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________________ परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन को सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी | ३३ "जिस हाल में जीना मुश्किल है, उस हाल में जीना लाजिम है।" आपकी अभिरुचि दर्शन में प्रारम्भ से ही थी। आपने जैन, बौद्ध, वैदिक, द्वैत, अद्वैत आदि विभिन्न दर्शनों का न केवल अध्ययन ही किया अपितु उन पर विभिन्न कोणों से चिंतन करते हुए नवीन आयाम स्थापित किए। दर्शन के अध्ययन ने अापके प्रवचन को तर्कसिद्ध बनाने में योगदान दिया। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी श्रादि विभिन्न भाषाओं का ज्ञान भी अपने प्राप्त किया। सन्त जिस रास्ते से गुजरता है, वहाँ की मिट्टी की महक, भाषा और संस्कृति को साथ ले चलता है । पूज्य गुरुवर्या गत पचास वर्षों से विभिन्न प्रांतों में विहार कर रहे हैं। उनकी वाणी में विभिन्न भाषाओं के शब्दों का आ जाना सहज ही है। जैनसाधु प्रकृति से यायावर होता है । पूज्य गुरुणीजी म. सा. भी गत पचास वर्षों से अनवरत विहार कर रही हैं, गांव-गाँव, शहर-शहर में वह अपने दिव्यचरणों की छाप छोड़ चुकी हैं। कभी तपते रेगिस्तान की गर्म हवाओं और कभी हिम की ठण्डी हवाओं के बीच आपने विहार किया है। घुमक्कड़ी की इस प्रकृति ने आपके व्यक्तित्व को तराशा है एवं ज्ञानवृद्धि की है। मार्ग की बाधाओं के समक्ष आप कभी नहीं झुकीं अपितु बाधाएँ ही नतमस्तक हो गयीं। _ वि. सं. १९४४ मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी रविवार को प्रात: ८ बजे जोधपुर जिले के नोखा गाँव में दीक्षा लेकर आप साधनापथ पर चल पड़ीं, तब से अब तक घुमक्कड़ी के अनेक अनुभव आपके साथ जुड़ चुके हैं। आपने मार्ग में कहीं हरे-भरे लहलहाते खेत देखे तो कहीं दुष्काल के कारण धरती का फटता हुआ कलेजा देखा । वि.सं. १९९६ में मरुधर देश में भयंकर अकाल पड़ा था। अन्नाभाव से सैकड़ों मनुष्य मर गये थे। आपने जब डेह से विहार किया तो जंगल में अनेक पशु-पक्षियों के शव सड़ रहे थे। रास्ते में जगहजगह हड्डियों के ढेर परिलक्षित होते थे। काश्मीर में विहार के समय आपने अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य का साक्षात्कार किया । वहाँ प्रत्येक पत्ती के हिलने में लय थी। हवाओं में संगीत था और झरनों में नाद था। आपने कहीं गाँव की अमराइयाँ देखीं तो कहीं महानगरों को गगनचुम्बी इमारतें देखीं, जिनके नीचे खड़ा हुआ आदमी कितना छोटा दिखाई देता है। कहीं रास्ते में कोई डोली ले जाते हुए कहार देखे तो कहीं मुर्दे को ले जाते हुए रोते बिलखते उसके परिजन । आपने किसी द्वार पर दीपावली के दीप देखे तो कहीं मुर्दे के पास उनके दीप देखे । आपने कहीं जंगल का भयावह सन्नाटा देखा तो कहीं शोर का कभी न रुकने वाला सागर । आपको कहीं मार्ग में मनुष्य के वेष में सर्प मिले तो कहीं सर्प के रूप में भक्त । वि. सं. १९९८ में आसोप से वर्षावास समाप्त होने पर विहार किया तो रास्ते में कुण्डली लगाए सर्प मिला । म. सा. समीप पहुँचे तो उसने अपने शरीर को फैला दिया और फन को बार-बार जमीन पर झुकाकर मानो नमन करने लगा । सांप Jain Education International For Private & Personal Use Only JIAiw.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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