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________________ आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की Jain Education International अर्चनार्चन / १८ पूज्य गुरुवर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी का व्यक्तित्व वास्तव में शतमुखी ज्योतिर्मयता लिये है वे परम वैराग्यवती हैं, जो बाल्यावस्था में ही पति वियोग-जनित शोक को संयममय श्लोक में बदल डालने के उनके अद्भुत पराक्रम से प्रकट है । : आगमों का पुनः पुनः अनुशीलन, गहन शास्त्राध्ययन, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन में उनकी सहज रस है। बाल्यावस्था से ही उनके यह क्रम अनवरत गतिशील है, जिसकी फल निष्पति उनके प्रखर वैदुष्य में अभिव्यक्त है, जो बहुमुखी साहित्य सर्जन के वटवृक्ष के रूप में अनेक शाखा प्रशाखात्रों में प्रस्फुटित हुआ है । अध्यात्मयोग के पावन संस्कार उनको जन्म-जन्मान्तर से प्राप्त हैं, जो उनके तपोमय, संयममय साधनामय जीवन में उत्तरोतर पल्लवित पुष्पित और सुफलित होते गये, जिन्होंने 1 उनको एक महान् योगेश्वरी का शाब्दिक नहीं, तात्त्विक विरुद प्रदान किया । साधनामय जीवन के दो पहलू हैं-धात्मकल्याणार्थ सतत उचत, पराक्रमशील रहना साथ ही साथ जितना जैसा सध सके, लोककल्याणार्थ प्रयत्न करना । स्व श्रेयस् - उपक्रम, सम्यक् व्रताराधन, संयमानुशीलन -- ये साधक जीवन के प्रथम पहलू के अन्तर्गत हैं, जिनका प्रत्येक साधक, साधिका द्वारा अनिवार्यतः सम्पूर्णरूपेण पालन किया जाना वांछनीय है। लोककल्याणमूलक दूसरा पहलू साधक के लिए अनिवार्य तो नहीं है, किन्तु यदि उसे भो साध लिया जाए तो सोने में सुगन्धवत् है । अपनी बहुमूल्य उपलब्धियों द्वारा जन-जन को अनुप्राणित करना, प्रेरित करना, जिस धाध्यात्मिक आनन्द की प्राणी को जन्म-जन्मान्तर से चाह है, उसे उपलब्ध करने का उसे मार्ग दिखाना यह महान् उपकार का कार्य है। श्रमणजीवन का “तिन्नाणं तारयाणं" मूलक वैशिष्ट्य इसीसे साधित होता है । पूज्य गुरुवर्या महासतीजी श्री अर्चनाजी के जीवन के दोनों पक्ष सर्वथा परिपूर्ण और फल- निष्पन्न हैं। उनके जीवन का क्षण-क्षण आत्मोपासना के पावन कृत्यों से जुड़ा रहा है. आज भी जुड़ा है । उनका योग से, साधना से तादात्म्य सघ गया है, उन्होंने अनाहत नाद की स्थिति प्राप्त करली है, जहाँ सब सहजरूप में चलता है, सोते-जागते, उठते-बैठते कुछ अवरोध नहीं प्राता । यह निश्चयनयानुगत है । व्यावहारिक दृष्टि से जन-जन के कल्याणार्थ उनका दिव्य प्रेरणा-स्रोत प्रवचन, विवेचन, शिक्षण, देशना, चर्चा आदि के रूप में सदा प्रवहणशील रहता है । केवल किसी स्थान विशेष पर नहीं, वरन् स्थान-स्थान पर । महासतीजी भारतवर्ष के अर्धाधिक भाग को अपनी पद-यात्राओं द्वारा पवित्र किया है। हिमाचल एवं काश्मीर की पार्टियों को उन्होंने अध्यात्म के मुखर घोष से निनादित किया है। सचमुच वे धन्य हैं, अतिधन्य हैं। जो कुछ उन्होंने अब तक किया है, कर रही हैं, उससे एक ऐसा प्रेरणास्पद इतिहास सर्जित हुआ है, जो युग-युग तक साधना-पथ के पथिक पथिकाश्रों को प्रगति का नव संदेश देता रहेगा । एवं प्रेम से धापूर्ण , पूज्य गुरुवर्या हम ग्रन्तेवासिनियों के लिए तो प्राध्यात्मिक ममता साक्षात् मातृस्वरूपा हैं। माँ जैसे अपनी नन्हीं-नन्हीं बालिकाओं का अपनी स्नेहमयी वात्सल्य मयी छत्र-छाया में लालन-पालन करती है, महासतीजी ठीक उसी प्रकार हम सबका दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से परिपालन, परिपोषण, परिवर्धन करती हुई हमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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