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________________ अर्चनार्चन / १९ जीवन-पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होते रहने की शक्ति प्रदान करती हैं। जो कुछ हम हैं, उसमें हमारा कुछ नहीं है, सब कुछ परमश्रद्धास्पदा, समादरणीया श्रीगुरुणी म. सा. की देन है। पूजनीया गुरुणीजी म. के कितने उपकार हम पर हैं, हमने उनसे कितना प्राप्त किया है, शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। उन उपकारों का हम अपना जीवन देकर भी बदला नहीं चुका सकतीं। यह तो मैंने अपनी तथा अपनी सहवर्तिनी साध्वियों की व्यक्तिगत चर्चा की, पूज्य गुरुणीजी म. सा. के हम पर तो अगणित उपकार हैं ही, देश के, प्रान्त-प्रान्त के उन लाखों भाई-बहिनों पर भी, जो उनके सम्पर्क में आये, जिन्होंने उनसे मार्ग-दर्शन प्राप्त किया, लाम उपकार नहीं हैं । मन में विचारोद्वेलन होता रहा इस समय, जबकि पूज्य गुरुणीजी म. के संयममय जीवन की अर्ध-शताब्दी पूर्ण हो रही है, उनकी दीक्षा-स्वर्णजयन्ती का मंगलमय अवसर है, कितना अच्छा हो, ऐसी परोपकारी महान् प्रात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापनार्थ, उनके अभिनन्दनार्थ एक ग्रन्थ प्रकाशित हो । हम जानती हैं, और भी सब जानते हैं, गुरुणोजी म. एक महान् अध्यात्मयोगिनी हैं, वे नाम-श्रुति, यशस्विता, प्रशस्ति तथा लोकेषणा से सर्वथा विरत हैं। ऐसा कुछ हो, उनकी पसंद की बात नहीं है, किन्तु हमारा कर्तव्य तो है। साथ ही साथ एक और विचार मन में कौंध गया, कृतज्ञता-ज्ञापन तक ही हमारा कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता, ज्ञानियों के, गुणियों के गुणों का प्रकाशन, समादर, अभिनन्दन गुणग्राही जनों का एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका मुख्य प्राशय जन-जन को गुणों की पोर प्रेरित करना, आकृष्ट करना एवं अग्रसर करना है। यही कारण है शास्त्रों में ज्ञानीजनों का सत्कार, सम्मान, गुण-कीर्तन ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय का हेतु माना गया है। वस्तुत: वह सम्मान, अभिनन्दन व्यक्ति का न होकर आत्मा के सदगुणों का है। साहस नहीं हुआ, इसे छोटे मुंह कहीं बड़ी बात न मान लिया जाए, इस आशंका से उन्मुक्त रूप में मैं अपने भाव व्यक्त नहीं कर सकी। किन्तु एक शुभ संयोग बना। पूज्य गुरुवर्या इन्दौर में विराजित थीं। उनकी सेवा में हम सब साध्वियाँ बैठी थीं । डॉ. तेजसिंह जी गोड़, जो महासतीजी के प्रति बड़े श्रद्धालु हैं, आये हुए थे। सुझाव के रूप में वे बोलेमहासतीजी म. ने आपको, हमको, समाज को, मानवजाति को बहुत दिया है, हमें चाहिए, उनके अभिनन्दन में ग्रन्थ निकालें । मैं तो यह चाहती हो थी, सहसा ज्योंही ये विचार प्राये, मैं हर्षोत्फल्ल हो उठी। मैंने समर्थन ही नहीं किया, इसे अति आवश्यक बताया और अपनी अन्तर्भावना भी व्यक्त की, जिसे मैं अपने मन में संजोये थी। मेरी सहतिनी सभी साध्वीबहिनों ने इसका मोल्लाम, मोत्माह अनुमोदन किया। वयोवृद्ध विद्वान्, समाजगौरव श्रीमान् पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, संग्रेजी आदि भाषायों तथा भारतीय दर्शनों के राष्ट्रविश्रुत मनीषी डॉ० छगनलालजी शास्त्री ग्रादि को जब इन विचारों से अवगत कराया गया तो वे बहत प्रसन्न हए और उन्होंने इस विचार को बड़ा बल दिया। श्रीमान् मायरमलजी चोरडिया (मद्रास), श्रीमान जेठमलजी सा० चोरडिया, बंगलौर (नोखा), श्रीमान् घीसूलालजी सा० बम्ब (वेंगकांग), श्रीमान् पारसमली बाफना (धूलिया), श्रोमान् कृष्णचन्दजी सा० चोरडिया, मद्रास (नोखा) आदि श्रावकवृन्द भी इस सम्बन्ध में जान भार बड़े हषित हए, यह कार्य शीघ्रातिशीघ्र मोत्साह सम्पन्न हो, ऐसी भावना प्रकट की। आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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