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अर्चनार्चन / २३
म. सा. के निकट पहुँच कर प्राग्रहपूर्वक निवेदन किया कि यदि आपको थोड़ा अवकाश हो तो मेरी एक विनती सुन लें। प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारी जी म. सा. ने अपना काम बंद कर कहा"बोलिये आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि प्रापकी बात सुनने के लिये समय नहीं है, आपको जो भी कहना है विस्तार से धैर्यपूर्वक कहिये। जल्दी करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" प्रापके इतना कहने पर मैंने निवेदन किया -"अगला वर्ष पूजनीया महासतीजी की दीक्षास्वर्ण-जयन्ती वर्ष है । इस अवसर पर स्थायी प्रवत्ति का कुछ न कुछ कार्य होना चाहिये।"
"आपने अच्छा याद दिलाया। क्या करना चाहिए। यह पाप भी विचार कर बतावें. प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. सा. ने कहा ।
"पाप लोग क्या व्यर्थ की बातें कर रहे हैं ?" पूजनीया महासतीजी का स्वर सुनाई दिया । सम्भवत: आपने हमारी बात सुन ली थी और उसका अर्थ भी जान लिया था।
प्रार्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. मा. ने फिर आपको वह सब जानकारी दी जो हमारे बीच बातचीत के माध्यम से हुई थी। इस पर आपने पूर्णतः निलिप्त भाव से उस समय कहा था, "इस हेतु कोई कार्यक्रम मत बना लेना । ऐसा प्रचार कार्य मुझे कतई पसंद नहीं है।"
उस दिन इससे अधिक और कोई चर्चा नहीं हो पाई । एक दो दिन मैं नहीं जा सका। फिर एक दिन और इस विषय पर चर्चा हुई और वर्षावास समाप्त हो गया तथा इसके साथ ही उज्जैन से प्रापका विहार भी हो गया। मैं अपने इस प्रस्ताव पर स्वयं ही विचार करने लगा। पूजनीया महासतीजी की साहित्य के प्रति अभिरुचि और योग के प्रति विशिष्ट भावों को ध्यान में रख कर मैंने एक अभिनंदन-ग्रंथ के प्रकाशन का प्रस्ताव मन ही मन तैयार कर लिया था। इस प्रकार के ग्रंथ की प्रस्तावित रूपरेखा भी तैयार कर ली।
पूजनीया महासतीजी म. सा. अपनी शिष्याओं के साथ इन्दौर पहुँच गए। उसके पश्चात एक दिन मैं अभिनंदन-ग्रंथ की प्रस्तावित रूपरेखा लेकर सेवा में जा पहँचा । वंदनादि करने के पश्चात मैंने अापके सान्निध्य में आपकी समस्त शिष्याओं के सम्मुख पुन: अपना प्रस्ताव दोहराया और प्रस्तावित रूपरेखा भी पढ़कर सुना दी। पूजनीया महासतीजी म. सा. की ओर से तो मुझे एक प्रकार से निराशा ही मिल रही थी, किंतु आपकी शिष्याओं की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन मिला । मेरे लिये यही बहुत था। मैंने आगे विचार करने के लिये वह रूपरेखा आर्या श्री सुप्रभाकुमारीजी म. सा. 'सुधा' को सौंप दी।
एक बार जो चर्चा चल जाती है, वह फिर चलती रहती है और उस पर कुछ निर्णय होकर ही रहता है । इन्दौर, उज्जैन के श्रावकों को भी इस प्रस्ताव का पता चला, आपस में विचार-विमर्श होने लगा। इसी बीच मद्रास से कुछ श्रावक एवं विद्ववर्य डॉ. छगनलालजी शास्त्री का भी इन्दौर आगमन हुआ। जब डॉ. शास्त्रीजी को यह जानकारी मिली तो वे प्रसन्न । हो उठे और उन्होंने प्रस्तावित रूपरेखा में कुछ संशोधन कर उसे गति प्रदान की। प्रमुख श्रावकों तक भी प्रस्ताव पहुँच गया और रूपरेखा ब्यावर कार्यालय को भेज दी गई । ब्यावर से विद्यावारिधि पं. श्री शोभाचंद्रजी भारिल्ल का अनुकल उत्तर मिला, जिससे हमारे मन में उत्साह का संचार हुप्रा ।
आई घड़ी
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चरण कमल के वंदन की
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