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________________ परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन को सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी | ३५ मार्ग सुझाया है । स्वाध्याय में भी आपकी विशेष अभिरुचि है । बत्तीस आगमों का आपने बड़ी गहनता से अध्ययन किया है। स्वाध्याय पर आप विद्वानों से विचारविमर्श भी करती हैं । आपके उत्तर सुनकर विद्वान, लत्त्ववेत्ता दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं । आत्मा और शरीर का क्या संबंध है ? इसपर पूज्य गुरुणीजी म. सा. स्पष्ट करते हैं- "अात्मा और शरीर दोनों सजातीय नहीं हैं। प्रात्मा चेतन है और अरूप है। शरीर जड़ है तथा रूपवान है । प्रश्न है कि चेतन और जड़ का, अरूप और रूपवान का, जो बिल्कुल ही विरोधी हैं उनका परस्पर सम्बन्ध कैसे हो सकता है !" जैनदर्शन के अनुसार पूज्य गुरुणीजी म. सा. समाधान की भाषा में फरमाते हैं- "संसार में जितनी भी आत्माएँ हैं, वे सूक्ष्म और स्थूल इन दोनों प्रकार के शरीरों से वेष्टित हैं। एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर नहीं रहता पर सूक्ष्म शरीर बना रहता है । सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा स्थूल शरीर धारण करता है और सूक्ष्म शरीर एवं आत्मा का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी है । अपश्चानुपूर्वी का तात्पर्य है जहाँ पर पहले और पीछे का कोई विभाग न हो, पौर्वापर्य न हो । संसार दशा में जीव और पुद्गल का कथंचित् सादश्य होता है। अतः उनका सम्बन्ध होना संभव है। आत्मा का अमूर्तरूप विदेह दशा में प्रकट होता है। अमूर्त बनने के पश्चात् फिर उसका मूर्त द्रव्य के साथ कोई सबध नहीं।" आप सम्पर्क में आने वाले जिज्ञासूत्रों को भी ध्यानसाधना और स्वाध्याय की प्रेरणा देती हैं। हजारों-हजार जिज्ञासजन आपकी प्रेरणा से ध्यान एवं स्वाध्याय के मित्र बन गये हैं।। ___मुझे आपके सान्निध्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त है। मैं देखती एवं अनुभव करती रहती हूँ-अनेकानेक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति प्रायः आपकी सेवा में आते रहते हैं। यह देखकर मैं विस्मित रह जाती हैं कि आप अत्यधिक सरल एवं सहज ढंग से उनकी समस्याओं का समाधान कर देती हैं। उदास चेहरों पर प्रसन्नता छा जाती है । वे लोग सदा के लिए आपके भक्तों की पंक्ति में अंकित हो जाते हैं। सप्तशक्तियों में तीसरी शक्ति है 'वाणी' । स्पष्ट है कि मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न एक वाणी प्राप्त है। अन्य प्राणियों की वाणी इतनी स्फुट और स्पष्ट नहीं है जितनी मनुष्य की है । वाणी के उपयोग की एक मर्यादा यह है कि वाणी से सदैव सत्य का उच्चारण हो। दूसरी मर्यादा यह है कि वाणी से मितभाषण होना चाहिये। आपने पहला प्रवचन वि सं. १९९६ के वर्षावास में डेह में धनतेरस के दिन दिया। आप तब शास्त्रों का वाचन कर रही थीं। व्याख्यान देने का अभ्यास नहीं था। इस संदर्भ में आपने हिम और आतप में लिखा है-"मेरा यह पहला प्रवचन (Maiden speech) था । मेरा हृदय काँप रहा था, हाथ कांप रहे थे, सारा शरीर ऐसे काँप रहा था जैसे पौष की सर्दी में ठिठुरता हो । फिर भी साहस करके मैंने शास्त्र की गाथा का उच्चारण किया, उसका अर्थ सुनाया टूटी-फूटी भाषा में, व्याख्या भी की। लोगों ने मेरे टूटे-फूटे शब्दों को पसन्द किया और मुझे बोलने के Jain Education International For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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