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परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी / ३७
आपके मुखमण्डल पर सदैव मुस्कान और शांति विराजमान रहती है। कैसा भी प्रपंचबुद्धि और क्रोधी व्यक्ति भी आपके सम्पर्क में प्राकर शांत और विनत हो जाता है। अापके सामने प्राकर कोई कितनी भी कठोर वाणी बोले. अापकी सहजभाव-मद्रा में कोई अन्तर नहीं पाता । अापके हदय की क्षमा और सहिष्णता कभी भंग नहीं होती । आपकी प्रकृति की इसी विशेषता के कारण विरोधी और अपरिचित भी आपका भक्त बन जाता है।
सेवा की भावना तो आपमें कूट-कूटकर भरी है। छोटी-बड़ी साध्वियों के प्रति आपका व्यवहार सदा मातृवत रहता है। हमारा स्वास्थ्य ठीक न होने पर आपने कई बार सेवा-शुश्रूषा का भार अपने ऊपर लिया है। आपकी गोद में हमें माँ की ममता, पिता के दायित्व और मित्र के अपनेपन की अनुभूति हुई है।
पूज्य गुरुवर्या एक उच्चकोटि के साहित्यकार हैं । आपने जब-जब ज्ञान का मंथन किया है, तब-तब प्राध्यात्मिक मणियाँ निकालकर उन्हें शब्दबद्ध कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है । मैं तो यही कहूँगी
"सच तो यह है कि आपका जीवन ही एक ग्रंथ है। विकट परिस्थिति में शांत रहे तो संत बन जाओगे। उच्चादों पर चले आप तो एक पंथ बन जाओगे। अर्चना के अनुभवों को यदि बांटते चले।
पढ़ने के लिए हमारे आप एक ग्रंथ बन जाओगे ॥" आधुनिक युग में अधिकांश साहित्यकार केवल आत्मसंतुष्टि के लिए रचना करते हैं, किन्तु आपका साहित्य लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। आपकी निम्नलिखित रचनाएँ आपकी विद्वत्ता का प्रमाण हैं-'आम्रमंजरी', 'अर्चना के फूल', 'अर्चना और आलोक', 'जैनयोग ग्रन्थचतुष्टय', 'जीवन सन्ध्या की साधना', 'हिम और प्रातप' आदि ।
आपकी मान्यता है कि नश्वर के लिए देह के स्थान पर अनश्वर आत्मा का शृगार और परिष्कार करना चाहिए । वस्तुतः आध्यात्मिक जीवन अन्तःकरण में ही हो सकता है, वही स्वर्गराज्य है जो किसी बाह्यसूत्र पर निर्भर नहीं करता। आन्तरिक जीवन का अत्यधिक प्राध्यात्मिक महत्त्व है और बाह्यमूल्य वहीं तक है जहाँ तक वह आन्तरिक स्थिति को अभिव्यक्त करता है।
आप पागमसूत्रों के कुशल व्याख्याता भी हैं । कठिन से कठिन सूत्र को भी सरल भाषा में व्याख्यात कर देते हैं, जिसे श्रावक सहज ही प्रात्मसात कर लेता है। ____समाजसुधारक के गुण भी आप में हैं । समाज में फैली धार्मिक, सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों को दूर करने को भी आप सतत प्रयत्नशील रहती हैं । समय-समय पर मैंने आपके प्रवचन सुनते हुए, आपके द्वारा रचित पुस्तकें पढ़ते हुए ऐसा अनुभव किया है कि आप समाज को जो दिशा प्रदान कर रहे हैं, वह एक उपलब्धि है। मृत्युभोज को आप एक महारोग मानते हैं। आपका कथन है,
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