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________________ पंचम खण्ड | १९० में उत्थित होना अपरिहार्य है। इस उत्थान-क्रम में किसी भी स्तर की अवहेलना कर उसे गहित या हेय मानकर छोडने की आवश्यकता नहीं है। श्री अरविंद की सर्वांग योगसाधना की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह निम्न को रूपांतरित कर उच्चस्तर में प्रतिष्ठित होने का अमर संदेश देती है। देह-प्राण स्तर पर अधिकार करने के लिए दूसरे स्तर-मनबुद्धि पर प्रतिष्ठित होना आवश्यक है। इस मन-बुद्धि को अधिकृत करने के लिए मस्तिष्क में प्रतिष्ठित होना होगा। ऐसा अनुभूत करने के लिए सतत साधना करने की आवश्यकता है। स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तक जाने का एक सज्ञान प्रयास करना होगा। साधना जैसे-जैसे परिपक्व होती जायेगी वैसे-वैसे हम यह साक्षात अनुभूति करते जायेंगे । आधार के ऊर्ध्वस्तर में अधिष्ठित होना ही प्रभीष्ट प्रदायक नहीं है वरन् इससे भी ऊपर उठकर आधार के बाहर ब्रह्मरंध्र के ऊपर सहस्रार में तुरीय अवस्था में स्थित हो जाना है। यही परम सिद्धि है। नव-जीवन नव सृष्टि का उन्मेष हमारे अन्दर और बाहर हो रहा है। समस्त ग्रंथियां छिन्नविच्छिन्न हो जाती हैं। यही उपलब्धि षट चक्र भेदन द्वारा योगसाधना का परम प्राप्तव्य है। इस प्रकार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय कोश का भेदन कर जब साधक विज्ञानमय कोश में पहुँचता है तो उसके समस्त द्वन्द्व, संशय, संघर्ष परिसमाप्त हो जाते हैं। इसी अवस्था में विराट प्रात्मा से एकात्म होकर जीवात्मा का मिलन होता है। यही है जीवनमुक्ति । किन्तु विज्ञानमय कोश का भेदन कर उससे भी ऊपर जाना होगा जो सच्चिदानन्द का क्षेत्र है। विज्ञान का क्षेत्र क्रमशः अधिकाधिक उदार होता हुआ, बृहत् होता हुआ अन्त में असीम अनन्त में जाकर मिल जाता है। इस अनन्त में अनेक का बोध, विशेष का अभिज्ञान विलुप्त हो जाता है । वह अद्वैत, एक एवं अनिर्वचनीय हो जाता है। शरीर विनिमुक्त होकर जीव यह कैवल्य-मुक्ति पा जाता है। यही असीम अनन्त सत-वित्-प्रानन्द सृष्टि का, जीव का मूल उद्गम स्रोत है। सबके ऊपर सबके पीछे रहकर यह सबको धारण किये हुए है। यह चरम साम्य, निर्विकार, विशुद्ध अरूप अवस्था है। रूप का जब विकास, सृष्टि का प्रारंभ ज्योंही होता है त्योंहो अनन्त प्रानन्द-चित-सत अवतरित होकर विज्ञानमय क्षेत्र में नीचे पाता है। अनन्त-निराकार जब प्राकार धारण करना चाहता है तब आकार से अन्तरिक्ष, अन्तरिक्ष से मूर्दा, मूर्द्धा से हृदय, हृदय से नाभि, नाभि से उपस्थ, इस प्रकार एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में क्रमशः प्रविष्ट होता है, अवतरित होता है। सत्-चित्-पानन्द, विज्ञान, मन, प्राण और देह का क्रमशः अवतरण होता है। पारोहण क्रम में दो प्रमुख बाधाएं आती हैं। प्रथम देह-प्राण-बुद्धि-मन आदि का अतिक्रमण कर जब साधक ऊपरी क्षेत्रों में उत्थान करता है तब वह अगले केन्द्र में उपस्थापित हो जाता है, तब उसे नीचे के अतिक्रमित क्षेत्र छायामात्र माया, कृत्रिम, भ्रमपूर्ण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। वह ऊर्ध्व क्षेत्र में ही विचरण करना चाहता है। इसे ही चरम उपलब्धि मानने लगता है। अनन्त का स्वाद सान्त के प्रति विस्वाद उत्पन्न करने लगता है। अवरोहण क्रम की बाधा दूसरी है। इसमें साधक ऊपर उठे बगैर भागवती सत्ता को नीचे उतार लाने में लालायित रहता है । सान्त में रहकर अनन्त को पाना चाहता है। उक्त सभी योग साधनाएँ इसी प्रकार अनन्त को पकड़ने की चेष्टा करती हैं जैसे हठयोग देह और प्राण में, राजयोग मन में, ज्ञानयोग, भक्ति-कर्मयोग ज्ञान, भाव और संकल्प में, तान्त्रिक साधना भोगैषणा में अनन्त को पकड़ना चाहती है। किन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक पाधारकेन्द्र का पूरी तरह रूपांतरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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