SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पागलपन का पलायन / १४१ है । मैं तो यही प्रार्थना करती हूँ कि शासन देव ऐसी परोपकारी, पर-दुःखकातर महासतीजी की कृपा हम पर सदा बनाये रखे। 'मन म्हारो चरणां बसे रे ज्यूं चकरी में डोर.' पागलपन का पलायन - उदितप्रकाश कोठारी, इन्दौर मेरे माता-पिता और मैं मूर्तिपूजक जैन समाज के हैं। अपने माता-पिता का मैं इकलौता पुत्र हूँ, मेरे एक बहिन और है। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ गया और पागलपन की स्थिति में मैं घर से निकल गया। मुझे खाने-पीने की भी सुध नहीं रही । मैं कौन हूँ, कहाँ का रहने वाला हूँ ? आदि किसी भी काम का मुझे भान नहीं रहा । मैं महीनों घर से बाहर रहकर इधर-उधर भूखा-प्यासा भटकता रहता । मेरी इस स्थिति से माता-पिता अत्यन्त दुःखी रहते । उनका दुःखी रहना भी स्वाभाविक था। मेरा उपचार भी करवाया गया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ, "उल्टे मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की" वाली कहावत चरितार्थ होने लगी। यह मेरा भाग्योदय ही था कि परम विदुषी महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चनाजी' का इन्दौर पदार्पण हुआ। कुछ सजातीय बंधुओं के मुख से महासतीजी की महिमा सुनने की मिली तो मेरे माताजी एवं पिताजी मुझे साथ लेकर महासतीजी की सेवा में जानकीनगर में उपस्थित हुए। महासतीजी के प्रथम बार दर्शन करते ही मेरा मन परम शांति का अनुभव करने लगा। महासतीजी ने बहुत ही प्रेमपूर्वक आत्मीयता से मुझसे बातचीत की और मंगलपाठ सुनाकर कहा कि तुम सदैव मांगलिक सुनने आया करो। मैं भी अधिक से अधिक समय महासतीजी के सानिध्य में व्यतीत करने की भावना रखने लगा । उसके पश्चात् मैं दिन में चार पाँच बार जब भी इच्छा होती महासतीजी की सेवा में उपस्थित हो जाता और मांगलिक सुनता, बातें करता । धीरे-धीरे मेरा पागलपन एकदम दूर हो गया । आज मैं अपने आपको पूर्ण स्वस्थ अनुभव करता हूँ। मुझे अब किसी भी प्रकार का कोई भी रोग नहीं है। अब मैं एक अच्छी सी नौकरी भी करता हूँ। महासतीजी के पावन सान्निध्य से न केवल मुझे स्वास्थ्य लाभ हुआ वरन् आर्थिक लाभ भी हुअा (नौकरी जो करने लगा)। इन सबसे बढ़कर मुझे प्राध्यात्मिक लाभ हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy