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________________ Jain Educatidernational द्वितीय खण्ड / ३६ लिए उत्साह दिया । मेरा डर दूर हो गया, संकोच हट गया । फिर तो मैं प्रतिदिन भाषण देने लगी ।" तबसे आपने पीछे मुड़कर नहीं देखा और इस कला को अपनी प्रतिभा और अध्ययन से परिष्कृत किया । प्रवचन सभा में श्राप अपनी वाणी से श्रोताओं को सम्मोहित कर लेती हैं । सभी मंत्रमुग्ध होकर पीयूषवर्षी वाणी का अमृतपान करते हैं । आप प्रवचन के माध्यम से जीवन की अतल गहराइयों को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि श्रोतागण चिन्तन की चाँदनी में भाव-विभोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें नवीन दिशा मिलती है । प्रापके विचार कभी नीरस नहीं होते । रोचकता के लिए अनेक उदाहरण भी प्रस्तुत करती हैं, हम जिस दुनिया में जीते हैं वह अजीब है, विचित्र है, यहाँ सत्य का अनुभव करना तो दूर, सत्य को स्पष्ट कहना भी बहुत कठिन है । इस संदर्भ में प्राप प्रायः एक उदाहरण देती हैं- महाराजा श्रेणिक ने एक बूढ़ा हाथी गांववालों को सौंपते हुए कहा- इस हाथी को ले जाओ, इसकी सालसंभाल करना । स्वास्थ्य के समाचार प्रतिदिन देते रहना किन्तु इसके मरने की बात कभी न कहना । जो कोई ऐसा कहेगा, उसे कड़ा दंड दिया जाएगा । गाँव वाले असमंजस में पड़ गये । हाथी एकदम बूढ़ा था । मरियल था । दस दिन बीते कि हाथी की मृत्यु हो गई । अब समस्या यह कि राजा को क्या कहा जाय ? इस गाँव में रोहक नाम का बुद्धिमान नटपुत्र रहता था । उसने कहा- चिन्ता की कोई बात नहीं है । समस्या का समाधान हो जाएगा । एक आदमी को समझा-बुझाकर राजा के पास भेजा । राजा ने पूछा- कैसे आए ? उसने कहा- आपने जो हाथी भेजा था, वह न खाता है, न पीता है, न साँस ही लेता है । 'तो क्या वह मर गया ?' "यह तो आप कह सकते हैं ।" ऐसे ही हैं दुनियवी लोग जो सत्य को शब्दों के द्वारा कह देते हैं किन्तु जीवन में नहीं उतारते हैं । कुछ स्वरूप समझते हुए भी सत्य कथन नहीं कर सकते हैं । आप एक निर्भीक और स्पष्टवादी वक्ता हैं । यदि मैं कहूँ कि श्रोता श्रापकी वाणी से प्रभावित होकर जीवन की समस्याओं और मानसिक क्लेशों से दूर हो जाते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रापके प्रवचन कभी भी एक वर्ग विशेष के लिए नहीं होते हैं । यही कारण है कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी श्राप के प्रवचन सुनने के लिए आते हैं और ज्ञान का असीम भंडार लेकर जाते हैं । संतोषी के विषय प्रापका कथन है 1 "संतोषी व्यक्ति सुखी होकर प्रसन्न रहता है, उसका सर्वत्र प्रभावशाली असर पड़ता है । संतोष आंतरिक गुण है । धैर्य और विवेक के अवलम्बन पर ही इसका विकास होता है । अपरिग्रह पर यह बढ़ता है। त्याग से वह फलता है और साधना से यह फूलता है । वह भोग से हटकर रोग को पराङ्गमुख करता है । संतोषी व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर समष्टि बन जाता है । उसकी जीवन- सरिता मानव जाति के विराट सागर में मिल जाती है ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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