् प्रतिभाशाली विद्वान तथा मौलिक चिन्तक थे। वे बहुश्रुत थे, समन्वयवादी थे, माध्यस्थ्य-वृत्ति के थे । उनकी प्रतिभा उन द्वारा रचित अनुयोगचतुष्टय विषयक धर्म-संग्रहणी "द्रव्यानुयोग", क्षेत्र-समास-टीका "गणितानुयोग", पंचवस्तु, धर्म-बिन्दु "चरणकरणानुयोग", समराइच्चकहा "धर्मकथानुयोग", अनेकान्त-जयपताका "न्याय" तथा भारत के तत्कालीन दर्शन-पाम्नायों से सम्बद्ध षड्दर्शनसमुच्चय आदि ग्रन्थों से प्रकट है।
योग के सम्बन्ध में जो कुछ उन्होंने लिखा, वह न केवल जैन योग-साहित्य में, वरन पार्यों के समग्र योगविषयक चिन्तन में एक अनुपम मौलिक वस्तु है।
उनकी योग विषयक रचनाओं में योगदृष्टिसमुच्चय का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रसादपूर्ण प्रांजल संस्कृत के दो सौ अट्ठाईस अनुष्टुप श्लोकों में है। प्राचार्य ने इसमें योग के सन्दर्भ में सर्वथा मौलिक और अभिनव चिन्तन दिया है। जैन शास्त्रों में प्राध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन चतुर्दश गुणस्थान के रूप में किया गया है। प्राचार्य हरिभद्र ने प्रात्मा के विकास-क्रम को योग की पद्धति पर एक नये रूप में विश्लेषित किया। उन्होंने ऐसा करने में जिस शैली का उपयोग किया, वह संभवतः अब तक उपलब्ध योगविषयक ग्रन्थों में अन्यत्र प्राप्त नहीं है। उन्होंने इस क्रम को आठ योग दृष्टियों के रूप में विभक्त किया। मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा तथा परा, प्राचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित आठ योग दृष्टियां हैं।'
इन दृष्टियों का विवेचन करने से पूर्व प्राचार्य ने योग के सम्बन्ध में एक और विवेचन दिया है, जिसे उन्होंने इन दृष्टियों को समझने से पूर्व समझ लेना उपयोगी माना है। उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग तथा सामर्थ्य योग के रूप में योग के तीन भेद किये हैं।
उन्होंने लिखा है कि योग-साधकों के उपकार हेतु मैं इच्छायोग आदि का स्वरूप व्यक्त कर रहा हूँ। इनका योग से निकटता का सम्बन्ध है ।।
१. मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधता ।।
-~-योगदृष्टिसमुच्चय १३ २. इहैवेच्छादियोगानां स्वरूपमभिधीयते ।
योगिनामुपकाराय व्यक्तं योगप्रसंगतः ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय २
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ७५
इच्छायोग
प्राचार्य हरिभद्र ने इच्छायोग का विश्लेषण करते हुए लिखा है
"एक ऐसा साधक है, जिसकी धर्म करने की हार्दिक इच्छा है, जो श्रुत या पागम के तत्व का ज्ञाता है. शास्त्र-ज्ञान का जो अधिकारी है, पर प्रमाद के कारण उसका धर्मयोगधर्माराधना विकल या असम्पूर्ण है, ऐसे साधक का योग-उपक्रम इच्छायोग कहा जाता है।"
इच्छा का प्राशय यहाँ धर्म करने की प्रान्तरिक भावना, परम रुचि, परम प्रीति, भक्ति भाव या प्रशस्त राग है। इस सन्दर्भ में विवेचक विद्वानों ने विशेषरूप से कहा है कि यह इच्छा निर्दभ होनी चाहिए। दंभ, कपट, माया या ढोंग जहाँ इच्छा के साथ जुड़ जाते हैं, वहां उसकी निरर्थकता स्वतः सिद्ध है । दंभ आत्मविकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। दंभी के अन्तहृदय में धर्म के पवित्र सिद्धान्त टिक नहीं सकते। उन्हें तो टिकने के लिए पवित्र, सरल, निश्छल पृष्ठभूमि चाहिए। उपाध्याय यशोविजय ने दंभ की परिहेयता का वर्णन करते हुए अध्यात्मसार में बहुत सुन्दर लिखा है । उन्होंने कहा है
"दंभ मुक्ति रूपी बेल को जला डालने के लिए आग है। वह धर्मक्रिया रूपी चन्द्रमा को ग्रस लेने के लिए राहु है । दुर्भाग्य या घोर अनिष्ट का कारण है, आध्यात्मिक सुख को रोकने के लिए वह अर्गला है।
"दंभ ज्ञान के पर्वत को भग्न या विनष्ट कर डालने में वज्र है। वह काम की अग्नि को बढ़ाने में घृत है । विपत्तियों का सुहृद् है-मित्र है तथा व्रत-लक्ष्मी को चुराने वाला चोर है।
"जो व्यक्ति दंभ, छल या स्वदोष-पाच्छादन हेतु व्रत स्वीकार कर परम पद पाना चाहता है वह लोह की नौका पर सवार होकर समुद्र को लांघने की इच्छा करता है ।
"यदि दंभ नहीं मिटा तो व्रत से, तप से क्या बनने वाला है ? यदि नेत्रों का अन्धापन नहीं गया तो दर्पण का क्या उपयोग है ?
"बाल उखाड़ना, जमीन पर सोना, भिक्षा से जीवन चलाना, ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करना-दंभ से ये सब दूषित हो जाते हैं, निष्फल बन जाते हैं, जैसे-काकपदादि दोष-काले धब्बे आदि से बहुमूल्य रत्न दूषित हो जाता है।
"रस-लम्पटता-सुस्वादु भोजन के प्रति लोलुपता, देह की सज्जा तथा काम्य भोगइनका त्याग सरलता से किया जा सकता है, परन्तु दंभ का त्याग बहुत कठिन है।"
१. कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः ।
विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ॥-योगदृष्टिसमुच्चय ३ २. दंभो मुक्तिलतावह्निर्दभो राहुः क्रियाविधी।
दौर्भाग्यकारणं दंभो दंभोऽध्यात्मसुखार्गला ॥ .दंभो ज्ञानाद्रिदंभोलिदभः कामानले हविः । व्यसनानां सहददंभो दंभश्चोरो व्रतश्रियः ।। दंभेन व्रतमास्थाय यो वांछति परं पदम् । लोहनावं समारुह्य सोऽब्धेः पारं यियासति ।।
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / ७६
दंभशून्य इच्छा धाराधक को अपने पथ पर अग्रसर होने को सहजतया उत्साहित करती है । यह साधनोद्यत साधक की प्रारंभिक पर प्रत्यन्त उपयोगी भूमिका है । इच्छा किसी भी कार्य का पूर्व रूप है इच्छा जब तीव्र से तीव्रतर धौर तीव्रतम हो जाती है तो सहज ही भीतर ही भीतर कर्मशक्ति उद्वेलित होती है।
इच्छा भावना का विषय है । इच्छा को कार्य की ओर अग्रसर होने में ज्ञान या विवेक का साहचर्य चाहिए। ज्ञान सहचरित इच्छा यथार्थ की ओर गतिशील होती है।
इच्छायोग की भूमिका में स्थित साधक सम्यकदृष्टि होता है; ज्ञानसम्पन्न होता है । इच्छा, श्रद्धा और ज्ञान के सहारे वह अपने साधना पथ पर गतिशील रहता है। पर उसमें निरन्तरता या अस्खलितता नहीं रहती, क्योंकि भीतर प्रमाद विद्यमान रहता है, इसलिए उसका योग अविकल नहीं होता, विकास घसंपूर्ण होता है। प्रमाद बड़ा भयावह है। माद का अयं मदोन्मत्तता, नशा या मस्ती है जब उसकी मात्रा सघनता ले लेती है, तो वह प्रमाद बन जाता है । प्रमाद से प्राच्छन्न व्यक्ति पर भीषण नशा छा जाता है। मदिरा पीया हुआ मनुष्य जिस प्रकार नशे के कारण लड़खड़ाता हुआ कहीं गिर पड़ता है, वही स्थिति प्रमाद के नशे से ग्रस्त व्यक्ति की होती है । इच्छा उत्साह देती है, ज्ञान मार्ग देता है, श्रास्था गतिशील रहने को प्रेरित करती है। गति में सप्राणता आती है, पर ज्यों ही प्रमाद का एक झटका लगता है, गति कुंठित हो जाती है। योग में स्खलना या जाती है। वह विकल, कुण्ठित या बाधित हो जाता है ।
जैन धागमों में प्रमाद छोड़ने व प्रमादमय जीवन स्वीकार करने की स्थान-स्थान पर बड़े स्फूर्त शब्दों में प्रेरणा दी गई है। उत्तराध्ययनसूत्र में इस संदर्भ में बड़ा उद्बोधप्रद विवेचन है । कहा गया है
"जीवन की टूटने वाली डोर सांधी नहीं जा सकती। जरा वृद्धावस्था से प्राक्रांत हो जाने पर मनुष्य शक्ति-टूट होकर प्रशरण बन जाता है। इन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह जरा भी प्रमाद न करे। जरा सोचे, जो प्रमत्त, हिंसारत मौर प्रयत-असंयतेन्द्रिय हैं, मौत के समय किसकी शरण ग्रहण करेंगे ?""
और भी कहा है
किं व्रतेन तपोभिर्वा दंभश्वेन निराकृतः । किमादर्शन कि दीपेंद्यान्ध्यं न दृशोर्गतम् ॥ केशलोचधराशय्या भिक्षाब्रह्मव्रतादिकम् । दंभेन दुष्यते सर्व त्रासेनेव महामणिः || सुत्यजं रसलपट्य सुत्यजं देहभूषणम् । सुत्यजा: कामभोगाश्च दुस्त्यजं दंभसेवनम् || १. असंखयं जीविच मा पमायए, जरोवणीवरस है णत्थि ताणं ।
॥
एवं वियाणाहि जणे पत्ते कष्णु विहिंसा अजया गहिति ॥
- अध्यात्मसार ५४-५९
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- उत्तराध्ययन ४.१
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण / ७७
"तुम्हारा शरीर परिजीर्ण हुमा जा रहा है, केश पक कर सफेद बनते जा रहे हैं, तुम्हारे कानों की शक्ति तथा अन्य इन्द्रियों की शक्ति ह्रास पाती जा रही है, क्या नहीं देखते ? क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत करो।"'
__ "जिस प्रकार कमल शरद्ऋतु के निर्मल जल से भी अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तुम आसक्तियों से अलिप्त रहो, ऊँचे उठ जागो, स्नेह-रागात्मक बन्धनों का वर्जन कर डालोउनका परित्याग कर दो। यह तभी होगा, जब तुम क्षण भर के लिए भी प्रमाद नहीं करोगे।"२
"तुम कंटकाकीर्ण मार्ग को छोड़कर विशुद्ध महापथ पर आये हो। क्षण भर भी प्रमाद किये बिना विशुद्ध भाव से इस पर बढ़ते रहो।
"जैसे कोई निर्बल भारवाहक ऊबड़-खाबड़ मार्ग में पड़कर पश्चात्ताप करता है, कहीं तुमको भी बाद में वैसा न करना पड़े। इसलिए क्षण भर भी प्रमाद मत करो।"
भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित कर उपर्युक्त बातें कही थीं, जो प्राणी मात्र के लिए लागू हैं। वास्तव में गौतम तो निमित्तमात्र थे। भगवान महावीर का उपदेश तो सभी के लिए था।
प्राचारांगसूत्र में कहा गया है-प्रमत्त या प्रमादी को सब ओर से भय ही भय रहता है। अप्रमत्त या अप्रमादी को किसी ओर से भय नहीं रहता, वह सर्वथा निर्भय रहता है।
अन्यान्य शास्त्रों में भी प्रमाद को अनर्थमूलक एवं हानिकारक बताया गया है। प्राचार्य शंकर ने प्रमाद की बड़े प्रोजस्वी शब्दों में भर्त्सना की है
"ज्ञानी के लिए प्रमाद से बढ़कर कोई दूसरा अनर्थ नहीं है। प्रमाद से मोह उत्पन्न होता है। मोह से अहंबुद्धि पैदा होती है, उससे बन्ध निष्पन्न होता है, जिसका परिणाम व्यथा-वेदना या संक्लेश है।"५ १. परिजरइ ते सरीरयं, केसा पंडरया हवंति ते । से सोयबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए ।
-उत्तराध्ययनसूत्र १०.२१ २. वच्छिदं सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए ।।
-उत्तराध्ययनसूत्र १०.२८ ३. प्रवसोहिय कंटगापह, प्रोइण्णो सि पहं महालयं ।
गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम ! मा पमायए । अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमे वगाहिया । पच्छा पच्छाणतावए, समयं गोयम ! मा पमायए ।।
-उत्तराध्ययनसूत्र १०.३२,३३ ४. सव्वनो पमत्तस्स भयं
सव्वो अपमत्तस्स नत्थि भयं । --आचारांग के सूक्त, अंक ६३, पृ. १६४ ५. न प्रमादादनर्थोऽन्यो ज्ञानिनो स्वस्वरूपतः । ततो मोहस्ततोऽहंधीस्ततो बंधस्ततो व्यथा ॥
-विवेकचडामणि
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पंचम खण्ड | ७८
इच्छायोग में अवस्थित साधक को इस बात के लिए सदा प्रयत्नशील रहना होगा कि वह पद-पद पर आने वाले प्रमाद का सामना करे, उसे अपने पर हावी न होने दे। ऐसा करने के लिए उसे सतत अन्तर्जागरित रहना होगा। ज्यों-ज्यों वह अपने प्रयत्न में सफल होता जायेगा, उसकी साधना गति पकड़ती जायेगी।
अर्चनार्चन
शास्त्रयोग
साधक की एक ऐसी भूमिका होती है, जहां वह यथाशक्ति अप्रमादावस्था साध लेता है, शास्त्र का उसे तीव्र बोध होता है, आगम तथा काल आदि की दृष्टि से उसका योग अविकल-अखण्ड होता है।'
शास्त्रयोग में शास्त्रज्ञान की प्रधानता है। प्रागमज्ञान या श्रुत-बोध उसमें इतनी तीव्रता लिए होता है, उसमें इतना कौशल और नैपुण्य होता है कि उसकी अपेक्षा से वह योग अविकल या अखण्ड स्थिति पा लेता है। जिनकी शास्त्रज्ञता इतनी गहन होती है, वे अपने द्वारा प्राचरित कार्यों के यथार्थपन और अयथार्थपन की भलीभांति जानकारी रखते हैं । फलतः वे जागरूक रहते हैं तथा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अतिचार का सेवन नहीं करते। ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार का ऐसे साधक अविकल रूप में पालन करते हैं। इनके समय, पद्धति, विधि आदि का उन्हें यथावत् ज्ञान होता है, जिससे वे ठीक पालन करने में सक्षम होते हैं। उनका वैसा आचरण त्रुटि-शून्य या विकलता-रहित-अखण्ड होता है। इसलिए शास्त्रयोग को अविकल कहा गया है।
"शास्ति इति शास्त्रम"-जो शासन करता है, आदेश करता है, उसे शास्त्र कहा जाता है। शास्त्र करने योग्य कार्य का आदेश करता है। शास्तापुरुष, प्राप्तपुरुष या प्रमाणभूत पुरुष का वचन भी शास्त्र कहा जाता है । क्योंकि वह कार्य-प्रकार्य का, विवेकपूर्वक कार्यकरने योग्य का विधान करता है। शासन का-शास्त्र का अर्थ त्राण या रक्षा करने वाला भी है। संसार के आवागमन, जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाकर शास्त्र शाश्वत सुख का मार्ग बताता है। इस प्रकार वह जागतिक भय से बचाव करता है। जिन्होंने राग, द्वेष, वासना, लोभ, मोह जैसी वत्तियों का सम्पूर्ण रूपेण उच्छेद कर सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लिया है, वे ऐसी वाणी बोलते हैं, जो सत्य, तथ्य तथा त्रिकालाबाधित होती है। उनकी वाणी प्राप्तवचन या शास्त्र कोटि में प्राती है।
ज्ञान का कोई पार नहीं है। शास्त्र महासागर की तरह विशाल है। उसका पार पाना निश्चय ही दुष्कर है । क्षयोपशम, अभ्यास तथा सद्गुरु के अनुग्रह से शास्त्रयोगी शास्त्रसागर को एक अपेक्षा से पार कर चुका होता है। वैसे शास्त्र के मूल रहस्य को जो एक शुद्ध प्रात्मा के रूप में अवस्थित है, जान लेता है, वह शास्त्र का नवनीत पा लेता है।
प्राचार्य कंदकंद ने तो यहाँ तक लिखा है
१. शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः ।
श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय ४
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ७९
"जो श्रुत-शास्त्र द्वारा केवल शुद्ध प्रात्मा को जान लेता है, लोकप्रदीपकर-जगत को ज्योति प्रदान करने वाले ऋषि, द्रष्टा या ज्ञानी उसे श्रुतकेवली, शास्त्रों का संपूर्ण वेत्ता कहते हैं।
___ "जो समग्र श्रुतज्ञान को जानता है, उसे जिन श्रुतकेवली कहते हैं । समस्त श्रुतज्ञान अन्ततः मात्मा के ज्ञान में ही समाविष्ट होता है, इसलिए एक प्रात्मा को जानने वाला श्रुतकेवली है।''
प्राचार्य कुंदकुंद ने बहुत गहरी बात कही है। एक प्रात्मा को जान लेना कोई साधारण बात नहीं है। एक प्रात्मा को जानने वाला उस प्रात्मज्ञान के परिपार्श्व में क्या बहत कुछ, सब कुछ नहीं जान लेता? इसीलिए तो प्राचारांग सूत्र में कहा है
"जो एक को जानता है, वह सब को जानता है, जो सबको जानता है, वह एक को जानता है।"
प्राचार्य हेमचन्द्र की "अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका" की स्याद्वाद, मंजरी नामक व्याख्या के रचनाकार प्राचार्य मल्लिषेण प्रथम श्लोक की व्याख्या में प्रसंगोपात्ततया लिखते हैं
"अनन्त विज्ञान के बिना किसी एक भी पदार्थ का यथावत् परिज्ञान नहीं हो सकता।"
वहां उन्होंने प्राचारांग का उक्त वचन उद्धृत किया है और उसे विशेष रूप से स्पष्ट किया है
"जिसने एक भाव को सर्वथा-सब प्रकार से सम्पूर्ण रूप में देख लिया, उसने सभी भाव सर्वथा देख लिए। जिसने सब भाव सर्वथा देख लिए, उसने एक भाव सर्वथा देख लिया।"५
इसका सारांश यह है कि किसी एक तत्त्व को सम्पूर्ण रूप में जानने का अधिकारी वही कहा जा सकता है, जो उसके अतिरिक्त अन्य तत्त्वों को भी जानता है। उन्हें जाने बिना उस एक तत्त्व की अनेक अपेक्षाओं से जुड़ा हुअा ज्ञान अप्राप्त रह जाता है।
१. जो हि सुदेणभिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं ।
तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।। जो सुयणाणं सव्वं जाणह सुयकेवलि तमाहु जिणा ।
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ॥ -समयसार १.९-१० २. जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ से एग जाणइ ॥ -प्राचारांग के सूक्त ६२ ३. अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्य सिद्धान्तममर्त्य पूज्यम् ।
श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयंभवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ -अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, ४. विज्ञानानन्त्यं विना एकस्याप्यर्थस्य यथावत्परिज्ञानाभावात् ।
-स्याद्वादमंजरी ५.५८, सं. ए. बी. ध्रव . ५. एको भावः सर्वथा येन दृष्टः,
सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावाः सर्वथा तेन दृष्टः ।। -स्याद्वादमंजरी पृ. ५८, सं ए. बी. ध्रव ।
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पंचम खण्ड |८०
अर्चनार्चन
शास्त्रयोगी की दूसरी विशेषता श्रद्धालुता है। वह परम श्रद्धावान् होता है। परमार्थ के प्रति, प्राप्त पुरुषों के प्रति, शास्त्र और सद्गुरु के प्रति उसके मन में अटल श्रद्धा होती है।
उत्तराध्ययनसूत्र में बतलाया गया है--
"मनुष्य-जन्म, श्रुति-धर्म-श्रवण, श्रद्धा तथा संयम में पराक्रम-चारित्र-पालन में तीव्र प्रयत्न-प्राणी को ये चार उत्तम संयोग प्राप्त होने बहुत दुर्लभ हैं।''
ये चारों ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनमें जीवन की सार्थकता समाहित है। इनमें भी श्रद्धा का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि श्रद्धा के अभाव में इन सबकी सार्थकता निरस्त हो जाती है।
गीता में विभिन्न प्रसंगों पर श्रद्धा का बड़ा मार्मिक विश्लेषण हया है। गीताकार ने कहा है---ज्ञान-रहित, श्रद्धा-रहित और संशय-ग्रस्त पुरुष-ये तीनों विनष्ट हो जाते हैं, अर्थात् उनका उत्थान अवरुद्ध हो जाता है।
उन्होंने संशयापन्नता को तो और भी बुरा बतलाया है। कहा है कि संशयात्मा का न यह लोक सधता है और न परलोक ही सधता है, उसे कहीं सुख प्राप्त नहीं होता।'
आचार्य शंकर ने इस प्रसंग की व्याख्या में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है
"यद्यपि प्रज्ञ और श्रद्धाशून्य-ये दोनों नष्ट होते ही हैं, पर उस तरह नहीं, जिस तरह संशयात्मा । संशयात्मा तो सर्वाधिक पापिष्ठ है ।"3
वास्तव में प्राणी का जीवन श्रद्धा, प्रास्था और विश्वास पर टिका है। समग्र जीवनव्यवहार के मूल प्रेरक स्रोत यही हैं । श्रद्धा और विश्वास के सहारे व्यक्ति कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है, क्या से क्या कर डालता है । गीताकार ने "श्रद्धामयोयं पुरुष:"-यह पुरुष श्रद्धामय है, ऐसा जो उल्लेख किया है, बड़ा पारमार्थिक है। इसके साथ “यो यच्छद्धः स एव सः" गीताकार ने इतना और कहा है। अर्थात् जिस प्राणी की जैसी श्रद्धा है, वह स्वयं भी वही है, उस श्रद्धा के अनुरूप ही है।
श्रद्धा से अन्त:शक्ति का उद्रेक होता है। महाभारत में वर्णित एकलव्य का वत्तान्त इसका साक्षी है । एकलव्य ने प्राचार्य द्रोण की मृत्तिकानिर्मित प्रतिमा में गुरुत्व की श्रद्धा कर धनुर्विद्या में अप्रतिम कौशल प्राप्त किया, जो द्रोण के परम प्रिय और योग्य शिष्य अर्जन के लिए भी ईर्ष्या का विषय बन गया।
१. चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो।
माणुसत्तं सुइ सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। -उत्तराध्ययनसूत्र ३.१ प्रज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परोन सुखं संशयात्मनः ॥ -श्रीमद्भगवद्गीता ४.४० प्रज्ञाश्रद्धानौ यद्यपि विनश्यतः तथापि न तथा यथा संशयात्मा, संशयात्मा तु पापिष्ठः
सर्वेषाम् ॥ ४. श्रीमद्भगवद्गीता १७.३, शांकरभाष्य ४.४०
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण |८१
__ गीता के १७वें अध्याय में यज्ञ, दान, तप तथा कर्म के सत्स्वरूप एवं असत्स्वरूप का विशद विश्लेषण किया गया है। वहाँ अन्त में श्रद्धा के सम्बन्ध में एक बड़ी मार्मिक बात कही गई है। श्रद्धा के बिना किया हुमा हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और आचरित शुभ कर्म असत् कहलाता है । अर्थात् यज्ञ, दान, तपश्चरण और सत्कर्म अन्त:श्रद्धा और विश्वास के बिना जहाँ होते हैं, वहाँ वे केवल यांत्रिक होते हैं, कर्ता का अन्तर्मन उनसे नहीं जुड़ता। मुख मंत्रोच्चारण करता हैं, हाथ हिलते हैं, द्रव्य, पदार्थ प्रयुक्त होते हैं-प्रदत्त होते हैंहोता यह सब है, पर इस होने के साथ भावना का साहचर्य नहीं है। इसलिए यह सबका सब होना निष्प्राण है। गीताकार इतना और कहते हैं कि इनका न मरने के पश्चात् और न इस लोक में ही सुखप्रद फल होता है।'
गीता के अन्तिम १८वें अध्याय में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को संबोधित कर कहा है कि हमारा यह धर्म्य-धर्मानुप्राणित, धर्ममय संवाद जो पढ़ेगा, उसका यह ज्ञानयज्ञ एक प्रकार से मेरी पूजा या उपासना ही होगा । इस तथ्य को श्रद्धा के साथ जोड़ते हुए उन्होंने विशेष रूप से कहा कि जो श्रद्धावान् ईर्ष्यादि दोषवजित पुरुष इसको सुन भी लेगा, वह पाप-कर्मों से मुक्त होकर पुण्यात्मा पुरुषों को मिलने वाले शुभ लोक प्राप्त कर लेगा।
प्राचार्य शंकर ने यहाँ प्रयुक्त 'अपि' शब्द की व्याख्या करते हुए यह संकेत किया है कि जो पुरुष श्रद्धा से मात्र सुन लेता है, वह भी इतना महान् फल पा लेता है, समझने वाले की तो बात ही क्या?3
श्रद्धा वास्तव में बड़ा दुर्लभ गुण है । यह जीवन-विकास के लिए अत्यन्त उपयोगी है, पर इसे आत्मसात् करना सरल नहीं। श्रद्धा में अन्तर्मन को किसी तत्त्व में समर्पित करना होता है। समर्पण के बिना तादात्म्य नहीं सधता । समर्पित होने के लिए बहुत प्रकार के प्रवलेपों को मन से निकालना होता है, अहंकार, मान, तथाकथित प्रतिष्ठा, प्रशस्ति जिनमें शामिल है। श्रद्धा विनय-सापेक्ष है। उसके लिए विनीत भाव की अत्यन्त आवश्यकता है। उद्धत और उइंड व्यक्ति बहुत बड़ा ज्ञानी भले ही हो जाय, प्रशस्त श्रद्धालु नहीं हो सकता । शास्त्रयोगी की यह विशेषता है, उसमें तीव्र ज्ञान होता है और दृढ़ श्रद्धा होती है । आत्मोन्नयन का सही पथ उसे प्राप्त होता ही है, जिस पर आगे बढ़ने में ये दो गुण उसके लिए एक प्रेरणाशक्ति के रूप में काम करते हैं।
शास्त्रकारों ने बताया है, श्रद्धा दो प्रकार की हैं-संप्रत्ययात्मक तथा प्राज्ञाप्रधान । संप्रत्यय का अर्थ सम्यक रूपेण तत्त्व-प्रतीति है। यह गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन एवं परीक्षण१. अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ ! न च तत्प्रेत्य नो इह ।। -श्रीमद्भगवद्गीता १७.२८ २. श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः । सोऽपि मुक्तः शुभल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता १८-७१ ३. श्रद्धावान् श्रदधानः अनसूयः च असूया वजितः सन् इमं ग्रन्थं शृणुयाद् अपि यो नरः
अपि शब्दात् किमुत अर्थज्ञानवान् सः अपि पापाद् मुक्तः शुभान् प्रशस्तान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् अग्निहोत्रादिकर्मवताम् ।
-श्रीमद्भगवद्गीताशांकरभाष्य १८,७१
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / ८२
सापेक्ष है । जिस प्रकार सोने के खरेपन को जांचने के लिए उसे कसौटी पर घिसा जाता है, भीतर कोई अन्य धातु मिली हुई न हो, इसलिए उसके टुकड़े करके देखा जाता है, सूक्ष्म रूप में इतर धातु कण न मिले हों, इसके लिए उसे तपाया जाता है, उसी प्रकार शास्त्रयोगी तन्मयतापूर्वक शास्त्रगत तत्त्व को परखता है- जिज्ञासा और भ्रात्म-कल्याण की भावना से जिस प्रकार कस, छेद और ताप द्वारा सोने का खरापन प्रकट हो जाता है, गृहीता भाश्वस्त हो जाता है, उसी प्रकार शास्त्रयोगी शास्त्र की मोक्षपरकता या अध्यात्मोत्कर्षमूलकता के प्रति सर्वथा प्राश्वस्त, विश्वस्त और दृढ़श्रद्ध हो जाता है । यह शास्त्रयोगी की संप्रत्ययात्मक श्रद्धा है। इस तरह निष्पन्न श्रद्धा स्वभावतः अडिग होती ही है।
आज्ञा-प्रधान श्रद्धा श्राप्तपुरुष, परम विश्वस्त पुरुष के प्रति विश्वास या श्रास्था से पैदा होती है । प्राप्तपुरुष राग, द्वेष, मोह, माया, लोभ आदि से सर्वथा विमुक्त होता है, इसलिए उसका वचन संपूर्ण रूप से सत्य होता है क्योंकि राग, द्वेष, मोह आदि ही सत्य की प्रतीति, अभिव्यक्ति पर प्रतिपादन में बाधक होते हैं। ये उसमें होते नहीं, इसलिए उसका वचन निर्वाध और निर्द्वन्द्र रूप में उपादेय एवं प्राह्य होता है। प्राप्त पुरुष को सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्वों की साक्षात् मनुभूति होती है। इसलिए उसका निरूपण हेतु और तर्क से प्रवाध्य होता है । शास्त्रयोगी यह सोचकर संदिग्ध रूप से प्राप्तपुरुष के निरूपण में श्रद्धावान् होता है। इसे श्राज्ञाप्रधान इसलिए कहा जाता है कि जिस प्रकार श्राज्ञा या प्रदेश को बिना ननु नच के स्वीकार किया जाता है, उसी प्रकार वीतराग प्राप्तपुरुष प्रतिपादित श्रागम श्रथवा शास्त्र को ग्रहण किया जाता है। उसे ग्रहण करते किसी प्रकार का प्रश्नचिह्न मन में खड़ा नहीं होता, क्योंकि शास्त्रयोगी जानता है कि काल का विपर्यय, विशिष्ट ज्ञान का विच्छेद, बुद्धि का मान्य तथा पुरुषार्थ के प्रकर्ष का प्रभाव आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जिनसे वह स्वयं सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्वों को अपनी प्रशा के सहारे ग्रात्मसात् नहीं कर पाता किन्तु वीतराग प्राप्तपुरुष ने जो कुछ कहा है, वह सर्वथा सत्य एवं प्राह्य है प्राप्तपुरुष का मायाविरहित, स्पृहारहित तथा प्रासक्तिशून्य पवित्र जीवन ही इसका प्रमाण है कि वे श्रन्यथा भाषण नहीं करते। वे सर्वज्ञाता सर्वदर्शी हैं, इसलिए सत्य संपूर्णरूप से उनके ज्ञान का विषय है।
ये दोनों प्रकार की श्रद्धाएँ साधक को सत्य सिद्धान्त के प्रति समर्पित बना देती है । शास्त्रयोगी में संप्रत्ययात्मक अथवा प्राज्ञाप्रधान श्रद्धा निर्द्वन्द्र रूप में होगी ।
जैसा ऊपर संकेत किया गया है, बडा शास्त्रयोगी का वह संबल है, जिसके सहारे वह उत्तरोत्तर प्रप्रमत्त भाव की घोर बढ़ता जायेगा, जो म्रात्मा के उन्नयन का निर्वाध पथ है।
सामर्थ्ययोग
सामर्थ्य शब्द समर्थ से बना है। समर्थ का भाव सामर्थ्य है। समर्थ में सम् + अर्थ का योग है। सम् उपसर्ग सम्यक् वाची है, अर्थ का अभिप्राय प्रयोजन, आशय, लक्ष्य या ध्येय है । शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार समर्थ वह है, जिसमें अपने आशय या ध्येय के सम्यक् निर्वाह या संपूति की योग्यता है। यों समर्थ का अर्थ सक्षम, प्रबल, शक्तिमान् या योग्य होता है। सामर्थ्य का अभिप्राय क्षमता, प्रबलता, शक्तिमत्ता या योग्यता है। सामर्थ्ययोग प्रात्मशक्तिसापेक्ष है। वास्तव में साधना का मुख्य आधार श्रात्मशक्ति ही है। उसके न होने पर अन्य
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ८३
साधन, उपक्रम, प्राधार प्रकृतकार्य रहते हैं । सामर्थ्य योग प्रान्तरिक शक्ति या ऊर्जा के उद्रेक पर प्राधत है। प्राचार्य हरिभद्र ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है
"शास्त्र में जिसका उपाय तो बतलाया गया है, पर जो उसको अतिक्रान्त कर शक्ति के उद्रेक पर टिका है, इस विशेषता के कारण जो शास्त्रीय परिधि से प्रतीत है, वह सामर्थ्य योग है, उत्तम है।""
शास्त्र किसी भी विषय में सामान्यतया मार्गदर्शन करता है। शास्त्र को पढ़कर व्यक्ति मार्ग का ज्ञान प्राप्त करता है। पर, जब वह शास्त्र संशित मार्ग पर प्रागे बढ़ता है,
आगे बढ़ने में शक्ति लगाता है, तो उसकी गति विशेष तीव्रता पकड़ती है और उसे नये-नये अनुभव प्राप्त होते हैं। ये नये-नये अनुभव प्रात्म-शक्ति के उद्रेक के कारण होते हैं। उन्होंने विशेष तौर से सामर्थ्य योग के साथ "उत्तम" विशेषण दिया है। उसका प्राशय यह है कि साधक योग-साधना द्वारा जिस लक्ष्य को हस्तगत करना चाहता है, वह शास्त्र के पढ़ने-सुनने मात्र से सिद्ध नहीं होता। वह शक्ति या सामर्थ्य का उपयोग करने से ही सिद्ध होता है । इसलिए सामर्थ्ययोग को "उत्तम" कहा गया है।
प्राचार्य इसी तथ्य को कुछ और स्पष्ट करना चाहते हैं। वे लिखते हैं
"सिद्धि पद या मोक्ष की प्राप्ति के जो कारण-विशेष हैं, योगियों को तत्त्वत: उनका बोध शास्त्र द्वारा सर्वथा हो सके, यह संभव नहीं है ।"
शास्त्र की एक सीमा है। अतः शास्त्र द्वारा तत्त्वों का एक सीमा-विशेष तक ही अवबोध हो सकता है, वह भी उनके स्थल रूप का। सूक्ष्म तो शब्द या वाणी का विषय ही नहीं । इसीलिए उपनिषद के ऋषि स्थान-स्थान पर "यतो वाचो निवर्तन्ते" का उद्घोष करते देखे जाते हैं। मोक्ष जीवन का परम दिव्य, परम निर्मल, परम उज्ज्वल स्वरूपावबोध या स्वरूपाधिकार की स्थिति है, जो स्वानुभूति का विषय है। जिनसे वह फलित होता है, सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि आत्मिक भाव भी शाब्दिक व्याख्या की पकड़ में नहीं पाते । अन्तर्मन्थन में साधक को उनकी दिव्यता की झलक कभी-कभी अनुभूत हो जाती है। इसलिए यहाँ प्राचार्य ने सिद्धि-प्राप्ति के हेतु-विशेष शास्त्र के सहारे अवगत नहीं हो पाते, ऐसा जो कहा है, उसका यही अभिप्राय है कि ये जागरित शक्ति की अनुभूति के विषय
प्रस्तुत विषय को और अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से प्राचार्य लिखते हैं
"यदि सर्वथा शास्त्र द्वारा ही सम्यक् दर्शन आदि का परिच्छेद-परिज्ञान हो जाय तो इससे उन विषयों के साक्षात्कारित्व या प्रत्यक्ष आत्मसात् होने की बात बनती है। ऐसा हो
-योगदृष्टिसमुच्चय ५
१. शास्त्रसंदशितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः ।
शक्त्युद्रेकाद् विशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः ।। २. सिद्धयाख्यपदसंप्राप्तिहेतुभेदा न तत्वतः ।
शास्त्रादेवावगम्यन्ते सर्वथैवेह योगिभिः ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय ६
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पंचम खण्ड / ८४ जाय तो फिर सर्वज्ञता भी सिद्ध हो और उससे सिद्धि-सिद्धावस्था या मुक्तावस्था भी प्राप्त हो जाय ।""
यह एक विकल्प है जो प्राचार्य ने स्वयं प्रस्तुत किया है, जिसका समाधान उपस्थितकरते हुए उन्होंने बताया है"ऐसा हो नहीं सकता शास्त्र द्वारा सर्वथा परिज्ञान सम्भव नहीं है। यह तो प्रातिभज्ञान- प्रतिभा से उत्पन्न होने वाले ज्ञान से ही सम्भव है, जो सामर्थ्ययोग में सधता है, जो वाणी का विषय न होकर प्रान्तरिक अनुभूति का विषय है । सर्वज्ञत्व आदि उसी अनुभूतिपरक दिव्यज्ञान से फलित होते हैं।
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प्रतिभा का अर्थ विशिष्ट प्रकाश प्रसाधारण ज्योति या श्रात्मानुभूति का धालोक है। यह तभी प्राविर्भूत होता है जब अन्तरतम में ज्ञान की एक दिव्य झलक उद्भासित होती है। सामयोग में अन्तःसामर्थ्य के कारण ऐसी स्थिति सम्भावित है, जो गूंगे के गुड़ की तरह अनुभव ही की जा सकती है, वाच्य विषयता में नहीं ली जा सकती ।
सामर्थ्ययोग के दो भेद हैं, जिनका विवेचन प्राचार्य हरिभद्र के शब्दों में निम्नांकित है-
"धर्म संन्यास तथा योग-संन्यास के नाम से सामर्थ्ययोग दो प्रकार का है। क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले भाव धर्म कहे जाते हैं और शरीर आदि के कर्म योग कहे जाते हैं। धर्म-संन्यास में क्षायोपशमिक भावों का तथा योग-संन्यास में शरीर, मन एवं वाणी के कर्मों का संन्यास या त्याग होता है।"3
धर्मसंन्यासयोग
धर्मसंन्यासयोग में साधक कर्मों को खपाता - खपाता प्रागे बढ़ता है । कर्मों के क्षय से क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में क्षायिक सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र यादि गुण प्रकट होते हैं, वैसी स्थिति में क्षायोपशमिक भाव छूटते जाते हैं ।
मन, वचन व शरीर के योगों या कर्मों का प्रभाव साधक की जिस अवस्था में होता है, वह प्रयोगावस्था शास्त्रीय भाषा में प्रयोगकेवली दशा कही जाती है अर्थात् योग-संन्यास वहाँ सघता है, जहाँ साधक प्रकर्ष की उच्चतम स्थिति पा लेता है ।
प्राचार्य ने धर्म संन्यास और योग-संन्यास का तात्त्विक दृष्टि से घोर विशद विश्लेषण करते हुए लिखा है
"प्रथम प्रकार का सामर्थ्य योग मर्थात् धर्म संन्यास योग- तात्विक धर्म संन्यास योग
१. सर्वथा तत्परिच्छेदात् साक्षात्कारित्वयोगतः । तत्सर्वशरवसं सिद्धेस्तदा सिद्धिपदाप्तितः ॥ २. न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः । सामर्थ्य योगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाधनम् ॥ ३. द्विधाऽयं धर्मसंन्यास - योग संन्याससंज्ञितः । क्षायोपशमिका धर्मा योगाः कायादिकर्म तु ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय ७
-- योग दृष्टिसमुच्चय
- योग दृष्टिसमुच्चय ९
८
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण / ८५ द्वितीय अपूर्वकरण में निष्पन्न होता है । दूसरे प्रकार का सामर्थ्य-योग अर्थात् योग-संन्यास-योग आयोज्यकरण से आगे सिद्ध होता है।''
चिरकाल से राग-द्वेष से प्राबद्ध प्रात्मा में अप्रयत्नसाध्य जैसी एक विकास-प्रवण स्फूर्ति-रेखा खचित होती है वह प्रात्म-अभ्युदय की अज्ञात और अव्यक्त प्रथम रश्मि है। स्वयं उद्भूत होते प्रात्मा के इस परिणाम-विशेष को यथाप्रवृत्तकरण कहा जाता है। उसमें प्रयत्नसाध्यता नहीं मानी जाती। अज्ञात रूप में शनैः शनैः जो शुद्धिपरक अन्तर्-उद्वेलना या परिणति होती है, उसको यथाप्रवृत्तकरण से जोड़ा गया है। जैसे पहाड़ी नदी में पड़े पत्थर, जो स्वयं ज्ञानशून्य हैं, आपस में घिस-घिस कर विविध आकार ले लेते हैं, वैसे ही अप्रयत्नमूलक यथाप्रवृत्तकरण द्वारा प्राणियों के कर्मों की स्थिति होती है।
यह विकास की अज्ञात रूप में प्रस्फुटित होती प्रारम्भ की भूमिका है। विकास की ज्योति पाने के लिए तडपती प्रात्मा में शुद्धिमुलक प्रयत्न का उदभव पाता है। उभरते हुए वीर्योल्लास, उत्साह और उद्यम के बल पर राग-द्वेष के गढ़ को चूरती हुई प्रात्मा अभ्युत्थान के पथ पर अग्रसर होती जाती है। इसे जैनदर्शन की भाषा में अपूर्वकरण कहा जाता है। यह आत्मा के उन उज्ज्वल परिणामों की स्थिति है, जो पहले कभी नहीं आए । अपूर्वकरण नाम के पीछे यही हेतु प्रतीत होता है। यह दुर्लभ पर अत्यन्त अभिलषणीय प्रात्म-स्थिति है, जिसके पाने पर विकास का मार्ग खुल जाता है। इसकी अन्तिम परिणति ग्रन्थि-भेद के रूप में होती है । इसे प्रथम अपूर्वकरण कहा जाता है ।
ग्रन्थि का तात्पर्य आत्मा के गाढ़ रागद्वेषात्मक परिणामों से परिगठित वह कर्मजनित गांठ है, जिसमें उलझा व्यक्ति सत्य की सम्यक् अनुभूति और उसमें आस्था कर नहीं पाता। विशेषावश्यक भाष्य में कहा है
"यह ग्रन्थि बड़ी सघन, दृढ़ और घुली हुई गांठ की तरह दुर्भेद्य है। यदि इसका भेदन हो जाय तो मोक्ष के हेतुभूत गुण प्राप्त हो जाते हैं। पर, वैसा होना बहुत कठिन है। प्रबल अध्यवसाय तथा उत्साह वहाँ चाहिए। चित्त को अस्थिर एवं कुंठित बना देने वाले अनेक विघ्न वहां उपस्थित होते रहते हैं। घोर यद्ध में जझते योद्धा की तरह जो वहाँ शौर्य और पराक्रम के साथ भिड़ जाता है, वह कहीं कृतकार्य होता है। क्योंकि बहुत-सी बाधाएँ साथ में लगी जो रहती हैं।"२
वस्तुतः एक तुमुल संग्राम की-सी स्थिति यह है। एक पोर राग तथा द्वेष अपनी पूरी शक्ति लगाए अड़े रहते हैं, दूसरी ओर विकासोन्मुख पात्मा अपने बल एवं पराक्रम के सहारे इनके भीषण व्यूह को तोड़कर भागे बढ़ना चाहती है । स्वभाव और विभाव, सत् और असत्, श्रेयस् और अश्रेयस् के इस संग्राम में कभी सत् पक्ष असत् पक्ष को दबा लेता है तो कभी प्रसत् पक्ष सत् पक्ष को। दृढ़ता लिए हुए इस अन्तर्युद्ध में जझने वाली प्रात्मा जहाँ विकार की प्राचीरों को लांघकर ग्रन्थिभेद के निकट पहंच जाती है, अतिरिक्त शक्ति संजोकर पागे
१. द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत् ।
प्रायोज्यकरणावं द्वितीय इति तद्विदः ।। २. विशेषावश्यकभाष्य ११९५-९७
-~-योगदृष्टिसमुच्चय १०
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पंचम खण्ड | ८६
बढने में सफल हो जाती है, वहां वह प्रात्मा जो साहस छोड़ देती है, ग्रन्थि-भेद के समीप पहुँच कर भी विकार के दुर्धर आघात सहने और उनका प्रतिकार करने में अक्षम हो वापस लौट पाती है। अनेक बार प्रयत्न करने के बावजूद वह विजय-लाभ नहीं कर पाती । ग्रन्थिभेद कर पाने में सफल होना या विजय-लाभ करना प्रथम अपूर्वकरण नामक प्रात्म-परिणाम से सिद्ध होता है । ग्रन्थिभेद हो जाने पर प्रात्मा में आनन्द का स्रोत फूट पड़ता है।
प्राचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में इस सम्बन्ध में लिखा है
"तीक्ष्ण भाव-वज्र द्वारा-अत्यन्त उत्तम तथा प्रशस्त भावों द्वारा कर्म-ग्रन्थि रूपी दुर्भेद्य, विशाल एवं अति कष्टकारक पर्वत के तोड़ दिये जाने पर महान साधक को यथार्थ, प्रचुर प्रानन्द का अनुभव होता है। रोग-पीड़ित व्यक्ति विशिष्ट औषधि द्वारा रोग के मिट जाने पर जिस प्रकार प्रत्यधिक प्रसन्न होता है, उसी प्रकार उस साधक के मन में अध्यात्म-प्रसाद उमड़ने लगता है।
___"दूसरा प्रानन्द उस साधक को इस बात का होता है कि फिर वैसी दुर्भेद्य कर्म-ग्रन्थि नहीं बंधेगी। भयंकर क्लेशों का नाश हो जाने से वह निःश्रेयस् मूलक-मोक्षोन्मुख शाश्वत कल्याण को प्राप्त करेगा।
"एक जन्मान्ध पुरुष को पुण्यों के उदय से प्रांखें मिल जाने पर दृश्य जगत् को देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, वैसे ही ग्रन्थि-भेद हो जाने पर सम्यकदर्शन प्राप्त होने से साधक को अपूर्व प्रानन्द की अनुभूति होती है।''
यों प्रथम अपूर्वकरण में आत्मा को सम्यक्दर्शन प्राप्त होता है। सम्यक्दर्शन प्राध्यात्मिक दृष्टि से जीवन का वह उत्क्रान्त पक्ष है, जहाँ अन्तवृत्ति सत्य के प्रति दृढ़ प्रास्था ले लेती है। सम्यकदर्शन का शाब्दिक अर्थ भी यही है। दर्शन शब्द "दश" धातु से बना है। दश धातु प्रेक्षण अर्थ में है ।२ प्रेक्षण में प्र+ईक्षण का योग है। ईक्षण का अर्थ देखना है, प्र उपसर्ग प्रकर्ष या उत्कर्ष वाचक है। जहाँ देखना सामान्य न रहकर उत्कृष्ट, प्रकृष्ट या विशिष्ट हो जाता है, वहां उसकी प्रेक्षण संज्ञा होती है। दर्शन का अर्थ प्रेक्षण है-विशेष रूप से, सूक्ष्मता से, गहनता से देखना। जब दर्शन सम्यक्, यथार्थ या सत्यपरक बन जाता है, तब देखने में या दृष्टि में सहज ही एक ऐसी विशेषता प्रा जाती है, जो व्यक्तित्व में सत्त्वमूलक अनेक नये उन्मेष जोड़ देती है।
१. तथा च भिन्ने दुर्भेदे कर्मग्रन्थिमहाचले ।
तीक्ष्णेन भाववज्रण बहुसंक्लेशकारिणि ।। प्रानन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सव्याध्यभिभवे यवद् व्याधितस्य महौषधात् ।। भेदोऽपि चास्य विज्ञेयो न भूयो भवनं तथा । तीव्रसंक्लेशविगमात् सदा निश्रेयसावहः ।। जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये।
सददर्शनं तथैवास्य ग्रन्थिभेदेऽपरे जगुः ।। २. दृश् प्रेक्षणे।
-योगबिन्दु २८०-८३
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ८७
जिसे सम्यकदर्शन प्राप्त है, वैसा व्यक्ति सांसारिक आवश्यकता या कर्तव्यवश धन का अर्जन करता है पर वह शोषक नहीं होता। अपनी दुर्बलता मान भोग-सेवन करता है, पर वह भोग-लिप्त या भोगासक्त नहीं होता। वह स्वार्थवश पर-पीडक और उद्वेजक नहीं होता। उसके जीवन का लक्ष्य संदिग्ध या अनिश्चित नहीं होता । शास्त्रकारों ने सम्यक्त्व के बाहरी चिह्नों के रूप में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा तथा प्रास्तिक्य का उल्लेख किया है। प्रशम का अर्थ प्रकृष्ट या उत्कृष्ट गान्तभाव है, शास्त्रीय व्याख्या के अनुसार कषाय की उपशान्तता है । क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप कषाय उसके जीवन में उग्ररूप में उभार नहीं पाते । वे उपशान्त रहते हैं। क्योंकि उसकी प्रास्था का टिकाव उस चरम सत्य पर है, जहां कषाय नामशेष हो जाते हैं । संवेग प्राध्यात्मिक उत्साह या मोक्ष की अभिलाषा के अर्थ में है। ऐसा व्यक्ति वैषयिक सुख में उन्मत्त या अन्ध नहीं बनता । उसकी परिणाम-विरसता वह जानता है, इसलिए उसकी प्रान्तरिक अभिलाषा मोक्ष के साथ जुड़ी रहती है। यही कारण है कि उसके अन्तर्मन में निर्वेद-भाव उमड़ता रहता है। निर्वेद का अर्थ वैराग्य या विरक्ति है। संसार की अन्ततः दु:खमयता का चिन्तन कर वह मन ही मन उसके प्रति ग्लानि का अनुभव करता है और उसके मन में ऐसी भावना उमड़ती रहती है कि क्या ही अच्छा हो, इसका वह परित्याग कर डाले। ऐसे पुरुष में दया या करुणा सहजतया परिव्याप्त रहती है। वह अनुकम्पाशील होता है। अनुकम्पा का अर्थ अनुकूल कम्पन है। दु:खी को देखकर स्वयं व्यथित हो जाना और उसे दुःख से छुड़ाना अनुकम्पा है। यह स्वाश्रित भी है और पराश्रित भी। अपने को पापाचरण में प्रवृत्त देखकर और यह सोचकर कि कितना कष्टमय फल-विपाक इन पापों का होगा, अपने को पापों से बचाने का प्रयत्न करना स्व-दया है। दूसरे को कष्ट में पड़ा देख उसे कष्ट से छुड़ाना, अपनी ओर से किसी दूसरे को कष्ट न देना पर-दया है। सम्यक्-दर्शनसमवेत पुरुष में ऐसा अनुकम्पा-भाव बना रहता है। वह पास्तिक होता है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, लोक, परलोक आदि तत्वों के अस्तित्व में वह आस्था रखता है।
शास्त्रज्ञ इन का पश्चानुपूर्वीक्रम मानकर भी व्याख्या करते हैं। तदनुसार इनका क्रम आस्तिक्य, अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग, प्रशम, इस प्रकार बनता है। यदि गहराई से चिन्तन करें तो यह क्रम तात्त्विक दृष्टि से और सुन्दर है। व्यक्तित्व का विकास प्रास्तिकता . से प्रारम्भ होता है। सबसे पहले प्रास्तिकता चाहिए। तत्पूर्वक ही करुणा, वैराग्य आदि विकसित और अभिवधित होते हैं।
___ तदनन्तर कर्म-स्थिति में से संख्यात सागरोपम व्यतीत होने पर दूसरे अपूर्वकरण का उद्भव होता है । अर्थात् अपूर्व-जो पहले नहीं पाए ऐसे-उत्तम, प्रशस्त एवं उज्ज्वल प्रात्मपरिणाम उत्पन्न होते हैं, जिससे साधक क्षपक-श्रेणी पर आरूढ हो जाता है। क्षपक-श्रेणी द्वारा कर्मक्षीण करता हुआ वह आत्माभ्युदय के पथ पर गतिमान् रहता है। क्रोधादि कषाय रूप समग्र कर्म-प्रकृतियों को मूलतः उच्छिन्न कर देने वाला क्षायिक भाव वहाँ संप्रवृत्त रहता है। फलतः क्षायोपशमिक भाव छूट जाते हैं। ग्रन्थकार ने इसे तात्त्विक धर्म-संन्यास-योग कहा है । तात्त्विक कहने के पीछे ग्रन्थकार का यह आशय है कि इस श्रेणी पर आरूढ साधक मागे से प्रागे गतिमान् रहता है, वापस नहीं लौटता, च्यूत नहीं होता।
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पंचम खण्ड / ८८
एक तितिक्षु साधक जब प्रव्रज्या या दीक्षा स्वीकार करता है, उस समय उसके मन में सहसा विषय, कषाय, वासना, प्रासक्ति आदि के प्रति अत्यन्त तीव्र वैराग्य उत्पन्न होता है । जीवन के दो मोड़ों के बीच में वह होता है। उसके एक ओर मोहक भोगमय संसार होता है, दूसरी ओर भौतिक दृष्टि से अत्यन्त कष्टपूर्ण, पर आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक प्रानन्दमय साधनापथ होता है। उसकी अन्तःशक्ति ऐसी पवित्रता और तात्त्विकता से अोतप्रोत हो जाती है कि जागतिक भोग उसे दु:खमय एवं त्याज्य प्रतीत होते हैं। उसकी विरक्त भावना इतनी उदात्त तथा तीव्र होती है कि संयम एवं साधना के कंटकाकीर्ण, असिधारा-दुर्गमपथ को वह अत्यन्त हृद्य, प्रानन्दकर और प्रिय मान लेता है।
यह परिणाम-दशा एक विशिष्ट विरक्त आत्मस्थिति में उद्भूत होती है। यह अति प्रशस्त भावधारा निरन्तर गतिशील नहीं रहती। इसका समय शास्त्र में अन्तर्मुहुर्त माना गया है। जैसे प्रव्रज्या के अवसर पर ये भाव आए, परिणामों की तीव्रता में कुछ न्यूनता आईभाव चले गए। वैसी तीव्रता साधक के जीवन में अनेक बार पा सकती है। पर, अनवरत टिकाऊपन उसमें नहीं होता । आने-जाने का क्रम बना रहता है। इसीलिए इसे प्रतात्त्विक धर्मसंन्यास कहा गया है।
तात्त्विक धर्म-संन्यासयोग की स्थिति इसलिए विशिष्ट है कि क्रोध, मान, माया, लोभ निष्पन्न कर्म प्रकृतियों के मुलतः उच्छेद के कारण वहां प्रात्म-प्रभ्युदय की एक निर्बाध प्रशस्तता विकसित होती है, जिससे प्रात्मा अभूतपूर्व उल्लास एवं उन्नयन से प्राप्यायित होती हई चरम प्रकर्ष मूलक लक्ष्य की ओर अबाध रूप में गतिशील रहती है।
योगसंन्यासयोग
त्रयोदश गुणस्थानवर्ती केवली जब यह देखते हैं कि उनके प्रवशिष्ट रहे चार कर्मों में आयुष्य की स्थिति कम है, वेदनीय आदि कर्मों की भोग्य स्थिति उसकी अपेक्षा अधिक है तब वे बहुकालभोग्य कर्मों को स्व-प्रायुष्यपरिमित अल्पकालभोग्य बनाने के निमित्त प्रायोज्यकरण द्वारा समुद्घात करते हैं । प्रायोज्यकरण का शाब्दिक अर्थ है-प्रायोजित -केवली द्वारा दृष्ट मर्यादानुरूप योजित कर शुभयोग के प्रवर्तन का परिमाण-विशेष या सामर्थ्य-विशेष । इसे स्पष्ट रूप में यों समझा जा सकता है-दृष्ट मर्यादा के अनुरूप केवली अपनी प्रचित्य वीर्यवत्ता तथा असाधारण सामर्थ्य द्वारा भवोपनाही कर्मों का प्रक्षेप करते हैं, आत्म-प्रदेशों का लोकव्यापी विस्तार करते हैं। यह सब मूल शरीर को छोड़े बिना होता है। इस प्रकार आत्म-प्रदेशों का देह से बाहर निकलना समुद्घात कहा जाता है। समुद्घात का अर्थ हैसम् सम्यक्तया, उद्घात-प्रबलतापूर्वक कर्मों का नाश या क्षय । अर्थात् इस प्रयत्न द्वारा अवशिष्ट कर्मों का बहुत तीव्रता से, शीघ्रता से भोग और क्षय हो जाता है । इसे एक गीले वस्त्र के उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि गीले वस्त्र को फैलाया न जाय तो वह बहुत देर से सूखता है। उसी को यदि फैला दिया जाय तो वह उसकी अपेक्षा बहुत जल्दी सूख जाता है। जो भोग्य-कर्म भोगे जाने में अधिक समय लेते, आत्मप्रदेशों में विस्तार द्वारा वे शीघ्र परिमुक्त हो जाते हैं। फलत: साधक प्रयोगावस्था पा लेता है । अर्थात् मानसिक, वाचिक तथा कायिक योग या प्रवृत्ति सर्वथा उच्छिन्न व क्षीण हो जाती है। सत् चित् आनन्द, जो प्रात्मा
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ८९ का स्वभाव है, उसे अधिगत हो जाता है। क्योंकि उसमें बाधा उपस्थित करने वाली योगप्रवृत्ति बची नहीं रहती। यह योगसंन्यास योगसाधना के अन्तिम प्रकर्ष या चरम ध्येय का अधिगम है।
योग-दृष्टियां
जीवन के समग्र व्यापार एवं कार्य-कलाप का मूल आधार दृष्टि (vision) है । दृष्टि सत्त्व, रजस्, तमस् प्रादि जिस ओर मुड़ी होगी, जीवन-प्रवाह उसी ओर स्वतः बढ़ चलेगा। दृष्टि-परिष्कार में साधना का दैहिक, वाचिक, मानसिक सारा विधि-क्रम अन्तर्गभित हो जाता है । प्राचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा आविष्कृत पाठ योग-दृष्टियां इसी का दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक विस्तार हैं।
पूर्व-णित इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग का अपना एक विशेष क्रम एवं रूप है और योग-दष्टियों का अपना प्रकार है। इसलिए इन दोनों का परस्पर सीधा सम्बन्ध तो नहीं है पर सूक्ष्मता से विचार करें तो तात्त्विक दृष्ट्या परस्पर सम्बद्धता है। इसीलिए प्राचार्य ने इस सम्बन्ध में कहा है
"इन तीनों-इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग का प्राश्रय न लिये हुए पर विशेषरूप से इनसे उत्पन्न पाठ योग-दष्टियों का यहां सामान्यरूप से वर्णन किया जा रहा है।"
इच्छा-योग आदि का आश्रय न लेने की जो बात कही गई है, उसका आशय यह है कि इन योगों के भेद-प्रभेद या शाखा-प्रशाखा के रूप में इन दृष्टियों का विकास नहीं हुआ है। पर उक्त तीनों योगों में अपेक्षा-भेद से इन दृष्टियों का अन्तर्भाव हो जाता है। वहाँ प्रतिपादित तथ्य इन दृष्टियों में सर्वथा मौलिक, नवीन एवं हृदयस्पर्शी सरणि द्वारा सुन्दर रूप में व्याख्यात किया गया है, जो प्राचार्य हरिभद्र के अद्भुत वैदुष्य, चिन्तन तथा साधनाप्रसूत अनुभूति-रस का द्योतक है।
तीनों योग और पाठ दृष्टियों की पारस्परिक सम्बद्धता के ही कारण प्राचार्य ने दृष्टियों का विवेचन करने से पूर्व इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग का निरूपण किया है। उन्होंने एक प्रकार से इन्हें योग-दृष्टियों की पृष्ठभूमि या आधार माना । पृष्ठभूमि का बोध हो जाने पर उस पर खड़ी की जाने वाली विशाल अट्टालिका का सरलता से परिज्ञान हो सकता है। ओघ-दृष्टि __प्राचार्य ने सबसे पहले दृष्टि के दो भेद किये-अोघ-दृष्टि और योग-दृष्टि । प्रोघदृष्टि की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है
"मेघाच्छन्न रात्रि, मेघरहित रात्रि, मेघयुक्त दिवस एवं मेघरहित दिवस में ग्रह-भूत-प्रेत १. एतत् त्रयमनाश्रित्य विशेषेणैतदुद्भवाः ।।
योगदृष्टय उच्यन्ते अष्टौ सामान्यतस्तु ताः ।। -योगदृष्टिसमुच्चय १२
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पंचम खण्ड | ९०
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यदि ग्रस्त पुरुष उनसे प्रग्रस्त पुरुष, बालक, वयस्क, मोतियाविन्द घादि से विकृत, मोतियाविन्द आदि रहित इनकी दृष्टि के समान घोष दृष्टि समझनी चाहिए ।""
घोप दृष्टि का तात्पर्य लोक प्रवाह का अनुसरण करते हुए साधारण जनों का लौकिक पदार्थोन्मुख सामान्य दर्शन या दृष्टिकोण है दूसरे शब्दों में इसे यों प्रतिपादित किया जा । सकता है कि सांसारिक भाव, सांसारिक सुख, सांसारिक पदार्थ तथा क्रियाकलाप में जो दृष्टि रची पत्री रहती है, वह प्रोघ दृष्टि है।
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में श्रात्म-शक्ति के आवरक कर्मों का क्षयोपशम भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । जिस सीमा या परिमाण तक बाधक कर्म - आवरण क्षीण व उपशान्त होते हैं, उसके अनुरूप दृष्टि का विकास या विस्तार होता है, इसलिए तरतमता की अपेक्षा से वह भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। थापायें ने कुछ उदाहरण देकर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। जैसे वह रात, जिसमें प्राकाश बादलों से ढका है, अधिक धुंधली और अंधेरी होती है, बादल - रहित रात कम धुंधली होती है । उसी प्रकार बादलों से घिरा दिन अंधकाराच्छन्न होता है तथा बादलरहित दिन साफ होता है। अंधेरी रात और अंधेरे दिन में कोई वस्तु उतनी स्पष्ट दिखाई नहीं देती, जितनी साफ रात और साफ दिन में दिखाई देती है भूत प्रेत यादि से ग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि एवं बुद्धि अधिक अविशद, अस्पष्ट या विकृत होती है । जो भूत, प्रेत आदि से ग्रस्त नहीं है, उसकी दृष्टि उतनी प्रविशद नहीं होती । बालक की दृष्टि कम स्पष्ट होती है। वयस्क की दृष्टि अधिक स्पष्ट होती है मोतियाबिन्द जाला आदि होता है, उसे कम दीखता है।
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जिसकी मांखों में
,
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जहाँ ऐसा नहीं होता, वहीं उसकी अपेक्षा साफ दीखता है। स्पष्ट होता है । वयस्क का दृष्टिकोण तदपेक्षया अधिक स्पष्ट संबंधी क्षयोपशम की न्यूनता अधिकता आदि के कारण दृष्टि के है । तदनुसार लौकिक पदार्थों एवं भावों को भिन्न-भिन्न प्रकार से व श्रधिगत करने के जो भेद हैं, वे प्रोघ-दृष्टि के अन्तर्गत आते हैं
।
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प्रोच दृष्टि प्रतात्विक, सर्वथा व्यावहारिक मात्र लोकजनीन होती है। जीवन के अन्तः सत्त्व की ओर इसका रुझान नहीं होता ।
योग - दृष्टि
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बालक का दृष्टिकोण कम होता है । इसी प्रकार कर्मवैशद्य में भी तरतमता होती
लोकोन्मुख दृष्टि द्वारा देखने
आत्म-तत्व, जीवन के सत्य स्वरूप अथवा अध्यात्म दृष्ट्या ज्ञेय, उपादेय विषयों को देखने की दृष्टि योग दृष्टि कही जाती है। यह भी द्रष्टा के कर्म सम्बन्धी क्षयोपशम की तरतमता से, भिन्नकोटिकता से जनित अधिक स्पष्टता, कम स्पष्टता के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। यह योग मार्ग प्रात्म-स्वरूप से जोड़ने वाले साधना पथ का अनुसरण कर चलती है, इसलिए इसे योग दृष्टि, योगी या साधक की दृष्टि कहा जाता है।
१. समेघामेघराज्यादौ सग्रहाय भकादिवत् ।
दृष्टिरिह शेया मिय्यादृष्टीतराश्रया ॥ योगदृष्टिसमुच्चय १४
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योगदृष्टिसमुच्चय एक विश्लेषण / ९१
आठ दृष्टियां स्वरूप
प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने पाठ योग दृष्टियों को संक्षेप में परिभाषित करते हुए
लिखा है-
" तृण के अग्निकण, गोबर या उपले के अग्निकण, काठ के अग्निकण, दीपक की प्रभा, रत्न की प्रभा, तारे की प्रभा, सूर्य की प्रभा तथा चन्द्र की प्रभा के सदृश साधक की दृष्टि आठ प्रकार की होती है ||""
आचार्य ने प्रकाशमूलक विभिन्न उपमानों द्वारा दृष्टियों का स्वरूप प्रकट करने का प्रयत्न किया है ।
मित्रा
मित्रा पहली दृष्टि है, जिसे तृण के अग्निकणों से उपमित किया गया है। तिनकों की अग्नि नाम से अग्नि तो कही जाती है, पर उसके सहारे किसी वस्तु का स्पष्टरूप से दर्शन हो नहीं पाता । उसका प्रकाश क्षण भर के लिए होता है, फिर मिट जाता है, बहुत मन्द, धुंधला या हलका होता है । मित्रा दृष्टि के साथ भी इसी प्रकार की बात है । उसमें बोध की एक हलकी-सी ज्योति एक झलक के रूप में पाती तो है, पर वह टिकती नहीं इसलिए तात्त्विक और पारमार्थिक दृष्ट्या उससे अभीप्सित बोध हो नहीं पाता। वह प्रल्पस्थितिक होती है । मन्द, हल्की, धुंधली और स्वल्पशक्तिक होती है, इसलिए कोई संस्कार निष्पन्न कर नहीं पाती, जिसके सहारे व्यक्ति आध्यात्मिक बोध की ओर गति कर सके । केवल इतना-सा उपयोग इसका है, बोधमय प्रकाश की एक हल्की रश्मि-सी प्राविर्भूत हो जाती है, जो मन में माध्यात्मिक बोध के प्रति बहुत हल्का सा आकर्षण पैदा कर जाती है। संस्कार बनता नहीं, इसलिए ऐसे व्यक्ति द्वारा भावात्मक दृष्टि से शुभ कार्य का समाचरण यथावत् रूप में सधता नहीं, बाह्य या द्रव्यात्मक दृष्टि से वैसा होता है अर्थात् प्रान्तरिक वृत्ति में अध्यात्मोन्मुख स्पन्दन प्रविष्कृत नहीं होता ।
तारा
तारा दूसरी दृष्टि है। इसका बोध गोवर या उपले के अग्निकणों से उपमित किया गया है । तिनकों के अग्निकण और उपले के अग्नि-कण प्रकाश और उष्मा की दृष्टि से कुछ तरतमता लिए रहते हैं। तिनकों की अग्नि की अपेक्षा उपलों की पग्नि प्रकाश की दृष्टि से कुछ विशिष्ट होती है, पर बहुत अन्तर नहीं होता । उपलों की अग्नि का प्रकाश भी अल्पकालिक होता है, लम्बे समय तक टिक नहीं पाता मन्द और अल्पशक्तिक होता है, इसलिए उसके सहारे भी किसी पदार्थ का सम्यक्तया दर्शन हो नहीं पाता। ताश दृष्टि की ऐसी ही स्थिति है। उसमें बोधमय प्रकाश की जो झलक उद्भासित होती है, यद्यपि वह मित्रा दृष्टि में होने वाले प्रकाश से कुछ तीव्र अवश्य होती है, पर स्थिरता, शक्ति आदि अपेक्षा से अधिक
१. तृणगोमयकाष्ठाग्निकण दीपप्रभोषमा ।
रत्नताराकं चन्द्राभासद्दृष्टेर ष्टिरष्टधा ॥ योगदृष्टिसमुच्चय १५
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पंचम खण्ड / ९२
अन्तर नहीं होता, इसलिए उससे भी साधक का कोई विशेष काम नहीं बनता । इतना सा है, मित्रा दृष्टि में जो दिव्य झलक मिली थी, वह कुछ अधिक ज्योतिर्मयता के साथ साधक को तारा दृष्टि में प्राप्त होती है। क्षणिक, मन्द, अस्थायी तथा अल्पशक्तिक होते हुए भी तरतमता की दृष्टि से मित्रा की अपेक्षा इसमें न्यून ही सही, पर बोधज्योति का थोड़ा फर्क श्रवश्य रहता है, जो साधक को सहसा अध्यात्म - उद्बोध की कुछ विशद झलक दे जाता है, पर उसका भी पीछे कोई संस्कार नहीं छूट पाता, इसलिए साधक के कार्य - व्यापार में द्रव्यात्मकता से अधिक विकास नहीं होता ।
बला
बला तीसरी दृष्टि है। आचार्य ने इस दृष्टि में उद्भव पाने वाले बोध को काठ के अग्नि- कणों की उपमा दी है । काठ की अग्नि का प्रकाश कुछ स्थिर होता है, अधिक समय टिकता है, कुछ शक्तिमान् भी होता है। इसी प्रकार बला दृष्टि में उत्पन्न बोध आया और गया ऐसा नहीं होता। यह कुछ टिकता भी है सशक्त भी होता है, इसलिए वह संस्कार भी छोड़ता है । छोड़ा हुआ संस्कार ऐसा होता है, जो तत्काल मिटता नहीं । स्मृति में श्रास्थित हो जाता है । वैसे संस्कार की विद्यमानता साधक को जीवन के वास्तविक लक्ष्य की ओर उबुद्ध किए रहने का प्रयास करती है, जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है । प्रीति की परिणति चेष्टा या प्रयत्न में होती है।
दीप्रा
दीपा चौथी दृष्टि है । इसमें होने वाला बोध दीपक की प्रभा से उपमित किया गया है । पूर्वोक्त तीन दृष्टियों में उपमान के रूप में जिन-जिन प्रकाशों का उल्लेख हुआ है, दीपक का प्रकाश उनसे विशिष्ट है । वह लम्बे समय तक टिकता है । उसमें अपेक्षाकृत स्थिरता होती है, सर्वथा अल्पबल नहीं होता। उसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है। उसी प्रकार दीप्रा दृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों के बोध को अपेक्षा दीर्घ समय तक टिकता है, अधिक शक्तिमान् होता है। बला दृष्टि की अपेक्षा कुछ और वृद्ध संस्कार छोड़ता है, जिससे साधक की अन्तः स्फूर्ति, सत्क्रिया के प्रति प्रीति और तदुन्मुख चेष्टा की स्थिति बनी रहती है। इतना तो होता है, पर साधक के क्रिया-कलाप में अब तक सर्वथा भावात्मकता नहीं था पाती, द्रव्यात्मकता ही रहती है। वन्दन, नमस्कार, सेवा, उपासना, प्रचंना जो कुछ यह करता है, वह द्रव्यात्मक यांत्रिक या बाह्य ही होती है सत्क्रिया में सम्पूर्ण तन्मयता का भाव उस पुरुष में आ नहीं पाता । इसलिए वह क्रिया भावात्मक नहीं होती ।
स्थिरा
स्थिरा पांचवी दृष्टि है। इसे रत्न की प्रभा से उपमित किया गया है। साधक की यह वह स्थिति है, जहाँ उसे प्राप्त बोध-ज्योति स्थिर हो जाती हैं। रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं, सहजतया उद्दीप्त रहती है । वैसे ही स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोधमय उद्योत स्थिर रहता है क्योंकि तब तक साधक का ग्रन्थिभेद हो चुकता है। राग-द्वेषादि विभाव-प्रथित दुरूह कर्म-ग्रन्थि वहाँ खुल चुकती है। दृष्टि सम्यक् हो जाती है, मिथ्या अध्यास मिट जाता है ।
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण / ९३
यहाँ से भेद-ज्ञान की प्रक्रिया शुरू होती है। प्रात्मा और पर-पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करता है। पर में जो स्व की बुद्धि थी, उस पर सहसा एक चोट पड़ती है और साधक के अन्तरतम में प्रात्मोन्मुख भाव हिलोरें लेने लगते हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने साधक की उस कोटि की प्रान्तरिक अनुभूति का बड़ा सून्दर चित्रण किया है। उन्होंने उद्बुद्धचेता उभिन्नग्रन्थि साधक के चिन्तन के सन्दर्भ में लिखा है
"निश्चित रूप से मैं दर्शन-ज्ञानमय, सदा अरूपी, एकमात्र शुद्ध प्रात्मा हूँ, अन्य कुछ भी परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है।"१
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने और भी स्पष्ट कहा है
"मोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एक मात्र उपयोग 'चेतना-व्यापार' रूप हूँ। यों चिन्तन करने वाले को सिद्धान्तवेत्ता ज्ञानी मोहात्मक ममता से ऊंचा उठा हुअा कहते हैं।"३ .
दृष्टि में सम्यक्त्व प्रा जाने पर आस्था स्थिर हो जाती है, विश्वास सुदृढ़ हो जाता है, जीवन सुस्थिर रूप में प्रात्म-अभ्युदय के पथ पर गतिशील होने की क्षमता पा लेता है। जिस प्रकार रत्न का प्रकाश मिटता नहीं, उसी तरह स्थिरा दष्टि में प्राप्त बोध अप्रतिपाती होता है । वह एक बार प्राप्त होने पर वापस गिरता नहीं। प्रांधी, तूफान, वातूल कुछ भी आए, रत्न के प्रकाश पर उनका असर नहीं होता। उसी प्रकार सम्यकदृष्टि पुरुष पर पाने वाले विघ्नों, बाधाओं तथा उपसर्गों का ऐसा प्रभाव नहीं होता कि वह सम्यक्त्व छोड़ दे।।
इतना ही नहीं, जैसे रत्न का प्रकाश पाषाण, यंत्र आदि पर घर्षण, परिष्करण, परिमार्जन से और बढ़ जाता है. उसी प्रकार सम्यग्दष्टि साधक का बोध सदनभ्य आत्मानुभूति, सतचिन्तन प्रादि द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जाता है।
रत्न का प्रकाश स्वावलम्बी होता है, उसे इसके लिए अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं होती। तैल समाप्त होने पर जैसे दीपक बुझ जाता है, वैसी बात रत्न के साथ नहीं है । न उसे तैल चाहिए न बाती। वह प्रकाश निरपाय या निर्बाध है । वह अपाय या बाधा से प्रतिबद्ध एवं व्याहत नहीं होता। उसे दूसरा अवलम्बन नहीं चाहिए । यही स्थिति स्थिरा दृष्टि की है। स्थिरा दृष्टि का बोध परावलम्बी नहीं है, स्वावलम्बी है । वह निरपाय और निर्बाध है। उसे कहीं से कोई हानि पहुँचने की आशंका नहीं है।
तृण, कंडे, काठ और दीपक का प्रकाश दूसरों के लिए परितापकारक भी हो सकता है, यदि ठीक से उपयोग न किया जाय, उनसे आग आदि लगकर बड़ी हानि भी हो सकती है। रत्न के प्रकाश में ऐसा नहीं है। वह सर्वथा अपरितापकर है। स्थिरा दृष्टि का बोध भी किसी के लिए परितापकर नहीं होता । वह मृदुल और शीतल होता है। क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय वहाँ उपशान्त हो जाते हैं।
-समयसार ३८
१. अहमेवको खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदारूवी।
णवि अस्थि मज्झ किचिवि अण्णं परमाणु मित्तं पि ।। २. णस्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवप्रोग एव अहमेक्को ।
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ।।
-समयसार ३६
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / ९४
अर्चनार्चन
परिताप न देने की बात निषेधात्मक हुई, विध्यात्मक दृष्टि से स्थिरा दृष्टि का बोधमय प्रकाश रत्न की प्रभा की तरह औरों के लिए प्रसादकर होता है। रत्न की कान्ति को देखने से जैसे नेत्र शीतल होते हैं, चित्त उल्लसित होता है, उसी तरह स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोध से प्रात्मा में परितोष होता है, प्रसन्नता होती है। रत्न को देख लेने वाला तुच्छ कांच जैसी वस्तु की ओर आकृष्ट नहीं होता, उसी प्रकार स्थिरा दृष्टि के बोध द्वारा जिसे प्रात्मदर्शन प्राप्त हो जाता है, फिर आत्मेतर-पर या बाह्य वस्तुओं में उसे विशेष प्रौत्सुक्य रह नहीं जाता।
जहाँ आभामय रत्न पड़ा हो, उसके चारों ओर जो भी होता है, यथावत् एवं स्पष्ट दिखाई देता है। वैसे ही स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध से प्रात्मदर्शन तो होता ही है, तदितर पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं। इससे द्रष्टा या दर्शक दृश्यमान वस्तु का उपयोगिता, अनुपयोगिता की दृष्टि से यथार्थ मूल्यांकन कर पाता है।
कान्ता
__ कान्ता छठी दृष्टि है। प्राचार्य ने इसे तारे की प्रभा की उपमा दी है। रत्न का प्रकाश हृद्य होता है, उत्तम होता है, पर तारे के प्रकाश जैसी दीप्ति उसमें नहीं होती। तारे का प्रकाश रत्न के प्रकाश से अधिक उद्दीप्त होता है। उसी तरह स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोध की अपेक्षा कान्ता दष्टि का बोध अधिक प्रगाढ़ होता है। तारे की प्रभा पाकाश में स्वाभाविक रूप में होती है, सुनिश्चित होती है, अखंडित होती है। उसी तरह कान्ता दृष्टि का बोध-उद्योत अविचल, अखंडित और प्रगाढ़ रूप में चिन्मय आकाश में सहज रूपेण समुद्दीप्त रहता है।
इस दृष्टि को कान्ता नाम देने में भी प्राचार्य का अपना विशेष दृष्टिकोण है। कान्ता का अर्थ लावण्यमयी प्रियंकरी गहस्वामिनी है। ऐसी सन्नारी पतिव्रता होती है। पतिव्रता नारी की अपनी विशेषता है। वह घर, परिवार तथा जगत् के सारे काम करते हुए भी एकमात्र अपना चित्त पति से जोड़े रहती है। उसके चिन्तन का मूल केन्द्र उसका पति होता है। कान्ता दष्टि में पहँचा हुअा साधक आवश्यकता और कर्त्तव्य की दृष्टि से जहाँ जैसा करना अपेक्षित है, वह सब करता है, पर उसमें प्रासक्त नहीं होता । अन्तत: उसका मन उसमें रमता नहीं। उसका मन तो एक मात्र श्रुत-निर्दिष्ट धर्म में ही लीन रहता है। उसके चिन्तन का केन्द्र आत्म-स्वरूप में संप्रतिष्ठ होता है। वह अनासक्त कर्मयोगी की स्थिति पा लेता है। गीताकार ने ऐसे अनासक्त कर्मयोगी का बड़ा सुन्दर भाव-चित्र उपस्थित किया है। कहा है
"तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में नहीं । कर्मफल की वासना कभी मत रखो और अकर्म-कर्म न करने में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।''
गीता का यह श्लोक बड़ा सारगभित है। जैसा बताया गया है, अात्मनिष्ठ व्यक्ति को तो कर्म करने का ही अधिकार है। यदि वह अपने को फल का भी अधिकारी मानने लगेगा तो फल की प्राप्ति, अप्राप्ति, अल्पप्राप्ति, प्रचुर प्राप्ति आदि अनेक विकल्प ऐसे बनेंगे, जो
१. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भमो ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता २.४७
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण / ९५
उसके मन को अपने में उलझाए रखेंगे। घोर परिश्रमपूर्वक कर्म करने पर भी यदि कर्ता को समुचित फल नहीं मिलेगा तो उसके मन में खीझ उत्पन्न होगी, क्रोध उत्पन्न होगा, अपेक्षित से अधिक फल मिलेगा तो वह अत्यन्त हषित होगा ।
जैसे अल्प या अधिक परिश्रम से कर्म किया गया, निश्चित रूप से सर्वत्र वैसा ही फल प्राप्त हो, यह असंभव है। फल-निष्पन्नता में श्रम, स्थिति, सम्बद्ध व्यक्ति, क्षेत्र, व्यवहार, भावी सम्भावना आदि अनेक हेतु हैं। इसलिए अमुक कर्म का फल अमुक हो ही, यह बात बनती नहीं। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि कर्म करना व्यक्ति के अपने हाथ की बात है, फल उसके हाथ में नहीं है। यही कारण है, गीताकार ने व्यक्ति को फल की कामना करने का अधिकारी नहीं बताया है। कर्म का जैसा जो फल मिलना है, वह तो मिलेगा ही, कोई कामना करे या न करे, अतः कामना करने से कुछ बनता भी नहीं पर कामना छोड़ देने से बहुत कुछ बनता है। वैसे व्यक्ति को समुचित फल न मिलने से विषाद नहीं होता, कर्मानुरूप या अधिक फल मिलने पर प्रमाद नहीं होता । फल का मिलना, न मिलना, कम मिलना, ज्यादा मिलना-ऐसी स्थितियाँ उसके मन को विचलित नहीं कर पातीं, उसकी शान्ति को भंग नहीं कर पातीं। यदि मनोवृत्ति को यों साध लिया जाय तो कितना प्रानन्द हो जाय ।
प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्द्ध में गीताकार ने और स्पष्ट किया है कि कर्मों के फल को अपने उद्यम का हेतु मत मानो, कर्म के फल की वासना को छोड़ दो।
इतना जोर देकर कहे जाने से कहीं सुनने वाले का कर्म से ही विराग न हो जाय, गीताकार ने उसे और सावधान किया कि तुम कहीं "अकर्मा"-कर्म न करने वाला मत बन जाना । जब कर्म ही नहीं करूगा तो फल की कामना का प्रश्न ही समाप्त हो जायगा, ऐसा सोचकर कर्मों से मह मोड़ लेना भ्रान्ति है। यों कर्म न करने का मानस भी एक प्रासक्ति है-यह न करने की प्रासक्ति है। न करने के दुर्बन्ध में उलझाव है, इससे भी बचना होगा। इसलिए उन्होंने कर्ममय जीवन से पृथक होने से मनुष्य को रोका । इसी तथ्य का स्पष्टीकरण वे प्रागे करते हैं
__ "आसक्ति का परित्याग कर, सिद्धि-सफलता, असिद्धि-असफलता में समान बनकर, योग में स्थित होकर तुम कर्म करो। यह समत्व ही योग है।'
आगे कहा गया है
"उपर्युक्त बुद्धियोग से-फल के प्रति निष्काम रहते हुए किए जाने वाले कर्म की तुलना में फल की कामना के साथ किया जाने वाला कर्म तुच्छ है। इसलिए तुम बुद्धियोगसमत्वयोग का आश्रय लो। वास्तव में फल की कामना करने वाले व्यक्ति अत्यन्त कृपणदीन हैं । १. योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ -श्रीमद्भगवद्गीता २.४८ २. दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।। -श्रीमद्भगवद्गीता २.४९
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / ९६ त्याग, संन्यास आदि के सन्दर्भ में गीता के १८वें अध्याय में बहुत ही मार्मिक विवेचन हुआ है। कहा है
___ "काम्यकर्मों का त्याग संन्याय है, ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। सब कर्मों के फल का त्याग त्याग है, ऐसा विचारशील पुरुष बतलाते हैं।"१
धन, धान्य, स्त्री, पुत्र तथा अन्यान्य प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए एवं रोग, दुःख, विध्न, बाधा आदि की निवृत्ति के लिए जो उपासना, पूजा, तप, दान, यज्ञ आदि कर्म किए जाते हैं, उन्हें काम्यकर्म कहा जाता है। गीताकार द्वारा प्रतिपादित काम्यकर्मों के त्याग का आशय यह है कि इन धार्मिक कर्मों के साथ लौकिक सुख मिले, यह इच्छा करना, लौकिक कष्ट मिटें, ऐसी कामना करना, ऐसे भाव जो जुड़े हए हैं, वे अपगत हो जायं। वैसा होने पर ये सत्कार्य तो रहेंगे पर इनका काम्य विशेषण हट जायेगा।
गीताकार ने यहाँ सब कर्मों के त्याग को त्याग नहीं कहा है, सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहा है। त्याग की बड़ी सूक्ष्म और गहन परिभाषा यह है। जब तक देह है, इन्द्रियां हैं, मन है, यह जागतिक जीवन है, कभी कर्म छुट सकता है ?
कान्ता-दष्टि-प्राप्त साधक गीताकार के शब्दों में उत्तम, निष्काम कर्मयोगी की भूमिका का सम्यक् निर्वाह करता है।
वैसी स्थिति प्राप्त कर लेने के कारण सत्-क्रिया के भावानुष्ठान में वह सोत्साह संलग्न रहता है। अनुष्ठान शब्द अपने आप में बड़ा महत्त्वपूर्ण है। अनु उपसर्ग का अर्थ पीछे या अनुरूप है । सम्यक् ज्ञानी की क्रिया उस द्वारा प्राप्त प्रात्मा-ज्ञान के अनुरूप या उसका अनुसरण करती हुई गतिशील रहती है वह भाव-क्रिया है। वहाँ क्रियमाण कर्म में केवल दैहिकयोग नहीं होता, आत्मा का लगाव होता है। वैसा पुरुष अनवरत धर्म के आचरण या सच्चारित्र के अनुपालन में उद्यमशील रहता है। एक ऐसी अन्तर्जागृति साधक में पैदा हो जाती है कि वह स्वभाव में अनुरत और परभाव से विरत रहने में इच्छाशील तथा यत्नशील रहता है। परभाव से पृथक् रहने के समुद्यम का यह प्रतिफल है, उसके सद् प्राचरण में कोई अतिचार-प्रतिकल कर्म या दोष नहीं होता। अशुभ-पापमूलक, शुभ-पुण्यमूलक उपयोग से ऊंचा उठ वह साधक शुद्धोपयोग के अनुष्ठान की भूमिका में अवस्थित हो जाता है। आत्मा के निलिप्त, राग, द्वेष, मोह आदि से असंपृक्त शुद्ध स्वरूप की भव्य भावना का वह अनुचिन्तन करता है।
ऐसे साधक की प्रमाद-रहित साधना-भूमि और विशिष्ट बनती जाती है। ऐसा अप्रमाद वह अधिगत कर लेता है कि फिर उसको उसके स्वरूप से भ्रष्ट या च्युत करने वाला प्रमाद वहाँ फटक नहीं सकता।
__ऐसे साधक की एक विशेषता और होती है। साधना के अनुभव-रस का जो पान वह कर चुका होता है, ज्ञान एवं दर्शन का जैसा प्रत्यय, बोध, अनुभव वह पा चुका होता है,
१. काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता १८.२
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योगदृष्टिसमुच्चय एक विश्लेषण / ९७
उससे औरों को भी लाभ मिले, औरों को भी वह ऐसे मार्ग से जोड़ सके, इस प्रकार का उद्यम भी उसका रहता है ।
निर्मल ग्रात्मजान के उद्योग के कारण ऐसे दृष्टि से बहुत गम्भीर और उदार भूमिका का उसके व्यक्तित्व का विशेष गुण हो जाता है ।
प्रभा
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प्रभा सातवीं दृष्टि है। प्राचार्य ने सूर्य के प्रकाश की इसको उपमा दी है। तारे और सूर्य के प्रकाश में बहुत बड़ा अन्तर है तारे की अपेक्षा सूर्य का प्रकाश अनेक गुना अधिक श्रवगाढ और तीव्र तेजोमय होता है । प्रभा दृष्टि का बोध - प्रकाश भी अत्यन्त तीव्र, प्रोजस्वी एवं तेजस्वी होता है । कान्ता दृष्टि की अपेक्षा प्रभादृष्टि के प्रकाश की प्रगाढता बहुत अधिक बढ़ी चढ़ी होती है। सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है । उसके सहारे सब कुछ दीखता है। ऐसी ही स्थिति प्रभा दृष्टि की है। वहाँ पहुँचे हुए साधक को समग्र पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । प्रचुर तेजोमयता तथा प्रभाशालिता के कारण आचार्य ने इस दृष्टि का नाम ही प्रभा दे दिया, जो बहुत संगत है ।
साधक का व्यक्तित्व धर्म के प्राचरण की संस्पर्श कर जाता है । समुद्र की-सी गंभीरता
जहाँ इस कोटि का बोधमूलक प्रकाश उद्भासित होता है, वहाँ साधक की स्थिति बहुत ऊँची हो जाती है । वह सर्वथा अखण्ड श्रात्म ध्यान में निरत रहता है । ऐसा होने से उसकी मनोभूमि विकल्पावस्था से प्रायः ऊँची उठ जाती है ऐसी उत्तम प्रविचल ध्यानावस्था से आत्मा में परिसीम सुख का स्रोत फूट पड़ता है वह सुख परम शान्ति रूप होता है, जिसे पाने के लिए साधक साधना-पथ पर गतिमान् हुआ था । यह ऐसा सुख होता है, जिसमें धात्मेतर किसी भी पदार्थ का अवलम्बन नहीं होता। यह परवशता से सबंधा अस्पृष्ट होता है।
यहाँ साधक का प्रातिभ ज्ञान या अनुभूति प्रसूत ज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र का प्रयोजन रहता नहीं । ज्ञान का प्रत्यक्ष या साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है । ग्रात्मसाधना की यह बहुत ऊँची स्थिति है । उस समाधिनिष्ठ योगी की साधना के परम दिव्य भाव-कण आसपास के वातावरण में एक ऐसी पवित्रता संभृत कर देते हैं कि उस महापुरुष की सन्निधि में आने वाले जन्मजात शत्रुभावापन्न प्राणी भी अपना बैर भूल जाते हैं। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है, सचाई है। ऐसे महान् योगी के परम विव्य करुणा का, जिसे बौद्ध वाङ् मय में "महाकरुणा" कहा गया है, ऐसा प्रमल, धवल स्रोत फूट पड़ता है, वह अन्य प्राणियों का भी उपकार करना चाहता है, मार्ग दिखाकर उन्हें अनुगृहीत करना चाहता है। यह सब स्वभावगत है वहाँ कृत्रिमता का कहीं लेश भी नहीं होता ।
परा
श्रेयस् और कल्याण का परिणाम धारा से सम्बद्ध
परा भाठवीं दृष्टि है। प्राचार्य ने इसे चन्द्रमा की प्रभा से उपमित किया है। सूर्य का प्रकाश बहुत तेजस्वी तो है पर उसमें उग्रता होती है। इसलिए श्रालोक देने के साथ-साथ वह उत्ताप भी उत्पन्न करता है। सूर्य की अपेक्षा चन्द्र के प्रकाश में कुछ अद्भुत वैशिष्ट्य
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तब हो सके
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पंचम खण्ड / ९८
अर्चनार्चन
है। वह परम शीतल, अत्यन्त सौम्य तथा शान्त होता है, सहज रूप में सबके लिए प्रानन्द, आह्लाद और उल्लासप्रद होता है। प्रकाशकता की दृष्टि से सूर्य के प्रकाश से उसमें न्यूनता नहीं है। सूर्य दिन में समग्र विश्व को प्रकाशित करता है तो चन्द्रमा रात में। दोनों प्रकाश अपने आप में परिपूर्ण हैं पर हृद्यता, मनोज्ञता की दृष्टि से चन्द्रमा का प्रकाश निश्चय ही सूर्य के प्रकाश से उत्कृष्ट कहा जा सकता है ।
परा दृष्टि साधक की साधना का उत्कृष्टतम रूप है। चन्द्र की ज्योत्स्ना सारे विश्व को उद्योतित करती है, उसी तरह अर्थात् षोडश कलायुक्त परिपूर्ण चन्द्र की ज्योत्स्ना के सदश परा दृष्टि में प्राप्त बोध-प्रभा समस्त विश्व को, जो ज्ञेयात्मक है, उद्योतित करती है । साधक इस अवस्था में इतना आत्माभिरत या प्रात्मस्थ हो जाता है कि उसकी बोध-ज्योति उद्योत तो अव्याबाध रूप में सर्वत्र करती है पर अपने स्वरूप में अधिष्ठित रहती है, उद्योत्य, प्रकाश्य या ज्ञेयरूप नहीं बन जाती । चन्द्र-ज्योत्स्ना यद्यपि समस्त जागतिक पदार्थों को प्राभामय बना देती है। पर पदार्थमय नहीं बनती। परा दृष्टि में पहुँचा हुमा साधक ऐसी ही सर्वथा स्वाश्रित, स्वभावनिष्ठ, दिव्य, सौम्य बोध-ज्योति से प्राभासित रहता है। उसकी स्थिति सर्वथा प्रात्मपरायण अथवा स्वभाव-परायण बन जाती है, जिसे वेदान्त की भाषा में विशुद्ध अद्वैत से उपमित किया जा सकता है।
साधक की यह सद्ध्यानरूप दशा है, जिसमें अव्यवहित तथा निरन्तर प्रात्म-समाधि विद्यमान रहती है। आत्म-स्वरूप में निष्प्रयास परिरमण की यह उच्चतम दशा है, जिसका सुख सर्वथा निर्विकल्प है। बोध तो निर्विकल्प है ही। बोध और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एकमात्र अभेद प्रात्म-स्वरूप में परिणत हो जाती है, जहाँ द्वैतभाव सर्वथा विलय पा लेता है। यह साधक की परम सुखावस्था है। पर ब्रह्मनिष्ठ योगी वहां आनन्दधन बन जाता है। परम आत्म-सुख या निरुपम ब्रह्मानन्द का वह आस्वाद लेता है। साध्य सध जाता है, करणीय कृत हो जाता है, प्राप्य प्राप्त हो जाता है।
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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान
डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
( मंगलाचरण )
नमिऊण जोगिनाहं सुजोगसंवंसगं महावीरं । वोच्छामि जोगबड्ढं हरिभद्दमुणिदविण्णाणं ॥
अर्थात् - - योगियों के स्वामी एवं उत्तम योग-मार्ग को दिखाने वाले भगवान महावीर को नमस्कार करके मैं हरिभद्र मुनीन्द्र के योग से संबद्ध विज्ञान का विवेचन करता हूँ ।
आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका वैदुष्य
प्राचार्य हरिभद्र सूरि, उन पुरातन चिन्तकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा और ज्ञान से भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं साहित्य के क्षेत्र में महनीय योगदान किया है । वे श्रागम-रहस्यज्ञाता, प्रतिभाशील तार्किक, प्रकाण्ड न्यायविद्, क्रान्तदर्शी साधु एवं अद्भुत कथाकार तो हैं ही, उनका भारतीय तुलनात्मक योगज्ञान भी सातिशायी है ।
आचार्य हरिभद्र एक ऐसे प्रशस्त रचनाकार हैं जिनका समस्त भारतीय धर्मों एवं दर्शनों पर प्रबल आधिपत्य है । यह जानकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है कि उनकी रचनाओं में जहाँ एक ओर विभिन्न भारतीय विचारधाराओंों का तात्त्विक विवेचन है वहीं पर उन विचारधारानों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जैन दृष्टिकोण की भी विशुद्ध व्याख्या है । यह बात योग निरूपण के प्रसंग में तो शत-प्रतिशत सही है । इसलिए हमने आचार्य हरिभद्र के यौगिक ज्ञान को योग विज्ञान की संज्ञा प्रदान की है ।
जीवनवृत्त एवं सामाजिक अवदान
प्राचीन भारतीय परम्परा का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्र ने अपने विषय में कुछ भी नहीं लिखा है ।
आचार्य प्रभाचन्द्र रचित 'प्रभावकचरित १ (वि. सं. १३३४), राजशेखर सूरि रचित 'प्रबन्धकोश' २ ( वि. सं. १४०५), 'पुरातनप्रबन्ध संग्रह' आदि प्रबन्धग्रन्थों में प्राचार्य
3
१. 'प्रभावकचरितम्' - सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद तथा कलकत्ता,
ई. १९४०, सम्पादक - मुनिजिनविजयजी, ९ वां प्रबन्ध 'हरिभद्रसूरिचरितम्' २. 'प्रबन्धकोश: ' सिंधी जैन ग्रन्थमाला, १९३५, ८ वां प्रबन्ध 'हरिभद्रसूरिप्रबन्ध : ' १९३६, ५४ वां प्रबन्ध 'हरिभद्रसूरिप्रबन्ध : '
३. ' पुरातन प्रबन्ध संग्रह : ' सि. जे. ग्रन्थ,
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पंचम खण्ड / १००
अर्चनार्चन
हरिभद्र के जीवन से सम्बन्धित प्रबन्ध उपलब्ध हैं। प्राचर्य भद्रेश्वररचित प्राकृत 'कहावली' के अंत में प्राचार्य हरिभद्र का वृत्तान्त संक्षेप में वर्णित हा है।
___ तदनुसार आचार्य हरिभद्र का जन्म चित्तौड़ (चित्रकूट) में हुआ था। उनके पिता का नाम शंकरभट्ट और माता का नाम गंगा था। वे जन्म से ब्राह्मण थे। बाद में वे राजपुरोहित बने।
प्राचार्य हरिभद्र ने, प्राचार्य जिनभट के विद्याधरगच्छ से सम्बन्धित श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की। उनके दीक्षा-गुरु का नाम जिनदत्त सूरि था। प्राचार्य के जीवन में जिस व्यक्ति ने महत्तर परिवर्तन किया वह है 'याकिनी महत्तरा' नाम की साध्वी। प्राचार्य ने इस साध्वी को अपनी धर्ममाता का पद प्रदान किया और सदैव उनके पुत्र के रूप में अपने को उल्लिखित करते रहे।
कहा जाता है कि हरिभद्र ने मेवाड़ के एक बहुत बड़े समुदाय को सम्बोधित कर उसे जैनधर्म में दृढ़ विश्वासी बनाया । वह समुदाय आज 'पोरवाड़' जाति के नाम से प्रसिद्ध है'।
समय
प्राचार्य हरिभद्र के समय की पहेली लगभग हल हो चुकी है। प्रख्यात पुरातत्त्ववेत्ता एवं जैनसाहित्य संशोधक मुनि श्री जिनविजयजी ने अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर प्राचार्य हरिभद्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का अंतिम एवं नवमी शताब्दी का प्रारम्भ निश्चित किया है।
प्रायः समस्त भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान् प्राचार्य हरिभद्र के इस समय को प्रामाणिक स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध जर्मन भारतविद् प्रो. हर्मन याकोबी ने भी प्राचार्य हरिभद्र के इस समय को प्रामाणिक रूप में स्वीकार कर लिया है ।२
कृतियाँ
प्राचार्य हरिभद्र की कृतियों के परिमाण के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मन्तव्य प्रचलित हैं । 'प्रबन्धकोश' तथा विजयलक्ष्मी सूरि के 'उपदेशप्रासाद' में १४४० प्रकरणों के, तथा 'प्रभावकचरितम्' में १४०० प्रकरणों के प्राचार्य हरिभद्र द्वारा रचे जाने के उल्लेख हैं। 3
अभी लगभग सौ के आसपास छोटे-बड़े ग्रन्थ ज्ञात हो सके हैं जो प्राचार्य हरिभद्र रचित
१. डॉ. छगनलाल शास्त्री, सम्पादक एवं अनुवादक 'समराइच्चकहा' प्रथम खण्ड, प्रकाशक
अ. मा. साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर, १९७६, प्रस्तावना पृ. २ . १९२६ में 'एशियाटिक सोसा. बंगाल'द्वारा 'Bibliotheca Indica No. 169' के अन्तर्गत
प्रकाशित, प्रो. हर्मन याकोबी द्वारा सम्पादित 'समराइच्चकहा' की भूमिका (इन्ट्रोडक्शन) ३. 'प्रभावकचरितम्' का ९ वां प्रबन्ध 'हरिभद्रसूरिचरितम्'
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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / १०१
माने जाते हैं। उनमें से भी यदि छटाई की जाय तो प्राप्य श्रप्राप्य लगभग पचास ग्रन्थ ऐसे हैं जिन्हें प्राचार्य हरिभद्र रचित माना जाना शंकास्पद नहीं है । "
श्राचार्य हरिभद्र- रचित ग्रन्थों को सामान्यतः पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. श्रागम - व्याख्याएँ,
२. कथाकृतियाँ,
३. धर्म व दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ,
४. योगशास्त्र, एवं
५. अन्य ग्रन्थ ।
१- आगम व्याख्याएँ
प्राचार्य हरिभद्र जैन आगमों पर संस्कृत में टीका लिखने वाले सबसे प्रथम विद्वान् हैं । इनके द्वारा प्रणीत 'आवश्यक - बृहद्वृत्ति' 'दशवैकालिक - बृहद्वृत्ति' आदि आगमिक टीकाएँ प्रसिद्ध हैं ।
२. कथाकृतियाँ
आचार्य हरिभद्र रचित स्वतंत्र कथाकृतियों के नाम हैं- 'समराइच्चकहा' तथा 'धूर्ताख्यान' ।
३. धर्म व दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ
आचार्य हरिभद्र ने अनेकान्त पर 'अनेकान्तजयपताका', 'अनेकान्तवादप्रवेश' दोनों सटीक तथा 'अनेकान्तप्रघट्ट' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचे हैं । इनके अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र का भारतीय षड्दर्शनों की विवेचना करने वाला एक प्रसिद्ध ग्रन्थ 'षड्दर्शनसमुच्चय' है । 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक एक दार्शनिक ग्रन्थ भी इनका प्रसिद्ध है । 'धर्मसंग्रहणी' एवं 'लोकतत्त्वनिर्णय' नामक ग्रन्थ भी प्राचार्यश्री के लिखे हुए प्राप्त होते हैं ।
'जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार' नामक ग्रन्थ में प्राचार्य हरिभद्र रचित दार्शनिक जिन ग्रन्थों का उल्लेख है, वे इस प्रकार हैं
तत्त्वतरंगिणी, त्रिभंगीसार, न्यायावतारवृत्ति, पंचलिंगी, द्विजवदनचपेटा, परलोकसिद्धि, वेदबाह्यतानिराकरण, सर्वज्ञसिद्धि तथा स्याद्वादकुचोद्यपरिहार | 2
आचार्यश्री ने प्रसिद्ध बौद्ध श्राचार्य दिङ्नाग रचित 'न्यायप्रवेश' पर एक 'न्यायप्रवेशटीका' भी लिखी है ।
४. योगशास्त्र
प्राचार्य हरिभद्र ने भारतीय योग-विद्या के क्षेत्र में अपूर्व देन दी है । श्राचार्य श्री के
१. डॉ० छगनलाल शास्त्री, 'समराइच्चकहा', प्रस्तावना - पृ० १५
२. पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य द्वारा लिखित 'जैनदर्शन', श्री गणेशवर्णी जैन ग्रन्थमाला काशी, १९६६, 'जैन दार्शनिक साहित्य' – पृ० ५८५
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पंचम खण्ड / १०२
अर्चनार्चन
जो यौगिक-ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं उनकी संख्या चार है-(१) योगबिन्दु, (२) योगदृष्टिसमुच्चय, (३) योगशतक एवं (४) योगविशिका। इन चारों ग्रन्थों में प्रथम दो संस्कृतभाषा में, शेष दो प्राकृतभाषा में लिखे गये हैं। यद्यपि 'षोडशक' नामक ग्रन्थ में कुछ प्रकरण योगविषयक हैं, परन्तु उनका वर्णन उक्त चार ग्रन्थों में समाविष्ट हो जाता है।
_ 'योगबिन्दु' का परिमाण सबसे अधिक है। इस समुच्चय' की श्लोकसंख्या २२८ है। इन दोनों ग्रन्थों की रचना अति प्राचीन एवं प्रसिद्ध संस्कृतछन्द 'अनुष्टुप्' में की गई है।
___ 'योगशतक' की रचना १०१ प्राकृत गाथाओं में तथा 'योगविशिका' की रचना २० प्राकृत गाथाओं में की गई है। इस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र के इन चारों योग-ग्रन्थों का परिमाण ८७६ श्लोक प्रमाण है।
५. अन्य ग्रन्थ
आचार्य हरिभद्र बड़े क्रान्तिकारी विचारों के साधू-पुरुष थे। उन्होंने अपने समय के चैत्यवासी जैनसाधूनों में व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध संघर्ष ही नहीं किया अपितु उन्हें संबोधित करने हेतु एक 'सम्बोध-प्रकरण' नाम का ग्रन्थ भी लिखा।
जैनविद्या के प्रसिद्ध अन्वेषक पं० नाथुराम 'प्रेमी' ने प्राचार्य हरिभद्र के जिन अन्य ग्रन्थों का उल्लेख किया है वे इस प्रकार हैं-'तत्त्वार्थाधिगम' पर टीका' तथा 'ललितविस्तरा'२ एवं अपभ्रशभाषा के दो ग्रन्थ 'जसहरचरिऊ' एवं 'नेमिनाथचरिऊ' ।
योग-विज्ञान
अात्मविकास के लिए 'योग' एक महत्त्वपूर्ण साधन है। भारतीय संस्कृति के समस्त चिंतकों एवं ऋषि-मुनियों ने योगसाधना के महत्त्व को स्वीकार किया है।
हम यहां योग के विभिन्न अर्थ, उनमें परस्पर सामंजस्य, भारतीय यौगिक परम्पराएँ, जैनयोग परम्परा एवं उसमें प्राचार्य हरिभद्र सूरि के योगदान की चर्चा करेंगे। योग का अर्थ
'योग' शब्द 'युज्' धातु से 'घ' प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। संस्कृत व्याकरण में 'युज' धातु के दो प्रर्थ हैं-संयोग (जोड़ना) ५ एवं समाधि । भारतीय योगदर्शन में 'योग' शब्द दोनों अर्थों में प्रयुक्त हमा है। महर्षि पतंजलि ने योग का अर्थ किया है समाधि प्रर्थात चित्तवृत्ति का निरोध । प्रायः सभी वैदिक योग-चिन्तकों ने 'योग' का अर्थ समाधि के रूप में किया है। बौद्ध विचारकों ने भी 'योग' का अर्थ समाधि ग्रहण किया है।
१. १, २, ३, ४-पं. नाथूराम 'प्रेमी', जैन साहित्य और इतिहास, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर
प्रा. लि. बन्बई, १९५६, पृष्ठ संख्या क्रमशः ५१२, ५७, २३७, ४०८ २. रुधादि गणी 'युज्' धातु, युजिर योगे, सिद्धान्त कौमुदी (रुधादिगण) ३. दिवादिगणी 'युज्' धातु, युज् समाधौ समाधिश्चित्तवृत्तिनिरोधः, सिद्धान्तकौमुदी (दिवादिगण) ४. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः-पातंजल योगसूत्र ११२
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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / १०३
प्राचार्य हरिभद्र ने 'योग' का अर्थ 'संयोग' किया है, वे कहते है कि 'मोक्षेण योजनाद योगः' अर्थात् 'योग' एक सार्थक शब्द है क्योंकि वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ देता है।
जैनदर्शन में 'योग' शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ भी है
"कायवाङमनःकर्म योग:"२ अर्थात् शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । यह दो प्रकार का है-शुभयोग और अशुभयोग । शुभयोग से पुण्य एवं अशुभ योग से पाप कर्मों का 'आस्रव होता है। यह दोनों प्रकार का योग कर्मबन्ध का कारण है। अतः मोक्ष प्राप्त करने के लिए योग का निरोध (संवर) करना पड़ता है।
यहाँ 'योग' शब्द को एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द समझना चाहिए, जिसका भारतीय योगदर्शन से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है।
योग के अर्थों में सामंजस्य
वैदिक विचारधारा में 'योग' का अर्थ 'समाधि' एवं जैन विचारधारा में 'योग' का अर्थ 'संयोग' हुअा है। इन दोनों अर्थों को परस्पर भिन्न नहीं मानना चाहिए। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर इन दोनों अर्थों में सामंजस्य प्रतीत होता है।
प्राचार्य हरिभद्र ने 'योगबिन्दु' के प्रारंभ में इसी बात की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है
"मोलहेतुर्यतो योगो भिद्यते न ततः क्वचित् ।
साध्याभेदात् तथाभावे तूक्तिभेवो न कारणम् ।।४ अर्थात-योग, मोक्ष का हेतु है । परम्पराओं की भिन्नता के बावजूद मूलतः उसमें कोई भेद नहीं है। जब योग के साध्य या लक्ष्य में किसी को कोई भेद नहीं है, वह सबको एक समान है, तब उक्तिभेद या विवेचन की भिन्नता वस्तुतः योग में किसी प्रकार का भेद नहीं ला सकती।
समाधि अर्थात चित्तवृत्ति का निरोध, एक क्रिया है-साधना है। वह निषेधपरक नहीं प्रत्युत विधेयात्मक है। चित्तवृत्ति के निरोध का वास्तविक अर्थ है अपनी संसाराभिमुख चित्तवत्तियों को रोक कर, साधना को साध्यसिद्धि या मोक्ष के अनुकल बनाना । जैनविचारक मोक्ष के साथ सम्बन्ध करानेवाली क्रिया-साधना को 'योग' कहते हैं। इस प्रकार 'योग' के दोनों अर्थों में वस्तुतः भेद नहीं किन्तु अभेद समझना चाहिए।
१. योगबिन्दु -३१ २. प्रा. उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र ६।१ ३. "शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य," वही ६।२, "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा:
बन्धहेतवः", वही ८११, बन्घहेत्वभावनिर्जराभ्यां मोक्षः," वही १०११ ४: योगबिन्दु -३ ५. प्राचार्य हरिभद्रसूरि-'जैनयोगग्रन्थ चतुष्टय' संपादक-डॉ. छगनलाल शास्त्री, मुनि
श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, १९८२ में प्रकाशित, उपाध्याय अमरमुनि का निबन्ध--'जैनयोग: एक परिशीलन' प० ४३-४४
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पंचम खण्ड / १०४ भारतीय यौगिक परम्पराएँ
भारतीय-संस्कृति, तीन धाराओं में प्रवहमान रही है-वैदिक, बौद्ध एवं जैन । इस अपेक्षा से योगसाधना की भी तीन परम्पराएँ हैं-वैदिक, बौद्ध एवं जैन योग परम्परा । तीनों परम्पराओं का अपना स्वतन्त्र चिन्तन एवं मौलिक-विचार है। फिर भी तीनों परम्पराओं के विचारों में भिन्नता के साथ बहुत कुछ साम्य भी है। आगे हम इन्हीं परम्पराओं पर विचार करेंगे।
अर्चनार्चन
वैदिक योग-परम्परा
वेद एवं उपनिषद् काल की अपेक्षा षड्दर्शनों में योग की रूपरेखा अधिक स्पष्ट हो गई थी। योगदर्शन तो प्रमुख रूप से योग का विवेचक है ही।
योगदर्शन का प्रादि ग्रन्थ महर्षि पतंजलि का 'योगसूत्र' है। इसमें जो योग का स्वरूप प्राप्त होता है, वह वैदिक योगपरम्परा का पूरा प्रतिनिधित्व करता है। इसमें योग के पाठ अंगों का विवेचन है, जिनका परिपालन करके मानव-जीवन के चरम लक्ष्य कैवल्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है । इन आठ अंगों के नाम इस प्रकार हैं-१ यम, २ नियम, ३ आसन, ४ प्राणायाम, ५ प्रत्याहार, ६ धारणा, ७ ध्यान एवं ८ समाधि ।
योग के इन अंगों के भेद-प्रभेदों पर सूक्ष्म विचार करने से यह स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता हैं कि इनमें और जैनधर्म में प्रतिपादित चारित्र के भेद-प्रभेदों में पर्याप्त साम्य हैं । उदाहरणार्थ-प्रथम योगांग 'यम' के जो पांच भेद महर्षि पतंजलि ने बताए हैं वही पाँच भेद व्रतों के रूप में जैनधर्म में बताए गए हैं । तुलना कीजिए"तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिपहा यमाः।"
पातंजल योगसूत्र २-३० "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्।"
तत्त्वार्थसूत्र, ७-१ आचार्य हरिभद्र ने भी योग की इस साम्यदृष्टि को ध्यान में रखते हुए पातंजल योग के आठ अंगों से अनुप्राणित पाठ योगदृष्टियों का विवेचन 'योगदृष्टिसमुच्चय' में किया है। बौद्ध योग-परम्परा
बौद्ध साहित्य में योग के स्थान पर 'ध्यान' और 'समाधि' शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। महात्मा बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिए जिस अष्टाङ्गिकमार्ग का उपदेश दिया उसमें पाठवें अंग 'समाधि' का विशेष महत्त्व है। उसे 'सम्यकसमाधि' नाम दिया गया है। 'सम्यकसमाधि' को प्राप्त करने के लिए चार प्रकार के 'ध्यान' का भी वर्णन है।४ १. "यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारध्यानधारणासमाधयोऽष्टाङ गानि।" पातंजल योगसूत्र २१९ २. "मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा।
नामानि योगदृष्टिनां लक्षणं च निबोधत ॥" योगदष्टिसमुच्चय १३ १-सम्यग्दृष्टि, २-सम्यक्संकल्प ८ सम्यक्समाधि ।-संयुक्तनिकाय ५१० चार प्रकार के ध्यान-१ वितर्क-विचार-प्रीति-सुख-एकाग्रता सहित, २ प्रीति-सुख-एकाग्रता सहित, ३ सुख-एकाग्रता सहित, ४ एकाग्रता सहित,
३.
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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / १०५
बौद्ध साहित्य में आर्य-अष्टांग का वर्णन किया गया है, उसमें शील, समाधि और प्रज्ञा के उल्लेख प्राप्त होते हैं।'
बौद्धों द्वारा स्वीकृत शोल में पतंजलि सम्मत यम-नियम का समावेश हो जाता है। बौद्ध साहित्य में पंच शील, वैदिक परम्परा में पांच यम और जैन-परम्परा में पांच महाव्रत प्रायः एक समान हैं । जैसा कि हम पहले बता चुके हैं यम और महाव्रतों के नाम एक सदृश हैं । पंच शील में प्रथम चार के नाम यही हैं, परन्तु अपरिग्रह के स्थान पर मद्य से निवृत्त होने का उल्लेख है।
बौद्ध-समाधि में योग सूत्र द्वारा वणित प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश हो जाता है । बौद्ध-परम्परा 'द्वारा मान्य 'प्रज्ञा' और योगसूत्र में वणित 'विवेक-ख्याति' में पर्याप्त अर्थसाम्य है।
इस प्रकार बौद्ध साहित्य में वणित योग, अन्य परम्पराओं से कहीं शब्द से, कहीं अर्थ से और कहीं प्रक्रिया से साम्य रखता है।
जैन योग-परम्परा
भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप, ध्यान और आत्मचिंतन के द्वारा योग-साधना का ही जीवन बिताया था। जैनागमों में वणित साध्वाचार-पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, बारह प्रकार का तप, चार प्रकार का ध्यान आदि जो योग के मुख्य अंग हैं, उन्हें साधुजीवन-श्रमण-साधना का प्राण माना गया है।
जैनदर्शन में योग-साधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग हा है। प्राचार्य उमास्वाति ने 'ध्यान' का लक्षण किया है-"उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमहर्तात"3 अर्थात-किसी एक विषय में चित्तवत्ति का निरोध (रोकना) ध्यान है। यह उत्तम संहनन वाले व्यक्ति के केवल अन्तर्महर्त तक हो सकता है। प्राचार्य ने इसके चार भेद किए हैं--(१) प्रार्त, (२) रौद्र, (३) धर्म तथा (४) शुक्ल । इनमें प्रथम दो-प्रार्तध्यान एवं रौद्रध्यान संसार के कारण है तथा अन्तिम दो-धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं।
इस ध्यान का पातंजल चित्तवृत्तिनिरोधरूप 'समाधि' से सामंजस्य बैठता प्रतीत होता है।
१. शील का अर्थ है-कुशल धर्म को धारण करना तथा कर्त्तव्य में प्रवत्ति एवं अकर्तव्य से
निवृत्ति ।-"विसुद्धमग्ग' १११९।२५ समाधि का अर्थ है-कुशल चित्त की एकाग्रता -वही, ३।२।३
प्रज्ञा का अर्थ है-कुशल चित्तयुक्त विपश्य-विवेकज्ञान, वही, १४।२।३ २.. उपाध्याय अमरमुनि 'जैनयोग एक परिशीलन', पृष्ठ ६४ ३. तत्त्वार्थसूत्र-९।२७ ४. "आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि" तत्त्वार्थसूत्र ९।२८
"परे मोक्षहेतु"--वही ९।२९
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / १०६ प्राचार्य हरिभद्र सूरि का योग-विज्ञान और जैन योग के आचार्य
प्राचार्य हरिभद्र जैन योग के सबसे प्रथम प्राचार्य हैं। उन्होंने जैन योग पर जिन चार ग्रन्थों की रचना की, उनका उल्लेख हम पहिले कर चुके हैं।
प्राचार्य हरिभद्र के योग-विज्ञान को जिन प्राचार्यों ने आगे बढ़ाया, उनमें प्रमुख प्राचार्य हैं-हेमचन्द्र, शुभचन्द्र एवं उपाध्याय यशोविजय। प्राचार्य हेमचन्द्र (विक्रम की १२ वीं शताब्दी) ने अपने 'योगशास्त्र' नामक ग्रन्थ में पातंजल अष्टांग योग के क्रम से गहस्थ एवं साधूजीवन की प्राचार-साधना का जैन-दष्टि से वर्णन किया है। प्राचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' (सर्ग २९ से ४२ तक) में प्राणायाम, ध्यान आदि यौगिक विषयों के स्वरूप एवं भेदों का जैन शास्त्रीय दृष्टि से वर्णन किया है।
उपाध्याय यशोविजय ने 'अध्यात्मसार', 'अध्यात्मोपनिषद्' और सटीक बत्तीस 'बत्तीसियां' लिखी हैं, जिनमें जैन-योग की विवेचना है। उपाध्यायजी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है प्राचार्य हरिभद्र की 'योगविशिका' एवं 'षोडशक' पर लिखी टीकाएँ । हम निःसंकोच यह कह सकते हैं कि उपाध्याय यशोविजय ने प्राचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक जैन-योगदष्टि को पल्लवितपुष्पित कर उसे आगे बढ़ाया ।' आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थों का विषय-विवेचन
प्राचार्य हरिभद्र के योग-विषयक चार ग्रन्थ हैं-(१) योगबिन्दु, (२) योगदृष्टिसमुच्चय, (३) योगशतक एवं (४) योगविशिका। इन चारों के विषयों का हम संक्षेप में विवेचन करते हैं१. योगबिन्दु
योग की निरुक्ति एवं उसकी पाँच भूमिकाएँ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राचार्य योग की निरुक्ति पर विचार करते हुए, उसके क्रमिक विकास की पांच भूमिकाओं पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि 'मोक्षेण योजनाद् योगः' अर्थात् योग एक सार्थक शब्द है, क्योंकि वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ देता है।
प्रात्मा के मोक्ष से योजन की इस प्रक्रिया में पांच बातों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता एवं (५) वृत्तिसंक्षय ।
अध्यात्म-प्रात्मानुभूति, भावना-अात्मानुभूति का बार-बार चितवन, ध्यान-चित्त की एकाग्रता, समता-इष्टानिष्ट पदार्थों के विषय में तटस्थवत्ति तथा वत्तिसंक्षय-विजातीय द्रव्य से उत्पन्न चित्तवृत्तियों का समूल नाश--ये पांचों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।२।।
प्राचार्य हरिभद्र ने इन पांचों में से प्रथम चार भूमिकाओं की पांतजल-योगसूत्र में वर्णित संप्रज्ञातसमाधि से एवं अन्तिम पांचवीं भूमिका को असंप्रज्ञातसमाधि से तुलना की है।
१. उपाध्याय अमरमुनि 'जैनयोग: एक परिशीलन', पृष्ठ ७२।७४ २. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
मोक्षेण योजनाद योगः एष श्रेष्ठो यथोत्तरम । -योगबिन्दु ३१
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योग के छह भेद - इसके पश्चात् योग के छह भेदों का विवेचन है - (१) तात्त्विक, (२) प्रतात्विक, (३) सानुबन्ध, (४) निरनुबन्ध, (५) सास्रव एवं (६) मनासव
योग का यथाविधि अनुसरण, तात्त्विक योग है । केवल लोकरंजनार्थ योग का प्रदर्शन तात्त्विक योग है। लक्ष्य प्राप्त करने तक प्रविच्छिन्न गतिमान् सानुबन्ध योग है । जिसमें बीच-बीच में गतिरोध आता रहता है, वह निरनुबन्ध योग है जो संसार परिभ्रमण को दीर्घ बनाता है वह सास्रव योग है जो संसार परिभ्रमण को समाप्त करता है, वह 'मनासव योग' है ।
वस्तुतः ये छह भेद योग की भिन्न भिन्न अवस्थाओंों के सूचक हैं।' योग माहात्म्य - इसके बाद योग के माहात्म्य की चर्चा है
योगः कल्पतरुः श्र ेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योग: सिद्ध: स्वयंग्रहः ॥ २
यहाँ आचार्य ने योग की सर्वार्थसाधक कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि से तुलना करते हुए उसे समस्त धर्मों में प्रधान एवं सिद्धि मुक्ति का अनन्य हेतु बताया है।
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मागे प्राचार्य कहते हैं कि योग न केवल सांसारिक दुःखों से अपितु जन्म-मरण के दुःखों से भी छुटकारा दिलाकर निर्वाण की प्राप्ति करा देता है । इस प्रसंग में श्राचार्य ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है- योगाभ्यासी पुरुष के लिए योग के प्रभाव से ऐसे उत्तम स्वप्न धाते हैं, जिससे उसके सभी प्रकार के संदेह दूर हो जाते हैं । यहाँ तक कि इष्टदेव के दर्शन भी उसे हो जाते है । "
आगे कहा गया है कि धैर्य, श्रद्धा, मैत्री, लोकप्रियता, सदाचार, गौरव, परम शान्ति की अनुभूति जैसे दुर्लभ हो जाते हैं ।
योग के अधिकारी
जो जोव चरमपुद्गलावर्त में स्थित है, अर्थात् जिसका संसारस्थिति-काल मर्यादित हो गया है, शुक्लपाक्षिक है अर्थात् मोहनीय कर्म के तीव्र भावरूप अन्धकार से रहित है, भिन्नग्रन्थ है अर्थात् जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, एवं चारित्री है अर्थात् चारित्र पालन के पथ पर ग्रारूढ है, वह योग का अधिकारी है। ऐसा व्यक्ति योगसाधना के द्वारा अनादिकाल से चले आ रहे भवभ्रमण का अन्त कर देता है। 5
१. तात्विक भूत एव स्यादन्यो लोकव्यपेक्षया । प्रच्छिन्नः सानुबन्धस्तु छेदवानपरो मतः ॥ साखवोः दीर्घसंसारस्ततोऽन्योऽनास्रवः परः,
तत्त्वज्ञान, द्वन्द्वसहिष्णुता, क्षमा, मानवीय गुण भी योग से प्राप्त
अवस्थाभेदविषयाः संज्ञा एता यथोदिताः ॥ -- योगबिन्दु ३३ ३४ २. योगबिन्दु ३७।३. वही, ३८४. वही ४२, ५. वही ४३ ६. योगबिन्दु ५२-५४
७. "चरमे पुदगलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः ।
भिनय चरित्र तस्यैवैतदुदाहृतम् ॥" योगबिन्दु ७२ ८. वही ९९
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इसके विपरीत जो अचरमपुद्गलावर्त में स्थित हैं, वे मोहकर्म की प्रबलता के कारण संसार में, काम-भोगों में प्रासक्त बने रहते हैं। अतः ये योग के अधिकारी नहीं हैं। प्राचार्य ने उन्हें 'भवाभिनन्दी' की संज्ञा से सम्बोधित किया है।'
योग के अधिकारी जीवों को प्राचार्य ने चार भागों में विभक्त किया है- १. अपुनबंधक, २. भिन्नग्रन्थि, ३. सम्यग्दृष्टि (बोधिसत्व) तथा ४. चारित्री।
___ अपुनबंधक-जो 'भवाभिनन्दी' जीव में पाए जाने वाले दोषों के प्रतिकूल गुणों से युक्त होता है एवं अभ्यास द्वारा उत्तरोत्तर गुणों का विकास करता जाता है, वह अपुनबंधक होता है। वह गुरुजनों तथा देवों का पूजन, सदाचार, तप, मुक्ति से अद्वेष रूप 'पूर्व सेवा' का पाराधक होता है।
भिन्नग्रन्थि-जिसकी अज्ञानजनित मोहरागात्मक ग्रन्थि भिन्न हो जाती है, ऐसे सत्पुरुष का चित्त मोक्ष में रहता है और देह संसार में। उसके जीवन की समस्त प्रक्रिया योग में समाविष्ट रहती है।
सम्यगदष्टि (बोधिसत्व)-ग्रन्थिभेद हो जाने पर जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसमें प्रशम आदि गुण विशेषरूप से प्रकट हो जाते हैं । यथाशक्ति धर्मतत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, गुरु तथा देवादि की पूजा-ये उसके लक्षण हैं।
अन्तविकास की दृष्टि से इस अवस्था तक पहुँचा पुरुष बौद्धपरम्परा में "बोधिसत्व" कहा जाता है। ऐसे पुरुष "बोधिसत्त्व" के समान कायपाती तो होते हैं, चित्तपाती नहीं। जो उत्तम बोधि से युक्त होता है, भव्यता के कारण अपनी मोक्षाभिमुख यात्रा में आगे चलकर 'तीर्थकर' पद प्राप्त करता है, वह "बोधिसत्त्व" है।
चारित्री-सदनुष्ठान में प्रवृत्त साधक के जब परिमित कर्म विनिवृत्त हो जाते हैं, तब वह चारित्री होता है। अध्यात्मपथ का अनुसरण, श्रद्धा, धर्म-श्रवण में अभिरुचि आदि चारित्री के लक्षण हैं । अनुष्ठान के पाँच भेद
प्रस्तुत ग्रन्थ में पांच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया गया है-१. विष, २. गर, ३. अनुष्ठान, ४. तद्धेतु एवं ५. अमृत । १. "भवाभिनन्दिनो प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दुःखिताः॥" -योगबिन्दु ८६ ___ "अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलारम्भसंगतः ॥” –वही ८७ ।।
योगबिन्दु १७८-१७९ ३. “भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनु ॥" --वही २० ४. “सम्यग्दृष्टिर्भवत्युच्चैः प्रशमादिगुणान्वितः ।"-वही २५२, २५३ ५. "अयमस्यामवस्थायां बोधिसत्वोऽभिधीयते ।" -वही २७०, २७१
"वरबोधिसमेतो वा तीर्थंकृद्यो भविष्यति ।" -वही २७४ ।। ७. वही ३५२ ८. वही ३५३ ९. वही १५५ - "विषं गरोऽनुष्ठानं तद्धेतुरमृतं परम् ।''
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जिस अनुष्ठान के पीछे चमत्कार-शक्ति प्राप्त करने का भाव रहता है, वह 'विष' है । ' जिस अनुष्ठान के साथ दैनिक भोगों की अभिलाषा जुड़ी रहती है, वह 'गर' है। संप्रमुग्ध मनवाले व्यक्ति द्वारा बिना किसी उपयोग के जो क्रिया की जाती है, वह 'अनुष्ठान' है । 3 पूजा, सेवा, व्रत आदि के प्रति मन में राग का भाव, जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति सदनुष्ठान में प्रवृत्त होता है, योग का उत्तम हेतु होने से 'तद्धेतु' कहा जाता है । जिस अनुष्ठान के साथ साधक के मन में मोक्षोन्मुख श्रात्मभाव तथा भववैराग्य की अनुभूति जुड़ी रहती है और साधक यह आस्था लिए रहता है कि यह अर्हत् प्रतिपादित है, उसे 'अमृत' कहा गया है । "
इन पांचों अनुष्ठानों में से प्रथम तीन “असदनुष्ठान" हैं तथा अन्तिम दो "सदनुष्ठान" हैं। योग के अधिकारी व्यक्ति को "सदनुष्ठान" ही होता है ।
२. योगदृष्टिसमुच्चय
श्राचार्य हरिभद्र का यह दूसरा यौगिक ग्रन्थ है । यह आध्यात्मिक विकासक्रम, परिभाषा, वर्गीकरण, शैली आदि की अपेक्षा 'योगबिन्दु' से अलग दिखाई देता है ।
योग के तीन भेद ग्रन्थ के प्रारम्भ में योग के तीन भेद किये गये हैं- १. इच्छायोग, २. शास्त्रयोग तथा ३. सामर्थ्ययोग ।
धर्मसाधना में प्रवृत्त होने की इच्छा से साधक का प्रमाद के कारण जो विकल धर्मयोग है, उसे 'इच्छायोग' कहा गया है । जो धर्मयोग शास्त्र के अनुसार उसे 'शास्त्रयोग' कहते हैं । यह श्रप्रमाद के कारण अविकल-धर्मयोग होता है । जो धर्मयोग आत्मशक्ति के विशिष्ट विकास के कारण शास्त्रमर्यादा से भी ऊपर उठा हुआ हो, उसे 'सामर्थ्य योग' कहते हैं । सत् श्रद्धा से युक्त बोध को 'दृष्टि' कहा गया है - ( योगदृष्टिसमुच्चय १७ )
आठ योगदृष्टियां - सबसे पहले दृष्टि के दो भेद किए हैं- 'प्रोघदृष्टि' तथा ' योगदृष्टि' । अचरमपुद्गलावर्त-अज्ञानकाल की अवस्था को 'अघदृष्टि' कहा गया है। 'प्रोघदृष्टि' में प्रवर्तमान 'भवाभिनन्दी' का वर्णन योगबिन्दु के वर्णन जैसा ही है 15
'प्रोघदृष्टि' से ऊपर उठकर साधक 'योगदृष्टि' में प्रवेश करता है ।
१. "विषं लब्ध्याद्यपेक्षात इदं सच्चित्तमारणात् । " - योगबिन्दु १५६
२ . वही - १५७ “ दिव्यभोगाभिलाषेण गरमाहु र्मनीषिणः"
३. "अनाभोगवतश्चैतदननुष्ठानमुच्यते । संप्रमुग्धं मनोऽस्येति” – योगबिन्दु १५८
४. “ एतद्रागादिकं हेतुः श्रेष्ठो योगविदो विदुः " - वही १५९
५. "जिनोदितमिति त्वाहुर्भावसारमदः पुनः ।
संवेगगर्भ मत्यन्तममृतं मुनिपुङ्गवाः ॥" - वही १६०
. ६. योगदृष्टिसमुच्चय २, "इहैवेच्छादियोगानां स्वरूपमभिधीयते ।" ७. वही ३-५
८. वही १४ -- " प्रोघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया । "
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प्रारम्भिक अवस्था से लेकर विकास की चरम अवस्था तक की भूमिकाओं के, कर्ममल के तारतम्य की अपेक्षा से इन योगदष्टियों के आठ भेद है-१. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा एवं ८. परा।
ये पाठ विभाग तथा इनका वर्णन पातंजल-योगसूत्र में वणित क्रमशः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधिरूप योग के पाठ अंग तथा बौद्धपरम्परा के खेद, उद्वेग आदि प्रथगजनगत अष्टदोषपरिहार और अद्वेष, जिज्ञासा आदि अष्टयोगगुणों के आधार पर किया गया है। उदाहरणार्थ प्रथम 'मित्रादष्टि' का स्वरूप देखिए
"मित्रायां दर्शनं मन्दं यम इच्छादिकस्तथा।
__ अखेदो देवकार्यादावद्वषश्चापरत्र तु॥"3 अर्थात्-'मित्राष्टि' के प्राप्त होने पर जीव, दर्शन-सत्श्रद्धाभाव की मन्दता लिए रहता है, योग के प्रथम अंग 'यम' के प्रारम्भिक अभ्यास 'इच्छायम' आदि को प्राप्त कर लेता है, देवकार्यादि में अखेदभाव से लगा रहता है तथा जो देवकार्यादि नहीं करते उनके प्रति द्वेष नहीं करता।
इन पाठ योगदष्टियों में प्रथम चार दृष्टियां प्रतिपातयुक्त हैं अर्थात् साधक इन्हें प्राप्त कर इनसे भ्रष्ट भी हो सकता है। शेष चार दृष्टियां प्रतिपातरहित हैं।
योगी के चार प्रकार-प्राचार्य ने योगी के चार प्रकार बताए हैं-१. गोत्रयोगी, २. कुलयोगी, ३, प्रवृत्तचक्रयोगी एवं ४. निष्पन्नयोगी। इन चारों में से प्रथम 'गोत्रयोगी' में योगसाधना का अभाव होने के कारण वह योग का अधिकारी नहीं है। इसी प्रकार चतुर्थ 'निष्पन्नयोगी' भी चूंकि अपनी साधना को सिद्ध कर चुका है, अतः उसे योग की आवश्यकता नहीं रहती। शेष दो योगी----'कुलयोगी' एवं 'प्रवृत्तचक्रयोगी' ही वस्तुतः योग के अधिकारी हैं।
योग से अयोग-निर्वाण की प्राप्तियोग के द्वारा उसके चरम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति कैसे होती है, इसका उल्लेख करते हुए प्राचार्य कहते हैं-"ज्ञानावरणादि चार घातिकर्म बादल के समान हैं। जब ये पूर्वोक्त योगरूपी वायु के आघात से हट जाते हैं तब प्रात्मलक्ष्मी-समुपेत साधक, ज्ञानकेवली-सर्वज्ञ हो जाता है।"
"इसके पश्चात् वह परम पुरुष, अयोग-मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के सम्पूर्ण अभाव
१. योगदृष्टिसमुच्चय १३,१८ २. "यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः ।
अद्वेषादिगुणस्थानं क्रमेणषा सतां मता ॥" -वही १६ ३. वही २१ ४. वही १९ ५. वही २०८ ६. "कुलचक्रप्रवृत्ता ये त एवास्याधिकारिणः।" वही २०९ ७. योगदृष्टिसमुच्चय १८४
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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / १११ द्वारा-जो योग की सर्वोत्तम दशा है, शीघ्र ही संसाररूप व्याधि का क्षय करके परम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है:
"तत्र द्रागेव भगवानयोगाद्योगसत्तमात् ।
भवव्याधिक्षयं कृत्वा निर्वाणं लभते परम् ।।"' इस प्रकार 'योगदष्टिसमुच्चय' में अष्टाङ्गयोग, योग एवं योगियों के वर्गीकरण तथा प्रयोग से योग के चरमलक्ष्य की प्राप्ति के निरूपण में नवीनता है।
३. योगशतक
प्रस्तुत ग्रन्थ विषय-निरूपण की दृष्टि से 'योगबिन्दु' के अधिक निकट है। 'योगबिन्दु' में वर्णित अनेक विषयों का 'योगशतक' में संक्षेप में वर्णन किया गया है।
योग के भेद-ग्रन्थ के प्रारम्भ में योग का स्वरूप दो प्रकार का बताया गया है-निश्चय और व्यवहार । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक चारित्र-इन तीनों का प्रात्मा के साथ संबंध होना 'निश्चययोग' है । ' कारण में कार्य के उपचार की दृष्टि से, सम्यग्दर्शनादि के तत्त्वार्थश्रद्धानादि कारणों का प्रात्मा के साथ सम्बन्ध होना 'व्यवहारयोग' है। ___योग-साधना के अधिकारी और अनधिकारी का वर्णन 'योगबिन्दु' के समान किया गया है । चरमपुद्गलावर्त में प्रवर्तमान योग-अधिकारी का वर्णन तथा अपुनर्बंधक, सम्यग्दृष्टि प्रादि का वर्गीकरण 'योगबिन्दु' के समान है।
नवाभ्यासी की चर्या-योग-साधना के नवाभ्यासी को भावना, शास्त्रपाठ, तीर्थसेवन, शास्त्रश्रवण, तदर्थज्ञान, सूक्ष्मतापूर्वक प्रात्मप्रेक्षण तथा अपने दोषों के अवलोकन में अभिरत रहना चाहिए।
चिन्तन के दो प्रकार-योगसाधक के चिन्तन के दो प्रकार बताए गए हैं-१. दोषचिन्तन तथा २. सच्चिन्तन ।
आसक्तिरूप राग, अप्रीतिरूप द्वेष तथा प्रज्ञानरूप मोह-इनमें से मुझे अत्यधिक रूप से कौन पीड़ा दे रहा है ? यह समझकर दोषों के विषय में उनके स्वरूप, परिणाम, विपाक आदि का एकान्त में एकाग्र मन से भलीभाँति चिन्तन ‘दोष-चिन्तन' है।
परमसंविग्न साधक प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, दुःखियों के प्रति कारुण्य एवं अविनीतजनों के प्रति जो माध्यस्थ भाव का चिन्तन करता है वह 'सच्चिन्तन' है।
१. योग दृष्टि समुच्चय १८६ २. योगशतक २-"निच्छयो इह जोगो सन्नाणाईण तिण्ह सम्बन्धों" । ३. वही ४ "ववहारमो य एसो विन्नेग्रो एयकारणाणं पि' । ४. वही ९, १४,१५. ५. योगशतक ५१-५२ ६. वही ५९-६० ७. "सत्तेसु ताव मेत्ति तहा पमोयं गुणाहिएK ति ।
करुणा मज्झत्थत्ते किलिस्समाणाविणीएस ॥" -वही ७९ तथा ७८
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / ११२
यौगिक लब्धियां -- योग के प्रभाव से योगी को स्वतः अद्भुत लब्धियां - 'रत्न', 'अणिमा', 'आमोसहि' प्रादि प्राप्त होती हैं। योगसूत्रकार पतंजलि ने इन्हें 'विभूति' कहा है। बौद्ध परम्परा में ये 'अभिज्ञाएं कही गई हैं। जैन परम्परा में इनका नाम 'लब्धि' है।'
'रत्नलब्धि' का अर्थ है, पृथ्वी में स्थित रत्न का अर्थ है, असदश रूप धारण करने की शक्ति से रोग दूर करने की शक्ति । ४
श्रादि का प्रत्यक्षीकरण । 'अणिमालब्धि' 'आमोसहि लब्धि' का अर्थ है, स्पर्श मात्र
आहार - साधक के आहार की चर्चा करते बताया गया है | आचार्य ने भिक्षा की उस व्रणलेप से शमन हेतु उचित मात्रा में लगाया जाता है। इसी ग्रहण करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है, अन्यथा सदोष हो जावेगा ।"
हुए उसे सर्वसंयत्करी भिक्षा का विधान तुलना की है जो फोड़े-फुंसी पर उनके प्रकार भिक्षा को परिमित मात्रा में भिक्षा के सदोष होने से योग भी
कालज्ञान, बेहत्याग तथा भवविरह – प्राचार्य ने 'योगशतक' के प्रन्त में साधक के, ग्रागम, देवी संकेत, प्रतिभा, प्रभास, स्वप्न आदि के द्वारा मृत्यु- समय के ज्ञान का उल्लेख किया है।"
प्राचार्य कहते हैं" जिसका चित्तरूप रत्न अत्यन्त निर्मल है ऐसा योगी अपना मन्त समय निकट जानकर विशुद्ध अनशन विधि से देह का त्याग करे।"
'भवविरह' श्राचार्य हरिभद्र अन्त में कहते हैं कि जो योगी सम्पूर्ण जीवन योग-साधना के पश्चात् उपर्युक्त विधि से देहत्याग करता है वह भवविरह-सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है
करते
"ता इय आणाजोगी जयव्यमजोगयत्विणा सम्मं ।
ऐसो च्चिय भवविरहो सिद्धीए सया अविरहो य ॥5
४. योगविशिका
प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल बीस प्राकृत गाथाएँ हैं, जिनमें संक्षेप में योग-साधना का वर्णन योग के अस्सी भेदों पर प्रकाश डाला गया है ।
हुए
योग का अर्थ प्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य ने दो महत्वपूर्ण बातें कही है-प्रथम मह कि मोक्ष से जोड़ने के कारण समस्त धर्म - व्यापार 'योग' है । द्वितीय यह कि प्रस्तुत ग्रन्थ के में 'योग' शब्द से श्रासन, व्यायाम प्रादि का अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए।
प्रसङ्ग
३-४
१. योगशतक
२. ३. 'अस्तेवप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।' योगसूत्र २।३७
४. जैन योगग्रन्थ चतुष्टय'- योगशतक के ८४वें श्लोक की हिन्दी टीका देखिए । ५. योगशतक ८१-८२
६. ७. ८. योगशतक क्रमशः ९७ ९६ तथा १०१
९. "मोक्खेण जोयणाम्रो जोगो सन्चो वि धम्मवावारो । परिसुद्धो विन्ने ठाणाइगो विसेसेणं ॥ "
योगविधिका १
-यो० सू० ३२४५
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आचार्य हरिमन सूरि और उनका योग-विज्ञान / ११३
योग के प्रथम पांच भेद-१. स्थान, २. ऊर्ण, ३. अर्थ, ४. पालम्बन एवं ५. अनालम्बन-योग के ये पांच भेद हैं। इनमें प्रथम दो भेदों-स्थान एवं ऊर्ण का सम्बन्ध कर्म से है, अतः ये दो 'कर्मयोग' हैं । शेष तीन भेदज्ञान से सम्बद्ध होने के कारण 'ज्ञानयोग' हैं।'
'स्थान' का अर्थ है पद्मासन, कायोत्सर्ग प्रादि प्रासन । योगाभ्यास के समय प्रत्येक क्रिया के साथ जिन सूत्रों का उच्चारण किया जाता है उन्हें 'ऊर्ण' कहते हैं। 'अर्थ' से तात्पर्य
पर्यत सत्रों के अर्थबोध का प्रयत्ल । ध्यान में बाह्यसतीक आदि का प्राधार 'मालम्बन' है। ध्यान में रूपात्मक पदार्थों का सहारा न लेना 'अनालम्बन' कहा गया है। यह निर्विकल्प समाधि रूप है।
योग के पुनः चार भेद-उपर्युक्त पांच भेदों में प्रत्येक के पुनः चार भेद किये हैं१. इच्छा, २. प्रवत्ति, ३. स्थिरता एवं ४. सिद्धि । तात्त्विक दृष्टि से ये योग की चार-चार कोटियां उसके क्रमिक विकास की स्थितियां हैं।
योगाराधक पुरुषों की कथा में प्रीति 'इच्छा' है। उपशमभाव पूर्वक योग का यथार्थतः पालन 'प्रवृत्ति' है। बाधाजनित विघ्नों की चिन्ता से रहित योग का सुस्थिर परिपालन 'स्थिरता' है। योग के स्थानादि पांच रूप उस योगी के सम्पर्क में आने वाले अन्यान्य लोगों को भी सहज रूप में उत्प्रेरित करें, उसे 'सिद्धि योग' कहा जाता है।
इस प्रकार योग के बीस भेद हुए।
अनुष्ठान के चार भेद-उपर्युक्त बीस प्रकार का योग अनुष्ठान के भेद से पुन: निम्न प्रकार चार रूपों में विभक्त होकर अस्सी प्रकार का हो जाता है। अनुष्ठान के चार भेद इस प्रकार हैं-१. प्रीति, २. भक्ति, ३. आगम तथा ४. असंगता ।'
अन्यान्य क्रियाओं को छोड़कर केवल योग क्रिया में तीव्र रति होना 'प्रीति' है। आलम्बनात्मक विषय के प्रति विशेष आदरबुद्धि 'भक्ति' है। शास्त्रानुसार यौगिक प्रवृत्ति का होना 'पागम' है । संस्कारों की दृढता से यौगिक प्रवृत्ति करते समय शास्त्र-स्मरण की कोई अपेक्षा ही न रहे, धर्म जीवन में एकरस हो जाय, वह 'असंगता' की स्थिति है।
योगी की साधना का परम लक्ष्य-प्राचार्य योग के चरम लक्ष्य की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इस पालम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर मोहसागर तीर्ण हो जाता है, क्षपक श्रेणी प्रकट हो जाती है, केवलज्ञान उद्भासित हो जाता है तथा अयोग अर्थात् प्रवृत्ति मात्र के अभावरूप योग के सध जाने से योगी अपने चरमलक्ष्य परम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है
"एयम्मि मोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेव । तत्तो अजोगजोगो कमेण परमं च निव्वाणं ॥" -योगविशिका २०
१. ठाणुन्नत्थालंबण-रहियो तन्तम्मि पंचहा एसो।
दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोबो उ॥ -योगविशिका २ २. योगविंशिका ४-६ ३. वही १८
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पंचम खण्ड/११४
अर्चनार्चन
भारतीय योग-दर्शन के लिए आचार्य हरिभद्र की देन
भारतीय षड्दर्शनों में योग एक महत्त्वपूर्ण दर्शन है। अन्य दर्शनों के समान योग का भी चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। वैदिक, बौद्ध एवं जैन-इन तीनों भारतीय परम्परामों ने अपनी-अपनी दृष्टि से योग का विकास किया है।
प्राचार्य हरिभद्र विक्रम की ८ वीं, ९ वीं शताब्दी के महत्त्वपूर्ण दार्शनिक एवं साहित्यकार हैं। उन्होंने तुलनात्मक योग-विज्ञान के क्षेत्र में अतिशय योगदान किया है। हमने उनके द्वारा रचित योग-दर्शन के ग्रन्थों का जो अनुशीलन उपस्थित किया है, उससे प्राचार्य हरिभद्र की भारतीय योगदर्शन के लिए अद्भुत देन प्रतीत होती है। हम यहां संक्षेप में उसका वर्णन उपस्थित करते हैं
१. यद्यपि प्राचीन जैन आगमों में योग-विद्या के सूत्र बिखरे रूप में पाए जाते हैं, किन्तु उन्हें एकत्र कर योग-विद्या का नाम देकर ग्रन्थ के रूप में उपस्थित करने का सबसे प्रथम श्रेय प्राचार्य हरिभद्र सूरि को है।
२. प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने अपने योगविषयक ग्रन्थों में जिन महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया है, वे इस प्रकार हैं(क) जैनदृष्टि से योग की परिभाषा, स्वरूप, भेद एवं उसका चरम लक्ष्य निर्वाण
प्राप्ति । (ख) योग के अधिकारी और अनधिकारी का वर्णन । (ग) योग की साधना का स्वरूप । (घ) योग-साधना के अनुसार साधकों का वर्गीकरण, स्वरूप एवं अनुष्ठान । (ड) योग-साधना के उपाय-साधन और भेदों का वर्णन ।
३. प्राचार्य ने योग की आठ दृष्टियों में प्रारंभ से लेकर अन्त तक की समस्त जैन प्राचार-परम्परा का समावेश कर योग को पूर्णतः जैनधर्म से अभिन्न स्वरूप प्रदान किया है।
४. प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने अपने ग्रन्थों में जो योग के स्वरूप, उद्देश्य, प्रक्रिया आदि का वर्णन किया है, उससे जैन योगदर्शन नामक एक विशिष्ट दर्शन के स्वरूप की स्थापना उदबुद्ध
५. पश्चाद्वर्ती अनेक प्राचार्यों ने, जिनमें प्राचार्य हेमचन्द्र, प्राचार्य शुभचन्द्र एवं उपाध्याय यशोविजय के नाम प्रमुख हैं, प्राचार्य हरिभद्र सूरि के जैन योगदर्शन का अनुसरण कर उसे विविधरूप में पल्लवित एवं पुष्पित किया है ।
६. वर्तमान समय में प्राचार्य तुलसीगणि, युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रादि मनीषियों द्वारा जो जैनयोग की साधना एवं उसका प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, उसके लिए हमें निःसंदेह
१. देखिए डॉ० नथमल टांटिया, एम० ए०, डी. लिट् का निबन्ध "प्राचार्य हरिभद्र
कम्पेरेटिव स्टडीज इन योग" ग्रन्थ-प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रन्थ, प्रकाशक-श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९५६ अंग्रेजी विभाग, पृ. १२९..
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आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग-विज्ञान / ११५
प्राचार्य हरिभद्र सूरि का ऋणी होना चाहिए, जिन्होंने जैन योग पर ग्रन्थ लिखकर मार्गदर्शन किया।
इस प्रकार प्राचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने योग की प्राचीन जैन परम्परा का न केवल उद्धार किया, अपितु उसे एक अभिनव स्वरूप प्रदान कर भारतीय योगदर्शन-परम्परा के समक्ष खड़ा कर गौरवान्वित किया है । इसे मैं प्राचार्यश्री का भारतीय संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में ऐसा महत्त्वपूर्ण योगदान मानता है, जिसे इतिहास कभी विस्मृत नहीं कर सकेगा।
मानद निदेशक अनेकान्त शोधपीठ,
बाहुबली-उज्जैन, १५, एम. आई, जी, मुनिनगर
उज्जैन
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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प्रेक्षाध्यान और शक्ति-जागरण
अर्चनार्चन
0 युवाचार्य महाप्रज्ञ
प्रत्येक व्यक्ति शक्ति की इकाई है, किन्तु समस्या है शक्ति की अभिव्यक्ति। कुछ लोग अपनी शक्ति के विषय में अनजान रहते हैं। कुछ लोग उसके विषय में जानते हैं. पर उसको जागत करने के लिए अभ्यास नहीं करते । कुछ लोग जानते भी हैं, अभ्यास भी करते हैं, उनकी शक्ति प्रकट हो जाती है। अज्ञानी और प्रमत्त प्रादमी के शक्ति का स्रोत प्रस्फुटित नहीं होता । ज्ञानी और अप्रमत्त मनुष्य ही उसे प्रकट कर सकता है।
हमारे शरीर में अनेक शक्ति केन्द्र हैं । तंत्रशास्त्र और हठयोग में वे चक्र कहलाते हैं। आयुर्वेद में उन्हें मर्मस्थान कहा जाता है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में उनका नाम चैतन्य-केन्द्र है । ये केन्द्र सुप्त अवस्था में रहते हैं। इसलिए शक्ति के होने पर भी उनका पता नहीं चलता। जागत शक्ति ही मनुष्य के लिए उपयोगी बनती है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में प्रधानतया तेरह चैतन्य केन्द्रों की साधना की जाती है। वे चैतन्य केन्द्र ये हैं-शक्ति केन्द्र, स्वास्थ्य केन्द्र, तेजस केन्द्र, प्रानन्द केन्द्र, विशुद्धि केन्द्र, ब्रह्म केन्द्र, प्राण केन्द्र, अप्रमाद केन्द्र, चाक्षुष केन्द्र, दर्शन केन्द्र, ज्योति केन्द्र, ज्ञान केन्द्र, शान्ति केन्द्र ।
पृष्ठरज्जु के नीचे का स्थान शक्ति केन्द्र है। यह शारीरिक ऊर्जा-जैविक विद्युत् का भण्डार है। यहां से विद्युत् का प्रसारण होता है ।
पेडू के नीचे जननेन्द्रिय का अधोवर्ती स्थान स्वास्थ्य केन्द्र है । ग्रन्थितन्त्र की दृष्टि से यह कामग्रन्थि (गोनाड्स) का प्रभावक्षेत्र है। इसके द्वारा मनुष्य का अचेतन मन नियंत्रित होता है। योगविद्या के अनुसार उसे स्वाधिष्ठान चक कहा जाता है। इसके छः दल होते हैं। प्रत्येक दल एक-एक वत्ति का क्षेत्र है, जैसे-अवज्ञा, मूर्छा, प्रश्रय (सम्मान), अविश्वास, सर्वनाश और क्रूरता।
तेजस केन्द्र नाभि का स्थान है। इसका संबंध एडीतल (अधिवक्क) ग्रन्थि और वक्क (ग) के साथ है। योगविद्या के अनुसार इसके दस दल होते हैं। उनमें से प्रत्येक दल में एकएक वृत्ति विद्यमान है, जैसे-लज्जा, पिशुनता, ईर्ष्या, सुषुप्ति, विषाद, कषाय, तृष्णा, मोह, घणा और भय ।
प्रानन्द केन्द्र फुफ्फुस के नीचे हृदय का पार्श्ववर्ती स्थान है। यह थाइमस ग्रन्थि का प्रभावक्षेत्र है। हठयोग में इसे अनाहत-चक्र कहा जाता है। योगविद्या के अनुसार इसके बारह दल होते हैं। उनमें से प्रत्येक में एक-एक वृत्ति का वास माना गया है, जैसे-पाशा, चिन्ता, चेष्टा, ममता, दंभ, चंचलता, विवेक, अहंकार, लोलुपता, कपट, वितर्क और अनुपात ।
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प्रेक्षाध्यान और शक्ति-जागरण | ११७
' एक जैन ग्रंथ में हृदय-कमल पाठ पंखुड़ियों वाला बतलाया गया है। प्रत्येक पंखुड़ी में एक-एक वृत्ति रहती है, जैसे-कुमति, जुगुप्सा, भक्षिणी, माया, शुभमति, साता, कामिनी, असाता। इन पंखुड़ियों पर मनुष्य के भाव का परिवर्तन होता रहता है। उसके प्राधार पर नाना प्रकार की वृत्तियां प्रकट होती रहती हैं।
विशुद्धि केन्द्र का स्थान कंठदेश है। यह थायराइड ग्रंथि का प्रभाव-क्षेत्र है। मन का इस केन्द्र के साथ गहरा संबंध है। योगविद्या के अनुसार इसके सोलह दल माने गए हैं।
__ ब्रह्म केन्द्र का एक स्थान है जीभ का अग्रभाग । उसकी स्थिरता जननेन्द्रिय के नियंत्रण में सहायक बनती है। कुछ केन्द्र अनुकंपी और परानुकंपी नाड़ी संस्थान के संगम पर बनते हैं, जैसे-तैजस केन्द्र, प्रानंद केन्द्र और विशुद्धि केन्द्र । कुछ केन्द्र ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से संबद्ध हैं। जीभ एक ज्ञानेन्द्रिय है। उसका अग्रभाग चंचलता और स्थिरता दोनों का संवाहक बनता है।
प्राण केन्द्र का स्थान नासाग्र है। यह प्राणशक्ति का मुख्य स्थान है। निर्विकल्प ध्यान के लिए इसका प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है।
अप्रमाद केन्द्र का स्थान कान है। इसका जागरूकता से बहुत संबंध है। आज के विज्ञान ने नाक और कान के विषय में काफी जानकारी विकसित की है । ये दोनों मनुष्य की बहुत सारी वत्तियों का नियंत्रण करने वाले हैं और मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए हैं।
चाक्षुष केन्द्र का स्थान चक्षु है। इसका जीवनी शक्ति के साथ गहरा संबंध है।
दर्शन केन्द्र दोनों आंखों और दोनों भकूटियों के बीच में अवस्थित है। यह पिच्युटरी ग्लैण्ड का प्रभावक्षेत्र है। हठयोग में इसे प्राज्ञाचक्र कहा जाता है। योगविद्या के अनुसार इसके दो दल होते हैं । यहाँ ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीनों प्राणप्रवाहों का संगम होता है।
ज्योति केन्द्र ललाट के मध्य भाग में स्थित है। यह पीनियल ग्लैण्ड का प्रभाव क्षेत्र है। हठयोग के कुछ प्राचार्यों ने नौ चक्र माने हैं। उनके अनुसार तालु के मूल में चौंषठ दलवाला ललना चक्र विद्यमान है। इससे ज्योति केन्द्र की तुलना की जा सकती है। .
___ शान्ति केन्द्र अग्रमस्तिष्क में स्थित है। इसका संबंध मनुष्य की भावधारा से है। यह अवचेतक मस्तिष्क (हायपोथेलेमस) का प्रभाव क्षेत्र है।
ज्ञान केन्द्र केन्द्रीय नाड़ीसंस्थान का प्रमुख स्थान है । लघु मस्तिष्क बृहत् मस्तिष्क एवं पश्चमस्तिष्क के विभिन्न भाग इससे संबद्ध हैं। यह अतीन्द्रिय चेतना का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। हठयोग के सहस्रार चक्र से इसकी तुलना की जा सकती है।
चैतन्य-केन्द्रों की शक्ति को जागृत करने के अनेक उपाय हैं। उनमें प्रासन, प्राणायाम जप आदि उल्लेखनीय हैं। इनसे भी अधिक शक्तिशाली उपाय है-प्रेक्षा । एकाग्रता के साथ जिस चैतन्य केन्द्र को देखा जाता है, उसमें प्रकम्पन शुरू हो जाते हैं। ये प्रकम्पन सुप्त शक्ति को जगा देते हैं। प्रेक्षा की पद्धति यह है-पद्मासन, वज्रासन अथवा मुखासन, किसी एक सुविधाजनक प्रासन का चुनाव करें। प्रासन में प्रासीन होकर कायोत्सर्ग (जागरूकता) पूर्ण शिथिलीकरण करें। फिर प्रेक्षा के लिए चैतन्य केन्द्र का चुनाव करें, धारणा से अभ्यास शुरू करें, निरन्तर लक्षीकृत केन्द्रों को देखते-देखते गहन एकाग्रता के बिन्दु पर पहुँच जाएं,
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पंचम खण्ड / ११८
ध्यान अथवा समाधि की स्थिति का अनुभव करें। इस पद्धति से प्रत्येक चैतन्य केन्द्र को निर्मल बनाएं। इनकी निर्मलता से विशिष्ट प्रकार की शक्तियां जागृत होती हैं।
शक्ति केन्द्र की निर्मलता से वाकसिद्धि, कवित्व और प्रारोग्य का विकास होता है।
स्वास्थ्य केन्द्र की निर्मलता से प्रचेतन मन पर नियंत्रण करने की क्षमता पैदा होती है। प्रारोग्य और ऐश्वर्य का विकास होता है।
तैजस केन्द्र के निर्मल होने पर क्रोध प्रादि वृत्तियों के साक्षात्कार की क्षमता पैदा होती है। प्राणशक्ति की प्रबलता भी प्राप्त होती है।
प्रानन्द केन्द्र की निर्मलता द्वारा बुढापे की व्यथा को कम किया जा सकता है, विचार का प्रवाह रुक जाता है, सहज आनंद की अनुभूति होती है।
विशुद्धि केन्द्र की सक्रियता से वृत्तियों के परिष्कार की क्षमता पैदा होती है । बुढापे को रोकने की क्षमता पैदा करना भी इसका एक महत्त्वपूर्ण कार्य है ।
ब्रह्म केन्द्र की निर्मलता द्वारा कामवृत्ति के नियंत्रण की क्षमता पैदा होती है। प्राण केन्द्र की निर्मलता द्वारा निर्विचार अवस्था प्राप्त होती है।
अप्रमाद केन्द्र की साधना से नशे की आदत को बदला जा सकता है। शराब, तंबाकू आदि मादक वस्तुओं के सेवन की पादत को बदलना एक जटिल समस्या है। अप्रमाद केन्द्र की प्रेक्षा करते करते उस आदत में परिवर्तन शुरू होता है और कुछ दिनों के अभ्यास से परिवर्तन स्थिर हो जाता है।
चाक्षुष केन्द्र की साधना के द्वारा एकाग्रता को साधन बनाया जा सकता है ।
दर्शन केन्द्र की प्रेक्षा के द्वारा अंतर्दष्टि का विकास होता है। यह हमारी अतीन्द्रिय क्षमता है। इसके द्वारा वस्तु-धर्म और घटना के साथ साक्षात् संपर्क स्थापित किया जा सकता है।
ज्योति केन्द्र की साधना के द्वारा क्रोध को उपशान्त किया जा सकता है।
शान्ति केन्द्र पर प्रेक्षा का प्रयोग कर हम भावसंस्थान को पवित्र बना सकते हैं। "लिम्बिक सिस्टम" मस्तिष्क का एक महत्त्वपूर्ण भाग है, जहां भावनाएं पैदा होती हैं । शान्तिकेन्द्रप्रेक्षा उसी स्थान को प्रभावित करने का प्रयोग है। प्राचीन भाषा में यह हृदय परिवर्तन का प्रयोग है।
ज्ञान केन्द्र की साधना के द्वारा अन्तर्ज्ञान को विकसित किया जा सकता है। यह अतीन्द्रिय चेतना का विकसित रूप है।
चैतन्य केन्द्र की साधना के साथ लघु मस्तिष्क की प्रेक्षा भी महत्त्वपूर्ण है । यह अतीन्द्रिय चेतना के विकास में बहुत सहयोगी बनता है।
प्राज की समस्या का मूल है-चित्त की दुर्बलता, मनोबल की कमी। जब मन की शक्ति कम होती है तब समस्याएं भयंकर बनती चली जाती हैं । जब मन की शक्ति दृढ होती है, तब भयंकर समस्या आने पर भी नहीं लगता कि यह कोई समस्या है। बहुत बड़ी समस्या भी
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प्रेक्षाध्यान और शक्ति-जागरण | ११९
छोटी हो जाती है, जब मन का बल टूट जाता है, तब राई भी पहाड़ बन जाती है। समस्या को बड़ा, छोटा नहीं कहा जा सकता । कोई भी समस्या स्वयं में बड़ी नहीं है और कोई भी समस्या स्वयं में छोटी नहीं है। मनोबल अटूट है तो प्रत्येक समस्या छोटी है। मनोबल टूटा हुअा है, तो प्रत्येक समस्या बड़ी है । समस्या का छोटा होना या बड़ा होना, भयंकर होना या सरल होना इस बात पर निर्भर है कि मनोबल कम है या अधिक । प्रादमी समस्या पर ध्यान अधिक केन्द्रित करता है। समस्या को सुलझाने का अधिक प्रयत्न करता है । जैसे जैसे वह सुलझाने का प्रयत्न करता है, वैसे-वैसे समस्या उलझती जाती है और इसलिए उलझती जाती है कि मनोबल नहीं बढ़ता और मनोबल के अभाव मेंसमस्या का समाधान हो सके, यह संभव नहीं हो सकता । समस्या के समाधान के लिए शक्ति का संचय जरूरी है। जितनी शक्ति है, उतनी यदि खर्च हो जाती है तो समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
ध्यान के द्वारा मिलता है-मनोबल, चित्तशक्ति, शुद्ध चेतना का पराक्रम । ध्यान के द्वारा एक ऐसी शक्ति मिलती है, जो व्यक्ति को प्रत्येक समस्या को झेलने में सक्षम बनाती है। व्यक्ति में ऐसी शक्ति जगा देती है कि वह प्रत्येक परिस्थिति का हंसते-हंसते सामना कर सकता है, समस्या को सुलझा सकता है, अच्छी-बुरी घटना घटित होने पर भी संतुलन नहीं खोता ।
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जैन-परम्परा में ध्यान
0 धर्मीचन्द चौपड़ा
अर्चनार्चन
परिभाषा
चिन्तन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं, जैसे भ्रमर फूलों के रसपान में लीन रहता है वैसे ही लीनतापूर्वक मन का एक ही ध्येय-बिन्दु पर लगा रहना ध्यान कहलाता है। विषयान्तर होने पर ध्यान का क्रम टूट जाता है।
महत्त्व
___ व्यावहारिक भाषा में हम कहते हैं कि अमुक कार्य ध्यान से करना, ध्यान नहीं रखा तो कार्य बिगड़ जायेगा। साधारण-सी बात लीजिये-द्रव पदार्थ को एक पात्र से दूसरे पात्र में डालते समय पूरी एकाग्रता नहीं रखते हैं तो द्रव पदार्थ पात्र से बाहर चला जाता है। शीशी में इत्र भरना होता है तो भरते समय कितना ध्यान रखा जाता है । ध्यान नहीं रखा तो मूल्यवान इत्र शीशी से बाहर गिर जाता है । अध्यापक के पढ़ाते समय विद्यार्थी अपना ध्यान अध्यापक के वचनों की अोर नहीं रखता है तो वह ज्ञानार्जन नहीं कर सकता है। जिस प्रकार लौकिक कार्य में ध्यान की एकाग्रता आवश्यक है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ध्यान की एकाग्रता पावश्यक है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्यय संततिः । अर्थात् अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।
लगातार एक ही विषय पर ४८ मिनट से कुछ कम समय (अन्तर्मुहुर्त) तक ध्यान एकाग्र रह सकता है। फिर विषयान्तर हो जाता है। प्राचार्य उमास्वाति ने कहा हैउत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । आ मुहूर्तात् ।
-तत्वार्थसूत्र ९ । २७-२८ अर्थात उत्तम संहनन वाले का एक विषय में अन्तःकरण की वत्ति का स्थापन-ध्यान है । वह अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
मुहर्तान्तर्मनःस्थैर्य ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । योगशास्त्र ४।११५ अर्थात छद्मस्थ साधक का मन अधिक से अधिक अन्तमहर्त तक स्थिर रहता है।
किन्तु मन को एकाग्र करना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की मावश्यकता है।
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जैन-परम्परा में ध्यान | १२१
मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।
बंधाय विषयाऽऽसंगि मोक्षे निविषयं स्मृतम् ॥ -मैत्युपनिषद् अर्थात् मन का संयम मोक्ष का और असंयम कर्मबन्ध का कारण है। विषयासक्त मन बन्धन का कारण और जो विषयों से बंधा नहीं है, वह मोक्ष का कारण है।
_मन की शुभाशुभ परिणति के द्वारा प्रात्मा किस प्रकार उत्थान और पतन की ओर अग्रसर होती है, तत्सम्बन्धी प्रसन्नचन्द्र राजषि का उदाहरण बड़ा ही मार्मिक है, जिन्होंने मन की अशुभ परिणति के द्वारा नरक के योग्य दलिक इकट्ठे कर लिए और कुछ ही समय पश्चात् मन की शुभ परिणति के प्रभाव से केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। एक गुजराती कवि ने कहा है--
अजब छे वेग आ मननो, गजब छ शक्ति पण भारी।
घणा ज्ञानी अने ध्यानी, गया मन शत्रुथी हारी ॥ महान् सन्त मानन्दघनजी ने भगवान् कुन्थुनाथजी की स्तुति करते हुए लिखा है-हे भगवन् ! यह मन नपुंसकलिंग है, निर्बल है, बुजदिल है, परन्तु आज चिन्तन करता हूँ तो लगता है कि यह मन सारे संसार की शक्तियों को पीछे धकेल देता है। सब कार्य करना सरल है, परन्तु मनोनिग्रह करना कठिन है । मनोनिग्रह के लिए गौतमस्वामी ने केशीस्वामी को बताया
मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ । तं सम्मं तु निगिहिामि, धम्मसिक्खाए कंयगं ॥
-उत्तराध्ययनसूत्र अ. २३, गा. ५९ अर्थात् मनरूपी साहसिक और भयानक दुष्ट घोड़ा चारों ओर भागता रहता है। जिस प्रकार जातिमान् घोड़ा शिक्षा द्वारा सुधर जाता है, उसी प्रकार मन रूपी घोड़े को सम्यक् प्रकार से धर्म की शिक्षा द्वारा मैं वश में रखता है।
महमूद गजनवी को विजयोल्लास में हाथी पर बिठाया जाता है। जब गजनवी महावत से अंकुश मांगता है तो महावत कहता है--अंकुश तो महावत के हाथ ही रहता है । गजनवी तुरन्त हाथी से नीचे उतर जाता है और कहता है-जिसका अंकुश मेरे हाथ में नहीं है, उस पर मैं सवार नहीं होता। अभिप्राय यह कि मनरूपी घोड़े की लगाम अपने हाथ में होनी चाहिये । मन चपल घोड़े के समान है, जिसे धर्म-शिक्षा रूपी लगाम से ही वश में किया जा सकता है। चंचल मन को वश में करने के लिए गीता में दो उपाय बताये हैं
___ अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते। . अर्थात यह मन दो प्रकार से वश में किया जा सकता है-अभ्यास के द्वारा और वैराग्य के द्वारा। अभ्यास का अर्थ है एकाग्रता की पुन: पुन: साधना और वैराग्य का अर्थ है विषयों के प्रति विरक्ति । एकाग्रता के अभ्यास और विषयविरक्ति के द्वारा मन को काबू में किया जा सकता है।
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पंचम खण्ड / १२२
अर्चनार्चन
मन की अवस्थाओं को जाने बिना और उसे उच्चस्थिति में स्थित किये बिना योगसाधना संभव नहीं है।
हेमचन्द्राचार्य ने स्वानुभव को योगशास्त्र के बारहवें प्रकाश में उद्घाटित करते हुए सर्वप्रथम अवस्थानों के आधार पर मन के भेदों का निरूपण किया है---
इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च ।
चेतश्चतुः प्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् ॥ -योगशास्त्र १२१२ योगाभ्यास के प्रसंग में मन चार प्रकार का है-(१) विक्षिप्त मन, (२) यातायात मन, (३) श्लिष्ट मन, (४) सुलीन मन । चित्त के व्यापारों की ओर ध्यान देने वालों के लिए यह भेद चमत्कारजनक होते हैं।
विक्षिप्त मन चंचल है जो भटकता रहता है। यातायात मन कुछ प्रानन्दवाला है, वह कभी बाहर चला जाता है कभी अन्दर स्थिर हो जाता है। प्राथमिक अभ्यास में ये दोनों स्थितियां होती हैं। श्लिष्ट मन स्थिर होने के कारण मानन्दमय होता है और सुलीन मन अत्यन्त स्थिर होने के कारण परमानन्दमय होता है।
जैसे-जैसे क्रमश: चित्त की स्थिरता बढ़ती है, वैसे-वैसे प्रानन्द की मात्रा भी बढ़ती जाती है । अत्यन्त स्थिरचित्तता से परमानन्द की प्राप्ति होती है।
मन के भेदों को समझकर चित्त-स्थिरता की योग्यता प्राप्त करके ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिये।
ध्यान की एकाग्रता को ठीक तरह से समझने के लिए एक उदाहरण उपयोगी होगा
गुरु द्रोणाचार्य के पास राजकुमारों की धनुर्विद्या पूरी हो चुकी थी। सिर्फ धनुर्विद्या की श्रेष्ठ कला राधावेध की परीक्षा शेष थी। द्रोणाचार्य सभी राजकुमारों को लेकर वन में गये । मयूरपंख एक वृक्ष की शाखा से लटका दिया गया। द्रोणाचार्य ने मयूरपंख की ओर संकेत करते हुए कुमारों से कहा
___ इस मयूरपंख की प्रांख ( चन्द्रमा का-सा निशान अथवा चन्दोवा ) वेधना है। तैयार हो जायो।
द्रोणाचार्य ने सबसे पहले युधिष्ठिर को संकेत करके बुलाया । युधिष्ठिर धनुष पर बाण रखकर खड़े हो गये । तब द्रोणाचार्य ने पूछा-युधिष्ठिर ! तुम क्या देखते हो?
___युधिष्ठिर-गुरुजी, मैं आपको, अपने भाइयों को, वृक्ष को, मयूरपंख को, सभी को देख रहा हूँ।
ध्यानपूर्वक देखो, वत्स ! हाँ गुरुजी ! मुझे सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
युधिष्ठिर के इस उत्तर से द्रोणाचार्य निराश हो गये। वे समझ गये कि यह लक्ष्यवेध नहीं कर सकता । फिर भी उन्होंने तीर छोड़ने की आज्ञा दी। लक्ष्य पर युधिष्ठिर का ध्यान केन्द्रित नहीं था, निशाना चूक गया ।
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जैन-परम्परा में ध्यान | १२३
उसके बाद गुरुजी ने दुर्योधन आदि सभी कुमारों की परीक्षा ली। उनसे भी वही प्रश्न किया गया और सभी ने वही उत्तर दिया ।
सभी लक्ष्यवेध में विफल हुए। अन्त में अर्जुन की बारी आई। अर्जुन से भी गुरुजी ने वही प्रश्न किया- अर्जुन ! क्या देखते हो ?
लक्ष्य पर दृष्टि जमाये अर्जुन ने उत्तर दिया-मुझे सिर्फ मयूरपंख ही दिखाई देता है । गुरुजी-ध्यान से देखो, वत्स ! अर्जुन-अब तो मुझे चंदोवा ही दिखाई देता है। गुरुजी-क्या तुम्हें वक्ष, अपने भाई और मैं कुछ भी नहीं दिखाई देता है ? जी नहीं !
अर्जुन की दृष्टि लक्ष्य पर एकाग्र हो चुकी थी, उसने बाण छोड़ा। लक्ष्यवेध हो गया। अर्जुन परीक्षा में सफल हुआ तथा महान् धनुर्धर बना। ___तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लक्ष्यवेध के लिए अडोल एकाग्रता की आवश्यकता है, इसी प्रकार ध्यान में एकाग्रता की मावश्यकता है।
यह है ध्यान की एकाग्रता का महत्त्व ! जिसके द्वारा प्रात्मा कर्मों को छिन्न-भिन्न कर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन सकता है।
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य ।
सम्वस्स साहुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ अर्थात् प्रात्मशोधन में ध्यान का ऐसा प्रमुख स्थान है जैसे शरीर में मस्तिष्क का तथा वृक्ष में उसकी जड़ का। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः । अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा प्रात्मा कमों को जलाकर सिद्धस्वरूप पा लेता है।
ध्यान की इच्छा रखने वाले साधक के लिए निम्न बातें जानने योग्य हैं-(१) ध्याता, (२) ध्यान, (३) फल, (४) ध्येय, (५) ध्यान का स्वामी, (६) ध्यान के योग्य क्षेत्र, (७) ध्यान के योग्य समय, (८) ध्यान के योग्य अवस्था।
(१) ध्याता-वह व्यक्ति ध्यान का अधिकारी माना गया है, जो जितेन्द्रिय है, धीर है, जिसके क्रोधादि कषाय शान्त हैं, जिसकी आत्मा स्थिर हो, जो सुखासन में स्थित हो एवं नासा के अग्रभाग पर नेत्र टिकाने वाला है।
(२) ध्यान-अपने ध्येय में लीन हो जाना अर्थात् प्राज्ञाविचयादि रूप से स्वयं परिणत हो जाना-रम जाना ध्यान है।
(३) फल-ध्यान का फल संवर और निर्जरा है । भौतिक सुख- सुविधाओं की प्राप्ति के लिए ध्यान करना निषिद्ध है।
(४) ध्येय-जिस इष्ट का अवलम्बन लेकर ध्यान-चिन्तन किया जाता है, उसे ध्येय कहते हैं । ध्येय के चार प्रकार हैं-(१) पिंडस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ, (४) रूपातीत ।
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पंचम खण्ड / १२४ (५) ध्यान का स्वामी-(i) वैराग्य, (ii) तत्त्वज्ञान, (iii) निर्ग्रन्थता, (iv) समचित्तता, (v) परिषहजय, ये पांच ध्यान के हेतु हैं। इनके अतिरिक्त उच्च संस्कारिता, तत्त्वज्ञान प्राप्ति के लिए सद्गुरु की निरन्तर सेवा-शुश्रूषा, विषयों के प्रति उदासीनता, कषायों का निग्रह, व्रत धारण, इन्द्रियजय, मन में अतुल शांति और दृढ़तम संकल्प होना चाहिये। इनसे सम्पन्न व्यक्ति ध्यान का स्वामी कहलाता है।
(६) ध्यान का क्षेत्र-जहाँ ध्यान में विघ्न करने वाले उपद्रवों एवं विकारों की सम्भावना न हो, ऐसा क्षेत्र ध्यान के योग्य माना जाता है।
(७) ध्यान के योग्य काल यद्यपि जब भी मन स्थिर हो उसी समय ध्यान किया जा सकता है फिर भी अनुभवियों ने प्रातःकाल को सर्वोत्तम माना है।
(८) ध्यान के योग्य अवस्था-शरीर की स्वस्थता एवं मन की शांत अवस्था ध्यान के लिए उपयुक्त कहलाती है।
प्रकार
आत, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार प्रकार हैं। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में भी गौतम व भगवान् के प्रश्नोत्तरों में ध्यान चार प्रकार का बताया है।
प्रथम दो-प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं। ये संसार-भ्रमण के कारण हैं और अन्तिम दो-धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त हैं, जो मुक्ति के कारण हैं । वस्तुतः अप्रशस्त और प्रशस्त ध्यानों में थहर के दूध और गाय के दूध जितना अन्तर है। अप्रशस्त ध्यानों को विशिष्ट ध्यान की कोटि में नहीं रखा जाता है, तथापि एकाग्रता की दृष्टि से उन्हें भी ध्यान के भेदों में परिगणित किया गया है।
प्रशस्त ध्यानों का स्वरूप इस प्रकार है
प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्ययन में आर्तध्यान का निरूपण करते हए लिखा है
आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगायस्मृतिसमन्वाहारः । वेदनायाश्च । विपरीतं मनोज्ञानाम् । निदानं च।
-तत्त्वार्थसूत्र ९:३१-३२-३३-३४ मनोज्ञ व अमनोज्ञ वस्तुओं पर रागद्वेषमय चिन्तन की एकाग्रता को प्रार्तध्यान कहते हैं । वह चार प्रकार का है-(१) प्राप्त अप्रिय वस्तु के वियोग के लिए चिन्ता करना, (२) आये हए दुःख को दूर करने की सतत चिन्ता करना, (३) प्रिय वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिन्ता करना और (४) निदान करना।
वह अविरत, देशसंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानों में संभव है। स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के पहले उद्देशक में प्रार्तध्यान के चार लक्ष णबतलाये हैं, यथा(१) क्रन्दनता (रोना)
(२) शोचनता (चिन्ता या शोक करना) (३) तेपनता (बार-बार अश्रुपात करना) (४) परिदेवनता (विलाप करना) ।
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जैन-परम्परा में ध्यान / १२५
रौद्रध्यान का निरूपण
हिसाऽनृतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः। -तत्त्वार्थसूत्र ९।३६
हिंसा, असत्य, चोरी और विषयरक्षण के लिए सतत चिन्ता रौद्रध्यान है, वह अविरत और देशविरत गुणस्थान में सम्भव है।
स्थानांगसूत्र में इसके भी चार लक्षण बताये हैं, यथा(१) उत्सन्नदोष-हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना । (२) बहुदोष-हिंसादि सभी पाप करना । (३) अज्ञानदोष-कुसंस्कारों से हिंसादि अधार्मिक कार्यों में धर्म मानना । (४) आमरणान्तदोष - मरणकाल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न होना ।
रौद्रध्यान के विषय में मणिरथ का ज्वलंत उदाहरण हमारे समक्ष है, जिसने अपने भाई की पत्नी मदनरेखा को पाने के लिए अपने लघुभ्राता युगबाहु की हत्या करके दुर्गति पाई और अपनी आत्मा को पतित बनाया।
जो प्रात्मोत्थान करने वाले हैं, जीव के साथ अनादि काल की कर्मपरम्परा को नष्ट कर नीरज बनाने वाले हैं, ऐसे प्रशस्त ध्यानों का स्वरूप इस प्रकार है
धर्मध्यान
धम्मे झाणे चउम्बिहे चउप्पडोयारे पण्णत तंजहाआणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संठाणविजए॥
-व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र २५७, स्थानांग ४।१.
धर्मध्यान चार प्रकार का और चतुष्प्रत्यवतार (स्वरूप, लक्षण, पालम्बन और अनुप्रेक्षाइन चार पदों में अवतरित) कहा गया है। यथा
१. आज्ञाविचय-जिन-प्राज्ञा रूप प्रवचन के चिन्तन में संलग्न रहना । सर्वज्ञ की प्राज्ञा क्या ? कैसी होनी चाहिये? परीक्षा करके वैसी आज्ञा का पता लगाने के लिए श्रुत और चारित्र रूप धर्माराधना के लिए मनोयोग लगाना आज्ञा विचय धर्मध्यान है।
२. अपायविचय-संसार पतन के कारणों एवं निज दोषों का विचार करते हुए उनसे बचने के उपाय सम्बन्धी मनोयोग लगाना अपायविचय धर्मध्यान है।
३. विपाकविचय-कर्मों के फल का विचार करना। अनुभव में आने वाले विपाकों में कौन-सा विपाक किस कर्म का प्राभारी है तथा अमक कर्म का प्रमक विपाक सम्भव है, इसके विचारार्थ मनोयोग लगाना विपाकविचय धर्मध्यान है।
४. संस्थानविचय-जन्म-मरण के अाधारभूत पुरुषाकार लोक के स्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना । इस अनादि अनन्त जन्म-मरण-प्रवाह रूप संसारसागर से पार करने वाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप अथवा संवर-निर्जरा रूप धर्म नौका का विचार करना, ऐसे धर्मचिन्तन में मनोयोग लगाना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड | १२६
अर्चनार्चन
धर्मध्यान के चार लक्षण' १. आज्ञारुचि-जिन प्राज्ञा के चिन्तन-मनन में रुचि, श्रद्धा एवं भक्ति होना। २. निसर्गरुचि-धर्म कार्यों के करने में स्वाभाविक रुचि होना। ३. सूत्ररुचि-पागम शास्त्रों के पठन-पाठन में रुचि होना। ४. अवगाढरुचि-द्वादशांगी का विस्तारपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने में प्रगाढ़ रुचि होना। धर्मध्यान के चार आलम्बन १. वाचना-पागमसूत्र का पठन-पाठन करना । २. प्रतिपच्छना-शंका निवारणार्थ गुरुजनों से पूछना । ३. परिवर्तना-पठित सूत्रों का पुनरावर्तन करना । ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ का चिन्तन करना । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ १. एकत्वानुप्रेक्षा- जीव के सदा अकेले परिभ्रमण और सुख-दुःख भोगने का चिन्तन
करना। २. अनित्यानुप्रेक्षा-सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन करना । ३. प्रशरणानुप्रेक्षा–जीव को कोई दूसरा धन-परिवार प्रादि शरणभूत नहीं, ऐसा
चिन्तन करना। ४. संसारानुप्रेक्षा-चतुर्गति रूप संसार की दशा का चिन्तन करना ।
कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में ध्यान के चार पालम्बन बताये हैं, जो इस प्रकार हैं
पिंडस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपजितम् ।
चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्थालम्बनं बुधैः॥ -योगशास्त्र ७८ ज्ञानी पुरुषों ने ध्यान के पालम्बन रूप ध्येय को चार प्रकार का माना है-१. पिंडस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत ।
१. पिंडस्थध्यान-पिण्ड का अर्थ है शरीर । शान्त, एकान्त स्थान में किसी योग्य प्रासन पर स्थिर बैठकर शरीर (पिंड) में स्थित प्रात्मदेवता का ध्यान करना पिंडस्थध्यान है। इसमें शुद्ध निर्मल पात्मा को लक्ष्य में रखकर चिन्तन किया जाता है।
पिंडस्थध्यान की पांच धारणाएँ बताई गई हैं१. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. वायवी, ४. वारुणी, ५. तत्त्वरूपवती।
२. पदस्थध्यान
यत्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते । तत्पवस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगः॥ ----योगशास्त्र ८।१
१-२-३ स्थानांगसूत्र ४।१ तथा व्याख्याप्र. सू. २५७
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जैन-परम्परा में ध्यान | १२७
पवित्र मंत्राक्षररूप प्रादि पदों का पालम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, उसे सिद्धान्त के पारगामी पुरुष 'पदस्थ-ध्यान' कहते हैं।
इस ध्यान में अपने इष्ट पदों का जैसे नमस्कार महामंत्र तथा अन्य शास्त्रीय वाक्यों का स्मरण करते हुए साधक उनमें तदाकार होने का प्रयत्न करता है।
३. रूपस्थध्यान
सर्वातिशययुक्तस्य केवलज्ञानभास्वतः।
अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते ॥ -योगशास्त्र ९७ समस्त अतिशयों से सम्पन्न केवलज्ञान के प्रकाश से युक्त, परम पद को प्राप्त और समवसरण में स्थित अरिहंत भगवान के स्वरूप का पालम्बन करके किया जाने वाला ध्यान 'रूपस्थ-ध्यान' कहलाता है।
४. रूपातीतध्यान
अमूर्तस्य चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः ।
निरञ्जनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद्र पजितम् ॥ --योगशास्त्र १०१ निराकार, चैतन्यस्वरूप, निरञ्जन सिद्ध परमात्मा का ध्यान 'रूपातीत-ध्यान' कहलाता है।
शक्लध्यान
ध्यान की यह परम उज्ज्वल निर्मल दशा है। मन से जब विषय-कषाय दूर हो जाते हैं तो उसकी मलिनता अपने पाप हट जाती है। मन निर्मलता को प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में साधक शरीर पर होने वाले उपसर्गों, परिषहों से तनिक भी प्रभावित नहीं होता है। देहातीत अवस्था प्राप्त कर लेता है। जैसे गजसकमाल मनि के मस्तक पर अंगारे रख देने पर भी वे उस मारणांतिक पीडा से प्रकम्पित और प्रचंचल बने रहकर शुक्लध्यान में लीन रहे।
वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले और पूर्वश्रुत के धारक मुनि ही शुक्लध्यान करने में समर्थ होते हैं । अल्प सामर्थ्य वाले मनुष्यों के चित्त में शुक्लध्यान के योग्य स्थिरता नहीं पा सकती।
शुक्लध्यान के प्रकार शुक्लध्यान के दो भेद हैं-शुक्ल और परम शुक्ल ।
पहले के दो शुक्लध्यान पूर्वधर को होते हैं। बाद के दो (परम) शुक्लध्यान केवली भगवान् को होते हैं।
पृथक्त्व कत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृतीनि। -तत्त्वार्थसूत्र ९।४१
१. पृथक्त्व-वितर्क, २. एकत्व-वितर्क ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ४. व्युपरतक्रियाऽनिवृति, ये चार शुक्लध्यान हैं।
आसमस्थ तम आत्मरथमभ तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड | १२८
१. पृथक्त्ववितर्क-सविचार-पृथकत्व का अर्थ है भेद । वितर्क का अर्थ है श्रुत । इस ज्ञान में पूर्वगत श्रुत का सहारा लेकर वस्तु के विविध भेदों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिंतन किया जाता है।
इस ध्यान में अर्थ--द्रव्य, व्यंजन-शब्द और योग का संक्रमण होता रहता है। ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते करते शब्द का और शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का चिन्तन करने लगता है।
अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येयद्रव्य एक ही होता है, अतः इस दृष्टि से स्थिरता बनी रहती है। अतः इसे ध्यान कहने में कोई बाधा नहीं है।
२. एकत्ववितर्क-अविचार-श्रत के अनुसार अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण से रहित एकपर्यायविषयक यह ध्यान होता है ।
पहले प्रकार के शुक्लध्यान में शब्द, अर्थ और योगों का उलटफेर होता रहता है, किन्तु दूसरे में इतनी विशिष्ट स्थिरता होती है कि उलट-फेर बंद हो जाता है।
३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-निर्वाणगमन का समय सन्निकट मा जाने पर केवली भगवान मनोयोग और वचनयोग तथा बादर-काययोग का निरोध कर लेते हैं। केवल श्वासोच्छ्वास प्रादि सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है। तब जो ध्यान होता है, वह सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति शुक्लध्यान कहलाता है ।
४. व्युपरतक्रियाऽनिवृति-शुक्लध्यान की तीसरी दशा अयोगीदशा की प्रथम भूमिका है। उस ध्यान में श्वासोच्छ्वास की क्रिया शेष रहती है। चतुर्थ ध्यान में प्रविष्ट होते वह दशा भी समाप्त हो जाती है। सर्वथा योगों का निरोध करके पर्वत की तरह निश्चल केवली भगवान् जब शैलेशीकरण करते हैं और चौदहवें गुणस्थान की श्रेणी में प्रारूढ होकर अयोगी केवली होते हैं, उस समय यह ध्यान होता है । इसके द्वारा प्रात्मा के साथ शेष रहे चार अघाती कर्म क्षीण हो जाते हैं और केवली भगवान् सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेते हैं।
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जैन- योग का एक महान् ग्रन्थ
ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण
आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री
एम. ए. 'त्रय', पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
ज्ञानार्णव दिगम्बर जैन संप्रदाय के सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी तथा समादृत विद्वान् श्राचार्य शुभचन्द्र की कृति है । जैन योगवाङमय में यह अत्यधिक प्रतिष्ठापन्न है ।
प्राचार्य शुभचन्द्र कब हुए, कहाँ दीक्षित हुए, जीवन किस क्षेत्र में कैसे व्यतीत हुआ इत्यादि ऐतिहासिक तथ्य कुछ भी प्राप्त नहीं हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने अपनी इस महान् कृति में अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा । अपना नाम तक कहीं अंकित नहीं किया । भारतवर्ष के इस कोटि के अनेक तपस्वी विद्वानों, ऋषियों और ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में हमें प्रायः ऐसा ही देखने को मिलता है। एक ओर जहाँ इससे उन तपःपूत महापुरुषों की निःस्पृहता तथा लोकैषणा - शून्यता का प्रत्यन्त उच्च रूप हमें देखने को मिलता है, वहाँ एक पक्ष हानि का भी है, जिसके कारण हम अपने प्राचीन साहित्य-सृष्टाओं की ऐतिहासिक शृंखला ठीक रूप में जोड़ नहीं पाते । आचार्य शुभचन्द्र की काल - गवेषणा में इसी प्रकार की स्थिति है । श्रनुमान, लोक प्रचलित कथानक, जन श्रुति आदि को लेकर ही कुछ परिकल्पना करनी पड़ती है । आचार्य शुभचन्द्र के पूर्ववर्ती काल के संबंध में उन्हीं के ग्रन्थ में संकेत प्राप्त होते हैं । उन्होंने मंगलाचरण में प्राचार्य समन्तभद्र आचार्य देवनन्दी "पूज्यपाद", श्राचार्य जिनसेन तथा आचार्य कलंक के प्रति निम्नांकित शब्दों में आदर दिखाया है, नमस्कार किया है—
"आचार्य समन्तभद्र आदि कवीश्वर रूपी सूर्यों की मियाँ जहाँ संस्फुरित होती हैं, वहाँ ज्ञानलव- ज्ञान के जुगनुत्रों की तरह क्या हास्यास्पद नहीं होते ?
श्रमल, निर्दोष, उत्तम, उक्ति रूपी अल्पतम अंश से उद्धत - गर्वित पुरुष
"जिनके वचन प्राणियों के शरीर, वाणी तथा मन में उत्पन्न होने वाले कलंक दोष को अपाकृत करते हैं - मिटा देते हैं, ऐसे श्राचार्य देवनन्दी को मैं नमस्कार करता हूँ ।
" त्रैविद्य न्याय, व्याकरण और सिद्धान्त के वेत्ताओं द्वारा जो वंदित है, जिसका श्राश्रय लेकर योगीजन आत्मा के निश्चय - आत्मा ही सत्य, शाश्वत एवं चिरन्तन है, एतत् रूप चिन्तन में स्खलित – विचलित नहीं होते, आचार्य जिनसेन की वह वाणी जयशील हो ।
"जो अनेकान्त रूपी आकाश में चन्द्र- ज्योत्स्ना के समान देदीप्यमान है, ज्ञान- वैभव के स्वामी ग्राचार्य अकलंक की पुनीत वाणी हमें पवित्र बनाए, हमारी रक्षा करे । १"
१. समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मयः ।
ब्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ॥
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पंचम खण्ड / १३० -
| अर्चनार्चन
इसका तात्पर्य यह हुआ कि आचार्य शुभचन्द्र से ये सब पूर्ववर्ती हैं। प्राचार्य जिनसेन अन्तिम हैं । यद्यपि श्लोक-क्रम में जिनसेन का उल्लेख आचार्य अकलंक से पहले किया गया है, पर उनका काल जिनसेन से पूर्ववर्ती है। आदिपुराण में जिनसेन ने स्वयं प्रकलंकदेव का स्मरण किया है। जिनसेन का समय ई० स० ८९८ से कुछ पूर्व सिद्ध होता है ।
प्राचार्य जिनसेन ने महापुराण लिखना शरू किया था, पर वे उसका पूर्वभाग-- आदिपुराण ही लिख सके, वह भी थोड़ा सा बाकी रह गया, स्वर्गवासी हो गए । तब उनके प्रधान शिष्य प्राचार्य गुणभद्र ने आदिपुराण का अवशिष्ट अंश तथा महापुराण का उत्तरभाग उत्तरपुराण के नाम से लिखा । उत्तरपुराण ई० स० ८९८ में पूर्ण हुआ।
अनुमान किया जा सकता है कि उत्तरपुराण की संपूर्णता से कुछ ही वर्ष पूर्व प्राचार्य जिनसेन ने देह-त्याग किया हो। यों काल की पूर्व सीमा तो प्राप्त होती है, पर उत्तर सीमा प्राप्त नहीं होती। प्राचार्य शुभचन्द्र से उत्तरवर्ती कोई लेखक वैसा उल्लेख करता तो कालनिर्धारण में परिपुष्ट ऐतिहासिक आधार मिल पाता। .
आचार्य शुभचन्द्र के जीवन-वत्त को जानने के लिए केवल एक कथात्मक प्राधार हमें प्राप्त है। आचार्य विश्वभूषण द्वारा रचित भक्तामरचरित नामक एक संस्कृत ग्रन्थ उपलब्ध है। उसकी उत्थानिका में शुभचन्द्र और भर्तृहरि की कथा वर्णित है । वैसे भारतीय इतिहास में भर्तृहरि भी एक ऐसे पुरुष हैं, जिनका इतिवृत्त असंदिग्ध नहीं है। वाक्यपदीय के रचनाकार, शतकत्रय के लेखक और योगिवर्य भर्तृहरि क्या एक ही व्यक्ति थे या भिन्न ? ऐतिहासिक प्रमिति की भाषा में निश्चित शब्दावली में कुछ नहीं कहा जा सकता। उज्जयिनी-नरेश सम्राट विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भ्राता के रूप में इनका उल्लेख आता है। धाराधीश महाराजा भोज के भी ये समसामयिक कहे जाते हैं। कुछ इन्हें भोज का भाई भी बतलाते हैं। कहां विक्रम संवत् के प्रतिष्ठापक विक्रमादित्य का समय, और कहाँ भोज का ? ११०० वर्षों का अन्तर ? शुभचन्द्र के साथ भी इसी तरह के अनेक वृत्त जुड़े हुए हैं। उन्हें मानतुंग, कालिदास, वररुचि और धनंजय, जिनका समय भिन्न-भिन्न है, का समसामयिक कहा जाता है । इतिहास की ये उलझी हुई गुत्थियां यथावत् रूप में कब सुलझ पाएंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। भक्तामरचरित के अनुसार प्राचीन काल में मालव प्रदेश में सिंह नामक एक प्रतापी व धर्मनिष्ठ राजा था। उज्जयिनी राजधानी थी। वह अपनी संतति के तुल्य प्रजा का पालन करता था। राज्य में सब सुखी एवं प्रानन्दित थे । राजा को केवल एक बात का दु:ख था, उसके कोई सन्तान नहीं थी। जब भी राजा अपनी व्यस्तता से कुछ मुक्त होता, विश्राम की मुद्रा में होता, झट उसे यह चिन्ता प्रा घेरती, मेरे पुत्र नहीं है। इस धन, राज्य, वैभव का क्या होगा ? मेरी वंश
प्रपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाकचित्तसम्भवम् । कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्यवन्दिताः । योगिभिर्यत्समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ।। श्रीमद्भट्टाकलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती। अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ।।
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जैन-योग का एक महान ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १३१
परम्परा कैसे चलेगी? मंत्री ने जब राजा को यों उद्विग्न और खिन्न देखा तो राजा से पूछा। मंत्री के बहुत आग्रह पर गजा ने अपने मन की व्यथा उसे कह दी। मंत्री ने कहा-राजन् ! यह किसी के वश की बात नहीं है। यह तो देवाधीन है, पर फिर भी पुण्य के प्रभाव से सांसारिक सुखों की प्राप्ति हो सकती है, इसलिए आप विशेष रूप से पुण्यार्जन कीजिए । मंत्री . की बात राजा को बहुत पसन्द पाई और वह पुण्य-कार्यों में विशेष रुचि लेने लगा, वैसा करने लगा।
एक दिन की घटना है। राजा अपनी रानी और मंत्री के साथ वन-विहार के लिए गया था। एक सरोवर था। उसके पास मुंज-सरकंडों का खेत था। राजा वहाँ घूम रहा था। अकस्मात् उसने देखा-मुंजों की ओट में एक नन्हा सा सुन्दर शिशु पड़ा हुआ है, अपना अंगूठा चूस रहा है। राजा के मन में वात्सल्य उमड़ पड़ा । तत्क्षण शिशु को उठाया और सरोवर की पालि पर बैठी रानी के पास आया । शिशु रानी की गोद में रख दिया। राजा ने रानी को शिशु के सम्बन्ध में सब बताया। मंत्री को भी सारी बात कही। मंत्री ने शिशु के चिह्न देखे और वह बोला-राजन् ! यह बालक सौभाग्यशाली भविष्य लिए हुए है। आप
और महारानी इसे पुत्र के रूप में स्वीकार कर लीजिए । नगर में चलकर प्रसारित करवा दीजिए-महारानी का गर्भ किसी कारण-विशेष से गुप्त रखा गया था-अब राजकुमार का जन्म हुआ है। विशाल पुत्रोत्सव आयोजित कीजिए।
ऐसा ही किया गया। प्रजा में सर्वत्र आनन्द छा गया। शिशु मुंज के नीचे प्राप्त हुना था, इसलिए राजा ने उसका नाम मुंज रखा। राजसी ठाठ-बाट से मुंज का लालन-पालन हुमा, विद्याध्ययन हुना, कला-कौशल का शिक्षण दिया गया । युवा होने पर रत्नावती नामक राजकन्या से उसका विवाह कर दिया गया।
भाग्य का कैसा संयोग था, इधर महाराज सिंह की रानी गर्भवती हुई। पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम सिंहल "सिन्धुराज" रखा गया। राजा और रानी अत्यन्त प्रसन्न थे। राजकुमार सिंहल का सुन्दर रूप में लालन-पालन, शिक्षण प्रादि हुआ । युवा होने पर मृगावती नामक राजकन्या से उसका विवाह कर दिया गया। कुछ समय बाद मृगावती गर्भवती हुई। उसने पुत्र-युगल को जन्म दिया । बड़े का नाम शुभचन्द्र और छोटे का भर्तृहरि रखा गया । बड़ी अद्भुत स्थिति थी। इन दोनों ही बालकों को बचपन से तत्त्व-ज्ञान में बड़ी अभिरुचि थी। इसलिए इन्होंने उधर अच्छी योग्यता भी प्राप्त की।
एक दिन की घटना है, आकाश में बादल छाए थे । राजा सिंह अपने प्रासाद में बैठा था। थोड़ी देर में बादलों का रंग बदल गया और कुछ देर बाद सारे बादल लुप्त हो गये। सारा प्राकाश निर्मल दोखने लगा। अन्तरिक्ष के इस दृश्य का राजा के मन पर बहुत प्रभाव हुआ। राजा को इस साधारण से दृश्य ने अपने अन्तरतम में पैठ कर जीवन की गहराई में डुबकी लगाने को प्रेरित किया। राजा को सांसारिक भोग-सुख आकाश के बादलों के समान क्षण भर में नष्ट हो जाने वाले लगे। जीवन की क्षण-भंगुरता मानो राजा के आगे साक्षात् नाचने लगी। राजा ने मन ही मन सोचा-सांसारिक भोग खूब भोग लिए, क्या सारा जीवन यों ही बिताते चलना है ? अन्तत: उसके मन में विरक्ति हुई। उसने अपने पुत्र मुंज और सिंहल को
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / १३२ सारा राजकाज समझा दिया और संभला दिया । स्वयं श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। मुंज अपने भाई सिंहल के साथ आनन्दपूर्वक राज्य करने लगा ।
एक दिन का प्रसंग है, मुंज, सिंहल और सिंहल के दोनों राजकुमार सामन्तों सहित वनक्रीडा से नगर को लौट रहे थे। उन्होंने मार्ग में एक वर्षोद्धत तेली को खड़ा देखा। वह कन्धे पर कुदाल लिए हुए था। राजा मुंज को प्राश्चर्य हुआ पूछा- तुम इस तरह क्यों खड़े हो ? तेली बोला- मैंने एक अद्भुत विद्या साधी है उस विद्या के प्रभाव से मुझ में इतना बल है कि मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता। तेली की बात राजा को बड़ी हास्यास्पद लगी। देखते ही देखते तेली ने एक लोहे का बड़ा दंदा जमीन में गाड़ दिया और वह बोला- महाराज ! श्रापके सामन्त और योद्धाओं में जिस किसी को अपनी शक्ति का गर्व हो, इसे उखाड़ दे । मुंज ने अपने सामन्तों की ओर दृष्टि डालो। एक एक कर सभी सामन्तों ने दंड को उखाड़ने का प्रयत्न किया, पर कोई सफल नहीं हो सका। यह देख सिहल से रहा नहीं गया वह स्वयं उठा और एक हाथ से झट से उस लोह- दंड को जमीन से उखाड़ डाला । उस दंड को उठाकर कहा- अब मैं इसे जमीन में गाड़ देता हूँ, कोई निकाले यों कह कर एक हाथ से उस लौहदंड को अविलम्ब जमीन में गहरा गाड़ दिया। जिसे अपने बल का अत्यधिक गर्व था, उस तेली ने दंड को उखाड़ने की बहुत चेष्टा की, पर उसे नहीं उखाड़ सका । दूसरे सामन्त भी उसे उखाड़ने में सफल नहीं हुए। दोनों सुकुमार राजकुमार शुभचन्द्र घोर भर्तृहरि अपने पितृव्य राजा मुंज के सम्मुख हाथ जोड़कर उपस्थित हुए और कहा - यदि श्राप प्रदेश करें तो इस लोहदंड को हम उखाड़ दें। राजा को, सामन्तों को बालकों की बात पर बड़ी हंसी श्राई । बालकों ने नहीं माना। अन्त में राजा ने आज्ञा दे दी । कुमारों ने अपनी चोटी के बालों का फन्दा बनाकर उसे लोहदंड में लगाया और एक ही झटके में दंड को उखाड़ फेंका। बालकों के पराक्रम की सर्वत्र प्रशंसा हुई । तेली अपना सा मुंह लेकर चलता बना ।
1
राजा मुंज पहले तो प्रसन्न हुआ, फिर राज्य की तृष्णा ने उसके चिन्तन को एक विकृत मोड़ दिया । उसने सोचा, इन बालकों के बल का कोई पार नहीं है, कहीं मुझे राज्य - च्युत न कर दें। इन कांटों को भी साफ कर देना चाहिए। राजा ने मंत्री के समक्ष अपने विचार रखे। यह सुन मंत्री स्तंभित हो गया। राजा को इस कुकृत्य से विरत करने की बहुत चेष्टा की पर राजा न माना । अन्त में मंत्री ने स्वीकार किया कि वह उनकी इच्छा के अनुसार व्यवस्था करवा देगा। मंत्री ने बालकों की हत्या करवाने हेतु अपने मन पर बहुत जोर डाला, पर मन वैसी निर्दयता के लिए तैयार नहीं हुआ । असत् ने सत् से हार मानी । मंत्री ने राजकुमारों को सारी बात कही, गुप्त रूप में उज्जयिनी छोड़कर भाग जाने की राय दी। दोनों राजकुमार अपने पिता सिंहल के समक्ष उपस्थित हुए और अपने कर्त्तव्य के संबंध में मार्ग-दर्शन चाहा । सिंहल बड़े भाई मुंज के इन अमानवीय और नृशंस विचारों से उसे जित हो उठा और पुत्रों से कहा- ऐसे दुर्जन का अन्त कर देना चाहिए पर दोनों राजकुमार तस्व द्रष्टा थे । उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा- इस छोटे से जीवन के लिए ऐसा कुकृत्य कैसे करें ? उनके पाप स्वयं उन्हें खा जाएंगे। यदि हमारे द्वारा उनका हनन होगा, तो इसका दोष आप पर आएगा। हम दोनों इस घटना से इतने अन्तःप्रेरित हुए हैं कि हमारा मन इस मायामय संसार में रहने का नहीं है, हम अपने को साधना में लगा देना चाहते हैं।
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जैन योग का एक महान् ग्रन्थ- ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण / १३३
पिता ने बहुत रोका, समझाया। पर वे विनम्रतापूर्वक अपनी बात पर अड़े रहे । श्रन्त में पिता को स्वीकृति देनी पड़ी। पिता की आँखों से स्नेह के धांसू टपकते रहे और वे उनके देखते-देखते बीहड़ वन में खो गए।
दोनों राजकुमारों के जीवन ने दो मोड़ पकड़े । शुभचन्द्र ने एक दिगम्बर मुनि के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली तथा चारित्र धर्म का पालन करते हुए घोर तप में अपने को लगा दिया। भर्तृहरि एक तांत्रिक तपस्वी के सान्निध्य में चले गए। उन्होंने कौल तंत्र की दीक्षा ले ली। जटा, भस्म, कमंडलु, चिमटा, कंदमूल से जीवन यापन - यह सब उनके परिवेश और निर्वाह का रूप था। अपने इसी क्रम के बीच एक बार वन में घूमते हुए वे मार्ग भूल गए। चलते-चलते एक योगी के पास पहुँच गए, जिसके पांच और अग्नि जल रही थी,
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शिष्य बन गए । वह योगी
मंत्र, तंत्र, यंत्र आदि
जो ध्यान में लीन था । भर्तृहरि उससे प्रभावित हुए और उसके अनेक विद्याओं का वेत्ता था। भर्तृहरि बारह वर्ष उसके पास रहे तथा अनेक विद्याएं सोखीं। फिर उन्होंने गुरु से भ्रमण की आज्ञा चाही उन्हें एक तंबी दी, जो एक विशिष्ट रस से भरी थी । उस रस का यह छुपाने मात्र से तांबा सोना हो जाता ।
भर्तृहरि गुरु को प्रणाम कर चल पड़े और एक उपयुक्त स्थान पर स्वर्ण बनाने का चमत्कार उनके पास था । उनके सैकड़ों शिष्य हो गए । सेवा-परिचर्या करने लगे । उनका प्रभाव और ख्याति फैलने लगी ।
गुरु प्रसन्न थे। उन्होंने प्रभाव था कि उसको
घासन जमा लिया । अनेक सेवक हो गए ।
आया। मुनि शुभचन्द्र की स्थिति,
एक दिन बैठे-बैठे योगी भर्ती हरि के मन में अपने भाई शुभचन्द्र की याद आई कहाँ हैं, कैसे हैं, क्या करते हैं, कुछ भी ज्ञात नहीं । अपने एक शिष्य को शुभचन्द्र की खोज करने भेजा। शिष्य को श्रम तो बहुत हुआ, पर अन्ततः उसने शुभचन्द्र का पता लगा लिया। उसने देखावे नग्न हैं । अंगुलमात्र भी वस्त्र उनके पास नहीं हैं, और भी कुछ नहीं है । केवल एक कमंडलु है। शिष्य दो दिन वहाँ रहा। भूखा ही रहा। भोजन की कौन पूछता ? तीसरे दिन मुनि को प्रणाम कर रवाना हो गया, अपने गुरु के पास वातावरण आदि का शिष्य के मन पर जो प्रभाव पड़ा था, उसके अनुसार उसने अपने गुरु से निवेदन किया- आपके भाई बड़ी दुरवस्था और संकट में हैं । वस्त्र के नाम पर तो उनके पास लंगोटी तक नहीं है, न खाने-पीने की व्यवस्था है और न कोई और सुविधा है। असुविधा और कष्ट ही कष्ट है । वे बड़ी दरिद्रावस्था में हैं । श्राप कुछ सहायता कीजिए। भाई की दुर्दशा सुन भर्तृहरि बड़े खिन हुए। उन्होंने अपनी तूंची का आधा रस एक दूसरी तूंबी में उंडेला । शिष्य को वह तूंबी दी और कहा- जाम्रो, मेरे भाई को यह दे प्रायो । उन्हें बतला देनाइससे जितना जैसा जब चाहो, स्वर्ण बनाते रहना । शिष्य प्रसन्नता से चलता चलता मुनि शुभचन्द्र के पास पहुँचा । उन्हें वह तूंबी दी, उसका प्रभाव बतलाया और भाई भर्तृहरि के समाचार कहे । मुनि शुभचन्द्र बोले- बहुत अच्छा ! यह रस पत्थर पर डाल दो। शिष्य आश्चर्यचकित हो गया। कहने लगा ऐसी अद्भुत और चमत्कारी वस्तु को भाप यों नष्ट करना चाहते हैं ? शुभचन्द्र ने कहा- तुम्हें इसकी चिन्ता क्यों है ? जो वस्तु मुझे दी जा चुकी है, उसका मैं चाहे जैसे उपयोग करू । यदि ऐसा नहीं कर सको तो इसे वापस ले जाओ। शिष्य बड़े धर्मसंकट में पड़ गया। वापस ले जाने पर गुरु रुष्ट होंगे, पत्थर पर डाल देने से अमूल्य रस वृथा
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम
तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / १३४
नष्ट होगा । क्या किया जाए ? अन्त में उसने यही उचित समझा, मुनि की प्राज्ञा उसे माननी चाहिए । रस को पत्थर पर डाल दिया । वह वापस गुरु के पास लोट पाया।
गुरु को सारा वृत्तान्त बताया। भर्तृहरि बहुत दुःखी हुए। उन्हें मन ही मन यह सन्देह रहा, कहीं भाई को रस का गुण यथार्थ रूप में न बताया जा सका हो, अन्यथा ऐसी मूर्खता वे कैसे करते ?
भत हरि अपने शिष्यों के साथ स्वयं शभचन्द्र से मिलने को उद्यत हए। साथ में उन्होंने अपनी रस की तूंबी ले ली । आधा रस उसमें था ही। मुनि शुभचन्द्र के पास पहुँचे । विनयपूर्वक वन्दन, नमस्कार किया, कुशल-क्षेम पूछा । तदनन्तर वह रस की तूंबी उन्हें भेंट की। शुभचन्द्र ने पूछा-इसमें क्या है ? भर्तृहरि ने कहा-इसमें एक ऐसा प्रभावकारी विचित्र रस है, जिसके छूने मात्र से ताम्र सुवर्ण हो जाता है। दीर्घकाल के घोर परिश्रम से मैंने इसे प्राप्त किया है। शुभचन्द्र ने तूंबी को उठाया और पत्थर की शिला पर दे मारा और उन्होंने कहायह पत्थर तो स्वर्ण का नहीं बना? पत्थर पर इसका प्रभाव नहीं चला ?
भाई का यह उपक्रम देख भर्तृहरि मन ही मन बड़े व्यथित हुए, कहने लगे-बारह बरस की लम्बी साधना के परिणामस्वरूप मैंने इसे पाया। मुझे नहीं मालम था, आप इस बहुमूल्य रस को यों नष्ट कर डालेंगे। आपने यह अच्छा नहीं किया। अच्छा हो, आप भी कुछ चमत्कार दिखलाइए ! इतने दिन अापने साधना की है।
शुभचन्द्र बोले-भाई ! प्रतीत होता है, तुमको अपने रस के नष्ट हो जाने से बड़ा दुःख हुआ । क्यों नहीं सोचते, यदि स्वर्ण की ही लिप्सा थी तो अपना राज्य ही क्यों छोड़ा ? स्वर्ण, रत्न, धन, धान्य किसी की भी वहाँ कमी थी? अच्छा होता, वहीं रहते। जिस सांसारिक दुःख या आवागमन का तुम अन्त करना चाहते हो, इन मंत्र-तंत्रों से क्या वह सधेगा? तुम अपना लक्ष्य भूल गए ! ज्ञान भूल गए ! फिर मुझे चुनौती दे रहे हो, कुछ चमत्कार दिखाने की। मुझे न चमत्कार में कोई विश्वास है, न मुझ में कोई चमत्कार या जादू है। फिर भी तपश्चरण में बहुत बड़ी शक्ति होती है। इतना कहकर शुभचन्द्र ने अपने पैर के नीचे की थोड़ी सी मिट्टी उठाई और पास में पड़ी हुई शिला पर डाल दी। शिला सोने की हो गई । यह देख भर्तृहरि स्तंभित रह गए। भाई के चरणों में गिर पड़े और अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे-जीवन का कितना बहुमूल्य समय मैंने लौकिक चमत्कारों को साधने में लगा दिया। उन्होंने मुनि शुभचन्द्र से श्रमणदीक्षा की प्रार्थना की।
भर्तृहरि का चित्त उपशान्त था। उनमें तीव्र जिज्ञासा थी। मुनिशुभचन्द्र ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। सप्त तत्त्व, नव पदार्थ का ज्ञान कराया। भर्तृहरि के मन का अज्ञानान्धकार दूर हमा, उनकी दृष्टि सम्यक हुई। उन्हें यथार्थ दर्शन मिला। उन्होंने मुनि शुभचन्द्र के पास दिगम्बर श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। मुनि शुभचन्द्र ने भर्तृहरि को श्रमण-मार्ग में दृढतापूर्वक गतिमान रहने, साधना में उत्तरोत्तर आगे बढ़ाने तथा योग का अध्ययन कराने के निमित्त ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ की रचना की। भर्तृहरि ने उनके चरणों में बैठ इसका सांगोपांग अध्ययन किया और वे अध्यात्म-योग की साधना में अविच्छिन्न रूप में लगे रहे। दोनों भाइयों ने अपने जीवन का सही लक्ष्य साधा ।
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जैन-योग का एक महान् ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १३५
प्राचार्य शुभचन्द्र के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में उपर्युक्त कथा के अतिरिक्त और कोई विशेष ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती। जैसा पहले उल्लेख किया गया है, भर्तृहरि के जीवन-वत्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रमाणभूत आधार नहीं है।
भर्तृहरि के वैराग्यशतक का गहराई से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उनका झुकाव तितिक्षा-प्रधान जैनधर्म की ओर विशेष था। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है
"प्रभो! मेरे जीवन में ऐसा समय कब आएगा, जब मैं एकाकी, स्पहाशून्य, शान्त, हाथ को ही पात्र के रूप में प्रयुक्त करने वाला, दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझने वाला होकर कर्मों के विनाश में समर्थ बनूंगा।"
इस प्रकार के तितिक्षु जीवन की प्रशंसा करते हुए उन्होंने एक स्थान पर और लिखा है
"वे पुरुष धन्य हैं, जिनके हाथ ही पवित्र पात्र हैं, जो सदा भ्रमण करते रहते हैं, भिक्षा ही जिनका अविनश्वर भोजन है, दशों दिशाएं ही जिनका विस्तृत तथा स्थिर वस्त्र है, विशाल पृथ्वी ही जिनका बिछौना है, जिनकी मानसिक परिणति अनासक्ति-युक्त है, जिन्हें परिग्रह, सांसारिक धन, वैभव आदि में जरा भी आसक्ति नहीं है, जिन्हें प्रात्म-रमण में ही परितोष है, दीनता-किसी के पागे हाथ फैलाना जैसे दुःखों से जो सर्वथा उन्मुक्त हैं, ऐसे ही सत्पुरुष अपने कर्मों का उन्मूलन करते हैं।"
इन प्रसंगों से निविवाद रूप से यह प्रकट होता है कि भर्तृहरि वैसे उच्च त्यागमय जीवन की ओर बहुत ही आकृष्ट थे, जो एक दिगम्बर जैन श्रमण का होता है। भर्तृहरि का वैराग्यशतक एक ऐसी वैराग्य और त्याग प्रधान रचना है, वैचारिक दृष्टि से जिसका जैन सिद्धान्तों से काफी नैकट्य है। वैराग्यशतक और ज्ञानार्णव के तुलनात्मक अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि दोनों के अनेक श्लोक भाव की दृष्टि से बहुत नजदीक हैं।
वैराग्यशतक में एक स्थान पर लिखा है
"पर्वत की शिला जिनकी शय्या है, गुफा जिनका घर है, वक्षों की छाल जिनका वस्त्र है, पक्षी जिनके मित्र हैं, वृक्षों के कोमल फलों से जिनका जीवन चलता है, झरनों का जल ही जिनका समुचित पेय है, विद्यारूपी अंगना में जिनको अनुराग है, जिन्होंने सेवक के रूप में किसी के सामने सिर पर अंजलि नहीं बांधी-सिर झुकाकर हाथ नहीं जोड़े। मैं मानता हूँ, वे ही वास्तव में परम ऐश्वर्यशाली हैं।"3 १. एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो ! संभविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षयः ।।
-वैराग्यशतक ८९ २. पाणिः पात्रं पवित्र भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्न,
विस्तीर्ण वस्त्रमाशादशकमचपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी । येषां, नि:संगतांगीकरणपरिणतस्वान्तसन्तोषिणस्ते, धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकरा: कर्म निर्मूलयन्ति ।।
-वैराग्यशतक ९९ शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वचः, सारंगा: सुहृदो ननु क्षितिरुहां वत्तिः फलै : कोमलैः । येषां निर्भरमम्बुपानमुचितं रत्यै तु विद्यांगना, मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः ।।
वैराग्यशतक १०
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पंचम खण्ड | १३६ ज्ञानार्णव का निम्नांकित श्लोक दृष्टव्य है, जो लगभग इसीके समकक्ष है
"विन्ध्यपर्वत जिनका नगर है, गुफाएँ जिनकी वसति है, पर्वत की शिला जिनकी शय्या है, चन्द्रमा की किरणें जिनके दीपक हैं, मृग-पशु जिनके सहचर हैं, प्राणीमात्र के साथ मित्रता जिनकी उत्तम अंगना है, विज्ञान-विशिष्ट ज्ञान जिनके लिए जल है, तप जिनका सात्त्विक भोजन है, ऐसे प्रशान्तात्मा पुरुष धन्य हैं। वे हमें संसार के कीचड़ से निकलने का पथ उपदिष्ट
अर्चनार्चन
ज्ञानार्णव की भाषा, शैली, शब्द-संरचना प्रादि देखने से प्रतीत होता है कि प्राचार्य शुभचन्द्र की प्रतिभा बहुत उर्वर एवं उत्कृष्ट थी। उन्होंने अध्यात्म तथा योग जैसे विषय को अत्यन्त सुन्दर, सरस एवं प्रसादपूर्ण भाषा में सफलतापूर्वक उपस्थित करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपना ग्रन्थ सर्गात्मक शैली में लिखा है, जिसका प्रयोग कवि महाकाव्यों में करते रहे हैं । ज्ञानार्णव एक विस्तृत ग्रन्थ है। इसमें ४२ सर्ग हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ में पद्यात्मक शैली के साथ-साथ गद्यात्मक शैली का भी प्रयोग किया है। उनके पद्यों में सरसता है, प्रवाह है । भाषा विषय को सहज रूप में अपने से समेटे हुए सरिता की थिरकती हुई लहर की तरह गतिशील है। अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, मालिनी, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, मन्दाक्रान्ता, आर्या, वंशस्थ, पृथ्वी, वसन्ततिलका, इन्द्रवंशा आदि छन्दों का इसमें बड़ी सुन्दरता व सफलतापूर्वक प्रयोग हुअा है। गद्य में प्रौढता, शब्द-सौष्ठव और भाव-गांभीर्य है।
प्राचार्य ने पहले सर्ग में मंगलाचरण के पश्चात सत्श्रुत-सद्ज्ञान तथा सत्पुरुषों की गरिमा और प्रशस्ति का वर्णन किया है, साथ ही साथ संसार के मायाजाल से विमुक्त होने की प्रेरणा दी है। सर्ग के अन्त में उन्होंने संसार की दुःख-दारुणता तथा विनश्वरता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है
"यह जगत् भयावह वन है। दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला से यह परिव्याप्त है। इन्द्रियसुख परिणामविरस है, अर्थात् उसका परिणाम दुःखात्मक होता है। काम-सांसारिक भोग, अर्थ-धन, वैभव अनित्य हैं, जीवन बिजली के समान चंचल-अस्थिर है। इस सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन कर जो अपने स्वार्थ-प्रात्मा के लक्ष्य को साधने में सुकृती-सत्प्रयत्नशील है, वह क्यों इसमें विमूढ़ बनेगा।"
दूसरे सर्ग में प्राचार्य ने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक, बोधदुर्लभ, इन बारह भावना का विवेचन किया है। इस विवेचन के अन्तर्गत उन्होंने ऐसी प्राणवत्ता भर दी है कि पाठक या श्रोता पढ़कर या सुनकर अन्त:स्फुरणा का अनुभव किये बिना नहीं रहता। अशरण भावना के विवेचन के अन्तर्गत
१. विन्ध्याद्रिनगरं गुहा वसतिका: शय्या शिला पार्वती,
दीपाश्चन्द्रकरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनांगना । विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषां प्रशान्तात्मनां, धन्यास्ते भवपंकनिर्गमपथप्रोद्देशकाः सन्तु नः ।।
-ज्ञानार्णव ५-२१
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जैन-योग का एक महान् ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १३७
उन्होंने दुनिवार काल का वर्णन करते हुए लिखा है
"यह काल जिस प्रकार बालक को लोल जाता है, उसी प्रकार वृद्ध को भी अपना ग्रास बना लेता है, वह धनी एवं गरीब में कोई भेद नहीं करता। वह शूरवीर को भी, कायर को भी समान रूप से खा जाता है।
जब यह काल विपक्षी के रूप में प्राणियों के समक्ष खड़ा होता है तो न गजवाहिनी, न अश्ववाहिनी तथा न रथवाहिनी सेनाएँ, न मन्त्र, न औषधियाँ, न पराक्रम ही कुछ काम प्राता है । ये सब व्यर्थ हो जाते हैं।"
तीसरे सर्ग में ध्यान का संकेत रूप में वर्णन है। चौथे एवं पांचवें सर्ग में ध्यान तथा ध्याता का स्वरूप, योग्यता, आदि पर प्रकाश डाला गया है। छठे एवं सातवें सर्ग में सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान के वर्णन के साथ-साथ जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व प्रादि पर प्रकाश डाला है। पाठवें से सत्रहवें सर्ग तक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का विवेचन है। अठारहवें सर्ग में पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों की व्याख्या है । उन्नीसवें सर्ग में क्रोध, मान, माया तथा लोभ-इन कषायों का वर्णन करते हुए, इनकी परिहेयता बतलाते हुए क्षमा, प्रशम तथा उपशम-भाव की प्रशंसा की गई है। बीसवें सर्ग में इन्द्रियजय, मनोजय का उपदेश है।
इक्कीसवें सर्ग में शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व तथा कामतत्त्व का सूक्ष्म विवेचन है । इस सन्दर्भ में आत्मा सर्वशक्तिमान है, इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है--
"यह प्रात्मा साक्षात गुणरूपी रत्नों का महासागर है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सर्वकल्याणकर है, परम ईश्वर है, निरंजन-किसी भी प्रकार के अंजन या कालिमा से रहित है, शुद्ध नय की दृष्टि से यह प्रात्मा का स्वरूप है।"
वे आगे लिखते हैं
"ध्यान से प्रात्मा के समग्र गुण प्रस्फुटित होते हैं तथा ध्यान से ही अनादि काल से संचित कर्मसमुदाय क्षीण होता है।"3
इसके पश्चात प्राचार्य ने शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व तथा कामतत्त्व का मार्मिक विश्लेषण किया है। उन्होंने कहा कि अन्य मतावलम्बी ध्यान के लिए एतद्रूप त्रितत्त्व की स्थापना करते हैं । वास्तव में तो जो भी कल्पना की जाय, वह सब आत्मा पर ही आधृत है।
१. यथा बालं तथा वृद्धं यथाढ्यं दुर्विधं तथा ।
यथा शूरं तथा भीरु साम्येन अस्तेऽन्तकः ।। गजाश्वरथसैन्यानि मन्त्रौषधबलानि च ।
व्यर्थीभवन्ति सर्वाणि विपक्षे देहिनां यमे ॥ -ज्ञानार्णव २.११,१२ “अशरण-भावना" २. अयमात्मा स्वयं साक्षाद् गुणरत्नमहार्णवः । . सर्वज्ञः सर्वदृक् सार्वः परमेष्ठी निरंजनः ।।
-ज्ञानार्णव २१.१ ३. ध्यानादेव गुणग्राममस्याशेषं स्फूटीभवेत् । क्षीयते च तथानादिसंभवा कर्मसन्ततिः ।।
-ज्ञानार्णव २१.८ ४. शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मेव कीत्तितः । अणिमादिगुणानय रत्नवाधिबुधैर्मतः ।।
-ज्ञानार्णव २१.९
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अर्चनार्वन
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पंचम खण्ड / १३८
शिवतत्त्व
शिवतत्व के परिवार में साधक का चिन्तन स्रोत मात्मा की शिवमयता एवं शिवंकरता को उद्दिष्टकर गतिमान होता है। आत्मा जो संसारावस्था में जीवात्मा कही जाती है, वहीं द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप सामग्री प्रान्तरिक बाह्यस्वरूप आदि अधिगत करती है। सुसंस्कार एवं सत्प्रयत्न के बल से उसे सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है, वह प्रतिशय वैशिष्ट्य प्राप्त करती है। फलतः क्रमशः मोह का अपगम होता है, शुक्लध्यान का उद्गम होता है, आत्मा के मूल गुणों का हनन करने वाले कर्म नष्ट होते हैं, अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आत्मा के ये चार गुण प्रकट होते हैं । इन गुणों का प्राकट्य आत्मा की वह दशा है, जो परमात्मा शब्द से पहचानी जाती है । यह ग्रात्मा का शिवमय स्वरूप है। सर्वथा सत्य सर्वया श्रेयोमय तथा श्रेयस्कर शिव प्राप्यायित एतन्मूलक स्वरूप का अनुचिन्तन, अनुशीलन, अनुस्मरण शिवतत्त्व की प्राराधना है । '
गरुड़तत्त्व
भारतीय देववाद में गरुड़ का बड़ा महत्त्व है। वैसे गरुड़ एक पक्षी होता है, बहुत तीव्रगामी होता है उसे पुराण साहित्य में पक्षिराज कहा गया है तथा भगवान् विष्णु का यह वाहन माना गया है। वहां उसमें देवत्व की परिकल्पना की गई है। उसका स्वरूप मानव और पक्षी का मिला-जुला आकार लिए भारतीय चित्रकला में बहुत स्थानों पर अंकित हुआ है। भगवान् विष्णु के मन्दिरों में विष्णु को मूर्ति के ठीक सामने सभा मण्डल से बाहर एक चत्वर पर प्रणाम की मुद्रा में गरुड़ संस्थापित होता है । देव के रूप में प्रतिष्ठित गरुड़ का सारा शरीर मनुष्य के आकार का होता है, केवल मुख की प्राकृति गरुड़ की सी होती है। मुख पर चोंच होती है। दो पंख दोनों बाहुमूलों से निकलते हुए घुटनों तक लटकते हैं। कहीं-कहीं गरुड़ के मुंह में पकड़े हुए सर्प भी दिखाये जाते हैं । ध्यान के सन्दर्भ में गरुड़तत्त्व की जो परिकल्पना की गई है, वहाँ गरुड़ की चोंच में दो सर्प लटकते हुए माने गये हैं । चोंच में पकड़ा हुआ एक सर्प मस्तक पर होते हुए पीठ की पोर लटकता है, दूसरा उदर की पोर लटकता है। गरुड़ की देह में पांचों तत्त्वों की कल्पना की गई है। उसके घुटनों से नीचे पृथ्वी तत्व, घुटनों से ऊपर नाभि तक जल तत्त्व नाभि से हृदय तक अग्नि तत्व हृदय से मुख तक वायु तत्त्व का अस्तिव माना गया है। श्राकाश-तत्त्व में एतत्स्वरूपात्मक गरुड़ की परिस्थापना मानकर ध्यान करने का विधान किया गया है। कहा गया है, इससे सारे उपद्रव और विघ्न मिट जाते हैं।
१. यथान्तर्बहिभूतनिज निजानन्दसन्दोहसंपाद्यमानद्रव्यादि चतुष्कसकलसामग्री स्वभावप्रभावापरिस्फुरितरत्नत्रयातिशयसमुल्लसितस्वशक्तिनिराकृतसकलतदा व रणप्रादुर्भूत शुक्लध्यानानलबहुलग्याला कलापक लित गहनान्तराला दिसकलजीवप्रदेशधनघटितसंसारकारणज्ञानावरणादिद्रव्यभावबन्धन विश्लेषस्ततो युगपत्प्रादुर्भूतानन्त चतुष्टयो घनपट विगमे सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् स खल्यमात्मैव परमात्मव्यपदेशभाग्भवती निशिवतत्वम् ।
-ज्ञानार्णव २१. १० "भाग"
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जैन योग का एक महान् प्राथ-ज्ञानार्णव एक विश्लेषण / १३९
भावना में प्राबल्य, चिन्तन में शक्तिमत्ता, गति में अत्यधिक तीव्रता, स्थिति में धीरता और दृढ़ता का समावेश करने का प्रभिप्रेत लिए संभवतः योगियों ने गरुतश्व परिकल्पित किया हो। पौराणिक विवेचन के अनुसार जैसा ऊपर संकेत किया गया है, गरुड़ की ये विशेषताएं हैं ही। तीनों लोकों के पालक भगवान् विष्णु को अपनी पीठ पर बिठाकर विद्युत् वेग से उड़ने वाले गरुड़ की अत्यधिक शीघ्रगामिता, स्फूर्तिमयता एवं बलशालिता सहज ही अनुमेय है । सर्प जैसे विषाक्त जन्तु को वह एक साधारण कीड़े की तरह नष्ट कर डालता है। यह उसकी असाधारण विशेषता है। इतना ही नहीं, वह जहरीले सांपों को निगल जाता है, उन्हें हजम कर लेता है। गरुड़ को बाह्य प्रतीक मानकर प्रान्तरिक अभ्युत्थान, ऊध्र्वीकरण और उन्नयन के लिए विधि-विशेष के साथ ध्यान में उद्यम रत होना एक रहस्यमयी साधना से जुड़ा है । ग्रात्म-शक्ति के स्फोट के लिए जो विशेष तीव्र उत्कण्ठा, चेष्टा, क्रिया और गति चाहिए, उसमें इसकी प्रेरकता है । योगनिरत साधक निरन्तर इस अनुचिन्तन और ध्यान में रहता है कि वह साधना में गरुड़ की सी गतिशीलता एवं ऊर्ध्वगामिता श्रात्मसात् करें। गरुड़ की चोंच द्वारा पकड़े हुए पेट की ओर लटकते हुए एवं मुख के ऊपर से मेरुदंड की घोर लटकते हुए सर्पों के प्रतीक से वह यह प्रेरणा ले उसे अपनी कुंडलिनीशक्ति जागरित कर ऊर्ध्वमुखी बनानी है, जिससे सहस्रारदल कमल में उसका मुंह खुल जाय। हठयोग के अनुसार उससे प्रमृत टपकता है ।
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यहाँ परिकल्पित गरुड़ के स्वरूप में दोनों प्रोर भीषण नागों का लटकना यह भी संकेत करता है कि काम भोगात्मक विषाक्तता से घिरा रहता हुआ भी योगी उससे सर्वथा श्रप्रभावित रह उन्हें श्रात्मबल - प्रसूत उज्ज्वल परिणामों द्वारा भीतर ही भीतर जीर्ण कर डाले 19
प्राचार्य ने गरुड़ के स्वरूप में सन्निविष्ट पृथ्वी बादि तत्वों की विस्तार से चर्चा की है पृथ्वी, जल, वायु तथा प्रग्नि के पौराणिक स्वरूप का वर्णन करते हुए उन्हें गरुड़ गत ध्येय आलम्बनों के रूप में व्याख्यात किया है।
कामतत्त्व
पुरुषार्थ-चतुष्ट में काम का अपना विशेष महत्त्व है। सारे सांसारिक व्यवहार के मूल में काम की प्रेरणा है। काम रूप साध्य को प्राप्त करने के लिए ही व्यक्ति धनार्जन करना चाहता है । धनार्जन के लिए श्रम, क्लेश, अपमान, तिरस्कार सब कुछ सहता है । जगत् में मानव की जो अविश्रान्त दौड़ दिखाई देती है, उसके पीछे काम काम्य भोग एवं सुख की लिप्सा ही है । भावना की तीव्रता अध्यवसाय की गति में निश्चय ही वेग लाती है । कामोन्मुख वेग को उधर से निकालकर योग में संभूत कर देने के अभिप्राय से ध्यान के हेतु काम-तत्व की परिकल्पना वास्तव में विचित्र है। विवेचन के अन्तर्गत बाह्यरूप में वे सभी उपकरण रूपक शैली में वर्णित किये गए हैं, जो कात्म व्यापार में दृश्यमान होते हैं पर उनका प्रान्तरिक मोड़ १. गगनगोचरामुतं जय विजय भुजंगभूषणोऽनन्ताकृतिपरम विभुनभस्तलनिलीनसमस्तत स्वात्मकः समस्तज्वररोगविषधरोड् डामरडा किनी ग्रह्यक्ष किनी ग्रहयक्ष किन रनरेन्द्र। रिमारिपरयन्त्रतन्त्रमुद्रा मण्डलज्वलनहरिशरभशार्दूल द्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्ग - निर्मूलनकारिसामर्थ्यः परिकलित समस्त गारुडमुद्रामण्डलाडम्बरसमस्ततत्त्वात्मकः सन्नात्मैव गरुडगी गचिरत्वमवगाहते । -- ज्ञानार्णव २१.९५ " गद्य भाग"
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / १४०
विशुद्ध निर्लेप ब्रह्म-तत्त्व या प्रात्म-तत्त्व की ओर है। काम को धनुषधारी माना गया है। वह धनुष पर बाण चढ़ाकर सम्मुखीन जनों को विमोहित करता है। काम-तत्त्व में स्वसंवेदनगोचर समस्त जगत् धनुष स्थानीय है। उन्मादन, मोहन, संतापन, शोषण एवं मारण-ये काम के पांच बाण माने गए हैं । इन द्वारा काम पुरुष को काम्य में-प्रेयसी में तन्मय बना देता है, जिसे प्राप्त करने के लिए वह कामाहत पुरुष अत्यन्त याकुल हो उठता है । अध्यात्मयोगी स्वसंवेदनरूप धनुष पर निवेशित और क्षिप्त प्रति उज्ज्वल आत्म-परिणाम रूप बाणों के आघात या संस्पर्श से मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए उन्मत्त, मोहित, संतप्त, पीड़ित और मत जैसा हो जाता है। जो भावों की तीव्रता कामानुप्रेरित पुरुष के मन में कामिनी को स्वायत्त करने की होती है, वैसी ही तीव्रता अध्यात्मयोगी के मन में प्रात्मलक्ष्मी को वशंगत करने की होती है। रति, सूत्रधार, वसन्त, सहकार, लता, भ्रमरी-निनाद, कोकिलकेका, मलयानिल, विरह, विप्रलब्धा, पाटल-पादपों का सौरभ-पराग, मालती-सूरभि इत्यादि समग्र कामोपकरणों का प्राध्यात्मिक प्रतीकों के रूप में सक्षम विश्लेषण प्राचार्य ने प्रस्तुत प्रसंग में किया है। साहित्यशास्त्र में इन्हें काम की सेना में परिगणित किया गया है। ये वे साधन हैं जो काम के उद्भव में उत्प्रेरक होते हैं।
कामतत्त्व की परिकल्पना में एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक तथ्य का अनुप्राणन है। मनोविज्ञान मानता है कि काम-वासना नैसर्गिक है। उसमें सौन्दर्यानुप्राणित सुख की अनुभूति है। सौन्दर्य के प्रति इसीलिए सबसे सहज आकर्षण है, उससे परितोष मिलता है। साथ ही साथ मनोविज्ञान ऐसा भी स्वीकार करता है कि परितोष सुख या तुष्टि लेने की वृत्ति को मोड़ देकर सौन्दर्य से प्राप्त होने वाले सुख की अनुभूति यदि कोई दर्शन, साधना, सेवा या कला में करने लगे तो जीवन की एक स्वाभाविक क्षधा उधर परितोष पाने लगेगी और वह व्यक्ति कामात्मक सौन्दर्य को न छूता हुमा भी जीवन में परितुष्ट रह सकेगा, उसे कोई प्रभाव नहीं खलेगा । जो महान् त्यागी, संन्यासी, तपस्वी, भक्त, लोकसेवी या समर्पित कलाकार आदि हुए हैं, जिन्होंने सब कुछ भुलाकर अपने को कार्यों में उन्मत्त की तरह जोड़े रखा, वे इसी कोटि के पुरुष थे, जिनकी कामात्मक वत्ति की परितोषकता उन उन कार्यों में प्रति पाने लगी थी। मनोविज्ञान में इस वृत्ति को Sublimation कहा है। क्योंकि किसी भी वृत्ति को मिटाया नहीं जा सकता, उसकी दिशा को नया मोड़ दिया जा सकता है, उसका परिष्कार किया जा सकता है । वैसा किये बिना यदि वृत्ति के उच्छेद का प्रयास किया जाता है तो व्यक्ति गिर जाता है, असफल हो जाता है।
काम-तत्त्व को परिकल्पना में समग्र कामात्मक उपकरणों को प्रतीक के रूप में सम्मुख रखकर तद्गत ऐहिक सुख को विवेक तथा अन्तर-अनुभूति पूर्वक प्रात्मरमण के सुख से जोड़ कर भोग की वृत्ति को परिष्कृत करने का या काम-प्रवाह से प्रात्म-प्रवाह में लाने का एक उपक्रम है।
विवेचन और विश्लेषण की दृष्टि से यह सुन्दर और पाकर्षक अवश्य है, पर कुछ जटिल तथा दुरूह जैसा है, इसलिए प्राचार्य शुभचन्द्र ने किन्हीं की मान्यता के रूप में इसे उपस्थित तो किया है, पर वे नहीं मानते कि इससे कोई बहुत बड़ी बात बन जाय । यही बात पिछले दो तत्वों के साथ है। शिव-तत्त्व के सम्बन्ध में जो कहा गया है, वह तो वस्तुतः आत्मतत्त्व
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जैन-योग का एक महान् ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १४१
को अधिगत करने के परम्पराप्राप्त साधनाक्रम में है ही, मात्र भिन्न नाम से उसे अभिहित किया जा सकता है, पर वैसी कोई पृथक् साधना की स्थिति वहां नहीं बनती।
तत्त्वत्रय के विश्लेषण के पश्चात प्राचार्य शूभचन्द्र ने उससंहारात्मक रूप में कहा है
इस संसार में शरीर-विशेष से समवेत जो भी कुछ सामर्थ्य हम प्राप्त करते हैं, वह निश्चित रूप से आत्मा का ही है। प्रात्मा की प्रवृत्ति-परम्परा से-अशुद्ध परिणामों से शरीर उत्पन्न हुअा है, आत्मा की संसारावस्था में वह सहचरित है, इसलिए सामर्थ्य-विशेष के साथ शरीर को भी जोड़ा जाता है, पर वास्तव में मूलतः वह सामर्थ्य शरीर का नहीं। अतः तत्त्व की परिकल्पना का भी सामर्थ्यात्मक दृष्टि से आत्मा में ही समावेश हो जाता है । चित्र-विचित्र चेष्टाएँ और उपक्रम प्रात्मा की अशुद्धावस्था की परिणतियां हैं।'
बाईसवें सर्ग में मनोव्यापार के अवरोध, मन के वशीकरण या मनोजय के सम्बन्ध में प्राचार्य ने प्रकाश डाला है।
साधक के लिए मन के अवरोध को उन्होंने बहुत आवश्यक बतलाया है, कहा है
"जिन्होंने मन को रोक लिया, उन्होंने सबको रोक लिया अर्थात् मन को वश में करने का अभिप्राय है, सबको वश में करना। जिनका चित्त असंवत-अनिरुद्ध या अवशीभूत है, उनका अन्य इन्द्रियों को रोकना निरर्थक है।
मन की शुद्धि से कलंक-दोष या विकार विलीन-विनष्ट हो जाता है, मन के समीभूतआत्म-स्वभाव में समन्वित होने पर स्वार्थ-जीवन के सही लक्ष्य की सिद्धि या प्राप्ति हो जाती है।"
"एक मात्र मन का निरोध ही सब अभ्युदयों को सिद्ध करने वाला है। उसी का पालम्बन लेकर योगी तत्त्व-विनिश्चय को प्राप्त हुए।"
मन के निरोध का मार्ग बताते हए प्राचार्य ने लिखा है
"एक मेक बने स्व और पर को-आत्मा तथा देह प्रादि पर पदार्थों को पृथक्-पृथक अनुभव करता है, वह मन की चंचलता को पहले ही रोक लेता है।"४
१. तदेवं यदिह जगति शरीरविशेषसमवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चयः । प्रात्मप्रवत्तिपरंपरोत्पादित्वादविग्रहग्रहणस्येति । -ज्ञानार्णव २१.१७
और भी कहा है२. मनोरोधे भवेद्रद्धं विश्वमेव शरीरिभिः ।
प्रायोऽसंवतचित्तानां शेषरोधोऽप्यपार्थकः ।। कलंकविलयः साक्षान्मनः शुद्धयैव देहिनाम् । तस्मिन्नपि समीभूते स्वार्थ सिद्धिरुदाहृता ।। -ज्ञानार्णव २२. ६,७ एक एव मनोरोध: सर्वाभ्युदयसाधकः ।
यमेवालम्ब्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम ।। -ज्ञानार्णव २२.१२ ४. पृथक्करोति यो धीरः स्वपरावेकतां गतौ।
स चापलं निगह णाति पूर्वमेवान्तरात्मनः ॥ -ज्ञानार्णव २२.१३
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड | १४२
मोह और प्रासक्ति का मुख्य कारण पर को स्व मान लेना है। दोनों सर्वथा, सर्वदा सम्पूर्णतः भिन्न हैं, अभिन्न मान लेने से परिणामों की धारा विपरीतमुखी हो जाती है । फलतः मन चंचल हो जाता है । मन का चांचल्य मिटाने के लिए स्व और पर के भेदविज्ञान को प्रमुख माध्यम के रूप में लेना होगा, केवल वहने या बोलने के रूप में नहीं, भीतर अनुभव करने के रूप में।
अर्चनार्चन
तेईसवें सर्ग में राग, द्वेष आदि को जीतने का उपदेश दिया गया है। चौबीसवें सर्ग में समता का विश्लेषण है। समता की उच्च भूमिका का वर्णन करते हुए प्राचार्य ने लिखा है
"एक व्यक्ति कल्पवृक्ष के फूलों से पूजा-सत्कार कर रहा है। दूसरा क्रुद्ध होकर मारने के लिए गले में सांप डाल रहा है। इन दोनों ही स्थितियों में जिसकी वत्ति सदा समान रहती है, वास्तव में वह योगी है। यों जो योगी समता रूपी उद्यान में विहरण करता है, उसे परमज्ञान-कैवल्य प्राप्त होने का अवकाश बना रहता है।''
पच्चीसवें सर्ग में प्रार्तध्यान का वर्णन है। छब्बीसवें सर्ग में रौद्रध्यान का वर्णन है। सत्ताईसवें सर्ग में पहले ऐसे स्थानों का वर्णन किया है, जो ध्यान में प्रतिकूल होते हैं, जिनमें म्लेच्छ जनों व पापी पुरुषों का स्थान, दुष्ट राजा द्वारा पालित स्थान, पाखण्डीजनों द्वारा घिरा हा स्थान, महामिथ्यात्व का स्थान प्रादि मुख्य हैं।२।।
आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान के लिए स्थान को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने लिखा है
"स्थान के दोष से साधनानुरागी जनों का मन तत्क्षण विकृत हो जाता है । मनोज्ञ एवं उत्तम स्थान पाकर वही स्वस्थता पा लेता है-स्थिर बन जाता है।
अढाईसवें सर्ग में प्रासन-जय, ध्यान का अधिकारी, ध्यान के लिए अनुकल स्थान आदि का वर्णन है । ध्यानानुकूल स्थानों का उल्लेख करते हुए प्राचार्य ने लिखा है
"समुद्र के तट पर, वन में, पर्वत के शिखर पर, नदी के किनारे, कमल-वन में, प्राकार में परकोटे में, शालवृक्षों के समूह में, नदियों के संगम पर, द्वीप में, प्रशस्त वृक्ष-कोटर में, पुराने उद्यान में, श्मशानभूमि में, जीवर हित गुफा में, सिद्धकूट तथा कृत्रिम, अकृत्रिम जिनालय में, जहाँ महा ऋद्धि धारक, अत्यन्त धैर्यशील योगी सिद्धि की वांछा करते है, ऐसे मन: प्रीतिकर, उत्तम, शंका और कोलाहल से रहित, सभी ऋतुओं में सुखप्रद, रमणीय, सब प्रकार के विध्नों से रहित स्थान में, सूने घर में, सूने गांव में, भूगर्भ में-तहखाने में, केलों
१. एकः पूजां रचयति नरः पारिजातप्रसूनः
क्रुद्धः कण्ठे क्षिपति भुजगं हन्तुकामस्ततोऽन्यः । तुल्या वत्तिर्भवति च तयोर्यस्य नित्यं स योगी
साम्यारामं विशति परमज्ञानदत्तावकाशम् ।। २. म्लेच्छाधमजनैर्जुष्टं दुष्टभूपालपालितम् ।।
पाषण्डिमण्डलाक्रान्तं महामिथ्यात्ववासितम् ।। ३. विकीर्यते मनः सद्यः स्थानदोषेण देहिनाम् ।
तदेव स्वस्थतां धत्ते स्थानमासाद्य बन्धुरम ।।
--ज्ञानार्णव २४. २७
-ज्ञानार्णव २७.२३
-ज्ञानार्णव २७.२२
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जैन-योग का एक महान ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १४३
के झुरमुट में, नगर के उपवन की वेदी के अन्त में, वेदी के मण्डप पर, चैत्यवृक्ष के नीचे, वर्षा, गर्मी, पाला, प्रचंड वायु प्रादि से वजित स्थान में योगी जन्म-मरण के दुःख को मिटाने का लक्ष्य लिए अनवरत जागरित रहता है-ध्यानस्थ होता है।"
उनतीसवें सर्ग में प्राणायाम का वर्णन है। तीसवें में प्रत्याहार एवं धारणा का वर्णन है। इकत्तीसवें सर्ग में सवीर्य-ध्यान, ध्येयरूप परमात्मा तथा समरस भाव का वर्णन है। बत्तीसवें सर्ग में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, भेदज्ञान, परमात्मप्राप्ति आदि का वर्णन हैं। तेतीसवें सर्ग में धर्मध्यान के आज्ञा-विचय भेद का, चौतीसवें सर्ग मे अपाय-विचय भेद का, पैतीसर्वे सर्ग में विपाक-विचय भेद का, छत्तीसर्वे सर्ग में पिंडस्थ ध्यान का, पांच धारणाओं का, अड़तीसवें सर्ग में पदस्थ ध्यान का, उनतालीसवें सर्ग में रूपस्थ ध्यान का, चालीसवें सर्ग में रूपातीत ध्यान का विवेचन है । इकतालीसवें सर्ग में धर्म-ध्यान के फल आदि का वर्णन है। बयालीसवें सर्ग में शुक्लध्यान का स्वरूप, उसके भेद, मोक्ष तथा सिद्धात्मा की गरिमा का वर्णन है।
ज्ञानार्णव में णित प्रासन, प्राणायाम तथा ध्यान का विशद विवेचन तत्तत् सम्बद्ध प्रकरणों में यथास्थान किया गया है।
१. सागरान्ते बनान्ते वा शैलशुगान्तरेऽथवा ।
पुलिने पद्मखण्डान्ते प्राकारे शालसंकटे ॥ सरितां संगमे द्वीपे प्रशस्ते तरुकोटरे । जीर्णोद्याने श्मशाने वा गुहागर्भ विजन्तुके ।। सिद्धकटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा। मद्धिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवांछिते ।। मन: प्रीतिप्रदेशस्ते शंकाकोलाहलच्युते । सर्वर्तुसुखदे रम्ये सर्वोपद्रवजिते ।। शून्यवेश्मन्यथ ग्रामे भूगर्भे कदलीगहे । पुरोपवन वेद्यन्ते मण्डपे चैत्यपादपे ।। वर्षातपतुषारादिपवनासारवजिते । स्थाने जागत्यं विश्रान्तं यमी जन्मात्तिगान्तये ।। -ज्ञानार्णव २८.२-७
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आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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धर्म-साधना में चेतनाकेन्द्रों का महत्त्व
श्रीचन्द सुराना 'सरस
अर्चनार्चन
गणधर गौतम ने केशीस्वामी के एक प्रश्न के उत्तर में बताया
सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ -(उत्तरा० २३१७३) इस शरीर (मानव शरीर) को नाव कहा गया है और जीव (आत्मा) नाविक (नाव को चलाने वाला) है। संसार को सागर कहा गया है। महर्षि (साधक) इस (संसार-सागर) को पार कर जाते हैं।
केशीस्वामी और गौतम गणधर दोनों ही ज्ञानी थे, चार ज्ञान (मति, श्रन, अवधि, मनःपर्यव) के धारी थे। शरीर का तिरस्कार
अपनी पारस्परिक ज्ञान-चर्चा में उन्होंने जो गूढ़ रहस्य की बात कही, उस तक सामान्यतया हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकी। हमने जीव का महत्त्व तो स्वीकार किया, साधना का महत्त्व भी हमने माना, किन्तु मोक्ष-साधना के साधन शरीर को हमने तिरस्कृत सा-कर दिया। नाविक का महत्त्व स्वीकार करके हम इतनी गहराई में उतरते चले गये कि नाव (शरीर) हमारी दृष्टि में महत्त्वहीन हो गई।
नाव का महत्त्व हमने इतना ही समझा कि छिद्रवाली (प्रस्सावणी) न हो; किन्तु जिस काठ से वह निर्मित हुई है, उसकी अान्तरिक मजबूती, दृढ़ता तथा संरचना आदि को जानने, समझने की जरूरत ही न समझी। नाविक के महत्त्व के सामने नाव उपेक्षित हो गई। साधना की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण अंग की उपेक्षा थी।
इसी प्रकार साधना के साधन इस शरीर में अन्दर क्या हो रहा है ? इसकी आन्तरिक स्थिति कैसी है, इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया। ध्यान देने की बात तो बहुत दूर रही, हमने तो
नव मलद्वार बहें निशि वासर चर्म लपेटी सोहै।
भीतर देखत या सम जग में और अपावन को है ॥ कहकर, शरीर को अपावन मानकर इसे घृणित समझ लिया। यह भूल गये कि मोक्षसाधना में इस शरीर का कितना महत्त्व है। शरीर के सहयोग के अभाव में साधक अपनी साधना में एक कदम भी नहीं बढ़ सकता। सही शब्दों में, वह साधना कर ही नहीं सकता। हमने 'मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहउस्स धारणा'-इस वाक्य की गंभीरता को नहीं समझा।
शास्त्रों में शुक्लध्यान के लिए, मोक्ष-साधना के लिए अत्यन्त दृढ शरीर की आवश्यकता
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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्व / १४५
बताई है, वज्र ऋपमनाराव संहनन को अनिवार्य माना है । हमने उसे पढ़ा, देखा, जाना और यह मानकर चुप हो गये कि इस पंचम ( कलि ) काल में मोक्ष की प्राप्ति तो हो नहीं मकती । फिर क्यों इस पचड़े में पड़ा जाय ?
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इस विचारधारा का परिणाम यह निकला कि शरीर और भी उपेक्षित हो गया । काया कारमी बन गई । माटी की काया में हमें कहीं कोई दीपक नहीं दिखाई दिया ।
साधना में ज्योति क्यों नहीं ?
साधक अत्यन्त उत्कट भावना से साधना करता है, जप करता है, ध्यान करता है, तप करता है; किन्तु यह देखकर चकित रह जाता है कि इतने दिनों तक, वर्षों तक ध्यान करने पर भी उसकी साधना में चमक नहीं घाई, तेजस्विता नहीं आई साधना फलवती नहीं हो रही है।
और जब यह प्राचीन पुराणों में शास्त्रों में मन्त्र जाप की ध्यान की महिमा पढ़ता है तब तो उसका हृदय और भी निराशा से ग्रस्त हो जाता है ।
यह स्थिति क्यों प्राती है? साधना तेजस्वी क्यों नहीं बनती ? साधना विधि में क्या कहीं कोई भूल रह जाती है ? इसे एक दृष्टान्त से समझें ।
आपने ट्यूबलाइट का उपयोग तो किया ही है । आपके कमरे में लगी भी है । ऐसा भी होता है कि ट्यूब पूरी रोशनी नहीं देता, उसमें विद्युत की क्षीण-सी धारा तो बहती दिखाई देती है; किन्तु जो श्रोर जितना प्रकाश उसे देना चाहिए, उतना नहीं दे रही है ।
आपने दूसरी ट्यूब को देखा, उसका प्रकाश पूरा है। प्राप विचार में पड़ गये पावरहाउस से फुल लोड आ रहा है, ट्यूब, चोक, पट्टी, होल्डर बात हो गई ?
ग्रादि सब कुछ नया है, फिर क्या
मैकेनिक बुलाया आपने, या स्वयं अपने हाथ से ट्यूब को थोड़ा घुमाया, फिराया, एकदम खट की हल्की-सी ध्वनि आपके कानों में आईं और प्रकाश से आँखें चुंधियाँ गईं, ट्यूब प्रकाशित हो उठी, पूरा कमरा प्रकाश से भर गया, रोशनी से जगमगा उठा ।
अब क्या हुआ ? प्रकाश एकदम कैसे हो गया ?
पहले की क्षीण-सी प्रकाश की धारा
एक दम कैसे तेज प्रकाश में परिवर्तित हो गई।
बात यह थी कि ट्यूब के दोनों सिरों पर पीतल की धातु के जो दो पॉइन्ट होते हैं, उनका हल्का सा स्पर्श होल्डर के टर्मिनलों से हो रहा था, बहुत ही मामूली टच (स्पर्श) के कारण क्षोण-सी विद्युतधारा ट्यूब में प्रवाहित हो रही थी; जैसे ही आपने ट्यूब को घुमाया तो टर्मिनलों का परस्पर गहरा सम्बन्ध बना और ट्यूब में पूरा विद्युत प्रवाह बह उठा ।
ट्यूब लाइट में जो महत्त्व धातु के पॉइन्टों का है, साधना में वही महत्त्व शरीर-स्थित चेतना केन्द्रों का है । जिस प्रकार ट्यूब के पॉइन्ट और होल्डर के टर्मिनलों का मध्य मात्र हल्का सा स्पर्श रहा, विद्युत प्रवाह बहुत मन्द रहा, उसी प्रकार जब तक साधक में आत्मचेतना धारा, प्राप्त ऊर्जा शरीर स्थित चेतना केन्द्रों में सामान्य रूप से प्रवाहित होती रहेगी तब तक उसकी साधना भी मन्द रहेगी और ज्यों ही चेतना केन्द्रों तथा म्रात्म-धारा का
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तव हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / १४६
प्रगाढ सम्बन्ध बना कि साधना एक दम तेजस्वी बन जायेगी।
शरीर में ऐसे चैतन्य-केन्द्र अनेक हैं, किन्तु सामान्यतया इनकी संख्या ७ अथवा ९ मानी गई है। शरीर : शक्ति का तिलिस्म
अर्चनार्चन
हमारा यह शरीर एक बहुत बड़ा तिलिस्म है। इसमें ऐसे-ऐसे रहस्य भरे पड़े हैं कि उसकी सूक्ष्म-सी जानकारी भी हमें चकित कर देती है।
शरीरशास्त्र की दृष्टि से हमारे शरीर में ६ नील (६,००,००,००,००,०००) कोशिकाएँ हैं। यदि इनको लम्बाई में फैला दिया जाय तो संपूर्ण धरती को ७ बार लपेट लेगी।
इसी प्रकार मानव मस्तिष्क में भी असंख्य ज्ञान और कर्म तंतु हैं। उनकी सहायता से वह सदैव गतिशील रहता है और शरीर की सुव्यवस्था करता है तथा अनुशासन बनाए रखता है।
ऊर्जा की दृष्टि से देखा जाय तो शरीर में निहित ऊर्जा का अनुमान लगाना भी असंभवप्राय है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने बताया है कि एक पुद्गल परमाणु से ३,४५,९६० कैलोरी (ऊर्जा) शक्ति का उत्पादन किया जा सकता है।
यद्यपि आइंस्टीन का यह अनुमान अन्तिम नहीं है। फिर भी यदि इसे सही मान लिया . जाय तो कल्पना करिए, अनन्त पूदगल परमाणों से निर्मित हमारे शरीर में कितनी ऊर्जा निहित है।
किन्तु यह ऊर्जा हमारे जानने में नहीं आती, हम इसका उपयोग भी नहीं कर पाते, बहुत ही छोटे अंश का उपयोग करते हैं।
___ इस सूक्ष्म अंश का भी संचार जब शरीर स्थित चेतना केन्द्रों से प्राणधारा द्वारा किया जाता है तो साधना की ज्योति चमकने लगती है, साधक तेजस्वी बन जाता है।
इसी दृष्टि से वेदों में मानव-शरीर को ज्योतिषां-ज्योतिः कहा गया है। मर्मस्थान और चेतनाकेन्द्र
आइये, अब हम देखें कि शरीर में वे स्थान कौन-से हैं जहाँ से ज्योति प्रगट हो सकती है, होती है।
वे स्थान हैं-(१) मर्मस्थान प्रौर (२) चेतना-केन्द्र ।
इनमें से मर्मस्थानों की जानकारी तो अधिकांश लोगों को है। इनके प्राधार पर चीन में एक्यूपंचर प्रणाली विकसित की गई है। जो शूल (aches), दर्द (Pain) आदि में बहुत उपयोगी है और कई असाध्य रोगों का भी उपचार किया जाता है।
इस पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि टेबलेट, इंजेक्शन, कैप्सूल आदि लेने का न कोई झंझट और न आपरेशन का भय । सारा इलाज कुछ सुइयों (needles) के द्वारा किया जाता है । औषधोपचार और रोग-शमन की दृष्टि से शरीर में ७०० मर्मस्थानों का पता लगाया गया है। यह एक प्रकार के स्विच बोर्ड माने जा सकते हैं। जिन्हें दबाने से विद्यत तरंगें प्रवाहित हो उठती हैं।
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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्त्व | १४७
शरीर-लक्षण बनाम मर्मस्थान
भारतीय सामुद्रिक शास्त्र भी इन मर्मस्थानों से अपरिचित नहीं था, वहां इन्हें लक्षण कहा गया है और इनकी रचना के अनुसार इन्हें मीन, श्रीवत्स, स्वस्तिक प्रादि नामों से पुकारा गया है।
हम तीर्थंकर भगवान के शरीर को १००८ शुभ लक्षणों से युक्त मानते हैं। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख काल्पनिक नहीं, अपितु सत्य है । भगवान के शरीर में १००८ शुभ लक्षण होते हैं और ये लक्षण शरीर के मर्मस्थानों (विद्युत केन्द्रों) से संपृक्त होते हैं । इनमें प्राणधारा अधिक सघन होती है, इसमें सन्देह की कोई गुंजायश ही नहीं है।
संस्कृत में एक सूक्ति प्रायः मिलती है--कोई पुरुष शुभ लक्षणी होता है, कोई प्रशुभ लक्षणी (कुलक्षणी) होता है, किसी में शुभाशुभ दोनों प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं, किन्तु अलक्षणी पुरुष कोई नहीं होता। यानी शुभ या अशुभ लक्षण सभी के शरीर में मिलते हैं । यह उक्ति सत्य है।
सामुद्रिक शास्त्र के समान ज्योतिषशास्त्र भी इन लक्षणों को मान्यता प्रदान करता है और अष्टांग निमित्त का तो एक अंग लक्षणशास्त्र है ही। उस पर से भविष्य के शुभाशुभ फल की वक्तव्यता होती है।
गोशालक ने पापित्यिक श्रमणों से अष्टांग निमित्त विद्या पढ़ी थी, जिसका उपयोग कर वह पूजा, सन्मान प्राप्त करता रहा।
आधुनिक भाषा और युग के सन्दर्भ में यह लक्षण ही मर्मस्थान कहे जाते हैं, जो मानवशरीर के विविध अंगोपांगों में अवस्थित होते हैं।
और मर्मस्थानों के विपरीत चेतना-केन्द्र केवल योगियों तक ही सीमित रहे, सिर्फ योगग्रन्थों में ही इनका उल्लेख मिलता है। चेतना केन्द्रों को योग की भाषा में 'चक्र' वा 'कमल' कहा जाता है। मर्मस्थान और चक्र की शरीर में अवस्थिति
___ जहां ज्ञानतन्तु अधिक एकत्रित होते हैं, सघन होते हैं, कुछ विभिन्न प्रकार की प्राकृतियों का रूप लेते हैं, वे मर्मस्थान हैं। यह मर्मस्थान मानव के सिर से लेकर पैर के तलवे तक विविध अंगोपांगों में अवस्थित रहते हैं, वहाँ विभिन्न प्रकार की प्राकृतियां निर्मित होती हैं।
____ इसके विपरीत जिन स्थानों पर ज्ञान-तंतु उलझे होते हैं, वे उलझे हुए ज्ञान-तंतु 'चक्र' कहलाते हैं। यह उलझन कमल-पुष्प के आकार से मिलती-जुलती होती है, लगभग ऐसी ही जैसे कोई सर्प कुण्डली मार कर बैठा हो, और जिसकी कुण्डली कहीं शिथिल हो और कहीं कसी हुई, ऊपर-नीचे उलझी सी, जिसका प्रारम्भ और अन्त—यानी फण और पूंछ स्पष्ट दृष्टिगोचर न हो रहे हों; एक शब्द में गोरखधन्धा-सा। . आधुनिक वैज्ञानिकों ने इन 'चक्रस्थानों को खोजने का प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सके । उनकी असफलता का कारण रहा भ्रम । वे इस भ्रम में रहे कि चक्र इस पौद्गलिक शरीर (प्रौदारिक शरीर) में अवस्थित हैं। वहीं उनसे वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / १४८
| अर्चनार्चन
जबकि सचाई यह है कि चक्र अवस्थित तो होते हैं तेजस् शरीर (Electric Body) में और उनकी अभिव्यक्ति होती है, इस प्रौदारिक शरीर में ।
भौतिक शरीर में जो ज्ञान तंतुनों की उलझी हुई संघटना होती है, वह तो केवल 'निवत्ति अर्थात निष्पत्ति' है।
यहाँ मुझे प्रभास चित्रकार का दृष्टान्त ध्यान में आता है। इस स्थिति को समझने में उपयोगी है वह दृष्टान्त ।
साकेत नगरी के राजा महाबल ने अपनी चित्रशाला को चित्रों से सुसज्जित करने के लिए दो चित्रकार नियुक्त किये-एक विमल और दूसरा प्रभास । दोनों को आमने-सामने की दो दीवारें दे दी गई हैं और बीच में परदा डाल दिया गया, जिससे कोई एक दूसरे की नकल न कर सके।
इनमें विमल तो था चित्रकार और प्रभास था विचित्रकार । विचित्रकार इस दृष्टि से कि उसने कोई चित्र ही नहीं बनाया, सिर्फ दिवालों की घुटाई करके उन्हें दर्पण की तरह चमकीला बना दिया। आधुनिक भाषा में कहा जाय तो ऐसी चमकीली पालिश कर दी जिसमें सामने का चित्र हूबहू प्रतिविम्बित हो सके।
विमल ने अपनी कला का प्रदर्शन किया, नयनाभिराम चित्र बनाये । जैसे ही परदा हटाया गया तो वे चित्र चमकीली दीवारों में प्रतिबिम्बित हो उठे। पालिश की चमक के कारण सौ गुनी चमक से जगमगाने लगे।
अब राजा महाबल उस दीवार पर हाथ फिरा-फिराकर देख रहा है, पाखें गड़ा रहा है, निरीक्षण परीक्षण कर रहा है, किन्तु क्या उसे वे चित्र वहाँ मिल सकते हैं ? वहाँ हों तो मिलें ? वे चित्र वहाँ तो हैं ही नहीं। वे तो सामने की दीवार पर बने हुए हैं।
बस, यही स्थिति, भौतिक आधार पर और भौतिक शरीर में चक्रस्थानों को खोजने वाले वैज्ञानिकों की है। वे भी चक्रों को केवल अभिव्यक्ति के स्थल में ढंढ रहे हैं, तब उन्हें वांछित परिणाम कैसे प्राप्त हो सकते हैं।
यदि इसे एक सामान्य दृष्टान्त से समझना हो तो इस प्रकार भी समझा जा सकता है
मान लीजिए, एक अमरूद का वृक्ष किसो गहरे सरोवर के किनारे खड़ा है। उस पर सुन्दर और पके फल लगे हैं। उनकी परछाई जल में गिर रही है। ऐसा मालम होता है, जैसे सरोवर के अन्दर अमरूद के फल हैं।
अब यदि कोई शुक' उन फलों को खाने के लिए लालायित हो, सरोवर के पानी में चोंच मारे तो क्या वह फलों का स्वाद ले सकता है ? कभी नहीं। क्योंकि फल तो वहाँ हैं ही नहीं, परछाई मात्र है।
बस यही स्थिति चक्रों की है। वे भी तैजस शरीर में हैं, सिर्फ उनकी अभिव्यक्ति ही भौतिक शरीर में हो रही है। योग, जूडो और शरीर-शास्त्र
चक्रों की अवस्थिति के सम्बन्ध में इन तीन विचारधाराओं को समझ लेना भी आवश्यक
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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्व / १४९
है। योग, भारतीय साधकों की साधना प्रणाली है, जबकि जूडो का प्रारम्भ बौद्धसाधुओं द्वारा चीन देश में किया गया और शरीर शास्त्र प्राधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा प्रचारित है, इसका अंग्रेजी नाम है anatomy 1
योगशास्त्र में इन चक्रों का नाम दिया गया है कमल, यथा-नाभि कमल आदि; जबकि जुडो (Judo) में इन्हें क्यूसोस कहा गया और धाधुनिक शरीर शास्त्रियों ने इनका नाम दिया हैलैक्ट्स (Glands) । वह भी धन्तःस्रावी ग्रन्थि ।
अन्तःस्रावी ग्रन्थि वे ग्रन्थियाँ हैं, जिनका स्राव शरीर से बाहर नहीं निकलता प्रपितु शरीर के अन्दर ही रक्त आदि में मिश्रित हो जाता है । इसे हारमोन (Harmone) कहा जाता है ।
हारमोनों की सबसे बड़ी विशेषता है— मानव के आवेग संवेगों का नियमन एवं संतुलन । हारमोनों में असंतुलन हुआ नहीं कि व्यक्ति की प्रवृत्तियां बदली नहीं थायरायड ग्रन्थि से अधिक स्राव स्रवित हुधा और व्यक्ति क्रोध में भर गया कम स्राव हुआ तो क्रोध शान्त हो गया, व्यक्ति उपशान्त हो गया । श्रध्यात्मशास्त्र की भाषा में यों भी कहा जा सकता है कि क्रोध आने पर थायरायड ग्रन्थि से अधिक स्राव होने लगा ।
यह कथन की अपनी-अपनी शैली है, अन्तर कुछ भी नहीं । एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । यह एक सुखद आश्चर्यजनक सत्य है कि चक्रों (अथवा कमल ) के शरीर में जो स्थान और प्राकार योगाचार्यों ने निर्धारित किये हैं, वे ही स्थान जूडो और धाधुनिक शरीरविज्ञानियों ने स्वीकार किये हैं, तनिक भी अन्तर नहीं है । यह तथ्य निम्न तालिका से स्पष्ट हो जाएगा-
क्रम
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
चक्र का नाम
मूलाधार चक्र (ऊर्जाकेन्द) स्वाधिष्ठान ( स्वास्थ्यकेन्द्र)
मणिपुर चक्र (शक्तिकेन्द्र )
अनाहत चक्र ( तेजस केन्द्र )
विशुद्धि चक्र (धानन्दकेन्द्र)
प्राज्ञा चक्र ( दर्शनकेन्द्र)
सहस्रार चक्र (ज्ञानकेन्द्र)
जूडो क्यूसोस
सुरगिने माइग्रोजो
सुइगेट्स
क्योटोट्सु
हिन्
ऊती
टेण्डो
ग्लैण्ड्स
पेविल्क फ्लेक्सस एड्रीनल ग्लैण्ड
सोलार फ्लेक्सस
स्थान
सुषुम्ना का निचला सिरा मूलाधार से चार अंगुल ऊपर
नाभि
थाइमस ग्लैण्ड
थायरायड ग्लैण्ड
पिट्यूटरी ग्लैण्ड
मध्य
पिनियल ग्लैण्डकपाल स्थित ब्रह्म रन्ध्र
यह सात चक्र (ग्लैण्ड Gland जूडो क्यूसोस अथवा कमल ) तो सर्वमान्य हैं ही; किन्तु साधना के लिए दो अन्य चक्रों का जानना भी आवश्यक है। वे हैं— मनःचक्र और सोमचक्र ।
हृदय
कण्ठ
मनःचक्र का स्थान है ललाट और सोमचक्र का स्थान है अग्र मस्तिष्क -मस्तिष्क का वह भाग जहाँ से सम्पूर्ण किया-तन्तुओं ( motory activities) का नियमन तथा निर्देश होता है।
मनःचक्र अथवा ललाट प्राणी की कामना - वासना ( sensitivity actions ) सम्बन्धी
आसनस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनार्चन
श्रावेगों संवेगों का नियामक तथा निर्देशक है ।
जिस स्थान को योगाचार्यों ने ब्रह्मरंध्र कहा है, वह प्राधुनिक शरीरशास्त्र के लघु मस्तिष्क से संदर्भित किया जा सकता है। भारतीय योगियों के अनुसार यही वह चक्र है, जिसके पूर्ण जाग्रत होने पर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है । श्रतः इसे सर्वसिद्धि प्रथवा सर्वज्ञता केन्द्र भी किन्हीं किन्हीं प्राचार्यों ने कहा है
इस प्रकार चक्रस्थानों अथवा चेतनाकेन्द्रों की अवस्थिति आदि के बारे में सभी एकमत हैं ।
पंचम खण्ड / १२०
अब हमें यह देखना है कि इन चेतना केन्द्रों का भ्रात्मसाधना में सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्र तप की साधना में कितना महत्व है? यह कितने उपयोगी हो सकते हैं? साधक किस प्रकार इनका उपयोग करता है ?
चेतना केन्द्रों की साधना, राधा-वेध से भी
'दुष्कर
साधना के क्षेत्र में चरणन्यास करने से पहले चेतना केन्द्रों की प्रकृति को समझ लेना श्रावश्यक है । इन केन्द्रों को जगाना राधावेध से भी अधिक दुष्कर, श्रम साध्य और स्थिरतादृढ़ता की अपेक्षा रखता है ।
धनुर्वेद में राधावेध प्रत्यन्त उच्चकोटि की साधना मानी गयी है । यह धनुर्धारी के मन की एकाग्रता तथा अचूक निशाना साधने की क्षमता एवं त्वरित निर्णय तथा उसके क्रियान्वयन की परीक्षा है।
राधावेध में तो परछाई देखकर ऊपर चक्र में घूमती हुई पार्थिव पुतलिका का वेध किया जाता है; किन्तु चेतना केन्द्रों को जगाने की प्रक्रिया में तो चौदारिक शरीर में अवस्थित चक्र की तैजस शरीर में पड़ती हुई परछाई (सही शब्दों में ज्ञान (धात्मा) की धारा का सपन चक्राकार प्रवाह ) को वेधा जाता है ।
राधावेध में तो तीर भी भौतिक होता है धौर उसे भौतिक धनुष पर चढाकर ही लक्ष्यवेध किया जाता है; जबकि चेतनाकेन्द्र जागृति में बाण का काम करती है ऊर्जा प्रवा शक्ति और धनुष है स्वयं साधक का भावावेग । भावना रूपी प्रत्यंचा पर प्राणधारा रूपी ऊर्जा का बाण चढ़ाकर चेतनाकेन्द्रों को प्रसुप्ति से जागृत दशा में लाया जाता है।
यह साधन कुछ दुष्कर अवश्य हैं, और दुष्कर हैं सिर्फ उन्हीं साधकों के लिए जिनके अन्तस् 新 बाह्य जगत् की नामना-कामना उपस्थित रहती है, किन्तु जो साधक सच्चे हृदय से श्रात्म-साधना करना चाहता है, उसके लिए यह दुष्कर नहीं है ।
साधना के लिए अन्तरंग की निस्पृहता और मन की एकाग्रता तथा काय (घासन ) की स्थिरता एवं वचन योग की अचपलता तो श्रावश्यक है ही ।
चेतना केन्द्रों के स्वरूप, अवस्थिति, लक्षण श्रादि के बारे में जानने के बाद अब हम यह जानने का प्रयास करें कि साधक की साधना में यह चेतना केन्द्र कितने सहायक बनते हैं, इनके जागृत होने पर साधना में किस प्रकार चमक आती है, उसकी चेतनाधारा ( प्राणशक्ति की ऊर्जा) का किस प्रकार ऊर्ध्वारोहण होता है और वह कैसे धनुत्तर ज्ञान दर्शन के प्रकाश से
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धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व | १५१
जगमगा उठती है। सम्यग्दर्शन
जैनधर्म के अनुसार मोक्ष-साधना की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है। यहीं से प्रात्मा कर्मविशुद्धि करती हुई सर्व-विशुद्धि की ओर बढ़ती है और क्रमश: अपना चरम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त कर लेती है।
सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए कर्मग्रन्थों में बताया गया है कि अनादि काल से प्रात्मा के साथ लगी हुई मिथ्यात्व प्रकृति (सम्यक्त्व एवं मिश्र) तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ-इन पांच (अथवा सात) प्रकृतियों (जिन्हें दर्शन-सप्तक कहा गया है ) के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाने पर जीव' को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
भाष्य साहित्य में सम्यक्त्व प्राप्ति के सम्बन्ध में एक रूपक मिलता है।
तीन व्यक्ति व्यापारार्थ दूसरे देश को चले । रास्ते में एक वन पड़ता था। जब वे वन में होकर जा रहे थे तो कुछ लुटेरे मिले । एक व्यक्ति तो लुटेरों को दूर से ही देखकर सिर पर पांव रखकर पीछे की ओर भाग निकला, दूसरे ने संघर्ष किया किन्तु पराजित होकर उनके फन्दे में फंस गया। तीसरा दृढ मनोबल वाला था, उसने उन लुटेरों से संघर्ष किया और पराजित करके अपने गन्तव्य स्थल पर पहुंचा।
__ शास्त्रकारों ने इस दृष्टान्त में क्रोध आदि कषाय, मिथ्यात्व रूप व्यामोह, प्रमाद आदि का लुटेरा कहा है और उन्हें पराजित करने वाले जीव को सम्यक्त्व लाभ बताया है।
यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ग्रन्थकारों ने एक शब्द दिया है-मिथ्यात्व की ग्रन्थि । सम्यक्त्व-प्राप्ति के लिए साधक इस मिथ्यात्व-ग्रन्थि का भेदन करता है, तोड़ता है, खोलता है और मिथ्यात्व-प्रन्थि के टूटते ही उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है।
अब देखना यह है कि कर्मशास्त्रों में बताई गई यह मिथ्यात्व-ग्रन्थि आत्मा में कहां है, अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टि से इसका स्वरूप क्या है, साधक किन परिणामों से और किस प्रकार इस ग्रन्थि को तोड़ता है, उस समय चेतना-केन्द्र किस प्रकार उपयोगी बनते हैं तथा मिथ्यात्व-ग्रन्थि टूटने और सम्यक्त्व प्राप्ति होने के उपरान्त साधक की प्रान्तरिक एवं बाह्य प्रवृत्तियों में क्या परिवर्तन होता है ?
पहले प्राध्यात्मिक दृष्टि से मिथ्यात्व-ग्रन्थि का स्वरूप समझे ।
सम्यक्त्व प्राप्त होने से पूर्व सभी संसारी आत्माओं के साथ अनादि काल से यह मिथ्यात्व-ग्रन्थि लगी रहती है। प्राध्यात्मिक भाषा में प्रात्मा की प्राणधारा अधोमुखी (अथवा बहिर्मुखी) रहती है । वह भवाभिनन्दी तथा पूदगलाभिनन्दी बना रहता है।
योगशास्त्रों में इसे रूपक की भाषा में कहा है कि सुषुम्ना के निचले सिरे पर मूलाधार • चक्र-ऊर्जाकेन्द्र कुण्डलिनी शक्ति अधोमुख हुई सोई रहती है।
अब एक बात और समझे। प्राणों के शरीर में दो केन्द्र हैं-एक है ज्ञान-केन्द्र और दूसरा है काम-केन्द्र । ज्ञान का प्रमुख स्थल है मस्तिष्क और कामकेन्द्र प्रमुख रूप से नाभि के निचले प्रदेश में अवस्थित रहता है, वहीं से अपनी अभिव्यक्ति कराता है। किन्तु इसे
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पंचम खण्ड | १५२
अर्चनार्चन
नियंत्रित करता है मस्तिष्क में अवस्थित Desireant Sexcentre जो Pitatory gland के समीप ही स्थित है ।
यहां काम को सीमित अर्थ में न लें। सिर्फ वासना अथवा स्पर्शेन्द्रिय के भोग तक ही सीमित न करें। इसे व्यापक रूप में लें। जैसे ब्रह्मचर्य का अभिप्राय सभी इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण करना है। उसी प्रकार काम का अर्थ सभी इन्द्रियों और मन को खुली छूट देना है । जैनागमों में काम-भोग शब्द इसी रूप में प्रयुक्त हपा है। जिसे इच्छा-काम, मदन-काम इन दो नामों से अभिव्यक्त किया है।
अब प्रात्मा में मिथ्यात्वकर्मजन्य ग्रन्थि को देखिये। आत्मा में अनेक प्रकार की धाराएं बह रही हैं-कषाय की धारा, अशुभ लेश्यामों की धारा, मिथ्यात्व की धारा प्रादिग्रादि । वहाँ ज्ञान की धारा भी बह रही है किन्तु बहुत ही क्षीण है।
मिथ्यात्व की धारा कृष्णलेश्या और अनन्तानुबन्धी कषायों के योग से अत्यन्त काली एवं भयावह है।
अब साधक अपनी साधना द्वारा इस धारा को तोड़ने का प्रयास करता है। वह भावना योग (शुभ और शुद्ध भावना) के वायु से प्राण ऊर्जा को उद्दीप्त करता है, परिणामस्वरूप मूलाधार चक्र स्थित सोई अथवा मूच्छित दशा में पड़ी कुण्डलिनी शक्ति की चिरनिद्रा टूटती है, उसका मुख जो नीचे की ओर था, वह ऊपर की ओर हो जाता है ।
उसी समय कषाय धारा, अशुभ लेश्या धारा, मिथ्यात्व धारा भी अपना वेग दिखाती हैं और भाष्य साहित्य में वर्णित रूपक की स्थिति घटित हो जाती है।
दृढ़ साधक भावनायोग से अपनी ऊर्जाशक्ति को प्रदीप्त करता ही जाता है। वह भावधारा कुण्डलिनी शक्ति के रूप में ऊपर की ओर उठती हुई स्वाधिष्ठान आदि चक्रों में से गुजरती हुई, उन्हें उद्दीप्त-प्रदीप्त-जागृत करती हुई, सहस्रारचक्र तक पहुंच जाती है । उस समय उसे अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होता है, अनुभव होता है और तब जो उसे अनिर्वचनीय आनन्द आता है, उस अनुभूति का नाम ही सम्यक्त्व है।
जिस प्रात्मा को यह अनुभव एक बार भी हो गया, चैतन्य-धारा का स्वाद पा गया, जैनशास्त्रों के अनुसार उसने मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी पर पैर रख दिया, उसका मोक्ष निश्चित हो गया।
इस स्थिति को ही कर्मशास्त्रों में मिथ्यात्व-ग्रन्थि का छेदन कहा गया है।
अब इस बात पर भी विचार कर लेना उचित है कि सम्यक्त्व के फलस्वरूप मानव के शरीर में क्या परिवर्तन होते हैं, विभिन्न ग्रन्थियों के स्राव (हारमोनो) में किस प्रकार का बदलाव पाता है, जिसके बाह्य व्यावहारिक लक्षण प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य के रूप में प्रकट होते हैं, बाह्य रूप से दिखाई पड़ते हैं।
प्रशम-शास्त्रों में प्रशम का लक्षण इस प्रकार दिया है-रागादी नामनुद्र कः प्रशमः । अर्थात् राग-द्वेष आदि कषायों का उद्रेक न होने देना । दूसरे ब्यावहारिक शब्दों में कषायों को जीतने का प्रयत्न करना । साथ ही कदाग्रह, दुराग्रह आदि दोषों का उपशमन तथा सत्याग्रही
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धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व | १५३
मनोवृत्ति का निर्माण ।
संवेग-इसका लक्षण है-संसाराद् भीरता संवेगः । अर्थात् जन्म-मरण आदि के अनेक दुःखों से व्याप्त संसार से भयभीत रहना अथवा संसार से मुक्ति प्राप्त होने की भावना चित्त में सतत रहना।
निर्वेद-इसका शास्त्रोक्त लक्षण है-संसारशरीरमोगेषपरतिः । यानी शरीर (उपलक्षण से समस्त इन्द्रिय) और सांसारिक भोगों के प्रति अनासक्ति की भावना निर्मित होना ।
अनुकम्पा- समस्त प्राण, भूत, सत्व और जीवों को अभय देने की भावना रखना तथा कष्ट एवं प्रभाव से पीड़ित प्राणियों के प्रति दयाभाव रखना । दूसरे शब्दों में हृदय से कर भावना निकल जाना।
आस्तिक्य-वीतराग तीर्थंकर भगवान ने जैसा तत्त्वों का, द्रव्यों का, लोक-प्रलोक आदि का स्वरूप बताया, इस पर संदेहर हित दृढ़ विश्वास रखना, किंचित् भी शंका को स्थान न देना ।
अब जरा चक्रों के जागृत होने के परिणामों पर विचार करिए । स्वाधिष्ठानचक्र जागत होते ही कामना, वासना और कषायों में मन्दता आने लगती है। विशुद्धिचक्र आवेग-संवेदों को नियंत्रित करता है। परिणामस्वरूप प्रशम और संवेग व्यवहार में परिलक्षित होने लगते हैं।
निर्वेद का कारण हृदयचक्र बनता है और आज्ञाचक्र आस्तिक्य का प्रमुख हेतु है। क्योंकि भगवान द्वारा कथित सूक्ष्म तत्त्वों का विशिष्ट ज्ञान हुए बिना दढ़ प्रतीति होना बहुत कठिन है । शब्दों से भले ही वह कहता रहे कि मुझे जिन-वचनों पर पूरा विश्वास है, किन्तु व्यवहार में, बोलबाल में वह कुछ और ही कहता है, बोलता है।
बहुत साधारण बहुप्रचलित वाक्य हैभगवान की कृपा है। म्हारो तो भगवान रूठ गयो लागे छ। भगवान तेरा कल्याण करें। जैसी भगवान की इच्छा । As God's will. God bless you.
साधारण मानव ही नहीं, आगम अभ्यासी भी ऐसे शब्द बोल जाते हैं, यह सामान्य प्रवत्ति है। किन्तु जिस साधक का प्राज्ञाचक्र जागत हो चुका है, आस्तिक्य गुण दृढ़ हो चुका है, उसके मुख से ऐसे शब्द निकल ही नहीं सकते । उसका एक-एक शब्द प्रात्मा-पास्तिक्य की तुला पर तोला हुअा निकलेगा ।
इसी प्रकार उसकी प्रत्येक प्रवत्ति में प्रशम प्रादि गुण प्रत्यक्ष और सतत परिलक्षित होंगे, कटु वचन भी उसे उद्वेलित नहीं कर सकेंगे।
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पंचम खण्ड / १५४
FACHAR
अर्चनार्चन
रत्नचन्द्र जी महाराज के जीवन की एक घटना है।
एक ब्राह्मण ने महाराजश्री को देखकर कहा-इन जनसाधुनों (ढूंढ़ियों) का मुंह देखना भी पाप है, जो देखे, वह नरक जाता है।
महाराजश्री ने मंदमुस्कान से पूछा-'पौर प्रापका मुंह देखने वाला ?' 'सीधा स्वर्ग जाता है' गर्वित ब्राह्मण का उत्तर था।'
महाराजश्री ने हंसकर कहा-आपके कथन के अनुसार ही हम तो स्वर्ग जायेंगे ही और आपकी आप जाने ।
घटना बहुत मामूली है, किन्तु समझने की बात यह है कि इतनी शांति, बुद्धि का इतना स्फुरण, प्रादि कैसे संभव है ? भौतिक एवं आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह सब हारमोनों के परिवर्तन का प्रभाव है।
जैनसाधना पद्धति के अनुसार यह परिवर्तन भावना योग से होता है। शुभ, शुद्ध आध्यात्मिक भावनाओं के सतत प्रवाह से उनके चक्र अनजाने ही जागृत हो जाते हैं और परिणामस्वरूप वहाँ स्थित ग्रन्थियों (Glands) से प्रस्रवित हारमोन भी तदनुकूल परिवर्तित हो जाते हैं। भेदविज्ञान : शरीर और आत्मा की पृथक्ता
सम्यक्त्व के लिए आधारभूत है-भेद विज्ञान । जब तक मानव आत्मा और शरीर को पृथक-पृथक अनुभव नहीं करता तब तक वह सम्यक्त्वी नहीं बन पाता । साधु और शास्त्र सभी एक स्वर से कहते हैं-एगं अप्पाणं संपेहि-एक आत्मा को देखो, सरीरं अन्न-पात्मा से शरीर भिन्न है । प्रात्मा को शरीर से पृथक् समझो।
किन्तु श्रोता मानव के सामने सब से बड़ी कठिनाई यह है कि प्रात्मा को शरीर से पृथक कैसे समझे। इसका आज तक का सारा चिन्तन, सारा क्रियाकलाप देहाश्रित ही तो है।
फिर शरीर अनादिकाल से प्रात्मा के साथ लगा हा है। असंख्यात वर्षों से दोनों एकमेक हो रहे हैं। नीर-क्षीरवत् एकता रही है। इतनी पुरानी अनुभूति को अचानक ही कैसे भुलाया जा सकता है। कैसे समझे कि आत्मा में और शरीर में भेद है । बड़ी मुश्किल है।
अब थोड़ा पीछे लौटिये। इसी निबन्ध में बताया जा चका है कि साधक जब अपनी भावनाधारा को तीव्र वेग से चक्रों में होकर प्रवाहित करता है तो उसे कषायधारा, लेश्याधारा, अज्ञान-मिथ्यात्व-मोहधारा के प्रबल अवरोध का सामना करना पड़ता है ।
। उस समय उसके सामने कार्मण शरीर के रूप में घटाटोप अन्धकार प्राता है। वह अत्यन्त भयंकर है और वहीं मिथ्यात्व की ग्रन्थि पड़ी हुई है।।
साधक की भावना द्वारा उत्प्रेरित प्राणधारा जब इस भयंकर कार्मण शरीर से भयभीत न होकर उसमें से होकर गुजरती है और मिथ्यात्व ग्रन्थि को तोड़ कर प्रात्मसाक्षात्कार होता है, तब स्वयं ही उसके अन्दर शरीर के प्रति अरुचि जागती है, साथ ही शरीर (कार्मण, तेजस, प्रौदारिक) अलग है, यह प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। साथ ही राग-द्वेष आदि विभाव तथा क्रोधादि कषाय की पृथक्ता भी प्रगट हो जाती है।
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धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व | १५५
परिणामस्वरूप वह शरीर को अपनी प्रात्मा से अलग जानने लगता है। उसका दृढ़ विश्वास हो जाता है कि प्रात्मा और शरीर दोनों एक दूसरे से पृथक हैं, भिन्न हैं। दोनों में कोई एकरूपता नहीं अपितु एक दूसरे से विलक्षण हैं। और तभी व्यवहार में यह स्थिति आती है
जे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल ।
___ अन्तर सून्यारो रहे, ज्यू धाय खिलाये बाल ॥ समष्टि साधक की सभी क्रियाएँ ऐसी ही होती हैं। अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुसार वह कर्तव्यपालन की भावना से ही समस्त व्यावहारिक प्रवृत्ति करता है किन्तु अन्तर में तो प्रात्मानुभव की अनुभूति सतत चलती रहती है। आत्मानन्द का अनुभव
जनदर्शन में सिद्धों के प्रमुख पाठ गुणों में (जीव के) 'सुख' अथवा 'पानन्द' एक प्रमुख गुण बताया है। जैन-दर्शन के समान प्रात्मा के 'मानन्द गुण' सभी प्रात्मवादी दर्शनों ने स्वीकार किया है और इसी को प्रात्मानुभूति (Self Realisation) कहा है तथा इसी को प्राप्त करना मुख्य लक्ष्य रखा है।
सम्यक्त्व-प्राप्ति के क्षण में साधक को जिस आत्मानन्द की प्रथम बार अनुभूति होती है, उस आनन्द के समक्ष उसे संसार के सभी सुख फीके लगते हैं; अमृत के सामने नमक जैसे खारे लगते हैं।
उस आनन्द की अनुभूति का शास्त्रों में जो वर्णन किया गया है, वह सब साधक को प्रत्यक्ष अनुभव में आ जाता है।
सम्यक्त्व प्राप्त होते ही प्रात्मा से वह प्रानन्दधारा बहती हुई साधक की अनुभूति में आने लगती है। इसी को आध्यात्मिक ग्रन्थों में निश्चय सम्यक्त्व कहा है और इसी को चरणकरणानुयोग की दृष्टि से स्वरूपाचरणचारित्र माना गया है। इन दोनों का सम्मिलित नाम ही सम्यक्त्व है।
किन्तु इतना निश्चित है कि सम्यक्त्व के साथ स्वरूपाचरणचारित्र अवश्य रहता है। प्रात्मानुभूति के साथ प्रात्मानन्द का अनुभव न हो, यह सम्भव नहीं। यह कैसे सम्भव है कि पाप अग्नि का अनुभव तो करें, किन्तु ताप का न करें। गुणी के साथ गुण का अनुभव अवश्य होगा, जैसे द्राक्षा के साथ ही उसके मधुर रस का।
और यदि कभी विषय, कषाय अथवा किसी अन्य कारणवश आत्मानन्द का अनुभव नहीं होता तो सम्यक्त्व केवल शब्दमात्र में ही रह जाता है। इसकी यथार्थता समाप्त हो जाती है। निसर्गजत्व और अधिगमजत्व
सम्यक्त्वप्राप्ति दो प्रकार से बताई गई है-प्रथम, स्वयं ही बिना किसी बाह्य निमित्त के और दूसरी सद्गुरुपों के उपदेश अथवा सत् शास्त्रों के पठन से । यद्यपि दोनों में ही सम्यग्दर्शनप्रतिबन्धक कर्म-प्रकृतियों का उपशमन, क्षय और क्षयोपशम प्रावश्यक है, किन्तु
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पंचम खण्ड | १५६ निसगंज सम्यक्त्व की प्रक्रिया कुछ स्पष्ट है जबकि अधिगमज सम्यक्त्व प्राप्ति की प्रक्रिया ग्रन्थों में विस्तार से वर्णित है। ___ यहां दो ऐतिहासिक दृष्टान्त उपयोगी रहेंगे।
एक था नाविक कोलम्बस । संसार के इतिहास में बड़ा नाम है उसका, अपने देश फ्रान्स अर्चनार्चन | से चला। बड़ी धूमधाम से इसे फ्रान्स के राजा और जनता ने विदा दी । उसका उद्देश्य
भारतवर्ष को पहुँचाने वाला जल-मार्ग खोजना था। चल दिया अपना लक्ष्य पाने के लिए।
किन्तु जा पहुँचा ऐसे टापू में जहाँ से बाद में उत्तरी अमेरिका का पता लगा। यद्यपि वह मन में यही समझा कि मैं भारतवर्ष पहुँच गया । मैंने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।
दूसरा नाविक था वास्कोडिगामा। वह भी चला भारत को लक्ष्य बनाकर । उसका उद्देश्य भी समुद्री मार्ग से भारत पहुंचना था। पुर्तगाल के राजा ने उसको मार्गव्यय भी बड़ी मुश्किल से दिया।
किन्तु वह भारत के बन्दरगाह पर प्रा पहुँचा। उसने अपना वास्तविक लक्ष्य पा लिया।
क्या कारण रहा इसका ? एक क्यों सफल नहीं हुआ, दूसरा क्यों सफल हो गया। जबकि इतिहास बताता है कि कोलम्बस बहुत ही शांत स्वभावी था, नम्र नीति से काम लेने वाला, साथी नाविकों के साथ उसका बहुत ही मुलायम व्यवहार था।
इसके विपरीत वास्कोडिगामा कठोर अनुशासनप्रिय था। वह स्वयं भी अनुशासन में रहता था और साथी नाविकों को भी अनुशासन में रखता था, विरोध उसे बर्दाश्त नहीं था, प्रकृति (स्वभाव) से वह उग्र था, अपनी ही चलाता था, किसी की नहीं सुनता था।
साधारणतया ऐसा व्यक्ति विफल ही होता है; किन्तु फिर भी वह सफल हुआ। उसकी सफलता का क्या रहस्य था ?
रहस्य था-सही सूचना, पक्का इरादा, दूरदृष्टि, अनुशासन । उसे अरब लोगों से भारत की दिशा के बारे में, अवस्थिति के बारे में सही सूचनाएं मिली थीं। उन लोगों से उसने मार्ग-दर्शन प्राप्त किया था जो स्वयं भारतवर्ष हो पाये थे-स्थल मार्ग से ही सही ।
इसके विपरीत कोलम्बस का आधार उन लोगों से प्राप्त जानकारियां थीं, जो स्वयं कभी भारत गये ही नहीं थे, उन्होंने दूसरे लोगों से सुन ही लिया था और उन्होंने भी किन्हीं अन्य लोगों से सुना था। उसे सिर्फ अनुमानित ज्ञान ही प्राप्त हुआ था, प्रत्यक्षशियों द्वारा बताया गया ज्ञान नहीं था।
इसी तरह जो लोग प्रत्यक्षदर्शियों और साक्षात् प्रात्मानन्द की अनुभूति करने वाले अनुत्तर ज्ञान-दर्शनसम्पन्न महापुरुषों द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं, सम्यक्त्वलाभ कर लेते हैं।
तथा जो अन्य लोगों के बहकावे में आकर प्रयास शुरू कर देते हैं, वे इधर-उधर भटक जाते हैं, कोलम्बस की तरह प्राणान्तक विपत्तियाँ सहते हैं, फिर भी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते । सम्यक्त्व की ज्योति और प्रात्मानन्द की झलक भी उन्हें नहीं मिलती।
सद्गुरुयों द्वारा उपदेश-प्राप्त साधक जो सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह अधिगमज
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. धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व | १५७
सम्यक्त्व कहलाता है।
अब एक और दृष्टान्त लीजिए।
एक व्यक्ति है । वह जहाज में बैठकर जा रहा है । इसका लक्ष्य भारतवर्ष नहीं है, कभी उसने भारत का नाम भी नहीं सुना। अचानक ही समुद्र प्रशांत हो जाता है, ऊंची-ऊंची लहरें उठने लगती हैं, जहाज लहरों पर गेंद की तरह उछलने लगता है, प्राण बचाने के लिए वह रक्षक पेटी (Safety Belt) कमर से बांध लेता है।
वाहन टूट जाता है, वह अथाह समुद्र में गिर जाता है, किन्तु रक्षक पेटी के कारण डूबता नहीं, ऊँची-नीची लहरों के थपेड़े खाता हुआ समुद्र तल पर तैरता रहता है, मन में एक ही भावना है-किसी तरह इस समुद्र से बाहर निकल जाऊं, इस खारे पानी से मुझे मुक्ति मिले । नाक, मुंह, कान, सारे शरीर में नमक भर गया है। बड़ा दुःखी है, किसी तरह त्राण पाना चाहता है।
अचानक ही एक जोरदार लहर आती है और उसे भारत की शस्य श्यामला आर्यभूमि पर फेंक जाती है।
निसर्गज सम्यक्त्व प्राप्ति का यह भौतिक उदाहरण है।
संसार-दुःख से संतप्त मानव जब मुक्ति प्राप्नि की तीव्र भावना करता है तो भी चेतना केन्द्रों में, शरीर के आन्तरिक भागों में वही प्रक्रिया होती है जो अधिगमज सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए गुरुदेव के निर्देशन में समझदार शिष्य करता है।
दोनों ही सम्यक्त्वों में प्रान्तरिक कारण समान हैं---भावना के तीव्र प्रवाह का चेतनाकेन्द्रों में होकर गुजरना और कर्म-ग्रन्थों की भाषा में दर्शन-प्रतिबन्धक कर्म-प्रकृतियों का उपशमन अथवा क्षय होना और परिणाम भी समान हैं, प्रात्मानन्द की-प्रात्मा के स्वभाव की अनुभूति होना।
बस, अन्तर इतना ही है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन में साधक बाह्य तैयारी नहीं करता, जबकि अधिगमज के लिए वह बाह्य प्रयत्न भी करता है। एक दृष्टान्त द्वारा इसे यों समझ सकते हैं
एक नगर है। इसके चारों ओर ऊँची दीवार है। उसमें प्रवेश का एक ही द्वार है। चाहे नेत्र-ज्योति वाला नगर में प्रवेश करना चाहे अथवा प्रज्ञाचक्ष, जाना दोनों को उसी द्वार से होगा।
इसी प्रकार हमारा शरीर एक नगर है । नगर क्या पूरा लोक ही है। हम अभी तक उसके बाहर हो चक्कर लगा रहे हैं । हमारा मन और इन्द्रियां सभी की दौड़ बाहर की ओर ही है।
यदि हमें सम्यक्त्व प्राप्त करना है, शरीर में अवस्थित सच्चिदानन्दघन आत्मा का साक्षात्कार करना है, तो हमें अपने स्थल शरीर में अवस्थित सूक्ष्म लोक की यात्रा करनी ही पड़ेगी, बहिर्मखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाकर चेतना-केन्द्रों के मार्ग से प्रात्म-गवेषणा करनी ही होगी।
यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि सम्यक्त्वप्राप्ति के लक्ष्य वाला साधक ऐसा संकल्प नहीं
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पंचम खण्ड | १५८
करता कि मैं अमुक चक्र को जागृत करूं और न वह जान-बूझकर ऐसी कोई प्रक्रिया ही करता है, किन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति की यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया ठीक रक्तसंचरण की तरह हो जाती है।
शरीर में रक्त संचारण के लिए धाप कोई क्रिया नहीं करते, किन्तु फिर प्रापकी नसों में, शिराओं में, धमनियों में स्वयमेव अनवरत रूप से रक्त दौरा करता रहता है । इसी तरह चाहे सम्यक्त्व निसर्गज हो अथवा अधिगमज, चेतना केन्द्रों की जागृति उसकी सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है, साधार है पोर सम्यक्त्व का इसी प्रकार स्पर्श होता है।
चेतनाकेन्द्रों का काम यहीं समाप्त नहीं हो जाता, अपितु ये सम्यक्त्व को स्थिर रखने में भी सहायक बनते हैं। विशुद्धिकेन्द्र प्रादि जागृत होकर कयायों, आवेगों-संवेगों घादि को नियन्त्रित रखते हैं। परिणामस्वरूप ग्रात्मानुभूति को धानन्दधारा को गतिशील रहने में मदद मिलती है।
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इसी धारा को अध्यात्मशास्त्रों में चेतनाधारा अथवा ज्ञान वेतना के नाम से अभिहित किया गया है। जब तक इस धारा का प्रवाह सतत चलता रहता है, चाहे मंद रूप में ही सही, मानव में सम्यक्त्व की ज्योति जगी रहती है और शनैः शनैः मोक्ष की ओर सर्व दुःखविमुक्ति तथा शाश्वत सुख की ओर बढ़ाती रहती है ।
अब इस सन्दर्भ में सम्यग्ज्ञान पर भी थोड़ा विचार कर लें ।
सम्यग्ज्ञान
शास्त्रों में उल्लेख है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ही ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है। मूढ़ता समाप्त हो जाती है, प्राणी हेय ज्ञेय उपादेय को भलीभांति जानने लगता है ।
सच तो यह है कि ज्ञान, ज्ञान ही है। इसका स्वभाव जानना मात्र है । वह ज्ञायक है । आत्मा का सर्वप्रमुख और अविनाभावी गुण है। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है जो ज्ञान है, वही आत्मा है ।
जे आया से विनाया, जेण वियाण से आया।
ज्ञान में विकार मिथ्यात्व के कारण आता है वह यथार्थ रूप में अपना हिताहित नहीं पहचान पाता । उन्मत्तवत् हो जाता है और जैसे ही मिथ्यात्व का नाश हुआ कि ज्ञान भी निर्मल हुआ। अपने हिताहित को जानने लगा, विवेक जाग उठा ।
यह सम्पूर्ण कथन मति घोर श्रुतज्ञान के सन्दर्भ में है किन्तु तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान आत्मा को किस प्रकार प्राप्त होता है, उसके बारे में कुछ चर्चा आवश्यक है ।
इसका कारण यह है कि अवधिज्ञान से भूत-भविष्य प्रत्यक्ष रूप से जाना जा सकता है, अपना भी तथा श्रौरों का भी ।
और जिज्ञासा मानव की सहज वृत्ति ( Instinct ) है वह भविष्य के पटलों में छिपे अपने तथा अन्य के भावी जीवन को, धाने वाले समय में प्राप्त होने वाले संकटों को, आपदाओं को, लाभालाभ को आज ही जान लेने के लिए उत्सुक रहता है ।
इसीलिए तो ज्योतिषशास्त्र, शकुनशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र आदि का श्राभिर्भाव हुप्रा
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धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व / १५९
किन्तु ये सब अनुमानशास्त्र (Scienecs of Suppositions and Probabilities) ही हैं, निश्चित नहीं हैं। जबकि प्रत्यक्ष होने के कारण अवधिज्ञान निश्चित है । अवधिज्ञान : शास्त्रीय चर्चा
इस विषय में पहले शास्त्रीय चर्चा कर लें कि हमारे प्रागमों का इस संदर्भ में क्या अभिमत है ?
प्रज्ञापना (३३/३३) में अवधि ज्ञान के दो प्रकार बताये गये हैं--(१) देशावधि और (२) सर्वावधि । नंदीसूत्र (१८, गा. २) में परमावधि का उल्लेख प्राप्त होता है। अन्य परम्परा के ग्रंथों में ये तीनों भेद मिलते हैं।
नंदीसूत्र (सूत्र ९, १०) में अवविज्ञान के जो छह भेद बताये गये हैं उनमें प्रथम है प्रानुगामिक और उसके दो उत्तर भेद हैं-(१) अंतगत और (२) मध्यगत । इसके अतिरिक्त यद्यपि वहाँ देशावधि और सर्वावधि शब्द नहीं मिलते किन्तु चणियों में जहाँ विस्तार से विवेचन है, उसके अध्ययन से ऐसा परिलक्षित होता है कि 'अन्तगत' देशावधि है और 'मध्यगत' सर्वावधि ज्ञान को लक्षित करता है।
टीका ग्रन्थों में 'अन्तगत' के तीन भेद बताये हैं-(१) पुरतः अन्तगत, (२) पृष्ठतः अन्तगत, (३) पार्श्वत: अन्तगत ।
प्राचार्य हरिभद्र ने अंतगत और मध्यगत के लक्षण इस प्रकार दिये हैं
(१) मध्यगत अवधिज्ञान वह है जो प्रौदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्द्धकों (ज्ञान अवरोधक कर्म के परमाणु अथवा स्कन्ध) की विशुद्धि से प्रात्मप्रदेशों की विशुद्धि द्वारा सभी दिशाओं को जानता है। दूसरे शब्दों में यह सभी बातों को जानता है । अथवा इस विशुद्धि के परिणाम स्वरूप संपूर्ण स्थूल शरीर को जानने में सक्षम हो जाता है ।
(२) अंतगत अवधिज्ञान इस प्रौदारिक शरीर के किसी एक भाग से साक्षात जानता है।
'पुरतः अन्तगत' से भविष्य जानने की क्षमता आती है, 'पृष्ठतः अन्तगत' से भूत की घटनामों को जाना जाता है और 'पार्श्वत: अन्तगत' पार्श्ववर्ती घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाता है।
अपने नामों के अनुसार जब इस स्थल शरीर में आगे की ओर अवस्थित चक्र या चेतना केन्द्र जागत होते हैं तब 'पुरतः अन्तगत' प्रगट होता है, पार्श्ववर्ती चेतना केन्द्रों के जागत होने पर 'पार्श्वत: अन्तगत' और पृष्ठवर्ती चेतना केन्द्रों की जागृति 'पृष्ठतः अन्तगत' का कारण बनती है।
यहाँ इस सन्दर्भ में हम देशावधि प्रवधिज्ञान की ही चर्चा करेंगे। क्योंकि अभी हम सात चेतनाकेन्द्र ही मान कर चले हैं। यदि विस्तृत दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो हमारे सम्पूर्ण शरीर में चेतनाकेन्द्रों की अवस्थिति है। किन्तु इस निबन्ध की मर्यादा सात केन्द्रों तक ही सीमित रखी गई है। अत: देशावधि की चर्चा तक ही सीमित रहना उचित है।
अब आइये आप चेतनाकेन्द्रों पर । प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में इस विषय पर प्रकाश डाला है और शुभचन्द्र के योगप्रदीप में तो चेतना-केन्द्रों का काफी विस्तृत
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पंचम खण्ड | १६०
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वर्णन है।
यौगिकग्रन्थों में स्पष्ट बताया है कि मन:चक्र जागत होने पर अतीन्द्रिय ज्ञान, प्राज्ञा चक्र से अन्तर्ज्ञान तथा भूत-भविष्य संबंधी ज्ञान तथा सोमचक्र से सर्व प्रकार का प्रत्यक्षीकरण साधक कर लेता है।
यह सर्वजन विदित है कि अतीन्द्रिय ज्ञानी अपनी इच्छानुसार सूक्ष्म, व्यवहित, समीपस्थ और दूरस्थ पदार्थों का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होता है। भूत का और भविष्य का भी इसे प्रत्यक्ष हो जाता है।
एक बात यहाँ ध्यातव्य है कि सूक्ष्म अथवा तैजस शरीर में जितने और जिस प्रकार के स्पन्दन होते हैं, वे स्थूल औदारिक शरीर के आन्तरिक भाग में भी बन जाते हैं, अभिव्यक्ति का माध्यम हो जाते हैं। ये ही शक्ति और अभिव्यंजना के केन्द्र अथवा चेतना केन्द्र हैं। इन्हें आधुनिक विज्ञान की भाषा के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (Electro-Magnetic Field) कहा जा सकता है। यही अतीन्द्रिय ज्ञान के 'करण' (instrument) बनते हैं। इन्हीं के माध्यम से देशावधिज्ञान कार्यकारी होता है।
___ यद्यपि परंपरा में यह प्रसिद्ध है कि जंबूस्वामी के निर्वाण के उपरान्त अवधि ज्ञान भी व्युच्छित हो गया। किन्तु उसका अभिप्राय परमावधि ज्ञान ही माना जाना चाहिए जिसकी परिणति केवल ज्ञान में होती है। देशावधिज्ञान की व्युच्छित्ति मानना उचित नहीं है, क्योंकि आज भी अनेक योगियों और साधु-सन्तों को प्रत्यक्ष ज्ञान होता देखा जाता है, वे भूत-भविष्य की घटनाओं को साक्षात देखने-जानने में सक्षम होते हैं। सम्यक् तप
अब थोड़ा सा सम्यक् तप पर भी विचार कर लें।
आध्यात्मिक यज्ञ (तप) का स्वरूप बताते हुए हरिके शबल मुनि याज्ञिक ब्राह्मणों से कहते हैं
तवो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सूया सरीरं कारिसंगं । कम्मं एहा संजमजोग संती, होमं हुणामि इसिणं पसत्यं ॥
(उत्तरा० १२/४४) यहां 'सरीरं कारिसंगं' शब्द इस निबन्ध की दष्टि से महत्त्वपूर्ण है। हरिकेशबल ने शरीर (औदारिक स्थूल शरीर) को उपमा कारिसंग उपलों (कंडों) से दी है। जितने कंडे पावश्यक अथवा सहकारी होते हैं, उससे भी अधिक आवश्यक है अरणिकाष्ठ ।
आज के युग में जो काम माचिस (दियासलाई) करती है, प्राचीन युग में वही उपयोग अरणिकाष्ठ का था। उसे परस्पर रगड़ कर उसी प्रकार अग्नि उत्पन्न की जाती थी, जिस प्रकार आज दियासलाई को माचिस की डिबिया पर लगे गंधक-फास्फोरस के मिश्रण से रगड़ कर करते हैं।
अब प्रश्न यह है कि क्या संपूर्ण शरीर ही 'कारिसंग' है अथवा शरीर के कुछ विशेष भाग ही। इस प्रश्न के उत्तर के लिए फिर हमें चेतनाकेन्द्रों पर आना पड़ता है।
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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्व / १६१
जैसा कि इस निबन्ध के अध्ययन से स्पष्ट है कि शरीर में अवस्थित प्रमुख सात चेतनाकेन्द्र शक्ति के मुख्य वाहक हैं, उनसे चेतनाधारा अधिक वेग और प्रवाह के साथ बहती है, उनके जागृत होते ही प्रात्मा की ज्योति प्रस्फुटित होने लगती है।
तप ध्यान में अवस्थित योगी जब इन चक्रों पर अपनी चेतनाधारा को पूरे वेग से प्रवाहित करता है तो विशिष्ट श्रात्मज्योति प्रकट होती है । श्राग्नेयी धारणा में नाभिकमल से अग्नि स्फुलिंग उठते अनुभव होते हैं। योग शास्त्रों में यह स्थान प्रचण्ड शक्ति का केन्द्र कहा गया है। मूलाधार चक्र पर जब ध्यान किया जाता है तो शिखर की स्वर्णिम ज्योति का स्पष्ट प्रभास साधक को हो जाता है ।
इसी प्रकार स्वाधिष्ठान चक्र पर विद्युत रेखा, मणिपूर पर बालसूर्य की प्रभा अनाहत पर अग्निशिखा, विशुद्धि पर दीपशिखा, सोम पर सूर्य जैसी चमकीली स्वर्णिम प्रभा तथा सहस्रार पर प्रचण्ड तेज का साक्षात् अनुभव साधक को होता है।
ये सभी चक्र ज्योति को अपने अन्दर समेटे हुए हैं, ध्यान-तप से वह ज्योति प्रकट होती है गाथा में उक्त 'तवो जोई' शब्द से इसी ओर संकेत किया गया है। किन्तु इस संपूर्ण आध्यात्मिक ज्योति का मूल अधिष्ठान जीव स्वयं है, इसी की शक्ति कार्य करती है, इसीलिए इस गाया में 'जीवो जोइठाणं' कहा गया है।
इस निबन्ध में लगभग समस्त परंपरायों, मान्यतानों और योगशास्त्रों द्वारा स्वीकृत सात चेतनाकेन्द्रों को सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप के सन्दर्भ में उपयोजित दिखाने का प्रयत्न किया गया है ।
किन्तु जैन आगमों का गहराई से अध्ययन करने पर विदित होता है कि इस मानवशरीर में धनेकों चेतनाकेन्द्र हैं, अथवा यों भी कह सकते हैं कि सम्पूर्ण शरीर ही चेतनाकेन्द्र है। वैसे जैनदर्शन ने सम्पूर्ण शरीर में धात्मा को व्याप्त माना है। इस दृष्टि से सर्वाधि अवधिज्ञान की भी भौतिक दृष्टि से व्याख्या विवेचना की जा सकती है और इस ज्ञान के - कार्यकारित्व में प्रौदारिक शरीर की उपयोगिता भी बताई जा सकती है।
धन्त में इतना कहना आवश्यक है कि हम काय अस काय योग और काय करण- इन तीनों शब्दों में स्पष्ट अन्तर समझें । आागम में इन तीनों शब्दों से क्या अभिप्रेत है ? इनसे हमें क्या समझना चाहिए ? तीर्थंकर भगवान् ने ये शब्द किस श्राशय से सुनाये और गणधर देवों ने इन्हें किस प्रभिप्राय से हमें प्रदान किया ? इनका गूढार्थ क्या है ? कितने रहस्य जिसे हैं ?
इन और ऐसे ही अनेक प्रश्नों पर आागमश और विद्वज्जन मान्यताओं के सन्दर्भ में मनन करके अपने चिन्तनरूप नवनीत को समाज के समक्ष रखें तो लोगों का बहुत उपकार होगा, वे साधना में शरीर की उपयोगिता समझेंगे।
एक सुझाव है सभी साधकों, विद्वानों और सर्वसाधारणों के लिए - काययोग को 'काय' ही न बनाये रखें, इसे काय करण बनायें। यह मोक्ष की ओर गति करने में सहायक बन जायेगा ।
- १९ नेहरू नगर आगरा - २६२००२,
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अर्चनार्चन
योग: स्वरूप और साधना : एक विवेचन साध्वी मुक्तिप्रभा, एम. ए, पी-एच. डी.
जीवन व्यवहार की अनेक प्रवृत्तियों के बीच रहने वाला साधक अनेक लोगों से संपर्क जोड़ता है और तोड़ता भी है । सम्पर्क -साधना ही हमारी विचारधाराओं को प्रभावित करती है कभी संयोग के रूप में, कभी वियोग के रूप में। जैसे-जैसे विचारों का प्रभाव चित्त पर स्थायी होता है वैसे-वैसे मोह का एक धुंधलासा बादल प्राच्छादित होता है। इस मोह-पटल से परे होने के लिए, सघन विचारधारा के अन्धकार से बचने के लिए कोई उपाय, कोई योजना साधक के जीवन में नितान्त आवश्यक है प्रोर वह है - " स्वरूपानुसंधान रूप योग ।" मनुष्य अपने ही गज से जब अपने आपको नापता है, अपने स्वभाव की तुला से अपने आपको तोलता है और अपने ही कार्यों से जब अपने आपको परखता है तब निश्चय ही वह अज्ञानी अपने आपको ज्ञानी, विवेकी और अनुभवी समझता है ।
पता नहीं वह कौन से कल्पनालोक में घूमता है, कौन से मानसचित्र को अंकित करता है, कितनी गलत धारणाएँ अबाध गति से धारण करता है और अपने आपका ही द्वेषी, वैरी और घातक बनता है । अपनी योग्यता से अधिक अपने श्रापको समझने वालों, अपने दुर्गुणों को भी गुण समझने वालों को यह चुनौती दी जा रही है ।
इस मोह का ह्रास करने के लिए ही यौगिक आराधना का आलम्बन रूप हरी झंडी ज्ञानी भगवन्तों ने बतायी है ।
आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगविंशिका नामक ग्रन्थ में " मुक्खेण जोयणाश्रो जोगो" अर्थात् जिन यौगिक प्राराधनाओं के आलंबन से आत्मा की विशुद्धि और उसका मोक्ष के साथ योग होता है, उन सर्व श्रालंबनों को योग कहा है ।
इसी बात को स्पष्ट करने के लिए आचार्यश्री ने अपने योगदृष्टि - समुच्चय में बताया है कि
एक एव तु मार्गोऽपि तेषां शमपरायणः । अवस्था भेदभेदेऽपि जलधौ तीरमार्गवत् ॥
प्रारम्भावस्था में विविध दर्शनानुयायी अनेक रूप से उपासना करते हैं। किसी भी प्रकार की उपासना हमें विकल्पों से मुक्त बनाती है। स्वात्मा में संलीनता लाती है और मोक्षमार्ग में स्थिर करती है । तो जो योगालंबन उपयुक्त है, साधक उसे स्वीकार करे ।
इन्द्रियविजय एक मार्ग
जैनसाधक इन्द्रियविजय की साधना में प्राथमिक भूमिका में विषय से दूर रहने का अभ्यास करता है । कल्पना कीजिए आज किसी का मन टी. वी. में वीडियो केसेट देखने के लिए लालायित है, पर उस समय संकल्प के द्वारा उस ओर दौड़ती हुई हमारी विकृत श्रांखों पर जो नियंत्रण किया जाता है कि 'ग्राज मैं किसी भी हालत में वीडियो नहीं देखूंगा' और वह साधक मन, वचन प्रादि योगों को बहिर्मुखता से मोड़कर अन्तर्मुखता की ओर ले जाता है ।
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योग : स्वरूप और साधना : एक विवेचन | १६३
'इच्छानिरोधो योगः'-इच्छात्रों का निरोध करना एक बहुत बड़ी साधना है। जैसे किसी साधक को स्वादिष्ट भोजन या ठंडा-ठंडा आइसक्रीम खाने की इच्छा हयी । सामने पड़े हुये पेय या स्वादयुक्त पदार्थों से मन को हटाकर जिह्वा का संवरण करना स्वादविजय है। इसी प्रकार शब्द से कर्ण को, सुगंधित द्रव्यों से नाक को और कोमल स्पर्श से शरीर की इच्छा पर संयम रखना इन्द्रियविजय है। यह एक मार्ग है। कषायविजय एक मार्ग
कषाय अर्थात् कलुषित वृत्तियों का प्रभाव । वह चार प्रकार का होता है-क्रोध, मान, माया और लोभ ।
क्रोधविजय-वैर का जन्म क्रोध से होता है। बहुत दिनों तक टिका क्रोध वैर और द्वेष बन जाता है। मान लो किसी ने प्रापको गाली दी और आपने उसको एक चांटा लगा दिया तो अापने क्रोध किया। किन्तु गाली देनेवाला गाली देकर भाग गया और कई दिनों के बाद आपको मिला। मिलते ही आपने बिना गाली सुने ही मार दिया तो यह वैर है। क्रोध के उदय को रोकना, फलहीन बना देना, आये हए क्रोध को द्रष्टा बनकर देखते रखना इत्यादि क्रोधविजय है।
मानविजय-मान के उदय का निरोध, आये हुए अहं का त्याग, सत्ता, संपत्ति, अधिकार का त्याग इत्यादि मानविजय है।
मायाविजय-सरलता का अभ्यास, ठगवत्ति का त्याग, बताना कुछ और देना कुछ का व्यवसाय बंद करना इत्यादि मायाविजय है।
लोभविजय-लोभ को जीतने का मार्ग है-जो पदार्थ उपलब्ध हैं उन्हीं में संतोष का अनुभव करना, मन की लालसा का निरोध करना, संग्रहवृत्ति का त्याग, यह लोभ विजय है। योगविजय एक मार्ग
योग अर्थात् मन, वचन, काया की प्रवृत्ति ।
मनोजय-मन शुभाशुभ विचारों की विकृति और प्रकृति से भरा हुआ है । मन निरंतर विकल्पों का जाल बुनता है और मकड़ी की तरह उसी में फंसता है। इसलिए मन पर विजय पाने के लिए साधक को अकुशल मन का निरोध, अस्थिर मन का स्थिरीकरण और शुभ मन को भी शुद्धता की ओर ले जाना आवश्यक है।
मन की विकृति शरीर में भी विकृति लाती है। श्वास की गति को भी अधिक या मंद कर देती है, रक्त की गति भी हाई या लो रूप धारण कर लेती है, हृदय को धड़कन भी बदल जाती है । ऐसे विकृत मन की गति को बदलना है। शब्द की गति से भी सूक्ष्म, बिजली, पानी, वायु की गति से भी अधिक गतिमान् यह मन है। बिजली एक सैकिण्ड में एक लाख, छियासी हजार मील जाती है किन्तु मन की गति का कोई मापतोल नहीं, वह तो अमाप है । अतः साधक हो इस अमाप मन की गति को माप सकता है। वह उसकी गति को रोकता नहीं, बदलता है। योगाभ्यास से उसे वश में किया जा सकता है। जैसे मदारी सर्प जैसे प्राणी को भी अपने वश में कर सकता है, मदोन्मत्त हाथी को महावत अंकुशित कर
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पंचम खण्ड | १६४
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सकता है, प्रेम से शत्रु भी मित्र बन जाता है, वैसे ही योगाभ्यास से चंचल मन स्थिर हो जाता है।
वचनजय-वाणी प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की होती है। अप्रशस्त अर्थात् हिंसाकारी, क्रोधकारी, मर्मभेदी, कष्ट पहुँचाने वाली वाणी का साधक परित्याग करे। जिस वचन से किसी की आत्महत्या हो या मारणान्तिक उपसर्ग हो उसका त्याग करके मौन पाराधना करना इत्यादि वचनविजय है।
योगाभ्यास से वाचाल साधक व्यर्थ की बातों का परित्याग कर मौन साधना में संलग्न होता है।
कायजय-कायजय अर्थात कायोत्सर्ग-काया की अप्रशस्त प्रवत्ति का निरोध, कायिक स्थिरता का अभ्यास इत्यादि कायजय है।
आवश्यक सूत्र का पाठ है ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि अर्थात् (काया से) एक प्रासन पर स्थिर होकर (वचन से) मौनपूर्वक ध्यानस्थ होकर मैं अपनी काया का परित्याग करता हूँ अर्थात्-शरीर से पर होकर आत्मा में लीन होता हूँ। साधक व्यर्थ का समय न खोते हए जब भी समय मिले कायोत्सर्ग में स्थित रहे। आहारविजय एक मार्ग
आहार हितकर, परिमित और शुद्ध होना आवश्यक है। अति प्राहार से मनुष्य दुखी होता है। रूप, बल और शरीर क्षीण होते हैं। प्रमाद, निद्रा और आलस्य बढ़ जाते हैं। अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। अतः आहार पर विजय करने पर ही साधक अपनी साधना में स्थिर रह सकता है। निद्राविजय एक मार्ग
साधना के क्षेत्र में निद्रा बाधक तत्त्व है। अति निद्रा से समय का व्यय होता है, बेचैनी बढती है और आयु घटती है। प्राहारविजय से ही निद्राविजय का होना संभव है। प्रतः साधक निद्रा से पर होकर ही साधना में संलग्न हो सकता है। कामविजय एक मार्ग
काम मन का सबसे भयंकर विकार है। काम से मन चंचल होता है, बुद्धि मलिन होती है और शरीर क्षीण होता है। अत: साधक ब्रह्मचर्य की कठोर साधना से इस विकार से मुक्त रहे। भयविजय एक मार्ग
__अनेक विकारों में भय भी एक विकार है। भय से मन कायर होता है, प्रात्मविश्वास नष्ट होता है और मानसिक रोगों का संवर्धन होता है, अत: साधक के लिए अभय बनना ही उचित मार्ग है। संशयजय एक मार्ग
जिस साधक को अपनी साधना में ही संशय होता है वह कभी भी सफल नहीं हो पाता। संशयशील मानव हर समय यही ध्यान रखता है कि कोई उसकी आलोचना करता है, उसके विरुद्ध
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योग : स्वरूप और साधना : एक विवेचन / १६५
षड्यंत्र रच रहा है । अत: साधक प्रात्मश्रद्धा और आत्मविश्वास बढ़ावे तो ही वह संशय के विकारों से मुक्त हो सकता है।
इस प्रकार के जय से योगी अपने आपमें रही हयी-विकृतियों से पर हो सकता है। जिस प्रकार शरीर के रोग से शरीर दुर्बल होता है, उसी प्रकार मन के विकार मन को दुर्बल करते हैं। साधक को इन विकारों से पर होने के लिए योगाभ्यास का सहारा लेना ही चाहिए।
आज का युग साधकों से अपेक्षा रखता है कि अब हम सामाजिक प्राडम्बरों में, पदार्थों के प्रलोभन में तथा सत्ता, अधिकार और सन्मान में जो घसीट के ले जाने वाली प्रवृत्तियाँ हैं उनसे पर होकर शान्त चित्त से योगाभ्यास में अपने आपको केन्द्रित करें। ऐसा करने पर ही क्रमशः साधक भोगविलास, ऐश्वर्य, पद प्रतिष्ठा, कीर्ति इत्यादि बहिर्मखता से अन्तर्मख होने का अलभ्य लाभ प्राप्त करेगा।
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दूद
हठयोग
अर्चनार्चन
[एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण]
0 डॉ० श्यामसुन्दर निगम
'ह' से प्राशय इड़ा नाड़ी तथा '8' से पिंगला नाड़ी से होता है। ये दोनों नाड़ियां हमारे नासा-रंध्रों से जुड़ी हैं। इनके माध्यम से श्वासक्रिया होती है। आध्यात्मिक-जागरण अथवा तांत्रिक-साधना के जिज्ञासु साधक अथवा योगारूढ़ जन इनके माध्यम से प्राणायाम साधने हेतु पूरक, कुंभक एवं रेचक नामक श्वास-क्रियाएँ करते हैं । इन यौगिक क्रियानों के माध्यम से कुंडलिनी के रूप में मानव-शरीर के अधोभाग में स्थित जीवात्मा का जागरण संभव होता है, परिणामस्वरूप कुंडलिनी ऊर्ध्वमुखी होकर, इड़ा और पिंगला के मध्य में, मेरुदण्ड कोष में विद्यमान सुषुम्ना नाड़ी के रास्ते सहस्रार की ओर परम तत्त्व से मिलने प्रस्थान कर देती है, ताकि जीव एवं ब्रह्म के योग द्वारा उनमें एकात्म्य हो सके । योग की इस पद्धति को 'हठयोग' अथवा 'कुण्डलिनी योग' के नाम से अभिहित किया गया है। वैदिक वाङ्मय में यह योग सूत्र रूप में उल्लिखित है किन्तु कालान्तर में पुराणों, शैव एवं शाक्त प्रागमों, सिद्ध एवं नाथ तंत्र-ग्रन्थों एवं दसियों स्वतंत्र ग्रन्थों में इसकी विशद चर्चा एवं सूक्ष्म अनुशीलन हुा । भारतीय चिन्तन पर इसका इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि महायान मत को कुछ शाखाएँ, जैनमत के तांत्रिक विधान, अद्वैत-वेदान्त के गुह्य-साधक, सूफी सम्प्रदाय के कुछ प्रचारक तथा संत एवं रहस्यशील कवि भी अनेक प्रकार तथा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इससे प्रभावित हुए। आधुनिक काल में भी भारत में एवं अन्यत्र इस पर गंभीरतम अध्ययन, अनुसंधान एवं विश्लेषण हुआ । परिणामस्वरूप अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे गये जिनके कारण भारत की यौगिक एवं तांत्रिक पद्धतियों की मारे विश्व के दार्शनिक जगत में धूम मच गई।
कुण्डलिनी योग को भली प्रकार आत्मसात् करने के लिए तद्विषयक सूक्ष्म शरीर-विज्ञान को जानना समीचीन होगा।
मानव-शरीर नाड़ियों का एक अद्भुत अन्तर्जाल है। ये नाडियाँ ७२,००० मानी गयी हैं। इनके दो प्रकार हैं
प्रथम प्रकार की नाड़ियों का सम्बन्ध मन और प्राण की क्रियाओं से होता है। इनमें सुषुम्ना का विशेष महत्त्व है। यह मेरुदण्ड के मध्य में स्थित रहती है और आज्ञा-चक्र से निकलकर ग्रीवा, वक्षस्थल, कटि प्रदेश होतो हुई जननेन्द्रिय तक पहुँचती है। शरीर का समस्त स्नायविक जाल इसी सुषुम्ना से सम्बधित होता है। इस प्रकार सुषुम्ना, मस्तिष्क एवं शरीर के विभिन्न अवयवों के मध्य सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक अत्यंत जटिल एवं त्वरिततम सूक्ष्म माध्यम है।
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हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १६७
दुसरे प्रकार की नाड़ियाँ भकुटि के पास स्थित मनश्चक्र से निकलती हैं और श्रोत्र, नेत्र, मुख तथा जिह्वा तक फैल जाती हैं। इनमें एक कर्म नामक नाड़ी भी है जो शरीर के अधोभाग में गुदा तक जाती है । इन नाड़ियों की क्रियाएँ मन के प्राधीन नहीं होती।
इन समस्त नाड़ियों में इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना का अत्यधिक महत्त्व है। [चित्र क्र. १ (अ) एवं (ब) में इन नाड़ियों एवं विभिन्न चक्रों की स्थिति प्रदर्शित की गयी M है।] इस कारण इड़ा,
इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाड़ियों के मध्य की स्थिति पिंगला एवं सुषुम्ना पर कुछ
सामने की ओर से : चित्र १-(अ) और प्रकाश डालना आवश्यक है। सुषुम्ना के दक्षिण पार्श्व में इड़ा नाड़ी होती है। इसका सम्बन्ध चन्द्र से है। वामपार्श्व में पिंगला होती है जिसका सम्बन्ध सूर्य से होता है। इस कारण इड़ा और पिंगला को क्रम से चन्द्रनाड़ी एवं सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। जैसा कि प्रारम्भ में देखा गया है, इन नाड़ियों द्वारा कंडलिनी शक्ति को जाग्रत किया जाता है।
सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड में मस्तिष्क से लेकर जननेन्द्रिय तक फैली हुई है। इसकी तीन परतें होती हैं। ऊपर की परत वन
इड़ा, पिंगला एवं सुषम्ना नाड़ियों के मध्य की स्थिति (वचिनी), मध्य की चित्रा
पीछे की ओर से : चित्र-१ (ब)
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / १६८ (चित्रिनी), सबसे भीतर की ब्रह्मनाड़ी कही गई है । ब्रह्मनाड़ी अत्यंत बारीक तन्तु की भाँति होती है जो विभिन्न चक्रों को पूष्पनालिका की भांति जोड़ती है। सुषुम्ना में जो ६ चक्र होते हैं वे चित्रा नामक परत में होते हैं । इन चक्र-स्थानों पर नाड़ियों के पुष्पाकार गुच्छ होते हैं। ये स्थान स्रावयुक्त संवेदनशील ग्रन्थियों के रूप में होते हैं तथा शक्ति व चेतना के महत्त्वपूर्ण केन्द्र माने गये हैं। इनके जागरण एवं साक्षात्कार के लिये केवल योगाभ्यास ही नहीं अपितु ध्यान एवं एकाग्रता भी आवश्यक है । इस प्रकार से चक्र कुण्डलिनी की सूक्ष्म अंतर्यात्रा के प्रत्यंत मार्मिक पड़ाव हैं जो केवल साधकों को ही प्रत्यक्ष हो सकते हैं। आधुनिक शरीर-विज्ञानी इन चक्र-स्थानों का महत्त्व तो जानते हैं किन्तु इन चक्रों को भौतिक रूप में प्रत्यक्ष कर पाने में असफल रहे हैं।
कुण्डलिनी का स्वरूप-कंडलिनी-शक्ति को जीवात्मा के रूप माना गया है। इसका रूप सपिणी की भांति होता है। वह साढ़े तीन प्रांटों वाली बताई गई है। गुदा के पीछे एक मांसपेशी होती है जो सामान्यतः ९ अंगुल लम्बी तथा ४ अंगूल मोटी होती है। इसे कन्द कहते हैं । कन्द के मध्य में विषु चक्र नामक एक नाभिवत् केन्द्र होता है । इस केन्द्र पर शक्ति निष्क्रिय रहती है। सर्पाकार कुंडलिनी इसी स्थान पर अधोमुखी होकर विश्राम करती है। विषु चक्र को धारण करने वाली एक मांसपेशी और होती है, इसे अधःसहस्रार कहते हैं। चूंकि कुंडलिनी की यात्रा के पूर्व साधकों के समस्त प्राण समष्टि रूप धारण कर सर्वप्रथम यहां एकत्रित होते हैं, इस कारण इस केन्द्र का महत्त्व अन्य चक्रों की अपेक्षा कम नहीं है।
तन्द्रिलावस्था से जब कुंडलिनी जाग्रत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊर्ध्वमुख यात्रा प्रारम्भ कर सहस्रार चक्र में विराजमान अपने अनन्त काल से बिछुड़े प्रियतम से मिलने चल पड़ती है। यह मार्ग अविद्याग्रस्तता एवं माया के आवरणों के कारण अवरुद्ध हुअा रहता है किन्तु इड़ा एवं पिंगला द्वारा जब प्राणायाम क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं तो प्राण एवं अपान के मिल जाने से यह मार्ग खुल जाता है। प्राण वायु द्वारा सुषुम्ना-मार्ग जैसे ही स्वच्छ किया जाता है, कुण्डलिनी की यात्रा की प्रारंभिक तैयारी पूर्ण हो जाती है। वस्तुतः ये चन्द्र और सूर्य नाड़ियाँ, प्राण और अपान वायु के माध्यम से जगत् के धनात्मक (ह) और ऋणात्मक (ठ) तत्त्वों को समन्वित कर जैसे ही गतिशील करती हैं, अनन्त काल से कुण्डली बांधे सोयी अधोमुखी अधःस्थित जीवात्मा प्राणायामयुक्त साधना द्वारा प्रधमित अग्नि से आकुलित हो अपना अलसायापन त्याग कर सुषुम्ना के इस खुले, स्वच्छ एवं शीतल मार्ग पर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है। इस ऊर्ध्वमुखी यात्रा के निमित्त वह ब्रह्मनाड़ी का सूत्र ग्रहण करती है तथा चित्रिनी (चित्रा) स्थित चक्रों को पार करती हई सहस्रार की ओर बढ़ जाती है। इन चक्रों के नाम क्रमश: मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध एवं प्राज्ञा हैं। ये चक्र विभिन्न लोकों से सम्बन्धित होते हैं। इन तांत्रिक सूक्ष्म चक्रों के विभिन्न बीज, तत्त्व, देवता, शक्ति, वर्ण आदि होते हैं। इन चक्रों का स्वरूप पूष्पवत होता है। विभिन्न चक्रों की विभिन्न पंखड़ियां होती हैं। जब कंडलिनी इन चक्रों का बेध करती है तो साधक को विशेष प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। यदि साधक इन सिद्धियों का लौकिक लाभ लेने लगता है तो उसका पतन ध्रव है। किन्तु यदि अपने आध्यात्मिक उद्देश्यों के प्रति तीव्र अभीप्सा, निष्ठा एवं दृढ़ता को वह बनाये रखता है तो
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हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १६९
मणिपूरक चक्र
बं
स्वाधिष्ठान चक्र (अ)
कुण्डलिनी अपनी ऊर्ध्वमुखी यात्रा अविश्रान्त एवं अबाध पूर्ण करती जाती है । इस यात्रा में सबसे बड़ी साधना, धैर्य एवं एक-लक्ष्यता उसे भकुटिस्थ आज्ञाचक्र को पार करने पर करनी होती है। आज्ञाचक्र से सहस्रार तक का मार्ग इसीलिये बंक-नाल कहलाता है।
कुंडलिनी की इस यात्रा को एक अन्य प्रकार से भी जानना उत्तम होगा। जैसेजैसे यह दिव्य-शक्ति चक्रों को बेधती जाती है, वह ऊर्जावान होकर विभिन्न कलाओं से युक्त होती जाती है। यह एक दिव्य मिलन ही होता है । महामाया कुंडलिनी अपनी १०० कलाओं, जैसा कि तांत्रिक ग्रन्थों में उल्लेख है, से शृगारित होकर विद्युत की भांति चकाचौंध पैदा करती, सहस्रार से सुषुम्ना में झरते अमृत का पान कर पुष्ट होती, अनाहर नाद से
॥
मूलाधार चक्र (ब)
चित्र २-(अ)
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनान
अभिनन्दित होती, शरीर के अणु-अणु को अपनी दिव्यचेतना के स्फुरण से रूपान्तरित करती ब्रह्मनाड़ी की पालकी में बैठ चित्रिनी का
झिलमिलाता
घूंघट डाल
चिनी के उत्तरीय को
धारण कर सुषुम्ना के रास्ते चक्रों के बन्दनवारों के मध्य होती हुई अपने संरक्षक देवी देवताओं की छत्रछाया में बीज मंत्रों की स्तुतियों के बीच, अपनी अक्षराम्रों के लोक-गीतों से उल्लसित हो बंक-नाल स्थित भ्रमर-गुहा के गुह्य मार्ग से अनन्तकाल
से बिछुड़े अपने दिव्य प्रियतम
से चिर-मिलन हेतु सहस्रार की ओर बढ़ जाती है ।
चक्रों का विशद परिचय निम्न सारिणी द्वारा स्पष्ट हो सकता है
ह
प्रो
ए
झं
टं
जं
अं
ल
प्रं प्र
ARC
ल
घं
चं
चित्र २-(ब)
आं
*
इ
खं
पंचम खण्ड / १७०
募
गं
प्राज्ञा चक्र
विशुद्धारव्य
चक्र
अनाहत चक्र
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हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १७१
___ महाबिन्दु (परमशिव)
उन्मनी (पराचेतना शिवतत्व)
नेवाण (समनी)
शक्ति तत्व
व्यापिनी (व्यामिका)
(+000000
कलाशक्ति
नादान्त (महानाद)
नाद
रोधिनी रोधिनी
अर्धचन्द्र (सूक्ष्म ऊर्जा -४) बिन्दु (अनंत ऊर्जा)
( चेतना के ऊर्ध्व-स्तर)
चित्र-३ निम्न लोकों से ऊर्ध्वलोकों की ओर
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
,
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पंचम खण | १७२
रम्यक वर्ष किन्नर वर्षी
कुरुवर्ष
केतुमालवर्ष
अर्चनार्चम
पृथ्वी
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इलाई मद्राश्व
वर्ण
हरिवर्ष... हिरण्यवान वर्ष
भारतवर्ष
वाराह
पाताल
अनंत
महातल
रसातल
आधार देवता
-
तलातल
मूल प्रकृति
सुतल
कालानिरुद्र
वितल
मत्स्य
अतल लोक
देवता
अधः लोक
चित्र-४ लोक-लोकान्तरी पुरुष
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हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १७३
क्र.
चक्र स्थान
चक्रों का विवरण चक्र-पुष्प की लोक तत्त्व पंखुडियाँ (दल)
देवता
अक्षर
शक्ति बीज
मंत्र
१. मूलाधार लिंग
भूः पृथ्वी
ब्रह्मा डाकिनी लं
व से स
२. स्वाधिष्ठान पेड़
भुवः जल स्वः अग्नि
विष्णु चाकिनी वं ब रुद्र लाकिनी रं ड
३. मणिपूर
नाभि
४. अनाहत
हृदय
महः वायु
ईश्वर काकिनी यं
क सेठ
५. विशुद्ध कण्ठ
जनः आकाश महेश्वर शाकिनी हं प्र से प्रः
(सदाशिव) ६. आज्ञा भ्रू मध्य २ तपः महत् परशिव हाकिनी . ह, क्ष ७. सहस्रार मस्तिष्क १,००० सत्यम् शुन्य परब्रह्म महाशक्ति (:) विसर्ग
[चक्रों के चित्रों का अवलोकन की जिये] चित्र क्र. २ (अ) एवं (ब) व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण
उपर्युक्त सारिणी के अवलोकन से यह स्पष्ट होगा कि इन चक्रों का सम्बन्ध विभिन्न लोकों से है। मुलाधार चक्र भोक, स्वाधिष्ठान भवर्लोक, मणिपूर स्वर्लोक, अनाहत महर्लोक, विशुद्ध जनःलोक, प्राज्ञा तपःलोक तथा सहस्रार सत्यलोक से सम्बन्धित हैं । प्रश्न यह उठता है कि क्या ये चक्र व्यष्टि में समष्टि-स्थित विभिन्न लोकों का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते हैं ?
प्रश्न का उत्तर निश्चित ही सकारात्मक है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा व्यष्टि में समष्टि को, तथा समष्टि में व्यष्टि को देखती रही है। इस कारण इन चक्रों के माध्यम से कुंडलिनी की यह अन्तर्यात्रा अनुभूति के व्यापक स्तर पर विभिन्न लोकों की, सूक्ष्म चेतना के अदृष्ट आधार पर यात्रा होती है । केवल इन लोकों तक ही क्यों ? पुराणों ने सात अधःलोकों यथा अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल की परिकल्पना की है। उनके ऊपर भूर्लोक अथवा पृथिवी-मंडल है जो सूक्ष्मरूप में मूलाधार में स्थित है। हठयोग सम्बन्धी कुछ चित्र एवं तत्सम्बन्धी विवरण इन दिनों उपलब्ध हैं । इनमें अधोलोक में इन विभिन्न स्तरों तथा उनकी शरीर में स्थिति तथा उनके दिव्य-प्रतीकों का अंकन हुअा है। चित्र क्र.-३ में इन्हें प्रदर्शित किया गया है। इन्हें विश्लेषित करने पर मत्स्य, कर्म, अनन्त, वराह आदि अवतारों की कल्पना का गढ़ तत्त्व भी समझ में आ जावेगा। यह भी स्पष्ट हो जावेगा कि कुंडलिनी और कोई नहीं, पुराण-वणित शेषनाग है, जिस पर वराहरूपी वे विष्णु विराजमान हैं जिन्होंने पृथ्वी अर्थात् लक्ष्मी को धारण कर रखा है। यहाँ जो मूलाधार है उसकी नाभि में ब्रह्मा, जो उसका देवता है, ब्रह्मनाड़ी की कमल-नाल पर बैठा है। पुराणों ने कुंडलिनी की इस व्यष्टि-गत अंतर्यात्रा से जुड़े तत्त्वों को समष्टिगत रूपक से पाश्चर्यजनक रूप से बांधा है।
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / १७४
. अर्चनार्चन
शैव तंत्र से सम्बन्धित ग्रन्थों ने प्राज्ञा-चक्र से ऊपर के अनेक सूक्ष्म चेतना-स्तरों की बात कही है। इन स्तरों, जैसा कि चित्र क्र.-४ में प्रदशित किया गया है, के नाम नीचे से उपर की ओर क्रमशः बिन्दु, अर्धेन्दु, निरोधिका, नाद, नादान्त (महानाद), कलाशक्ति, व्यापिनी (व्यापिका), निर्वाण (या समनी), उन्मनी तथा महाबिन्दु (परमशिव) है। शैव-तंत्र के अनुसार कुंडलिनी की लय-स्थली सहस्रार न होकर महाबिन्दु है। प्रथम तीन स्तर पार करने पर रूपात्मक सत्ता का निरोध हो जाता है। नाद में वाचक या शब्दात्मक सत्ता रहती है किन्तु महानाद में यह वाच्य-वाचक भेद समाप्त हो जाता है। शक्ति के स्तर पर अनन्त प्रानन्द का अनुभव होता है। व्यापिनी का स्तर दिव्यत्व की विशिष्ट प्रक्रियाओं द्वारा जैसे ही बेधित किया जाता है, निर्वाण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार निरोधिका पर निर्वितर्क, नादान्त पर निविचार, व्यापिका पर सानन्द एवं समनी पर सस्मिता समाधि होती है। उसके बाद उन्मनी अवस्था आती है जहाँ परा-चेतना अनुभूत होती है । अन्तिम अवस्था में परमशिव में लय होना अपरिहार्य है।
उपसंहार-हठयोग का उद्देश्य होता है-धैर्य, शक्ति, ऊर्जा एवं लोच से युक्त उच्च स्वास्थ्य की उपलब्धि; मानसिक उदात्तीकरण एवं स्थिरकरण; तथा कुण्डलिनी-जागरण । जब साधना प्रिपनी परिपक्वानस्था में पहुँचती है तो अणिमा, गरिमा, महिमा, लधिमा ईशित्व बशित्व. एवं प्राप्ति नामक अष्टसिद्धियों की सहज प्राप्ति हो जाती है किन्तु सच्चा साधक इनमें न रमकर उस परमतत्त्व से अभेद हो जाता है। इस प्रकार हठयोग का चरम उद्देश्यक परिपूर्ण हो जाता है।
व्यष्टि-जागरण के आधार पर समष्टि-चेतना के सूक्ष्म रूपान्तर की जो योजना हठयोग ने प्रस्तुत की है वह अन्यत्र दुर्लभ ही है।
समर्पण; ३४ केशव नगर हरि फाटक, उज्जैन (म. प्र.)
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योग और परामनोविज्ञान
प्रहलादनारायण वाजपेयी
परामनोविज्ञान याधुनिक विज्ञान है जिसमें वैज्ञानिक रीति से मनुष्य के स्वरूप उसकी अद्भुत शक्तियाँ, मृत्यु का स्वरूप, मृत्यु के पश्चात् जीवन, परलोक पुनर्जन्म यादि विषयों का अध्ययन किया जाता है, गहन गवेषणा की जाती है ।
परामनोविज्ञान के निष्कर्षों में यह कहा गया है कि मनुष्य इस भौतिक शरीर के अतिरिक्त और शरीर द्वारा कार्य करने वाला एक आध्यात्मिक प्राणी है, जिसमें अनेक अद्भुत मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ - जैसे दिव्यदृष्टि, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनःप्रलय ज्ञान, दूर किया, प्रच्छन संवेदन, पूर्वबोध आदि हैं। मृत्यु प्राणी को नष्ट नहीं कर पाती। उसका अस्तित्व किसी धन्य सूक्ष्म लोक में सूक्ष्म रूप से रहता है, जहाँ रहते हुए वह इस लोक में रहने वाले प्राणियों के सम्पर्क में श्रा सकता है ।
डॉ. क्रूकाल ने सहस्रों घटनाओं का निरीक्षण करके इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, प्रत्येक प्राणी के अन्दर सूक्ष्म शरीर होता है, जो कुछ अवसरों पर विशेषतः मृत्यु के अवसर पर इस पञ्च भौतिक शरीर को छोड़ कर बाहर निकल जाता है । परलोक में प्राणी इस सूक्ष्म शरीर द्वारा ही वहाँ के जीवन और भोगों को भोगता है ।
योग का भारतीय संस्कृति में साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य है। योग के अष्टांगों की साधना करने वाले के लिये सम्पूर्ण सृष्टि का हस्तामलकवत् साक्षात्कार कर पाना सम्भव हो जाता है ।
परकायाप्रवेश को यौगिक सिद्धियों में अन्यतम माना गया है । महर्षि पतञ्जलि के अनुसार धर्माधर्म सकाम कर्मरूपी बन्धनों के कारण से शिथिल करने से एवं इन्द्रियों के द्वारा विषयों में चित्त को प्रवाहित करने वाली चित्तवहा नाड़ी के स्वरूप एवं चित्त के परिभ्रमण मार्ग को याद कर लेने से साधक के चित्त का दूसरे जीवित या मृत व्यक्ति के शरीर में प्रवेश हो जाता है। 'बन्धकारण बिस्वात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेश: ।'
शौनक ऋषि के अनुसार परकायप्रवेश की सिद्धि के लिये सुषुम्णादि सप्त सूक्त एवं निवर्तध्वम् से प्रारम्भ होने वाले सप्त सूक्तों का पाठ करना चाहिये। शौनक ऋषि के अनुसार परकायाप्रवेश की साधना मार्गशीर्ष मास में प्रारम्भ की जानी चाहिये और ग्यारह मासों के अनन्तर परकायाप्रवेश की साधना फलवती होती है ।
सुषुम्णादि सप्त सुतानि जपेच्चेद्विष्णुमन्दिरे । मार्गशीर्षेऽयुतं धीमान्
परकायं प्रवेशयेत् । निवर्तध्वं जपेत् सूक्तं परकायाञ्च निर्गतः ।
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम
तब हो सके
आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड | १७६
अर्चनार्चन
परामनोविज्ञान के अन्तर्गत राजस्थान विश्व विद्यालय के हेमेन्द्र नाथ बनर्जी ने प्रेतावेश एवं द्विविध की सैकड़ों घटनामों का अध्ययन कर परकायप्रवेश की प्रामाणिकता सिद्ध की है।
योग की साधना द्वारा जिन सिद्धियों और शक्तियों को प्राप्त किया जाता है उनके द्वारा जो साक्षात्कार कर पाना सम्भव हो जाता है उसीका परामनोविज्ञान में वैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाता है। योगसाधना और सिद्धि का क्रियाविज्ञान है जबकि परामनोविज्ञान मृत्यु के बाद प्रात्मा के अस्तित्व के रहस्यों का जानने का प्रयोगात्मक विज्ञान है।
दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। योग के निष्कर्षों को परामनोविज्ञान अपने प्रयोगों द्वारा प्रामाणिक सिद्ध करता है। परमनोविज्ञान जिन रहस्यों का अध्ययन कर रहा है, योग उन्हें स्पष्ट करने के लिये सिद्धियाँ व शक्तियाँ अजित करने का अवसर प्रदान करता है।
योग हो या परामनोविज्ञान अथवा अन्य कोई विज्ञान, हर विज्ञान का लक्ष्य सत्य को प्राप्त करना होता है। सत्य को प्राप्त करने के लिये ही परामनोविज्ञान में मृतात्मानों को बलाकर उनसे प्रश्नोत्तर किये जाते हैं। पुनर्जन्म के लिये जिन्हें पूर्वजन्म का स्मरण है उनसे सम्पर्क किया जाता है। जबकि योग में आत्मा और परमात्मा के साक्षात्कार से सत्य को जानने का प्रयास किया जाता है।
व्यक्ति का अपना सत्य वास्तव में सत्य के विषय में उसकी धारणा मात्र होने से सत्य का एक अंश ही होता है । जो एक व्यक्ति के लिये पूर्ण सत्य होता है वह दूसरे व्यक्ति के लिये दृष्टिकोण से अन्यथा हो सकता है। सबको मिलाकर पूर्ण सत्य बनता है।
सुकरात के अनुसार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से राग-द्वेष, वेष-भूषा, प्राचार-विचार में कितना ही भिन्न हो, सब व्यक्तियों में एक ही समान तत्त्व विद्यमान है, जो कि उनके विशेषणों के प्राडम्बरों से प्रावृत रहता है, किन्तु उसे ढूंढ़ा जा सकता है। यह समानता तत्त्व मानव का आत्मा है। इसे जानना ही जीवन के शाश्वत सत्य को जान लेना है।
जैनदर्शन का स्याद्वाद-अनेकान्तवाद की संभावनाओं से सत्य के साक्षात्कार का सिद्धान्त है जिसके अनुसार अपेक्षाभेद से एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों की सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।
योग शताब्दियों के साधनाक्रम में आज एक परिष्कृत विज्ञान है जिसके अष्टांगों की साधना विश्व के अनेक देशों में तत्र यत्र की जा रही है। परामनोविज्ञान के प्रयोगों से सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न चल रहा है। निश्चय ही दोनों के समन्वय से सत्य का साक्षात्कार होगा और रहस्यों के प्रावरण से सत्य के सूर्य का उदय होगा जो तथ्यात्मक विश्लेषण द्वारा ज्ञान के नये क्षितिजों का निर्माण करने में समर्थ होगा। इससे आध्यात्मिकता का तेज विकसित होगा, जिसके आलोक में मानवता के मंगलमय भविष्य की कल्पना की जा सकती है।
साहित्य-संस्थान,
राजस्थान विद्यापीठ, टाऊन हाल के पास, उदयपुर
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जन्य योगसाधनाएं और महर्षि अरविन्द
की सर्वांग योगसाधना
। ब्रजनारायण शर्मा
'नायमात्मा प्रवचेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन' 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः'
(-मुण्डक उपनिषद् ३।२।४-५) उक्त उपनिषद् वाणी का उद्घोष यही है कि आत्मा की उपलब्धि न तो प्रवचन-उपदेश से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से होती है । बलविहीन मनुष्य इसको प्राप्त नहीं कर सकता। समस्त भारतीय दार्शनिक धार्मिक सम्प्रदायों का परम पुरुषार्थ आत्मा का साक्षात्कार करना रहा है। योगसाधना भी उस प्रात्मा को अनुभूत करने का अनुपम मार्ग है। वैदिक (निगम) और प्रागमिक परम्परामों में योगसाधना सम्बन्धी विपुल साहित्य मिलता है। तांत्रिक साधना को भी प्रागमपरक माना जा सकता है । महर्षि अरविन्द के समक्ष योगसाधनामों की अत्यन्त समृद्ध विरासत विद्यमान थी, जैसे,
हठयोग, राजयोग, ज्ञान-भक्ति-कर्मयोग के त्रिविध मार्ग, तंत्र साधना-शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, सौर्य आदि तांत्रिक पद्धतियाँ, जैन साधना, बौद्ध साधना।
श्री अरविंद के अनुसार उक्त साधना-प्रणालियों की समीक्षा करने के पूर्व 'योग' और 'साधना' पद के विशिष्ट अर्थों को जान लेना आवश्यक है। व्युत्पत्ति के आधार पर 'युजिर योगे' और 'युज समाधों' दो प्रकार से 'योग' पद निष्पन्न किया जा सकता है। प्रथम के अनुसार जीवात्मा का परमात्मा से संयोग या मिलन है जबकि द्वितीय अर्थ में वह समाधि का वाचक है। सूत्रकार महर्षि पतंजलि ने योग पद को समाधि अर्थ में ही प्रयुक्त किया प्रतीत होता है यथा 'अथ योगानुशासनम् । (११), 'ता: एव सबीजः समाधिः' एवं 'तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधि: (योगसूत्र १२३६, ११५१) भाष्यकार ने स्पष्टतः 'योगः समाधिः' योग को समाधि कहा है। वाचस्पति मिश्र, विज्ञानभिक्षु, भोज, हरिहरानन्द प्रारण्य प्रादि टीकाकारों ने समाधि अर्थ में ही 'योग' पद की व्याख्या की है। तत्त्व वैशारदीकार ने संयोगार्थक 'युजिर योगे' अर्थ की आलोचना करते हुए समाधि अर्थ ही गृहीत किया है क्योंकि योगसम्मत छब्बीस पदार्थों का यथार्थ बोध हो जाने पर अविद्या आदि पाँच क्लेश तथा उनके निमित्त से होने वाले कर्मबंधन शिथिल पड़ जाते हैं और अन्त में समस्त चित्तवृतियाँ भी
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पंचम खण्ड / १७८
अर्चनार्चन
निरुद्ध ही जाती हैं। विज्ञानभिक्ष ने द्वितीय और तृतीय सूत्रों को मिलाकर योगलक्षण इस प्रकार दिया है--दृष्ट्रस्वरूपावस्थितिहेतुश्चित्तवृत्तिनिरोधो योगः [११२.३] अर्थात् दृष्टा (जीवात्मा) के वास्तविक स्वरूप की अवस्थिति का कारण चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। किन्तु प्रलय काल में तथा समग्र सुषुप्ति-काल में चित्त की समस्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाती हैं। अत: इन अवस्थानों में भी योग लक्षण प्रयुक्त होने लगेगा। इस अतिव्याप्ति दोष से बचाने के लिए नागेश भट्ट ने लक्षण में 'प्रात्यन्तिक' पद का निवेश किया है, तदनुसार 'दष्ट्रात्यन्तिक स्वरूपावस्थितिहेतुचित्तवृत्तिनिरोधस्यैव लक्षणत्वात्' । प्रलयकालीन तथा समग्र सुषुप्ति कालीन अवस्थाएं पुरुष की प्रात्यन्तिक या सार्वकापिक नहीं है। अत: कोई दोष नहीं होगा ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में 'योगः कर्मसु कौशलम्' तथा 'समत्वं योग उच्चते' कर्मों में कुशलता लाने तथा सुख-दुःख हानि-लाभ, जन्म-मृत्यु, यश-अपयश, गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्वों में समभाव लाकर स्थिरप्रज्ञ होना ही योग माना है। गीताकार के द्वितीय लक्षण को प्रायः सभी योगसाधनाओं में मान्य किया गया है। 'साधना' जीवात्मा की उस शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक चेष्टा या तैयारी का नाम है जिससे वह उत्तरोत्तर उत्थान करता हुया अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करने में फलीभूत होता है । समर्थ होता है।
महर्षि अरविंद ने अपनी साधना-प्रणाली को सर्वांग योग या पूर्णयोग की साधना कहा है। इसलिए उन्होंने अपने समय तक जो-जो भी साधना-क्रम विद्यमान थे उन सभी की समीक्षा करते हए अपनी नतन पद्धति की सर्जना की। प्रत्येक योगसाधना प्रायः किसी एक अंग पर विशेष बल देती है और उसे ही पूर्ण रूप से निखारने की चेष्टा करती है। अन्य सभी अंगों को उसी अंग को विकसित करने के लिए या उसकी पूर्ति के लिए छोड़ दिया जाता है । सभी अंगों को क्रमशः या एक साथ विकसित करने या उन्हें पूर्ण बनाने का न तो उनमें प्रयास किया गया है और न ही ऐसा करने के उनमें पर्याप्त अवसर प्रदान किये गये हैं। यही कारण है कि उक्त हठयोग से लेकर बौद्ध साधना पद्धतियों में उत्थान क्रम तो है किन्तु भागवतसत्ता का अवतरण भी होता है, यह सिद्धांत प्रायः उपलब्ध नहीं होता। श्री अरविंद की साधना में प्रत्येक अंग को विकसित और रूपातंरित कर साधक को परमेश्वर का उपयुक्त पात्र बनाया जाता है। यहाँ पर किसी भी अंग को निरर्थक या पथ का रोड़ा समझ छोड़ नहीं दिया जाता वरन् उसे भी पूर्ण बनाकर विकसित किया जाता है। शरीर के अन्दर या बाहर कहीं भी विराट से विराट अथवा सूक्ष्म से सूक्ष्य कोई अंश ऐसा नहीं बचता जिसमें प्रभु का निवास न हो । सत्ता के दो छोर हैं--भौतिक जड़ पदार्थ तथा चेतन आध्यात्मिक प्रात्मा। विभिन्न साधकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से इस या उस छोर का पल्ला पकड़कर इस या उस छोर को परिव्यक्त करने का उपक्रम रचा है। दोनों में किसी सेतु के निर्माण का प्रायास नहीं किया। इसी न्यूनता की पूर्ति अरविंद ने की है । जड़ प्रकृति, चेतनप्राणी तथा परमात्मा से जीवन्त सामंजस्य स्थापित करने के लिए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी अंगों के विकास और रूपांतरण को उन्होंने आवश्यक माना है।
मानवीय सत्ता का सूक्ष्मतम विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि मानव अत्यन्त जटिल, नितान्त भिन्न, परस्पर विरोधी अनेक गुणों का आगार है। वह कोई
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अन्य योगसाधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना / १७९
प्रखण्ड, सरल, विशुद्ध या अमिश्र सत्ता नहीं है । प्रकृति के सभी स्तर उसमें अनुस्यूत हैं । सृष्टि की समस्त धाराएँ उसमें कहीं उद्दाम, कहीं मन्थर गति से प्रवाहित हो रही हैं। मुख्यतया तीन स्तर दृष्टिगोचर होते हैं । सत्ता का प्रथम स्तर शरीर और उसको संजीवित रखने वाली प्राण-शक्ति है। उससे ऊर्ध्वतर क्षेत्र में मन का स्थान आता है जिसमें बुद्धि, विचार, कल्पना, भावना और चिन्तन स्पन्दित होते रहते हैं । तृतीय ऊर्वतम स्तर आत्मा है जो आध्यात्मिक बोध, विज्ञानमय स्वरूप प्रानन्द का अजस्र निर्भर एवं अमृतत्व का अधिष्ठान-पाश्रय स्थान है। तांत्रिक शब्दावली में प्रथम देह-प्राणमय भाव 'पशुभाव', मन-बुद्धिमयभाव 'मनुष्यभाव' एवं तुरीयज्ञान-अध्यात्मभाव 'दिव्यभाव' कहलाता है। अन्तिम भाव ही सिद्धभाव या भागवतभाव है । विकास की गति में पशुभाव से मनुष्यभाव और मनुष्यभाव से दिव्य भाव में क्रमश: आरोहण होता है। मानव जीवभाव से ऊपर उठकर ऊर्ध्वतम भागवतभाव में पहुंचकर कृतकार्य हो जाता है । केवल प्रारोहण क्रम ही नहीं होता। अवरोह क्रम भी निरंतर जारी रहता है जिसमें परमात्मा आनंदोदधि की अमृत-वर्षा करते हुए चेतन और पुन: चेतन से अनेक सत्तामों के रूप में परिणत होता है और आरोहित जीव का आलिंगन करता है । इस प्रकार परमात्मा-प्राणी-प्रकृति का अवतरण और देह-मन और आत्मा का प्रारोहण अरविंद-दर्शन का प्राण है।
उक्त त्रिविध सत्ता के विभिन्न अंगों को आधार बना भारत की पावन वसुन्धरा पर अनेक प्रकार की साधनाएँ प्रचलित हुई। इनमें हठयोग में 'घेरण्डसंहिता', 'शिवसंहिता' आदि को आधारभूत मानते हुए 'हठयोग प्रदीपिका' 'गोरक्षपद्धति' आदि ग्रन्थ लिखे गये तथा विभिन्न नाथ सम्प्रदाय के योगियों ने अपनी-अपनी कृतियों से इसे समृद्ध किया है। हठयोग 'ह' और '8' के योग से बना है। 'ह' का अर्थ है सूर्यनाड़ी और 'ठ' का चन्द्र नाड़ी। प्रथम से उष्णता और द्वितीय से शीतलता प्राप्त होती है। प्राणायाम के द्वारा सूर्य और चन्द्र नाड़ी को संतुलन द्वारा सुस्थिर आधार पर केन्द्रित किया जाता है। प्रासन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा आदि के अभ्यास के द्वारा देह को बलिष्ठ और स्वस्थ तथा प्राणशक्ति का अप्रतिहत गति से उत्तरोत्तर उत्थान करने का नाम हठयोग है। शरीर और प्राणशक्ति को वशीभूत कर परिशद्ध बनाना हठयोग का उद्देश्य है। इसकी प्रतिष्ठा अन्नमय और प्राणमय कोश की
आधारशिला पर होती है। वंशानुक्रम और पर्यावरण द्वारा हमारा शरीर और प्राणशक्ति नियंत्रित होती है। दैनिक जीवन में जितनी प्राणशक्ति की ऊर्जा की खपत होती है, शरीर के जो-जो अंग कार्यरत होते हैं उतनी ही शक्ति बनती है। शरीर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जरा-व्याधि-मृत्यु का दास बना रहता है। हठयोग अपनी साधना के द्वारा देह में प्राणशक्ति के अक्षय स्रोत को उन्मुक्त प्रवाह में परिणत कर देता है जिससे देह की दासता के सभी क्षुद्र बन्धन परिसमाप्त हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। शरीर और प्राण पर विजय प्राप्त करना हठयोग का परम लक्ष्य है। अन्नमय और प्राणमय कोश से बने स्थूल शरीर को बलिष्ठ, सुन्दर और दीर्घजीवी बनाने के लिए यह दो उपाय-प्रासन और प्राणयाम प्रयुक्त करता है। शरीर को आसनों के माध्यम से स्थिर व अचंचल बनाया जाता है। सामान्यतया शरीर में कोई न कोई गति या कछ न कछ क्रिया सर्वदा चलती रहती है। वैश्वजीवन के महासागर से जो प्राणशक्ति शरीर में प्रविष्ट होती है उसे सारी की सारी अपने में समेटने में देह
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असमर्थ है इसीलिए नाना प्रकार के अंग-संचालन और क्रियाकलापों में वह स्रोत शरीर से बाहर निकल जाता है और विविध कर्मों में इस अतिरिक्त शक्ति का क्षरण होता है। हठयोगप्रदीपिकाकार ने ठीक ही कहा है
"हठस्य प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यते ।
कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् ॥" अर्थात् हठयोग के प्रथम अंग को प्रासन कहा जाता है। शरीर में स्थिरता, आरोग्य और स्फति लाने के लिए आसनों का अभ्यास करना चाहिए । इसीलिए योगसत्रकार ने भी 'स्थिरसुखमासनम्' कहा है। शरीर की चंचलता को अवरुद्ध करके उसे शांत तथा निस्पंद बनाने का अभिप्राय है प्राणशक्ति का सर्वथा सम्पूर्णतः अपने में धारण करना । इससे शरीर हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ, निरोग और सुन्दर बन जाता है।
शरीर स्थिर हो जाने के पश्चात् हटयोग में शारीरिक शुद्धि की ओर ध्यान अग्रसर किया जाता है। शरीर में अनेक प्रकार के मल विद्यमान रहते हैं जिनके कारण नाड़ीमण्डल दूषित हो जाता है। मलशोधनकर्मों के द्वारा शरीर को सर्वथा मलरहित बनाने का प्रयास किया जाता है जिससे नाडीसंस्थान शुद्ध होकर श्वास-प्रश्वास क्रिया को अबाध गति प्रदान करता है। इसीको प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम द्वारा प्राणशक्ति वशीभूत कर प्राणवायू को संयत किया जाता है। शरीर में भरे हुए स्थूल रूप से दिखाई देने वाले विजातीय द्रव्य ही मल कहलाते हैं जिन्हें शरीर से निष्कासित करने के लिए हठयोग में षट कर्म का मलशोधन विधान रचा गया है । यथा
धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिक तथा। कपालभातिश्चैतानि षट कर्माणि प्रचक्षते॥
-हठयोगप्रदीपिका अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि तथा कपालभाति ये छः मलशोधक कर्म कहलाते हैं। इनमें भस्त्रिका, गजकरणी, बाघी, शंखप्रक्षालन आदि कर्मों को जोड़ कर दस मलशोधककर्मों का विधान हठयोग में सम्मत है। मलशोधनकर्मों के द्वारा प्राणशक्ति प्रबल हो उठती है, अत्यन्त वेगवती हो जाती है जिससे साधक अनेकविध अद्भत कार्यों को सम्पन्न करने की सामर्थ्य संजो लेता है। उत्तम स्वास्थ्य, उद्दाम यौवन और असाधारण रूप से सुदीर्घ आयु प्राप्त कर लेता है। कायासिद्धि के अलावा प्राणायाम से एक और श्रेष्ठ लाभ होता है वह है सर्पाकार सुप्त कुण्डलिनी शक्ति का जागरण । कुण्डलिनी-जागरण के पश्चात् साधकयोगी को अकत शक्ति, अलभ्य सिद्धियां, ऐश्वर्य उपलब्ध हो जाते हैं। साथ ही अकल्पित जगत्, अदृश्य स्तर, अद्भुत दृष्टि तथा विविध क्रियाओं के रहस्य प्रकट हो जाते हैं। अनेक प्रकार की कृच्छ एवं कठोर साधनाएँ उसके लिए सुगम हो जाती हैं।
हठयोग की उपलब्धियां साधारण मानव को अत्यधिक लुभाती एवं प्रभावित करती हैं। स्थल और भौतिक शरीर पर असाधारण अधिकार हो जाता है। भौतिक प्रकृति का उद्देश्य केवल भौतिकजीवन की सुरक्षा, अक्षरित शरीर, अपारशक्ति का प्राधार तथा भौतिक जीवन का अधिक से अधिक उपभोग करने की सामर्थ्य प्राप्त करना है। किन्तु ये सब प्राप्त तो होती हैं किन्तु इसके लिए असाधारण मूल्य चुकाना पड़ता है। इसकी जटिल प्रक्रियाएँ
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और अत्यन्त कठोर साधनाएँ साधक से इतने समय, शक्ति और श्रम की माँग करती हैं कि वह एकाग्र साधन के लिए सामान्य जीवन के कार्यों से अलग होता जाता है । एकाकी किसी गिरि-कानन या उपत्यकावासी बनकर ही इन लाभों को प्रसक्त किया जा सकता है । पर इन सबकी सार्थकता क्या है ? मैत्रेयी के प्रश्न की सहसा स्मृतिपटल पर छवि अंकित हो जाती है—'येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम्' अर्थात् 'इस धन, सम्पत्ति और ऐश्वर्य को लेकर मैं क्या करूगी जिस वस्तु से मैं अमरता प्राप्त न कर सकू, अमृतत्व न पा सकू उससे मेरा क्या काम? उन्हें लेकर मैं क्या करू ।' दूसरे, हठयोग से इतनी लम्बी और कठोर साधनाओं से प्राप्त होने वाली उपलब्धियाँ राजयोग, तांत्रिकसाधना आदि से बहुत न्यून परिश्रम से सहज और सरल रूप से मिल सकती हैं। तीसरे, ऐश्वर्यमूलक सिद्धियों के मद में चूर होकर हठयोगी के मार्ग में ही भटकने की बड़ी संभावनाएँ बनी रहती हैं। इसीलिए सच्चे साधक इस सिद्धपने और सिद्धियों को मार्ग का ककंटक समझ कर ऐसे चमत्कारों से दूर रहने का परामर्श देते रहते हैं। यदि हठयोगी साधनाओं से मिलने वाली सिद्धियों से जनसामान्य का भला नहीं किया जा सके तो इन्हें अपने ही कार्यों के लिए कंजूसों की तरह पकड़े रहना कौन महती उपलब्धि है । महर्षि अरविंद के विचारों में ऐश्वर्य प्राप्ति घातक सिद्ध नहीं होती क्योंकि ऐश्वर्य भी भगवान् की महिमा है । अत: उनके मत में भगवत्प्राप्ति और ऐश्वर्य-भोग दोनों साथ-साथ चल सकते हैं। हठयोगी की तरह अरविंद अपने साधक को शक्ति का स्वामी बन कृपण की तरह अपनी उपलब्धि को दीर्घकाल तक छिपाकर रखने के हामी नही बनाते वरन् उसे सम्पूर्ण प्राणी जगत् की भलाई में विनियोजित करने का दिव्य संदेश देते हैं।
हठयोग की न्यूनताएँ परिलक्षित कर श्री अरविंद राजयोग की ओर अपना ध्यान आकर्षित करते हैं । राजयोग हठयोग से एक सोपान ऊँची साधना है। इसका लक्ष्य भौतिक स्थल शरीर और प्राणशक्ति की पूर्णता न होकर मानसिक सत्ता की पूर्णता हासिल करना है। इस साधना का केन्द्र मन है। चंचल, प्रशांत, प्रसंयत मन को शांत और संयत बनाकर नियंत्रित करना होगा। अपने समस्त विचारों, कल्पनाओं, भावना, वासना और प्रेरणाओं को वशीभूत करना होगा । विचित्र और विविध खेलों में अपने आपको रमाने वाले मन में जो अनेकविध बहुमुखी वृत्तियाँ उदित होती रहती हैं उन सबका उद्गम-स्थल है 'चित्त'। हम जो भी करते हैं वे सब चित्त के महासागर से तरंगों के उत्ताल नर्तन की भाँति उठते हैं, कुछ-क्षण खेलकर उसोमें विलीन हो जाते हैं और पुन: संस्कार के रूप में उसके पटल पर अंकित होते रहते हैं। राजयोग का मूल मंतव्य यही है कि यदि चित्त को वशीभूत कर लिया जाय तो मन अपने आप वश में पा जायेगा। इसीलिए वेद, उपनिषद्, स्मृति साहित्य का मंथन कर महर्षि पतंजलि ने 'योगसूत्र' की रचना कर-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्त की वत्तियों के निरोध को योग कहा है। इन वृत्तियों के विक्षोभ के कारण ही मानवीय अन्तःकरण मलिन हो जाता है। इधर-उधर दौड़ लगाता है। इसी कारण मानव स्वयं को नहीं जान पाता है । उसके अन्दर जो विराट सत्ता विराजती है उन परमेश्वर का, भगवान् का अपनी क्षुद्र प्रवृत्तियों के कारण स्पर्श नहीं कर पाता। मानव मन सामान्यतया व्याकुल और अस्तव्यस्त अवस्था में रहता है। स्वयं स्वामी अर्थात् पुरुष अपने मंत्रियों और अन्य कर्मचारियोंअधिकारियों के प्रति अपने संवेदन, वासना, भावना, क्रियाओं और उनके उपभोग के यंत्रों के अधीन रहता है। नौकर मालिक के आसन पर बैठकर मनमानी कर रहे हैं। अतएव
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राजयोग में चित्तवृत्तियों की इस मनमानी अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था की स्थापना की जाती है। चित्तवति के उद्दाम चांचल्य और प्रवत्तियों के उच्छखल वेग को शांत और नियंत्रित करने के लिए योग में अष्टांग साधन-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधि का विधान किया गया है। यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य) तथा नियम (शौच, तप, संतोष, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान) के विधिनिषेधमूलक तथा शमन-दमनपरक साधनों का यथासाध्य पालन करने से साधक चित्तविक्षोभ को दासता से थोड़ा बहुत मुक्त हो जाता है। मन को संयत बनाकर नियमों के दायरे में बांध कर मन को शांत और स्थिर बनाने का प्रयास किया जाता है। राजयोग मनोमयकोश पर ही केन्द्रित रहता है। किन्तु मन स्वयं स्वतंत्र नहीं होता । उस पर देह और प्राण का भी
आधिपत्य रहता है। इस कारण राजयोग में प्रासन और प्राणायाम को भी उपयोगी ठहराया गया है। परन्तु हठयोगी जिन कष्टसाध्य सैकड़ों प्रासन तथा विविध प्रकार के जटिल प्राणायाम, मलशोधक कठिन अभ्यासपरक क्रियानों, बन्धों, मुद्राओं को अनिवार्य-अपरिहार्य मानते हैं उनमें से राजयोगी उनको सरल-सहज बनाकर ध्यान की एकाग्रता के लिए जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण करता है। इसीलिए योगसूत्रकार ने 'जिस प्रकार के बैठने से मन को स्थिर रखने में सुविधा हो, प्राणायाम आसानी से हो, उसीको आसन कहा है। प्राणायाम है श्वास-प्रश्वास गति का निरोध । इस निरोध के दो उद्देशय हैं-प्रथम श्वासप्रश्वास की गति के अवरुद्ध हो जाने पर चित्तवृति भी सहज ही निरुद्ध हो जाती है। दूसरे प्राणायाम साधना से सोई हुई कुण्डलिनी जाग जाती है जो प्राणशक्ति का आधार है। इस जागरण से चित्त पर जो घनीभूत तम की चादर पड़ी रहती है वह छिन्न-विच्छिन्न हो जाती है । चित्त स्वच्छ, निर्मल सत्त्व प्रकाशक बन जाता है। इन लक्ष्यों की पूर्ति के अतिरिक्त जितनी भी हठयोगी अवान्तर क्रियाएँ-साधनाएँ हैं उन्हें राजयोगी छोड़ देता है। साथ ही पासन-प्राणायाम की साधना से हठयोगी को जिन-जिन सिद्धियों-ऐश्वर्य भोग का प्रलोभन मिलता है उनकी ओर राजयोगी तनिक भी आकृष्ट नहीं होता । जब चित्त शांत, निर्मल और आनन्द से भर उठता है तब उसे सर्वथा विचार-वितर्क-शून्य और पूर्णतया निश्चल बनाने के लिए सहायता मिलती है । बाहरी पदार्थों से इन्द्रियों को हटाकर अन्दर की ओर मोड़ देना प्रत्याहार है। इस प्रकार यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार को बहिरंग साधन माना गया है । बहिरंग साधनों की सिद्धि के पश्चात् धारणा, ध्यान
और अन्त में समाधि की ओर पहुँच कर स्वरूपस्थिति का साक्षात्कार करने पर राजयोग की सिद्धि सम्पन्न हो जाती है। धारणा आदि तीन साधन अन्तरंग साधन कहे जाते हैं। निर्बीज या असंप्रज्ञात समाधि में ध्याता-ध्यान-ध्येय की त्रिपुटी विलुप्त हो जाती है। केवल एक उदारविराट-महान स्वप्रतिष्ठ चैतन्य ही रहता है । चित्त के, शरीर के, प्राण के समस्त मल निर्मल एवं लुप्त हो जाते हैं, संस्कार शांत हो जाते हैं । 'दोषबीजक्षये कैवल्यम्' की उपलब्धि होती है।
, महर्षि पतंजलि ने लोगों की शक्ति और सामर्थ्य को देखकर विभिन्न राजयोगी प्रावधानों को व्यवस्था की है। इस व्यवस्था को अधिकारी-विवेचन कहा जाता है। उन्होंने तदनुसार उत्तम, मध्यम और मन्द भेद से तीन प्रकार के साधक माने हैं। ये क्रमशः युक्त-योगारूढ साधक उत्तम, युञ्जान साधक मध्यम तथा प्रारुरुक्ष साधक मन्द कहलाते हैं। इन्हीं के
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लिए क्रमश: तीन सोपानक्रम - अभ्यास- वैराग्य, क्रियायोग तथा घष्टांगयोग अपनाये गये हैं । उत्तम साधकों की कोटि में वे योगी आते हैं जिन्होंने पूर्व के कई जन्मों में योगाभ्यास प्रारंभ कर पांच बहिरंग साधन सिद्ध कर लिए हैं। इस कोटि में परमहंस यदि संन्यासी और जह भरत यादि उत्कृष्ट साधक जाते हैं। वे योगी मध्यम कोटि में आते हैं जिन्होंने वानप्रस्थी रहकर इस जीवन में योगसाधना में अहर्निश लीन रहना ही अपना ध्येय बना लिया है। इन्हीं के लिए महर्षि पतंजलि ने तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान का सोपानक्रम विहित किया है। प्रत्यन्त चंचल स्वभाव वाले गृहस्थाश्रमियों के लिए उन्होंने प्रष्टांग योग की साधना मान्य की है। क्योंकि विषय-वासनाओं से जर्जर शरीर और उच्छृंखल प्रवृत्तियों में रमने वाला अत्यधिक वित्त लेकर ये मन्द साधक अभ्यास - वैराग्य जैसे उत्कृष्ट साधन तथा क्रियायोग जैसे दुःसाध्य उपायों को सहज ही क्रियात्मक रूप नहीं दे पाते। " अष्टांगयोग मार्ग का अनुसरण करने वाले मन्द साधकों को उत्तम और मध्यम साधकों का अनुगमन नहीं करना पड़ता, क्योंकि इसी में प्रथम पौर द्वितीय सोपानक्रम अन्तर्भावित हो जाते हैं। यही मुख्य मार्ग है। जबकि मध्यम साधकों को क्रियायोग की सिद्धि के पश्चात् उत्तम साधकों के 'अभ्यास- वैराग्य' सोपान क्रम का अनुसरण करना श्रावश्यक है ।" [ योगवार्तिक पृ० २४७, तत्त्ववैशारदी योगसूत्र २।२९ पर ] राजयोग के दो प्रधान उद्देश्य है- स्वराज्यसिद्धि तथा साम्राज्यसिद्धि साधारण जीवन में मानव इन्द्रियों का दास बना स्थूल शरीर से चिपटा रहता है। इन्द्रियों से भी परे कोई मनोमय लोक है, इस बात का ध्यान जरा भी उसे नहीं रहता । राजयोग अपने बहिरंग साधनों के द्वारा इन्द्रियों को बाहरी विषयों से मोड़ कर अन्तर्मुखी बनाकर चित्त को निर्मल, निर्द्वन्द्व, सर्वथा विचारशून्य, निश्चल बनाकर अन्तः चैतन्य का द्वार खोल देता है । इस समय हमारा ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से होने वाले ज्ञान से ही श्राबद्ध नहीं रहता, वरन् ज्ञान का एक गहन - गम्भीर स्रोत हमारे अन्तस् में प्रस्फुरित हो पड़ता है और वस्तुतत्त्व की प्राभ्यन्तरिक सत्ता अपने आप उन्मीलित हो जाती है । जीव इसी समय अपने प्राध्यात्मिक स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। इसी को स्वराज्य-सिद्धि कहा जाता है। स्वराज्य सिद्धि के उपरान्त साधक केवल अन्तर्जगत् में ही नहीं रम जाता किन्तु समाधि अवस्था की उस केन्द्रीभूत महान् चित-शक्ति के द्वारा वह बाह्य जगत् को भी वशीभूत करने में समर्थ हो जाता है। उसका संगठन, नियंत्रण तथा परिचालन कर सकता है। इसी को साम्राज्यसिद्धि कहते हैं। प्राचीनकाल में साधकगण साम्राज्य सिद्धि के बिना स्वराज्य सिद्धि को अपूर्ण मानते थे । किन्तु प्राजकल स्वराज-सिद्धि को ही साधक अत्यधिक महत्त्व देते हैं और इसको उपलब्ध करने के पश्चात् साम्राज्य सिद्धि की परवा नहीं करते सर्वागयोग में दोनों की सिद्धि प्रभीष्ट है।
यह सही है कि राजयोग साधक को देह और प्राण से ऊँचा उठाकर मानसिक क्षेत्र में पूर्णता प्रदान करता है और वास्तविक प्राध्यात्मिक जीवन का रसास्वादन कराता है, किन्तु इस समाधिगत आध्यात्मिक रसास्वादन में वह इतना लीन हो जाता है कि जाग्रत अवस्था को हेय समझकर उसे बिसरा देता है। श्री अरविंद के अनुसार प्रतीन्द्रिय क्षेत्र की चेतना को स्थूल में जाग्रत तथा स्थूल जगत् को आत्मशक्ति द्वारा संचालित करना, निर्मित
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अर्चनार्चन
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करना योगसाधना का लक्ष्य है राजयोग में यह उद्देश्य प्राप्त नहीं होता। साधना से मिलने वाली सिद्धियों और ऐश्वर्य भोगों के प्रति भी उसका हेयभाव ही रहता है। किन्तु ऐश्वर्य और भोग - सामग्री भी तो परमेश्वर की ही सम्पदा है । अतः इसकी अवहेलना न कर प्रभु द्वारा प्रदत्त प्रसाद के रूप में इसका उपयोग करना चाहिए ।
राजयोग की साधना मानसिक जीवन की क्षमताओं को विकसित कर प्रसाधारण पूर्णता प्रदान करती है और साधक को ऊँचे उठाकर प्राध्यात्मिक जीवन में प्रविष्ट करा देती है । किन्तु इसकी विधियां विशिष्ट हो सकती हैं, अनिवार्य नहीं । क्योंकि यह विधि चैत्य - भौतिक प्रक्रियाओं पर आधारित रहती है । यह विधि पूर्णतः प्राध्यात्मिक न होने के कारण कतिपय मनोभौतिक प्रक्रियाओं के परिणाम पर अवलम्बित होने के फलस्वरूप उच्चतर क्रिया के स्थान पर निम्नतर क्रिया को भी अपने प्रागोश में समाविष्ट करती है । यही कारण है कि हमारे पौराणिक वाङ्मय में अनेक ऋषि-मुनियों के उदाहरण मिलते हैं जो समाधि की उच्चतर अवस्था पर पहुंचकर भी स्खलित हो नीचे गिर पड़ते हैं जरा से इन्द्र की अप्सराम्रों के लुभावने यौवन ग्रामंत्रण पर
संभवतया इन्हीं न्यूनताओं को लक्ष्य में रख कर ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का त्रिविध मार्ग अपनी-अपनी विशिष्ट साधना पद्धतियां लेकर साधकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है। इस त्रिविध योग में मानव मन को समग्र रूप में गृहीत करने की अपेक्षा एक-एक अंग ज्ञान प्रेम संकल्प को प्रधानता दी गयी है। इस मार्ग के अनुसरणकर्ताओं की ऐसी मान्यता रही है सम्पूर्ण मानव को तोड़मरोड़ कर नूतन रूप से गढ़ने के बजाय इन केन्द्रीभूत मूलस्थलों को पकड़ा जाय, जिन पर अधिकार करने से समग्र व्यक्तित्व प्रभावित हो जाये । हठयोग और राजयोग में देह प्राण-मन को परिष्कृत - परिमार्जितविशुद्ध बनाने में जिन जटिल कठोर साधना-प्रक्रिया तथा दीर्ष-पानएकाग्रता पर बल दिया जाता है उन ग्रासन-प्राणायाम चित्तवृत्तिनिरोध की जो-जो प्रक्रियाएँ मानव मन पर प्रारोपित की जाती हैं, उनका दबाव डाला जाता है, उनकी तनिक भी आवश्यकता त्रिविध योग में नहीं पड़ती। क्योंकि सभी कृच्छ कठोर पद्धतियां संकीर्ण कृत्रिम विधियों में न उलझ कर वे मानव को सहजभाव व स्वाभाविक अवस्था में अपनाने का प्रयास करती हैं । इसी कारण ज्ञान, भक्ति एवं कर्मयोग का त्रिविध मार्ग योगसाधना स्थान रखता है । सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अपेक्षा इस मार्ग में उसके प्रज्ञा भाव तथा संकल्प पक्षों में से एक-एक पर बल दिया जाता है। ज्ञानमार्ग का उद्देश्य एकमेव ऐसी सत्ता से तादात्म्य स्थापित करना है जो न तो कभी परिवर्तित होती है, न नष्ट होती है । यह सत्ता निर्गुण, निराकार, निर्विकार, नित्य, अज, अद्वैत स्वरूपा है । सत् चित् प्रानंद है | ज्ञानमार्गी साधक को ऐसा विवेक जाग्रत करना होता है जिसके बल पर वह इस सत्ता का साक्षात्कार कर सके । मन, वाणी घोर बुद्धि से इस सत्ता को नहीं होती। इसी कारण लोकगत विभिन्न पदार्थों को मायावत् मिथ्या मानना इसमें आवश्यक है । भक्तिमार्ग भावपक्ष को प्रधान मानता है । सर्वोच्च प्रेम और ग्रानन्द का उपभोग करना इसका अन्तिम लक्ष्य है । पूर्ण समर्पण और अटूट श्रद्धा इसके साधन हैं। से सम्बन्ध बनाने तक रहते हैं। सम्पूर्ण जगत्
में अपना विशिष्ट
अनुभूति
।
पूजा और ध्यान का प्रयोग केवल भगवान् भगवान् की लीला माना जाता है। भक्ति
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योग में साधक में तीव्र भावावेश उन्मीलित होता है जिससे वह सर्वप्रेम, सर्वसुन्दर और सर्वानन्दमयी सत्ता के साथ एकाकार हो जाना चाहता है। उसी में लीन हो जाना अभीष्ट समझता है। कर्मयोग की पद्धति जरा भिन्न है। इसमें कर्म के समस्त अहंभाव से युक्त स्वार्थपूर्ण, क्षुद्र लक्ष्यों की अपेक्षा सर्वोच्च संकल्पशक्ति की अोर समर्पण मुख्य रहता है। निष्काम भाव से कर्म करते रहने की आदत से साधक अपने अन्त:करण को इतना शुद्ध और पवित्र बना लेता है कि वह अपने सम्पूर्ण कार्यों का सच्चा कर्ता, स्वामी, संचालक एवं शासक परमेश्वर को मानने लगता है। वह तो एक यंत्र की भांति परमात्मा के आदेश का पालन मात्र करता है। कर्मों का चुनाव और उनका दिशा-निर्देश अधिकांशत: चेतन रूप में इसी सर्वोच्च शक्ति के संकल्प और वैश्वशक्ति पर छोड़ दिये जाते हैं। परिणामतः आत्मा (जीवात्मा) बाहरी क्रियाकलापों-प्रतीतियों और दृश्यमान व्यापार व प्रतिक्रियाओं के बन्धन से छुटकारा पा जाता है और सर्वोच्च सत्ता में प्रवेश करने के लिए समर्थ हो जाता है। किन्तु यह विविध मार्ग भी न्यूनतामों और दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञानमार्ग में साधक में ज्ञानवान होने का दंभ इतना छा जाता है कि वह अपने आपको कभीकभी भगवान् ही घोषित करने से नहीं चुकता । भक्तिमार्ग में साधक स्वामी-सेवकभाव से उभर नहीं पाता और कभी भी अपने आपको स्वतंत्र कर्ता घोषित करने में असमर्थ पाता है। कर्मयोग विभिन्न पूजा-पाठ, अर्चना-विधानों के घने उलझे हुए प्राडम्बर जंजाल में साधक फंस जाता है। फिर तीनों ही मार्ग अपने आप में एकाकी, एकांगी रहते हैं, क्योंकि मानवीय व्यक्तित्व ज्ञान, भावना और कर्म का समन्वित रूप है।
उक्त सभी पद्धतियों का समन्वय कर प्रयोग करना अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि मानवजीवन इतना छोटा और क्षुद्र है, इतना सक्षम और सबल नहीं है कि इन सभी का प्रयोग बारी-बारी से कर इनकी परीक्षा करे और नवनीत रूप में इनका लाभ उठाये। बिना विचार-विमर्श और विवेकाभाव की स्थिति में उन सभी पद्धतियों का संघात, समन्वय नहीं कहलाता। अतः इनके ऋमिक अभ्यास से कोई उपलब्धि नहीं हो सकती । किन्तु भारतवर्ष एक ऐसा अनूठा देश है जिसमें साधक योगी तपस्वियों ने एक ऐसी समन्वित प्रणाली को अन्वेषित करने में सफलता पायी है जिसमें सभी का यथायोग्य सामंजस्य स्थापित हो जाता है । वह विशिष्ट प्रणाली तंत्र के नाम से विख्यात है। शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर्य एवं गाणपत्य तंत्र साधना यहाँ यथेष्ट रूप में फलती-फलती रही है। दक्षिण और वाममार्ग तंत्रसाधना के दो प्रतीकात्मक आयाम रहे हैं, जिनमें ज्ञान और प्रानन्द की प्रोजमयी समन्वयी धारा प्रवाहित रही है। वाममार्ग का गलत-सलत प्रयोग कर पंचगामी मांस, मदिरा, मैथुन आदि में गुमराह वाममार्गी साधना को किसी ने भी आगे जाकर नहीं अपनाया और सच्चे अर्थों में प्रयोग कर इसे भ्रष्ट करार दे सर्वथा परित्याग कर दिया।
जैनसाधना हठयोग के उग्र तप और ध्यान की साधना की उत्कृष्ट उदाहरण है। -इसमें दिगम्बर साधनाक्रम कोई अपवाद या सुविधा लेने का हामी नहीं रहा है। सम्भवतया नाथपरम्परा और दिगम्बरजैनपरम्परा में एक ही मूल स्रोत प्रवाहित है। ये अजस्र धाराएँ हैं । श्वेताम्बर परम्परा साधक की क्षमतानुसार साधनाक्रम अपनाती है। साधनों की पवित्रता एवं तपस्या इसमें भी प्रधान रही है। वस्तुतः जैनसाधना में हठयोग, राजयोग और ध्यानयोग
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अर्चनार्चन
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का अपूर्व समन्वय पाया जाता है। कर्ममलों को क्षरित करता हुआ साधक मानसिक उद्वेगों को उपशान्त करके एक-एक करके चौदहवे गुणस्थान तक आरोहण मार्ग पर ग्राहढ होता जाता है । यही इसकी विशिष्टता है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यगुचारित्र की सम्यक्साधना के कठोर अनुपालन के कारण ही जैनसाधना कभी भी वाममार्ग की भ्रष्ट पंचमार्ग साधना में भाज तक नहीं भटक पायी चरित्रगत ऊंचाइयां लांघ कर ही साधक केवली या तीर्थंकर बन अपना कल्याण या समस्त मानवजाति को कल्याणमार्ग सुझाने का उपक्रम रच सकता है ।
बोद्धसाधना भी न्यूनाधिक रूप में शीलप्रधान रही है। इसकी हीनयानी साधना व्यक्तिगतसाधना या अद्वैतसाधना तक केन्द्रित रही है किन्तु महायानी साधना करुणा पर प्राधारित होकर बोधिसत्व साधना वन समस्त प्राणी जगत् के कल्याण की कामना करती है। राजयोग पर ही मुख्यतः ये दोनों साधनाएँ आधारित हैं। कुछ दिनों वज्रयान की वाममार्गी साधना की अपकीर्ति से भी यह व्यथित रही । ध्यान और शीलगत आचार इस साधना के प्रबल साधन रहे हैं ।
उक्त दोनों साधनाएँ किसी न किसी रूप में पातंजल योगसाधना की अनुगामिनी अवश्य रही हैं पर इन दोनों ने उन साधन प्रक्रियाओं को अपने-अपने ढंग से संवारा है, परिमार्जित किया है एवं संशोधित किया है। फिर भी अन्य साधनाओंों की भांति ये भी साधक को एकाकी किसी गिरिकन्दरा या शान्त उपत्यका वासी बनाने का उपक्रम अधिक करती हैं। जैनसाधना की उग्रता, कठोरता और सर्वथा अपरिग्रही साधना सभी के बस की बात नहीं है । शीलगत प्राचार विधान का शास्ता जब तक रहता है तभी तक कारगर साबित होता है। शास्ता के प्रयाण करते ही उसमें ढील पोल माने लगती है, स्वैराचार, अपवाद सुविधाएं भोगने की अदम्य लालसा जाग्रत होने लगती है । यही कारण है कि जैन-बौद्ध और वैदिक साधनानों में काफी स्खलन-पतन और अधोगमन होता रहा है। युग की मांग के अनुरूप इसीलिए महर्षि अरविंद ने उन सभी प्रणालियों से सार ग्रहण करते हुए पूर्णयोग की साधना पद्धति नूतन रूप से संजोने का प्रयास किया है।
इसी प्रकार उन्होंने समकालीन चिन्तन में फैली हुई अनेक भ्रान्तियों का भी निराकरण किया है। जैसे प्राजकल कतिपय व्यापारियों ने योग प्रशिक्षणकेन्द्र खोल कर इसे शारीरिक व्यायाम में ही केन्द्रित कर दिया है । अन्य कुछ चिकित्सा प्रेमियों ने इसे शारीरिक और मानसिक रोगों की रामवाण अचूक दवा घोषित किया है। कहीं-कहीं मानसिक तनाव, कुष्ठा, उद्विनता, शान्ति से छुटकारा पाने के लिए योगिक क्रियाओं का मखौल बनाया जाता है। आसन-प्राणायाम व ध्यानकेन्द्र की स्थापना के द्वारा यही नहीं वरन् पाश्चात्य देशों में प्रचारप्रसार के बहाने अनेक योगाचार्य, संन्यासी, योगी बन दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगे हुए हैं। महर्षि अरविंद ने अपनी दीर्घकालीन साधना के द्वारा जहाँ योगसाधना रूपी नवनीत को गिरिकन्दरा के एकान्त कानन से बाहर निकाल कर सरल-सुगम धौर व्यावहारिक बनाया है। वहीं 'योग समन्वय' तथा अनेक मार्मिक और गूढ़ रहस्यों को खोजने वाले लेख लिखकर एन. सी. पाल, फरुखर, म्यूलर आदि योगविद्या का 'क' 'ख' न जानने वाले पाश्चात्य विद्वानों का मुंहतोड़ उत्तर दिया है।
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अन्य योग साधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना / १८७
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् तक पहुँचने और उन्हें उपलब्ध करने के सहस्रों मार्ग हैं और प्रत्येक मार्ग के अपने-अपने अनुभव हैं। उन अनुभवों का अपना-अपना सत्य है । वस्तुतः देखा जाय तो समस्त अनुभव एक ऐसे प्राधार पर स्थित हैं जो सारतः एक है पर विविध पक्षों की दृष्टि से बहुत जटिल बन गया है । यह है तो सर्वजनीन लोग एक ही ढंग से अभिव्यक्त नहीं करते। इसीलिए वाद-विवाद और उपस्थित हो जाता है जिससे कोई विशिष्ट उपलब्धि नहीं हो पाती। अपना निजी मार्ग खोजना और उसका पूरी तरह अनुसरण करना आवश्यक है। महर्षि अरविंद इसीलिए प्रचलित योगसाधनाम्रों का मंथन कर अपना अभिनव मार्ग अन्वेषित करते हैं जिसमें स्थूल सूक्ष्म में और सूक्ष्म अध्यात्म में रूपांरित होते चले जाते हैं। सर्वागयोग की स्थापना करते हैं।
को इस रूप में धनुभूत भगवान् ही इसे वहाँ
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निर्लिप्त पुरुष एवं
इस साधना में चैत्यपुरुष (जो मन प्राण से भिन्न प्रन्तरात्मा है) किया जा सकता है कि यह हृदय में विराजित भगवान् का अंश है अवलम्बन प्रदान करते हैं। यह स्यपुरुष साधना का भार अपने ऊपर ले लेता है और सम्पूर्ण सत्ता को सत्य एवं भगवान् की ओर मोड़ देता है। फलतः स्थूल चेतना, मन और प्राण में ' इसके परिणाम उत्पन्न होने लगते हैं यही प्रथम रूपान्तरण है। इसके पश्चात् साधक एकमेव धात्मा ब्रह्म या भगवान् का अनुभव करता है। प्रथमतः शरीर प्राण-मन के ऊपर उस परम तत्त्व का अनुभव होता है जो ऊर्ध्वं स्वतंत्र एवं सत्ता है, सबमें विद्यमान स्थितिशील श्रात्मा है और साथ ही सक्रिय भागवत शक्ति या ईश्वरशक्ति के रूप में गतिशील भी है। जगत् को अपने में समाये हुए है, इसमें व्याप्त है तथा इससे प्रतिक्रान्त भी है । वही जगत् के समस्त रूपों को प्रकट करता है। वह एक ऐसे परात्पर प्रकाश, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता, शान्ति एवं प्रानन्द के रूप में प्रकाशित होता है जिसका हम सचेतन अनुभव करते हैं । वही हमारी सत्ता के अन्दर अवतरित होता है और स्वयं हमारी साधारण चेतना के स्थान पर उत्तरोत्तर अपनी गतियों को प्रतिष्ठित करता है। यही द्वितीय रूपान्तरण है। इसके पश्चात् ही हमें यह अनुभव हो पाता है कि स्वयं चेतना ऊपर की ओर गति कर रही है और अनेक स्तरों - भौतिक, प्राणिक, मानसिक, अधिमानसिक में से प्रवेश करती हुई विज्ञानमय और प्रानन्दमय स्तरों की ओर प्रारोहण कर रही है । ग्रन्य भारतीय मनीषियों की तरह महर्षि अरविंद भी अपनी निरभिमानता प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह मेरे द्वारा सर्जित कोई अनूठी या विशिष्ट प्रणाली नहीं है वरन् उपनिषदों में वर्णित सनातन साधना विधि है। जैसा कि 'तैत्तिरीय उपनिषद्' में कहा गया है कि पाँच पुरुष हैं-"अत्रमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा श्रानन्दमय पुरुष" उपनिषद् उद्घोष करता है - " साधक को चाहिए कि वह अपनी अन्नमय आत्मा का प्राणमय श्रात्मा में, प्राणमय का मनोमय में, मनोमय का विज्ञानमय में तथा विज्ञानमय का आनन्दमय आत्मा में प्रत्याहार करे और इस प्रकार पूर्णता उपलब्ध करे ।" किन्तु सर्वांगयोग साधना में हमें ( साधक को ) अन्नमय आत्मा का ही नहीं वरन् उच्चतर आत्मा की शक्ति के नीचे की ओर प्रवाहित होने का भी अनुभव होता है । फलस्वरूप हमारी वर्तमान प्रकृति को अधिकृत एवं परिवर्तित करने एवं इसे अविद्या की प्रकृति से सत्यज्ञान की प्रकृति में श्रौर विज्ञानमय प्रकृति को श्रानन्दमय प्रकृति में परिणत करने के लिए विज्ञानमय आत्मा और प्रकृति का अवतरण सम्भव हो जाता है । यही तीसरा और अन्तिम श्राध्यात्मिक
परन्तु जिसे सब मार्गों का जंजाल
आसनस्थ तम
आत्मस्थ मन
तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड | १८८
अचेनार्चन
रूपांतरण है। ये रूपांतरण इसी क्रम में हों यह प्रावश्यक नहीं है। जन्म-जन्मान्तरों की साधना के फलस्वरूप अनेक साधकों में अन्तरात्मा के सामने आने और साधना का भार लेने से पूर्व ही आध्यात्मिक अवतरण अपूर्व रूप से प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु इससे पहले कि पूर्ण और निर्बाध आध्यात्मिक अवतरण साधित हो सके प्रान्त र आत्मिक विकास उपलब्ध करना आवश्यक है और अन्तिम विज्ञानमय रूपांतरण तब तक सम्पन्न नहीं हो सकता जब तक पहले दो पूर्ण और परिपक्व न हो लें।
इन तीनों रूपांतरणों को भलीभाँति घटित करने और समझने के लिए श्री अरविंद के आरोह-अवरोह क्रम के सप्त बिन्दु विकासक्रम को संक्षिप्ततः जान लेना आवश्यक है । 'दिव्यजीवन' में इस विकास क्रम का सारगभित विस्तृत सैद्धान्तिक विवेचन किया गया है जिसे 'योगसमन्वय' में क्रियान्वित करने का सुगम उपक्रम किया गया है। निरंतर ऊपर उठने की चेष्टा (प्रयास) ही साधना कहलाती है। इसीसे साधक क्रमशः सिद्धि प्राप्त कर देह-प्राण-मन भूमियों से ऊपर उठकर विज्ञानमय भूमि में पहुँच जाता है और प्रानन्द-चैतन्य-सत् का अवतरण झेलने में सक्षम हो जाता है। वस्तुतः श्री अरविंद के विकासक्रम में कोई भी स्तर कोई भी बिन्दु निरर्थक नहीं है । सभी परमेश्वर की लीलाभूमि से सम्बद्ध होने के कारण अपने-अपने दायरे में सार्थक होता है।
मानव परमेश्वर की अद्भुत जटिल रचना है। इसमें शरीर, प्राण एवं मन की पृथक्पृथक् सत्ता नहीं है वरन् अपने-अपने केन्द्रों से सम्बद्ध एक की अपेक्षा दूसरे का गौण-प्रधान उपयोग होता है। यहाँ शरीर संस्थान का क्षेत्र है शरीर के अधोभाग से लेकर नाभि तक, नाभि से लेकर हृदय तक का क्षेत्र प्राणकेन्द्र एवं हृदय से लेकर मूर्धा तक का क्षेत्र मानसकेन्द्र के अन्तर्गत है। गौण-मुख्य-भाव से देह उसे कहा जाता है जिसमें प्राण और मन की क्रिया सुप्त अर्धसुप्त या गौण होती है और शारीरिक क्रियाएँ मुख्य । प्राण वह केन्द्र है जिसके द्वारा शरीर-संस्थान अधिकृत होता है और मन अर्धस्फुट या अस्फुट होता है। मन वह स्फुट जाग्रत केन्द्र है जिसका अधिकार देह और प्राण दोनों पर होता है। बौद्धसाधना की पदावली में बोलना हो तो शरीर को भोग-प्रायतन, प्राण को क्रियाशक्ति-पायतन तथा मन को विचार-चिन्तन-पायतन कहा जा सकता है। शरीर-प्राण-मन की क्रमशः तीन वत्तियाँभोगैषणा, कमँषणा एवं ज्ञानैषणा प्रस्फटित होकर मानव में लीला करती रहती हैं। शरीर और प्राण की वृत्तियों के कारण मानव मानव नहीं कहलाता वरन मनन-चितन करने यानी ज्ञानषणा प्रधान होने के कारण ही यह वनस्पति तथा पशुरूपी प्राणीजगत् से ऊपर स्थित कहलाता है। ज्ञानैषणा के कारण ही यह आत्मचेतन कहलाता है जिसके कारण वह अपने आपको जानने का प्रयास करता है। क्योंकि यह चेतना का विशिष्ट उद्भव न तो पशु में और न ही उद्भिद् में विद्यमान है। इसीलिए क्षेत्रज्ञ होने का दिव्य संदेश दिया गया है। मानव जितने-जितने अंशों में प्रात्मचेतन या जाग्रत होता जाता है, अपनी साधना में वह उतना ही ऊपर उठता जाता है। प्रात्मचेतना का अर्थ है अपने में एक अलगाव भाव, विभेदबुद्धि-विवेक शक्ति का विकास करना या ज्ञाता-ज्ञेय में सम्बन्ध स्थापित करना । "मैं जानता है" इसे जानने के प्रयास में अपने आप को जानने की वस्तु से पृथक् करने का प्रयत्न सन्निहित है। इसी कारण वेद-उपनिषद प्रादि निगम और सभी पागम शास्त्रों के मनीषियों,
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सभी सिद्ध पुरुषों और साधकों ने एक स्वर से यह उद्घोष किया है-'अपने पापको जानो' 'Know Theyself' 'आत्मा वैकं जानथ' ।
अब समस्या उठती है कि प्रात्मा को कहाँ और किस प्रकार उपलब्ध किया जाय ? मैं या 'अहम्' का बोध सर्वसाधारण है। यह सहज-सरल एवं स्वाभाविक बोध है जो सभी भावों, विचारों एवं कार्यों, में अनुस्यूत है क्योंकि आत्मसत्ता की चेतना में ही सभी भाव-ज्ञानकर्म एकत्व प्रसक्त करते हैं। 'सूत्रे मणिगणा इव'--मणि, मुक्तानों को सूत में पिरोकर जैसे एक सुन्दर माला गंथी जाती है उसी प्रकार उक्त सभी आत्मा में ग्रथित रहते हैं। प्रश्न तब उपस्थित होता है कि यह 'मैं' का बोध सदैव हमारी जाग्रत चेतना के धरातल पर प्रवतरित क्यों नहीं होता। इसका एकमात्र कारण चंचलता-भावचंचलता, विचार (ज्ञान) चंचलता, कर्मचंचलता। भाव, विचार और कर्म के विक्षोभ, आलोडन होने के कारण भाव-विचार-कर्म में रहने वाली स्थिर 'मैं' सत्ता स्पष्टतः अंकित नहीं होती। इन तीनों वृत्तियों के राग में हम इतने मस्त हो जाते हैं कि अपने-पापको खो देते हैं। कभी-कभी विचार बुद्धिकौशल के द्वारा इस 'मैं' को पकड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाता है और विश्लेषण प्रक्रिया में इतना उलझ जाता है कि बाल की खाल उधेड़ने लगता है। प्याज के छिलके खोलते-खोलते वह अन्त में प्याज को नहीं पाता। वन में जाकर वह वन को नहीं देखता है केवल पेड़ ही दृष्टिगोचर होते हैं।
अतः सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि हमारे सभी प्राधारकेन्द्र, अचंचल, स्थिर, शान्त और साम्य अवस्था में निश्चल एवं निस्तब्ध हो जायें। तभी विक्षोभविहीन निर्मल प्रशान्ति अवस्था में 'मैं' की सत्ता आत्मचेतना की पृष्ठभमि पर स्पष्टत: खिल उठेगी। सम्भवतया इसी कारण राजयोगी महर्षि पंतजलि ने चित्तवत्तियों के विक्षोभ का शांत करना ही योग माना है, कारण ऐसा करने पर ही साधक दृष्टारूप में अपने निगूढ़ स्वरूप का साक्षात्कार करता है और उसीमें प्रतिष्ठित होता है। योगराज गोरखनाथ ने भी हठयोग की विविध क्रियानों, ग्रासन और प्राणायामों द्वारा देह और प्राण की चंचलता को सुस्थिर बनाने का प्रयास किया है।
इसी 'मैं' को दार्शनिकों ने जीव, पुरुष या जीवात्मा कहा है। जिस समय जिस प्रकार की वत्ति जगती है उस समय जीवात्मा भी उसी केन्द्र में प्राश्रयण लेता है। जैसे जब हममें शारीरिक भोग की प्रेरणा जाग्रत होती है तब अधोभाग के निम्नतम केन्द्र में विचरण करते हैं, नाभि केन्द्र में होते हैं। फिर आवेग, उत्तेजना के कारण जब हम उद्दीप्त हो उठते हैं, विभिन्न क्रियाकलापों में जुट जाते हैं तब जीवात्मा हृत पिण्ड में ऊपर उठकर पा गया होता है। उसके पश्चात् जब हम सोचते हैं, विचार या चितन करते हैं तब विचार-वितर्क-ध्यानधारणा के केन्द्र मस्तिष्क में उत्थित हो जाते हैं। प्राणीजगत् में वनस्पतियों का मुख्य आधार केन्द्र अधोभाग में, पशुओं का निम्नांग में तथा मनुष्य का मूर्धाभाग यानी मस्तिष्क में है। यद्यपि मानव की वृत्तियाँ तीनों केन्द्रों में चढ़ती उतरती रहती हैं पर उसका स्वाभाविक आवास नाभि या हृत पिण्ड में नहीं पर उच्चांग मस्तिष्क में है। इसलिए उसमें ऊपर की ओर उठने की स्वाभाविक गति पायी जाती है। किन्तु किसी एक स्तर में स्थिर हो जाने का अर्थ है उससे ऊपर वाले स्तर में पहुँच जाना। निम्नस्तर को अधिगत करने के लिए उच्चस्तर
आसनस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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में उत्थित होना अपरिहार्य है। इस उत्थान-क्रम में किसी भी स्तर की अवहेलना कर उसे गहित या हेय मानकर छोडने की आवश्यकता नहीं है। श्री अरविंद की सर्वांग योगसाधना की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह निम्न को रूपांतरित कर उच्चस्तर में प्रतिष्ठित होने का अमर संदेश देती है। देह-प्राण स्तर पर अधिकार करने के लिए दूसरे स्तर-मनबुद्धि पर प्रतिष्ठित होना आवश्यक है। इस मन-बुद्धि को अधिकृत करने के लिए मस्तिष्क में प्रतिष्ठित होना होगा। ऐसा अनुभूत करने के लिए सतत साधना करने की आवश्यकता है। स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तक जाने का एक सज्ञान प्रयास करना होगा। साधना जैसे-जैसे परिपक्व होती जायेगी वैसे-वैसे हम यह साक्षात अनुभूति करते जायेंगे । आधार के ऊर्ध्वस्तर में अधिष्ठित होना ही प्रभीष्ट प्रदायक नहीं है वरन् इससे भी ऊपर उठकर आधार के बाहर ब्रह्मरंध्र के ऊपर सहस्रार में तुरीय अवस्था में स्थित हो जाना है। यही परम सिद्धि है। नव-जीवन नव सृष्टि का उन्मेष हमारे अन्दर और बाहर हो रहा है। समस्त ग्रंथियां छिन्नविच्छिन्न हो जाती हैं। यही उपलब्धि षट चक्र भेदन द्वारा योगसाधना का परम प्राप्तव्य है। इस प्रकार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय कोश का भेदन कर जब साधक विज्ञानमय कोश में पहुँचता है तो उसके समस्त द्वन्द्व, संशय, संघर्ष परिसमाप्त हो जाते हैं। इसी अवस्था में विराट प्रात्मा से एकात्म होकर जीवात्मा का मिलन होता है। यही है जीवनमुक्ति । किन्तु विज्ञानमय कोश का भेदन कर उससे भी ऊपर जाना होगा जो सच्चिदानन्द का क्षेत्र है। विज्ञान का क्षेत्र क्रमशः अधिकाधिक उदार होता हुआ, बृहत् होता हुआ अन्त में असीम अनन्त में जाकर मिल जाता है। इस अनन्त में अनेक का बोध, विशेष का अभिज्ञान विलुप्त हो जाता है । वह अद्वैत, एक एवं अनिर्वचनीय हो जाता है। शरीर विनिमुक्त होकर जीव यह कैवल्य-मुक्ति पा जाता है। यही असीम अनन्त सत-वित्-प्रानन्द सृष्टि का, जीव का मूल उद्गम स्रोत है। सबके ऊपर सबके पीछे रहकर यह सबको धारण किये हुए है। यह चरम साम्य, निर्विकार, विशुद्ध अरूप अवस्था है। रूप का जब विकास, सृष्टि का प्रारंभ ज्योंही होता है त्योंहो अनन्त प्रानन्द-चित-सत अवतरित होकर विज्ञानमय क्षेत्र में नीचे पाता है। अनन्त-निराकार जब प्राकार धारण करना चाहता है तब आकार से अन्तरिक्ष, अन्तरिक्ष से मूर्दा, मूर्द्धा से हृदय, हृदय से नाभि, नाभि से उपस्थ, इस प्रकार एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में क्रमशः प्रविष्ट होता है, अवतरित होता है। सत्-चित्-पानन्द, विज्ञान, मन, प्राण और देह का क्रमशः अवतरण होता है।
पारोहण क्रम में दो प्रमुख बाधाएं आती हैं। प्रथम देह-प्राण-बुद्धि-मन आदि का अतिक्रमण कर जब साधक ऊपरी क्षेत्रों में उत्थान करता है तब वह अगले केन्द्र में उपस्थापित हो जाता है, तब उसे नीचे के अतिक्रमित क्षेत्र छायामात्र माया, कृत्रिम, भ्रमपूर्ण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। वह ऊर्ध्व क्षेत्र में ही विचरण करना चाहता है। इसे ही चरम उपलब्धि मानने लगता है। अनन्त का स्वाद सान्त के प्रति विस्वाद उत्पन्न करने लगता है। अवरोहण क्रम की बाधा दूसरी है। इसमें साधक ऊपर उठे बगैर भागवती सत्ता को नीचे उतार लाने में लालायित रहता है । सान्त में रहकर अनन्त को पाना चाहता है। उक्त सभी योग साधनाएँ इसी प्रकार अनन्त को पकड़ने की चेष्टा करती हैं जैसे हठयोग देह और प्राण में, राजयोग मन में, ज्ञानयोग, भक्ति-कर्मयोग ज्ञान, भाव और संकल्प में, तान्त्रिक साधना भोगैषणा में अनन्त को पकड़ना चाहती है। किन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक पाधारकेन्द्र का पूरी तरह रूपांतरण
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नहीं होता। इसके बिना अनन्त की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है
'देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।'
अर्थात जो लोग ज्ञान-देवता की उपासना करते हैं, वे मेरी ही एक विभूति को प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार हृदय के देवता को, मन के देवता, प्राण-देवता या देह-देवता को परितृप्त करते हैं, वे सब मेरे ही एक ऐश्वर्य के अधिकारी होते हैं; परन्तु मुझको, पूर्ण मुझको वे ही प्राप्त करने के अधिकारी हो सकते हैं जो केवल मुझे ही पाना चाहते हैं ।
वास्तव में देखा जाय तो ऊर्ध्व और अधो क्षेत्र का सत्य अलग-अलग नहीं है। अनन्त आकाश पृथ्वी की ओर से मुंह फेर कर दूर नहीं गया है वरन् पृथ्वी को घेरे हुए पृथ्वी की ओर ही झुका हुअा है। Convex और Concave का ही संयोग है। नतोदर और उन्नतोदर का संयोग है।
महर्षि अरविंद ने अपनी साधना के लिए दो सोपान विधियां आवश्यक बतलाई हैं। प्रथम एकाग्रता तथा द्वितीय वैराग्य । एकाग्रता अभ्यास क्रम ही है जिससे साधक क्रमशः धारणा, ध्यान द्वारा समाधि में लीन हो जाता है। वैराग्य निवृत्ति है, विशुद्धि क्रम । देह-प्राण-बुद्धिमन के कल्मष को धोकर ही या इनको परिशुद्ध कर ही विज्ञानमय क्षेत्र में पहुँचा जा सकता है। यहां भी 'अहं' का मोह उसे पददलित करता रहता है, अत: इससे भी पार जाना होगा। एक-एक क्रम ऊपर उठना तथा एक-एक क्रम को परिशुद्ध बनाकर साधक भागवती सत्ता का अनन्य सदस्य बनता है । उसे कुछ भी खोना नहीं पड़ता। संदर्भ ग्रन्थ (१) योगसमन्वय पूर्वाद्धं-[अध्याय १, २, भूमिका ४ प्रथम भाग]
[अध्याय १-३,४,५,६-९,१०-१३,द्वितीय भाग] (२) योगसमन्वय उत्तरार्द्ध-[अध्याय १, ४-५, ६, ७, तृतीय भाग] [अध्याय १-९,
चतुर्थ भाग] (३) श्री अरविंद के पत्र भाग २ [अध्याय १-२ एवं ३] (४) योगसूत्र (५) हठयोगप्रदीपिका (६) कुलार्णवतंत्र (७) दिव्य जीवन प्रथम दो भाग
प्रवाचक
दर्शन विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)
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योग और उसकी प्रासंगिकता
अर्चनार्चन
डॉ० विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
पतंजलि के 'योगशास्त्र' में चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा गया है। इसके दो अर्थ हैं, एक तो यह कि-व्यक्ति अपनी स्वभावत: या प्रकृतित: चंचल मनोदशात्रों के बिखराव को रोक कर उन्हें इष्टविषय पर केन्द्रित करे, दूसरे यह कि मनोवृत्तियों का दमन किया जाए क्योंकि वे जब तक हैं, तब तक चेतना को केन्द्रीकृतएकाग्र नहीं होने देतीं और अपनी संतुष्टि के लिए वे चेतना या प्रात्मा को पथभ्रष्ट करती हैं या उसे इन्द्रियज-अनुभवों या शब्दस्पर्श रूप-रस और गंध के विषयों में लगाए रहती हैं, उसे स्वस्थ या अपना अवलोकन नहीं करने देतीं। चूंकि योगशास्त्रों में, एक मत से पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता मानी जाती है, अतः पिण्ड में यानी प्रत्येक प्राणी में, जो ब्रह्माण्ड भर की शक्ति है-कास्मिकपावर छिपा हुग्रा है, उसे विकसित या रूपान्तरित करने में मुख्य बाधा वृत्तियां (Moods) डालती हैं प्रतः वत्तिदाह, वत्तिनिरोध ही योग है। इन वृत्तियों में प्रवृत्तियां (Instincts) भी प्रकट होती हैं।
योग का यह स्वरूप वैदिक, जैन तथा बौद्ध (प्रारम्भिक या हीनयान) योगशास्त्रों में सर्वमान्य है किन्तु तान्त्रिक योगशास्त्रों में योग की उक्त परिभाषा से बिल्कुल उल्टी परिभाषा और अभ्यास (साधना) स्वीकृत है। तन्त्रयोग यानी वाममार्गी शैव-शाक्त-बौद्ध प्रागमों में वज्रयान-सहजयान और शाक्तशास्त्रों में, अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में, वामयोगानुसार योग का वृत्तिनिरोध या वृत्तिदमन अग्राह्य है क्योंकि इसमें प्रकृति प्रदत्त जो वृत्तियां हैं, उनके दमन या दाह या विनाश का उपदेश है जो मनोविज्ञान के विरुद्ध है। तान्त्रिकयोग, मनोवैज्ञानिक है यानी वह प्रकृति द्वारा प्राप्त किसी भी वस्तु या वृत्ति को अकल्याणक नहीं मानता । प्रकृति को तान्त्रिकयोगी शक्ति या चिति का स्थल रूप मानते हैं । अतः ये जो वत्तियाँ हैं, प्रवृत्तियाँ, इच्छाएँ और मनोदशाएँ, मूड्स, ये प्रकृति ने मनुष्य को दी हैं उसके मंगल के लिए, उसके विकास और मुक्ति के लिए, लेकिन उसे उनका सदुपयोग पाना चाहिए ।
क्योंकि तांत्रिकों के अनुसार ब्रह्माण्ड शिव है--शरीरं त्वं शम्भोः, अतः प्रकृति के निरोध का अर्थ दमन नहीं रूपान्तरण होना चाहिए, उदात्तीकरण । इसीलिए कहा गया है
__"यत्र यत्र मनो याति, तत्र तत्रैव धारयेत्" । जहां-जहाँ मन जाए, वहाँ उसे रोको। मन को या वत्तियों को दबायो मत, उनको साधो, उन्हें बदलो, उनको मूलसत्ता या प्रकृति का स्वाभाविक स्पन्दन या (Movement) मान कर, उन्हें उनके विषयों में लगाओ और स्वयं भीतर से तटस्थ रहना सीखो तो ये जो वृत्तियां हैं, स्वत: चांचल्य छोड़ कर चेतना को ऊर्वीकृत कर देगी और जो वृत्तियाँ पतन का कारण समझी जाती हैं, वे मुक्ति का कारण बन जाएंगी।
मधुर ध्वनि सुनने की इच्छा स्वाभाविक है, इसका दमन न करो। ध्वनिमाधुर्य में यदि किसी व्यक्ति को प्रानन्द प्राता है तो उसमें तल्लीन हो जानो किन्तु उस प्रक्रिया में,
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योग और उसकी प्रासंगिकता | १९३
उस क्षण या क्षणों में यह सोचो कि यह जो नादसौन्दर्य या ध्वनिमाधुर्यं है, यह समूची सृष्टि की सतत प्रक्रिया का प्रतिफलन है यानी इस सृष्टि का होना (Becoming) सृष्टि का होते रहना या उसका होरहापन अपने बोध में लाप्रो। इससे इन्द्रियज अनुभव ब्रह्माण्डगत-कास्मिक ज्ञान से जुड़ जाएगा और जिस अनुभव के नीचे या पीछे ज्ञान जुड़ा हुआ है, उसमें पतन हो ही नहीं सकता । इसी तरह शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के जो इन्द्रियज अनुभव हैं, वे अनुभव स्वाभाविक हैं और यदि उनके साथ उक्त परिज्ञान जुड़ा हो तो इन्द्रियज अनुभव उसके साथ जुड़े ज्ञान के कारण इन्द्रियातीत ज्ञान की अग्नि में प्राहुति की तरह पड़ेगा और मानवचेतना
प्रानन्दित हो उठेगी। इस तरह तांत्रिक योग में योग का अर्थ वृत्तिनिरोध नहीं, वृत्ति का __ रूपान्तरण है यानी निरोध का अर्थ है, Transformation of human consciousness the rough Sensuous exprieence.
इस प्रकार योग दक्षिणयोग और वामयोग इन दो भागों में बँटा हया है। अधिकारीभेद से साधना का विधान है। उदाहरण के लिए जिस व्यक्ति के मन में इन्द्रियज अनुभवों की क्षणभंगुरता देखकर उनसे विरक्ति उपजती है, वे दक्षिणपंथी योग करें यानी वृत्तियों के दमन का मार्ग अपनाएं किन्तु जिनके मन में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के प्रति प्रबल आकर्षण है, जो भोगोन्मुख हैं, कामनाएँ और वासनाएँ जिन्हें तृप्ति के लिए प्रतिक्षण ललचाती हैं, ऐसे व्यक्तियों के लिए तांत्रिक या वाममार्गी योग का विकल्प है जो भोग को योग में परिणत कर देता है। जिस तरह लोहा पानी में डूब जाता है मगर उसे पीट कर, उसकी नाव बना लेने पर समुद्र को पार किया जा सकता है, उसी प्रकार वासनाओं, कामनाओं, इच्छाओं और वृत्तियों, संक्षेप में काम, क्रोध, मद, लोभ का रूपांतरण संभव है । इसकी पद्धति विषस्य विषमौधषम है, विष को विष से मारो, काम को काम से, लोभ को लोभ से, भय को भय से जीतो । स्पष्ट है कि यह विकटसाधना है, तलवार की धार पर चलना है । पर यह विकल्प तो है, कठिन होने से खतरनाक-क्षेत्र (Dangerous Zone) में उतरने से, अनुभवों की उत्कटता या संवेग की प्रबलता में भी अपने बोध या चैतन्य को जागत रखना कठिन है परन्तु तभी तो इसे वीरसाधना कहा गया है, कोमल और कायर इसे करेंगे तो पतन होगा ही मगर वीर व्यक्ति के लिए यह असंभव नहीं है।
दक्षिणपंथी योगियों-कपिल, पतंजलि, बुद्ध और जैन योगियों ने जमकर इस वाममार्ग का विरोध किया है किन्तु दक्षिणपंथियों या वैदिकमतावलम्बियों में भी राजा जनक तथा वासुदेव-कृष्ण जैसे उदाहरण हैं जिन्होंने स्वाभाविक जीवन का दमन न कर 'राजयोग' का अभ्यास किया और इन्द्रियज अनुभवों से संन्यास नहीं लिया।
__ संन्यासमार्गी योगियों में वैराग्य द्वारा योगसाधना हुई, वृत्तिदमन द्वारा। सभी संन्यासमागियों में यह सामान्य प्रवत्ति है चाहे वे जैन हों या वैदिकमतावलम्बी। इन वत्तिनिरोधकों में जैनयोग परम्परा का अपना महत्त्व है।
जैनयोग ध्यानप्रधान है। प्राचार्य हरिभद्र के योगबिन्द्र, योगदृष्टिसमुच्चय, योगशतक तथा योगविशिका में इस ध्यान का वर्णन है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने "योगशास्त्र' की रचना की, प्राचार्य शुभचन्द्र के "ज्ञानार्णव' में इसीका विस्तार है और जैनतांत्रिक योगसाधना (दक्षिणपंथी या शुद्धाचारी) का वर्णन है। उपाध्याय यशोविजय ने
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / १९४
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"अध्यात्मसार" ग्रन्थ लिखा। उन्होंने "योगावतार बत्तीसी" में जैनयोग की प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। जैनमत में "योगसार" ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।
आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र ग्रन्थ बहुत रोचक है। इसमें कोरा योग वर्णन नहीं है अपितु अनुभव की गूढ़ता भी है, गहराई भी जिसकी चेतना में विच्छिलता है, वह कोई । उपलब्धि नहीं कर सकता । सांसारिक उपलब्धि के लिए चेतना की एकाग्रता आवश्यक है अतः लौकिक और प्रात्मगत ( Subjective) अनुभव दोनों के लिए अपनी चेतना को जानना जरूरी है। प्रात्मबोध के विना इधर-उधर भटकने से कुछ मिलता नहीं है
तांस्तानापरमेश्वरादपि परान् भावं प्रसादं नयन्, पायमूढ, भगवन्नात्मन् किमायस्यसि । हन्तात्मानमपि प्रसादय मनाग् येनासतां सम्पदः साम्राज्यं परमेऽपि तेजसि तव प्राज्यं समुज्जं भते ! ( द्वावश प्रकाश, योगशास्त्र )
यह कितने आश्चर्य की बात है कि जिस चेतना से सब कुछ उपलब्ध होता है, मनुष्य उसको प्रसन्न नहीं करता, उसका विकास नहीं करता, उसको अनुशासित नहीं करता, उस पर प्रयोग नहीं करता !
वैराग्य, जैनयोग में योग का आधार है। यह वैराग्य कैसे हो, इसका मनोविज्ञान बताते हुए हेमचन्द्राचार्य मन को समझाते हैं। आधुनिक मस्तिष्क विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क के कतिपय केन्द्रों की गति ही 'मन' है, इन केन्द्रों को निष्क्रिय बनाना उन्मनावस्था है, जिसको कबीर ने 'उन्मन' या उन्मुनि' कहा है। मस्तिष्क के कतिपय केन्द्रों से उन्मुख रह कर मात्र 'होने' या अस्तित्व या प्राणसत्ता में तल्लीन होकर सर्वत्र एक लयानुभूति करना ही साधना है, मस्तिष्कगति या श्रात्मगति शंकुभूत (Pointed) न हो, किसी बलवम्न विशेष में संलग्न न हो, मात्र अपने में रमे, यह दशा ही आनन्द देती है क्योंकि वह अपने में सिमिट कर तटस्थ होकर, चीजों और व्यक्तियों के मूल में जो मूलसत्ता या प्रकृति है, जो अव्यक्त है, सूक्ष्म है, जिसमें मूलतः सारी दृष्टि विद्यमान है, उसका बोध जगाकर, उस बोधन अनुभूति में उस मूलज्ञान में उस मूलतत्व के अहसास में, तल्लीन होना ही निर्द्वन्द्वता है । संसार में सतह पर तो द्वन्द्व हैं उनसे परे जाकर अपने भीतर सिमिट कर ही निर्द्वन्द्व समाधि प्राप्त हो सकती है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने बाह्यविषयों के सम्पर्क में आते ही मस्तिष्क के कुछ केन्द्रों की अतिसक्रियता को मन कहा है । कृष्ण ने 'गीता' में मन वायु समान बताया है और हेमचन्द्र ने पवनसम । मन के प्रति उदासीन भाव से वह निष्क्रिय हो जाता है, यही उन्मनावस्था है
अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये ।
शिथिलीभवति शरीरं छत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा । ( द्वादश प्रकाश )
अमनस्कता से मन स्तब्ध हो जाता है और स्वचेतनावलोकन या आत्मपरामर्श का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इस उन्मनावस्था का वर्णन हेमचन्द्राचार्य ने इस तरह किया है-
विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोड्डीनमिव प्रलीनमिव कायम् अमनस्कोदय-समये योगी जानात्य सत्कल्पम् ।
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योग और उसकी प्रासंगिकता | १९५
उन्मनीभाव में शरीर बिखर सा जाता है, भस्म सा हो जाता है, मानो वह शरीर उड़ गया है, विलीन हो गया है, वह है नहीं अतः शरीरानुभूति का अत्यन्ताभाव ही उन्मनावस्था
जैनयोग में यहाँ तक तो अन्य योगियों जैसा ही अनुभव है, किन्तु पद्धति में अन्तर है। उदाहरण के लिए जैनयोग में प्राणायाम पर बल नहीं दिया गया है, यों 'योगशास्त्र' में उसका वर्णन है। ध्यान पर अधिक जोर है । और समाधि में सर्वविषयोपस्थिति का प्रभाव हो जाता है । इस मुक्तावस्था में निर्द्वन्द्वता के कारण, इन्द्रियों और मन के स्तब्ध या शान्त हो जाने से आनन्द प्राप्त होता है । इन्द्रियज और मानसिक सुखों में दुःख का, क्षोभ का लेश रहता है । समाधिज प्रानन्द में सर्वज्ञता और सर्वदशिता भी मिलती है, यह भी कहा गया है:
सादिकमनन्तमनुपममव्याबाधं स्वभावजं सौख्यम् प्रायः स केवलज्ञानदर्शनो मोदते मुक्तः । (एकादश प्रकाश)
योगानुभवों से चमत्कार भी होते हैं, असाधारण अनुभव होते हैं। इसका प्राचार्य हेमचन्द्र ने विस्तार से वर्णन किया है, जिसमें सिद्धियों और निद्धियों गगनगमन-परकायाप्रवेशादि का भी पल्लवन है और इसका भी कि एक इन्द्रिय से अनेक इन्द्रियों का अनुभव मिल सकता है। सौन्दर्यशास्त्र में इन्द्रियक्रमविपर्यय को माना गया है किन्तु यहाँ मात्र क्रमाविपर्यय नहीं बल्कि अनेकानुभवों की उपलब्धियों को माना गया है:
सर्वेन्द्रियाणां विषयान्-गृहृणात्येकमपीन्द्रियम् । यत्प्रमावेन सम्मिन्नश्रोतोलब्धिस्तु सा मता ॥ (प्रथमप्रकाश)
योगी जीभ से सूंघता और देखता है, नाक से चखता और देखता है, आँख से सुनता है, सूंघता है, चखता है-आदि ।
भाषागत या संज्ञा विशेषणादि के अन्तर के बावजद जैनयोग-सांख्ययोग-पतंजभलियोग जैसा ही है। जैनयोग में प्राचारपक्ष (सूर्यास्त के पूर्व भोजन, अहिंसादि) प्रबलतम है इतना कि अति पर पहुँच जाता है जबकि वैदिक परम्परा के योग विशेषकर राजयोग में युक्ताहार विहार को आवश्यक माना गया है:
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टा....(गीता)।
ऊपर के विवेचन में यह देखा गया होगा कि एक विशेष प्रकार का मनोविज्ञान योग के रूप में काम कर रहा है। यह कहा जा चुका है कि यह दो प्रकार का है, इन्द्रिय-निगह का दक्षिणपंथी योग और इन्द्रिय-अनुग्रह वाला वाममार्गी योग। दोनों का उद्देश्य निर्द्वन्द्व मनोदशा प्राप्त करना है । इसे यदि सही तौर पर समझा जाए तो यह प्रासंगिक हो सकता है। सांसारिक व्यवहार में द्वन्द्व होता है क्योंकि विभिन्न इच्छाएँ, ममताएँ, विचार और रागदेष तथा हित टकराते हैं । आदर्श समसामाजिक व्यवस्था बन भी जाए तो भी व्यक्ति के विकास की समस्या बनी रहेगी। द्वन्द्व साम्यवादी व्यवस्था में भी रहेंगे। अभी वे शोषणज हैं तब वे मनोदशागत, विकासगत प्रकृतिगत और भावगत होंगे। अतः सवाल वही है कि द्वन्द्वात्मक जगत के व्यावहारिक स्तरों पर कैसे जिया जाए ? योग एक विकल्प पेश करता है। निर्द्वन्द्व होकर द्वन्द्वों का सामना करना ही एकमात्र उपाय है अन्यया क्षोभ और तनाव में, उन्माद
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पंचम खण्ड | १९६
अर्चनार्चन
या वहशत में व्यक्ति अपने को रुग्ण बना लेगा या प्रात्मघात कर लेगा। वह रक्तचाप, हृदयशूल आदि का शिकार हो जाएगा।
योग, विशेषकर जैनयोग में ईश्वरवाद का भी झंझट नहीं है। योग निरीश्वर शारीरिक मानसिक साधना या ड्रिल है। सांख्य, जैन, बौद्ध मतों के योग में ईश्वर नहीं है, सिर्फ चेतना की एकाग्रता या ध्यान और धारणा है। अतः निरीश्वरवादी भी योग कर सकता है।
स्थूल सूत्रों से मनुष्य की चेतना और मन के चमत्कारों की व्याख्या नहीं हो सकती किन्तु सूक्ष्मता से देखें तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में भी पदार्थ (पुदगल) सूक्ष्म है और मानव शरीर चूंकि "अणोः अणीयान् महतो महीयान्" पदार्थ से बना है अतः उसकी शक्ति और संभावना का कोई अन्त नहीं है। योगसाधना का सोवियत रूस में गहन अध्ययन हो रहा है। पता चला है कि यंत्र विज्ञान (साईबरन टिक्स) के आधार पर दूर दृष्टि दूर श्रवण (टेलीपैथी आदि) आदि का अभ्यास हो रहा है और पाया गया है कि टेलीपैथी द्वारा पचास से सत्तर अस्सी प्रतिशत सफलता मिलती है। इसका भौतिकविज्ञान द्वारा अध्ययन करने पर ज्ञात हुअा है कि किसी दूरस्थ व्यक्ति पर ध्यान एकाग्र करने या स्मरण करने, विप्रलम्भ की दशा में सतत ध्यान करने जैसी दशामों में अदृश्य भौतिक किरणें निकलती हैं जो ध्यान या स्मरण के सातत्य से दूरस्थ व्यक्ति तक पहुँच कर उसे क्षुब्ध कर देती हैं।
योगज चमत्कारों के वैज्ञानिक अध्ययन का एक उपाय, योगी के शरीर पर यंत्र लगाकर, उसकी दशाओं का अंकन है, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, समाधि आदि में, योगी में क्या शारीरिक परिवर्तन होते हैं और क्यों?
यह रोचक और चुनौती भरा विषय है किन्तु आधूनिक, गतिशील युग में तनावों से और चिन्तामों से मानवशरीर को बचाने के लिए योग उपयोगी है, यह तथ्य तो पाप सभी ने स्वीकार कर लिया है। संभव है, विज्ञान से योगज पदार्थ और प्रत्यक्ष भी सिद्ध हो जाएँ, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान के रूप में योगजदशाओं का अध्ययन कर ही रहा है। अभी तक योग की अलौकिकता में अनेक संदेह हैं किन्तु दूरदर्शन या दूरश्रवण या दूरसंदेशप्रेषण जैसे अनुभवों को प्राज संदेहास्पद नहीं माना जाता।
जैनयोग का अध्ययन और प्रयोग इस सम्मोहक विषय में मदद कर सकता है, इसमें संदेह नहीं है।
'गया-प्रयाग' सात-३-पच्चीस
जवाहरनगर जयपुर
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योग का विज्ञानीय स्वरूप
० डॉ० वीरेन्द्र शेखावत
योग या प्रात्मविद्या प्राचीनतम भारतीय विद्या है जो अन्य प्राचीन संस्कृतियों के इतिहास में उपलब्ध नहीं होती। लेकिन भारत में यह प्रोपनिषदिक, बौद्ध, जैन, और शैव सिद्धान्तों में अत्यन्त विकसित रूप में उपलब्ध है और इन सभी ने इसमें नवीन अन्वेषण करने और इसका यौक्तिक विकास करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। यद्यपि बौद्ध नैरात्म्यवादी हैं, लेकिन इसके बावजूद वहाँ स्व-स्वरूप उपलब्धि विज्ञान के रूप में इसका विकास हुअा । इन विभिन्न सिद्धान्तों में मौलिक सिद्धान्तीय और पद्धतिविषयक भेद होते हुए भी योगविज्ञान के मूल सिद्धान्त समान हैं और इसमें एक नाभिकीय एकत्व है जो इसको एक सार्वभौमिक विज्ञान के रूप में स्थापित करता है। इस प्रकार हमें यह एक सर्वमान्य विज्ञान के रूप में उपलब्ध होता है जो तत्त्वमीमांसासम्बन्धी मतभेदों के बावजूद अनुभवपरीक्षा में एक व सम है। वे कौन से मूल सिद्धान्त हैं जो बौद्ध, जैन आदि योगविज्ञानों में समान रूप से मान्य हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने के लिए हमें योग के मानसिकीय विश्लेषण और अभ्यास की पद्धति पर विचार करना चाहिए। योग एक ऐसी मानसिक अवस्था को प्राप्त करता है जिसमें स्मृति का विकास, इन्द्रियों व मन पर नियन्त्रण, बुद्धि की शूद्धि, तर्कशक्ति योग्यता, एकाग्रता तथा प्रान्तरिक तल्लीनता आदि भो उपलब्धि होती है। विभिन्न सिद्धान्तों में इनको विभिन्न नामों से अभिव्यक्त किया गया है। इसी प्रकार इन मानसिकीय अवस्थानों को प्राप्त करने के लिए भोजन का नियन्त्रण, तपश्चर्या, श्वास-प्रश्वास के व्यायाम, देह के व्यायाम, एकाग्रता का अभ्यास, ब्रह्मचर्य पालन, वैराग्य प्रादि का अभ्यास करना अनिवार्य है जो पद्धतिविचार के अन्तर्गत पाते हैं। इन विभिन्न पद्धतियों को भी भिन्न सिद्धान्तों में भिन्न नाम दिए गए हैं। इन दोनों ही क्षेत्रों में पतञ्जलि का योगसत्र सर्वोपरि है क्योंकि उसमें मानसिकीय विश्लेषण और पद्धति पर बहुत ही सुन्दर और सुव्यवस्थित रूप से विचार किया गया है। वहाँ विभिन्न सिद्धान्तों-विशेषकर बौद्ध और जैन से भी सामंजस्य बैठाने का प्रयास किया गया प्रतीत होता है। आधुनिक शरीर-वैज्ञानिकों ने योगाभ्यास से उपलब्ध विभिन्न दैहिक क्रियाओं और परिणामों का सूक्ष्म अध्ययन किया है और ऐसा उन्होंने पातञ्जलि योगसूत्र को आधार मान कर ही किया है। अतः सिद्धान्तों की समानता की खोज में पातञ्जलि के मूल प्रत्ययों को केन्द्र में रखते हुए विचार करना लाभप्रद होगा।
२. मानसिकीय विश्लेषण के संदर्भ में पातञ्जलि का कथन है कि सामान्य मानव अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, व अभिनिवेश क्लेशों से पीड़ित रहता है। इन क्लेशों के फलस्वरूप ही अन्य जटिल विक्षेप जैसे व्याधि, स्त्यान, अविरति, भ्रान्तिदर्शन प्रादि होते हैं जिनसे जनित दु:ख मानव भोगता है। बौद्धों के अनुसार तृष्णामूल क्लेश है और जनों के अनुसार कर्माणों से संश्लिष्ट होने से अशुद्धि होती है । इनसे पीड़ित मानव बद्ध अवस्था
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पंचम खण्ड / १९०
में होता है जो स्वातंत्र्य युक्त और दुःखमय स्थिति है। ऐसे मानव की वृत्तियाँ 'त्रुटिपूर्ण होती हैं और उसकी वर्कक्षमता अत्यन्त सीमित होती है क्योंकि बुद्धि शुद्ध नहीं होती । यद्यपि अध्ययन, मनन, व तर्क के द्वारा हम अपनी बुद्धि को प्रशस्त कर सकते हैं और स्मृति को भी तीव्र कर सकते हैं लेकिन जब तक क्लेश रहेंगे हमारी उपलब्धियाँ सीमित ही रहेंगी और बुद्धि विषयनिष्ठ व सत्यपरक नहीं हो पाएगी। हमारी बुद्धि निरन्तर सक्रिय रहती है। अर्चनार्चन और यह वितर्क, विचार, घानन्द और पस्मिता भावों को प्राप्त होती रहती है । क्लिष्ट व अशुद्ध बुद्धि में ये भाव क्षीण व अस्पष्ट रहते हैं लेकिन जब क्लेशों का शनैः शनै हान होने लगता है तो बुद्धि प्रज्ञा रूप होती जाती है और इसके भाव भी स्पष्ट और तीव्र होते हैं। अतः क्लेशों, तृष्णा, व कर्ममल को नष्ट करना ही योग का मूल प्रयोजन है जिससे बुद्धि प्रज्ञा हो सके और ज्ञाता अपने स्वरूप को उपलब्ध कर सके। प्रत एक ऐसे कार्यक्रम पर विचार करने की आवश्यकता है जिसके निरन्तर अभ्यास करने से क्लेशरूपी मल धीरे-धीरे नष्ट हो जाएँ औौर बुद्धि प्रज्ञारूप होकर अपने भावों में स्पष्ट गति कर सके । प्रज्ञा जब अपनी चरमशुद्धि की अवस्था को प्राप्त होती है तब स्वस्वरूप की स्थायी उपलब्धि होती है जिसे समाधि या कैवल्य या बोध या शिवत्व कहा जाता है । यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है जिसमें बुद्धि व मन पूर्णतः शान्तभाव को प्राप्त हो सकते हैं निश्चल व पारदर्शी जल की तरह ।
३. मानस व बुद्धि की शुद्धि की इस उच्च अवस्था को प्राप्त करने के क्या उपाय हैं ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने हेतु भिन्न मतानुयायियों ने अनेक शोध व अन्वेषण किए हैं जिनमें संभवतया सर्वाधिक योगदान शैवों का रहा है । यहाँ इस पर पूर्ण मतैक्य है कि उपायों का वैराग्ययुक्त अभ्यास अनिवार्य है क्योंकि लम्बे व अनवरत अभ्यास की निरन्तर प्रक्रिया के बिना किसी भी फल की सिद्धि असंभव है। इन उपायों में तप अर्थात् उपवास धरती पर सोना, वस्तुओं का कम से कम उपयोग आदि ब्रह्मचर्य अर्थात् वीर्य की रक्षा और इस धातु का अधिकाधिक देह में ही रमाना, स्वाध्याय अर्थात् स्वस्वरूप के कारणों व प्रयोजनों तथा सृष्टि में आत्मा के स्थान आदि विषयों का अध्ययन, चिन्तन व मनन, मन्त्राभ्यास अर्थात् किसी वर्णसंयोजन का मन हो मन में निरन्तर उच्चारण, प्राणायाम, अर्थात् श्वास प्रक्रिया के निरोध के अभ्यास से प्राण वायु का देह में सर्वस्थानों में संचार, आसन अर्थात् देह के व्यायाम जिनमें विभिन्न क्रियामों पर मुद्राओं के अभ्यास से देह को स्वस्थ व शुद्धि प्रक्रिया के अनुकूल बनाना और ध्यान का अभ्यास, आदि कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके बारे में भी लगभग सभी मतों में ऐक्य है। लेकिन औषध प्रयोग जैसे पारद, भंग, चरस, मदिरा, व मांस का प्रयोग; काम शक्ति का संचालन और तदुपरान्त मनोनियन्त्रण, ईश्वर प्रणिधान अर्थात् प्रथमज्ञानदाता के प्रति समर्पणभाव, श्रादि उपायों के बारे में मतैक्य नहीं है । यद्यपि पतञ्जालि अपने योगसूत्र में श्रीषधप्रयोग द्वारा सिद्धि प्राप्ति का संकेत देते हैं लेकिन इसका सर्वाधिक प्रयोग शैव पद्धति में किया गया है जिसे हठयोग या तंत्र पद्धति कहा जाता है । इसी प्रकार पतञ्जलि ईश्वरप्रणिधान को साधक के प्रारंभिक अभियान में एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में स्वीकार करते हैं।
पतन्जलिमात्मस्वरूप उपलब्धि की पद्धति के दो चरण मानते हैं, प्रथम चित्तवृत्तिनिरोध और दूसरी क्लेशहान जो संस्कारनिरोध भी कही जा सकती है । चित्तवृत्तिनिरोध के भी
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योग का विज्ञानीय स्वरूप | १९९
दो चरण हैं जिन्हें प्राथमिक अभ्यास, जिसमें प्राणायाम, ईश्वरप्रणिधान, पासनाभ्यास आदि हैं और द्वितीय क्रियायोग, जिसमें तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का सम्मिलित प्रयोग होता है, प्रथम उपायों को जारी रखते हुए। इस प्रकार जब क्लेश ढीले हो जाते हैं तथा निरन्तर अभ्यास से धारणा, ध्यान और समाधि की अल्पकालिक क्षमता प्राप्त हो जाती है तो समाधि को अधिक गहन और दीर्घकालिक बनाते हए चित्तवत्तियों के पूर्णनिरोध की क्षमता होती है और क्लेश नष्ट हो जाते हैं। तत्पश्चात् निरन्तर अभ्यास से यह समाधि ही संस्कार निरोध भी सम्भव बनाती है। अतः अभ्यस्त और अनुभवी साधक के लिए समाधि की क्षमता, गहनता और दीर्घकालता सर्वोच्च अवस्था को उपलब्ध करने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
४. जहाँ पातञ्जलि इस उत्थान-प्रक्रिया को बुद्धि की शुद्धि के या समाधि के वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता चरणों में क्रमशः प्रगति के रूप में देखते हैं जिसके फलस्वरूप चित्त मणिवत् शुद्ध होता है, ज्ञानदीप्ति होती है, व विवेकख्याति होती है, वहाँ शैव इस प्रगति को कुण्डलिनी शक्ति जागरण और उत्थान के रूप में देखते हैं। इसे वे शक्तिचालन व चक्रभेदन की प्रक्रिया कहते हैं जो सहस्रार चक्र के खुलने में परिणत होती है। ये चक्र देह के भीतर हो शक्तिकेन्द्र हैं जो सम्भवतया विद्युतयुक्त नाड़ी-तन्त्र के केन्द्र हैं जो सामान्यतया पूर्णतः सक्रिय नहीं होते और अभ्यास से पूर्णतः सक्रिय होते हैं। सहस्रार हमारा मस्तिष्क है जो स्नायुतन्त्र का केन्द्र कहा जाता है और आधुनिक शरीरक्रिया विज्ञान के अनुसार जिसका एक तिहाई भाग ही सामान्य जनों में सक्रिय होता है। अतः शक्तिचालन और चक्रभेदन की शव व्याख्या आधुनिक विज्ञान के लिए अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है ।
प्राधुनिक शरीर-वैज्ञानिकों ने योगाभ्यास से होने वाले दैहिक परिवर्तनों का अध्ययन किया है। उनके अनुसार शरीरक्रियायों की क्षमता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि होती है, और देह के मल (Toxics) भी नष्ट होते हैं । कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन, जैसे आक्सीजन की कम मात्रा का उपभोग, रक्तपरिभ्रमण-गति का धीमा होना, रक्त का शुद्ध होना, शरीर की उपचयप्रक्रिया का धीमा होना, मस्तिष्क की सक्रियता का बढ़ जाना और हृदय के कार्य का अधिक सक्षम होने का यन्त्रों के द्वारा अध्ययन किया गया है और वेध द्वारा सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार जागत और निद्रा की अवस्थाओं का भी मस्तिष्कविद्यतीय परीक्षण यन्त्र से अध्ययन किया गया है । जागृत अवस्था में मानव मस्तिष्क से पाल्फा-तरंगें निकलती हैं और निन्द्रावस्था में बीटा-तरंगें निकलती हैं। योगी की पाल्फा और बीटा तरंगें अधिक स्पष्ट और नियमित होती हैं। यही नहीं, समाधि की अवस्था में ये पाल्फा-तरंगें अत्यन्त संकुचित हो जाती हैं और समाधि जितनी अधिक गहन होगी यह संकुचन भी उतना ही अधिक होगा। इसी प्रकार इस अवस्था में हृदय की विद्युतीय तरंगें भी संकुचित और धीमी गति वाली हो जाती हैं। अत: आधुनिक विज्ञान से समाधि के विभिन्न चरणों का यान्त्रिक वेध के द्वारा तरंगीय वर्गीकरण सम्भव हुअा है और अब मतभेदों की भी परीक्षा की जा सकती है और एक सर्वाधिक सक्षम योगपद्धति की खोज व स्थापना सम्भव हो गई है।
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दर्शन विमाग, राज. वि. विद्यालय, जयपुर
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अर्चनार्चन
योग-आसनों की प्रासंगिकताः विशिष्टता
[ शान्तिलाल सुराना
प्रदूषणों के कुहरे में फंसे मानवजीवन के लिये वैज्ञानिक प्राकृतिक सरल सुगम एवं सुलभ जीवनदायिनी चेतना केवल योगासन प्राणायाम से ही मिल सकती है तनावों से मुक्ति, शरीर के सारे अंगों के साथ श्वास-प्रश्वास की सहजगति तथा प्रत्येक अंग को शक्ति व आराम प्राप्त करने का आसन से बढ़कर आसान व सस्ता अन्य कोई तरीका नहीं है ।
शरीर के मुख्य संस्थानों के नाम व काम संक्षिप्त में इस प्रकार हैं- (१) अस्थिसंस्थान: हड्डियाँ, (२) संधि संस्थानः संधियाँ, (३) मांससंस्थान: मांस पेशियाँ, (४) रक्त व रक्तवाहक संस्थान: हृदय, धमनियाँ, शिरायें ( ५ ) श्वासोच्छ्वास संस्थानः नासिका, टेंटुआ, फुफ्फुस, (६) पोषण संस्थान : मुख, दांत, मेदा, छोटी बड़ी प्रांतें, क्लोम, यकृत । ( ७ ) मूत्रवाहक संस्थानः गुर्दे मूत्राशय, (८) वात या नाड़ी संस्थान: मस्तिष्क, नाड़ियाँ वातसूत्र, (९) विशेष ज्ञानेन्द्रियाँ: कान आँखें, नासिका, जिह्वा, त्वचा, (१०) उत्पादक संस्थानः अंडं शिश्न, योनि, गर्भाशय ।
इन संस्थानों को ठीक रखने के लिये कुछ सुझाव - ( १ ) सात्विक भोजन, सादा रहनसहन, जल्दी सोना उठना, नियमित शरीर तथा मन को स्वस्थ रखने के लिये योगासनोंप्राणायम की साधना करना । (२) स्वयं स्वस्थ रहना तथा दूसरों को स्वस्थ बनाने के लिये उक्त प्रेरणाएँ देना । ( ३ ) साधना केन्द्रों में जाकर योगक्रियायें केवल सीखने की दृष्टि से नहीं, अन्य को सिखाने के लिये नियमित करें ।
शरीर, मन, प्राण की शुद्धि के लिये ८ प्रकार के साधन बताये हैं जो इस प्रकार हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । यम अर्थात् चित्त को धर्म में स्थित रखने के साधन ५ हैं - (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य, (५) अपरिग्रह । नियम भी ५ प्रकार के हैं यथा1- ( १ ) शौच, (२) संतोष, (३) तप, (४) स्वाध्याय, ( ५ ) ईश्वरप्राणिधान याने मन, वाणी और कर्म से परात्मा की भक्ति करना, उनके गुणों का कीर्तन, मनन, करना। आसन - सुखपूर्वक स्थिर स्थिति में रहना । इन्हें २ भागों में बांटा गया है । (१) ध्यान आदि के लिये पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन ( २ ) आरोग्यार्थ – शीर्षासन, सर्वांगासन भुजंगासन, चक्रासन, वज्रासन आदि। इनसे शारीरिक बल यौवन प्रांतरिक अवयव और अंतग्रंथियों की कार्यक्षमता बढ़ती है । ये श्रासन कई प्रकार के हैं । प्राणायाम - प्राण की स्वाभाविक गति याने श्वास प्रश्वास को रोकना प्राणायाम कहलाता है । प्रत्याहार -जब इन्द्रियाँ बाह्य विषयों से मुड़कर अंतर्मुखी होती हैं, इस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं । धारणा-स्थूल या सूक्ष्म किसी भी बाह्य विषय में चित्त को लगा देना धारणा कहलाता है । ध्यान — जिस विषय में धारणा से चित्तवृत्ति लगाई हो उस विषय में विजातीयवृत्ति को छोड़कर सजातीय वृत्ति को धारावत् प्रखंड प्रवाहयुक्त रखना ध्यान
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योग-आसनों की प्रासंगिकताः विशिष्टता / २०१
कहलाता है। समाधि-विक्षेप हटाकर चित्त को एकाग्र करना समाधि कहलाता है।
योगासन अंदर के शरीर को स्वस्थ रखने की क्रियाएँ हैं। अन्य व्यायामों से योगासन को विशेषतायें इस प्रकार हैं
(१) अन्य व्यायाम मुख्यतः मांसपेशियों पर ही प्रभाव डालते हैं। इस कारण व्यक्ति अधिक समय तक स्वस्थ नहीं रह सकता । योगासनों से लम्बी आयु सुखपूर्वक बीतती है। विकारों को शरीर से बाहर करने की अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है। शरीर के सेल अधिक बनते हैं, टूटते कम हैं ।
२) अन्य व्यायामों में स्थान, साधनों साथियों की अधिक आवश्यकता पड़ती है। किन्तु योगासन अकेले, दरी या चादर पर संकीर्ण स्थान में भी किये जा सकते हैं।
(३) दूसरे व्यायामों का प्रभाव मन और इंद्रियों पर कम पड़ता है। योगासनों से मानसिक शक्ति बढ़ती है । इंद्रियों को वश में करने की शक्ति पाती है।
(४) दूसरे व्यायामों में अधिक पौष्टिक खुराक की आवश्यकता होती है, जिसमें अधिक खर्च पाता है। योगासनों में स्वल्प सादा भोजन ही पर्याप्त होता है।
(५) योगासनों से शरीर की रोगनाशक शक्ति का विकास होता है। विजातीय द्रव्य तुरंत बाहर निकल पाते हैं।
(६) योगासनों से शरीर में लचक पैदा होती है। स्फूर्ति, अंगों में रक्तसंचार होता है । बड़ी आयु में भी व्यक्ति युवा दीखता है। अन्य व्यायामों में मांसपेशियों में कड़कपन आ जाता है, जिसमे बुढ़ापा जल्दी आ जाता है।
(७) योगासनों से रक्तनालिकाओं व कोशिकाओं की सफाई प्रासानी से होती है, जो अन्य व्यायामों से नहीं। उनसे हृदय की गति तेज हो जाती है, जिससे रक्त पूरी तरह से शुद्ध नहीं हो पाता।
(८) फेफड़ों के द्वारा रक्त की शुद्धि होती है। योगासनों-प्राणायाम से फेफडों के फैलने सुकड़ने की शक्ति बढ़ती है। इससे प्राणवायु फेफड़ों में भर जाती है और रक्तशुद्धि आसानी से होती रहती है । अन्य व्यायामों में जल्दी-जल्दी श्वास लेने से प्राणवायु फेफड़ों के अंतिम छोर तक नहीं पहुंच पाती जिसका परिणाम विकार व रोग बढ़ना भी है।
(९) पाचनसंस्थान के यंत्रों को सुचारु रूप से गतिमान् क्रियाशील रखना केवल योगासनों से हो सकता है। अन्य व्यायामों से पाचन क्रिया बिगड़ जाती है।
(१०) मेरुदंड पर हमारा यौवन निर्भर है। जितनी लचक रीढ़ की हड्डी में होगी उतना ही शरीर स्वस्थ होगा । प्रायु लम्बी होगी। मानसिक सन्तुलन बना रहेगा । यह सब योगासनों से ही संभव है।
(११) दूसरे व्यायामों से थकावट पाएगी। अधिक शक्ति खर्च होगी। जबकि योगासनों से शक्ति प्राप्त होती है। योगासन धीरे-धीरे और आराम से किये जाते हैं। ये अहिंसक व शान्तिमय क्रियाएँ हैं।
(१२) योगासनों से स्वास्थ्य के साथ चारित्र, मानसिक, नैतिक शक्ति का विकास होता है । मन स्थिर रहता है, बुद्धि का विकास होता है । सत्त्वगुण बढ़ता है ।
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पंचम खण्ड / २०२
। अर्चनार्चन
। गले की थायराइड एवं पैरा थायराइड ग्रंथियों से निकलनेवाले रसों से बालकों का विकास, युवकों का असमय में बाल न गिरना, शरीर में प्रसन्नता रहना, अन्य ग्रंथियों को सजग रखना आदि सभी कार्य योगासनों से सम्पन्न किये जा सकते हैं ।
(१४) शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिकविकास के लिये योग पद्धति ही सर्वोत्तम कारगर है । अन्य पद्धति अपूर्ण व दोषपूर्ण है।
इस प्रकार आज के भौतिक चकाचौंध व प्रदूषणों के युग में हम केवल योगासनों प्राणायाम प्रादि नैसगिक सहन सुगम क्रियाओं द्वारा ही स्वस्थ प्रसन्न स्वाभिमानपूर्वक रह सकते हैं । एक स्वस्थता हजार निधियों से बढ़कर है तथा आज इसकी संपूर्ण मानवता को अत्यधिक आवश्यकता है। ____ हम स्वस्थ रहें और नैतिक व अध्यात्मिक शक्ति को पाकर सहज ही मृत्यु से अमृत की ओर बढ़े और सबको बढ़ाएँ।
१२४-तिलक नगर इन्दौर-४५२००१
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"ताकिाक योग":स्वरूप एवं मीमांसा ० डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी, आचार्य, एम. ए. पी-एच. डी, डी. लिट. साहित्यालङ्कार तन्त्र-शब्दार्थ और परिभाषा
'तन्त्र' शब्द के शास्त्रकारों ने अनेक अर्थ किये हैं, जिनमें मुख्यत: 'सिद्धान्त, शासनप्रबन्ध, व्यवहार, नियम, वेदशाखा, शिव-शक्ति आदि देव-देवियों का पूजा-विधायक शास्त्र, आगम, कर्मकाण्ड, पद्धति और विविध उद्देश्यों के पूरक उपाय, आदि कोश-सम्मत हैं। जैसा कि 'मेदिनीकोश' में कहा गया है:
तन्त्रं कुटम्बकृत्ये च सिद्धान्ते चौषधोत्तमे । प्रधाने तन्तुद्भवे च शास्त्रभेदे परिच्छदे ॥ श्र ति-शाखान्तरे हेतावभयार्थ-प्रयोजने ।
इति कर्तव्यतायां च........................॥ इत्यादि । 'वाचस्पत्य-कोश' ने और भी कुछ अन्य अर्थ दिये हैं। जिनमें व्युत्पत्ति की दृष्टि से '१. तननं तन्त्रम्, २. तन्यतेऽनेनेति तन्त्रम्, ३. तन्त्रणं तन्त्रम्, ४. तनोति त्रायते चेति तन्त्रम्' इन व्युत्पत्तियों में विस्तार, धारण और पालनार्थक तनु, तत्रि और तन्-त्रैड धातुओं का प्रयोग हुना है। इन्हीं सब अर्थों को लक्ष्य में रखकर परिभाषा की गई है कि- .
सर्वेऽर्था येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जना:।
इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते ॥ और इसके अनुसार 'सभी अनुष्ठानों का विस्तार-पूर्वक ज्ञान तथा उनके प्रयोगों से सम्पादित कर्मों के द्वारा संरक्षण की प्राप्ति' यह अर्थ उपलब्ध होता है। 'कामिकागम' में भी इसी अर्थ की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि
तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमात्र-समन्वितान् ।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥ इस प्रकार अनेक अर्थतत्त्वों से गभित तन्त्र-शब्द 'कर्मों के युगपद-भाव-(कर्मणोयुगपद्भावस्तन्त्रम् (१७५१) कात्यायन श्रौतसूत्र) के रूप में व्यवहृत होता पाया है। तन्त्र के प्रकार और योग
'इष्टदेव अथवा देवी की उपासना में उपयोगी, साधकों के द्वारा अनुष्ठेय सभी अनुष्ठानों का विधान ही तन्त्र है, इस दृष्टि से तन्त्र के दो प्रकार हो जाते हैं-१. ज्ञान और २. विज्ञान । इन दोनों के आधार पर पृथक-पृथक् व्यवस्था होने से 'तान्त्रिक ज्ञान' और 'तान्त्रिक-विज्ञान' के रूप में तन्त्र-सम्बन्धी प्रक्रियाओं का पर्याप्त विकास हुना है। इसी प्रकार 'योग' शब्द भी अपने आप में अनेकविध अर्थों को समाये हुए है, और विभिन्न प्राचार्यों
१. "संयोग, उपाय, ध्यान, संगति, प्रेम, छल, प्रयोग, औषधि, धन, लाभ, कौशल, परिणाम,
नियम, उपयुक्तता, उपायचतुष्टय-साम, दाम, दण्ड और भेद, सम्बन्ध, सद्भाव, शुभफल, वैराग्य, सुयोग, मोक्षोपाय, समाधि, चित्त को एकाग्र करने की प्रक्रिया तथा यन्त्र, मन्त्र, तन्त्रादि से साध्य क्रिया" ये और ऐसे ही कुछ अन्य अर्थ कोशग्रन्थों में मिलते हैं।
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / २०४ ने अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ भी दी हैं । तथापि 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' इस पातञ्जल योगसूत्र पर ही हमारा ध्यान जाता है और वस्तुतः इस परिभाषा के अनुसार चित्तवृत्ति का निरोध और तदर्थ किये जाने वाले साधनों का नाम 'योग' समझा जाता है | यौगिक प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में आचार्यों ने बड़े ही विस्तार से विवेचन किया है और योग के अङ्ग-प्रत्यङ्गों का निरूपण भी पर्याप्त विस्तृत प्राप्त होता है । 'राजयोग, हठयोग मन्त्रयोग और लययोग' के नाम से चार विभागों में विभक्त यौगिक क्रियाओं के विस्तार के साथ ही कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि अनेक योगों का सांगोपांग विवेचन भी ग्रन्थों में किया गया है | व्याकरण की दृष्टि से युज् धातु के अर्थ - १. २. समाधि = मन की स्थिरता हैं । प्रायः सभी चिन्तकों ने इन दोनों प्रर्थों को आधार बनाकर 'योग' का सम्बन्ध जोड़ने के लिये अपनी-अपनी परिभाषाएँ दी हैं जिनमें धर्मव्यापार, आध्यात्मिक भावना, समता विकास, मनोविकारक्षय, मन-वचन-कर्म-संयम, आत्मविशुद्धि आदि के लिए की जाने वाली साधना के द्वारा श्रात्मा को मोक्ष के साथ संयोजित करने का भाव समाविष्ट है । जैन और बौद्ध सम्प्रदाय में भी ऐसी ही भावना को अभिव्यक्ति देने वाले कर्मविशेष को योग कहा है किन्तु उन्होंने अपने-अपने कतिपय पारिभाषिक शब्द भी इसके निमित्त निर्धारित कर लिये हैं, जो उनके आगमों और पिटकों की परिधि में प्रविष्ट प्रक्रियाओं के परिशीलन के साथ ही साम्प्रदायिक साधनातत्त्वों को भी परिलक्षित करते हैं ।
जोड़ना : = संयोजित करना और
योग - परम्परा में 'ज्ञान और क्रिया का अनूठा समन्वय रहता है । ये दोनों जब बाह्यभाव से अनुष्ठित होते हैं तो इनके द्वारा उत्तम स्वास्थ्य, प्रान्तरिक उल्लास, शरीरावयवों की समुचित सुदृढता एवं कार्यक्षमता, रोगनिवृत्ति, द्वन्द्वसहिष्णुता आदि गुण विकसित होते हैं, जो कि व्यवस्थित श्रान्तरिक साधना के लिए भी नितान्त प्रावश्यक होते हैं । जब अन्तर्भाव से योगानुष्ठान किया जाता है तो उसमें भी ज्ञान के साथ क्रियाएँ की जाती हैं, जिनमें अष्टांग और उनके विभिन्न भेदों से निर्दिष्ट अन्य अंगों का प्रबोधन- विधान भी किया जाता है । इस अनुष्ठान के द्वारा साधक शरीर के अन्तर्गत स्थूलचक्र, सूक्ष्मचक्र, प्रमुख नाडीतन्त्र, गुच्छरूप में स्थित नाडीसमूह तथा उनके क्रियाकारित्व के उन्मेष से प्रभावित होने वाली विधियों को न केवल योग मूलक अंगानुसाधन से ही समाध्यन्मुख बनाता है, अपितु बीजमन्त्र, नाममन्त्र एवं इष्टमन्त्रों से सिद्धि-शिखरासीन भी करता है ।
१. प्रमाण के लिए निम्नलिखित मूलांश दर्शनीय हैं:
(क) योग आत्मा ( तैत्तिरीयोपनिषद् २1४ ), ( ख ) तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥ ( कठोपनिषद् २।६।११ ) ( ग ) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्ष - शोकौ जहाति । ( वही १/२/१२ ) (घ) तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः । (श्वेताश्वतरोपनिषद् ६ । १३ ) (ङ) तथा - तैत्ति० २२४, कठ० २२६ ११, श्वेता० २।११ ६ ३ १ १४, ७/६/१; ७।६।२; ७ ७ १; ७ २६।१; कौशीत कि० ३१२; ३।३; ३|४ |
छान्दो०
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"तान्त्रिक योग": स्वरूप एवं मीमांसा / २०५ तान्त्रिक योग के अंग और उपांगों का ज्ञान
साधना के लिए शरीर और उसके अंग-अवयवों का ज्ञान अत्यावश्यक माना गया है । शारीरिक-रचना की स्थलदष्टि से विवेचना साधना-मार्ग में से कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती है किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से शरीर के अन्तर्गत अवयवों का परिज्ञान किये बिना साधना अपूर्ण ही रहती है, यह एक शाश्वत सत्य है। उपर्युक्त कथन की पुष्टि के लिए आद्यशङ्कराचार्यप्रणीत 'यतिदण्डेश्वर्य-विधान' में स्पष्टत: कहा गया है कि:
यतिदण्डे साधनाया ये ये मार्गाः प्रदशिताः।
तेषां सम्यक्-सिद्धिलब्ध्य योगज्ञानमपेक्षितम् ॥३॥ और इसी प्रसङ्ग को पल्लवित करके समझाते हुए १- शरीरस्थ चक्र, २- नाडो, ३- वायु, ४- वायु के स्थान, वर्ण, कार्य, इन्द्रिय-परिवार ५- आधारादि चक्र, (कल्पानुसार), ६- चक्रों की अधिष्ठात्री देवियां, ७- चक्रों के सृष्ट्यादिक्रम, ८- चक्रों की देवियाँ, ९- नाड़ियों के द्वारा चक्रों के निर्माण की प्रक्रिया, १०- प्रमुख सोलह नाड़ियों के स्थान, ११- नाड़ियों की गति, १२- नाड़ियों के विभिन्न समूहों की स्थिति, आकार और उनसे निमित चक्रों के स्वरूप, १३- ग्रन्थिभेदन तथा १४- भिन्न-भिन्न चक्रों में जप का प्रकार और फल वणित किया है। वहीं एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि:--
जपाच्छान्तः पुनायेद् ध्यानाच्छान्तः पुनर्जपेत् । जपध्यानादि-संयुक्तः क्षिप्रं मन्त्रः प्रसिद्धयति ॥३॥१५४।।
यद्यपि योग के प्रकारों में यत्र-तत्र उपर्युक्त विषयों का भी वर्णन प्राप्त होता है, तथापि 'तान्त्रिक-योग' की यह प्रक्रिया जैसी उपर्युक्त ग्रन्थ में निर्दिष्ट है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। आचार्यपाद ने सम्पूर्ण-शरीर के स्वरूप का परिज्ञान कराते हुए नौ शरीरों का वर्णन किया है, जो कि क्रमशः मस्तिष्क में तीन, प्रांख और कान में एक-एक तथा हाथों और पैरों में दो-दो के रूप में स्थित हैं। समस्त नाडीजाल शक्ति के नामों से व्यवहृत है तथा उनके बीजमन्त्र, नाम-मन्त्र आदि से उस जाल के प्रत्येक अवयव को तान्त्रिक-योग से ही प्रबुद्ध कर अभिलषित कर्म में प्रयुक्त किया जा सकता है, यह रहस्य 'यतिदण्डैश्वर्य-विधान' से यत्किचित अंश में प्राप्त होता है।
इतना ही नहीं, योग में वणित विभूतियों का रहस्य भी इस ग्रन्थ में सजीव नाड़ियों के रूप में चित्रित है । साधक शरीरस्थ नाड़ी को प्रबुद्ध कर किसी भी विभूति को हस्तामलकवत प्राप्त कर सकता है। वस्तुतः यौगिक विभूतियों की उपलब्धि का गुरुगम मार्ग ही तन्त्रपथ है और वही "तान्त्रिक-योग' नाम से अभिप्रेत है। जिस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए योगमार्ग कठोर साधना का निर्देश करता है उसी लक्ष्य की उपलब्धि तन्त्रविधि द्वारा सहज और सरलरूप से प्राप्त की जा सकती है। साथ ही तन्त्रविधि के द्वारा उपलब्ध की जाने वाली विभूतियाँ योग की अपेक्षा कहीं अधिक सूगम और चिरस्थायिनी हैं।
१. इस ग्रन्थ का संशोधन, सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद हमने किया है जो कि प्रकाशनाधीन है।
–(लेखक)
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पंचम खण्ड / २०६
अचेनान
तन्त्रयोग और चक्र-विज्ञान
'मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और प्राज्ञा' नामक छह चक्रों के विवरण के साथ ही सहस्रार-चक्र का वर्णन योगग्रन्थों में प्राप्त होता है किन्तु तान्त्रिक प्राचार्य इस दिशा में नई खोज करते हुए बहुत आगे बढ़े हुए प्रतीत होते हैं। चक्राराधना की दैनिक प्रक्रिया में मूलाधार से नीचे भी १. अकुल सहस्रार और २. विषवत् चक्रों का विधान है । मूलाधारादि छह चक्रों में १. स्वाधिष्ठान, २. मणिपूर, ३. अनाहत और ४. विशुद्ध चक्र अधोमुख भी है साथ ही पूर्वादि दो-दो दिशाओं के योग से बने हए अग्नि-वायू-ईशाननैऋत्य कोणात्मक चार चक्रों का चिन्तन विधान भी तन्त्रों में दिखलाया गया है। श्रीविद्या के दक्षिणामूर्ति मत में एक 'स्वस्तिक-चक्र' और माना जाता है जिसका स्थान मणिपूर और अनाहत के बीच ठीक (ह्याकूला STERNUM) के पीछे होता है। इसका प्राकार स्वस्तिक के समान है और यह श्वेतवर्णी है। चित्तरूप हरिहर का इसमें मनन होता है तथा इसमें आठ दल हैं जिनमें "अं के चं टं तं पं यं शं" ये पाठ अक्षर अंकित रहते हैं। 'प्राणतोषिणी' तन्त्र में एक चौंसठ दलवाले 'ललनाचक्र' की तालु में स्थिति मानी है। इस चक्र से पूर्व 'लम्बिका चक्र' है जो कि विशुद्ध और प्राज्ञा के मध्य माना गया है। प्राज्ञा के ऊपर 'गुरुचक्र' शतदल की स्थिति, ब्रह्मरन्ध्र में तथा किसी-किसी ने 'सोमचक्र, मानसचक्र और ललाटचक्र' का भी वर्णन किया है। यह 'कालीकल्प' के अनुसार 'द्वादशाचक्र' का सूचक है।
आज्ञाचक्र को 'कालीकल्प और सुन्दरीकल्प' दोनों में विभक्त मानकर योगतन्त्रानुसार प्राज्ञाचक्र से एक-एक अंगुल ऊपर के भागों में सप्तकोश नामवा 'मनश्चक्र' और '१- बिन्दु, २- अर्धचन्द्र, ३. रोधिनी, ४- नाद, ५- नादान्त, ६- शक्ति, ७- व्यापिका, ८- समना, ९- उन्मनी तथा १०- महाबिन्दु' की भी कल्पना की गई है। 'यतिदण्डैश्वर्य-विधान' में यह चक्र-क्रम १०८ तक पहुँचता है । यथा
अष्टोत्तर-शते चक्र मन्त्र-पिण्डाक्षरात्मके ।
द्विशतात्मा पुनः प्रोक्त उदयः सर्वसिद्धियः ॥ इत्यादि । तान्त्रिक योग और सिद्धियाँ
सिद्धियों का वर्णन योगशास्त्र में वर्णित है जिनकी प्राप्ति को लक्ष्य में बाधक बतलाकर महामुनि पतञ्जलि ने उनसे बचने का भी सङ्कत कर दिया है। किन्तु उन सिद्धियों को यदि अकल्पित रूप में प्राप्त किया जाता है तो वे बाधक न होकर साधक ही बनती हैं। इस दृष्टि से सिद्धि के दो प्रकार माने गये हैं--१. अकल्पितसिद्धि और २. कल्पितसिद्धि । इनमें प्रथम अकल्पित सिद्धि के लिए तन्त्रोक्त-योग की नितान्त आवश्यकता होती है। इसके लिए कहा गया है कि
मन्त्राणां जपतो योगाद् धारणा-ध्यानतस्तथा । न्यासात् सम्पूजनाच्चैव सिद्धयन्ति सिद्धयस्तु याः।। अकल्पितास्ताः सम्प्रोक्ताश्चिरकाल-सुखप्रदाः ।
प्रान्ते ब्रह्मपद-प्राप्तावपि साहाय्यकारिकाः ॥३॥९-१०॥ य. व. दि मन्त्रजप, योग, धारणा, ध्यान, न्यास एवं पूजन से प्राप्त ऐसी प्रकल्पित सिद्धि ब्रह्मपद
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"तान्त्रिक योग": स्वरूप एवं मीमांसा / २०७
प्राप्ति में भी सहायक होती है, जबकि रस, औषधि तथा क्रियासमूहों के अभ्यास और साधनों से प्राप्त कल्पितसिद्धि क्षणस्थायी एवं स्वल्पसुखावह कही गई हैं।
__ आध्यात्मिक एवं साधना-सम्बन्धी रहस्यों का उद्घाटन केवल योग से सम्भव नहीं होता है, यह बात बहत प्राचीनकाल में ही प्राचार्यों ने जान ली थी। यही कारण था कि लोककल्याण के तन्त्रमार्ग का प्रवर्तन हुआ । योग के द्वारा निर्दिष्ट छह चक्रों के वैशिष्ट्य को परिलक्षित करते हुए उनके ऊर्ध्वमुख और अधोमुख होने का दिग्दर्शन कराते हुए यह भी स्पष्ट किया कि अभ्युदय के लिए अधोमुख-चक्रों की साधना और निःश्रेयस के लिए ऊर्ध्वमुख चक्रों की साधना करनी चाहिए। इतना ही नहीं, अधोमुखचक्रों में से किसका ध्यान ऊर्ध्वमुख रूप में किया जाना चाहिये और क्यों, यह भी निर्देश किया है। चक्रों की उपासना में जप और ध्यान दोनों ही मान्य हैं किन्तु जिज्ञासापूर्ति, आकर्षणशक्ति, बुद्धि विकास, ज्ञानविज्ञानोपलब्धि, सिद्धि तथा अपने इष्टटेव की-स्वरूप, ऐश्वर्य, वैभव एवं सामर्थ्य मूलक विभूतियों का यथार्थरूप में अनुभव कर साधक किस प्रकार दिव्यता को पा सकता है, यह तान्त्रिक योग पर ही निर्भर है।
जपयोग, मन्त्रयोग और तन्त्र .
तान्त्रिक-योग में मन्त्र और उसके जप का विधान एक विशिष्ट स्थान रखता है। जप में केवल मन्त्रवर्गों का स्मरण ही पर्याप्त नहीं माना जाता है, अपितु प्रत्येक मन्त्र के वर्गों की मात्रा, काल, वर्ण, शारीरचक्रस्थिति, स्थानरूप प्राकार, उनका उत्पत्तिस्थान-कण्ठताल्वादिगत और प्रान्तर तथा बाह्य यत्नों का ज्ञान भी अपेक्षित है। मन्त्रान्तर्गत कुटों के व्यष्टि तथा समष्टिगत भेदों की भावना तथा पुट, धाम, तत्व, पीठ, अन्वय, लिंग और मातृका-रूप का चिन्तन भी आवश्यक माना गया है। मन्त्रवर्णों के सृष्टि, स्थिति और संहार रूप कर्म, तत्तत् कर्मों के शक्तियुक्त अधिपति एवं प्रत्येक वर्ण के स्वरूप का चिन्तन भी किया जाता है तथा पांच अवस्था, षट् शून्य, सप्त विषुव और नव चक्रों की भावना के साथ अपने मनोरथों का स्मरण करते हुए जो मन्त्रवर्णों का उच्चारण किया जाता है, उसे 'जप' कहा जाता है।
इसे 'जपयोग' अथवा 'मन्त्रयोग' के नाम से व्यक्त करते हुए प्राचार्यों ने योग की प्रक्रिया को अत्यन्त रहस्यमय रूप प्रदान किया है। इस साधना-क्रम में प्रविष्ट साधक का जप-विधान अत्यन्त उत्कृष्ट बन जाता है और वह सिद्धि के इतने निकट पहुँच जाता है कि वहाँ संशय को कोई स्थान ही नहीं रहता। 'वरिवस्थारहस्य' कार श्री भास्करराय मखी ने इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
मन्त्रयोग की विशेषता यह है कि इसमें शारीरिक-चक्रों को उदबुद्ध करने के लिये यौगिक क्रिया के साथ ही प्रत्येक चक्र अथवा स्थान विशेष के मन्त्रों का जप भी प्रावश्यक होता है। मुख्य रूप से ऐसा जप करने के लिये बीज-मन्त्रों का ही प्रयोग किया जाता है, साथ ही फल की अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए पाम्नाय एवं चक्रस्थान-विशेष का अनुसंधान करना भी तन्त्रशास्त्रों में निर्दिष्ट है। वैसे तो प्रत्येक स्वर और व्यंजन अपने आप में बीजमन्त्र ही हैं किन्तु परस्पर मातृका वर्णों का संयोजन करके उनके साथ शक्ति अथवा देव-भैरव के स्वरबीजों
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पंचम खण्ड/२०८
अनार्चन
का समीकरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। ऐसे बीजाक्षरों को संयुक्त करके ही पिण्डाक्षर एवं कुटाक्षर बनाये जाते हैं और उन्हें यन्त्र-पद्धति से अंकित करके उपासना की जाती है।
कूटमन्त्रों का उद्धार करने के लिये तत्वात्मक बीजों के उद्भव को भी जान लेना आवश्यक होता है। जैसे 'ल' पृथ्वी का बीज है। पञ्चीकृत पृथ्वीतत्त्व कहने से इस लॅ बीज ही बोध होता है। हलन्त 'ल' भी पृथ्व्यात्मक है परन्तु यह बीज अपञ्चीकृत पृथ्वीतत्त्व का वाचक है। अन्य बीज भी ऐसे हलन्त रूपों में अपञ्चीकृत तत्त्वात्मक ही होते हैं । हलन्त मकार 'म्' में अपञ्चीकृत तत्त्वात्मक बीज का योग करने से वह सार्थक बनता है। इसीलिये समस्त बीजों में अनुस्वार-संयोजन का प्रचलन है। 'ई' और 'ऊ' इन दो अक्षरों को बीज कहने पर ऊ से व्यापकत्व का बोध होता है और 'ई' कहने से व्यापकसत्ता का बोध होता है । इस प्रकार 'ऊ' आकाश बीज व्यापकत्व वाचक है और 'ई' मायावाचक व्यापकसत्ता का वाचक है । अत: जब कमलदल पर शक्ति का समष्टिरूप अंकुरित होता है, तो उस अवस्था में जिस दैवीशक्ति के मन्त्र का प्रादुर्भाव होता है, उसके नाम का प्रादि अक्षर प्रारम्भ में और तत्पश्चात् अर्थपरक मकार, फिर पृथ्वी आदि चार तत्त्वों का अपंचीकृत रूप और तब प्राकाशतत्त्वात्मक 'ॐ' कार रूप संयुक्त होकर कुटाक्षर मन्त्र का निर्माण होता है। समस्त डाकिनी, राकिनी, लाकिनी प्रादि चक्राधिष्ठात्री शक्तियों के बीजाक्षरों की उत्पत्ति इसी प्रकार होती है।
मुख्यतः छह चक्रों की शक्तियों के आद्याक्षर 'ड-र-ल-क-स-ह' हैं। इनके अतिरिक्त प्रत्येक दल में स्थित वर्णों की शक्तियों के नामों से भी आद्याक्षर लेकर उनके बीजाक्षर लिये जाते हैं । सम्पूर्ण मातृका-वर्गों के जब कटाक्षर बनाये जाते हैं, तो उनमें 'मलवरयऊ' ये छह अक्षर और जोड़ दिये जाते हैं । यथा उमलवरयू, रमलवरयूं, लमलवरयूं आदि ।
वस्तुतः बीजमन्त्रों का सिद्धान्त अत्यन्त यान्त्रिक है। जिस अक्षर का उच्चारण होता है चाहे वह वैखरी, मध्यमा या पश्यन्ती प्रादि किसी भी रूप में हो और वाचक, उपांशु अथवा मानसिक विधि से किया गया हो उसके द्वारा नाड़ी के तत्सम्बन्धित पुंजरूपी कल्पित चक्र के दल पर श्वास का विशेष धक्का लगता ही है जिससे उस दल में उसी अक्षर की भावना होती है। वर्णमाला के कौन-कौन से अक्षर किस-किस चक्र के दलों पर अंकित माने गये हैं अर्थात उनकी उत्पत्तिभूमि कहाँ पर है, इसके लिये चक्रों का ज्ञान प्रावश्यक है। यह सब विषय तान्त्रिकयोग की परिधि में ही वर्णित है अतः इस योग की सूक्ष्मता से परिशीलन होना चाहिये।
-निदेशक ब्रजमोहन बिड़ला शोध-केन्द्र
उज्जैन (मध्यप्रदेश)
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मसीही योग
→ डॉ० एलरिक बारलो शिवाजी
जगत्
विश्व में चारों ओर योग की चर्चा है। अनेक प्राचार्य एवं गुरु, भारतीय एवं पाश्चात्य, में योग की शिक्षा देकर योग का प्रचार कर रहे हैं। यह योग की शिक्षा हठयोग राजयोग, मन्त्रयोग और लययोग पर आधारित है। हिन्दू संस्कृति में विश्वास किया जाता है कि मनुष्य योग द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है भारतीयदर्शन के अनुसार योग का अर्थ जीव का परमात्मा से ईश्वर से जुड़ना है, मिलना है। पवित्र शास्त्र बाइबल यह बताती है कि डेनियल, पहजेकल, यशय्याह, संत पॉल थोर संत जॉन ने ईश्वर का दर्शन पाया था। उनका प्रयास उनका परिश्रम शारीरिक योगाभ्यास के द्वारा नहीं था। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि मसीही योग भारतीय योग से भिन्न प्रकार का है। भारतीय योग में शारीरिक योगाभ्यास पर बल दिया जाता है। अभ्यास के द्वारा चिन्तन, मनन और ध्यान की बात कही जाती है। ध्यान के पश्चात् ही समाधि की क्रिया होती है। यह सारी क्रियाएँ शारीरिक तथा एन्द्रिविक होती हैं पवित्र शास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है। कि पौलुस इन शारीरिक क्रियाओं के बारे में जानता था धौर इसी कारण वह लिखता है कि " शारीरिक योगाभ्यास के भाव से ज्ञान का लाभ तो है परन्तु शारीरिक लालसाओं को रोकने में इनसे कुछ भी लाभ नहीं होता"" योग से देहसाधना की जाती है, प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण किया जाता है किन्तु प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर को जानने के लिए पौलुस स्पष्ट शब्दों में कहता है कि "क्योंकि देह की साधना से कम लाभ होता है, पर भक्ति सब बातों के लिए लाभदायक है।" "
मनुष्य योग के माध्यम से सिद्ध बनना चाहता है मसीहीधर्म की शिक्षाएँ भी इस तथ्य को प्रकट करती हैं कि मनुष्य को सिद्ध होना चाहिए जैसा कि कहा भी गया है"इसलिए चाहिए कि तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा पिता सिद्ध है । " 3 सिद्ध बनने के उपाय भी सुझाये गये हैं । परमेश्वर अब्राहम को कहता है, "मेरी उपस्थिति में चल और सिद्ध होता जा ४ पौलुस याकूब की पत्री में कहता है, "धीरज से मनुष्य पूर्ण धोर सिद्ध होता है । "५
थे और जिन्होंने मसीहीधर्म स्वीकार कर योग का प्रभु है। उसने एक ऐसी यौगिक सरल और सहज है
।
भारतीययोग में योगी
मसीहीयोगी को प्रभु
नारायण वामन तिलक जो एक भारतीय लिया था, यह मानते थे कि प्रभु यीशु मसीह पद्धति बतलाई है जो सब योग-पद्धतियों में वैराग्य को अपनाकर वैरागी होता है जबकि मसीही योग पद्धति में यीशु मसीह का अनुरागी होना आवश्यक है । मसीहीधर्म शारीरिक योगाभ्यास को नहीं किन्तु प्रात्म योगाभ्यास को उत्तम मानता है जैसा कि लिखा है- "शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता क्योंकि वे उसकी दृष्टि में मुर्खता की बातें हैं और न वह उन्हें जान सकता है क्योंकि उनकी जांच प्राध्यात्मिक रीति से होती है ।""
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन
तब हो सके
आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड | २१०
अर्चनार्चन
मसीही योग की आवश्यकता
मसीहीधर्म के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि मध्यकाल में संतों ने ध्यान की पद्धति को अपनाया और परमेश्मर के उस प्रेम के रहस्य को जाना । विशेषकर कैथोलिक संतों ने इस परम्परा पर अधिक ध्यान दिया ताकि मसीही भरपूरी को पा सके । मसीही योग की आवश्यकता वर्तमान में बहुत अधिक है। आवश्यकता का प्रथम कारण हमें इफिसियो की पत्री में मिलता है । वहाँ लिखा है-"मसीह के उस प्रेम को जान सको जो ज्ञान से परे है कि तुम परमेश्वर की सारी भरपूरी तक परिपूर्ण हो जाओ।" एक कारण और है जिसका वर्णन पौलुस एक अन्य स्थान पर करता है। वह लिखता है कि "तुम्हारा आत्मा और प्राण और देह प्रभु यीशुमसीह के आने तक पूरे-पूरे और निर्दोष सुरक्षित रहे।" 'मसीहधर्म' में प्रभु यीशुमसीह के द्वितीय प्रागमन के बारे में शिक्षा दी जाती है । अतः उस समय तक प्रत्येक विश्वासी को मसीही योग की आवश्यकता है। सिद्ध पुरुष कौन है ?
मत्ती रचित सुसमाचार में सिद्ध बनने के लिए कहा गया है । आखिर सिद्ध पुरुष की परिभाषा क्या है ? बाइबल सिद्ध पुरुष की परिभाषा करती है कि "जो कोई वचन में नहीं चकता वही तो सिद्ध पुरुष है और सारी देह पर भी लगाम लगा सकता है।"१० सिद्ध पुरुष का अाधार विश्वास और धीरज होता है जैसाकि कहा गया है कि "तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है, पर धीरज को अपना काम करने दो कि तुम पूरे और सिद्ध हो जानो और तुम में किसी बात की घटी न हो।"" एक सिद्धपुरुष होने के लिए जिसकी अावश्यकता है उसका वर्णन पौलुस तीतुस की पत्री में करता है। वहाँ लिखा है कि "प्राचीन (अगुवा) को जितेन्द्रिय होना चाहिए।"१२ अतः सिद्धपुरुष के लिए आवश्यक है कि वह संयम और धर्म और भक्ति से जीवन बिताये । पौलुस ने कहा भी है कि "इस युग में संयम
और धर्म और भक्ति से जीवन बितायें।"१३ मत्ती रचित सुसमाचार एक और बात के लिए इशारा करता है कि सिद्धपुरुष होने के लिए कंगाल होना आवश्यक है अर्थात् हृदय में रिक्तता होना आवश्यक है। अहं भाव का लोप होना आवश्यक है। प्रासक्ति से परे होना आवश्यक है । कहा गया है कि "यदि तू सिद्ध होना चाहता है तो जा अपना माल बेचकर कंगालों को दे।"१४ मसीही योग के सम्बन्ध में कुछ विचार
भारतीय दृष्टि को ध्यान में रखकर कुछ मसीही अनुयायियों ने मसीही योग को भारतीय संदर्भ में देखने का प्रयास किया है। सर्वप्रथम हम जे० एम० डेचनेट के विचारों से अवगत होंगे, जिन्होंने क्रिश्चियन-योग नामक एक पुस्तक की रचना की है। उन्होंने मसीहीयोग में चार प्रकार के अभ्यास बताये हैं-(१) पवित्रता को प्राध्यात्मिक अभ्यास द्वारा पाना, (२) प्रार्थना का अभ्यास, (३) संगति का अभ्यास और (४) ईश्वर के सन्मुख प्रतिदिन की उपस्थिति । प्रार्थना पर उन्होंने बहुत अधिक बल दिया है और इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि "एक मसीह को प्रार्थना में अपने जीव (Self) को खोजना नहीं पड़ता या पूर्वीय विद्वानों की तरह अपने को भूलना नहीं पड़ता, परन्तु वह अपने आपको परमेश्वर के वचन के
पपम .
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मसीही योग | २११
सम्मुख उद्घाटित करता है क्योंकि इसीसे वह अपने को खोज सकता है और उसका अस्तित्त्व है।"१५ एन्थोनी डी० मेलो के विचार
एन्थोनी डी० मेलो (एस० जे०) एक कैथोलिक फादर हैं। वे साधनासंस्था, पूना के संचालक हैं । उन्होंने उनकी पुस्तक 'साधना-ए वे टू गॉड' में ध्यान पर अधिक बल दिया है, उन्होंने चार तथ्यों पर अभ्यास करने को कहा है-(१) सावधानी (Awareness) जिसमें उन्होंने पांच अभ्यास बताये हैं-मौन की आवश्यकता, शारीरिक संवेदना, शारीरिक संवेदना और विचार नियन्त्रण तथा श्वास-प्रश्वास संवेदनाएँ। दूसरे को उन्होंने सावधानी और ध्यान (Awareness and Contemplation) कहा है। इसमें उन्होंने नौ अभ्यास दिये हैं(१) ईश्वर मेरी श्वास में, (२) ईश्वर के साथ श्वास-संचार, (३) शान्तता, (४) शारीरिक प्रार्थना, (५) ईश्वर का स्पर्श, (६) ध्वनि, (७) ध्यानावस्था, (८) सभी में ईश्वर को ढूंढना, और (९) दूसरों की सचेतता ।
(३) इस अभ्यास को 'कल्पना' के अन्तर्गत रखा गया है जिसमें यहाँ और वहाँ की कल्पना, प्रार्थना के लिए एक स्थान, गलील को लौटना, जीवन के प्रानन्दायक रहस्य, दुःख भरे रहस्य, क्रोध से मुक्ति, खाली कुर्सी, इगनेशियन ध्यान, प्रतीकात्मक कल्पनाएँ, दुःख पहुँचाने वाली स्मृतियों का अच्छा होना, जीवन का मूल्य, जीवन के स्वरूप को देखना, अपने शरीर को त्यागते समय बिदा कहना, तुम्हारी अन्त्येष्टि, मृतकशरीर की कल्पना और भूत, भविष्य और व्यक्ति की चेतना की बात कही गई हैं।
(४) चौथे अभ्यास में 'भक्ति' को लिया गया है जिसके अन्तर्गत बेनेडिक्टाइन प्रकारों का समावेश है-जैसे कण्ठी (Vocal) प्रार्थना, प्रभु यीशुमसीह की प्रार्थना, ईश्वर के हजार नाम, ऐसे देखना जैसे वह तुम्हें देख रहा है, प्रभु यीशु का हृदय, उपस्थिति के अवसर पर नाम, मध्यस्थता कराने की प्रार्थना, यीशुमसीह उद्धारक है उसका निवेदन, पवित्रशास्त्र की आयतें, पवित्रइच्छा, केन्द्रित ईश्वर, प्रेम की जीवित प्राग, प्रशंसा की प्रार्थना प्रादि के रूप में अभ्यास बताया गया है।
फादर न्यूनर के विचार
फादर न्यूनर ने उनकी पुस्तक 'योग और मसीहीध्यान' में निम्नरूप से अपने विचार व्यक्त किये हैं
"मसीहीधर्म और योग में दो विशेष भिन्नता हैं। मसीहीधर्म में ईश्वर से एक व्यक्तिगत सम्बन्ध है जो कि योग के स्वयं ध्यान, उन्नति, परावर्तन और मनुष्यशक्ति से भिन्न हैं।"१६ अप्पास्वामी के विचार
अप्पास्वामी लिखते हैं कि हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि कोई मसीही योग और हिन्दू योग नहीं है। यह मानसिक अनुशासन है और किसी भी धर्म के अनुयायी द्वारा काम में लिया जा सकता है।'
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पंचम खण्ड /२१२
अर्चनार्चन
बैबल में वर्णित चमत्कार
कुछ व्यक्ति बैबल में वणित चमत्कारों को योग द्वारा मानते हैं। उदाहरणस्वरूप देखें तो बैबल के पुराने नियम में एलिशा नबी का वर्णन है। एक दिन एक विधवा स्त्री एलिशा के पास आई और उसने निवेदन किया कि मुझे महाजन का ऋण देना है। महाजन मेरी सन्तानों को बेच देने का भय दिखा रहा है। अतः मेरी रक्षा कीजिये । एलिशा ने पूछातुम्हारे घर में कोई सम्पत्ति है या नहीं? स्त्री ने उत्तर दिया कि एक छोटे से बर्तन में केवल थोड़ा सा तेल है । एलिशा ने उत्तर दिया--"जानो अपने पड़ोसियों के घरों से मांगकर बड़े-बड़े जितने बर्तन मिल सके, ले पात्रो और अपने उस तेल के बर्तन से तेल डाल-डालकर उन सब बर्तनों को भर दो, देखोगी जितना डालोगी उतना ही बढ़ता जायेगा। सब बर्तन भर जायेंगे। फिर उस तेल को बेचकर ऋण चुका देना और जो कुछ बच रहे उसे अपने निर्वाह के लिए रख लेना।"'८ ऐसा ही हया । इसी प्रकार एक बार एलिशा ने सात सौ लोगों को भोजन करवाया था।'' प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या एलिशा एक योगी था ?
प्रभु यीशुमसीह के चमत्कार तो बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने मुर्दो को जिलाया, कोढ़ियों को शुद्ध किया, पांच हजार लोगों को भोजन करवाया, पानी पर चले, हवा और तूफान को शान्त किया, पानी को दाख-रस बनाया, अन्धों को अांखें दी ग्रादि-आदि। यह सब तथ्य उनके पूर्णयोगी एवं निष्कलंक-अवतार होने के संकेत देते हैं । एलिशा और प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों ने भी चमत्कार किये किन्तु वे सब परमेश्वर के अनुग्रह के कारण थे और यहीं मसीही योग और भारतीय योग में अन्तर दिखाई देता है। मसीही योग और भारतीय योग में अन्तर
भारतीयदर्शन के अनुसार एक योगी कर्म न करते हुए ध्यान करता है जिसके कारण उदासीनता दृष्टिगोचर होती है किन्तु मसीहीधर्म सेवा की भावना को जन्म देता है। फाश्वीर उनकी पुस्तक 'दी क्राउन प्रॉफ हिन्दूइज्म' में लिखता है
"Instead of the action which comes from indifference Christ commands the service which springs from love."20
पादरी प्रार्थर ई. मेसी लिखते हैं कि प्रेम के बिना परमात्मा से मिलने की सारी अाकांक्षाएं, योग की सारी प्रक्रियायें और उसके विविध प्रकार व्यर्थ एवं निष्फल हैं और वे बैबल से उद्धत करते हैं कि “यदि कोई मनुष्य मेरा अनुसरण करना चाहता है तो वह अपना अहंकार त्याग दे और प्रतिदिन अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे हो लें। न्यूनर का कथन है कि योग और मसीही पूर्णता में जो भेद है कि एक मसीही अनुग्रह का जीवन जीता है जो परमेश्वर का वरदान है ।२२
मनुष्य को परमात्मा को खोजने की आवश्यकता नहीं है, वह उसको श्वास से भी बहुत करीब उसके पास है । पौलुस कहता है, "मैं नहीं किन्तु प्रभु मुझ में जीता है।"
मसीही योग द्वारा एक मसीही केवल प्रभु यीशुमसीह को जानने का प्रयत्न ही नहीं करता बल्कि वह प्रार्थना करता है जो मसीहीयोग का एक अंग है कि "हे ईश्वर, मुझे जाँच
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मसीही योग | २१३ कर जान ले । मुझे परख कर मेरी चिन्ताओं को जान ले और देख कि मुझमें कोई बुरी चाल है कि नहीं और अनन्त के मार्ग में मेरी अगुवाई कर।"२३
उपरोक्त सभी बातें जो मसीही योग में पाई जाती हैं, भारतीय योग में नहीं पाई जाती । मसीहीधर्म में विश्वास की साधना है । लिखा है "विश्वास कर तो तू और तेरा घराना उद्धार पायेगा" और यह शब्द योग की सारी प्रक्रियामों को निष्फल बना देते हैं। प्रभु यीशुमसीह प्रतिज्ञा करते हैं कि "हे थके और बोझ से दबे लोगो, मेरे पास प्रायो, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।" इतना होते हुए भी हम देखना चाहेगें कि मसीहीधर्म में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे सोपान हैं या नहीं और बैबल के आधार पर चर्चा करेंगे जो प्रभु यीशुमसीह की संगति में सहायक बनते हैं । यदि एक मसीह इनका पालन करता है, वह वास्तव में मसीही जीवन जीता है, अन्यथा नहीं । मसीहीधर्म में यम
यम के अन्तर्गत (१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय (चोरी न करना) (४) ब्रह्मचर्य तथा (५) अपरिग्रह, सांसारिक वस्तुओं को एकत्रित न करना) पर बल दिया जाता है। यदि मसीही जीवन में बढ़ना है और प्रभु की संगति करना है तो आवश्यक है कि हम यग का पालन करें।
हम देखेंगे कि बैबल में यम पर किस प्रकार प्रकाश डाला गया है। पहिला तथ्य अहिंसा का है। मसीहीधर्म भी हिंसा की प्राज्ञा नहीं देता। दस प्राज्ञानों में से एक प्राज्ञा है "हत्या न करना" (निर्गमन २०: १-१७) मसीहीयोग हमें प्रेम का संदेश देता है । गलतियो ५: १९२१ में उन लोगों के बारे में बताया गया है जो प्रात्म-योग का अनुसरण नहीं करते । पौलुस स्पष्ट शब्दों में लिखता है कि "ऐसे-ऐसे काम करने वाले परमेश्वर के राज्य के वारिस नहीं होंगे।" केवल शारीरिक हत्या करने का ही विरोध नहीं है किन्तु मनुष्य को मानसिक रूप से, वाणी के रूप से भी हत्या नहीं करना चाहिए। मसीही धर्म प्रात्म-योग के माध्यम से शरीर की लालसानों को वश में करने के लिए साधन बताता है। पौलुस गलतियो की पत्री ५:१६ में लिखता है-"आत्मा के अनुसार चलो, तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरा न करोगे।" शरीर की लालसा तो शरीर के साथ समाप्त हो जायेगी। प्रभु यीशुमसोह ने अहिंसा का जो संदेश संसार को दिया यह समस्त महात्माओं के संदेश से बढ़कर है। उन्होंने क्रूस की मृत्यु सह ली। वे क्रूस पर से अमृतवाणी बोल रहे थे कि "हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि यह नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।" प्रभु यीशुमसीह सिद्ध पुरुष थे। अत: मसीहीधर्म की यह शिक्षा है कि मन, वचन और कर्म से अहिंसा का पालन करना चाहिए।
यम के अन्तर्गत दुसरा तथ्य सत्य है । सत्य क्या है ? पिलातुस ने प्रभु यीशुमसीह से पूछा था (पूहन्ना १८:२८) प्रभु यीशुमसीह का उत्तर था, 'मार्ग और सच्चाई और जीवन में ही हूँ (पूहन्ना १६:६) मनुष्य सत्य का खोजी है, सत्य का पालन करना चाहता है, सत्य को जानना चाहता है। इस सार्वभौमिक सत्य को, सत्य की प्रात्मा की आवश्यकता है, जैसा कि बैबल में पूहन्ना १५:२६ में बताया गया है कि यह हमें पिता की ओर से मिलता है । वास्तव में सत्य को जानना और अपने को पहिचानना प्रभ यीशूमसीह को जानना और पहिचानना है ।
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यम के अन्तर्गत तीसरा तथ्य 'अस्तेय' है जिसका अर्थ होता है 'चोरी न करना' । मसीहीधर्म की शिक्षाओं में दस प्राज्ञानों में से एक आज्ञा है, चोरी न करना । मत्ती १९:१६ में हम पढ़ते हैं कि एक मनुष्य प्रभु यीशुमसीह के पास आया और पूछता है कि अनन्त जीवन कैसे पाऊँ । प्रभु यीशु उत्तर देते हैं कि यदि तू जीवन में प्रवेश करना चाहता है तो श्राज्ञानों अर्चनार्चन को मानकर । पौलुस शिक्षा के रूप में रोमियों की पत्री २:२९ में लिखता है—“सो क्या तू
जो श्रौरों को सिखाता है, अपने आप को नहीं सिखाता, क्या तू जो चोरी न करने का उपदेश देता है, श्राप ही चोरी करता है। प्रभु का वचन सिखाता है, 'चोरी करने वाला फिर चोरी न करें, वरन भले काम करने में अपने हाथों से परिश्रम करें। मसीहीधर्म में अस्तेय का पालन करना आवश्यक है ।
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चौथा तथ्य 'ब्रह्मचर्य' है । ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म के साथ, ईश्वर के साथ विचरण करना है किन्तु इसका अर्थ संयम से लिया जाता है । मसीहीधर्म संयम करने की भी शिक्षा देता है । दस आज्ञात्रों में से एक आज्ञा है "व्यभिचार न करना" (निर्गमक २० : १४) धार्मिकरूप से यह इसलिए आवश्यक है कि जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करता उसकी उम्र कम होती है जैसा कि अय्यूब की पुस्तक १५:२० में लिखा है कि "बलात्कारी के वर्षों की गिनती ठहराई हुई है" क्योंकि वह अपने ब्रह्मचर्य को नष्ट करता है । यहीं नहीं, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करना परमेश्वर से बैर करना है। याकूब की पत्री ४१३४ में लिखा है, 'हे व्यभिचारिणियों, क्या तुम नहीं जानती कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है ? यह तथ्य पुरुषों पर भी लागू होता है । प्रभु यीशु मसीह को जानने के लिए संयम प्रौर ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है ।
अन्तिम तथ्य है 'अपरिग्रह' 'अपरिग्रह का अर्थ है सांसारिक वस्तुओंों का संचय न करना | मसीहीधर्म परिग्रह सिद्धान्त का भी पोषक है । भजन संहिता का लेखक बताता है कि मनुष्य " धन का संचय तो करता है परन्तु नहीं जानता कि उसे कौन लेगा " ( भजन संहिता ३९ - ६ ) वास्तव में जो परिग्रही होता है वह लोभी होता है और लोभी मनुष्य के बारे में कहा गया है कि "लोभी परमेश्वर को त्याग देता है और उसका तिरस्कार करता नीतिवचन २३:४ में कहा गया है कि “धनी होने के लिए परिश्रम न करना, अपनी समझ का भरोसा छोड़ना ।" भजन संहिता ६२ १० में कहा गया है कि "अन्धेर करने पर भरोसा मत रखो और लूट-पाट करने पर मत फूलो ।"
ין
गया है । मत्ती
अपरिग्रह सिद्धांत के बारे में नये नियम में अधिक स्पष्टरूप से कहा ६-१९ में लिखा है "अपने लिए पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो, जहाँ कीड़ा और काई बिगाड़ते हैं और जहाँ चोर सेंघ लगाते प्रोर चुराते है।" धनवानों के विषय में कहा गया है कि परमेश्वर के राज्य में धनवान के प्रवेश करने से ऊँट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है" ( मरकुस १०:२५) ।
मसीहीयोग के प्रथम चरण में यम का नियम सहायक है जो कि बाह्य है । इसमें सफल होने के बाद ही हम प्रान्तरिक प्रयोग की ओर बढ़ सकते हैं ।
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मसीही योग | २१५ मसीही धर्म में नियम
यम की तरह ही नियम के पांच भेद माने जाते हैं—(१) शौच, (२) सन्तोष, (३) तप, स्वाध्याय और (५) ईश्वर प्रणिधाना नियम बाह्य और प्रान्तरिक दोनों हैं। इन नियमों का पालन करने से आत्मा शुद्ध होती है और मनुष्य ईश्वर की ओर बढ़ता है । शौच
मसीहीधर्म में शौच दो प्रकार का है-बाह्य और प्रान्तरिक । यद्यपि बाह्य शौच पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता है किन्तु पवित्रशास्त्र में बहुलता से सामग्री उपलब्ध है कि किस प्रकार से इब्रानी और यहदी बाह्य शौच क्रिया पर विचार करते थे। मृतक मनुष्य को स्पर्श करने से जो अशुद्धता होती है उसका विवरण और निवारण का उपाय 'गिनती की पुस्तक' १९:७ में बताया गया है। यशय्याह नबी लिखता है कि कोई अशुद्ध वस्तु मत छुमो (यशय्याह ५२:११) पौलुस लिखता है कि कोई वस्तु को मत छुनो तो मैं तुम्हें ग्रहण करूगा" (२ करिन्थियों ६:१७)
मूसा की व्यवस्था के अनुसार कई काम और दशा अशुद्ध समझी जाती थी और फिर शुद्ध होने के लिए कोई रीति पूरी करनी पड़ती या भेंट चढ़ानी पड़ती थी। प्रसूता के समय (लैव्यव्यवस्था १२); कोढ़ (लैव्य १३:१४), प्रमेह (लैव्य १५), मुर्दे से छू जाना (गिनती १९:११-२२, ३१), किसी मृतक पशु से छू जाना (लैव्य ११:३९-४०, १७:१५-१६, २२-८) अशुद्ध समझे जाते थे। जब अशुद्धता एकदम प्रकट हो जाती तब उससे शुद्ध होने के लिए हल्की और आसन रीति पूरी करनी पड़ती थी। (लैव्य ११:२४-२५, २८, ३९-४०% १५:५, ८, २१; गिनती १९:११-१२) किन्तु अशुद्धता प्रकट न हो और शूद्ध होने की रीति पाली न जाये तब पाप-बलिदान चढ़ाना पड़ता था। प्रशुद्धता की व्यवस्था में दो बातें थी-(१) मनुष्य के पाप की दशा और (२) जो प्राचीन जातियों में थी कि जो वस्तु अथवा मनुष्य परमेश्वर को अर्पण किया हुअा हो अगर वह किसी और चीज़ से छ ले तो वह वस्तु वा मनुष्य भी अर्पण किये हुए के समान हो जाता है और वह दूसरे काम के योग्य नहीं रहता। बाद में यहूदियों में शुद्धता के इतने नियम बन गये कि वे असली बातों और विचारों को भूल गये । हाथ-पैरों को धोना, कटोरों, लोटों और ताम्बे के बर्तनों को धोना-मांजना (मरकुस ७:३-४) पुरनियों की रीति थी। नये नियम में आन्तरिक शौच पर बल दिया गया है। 'प्रेरितों के काम' १०:१२ में पतरस अशुद्ध भोजन की बात कहता है किन्तु १५ वीं आयत में कहा गया है कि "जो कुछ परमेश्वर ने शुद्ध ठहराया है, उसे तू अशुद्ध मत कह ।' नये नियम का आधार बचन है और बचन में शक्ति है कि वह शुद्ध करें जैसाकि कहा गया है कि "तुम तो उस बचन के कारण जो मैंने तुम से कहा है, शुद्ध हो।” (यूहन्ना १५-३)
नये नियम की शिक्षा बाह्य नहीं किन्तु प्रान्तरिक शौच पर बल देती है। पौलुस लिखता है'तुममें व्यभिचार और किसी प्रकार के अशुभ काम की चर्चा तक न हो।' (इफिसियो ५:३) शरीर को स्वच्छ रखने पर इतना बल नहीं दिया गया जितना कि मन की शुद्धता पर बल दिया गया है। । कहा गया है, "धन्य हैं जिनके मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे" (मत्ती ५:८) "क्योंकि
आसनस्थ तम भीतर से अर्थात् मनुष्य के मन से बुरी-बुरी चिन्ता, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्री-गमन,
आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / २१६
. अर्चनार्चन
लोभ, दुष्टता, छल, लुच्वापन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान और मूर्खता निकलती है" (मरकुस ७:२१)। इसी कारण लिखा है, "अपने उन अंगों को मार डालो जो पृथ्वी पर हैं अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्टकामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूत्तिपूजा के बराबर हैं।" मसीहीधर्म में मूत्तिपूजा का निषेध है और जो व्यक्ति आन्तरिक शौच पर ध्यान नहीं देता वह पवित्रशास्त्र के अनुसार मूत्तिपूजक है । बाह्य शौच का अपना महत्त्व स्वास्थ्य की दृष्टि से है परन्तु उससे बढ़कर आन्तरिक शोच है। प्रभु यीशुमसीही एक फरीसी को कहते हैं कि 'हे फरीसियो ! तुम कटोरे और थाली को ऊपर-ऊपर तो मांजते हो, परन्तु तुम्हारे भीतर अन्धेर और दुष्टता भरी है। हे निर्बुद्धियों, जिसने बाहर का भाग बनाया, क्या उसने भीतर का भाग नहीं बनाया ? परन्तु हाँ, भीतर वाली वस्तुओं को दान कर दो, तो देखो, सब तुम्हारे लिए शुद्ध हो जायेगा" (लका ११:३९-४१) पौलुस बाह्य और प्रान्तरिक शौच दोनों के प्रति सचेत था । वह करिन्थ की कलीसिया को लिखता है कि "क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारी देह मसीह के अंग है ? सो क्या मैं मसीह के अंग लेकर उन्हें वेश्या का अंग बनाऊँ ? कदापि नहीं।” (१ करिन्थियों ६:१५) मसीहधर्म में शरीर के कामों और आत्मा के कामों में अन्तर दिया गया है और इसी कारण मसीहयोग में आत्मा की शुद्धता पर बल दिया गया है जिसके कारण शरीर की लालसा समाप्त हो जाती है। अत: प्रान्तरिक शौच को नियम के रूप में पालन करना एक मसीही के लिए अनिवार्य है। संतोष
नियम के अन्तर्गत दूसरा तथ्य संतोष है। कहा जाता है कि मनुष्य इच्छानों का पुंज हैं । एक इच्छा की पूर्ति होने पर दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है। इस हेतु आवश्यक है कि हम अपनी इच्छानों पर नियंत्रण रखें। संतोष जीवन में वह तत्व है जो सत्य को जानने और उद्घाटित करने में सहायक होता है। कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं किन्तु मसीहीधर्म का शिक्षक पौलुस कहता है कि "संतोष सहित भक्ति बड़ी कमाई है क्योंकि न हम जगत में कुछ लाए हैं और न कुछ ले जा सकते हैं और यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्हीं पर संतोष करना चाहिए। पर जो धनी होना चाहते हैं, वे ऐसी परीक्षा और फंदे और बहुतेरे व्यर्थ और हानिकारक लालसानों में फंसते हैं, जो मनुष्य को बिगाड़ देती है और विनाश के समुद्र में डबा देती है" (१ तिमुथियुस ६:६-९) संतोष देह की साधना से प्राप्त नहीं होता है परन्तु संतोष भक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। मसीहीधर्म की यह शिक्षा है कि किसी भी बात की चिन्ता मत करो (फिलिसियों ४-६) मत्ती (चित सुसमाचार में भी कहा गया है कि चिन्ता न करना कि क्या खायेंगे और क्या पीएंगे (मत्ती ६:२५) परन्तु संतोष रखने का अभ्यास करो। पौलुस तो इब्रानियों की पत्री में स्पष्ट कहता है कि "तुम्हारा स्वभाव लोभरहित हो और जो तुम्हारे पास है उसी पर संतोष करो" (इब्रानियो १३-५) मसीहीयोग में बढ़ने के लिए आवश्यक है कि संतोष पर ध्यान दे और जीवन में संतोष का अभ्यास करें।
तप
नियम के अन्तर्गत तीसरा तथ्य तप है। हिन्दूधर्म के अनुयायी तप करने के कोई माध्यम अपनाते हैं। कोई खड़ा रहता है, कोई कांटों पर सोता है, कोई हाथ सुखाता है, कोई अग्नि के बीच बैठता है अर्थात वे नाना प्रकार की तप की क्रियाओं को करते हैं किन्तु मसीहीधर्म में
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मसीहीयोग/२१७
तप की व्याख्या भिन्न है। मसीहीधर्म में तप के अन्तर्गत व्रत, पश्चात्ताप, प्रार्थना और भजन पाते हैं।
व्रत के बारे में पुराने नियम और नये नियम दोनों में सामग्री प्राप्त होती है। व्यवस्था के अनुसार केवल प्रायश्चित्त के दिन व्रत रखा जाता था (लव्य व्यवस्था १६) । यहदी चार : उपवास रखते थे अर्थात् चौथे, पांचवें, सातवें और दसवें महीने में (जक्रर्याह ७:३-५; ८: १९)। कभी-कभी सारी जाति के पश्चात्ताप के लिए व्रत प्रचारा जाता था। (१ रामूएल ७:९; २ इतिहास २०:३; पोएल १:१४, २:१५)।
नये नियम में भी उपवास के बारे में सामग्री उपलब्ध होती है। (१) प्रायश्चित्त के दिन व्रत (प्रेरितों के काम २७:९) अठवारे के व्रत (मत्ती ९:१४; मरकुस २:१८; लुका ५:३३; १८:१२; प्रेरितों के काम १०:३०) पवित्रशास्त्र बताता है कि मूसा ने चालीस दिन व्रत रखा था (१ राजा ३७:८) प्रभु यीशुमसीह ने भी चालीस दिन व्रत रखा था (मत्ती ४:२ मरकुस १:१२-१३; लूका ४:२) व्रत इस दृष्टि से रखा जाता है कि हम परमेश्वर का स्मरण करते रहें। व्रत रखना एक अभ्यास है। मत्ती ने व्रत के सम्बन्ध में निम्न विचार प्रेषित किये हैं
"जब तुम उपवास करो तो कपटियों की नाई तुम्हारे मुंह पर उदासी न छाई रहे, क्योंकि वे अपना मह बनाए रहते हैं, ताकि लोग उन्हें उपवासी जानें। मैं तुम से सच कहता है कि वे अपना प्रतिफल पा चुके । परन्तु जब तू उपवास करे तो अपने सिर पर तेल मल
और मंह धो ताकि लोग नहीं परन्तु तेरा पिता जो गुप्त में है, तुझे उपवासी जाने; इस दशा में तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।" (मत्ती ६:१६-१८)। पश्चात्ताप अर्थात् मन-फिराव
मसीहीजीवन की पहिली सीढ़ी पश्चात्ताप है। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने पश्चात्ताप के लिए उपदेश दिया। प्रभ यीशूमसीह ने भी पश्चात्ताप पर बल दिया। पश्चात्ताप करना यद्यपि इच्छाशक्ति पर निर्भर है किन्तु वह परमेश्वर का दान भी है (प्रेरितों के काम ११: १८:२, तीमुथियुतसु २:२५) पश्चात्ताप करना बुराइयों को छोड़ देने का द्योतक है। उड़ाऊ पुत्र के वर्णन से यह स्पष्ट होता है (लका १५:१७-१८) मसीहीधर्म में पश्चात्ताप अपने पापों का करना है क्योंकि पाप के द्वारा ही मृत्यु है। पौलुस लिखता है-"पाप की मजदूरी मौत है" (रोमियो ५:१२) करिन्थियो मण्डली को कहता है कि मृत्यु का डंक पाप है" (१ करिन्थियो १५:२६) इस कारण पाप से मन फिराना आवश्यक है। मसीहीधर्म का आह्वान है, "मन फिरायो और लौट आयो कि तुम्हारे पाप मिटाए जाएँ (प्रेरितों के काम ३-१९) पश्चात्ताप करना धार्मिकता का जीवन बिताना है। पश्चात्ताप नैतिकता की ओर अग्रसर करता है। प्रार्थना करना
मसीहीधर्म में प्रार्थना पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है। प्रार्थना सामूहिक भी होती है और व्यक्तिगत भी। प्रार्थना ईश्वर से बातचीत करना है। प्रार्थना वास्तव में मसीहीजीवन में एक परीक्षण है। वह एक शक्ति है। मसीहीजीवन का हृदय है। विश्वास की प्रार्थना जीवन में चमत्कार पैदा करती है। लिखा है-"और यीशु भी बपतिस्मा लेकर प्रार्थना कर रहा था तो आकाश खुल गया” (लूका ३:२१) एक अन्य स्थान पर लूका लिखता
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अर्चनार्चन
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है-"जब वह प्रार्थना कर रहा था तो उसके चेहरे का रूप बदल गया और उसके वस्त्र श्वेत होकर चमकने लगे।" (लूका ९:२९) इस कारण पवित्र शास्त्र में प्रार्थना करना भी सिखाया गया है। लिखा है-"जब तू प्रार्थना करे तो अपनी कोठरी में जा और द्वार बन्द करके अपने पिता से जो गुप्त में है, प्रार्थना कर।" (मत्ती ६:१) पवित्र शास्त्र यह भी बताता है कि मनुष्य को नित्य प्रार्थना करनी चाहिए (लका १५:१) । यह भी बताया गया है कि प्रार्थना करने में कभी क्रोध और विवाद नहीं होना चाहिए । पौलस का कथन है, "सो मैं चाहता हूँ कि हर जगह पुरुष बिना क्रोध और विवाद के पवित्र हाथों को उठाकर प्रार्थना करे।" (१ तिमोथी २:८) पवित्र शास्त्र विषयों को भी बताता है जिस पर प्रार्थना करनी चाहिए। उदाहरणस्वरूप पापों की क्षमा के लिए (मत्ती ६:१२); बुद्धि के लिए (याकूब की पत्री १:५) रोज की रोटी के लिए (मत्ती ६:११, लका १२:२२, ३२); जीवन की घटनाओं के लिए (फिलिपियो ४:६); जो ईश्वर को नही जानते (याकब की पत्री ५:१६, २०) और बीमारों के लिए (याकूब की पत्री ५:१५, भजन संहिता १०३:३-४) इन सब से ज्ञात होता है कि मसीहीधर्म प्रार्थना का जीवन बिताने पर बल देता है। इस कारण प्रत्येक मसीही को प्रार्थना करने का अभ्यास आवश्यक है ताकि वह प्रार्थना के द्वारा अपने हृदय को परमेश्वर के सम्मुख खोल सके। स्वाध्याय
नियम के अन्तर्गत चौथा तथ्य स्वाध्याय है। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं अध्ययन करना, चिन्तन करना। अत: मसीहीधर्म के अन्तर्गत पवित्र शास्त्र अर्थात बैबल का अध्ययन करते रहना आवश्यक है। पवित्र शास्त्र पढ़ने से ही विश्वास जागत होता है जैसा कि पौलस लिखता है-“सो विश्वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है।" (रोमियो १०:१७) यहोशू की पुस्तक में कहा गया है कि "व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए" (यहीशू १२) नबियों ने इस बात पर जोर दिया है कि यहोवा का वचन सून
और पढ़ (यर्मियाह २१:११,८; २ राजा ७:१; १ राजा २२:१९ यशय्याह २८:१४) स्वाध्याय इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि "यादि में वचन था, वचन परमेश्वर के साथ था और वचन परमेश्वर था" (यूहन्ना १:१) मनुष्य जब स्वाध्याय करता है तब ही ज्ञानरूपी प्रकाश का प्रकटीकरण होता है। इस कारण मनुष्य के जीवन में स्वाध्याय का अभ्यास आवश्यक है और प्रत्येक मसीह का स्वाध्यायी होना ईश्वर की संगति में रहने के समान है। ईश्वर प्रणिधान
नियम के अन्तर्गत अन्तिम तथ्य है ईश्वर प्रणिधान । इसका अर्थ है कि ईश्वर को भक्तिपूर्वक सब कर्म समर्पित करना । ईश्वर के सम्मुख मनुष्य का समर्पण आवश्यक है, क्योंकि बिना उसके अनुग्रह प्राप्त नहीं होता। मनुष्य स्वयं अपने आप कुछ नहीं कर सकता, जैसाकि कहा गया है, "मैं दाखलता हूँ; तुम डालियाँ हो; जो मुझ में बना रहता है और मैं उसमें, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझसे अलग होकर तुम कुछ नहीं कर सकते ।" (यूहन्ना १५:५) मनुष्य अपने आप में अपूर्ण है। यदि उसमें योग्यता है भी तो वह परमेश्वर की ओर से है, पौलुस लिखता है, "यह नहीं कि हम अपने आपसे इस योग्य हैं कि अपनी ओर से किसी बात का विचार कर सकें, पर हमारी योग्यता परमेश्वर की ओर से है।" (२ करिन्थियो ३-५)
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मसीहीयोग / २१९
मनुष्य को समर्पित जीवन बिताना इस कारण आवश्यक है कि “जब तक मनुष्य को स्वर्ग से न किया जाए तब तक वह कुछ नहीं पा सकता।" यूहन्ना ३:२७ । मसीहीधर्म में आसन
मसीहीधर्म में प्रासन को इतना महत्त्व नहीं दिया गया है जितना कि हिन्दसंस्कृति में । आसन द्वारा शरीर को इस योग्य बनाया जाता है कि इन्द्रियों को वशीभूत किया जा सके। इस सम्बन्ध में मसीही विद्वानों का मत है कि प्रासन द्वारा शारीरिक कष्ट उठाना उचित नहीं है। उदाहरण की दृष्टि से फर्खर का मत उद्धृत करना न्यायोचित होगा। वह अपनी पुस्तक 'क्राउन अॉफ हिन्दूइज्म' में लिखता है कि अन्त में शरीर को कष्ट देने के बनिस्बत यीशु हमें स्वयं के बलिदान की अोर ले जाते हैं । २३ ।
मसीहीधर्म के मध्यकाल में रोमन कैथोलिक संत शरीर को कष्ट देने की विधियों को अपनाते थे ताकि इंद्रियों को नियंत्रित रखा जा सके । भारतीय दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक 'भारतीयदर्शन' में हेनरी सूसो के जीवन पर लिखी पुस्तक 'लाइफ ऑफ दि ब्लैसेड हेनरी सूसो' में टिप्पणी में लिखा है कि "बलिदानी ईसा के जीवन के प्रिय साथी रहे हैं-दारिद्रय, कष्ट, अपमान । अतः ईसाई संतों में उनका अनुकरण करने के लिए कष्ट और यातनाओं को झेलने की प्रतिस्पर्धा-सी रही।"३४
मसीहीधर्म की पुस्तक पुराने नियम में एक नबी योना का वर्णन है। जहां बुरे कर्मों से पश्चात्ताप के लिए. योना के प्रचार करने पर, तीनवे-शहर में बड़े से लेकर छोटे तक ने टाट प्रोढ़ा । यहाँ तक कि नीनवे के राजा ने भी राजकीय वस्त्र उतार कर टाट प्रोढ़ लिया और राख पर बैठ गया यह मन फिराने का और परमेश्वर से योग करने का एक साधन था। भारत में भी कुछ साधु संत टाट प्रोढ़ते हैं । जिन्हें 'टाटाम्बरी' कहा जाता है।
मसीहीधर्म की मान्यता यह है कि शारीरिक योगाभ्यास से शारीरिक लालसानों को नहीं रोका जा सकता जैसा कि हम पहिले ही कह चुके हैं.६ मसीहीधर्म तो यह मानता है कि "धन्य हैं वे जो मन के शुद्ध हैं क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे।"२७ अतः आसन से पवित्रता उत्पन्न नहीं हो सकती। मसीहीधर्म में ऐसा कोई नियम नहीं है कि प्रार्थना किस प्रासन में करनी चाहिए, फिर भी वर्तमान में ईश्वर के भक्त घटने टेक कर ही प्रार्थना करते हैं और घंटों प्रार्थना की दशा में रहते हैं । कुछ भक्त बैठकर और कुछ खड़े होकर भी प्रार्थना करते हैं। मसीहीधर्म में 'प्राणायाम'
मसीहीधर्म की मान्यता यह है कि श्वास परमेश्वर की देन है, जैसाकि लिखा गया है कि "परमेश्वर ने आदम को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्वास फूंक दिया। मनुष्यजीवन की प्रत्येक श्वास ईश्वर पर आधारित है। बैबल का पुराना नियम में 'अय्यूब' की पुस्तक १२:१० में कहा गया है कि "उसके हाथ में एक-एक जीवधारी का प्राण प्रौर एक-एक देहधारी मनुष्य की प्रात्मा भी रहती है।'' इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राणायाम द्वारा मनुष्य ईश्वर साक्षात्कार की ओर बढ़ नहीं सकता । यद्यपि मसीहीधर्म की साधना में नूतन रूप से विचार किया गया है। एन्थोनी डी. मेलो का विचार है कि श्वास सबसे बड़ा मित्र है और आह्वान करते हैं कि "उसकी अोर अपनी परेशानियों में लौटो
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पंचम खण्ड / २२०
और आपको विश्राम और मार्गदर्शन मिलेगा । इसी आधार पर वे चाहते हैं कि जब भी हम श्वास लें, हमारे चिन्तन में यह होना चाहिए कि हम ईश्वर की आत्मा को और अपने फेफड़ों को उस दिव्यशक्ति से भर दें और जब हम प्रश्वास कर करें कि हम अपनी अशुद्धियों को बाहर निकाल रहे हैं ।
अपने में ले रहे हैं रहे हैं यह विचार
श्वास और प्रश्वास का मूल्य ईश्वर के सामने नहीं है । यशय्याह नवी चेतावनी देता है अर्चनार्चन कि "तुम मनुष्य से परे रहो जिसकी श्वास उसके नथनों में है, क्योंकि उसका मूल्य है ही
क्या ?" (यशय्याह २:२२ )
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसे प्रत्यय बैबल में से निकालना एक शोध कार्य से कम नहीं है । इस लेख में इन सबकी चर्चा करना भी स्थानाभाव के कारण उचित नहीं है । अतः इस विषय में अन्यत्र लिखा जायेगा ।
संदर्भ सूची
१. कुलुस्सियो २।२३
३. वही ५३८
५. याकूब की पत्री ११४
७. १ करिन्थियो २।१४
९. १ विस्सलुनीकियो ५२३ ११. वही १:३-४
१३. वही - २११२
१५. क्रिश्चन योग - डेबनेट, पृ. २७ १७. पायोनियरस थॉफ इन्डिजेनियस
त्रिश्चनिटी. पृ. १०५
१९. २ राजा ४:४२-४४
२१. लूका ९।२३
२३. दी काउन ग्रॉफ हिन्दूइज्म, पृ. २९५
२५. योना ३६ २७. मत्ती ५६
२. १ तिमुथिथुस ४८
४. उत्पति १७।१
६. The Experimental Response P.26
५. इफिसियो ३।१९
१०. याकूब की पत्री ३२
१२. तीतुस १८
१४. मत्ती १९।२१
१६. योग और क्रिश्चन मेडिटेशन
१८. २ राजा ४:१-७
२०. दी क्राउन श्रॉफ हिन्दूइज्म-फर्खर, पृ. २९४
२२. रिलीजियस हिन्दूज्म – पाठ १७
२४. भारतीयदर्शन भाग २, डॉ. राधाकृष्णन्,
पृ. ३५०
२६. कलुस्सियो २०२३
२८. साधना-ए वे टू गॉड, एन्थोनी डी. मेलो, पृ. २४
आराधना
२७ रवीन्द्रनगर
शिक्षा महाविद्यालय के पीछे उज्जैन (म. प्र. )
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योग और आयुर्वेद [] आचार्य राजकुमार जैन एम. ए., एच. पी. ए., दर्शनायुर्वेदाचार्य
योगदर्शन या योगशास्त्र सांख्य का ही व्यवहारिक या क्रियात्मक रूप माना जाता है, जिसमें प्रात्म-साक्षात्कार या परमब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रयोगात्मक विधियाँ निर्देशित की गई हैं। अध्यात्मकविद्या के आधारभूत सैद्धान्तिक पक्ष को क्रियात्मक रूप एवं प्रयोग के द्वारा योगशास्त्र ने जितना सुगम और सर्वजनोपयोगी बनाकर मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त किया है, उतना किसी अन्य शास्त्र ने नहीं किया। प्रारम्भिक स्थिति में योग या यौगिक क्रियामों का सम्बन्ध शरीरमात्र या शारीरिक अंगों से रहता है। किन्तु जैसे-जैसे योगाभ्यास का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे उसका सम्बन्ध अन्तःकरण और बुद्धि से होता जाता है। अर्थात् यौगिक क्रियाएँ मन और बुद्धि को प्रभावित कर अद्भुतरूप से उसका विकास करती हैं। मन
और बुद्धि के चरमविकास के बाद योगाभ्यास प्रात्मा के प्रदेशों का स्पर्श कर उनके कालुष्य का निराकरण कर उन्हें निर्मलता प्रदान करता है, जिससे प्रात्मा में निर्मल ज्ञानज्योति उद्भासित होती है। समस्त प्रकार के शुभाशुभ कर्मों का क्षय होने के कारण समुत्पन्न अद्भुत ज्ञानालोक के द्वारा जब वह प्रात्मा संसार के समस्त भूत-वर्तमान-भविष्य कालीन भावों को जानने व देखने लगता है तब वह इस भौतिक शरीर का परित्याग कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यही उसका परमलक्ष्य है।
आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवन-शास्त्र है, जिसमें मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और प्राध्यात्मिक प्रवृत्तियों का अपूर्व सामञ्जस्य है । प्रायुर्वेद यद्यपि मुख्यरूप से प्रारोग्यशास्त्र एवं चिकित्साशास्त्र के रूप में जाना जाता है, किन्तु वह वस्तुतः सम्पूर्ण जीवन-विज्ञानशास्त्र है, जिसमें मनुष्य का चरमलक्ष्य उसके शरीर में स्थित प्रात्मा को सांसारिक कर्मबन्धन से मुक्त करना प्रतिपादित है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक विज्ञ एवं प्रबुद्धजन प्रयत्नशील रहते हैं । प्रात्मा को मुक्तिपथ पर अग्रसर करने के लिए शरीर ही एकमात्र साधन है। शरीर के द्वारा विहित प्रत्येक कर्म और शरीर की प्रत्येक स्थिति प्रात्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। अतः आत्मा के मोक्षसाधन के लिए शरीर का निरोग होना नितान्त आवश्यक है। आरोग्य के बिना पारलौकिक तो क्या इहलौकिक कार्य की सिद्धि होना भी सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राचार्यों ने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का मूल आरोग्य बतलाया है-"धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।"
आयूर्वेदशास्त्र उसी शरीर के प्रारोग्य को यथावत बनाये रखने के लिए नियम, माचरण, पाहार-विहार प्रादि का उपदेश करता है, ताकि तदनुकूल आचरण के द्वारा मनुष्य स्वस्थ रहता हुआ अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सके । यदि कदाचित मनुष्य असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग अर्थात् मिथ्या आहार, विहार, प्रज्ञापराध अथवा काल-परिणाम प्रादि के कारण वेदना
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पंचम खण्ड / २२२
ग्रस्त या व्याधिपीडित हो जाता है तो उसके विकारोपशमन के लिए विभिन्न उपायों का उपदेश भी आयुर्वेदशास्त्र में किया गया है। इस प्रकार आयुर्वेद के दो मुख्य प्रयोजन हैं-स्वस्थ मनुष्यों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी मनुष्य के रोग का उपशमन करना । महर्षि चरक ने भी इस विषय में स्पष्टतः प्रतिपादित किया है
अर्चनार्चन
"प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।"
-चरकसंहिता, सूत्रस्थान ३०।२६ इस प्रकार आयुर्वेदशास्त्र मनुष्य के प्रारोग्यसाधन में सहायक होता है, ताकि मनुष्य अपने प्रारोग्यवान् शरीर के द्वारा अपनी आत्मा के कल्याणार्थ मोक्ष-साधन में प्रवृत्त हो सके । इसी भांति योगशास्त्र भी अपने प्रारम्भिक-अंगों यम-नियम-ग्रासन-प्राणायाम के द्वारा प्राचरण को शुद्धता, शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा, विकारोपशमन, मानसिक द्वन्द्वों के निराकरण और बौद्धिक विकास के कार्य को प्रशस्त करता है। इन प्रारम्भिक अवस्थाओं को पार किए बिना मनुष्य प्रात्म-कल्याण रूप अपने चरमलक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता।
योगशास्त्र में मोक्ष के प्रारम्भिक साधन के रूप में यम और नियम का प्रतिपादन किया गया है। यम पांच होते हैं। यम और नियम का पालन करने से मनुष्य के आचरण में शुद्धता पाती है, मन में सात्विक भाव का उदय होता है और आत्मा में निर्मलता की वृद्धि होकर कलुषता का विनाश होता है। इस प्रकार शनैः शनै: मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। आयुर्वेद शास्त्र में भी पाचरण सम्बन्धी कुछ इस प्रकार के नियमों का प्रतिपादन किया गया है, जो मोक्ष के साधनभूत प्रारम्भिक उपाय हैं और जिन का आचरण करने से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। महर्षि चरक ने उनका उल्लेख निम्न प्रकार से किया है
सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम् । बतचर्योपवासौ च नियमाश्च पृथग्विधाः ॥ धारणं धर्मशास्त्राणां विज्ञानं बिजने रतिः । विषयेष्वरतिर्मोक्षे व्यवसायः पराधतिः॥ कर्मणामसमारम्भः कृतानां च परिक्षयः। नष्क्रम्यमनहंकारः संयोगे भयदर्शनम ॥ मनोबुद्धिसमाधानमर्थतत्त्वपरीक्षणम् । तत्त्वस्मृतरूपस्थानात सर्वमेतत् प्रवर्तते ।।
-चरकसंहिता, शारीरस्थान १११४३-१४६ सज्जनों की अच्छी प्रकार से सेवा करना, दुष्टजनों का साथ नहीं करना, चान्द्रायण आदि व्रतों का धारण व पालन करना, प्रात्मशुद्धि के लिए उपवास करना, अलग-अलग बतलाए हुए नियमों का पालन करना, धर्मशास्त्रों का अभ्यास, स्वाध्याय व अनुशीलन करना, विज्ञान अर्थात् आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना या विशिष्ट निर्मल ज्ञान प्राप्त करना, निर्जन-एकान्त स्थान में निवास करना, चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयों तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मानसिक विकार भावों में रति नहीं करना, मोक्षसाधक कर्मों में प्रवृत्ति रखना, उत्तम धर्य
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योग और आयुर्वेद / २२३ धारण करना, पूर्वजन्म में उपाजित और इस जन्म में विहित कर्मों को क्षय करने का उपाय करना, जीवन को कर्महीन बनाना अर्थात् घर या पाश्रम से दूर होकर कर्मफल भोगने के लिए नए कर्म नहीं करना निष्कर्म रहना-अहंकार रहित होना, आत्मा और शरीर का संयोग होने पर अपने को भयभीत बनाना अर्थात यह भय रखना कि कर्मबन्धन के कारण कहीं मुझे पुनर्जन्म न लेना पड़े, मन और बुद्धि को समाधिस्थ करना, अर्थ के तत्त्वों की परीक्षा करने के बाद में उसका ग्रहण करना, ये सभी ठीक-ठीक स्मृतिज्ञान की प्राप्ति से ही प्रवृत्त होते हैं।
स्मृतिः सत्सेवनाद्यश्च धत्यन्तैरुपजायते ।। स्मृत्वा स्वभावं भावनां स्मरन् दुःखात् प्रमुच्यते ।
--चरकसंहिता, शारीरस्थान १११४७ उपर्युक्त मोक्ष के जो साधन बतलाए गए हैं उनमें "सतामुपासनम्" से लेकर "पराधति" तक नियमों का पालन व आचरण करने से "स्मृति" उत्पन्न होती है। संसार में स्थितभाव द्रव्यों के स्वभाव का स्मरण करके तथा स्वभाव को स्मरण करते हुए दुःख से मुक्त हो जाता है । अर्थात् सांसारिक दुःखों से मुक्ति हो जाती है।
__ इस प्रकार चरक के अनुसार मोक्ष के साधन में 'स्मृति' विशेष महत्त्वपूर्ण है । सामान्यतः पूर्वापर के विषयों को ध्यान में रखना ही स्मृति है, यथा-"अनुभवजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।" अथवा "अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृतिः, योगसूत्र १।११।" अर्थात् अनुभव किए हुए विषयों को नहीं भूलना ही स्मृति है। संसार में रज और तम से यूक्त मन के द्वारा जो भी कार्य किये जाते हैं, वे सब दुःखदायी और सांसारिक कष्टों के कारणभूत होते हैं।
सतामुपासनम् आदि आचरण करने से स्मृति उत्पन्न होती है और विगत दुःखों के अनुभव का स्मरण करते हुए सभी कार्यों को दुःख रूप मानकर धीरे-धीरे छोड़ देने से सुखोत्पादक ईश्वर की धारणा-ध्यान-समाधि में मन लग जाता है जिससे उसे चिदानन्द रूप परम ब्रह्म की प्राप्ति होती है। अत: स्मृति भी सांसारिक कष्टों से मुक्ति करने का एक साधन है।
अष्टांगयोग का सतत अभ्यास करने से अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति होती है-ऐसा योगाचार्यों का अभिमत है। आयुर्वेद में भी इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है। आयुर्वेद के अनुसार मन और सेन्द्रिय (इन्द्रियों सहित) शरीर ये दोनों सभी प्रकार के कष्टों, दुःखों, रोगों और वेदनाओं का अधिष्ठान हैं। प्रात्मा का निवास भी इन्द्रिय और समनस्क शरीर में होता है। अत: शरीर और मन के द्वारा किये जाने वाले कर्मों का फल भी उसी आत्मा को भोगना पड़ता है । जब तक आत्मा सभी कर्मों से रहित नहीं हो जाती तब तक इस संसार से उसकी मुक्ति संभव नहीं है । मोक्ष होने पर सभी प्रकार के दुखों-रोगों वेदनाओं का प्रभाव हो जाता है । मोक्ष का साधन एकमात्र योग के द्वारा सम्भव है। इसीलिए महर्षि चरक ने योग को मोक्षप्रवर्तक बतलाया है। यथा
वेदनानामधिष्ठानं मनो देहश्च सेन्द्रियः। केशलोमनखाग्रान्नलमद्रवगुणबिना। योगे मोक्षे च सर्वासा वेदनानामवर्तनम् । मोक्षे निवृत्तिनि:कषा योगो मोक्षप्रवर्तकः ॥
-चरकसंहिता, शारीरस्थान २।१३६-१३७
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पंचम खण्ड | २२४
अर्चनार्चन
केश, लोम, नख का अग्र भाग, अन्न का मल (पूरीष), द्रवों (स्वेद-मूत्र) के गुणों को छोड़कर इन्द्रिय सहित शरीर और मन वेदनामों का अधिष्ठान है। योग और मोक्ष में सभी वेदनाओं का नाश हो जाता है। मोक्ष में वेदनाओं की प्रात्यन्तिक निवृत्ति होती है । अत: योग मोक्ष का प्रवर्तक होता है।
___ "योगो मोक्षप्रवर्तकः" महर्षि चरक का यह वाक्य अपने प्राप में विशेष महत्त्व रखता है। इसके अनुसार योग मोक्ष को दिलाने वाला होता है। योगसूत्र में महर्षि पतञ्जलि ने योग का जो लक्षण बतलाया है उसके अनुसार योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः-चित्त (मन) की वत्ति को रोकने का नाम योग है। समाधि अवस्था में जब मन की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब रज और तम जो मन के दोष हैं, उनका स्वयं ही मन से वियोग अर्थात प्रभाव हो जाता है-इसी अवस्था को योग कहते हैं। इस योगावस्था में मनुष्य की आत्मा पूर्णतः निर्मल और विशिष्ट ज्ञानलोक से प्रकाशमान हो जाती है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जन को इसी प्रकार के योग का उपदेश दिया था
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा। बुद्धचा विशुद्धया युक्तो घृत्यात्मानं नियम्य च ॥ शुद्धासीन विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युवस्य च । विविक्तसेवी लघ्वासी यतवाक्काययानसः॥ ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः। अहंकारं बलं द कामं क्रोधं परिग्रहम् ॥ विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते। ब्रह्मभूतः प्रशान्तात्मा न शोचति न कांक्षति ॥
-भगवद् गीता, १८ _ हे कौन्तेय ! ज्ञान की जो उत्कृष्ट निष्ठा है उसे तू मुझ से समझ । विशुद्ध बुद्धि से युक्त स्वयं को नियन्त्रित करके शब्दादि इन्द्रियों से विषयों का परित्याग कर तथा राग-द्वेष को हटाकर एकांतवासी, मिताहारी, मन-वचन-काय को वश में करके जो नित्य ध्यानयोग में तत्पर रहता हुआ वैराग्य की ओर उन्मुख रहता है वह अहंकार बल, दर्प--मिथ्याभिमान, काम, क्रोध और परिग्रह से मुक्त होकर मोह-ममता रहित शान्त हुआ ब्रह्मपद को पाने का अधिकारी हो जाता है। ब्रह्मभूत हुआ वह प्रशान्तात्मा न तो कोई शोक (दु:ख) करता है और न कुछ कामना करता है, अर्थात् उसके सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष आदि का नाश हो जाता है ।
__ महर्षि चरक के पूर्वोक्त वचन से एक यह बात भी स्पष्ट होती है कि मोक्ष से पूर्व की अवस्था को हो योग कहते हैं और वही योग मोक्ष का साधन है। योग के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है । इस प्रकार मोक्ष और योग ये दोनों भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हैं। इसका स्पष्ट संकेत चरक के पूर्वोक्त "योगे मोक्षे च सर्वासां वेदनानामवर्तनम्" इस वाक्य से मिलता है। उनके अनुसार योग और मोक्ष दोनों ही अवस्थाओं में सभी प्रकार की वेदनाओं (दुःखों-रोगों) की प्रात्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। किन्तु योग ही मोक्ष नहीं है, अपितु योग के बाद की अन्तिम अवस्था मोक्ष है। योगावस्था में जो समस्त चित्तवृत्तियों का निरोध अथवा समस्त वेदनाओं का प्रवर्तन (नाश) होता है वह सशरीर अवस्था में होता है। मोक्षवस्था
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योग और आयुर्वेद / २२५
में तो इस भौतिक शरीर का भी विनाश हो जाता है अर्थात् शरीर का त्याग करने के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब यह श्रात्मा समस्त शारीरिक बन्धनों से मुक्त हो जाती है । उसे पुनः पुनः जन्म-मरण धारण करने के लिये संसार में नहीं श्राना पड़ता है, यही मोक्ष है और यही इस श्रात्मा का चरम लक्ष्य है । आयुर्वेद के अनुसार योग मोक्षप्राप्ति में सहायक है । अतः मोक्षप्राप्ति के लिए प्रथम योग की सिद्धि होना अनिवार्य है । योगसिद्धि के बिना मोक्ष की प्राप्ति अथवा आत्मा की मुक्ति होना संभव नहीं है । इससे यह स्पष्ट है कि आयुर्वेद में योग को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है और योग के सिद्धान्तों का वह पूर्णत: अनुमोदन करता है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि योगशास्त्र में प्रतिपादित चरमलक्ष्य को प्रायुर्वेद शास्त्र में भी उसी रूप में स्वीकृत किया गया है। योगशास्त्र सम्बन्धी अनेक सिद्धान्तों एवं व्यावहारिक बातों को आयुर्वेद में यथावत् रूप से ग्रहण कर लिया गया है । श्रतः योग और प्रायुर्वेद का प्रत्यन्त निकटतम सम्बन्ध है । जिस प्रकार योगशास्त्र में यम और नियम के द्वारा शारीरिक और मानसिक आचरण की शुद्धता पर विशेष जोर दिया गया है, उसी प्रकार श्रायुर्वेदशास्त्र में प्रतिपादित पूर्वोक्त "सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम्" श्रादि श्राचरण के अतिरिक्त निम्न "प्राचार रसायन" भी विशेष महत्त्वपूर्ण है, जिसमें सामान्य मनुष्य को सदाचरण का अनुशीलन, सद्गुणों का ग्रहण और सत्कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है—
सत्यवादिनमक्रोधं निवृतं मधमैथुनात् । अहिंसकमनायासं प्रशान्त प्रियवादिनम् ॥ जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम् । देवगोब्राह्मणाचार्य गुरुवृद्धार्चने रतम् ॥ आनृशंस्यपरं नित्यं नित्यं कारुण्यवेदिनम् । समजागरणस्वप्नं च नित्यं क्षीरघृताशिनम् ॥ देशकालप्रमाणज्ञं युक्तिज्ञमनहं कृतम् ।
शस्ताचारमसंकीर्णमध्यात्मप्रवणेन्द्रियम् ॥ उपासितारं वृद्धानामास्तिकानां जितात्मनाम् । धर्मशास्त्रपरं विद्यान्नरं नित्यं रसायनम् ॥
- चरकसंहिता, चिकित्सास्थान १/४/३०-३४
सदैव क्रूरता से दूर रहने वाले,
— सत्य बोलने वाले, क्रोध नहीं करने वाले, मघ सेवन और मैथुन से दूर रहने वाले, हिंसा नहीं करने वाले, श्रम नहीं करने वाले, शान्त रहने वाले, प्रिय बोलने वाले, जप और पवित्रता में तत्पर, धैर्यवान्, नित्य दान करने वाले, तपस्वी, देव, गो, ब्राह्मण, श्राचार्य, गुरु र वृद्धजनों की पूजा (सेवा) में तत्पर रहने वाले, सदैव करुणापूर्ण हृदय वाले, यथोचित समय तक जागृत रहने और यथा समय शयन करने वाले, देश, काल और प्रमाण अथवा देश और काल के प्रमाण को जानने वाले, युक्ति को जानने वाले, युक्तिपूर्वक कार्य करने वाले, अहंकार नहीं करने वाले, उत्तम या प्रशस्त प्रचारविचार वाले, संकीर्णता या विकारों से रहित, अध्यात्मविद्या में प्रवण (आध्यात्मिक विषयों
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पंचम खण्ड | २२६
अर्चनार्चन
में अपने चित्त को लगाने वाले) वद्ध जन, आस्तिक और जितात्मा पुरुषों की सेवा करने वाले, धर्मशास्त्रों के अध्ययन-चिन्तन-मनन-अनुशीलन में तत्पर रहने वाले मनुष्य को सदैव रसायन से युक्त समझना चाहिए। अर्थात् इन गुणों से युक्त मनुष्य यदि रसायन का सेवन नहीं भी करता है तो भी रसायन के सभी गुण उसे प्राप्त होते हैं ।
इस प्रकार यहाँ स्वस्थ पुरुषों के लिए ग्राचरण की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। अतः मनुष्य को उत्तम प्राचार-विचारवान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। उपर्युक्त आचार-विचार का पालन करने वाले मनुष्य सामान्य लोगों की अपेक्षा श्रेष्ठ और उन्नत प्रात्मा वाले होते हैं, अत: वे रसायन के गुणों को बिना रसायन-सेवन के सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। योगशास्त्र में जो यम और नियम बतलाए गए हैं वे भी इन प्राचार-विचार से भिन्न नहीं हैं। उनका उद्देश्य भी शारीरिक आचरण की शुद्धि, मानसिक दोषों का परिहार पोर आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना है। अतः दोनों का लक्ष्य साधन एक है।
योगशास्त्र में यम, नियम के पश्चात 'पासन' नामक तृतीय अंग का विवेचन किया गया है । आसन के विषय में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण योग का मूल आधार है। आसन की सिद्धि के बिना साधक की आगे गति नहीं है । आसन का प्रभाव साधक के शरीर, मन, इन्द्रियों
और प्रात्मा पर संयुक्त रूप से पड़ता है, जिससे साधना के लिए प्राधारभूत सुदृढ़ भूमि का निर्माण होता है। तात्पर्य यह है कि प्रासन के द्वारा शरीर और मन में इतनी सहृदयता प्रा जाती है कि उससे साधक की साधना में शारीरिक या मानसिक व्यवधान नहीं आ पाता है। शरीर पर प्रासन का जो प्रभाव पड़ता है उससे शरीर स्वस्थ एवं निरोग बना रहता है। शरीर के सम्पूर्ण अवयव-अंगोपांग और उनकी सभी प्रकार की क्रियाएँ नियन्त्रित होती हैं, जिससे स्वास्थ्य की रक्षा तो होती ही है, अनेक प्रकार के रोगों का शमन भी होता है। अनेक प्रासन तो ऐसे हैं जो रोग या रोग की अवस्था विशेष में अत्यन्त लाभकारी होते हैं। एक-एक प्रासन कई-कई रोगों में लाभकारी पाया जाता है। अतः रोगोपशमन या रोगों की चिकित्सा के लिए योग अपूर्व साधन है। इस प्रकार योगासनों के द्वारा जहाँ स्वस्थ मनुष्यों के स्वास्थ्य का अनुवर्तन होता है वहाँ विकासग्रस्त अवस्था में रोगों का उपशमन भी होता है। आयुर्वेद का मूल प्रयोजन भी यही है-"प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।" अर्थात् इस आयुर्वेदशास्त्र का प्रयोजन स्वस्थ मनुष्यों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी मनुष्यों के रोगों का शमन करना ।
स्वस्थ मनुष्यों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त और सद्वत्त का विधान बतलाया गया है। इस दृष्टि से दिनचर्या, निशाचर्या और ऋतुचर्या का वर्णन विशेष महत्त्वपूर्ण है । दिनचर्या के अन्तर्गत प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में जाग्रत होने से लेकर सायंकाल तक के समस्त दैनिक क्रिया-कलापों का उल्लेख है। साथ ही उनके गुणधर्म भी बतलाए गए हैं। प्रातःकालीन कार्यों में अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नान आदि क्रियाओं के साथ-साथ स्वशक्त्यनुसार व्यायाम करने का भी निर्देश दिया गया है। व्यायाम के द्वारा शरीर को स्वस्थ सुन्दर एवं सुगठित बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त व्यायाम से शरीर के प्राभ्यन्तरिक अवयव और उनकी क्रियाएँ भी प्रभावित होती हैं, जिससे स्वास्थ्य रक्षा तो होती ही है, अनेक विकारोंरोगों का उपशमन भी होता है। अतः जो कार्य योगासनों के द्वारा सम्पादित होता है, बहुत
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योग और आयुर्वेद | २२७
कुछ अंशों में वही कार्य व्यायाम के द्वारा भी सम्पन्न होता है। यद्यपि योगासनों और व्यायाम में तुलना नहीं की जा सकती और न ही व्यायाम की श्रेणी में योगासनों को रखा जा सकता है। क्योंकि योगाभ्यास व्यायाम की अपेक्षा कहीं अधिक उत्कृष्ट माने गए हैं, तथापि स्वास्थ्यरक्षा की दृष्टि से दोनों को समान मानने में कोई आपत्ति नहीं है। यद्यपि आयुर्वेद में योगासनों का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे अभ्यसनीय या आचरणीय नहीं हैं। सम्भवतः कष्टसाध्य होने अथवा उनकी दुरूहता के कारण उन्हें आयुर्वेद में परिगणित नहीं किया गया है, किन्तु व्यायाम के माध्यम से या व्यायाम के रूप में वे अभ्यसनीय हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रायुर्वेद में जो स्वस्थवृत्त और सद्वृत्त वर्णित है, यह सर्वथा योगासनों के अनुकूल है। योगासनों के द्वारा जो सुपरिणाम स्वास्थ्यअनुवर्तन और विकाराभिनिवत्ति के रूप में प्राप्त किए जाते हैं वे भी सर्वथा आयुर्वेद के अनुकूल हैं । इस दृष्टि से योग और आयुर्वेद में निकटता होना स्वाभाविक है।
योगासनों के अभ्यास में जब साधक स्थिरता और सुदृढ़ स्थिति को प्राप्त कर लेता है तो वह प्रगामी योगांग "प्राणायाम' के अभ्यास में तत्पर होता है। प्राणायाम वस्तुतः प्राणवायु के निरोध की एक ऐसी विशिष्ट प्रक्रिया है जिसके अभ्यास की सफलता होने पर मनुष्य को सुदीर्घ आयु प्राप्त होती है। आयुर्वेद में भी दीर्घायु की प्राप्ति के लिए अनेक विधिविधान और उपाय वर्णित हैं। आयुर्वेद में केवल दीर्घायु की प्राप्ति के लिए ही उपायों का उल्लेख नहीं है, अपितु सुखायु और हितायु का भी विवेचन किया गया है। साथ ही असुखायु और अहितायु का ज्ञान और उससे बचने का उपाय भी प्रतिपादित है।
प्राणायाम में प्रायु की दीर्घता वायु के निरोध पर निर्भर है। मन की चंचलता और निश्चलता भी वायु के निरोध पर निर्भर है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणायाम ही वायु पर आधारित होने से वायु को विशेष महत्त्व दिया गया है, जैसा कि उपनिषद् के निम्न उद्धरण से स्पष्ट है
चले वाते चलं चित्त निश्चले निश्चलं भवेत् ।
योगी स्थाणत्वमाप्नोति ततो वाय निरोधयेत ॥ -वायु के चलायमान होने पर मन भी चंचल रहता है और वायु के निश्चल रहने पर मन भी निश्चल हो जाता है, तब योगी स्थाणुत्व (स्थिरता) को प्राप्त करता है। अतः वायु का निरोध (वश में) करना चाहिए ।
यहाँ वायु का महत्त्व बतलाया गया है । वायू के निरोध के बिना प्राणायाम की सिद्धि सम्भव नहीं है। प्रायुर्वेद में भी वायु को विशेष महत्त्व दिया गया है। शरीर में सम्पन्न होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं, इन्द्रियों और मन का नियन्ता व प्रणेता वायु को ही माना गया है। शरीर की स्वस्थावस्था में कारणभूत दोषसाम्य और विकारावस्था में कारणभूत दोषवैषम्य के अन्तर्गत वायु की ही प्रधानता है। वायु के बिना अन्य दोनों पित्त और कफ दोष निष्क्रिय रहते हैं। उनमें कोई गति नहीं होती और न ही उसमें कोई क्रिया होती है। जैसा कि प्रतिपादित है
पित्त पंगु कफः पंगु पंगवो मलधातवः । वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ॥
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / २२८
- पित्त पंगु ( गतिशील नहीं) है, कफ पंगु है, मल ( स्वेद-मूत्र - पुरीष) और धातुएं ( रस-रक्त-मांस-मेद - प्रत्थि - मज्जा - शुक्र) भी पंगु हैं । ये दोष धातु-मल वायु के द्वारा जहाँ ले जाए जाते हैं वहाँ बादल के समान चले जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वायु के द्वारा बादल गतिशील होते हैं उसी प्रकार शरीर में दोष-धातु-मल भी वायु के द्वारा गतिशील रहते हैं ।
इसी प्रकार और भी अनेक उद्धरण वायु की प्रधानता और महत्त्व के विषय में श्रायुर्वेदशास्त्र में प्राप्त होते हैं । शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाये रखने के लिए वायु की साम्यावस्था अत्यन्त श्रावश्यक है । उसी प्रकार योगशास्त्र में प्राणायाम की दृष्टि से वायु का विशेष महत्त्व बतलाया गया है ।
योगशास्त्र में विशेषतः हठयोग में प्राणायाम से पूर्व षट्कर्म द्वारा शरीर का शोधन करना अत्यन्त प्रावश्यक बतलाया गया है । नेति, धौति, बस्ति, नौली, कपालभांति और त्राटक, इन यौगिक षट्कर्मों के द्वारा योगाचार्य कफादि दोषों को दूर करने का निर्देश देते हैं, ताकि इन कर्मों से शरीर की शुद्धि होकर शरीर प्राणायाम के अभ्यास के योग्य बन सके । आयुर्वेदशास्त्र में शरीर का शोधन करने के लिए "पंचकर्म" बतलाए गए हैं। जैसे वमन, विरेचन, बस्ति, शिरोविरेचन और रक्तमोक्षण । इन कर्मों से कफादि दोष शरीर के बाहर निकल जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है, जिससे वह स्वस्थ और निरोग बना रहता है । शरीर का शोधन रोगोपशन के लिए चिकित्सा के रूप में होता है, जिससे अनेक रोग समूल नष्ट हो जाते हैं। आयुर्वेदोक्त पंचकर्म के द्वारा दोषानुसार निम्न प्रकार से शुद्धि होती हैघमन से कफ दोष की विरेचन से पित्त दोष की, बस्ति से वायु दोष की, शिरोविरेचन से सिर में स्थित दोष की और रक्तमोक्षण से अशुद्ध रक्त का निर्हरण होता है । इस प्रकार पंचकर्म से दोषों का निर्हरण होकर शरीर पूर्ण रूपेण शुद्ध हो जाता है । योगशास्त्र में जो षट्कर्म बतलाए गए हैं उनके द्वारा शरीर की शुद्धि के साथ-साथ श्रनेक रोगों का शमन भी होता है । जैसे नेतिकर्म के विषय में कहा गया है
कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायनी । जनूर्वजातरोगौघं नेतिराशु निर्हति च ॥
- हठयोग प्रदीपिका २ - ३०
-नेतिकर्म कपालका शोधन करने वाला, सिर में स्थित कफादि दोषों को दूर करने वाला और दिव्यदृष्टि प्रदान करने वाला होता है । वह उर्ध्वजत्रुगत ( गले से ऊपर अर्थात् शिर में होने वाले ) रोग समूह को शीघ्र नष्ट करता है ।
धौतिकर्म के द्वारा निम्न रोगों का नाश होता है
कासश्वास प्लीहकुष्ठं कफरोगाश्च विंशतिः । धौतिकर्म प्रभावेण प्रयान्त्येव न संशयः ॥
-हठयोग प्रदीपिका २-२५
धौतिकर्म के प्रभाव से कास, श्वास, प्लीहा सम्बन्धी विकार, कुष्ठरोग और बीस प्रकार के कफ रोगों का विनाश होता है-इसमें कोई संदेह नहीं है ।
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योग और आयुर्वेद / २२९
गुल्मप्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद्भवाः । बस्तिकर्मप्रमावेण क्षीयण्ते सकलामयाः॥
-हठयोग प्रदीपिका २-२७ -बस्तिकर्म के प्रभाव से गुल्म, प्लीहा सम्बन्धी रोग, उदर रोग तथा वात, पित्त, कफसे उत्पन्न होने वाले सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।
इसी प्रकार त्राटककर्म के अभ्यास से सभी प्रकार के नेत्ररोग निर्मल होकर नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। नौतिक्रिया के अभ्यास से अग्नि विकृति दूर होकर पाचनक्रिया एवं पाचन संस्थान सुव्यवस्थित रहता है। इससे होने वाले लाभों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है।
मन्दाग्निसंदीनपाचनादिसंधापिकानन्दकरी सदैव । अशेषदोषामयशोषिणी च हठक्रियामौलिरियं च नौलिः ॥
हठयोग प्रदीपिका २-३४ -हठक्रिया में शिरोमणि यह नौलि क्रिया मन्दाग्नि को दूर कर जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाली, पाचनादि क्रियाओं को ठीक रखने वाली, सदा आनन्द देने वाली, सभी दोषों और रोगों को दूर करने वाली है।
कपालभांति कर्म के द्वारा सिर, पार्श्व और वक्ष प्रदेश में संचित श्लेष्मा का क्षय या निर्गम होता है । इस प्रकार ये षटकर्म मल और दोषों को बाहर निकाल कर शरीर का शोधन कर रोगों का नाश करने वाले होते हैं ।
यह सम्पूर्ण विषय आयुर्वेदीय चिकित्साशास्त्र से सम्बन्धित हैं। प्रतः निस्सन्देह रूप से यह कहा जा सकता है कि योगशास्त्र बहुत कुछ रूप में प्रायूर्वेद का पुरक होने के कारण उसके अत्यन्त निकट है। योगशास्त्र में प्रतिपादित स्वास्थ्यरक्षा और रोगनाशक सम्बन्धी सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित तथा आयुर्वेदीय दृष्टिकोण के सर्वथा अनुकल हैं। यौगिक षटकर्म तथा अन्य यौगिक क्रियाओं का प्रभाव सम्पूर्ण शरीर, मन और प्रात्मा पर पड़ता है। आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त, सदवृत्त एवं चिकित्सा भी शरीर, मन और आत्मा को पूर्णत: प्रभावित करते हैं। आपाततः दोनों का अन्तिम लक्ष्य भी लगभग समान ही है। अतः दोनों शास्त्र भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के अत्यन्त निकट हैं।
भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १ई/६, स्वामी रामतीर्थनगर,
नई दिल्ली-११००५५
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योग क्यों? 0 डा. नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम'
अर्चनार्चन
यह संसार दुःखालय है। दु:ख मनुष्य की चिन्तन नियति है। दुःख के बीच मनुष्य सुख की तलाश में कस्तूरीमृग की तरह भटकता रहता है। कभी वह शारीरिक एवं भौतिक पदार्थों में सुख ढूंढता है, कभी वह अपनी अनन्त इच्छात्रों की तृप्ति का निष्फल उपाय खोजता है। पर उसे वास्तविक सुख या प्रानन्द कब मिल पाता है और फिर उसे इस प्रकार की भ्रामक खोज में सुख मिल भी कैसे सकता है क्योंकि कठोपनिषद् में कहा गया है, "न वित्तन तर्पणीयो मनुष्यः।" और इच्छात्रों को भोग से तृप्त करने का श्रम तो मात्र एक छलावा है । मनुस्मृति में कहा गया है
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवमव भूय एवाऽभिवर्धते ॥ -"मनुष्य की कामनायें भोग करने से तृप्त नहीं होतीं किन्तु जैसे अग्नि की ज्वाला घृत डालने से बढ़ती है उसी प्रकार कामनाएँ भोग करने से और भी बढ़ जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दु:खों की निवृत्ति सांसारिक पदार्थों से नहीं हो सकती, सांसारिक पदार्थों के भोग से तृष्णा वढ़ती है," सुख शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। भर्तृहरि ने इस बात को बड़े स्पष्ट ढंग से कहा है
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता
स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याता
स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥ --"भोगों को हमने नहीं भोगा, किन्तु हम ही भोगे गये । तप नहीं तपे गये, किन्तु हम ही तपे गये, समय नहीं कटा, किन्तु हम ही कट गये, सचमुच तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, हम ही जीर्ण हो गये।" इस प्रकार संसार में दुःख से कोई मुक्त नहीं। अंग्रेजी उपन्यासकार हार्डी का कथन भी इस बात को दोहराता है, "Happiness is an occasional episode in the general drama of pain." दु:ख के सामान्य नाटक में सुख केवल एक प्राकस्मिक घटना है। कवि कीट्स की ये पंक्तियाँ कितनी सही हैं
The weariness, the fever, and the fret.
Here where, men sit and hear each other groan Where palsy shakes a few, sad, last grey hairs Where youth grows pale, and spectre-thin, and dris,
Where but to think is to be full of sorrow And leaden-eyed despairs;
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योग क्यों ? | २३१
-"यह जीवन भव-ताप से जल रहा है । इस संसार में हम बैठकर एक दूसरे की कराहटें सुनते रहते हैं, यहाँ रोग और जरा है, यहाँ यौवन शनैः शनैः रिसता रहता है। यहां पर सोचना मात्र दुःख से भर जाना है, निराशाओं से दब जाना है।"
जीवन की इस भयावह स्थिति में मनुष्य क्या करे ? क्या वह इसी प्रकार सतत दुःख की ज्वाला में जलता रहे या इससे मुक्ति का कोई उपाय सोचे ? आखिर, अपना उद्धार तो उसे अपने आप ही करना है, 'उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं ।' मनुष्य को यदि इस स्थिति से छुटकारा मिल सकता है तो वह केवल उसकी योगमय स्थिति से ही मिल सकता है। यदि वह अपने क्रिया-कलापों को योग से समन्वित करे तो निश्चित रूप से वह प्रानन्द की प्राप्ति कर सकता है। भगवान कृष्ण का आदेश उसे शिरोधार्य होना चाहिए-'योगस्थः कर कर्माणि ।" पर पहले उसे जानना चाहिए कि 'योगस्थ' होने का क्या अर्थ है। संसार के द्वन्द्वों का अस्तित्व इसलिए नहीं मिट सकता क्योंकि वे एक प्रकृति-सत्ता के अंग हैं, हाँ, यदि हमारा दृष्टिकोण बदल जाये तो कम से कम हमारे लिए उनका कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। दृष्टिकोण का यह परिवर्तन ही हमारे प्रात्म-विकास का प्रथम सोपान है। योग की प्रक्रिया से हम न केवल सुखी होते हैं अपितु इसके सतत अभ्यास से हमारे जीवन में एक विशेष प्रकार की भास्वरता आती है। इसलिए सबसे पहले मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को जाने, पहचाने-'आत्मानं विद्धि'। जब वह अपने को जान जायेगा तो उसे सही 'स्थिति' का ज्ञान हो जायेगा। वह अज्ञानी इसलिए है क्योंकि उसका चित्त विभिन्न क्लेशों (मलों) से प्रावृत्त है। जब इस मलिनता को वह पहचान जायेगा तो उसके प्रक्षालन का यत्न करेगा। जब इन अशुद्धियों का परिहार हो जायेगा तो वह प्रात्मा में "स्थित' हो जायेगा। अतः मनुष्य सबसे पहले अपने 'स्वरूप' को जाने, शरीर को जाने, चित्त को जाने, आत्मा को जाने । इस प्रक्रिया में योग उसकी सहायता कर सकता है। पर योग है क्या? क्या मात्र व्यायाम, वजिश अथवा जिम्नास्टिक्स का नाम योग है ? क्या केवल ध्यान का नाम योग है ? क्या किसी चिकित्सापद्धति का नाम योग है ? क्या भजन, कीर्तन, सन्ध्या-उपासना का नाम योग है ? ये प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि आज के इस युग में योग के सम्बन्ध में सही 'समझ' का प्रायः अभाव है। योग की यत्र-तत्र-सर्वत्र लोकप्रियता तथा व्यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद भी योग का वास्तविक अर्थ कितने लोग जानते हैं। यह स्थिति योग तथा हमारे दोनों के लिए अहितकर है।
सही अर्थों में योग 'अनुशासन' का ही नाम है। सभी तरह का अनुशासन-शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आत्मिक । योग के सतत अभ्यास से हमें न केवल शारीरिक निरोगता, मानसिक स्वस्थता, नैतिक पुष्टता और पात्मिक-सम्पूर्णता प्राप्त होती है अपितु इसके द्वारा हम एक विशेष 'जीवन-दृष्टि' विकसित करते हैं। यही जीवन-दृष्टि हमारे दुःख को मिटा सकती है, हमें सुखी बना सकती है, हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचा सकती है। इस 'दृष्टि' के लिए हम क्या करें ? इस प्रश्न का उत्तर है कि हम योग का मार्ग अपनायें। यह मार्ग सतत साधना का मार्ग है, कठिन पथ है; कहा गया है "क्षुरस्य धारा निषिता दुरत्यय दुर्ग पथस्तत्कवयो ववन्ति ।" योग (प्रात्म-साक्षात्कार) का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है, इसे प्रात्मदर्शी लोग छुरे की धार पर चलने के सदृश बतलाते हैं। पर, प्रात्म-विकास का कोई अन्य विकल्प नहीं। मनुष्य को चाहिए कि वह उपनिषद् के प्राप्त वचनों को न भूले
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अर्धमान
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिस्तु सारथि विद्धि मनः प्रग्रहमेव च । इन्द्रियाणि यानाविषयास्तेषु गोचरान । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ते त्याहमनीषणः ॥
पंचम खण्ड / २३२
"मनुष्य का शरीर एक रथ है, इस रथ का सवार आत्मा, सारथी बुद्धि, लगाम मन और घोड़े इन्द्रियाँ हैं । इस रथ को भी ऐसा ही होना चाहिए कि आत्मा के प्रधीन बुद्धि, बुद्धि के अधीन मन और मन के अधिकार में इन्द्रियाँ हों तभी यह रथ अभ्युदय और निःश्रेयस् रूप धर्म मार्ग पर चलकर सवार को निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देने का कारण बन सकता है ।"
योग का मार्ग ही व्यष्टि का कल्याण कर सकता है तथा व्यष्टि के विकास के द्वारा समष्टि का हित निश्चित है। योग की परम्परा भारत में प्रति प्राचीन है । भारत के आध्यात्मिक चिन्तन की मुख्य धाराम्रोंनेगम (वेदमूलक), बौद्ध धीर जैन में योग की प्रचुर चर्चा है। योग जन-जीवन में इतना घुल मिल गया है कि धर्म प्रध्यात्म, तंत्र साधना, भक्ति, चमत्कार, जादू-टोना द्यादि का पर्याय सा बन गया है। योग की अप्रतिहत धारा प्रबाधरूपेण हमारे देश में बहती रही है।
योग का मार्ग कठिन अवश्य है पर असम्भव नहीं । 'योग-दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की रचना 'व्यक्ति' के धात्म-निर्माण एवं विकास हेतु की थी तथा व्यक्ति के माध्यम से समाज का कल्याण ही उनका प्रभीष्ट था । योग की संश्लिष्ट प्रणालीयम, नियम, घासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ही हमारी वर्तमान दुखद स्थिति का समाधान है। योग एक स्वस्थ विज्ञान है जो अपनी विशेष पद्धति द्वारा मानव को न केवल स्वस्थ, संयमित तथा नीरोग बनाता है, अपितु उसे श्रात्मिक विकास के माध्यम से परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। योग संस्थान, सान्ताक्रूज बम्बई के योगेन्द्रजी के अनुसार, "योग उस जीवनप्रणाली का द्योतक है जो शारीरिक, मानसिक, नैतिक और प्रात्मिक स्तरों पर पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करती है और मनुष्य में जो कुछ भी त्याज्य है उसे सर्वश्रेष्ठ तत्त्व में बदल देती है। इस उच्च जीवन कला पोर जीवन-विज्ञान की सिद्धि के लिए प्रात्म-संस्कार की ऐसी विस्तृत और व्यावहारिक पद्धति बनाई गयी है जो शारीरिक मानसिक तथा धात्मिक शक्तियों के परस्पर विनिमयशील तथा सन्तुलित विकास द्वारा शरीर को नीरोग, मन की शान्त तथा नैतिक जीवन को शुद्ध बनाकर उसे श्रात्म-साक्षात्कार का अभ्यासी बनाती है ।" यम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ) तथा नियम ( शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान) के अभ्यास से व्यक्ति में व्यष्टिगत एवं समष्टिगत शुचिता उत्पन्न होती है; प्रासनों के द्वारा शारीरिक स्वस्थता सौर नीरोगता मिलती है प्राणायाम से प्राण-शक्ति प्रजित होती है, प्रत्याहार से आन्तरिक और बाह्य ज्ञानेन्द्रियों को बनाने का प्रयास होता है । 'धारणा' और 'ध्यान' से चेतन प्रचेतन प्रात्म-साक्षात्कार की दिशा में बढ़ा जाता है, अन्त में परमानन्द की स्थिति समाधि तक पहुँचा जाता है ।
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संयमित करके अन्तर्मुखी
शक्तियों का उपयोग कर
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योग क्यों ?/२३३
यम-नियम, दोनों ही हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक प्राचरण को अनुशासित कर सकते हैं, पर विशेष रूप से अहिंसा और अपरिग्रह हमारे प्राज के विश्व की परमावश्यकता है। आज का समाज अहिंसा के लिए प्यासा है। आज सर्वत्र हिंसा का भैरवी ताण्डव है, मृत्यु एवं ध्वंस की विभीषिका है। विज्ञान की तथाकथित उपलब्धियों से प्रमत्त मानव अहिंसा से विमुख है । पर उसे नहीं मालम कि अहिंसा और अपरिग्रह ही आज की हिंसामय परिस्थितियों पर अंकुश लगा सकते हैं। अहिंसा बैर का प्रतिकारक (Antidote) है, "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।" अपरिग्रह के होने पर अहिंसा तो स्वतः फलित होगी ही। यदि लोभ नहीं है तो द्वेष क्यों उत्पन्न होगा और द्वेष के बिना हिंसा का जन्म कैसे होगा? भय, दुर्बलता या उद्विग्नता से हिंसा का उद्गम होता है, अहिंसा के साथ-साथ अभय और मक्रोध पनपते हैं। प्राज अहिंसा का दृष्टिकोण ही हमें अवश्यंभावी विनाश से बचा सकता है :
जमी का चप्पा चप्पा कत्लगाहे आदमियत है खदा महफूज रक्खे आये दिन कातिल बदलते हैं।
इन 'कातिलों' को केवल अहिंसा ही परास्त कर सकती है। अहिंसा से प्रेम जन्म लेगा, हमारे हृदय में सारे संसार का दर्द होगा :
खंजर चले किसी पर तड़पते हैं हम 'अमीर'
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है। जब हम ऐसा सोचने लगेंगे तो किसी से क्यों नफ़रत करेंगे, किसी को क्यों मारेंगे? अहिंसा के साथ यदि अपरिग्रह होगा तो व्यक्ति हिंसा, द्वेष, वैमनस्य प्रादि दोषों से मुक्त रहेगा, वह सत्यशील होगा, क्योंकि वह निर्भय होगा, वह किसी की सम्पत्ति को क्यों चुराना चाहेगा (अस्तेय)? ऐसा व्यक्ति संयमी होगा और ब्रह्मचर्य का सतत पालन करेगा। उसके जीवन में शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान स्वयमेव प्रविष्ट हो जायेंगे। अहिंसा और अपरिग्रह का अभ्यासी व्यक्ति वैयक्तिक-विघटन तथा सामाजिक वैषम्य को मिटाते हुए समाज में प्रेम, सद्भाव, विश्वबन्धुत्व प्रादि दिव्योन्मुख मानवीय गुणों से एक विशेष वातावरण का निर्माण करेगा। - और फिर, यह 'वातावरण' प्राज की परिस्थितियों की मांग भी है। मानव की भौतिक एवं पार्थिव उपलब्धियां अपरिमेय हैं, असीम है। उसकी विकास-यात्रा अप्रतिहत एवं अबाध है। उसे कोई वस्तु दुर्लभ नहीं : राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर के शब्दों में
और मनुज की नयी प्रेरक ये जिज्ञासायें । उसकी वे सुबलिष्ठ सिंधु-मंथन में दक्ष भुजायें। अन्वेषिणी बुद्धि वह तम में भी टटोलने वाली। नव रहस्य, नव रूप प्रकृति का नित्य खोलने वाली। इस भुज, इस प्रज्ञा के सम्मुख कौन ठहर सकता है ? कौन विभव जो कि पुरुष को दुर्लभ रह सकता है ?
पर यदि हमने योग का मार्ग नहीं अपनाया तो क्या हम इस 'विभव' को भोगने के लिए बच पायेंगे ? प्रतएव, आवश्यकता इस बात की है कि हम योग के व्यावहारिक एवं अखंडित
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पंचम खण्ड | २३४
मार्ग और स्वरूप का अनुसरण करें, स्वयं को योगमय बनायें तथा समाज को योगमय बनायें । तभी हम पूर्ण स्वस्थ, सद्भावपूर्ण, नीरोग, तथा शांत संयमी बन सकेंगे तथा हमारा समाज प्रेममय हो सकेगा । सभी सुखी होंगे, सभी स्वस्थ-नीरोग होंगे, सब एक-दूसरे का कल्याण चाहेंगे, किसी को कोई दुःख नहीं होगा। अाज हमारा दर्द (दुःख) बहुत बढ़ चुका है, इसका उपचार होना अत्यावश्यक है। केवल योग ही इस 'पीर' का निवारण कर सकता है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में :
अर्चनार्चन ।
हो गयी है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
जाहिर है, हमारे आज के रेतीले जीवन में योग-गंगा की निर्मल धारा अविरुद्ध प्रवाहित होती रहनी चाहिए।
आवास ७ य २ जवाहरनगर, जयपुर।
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योग के षट्कर्म एवं रोग निवारण
डॉ० बी० के० बान्द्रे, एम० ए०, पी-एच० डी० (योग) भारतीय ऋषि-मुनियों ने प्रकृति का अच्छा अध्ययन करके अनेक सहज एवं प्राकृतिक प्रयोगों का प्रचलन किया था और उससे असंख्य रोगों का उपचार भी संभव हा था। आजकल जितने चिकित्सालय, सुविधा एवं खोज हुई हैं उनके समय में नहीं थीं। फलस्वरूप वे लोग प्राकृतिक जीवन जीते हुए अपने रोगों का उपचार भी स्वयं किया करते थे। योग के षट्कर्म भी उस उद्देश्य से निर्मित कुछ प्रक्रियाएँ हैं जो प्राधनिक लोगों की दैनिक उपयोगिता में सहायक हो सकती हैं।
षटकर्म का उपयोग आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सापद्धति में होता है। परन्तु योग की यह प्रारम्भिक प्रक्रिया मानी जाती है। षट्कर्म का निश्चित प्रारम्भ किसने किया, इसका अंदाज नहीं लगाया जा सकता किन्तु सर्वसाधारण व्यक्ति बिना विशेष साधन-साहित्य से अपने रोगों का उपचार षट्कर्मों द्वारा कर सकते हैं ।
षट्कर्म क्या हैं ? यह जानना आवश्यक है। छः कर्म या क्रियाएँ इसके अन्तर्गत पाती हैं । नेति, धौति, कपालभांति, त्राटक, कुजल क्रिया, बस्ती। यह छः क्रियाएँ षट्कर्मों के नाम से जानी जाती हैं। इन सबका अपना-अपना महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुरूप एवं रोग को समझकर करना चाहिए। क्रियायें न समझ कर करने वालों को कष्ट उठाने पड़ते हैं।
कुजलक्रिया या धौति—यह क्रिया पानी या वस्त्र की पट्टी से की जाती है। प्रातःकाल शौचादि के उपरान्त ३-४ ग्लास साधारण गरम पानी में १-२ छोटे चम्मच नमक डाल कर तुरन्त उस पानी को जल्दी से पी जाएँ और तुरंत गले में मध्यमा अंगुली चला कर उस पानी को बाहर निकाल दें। इसे कुंजलक्रिया कहते हैं। उसके आधे घंटे बाद कुछ खाने-पीने की वस्तुओं का सेवन करें। वस्त्र धौति से भी यह क्रिया संपन्न होती है। ४'x २२" लंबी पट्टी को गरम पानी में उबाल कर एवं एक सिरे से निगल कर दूसरे सिरे को बाहर खींच कर निकालने को वस्त्रधौति कहते हैं। कजलक्रिया एवं वस्त्रधौति का उपयोग रोगनिवारण में विशेषरूप से किया जाता है।
दमा, कफ, पित्त के रोग के शमन के लिए कुजलक्रिया एवं वस्त्रधौति अत्यधिक उपयोगी है। माइग्रेन, सिर के दर्द में, आधाशीशी, अपच, कफ में कुजलक्रिया अवश्य करनी चाहिये । भोजन का अपच एवं कफ की अधिक शिकायत पर इसे अवश्य करें। गले को नाखन, अंगूठा, खरोंच से बचाने के लिए अधिक समय तक कुजलक्रिया में गले में अंगुली न चलावें । उच्च रक्तचाप, अल्सर की तीसरी अवस्था एवं भयंकर अन्य बीमारी में इसका उपयोग न करें।
जलनेति क्रिया में नाक के एक छेद से पानी को डाल कर दूसरे छेद से निकालना एवं इससे विपरीत करते हैं। इसके लिए एक विशेष प्रकार के जलनेतिपात्र प्राप्त करना चाहिये । पात्र में सामान्य गरम पानी भर कर १/२ चम्मच नमक डालें एवं एक नासाग्र में यह पात्र लगाकर गर्दन को सामने की ओर झुकावें, मुह से श्वास लेते रहें। इसी प्रकार दूसरी तरफ से करें। जलनेति से नजला कम होकर श्वास-प्रश्वास अच्छी तरह होने
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पंचम खण्ड / २३६
अर्चनार्चन
लगता है। दमा, 'एलर्जी कोल्ड', सुगंध-दुर्गंध आदि का न आना, सिर दर्द, चश्मा के नम्बर बढ़ते जाना एवं नकसीर में यह क्रिया अति उपयोगी सिद्ध होती है। जिनके नाक से पानी पार नहीं होता उन्हें सूत्र एक नाक से डाल कर मुह से निकालना एवं उसे चलाना होता है। फलस्वरूप नाक का रास्ता साफ हो कर श्वास-प्रश्वास सामान्य होने लगता है । उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है। सिर-दर्द, सर्दी-जुकाम, गले की खराश आदि मिटाने में जलनेति अति उत्तम है।
कपालभांति-श्वास-प्रश्वास तेज करते हुए फेफड़ों की सफाई करना इस क्रिया का प्रमुख उद्देश्य है। श्वास को इतनी जल्दी एवं तेज गति से बाहर फेंकना होता है कि प्रतिक्रिया के रूप में पुनः श्वास भीतर आ जाती है। इस प्रकार जल्दी-जल्दी फेफड़ों को चलाना होता है। कपालभांति से दमा, खांसी-कफ, जुकाम समाप्त हो जाता है। जिन लोगों को सिगरेट छोड़ना है उन्हें यह मदद देती है। सिर का दर्द मिटाती है । कपालभाँति टी. बी. एवं हृदयरोगी को नहीं करना चाहिये।
त्राटक-यह प्रांखों की ज्योति (शक्ति) बढ़ाने के कार्य में उपयोगी है। किसी विषय, जैसे दीपक, चित्र, बिन्दु प्रादि को सिर-गर्दन सीधी रखते हए लगभग दो फुट की दूरी पर बैठ कर बिना पलकें गिराये हुए लगातार देखना होता है। इससे आँखों की शुद्धि हो कर ज्योति बढ़ती है । इच्छाशक्ति बढ़ाने के लिये लगभग तीस मिनट तक करना उचित है । अभ्यास को धोरेधीरे बढ़ावें । यह क्रिया चंचल मन को शीघ्र स्थिर करती है और मनोबल बढ़ाती है।
योग के षट्कर्म में बस्ती क्रिया का प्रचलन कम हो गया है, क्योंकि इसका सरल प्रकार 'एनिमा' हो गया है। योगी गुदाशय में ६" मोटी नली को फंसा कर पेट का श्वास बाहर निकालकर पीछे की तरफ सिकोडते हैं। फलस्वरूप नली के द्वारा पानी ऊपर पिचकारी की तरह खींचा जाता है और थोड़ी ही देर में इसे बाहर निकालने से जमा हुमा मल बाहर निकाल कर अनेक रोगों से बचाव किया जाता है। जैसे बवासीर, हानिया, भगंदर, खून का मलद्वार से पाना आदि । गॅसेस, कब्जियत दूर करने में बस्ती क्रिया बेजोड़ है । यह क्रिया पानी के टब, तालाब, नदी या जलाशय में की जाती है। अनेक लोगों को मलद्वार में अंगुली डाल कर मल निकालना पड़ता है। फिर निष्कासन अच्छा न होने पर कैंसर जैसे भयंकर रोग होने की संभावना बनी रहती , यह क्रिया लाभ पहुंचाती है।
नौलि क्रिया पेट के लिये की जाती है। यह षट्कर्मों में से एक है। इसे खड़े हो कर या किसी प्रासन से बैठकर किया जाता है । खड़े हो कर कमर से थोड़ा सामने झुकें, जिससे हाथ घटनों तक पहुंच जायें। घुटनों को थोड़ा आगे की तरफ झुकायें, सामने देखते हुए श्वास बाहर फेंक दें और बाहर ही रोक रखें। जब तक श्वास रुकती है, पेट को अन्दर की तरफ सिकोड़ एवं गुदाशय को ऊपर खींचें जिससे पेट का प्राकार दण्डाकृति हो जायेगा । इसे नौलि कहते हैं। इसे घमाने पर पेट के भीतरी अवयवों की मालिश हो जाती है और भोजनपाचन सम्बन्धी सभी कष्टों को दूर किया जाता है। इससे पेट के अनेक रोग ठीक हो जाते हैं। भूख लगती है। यह मधुमेह में लाभकारी है। जिगर की सूजन कम होती है। प्रांतों का कार्य सक्रियता से होने पर गैसेस एवं कब्जियत मिटती है।
इस प्रकार योग के षटकर्म सामान्य-जीवन एवं रोगनिवारण के लिए उपयोगी हैं। 07
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वर्तमान युग में योग का नारीपर प्रभात
डॉ० श्रीमती मायारानी आर्य
आधुनिक नारी पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त करती जा रही है । उस पर समाज-निर्माण की जो जिम्मेदारी प्राचीन समय में थी उससे कहीं अधिक जिस्मेदारी वर्तमान समय में है और बढ़ती ही जा रही है। उसके अधिकारों में जहां वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर उसके कर्तव्य भी बहुमायामी हो गये हैं। परिवार के भरण-पोषण, शिक्षा, नारी-समाज में नव-चेतना जागत करने का कार्य भी उसे ही करना है। समाज में नवजागरण नारी-समाज द्वारा ही लाया जा सकता है। वर्तमान समाज को नैतिक-पाचरण की शिक्षा देना बहुत आवश्यक हो गया है क्योंकि इस युग में हम पश्चिम की ओर बढ़ रहे हैं । हमने अपने आदर्श और नैतिकता को त्याग दिया है, बिना नैतिक शिक्षा के समाज केवल अर्थ या तकनीकी शिक्षासे अपना विकास नहीं कर सकता ।
समाज में नवजागरण यदि लाना ही है तो नारी-समाज ही इसमें अपना योगदान दे सकता है। योग व संस्कार-शिक्षा के माध्यम से देश की आगे आने वाली नयी पीढ़ी का निर्माण अपने ढंग से कर सकते हैं। वर्तमान युग में उसे परिवार, समाज, देश व राष्ट्र के उत्थान के साथ अपनी संतति में बदले परिपेक्ष्य में नये संस्कार व प्राचार के नियम डालने व उनके परिपालन में कड़ी निगाह रखनी होगी।
मनोविज्ञान व अन्तःचेतना के नित नये शोध से बालमनोविज्ञान पर जो विचार प्राये हैं उनसे परिचित होकर बालकों में मन की एकाग्रता लाकर शिक्षा में प्रवृत्त करने का नया . कार्य-क्षेत्र अब उसके समक्ष खल गया है। नौकरी में सामाजिक क्षेत्र में जाकर अब उसके पास अपनी संतति के लालन-पालन में नई चनौती आई है, उस पर भी ध्यान देकर उसे पहले अपने जीवन में उतार कर फिर अपनी संतति को उससे अभ्यस्त करना होगा।
संतति में अच्छे संस्कारों का समावेश कराने में माता का योगदान ही प्रमुख होता है क्योंकि अधिकांश समय बालक अपने पिता की अपेक्षा माता के सान्निध्य में अधिक रहता है। इस प्रकार माता के व्यवहार से ही अच्छे संस्कार बालक में घर करते हैं। उससे ही सफल व्यक्तित्व का निर्माण होता है। बालकों में सृजनात्मक शक्ति माता ही उत्पन्न करती है। प्रत्येक बालक का अपना एक व्यक्तित्व होता है, उसकी अपनी अभिरुचि होती है और प्रसुप्त प्रतिभा होती है, उसे जान समझकर उन्हें उनके उचित मार्ग में अपनी शक्ति लगाने के लिए शारीरिक क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करने में नारी ही योगदान कर सकती है। वैज्ञानिक, संगीतकार या कलाकार बनाने के लिये शरीर की यथोचित समृद्धि होनी चाहिये। कुछ बच्चे स्वभाव से ही आज्ञाकारी होते हैं, उन्हें एक ही बार स्पष्ट रूप से समझा देने पर वे उसका पालन करते हैं । उद्दण्ड बालकों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है, ऐसे में उन्हें योग की व्यावहारिक शिक्षा दी जानी चाहिये। बच्चों को अनुशासित करने का सर्वोत्तम उपाय है कि माता स्वयं उनके लिये उदाहरण बन जाये, क्योंकि स्वभावतः बालक माता की दिनचर्या व व्यवहार का ही अनुकरण करते हैं।
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पंचम खण्ड / २३८
स्वामी सत्यानन्द सरस्वतीजी लिखते हैं कि "नारी के समक्ष प्राज नये रूप से उत्तरदायित्व मा गया है। उन्हें योग की शिक्षा घर पर ही दी जानी चाहिये और यह कार्य घर में नारी ही सही रूप में कर सकती है, इसके लिये घर में योग से सम्बन्धित साहित्य रखना चाहिये।"
योग व संस्कार ही वह साधन है जिससे बालक अपने जीवन का विकास नियमित रूप में कर पाता है। योग से एक सहज व सौम्य वातावरण बालक को मिलता है।
__ योग और संस्कार की शिक्षा न देने पर मां अपने बालकों को भावनात्मक रूप में व शारीरिक रूप में अस्वस्थ रखती है। आज समाज में अनुशासनहीनता यदि दिखाई देती है तो उसका कारण है योग-शिक्षा का प्रभाव । बालकों में अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं जैसे डायबिटीज, अपस्मार व अन्य अनेक मानसिक व्याधियाँ। प्रासन शरीर की कुछ विशिष्ट स्थितियां हैं जिनके करने पर बालक तनावों, रोगों व कंठानों से मुक्त रहता है । इस प्रकार एक योगशिक्षित मां अपने बच्चों के जीवन को प्रशिक्षित कर सकती है।
योग का अर्थ है "मन का एकीकरण", मन के विभिन्न कार्यकलापों को एक स्थान में नियंत्रित करना । तब ऐसा 'मन' शरीर, व्यक्ति, समाज परिस्थिति में एक समूह का काम कर सकता है और उस अलौकिक चेतना का अनुभव कर सकता है जिसे ईश्वर कहते हैं। व्यक्ति मात्र का सुन्दर स्वास्थ्यप्राप्ति की क्षमता को उत्पन्न करना ही योग है। स्वयं को जानने का अगर कोई साधन है तो वह है योग । योग द्वारा हम अपने आपको अच्छी तरह से जान सकते हैं । योग, ध्यान, आसन, प्राणायाम सभी आत्म-विश्लेषण के माध्यम हैं।
स्थिरता को लाने के लिये मन को स्थिर करना होगा। मन में बेचैनी, मानसिक प्रशांति, दूसरों को अपने से भिन्न व हेय समझना आज प्राधुनिक युग की समस्याओं का मूल कारण है। प्रत्येक व्यक्ति में स्पर्धा की भावना है जिसके वशीभूत होकर वह दूसरे को नीचे गिराना चाहता है । अध्यात्म की कमी ने ऐश्वर्य और भौतिकता को प्रश्रय दे रखा है। बालकों में भी इन वस्तुओं को प्राप्त करने की भावना दिनोंदिन बढ़ती जा रही है जिस पर नियंत्रण प्रावश्यक है, वह योग-शिक्षा द्वारा संभव है और नारी इस कार्य को सम्पन्न कर सकती है।
बच्चों के निर्माणात्मक काल में उनके शारीरिक और मानसिक क्रिया-कलापों में संतुलन होना बहुत आवश्यक है। माता-पिता बच्चों को तब तक दिशा प्रदान कर शिक्षित नहीं कर सकते जब तक कि ये स्वयं ही कुण्ठानों से ऊपर न उठे। पारिवारिक शिक्षा के रूप में माता व शिक्षक-शिक्षिका बालक को योग की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दें। योग के अभ्यासी बच्चे अपनी मदद स्वयं करने में समर्थ हो जाते हैं। शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक जीवन को स्वनियंत्रित करने में समर्थ हो जाते हैं।
प्राज पश्चिम में योगाभ्यास अनिवार्य अंग होता जा रहा है, इससे परिवार के वातावरण में सुधार भी पाता है तथा बच्चों में एकाग्रता व स्मरणशक्ति बढ़ जाती है। वे शरीरश्रम की महत्ता जान जाते हैं। इसके अतिरिक्त निरोग रहते हैं व उन पर रोग का आक्रमण नहीं हो पाता है।
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वर्तमान युग में योग का नारी पर प्रभाव | २३९
प्राज के भौतिक-युग में अध्यात्म का समावेश करना अनिवार्य हो गया है। पाश्चात्य जगत् भौतिक सम्पदा में अग्रणी होकर भी उसे आत्मिक संतोष नहीं है-नित्य प्रतिदिन वहां व्यभिचार, तनाव, रक्तचाप, हृदयरोग बढ़ता जा रहा है। उन्हें लगता है कि कहीं कुछ कमी रह गई है और वह है योग का व्यावहारिक प्रयोग कर समाज में नई जागति लाना। भारत में तो योग की साधना सामाजिक जीवन में रची-बसी हई थी। योग भारतीय संस्कृति का प्राण है। _ 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत' । योग द्वारा सब उत्पातों के केन्द्र 'मन' को जीतने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। मन से ही हमें कष्ट की अनुभूति होती है और मन से ही हमें शांति प्राप्त हो सकती है। कामविचार भी मन में प्राते हैं और शोक विचार भी मन में पाते हैं। डिप्रेशन मन में आता है, क्रोध भी प्राता है। इसलिये मन को स्वस्थ रखने का ध्यान हमारी संस्कृति में विशेषरूप से किया गया है।
आज के वैज्ञानिक योग को विज्ञान के रूप में स्वीकारते हैं और शरीर व मन पर उसके होने वाले परिणामों की जांच कर रहे हैं। उदाहरणार्थ बच्चा जब सात या आठ वर्ष का होने लगता है तो उस समय उसकी रीढ़ की हड्डी चक्र के ऊपर खिंचती है। सिर में एक ग्रन्थि होती है जिसे अंग्रेजी में 'पीनियल' कहते हैं और योग में 'प्राज्ञाचक्र' । यह ग्रन्थि सात साल के बाद धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। इसी प्रकार भावनात्मक विचार और यौन विकास में जो असंतुलन पैदा होता है उसके कारण बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं-मिर्गी, हिस्टीरिया आदि ।
प्राचीनकाल में जब बच्चा सात साल का होता था तो उस समय उसे तीन चीजें सिखाई जाती थीं। उसी समय से व्यावहारिक योगमय जीवन का प्रारम्भ हो जाता था। माता ही उसे इन तीन अभ्यासों को करने का उपदेश देती थी। पहला, प्राणायाम-जिसमें रेचक, पूरक और कुम्भक होता था। दूसरा मन्त्र व तीसरे व्यायाम व उपासना ।।
काम को उद्भ्रांत करने वाले जो हार्मोन्सरूपी विकार ग्रन्थि से निकलते हैं, उनसे अपने को मुक्त करना था। योग में इन्हें ब्रह्मग्रन्थि, विष्णग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि कहते हैं। इन ग्रन्थियों के विषय में माण्डकोपनिषद में विशेष चर्चा की गई है। इन तीनों में जो रुद्रग्रन्थि है वह उत्पाती ग्रन्थि है। इस रुद्रग्रन्थि को नियन्त्रण में लाने से मनुष्य अपना स्वामी बन जाता है। यही योग की प्रथम अवस्था है। इसको प्राणायाम द्वारा नियन्त्रित किया जाता है जिससे हम अधिक से अधिक दिनों व वर्षों तक अपने मस्तिष्क पर, अपने स्नायुमंडल पर, अपनी शारीरिक ग्रन्थियों पर, अपनी कामना व वासना पर और अपनी नाड़ियों पर नियंत्रण रख सकते हैं। इसीसे ब्रह्मचर्य पुष्ट होता है। योग सिखाता है कि विवाहित जीवन यज्ञ है। एक सत्यता लाने का पुण्य कर्म है, मात्र शारीरिक सुख उसका उद्देश्य नहीं । गृहस्थ से ही हमारा समाज बढ़ता है।
योग की साधना प्रासन-क्रियाओं से मन में प्रानन्द उत्पन्न करती है। योग से तन, मन पौर जीवन शुद्ध होता है। प्रासन बैठते की वह अवस्था है जिससे शरीर पुष्ट होता है । पद्मासन और खड्गासन में तीर्थंकर प्रतिमाएं बनाई गई हैं।
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अर्चनार्चन
"वीरः ऋषभ नेमिः एतेषां जिनानां पर्यङ्कासनम् । शेषजिनानां उत्सर्ग आसनम् ॥ "
पंचम खण्ड / २४०
सर्वांगासन, उत्कटासन व शीर्षासन आदि से जहाँ मन की एकाग्रता धाती है वहीं शरीर
निरोग हो जाता है ।
योग धर्मनिरपेक्ष साधनापद्धति है । सब लोग नित्य प्रासन प्राणायाम करें। इनसे दमा, कोलाइट्स, डायबिटीज का उपचार होता है। योग के पास पेप्टिक अल्सर, क्रोध, रोग, शोक सबका इलाज है । योग के अंगों में ध्यान भी एक है और ध्यान का अभ्यास बच्चों में पूर्णता व उच्चता की प्राप्ति के लिये शरीर व मन के शिथिलीकरण के लिये ही नहीं बल्कि मस्तिष्क के दाहिने भाग को अधिक क्रियाशील बनाने के लिये लागू किया जाना चाहिये । इससे बालक के ज्ञानचक्षु खुलते हैं ।
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योग के द्वारा व्यक्तित्व के दोषों को दूर कर अन्तःप्रज्ञा को विकसित किया जाता है । आजकल विज्ञान द्वारा प्रमाणित हो चुका है कि बालक को पूर्ण शिक्षण देने के लिये योग के पास सुविधाएँ हैं। योगाभ्यास द्वारा प्रान्तरिक शक्ति की प्राप्ति व बौद्धिक, व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है। योग प्रेम, करुणा उत्पन्न करता है जिससे व्यक्ति का विकास होता है ।
-२२, भक्त नगर,
दशहरा मैदान, उज्जैन (म. प्र. )
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महिलाओं में बहुत से रोग सामान्य रूप से पुरुषों की अपेक्षा अधिक होते हैं, जैसे कमर का दर्द, घुटनों का दर्द, बार-बार कमजोरी तथा थकान का महसूस होना एवं मासिकधर्म की बीमारियाँ | इनके अलावा गर्भावस्था तथा प्रसव के बाद होने वाली बीमारियाँ |
योग तथा नारी रोग
[ डॉ० के. सी. खरे
एम. डी., एफ. सी. सी. बी.
१. कमर का दर्द - २५ से ३० प्रतिशत व्यक्ति कमर के दर्द से पीड़ित रहते हैं, जिनमें अधिकांश महिलायें ही होती हैं। इसका मुख्य कारण है, जब हम कुर्सी पर बैठते हैं तो पीठ का पिछला हिस्सा कुर्सी के पीछे वाले भाग को टिका कर नहीं रखते जिससे रीढ की हड्डी पर तनाव शुरू हो जाता है जो बाद में कमरदर्द में परिणत हो जाता है । हमारी गृहणियां भी काम करते समय रसोई के प्लेटफार्म पर आगे झुककर काम करती हैं, जिससे उन्हें कमरदर्द की शिकायत यौवनावस्था में ही शुरू हो जाती है । कहने का तात्पर्य यह कि हमें यह उपाय करना चाहिये कि कमर और उसकी हड्डियों पर अत्यधिक तनाव न हो । योगसाधना का अभ्यास तनाव को कम करता है, इसलिये यह कमरदर्द को पूरी तरह दूर कर देता है। मोटापा जो कि महिलाओं में प्रसव के बाद शुरू हो जाता है, उसे योग-साधना का अभ्यास दूर करता है तथा कमरदर्द तथा अन्य बीमारियाँ जल्दी ही ठीक हो जाती हैं ।
स्त्रियों में मासिकधर्म की बीमारियाँ अधिकांशरूप में पाई जाती हैं। मासिकधर्म नालिका विहीन ग्रन्थियों से संचालित होते हैं । पिट्यूटरी ग्रन्थी का ओवरियन ग्रन्थि पर नियंत्रण होता है । मूत्रपिंड के उपर की ग्रन्थि और थायरायड ग्रन्थि का भी गर्भाशय पर विशेष प्रभाव होता है इसलिये यदि हम योग के द्वारा इन ग्रन्थियों के स्रावों को स्वस्थ रख सकते हैं तो गर्भाशय को स्वस्थ रखने में भी सफलता मिल सकती है ।
सर्वांग आसन
त्रिकोण आसन
पादहस्त आसन
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / २४२
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युवावस्था में मासिकधर्म होते समय अधिकांश युवतियों को पेड़ के दर्द की शिकायत रहती है जिससे उनका काम करना भी दूभर हो जाता है। योग की कुछ क्रियायें जैसे सर्वांग आसन, हलासन, पादहस्तासन, त्रिकोण ग्रासन इस प्रकार की बीमारियों को दूर करने में बहुत सहायक होते हैं । किन्हीं - किन्हीं महिलाओं को मासिकधर्म के साथ-साथ अन्य तकलीफें भी शुरू हो जाती हैं । जैसे सिरदर्द, घबराहट, बार बार पेशाब का आना, पेट के नीचे व बीच में ऐंठन होकर दर्द होना, यह दर्द रुक-रुक कर होता है। ऐसी स्थिति में डाक्टर दर्द को हटाने की गोलियां देते हैं लेकिन बीमारी ज्यों की त्यों बनी रहती है। योग साधना का अभ्यास ऐसे समय में बहुत उपयोगी सिद्ध हुधा है। मासिकधर्म के समय योगसाधना का अभ्यास नहीं करना है। यदि आप नियमित रूप से योगाभ्यास करती हैं तो साधारणतया इन बीमारियों से बचाव हो सकता है।
सफेद पानी की बीमारी - भारतवर्ष में ५८ प्रतिशत महिलाओं को सफेद पानी की शिकायत रहती है, जिसे ल्यूकोरिया कहते हैं। यह शिकायत ज्यादातर ग्रामीण महिलाओं को अधिक होती है। यह तकलीफ किसी भी उम्र की महिला को हो सकती है। इसमें योनिमार्ग से सफेद द्रव्य का स्राव होता है। यदि इस द्रव्य से गंध भाती है तब इसका इलाज कराना आवश्यक हो जाता है। अगर सफेद पानी से गंध नहीं आती है तो यह सफेद पानी तरलपदार्थ की ग्रन्थियों से सामान्यरूप से निकलता है और इसमें इलाज की आवश्यकता नहीं होती । इसके लिये जरूरी चीज है, महिलाओं में इस बात का पता लगाना कि सफेद पानी बीमारी की वजह से है या स्वाभाविक रूप से इसका सरल उपाय है तरलपदार्थ की गंध का पता लगाना, जैसाकि पहले लिखा जा चुका है। गंधयुक्त तरल पदार्थ बीमारी की स्थिति में ही प्राता है । साधारणतः यह प्रजनन संस्थान के संक्रमण के कारण होता है। दूसरा कारण है गर्भाशय पर सूजन आना तथा गर्भाशय के मुंह की नली में छाले हो जाना और इन सभी बीमारियों में सफेद गंधयुक्त पदार्थ निकलता है। योनि के भाग में दर्द होता है, कभी-कभी खुजली भी चलती है । कभी-कभी संभोग के समय दर्द होता है और योनि की जांच करते समय वहाँ पर छाले दिखाई देते हैं। इस प्रकार की तकलीफ होने पर योगसाधना का अभ्यास अवश्य करना चाहिये मूलबंध उहुयानबंध, भस्सिका प्राणायाम इन तकलीफों को 'दूर करने में बहुत ही लाभदायी सिद्ध हुआ है।
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मध्य आयु की महिलाओं में विशेषकर संक्रमण के कारण योनि के मुंह पर सूजन श्र जाती है। इससे महिला को संभोग के समय दर्द होता है तथा बार-बार अधूरा बच्चा गिरने की संभावना रहती है। महिलाओं को योनि से सफेद पानी जाना, पेडू में दर्द होना, पेशाब का बार-बार आना, इसे सर्विसाइटिस की बीमारी कहते हैं। इस प्रकार के मरीज को महिला चिकित्सक से जांच करवाना आवश्यक हो जाता है और संक्रमण का इलाज करवा लेना चाहिये । इसके बाद योग-साधना का अभ्यास करना चाहिये जिससे वहाँ रक्त का संचार अधिक हो तथा बीमारियों से बचा जा सके ।
अधिक उम्र की महिलाओं में और विशेषतः प्रसव के बाद गर्भाशय का मुँह बाहर निकलने लगता है। जिसे प्रोलेप्स की बीमारी कहते हैं। ऐसी महिलाओं में बहुत सी तकलीफें शुरू हो जाती हैं जैसे कमरदर्द, पीठर्दद, योनिमार्ग पर छाले पड़ना, खून का निकलना और कभी कभी
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योग तथा नारी-रोग / २४३
गर्भाशय का केन्सर हो जाता है। ऐसी महिलाओं में अगर यह बीमारी तीसरी अवस्था में है जिसमें पूरा गर्भाशय बाहर निकल आता है तो उन्हें में गर्भाशय निकालने की सलाह देता हूँ जिससे वे अन्य बीमारियों से बच सकें, लेकिन यह बीमारी यदि प्रथम तथा दूसरी अवस्था में है जिसमें केवल गर्भाशय का मुँह ही बाहर निकलता है उस समय मूलबंध उड्डयानबंध, जालंधरबंध महाबंध का अभ्यास काफी लाभदायी सिद्ध हुआ है, लेकिन तीसरी अवस्था में तो श्रपरेशन ही उपाय है ।
संभोग के समय दर्द इस बीमारी को डिसपारयूनिया कहते हैं। यह बीमारी के कारण भी हो जाता है तथा मानसिक संतुलन ठीक न होने पर भी होता है। ऐसी महिलाओं को हमेशा यह डर बना रहता है कि संभोग के समय बहुत पीड़ा होगी। ऐसा होने पर महिला श्रौर पुरुष दोनों को समझना चाहिये । शव प्रासन और योगनिद्रा के अभ्यास से शरीर के अन्दरूनी भाग पर तनाव कम हो जाता है तथा इस बीमारी का प्रकोप नहीं होता हैं । योग की कौन कौन-सी सावधानियां कहाँ कहाँ मदद पहुँचाती हैं
१. मूलबंध और विपरीतकरणी मुद्रा द्वारा गर्भाशय को नोचे खिसकने से रोका जा सकता है।
२. मूलबंध और अश्वनीमुद्रा पेल्विक डायफ्राम को मजबूत करते हैं। इसी डायफाम पर बच्चेदानी टिकी रहती है। बार बार पेशाब का आना और बच्चेदानी का नीचे खिसकना इन क्रियाओं से रुकता है ।
३. विपरीतकरणी मुद्रा पेट और पेट के नीचे वाले भागों के सभी रोगों को दूर करने में सहायक है ।
४. उड्डयानबंध पेट के लिये तो लाभदायी है, साथ ही बच्चेदानी की भी ऊर्धरेत्ता प्राप्त होती है ।
५. योग मुद्रा के द्वारा पेट के नीचे वाले भाग पर एड़ियों का दबाब होने से उन अंगों में रक्त का प्रवाह समुचित रूप से ठीक बना रहता है। सर्वांग एवं हलासन, शीर्षासन पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करते हैं जिससे ये ग्रंथियाँ स्वस्थ बचाव प्रदान करती हैं ।
बनी रहती हैं, तथा रोगों से
६. सुपारीनल ग्रन्थि मूत्रपिंड के ऊपर की ग्रन्थि गर्भाशय पर प्रभाव डालती है। इसी प्रकार थायरायड का प्रभाव गर्भाशय पर पड़ता है, इसलिये वे प्रासन जो इन ग्रन्थियों को शक्ति प्रदान करते हैं वे गर्भाशय को शक्ति प्रदान करेंगे। इनका प्रभाव मूत्रपिंड के ऊपर की ग्रन्थियों पर होता है। थायरायड ग्रन्थि के लिये हल आसन, सर्वांग आसन और कर्ष पीड़ा आसन लाभदाई है ।
नाड़ीशोधन प्रणायाम, बंध और मुद्रा की क्रियाओं से नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ स्वस्थ रहती हैं और स्त्री रोग निवारण में लाभदायी हैं ।
७. मासिक धर्म के समय सभी प्रासन वर्जित हैं ।
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८. गर्भिणी अवस्था के शुरू के ३ माह बाद कोई भी कठिन प्रासन नहीं करना चाहिये । ९. प्रत्याहार धारण के अभ्यास से मानसिक बीमारियां तो दूर होती ही हैं लेकिन ये
आसनस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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पंचम खण्ड / २४४
.अचेनार्चन
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क्रियायें स्त्रीरोग निवारण में बहत अधिक लाभदायी सिद्ध हई हैं।
योग-साधना का अभ्यास स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं पर ध्यान यह रखना होगा कि ये क्रियायें अपनी क्षमता के अनुसार यथाशक्ति धीरे-धीरे करें और प्रतिदिन उनका अभ्यास बढ़ावें। मैं तो यह सलाह देता हूँ कि अगर यह योगासन किया जाय तो सभी वर्गों को लाभ पहुँच सकता है। योग तथा ध्यान के विषय में स्त्री पुरुष का कोई भेदभाव नहीं है कि कुछ क्रियायें केवल युवक ही कर सकते हैं तथा कुछ क्रियायें स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। हर व्यक्ति को अपने शरीर की स्थिति के अनुसार योग-क्रियायें करना चाहिये। योग में जल्दबाजी नहीं करना चाहिये । किताब को पढ़कर योग का अभ्यास कदापि न करें। शुरू-शुरू में किसी प्रशिक्षक योग-साधक की उपस्थिति में योग-क्रियायें करना अनिवार्य है। योग-साधना एक दिन का व नहीं है। जिस प्रकार हम प्रतिदिन नियमित रूप से शरीर को चलाने के लिये खाना खाते हैं उसी प्रकार से योग का अभ्यास भी प्रतिदिन नियमित रूप से करना चाहिये, उससे आपका मानसिक, शारीरिक दोनों प्रकार का स्वास्थ अच्छा रहेगा।
आजकल शहर के प्रत्येक कोने-कोने में योग-स्वास्थ केन्द्र दिखाई देते हैं, जिनमें योग आसन को ही प्राथमिकता दी जाती है। योग एक वैज्ञानिक पद्धति है और योगविज्ञान सिर्फ योगासन ही नहीं है। योग-प्रासन से शारीरिक विकास तो ठीक रहेगा लेकिन कुछ समय बाद वह व्यक्ति कोई व्यायाम जैसे दौड़ लगाना, कसरत करना, दण्ड बैठक शुरू कर देगा क्योंकि मन हमेशा चंचल रहता है। वही व्यक्ति अच्छा काम कर सकता है जिसका मन स्वस्थ है और शरीर में ताकत है। इसलिये मैं यहाँ प्रावश्यक एवं जोरदार शब्दों में कहता हूँ कि योगआसन के साथ-साथ प्राणायाम और ध्यान अवश्य करना चाहिये। एक बार प्राणायाम और ध्यान में आपकी रुचि प्रारम्भ हो गई तो आप धीरे-धीरे मन पर भी काबू पा सकेंगे जिससे प्रतिदिन उत्तरोत्तर आपकी प्रगति आगे बढ़ सकेगी।
मेरा तो यह असीम विश्वास है कि योग-विज्ञान को प्रोत्साहन देने पर निश्चय ही हमारे देशवासियों का स्वास्थ एवं (मानसिक) विकास मानवीय शक्ति के लिये आवश्यक कदम होगा। नारी रोग निवारण में योग-विज्ञान एक रामबाण औषधि सिद्ध हुई है।
-योग विशेषज्ञ, गीताभवन योगकेन्द्र, गीताभवन, इन्दौर (म. प्र.)
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जैन-योग और उसका वैशिष्ट्य
O डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी
जब विज्ञान की उपलब्धियां सार्वभौम होती हैं-देश काल निविशेष-तब अध्यात्मविज्ञान की उपलब्धि देशकाल या किसी भी "विशेष" से नियंत्रित किस प्रकार हो सकती है ? हां, उसकी प्रान्तरात्मिक प्रक्रिया-साधना अवश्य देश काल या धारा विशेष से नियंत्रित हो सकती है। "योग" एक प्रक्रिया है-माध्यम है-इसीलिए उसे धारा विशेष से जोड़कर विवेचित किया जाता है-और तब वह अनेक प्रकार का हो सकता है जैसे
मार्कण्डेय प्रोक्त-हठयोग बौद्धों का षडंगयोग नाथपंथ प्रवर्तित-हठयोग पातञ्जलयोग
तथा जैनयोग मैं यहाँ "जैन-योग" पर विचार करना चाहता हूँ। "योग" 'सम्बन्ध' का दूसरा नाम है-वह "प्र-केवल" है हमारी उपलब्धि "केवल" हो जाना है जो सम्बन्ध हैं-उनसे मुक्त हो जाना है। अनादिकाल प्रवाह से पायात जल-कल्प कषाय से सम्पक्त प्रात्मा परिवेश में व्याप्त कर्म और भाव पूदगलों से सम्बद्ध होकर अपना स्वरूप तिरोहित कर लेता है-इसी तिरोधान से प्रात्मा का अ-योग करने के लिए विशिष्ट "योग" अपेक्षित है। यह "विशिष्ट-योग" उस मलाधायक-योग का शत्रु है-विनाशक है। कांटे से ही काँटा निकाला जाता है-विशुद्ध आत्मा निरन्तर अपनी जगह है। एक साधक मुनि ने बहुत सही कहा है-"प्रयोग प्रयोग होता है और और योग योग होता है। वह न जैन होता है न बौद्ध और पातञ्जल । फिर भी व्यवहार ने कुछ रेखाएँ खींच दी-योग के प्रवाह को बाँध बना दिया और नाम रख दिया-जैन-योग, बौद्ध-योग, पातञ्जल-योग। पर इस सत्य को न भूलें-योग योग है-फिर उसका कोई भी नाम हो।
गंतव्य "स्वभाव" या "कैवल्य" की उपलब्धि है-अयोग या आत्मा की स्वरूप प्रतिष्ठा है-पर तदर्थ मार्ग साधक की. रुचि और संस्कार के अनुरूप प्राचार्य निर्धारित करता हैइसलिए भारतीय धर्मसाधना में धारा-भेद से मार्गभेद होता है और होना भी चाहिए । अपने मार्ग से चलना ही चलना है। दूसरे का मार्ग भी "मार्ग" है पर वह "दूसरे" के लिए है-हर धारा के साधक को अपने ऊर्ध्वगामी संस्कार के अनुरूप "मार्ग" के प्रति प्रास्थावान और निष्ठावान होना चाहिए-वही उसे गंतव्य तक ले जा सकता है। अध्यात्ममार्ग के मर्मी सिद्धों का सही निर्णय है-प्रतः जहाँ एक दूसरे का विरोध दिखाई पड़ता हैवहाँ विरोध नहीं, अपने प्रति निष्ठा का प्रदर्शन है। जिनका सम्प्रदायबोध स्पष्ट हैवे "ऐसा" ही मानते हैं-पर जिनका सम्प्रदायबोध विकृत है, वह "वैसा" मानते हैं।
आसनस्थ तन आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्तजन
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पंचम खण्ड | २४६
हाँ, तो प्रकृत है-धाराविशेष के अनुरूप "योग" का-ऊर्ध्वगामी संस्कार अनुरूप "मार्ग" के स्वरूप का निर्धारण । मुनियों की धारणा है कि जैनधर्म की साधना-पद्धति का नाम मुक्तिमार्ग है-अष्टांग-योग सांख्यों को साधना-पद्धति का नामान्तर है । जैसे धारा में मूक्तिमार्ग के तीन अंग हैं-जिनकी "व्यस्त" नहीं "समस्त" रूप में हेतूता है
अर्चनार्चन
सम्यक्-दर्शन
सम्यक-ज्ञान
और सम्यक-चारित्र पातञ्जलयोग की तुलना में इस "रत्नत्रयी" को जैनयोग कहा जाता है। बौद्धों के यहां भी रत्नत्रय हैं-शील, समाधि और प्रज्ञा। शील से समाधि और समाधि से प्रज्ञा । प्रज्ञा अर्थात् पारमिता प्रज्ञा-नैरात्म्यबोद्ध-बुद्धि जितनी भी संभावित कोटियों में "स्व-भाव" निरूपण कर सकती है-उससे मुक्तरूप में "तथता" का साक्षात्कार । पातञ्जलधारा में भी प्रज्ञा का अतिक्रमण असंप्रज्ञात में होता है-तब "द्रष्टा का स्वरूपावस्थान" सम्पन्न होता है। जैन-धारा अपने ढंग से कैवल्य लाभ करती है-तदर्थ जिस रत्नत्रयी का सहारा लेती है-वही है-जैन-योग। वैसे हम भीतर धंसते जायें तो इन तीनों-ब्राह्मण, बौद्ध एवम् जैन धाराओं में अनेकविध साम्य दृष्टिगोचर होंगे। उदाहरणार्थ विश्वव्यापी अध्यात्मसाधना या योग (उपाय) सबसे पहले "चित्तस्थैर्य" अजित करती है-यही 'बल-लाभ' है। इस 'बल-लाभ' के बिना अशक्त साधक इस दिशा में एक कदम नहीं चल सकता। चित्तस्थैर्य का उपाय “शास्त्र निर्दिष्ट" है-जो "प्राचार्य दीक्षाजन्य' है। अतः पौरुषेय-बोध-मलिन बोध से दुर्दश्य इस मार्ग में सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् विश्वास ही सहारा है । "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्"- सम्यक् श्रद्धावान् ही सम्यक् ज्ञान लाभ करता है। तभी भीतर से चारित्र की सहज सिद्ध सुगंध चारों तरफ फूट कर फैलती है। यह सही है कि प्रत्येक धारा अपने स्वभाव के अनुसार अपने भीतर से अपना मार्ग निर्धारित करती है। कोई किसी की नकल नहीं करता, फिर उन मार्गों में साम्य मिल जाय-यह बात दूसरी है। वैसे साधकों में धारान्तर की साधनाओं के पारस्परिक प्रभाव को शत-प्रतिशत नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ग्यारहवीं शती में आचार्य रामसेन का "तत्त्वानुशासन" और प्राचार्य शुभचन्द्र का "ज्ञानार्णव" अष्टांगयोग, हठयोग और तंत्रोक्त योग से प्रभावित हया है। प्रागमिक साधना का "धर्मध्यान" इस काल में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार रूपों में वर्गीकृत हो गया। इस वर्गीकरण पर धारान्तर का प्रभाव स्पष्ट है-जो एक स्वतंत्र विश्लेषण का विषय है। बौद्धों की हीनयानी "विपश्यना" जैन-मार्ग में भी "प्रेक्षा या विपश्यना" के रूप में उपलब्ध है।
चित्तस्थैर्य सार्वभौम अध्यात्मसाधना का सामान्य प्रस्थान है-बिन्दु है । इसे वृत्ति की एकतानता या ध्यान कहा जाता है। प्राचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध (आयारो) ध्यान पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। वस्तुतः जैनमार्ग प्रात्मा के साथ कर्म का योग और-प्रयोग निरूपित करते हुए सात पदार्थों की बात करता है-प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, जीव तथा अजीव । जनदर्शन में एक "योग"-उमास्वाति के द्वारा बंधन के पांच कारणों में से एक है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । पालोचना योगमुक्ति का मार्ग है
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जैन-योग और उसका वैशिष्ट्य | २४७
जबकि यह योग बन्धन के पाँच कारणों में से एक है। वस्तुतः जैन-योग के मुख्य स्तम्भ होते हैं--संवर और तप । संवर पाँच प्रकार का है-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और प्रयोग और जैन मुक्तिमार्ग की ये ही भूमिकाएँ या सोपान हैं। ध्यान तप का ही एक प्रकार है--जिससे साधना का प्रादि, मध्य और अन्त-सभी परिव्याप्त है। उन्हीं का विवेचन जैनयोग का विवेचन है । संवर पाँच प्रकार के हैं क्योंकि बन्ध के कारण भी पांच प्रकार के हैं-मिथ्यात्व, अविशति, प्रमाद, कषाय तथा योग-यह बताया जा चका है। ये समस्त उपकरण प्रात्मा पर पड़े हुए प्रावरणीय कर्म के स्रोत हैं। संवर के पांचों प्रकारों से बंध के इन प्रकारों का संवरण किया जाता है और तदनन्तर प्रागत प्रावरणीय कर्मों की निर्जरा। तदनन्तर निरावरण स्वरूप-चैतन्य प्रतिष्ठित हो जाता है। तप के अंग ध्यान या प्रेक्षण से ध्येय विषय मात्र का साक्षात्कार होता है-फलतः दोषदर्शन से पराविरति और पराविरति से कषायक्षय होता है।
जैन-योग-मार्ग का विवेचन करते हुए मुनि नथमलजी ने दो प्रश्न उठाए हैं-क्या जैनयोग में चक्रों का स्थान है ? क्या कुंडलिनी के सम्बन्ध में कोई चर्चा है। इन्होंने इन अनुत्तरित प्रश्नों का भी समाधान जैन वाङमय के साक्ष्य पर दिया है। उनका पक्ष है कि स्थल शरीर के भीतर तैजस और कर्म-ये द्विविध शरीर हैं और इनके भीतर मध्यम परिमाण आत्मा है। वह चिन्मय है। वह शरीर व्याप्त है । चैतन्य अजीव का प्रकाशक हैजैसे-जैसे आवरण क्षय होगा-प्रकाश वैसे-वैसे निरावृत होता जायेगा। शरीर का प्रत्येक अवयव प्रत्येक कोशिका में चैतन्यमय प्रकाशन की योग्यता है, पर कार्यकारी क्षमता के लिए कर्मात्मक आवरण का योग द्वारा क्षय करना होगा। सामान्यतः माना जाता है कि नाभि, हृदय, कण्ठ, नासाग्र, भृकुटि, तालु तथा सिर-ये चैतन्य केन्द्र हैं, इनका विकास ध्यान से होता है। मुनिजी के मत से हठयोग और तंत्रशास्त्र में इन्हीं को षट्चक्र कहा जाता है। इनके विकास से अवधिज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान होता है। ध्यान या प्रेक्षाकेन्द्र यदि सम्पूर्ण है तो सम्पूर्ण शरीर ही अतीन्द्रिय ज्ञान का कारण बन सकता है और यदि चैतन्यकेन्द्रों को ही प्रेक्षण का विषय बनाया जाय-तो मात्र वे ही कारण बन पाते हैं। पहला कठिन और दूसरा अपेक्षाकृत सरल । प्रेक्षा या ध्यान से एक और करण निष्पत्ति होती है और दूसरी ओर प्रावरणक्षय । जहाँ तक कुण्डलिनी का संबंध है मुनिराजजी का निष्कर्ष है कि वह तेजोलेश्या नाम से जैनशास्त्रों में संकेतित है। बात यह है कि हम चैतन्य और परमाणु पुदगल दोनों को साथ-साथ जी रहे हैं। पहले की शक्ति से दूसरा सक्रिय होता हैं और दूसरे के सक्रिय होने से पहले की उनके अनुरूप परिणति होती है । इस नियम के अनुसार तेजोलेश्या के दो रूप बनते हैं-भावात्मक और पुद्गलात्मक । इस प्रकार उनके अनुसार तेजोलेश्या चित्त की विशिष्ट परिणति या चित्तशक्ति है। उनके अनुसार प्रतीन्द्रियज्ञान का विकास ज्ञानावरण के विलय से होता है और उसकी अभिव्यक्ति तेजोलेश्या से होती है। मुनिजी का कहना है कि यदि कुंडलिनी (तेजोलेश्या) एक वास्तविकता है तो उसके अपलाप का सवाल ही नहीं उठता । यह बात दूसरी है कि यह नाम जैनपरम्परा के प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता पर तंत्रशास्त्र और हठयोग का पारस्परिक प्रभाव होने पर उत्तरवर्ती साहित्य में इसका प्रयोग भी मिलता है। प्रागम और उसके व्याख्या-साहित्य में कुण्डलिनो
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पंचम खण्ड / २४८
का नाम तेजोलेश्या है। मुनिजी के अनुसार "अग्नि-ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पुद्गलों के योग से होने वाली चैतन्य परिणति का नाम तेजोलेश्या है।" (जैन-योग, पृ. १२८) निस्संदेह दसवीं-ग्यारहवीं सदी में शक्ति लक्षण अागम साहित्य का प्रभाव सभी धर्मोंब्राह्मण, बौद्ध, जैन पर पड़ा है और "पाहड़ दोहा" (मूनि रामसिंह) आदि ग्रन्थों में शिवशक्ति शब्दों तक का प्रयोग हुआ है। "समयसार" में कहा है
शोभित निज अनुभूति जत चिदानंद भगवान । सार पदारथ आतमा, सकल पदारथ जान ॥१॥ -(जीवद्वार) जो अपनी दुति आप विराजत,
है परधान पदारथ नामी। चेतन अंक सदा निकलंक,
महासुरन सागर को विसरामी। जीव अजीव जिते जग में
तिनको गुनगायक अंतरजामी। सो सिवरूप नसै सिव थानक,
ताहि विलोकि नमै सिवगामी ॥२॥ --(जीवद्वार) अथवा-जोग धरै रहै जोग सौं भिन्न,
अनन्त गुनातम केवलज्ञानी ॥३॥ अर्थात् प्रात्मसत्ता को निज की चिदानंदमय अनुभूति होती रहती है-वह जगत्-सार भी है और जगत्-विश्व भी है। निम्नलिखित श्लोक तो नितान्त महत्त्व का है। जिसकी हिन्दी छाया ऊपर दी गई है
अनन्तधर्मणस्तत्त्व पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः,
अनेकान्तमयो मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ परमसत्ता अनेकान्तमयी है—अनन्तधर्मी है-प्रात्मबोधमयी है-जो नित्य प्रकाशमय है। यह प्रकाशस्वरूप प्रात्मविमर्शमय है । आगमों में इसी विमर्शशक्ति को स्फुरता अथवा कुण्डलिनी कहा गया है। शांकर धारा में इसी विमर्शात्याशक्ति विशेष का अनुन्मीलन हैयहाँ उन्मीलन कहा गया है। कुण्डलिनी के इस प्रागमसम्मत स्वरूप से मुनि नथमलजी द्वारा निरूपित रूप कुछ भिन्न प्रतीत होता है। मुनिजी इसे चित्त-शक्ति कहते हैं और आगम चित शक्ति । विद्वज्जन इस विचार को और उसमें बढ़ा सकते हैं-मैंने तो केवल एक जिज्ञासा मात्र रखी है।
-देवासरोड, उज्जैन (म. प्र.)
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योग और संधिपीड़ा
डॉ. रतनचन्द्र वर्मा एम. बी. बी. एस., एफ. आर. सी. एस.
संधियाँ मनुष्य शरीर का प्रावश्यक अंग हैं, जिससे वह चलायमान, क्रियाशील व लचीले शरीर का मालिक होता है। बचपन व युवावस्था में वे स्वाभाविक रूप से, पूर्णरूप से घमावदार अपनी-अपनी बनावट के अनुसार होते हैं, परन्तु जैसे-जैसे प्राय ढलती जाती है, संधियों की स्वाभाविक चिकनाहट कम होती जाती है, मांसपेशियां व तंतुएँ कड़क होती जाती हैं, जिससे कि संधियों का घुमाव कम होता जाता है और पीड़ा भी उत्पन्न होने लगती है। यह उमर का तकाजा है। हर मनुष्य को कम ज्यादा इस स्थिति का सामना करना पड़ता है। यह भी सत्य है कि योग के अभ्यास से यह स्थिति काफी अर्से तक टाली जा सकती है।
योग हमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्रदान करता है, जिससे कि हम सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ रह सकते हैं ।
संधियों को चलायमान रखने के लिए निम्न शरीर के अंशों की प्रावश्यकता होती है
१. मजबूत हड्डियां व उनके चिकने सिरे-संतुलित आहार, त्वरित पाचनक्रिया, उपयुक्त रक्तसंचार द्वारा हड्डियों को पौष्टिक पदार्थ व शुद्ध वायु पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती है। विकारयुक्त रस का निष्कासन सुचारु रूप से सम्पन्न होता है। इस प्रकार हड्डियाँ मजबूत रहती हैं और उनके सिरे चिकने बने रहते हैं।
२. लचीलापन, मांसपेशियों की ताकत व उनकी कसावट बरकरार बनी रहती है। ढलती उमर पर भी प्रासन, प्राणायाम द्वारा लचीलापन व संधियों का पूर्ण घुमाव कायम रहता है।
३. संधियों का नियंत्रण दिमाग व नलिकाविहीन ग्रंथियों के स्राव से होता है । योग के अभ्यास से हमारा दिमाग क्रियाशील व चुस्त रहता है। हमारी पंचज्ञानेन्द्रियाँ व पंचकर्मेन्द्रियां भी सुचारु रूप से कार्य करती रहती हैं। हमारे पिट्यूटरी, थायराईड, पैरा थाईराईड व एड्रीनल ग्रंथियां भी योग से प्रभावित होती हैं व संधियों को चलायमान रखने में सहायक होती हैं।
४. संधियों को चलायमान रखने के लिए शक्ति का भरपूर आयाम अति पावश्यक है। प्राणायाम हमें शक्ति प्रदान करता है, जिसका उपयोग है-संधियों शरीर को क्रियाशील करने में प्रत्यन्त सहायक होती हैं ।
५. शरीर का भरपूर उपयोग करने पर उसे विश्राम की भी आवश्यकता होती है । बिना विश्राम के कोई भी मशीन जल्दी टूट जाती है। इसलिए शरीर को क्रम से तनाव व विश्राम मिलना आवश्यक है। योग द्वारा हम शरीर को इच्छापूर्वक तनावरहित कर सकते हैं। इसे
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड | २५०
योग निद्रा कहते हैं, शवासन से भी ये लाभ हमें मिलते हैं । निद्रा अच्छी आती है एवम् शरीर बिल्कुल तनावरहित हो जाता है, संधियों को भी विश्राम मिल जाता है। इस प्रकार संधियों की आयु बढ़ती है व जीवन के तनाव को सहन करने की शक्ति व बल मिलता है और मौका आने पर किसी भी भयंकर स्थिति का सामना करने में मदद मिलती है। 'योगः कर्मसु 'कौशलम् । कुशल कार्य करने में स्वस्थ संधियों की अति आवश्यकता है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' । स्वस्थ शरीर से ही धर्म की साधना सम्भव है । इसलिए अष्टांग योग के पहले चार अंग स्वस्थ - शरीर निर्माण पर ही जोर देते हैं । इसलिए योगसाधना से स्वस्थ शरीर स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाता है ।
- वर्मा यूनियन हॉस्पिटल, १२०, धाररोड, इन्दौर
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अष्टांगयोग : एक परिचय
प्रा० अरुण जोशी
अाज से कुछ साल पहले योग को गुप्तविद्या मानकर उसकी चर्चा गुरु-शिष्य तक ही सीमित रहती थी किन्तु अब परिस्थिति बदल चुकी है। योग के बारे में भारत में और भारत के बाहर चर्चा होती है। योग के बारे में सच्ची जानकारी देने के लिए यह निबन्ध लिखा गया है।
प्रासन का अभ्यास और तदनुसार शारीरिक प्रक्रिया करके शरीर को सुदृढ बनाना योग है, ऐसा कोई कहे तो यह भ्रम है । सम्मोहन से किसी पर वशीकरण करना भी योग नहीं है। याग के अभ्यास से प्रारंभ में इस तरह का अनुभव यद्यपि होता है फिर भी यह तो प्रारंभिक दशा का संकेतमात्र है।
योग से ऊर्वीकरण होता है। अज्ञान का नाश होने के बाद शाश्वत तत्त्व ब्रह्म से जो युक्त करे वह योग है। प्रतएव कहा गया है कि "यूज्यते असौ योगः" । अष्टांग-योग का आचरण करने से ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग सिद्ध करने में सफलता मिलती है। अतः अष्टांगयोग का महत्त्व सर्वमान्य रहा है। यह प्राचरण करने में कोई सम्प्रदाय या देश या काल की परिस्थिति इसमें बाधक नहीं होती है ।
महर्षि पतंजलि ने अष्टांगयोग का अति स्पष्ट चित्र प्रदर्शित किया है। उनके योगसूत्रों में ३० सूत्रों में अष्टांगयोग के विषय में लिखा गया है। पतंजलि के बारे के कहा गया है कि उन्होंने योगशास्त्र की रचना करके हमारे चित्त की भ्रमणा दूर की है, व्याकरण शास्त्र की रचना करके हमारी वाणी को निर्मलता दी है, वैद्यकशास्त्र की रचना करके हमारे शरीर को निर्मल किया है । उनका समय ई. पू. चौथी सदी माना जाता है।
योग के आठ अंग इस प्रकार हैं-यम, नियम, प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अब प्रत्येक के विषय में विस्तृत जानकारी दी जाती है ।
१, यमः-यह प्रथम अंग है और इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का समावेश होता है। इन व्रतों का पालन पूर्णरूपेण करने का आदेश है। इन व्रतों को सार्वभौम अर्थात् सर्वदेशीय महाव्रत कहा गया है। इनके पालन से व्यक्ति वैररहित सत्यवादी, सर्व सम्पत्तिशाली, वीर्यवान और जन्मजन्मांतरज्ञाता बन सकता है।
२. नियम-नियम द्वितीय अंग है और इसमें शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश होता है। शौच से एकाग्रता प्राप्त होने से बुद्धि निर्मल होती है। संतोष से अद्वितीय सुख प्राप्त होता है। तप से शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि प्राप्त होती है। स्वाध्याय से इष्टदेव का दर्शन सुलभ होता है। ईश्वरप्रणिधान से समाधि की स्थिति प्राप्त करने में सुविधा प्राप्त होती है।
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पंचम / २५२
२. आसन यह तीसरा अंग है। जिस स्थिति में देह स्थिर रहे और मन प्रसन्नता का अनुभव करे, वह स्थिति शासन है। शासन-सिद्धि से तमस् और रजस् का नाश होता है मोर सत्वगुण का उदय होता है ।
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४. प्राणायाम - यह चतुर्थ अंग है। पूरक, रेचक, कुंभक प्रादि प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं। इस अंग से इन्द्रियों के दोष नष्ट होते हैं।
५. प्रत्याहार - यह पांचवां अंग है। इससे इन्द्रियाँ अन्तर्मुख होती हैं और चित्त के स्वरूप का अनुसरण करती हैं। इस अंग से योगी जितेन्द्रिय बनता है ।
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धारणा - यह छठा अंग है। चित्त को स्थिर करने में धारणा सहायक होती है। चित्त के बन्धन को ही धारणा माना गया है।
(७) ध्यान-यह सप्तम अंग है। वृत्तियों की एकाग्रता को ध्यान कहा गया है।
(८) समाधि - यह भ्रष्टम अंग है । भ्रन्तः प्रकाश रूप इस अंग से मात्र ध्येय का स्फुरण अनुभवगम्य होता है । अष्टांगयोग का यह अंतिम सोपान है ।
अष्टांगयोग का अनुष्ठान करने से प्राप्त होता है। हृदय प्रकाशित होता है। उसकी वृद्धि होती है । इस अष्टांगयोग के चलने वाला प्राध्यात्मिक जीवन में गति करने में सफल होता है ।
मानसिक अशुद्धि का नाश होता है। ज्ञान का अनुभव सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है और दिन-प्रतिदिन मार्ग को राजयोग भी कहा जाता है । इस मार्ग पर
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योगानुभूतियाँ
श्री चन्द्रशेखर आजाद
लगभग दो वर्ष पूर्व की बात है । बसंत का ही मौसम था । केन्द्र पर नियमित अभ्यास करने आने वालों में भाई देवेन्द्र भी थे। इन्होंने आग्रह किया कि पू. म. सा.उमरावकुंवरजी शिष्या-मण्डली के साथ यहां विराजमान हैं। वे आपसे योग-संबंधी कुछ चर्चा करना चाहते हैं। पू. म. सा. ने मुझसे अपनी शिष्यामण्डली की समस्त सदस्यों के लिए कुछ प्रासनादि का अभ्यास सिखाने की अपेक्षा व्यक्त की जो मैंने तत्काल सहर्ष स्वीकार की। यह क्रम प्रतिदिन कुछ दिनों तक चला। इसी दौरान योगविषयक चर्चाएँ भी चला करती थीं। चर्चाओं के बीच ही पूज्य म. सा. ने योगविषयक अपने अनुभव सुनाये तथा ध्यान का भी महत्त्व समझाया । इसी बीच बाहर से पधारे कुछ उन साधकों से भी भेंट का सुअवसर प्राप्त हुमा जिन्होंने ध्यान के अभ्यास में अनेकानेक विस्मयकारी अनुभव प्राप्त किए थे। मुख्यतः उन साधिकाश्री का स्पष्ट स्मरण पाता है जिनके विषय में बताते हुए पू. म. सा. ने कहा था कि ध्यानस्थ अवस्था में एक बार इनका शरीर स्वतःही भूमि से ऊपर उठ गया था। उनके अभ्यास में समय की कोई बाधा नहीं थी। कुछ अभ्यासियों का तो यहां तक अनुभव उनके पत्रों से ज्ञात हुआ कि उन्हें दिन में कभी भी और कई-कई घंटों का ध्यान स्वतः ही निष्प्रयत्न ही लगने लगा है। इतना प्रभावित किया इन सब बातों ने कि मन में उत्कट आकांक्षा जाग्रत हो गई इस ध्यानविज्ञान को सीखने की। मैंने तब पू. म. सा. से प्राग्रहपूर्वक इस ज्ञान निर्भर से प्लावित करने का निवेदन किया तो उन्होंने कृपापूर्वक बड़े ही सहजभाव से स्वीकार कर लिया। इस बात की चर्चा अब हमने केन्द्र के सदस्यों के बीच की तो उनमें से कुछ सदस्य और भी हमारे साथ भाने को तत्पर हो गये।
___ यह क्रम साप्ताहिक ध्यानशाला के रूप में प्रारंभ हुआ और हम प्रति रविवार प्रातः ध्यान के लिए एकत्र होने लगे । इस बीच यहाँ भी कुछ साधकों को बड़े अलौकिक अनुभव हुये जो उन्होंने पृथक-पृथक लिपिबद्ध भी किये हैं। प्रस्तत लेख में इस ध्यानपद्धति को ज्यों का त्यों आपके सम्मुख प्रस्तुत किया है पू. म. सा. के आशीर्वाद एवं प्रापकी सच्ची लगन व सत्प्रयत्नों से, आप भी इससे लाभान्वित हो सकते हैं। यह पद्धति हमारी साथी सदस्या कु. विजया खड़ीकर द्वारा लिपिबद्ध की गई है । उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है
जैन साध्वी प. पूजनीय उमरावकुंवरजी 'अर्चनाजी' म. सा. के प्रवचन का सारांश
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पंचम खण्ड | २५४
प्रिय पाठको!
लगभग २ वर्ष पूर्व मुझे म. सा. के सान्निध्य का लाभ इन्दौर में प्राप्त हुआ। योग विद्यालय के हम ८-१० विद्यार्थी प्रति रविवार प्रातः म. सा. के पास ध्यान का अभ्यास करने हेतु पहुँचते थे। उनके मार्गदर्शन में कई बार ध्यान का अभ्यास भी हम लोगों ने किया था। ध्यान करने के पूर्व की भूमिका पर प्रकाश डालने हेतु आदरणीय म. सा. ने दिनांक २२-७-८४, २९-७-८४एवं ५-८-८४ को जो हमें ज्ञानवर्धक प्रवचन दिया उसमें से घर माते-पाते जितना मेरे लघु मस्तिष्क में बचा रहा, उसे उन्हीं दिनों लिख लिया । यह भी उनकी महिमा है जिसने तब प्रेरणा दी तो ये बातें स्थायी रूप से सुरक्षित रह पायीं। उन्हीं प्रवचनों का सारांश मैं उन लोगों के लाभार्थ यहां लिखने जा रही हूँ जो अभी प्रत्यक्षतः म. सा. के सम्पर्क में नहीं प्रा पाये हैं। हो सकता है, उन्हें भविष्य में ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो और वे प. पू. म. सा. के दर्शन कर सके। तब तक उन्हीं (म. सा.) के द्वारा प्रवाहित ज्ञानगंगा की कुछ बूंदें आपके लिए समर्पित हैंदिनांक २२-७-८४, रविवार
मनुष्य को मन प्राप्त है, इसलिए वह मनन कर सकता है। बुद्धि है इसलिए सोच सकता है कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है ? उसे कहाँ तक जाना है ? क्या प्राप्त करना है ? मनुष्य का जीवन तभी सफल हो सकेगा जब वह अपने प्रात्मा का ज्ञान प्राप्त करे, प्रात्मानन्द प्राप्त करने का प्रयास करे और उसे प्राप्त कर ले।
किन्तु यह इतना प्रासन नहीं है। इसके लिए प्रावश्यक है आसनस्थ तन, आत्मस्थ मन, तभी होगा आश्वस्त जन । अर्थात् जब मनुष्य का शरीर एक प्रासन पर स्थिर रहने लायक बन जाए, मन अन्तर्मुख हो जाए तभी वह यह आशा करने की स्थिति में प्राता है कि वह उस मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा।
परमात्मा तक पहुँचने के लिए आवश्यक है श्रद्धा होना, उसका स्थिरीकरण होना और तीसरी बात है आत्मरमण याने प्रात्मा में रमण करने की प्रादत हो जाए तब मार्ग सुलभ हो जाता है।
अब प्रश्न है श्रद्धा करें तो किस पर करें ? श्रद्धा को स्थिर करने हेतु प्राधार की आवश्यकता है। ये प्राधार तीन हैं-देव, गुरु और धर्म-अब यह जानना भी आवश्यक है कि हम देव किसे कहें ? देव वह होगा जिसे असीमित ज्ञान हो, जिसके समस्त दोष अतीत में समाप्त हो गए हों याने जो वीतरागी हो तथा जिसके वचन ऐसे हों कि कोई किसी भी प्रकार से उसे प्रसिद्ध न कर सके । जिसमें दिव्यगुण हों । जो न तो प्रसन्न हो, न रुष्ट हो उसे देव कहेंगे । ऐसे देव हम देख नहीं सकते परंतु उनकी सत्ता को अनुभव कर सकते हैं । हमें देव तक पहुँचने का मार्ग गुरु बताता है । गुरु, धर्म व देव के बीच की कड़ी है। गुरु ३ प्रकार के हैंशिक्षा गुरु, दीक्षा गुरु व समर्थ गुरु । गुरु कभी भी अपने शिष्य को अपनी शरण में आने के लिए नहीं कहेगा। वह हमें रास्ता बताता है। देव व गुरु हमारे साधन हैं, जिनके माध्यम से हम आत्मा तक पहुँचते हैं। उसे पहचान सकते हैं। प्रात्मदर्शन होने पर देव भी पीछे रह जाते हैं व गुरु भी। जिस प्रकार समुद्र पार करने के लिए हमें किसी की व नाविक की आवश्यकता
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योगानुभूतियां | २५५
होती है, पार लगने पर नहीं, उसी प्रकार प्रात्मा को पाने पर किसी साधन की प्रावश्यकता नहीं रहती। परन्तु अभ्यास करने लिए हमें साधनों की आवश्यकता होती है और वे देव, गुरु व धर्म हैं।
धर्म क्या है ? धर्म किसी वस्तु का, पदार्थ का गुण है । अग्नि का गुण है उष्णता, पानी का गुण शीतलता है, उसी प्रकार धर्म प्रात्मा में है, प्रात्मा का धर्म है विवेक । ऐसा कोई प्राणी नहीं जो धर्मात्मा न हो। सभी प्राणियों में प्रात्मा है। अतः सभी में धर्म है, परन्तु वह उचित कामों में लगे, यह जरूरी है। धर्म का अर्थ है धारण करना । अपनी आत्मा को बुरे कामों से ऊपर उठाकर धारण करना धर्म है। अपने प्रात्मा के विवेक को जगाने का प्रयास हमें करना है।
हमारे पास मस्तिष्क है, जिसमें बुद्धि है, हृदय है जिसमें श्रद्धा का स्थान है व नाभि है जो संकल्प का स्थान है। इन तीनों के मिलने पर आत्म-जागरण होता है। अतः इन तीनों को मिलाने के लिए हमें ध्यान करना होगा, ध्यान करने के लिए बाहरी संसार को छोड़कर अन्तर्मुखी होना पड़ेगा। तभी तो हम तीनों को मिला पायेंगे और अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य प्रात्म-प्राप्ति को पा सकेंगे।
प्रातः ब्रह्मबेला में ४ बजे हमें उठना है। शारीरिक कार्यों से निवृत्त होकर प्रासन पर बैठना है। अपने देव व गुरु का स्मरण करना तथा उन्हें ३ बार प्रणाम करना है व प्रार्थना करना है । गुरु व देव का स्मरण इसलिए करना है कि हमारी श्रद्धा को स्थायित्व प्राप्त हो, क्योंकि ये उसके साधन हैं। फिर प्रणाम तीन बार इसलिए करना है कि उसमें तीन गुण हैं-ज्ञान, दर्शन व चारित्र। इन तीन रत्नों को प्रणाम करना है, उसके प्रति विनम्रता प्रकट करनी है। प्रणाम के बाद प्रार्थना करनी है। हमारी प्रार्थना में याचना नहीं होनी चाहिए, याचना रहित प्रार्थना करना है, जैसेहे प्रभु
हमें प्रसिद्धि नहीं, सिद्धि चाहिए। हमें अधिकार नहीं, सेवाभाव चाहिए। हमें दया नहीं, प्रेम चाहिए। हमें आश्रय नहीं, प्रेरणा चाहिए।
हमें दान नहीं, पुरुषार्थ चाहिए। प्रार्थना करते समय हम पांच मुद्राओं (प्रार्थनामुद्रा, योगमुद्रा, ज्योति या दीपमुद्रा, जिनमुद्रा व प्रानन्दमुद्रा) में से प्रार्थनामुद्रा बतायेंगे। जिसमें दोनों हाथों की हथेलियां नमस्कार की तरह चिपकी नहीं रहेंगी, थोड़ी पोली रहेंगी। जिस प्रकार कमल पर सूर्य से सौरभ मिलता है उसी प्रकार ईश्वररूपी सूर्य से हमें सौरभ मिले, इस हेतु यह मुद्रा बनानी है।
प्रार्थना के बाद योगमुद्रा में बैठना है। योगमुद्रा याने तर्जनी व अंगूठा मिला हुआ तथा शेष तीनों अंगुलियां सीधी चिपकी हुई रखना हैं । इन तीन अंगुलियों के प्राशय हैं
(१) रजोगुण, तमोगुण व सत्वगुण (२) आधि, व्याधि, उपाधि । (३) हेय, ज्ञेय व उपादेय (४) मन, काया, वचन ।
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पंचम खण्ड | २५६
अर्चनार्चन
अंगूठे से तात्पर्य है-(१) ब्रह्म (२) ईश्वर (३) परमात्मा। तर्जनी से प्राशय है-(१) मन (२) जीव (३) प्रात्मा । तो जब तक ३ अंगुलियों रूपी दुर्गुणों से मुक्ति न हो तब तक प्रात्मा का परमात्मा में, जीव का ईश्वर में, मन का ब्रह्म में लीन होना संभव नहीं। तीनों से मुक्ति पाने पर ही मन ईश्वर में या आत्मा परमात्मा में लग सकेगा।
योगमुद्रा में बैठने पर दोनों हाथ घुटनों पर तने हुए रखना है। जिससे इड़ा व पिंगल नाड़ी पर तनाव पाता है और श्वास सुषुम्नागामी बनता है और ध्यान लगाने में प्रासानी होती है।
___ ध्यान लगने पर दीपमुद्रा या ज्योतिमुद्रा लगानी है। दोनों मध्यमा अंगुलियों को जोड़कर (चिपकाकर) सीधी खड़ी रखनी है एवं शेष सभी अंगुलियाँ अन्दर की प्रोर (मुद्रीनुमा) बन्द रखनी है । इसकी प्राकृति दीपक व बातिवाली की तरह होनी है। इसीसे इसे दीपमुद्रा कहते हैं।
___ इसके बाद जिनमुद्रा का भी प्रयोग कर सकते हैं, जिनमुद्रा यानि दोनों हथेलियां एक दूसरे के ऊपर रखना । अंतिम मुद्रा है आनन्दमुद्रा। दिनांक २९-७-८४, रविवार
इस प्रकार प्रार्थना तथा योगमुद्रा में ध्यानस्थ बैठने पर हमारी बुद्धि, श्रद्धा व संकल्प का संयोग होगा व नाभि में ३३ चक्कर डाले हुए कुण्डलिनी सोई है उसका अन्दर के ३ चक्कर मुंह में है, वह खड़ा होगा व शेष तीन चक्कर अपने आप खुल जायेंगे । यहीं से प्रात्मदर्शन होते हैं।
___ हमें ईश्वर के दर्शनमात्र से संतोष नहीं करना है, क्योंकि जब वे दर्शन देकर चले जायेंगे तो पुनः वियोग का दुःख होगा। अतः उन्हीं में विलीन होने की यह साधना है, प्रयास है। हम जब प्रात्मा में विलीन हो जायेंगे तो प्रानन्द ही प्रानन्द रहेगा जो कभी समाप्त नहीं होगा।
ध्यान देने योग्य बातें
प्रातः उठने के समय, सोने से पहले, खाने के पहले, ध्यान के पहले मौन रखें व ईश्वर का स्मरण करें। हमेशा पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके बैठे। क्योंकि इन दिशामों में शुक्लपक्षी जीवधारी रहते हैं। दक्षिण व पश्चिम में अधम प्रवृत्ति के जीव रहते हैं । प्रतः उधर हमारा मन स्थिर नहीं होगा। शुद्ध दिशा में शुद्ध वातावरण में मन अधिक तीव्रता से शुद्ध व स्थिर रहता है। जैसे एक गंदी बस्ती की झोपड़ी व एक साधु की कुटिया इन दोनों में से हमारा मन साधु की कुटिया में अधिक लगेगा। इसी प्रकार इन दिशाओं का है। दिनांक ५ अगस्त ८४, रविवार
योग १० प्रकार के हैं, उनमें से पहला है, 'खांतायोग'। प्रारम्भ प्रार्थना से ही करना है। इसके कुल ५ साधन हैं-(१) प्रार्थना (२) योगमुद्रा (३) ज्योतिमुद्रा (४) जिनमुद्रा (५) आनन्दमुद्रा। हमारा उद्देश्य यह अंतिम मुद्रा है। स्थिर आनन्द हमें प्राप्त करना है।
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योगानुभूतियाँ | २५७
प्रार्थना करते समय याचना नहीं करनी है। प्रार्थना शुद्ध स्वरूप याने ईश्वर की करना है। हमें यह अभ्यास होना चाहिए कि हम प्राणिमात्र में उसे देख सकें। इस अभ्यास के लिए पहले हमें अपने प्रात्मा के साथियों को मित्र बनाना होगा। ये हैं-कान, नाक, अखि, जिह्वा, शरीर व मन । यदि हम इन्हें मित्र न बनाएँ तो ये हमारे शत्रु बनकर हमारे मार्ग में रोड़े अटकाते हैं। इन्हें वश में करने पर मार्ग काफी सरल बन जाता है। प्रात्मा की ओर अन्तर्मुख होने में सहायता मिलती है। सच्चा मित्र वह है जो सुख में व दुःख में आगे आये। जैसे ढाल होती है, समरभूमि में वह आगे रहकर शरीर का रक्षण करती है व सिंहासन पर बैठने पर वह पीछे पीठ पर लगी रहती है। इसी प्रकार इन छह को हम मित्र बनाएं तो हमारी उद्विग्न एवं कष्टकर स्थिति में आगे होकर हमारा साथ देंगे । वर्ना ये यदि शत्रु बने तो पहले ही हमारे मार्ग में बाधक बन जायेंगे । हमें इन पर विजय पानी है, इन्हें अपने नियन्त्रण में लेना है। यदि क्रोध पाता है तो उसे कम करने का साधन है क्षमा करना । क्षमा भावना मन में रहे तो क्रोध नहीं आ पायेगा। इसी प्रकार अभिमान को दूर करने का अस्त्र है विनय । विनयशील व्यक्ति में कभी अभिमान नहीं होता और जब तक मनुष्य के मन में विनय न हो उसके मन में किसी संत, सज्जन या बड़ों के प्रति आदर उत्पन्न नहीं होगा। अतः अभिमान को दूर करने के लिए हमें विनयशील होना होगा। यदि हमारे मन में कपट, दंभ है, हम माया से घिरे हैं तो आत्मा को पहचान नहीं सकते, उसे देख नहीं सकते हैं। जिस प्रकार स्वच्छ प्राकाश में ही सूर्य चमकता है, यदि प्रकाश बादलों से घिरा हया है तो सूर्य को उपस्थिति होने के बावजूद हम उसके प्रकाश को देख नहीं सकते, उसी प्रकार जब तक मन स्वच्छ न हो हम आत्मा को देख नहीं सकते। अत: मन निर्मल हो, सत्यमार्गी हो यह आवश्यक है। इसके लिए हमें अपने आप को स्वार्थ से दूर रखना होगा, ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाना होगा, गुणपूजा का महत्त्व समझना होगा। यदि किसी की आत्मा की भावना को न समझकर उसका तिरस्कार करके प्राराध्य की पूजा करेंगे तो किसी काम की नहीं होगी।
प्रभु से इतना ही मांगना है कि वह प्रात्मिक बल इतना दे कि हम उस आनन्द में अमर हो जाएँ। हम ईश्वर का एक बार नाम न लें तो चल सकता है परन्तु उसके आदेशों का पालन करें तो उसको पूजने के बराबर ही है। परन्तु यदि उसका नाम रटते रहें और उसके बताये मार्ग के विरुद्ध चलें तो उसका नाम लेना न लेना बराबर ही है। क्या कोई पिता उसके पुत्र द्वारा अपनी प्राज्ञा की अवहेलना करके उसके मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होगा? जिस प्रकार वह पिता अपने ऐसे पुत्र से, जो उसकी आज्ञा का पालन नहीं करता व प्रशंसा करता है, प्रसन्न नहीं होगा तो ईश्वर कैसे प्रसन्न होगा?
हमारे लिए तो यही मार्ग है कि हम उसके बताये रास्ते पर उसके कहे अनुसार चलें और उसका स्मरण भी करते रहें, तब हम उस अंतिम उद्देश्य तक पहुंचने में सफल होंगे।
प्रिय पाठको ! जिस प्रकार बुनाई करके खेत तैयार रखें तो वर्षा के होने पर बीज को अंकुरित होने में समय नहीं लगता, उसी प्रकार प. पू. म. सा. द्वारा प्रदत्त ये विचारसंकलन आपके जीवन की भूमि को तैयार रखने में यदि मदद करें और प. पू. म. सा. के पाप
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / २५८
प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ लें तो इस तैयार भूमि में प्रात्मदर्शन का बीज अंकुरित होने में विलम्ब नहीं होगा। यदि ऐसा हुआ तो और प्रानन्द की बात क्या हो सकती है ? उपरोक्त संकलन में जो भी अनुचित लगे उसे छोड़ दें और मेरी मूर्खता के लिए मुझे क्षमा करें और जो भी सत्य लगे वह प. पू. म. सा. का है, ऐसा समझकर उसे आत्मसात करने का प्रयास कीजिए। जो भी सही है ही प. पू. म. सा. का है और उन्हीं के चरणों में अर्पण करती हैं।
अर्चनार्चन
हरि ओ३म् योगकेन्द्र,
इन्दौर.
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जैन आगमों में योगदृष्टि
D डॉ० सुभाष कोठारी
आगमों के वैचारिक पक्ष को जब हम सामने रखते हैं तो उनमें प्रतिपादित विषयों का स्वतः हो बोध हो जाता है और हमारी दृष्टि श्रागम विषयक बन जाती है। श्रागमों में प्रायः सिद्धान्त, दर्शन, गणित, ज्योतिष आदि विषयों का समावेश हुआ है । यह मात्र धार्मिक या सैद्धान्तिक न होकर सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता का परिचायक भी है। इसी के अन्तर्गत मनुष्य को अपने शक्तिबल एवं बौद्धिकबल को विकसित करने के लिए जिन साधनों का वर्णन प्राप्त होता है वे साधन सर्वोपरि एवं महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं । साधनामार्ग के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है । चित्त की एकाग्रता के लिए विविध प्रकार के आसन, प्राणायाम की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी ध्यान की। इससे शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक इन तीनों का विकास होता है, जिसे प्रागमों की दृष्टि से योग की संज्ञा दी गई है ।
योग को आगमों में शान्ति के मार्ग की खोज के लिए प्रयोग किया जाता रहा है । सर्वप्रथम जब हम आचारांग को देखते हैं तो यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इसमें जितने भी सूत्र हैं वे सभी किसी न किसी पक्ष को लिए हुए हैं, इसका पंचम सूत्र चार दृष्टियों को प्रतिपादित करता है ।
श्रायावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी ।
अर्थात् श्रात्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी । ये चार विचारधाराएँ योग से सम्बन्धित हैं । जो व्यक्ति श्रात्मा को जानता है वह लोक की वास्तविकता को जानता है । मुझे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए इसको भी वह अच्छी तरह से जानता है । इसको आचारांग में "परिण्णा" अर्थात् विवेक की संज्ञा दी है ।
इस तरह की विचारधारात्रों का क्रम प्रत्येक जैन श्रागम में है । जिसके आधार पर निम्न योगों को विद्वानों के सामने रखा जा सकता है—
१. अध्यात्मयोग |
२. समतायोग |
३. ध्यानयोग |
४. भावनायोग |
५. परिमार्जनयोग |
अध्यात्मयोग
आत्मसाधना के लिए शरीर और मन की शक्ति को जागृत करना होता है। जिसका विवेचन जैन आगमों में स्पष्ट है । क्योंकि जैन श्रागम में इन्द्रिय और मन की शक्ति के क्षीण
आसनस्थ तम आत्मस्थ म०
तब हो सवे
आश्वस्त जठ
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पंचम खण्ड | २६०
चनार्चन
होने एवं चित्त के संकल्प एवं विकल्प के क्षय होने पर जो भाव जागृत होता है वह जागत भाव आध्यात्मिक शक्ति का अपूर्व गुण माना जाता है। आचारांग के प्रथम शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के सातों उद्देशकों में एकेन्द्रिय अादि जीवों की जो रक्षा करने की बात कही गई है वह मनोवैज्ञानिक कही जा सकती है। लोकविजय अध्ययन कर्मों के कारणों की शान्ति का अर्थात क्षय का कथन करने वाला है और इसी में अनेक चित्तता प्रादि का जो कथन किया गया है वह भी व्यक्ति को संकल्प, विकल्पों से मुक्त कराता है क्योंकि प्राध्यात्मिक योग का लक्ष्य है असीम शक्ति की प्राप्ति करना। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में "जोगवाही" शब्द का प्रयोग किया है जिससे योग का कथन स्पष्ट होता है और इसी के प्रागे जो भी कथन किया गया है वह सब विविध आयामों को लिए हए अध्यात्मयोग के भावों को स्पष्ट करता है।
अध्यात्मयोग में मुख्यत: ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की बात को ले सकते हैं और इसीके अन्तर्गत तप के चिन्तन को भी प्रस्तुत किया जा सकता है। तप का जो वर्णन है वह सभी आगमों में विस्तार से देखा जा सकता है । औपपातिकसूत्र में तपोधिकार, उपासकदशांग का प्रथम अध्ययन योग की मर्यादा, प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम उद्देशक, दशवैकालिक, भगवतीसूत्र, स्थानांग, प्रादि सभी प्रागमों में अध्यात्मयोग के विषय में विस्तार से विवेचन है।
समतायोग
आचारांग का सूत्र ही है "समियाए धम्मे" अर्थात् समता का नाम धर्म है।' "तुममेव तुम मित्रं"२ यह सूत्र समता के पाठ को स्पष्ट करता है। सूत्रकृतांग में समता-विषयक जो बात कही गई है वह पाचारांग के उक्त सूत्र पर विवेक की दृष्टि प्रतिपादित करती है जिसमें यह लिखा है
"सव्व जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा ।"3
अर्थात् सभी जगत को समतापूर्वक देखो, प्रिय और अप्रिय समझना ठीक नहीं है । सूत्रकृतांग के द्वितीय अध्ययन में समतापूर्वक धर्म का उपदेश करने के लिए भी कहा है।
दशवकालिक में रागद्वेष से रहित भावों को सम अर्थात् समतापूर्ण बतलाया है।"
समता प्रात्मा का गुण है, इसके बिना मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों को नहीं रोका जा सकता है। समता ध्यान की क्रियानों के लिए अतिपावश्यक कही जा सकती है क्योंकि यह राग, द्वेष और मोह के अभाव होने पर ही होती है। ज्ञानी पुरुष कर्मों के क्षय करने के लिए जब प्रवृत्त होता है, तब वह सर्वप्रथम साम्यभाव को ही धारण करता है
१. आचारांग १-१ २. प्राचारांग ३-३ ३. सूत्रकृतांग १०-७ ४. वही २-२ ५. दशवकालिक ९-११
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जैन आगमों में योगदष्टि | २६१
और वह निरन्तर सोचता है कि जगत में जितने भी जीव हैं वे सभी अपना हित चाहते हैं इसलिए "सन्वेसिं जीवियं पियं" की भावना अपने हृदय में ग्रहण करके चार घातिया कर्मों को क्षय करने के लिए निरन्तर ही प्रयत्नशील होता है। इस प्रकार के प्रयत्न से वह मन, वचन और काया की शुद्धि को कर लेता है। जैनयोग के मर्मज्ञ प्राचार्य हरिभद्रसरि ने समता को परिमार्जन का साधन कहा है और यह भी बतलाया है कि जो साधना के शिखर पर आरूढ होकर कर्म की ग्रन्थियों को काट देता है वह समत्वयोग का धनी हो जाता है।'
प्रश्नव्याकरणसूत्र में कारुण्य भाव का जो निर्देश है वह समतापरक ही है ।२
ध्यानयोग
साधना मार्ग में साधक चित्त की एकाग्रता के लिए विविध प्रकार के साधनों का प्रयोग करता है परन्तु ज्ञान की एवं प्रात्मा की वास्तविकता के लिए ध्यानयोग मुक्ति का सोपान कहा जा सकता है। क्योंकि ध्यान कर्मों के क्षय करने के लिए किया जाता है। प्रागमग्रन्थों में इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर चार प्रकार के ध्यानों का वर्णन है
१. प्रार्तध्यान २. रौद्रध्यान ३. धर्मध्यान ४. शुक्लध्यान ।
सिद्धान्त ग्रन्थों में इन्हीं का विवेचन किया गया है। इनमें से दो ध्यान संसार से सम्बन्धित माने गए हैं और दो-धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान मुक्ति के सोपान कहे गए हैं। ध्यान करने वाला मुक्तिसाधना के लिए प्रयत्नशील होता है, वह अपने किये हुए कर्मों को क्षय करने के लिए अनुचिन्तन, मनन आदि का जो मार्ग अपनाता है, वह साधना का मार्ग है।
प्रागमों में भगवतीसूत्र, स्थानांग, प्रोपपातिक, प्राचारांग आदि के चिन्तन से यह निष्कर्ष निकलता है कि तत्त्वों का पालम्बन लेकर ध्यान करने वाला जो प्रयत्न करता है वह तप है, संयम है एवं चतुर्गति के कारणों को रोकने वाला है ।
आचारांग में ध्यान के जो साधन बताये गये हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं । इसमें लिखा है कि "राइ दिवंपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाई।"
अर्थात् रात और दिन अप्रमत्त रूप से समाधिपूर्वक ध्यान करना चाहिए। समाधि के लिए धर्मध्यान और शुक्लधान पावश्यक माने गए हैं। नौवें अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में महावीर के प्रासनों का, ठहरने के स्थानों का, ध्यान के केन्द्रों का जो वर्णन है वह अधिक विचारणीय कहा जा सकता है।
"अयमुत्तमे से धम्मे"--यह उत्तम ग्राचार है" ऐसा संकेत ध्यानस्थ का प्रमुख अंग माना गया है क्योंकि ध्यानी सर्दी आदि के प्रति विचार न करते हुए समियाए ठाइए3-समतापूर्वक ध्यान करते थे। यही नहीं अपितु इसी अध्ययन में यह स्पष्ट किया है कि समतापूर्वक ध्यान
१. योगदृष्टिसमुच्चय, पृ. १३ २. प्रश्नव्याकरणसूत्र-सव्व जवीरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । ३. प्राचारांग अध्ययन ९ उद्देशक २, गाथा १५
आसनस्थ तब आत्मस्व मब तब हो सो आश्वस्त जद
wwwjalimellorary.org
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पंचम खण्ड | २६२
करने से व्यक्ति सभी प्रकार के कष्टों को सहन करने में समर्थ हो जाता है और ममत्व के प्रति किचित् भी स्नेह नहीं रह जाता है। जिस प्रकार शूरवीर युद्ध में अग्रणी होकर सभी प्रकार के कष्टों को सहन करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाता है।'
मन, वचन और काय इनकी वृत्तियों को रोकने के लिए शुक्लध्यान की आवश्यकता होती है । इसके लिए प्राचार्यों ने क्षमा, मार्दव, प्रार्जव और मुक्ति को प्रधान बतलाया है। इसी के साथ अन्य कई विचार प्रस्तुत किये हैं तथा यह बतलाया है कि अन्तःकरण की शुद्धि के लिए मुक्तिसाधना का मार्ग परम आवश्यक है।
अर्चनार्चन
भावनायोग
___ "जे एगं जाणइ से सब्वं जाणई" यह प्राचारांग की एक सूक्ति है, जिसमें भावना का विचार स्पष्ट है। व्यक्ति के लिए साधनामार्ग में लगने के लिए जहाँ धामिक चिन्तन को आवश्यक माना गया है वहीं सांसारिक चिन्तन का होना भी ध्यान का एक साधन कहा जा सकता है, जब तक व्यक्ति संसार की प्रसारता के विषय में अपनी भावना व्यक्त न करे तब तक उसे संसार का आभास हो ही नहीं सकता है। प्राचारांगसूत्र में तत्त्वदर्शी के लिए कहा गया है
"भूए हि जाणे पडिलेह सायं" २ अन्य प्राणियों के साथ अपने पर विचार करे।
भावना एक वैचारिक दष्टिकोण है, जिसे अनुप्रेक्षा नाम दिया गया है। यह शब्द स्थानांग में विशेषरूप से पाया है। जिसका अर्थ अपने भावों को, सांसारिक धारणामों को वास्तविकतापूर्वक चिन्तन, मनन करना एवं सत्य की वास्तविकता को पहचानना है। सर्वप्रथम प्रागमों में चार अनुप्रेक्षाएँ थीं-(१) एकत्व (२) अनित्य (३) अशरण और (४) संसार अनुप्रेक्षा।
सिद्धान्त ग्रन्थों में बारह भावनाएँ योग से सम्बन्धित कही गई हैं, जिनका अपना विशेष महत्त्व है। यदि मैं इन पर विचार करके अपना स्वतन्त्र चिन्तन रखू तो यह बात कह सकूँगा कि ये बारह भावनाएं वैराग्यपूर्ण हैं और इनका योगसाधना के लिये चिन्तन किया जाना प्रावश्यक है।
इससे साधक विकारों से निर्मल, शरीर से सहनशील और मन से दृढ संकल्पी बन सकेगा।
१. आचारांग अध्ययन ३ का समग्र अंश २. आचारांग तृतीय अध्ययन, द्वितीय उद्देशक ३. स्थानांग ४।१२४७ ४. (अ) वही-'धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुपेहाप्रो पण्णत्तानो तहा
एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा ।" (ब) आचारांग २।२ (स) भगवतीसूत्र २०१ (द) सूत्रकृताङग १७।११
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जैन-आगमों में योगदृष्टि | २६३
आगमों में सबसे महत्त्वपूर्ण भावनाएँ निम्न कही गई हैं-१. मैत्री २. प्रमोद ३. कारुण्य और ४. माध्यस्थ्य ।
तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के अतिरिक्त पातञ्जल योगसूत्र, अमितगति के भावना चिन्तन, हेमचन्द के योगशास्त्र प्रादि में इन्हीं का बाहल्य है। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने इन्हों पर विशेष जोर दिया है और उन्होंने अपने योगदृष्टिसमुच्चय में पाठ योगसम्बन्धी भावनाएँ व्यक्त की हैं। परिमार्जनयोग
शरीर को स्वस्थ रखने के लिये मन, वचन और काया की शुद्धि के अतिरिक्त प्रागमों में ६ प्रकार के वैज्ञानिक साधनों को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है वह प्राज जहाँ एक और प्रात्मपरिमार्जन का साधन है वहीं दूसरी ओर शारीरिक प्राधि-व्याधियों को दूर करने के लिये निम्न साधनों का होना आवश्यक है-१. इच्छाओं का रोकना २. समर्पण की भावना ३. प्रतिक्रमण, ४. कायोत्सर्ग ५. भक्तिभावना एवं ६. प्रत्याख्यान ।
इन साधनों के अतिरिक्त २२ प्रकार के परिषहों पर विजय, पाठ प्रकार के मदों का त्याग, बारह प्रकार के तपों में प्रवृत्ति, दस प्राणों अर्थात् प्राणशक्ति की क्षमता पर विचार, लेश्या, चिन्तन प्रादि आवश्यक माने गए हैं। प्राणशक्ति को तीव्र करने के लिये विविध प्रकार के आसनों पर बल दिया जाता है, इससे आभामण्डल स्वच्छ एवं निर्मल होता है। शारीरिक एवं मानसिक तनाव की मुक्ति के लिए इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। पेट की समस्त बीमारियों के लिए अचक औषधि मानी गई है।
इससे विचारशक्ति बढ़ती है, चिन्तन जागृत होता है और चित्त की चंचलता प्रादि भी दूर होती है । इसलिए ध्यान की जो विविध दृष्टियाँ प्रागमों, सिद्धान्तग्रन्थों में कही गई हैं वे साधक की सत्य-दष्टि में पानी चाहिए, इससे जीवन को जीने की कला का वास्तविक आभास हो सकेगा।
१. मित्रा तारा बला दोप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा।
नामानि योगदृष्टीना लक्षणं च निबोधत ।। गाथा १३ ।।
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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क्या मोटापा योग से कम होता है ?
अचेनार्चन
डॉ. बी. के. बान्द्रे, एम. ए., पी-एच. डी. (योग)
जी हाँ ! योग की कुछ निम्नलिखित क्रियानों, आसनों से मोटापा अवश्य ही कम होता है। परन्तु शीघ्र अच्छे परिणाम के लिए भोजन नियन्त्रित करना भी प्रावश्यक है। केवल व्यायाम या केवल भोजन पर नियन्त्रण से मोटापा स्थायी रूप से कम नहीं होगा। दोनों बातों को समान महत्त्व देना चाहिए। आधुनिक मानव के भौतिक दुःखों में मोटापे का स्थान सर्वाधिक ऊँचा है। अनेक रोगों की जड़-मोटापा प्राधुनिक स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाओं प्रादि के लिए मानसिक चिन्ता का विषय बन गया है । आधुनिक मशीनों, यन्त्रों एवं स्वचालित उपकरणों ने हमारी मानसिकता को कमजोर बनाया है। किसी प्रकार का परिश्रम, मेहनतकश कार्य करना असभ्यता का विषय बन गया है। स्वयं का कार्य स्वयं न करना प्रतिष्ठा का विषय बन गया है।
इसके विपरीत स्वास्थ्य की परिभाषा में दुबला-पतला शरीर, लम्बे-लम्बे बाल, प्रक्षीकप रूपी अांखें, अन्दर धंसा हा सीना, बाहर की ओर झुकता हरा पेट, आँखों पर कम उमर में चश्मा लगाना सम्मिलित किया जा रहा है। योग शरीर को सुडौल बनाता है। मोटा व्यक्ति संतुलित शरीर का निर्माण योग की कुछ क्रियानों से कर सकता है। पतला एवं कमजोर व्यक्ति भी भोजन-पाचनसंस्थान की कमजोरी दूर करते हुए संतुलित शरीर का व्यक्ति बन सकता है।
निम्न कुछ विधियों को योग के निर्देशानुसार अपनाने पर निश्चित रूप से मोटापा घटता है। लगभग प्रतिदिन तीस मिनट का अभ्यास करने पर पेट, कूल्हे, भुजाओं का मोटापा घटना सम्भव है। (१) अग्निसारक्रिया
विधि-खड़े होकर दोनों पैरों में दो फुट का अन्तर रखें। दोनों पैर घुटनों से थोड़े मोड़ कर दोनों हाथों को घुटनों पर रखें। सामने देखें । श्वास बाहर निकाल कर बाहर रोकें । पेट को अन्दर-बाहर खीचें और ढीला छोड़ें। जब तक श्वास बाहर रुकी रह सके तब तक पेट को अन्दर-बाहर चलाते रहो। प्रारम्भ में मोटापे के कारण ४-५ बार पेट चलेगा धीरे-धीरे, अभ्यास से एक ही बार श्वास रोक कर ४०-५० बार चलावें। फिर सीधे खड़े होकर लम्बीलम्बी श्वास भीतर लें और बाहर छोडें। इस क्रिया को पहले तीन बार और फिर छः बार तक करें।
लाम-पेट का मोटापा घटता है। कब्जियत मिटती है। श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया में सुधार होकर श्वास का फलना कम हो जाता है।
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क्या मोटापा योग से कम होता है ? | २६५
(२) शशकासन
विधि-दोनों पैरों के घटने मोड़कर एड़ियों के भीतर नितम्बों को रखें और कमर सीधी रखते हुए बैठ जाइए। दोनों हाथों को ऊपर उठा कर सामने झुकें, हाथों की कोहनियों को सीधी रखते हुए माथा जमीन पर लगाने का प्रयास करें। श्वास लेना-छोड़ना बन्द न करें। धीरे-धीरे हाथ ऊपर उठाते हुए ऊपर आइये । लगभग १ से २ मिनट तक इसी स्थिति में रहना उचित है। इस प्रासन को गर्भवती महिलायें न करें। हृदयरोग एवं उच्च रक्तचाप वाले न करें। यह पेट का मोटापा घटाने में सरल एवं उपयुक्त प्रासन है। (३) योगमुद्रा
विधि-दोनों पैर को लम्बा रखते हए जमीन पर आसन बिछा कर बैठ जाइए । दाहिने पैर को घुटने से मोड़ कर बायें पर की जांघ पर रखें। बायें पैर को घुटनों से मोड़ कर दाहिने पैर की जांघ पर रखें, इस प्रकार पद्मासन पूर्ण हो जायेगा । अब दोनों हाथ ऊपर उठा कर सामने झुक जाइये और मस्तक को घटनों से आगे जमीन पर लगाने का सहज प्रयास कीजिए । श्वास लेना-छोड़ना न भूलें। इस स्थिति में लगभग १ से २ मिनट तक स्थिर रहें। फिर धीरे-धीरे ऊपर उठ कर पैर खोल दीजिए। यह आसन पेट, कूल्हे एवं जंघात्रों का मोटापा घटाने में उपयुक्त है। घटनों के भयंकर दर्द में यह न करें। पद्मासन न होने की स्थिति में अर्ध-पद्मासन करते हुए योगमुद्रा करना प्रारम्भ में उपयुक्त होगा। (४) वक्रासन
विधि-दोनों पैर लम्बे करते हए जमीन पर बैठ जाइए। दोनों हाथों को पीठ के पीछे जमीन पर रखें। दाहिने पैर को घुटनों से मोड़ कर बायें पैर के घुटने के पास जमीन पर जमाइये । बायां हाथ पीछे से उठा कर छाती और दाहिने घुटने के बीच से निकाल कर लम्बे पैर के घुटनों को पकड़ लीजिए। दाहिने कंधे और गर्दन को दाहिनी तरफ घुमाइये । इस स्थिति में कुछ देर तक श्वास-प्रश्वास लेते हुए बैठे रहें। इसे वक्रासन कहते हैं। वक्रासन इसी प्रकार दूसरी तरफ से उतने ही समय के लिए कीजिये । अत्यधिक कमर दर्द में इसे न करें। गुर्दे के दर्द में एवं जिगर की कमजोरी पर इसे न करें। यह आसन पेट का मोटापा घटाता है। मोटापे में भूख कम लगती है। भूख कम हो जाती है। (५) अर्धशलभासन
विधि-जमीन पर प्रासन डाल कर पेट के बल लेट जाइये। दोनों हाथों को अपने शरीर के साथ रखें। जमीन पर हथेलियां जमायें और ठोड़ी भी जमीन पर रखें । एक पैर को पीछे से ऊपर उठायें। घुटने को न मोड़ें और श्वास साधारण चलने देवें । लगभग १ से १३ मिनट तक इस स्थिति में लेटे रहें और इस प्रकार दूसरे पैर को ऊपर उठायें। समय उतना ही लगायें। यह प्रासन कल्हे, जंघानों एवं पेड़ का मोटापा घटाता है। इससे उच्च रक्तचाप कम हो कर शक्ति-स्फति का आभास होने लगता है। दोनों पैरों को एक-साथ उठाने पर शलभासन किया जाता है।
आसनस्थ तम | आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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अचनाचम
पंचम खण्ड | २६६ (६) पवनमुक्तासन
पवनमुक्तासन पेट का मोटापा दूर करने में बेजोड़ प्रासन है। यह पेट की दूषित वायु बाहर निकालने में सहज सहायक है। पीठ पर लेट जाइये। दोनों पैरों को ९०° उठाइये और घुटनों से मोड़ कर दोनों हाथों से घुटनों के ऊपर से पकड़ कर पेट की ओर खीचें । साथ ही गर्दन ऊपर उठाकर माथा या ठोड़ी घुटनों से लगाने का प्रयत्न कीजिये। धीरे-धीरे अभ्यास से यह सम्भव है । श्वास-प्रश्वास करते हुए इस स्थिति में २-३ मिनट तक रोकें और पैरों को छोड़ कर सीधे करते हुए लेट जाइये। ध्यान रखें कि इस आसन में श्वास न रोकें, अन्यथा सिर भारी हो जाता है। हृदय रोगी को इसे नहीं करना चाहिए । (७) द्विपादउत्थितासन
पीठ के बल लेट कर दोनों हाथों को शरीर के साथ रखें। गर्दन, कमर सीधी रखें। घटनों से पैर सीधे रखते हुए दोनों पैरों को ४५० ऊपर उठाते हए श्वास-प्रश्वास कीजिए। इस स्थिति में लगभग १ से २ मिनट तक रुकें। प्रारम्भ में यह समय अपनी शक्ति के अनुसार रखें। अभ्यास से समय बढ़ाइये । यह प्रासन पेट, जंघाओं एवं कूल्हों का मोटापा कम करता है। पेट के रोगों में लाभकारी है। कब्जियत दूर करता है। बवासीर में लाभकारी है। घबराहट, हृदय की धड़कन कम करता है। रक्तचाप सामान्य रखता है । प्रारम्भ में यदि दोनों पर न उठते हों तो एक पैर से इसका अभ्यास करें। कुछ दिनों के बाद दोनों पैरों से यह प्रासन होने लगेगा । पेट के भयंकर दर्द में इसे न करें।
ई-५ रतलाम कोठी, इन्दौर-४५२००१
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Yoga and Health
Dr. M. L. Gharote
Introduction
Yoga is a very ancient discipline. It has been considered as a spiritual discipline and recognised as such throughout the ages by all the systems of Indian philosophy. The aim of Yoga has always remained as the spiritual upliftment of man.
How is then Yoga related to health and fitness? How is health and fitness related to spiritual development ? To answer these questions we have to acquaint ourselves with the concepts and scope of health and fitness.
Understanding the Concepts
Health is a very wide term. Its extent can be known by the comprehensive definition given by World Health Organisation which runs as follows :
“Health is a state of complete physical, mental, moral and social wellbeing and not merely the absence of disease and infirmity.” This definition does not necessarily suggest that a healthy person always passes through the life harmoniously and without discord. But the healthy man has a wholeness or oneness of physical life while the unhealthy man is always distracted. And though the healthy man may be torn by temptations and puzzled by the unsolved problems of life, he has not often to fight a battle on two fronts, for health implies some degree of unity. The unbealthy man on the other hand, has always to face bodily discord as well as ethical and intellectual difficulties. He is not at peace with his own body.
Fitness
It implies perfect adaptation to one's particular environment, whatever that is. Fitness can be described in a varied manner. Very often it is considered in terms of physical aspects of living. For example, Karpovich defines physical fitness as "a fitness to perform some specified task requiring muscular effort." But truly fitness is the capacity of an individual to live and function effectively with his potential, purposefully and zestfully, here and
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पंचम खण्ड | २६८
now : and to meet confidently the problems and crises which are among life's expectations. The term physical fitness indicates specific components like muscular strength, muscular endurance, muscular flexibility, cardio-vascular fitness, co-ordination, etc., any of which we measure to reflect a person's fitness status, The tests which measure physical fitness are more relative than absolute, It is not that a reasonably healthy person cannot improve his pbysical fitness level.
dalda
Relation of Health and Fitness
Health and fitness are relatively inseparable. They have a part and whole relationship. If we consider health as a state of well-being, then fitness contributes to attain this state.
We can conceive of a Health and Fitness continuum' on which one extreme point towards left could be considered as "Death” or zero point and the other on the right as "Maximum." The "Maximum' point is a relative one and not the absolute and one's position at this point at a given moment can be determined by many contributing factors some of which are hereditary and others environmental, and some of the factors are uncontrollable but many of them could be controlled to some extent. It must be recognized that many factors affect a person's position on his health and fitness continuum and that one may never know exactly what his position is. An individual's position on the continuum thus represents relative health and fitness.
Yogic Exercises
In order to understand this term, we have to consider the two words, 'Yogaand 'Exercise in their mutual relationship.
We may not enter into the various connotations and denotations of the word "Yoga'. Suffice it to say that the word “Yoga' has been used for the end' as well as for 'means'. This position has been greatly responsible for creating misunderstandings about Yoga. Etymologically Yoga' means 'Integration. The term 'Samatva' of Bhagawadgita conveys the same meaning. Other terms like homeostasis, equilibrium, balance, harmonious development, etc. more or less suggest the same thing. The aim of Yoga itself is integration of personality in all its aspects.
To help the development of such an integration various techniques are employed. These techniques or practices enjoined in Yogic literature and handed down in different traditions also go under the name of Yoga.
The various yogic practices may be classified into (a) Asanas, (b) Pranayamas, (c) Bandhas and Mudras, (d) Kriyas, and (e) Meditation.
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Yoga and Health / 269
(a) Asanas-These are certain special patterns of postures that stabilise the mind and body. They aim at establishing proper rhythm in the neuromuscular tonic impulses and improving the general tone of the muscles.
(b) Pranayamas-These are the practices in the control of respiratory impulses which form one of the main channels of the flow of autonomic
nerve currents.
(c) Bandhas and Mudras-These are special features of Hathayoga. These consist of practices where-in one tries to consciously control more and more certain semi-voluntary and involuntary muscles in the body. In these muscles there is an integration of central and autonomic nerve supply. By bringing these muscles more and more under volition one could influence thereby the activity of the autonomic nervous system which functions as a whole. Bandhas and Mudras help to tone up the internal organs, decongest them and stimulate their healthy functioning.
(d) Kriyas-These are cleansing processes usually classified into six divisions and therefore they are often called Shatkarmas or Shatkriyas. Each one of these consists of many sub-sections.
(e) Meditation-This is a continuum of mental practice involving from initial withdrawal of senses to the complete oblivion of the external environment. Literally, there are innumerable stages and practices which could be included under this head.
For undergoing yogic practices an adequate substratum is formed by resorting to a mode of self-imposed code of conduct technically known as Yamas and Niyamas. They form the very basis of Yoga and is considered to be essential part of Yogic routine, howsoever on a mild scale.
Thus it will be seen that Yoga is not only a state of being but also a process of doing.
What is 'Exercise' ?
If we resort to a strict definition of "exercise" as repeated movements of particular parts of the human body, it is doubtful whether Yogic practices, described above, could be called exercise, since they are devoid of movements. But if we consider the term 'exercsie' as any work that has been undertaken with the sole purpose of keeping the organs and their functions in healthy condition, then we can very fittingly call the yogic practices, mentioned above, as exercises. From this point of view only we have used the term yogic exercises.
Nature of Yogic Exercise
It is necessary to note that the nature of all yogic exercises is psychophysiological. Some exercises emphasising control of mental processes directly
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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U
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are more psychological. other exercises are more physical or physiological. It is the latter part of the yogic exercises that has become more popular and is being extensively used for health and fitness.
अचेनार्चन
Relation of Yogic Exercises with Health and Fitness
The quotatons like "Nāyamātmā balabinena labhyah' Sarīramādyam khalu dharmasādhanam' from yogic literature indicate that health was considered as a prerequisite for the spiritual pursuit. Yoga looks upon man as a whole consisting of body, mind and spirit. Yoga accepts bodymind relationship. More weightage is given to the spiritual aspect. Yogic concept of health is not merely physically oriented but rather more mentally and spiritually oriented. Arogya, a synonym for health, has been defined as 'an absence of distractions or pulls on the mind'(fqafa & T:). The variety of means available in Yoga caters to the needs of young, old, utterly old, diseased or weak. Following are some of the quotations from Yogic texts which emphasize the utility of Yogic exercises in the promotion of fitness of body and mind.
कुर्यात्तदासनं स्थैर्य प्रारोग्यं चांगलाघवम् । "Kuryättadāsanam sthairyam ārogyam cãigalāghavam" (The practice of asanas leads to stability, health and lightness of limbs) प्रासनेन भवेद् दृढम् । "Asanena bhaved drdham" (Practice of asanas contributes to strengtb). पासनेन रुजो हन्ति । "Asanena rujo hanti" (Asanas overcome diseases). ततो द्वन्द्वानभिघातः ।
Tato dvandvānabhighātaḥ"
(Proficiency in asanas leads to the attainment of the state of lack of dysrhythmias in the neuro-muscular impulses responsible for the tremors of the body and fickleness of the mind).
The physiological effects of Yogic practices are described in the following verse;
वपुः कृशत्वं वदने प्रसन्नता नादस्फुटत्वं नयने सुनिर्मले प्ररोगता बिन्दुजयोऽग्निदीपनम् नाडीविशुद्धिर्हठ सिद्धि लक्षणम् ॥
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Yoga and Health / 271
"Vapuḥ krśatvam vadane prasannatā, Dādasphutatvam nayane sunirmale, arogată bindujayognidipanam, nādiviśuddhir hatbasiddhilaksanam"
(Slimness of body, lustre on the face, clarity of voice, brightness of eyes, freedom from, disease, control over ejaculation of semen, stimulation of gastric fire and purifcation of Nadis are the characteristics of success in Hathayoga)
The fundamental understanding in Yoga is that through the variety of means one arrives at the stage of highest integration which is described as Rajayoga in the following verse :
मर्वे हठलयोपाया राजयोगस्य सिद्धये । “Sarve hathalayopāyā rājayogasya siddbaye" (All the means and methods of Hatha and Laya are meant for reaching the state of Rajayoga).
Health may be considered in its promotive aspect, curative aspect and preventive aspect. It would be interesting to note the contribution of Yoga in developing these aspects of health on the basis of scientific observations.
Promotion of Health
Promotive aspect deals with the maintenance or improvement of the health and fitness. Although limited research has been done in this area the available evidence indicates promotion of the factors of physical fitness and emotional stability through Yogic training programme.
Yogic procedures have been found best to contribute to flexibility according to de Vries (1967), Smithels and Cameron (1962), Dhanaraj (1974), and Gharote (1973). Other factors of physical fitness are equally favourably influenced as seen from the studies of Gharote (1973, 1976). Minimum muscular fitness as judged by Kraus-Weber tests in the school children was seen improved by yogic training according to the studies of Gharote (1976 b), and Moorthy (1982).
Cardio-vascular efficiency has been found to improve as a result of short-term and long-term yogic training programme among the physically conditioned and unconditioned males (Gharote and Ganguly 1979, Ganguly and Gharote 1974). Residual and delayed effect on the improvement of physical fitness was observed by Gharote (1976 a).
Emotional stability which governs mental health is an important aspect of personality. Various studies reported by Kocher and Pratap (1971 a, and 1972), Kocher (1972 a, b) Palsane and Kocher (1973) showed favourable
आसनस्थ तद आत्मस्व म तब हो सो
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड २७२
results of short term yogic training on mental health through the influence of autonomic nervous system and endoctrine system. The study of Gharote (1971) on school children evaluating the phycho-physiological effects of short term yogic training on the working of autonomic nervous system using a sophisticated and elaborate battery of Wenger's Autonomic Balance, brought evidence about the utility of yogic exercises towards improved emotional stability.
On the basis of some of the scientific investigations with yogic training programme mentioned above, it would be clear that yogic exercises can play important role in promoting health and fitness.
Cure of Disease
The curative aspect deals with the treatment of diseases through yogic procedures. Today Yoga has become more popular because of its therapeutical effects. There is a growing tendency among the masses to take the help of yogic exercises for overcoming certain disorders. Although therapeutically yoga has not reached a stage to throw light in the psycho-physiological mechanisms involved in the treatment and to cover within its compass a long list of disorders, it would be interesting to consider the available evidence in this area.
Circulatory Disorders
One of the accepted claims of yogic type of relaxation is for the reduction of hypertension. Benson and his co-workers have shown from a number of controlled studies lowering effect of Transcendental Meditation on Hypertension (Benson et al. 1973, 1974, Benson H. 1977). In 1969 Datey et al. after investigating the effects of Shavasana for six months on the hypertensive patients reported decrease in blood pressure levels to normal values in one group; another group showed lower blood pressure and a decreased need for medication while the third group who had already normal blood pressure level because of medication decreased their need of medication significantly from 33% to 100%. The patients also reported overcoming usual symptoms of headache, giddiness, irritability and insomnia and decreased chest pain and breathlessness on exertion (Datey et al. 1969). Another investigator who dealt with meditation therapy on hypertensives is Chandra Patel. She conducted series of investigations and got amazing results. (Patel 1973). Stone and de Leo (1976) used a technique involving breath awareness and examined the effects not only on lowering of blood preassure but also suggested biochemical aspects responsible for the enhanced blood pressure in the form of increase in dopamine-beta-hydroxylase and that breath awareness reduces the quantity of dopamine-beta-hydroxylase in the blood which accompanied lowering of the blood pressure.
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Yoga and Health / 273
Inverted positions like Shirsh asana and Sarvangasana have been found successful to treat pre-menstrual tension, migraine by influencing, through gravity effects, the lungs, brain, heart, intestines and uterus and the movement of body fluids such as blood, lymph and cerebrospinal fluid.
Pranayama or yogic breathing practices also have favourable effects on the cardio-vascular system. Breathing against resistance in pranayama helps to dilate blood vessels of the brain, skin and coronary system. Inverted positions along with the practice of pranayama done under supervision can be useful in the treatment of angina pectoris (heart pain) because they reduce the work load of the heart. Tulpule (1973, 1980) has shown the utility of yogic exercises in the management and rehabilitation of the patients of heart diseases.
Respiratory Disorders
Equally important is the contribution of Yogic exercises towards resppiratory troubles. One of the troublesome respiratory disorders is Asthma. The reports of Asthma research projects conducted in Kaivalyadhama, Lonavla (Bhole 1975, 1965) and studies by other investigators (Rajalakshmi 1980; Nagaratna and Nagendra 1985; Goyeche et al. 1982; Erskin and Schonnel, 1979: Honsberger and Wilson 1973; Murthy et al. 1983) show efficacy of Yoga in the management of bronchial asthma.
Metabolic Disorders
Among the metabolic disorders frequently encountered disease is diabetes. This disease has also been subjected to yogic treatments and several investigators have reported favourable influence of the treatment in reducing the blood sugar levels (Divekar, 1978; Koshti et al. 1971, 1972; Rugmini and Sinha 1975; Singh et al. 1982; Udupa et al. 1975; Varandani et al. 1973; Rao 1976; Shembekar et al, 1980; Tulpule et al. 1977; Karambeilkar 1976).
Obesity is another condition which can be managed to a great extent through the yogic treatment. Reports by Gharote (1977), Divekar (1978) show beneficial effects of Yogic treatment on obesity.
Gastrointestinal Disorders
Among these are included conditions related to digestion and elimination. Some clinical reports and experiences of individuals suggest how yogic exercises can help to alleviate conditions of hyperacidity, dyspepsia, indigestion, gas troubles and piles.
Musculo-skeletal Disorders
The practice of Yogic exercises undoubtedly helps to preserve and
आसमस्थ तम 3T7nze na तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड / २७४ improve movement in joints and suppleness in people suffering from various types of chronic arthritis.
Postural defects may be improved in the early stages by the practice of suitable asanas.
Relief is obtained from many forms of aches and spasms in the muscles. Many asanas can be made use of to treat the conditions arising out of surgical operations and to hasten convalescence.
Prevention of Diseases:
Personal experiences of the practitioners of yogic exercises suggest the utility of yogic exercises in building up proper resistance not to succumb to the long sustaining disorders and show the ability to recover soon. yoga survey report based on the questionnaires filled in by 2672 yoga practi tioners in England, Dr. Robin Monro showed that "the majority of people responding to the questionnaire felt that yoga had improved their sense of well-being, energy level and capacity for work. At least half of those felt that Yoga had reduced their (a) susceptibility to colds and flu, (b) consumption of general medicines, and (c) consumption of tranquillisers or sedatives. Large proportions felt that Yoga had reduced their number of days of work and consultations with doctors (Monro 1984).
Conclusion:
Thus on the basis of the above discussion it will be clear that Yogic exercises have a wide scope in the life of an individual not only to remove the ailments but also to maintain good positive health of the body and mind. Selected rontine of Yogic exercises can certainly lead to a happy and successful healthy life.
REFERENCES
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2. Benson, H. et al. 1974. Decreased blood-pressure in borderline hypertensive subjects who practiced meditation. J. Chron. Dis; 27: 163-169.
3 Benson, H. 1977. Systemic hypertension and relaxation response. N. Engl. J. Med; 1969
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4. Bhole, M. V. 1967. Treatment of Bronchial asthma by Yogic methods-A Report, Yoga Mimamsa, 9; 3: 31-41.
5. Bhole, M. V. 1915. Rationale of treatmens and rehabilitation of asthmatics by Yogic Method. Collected Papers on Yoga, Kaivalyadhama, Lonavla. pp. 105-114.
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Yoga and Health / 275
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ShavasanaA Yogic Exercise in the management of hypertension. Angio
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Alberta, Edmonton, Canada. 8. Divekar, M. V. et al. 1979. Efficacy of Yoga Therapy in Diabetes
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- Assistant Director of Research and Principal, G. S. College of Yoga and Cultural Synthesis,
Kaivalyadham, Lonavla-410 403.
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Tantra : Ecstasy Through Rituals
Dr. Kalidas S. Joshi
Tantra is a subject which has recently hit new marks of popularity especially among those of the new generation who are interested in finding out rather unfamiliar and novel solutions to the human problems of our times. These problems arise mainly out of a need for a healthy adjustment between the human individual and the fast-changing world around him. This need has grown very acutely during the past two or three decades, giving rise to a revival of interest in ancient disciplines like Indian music, vegetarianism, herbal cures, meditation, and so on. Tantra appears to be the most recent addition to this list.
It is rather strange that this revival of interest in Tantra has come about at such a time when for the past one century or so this ancient discipline had gone almost totally out of practice, and it has been a very rare phenomenon to come across real tantrics who could actually demonstrate and not merely speak about the various achievements claimed by the tradition of Tantra.
Tantra is a subject which has been grossly misunderstood by its critics and largely abused by its followers in spite of being very highly spoken of by its exponents and very ardently practised by a few of them. Tantra is a kind of philosophy baving its own explanation of the world and of the human individual, the various problems facing him, and their possible solutions. It describes in great details a very concrete system of practices directed towards the goal of self-knowledge (atmajnyana), which is a state which every school of philosophy of ancient India placed before its adherents as the most cherished ideal of human life.
To decide whether or not the Tantra is capable of offering us solutions to some of the problems peculiar to the present age of science, we mnst first understand clearly the tradition of Tantra, its contents, and how far it may be possible to apply its principles in the modern setting, Meaning of the word “Tantra"
The Sanskrit word "Tantra" is derived from the root 'lana', meaniog 'to spread'. “Tra", the last letter in the word Tantra, means 'to save'. Thus Tantra means the scripture which saves us by spreading or expanding our knowledge. The word Tantra may also be derived from 'tatri' or 'tantri' which means 'to explain'. It seems that it was common in ancient Sanskri:
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literature to apply the word Tantra to any kind of religious and philosophical discussion. Thus the Sankhya work of Kapila has been referred to as Kapilatantra. There was another famous Sankhya work called Shashtitantra. Shankaracharya in his reputed bhashya of the Brahmasutra (II. ii. 32. ) has used the word vainashikatantra for the Buddist view of momentariness. The two Mimamsa schools of Indian Philosophy, namely, Purvamimamsa and Uttaramimamsa were also sometimes called Purvatantra and Uttaratantra. respectively. The great scholar Vachaspati Mishra who wrote commentaries on various schools of Indian philosophy was aptly called 'sarvatantrasvatantra' i.e., master of all tantras.
The word tantra has also been used in Sanskrit literature to mean various other things such as, a loom, a thread, rule, theory, science, doctrine; the right way or technique, the order of the world, and so on. Tantraka means unbleached cloth. Tantri means a string. Tantric is a person well versed in a science or doctrine, But when the word tantra is used in the sense of a shastra or science including principles and techniques, it indicates worship using mysticism and ritual for the attainment of supernatural powers. And a tantric in this sense means a sadhaka who practises such worship. In this sense tantra is also called agama or mantrashastra. How old is the Tantra tradition ?
In the Indian tradition if anything is to be considered as very old or ancient in origin then it must be traceable to the Vedas. We see this, for instance, in the case of various schools of Indian philosophy. All the orthodox schools of philosophy in India, which believed in the final authority of the Vedas in philosophical matters, have always taken great pains to show how their views had the sanction of Vedas. Vedas, also called 'Shruti' have always commanded the most unfliching respect in the minds of the ancient Indian thinkers. If any opinion or view sould be shown to be sanctioned by the Shruti, then no further justification for its acceptance was called for.
The Tantra is also believed by its orthodox exponents to be vedic in origin. It is said that the Tantra originated from the Saubhagya-kanda of Atharveda. This belief gets some credibility from that fact that Atharvaveda deals with topics like magic, charm, sorcery, driving away evil spirts, and various rites resembling the procedures described in the Tantra. But such a tendency to trace the origin of any idea to the Vedas on the basis of finding some ideas related to it somewhere in the Vedas sometimes leads to a sort of confusion. For example, elementary notions similar to monism, dualism as well as pluralism are all found mentioned in the Vedas, and therefore the followers of all these three conflicting views trace their beliefs to the Vedas. That would make the Vedas a storehouse of conflicting views.
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But whether the Tantra may or may not have originated from the Vedas, it is called the fifth Veda by the orthodox believers. This belief makes Tantra as authoritative as the Veda itself. It is said to be the guiding Shastra of the Kaliyuga. According to the ancient Indian chronological system the universe is said to pass through an endless cycle of four Yugas or ages repeating itself over and over again. We are at present believed to be living in the fourth age of the cycle, called the Kaliyuga. It was preceded by Satyayuga or Kritayuga, Tretayuga and Dwaparayuga. The four Yugas together consitute one Mahayuga. In a mahayuga the first, namely, Kritayuga is the longest of the four, its duration being 1728 thousand years. The following yugas go on becoming shorter in duration, and the Kaliyuga is the shortest of the four, Its duration is 432 thousand year. One mahayuga consists of 4320 thousand years, Such one thousand mahayugas make one day of Brahma, the creator of the universe.
The present Kaliyuga was started nearly 3100 years before Christ, or roughly, more than 2500 years before the birth of Lord Buddha, The great battle of Mababharata between the Pandavas and Kauravas was faught toward the end of Dwaper yuga.
Now each of these four yugas has its own shastra which tells the rules governing the behaviour of the people of that age, their mode of worship, religious observances, ritual and rites, It is said in the Mahanirvanatantra (I, 28.) that in the Kritayuga shruti guides the people, in the treta the smriti, in the dwapara the puranas, and in the kaliyuga the guiding shastra is nothing else but the agama or tantrashastra. This saying is repeated in two other tantra works, namely, Kularnavatantta and Kubijakatantra, But this statement about the importance of tantra in the Kaliyuga can not, obviously, be taken too strictly. We can not say, for instance, that the shruti or Vedas are now secondary to the Tantra, or irrelevant or useless in the Kaliyuga. It must be admitted that the shruti, smriti and purana are as important even today as they were in the past ages. Moreover, if the importance of Tantra would have been mentioned in the shruti itself than it would have been far more authoritative. But actually we find that tantrashastra is not mentioned in the early works at all. The word Tantra does not appear in the Amarakosha. Nor does it find a mention among the vidyas or shastras listed in ancient literature like the upanishads or early smritis. This shows that Tantra with its elaborate ritualistic discipline must have come into wide-spread use at a comparatively later date, and in all probability this might have happened about the third or fourth century A. D.
While determining how old the Tantra is, we must differentiate between Tantra as an elaborate system of ideas and practices, and particular tantric beliefs. The latter are, indeed, found in very antient Sanskrit literature but
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it can not be concluded from this that the shastra itself is so old. For instance, in the Arthashastra of Kautilya we find reference to offering of sacrifices in cremation grounds on the night prior to amavasya (no moon night). The Buddhacharita of Ashvaghosha, which is a very ancient treatise, has mentioned the Goddess Kali. Buddhist tantric works called Dharanis are supposed to be quite old (first century A. D.) In them we find many tantric ideas. clearly described.
It seems that the oldest tantric works belong to the period about the fourth century A. D. The Shaivagamas are shown to be older than the sixth century A. D. Tantra works like the Kubijakatantra, Sarvajnyanottaratantra Parameshwaritantra, and Nishvasa-samhita are also supposed to have been written roughly about that period. There seems to be a good deal of similarity between the puranas and the tantra works., regarding worship and ritualistic procedures. Thus the Devimahatmya in the Markandeya purana is almost the same as that found in the Kathyayanitantra and Varahitantra, Many puranas are mentioned in Tantra works, and Tantras are mentioned in the puranas. For instance, the Kurmapurana gives a description of how the Tantras originated, while details of tantric rites and sadhana are found mentioned in the Agnipurana. In the Shivapurana we find the names of the ten mahavidyas arising from Goddess Durga. On the other hand the word. "ashtadashapurana" has appeared in the tenth chapter of the Nirvanatantra. This shows that many of the puranas and Tantras were composed during the same period. This period is believed by many scholars to be around the tenth century A. D.
It is an interesting fact to note that although most of the important texts of the Tantra literature were written between the fourth and the tenth century A. D., Tantras have continued to appear even during much later period, upto the seventeenth and even eighteenth century A. D. Sir John Woodroffe, the famous modern writer on Tantras, who has done a tremendous job in dispelling many doubts and misgivings about the Tantra, has given an example of how one of the Tantra works has mentioned the city of London and the English people. Obviously this work must be of a very recent origin. Such a thing has happened even in the case of Upanishadas. While the older Upanishads which are definitely a part of shruti are very ancient, there are some others which describe phenomena of Hathayoga (for example, Yogashikhopanishad, Mahopanishad, Yogakundalyopanishad, Brahmabindoopanishad, and so on), and they are ascribed by scholars to as late a period as the sixteenth century A. D. A similar thing has happened in case of the Tantras. Some new Tantra works have come up as modifications of the old ones which have perished.
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Thus it may be said that although the tantric ideas have actually been extremely old, the tantric literature has developed over a long period extending upto quite recent times.
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Place of origin of the Tantra
Like many other questions pertaining to the ancient Aryans, such as, the origin of the Indian Aryans, the place of their original abode, the location of the mountain Meru, the time of the great poet Kalidasa, nothing is as yet conclusively established or known about the place where the Tantras might have originated. There are three different opinions held by scholars. Those who are brought up in a more traditional framework of mind have argued that the Tantra belonged to the whole of Aryavarta or Bharatavarsha, i.e., India of the ancient times since time immemorial, and that it was in vogue everywhere in India and governed all the religious and spiritual observances of the Indian people. According to another line of thinking the Tantra came to India from outside via the north-western frontier. Some scholars hold the view that Tantra did not originate in the western parts but rather in the north-eastern regions surrounding India. But the majority of thinkers seem to be more inclined to believe that the Tantra originated in Bengal and that from there it was spread to Nepal, Tibet and China after the invasion of that part of India by Islam. The destruction of the great Universities of Nalanda and Takshasbila in the twelfth and thirteenth centuries A. D. speeded up such a migration of Tantra.
It seems that Tantra came into prominence after Budhism established an upper hand over Brahmanism which was the official religion of the Vedas, around the beginning of the Christian era. It also seems likely that the Tantra originated among the culturally backward strata of society, which were more influenced by the inroads of Buddhism. The Tantra travelled northward and eastward outside India along with Budhistic religious ideas and practices. Following this, many Sanskrit treatises were translated into Chinese.
The opinion that the Tantra originated in Bengal is backed by the fact that most of the modern writings on Tantra have been in Bengali, and a vast majority of the followers of Tantra have been from the province of Bengal. This is especially true of the Shakta School of Tantra.
But wherever Tantra might have originated it did spread to the whole of India, and different deities gained prominence in different parts of the country. Thus Kali or Durga got settled in Bengal, Shiva in Kashmir, and Vishnu in the central and southern parts of India.
The Tantra is believed to be divine in origin. Thus many tantras are ascribed to Lord Shiva, and many others have Parvati, the consort of Shiva as the author. Similarly there are some tantras told by Lord Vishnu, some by
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the Lord of the vighnas, namely, Ganapati, and others by Dattatreya. Some tantra works are said to be written by the Natha siddhas like Matsyendranatha, Gorakshanatha, Minanatha, and others. Although the tantra writings are thus supposed to be divine in origin and they are in the form of a dialogue between the deity and some adept or disciple, they are not considered to be apaurusheya (without a known author) like the vedas.
Important Tantra works
The Tantra was, for many centuries, a very important part of Indian culture, and although it is not much in practice now, there was a time when tantrics were plentiful in all parts of India and the tantric rites were very extensively practised. The tantric literature in the Sanskrit language has been tremendous. Due to lack of use over the past century or so, many tantric works have now been lost completely. In the Nityashodashikarnava (I. 22.) it is said that there were millions of Tantra works. The Sammohana Tantra has mentioned five hundred different titles of Tantra works under various categories such as samhitas, yamalas, damaras, puranas and upa-puranas. Some of the important Tantra works available even now in printed or manuscript forms are: 1. Mahanirvanatantra, 2. Mundamalatantra, 3. Kubijakatantra, 4. Kularnavatantre, 5. Yoginitantra, 6. Kankalamalinitantra, 7. Brihannilatantra, 8. Varabitantra, 9. Gandharvatantra, 10. Hevajratantra, 11 Bhutadamara, 12. Kalivilasa, 13. Kamakeshara, 14. Prapanchasara, 15. Vishvasara, 16. Kalikulamrita, 17. Yoginihridaya, 18. Malinivijaya and, 19. Rudrayamala.
Among the more recent works on Tantra the Sharadatilaka, Mantramuktavali, Pranatoshini, Tantrasara, Shaktanandatarangini, Mantramahodadhi and Shritattvachintamani are well-known.
The tantra works were written somewhat in the form of an encyclopedia. They are a storehouse of Indian mysticism, occultism, and spiritualism. Sadhana or practice is the mainspring of the Tantra. Sadhana is what one actually does in practice and action, including purification of the body and mind, worship of gods and goddesses in the form of images and idols, offering flowers, fruits, cooked food, water for washing and drinking, perfume, incense, light, cloth, seat and so on to the deity, identification of the body and its parts with the deity, chanting of mantras, concentrating the mind, and so on. All these items of worship have been described in great details in the Tantra literature. Sadhana can not stand without a theoretical and philosophical foudation, and so, that foundation also finds an important place in the Tantra. It includes topics like how the universe came into existence, how it is sustained, what will happen to it in the end, what is the goal of human life, how to lead a pious life, what virtues one must cultivate, what vices one
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should avoid, how to take pilgrimage and so on. Tantra also contains many mythological stories.
Nature of Tantric sadhana
The Indian mind since ancient times seems to be overwhelmingly influenced by certain beliefs which it has passed on generation after generation without any change till today. One such belief pertains to the predominantly painful nature of human life. This belief is held equally by all the schools of Indian thought, orthodox as well as heretic. The fact that human life is fundamentally a matter of dukkha has been the starting point of almost all philosophical enquiries and religious observances. Having started with this presupposition, all the thinkers have ultimately turned to a state which is eternally free from dukkha. This state has been given various names like moksha, mukti, apavarga, kaivalya, nirvana and so on. Tantra, like all other shastras in the spiritual field, concerns itself with dukkha as the starting point, and leads upto moksha through its peculiar ritualistic sadhana.
or
Tantra recognises atmasakshatkara i.e., self-realisation as the final goal of the shastra, There are various ways available according to one's capacity and inclination. For instance, there is the way called jnyana-marga nivrutti-marga which may be followed by those whose minds have already acquired qualities like stability, concentration, peace, and vairagya. But such persons who can turn their minds away from worldly enjoyment and attractions and apply it to the understanding of the real nature of the atman are very rare. Most of us do not want to be left to ourselves, to think for ourselves, or to be guided by our own thoughts, because we are not capable of doing atma-chintana. Thus the nivrutti-marga, although it is a sure way to mukti, is of no avail for most of us. We need somebody to show us the way, something concrete which can be felt, which can be experienced and practised and enjoyed. We need some practical activity, not merely an intellectual exercise. Our need is always for a practical sadhana which can lead us step by step towards the attainment of the final goal. Tantra aims at fulfilling this actually felt need of the common man.
Tantra offers a way for every one, not only for the chosen few. It welcomes men as well as women of all casts and creeds to its fold, and offers them a practical discipline to be followed in daily life so that one can gather the virtue and capacity in a progressive manner leading ultimately to chittashuddhi or purity of mind so that the mind can become an instrument fit for atmadarshana. Tantra does not show the way to mukti from a distance. It is not like a sign-post. It is the way itself. It is the way itself. And it is a practical way based on theoretical foundations. It tells us what to think, what to aspire for, what the nature and goal of human life is, and through what
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concrete procedures the final goal of atmajnyana may be achieved. And the means prescribed by Tantra are for everybody.
The common man, unlike a learned man can not think in a detached manner. His thinking is attached largely to the experiencial field. So he needs some concrete form of sadhana, a gradual course of action for training both the body and mind. The common man can visualise the nature of absolute reality only through a saguna and sakara form of deity. Therefore, tantric sadhana provides a practical way of taking the mind slowly towards a realisation of the formless nature of the atman through what the mind can actually handle and experience. It takes the mind from the gross to the subtle, from the external to the internal, from the superficial to the hidden nature of the world, and from the world to its original source, from the indriyagamya or apparent to the buddhigamya or essence. This can be achieved only through 'practice' or abhyasa, and not merely through contemplating, visualising, or imagining, Tantric sadhana is thus the way of starting near in order to go far.
Tantric sadhana does not call for blind faith or hollow ritual. Its preceptors seem to have devised the various parts of the discipline on the basis of a good deal of philosophical thinking. They believed certain basic principles which appear quite reasonable and sound even on a scientific scrutiny from the point of view of modern knowledge. This is perhaps the reason why young men and women from the most affluent societies all over the world are getting attracted toward tantric sadhana in actual practice in ever increasing numbers.
The first principle underlying tantric sadhana is that the body influences the mind and vice versa. In modern terminology this is called the principle of psychosomatic interaction. Of course, it is true that this principle has nowhere been stated explicitly in Tantra works. But it does unmistakably underline the tantric rituals. It is now recognised in modern medicine that there are certain disorders of the body whose cause is located in the anxious states of the mind. Such disorders can not be cured simply by treating the affected body parts. They need the mind to be treated, so that the tension and anxiety is removed from the mind. When the cause of the trouble is thus removed the trouble vanishes along with the symptoms. This principle of psycho-somatic interaction is used in tantric sadhana. The bodily and simple looking acts of the worshipper like image worship, bhootashuddhi, nyasa, homa, tapa, and so on actually influence the mind. They belp to purify the mind and remove afflictions like fear, envy, greed, ignorance (avidya) etc., and thereby promote true knowledge of the self. This same principle of training the mind through training the body is also used in Hathayoga in the practice of asana, pranayama, and mudras.
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Our ancients knew it very well that the mind which is by its very nature savage, unsteady, and vicious, can be restrained and disciplined by doing certain bodily acts again and again. These acts were included in tantric sadhana with the aim of influencing, improving, purifying and enlightening the mind. This was called the state of chittashuddhi. It was, indeed, a wonderful discovery on the part of the ancient masters of Tantra that chittashuddhi can be tremendously helped to come about through doing some simple looking acts regularly and religiously.
Tantric sadhana is a passage from the gross to the subtle, from the superficial to the essential and from the apparent to the real. Tantra is a realistic doctrine, It does not look upon the world of objects and persons as illusory. It advocates the use of images, idols, pictures, and diagrams for concentrating the mind. When a sadhaka applies his mind to these instruments and forgets the world around him, he learns to internalise his mind. Just as counting, addition, and subtraction can be taught to a child with the help of marbles, balls, or coloured objects, so Tantra utilises image (murti) of the deity of one's choice (ishta-devata) and prescribes such acts as invoking the deity, waking it, feeding it, and offering flowers, bath, and so on, By doing these acts the mind of the sadhaka is trained to get attached to the deity, thus giving up attention from all else. Thus one can learn to do concentration (dharana) and contemplation (dhyana) progressively. Otherwise these two acts are almost impossible in the case of the common man. And Tantra is meant for all, including the common man. But Tantra does not ask the sadhaka to stay where a beginning is made. It advocates a steady progress of the mind from the gross image to its inner power, from the things used in worship to what they signify. Tantric Sadhana is based on the belief that a passage from the gross to the subtle is possible, and it gives due importance to such a passage. It is true, of course, that many of us do not actually show any such progress and we get caught up in the preliminaries and crudities only. But that is not a shortcoming of Tantra itself.
The real trouble is that most of us have only a very mild curiosity and very weak will to achieve the final goal of self-realisation. So we either do not make a start at all, or if we do, then we do not march on for long. For those who tread the path of Tantra with firm resolve a really wonderful experience of the subtle state of unification of the mind with the deity becomes a reality. But we must give the tantric sadhana a fair chance. Then it does not fail.
The most remarkable philosophic presupposition of tantric sadhana is the reconciliation of monism and dualism. Monism is the doctrine that there is only one single basic reality underlying the multifarious universe. Only that absolute reality is what exists. The multitude of objects of
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experience is not real. It is illusory. As against this, dualism holds that there are two basic realities underlying the universe, one representing the material, the other representing the spiritual. According to the Tantra view, the world is many so long as the sadhaka is ignorant; but it becomes one when the sadhaka becomes a siddha by a complete unification with the ishtadevata.
One special characteristic feature of tantric sadhana is that there are ways and means in it available to aspirants of all dispositions, tendencies, and abilities. For the lowest type of aspirants there are crude and preliminary forms of sadhana, while increasingly subtle, intelligent and advanced procedures of sadhana are also available, which are meant for the superior aspirants. Such catholicity and flexibility of sadhana was natural for the Tantra since it was meant for all castes and, unlike the vedas, also for women. It is said, for instance, in the Gautamiyatantra (chpt. I.)
a auffarga TITOI Gr 72 11 Thus, all were allowed to read the Tantra works, recite the mantras and perform worship (puja).
Tantric sadhana consists of two types of practices. First, there are the general practices which are followed by students of all schools of Tantra, such as, the Shaiva, Shakta, Saura, Ganapatya, and so on. They usually include the following: -
1. Japa-Reciting a mantra received from a guru at the time of
initiation or diksha. 2. Purascharana-Reciting the mantra a milion times or more. 3. Homa or Yajoya-Offering sacrifice to the fire God. 4. Tapa-Austerities like fasting, giving up one meal, foregoing
certain items of food, etc. 5. Puja-Image worship. 6. Bhutashuddhi---Purification of the body and its parts. 7. Nyasa-Imagining oneness of the deity with different parts of the
body. 8. Sandhya-A special form of worship and prayer without using an
image, flowers, food, or other materials. 9. Yantra-Using diagrams for concentration. 10. Mudra-Facial expressions and arrangements of hands and fingers. 11. Asana-Postures for sitting for prayer or meditation. 12. Pranayama-Techniques of controlling the breath in order to
control the mind.
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अर्चनार्चन
13. Dhyana-Meditation including concentration of the mind and contemplation.
But these aspects of the tantric sadhana are hardly different from the general spiritual practices of Hinduism. if these were the only practices included under tantric sadhana, then perhaps there would have been no justification for the tantra to have a separate existence as an independent discipline. But there are certain specialised practices which belong to tantra alone. Taniric sadhana is sometimes undertaken for attaining powers to harm others and ability for black magic. These are called black rites. There is another kind of sadhana called Nila and Shava sadhana wbich is performed in the cremation ground and a corpse is used in it. Then there is the practice of vamachara, which is a highly specialised technique of tantra. In fact this technique has been the most outstanding part of the tradition of tantra. Panchatattva : The much abused tantric sadhana
Out of the various schools of Tantra the Shaktas, i. e., the worshippers of shakti, have been condemned by other religious men throughout the history of tantra, because of the apparently licentious and libertine tendencies shown by many of them in the use of wine and woman as a part of worship and ritual. Vamachara or panchatativa-sadhana has been a peculiarity of the shakta school which has not been accepted in religion or any spiritual discipline outside the tantras.
Shakti means power. In tantra it has been worshipped in three forms. The Goddess Kali is one manifestation of shakti. Another manifestation is the dormant Goddess in man called Kundalini. Woman who takes part in sadhana with a sadhaka including prolonged sex is also called shakti. The shaktas who worshipped shakti and performed sadhana along with a shakti got an upper hand among the schools of tantra because of the libertinism advocated by them. Offering animal sacrifices to the Goddess, eating meat as a part of worship, drinking wine, and having uninhibited sex pleasure as a part of sadhana.......all these must naturally have been very attractive propositions for a large number of followers, so that in course of time the shakta school alone survived as a major cult of tantra, and people started identifying tantra with shakti worship and panchatattva only.
Panchatattva-sadhana is also called vamachara, virachara, kaulachara, guhyatattva, or latasadhana. Each of these names brings out some special feature of this form of worship. Panchatattva means five materials used in sadhana. They are also called the Panchamakaras or five 'm's, as the Sanskrit names of these five materials begin with the letter 'm'. They are1. Matsya, (fish) 2, Mansa (flesh) 3. Madya (wine) 4. Mudra (parched grain) and 5. Maithuna (copulation).
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Tantra: Ecstasy Through Rituals / 289
In Sanskrit Vama means the left and Dakshina means the right. A woman in tantra is called Vama because her position is always on the left side of her man. This fact is seen in all the images and pictures of couples of deities like Rama and Sita, Shiva and Parvati, Vishnu and Laxmi, and so on. Thus Vamachara is that sect of tantra in which a Vama or woman takes part in the rituals, especially in sexual intercourse as a part of the tantric rites.
Virachara is the tantric sadhana followed by the vira sadhakas. Vira means a warrior. In tantra it means a sadhaka who has conquerred his senses. He is not swayed away by lust and other passions. He is a fit person to do tantric sadhana with the five 'm' s, because internally he has reached a highly developed peaceful state which can not be disturbed by the use of wine or woman.
Kaulachara means the way of practice of the Kaula sadhakas. Kula in tantra means the female sex organ, which is called yoni or trikona. An esoteric meaning of the term 'kula' is the seat of the divine power 'kundalini' i. e., the mooladhara lotus situated between the anus and the genital organ. Akula, in this context, means Lord Shiva located in the sahasrara-chakra. Thus a kaula is one who achieves a union of Shiva and Shakti. Panchatattva sadhana, according to this interpretation, is meant for arousing the dormant power called Kundalini
The word 'latasadhana' indicates the form of tantric worship in which a woman lies down like a creeper (lata) or embraces the male worshipper in sexual act as a part of sadhana.
The panchatattva worship is based on the principle that poison is the antidote for poison. This is a very sound principle which has been largely used in medicine. Tantra seeks to achieve liberation or emancipation through those very things which are considered harmful for it. Food and sex are the two most important sources of deriving enjoyment and pleasure in life. Most of our thoughts and activities are primarily influenced by these two basic desires. If these two desires remain unfulfilled then there can be no peace in life. Rather most of our tensions and conflicts in life issue from the unfulfillment of these two basic urges.
One way of coming out of the influence of these desires is to negate them, to deny any expression to them, and to train the mind to do away with them. But for most of us this proves to be an impossibility. It is not at all possible to remove these desires from the mind simply by starving the sense organs. Tantra does not recommend this way. It believes both in bhukti, i. e., enjoyment, and mukti or emancipation, It shows how one can attain mukti with the use of those very things which are supposed to come in the way of mukti. Of course, it does not advocate libertinism, and it does not recommend this way to the ordinary sadhakas of tantra. On the contrary,
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तब हो सके
आश्वस्त जन
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andonder
पंचम खण्ड / २९०
the tantra has mentioned great caution to be exercised in the worship with wine and woman, and has fixed a very strict standard of eligibility for the Panchatattva sadhakas. In actual practice these standards and cautions were neglected by the followers of tantra and this highly specialised sadhana was put to a great misuse. Actually, the way of tantra was to satisfy the desires completely and once for all through enjoyment as a part of worship, and not through running away from enjoyment. It was a way of going from maithuna to the divine union of Shiva and Shakti.
It is very important to remember that when tantra advocates the use of wine, meat, and sex as a part of ritual and sadhana, it clearly demands a very high degree of vairagya from the sadhaka. Panchatattva sadhana was never prescribed for the one whose mind was not under control. If a sadhaka practised panchatattva worship with any desire for sensual pleasure, then strict punishment was recommended. For instance, it is said as follows in the Kularnava tantra (II. 122.):-"If a kaula sadhaka drinks wine out of desire for enjoyment, then boiling hot wine should be poured into his mouth as a punishment. This will be a corrective treatment for his sin".
There are hundreds of instances in the important tantra works like the Tantrasara, Mahanirvanatantra, Tantrarajatantra, Rudrayamala, Gandhrvatantra, and so on, where detailed instructions are given about the attitude with which worship is to be done in the panchatattva sadhana, about the restrictions on drinking wine and under-going sexual union, and about the general behaviour of the participants. If these instructions would have been followed by all the sadhakas, than tantric sadhana could have become the mainnspring of all the spiritual endeavours of mankind. But it seems that the lofty ideals of the ancient masters of tantra were forgotten by the lesser followers and therefore a great shastra came into disrepute. It may be hoped that with a proper understanding of the principles of tantra its practices may be revived with care and caution. Such a revival would certainly be very worthwhile and useful.
-Head of the Deptt. of Yogic Studies University of Sagar, Sagar (M. P.), 470 001
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Therapeutic Application of Yoga Techniques
Dr. M. V. Bhole
Because of the psycho-physiological nature of yoga techniques they could be employed in the management of psychosomatic diseases and stress disorders. It should be very well remembered that originally yoga was never developed as a system of therapy in the real sense of the term and Ayurveda was dealing with this aspect. Ayurveda and yoga had developed hand-in-band for years together which only shows their complimentary rather competitive nature and which seems to be the truth.
Even though there are many diseases on record, they could be broadly classified as follows for the purpose of yogic therapy. 1. Those predominently related with (a) byper functioning or (b) hypo fun
ctioning of the nervous system. 2. Those predominently related with (a) emotions and (b) intellect of the
individual, and Certain types of endocrinal and metabolic disorders. It may be noted that disorders due to nutritional, infections, accidental, organic, structural and ecological factors are out of reach for yoga techniques described so for.
If one will refer to books on yoga therapy recommended for different conditions, certain common factors will come to light. It is intended to refer to these guiding principles behind yogic therapy instead of giving a diseasewise prescription of yoga techniques, even though knowing very well that the latter will be most appealing for any interested person. In fact therapy is an art which requires individualisation and it differs from games, sports and parade programme which can be streamlined for execution with least concern for its practicants.
If one will review various prescriptions of yoga therapy, one will be able to find out certain common factors as detailed below. According to individual case, modifications are made in these factors by different therapists and further modifications are made according to the reactions, responses and feelings of the patients themselves.
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अर्चनार्चन
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Guiding Principles of Yoga Therapy
1. Relaxation-Every psychosomatic and functional disorder is an outcome of some stress which results in mental tensions, excessive stimulation or inhibition of the nervous system affecting tone, posture and equilibrium along with disturbances of visceral and endocrinal functions, value system and attitude of the patient to one's life situation.
Therefore, training in physical and mental relaxation is a must for all types of psychosomatic disorders amenable to Yoga therapy. Shavasana and Makarasana are the two important relaxation asanas in vogue to-day.
The important steps to follow and observe are summarised below. (i) Most comfortable and suitable position of the body where gravitational influences would be minimum and which will be most conducive to relaxation.
(ii) To develop an ability to feel tensions operating in different parts of the body and to release them by making suitable adjustments at gross or subtle level and to learn how the tensions get released in the longer run.
(iii) a. To become aware of one's own breathing in the region of the umbilicus and gradually allow the breathing experience-cumawareness to spread to thorax and other parts of the body.
b. To feel breathing activity in the region of the back which is possible as muscles of the vertebral column relax.
In due course of time one can experience an expansion of abdomen and thorax in all dimensions during inspiration and reduction in the size of these cavities from all directions during expiration.
c. With some practice one can feel inflation and deflation all over the body which is synchronous with breathing.
(iv) To feel the touch of air within the nostrils and to remain aware of the same and even get guided by these sensations within the body. These could be either warmth and cold, touch, pressure, volume changes or flows.
(v) To observe various thoughts and/or thought processes coming to one's own mind in a passive manner to learn not to supress them nor to get involved and lost in them.
(vi) To change the awareness from i to v given above in a cyclic way or in a randomised fashion taking care not to fall asleep, but to remain awake.
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With some practice one will be able to relax in other positions of the body also. In advanced stages patients would be made to bring back to memory various associations related to different parts of the body and to work out the causes for those associations. This should be done cautiously even by an experienced therapist knowing the repurcussions of activating associated memories and thoughts and that too, only after dealing with oneself with some success.
Asanas for Tackling and Correcting Postural Substrate
2. Most of the cultural asanas described in different books could be
used to tackle and correct the postural substrate of the individual and thus bring about a change at the psychological level through pro-prioceptive feed back. The theme as been presented in Fig. 1.
Breathing in Asanas to Tackle Muscle Tone and Functioning of the Nervous System
3. If the muscles of the body are hypotonic, then it is better to ask the
patient to practice asanas after deep inhalation and holding the breath inside during the maintenance of asana. On the other hand if the muscles are hypertonic, then it is advantageous to exhale and hold the breath out during the practice of asanas. As one can not hold the breath for a long time, one could have a number of breaths with breath holding, either after inspiration or expiration, as the case may be. In normal conditions one could continue with natural breathing in every asana.
Sequential Practices
4. Sequential practices like Surya-namaskaras have been found to be
useful for those patients who have obsessions and fixations. Changing asanas one after the other will help to break the tendency of the mind to remain fixed to one thing. This will work if the individual could remain aware of what one is doing and what is happening during any sequential technique.
Condition of the Eyes
5. If the patient shows tendency to go within, then keeping the
eyes open during the whole session of yoga practices proves useful. On the other hand if one feels that the mind of the patient wonders out-side the body, then keeping the eyes closed and feeling of the touch of air within the nostrils proves beneficial.
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Cleansing Processes (Kriyas)
6. Cleansing processes (Kriyas) are very important in the treatment of many functional disorders. It should be remembered that these kriyas have direct influence on the autonomic nervous system and attitude and value system of the patient. The effect of these techniques could be slow in onset in many cases but when it starts, the results are marvellous. Kriyas are expected to influence endocrines and metabolic pathways in a subtler manner.
अर्चनार्चन
Pranayama
7. Pranayama is very useful tool in yogic therapy provided one can
really go to the level of pranic activity in the body. Otherwise, most of us remain on the level of learning to manipulate breathing only. Even this has tremendous benefits as the whole function of the brain (both voluntary and involuntary) gets modified. Regularised systematic breathing helps one to regularise various physiolo
gical and psychological functions in due course of time.
As referred above, individual considerations become important even though one can easily start with Anuloma-Viloma and Ujjayi Pranayama with advantage and without the fear of any unwanted side reactions. Other types of pranayamas can also be learned and utilised according to individual reactions, responses and feelings.
It is advisable and rewarding to refrain from breath-bolding (technically called as Kumbhaka) in the initial period. In the light of inner feelings one can gradually progress with Antar-Kumbhaka or Bahya-Kumbhaka as the case may be.
Individuals with agitated nervous system or weak nerves will get benefited by "Rechaka Pranayama' while those with inhibitions will be helped through 'Antar-Kumbhaka' in Pranayama.
A session of suitable cleansing processes (Kriyas) before pranayama has been seen to give better results.
In the same way a session of asanas ending in a good practice of Shavasana (i. e. relaxation after release of tensions) will prove of immense help before switching over to pranayama.
Dietary Moderations and Modifications
8. Dietary moderations and modifications are useful and essential in
most of the conditions. Ayurveda mentions that with proper diet, no disease will arise and without the observation of dietary conside
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The same holds good for
rations no medicine will work effectively. yoga techniques too.
Mental Tensions and Meditation
Through pranayamas and asanas one is expected to develop some inner experiences while the tensions manifesting at the gross level are being tackled and released. At this stage one can become aware of the mental tensions and conficts etc. If the individual gets proper guidance. This can create a turbulance in the individual because there is something like confrontation taking place within oneself and the individual could become hyper-sensitive for some period. We could call this as the most critical phase or period in yogic therapy of psycho-somatic disorders. Very often people do not reach this state as they remain on the physical aspects of asanas and some breathing manipulations under the name of pranayama. But if an individual could come upto this level, and if one bas a good yoga teacher-cum-therapist, then the possibility of getting a permanent cure for ones suffering is in the foreground. One has to continue with one's practices. But now the nature of practices has to change and one has to switch over to medicational techniques.
Going into Meditative or Reflective Mood
10. Going into meditative or reflective mood will unfold the causes or
causative factors of one's own sufferings and one way then be inspired to change one's life style, value system and attitude to life situations in order to remain contended, healthy, happy and satisfied. At this stage one realises the importance of Yamas and Niyamas as advocated for a yoga practicant in comparison to the similar precepts and practices emphasised for good social and moral behaviour in the educational system. The former is deve
loped from within while the latter is imposed from outside. Some Important Psycho-Somatic Disorders and Suggested Plan of Vogic Therapy 11. (i) Hypertension : Relaxation is the basic practice. Recognising
the source of tensions and releasing them can give permanant relief. Most of the time one tries to block the tensions from being manifested in the form of high B. P. Therefore, even though B. P. gives normal or low values, the tensions are still operating. If one realises this fact; one will be able to appreciate the importance of yogic approach which requires long
journey rather than a short cut, Dietary reformations are already emphasised. Other asapas and Pranayamas are useful as tonics.
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TASR
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अर्चनार्चन
Dr. Datey and Dr. Chandra Patel have established the utility of relaxation in the management of hypertension through their clinical work.
(Ref. : 1. Datey, K. K. et al Shavasana, Yogic exercise in the management of hypertension. Angilogy 20, 325, 1969).
(ii) Rehabilitation after heart attack and Myocardial infraction :
Relaxation, changing one's attitudes to life situations, practice of asanas based on the principle of 'exercise without exertion' and taking to pranayama as a technique to understand and manipulate the functioning of the involuntary nervous system could be practised with advantage after beart attack and by patients with myocardial infraction and ischaemic heart disease. Work of Dr. Tulpule has shown significant results in this area. (Ref. 1. Tulpule, T. H., and Tulpule, A. T.-Yoga a method of relaxation for rehabilitation after myocardial infraction, Ind. Heart Journal, 32 : 1980).
2. Tulpule, T. H. et. al.-Yogic exercises in the management of ischaemic heart disease, Ind. Heart Journal, 23:4:
1971,) (iii) Bronchial Asthma—The treatment could be started with suitable
cleansing processes like neti, dhauti, kapalabhati, shankbaprakshalana, agnisara during attack free condition. This should be coupled with pranayama, relaxation and corrective asanas. Infections etc. should be treated by suitable medicaments. If the attack has set-in, then it is advisable to switch over to medicines. Work of Dr. Bhole and others at Kaivalyadbama, Lonavla have proved the efficacy of yogic techniques in the management of bronchial asthma. (Ref. Bhole, M. V. et al. --Rationale of Treatment and rahabilitation of asthmatics by yogic methods, Collected Papers on Yoga published by Kaivalyadbama, Lonavla, 1975. Bhole, M, V. et al.-Various scientific articles on this subject published in Yoga
Mimamsa, Vol. 20, No. 3 & 4). (iv) Diabetes-Obese type of patients can very well start with diffe
rent asanas, cleansing processes, bhastrika and relaxation. While lean and thin type of patients should start with relaxation and pranayama. They should practice asanas in a very relaxed manner.
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Works by Drs. T. H. Tulpule, Divekar, and Mahmood in this field are encouraging. (Ref. 1. Tulpule, T. H.-Yogic exercises and diabetes mellitus, Madhumeha-Jour. of Diab. Asso. India, Vol, 17, April, 1977.)
2. Mehmood, U.-Yoga and Diabetes, Department of Medicine and Diabetology, Goyt. Stanley Hospital, Madras. (Personal communication).
3. Divekar, M. V. and Mulla, A. T.-Effect of Yoga therapy in Diabetes and obsesity. Clinical Diabetes update-1981.
Published by Diabetic Association of India. () Constipation-Drinking lukewarm water with salt (0.9% saline)
till the stomach is moderately full before starting asanas and to continue drinking a glass or half-a-glass of luke-warm salt water will help to stimulate peristaltic action in the intestines and colon. In the beginning, one may not get a motion immediately after the session of asanas. Gradually this period will start coming nearer to the asana session and afterwards one could get a motion even before the session. One will have to continue with it till the old habit is broken and new habit is established.
Other practices will have its importance.
The work by Swami Kuvalayananda on the influence of Yoga techniques on the position of colon and colon contents is important in this regard.
(Ref. 1. Kuvalayananda--Basti or Yogic flushing of the colon; Cecal constipation, position of colon during Nauli; Distribution of colon contents during Nauli-All articles published in Yoga Mimamsa Vol. I to III : 1924-26).
2. Parandekar, M.M.-Constipation-Its causes and cure. Yoga Mimamsa. Vol. IV, 1933. (vi) Sinusitis, Headaches : The main practices for this trouble are
peti kriya of various kinds; Kapalabhati and Anuloma-Viloma Pranayama. The work of Kaivalyadhama Yogic Health Centre at Bombay has shown that this trouble could be tackled very effectively through Yoga education.
(Ref. Bhole, M.V.--Yogic Treatment of Chronic Rhinitis and Sinusitis, Maharashtra Medical Jour. Vol. 17, No. 8, 1970). (vii) Hyperacidity and Bilicusness : One could very well start with
dhoutis, and switch over to relaxation and meditation to workout with the tensions which could be very deep-seated indeed.
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In case of emergency like getting a heart burn or an inability to go to sleep due to stomach disturbance, it is advisable to practice vamana dhauti even after a full meal (technically called as ‘Bbagi') till one gets relief. This practice will only remove excess of acid from the stomach. It may not correct the secretory pattern of the stomach glands for which other practices will be useful.
The work of Dr. S. L. Vinekar in the psycho-physiotherapy unit of K.E.M. Hospital, Bombay in collaboration with Dr. Wahia and others had given positive results in their first clinical trial with laboratory investigations. Patients of peptic
ulcers had also shown improvement. (viii) Cervical Spondylitis : Apart from training in relaxation; Brahma
Mudra; Jivha Bandha and Simha Mudra have been found to be very effective in tackling this condition. Vakrasana in supine condition and asanas working on the lumber region are also
useful. (ix) Slip Disc : Bhujangasna, Shalabhasana, Dhanurasana are the
main asanas along with relaxation. Even though forward bending asanas like Paschimottanasana are contra-indicated, it could be done with advantage under the guidance of an expert knowing the difference between asanas and exercises. As the asanas are invariably practised as exercises; it is better to avoid
forward bending asanas as a rule of the thumb. (x) Obesity : Apart from cleansing processes, Bhastrika Pranayama
and asanas to increase overall metabolism and induce some corrective mechanisms in the body, relaxation and meditational practices aiming at increasing the level and intensity of satisfaction arising from within has more lasting effect on the control of this problem.
Works of Drs. M. L. Gharote and Divekar give enough evidence in this regard.
(Ref. 1. Gharote, M. L.-An evaluation of the effects of Yogic Treatment on Obesity --A Report, Yoga Mimamsa, Vol. 19, 1: 1977).
2. Divekar, M. V. and Mulla, A. T.-Effect of Yogic Therapy in diabetes and Obesity-Clinical Diabetes update, 1981. (xi) Rehumatic Arthritis : Various asanas working on the affected
joints and other joints of the body should be done in a progressive manner i.e. from simple to difficult and stress should be
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given on maintaining the position in a relaxed manner for some time where one feels some stretching and bearable pain.
The acute conditions, however, one should resort to medical treatment.
Cleansing processes will have immense utility but they will take some time to show their effect.
Dr. Marwah's work on Yoga and collagen tissue disorders at Medical College Hospital, Nagpur has given encouraging.
results in this respect, (Personal communication). (xii) Psychological Condition : In depression various sequential prac
tices during inhalation or breath holding after inhalation; cleansing processes and suitable asanas to correct postural substrate should be gone through under the guidance of the Yoga therapist.
In agitational states, on the other hand, relaxation, Anuloma-Viloma and Ujjayi and cleansing processes with suitable corrective asanas should prove useful if practised under proper guidance.
Some work on cases of neurosis and ASQ and NSQ studies by workers like Dr. Bhole et al. are good pointers in this field.
(Ref. 1. Bhole, M. V.- Viscero-emotional training and reeducation through asadas, Yoga Mimamsa, Vol. 19, 1-3, 44-51, 1977-78).
2. Oak. J. P., and Bhole, M. V.-ASQ and NSQ studies in asthmatics-- Yaga Mimamsa, Vol. 20, No. 3 & 4, 1981.
3, Idem-Direction of change in value system in asthmatics, Ibid, Vol. 20, Nos. 3 & 4, 1981.) (xii) Pregnancy : In fact pregnancy is not at all a disease, still then
now-a-days people want some special guidance for it. Yoga practices should suit the nature of various psycho-physiological changes taking place during pregnancy.
In the first trimester (1st to 3rd month) routine of simple asanas with breathing could be continued without jerks. If there is nausea and vomiting, vaman dhauti of a mild type could be practiced.
In second trimester (4th to 6th months) mild Uddiyana; mild agnisara, pranayamic breathing and relaxation could prove useful along with simple asanas.
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Barda
In third trimester (7th to 9th months) very mild Uddiyana, Pranayama without Kumbbaka and awareness of one's breath
ing with simple asanas involving leg movements will be useful. (xiv) After delivery : One can start with Aswini mudra for assisting
the process of involution; Uddiyana mudra and awareness of breathing would prove useful along with simple asanas of different nature.
Apart from instructions from the yoga teacher, one's own inner feelings and responses should also be taken into consideration to finalise the nature of yogic treatment programme
by the patient. (xv) For Children-To Increase Height : Almost all the cultural
postures help to increase height. Dr. K. V. Panse from Poona is routinely treating such cases through suitable diet and yoga
practices. (xvi) Cerebral Palsy : Children have shown good response to sequen
tial type of yogasana in a study by Mr. M. G. Mokashi at the All India Institute of Physical Medicine and Rehabilitation, Bombay.
(Ref. Mokashi, M. G.-Yogasanas as key postures in Cere
bral Palsy. Jour. Ind. Asso. of Physiotherapists, 1974). (xvii) Old Age Problems : It could be tackled by suitable yoga techni
ques. Dr. Tulpule, et. al. are working in this area in Bombay after their studies on the effects of Yogic exercises on middle aged men. (Ref. Gogate, A. N. and Tulpule, T. H.-Cardio-respiratory, metabolic and harmonal changes in middle aged men following yogic exercises. Maharashtra Medical Jour., Vol. 25, No. 6,
Nov. 1978). (xviii) Physical Fitness : Minimum muscular fitness and autonomic
balance in school going children was seen to improve significantly through Yoga training programme. (Ref. Gharote, M.L.-Effect of Yogic training Physical Fit
ness. Yoga Mimamsa, Vol. XV, No. 4 ; 31-35, 1973.) (xix) Cholesterol Problem : There are number of reports about the
beneficial influence of Yoga practices on blood cholesterol which
is creating lot of health problems today. It is not intended to give a long list of diseases which can be treated through suitable yoga techniques but the examples with references cited above
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should be able to convince an enquiring mind about the efficacy and utility of these techniques in the management of various functional disorders of psycho-somatic nature. Clinical work is in progress in various medical and yogic centres in and out of India. Some of the important source material is as follows ;
1. Bihar School of Yoga, Monghyr-Management of Asthma, Hyper
tension, Obesity and Diabetes by Yoga. K. N. Udupa-Yoga and Stress Disorders-Banaras Hindu Uni
versity, Varanasi. 3. Kuvalayananda and Vinekar-Yogic Therapy : its basic Principles
and Methods-Central Health Education Bureau, Ministry of
Health, New Delhi. 4. Bhole, M. V.—Yoga and Promotion of Primary Health Care,
Yoga Mimamsa, 22, 1983.
-Joint Director of Research, Kaivalyadhama S. M. Y. M. Samiti,
(Distt. Pune)-410 403. Lonavla
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Yoga and Ayurveda
Dr. R. V. Ranade, M. D.
Introduction
Vaidya P. L. Lavgankar, the founder of Yoga Vidya Dham, Pune, was a great expert of both Yoga and Ayurveda. He always insisted that knowledge of both these sciences is essential for anybody who wants to practise, preach or teach Yoga. He was a Nádi-Vaidya who could dignose any disorder by Nadi-Pariksā (examination of the pulse). Regarding this, he used to say that one who has studied yoga and especially prādāyāma for a sufficiently long period can venture to master the art of Nādi-Pariksa.
Fortunately, to-day both Yoga and Ayurveda are receiving greater attention as valuable and useful ways of preventing and curing many disorders, especially where the modern medicine fails.
Yoga and Ayurveda are two important branches of ancient Indian science. Science and philosophy have always remained inseperable in the tradition of ancient Indian thinkers. The main object of all this thinking has been to attain a state which is completely free from the clutches of misery and sorrow. Yoga & Ayurveda are two such disciplines which help to fulfil this difficult task in their own ways. It is therefore interesting to note the points of comparison between these two sciences.
History and Origin
According to our traditional belief, all the ancient arts and sciences in this universe have been created by God-the almighty, for the welfare of human beings. The origin of Yoga can be traced to Lord Siva as clearly mentioned in Hathayoga pradipikā.
श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या । I salute the primeval God (Siva), who taught (Parvati) the Hathayogavidya.' In Siva-samhita, God Siva states.
अथ भक्तानुरक्तोऽहं वक्ष्ये योगानुशासनम् । 'I am teaching this Yoga to those who love me.'
Yoga also plays important part in the life of God Ramachandra as well as God Krishna. The work Yogavasiştha consists of the yogic teachings by Guru
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Yoga and Ayurveda / 303
Vasiştha to Ramachandra, while God Krishna taught the yogic philosophy of life to Arjuna through Bhagvadgita. Vedas are believed to be apouruşeya (i. e. not created by humans), and are said to be created by Gods. Rigveda, the oldest of the Vedas, in its Munivarnanasukta mentions about Munis (sages) who could easily travel anywhere in the universe due to the siddhis (powers) achieved tbrough the practice of prānāyāma. The Upanişads are considered as the Vendānta or the terminal part of the Vedās. Many of them, and mainly twelve out of them are considered as Yoga-Upanişads. Jābāla darsana, sandilya and Nādabindu are the three prominent once among them.
The history of Ayurveda dates back to God Brahmadeva who created Ayurveda (the science of life). Çarakasambitä mentions that he constructed Ayurveda consisting of one lack slokas (stanzas). Dakşaprajāpati obtained this knowledge and taught it to Aşvin ikumars--the two physicians to Gods. God Indra further transferred it to Dhanvantari. Susruta and Bhoja were his disciples who specialized in the Surgical branch, while Bbāradvāja or AtreyaPunarvasu handed over the knowledge pertaining to the branch of Medicine to his six disciples. The knowledge regarding the branch of paediatric Medicine (Kaumar-Bhritya-Tantra) was mastered by Kāsyapa, Vasiştba and others. Rigveda mentions many therapeutic skills of the Aşvinikumars. It also includes anatomical descriptions of liver and spleen, and a clear mention about the three dosas viz. Kapha (phlegm), Vāta (wind), and Pitta (bile or fire), and some details regarding a few medicinal plants. The period of Rigveda is considered to be 4,000 to 6,000 years B. C. Atharvaveda includes many references to the various aspects of Ayurveda, covering the Tridoşa theory, the physiology of digestion of food, formation of urine, spermatogenesis and others. A detailed account of the signs and symptoms of diseases, of some disease-producing micro-organisms, and different ways of treatment including the use of herbs, chemicals, surgical methods and Bhuta-vidya (Demonology), is to be found in Atharvaveda. It is rightly said, therefore, that Ayurveda is an Upa-veda (branch) of Atharvaveda.
It is a pleasant surprise to find a common link between Yoga and Ayurveda in the history. Agniveşatantra, a basic work on Ayurveda was created in or round about the year 1000 B. C. Based on the study of this work and on his own experiences, Çaraka wrote Caraka-samahita in later years. The great grammarian pānini also belongs to the same period. Patajali is also considered to be a contemporary scholar. He collected the old writings from the Vedic and Upanişadic literature, framed them into Yoga-Sutras and provided them with a background of Samkhya philosophy. All these three persons are believed to be one person by the students of history. The
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पंचम खण्ड / ३०४ similarity in the style of writing of these three persons is one of the factors to support this opinion.
Basic principles
There is a great similarity in the basic principles of these two sciences. Both of them aim at the freedom from the clutches of sorrow and misery of this world, by obtaining total physical and mental health. Patanjali in his Yoga sutras defines Yoga as follows
योग: चित्तवृत्तिनिरोधः । Yoga is the restraint of mental operations.' Swāmi Vivekānanda has explained this statement in a simple manner. “When the waves die out and the water becomes still, we can clearly peep into its depths. Similarly, when the mind becomes steady due to the resfraint of mental activities, we can clearly visualise our own self. This is nothing but maintaining our mental and physical health.” Patanjali, while discussing every aspect of Yoga, has laid stress on the steadiness of mind. The sutra regarding Asana (posture) reads as follows :
स्थिरसुखंगासनम् । *The posture should be steady and also pleasurable to the mind.' This explains the link between the steadiness of the body and the happiness of the mind.
Ayurveda also does not seperate mind from body. Çaraka-samhita states :
__ शरीरं हि मनः अनुविधीयते मनश्चशरीरम् । The body follows the mind and the mind follows the body.' Naturally, a healthy mind and a healthy body go together. Ayurveda de health in the following manner :
समदोष-समाग्निश्च, समधातू-मलक्तियः ।
प्रसन्नात्मेन्द्रिमनाः स्वस्थ इति अभिधीयते ।। "He is to be called healthy whose three dosas (humours) are in equilibrium, (all the thirteen) agnis (fires) are well balanced, (seven) dhātus (elements are in equilibrium, and the excretory functions are in good harmony, and whose soul, sensory organs and mind are cheerful.'
The section on Maintenance of health' or Swasthavritta from Ayurveda lays stress on dedication to God, wishing welfare to everybody, always performing good deeds and keeping away from violence and theft. Yoga prescribes yamas or the rules of social discipline, viz. Ahimsa (non-violence), Satya (truthfulness), Asteya (abstaining from stealing), Brahmaçarya (sexual
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continence), Aparigraha (absence of greediness), and Niyamas or the laws of personal behaviour, viz. Souça (purity and cleanliness of body and mind), samtoşa (contentment) Tapa (austerity or penance), Swadhyaya (self study), Iswarapraạidhāna (dedication to God). The similarity in the way for a good mental health as suggested by these two sciences is highly significant.
Anatomy and Physiology
Prāna' is a unique entity which has been given the atmost importance in Yoga and Ayurveda. Surprisingly there is no reference to a similar element in the Modern Western Medicine.
The description of human body and its mechanisms as mentioned in Yoga is rather mystic, is based on experiences of the higher Yogic practices and can not be easily varified by the dissection of human body. In the work Vivekacudāmani, Sri Sankarācārya has described human body to arise from pança mahabhutas (the five principles of the universe) viz. Prithvi (earth), Āpa (water), Teja (fire). Vāyu (air), Ākāşa (sky, ether). The body consists of a sthoola deha (Macro body) and a sukṣma deha (Micro body). The sthoola deha is called Annamaya koşa ( a unit arising from food), while the sukşma deba has three units of koşas, viz. Prānamaya (consisting of the life-force), Manomaya (consisting of the mind), and Vijñanamaya (consisting of knowldege). There are five sensory organs (pança jñanedriya), five motor organs (pança karmendriya), five prānās, and also Mana (mind) and Buddhi (intelligence). Prāna is an invisible force that flows through Nadis and Çakras-Nadis are channels that help the body to perform various functions with the help of prāna. The Nādis are innumerable, but most of the texts mention a figure of seventy two thousand. They arise from a centre near the umbilicus. Fourteen major nadis are described, three out of them are more important, viz. Idā, Pinagalā and suşumnā. According to the modern thought Idā and pingalā represent the autonomic nervous system. The çakras are power-stations or relay-stations situated along the suşumnā or the principal nadi. The modern scientists equate the suşumnā with the spinal cord, and the çakras with different nerve plexuses or endocrine glands. The number of çakras mentioned in different texts is variable. Generally, they are consindered to be seven, viz. Muladhara, Swadhisthāna, Manipura, Anähata, Vişudha, Adya, Sahasrāra, but four more, viz. Lalanā, Manasa or Surya, Soma and Bindu are also described. The Cakras are connected with Prāna and their sensations can be experienced during certain prāvāyāmic procedures by Yogis of a high order. They are supposed to control various physical activities through the agency of mind.
Yoga vasiştha states that the body is made of pança mahabhutas and all the functions are carried out by the Kundalini şakti (power) which is
आसमस्थ तन TAPE AO तब हो सके HRA for
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situated in the Suşumna Dadi, and which is characterised by Spanda (vibrations), Sparsa (touch), and Sambit (consciousness). It vibrates through the five pranas and manifests in various Kalas (phases) viz. Çitta, Jiva, Manasa, Samkalpa, Abamkāra, and Buddhi.
अनार्चन
The anatomy of Ayurveda is more definite as it is based on observations made during the dissections of human body and the various surgical procedures. This science also considers the body to be arising from the pança mahabhutas, from which Sapta dhatus (seven elements), viz. Rasa, (lymph), Rakta (blood), Mansa (muscle), Meda (fat), Asthi (bone), Maija (marrow), and Şukra (sperm), are formed, from which the body is constructed. The five pranas, viz. prāņā, apāna, udāna, samāna and vyāna. help the circulation and digestion of food, and it is transformed into the seven elem. ents. The humours Kapha, Vata and Pitta are instrumental in this meta. bolic process. Thus th anatomy and physiology of Ayurveda is on a simpler plane.
Pathogenesis or origin of disease
The modern medicine is laying greater stress on the mind as an important factor in the causation of disease, and to-day more and more disorders are being included under the heading 'Pschycho-somatic.' They include High blood pressure, Heart disease, Diabetes, Asthma, sleeplessness, constipation, spondylosis and many others. In fact, it is now realised that most of the disorders arise from the increasing stress and strain of modern life, which hasten the process of ageing. Yoga and Ayurveda are the only therapeutic sciences that can delay ageing and can keep you young in mind and body.
Yogavasiştha states, that the loss of tranquility of mind (fitta-vaidhurya) leads to the unsteadyness of body mechanisms (Deha-samkşobha). This disturbs the equilibrium of prānas (prāna-vaisamya). It affects the function of Nādis and creates a defect in the process of digestion or metabolism (Annadusta). This results into the imbalance of the three dosas (Dosa-duşti) and it culminates into a disease.
The pathogenesis in Ayurveda as stated by Caraka is similar. Atatvadnyana (loss of real knowledge) leads to the lack of control of the sense organs. Thus, one is likely to fall a pray to Moha (temptation), and pramada (mistakes). This leads to the loss of natural lightness (Laghutra of the body), and the loss of ease in the usual mechanisms of the body. This causes disturbance in the function of nadis, which adversely affects the direction of flow of prānās. This results into the loss of balance of the three dosas, which leads to a disease.
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Treatment and cure
The aim of both the sciences is a Mukti (complete freedom) from Adbi (mental disorder) and Vyâdhi (physical disoder), According to Yoga, the surest way of preventing such disorders lies in the observance of Yama and Niyama (the rules of moral behaviour and discipline). This leads to the path of Rajayoga which would keep the mind tranquil and healthy. As this path is not easy for the common man, Hathayoga comes to our help in the form of various Asanās, different types of prānāyama, Mudras and Bandhas, and six type of sudbikriyās, viz. Kapalbhāti, Dhauti, Nauli, Neti, Basti, and Trătaka. They help to keep the body and mind steady, tranquil and healthy. Hathoyogapradipika states ;
वपुः कृशत्वं वदने प्रसन्नता नाद स्फुटत्वं नयने सुनिर्मले । प्ररोगता बिन्दुजयोऽग्निदीपनं
नाडीविशुद्धिर्हठयोगलक्षणम् ॥ The signs of perfection in Hathayoga are, slimness of body, brightness in the face, manifestation of inner sound (nāda). very clear eyes, freedom from disease, control over the seminal fuid, stimulation of the (metabolic or digestive) fire, and complete purification of the pädis,' Is there anything better that one desires to achieve than these signs of a good physical and mental health ?
How Asanās help to cure various disorders can be seen from this stanza :
हरति सकलरोगानाशु गुल्मोदरादीन भिभवति च दोषानासनं श्रीमयूरम् । बहुकदशन भुक्तं भस्मकुर्यादशेषम्
जनयति जठराग्नि जारयेत् कानकूटम् ॥ *The Mayurāsana cures quickly all diseases like enlarged glands, gastro-intestinal disorders, etc, and overcomes the imbalance of humours. It reduces to ashes (e.i. enables digestion of) all foods indiscriminately taken, stimulates the gastric fire and can help to digest even kālakuta (the most terrible poison.)'
Regarding prāņāyāma, it is stated.
प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत । A proper practice of prānāyāma can control all the diseases.'
Referring to the Sudbikriya (cleansing procedure) Dhauti, it is mentioned.
आसमस्थ तम 3VTCAP A तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड | ३०८
darda
कासश्वासप्लीहकुष्ठ कफरोगाश्च विशतिः
धौतिकर्मप्रभावेण प्रयान्त्येव न संशयः । By the efficacy of Dhauti, bronchial diseases, asthma, splinic disorders leprosy and other skin diseases, and twenty other disorders brought on by phlegm disappear. There is no doubt about this.'
To-day the modern medical world has realised that many disorders can be controlled by Dhyāna (meditation), as can be seen from numerous reports on Transcendental Meditation in the medical literature. In short, almost all disorders can be prevented or controlled by various yogic practices performed under proper expert guidance.
The preventive aspect in Ayurveda is comparable to that in Yoga. In Swasthavritta, the rules of Ābāra (food) and Vibāra (behaviour), and detailed suggestions on Dina-carya (daily routine) and Ritu-çarya (restrictions to be observed in different seasons) are described, the pancakarmas (five cleansing procedures), viz. Basti (enema), Vireçana (purgation), Vamana (induced vomiting), Nasya (nasal irrigation), Raktamoçan (blood letting), are compar. able to the Suddhikriyas of yoga.
Ayurveda considers Pathya or the behaviour on the correct path (patha) more important than the use of drugs. It is clearly mentioned.
किं प्रौषधं निरूपणम् । Why the prescription of drug is needed,' if the proper mode of behaviour (pathya) is followed by an individual, however, whereever necessary, Ayurveda prescribes drugs to suit the disorder, and also to suit the type (Prakruti) of the particular person.
If we follow the principles of Yoga and Ayurveda in our life, it will be easy to ensure total health for all.
'सर्वेऽसुखिना सन्तु सर्वेऽसन्तु निरामय
References
1.
2.
Hathayogapradipika of Swatmarama. Published by the Adyar Library & Research Centre, Adyar, Madras. (1972) Yogic and Tantric Medicine. by O. P. Jaggi. Published by Atmaram & Sons, Delhi. (1973) Indian Systems of Medicine. by O. P. Jaggi Published by Atmaram & Sons, Delbi (1973)
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Yoga and Ayurveda / 309
4. शिव संहिता, प्रकाशक : संस्कृति संस्थान, बरेली. तृतीय संस्करण, (1980) 5. ऋग्वेदसंहिता संपादक : पं. श्री. दा. सातवलेकर
प्रकाशक : स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड) 6. अथर्ववेद संहिता, संपादक : पं. श्री. दा. सातवलेकर
प्रकाशक : स्वाध्याय मण्डल, पारडी (बलसाड) भारतीय मानसशास्त्र अथवा पातंजल योगदर्शन लेखक : डॉ. कृ. के. कोल्हटकर
प्रकाशक : के. भि. ढवल, बम्बई, तृतीय संस्करण (1973) 8. योगवसिष्ठ : प्रकाशक : निर्णयसागर प्रेस (1911) 9. चरकसंहिता
-Yoga Vidyadham 500, Narayan Peth
Pune : 411030
आसमस्थ तम आत्मन्य मम तब हो सके आश्वस्त जम
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Vipashyana and Preksha
Dr. J. R. Joshi
If the term yoga can be taken as a common noun to indicate an ancient Indian meditation, the terms like 'Hatha,' 'Patañjala' etc. may be said to be the proper nouns. Vipashyana also may be included among such particular meditations. This meditation, however, had lost its tradition on Indian soil. Recent events have proved its Indian origin. On the other hand, the continuity of the basic nature of that meditation is now found in preksha. In order to understand the Preksha, therefore, one has to turn to the tradition of the Vipashyana.
Vipashyana is well known among the Buddhists in the countries like Sri Lanka, Thailand, Bangala Desh, Burma, etc. It is also accepted in some other sects like Rajaneeshism. In the present context, however, we are concerned only with the Vipashyana procedure which is handed down through a Burmese tradition. Venerable U Ba kbin received the traditional procedure of Vipashyana wbich might have been acquired by the Burmese monks from those who were originally trained in India. Respected Satyanarayan Goenka is one of the direct disciples of U Ba Khin, The later has formed the present Institutionalised expression of the Vipashyana procedure. U Ba Khin, in a way, is responsible for the reincarnation of Vipashyana. Shri Goenkaji further institutionalised it in such a way so as to fit it in the Indian setting.
While tracing this journey of the Vipashyana, one has to note that the outward loss of the teachniques like Vipashyana does not prove their complete non-existance. Even in India, in some Buddhist monastery, monks may be knowing and preserving the practice of Vipashyana, without making it known to the 'non-bhikkhu-'s. Such an esoteric practice is, of course, out of the scope of the present consideration. U Ba Khin and Goenkaji made Vipashyana open for non-Buddhist also. In other words, Vipashyana, like any other ancient Indian yoga system, became free from a cultish conditionso free that any other religious cult can freely accept it (even non-religious meditational techniques). Goenkaji has added another aspect to the tradition of Vipashyana, namely, he encouraged the production of literature in Indian languages so as to explain the procedure and profits of that meditation. This view itself is at the root of the research and development of Vipashyana, And here lies the seed of Preksha also.
About ten Jain munis and twenty-two Jain nuns participated in the Vipashyana course organized at Bhadreswar in 1973. Since then Vipashyana
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Vipashyana and Preksha / 311
was spreading more and more amongst the Jains. Açarya Tulsi arranged special Vipashyana camps led by Goenkaji at Delhi and Ladnu for the monks. and nuns of his own Sangha. Further his chief disciple Yuvaçarya Mahapragya (Muni Nathmal) started teaching Vipashyana by giving it a new name of Preksha 1.
'Vipashyana' and 'Preksha' are the popular spellings of the Sanskrit. words vipalyana and preksă respectively. It is well-known that the influence of Sanskrit is a special mark of the later phases of Jainism as well as Buddhism. Those later phases developed the philosophical and other literature in Sanskrit. The meditational technique, however, did not produce any formula or hand book in Sanskrit. Does this indicate that, during the period, Vipashyana was being preserved only in the region where influence of Sanskrit was absent? Whatever may be the reason, in the Burmese tradition, the Vipashyana meditation is centred round the Pali word vipassană. and not the Sanskrit word vipasyana. To find out the Jain expression of Vipashyana, therefore, we have to turn to Ardhamagadhi, another Mid-Indian language, like pali, and not to Sanskrit.
So, if one has to search for the Jain origin of Vipashyana, he should turn to the Ardhamagadhi literature, and to not the Jain Sanskrit one, though Yuvaçarya Mahapragya has preferred the Sanskrit term preksa. It would have been better if Venerable Mahapragya would have chosen some Ardhamagadhi equivalent for the Pali term vipassana. Discovery of Ardhamagadhi equivalent of Pali. Vipassana would definitely lead to the better understanding of the original nature of the process of Vipashyana, because, in the words of Yuvacarya Mahapragya, the Jains have the fundamental theories of Vipassana, but the practice is lost. These fundamentals belp us to estimate that at some time this technique was practised by the Jains. It is a fact that Bhagawan Mahavir used to practise this technique', a
On this background, let us consider the attempts towards the research. in the Jain canon to find out the corresponding expressions for Vipashyana. Ayaro is the foremost scripture of the Jain canon. One who has read it cannot be unacquainted with the word logavipasst. According to Mahapragya, loga or loka means "the body', and vipassi means 'penetrating observer. A meditator is to observe the body. Mahapragya further writes, 'In Ayāranga we have both the words vipassi as well as samprek şä. After practising the technique of Vipassana, I got the opportunity to go deeply into the meaning of both these words, It is not at all amazing that both the streams of same samana tradition had Vipassana or Sampreksha."
Goenkaji construes the Дyaranga sentence as follows:
श्रायतचक्खू atufaqe एस वीरे पसंखिते ।
आसनस्थ तम
મચ્છુ મન तब हो सके มา d 7 Jo
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He comments on this sentence as follows:
The word loga is derived from luj, to destroy. Body, a collection of atoms, is destroyed at each and every moment. And one, who discerns his body, acquires clear insight. Such a person is, indeed, a hero and, therefore, the praiseworthy one",
The full Ayara passage may be quoted as follows:
श्रायतचक्खू लोग विपस्सी लोगस्स हेभागं जाणति, उड्ढं भागं जाणति, तिरियं भागं जाणति, गढिए अणुपरियमाणे संधि विदित्ता इह मच्चिएहि, एस बोरे पसंसिते जे बद्ध
पडिमोए 1
It may be noted that in the place of and we have varient readings लोक० and ग्रहो०.
In can be said that it does not matter if we have not exact word to word correspondance for Vipashyana in Jain Ardhamagadhi canon. Conceptual correspondance also has the equal value. It has been pointed out, for example, that there is a verse in the Uttarajjhayana which says.
A meditator monk who
desires good concentration Needs less food,
but appropriate food, Needs the guidance of
an experienced, wise person needs a suitable
And
पंचम खण्ड / ३१२
and secluded place.
-And, it may be noted that, all these three are readily available in a Vipashyana camp.
In this manner, we can put forth the verbal and conceptual similarities which lead us to the common origin of Preksha and Vipashyana. Semantically also there is not difference. Preksha (as it is popularly spelt) can be said to be an abbreviation of Sanskrit word sampreksa (sam-pra-1ks), where as Vipashyana (as populary spelt) is originally Pali vipassana (vi passa).
391, Narayan Path
4. Avaranga I. ii. 5. 4.
5.
XXXII. 4.
1. See Muni Shri Vinod Chandraji's article, Jain Mumukshus and Vipassana', reprinted in Vipassana Journal, pp. 125-128.
2.
"A Journey into the past with Vipassana', ibid, p. 121.
3. Goenkaji's public discourse, published in Vipassana (Monthly),
year 13, issue 12, p. 2.
Alwani Building Mujaha Lane Pune, 411030
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Guide to a Fuller Life
Dr. Jayadeva Yogendra
We meet with problems and difficulties every day all throughout our life. Some we solve, others remain insoluble. We wonder at times : is there something wanting in our way of growing up and living, that creates so many problems for us?
Indeed the intensity with which we feel at times and the sort of fixation to trivialities that we indulge in, often, has much to do with our predicament. If I was insulted by someone, the feeling of hurt totally occupies my attention. I cannot tear myself apart from this feeling, nor can I look at myself than as others look at me. Not to get too subjectively involved with things and to view situations in a larger perspective is one way out of the situation.
Have we received any training here ? Probably not. Though there is a sort of training and learning when in the hustle bustle of life one tries to keep on proceeding and immunises oneself to the feelings like this feeling of hurt. All this helps and yet one may wish that one did receive some instruction on how not to remain too sensitive and thus vulnerable to external stresses or to keep to some higher kind of a thinking when buffetted by trivial matters.
We live a life that is very limited. It just takes into account our physical person and our psychological self at a very low level. As Alexis Carrel said, we are little Eskimos overprotected, incapable of facing the realities of life. We have grown oversensitive to noise, to climatic changes and a host of allergens. Are we not limiting ourselves in this way from embracing life in its fullness? We are also facing difficulties at the psychological front. A disintegration of our personality is occuring as a result of increasing "double-think" on our part and a host of similar tendencies, We adjust to things without having arrived at a clear understanding of them. We tolerate a lot of injustice, corruption etc., as a stopgap arrangement. We hope and wish that things would be different and better sometime, somewhere, but the Shangrila of our dreams recedes as we advance in age.
The cause of our difficulty is that we refuse to grow up. The journey of man in the external world of unfortunately wholly guided by the physical sciences. His inward journey to explore the consciousness never starts though it could be considerably belped by the science of spirituality.
आसमस्थ तम Taze Rol तब हो सके आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड | ३१४
Is there a learnable techinique to a fuller life? While physical exercises, rituals and such external expressions are not by themselves spiritual, one may yet benefit from them. One may thus gain clarity, set up worth while goals and objectives, take to healthy habits of living, put oneself in certain states of consciousness and create sufficient strength to provide momentum to spiritual urge.
These attempts are possible. One can work at each of these activities like arriving at some clarity, setting up short term targets, organizing life on this basis, cultivating good habits and as a result experiencing positive feelings. The impressions which these wholesome attempts make, foster a kind of passion for self development.
One such programme as detailed below is being worked out at the Yoga Institute, Santacruz, through its short residential courses :
Objectives of a programme for a “Fuller Life". 1. Acceptance of life situations. 2. Arranging priorities of dutjes. 3. Full participation in life. 4. Continuous broadening of our views.
1. Yoga is basically an art of living. In Yoga we learn to accept life as it is. We seek a meaning in it. We create a trust in nature. The larger process of life is good. We should find our place in this process. Let us not sit idle and think negatively. Let us not remain at war with life. We should rather remain involved in the business of living.
(a) What is needed is a good habit of observation and mindfulness. (b) We must examine the more worthwhile experience from the less
meaningful. (c) A disciplined attitude of this kind is the minimum needed.
2. Whether it is arranging priorities or understanding our motivations, a study of our own inner self is a must. How am I related to life ? When we decide on doing a thing do we create a sense of duty ? Do we generally do things half-heartedly? Do we reach levels of efficiency in what we do? Is the work done just for the sake of doing? Do our acts, turn out to be a series of ritual acts? How can one gain an inner grasp of things and avail of an insight that dawns spontaneously?
(a) A study of motivations should be attempted. (b) Understanding of emotional factors that colour our thinking is
necessary. (c) Looking at ourselves as others look at us. (d) Cultivating a code of conduct and routine for oneself.
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Guide to a Fuller Life / 315
3. Sincerity, devotion and duty consciousness, all generate attention and concentration.
(a) Steadiness of mind, in acts undertaken may be cultivated. (b) Growth of more meaning in work undertaken should occur. (c) Subtler changes in level of consciousness should be detected.
4. We should outgrow our limited understanding of ourselves and the world around. Beyond our egoistic thinking is a larger principle of consciousness that finally lends meaning to many of our activities.
(a) Continuous evaluation of our ability to forget our little self. (b) To reach for a direction in life. (c) Coming closer to the larger processes of life may be here
experienced.
We need support to begin our work in self-development. The fullness of life has to be experienced in life situations and in actions. Abstract thinking or reading is not substitute here. In fact, our present sensate culture makes us extorverted. We do accept the existence of things which are beyond our senses. We have therefore to begin with the tangible, the physical, the so-called rational thinking. A code of disciplined conduct is suggested called Yama Niyama.
How to integrate an objective approach to life ? Can we learn to look at things from a slight distance ? One simple way is to look back on events that have occured earlier. It is like looking at yourself in a mirror. One may sit in Vajrasana or any meditation asana, close the eyes and recall incidents that occured earlier. Go into details, preferably chronologically the earlier event first the later event next. This will help in concentration develop good memory any help in creating mindfullness and awareness.
In Yoga a healthy person is considered an individual, who lives in a balanced state of body, mind and soul. This is a fuller life. A healthy person is an individual, whose thoughts and actions have their equivalent in higher values. Fuller life, in a yogic understanding can only be reached through a harmonious way of living. This may imply a total change of our values and round of habits, since it is not primarily the cure of diseases which is important but the prevention of them. Yoga deals with the root cause of our problems.
All illness is originating from a state of imbalance between our physical, mental and spiritual levels. Our diseases are closely related to our understanding of life and the patterns we follow. The more materialistic (in the widest sense of the word) values we cherish, the more we expose ourslves to pain suffering and diseases. The constant struggle for satisfaction of our desires and ambitions leaves us no rest. Our constantly overstrained
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पंचम खण्ड / ३१६
nerves make our body and mind restless and weak, opening all doors to the bad impact of passions and emotions. Just practising Asanas now and then. is not enough. Our healthy daily routines should also contain pranayama, internal and external cleanliness (selected kriyas and body hygiene) small healthy habits, such as taking early morning sun, little strolls after meals etc. Besides all this it is equally important to observe a pure and healthy diet, considering quality and quantity of food taken in, and last but not least. psychosomatic and relaxing practices (conditioning, Savasana, Nispanda bhava etc.). But the most important of all these is the spirit in which they are carried out.
The external world troubles some. They see problems. They see injustice, imperfections and difficulties. Yoga tells us that external things. are neutral and are not the real cause of our suffering. The external world is a product of certain inherent material forces called the Gunas. Like a toy kaleidoscope these ingredients of matter keep chaging their position and create different patterns and designs. Some one likes the colour and designs, some one gets bored. To a large extent our involvement with things creates various feelings and various attachments. One person gets excessively attached and suffers a lot. Another has a different philosophy and does not get easily affected. Let us not talk of how big is our problem, rather let us say how strong is our identification with the problem, because another man watching the situation may not feel any problem at all. A glass is filled with some water and one may say it is full with water, another may say it is half empty.
1. The essence of a fuller life is Karma-Yoga of the Gita. It includes(a) A belief in a higher reality.
(b) Acceptance of full responsibility of duties you are expected to perform.
(c) Total participation in the work at hand.
(d) Overcoming the sense of I and acceptance of a higher power that guides us.
2. Cultivate the habit of taking stock of yourself. Stop to reflect.
3. Cut away your mind from the hubbub of the outside world. For a short while do not think of your appointments and pressing engagements. Think of yourself.
4. Become aware of your own body and the working of your own mind.
5. Condition your mind with the help of yogic practices.
6. Learn to train your mind to participate in whatever you do.
7. Develop co-ordination between mind and body through simple. yogic asanas like Talasana, Utkatasana, and kriyas like Trataka.
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Guide to a Fuller Life / 317
8. To enjoy good health-physical and mental, exercise the spine. systematically. There are simple yogic practices meant for exercising the spine.
9. Control the act of respiration. When you breath rapidly and unrhythmically your mind is certainly not very steady. In fact, in Yoga, bioenergy expressions are controlled to develop your inner self.
10. Relaxation promotes and stabilizes a fuller life. Relaxation should not be in a particular posture or in a place. It should be an attitude. 11. Tension leads to disease. Overcome tensions through relaxation. 12. Sitting in meditation and reflecting on the true nature of things the real and the unreal-helps in purifying the mind.
13. Simple yogic practices are available which help in withdrawing the mind from the sense objects.
14. When the mind is tranquil and clear like the still water of a lake, insight into the true nature of life is gained.
15. When the mind is thus clear and is engaged in work in the spirit of karma-yoga, one has progressed well on the path of self-improvement, and thus to a fuller life.
-Santa Cruz, Bombay.
00
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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अर्चनार्चन
Concept of 'Āsana’ According to Patanjala-Yoga
Sūtras (PYS) Is it an 'Ābhyasa' or an 'Anūsthana ?
Dr. B. R. Sharma Mr. T. P. Sreekumaran Dr. M. V. Bhole+
According to PYS, Āsana is one of the Yogängas (PYS-11/29).5 Though Patanjali indicates the 'laksana' and 'phala or siddhi' of each of the Yogāngas, he indicates a direct 'upaya' only in the case of asana' for its 'anuşthana' (not for its 'abhyasa') (PYS-II/47(.6
The term 'abhyasa' implies the presence of 'One fixed end in view' (i. e., ekarthata). Abhyasa is reported to gain .drdhabhumitva' in that desired end' which may require repeated efforts as explained by Patanjali in the Sutra PYS-I/14.7 This term 'abhyasa' is used by Patanjali for the first time in the Samadhi-pada for the attainment of vịttinirodha (afafata) (PYS-1/
1. Work done with the Grants-in-Aid from the Ministries of Educa
tion, Government of India and Maharashtra State. 2. Research Officer, Philosophico-Literary Research Department,
Kaivalyadhama S. M. Y. M. Samiti, Lonavla. Yoga Instructor, G, S. College of Yoga & Cultural Synthesis, Kaivalyadhama S. M. Y. M. Samiti, Lonavla. Joint Director of Research, Kaivalyadhama S. M. Y. M. Samiti, Lonavla, Dist. Poona, Maharashtra (India)-410 403. Yamaniyamāsanaprāņayāmapratyāhāradharaņādhyānasamādhayo 'stāvangāni.
(यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाधयोऽष्टावङ गानि) 6. Prayatnaşaithilyānantasamāpattibhyam.
(castfercut THTTFIT). 7. Sa tu dirghakālanairantaryasatkārā sevito drdhabhumih.
(स तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढभूमिः)
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Concept of 'Asana': Is it an 'Abhyasa' or an Anusthana'? / 319
13)2 and against the recurrence of "vyttisārupya' (afrTECU) (PYS-1/4). 2 The choice here is between 'vpttinirodhaḥ' and 'vșttisärūpya' and therefore the 'repetition of effort' conveyed by the term 'äbhyasa'3 is for the attainment of "vyttinirodha' only. The success in the 'abhyasa' here means 'drdhabhümitva' (ayfa) in the condition of vịttinirodha' (affirmer). This term 'abhyasa' has been used a second time by Patanjali in a similar context while discussing the remedial measure against the 'antarāyās' (TTTTT:). The tendency of the Citta is to slip back again and again into the condition of 'Cittaviksepa' (frafater) which obstructs the mainfestation of Samadhi'. Patanjali, therefore, prescribes a remedial measure against the Cittaviksepas. Here the choice before the sadhaka is between samadhi and cittaviksepa. So the 'abhyasa' prescribed here is only with 'one fixed end in view', that is the attainment of samadhi. Thus, whenever Patanjali uses the term 'abhyasa' in his Sutras, he also provides a specific and fixed end to be achieved by the sadhakas (i. e., 'ekārthata')' and he prescribes appropriate "abhyasa' to get 'drdhabhūmitva' in the chosen end in each of the above contexts4.
Patanjali talks only in terms of 'anusthāna' of the 'yogängas' (PYS-II/ 98)5 not the ‘abhyasa' thereof. The term 'anusthāna' implies, 'commencement', 'carrying out'. 'undertaking', 'performance' acting in conformity 10' etc.6 Patanjali seems to talk in terms of getting pratiştha, (sfacer). sthairya' (Feu), 'yogyată' or yogyatva' (utogar or loca), etc. In the 'yogängas' through their 'anusthava'. The sadhaka has to fall in line with, or be in tune with, or fulfill the requirements of, or act tn conformity to the requirements of the 'yogängas' which are inseparable omong themselves by nature.
1. 'Tatra sthitau yatno' bhyäsah.
(az fegat ISETIF:) 2. 'vrttisārūpyamitaratra'
(a fantacafas) 3. "Tām (sthitim), nimittıkrtya yatpaḥ punaḥ punḥ tathātvena cetasi
nivesanamabhyāsaḥ'.
(at (feafa) fafhaich : g: ga: Jerat af faa TAFUTA:) 4. According to Swami Digambarji, the term "abhyasa' means the
process of becoming! (Personal communication from Swamiji). 5. Yogāngānuştbānādaśuddhikşaye jpānadiptirāvivekakhyāteh'.
(योगाङ गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्याते:) 6. According to Swami Digambarji, the term 'anusthana' means
'the process of remaining in a certain condition'. (Personal communication from Swamiji).
आसनस्थ तम BITCHIU AON aa & ad आश्वस्त जम
www.jainelibrandorg
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अर्चनार्चन
पंचम खण्ड / ३२०
Obviously, this could be the reason why Patanjali avoids the usage of 'abhyasa' in his discussions on the yogangas. But, it seems that most of the commentators of the Yoga-Sutras have confused the term 'abhyasa' with the term 'anusthan' which led to much of the misinterpretations and therefore mis-representation regarding the yogangas, their real significance and imortance as envisaged in the Yoga-Sutras (Vyasa and Vacaspati on PYS-I/13,1 II/50 & 528, Vacaspati on PYS-II/514 and Vyasa on PYS-II/535).
This confusion between the anusthana' and 'abhyasa' in relation to yogangas seems to get compounded due to the mis-interpretation of the 'lakṣaṇa or 'svarapa' (rer or re) of the yogangas like 'asana' and 'prāṇayama' as 'the means' or 'upaya' for the proper anusthana' of these yogängas by commentators like Vyasa and Vacaspati (PYS-II/50).
A careful analysis of the Sütras on the Yogängas indicates the lakşaṇa as well as the phala or siddhi for each of them. But, it seems, a direct 'upaya' (1) is indicated only in the case of 'asana' (PYS-II/47). Of course,
1.
2.
4.
........tatsādhanānuṣṭhānamabhyasah,
( तत्साधनानुष्ठानमभ्यासः )
........yamaniymadini ( यमनिमादीनि )
3. 'präpäyämänabhyasyato....
( प्राणायामानभ्यस्तो )
Vacaspati quotes Visnupuräna ........vasyamabhyäsätkurute...." ( वश्यमभ्यासात् कुरुते )
........abhyasavaśikṛtāt....' (अभ्यासवशीकृतात्)
........abhyasto dirghasuk mah' (went degen:) ........pratyahamabhyasto...." ( प्रत्यहमभ्यस्तो )
6.
5. *prāṇāyāmābhyāsādeva' (प्राणायामाभ्यासादेव)
Ibid. (2) above on the Sutra PYS-II/50. 'prayatnaśaithilya-anantasamapattibhyam' ( प्रयत्नशैथिल्य - अनन्तसमापत्तिभ्याम् )
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Concept of 'Asana': Is it an 'Abhyasa' or an 'Anustbana / 321
we come across a variety of upayas' related to manasaḥ sthiti-nibandhani' (a: fenfa fat) (PYS-11/34-30)1 in the Samadhipada which may be interpreted to be akin to the Yoganga, dharana", referred to in the later two chapters. (PYS-II/53 & III/1). But Patanjali does not seem to indicate these 'upayas' directly while discussing the topic of 'dharaṇā' in Vibhutipäda. Even in respect of 'yama' and 'niyama', if at all any 'upayas' are mentioned there, they seem to be in a negative sense as can be seen from the Sutra ; 'vitarka-badhane pratipaksa-bhavanaṁ (fa fer ran) (PYS-II/33). This seems to be only a 'vighna-parihara-upaya (fasfegrara) there
of.
However, as mentioned earlier Patanjali indicates not only the laksana and phala or siddhi of '. 'asana', but also its 'upaya'. We get some indications of how the commentators might have got into confusion between the 'laksana" of a Yoganga with its 'upaya' from the way they have interpreted the Sutra: 'sthirasukhamasanam' (ferynn) (PYS-II/46). Most of the commentators seem to have divided the compound word sthirasukham' (fr) into two independent words 'sthiram' (fear) and 'sukham' (a). Though this is grammatically admissible, in a practical context as in the case of 'asana", it seems to have led to misinterpretation of the related Sutra. Thus, some of the commentators have given the meaning-niscalam (f), 'nişkaṁpam (f), etc. For the term 'sthiram' (fe). Naturally, the word 'sthiram" got directly related to the term 'asanam' () which they have defined as'asyate aste va anena ite asanan' (श्रास्यते प्रास्ते वाऽनेन इति घासनम्) As a
1, pracchardana-vidhäraṇābhyāṁ vā prāṇasya' (PYS-II/34)
(प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणस्य )
*viṣayavati vā pravṛttrutpannā manasal sthitinibandhani (-II/35). (विषयवती वा प्रवृत्तिरूत्पन्नामनसः स्थिति निबन्धनी)
'viśokā vā jyotiṣmati' (-II/36).
(fastar ar satfacfa)
"Vitaragaviṣayamh va cittam' (-11/37). (after firwat ar far)
"svapnanidrājñanālambanam va' (-II/38).
( स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा)
"yathabhimatadhyānād vä' (-II/39). ( यथाभिमतध्यानाद बा)
2. 'dhāraṇāsu ca yogyata manasaḥ' (-I1/53). ( धारणासु चयोग्यता मनसः )
'desabandhaścittasya dharapa' (-11/1). (देशबन्ध श्चित्तस्य धारणा )
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तय हो सके
आश्वस्त जन
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पंचम खण्ड/३२१
अर्चनार्चन
result,'to sit steadily and comfortably came to be accepted as the 'laksana'as well as the 'upāya' of 'asana'. As a consequence of this interpretation, it seems, the next Sutra, wbich really provides the direct 'upaya' of 'asana' lost its real significance in practice. That is why 'äsana' is generally taken to be related solely to the physical body and its positionings.
In fact, the term "sthira' should directly qualify the term "sukhan (as 'sthira' is an adjective or višeşana of the term "sukham') so as to get the meaning of 'sukha-sthirat va' (that is, endless comfort') which could automatically lead to the manifestation of asana'.
Similarly a careful analysis of the Sutra-'tasmin sati śvāsapraśvāsayoh gati-vicchedaḥ prāņāyāmah' (afen #fa-gathatnut:-fa-fazesa: STUTATA ) (PYS-II/49) shows that the mastery and 'anusthāna' of 'asana' automatically leads to 'prānāyāma'. Tbe švāsa-prašvasa' (9914-99918) which is one of the indicatives of citta-viksepa' (feafaag) (PYS-1/31) 1 get 'broken off vicchedah' (faza:) in a specific manner in the 'pranayama'. Patanjali indicates four specific manners in which such breaking off of the flow of the breathing activity can take place during 'pranāyāma'. By using the term 'paridıştah' (cfrac:), Patanjali seems to indicate that 'präņāyāma is seen to happen' in such four specific categories. But, most of the commentators seem to interprete these four categories of prānāyama as four specific techniques of *prānāyāma' for its 'abhyāsa'. This, again, as in the case of 'äsana', the commentators seem to have confused the laksana of four kinds of pranayama as four different techniques or 'upayas' thereof (PYS-11/50 & 51).2 As such Patanjali does not seem to have given any Sūtra to provide a direct 'upāya' for 'prānāyāma'. From this, we may deduce that by the removal of the assault of the 'dvandvas', the 'anuşthäna of āsana' reduces or eliminates the causes of cittaviksepa' (faefast) in due course of time when the phenomenon of pränāyāma' takes place as a natural outcome. We may also note, in this connection, that a parallel phenomenon of progression from one 'anga' to another takes place in the case of dharana' (ITU), 'dhyāna' (TFF), and
1.
dub
'duḥkha-daurmanasya-angamejayatva-śvāsapraśvāsä viks epasahabhuvah'.
(दुःख-दौमनस्या-प्रङ गमेजयत्व-श्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुव:) 2. bābyābhyantarastambhavșttih.deśa-kāla-saṁkhyābhih paridssto
dirgha-sūkşmah' (11/51). (वाह्याभ्यन्तरस्तम्भ वृत्तिर्देशकाल-संख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्म:) 'bāhyabhyantara vişayāpekşi caturthah' (11/51). (बाह्याभ्यन्तर-विषयापेक्षी चतुर्थ:)
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Concept of Asana' Is it an 'Abhyasa' or an 'Anasthana’? 323
‘samadhi' (HI) (PYS-III/1-3). In the same manner, it seems that the ‘anuşthana' (not the abhyasa') of asana', leads to the manifestation of 'prānayama' which by itself, in its turn, leads to 'dharana' and so on. Of course, the element of 'pratyahāra' is present in each and every of the other 'angas' without which it is doubtful if any 'anuşthana' of them is at all possible.
The above line of interpretation and thinking seem to receive experimental support from the work of Dr. Trigant Burrow as quoted by Late Swami Kuvalayananda and Dr. S. L. Vinekar in their book “Yogic Therapy'2 Moreover, remarks made by Swami Kuvalayananda based on his personal experience and observations of other Yoga-sādhakas 3 seem to substantiate this line of thinking based on a re-interpretation of the Yoga-sutras.
From the above discussions, it may be concluded that proper re-interpretations of PYS can help us to understand the importance and significance of 'asana' as a yogānga' by differentiating betweet 'abhyasa' and 'anuşthana' and to switch over from the former to the latter in the practical application of this knowledge.
1. deśabandbaścittasya dbāranā' (III/1).
(देशबन्धश्चित्तस्यधारणा) tatra pratyayaikatānată dhyānam' (III/2). (az gaitarar 5917)
'tadevārthamātranirbhāsam svarupaśunyamiva samadhih' (III/3). 2. Yogic Therapy : Its Basic Principles and Methods by Swami Kuva.
layananda and Dr. S. L, Vinekar : Ministry of Health, Govt. of
India, Ney Delhi, 1963, pp. 74-77. 3. ASANAS by Swami Kuvalayananda, Popular Prakashan, Bombay
1931; p. 132.
आसमस्थ तम 377Hvel तब हो सके 3779aza utot
www.jalnetbrary.org
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Excercising the Trunk
Smt. Sitadevi Yogendra
अर्चनार्चन
Unbygienic Overweight
Quite in contrast to slimness, suppleness and elasticity is the problem of unhygienic overweight. Aesthetically, the slim figure is the aim and desire of all women-and properly so. For not only is the slim figure a thing of beauty but it is also a sign that the owner is careful about her health and its civic and social implications, and further more that she is adhering to some sound principles of living. Of course, all women may not have slim figures of exactly the right proportion, but, certainly, all women can have figures free from the unbeatiful rolls of flesh which sometimes gather above the hips and from thence spread to other parts of the body.
Corroborated by biostatistical evidence, it is now generally recognized that every pound of flesh above the approximate normal weight-especially in persons over the age of forty-proportionately shortens a year of solid living from the tenure of life. The redundance of fat-the exact opposite of wbat is commended by Hathayoga as the delicate slimness of a lotus-stalk (Mrnalakomalavapu)-should, therefore, be dreaded for two simple reasons : first, because it is unlovely, and, secondly, because it is detrimental to good health and longevity.
Added to this fact, during recent years, slimness has come in fashion; and, as a consequence, the feminine public has decidedly become weightconscious. To the modern woman, therfore, the Hathayoga ideal of a slim figure must have a special apeal whether for good health, beauty or longevity-let aside its higher and psychic perspective.
Unfortunately, however, the beauty aspect in health has been so much over-emphasized in recent years that quite a number of queer measures are resorted to by fat people to acquire a slim figure. The treatments extend from strict dietary to swallowing of patent remedies. In a majority of cases these slimming measures have not only proved useless but even injurious. In countries where at present fashion rules the feminine vanity, even deaths have been reported through undernourishment and misadventure.
(a) Overweight : Its Causes and Treatment : In the first place, it may
be observed that the abnormal accumulation of unhealthy fat should be considered more a symptom rather than a disease, especially in view of the recent findings which ascribe the
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Excercising the Trunk / 325
accumulation of fat also to psychological factors. In the second place apart from the subnormal functioning of certain endotcrine glands which apply to limited cases only, unhygienic overweight is, more often than not, due physiologically to overnutrition, to under oxidation or to a combination of both acting together. The unused surplus is then stored up as deposits of fat in the tissues least disturbed by muscular action. This excess when limited to omentum and mesentery is bardly noticeable, but, when the local deposits are made in the region of the abdominal walls and the hips, they not only present an ugly appearance but also offer great difficulty in their removal. Further, while most people acquire fat because of such faulty habits of living as habitual over-eating and lack of exercise, the most common cause, however, may be traced to improper elimination. Especially in the case of women, constipation is usually the predisposing factor, even though there are many other minor functional disturbances which may naturally lead to overweight. Here again, women are constitutionally a little more subject to the curse of constipation than men because of the anatomicophysiological differences of the pelivic floor besides keen sensitiveness to psychological affects. If you are a victim of sedentary habit or occuption, drugging, irregularity in response to calls of Nature, displacement, buldge or crowding of the correct standing and sitting habits, replace sittIng hy strolling and take to short walks once or twice a day. Even with these simple formulas, when yoga physical education is supplemented, to yoga psychosomatic at the clinical level, the results obtained have been remarkable.
Keeping in mind the fact that the physical training and the need of the fair sex, therefore, consist also, besides other things, in taking care of her abdominal and pelvic viscera, the value of certain yoga postures for exercising the trunk as an essential course of physical training for women becomes self-evident. The clinical experience of half a century at the Institute indicates that the best way to fight fat is first to fight constipation itself by gradually stopping the use of laxatives and substituting the same by suitable yoga physical exercises which take good care of the mid-trunk. The specific advantages of the yoga postureexercises which invigorate the muscles and walls of the abdomen, as an unfailing treatment of chronic functional constipation, have in recent years been fully acknowledged by many scientists.
आसमस्थ तम 3ITCAI Rat तब हो सके 3179aza a
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पंचम खण्ड | ३२६
(b) Food for Health-The problem of quantity and quality of food is
as important for health as is the problem of physical exercise. No amount of exercise could offer all the hygienic good it can, if the quantity and quality of food remains unadjusted to individual physiologic need.
Especially in fighting constipation, food--the right kind of food-deserves proper attention. Bulk in the form of green leafy vagetables is as good for health as it is for curing constipation and, thus, for reducing weight. Cutting down the quota of essential nutrients with a view to reducing weight is unhygienic and even dangerous. Food is a source of energy which no women should overlook in her craze to look slim and sylpblike. It too often occurs that more women than is ordinarily believed deny themselves enough food in the false hope that it will lead to some reduction in the size of their figure. Unfortunately, this assumption is so prevalent that girls even from their earliest teens begin to discard solid and sustaining food, and take to liquid or soft diet.
The consequence of such low, unbalanced and inadequate diet is that the pelvic development--the maipstay of woman's health, strength and beauty-is arrested. And though the girls may grow normally in other respects the size and strength of their pelvic organs remain like that of an immature girl. Apart from the loss of proportion which an ill-developed figure fosters, there is also the added risk to health both of the body and the mind due to impaired functions of the ovaries. For it is a scientific fact that on the normal functioning of the ovaries not merely the health but also the charm, personality and behaviour of a woman as woman depends.
In the light of the above, the same course of action would be to eat the right quality of food in the right quantities. Given adequate and balanced diet, the individual bas only to rely upon the influence of rational exercising to keep in check any tendency of the figure to outgrow the limits of changing fashion. Here it is that the yoga Physical Education and hygiene come to the help of the fair sex in an admirable way. What is more, the yoga postural training offered requires no accessories not much of personal guidance, less of muscular exertion and the least of violence which is involved in the too frequent repetitions as happens to be the case with all other systems of physical exercise,
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अर्थसहयोगी महानुभावों का
संक्षिप्त परिचय
उदारहृदय श्रीमान् जेठमलजी सा. चोरडिया,
बेंगलोर
एक उक्ति प्रसिद्ध है-"ज्ञानस्य फलं विरतिः"--ज्ञान का सुफल है-वैराग्य । वैसे ही एक सूक्ति है-"वित्तस्य फलं वितरण"-धन का सुफल है-दान ! पात्र में, योग्य कार्य में अर्थ व्यय करना धन का सदुपयोग है।
नोखा (चांदावतों का) का चोरडिया परिवार इस सूक्ति का प्रादर्श उदाहरण है। मद्रास एवं बेंगलोर आदि क्षेत्रों में बसा, मरुधरा का यह दानवीर परिवार आज समाज-सेवा, शिक्षा, चिकित्सा, साहित्य-प्रसार, राष्ट्रीयसेवा आदि विभिन्न कार्यों में मुक्तहृदय से और मुक्तहाथ से उपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करके यशोभागी बन रहा है ।
नागौर जिला तथा मेड़ता तहसील के अन्तर्गत चांदावतों का नोखा एक छोटा किन्तु सुरम्य ग्राम है। इस ग्राम में चोरडिया, बोथरा व ललवाणी परिवार रहते हैं । प्रायः सभी परिवार . व्यापार-कुशल हैं, सम्पन्न हैं । चोरडिया परिवार के घर इस ग्राम में अधिक हैं ।
चोरडिया परिवार के पूर्वजों में उदयचन्दजी पूर्वपुरुष हुए। उनके तीन पुत्र हुएश्री हरकचन्दजी, श्री राजमलजी व श्री चांदमलजी। श्री हरकचन्दजी के एक पुत्र थे श्री गणेशमलजी।
__श्री गणेशमलजी जब छोटे थे, तभी उनके पिताश्री हरकचन्दजी का देहान्त हो गया। माता श्री रूपीबाई ने ही गणेशमलजी का पालन-पोषण व शिक्षण आदि कराकर उन्हें योग्य बनाया। श्री रूपीबाई बड़ी हिम्मतवाली बहादुर महिला थीं, विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने धर्म-ध्यान, तपस्या आदि के साथ पुत्र-पौत्रों का पालन व सुसंस्कार प्रदान करने में बड़ी निपुणता दिखाई ।
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श्री गणेशमलजी, श्री राजमलजी का पितातुल्य ही आदर व सम्मान करते तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे।
श्री गणेशमलजी की पत्नी का नाम श्री सुन्दरबाई था । श्री सुन्दरबाई बहुत सरल व भद्र स्वभाव की धर्मशीला श्राविका थीं । अभी-अभी आपका स्वर्गवास हो गया ।
श्री गणेशमलजी के दस पुत्र एक पुत्री हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं-श्री जोगीलालजी, श्री पारसमलजी, श्री अमरचन्दजी, श्री मदनलालजी, श्री सायरमलजी, श्री पुखराजजी, श्री जेठमलजी, श्री सम्पतराजजी, श्री मंगलचन्दजी व श्री भूरमलजी । पुत्री का नाम लाड़कंवरबाई है। श्री गणेशमलजी ने अपने सभी पुत्रों को काम पर लगाया । वे साठ वर्ष की अवस्था में दिवंगत हो गए।
सभी भाइयों का व्यवसाय अलग अलग है। सभी परस्पर हिल-मिलकर रहते हैं। सभी सम्पन्न एवं धर्मनिष्ठ हैं । तीसरे भाई श्री अमरचंदजी का देहावसान हो गया है।
श्री जेठमलजी श्री सायरमलजी के बहुत बड़े सहयोगी व आज्ञाकारी भाई हैं। दोनों भाई धार्मिक व सामाजिक कार्यों में सदा सतत अभिरुचि रखने वाले हैं।
__ आपने अपने पूज्य पिताश्री की स्मृति में मेड़ता रोड में एक आयुर्वेदिक औषधालय बनवाया है जिसमें प्रतिमाह सैकड़ों रोगी उपचार का लाभ प्राप्त करते हैं । नोखा में आपका एक कृषि फार्म भी है। . आपके हृदय में जीव-दया के प्रति बहुत गहरी लगन है। यही कारण है कि आपने अपने कृषि फार्म के बाहर पशुओं के पानी पीने की व्यवस्था सदा के लिये बना रखी है।
वि. सं. २०३० में उपप्रवर्तक पूज्य स्वामी श्री ब्रजलालजी म. सा., पं. र. श्री मधुकर मुनिजी म. सा. व मुनि श्री विनयकुमारजी 'भीम' के वर्षावास की स्मृति में श्री वर्धमान जैन सेवा समिति का गठन किया गया। यह संस्था परमार्थ का काम कर रही है। आप इस संस्था के स्तम्भ सदस्य हैं और समय-समय पर अर्थ आदि का सहयोग देकर संस्था को सुदृढ़ बनाते रहते हैं।
श्रीमान् जेठमलजी का व्यवसाय क्षेत्र है-बेंगलोर । 'महावीर ड्रग हाउस' के नाम से आपकी एक अंग्रेजी दवाइयों की बहुत बड़ी दुकान है । दक्षिण भारत में अंग्रेजी दवाइयों के वितरण में इस दुकान का सबसे पहला नम्बर है । श्रीमान् जेठमलजी बेंगलोर में रहते हैं। बेंगलोर में श्रीमान् जेठमलजी की बड़ी अच्छी प्रतिष्ठा है। आप औषधि व्यावसायिक एसोसियेशन के जनरल सेक्रेटरी हैं। अखिल भारत औषधि-व्यवसाय एसोसिएशन के आप सह-मंत्री भी हैं । बेंगलोर श्री संघ के ट्रस्टी हैं । बेंगलोर युवक जैन परिषद के अध्यक्ष हैं । बेंगलोर सिटी स्थानक के उपाध्यक्ष हैं।
श्री जेठमलजी के तीन पुत्र और एक पुत्री है । पुत्रों के नाम-श्री महावीरचंद, श्री प्रेमचन्द, श्री अशोककुमार और पुत्री का नाम स्नेहलता है।
आपके सभी पुत्र ग्रेजुएट हैं-सुयोग्य हैं । श्री जेठमलजी के कार्यभार को सम्भालने वाले हैं।
मनुष्य प्राकृति से नहीं, प्रकृति से महान् होता है । सरलता, सेवाभावना, उदारता, जीव मात्र के प्रति दयाशीलता, सहयोग भाव और मुक्तहृदय और मुक्तहाथ से शुभ कार्यों में स्व-उपाजित
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लक्ष्मी का सदुपयोग करते रहना ही दानवीर, समाजभूषण श्रीमान् जेठमलजी चोरडिया का संक्षिप्त परिचय है।
आप अल्पभाषी, सरल और विनम्र स्वभाव के हैं। आपका समस्त परिवार प्राचार्य श्री जयमलजी म. सा. को सम्प्रदाय का अनुयायी है और स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव श्री हजारीमलजी म. सा., स्व. उपप्रवर्तक पूज्य स्वामी श्री ब्रजलालजी म. सा., स्व. यूवाचार्य श्री मधूकरमूनिजी म. सा. तथा वर्तमान में पूजनीया महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' आदि के प्रति अनन्य श्रद्धा व भक्ति रखता है । श्रीमान् जेठमलजी सा. समय-समय पर पूजनीया महासतीजी के दर्शनार्थ जहां भी वे विराजित रहती हैं, पधारते रहते हैं।
साहित्य प्रकाशन में आपका सहयोग सदैव मिलता रहा है। पू. महासती श्री उमरावकुवंरजी म. सा. 'अर्चना' को दीक्षा-स्वर्णजयंती के अवसर पर प्रकाशित ग्रंथ में आपने सर्वाधिक आर्थिक सहयोग प्रदान कर अपनी उदारता और गुरुभक्ति का परिचय दिया है । इसके लिये हार्दिक धन्यवाद ।
आपसे भविष्य में समाज को बहुत कुछ आशाएँ हैं ।
उदारदानदाता श्रीमान् घीसालालजी बम्ब
श्रीमान् घीसालालजी बम्ब बहुत ही साहसी और उदारचेता युवक हैं। राजस्थान की वीर- . भूमि शौर्य और साहस तथा तप-त्याग का इतिहास समेटे हुए भारतीय जन-मन का प्रेरणाकेन्द्र रही है। इसी वीरभूमि के किशनगढ़ नगर में आपका जन्म हुआ। अापके पिता का नाम श्रीमान् माणकचन्दजी सा. एवं माता का नाम श्रीमती सोहनबाई है। आपके दो अनुज श्री ज्ञानचन्दजी एवं श्री गौतमकुमारजी और एक बहन सूरजबाई है।
वर्तमान में आपका व्यवसाय जयपुर, बम्बई, किशनगढ़, बैंकाक, हांगकांग आदि स्थानों पर है। आप हीरे जवाहिरात का व्यापार करते हैं।
__गौर वर्ण, सुडौल शरीर, लम्बा कद, एवं उन्नत ललाट, शारीरिक सम्पदा से युक्त आपका भव्य व्यक्तित्व है । आप स्वभाव से शान्त-दांत, धीर एवं गम्भीर हैं।
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आपके एक सुपुत्र राजकुमारजी एवं दो सुपुत्रियां कु. बीनाजी एवं कु. श्रालोकाजी हैं । आप पूजनीया महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा 'अर्चना' की तेजस्विता, आदर्श जीवनचर्या, तप त्याग, सुलझे हुए विचारों और प्रभावशाली व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धावनत हैं ।
दूर- सुदूर व्यवसाय होते हुए भी प्राप महीने - दो महीने में पूजनीया महासतीजी के दर्शनों का लाभ प्राप्त करने सेवा में उपस्थित हो ही जाते हैं ।
आप पू. महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के संसार पक्ष में भतीजे के सुपुत्र हैं । आपके जीवन की अनेकानेक विशेषताएँ हैं । यथा - कष्टसहिष्णुता, उदारता, मिलनसारिता, साहसिकता, निर्भीकता, देव गुरु एवं धर्म के प्रति पूर्ण आस्था प्रादि-आदि ।
आपकी धर्मपत्नी सौ. पारसकुमारी भी पतिपरायणा, धर्मपरायणा सन्नारी हैं और पूरे परिवार के लिये सहयोगदायी हैं ।
आपका पूरा परिवार धार्मिक प्रवृत्ति से प्रोतप्रोत है । प्रतिदिन परिवार का एक सदस्य आयंबिल करता है |
आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि आपका उदार सहयोग हमें समय-समय पर मिलता रहेगा ।
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श्रीमान् (स्व.)
कुन्दनमलजी सा. धारीवाल,
पाली
वीरप्रसविनी राजस्थान धरा के सुप्रसिद्ध पाली शहर के सुप्रतिष्ठित दानवीर सेठ श्रीमान् केसरीमलजी सा. धारीवाल की धर्मपत्नी श्रीमती हुलासबाई की कुक्षि से सं. १९७६ कार्तिक शुक्ला पंचमी को श्रीमान् कुन्दनमलजी सा. धारीवाल का जन्म हुआ ।
आपका बाल्यकाल देहली में व्यतीत हुआ तथा अध्ययनक्षेत्र भी देहली ही रहा । आपका देहली एवं ब्यावर में 'चाँदमल केसरीमल' के नाम की फर्म से तथा पाली में 'करणीदान चाँदमल ' के नाम से कपड़े का व्यवसाय चलता था ।
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१४ वर्ष की आयु में मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर आपने देहली व ब्यावर का कार्य सुचारु रूप से सम्भाल लिया।
१५ वर्ष की आयु में आपका पाणिग्रहण ब्यावर निवासी श्रीमान् मिश्रीमलजी सा. मुणोत एवं श्रीमती मिश्रीबाई की सुपुत्री सुरमाबाई के साथ सम्पन्न हुआ।
विवाह के एक वर्ष पश्चात् ही मात्र तीन दिन के ज्वर से आपका अकस्मात् देहावसान हो गया, जिसका परिवार-जनों को गहरा आघात पहुँचा। श्रीमान् केसरीमल सा. अपने पुत्र की अनहोनी घटना को सहन नहीं कर पा रहे थे। यह घटना ऐसी घटना थी जो कभी भलायी नहीं जा सकती, लेकिन उस घटना को विस्मृत करने हेतु १९९३ वि. में प्रान्तमन्त्री, स्वामीजी पूज्य गुरुदेव श्री हजारीमलजी म. सा., स्वामीजी उ. प्र. शासनसेवी श्री व्रजलालजी म. सा., श्रमणसंघीय युवाचार्य पं. रत्न श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' आदि का अपने घर से चातुर्मास करवाया। इसी के साथ श्रीमान् कुन्दनमलजी सा. व सुरमाबाई के नाम से सेठ सा. ने एक बड़ी धर्मशाला बनवाई जो अभी पाली दादावाडी के समीप स्थित है। श्रीमान् मिश्रीमल सा. ने भी दादावाडी में इनके नाम से 'सामायिक-भवन' बनवाया।
कुन्दनविलास, जीवनसुधार को कुञ्जी, नित्यस्मरण आदि पुस्तकें छपवाई गईं।
श्रीमान् कुन्दनमल सा. की धर्मपत्नी श्रीमती सुरमाबाई वर्तमान में काश्मीरप्रचारिका, अध्यात्मयोगिनी, प्रवचनशिरोमणि श्रमणीरत्न श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' की पाटवी शिष्या घोर तपस्विनी श्री उम्मेदकुंवरजी म. सा. के नाम से प्रसिद्ध हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में श्रीमान् स्व. कुन्दनमलजी सा. की स्मृति में उनके परिवार की ओर से उदार सहयोग प्राप्त हुआ है, एतदर्थ हार्दिक धन्यवाद ।
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(स्व.) श्रीमान् गुमानमलजी सा. चोरडिया,
मद्रास
श्रीमान गुमानमलजी सा. चोरडिया स्थानकवासी जैनसमाज में एक आदर्श सदगृहस्थ के प्रतीक रूप हैं। प्रकृति से अतिभद्र, सरल, छोटे-बड़े सभी के समक्ष विनम्र किन्तु स्पष्ट और सत्यवक्ता, अपने नियम व मर्यादाओं के प्रति दृढ़ निष्ठासम्पन्न, गुरुजनों के प्रति विवेकवती आस्था से युक्त, सेवा कार्यों में स्वयं अग्रणी तथा प्रेरणा के दूत रूप में सर्वत्र विश्रुत ।
आपने बहुत वर्षों पूर्व श्रावकव्रत धारण किये थे । अन्य अनेक प्रकार की मर्यादाएँ भी की थीं, इच्छापरिमाणवत तो आपकी दृढ़ता तथा कार्यविधि सबके लिये ही प्रेरणास्पद है। अपनी की हुई मर्यादा से अधिक जो भी वार्षिक आमदनी होती है वह सब तुरन्त ही शुभ कार्यों में जैसे जीवदया, असहाय-सहायता, बुक-बैंक, गरीब व रुग्णजन-सेवा तथा साहित्य-प्रसार में वितरित कर देते थे। राजस्थान तथा मद्रास में आपकी दानशीलता से अनेक संस्थाएँ लाभान्वित हो रही हैं।
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पकी जन्मभूमि नोखा (चांदावतों का) है, श्रापके स्व. पिता श्रीमान् राजमलजी चोरडिया धार्मिक वृत्ति के थे । आपके पांच सहोदर अनुज भ्राता हैं जिनका व्यवसाय मद्रास में चल रहा | आप स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. के अनन्य भक्त हैं । स्व. स्वामी श्री ब्रजलालजी म. सा., स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी के प्रति प्रापकी गहरी श्रद्धा है । ध्यानयोगसाधिका महासती श्री उमराव कुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के प्रति भी आपकी अपार श्रद्धा है ।
आपने पूजनीया महासतीजी की दीक्षा - स्वर्णजयन्ती के अवसर पर प्रकाशित होने वाले 'अर्चनार्चन' अभिनन्दन ग्रन्थ में उदारतापूर्वक धनराशि प्रदान की है, जो आपकी श्रद्धा-भक्ति का परिचायक है । भविष्य में भी आपसे इसी प्रकार के उदार सहयोग की अपेक्षा है । वर्तमान सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद ।
श्रीमान् सेठ (स्व.) हीराचन्दजी सा. चोरडिया. मद्रास
SHorachand Chordia
श्रीमान् हीराचन्दजी चोरडिया का जन्म वि. सं. १९५६ की फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को नोखा में श्रीमान् सिरेमलजी चोरडिया की धर्मपत्नी श्रीमती सायबकुंवरजी की कुक्षि से हुआ । अठारह वर्ष की आयु में ही आपको पितृ-वियोग के दारुण प्रसंग का सामना करना पड़ा । इस वज्रपात से परिवार का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व आपके कन्धों पर आ पड़ा। आपने बड़ी कुशलता, सूझबूझ, धैर्य और साहस से अपने दायित्व का निर्वाह किया ।
आपकी गणना मद्रास के प्रतिष्ठित व्यवसायियों में की जाती थी । आप अपने व्यवसायकौशल के कारण अनेक फर्मों के संस्थापक व संचालक थे । आपकी मुख्य फर्म सिरेमल हीराचन्द फाइनेन्सीयर्स ( साहूकार पेट, मद्रास) है । इसके अतिरिक्त निम्नलिखित संस्थाओं के भी आप अधिपति रहे
१. सिरेमल हीराचन्द एण्ड कम्पनी
२. इन्टरनेशनल टायर सर्विस - टायर्स एण्ड बेटरीज डीलर्स, माउण्ट रोड, मद्रास
३. चोरडिया रबर प्रोडक्ट्स प्रा. लि., मद्रास
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व्यवसाय के क्षेत्र में संलग्न और अग्रसर होने पर भी आपका व्यक्तित्व पूर्णरूप से उसी के लिये समर्पित नहीं था। आपने उपाजित लक्ष्मी का समाजसेवा एवं परोपकार में सदुपयोग किया है । मरुभूमि में जल और जलाशय का कितना मूल्य और महत्त्व है, यह सर्वविदित है। जल के अभाव में जीवन टिक नहीं सकता। जल जीवन की सर्वोच्च आवश्यकता है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर आपने लगभग पचास वर्ष पूर्व नोखा निवासियों की सुविधा के लिये कुप्रा खुदवाया, जिससे सारा गांव आज भी लाभ उठा रहा है।
अपने जन्मग्राम नोखा में ही 'सिरेमल जोरावरमल प्रायमरी हेल्थसेण्टर' के निर्माण में भी अापका विशिष्ट योगदान रहा है।
मद्रास में होने वाले प्रत्येक सार्वजनिक कार्य में आपका सक्रिय एवं सार्थक योगदान रहा है।
आपका सबसे महत्त्वपूर्ण और विशेष उल्लेखनीय सेवाकार्य है-हीराचन्द आई हॉस्पिटल नामक नेत्र चिकित्सालय । यह मद्रास के साहूकार पेट में स्थित है। यह अस्पताल आपने तथा आपके तीन सुपुत्रों-श्री तेजराजजी, श्री प्रकाशचन्दजी तथा श्री शरबतचन्दजी ने बड़े ही उत्साह के साथ स्थापित किया है । यह अस्पताल आधुनिक साधन-सामग्री से सम्पन्न है।
समाज-सेवा की उत्कट भावना के अतिरिक्त आपका धार्मिक जीवन भी सराहनीय रहा है। प्रतिदिन सामायिक-प्रतिक्रमण करना तो आपका नियमित अनुष्ठान था ही। कई वर्षों से भी बराबर करते थे।
आपका परिवार खूब भरा-पूरा है। तीन-पुत्र, अनेक पौत्र-पोत्रियों से सम्पन्न है आपका परिवार ।
पूजनीया महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के अनन्य भक्तों में आपका नाम है।
प्रस्तुत प्रकाशन में आपकी स्मृति में उदार सहयोग प्राप्त हुआ है, इसके लिये हार्दिक धन्यवाद।
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श्रीमान, कंवरलालजी सा. बेताला,
गोहाटी
डेह (नागौर) निवासी सेठ पूनमचन्दजी एवं श्रीमती राजाबाई बेताला के यहाँ ६१ वर्ष पूर्व आनन्ददायी समय आया और उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। होनहार सुन्दर सुपुत्र का नाम कंवरलाल रखा गया। शिक्षा व समाजसेवा में अपनी अजित की हुई सम्पत्ति का अंश सहर्ष समर्पण करने वाले श्री बेतालाजी जैनसमाज, धर्मजगत् के कंवरलाल बन गये तथा सम्पूर्ण भारत के जैनसमाज में इस रूप में प्रख्यात बन गये।
बाल्यकाल से व्यवसाय एवं सेवाओं में प्रतिभा एवं सहज रुझान होने से बेतालाजी बढ़ते गये और इसी रूप में उन्होंने अपना अर्जन समाज को मुक्तहस्त से वितरित किया एवं इन प्रगति-चरणों पर खूब आगे बढ़े।
आप स्थानकवासी जैन संघ (पूर्वांचल), श्री श्वे. स्था. जैन संघ गोहाटी, श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन समिति ब्यावर के अध्यक्ष हैं तथा अ. भा. चार्तुमास सूची प्रकाशन, बम्बई के उपाध्यक्ष हैं । इसी प्रकार अखिल राजस्थान अहिंसा प्रचार संघ चित्तौड़गढ़, श्री महावीर स्वास्थ्य केन्द्र इन्दौर, श्री नेमिनाथ ब्रह्मचर्याश्रम चांदवड, भारत जैन महामण्डल बम्बई, श्री प्राणीरक्षा समिति इन्दौर के संरक्षक हैं। पूर्वोत्तर मारवाड़ी सम्मेलन महिला कोष गोहाटी, वर्द्धमान महावीर बाल निकेतन माउन्ट आबू, अनाथ गोरक्षा समिति डेह (नागौर) के ट्रस्टी हैं तथा श्री श्वे. स्था. जैन काँमस दिल्ली के कार्यकारिणी के सदस्य हैं।
आपकी धर्मपत्नी श्रीमती बिदामबाई, सुपुत्र श्री धर्मचन्दजी तथा इनकी पत्नी श्री मोहनीदेवी अपने कुलगौरव को अक्षुण्ण रखकर उसकी कीति बढ़ाने वाले हैं। सुपुत्रियाँ श्रीमती कान्ता कोचर एवं मान्ता सोनावत अपने पतिग्रह में तथा सुपौत्र चि. महेश, मुकेश आदि सभी इन संस्कारित पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए समाज एवं धर्म सेवाओं में अग्रसर हैं। आप पू. महासतीजी के अनन्य भक्तों में से हैं।
फाईनेंस व्यवसायी श्री बेतालाजी एवं उनका परिवार स्वाध्याय, सामायिक, संवर समाजसेवाओं में सोत्साह आगे बढ़ते ही रहें यही शुभकामनायें प्रेषित हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपका उदार सहयोग मिला, इसके लिये हार्दिक धन्यवाद ।
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श्रीमान् सेठ खींवराजजी सा. चोरडिया,
मद्रास धर्मनिष्ठ सेठ श्री खींवराजजी सा. चोरडिया का जन्म राजस्थान के ग्राम नोखा-चांदावतों का-में ई. सन् १९१४ में हुआ। आपके पूज्य पिताश्री सिरेमलजी सा. और माता सायबकुंवरजी के धार्मिक संस्कार आपको उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुए हैं। आपके तीन ज्येष्ठ भ्राता हैं । आपके दो सुपुत्र श्री देवराजजी और श्री नवरत्नमलजी हैं । अनेक पौत्रों और पौत्रियों से हरा-भरा आपका वृहत् परिवार समाज के लिये धर्मनिष्ठा की दृष्टि से आदर्श है।
___आपकी धर्मपत्नी श्रीमती भंवरीबाई धर्मश्रद्धा की प्रतिमूर्ति एवं तपस्विनी भी हैं, आपने शारीरिक स्वास्थ्य साधारण होते हुए भी अपने प्रबल आत्मबल के आधार पर वर्षीतप की आराधना की है, जिसका उद्यापन बड़ी ही धूमधाम से नोखा में किया गया था। वर्षीतप के उपलक्ष्य में लाखों की धनराशि का दान किया गया।
श्री चोरडियाजी का विशाल व्यवसाय मद्रास नगर में है । व्यापारिक समाज में आपका वर्चस्व है । व्यापारियों में आप एक प्रकार से राजा कहलाते हैं। आपके व्यवसाय इस प्रकार हैं
१. खींवराज मोटर्स प्रा. लि., मावर रोड, मद्रास २. फायनेंसर्स ३. खींवराज मोटर्स बैंगलूर-ऑटोमोबाइल्स एजेन्सी ४. राज मोटर्स-मोटर साइकिल एजेन्सी ५. जमीन-जायदाद का व्यवसाय ६. दी भवानी मिल्स लिमि. (धागे की मिल) (चेयरमेन) ७. श्री विग केमिकल (चेयरमेन) इसके अतिरिक्त आपकी मद्रास, जोधपुर तथा नोखा आदि में विपुल स्थावर सम्पत्ति है।
किन्तु यह न समझा जाय कि आपका जीवन व्यवसाय के लिये ही समर्पित है। धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी आप तन मन और धन से महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। आप अनेक धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं से किसी न किसी रूप से जुड़े हुए हैं तथा आपने स्वयं अपने उदार दान से निम्नलिखित संस्थाओं की स्थापना भी की है
१. खींवराज चोरडिया डिस्पेंसरी, मावररोड, मद्रास २. खींवराज चोरडिया चेरिटेबिल ट्रस्ट, मद्रास ३. श्रीमती भंवरीकुंवर चोरडिया चेरिटेबिल, मद्रास
इतना सब कुछ होते हुए भी चोरडियाजी बहुत सादगी पसंद, सौजन्यमूर्ति, भद्रहृदय, अत्यल्पभाषी और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी हैं।
पूजनीया महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के प्रति आपकी अनन्य श्रद्धाभक्ति है। प्रस्तुत प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान कर आपने अपनी उदारता का परिचय दिया है । आपके द्वारा दिये गये इस अर्थसहयोग के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
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श्रीमान् सेठ स्व. एस. रतनचंदजी चोरडिया,
मद्रास
आपका जन्म मारवाड़ के नागौर जिले के नोखा (चांदावतों का ) ग्राम में दिनांक २० दिसम्बर १९२० ई. को स्व. श्रीमान् सिमरथमलजी चोरडिया की धर्मपत्नी स्वर्गीया श्रीमती गट्टूबाई की कुक्षि से हुआ | आपका बचपन गाँव में ही बीता । प्रारम्भिक शिक्षा प्रागरा में सम्पन्न हुई । यहीं पर चौदह वर्ष की अल्पायु में ही ग्रापने अपना स्वतंत्र व्यवसाय प्रारम्भ किया । निरन्तर अथक परिश्रम करते
पन्द्रह वर्ष तक आढ़त के व्यवसाय में सफलता प्राप्त की ।
सन् १९५० के मध्य आपने दक्षिण भारत के प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र मद्रास में फायनेन्स का कार्य शुरू किया जो प्राज सफलता की ऊँचाइयों को छू रहा है, जिसमें प्रमुख योगदान ग्रापके होनहार सुपुत्र श्री प्रसन्नचन्दजी, श्री पदमचन्दजी, श्री प्रेमचन्दजी और श्री धर्मचन्दजी का भी रहा है 1 कुशल व्यवसायी हैं ।
आपने व्यवसाय में सफलता प्राप्त कर अपना ध्यान समाज हित में व धार्मिक कार्यों की प्रोर भी लगाया । उपार्जित धन का सदुपयोग भी शुभ कार्यों में हमेशा करते रहते थे । उसमें आपके सम्पूर्ण परिवार का सहयोग रहता । मद्रास के जैनसमाज के ही नहीं अन्य समाजों के कार्यों में भी आपका सहयोग सदैव रहा ।
ग्राप मद्रास स्थित जैनसमाज की प्रत्येक प्रमुख संस्था से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित रहे । सदैव सन्त सतियाँजी की सेवा करना आपका अपने जीवन का ध्येय था । ग्राज स्थानकवासी समाज के कोई भी मुनिराज नहीं हैं जो आपके नाम व आपकी सेवाभावना से परिचित न हों ।
आपकी धर्मपत्नी श्रीमती रतनकंवर भी धर्मश्रद्धा की प्रतिमूर्ति एवं तपस्विनी हैं। परिवार के सभी सदस्य धार्मिक भावना से प्रभावित हैं । विशेषतः पुत्रवधुएँ प्रापकी धार्मिक परम्परा को बराबर बनाये हुए हैं ।
अपने जनकल्याण की भावना को दृष्टिगत रखते हुए निम्नांकित ट्रस्टों की स्थापना की है, जो उदारतापूर्वक समाजसेवा कर रहे हैं ।
१. श्री एस. रतनचन्द चोरडिया चेरिटेबिल ट्रस्ट
२. श्री सिमरथमल गट्टूबाई चोरडिया चेरिटीज ट्रस्ट
आपका परिवार स्व. स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. एवं पूज्य युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. का अनन्यभक्त है । पूजनीया महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के प्रति आपकी अपूर्व श्रद्धा-भक्ति है ।
प्रस्तुत प्रकाशन के लिये प्रापके सुपुत्रों ने प्रार्थिक सहयोग प्रदान कर अपनी उदारता का परिचय दिया है । भविष्य में भी ग्राप इसी प्रकार का सहयोग प्रदान करते रहेंगे, ऐसा पूर्ण विश्वास है । वर्तमान में दिये गए सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद ।
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श्रीमान दुलीचंदजी सा. चोरडिया,
मद्रास
सेठ श्रीमान् दुलीचन्दजी सा. चोरडिया का जन्म वि. सं. १९८९ में नोखा चांदावतां में हुआ। श्रीमान् जोरावरमलजी सा. चोरडिया कामदार नोखा के आप सुपुत्र हैं। श्रीमती फूलकुंवरबाई की कुक्षि को आपने धन्य बनाया।
अठारह वर्ष की आयु में आप मद्रास पधार गए और व्यवसाय में संलग्न हो गए । अपने बुद्धिकौशल एवं पुरुषार्थ से व्यवसाय में अच्छी सफलता प्राप्त की।
मद्रास की प्रायः सभी सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं के साथ आपका और आपके परिवार का सम्बन्ध है और उनमें आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । धार्मिक-कार्यों में आप अग्रणी रहते हैं । धर्म और शासन के प्रति आपकी भक्ति सराहनीय है।
विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि श्री चोरडियाजी धन-जन से, सभी ओर से समृद्ध होने पर भी अत्यन्त विनम्र हैं । आपका अन्तःकरण बहुत भद्र है। अहंकार आपके अन्तस् को छू नहीं सका है।
आपके चार सुपुत्र-१. श्री धरमचन्दजी, २. श्री किशोरकुमारजी, ३. श्री राजकुमारजी, ४. श्री सुरेशकुमारजी हैं और एक सुपुत्री है ।
आप स्व. पूज्य स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. के प्रति अनन्य अनुपम श्रद्धाभाव रखते हैं।
पूजनीया महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. 'अर्चना' के प्रति आपकी अनन्य श्रद्धाभक्ति है।
प्रस्तुत प्रकाशन में आपका विशिष्ट आर्थिक सहयोग रहा है । भविष्य में भी आपसे इसी प्रकार की अपेक्षाएँ हैं । प्रदत्त आर्थिक सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद ।
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दानवीर स्व. सेठ सुगनचन्दजी चोरडिया
भारतीय संस्कृति के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन का गहराई से चिन्तन किया है। उन्होंने कहा-जीवन उत्सर्ग करने की भावना है । प्रस्तुत कसौटी पर हम श्रीमान् धर्मप्रेमी स्व. सुगनचन्दजी चोरडिया के जीवन को कसते हैं तो लगता है कि उनका जीवन सच्चा और अच्छा जीवन था।
आपका जन्म राजस्थान के एक सुन्दर गाँव में हुआ था। जिसका नाम चांदावतों का नोखा है। आपके पूज्य पिताश्री का नाम श्री जड़ावमलजी सा. चोरडिया था। आपमें प्रबल प्रतिभा और पुरुषार्थ था जिसके कारण आपने सर्वप्रथम आगरा (उ. प्र.) रह कर व्यवसाय प्रारम्भ किया। उसके पश्चात् मद्रास में आपने व्यवसाय प्रारम्भ किया। ३० वर्ष तक आपश्री ने फाइनेन्स का सफलतापूर्वक व्यवसाय किया । आपमें धार्मिक संस्कार प्रमुख रूप से थे। आपकी धर्मानुरागी धर्मपत्नी में भी धार्मिक भावना का प्राधान्य था।
आपके तीन सुपुत्र हैं-श्रीमान् भंवरलालजी सा. चोरडिया, श्रीमान् स्व. पुखराजजी साहब चोरड़ियां और श्रीमान् मोतीचन्दजी सा. चोरड़िया। आपके चार सुपुत्रियाँ हैं-भंवरीबाई, सुवाबाई, शान्तिबाई और कुसुमबाई । आपकी सुपौत्री ललिताकुमारी ने प्राचार्यसम्राट् श्री आनन्दऋषिजी महाराज की सुशिष्या परम विदुषी महासती प्रमोदसुधाजी के पास आहती दीक्षा ग्रहण की है। आप बहुत ही विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं । आपसे समाज को आशाएँ हैं ।
श्रीमान मोतीचन्दजी मद्रास की अनेक संस्थाओं के पदाधिकारी हैं और सक्रिय कार्यकर्ता हैं।
प्रस्तुत प्रकाशन में आपके परिवार की ओर से आपकी स्मृति में उदारतापूर्वक अर्थसहयोग प्रदान किया गया है । इसके लिये आपका परिवार धन्यवाद का पात्र है।
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श्री मितेशकुमार [ज. दि. ३१ जुलाई १९८४]
मितेशकुमार के जीव के गर्भ में आने के पूर्व तक मेरी अध्यात्मक्षेत्र में कोई रुचि नहीं थी। जिस दिन बालक का जीव अपनी मां की कुक्षि में आया उसके दूसरे ही दिन मैं महासती श्री उमरावकुंवर जी म. सा. 'अर्चना के सम्पर्क में आया। इसके गर्भ में पाने के बाद इसकी माताजी अस्वस्थ रहने लगीं। स्वास्थ्य की विषमता को देखकर परिवार के लगभग सभी सदस्य इस बात के लिये सहमत थे कि गर्भ गिरा दिया जावे। यह बात पूजनीया म. सा. के समक्ष भी गई। पूजनीया महासतीजी ने फरमाया कि कभी-कभी ऐसा जीव बड़ा भाग्यवान होता है। अतः ऐसा नहीं किया जावे तो ठीक रहेगा।
गर्भकाल दो माह का हो गया तब बालक की माताजी का आपरेशन हुआ। चिकित्सकों ने बालक को गर्भ से निकालकर देखा एवं पुनः प्रत्यारोपित कर दिया। फिर इसकी माताजी स्वस्थ हो गई और बालक का जन्म सामान्य रूप से ठीक समय पर हुआ।
जब बालक की आयु एक वर्ष की थी तब पर्युषण पर्व की अवधि में आठ दिन तक इसने केवल दूध ही ग्रहण किया। दूध के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिया । यदि दूध के अतिरिक्त इसे कुछ खिलाते तो यह या तो खाता ही नहीं या थूक देता था। नवमें दिन से बालक ने अपनी दादी मां के हाथ से अन्य वस्तुएँ ग्रहण करना शुरू किया।
बालक मितेशकुमार को कई बार कई बातों का पूर्व अनुमान हो जाता है। जैसे एक बार यह जिद करने लगा कि मुझे म. सा. के पास ले चलो किन्तु अपरिहार्य कारणों से कोई इसे ले जा नहीं सका । कुछ देर बाद घर के नीचे एक मुनिजी गोचरी लेने पधारे। हम उस भवन की तीसरी मंजिल पर रहते हैं। तब बालक कहने लगा कि दरवाजा खोलो म. सा. आये हैं। दरवाजा खोला तो एक मुनिजी म. सा. पधारे। गोचरी ले गये । बालक ने घर पर ही मांगलिक वचन सुने । उसके पश्चात् म. सा. के पास जाने की जिद नहीं की।
-देवेन्द्रकुमार जैन
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स्व. सेठ श्रीमान, भेरुलालजी धर्मावत
सेठ श्रीमान् भेरुलालजी धर्मावत का जन्म वीरप्रसविनी भूमि मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में श्रीमान केसूलालजी सा. धर्मावत की पतिपरायणा धर्मपरायणा धर्मपत्नी सुश्री कस्तूरबाई की पावन कुक्षि से हुआ था। श्रीमान् केसूलालजी धर्मावत ने तीन विवाह किये । आपकी तीनों धर्मपत्नियों के नाम क्रम से-श्रीमती सोहनबाई, श्रीमती बाबूबाई एवं श्रीमती रतनबाई धर्मावत हैं।
गौर वर्ण, भव्य ललाट, हंसता मुस्कराता चेहरा, शान्त तेजोदीप्त मुखमुद्रा, इन सभी ने मिलकर एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण किया था जिसे लोग दानवीर सेठ श्री भेरुलालजी धर्मावत के नाम से पहचानते थे।
आप प्रकृति से सरल, स्वभाव से दयालु और हृदय से उदार थे । किसी भी प्राणी को कष्ट में देखकर आपका हृदय द्रवीभूत हो उठता था। अनाथ, गरीबों एवं विधवाओं को वे गुप्त रूप से सहायता किया करते थे। कब, किसे कितनी सहायता दी, यह उनके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जान सकता था। घर में कभी आपकी पत्नी रुपये इधर-उधर रख कर भूल जाती या अन्य कोई उठा लेता तो पूछने पर बोलते कि रुपये तो मैंने लिये, मुझे जरूरत थी। लो ये पुनः ले लो। अचानक जब रुपये मिल जाते तो कह देते-मैंने तो ऐसे ही कहा था क्योंकि मैंने सोचा इनका दिल दुखेगा।
सांप, बिच्छु आदि कोई भी जीव सड़क पर भी दिखाई दे जाता तो उसे बचाने के लिये प्राप अपने हाथ से उठा कर एकान्त में ले जाकर छोड़ आते थे। उनका जीवन बड़ा ही लुभावना और सुहावना था। ऐसे ही लोगों के जीवन को लक्ष्य कर किसी शायर ने कहा है
जिन्दगी ऐसी बना जिन्दा रहे दिलशाद तू । जब न रहे दुनिया में दुनिया को आये याद तू ।।
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आपके सबसे बड़े सुपुत्र श्रीमान् मांगीलालजी धर्मावत हैं जो अपने पिता द्वारा दिखाये मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं। दूसरे पुत्र श्रीमान् शान्तिलालजी हैं जो अपने पिताश्री की आन-बान निभाने में तत्पर हैं । तीसरे पुत्र श्री राजकुमारजी सरल स्वभावी हैं ।
आपके दस पुत्रियाँ हैं-चंचलबाई, प्रेमबाई, पुष्पाबाई, सुन्दरबाई (साध्वी श्री सुप्रभाकुमारीजी म. सा. 'सुधा'), शान्ताबाई, कमलाबाई, चन्द्रकलाबाई, अनोखाबाई, सुधाबाई और शकुन्तलाबाई । पौत्र-पौत्रियों, दौहित्र-दौहित्रियों से आपका भरा-पूरा परिवार है।
आप दीन-दुःखी, जैन-अजैन समाज के प्रत्येक कार्य में यथावसर सहायता देते रहते थे।
इस अभिनन्दन ग्रन्थ की प्रधान सम्पादिका आर्या श्री सुप्रभाकुमारीजी 'सुधा' आपकी द्वितीय धर्मपत्नी श्रीमती बाबूबाई की सुपुत्री हैं।
श्रीमान तेजराजजी सा. भण्डारी
एवं
श्रीमती इन्दरकुंवर भण्डारी
आपका जीवन आदर्श रहा है। आप एक अच्छे कलाकार हैं। पूर्व में अनेक सामाजिक संस्थाओं के पदाधिकारी वर्षों तक रहे हैं। वर्तमान में सेवानिवृत होने के पश्चात् सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत हैं तथा धार्मिक-व्यवस्थानों का संचालन कर रहे हैं। स्वभाव से आप अतीव शान्त एवं गंभीर हैं । ३९ वर्ष की युवावस्था में ही सजोड़े आपने ब्रह्मचर्य व्रत को अंगीकार कर लिया।
आपके दो पुत्र श्रीमान् रतनराजजी एवं जतनराजजी हैं, जो दोनों ही आपके मनोनुकल एवं आज्ञाकारी हैं तथा दोनों पुत्रियाँ श्रीमती शान्ताबाई और श्रीमती राजश्री देव, गुरु और धर्म के प्रति प्रास्थावान हैं।
आपके अनुरूप आपकी धर्मपत्नी श्रीमती इन्दरबाई भी गंभीर, शान्त एवं सौम्य स्वभाव की हैं । आपने मासखमण आदि अनेक तपस्याओं के साथ एकान्तर तपस्या का जीवन पर्यन्त व्रत ले रखा है । परिग्रह की मर्यादा है। साथ ही ध्यानसाधना भी बहुत ही सराहनीय है। दो तीन महीने में पूज्य गुरुवर्या के पास दिशानिर्देश के लिये आ जाया करती हैं।
आपने ग्रन्थ में उदार हृदय से जो सहयोग प्रदान किया, उसके लिये धन्यवाद । 00
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श्रीमती सौभागबाई हिंगड़
दौराई
आप पूजनीया गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' के संसार पक्ष में बड़ी बहन एवं जेठानी हैं । आपका जन्म श्रीमान् माँगीलालजी तांतेड़ (मुनिश्री मांगीलालजी म. सा.) की धर्मनिष्ठा. पतिपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती अनोपकंवरबाई की पावन कुक्षि से भादवा सूदी नवमी वि. सं. १९७४ के शुभ दिन ग्राम केबानिया में हुआ।
बाल्यकाल से ही आप अपूर्व साहस की स्वामिनी रही हैं। आपने अल्पायु में ही राजस्थान के प्रख्यात डाकू मोड़सिंह का मुकाबला किया था। अनेक अवसरों पर आपने गुण्डों को भी परास्त कर अपने अद्भुत साहस का परिचय दिया।
दस वर्ष की अल्पायु में आपका पाणिग्रहण दौराई (अजमेर) निवासी श्रीमान् सेठ सुवालालजी के सुपुत्र श्री रामचन्द्रजी के साथ सम्पन्न हुआ। आपका ससुरालपक्ष भी पितृपक्ष की भांति सम्पन्न और प्रख्यात है । आप गायनकला में भी प्रवीण हैं।
दस वर्ष पूर्व आपके पति का स्वर्गवास हुआ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आपने अपना सहयोग प्रदान किया, इसके लिये आपको धन्यवाद प्रदान करते हुए भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग की अपेक्षा है ।
पूजनीया श्री 'अर्चना' जी म. सा. के प्रति आपकी अटूट आस्था है ।
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महासती जी आशीर्वचन * प्रदान करते हुए
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. दीक्षा भूमि नोखा (थान्दावता का) से विहार के समय का एक दृश्य सं २०३८
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जनभवन
Neोरी
विशाल शिविर
| निशुल्क बोकापरेशन काश्मीर प्रचारिकामहासतीउमराव
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अर्थ-सहयोगी महानुभाव
श्री उत्तमचन्दजी मोदी,
मंत्री मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर
श्री रतनचन्दजी मोदी अध्यक्ष अागम प्रकाशन समिति ब्यावर.,
श्री अमरचन्दजी मोदी,
मंत्री आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर.
श्री जवरीलालजी शिशोदिया, कोषाध्यक्ष श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर.
डॉ. श्री राज धारीवाल
जोधपुर.
श्री मोहनलालजी गोठी महामन्दिर, जोधपुर.
स्व. मूलचन्दजी मुणोत ब्यावर.
श्री प्रेमराजजी मेहता
मेड़ता सिटी.
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स्व. श्री दीपचन्दजी
कोठारी ब्यावर.
श्री ज्ञानराजजी मूथा पाली.
श्री उमरावमलजी नाहर अजमेर.
श्री कानमलजी कोठारी
दादीया (किशनगढ़)
श्री रुघनाथसिंह मेहता
श्री लक्ष्मीचन्दजी सांड महामन्दिर, जोधपुर
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स्व. श्री जुगराजजी
मेहता जानकीनगर, इन्दौर.
श्रीमती सुशीलादेवी बैताला धर्मपत्नी श्री सागरमलजी बैताला इन्दौर.
श्री नेमीचन्दजी बाफना जानकीनगर, इन्दौर.
श्री हरकचन्दजी बैताला इन्दौर.
श्रीमती दाखां बाई रांका धर्मपत्नी बापूलालजी रांका
चोपाटी, जावरा
श्री अभयकुमारजी जैन (सेठिया) उज्जैन.
स्व. श्री जोगीदासजी
कोठारी देवलघाट.
श्री राजेन्द्रकुमार श्रीश्रीमाल (केशव) खाचरौद (म. प्र.)
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श्रीमान मदनलालजी कोठारी महामन्दिर, जोधपुर
स्व. श्री गजराजजी कोठारी स्व. श्रीमती अणचीबाई कोठारी
श्रीमान् मदनलालजी कोठारी महामंदिर (जोधपुर) निवासी हैं । आप अपने माता-पिता की सेवा में रहे हैं। आपने उनकी स्मृति में श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के नये भवन निर्माण में सर्वाधिक अर्थ-सहयोग प्रदान किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपने अपने माता-पिता की स्मृति में अर्थ-सहयोग प्रदान कर पितृभक्ति का परिचय दिया है।
आपके पुत्र सर्वश्री मनसुखचन्दजी, ज्ञानचन्दजी, सुमेरमलजी, केवलचन्दजी और जेठमलजी हैं, जो बम्बई में संयुक्तरूप से व्यापार में लगे हुए हैं। आपकी एकमात्र पुत्री कुमारी लीला (गुड्डी) है । आपकी धर्मपत्नी भी सेवाभावी महिला हैं ।
ग्रन्थ में दिये गये सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद ।
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श्री पुखराजजी चोरडिया मद्रास..
श्री मांगीलालजी चोरडिया मद्रास.
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श्री इन्दरमलजी
झाबक मद्रास.
श्री सम्पतराजजी चोरडिया मद्रास..
श्री बादलचन्दजी वैद
मद्रास.
श्री केशरीमलजी बैताला; मद्रास. .
श्री पारसमलजी
चोरडिया मद्रास.
श्रीमती पारसमलजी चोरडिया मद्रास.
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श्री पारसमलजी बाफना, श्रीमती प्रवेश बाफना कपिल एवं कुणाल बाफना.
श्री सम्पतराजजी एवं श्रीमती मैनाकंवर बाई चोरडिया नोखा / मद्रास
श्रीमान् लक्ष्मीचन्दजी एवं श्रीमती उगमबाई तालेड़ा,
जयपुर.
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मोहनसिंहजी लोढा
उपाध्यक्ष मुनि श्री हजारीमल स्मृति
प्रकाशन, व्यावर.
स्व. श्री गुमानमलजी चौरड़िया मद्रान.
श्री रामपालजी
भीलवाड़ा.
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पुनवानचन्दजी मेहता जोधपुर
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श्री वरचन्दजी कांकरिया
कलकत्ता.
श्री चम्पालालजी गोठी बम्बोई.
श्री देवराजजी बोहरा ( नानणावाले)
मद्रास.
स्व. श्री मोतीलालजी
लूणिया बँगलोर.
श्री कान्तिलालजी पुनमिया सोलापुर.
श्री एन. एम. भण्डारी अहमदाबाद.
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