SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 724
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १७९ भी करना होता तो सास सुसर की अनुमति प्राप्त करना मावश्यक होता था। कभी-कभी वधू के रूप में लाई गई नारी से दासी का काम भी लिया जाता था। यही कारण है कि वधू श्वसुर को देख कर भय से कांपती रहती थी। ने जैनागम में भी इसी तथ्य पर प्रकाश मिलता है । सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार एक वधू अन्यमनस्क होकर ससुर की उपस्थिति में भोजन परोसते समय थोड़ी-सी त्रुटि कर दी थी, जिस पर परपुरुष पर प्रासक्त होने की शंका से उसे घर से निकाल दिया गया । " वस्तुतः समुराल में पुत्रवधू को प्रातः उठकर सास-ससुर को प्रणाम कर उनके चरणों की रज को मस्तक पर धारण करना, उनके सोने के बाद सोना और उठने से पूर्व उठना, भूत्य के समान उनकी प्रज्ञाओं का पालन करना तथा उनके साथ मधुर भाषण एवं प्राचरण अनिवार्य था। करना इसके अतिरिक्त पुत्रवधू से यह भी अपेक्षा रखी जाती थी कि सास ससुर के जीवनकाल में परिवार के सभी सदस्यों के प्रति स्वामित्व प्रदर्शन की भावना का पूर्णतया त्याग कर यथायोग्य सम्मान प्रदर्शित करे। यह उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा और स्नेहप्राप्ति का परिचायक था ऋषिदासी ने इसी प्रकार का आचरण करके ससुर के हृदय को जीत लिया था । इस कारण पुत्र के हठ के कारण ऋषिदासी का ससुर उसे उसके पीहर में छोड़ते समय बड़ा दुःखी होता था। कुछ पुत्रवधुएँ ससुर के संरक्षण में बिना किसी बाधा के जीवनयापन कर लेती थीं। जैनागम में स्त्रियों के भेदों में श्वसुरकुल से रक्षित स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है ।'' सासससुर की उपस्थिति में पुत्रवधू प्रपने पति द्वारा जुए के दाव पर लगाई गई हो या प्रताड़ित करके घर से निकाल दी गई हो, ऐसे उदाहरण प्रायः नहीं मिलते। बल्कि कभी-कभी ससुर अपने पुत्र के माध्यम से पुत्रवधुत्रों को जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ प्रीतिदान के रूप में दिया करता था। जैनागम में ऐसा उल्लेख मिलता है।" ४. तुम्हं त्विदं इस्सरियं प्रथो मम, इतिस्सा सस्सु परिभासते मम । वही ५. पाथ्यो इमं कुमारिक दासिभोगेन भुज्जत्थ... गच्छ.... त्वं न मयं तं जानामा ति ६. सुजिसा ससुरं दिस्वा संविज्जति संवेगं प्रापज्जति । - मज्झिम ७. (क) सूत्रकृतांग ११४।१।१५ (ख) सू. टी. भा. २, पृ. १२८ ८. ( क ) यस्स वो माता- पितरो भत्तुनो....तस्स पुट्ठायिनियो पच्छानिपातिनियो किकार पट्टिस्साविनियो मनापचारिनियो पियवादिनियो.... - अंगुत्तर० २ २०३ (ख) या मय्ह सामिकस्स भगिनियो भातुनो परिजनो वा । तमेकवरकं पि दिवा, उम्बिग्गा ग्रासनं देमि || बेरीगाथा. १५/२/४१. - वहीं, प. १९६-१९७ ११२३७ ― ९. तं मे पितृघरं परिवसिसु विमना दुखेन श्रधिभूता । पुत्तमनुरक्खमाना, जिताम्हसे रूपिनि लक्खि ॥ थेरीगाथा १५।१।४२१ औपपातिक सू. १६७ Jain Education International ---- - 1 १०. तं जहा अंत..... ससुरकुलर विखयाओ । ११. तए णं तस्स मेहस्स सम्मापियरो इमं एयास्वं पीइदाणं वलयंति....तए णं मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए .... परिभाएउं दलयइ । —नायाधम्मका १११।२४ For Private & Personal Use Only धम्मो ਬਰਸੀ ਟੀਰ संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy