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द्वितीय खण्ड | ३४
जैसे विषाक्त जन्तु में भी प्रेम एवं श्रद्धा का यह रूप चमत्कृत करने वाला था।
आपकी साधना के मधुमास के समक्ष विपत्तियों का पतझड़ कभी पनप नहीं पाया। वह कोई और होंगे जिनके पांव रास्ते का एक छोटा-सा कंटक चीर देता है । आपने काँटों में भी फूलों की कोमलता अनुभव की है । आपके पाँव से जहाँ-जहाँ. कंटक चुभने से रक्त की बूंद गिरी है, वहीं प्रेम और सद्भावना के पुष्प खिले हैं।
_ विहार के दौरान आपने जीवन को इतने निकट से देखा है कि उसके सूक्ष्म से सक्ष्म तंत को प्राप तरन्त पहचान लेती हैं। वस्ततः घमक्कड को जीवन की जितनी परख होती है उतनी अन्य किसी को नहीं होती। आपके लिए सारी धरती प्रापका घर है, इसके सभी प्राणी आपके अपने हैं ।
आपके विहार के क्षेत्र मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश रहे हैं। मैं गत १७ साल से गुरुणीजी म. सा. के सान्निध्य में कुछ सीखने का प्रयास कर रही हूँ। आपकी मुझ पर महती कृपा है और मुझमें भी आपके प्रति अन्तःकरण से अटूट श्रद्धा, विश्वास एवं प्रास्था है। आपके आशीर्वाद और प्रेरणा से मैं आप ही के पदचिह्नों पर चलने की कामना करती हूँ। मैं आपके बहुमुखी व्यक्तित्व से प्रभावित हुई हूँ। यद्यपि आपके व्यक्तित्व के विषय में लिखना मुझ जैसी अल्पज्ञा के लिए संभव नहीं है किन्तु आपके पाशीर्वाद के प्रताप से मैं दिव्य व्यक्तित्व को शब्दबद्ध करने का प्रयास कर रही हूँ।
जैनपरम्परा में ध्यान और स्वाध्याय का विशेष महत्त्व है। ध्यान और स्वाध्याय के प्रति पूज्य गुरुणीजी म. सा. के मन में प्रारम्भ से ही आकर्षण रहा है ।
आप नित्य ध्यान और स्वाध्याय करती हैं। इन दोनों को आपने जैसे अपना मित्र बना लिया है । ध्यान तभी लग सकता है जब चित्त में एकाग्रता हो। आप जब भी ध्यान करती हैं, आपका मन उसी पल केन्द्रित हो जाता है । कहीं कोई अन्य विचार आपके मन में नहीं आते। ध्यान करते समय आपके चेहरे पर असीम शान्ति प्रा जाती है । आपका चेहरा शांत और आलोक-निमज्जित दिखाई देता है।
__ बाहर की दुनिया जितनी छल, कपट और प्रवंचना से भरी हुई है, मन की दुनिया उतनी ही शांत, निर्मल और सहज है । योगदर्शन में आपकी विशेष रुचि है । प्राप नियमित रूप से ध्यान करती हैं । चित्त को निर्विचार छोड़ देना ही ध्यान है । ध्यान प्रक्रिया है कोई क्रिया नहीं। ध्यान का अर्थ है जो निरन्तर चल रहा है, उसे चित्त में विराम देना । आप जब-जब ध्यान में लीन होते हैं तो केवल दर्शन और ज्ञान से साक्षात्कार करते हैं। एक अद्भुत शांत आलोक में डूब जाते हैं। आप प्राय: कहते हैं-ध्यानमुद्रा में शरीर शिथिल छोड़ देना चाहिए। इससे देहबोध विलीन हो जाता है । परिणामतः सारे तनाव दूर हो जाते हैं । भीतर एक रिक्त स्थान रह जाता है जहाँ न कोई विचार होता है, न कोई रूप है, न कोई प्राकृति, न कोई ग्रंथ और न कोई ध्वनि रह जाती है । इसी अकेलेपन में ही उस 'स्व' का अनुभव होता है, जिसे भगवान् महावीर ने आत्मा कहा है, जिसको शंकर ने ब्रह्म कहा है । आपने ध्यानयोग की शिक्षा देकर अन्यान्य व्यक्तियों के तनावग्रस्त मन को शांति का
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